कुल पेज दृश्य

शुक्रवार, 6 फ़रवरी 2015

गीता दर्शन--(भाग--6) प्रवचन--141

दो मार्ग: साकार और निराकार(प्रवचनदूसरा)

अध्‍याय—12
सूत्र—

ये त्‍वक्षरमनिर्दश्यमव्‍यक्‍तं यर्युयासते।
सर्वत्रगमचिन्‍त्‍यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम्।। 3।।
संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबद्धय:।
ते प्राम्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रता:।। 4।।

और जो पुरूष इंद्रियों के समुदाय को अच्छी प्रकार वश में करके मन— बुद्धि से परे सर्वव्यायी, अकथनीय स्वरूप और सदा एकरस रहने वाले, नित्‍य, अचल, निराकार, अविनाशी, सच्चिदानंदघन ब्रह्म को निरंतर एकीभाव से ध्यान करते हुए उपासते है, वे संपूर्ण भूतों के हित में रत हुए और सब में समान भाव वाले योगी भी मेरे को ही प्राप्त होते हैं।
पहले कुछ प्रश्न। एक मित्र ने पूछा है कि भजन भी करते हैं, प्रभु का स्मरण भी करते हैं। लेकिन कोई इच्छा कभी पूरी नहीं होती!


 हां मांग है, वहा प्रार्थना नहीं है। और मांग ही प्रार्थना को असफल कर देती है। प्रार्थना इसलिए असफल गई कि आपको प्राप्ति हुई, नहीं हुई—ऐसा नहीं। प्रार्थना तो उसी क्षण असफल हो गई, जब आपने मांगा। जो परमात्मा के द्वार पर मांगता जाता है, वह खाली हाथ लौटेगा। जो वहा खाली हाथ खड़ा हो जाता है बिना किसी मांग के, वही केवल भरा हुआ लौटता है।
परमात्मा से कुछ मांगने का अर्थ क्या होता है? पहला तो अर्थ यह होता है कि शिकायत है हमें। शिकायत नास्तिकता है। शिकायत का अर्थ है कि जैसी स्थिति है, उससे हम नाराज हैं। जो परमात्मा ने दिया है, उससे हम अप्रसन्न हैं। जैसा हम चाहते हैं, वैसा नहीं है। और जैसा है, वैसा हम नहीं चाहते हैं।
शिकायत का यह भी अर्थ है कि हम परमात्मा से स्वयं को ज्यादा बुद्धिमान मानते हैं। वह जो कर रहा है, गलत कर रहा है। हमारी सलाह मानकर उसे करना चाहिए वही ठीक होगा। जैसे कि हमें पता है कि क्या है जो ठीक है हमारे लिए।
अगर हम बीमार हैं, तो हम स्वास्थ्य मांगते हैं। लेकिन जरूरी नहीं कि बीमारी गलत ही हो। और बहुत बार तो स्वास्थ्य भी वह नहीं दे पाता, जो बीमारी दे जाती है।

 हम दुखी हैं, तो सुख मांगते हैं। पर जरूरी नहीं कि सुख सुख ही लाए। अक्सर तो ऐसा होता है कि सुख और बड़े दुख ले आता है। दुख भी माजता है, दुख भी निखारता है, दुख भी समझ देता है। हो सकता है, दुख के मार्ग से निखरकर ही आप जीवन के सत्य को पा सकें और सुख आपके लिए महंगा सौदा हो जाए।
इसलिए क्या ठीक है, यह जो परमात्मा पर छोड़ देता है, वही प्रार्थना कर रहा है। जो कहता है कि यह है ठीक और तू पूरा कर, वह प्रार्थना नहीं कर रहा है, वह परमात्मा को सलाह दे रहा है।  आपकी सलाह का कितना मूल्य हो सकता है? काश, आपको यह पता होता कि क्या आपके हित में है! वह आपको बिलकुल पता नहीं है। आपको यह भी पता नहीं है कि वस्तुत: आप क्या चाहते हैं! क्योंकि जो आप सुबह चाहते हैं, दोपहर इनकार करने लगते हैं। और जो आपने आज सांझ चाहा है, जरूरी नहीं है कि कल सुबह भी आप वही चाहें।
पीछे लौटकर अपनी चाहो को देखें। वे रोज बदल जाती हैं; प्रतिपल बदल जाती हैं। और यह भी देखें कि जो चाहें पूरी हो जाती हैं, उनके पूरे होने से क्या पूरा हुआ है? वे न भी पूरी होतीं, तो कौन—सी कमी रह जाती? ठीक हमें पता ही नहीं है। हम क्या मांग रहे हैं पुन क्यों मांग रहे हैं? क्या उसका परिणाम होगा?
सुना है मैंने कि एक सिनागाग में, एक यहूदी प्रार्थना—मंदिर में, एक का यहूदी प्रार्थना कर रहा था। और वह परमात्मा से कह रहा था कि अन्याय की भी एक हद होती है! सत्तर साल से निरंतर, जब से मैंने होश सम्हाला है—उस यहूदी की उम्र होगी कोई पचासी वर्ष—जब से मैंने होश सम्हाला है, सत्तर वर्ष से तेरी प्रार्थना कर रहा हूं। दिन में तीन बार प्रार्थनागृह में आता हूं। बच्चे का जन्म हो, कि लड़की की शादी हो, कि घर में सुख हो कि दुख हो, कि यात्रा पर जाऊं या वापस लौटु कि नया धंधा शुरू करूं, कि पुराना बंद करूं, ऐसा कोई भी एक काम जीवन में नहीं किया, जो मैंने तेरी। प्रार्थना के साथ शुरू न किया हो। जैसा आदेश है धर्मशास्त्रों में, वैसा जीवन जीया हूं। पर— स्त्री को कभी बुरी नजर से नहीं देखा। दूसरे के धन पर लालच नहीं की। चोरी नहीं की। झूठ नहीं बोला।। बेईमानी नहीं की। परिणाम क्या है? और मेरा साझीदार है, स्त्रियों। के पीछे भटककर जिंदगीभर उसने खराब की है। तेरी प्रार्थना कभी उसे करते नहीं देखा। चोरी, बेईमानी, झूठ, सब उसे सरल है। जुआड़ी है, शराब पीता है। लेकिन दिन दूनी रात चौगुनी उसकी स्थिति अच्छी होती गई है। अभी भी स्वस्थ है। मैं बीमार हूं। धन का एक टुकड़ा हाथ में न रहा। सिवाय दुख के मेरे पल्ले कुछ भी नहीं पड़ा है। कारण क्या है? और मैं यह नहीं कहता हूं कि तू मेरे साझीदार को दंड दे। सिर्फ इतना ही पूछता हूं कि मेरा कसूर क्या है? इतना अन्याय मेरे साथ क्यों? यह कैसे न्याय की व्यवस्था है?
सिनागाग में परमात्मा की आवाज गंजी कि सिर्फ छोटा—सा कारण है। बिकाज यू हैव बीन नैगिंग मी डे इन डे आउट लाइक एन आथेंटिक वाइफ। एक प्रामाणिक पत्नी की तरह तुम मेरा सिर खा रहे हो जिंदगीभर से, यही कारण है, और कुछ भी नहीं। तुम तीन दफे प्रार्थना क्या करते हो, तीन दफे मेरा सिर खाते हो!
आपकी प्रार्थना से अगर परमात्मा तक को अशांति होती हो, तो आप ध्यान रखना कि आपको शाति न होगी। आपकी प्रार्थनाएं क्या हैं? नैगिंग। आप सिर खा रहे हैं। ये प्रार्थनाएं आपकी आस्तिकता का सबूत नहीं हैं, और न आपकी प्रार्थना का। और न आपका हार्दिक इन मांगों से कोई संबंध है। ये सब आपकी वासनाएं हैं। लेकिन हमारी तकलीफ ऐसी है। बुद्ध हों, महावीर हों, कृष्ण हों, वे सभी कहते हैं; मोहम्मद हों या क्राइस्ट हों, वे सभी कहते हैं कि तुम्हारी सब मांगें पूरी हो जाएंगी, लेकिन तुम उसके द्वार पर मांग छोड़कर जाना। यही हमारी मुसीबत है। फिर हम उसके द्वार पर जाएंगे ही क्यों?
हमारी तकलीफ यह है कि हम उसके द्वार पर ही इसीलिए जाना चाहते हैं कि हमारी मांगें हैं और मांगें पूरी हो जाएं। और ये सब शिक्षक बड़ी उलटी शिक्षा देते हैं। वे कहते हैं कि तुम अपनी मागें छोड़ दो, तो ही उसके द्वार पर जा सकोगे। और फिर तुम्हारी सब मांगें भी पूरी हो जाएंगी। कुछ मांगने को न बचेगा; सब तुम्हें मिल जाएगा। लेकिन वह जो शर्त है, वह हमसे पूरी नहीं होती।
मुल्ला नसरुद्दीन एक छोटे—से गांव में शिक्षक था। लेकिन धीरे—धीरे लोगों ने अपने बच्चों को उसकी पाठशाला से हटा लिया, क्योंकि वह शराब पीकर स्कूल पहुंच जाता और दिनभर सोया रहता। आखिर उसकी पत्नी ने कहा कि तुम थोड़ा अपना चरित्र बदलो, अपना आचरण बदलो। यह तुम शराब पीना बंद करो, नहीं तो तुमसे पढ़ने कोई भी नहीं आएगा।
मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा कि तू बात ही उलटी कह रही है। हम तो उन बच्चों को पढ़ाने की झंझट ही इसीलिए लेते हैं कि शराब पीने के लिए पैसे मिल जाएं। और तू कह रही है कि शराब पीना छोड़ दो, तो बच्चे पढ़ने आएंगे। लेकिन शराब पीना अगर मैं छोड़ दूं तो बच्चों को पढ़ाऊंगा किस लिए! हम तो बच्चों को पढ़ाते ही इसलिए हैं कि शराब के लिए कुछ पैसे मिल जाएं।
हमारी सारी हालत ऐसी है। हम तो परमात्मा के द्वार पर इसलिए जाते हैं कि कोई क्षुद्र मांग पूरी हो जाए। और ये सारे शिक्षक हमसे कहते हैं कि तुम मांग छोड़कर वहां जाना, तो ही उसके द्वार में प्रवेश पा सकोगे, तो ही उसके कान तक तुम्हारी आवाज पहुंचेगी। लेकिन हमारी दिक्कत यह है कि तब हम आवाज ही क्यों पहुंचाना चाहेंगे? हम उसके द्वार पर ही क्यों जाएंगे? हम उसके द्वार पर क्तक ही क्यों देंगे? हम तो वहां जाते इसलिए हैं कि कोई मांग पूरी करना चाहते हैं।
लेकिन जो माग पूरी करना चाहता है, वह उसके द्वार पर जाता ही नहीं। वह मंदिर के द्वार पर जा सकता है, मस्जिद के द्वार पर जा सकता है, उसके द्वार पर नहीं जा सकता। क्योंकि उसका द्वार तो दिखाई ही तब पड़ता है, जब चित्त से माग विसर्जित हो जाती है। उसका द्वार वहां किसी मकान में बना हुआ नहीं है। उसका द्वार तो उस चित्त में है, जहां मांग नहीं है, जहां कोई वासना नहीं है, जहां स्वीकार का भाव है। जहां परमात्मा जो कर रहा है, उसकी मर्जी के प्रति पूरी स्वीकृति है, समर्पण है, उस हृदय में ही द्वार खुलता है।
मंदिर के द्वार को उसका द्वार मत समझ लेना, क्योंकि मंदिर के द्वार में तो वासना सहित आप जा सकते हैं। उसका द्वार तो आपके ही हृदय में है। और उस हृदय पर वासना की ही दीवाल है। वह दीवाल हट जाए, तो द्वार खुल जाए।
तो ऐसा मत पूछें कि आपकी प्रार्थनाएं, आपका भजन, आपका ध्यान, आपकी मांग को पूरा क्यों नहीं करवाता! आपकी माग के कारण भजन ही नहीं होता, ध्यान ही नहीं होता, प्रार्थना ही नहीं होती। इसलिए पूरे होने का तो कोई सवाल ही नहीं है। जो चीज शुरू ही नहीं हुई, वह पूरी कैसे होगी? आप यह मत सोचें कि आखिरी चीज खो रही है। पहली ही चीज खो रही है। पहला कदम ही वहा नहीं है। आखिरी कदम का तो कोई सवाल ही नहीं है।
प्रेम मांगशून्य है। प्रेम बेशर्त है। जब आप किसी को प्रेम करते हैं, तो आप कुछ मांगते हैं? आपकी कोई शर्त है? प्रेम ही आनंद है। प्रार्थना परम प्रेम है। अगर प्रार्थना ही आपका आनंद हो, आनंद प्रार्थना के बाहर न जाता हो, कोई मांग न हो पीछे जो पूरी हो जाए। तो आनंद मिलेगा, प्रार्थना करने में ही आनंद मिलता हो, तो ही प्रार्थना हो पाती है। तो जब प्रार्थना करने जाएं तो प्रार्थना को ही आनंद समझें। उसके पार कोई और आनंद नहीं है।
सुना है मैंने कि एक फकीर ने रात एक स्वप्न देखा कि वह स्वर्ग में पहुंच गया है। और वहां उसने देखा मीरा को, कबीर को, चैतन्य को नाचते, गीत गाते, तो बहुत हैरान हुआ। उसने पास खड़े एक देवदूत से पूछा कि ये लोग यहां भी नाच रहे हैं और गीत गा रहे हैं! हम तो सोचे थे कि अब ये स्वर्ग पहुंच गए, तो अब यह उपद्रव बंद हो गया होगा। ये तो जमीन पर भी यही कर रहे थे। इस चैतन्य को हमने जमीन पर भी ऐसे ही नाचते और गाते देखा। इस मीरा को हमने ऐसे ही कीर्तन करते देखा। यह कबीर यही तो जमीन पर कर रहा था। और अगर स्वर्ग में भी यही हो रहा है, स्वर्ग में आकर भी अगर यही होना है, तो फिर जमीन में और स्वर्ग में फर्क क्या है?
तो उस देवदूत ने कहा कि तुम थोड़ी—सी भूल कर रहे हो। तुम समझ रहे हो कि ये कबीर, चैतन्य और मीरा स्वर्ग में आ गए हैं। तुम समझ रहे हो कि संत स्वर्ग में आते हैं। बस, यहीं तुम्हारी भूल हो रही है। संत स्वर्ग में नहीं आते। स्वर्ग संतों में होता है। इसलिए संत जहां होंगे, वहीं स्वर्ग होगा। तुम यह मत समझो कि ये संत स्वर्ग में आ गए हैं। ये यहां गा रहे हैं और आनंदित हो रहे हैं, इसलिए यहां स्वर्ग है। ये जहां भी होंगे, वहां स्वर्ग होगा। और स्वर्ग मिल जाए, इसलिए इन्होंने कभी नाचा नहीं था। इन्होंने तो नाचने में ही स्वर्ग पा लिया था। इसलिए अब इस नृत्य का, इस आनंद का कहीं अंत नहीं है। अब ये जहां भी होंगे, यह आनंद वहीं होगा। इन संतों को नरक में डालने का कोई उपाय नहीं है।
आप आमतौर से सोचते होंगे कि संत स्वर्ग में जाते हैं। संतों को नरक में डालने का कोई उपाय नहीं है। संत जहां होंगे, स्वर्ग में होंगे। क्योंकि संत का हृदय स्वर्ग है।
प्रार्थना जब आ जाएगी आपको, तो आप यह पूछेंगे ही नहीं कि प्रार्थना पूरी नहीं हुई! प्रार्थना का आ जाना ही उसका पूरा हो जाना है। उसके बाद कुछ बचता नहीं है। अगर प्रार्थना के बाद भी कुछ बच जाता है, तो फिर प्रार्थना से बड़ी चीज भी जमीन पर है। और अगर प्रार्थना के बाद भी कुछ पाने को शेष रह जाता है, तो फिर आपको, प्रार्थना क्या है, इसका ही कोई पता नहीं है।
प्रार्थना अंत है, प्रार्थनापूर्ण हृदय इस जगत का अंतिम खिला हुआ फूल है। वह आखिरी ऊंचाई है, जो मनुष्य पा सकता है। वह अंतिम शिखर है। उसके पार, उसके पार कुछ है नहीं।
पर आपकी प्रार्थना के पार तो बड़ी क्षुद्र चीजें होती हैं। आपकी प्रार्थना के पार कहीं नौकरी का पाना होता है। आपकी प्रार्थना के पार कहीं बच्चे का पैदा होना होता है। आपकी प्रार्थना के पार कहीं कोई मुकदमे का जीतना होता है।
इन प्रार्थनाओं को आप प्रार्थना मत समझना, अन्यथा असली प्रार्थना से आप वंचित ही रह जाएंगे। असली प्रार्थना का अर्थ है, अस्तित्व का उत्सव। असली प्रार्थना का अर्थ है, मैं हूं, इसका धन्यवाद। मेरा होना परमात्मा की इतनी बड़ी कृपा है कि उसके लिए मैं धन्यवाद देता हूं। एक श्वास भी आती है और जाती है.......।
कभी आपने सोचा कि आपकी अस्तित्व को क्या जरूरत है? आप न होते, तो क्या हर्ज हो जाता? कभी आपने सोचा कि अस्तित्व को आपकी क्या आवश्यकता है? आप नहीं होंगे, तो क्या मिट जाएगा? और आप नहीं थे, तो कौन—सी कमी थी? आप अगर न होते, कभी न होते, तो क्या अस्तित्व की कोई जगह खाली रह जाती? आपके होने का कुछ भी तो अर्थ, कुछ भी तो आवश्यकता दिखाई नहीं पड़ती। फिर भी आप हैं। जैसे ही कोई व्यक्ति यह अनुभव करता है कि मेरे होने का कोई भी तो कारण नहीं है, और परमात्मा मुझे सहे, इसकी कोई भी तो जरूरत नहीं है; फिर भी मैं हूं फिर भी मेरा होना है, फिर भी मेरा जीवन है।
यह जो अहोभाव है, इस अहोभाव से जो नृत्य पैदा हो जाता है, जो गीत पैदा हो जाता है, यह जो जीवन का उत्सव है, यह जो परमात्मा के प्रति कृतज्ञता का बोध है कि मैं बिलकुल भी तो किसी उपयोग का नहीं हूं, फिर भी तेरा इतना प्रेम कि मैं हूं। फिर भी तू मुझे सहता है और झेलता है। शायद मैं तेरी पृथ्वी को थोड़ा गंदा ही करता हूं। और शायद तेरे अस्तित्व को थोड़ा—सा उदास और रुग्ण करता हूं। शायद मेरे होने से अड़चन ही होती है, और कुछ भी नहीं होता। तेरे संगीत में थोड़ी बाधा पडती है। तेरी धारा में मैं एक पत्थर की तरह अवरोध हो जाता हूं। फिर भी मैं हूं। और तू मुझे ऐसे सम्हाले हुए है, जैसे मेरे बिना यह अस्तित्व न हो सकेगा।
यह जो अहोभाव है, यह जो ग्रेटिटयूड है, इस अहोभाव, इस धन्यता से जो गीत, जो सिर झुक जाता है, वह जो नाच पैदा हो जाता है, वह जो आनंद की एक लहर जग जाती है, उसका नाम प्रार्थना है। जरूरी नहीं है कि वह शब्दों में हो।
शब्दों में तो जरूरत ही इसलिए पड़ती है कि जीवन से हमें कहने की कला नहीं आती। नहीं तो प्रार्थना मौन होगी। शब्द तो सिक्खड़ के लिए हैं। वे तो प्राथमिक, जिसको अभी कुछ पता नहीं है, उसके लिए हैं। जो जान लेगा कला, उसका तो पूरा अस्तित्व ही अहोभाव का नृत्य हो जाता है।
एक गरीब फकीर एक मस्जिद में प्रार्थना कर रहा था। उसके पास ही एक बहुत बुद्धिमान, शास्त्रों का बड़ा जानकार, वह भी प्रार्थना कर रहा था। इस गरीब फकीर को देखकर ही उस पंडित को लगा.....।
पंडित को सदा ही लगता है कि दूसरा अज्ञानी है। पंडित होने का मजा ही यही है कि दूसरे का अज्ञान दिखाई पड़ता है। और दूसरे के अज्ञान में अहंकार को तुष्टि मिलती है।
तो पंडित को देखकर ही लगा कि यह गरीब फकीर, कपड़े-लत्ते भी ठीक नहीं, शक्ल-सूरत से भी पढ़ा-लिखा, सुसंस्कृत नहीं मालूम पड़ता है, गंवार है, यह क्या प्रार्थना कर रहा होगा! और जब तक मेरी अभी प्रार्थना नहीं सुनी गई, इसकी कौन सुन रहा होगा! ऐसे अशिष्ट, गंवार आदमी कीं-असंस्कृत-इसकी प्रार्थना कहौ परमात्मा तक पहुंचती होगी! मैं परिष्कार कर-करके हैरान हो गया हूं; और प्रार्थना को बारीक से बारीक कर लिया है, शुद्धतम कर लिया है; अभी मेरी आवाज नहीं पहुंची, इसकी क्या पहुंचती होगी! फिर भी उसे जिज्ञासा हुई कि यह कह क्या रहा है! वह धीरे- धीरे गुनगुना रहा था।
वह फकीर कह रहा था, परमात्मा से कि मुझे भाषा नहीं आती; और शब्दों का जमाना भी मुझे नहीं आता। तो मैं पूरी अल्फाबेट बोले देता हूं। ए बी सी डी, पूरी बोले देता हूं। तू ही जमा ले, क्योंकि इन्हीं सब अक्षरों में तो सब प्रार्थनाएं आ जाती हैं। तू ही जमा ले कि मेरे काम का क्या है और तू ही प्रार्थना बना ले।
वह पंडित तो बहुत घबड़ा गया कि हइ की मूढ़ता है। यह क्या कह रहा है! कि मैं तो सिर्फ अल्फाबेट जानता हूं; यह बारहखड़ी जानता हूं; यह मैं पूरी बोले देता हूं। अब जमाने का काम तू ही कर ले, क्योंकि सभी शास्त्र इन्हीं में तो आ जाते हैं, और सभी प्रार्थनाएं इन्हीं से तो बनती हैं। और मुझसे भूल हो जाएगी। तू ठीक जमा लेगा। तेरी जो मर्जी, वही मेरी मर्जी!
वह पंडित तो बहुत घबड़ा गया। उसने आख बंद कीं और परमात्मा से कहा कि हद्द हो गई। मेरी प्रार्थना अभी तक तुझ तक नहीं पहुंची, क्योंकि मेरी कोई मांग पूरी नहीं हुई। क्योंकि मांग पूरी हो, तो ही हम समझें कि प्रार्थना पहुंची। और यह आदमी, यह क्या कह रहा है!
सुना उसने अपने ध्यान में कि उसकी प्रार्थना पहुंच गई। क्योंकि न तो उसकी कोई मांग है, न पांडित्य का कोई दंभ है। वह यह भी नहीं कह रहा है कि मेरी मांग क्या है। वह कह रहा है कि तू ही जमा ले। जो इतना मुझ पर छोड़ देता है, उसकी प्रार्थना पहुंच गई।
प्रार्थना है उस पर छोड़ देना। खुद पकड़कर रख लेना वासना है; उस पर छोड़ देना प्रार्थना है। अपने को समझदार मानना वासना है; सारी समझ उसकी और हम नासमझ, ऐसी भाव-दशा प्रार्थना है।

एक दूसरे मित्र ने पूछा है,

कल आपने कहा कि बाहर वस्तु बहता हुआ के व्यक्तियों और ओं की ओर प्रेम वासना है और स्वयं के भीतर चैतन्य-केंद्र की ओर वापस लौटकर बहता हुआ प्रेम श्रद्धा है, भक्ति है। किंतु भक्ति-योग में तो बाहर स्वयं से भिन्न किसी इष्टदेव की ओर साधक की चेतना बहती है। तब तो आपके कथनानुसार यह भी वासना हो गई, श्रद्धा व भक्ति नहीं। समझाएं कि भक्ति-योग साधक की चेतना बाहर, पर की ओर बहती है या भीतर स्व की ओर?

थोड़ा जटिल है, लेकिन समझने की कोशिश करें। जैसे ही साधक यात्रा शुरू करता है, उसे भीतर का तो कोई पता नहीं। वह तो बाहर को ही जानता है। उसे तो बाहर का ही अनुभव है। अगर उसे भीतर भी ले जाना है, तो भी बाहर के ही सहारे भीतर ले जाना होगा। और बाहर भी छुड़ाना है, तो धीरे- धीरे बाहर के सहारे ही छुड़ाना होगा।
तो परमात्मा को बाहर रखा जाता है। यह सिर्फ उपाय है, एक डिवाइस, कि परमात्मा वहां ऊपर आकाश में है। परमात्मा सब जगह है। ऐसी कोई जगह नहीं, जहा वह नहीं है। बाहर भी वही है, भीतर भी वही है। सच तो यह है कि बाहर- भीतर हमारे फासले हैं। उसके लिए बाहर और भीतर कुछ भी नहीं है।
घर में आप कहते हैं कि कमरे के भीतर जो आकाश है, वह भीतर है, और कमरे के बाहर जो आकाश है, वह बाहर है। वह आकाश एक है। दीवालें गिर जाएं, तो न कुछ बाहर है, न भीतर है। जो हमें भीतर मालूम पड़ता है और बाहर मालूम पड़ता है, वह भी एक है। सिर्फ हमारे अहंकार की पतली-सी दीवाल है, जो फासला खड़ा करती है।
इसलिए लगता है कि भीतर मेरी आत्मा और बाहर आपकी आत्मा। लेकिन वह आत्मा आकाश की तरह है। जिस दिन मैं का भाव गिर जाता है, उस दिन बाहर- भीतर भी गिर जाता है। उस दिन वही रह जाता है; बाहर- भीतर नहीं होता। लेकिन साधक जब शुरू करेगा, तो बाहर की ही भाषा उससे बोलनी पड़ेगी। आप वही भाषा तो समझेंगे, जो आप जानते हैं।
यह बड़े मजे की बात है। अगर आपको कोई विदेशी भाषा भी सीखनी हो, तो भी उसी भाषा के जरिए समझानी पड़ेगी, जो आप जानते हैं। आप बाहर की भाषा जानते हैं। भीतर की भाषा को भी समझाने के लिए बाहर की भाषा से शुरू करना होगा।
तो परमात्मा को भक्त रखता है बाहर। और कहता है, संसार के प्रति सारी वासना छोड़ दो और सारी वासना को परमात्मा के प्रति लगा लो। यह भी इसीलिए कि वासना ही हमारे पास है, और तो हमारे पास कुछ भी नहीं है। लेकिन वासना की एक खूबी है कि वासना को अगर बचाना हो, तो अनेक वासनाएं चाहिए। वासना को बचाना हो, तो नित नई वासना चाहिए। और जितनी ज्यादा वासनाएं हों, उतनी ही वासना बचेगी। जैसे ही सारी वासना को परमात्मा पर लगा दिया जाए, वासना तिरोहित होने लगती है।
एक उदाहरण के लिए छोटा—सा प्रयोग आप करके देखें, तो आपको पता चलेगा। एक दीए को रख लें रात अंधेरे में अपने कमरे में। और अपनी आंखों को दीए पर एकटक लगा दें। दो—तीन मिनट ही अपलक देखने पर आपको बीच—बीच में शक पैदा होगा कि दीया नदारद हो जाता है। दीए की ज्योति बीच—बीच में खो जाएगी। अगर आपकी आख एकटक लगी रही, तो कई बार आप घबड़ा जाएंगे कि ज्योति कहं। गई! जब आप घबड़ाके, तब फिर ज्योति आ जाएगी। ज्योति कहीं जाती नहीं। लेकिन अगर आंखों की देखने की क्षमता बचानी हो, तो बहुत—सी चीजें देखना जरूरी है। अगर आप एक ही चीज पर लगा दें, तो थोड़ी ही देर में आंखें देखना बंद कर देती हैं। इसलिए ज्योति खो जाती है।
जिस चीज पर आप अपने को एकाग्र कर लेंगे, और सब चीजें तो खो जाएंगी पहले, एक चीज रह जाएगी। थोड़ी देर में वह एक भी खो जाएगी। एकाग्रता पहले और चीजों का विसर्जन बन जाती है, और फिर उसका भी, जिस पर आपने एकाग्रता की।
अगर सारी वासना को संसार से खींचकर परमात्मा पर लगा दिया, तो पहले संसार खो जाएगा। और एक दिन आप अचानक पाएंगे कि परमात्मा बाहर से खो गया। और जिस दिन परमात्मा भी बाहर से खो जाता है, आप अचानक भीतर पहुंच जाते हैं। क्योंकि अब बाहर होने का कोई उपाय न रहा। संसार पकड़ता था, उसे छोड़ दिया परमात्मा के लिए। और जब एक बचता है, तो वह अचानक खो जाता है। आप अचानक भीतर आ जाते हैं।
फिर यह जो परमात्मा की धारणा हमने बाहर की है, यह हमारे भीतर जो छिपा है, उसकी ही श्रेष्ठतम धारणा है। वह जो आपका भविष्य है, वह जो आपकी संभावना है, उसकी ही हमने बाहर धारणा की है। वह बाहर है नहीं, वह हमारे भीतर है, लेकिन हम बाहर की ही भाषा समझते हैं। और बाहर की भाषा से ही भीतर की भाषा सीखनी पड़ेगी।
अभी मनोवैज्ञानिक इस पर बहुत प्रयोग करते हैं कि एकाग्रता में आब्जेक्ट क्यों खो जाता है। जहां भी एकाग्रता होती है, अंत में जिस पर आप एकाग्रता करते हैं, वह विषय भी तिरोहित हो जाता है; वह भी बचता नहीं। उसके खो जाने का कारण यह है कि हमारे मन का अस्तित्व ही चंचलता है। मन को बहने के लिए जगह चाहिए, तो ही मन हो सकता है। मन एक बहाव है। एक नदी की धार है। अगर मन को बहाव न मिले, तो वह समाप्त हो जाता है। वह उसका स्वभाव है।
स्थिर मन जैसी कोई चीज नहीं होती। और जब हम कहते हैं, चंचल मन, तो हम पुनरुक्ति करते हैं। चंचल मन नहीं कहना चाहिए, क्योंकि चंचलता ही मन है। जब हम चंचल मन कहते हैं, तो हम दो शब्दों का उपयोग कर रहे हैं व्यर्थ ही, क्योंकि मन का अर्थ ही चंचलता है। और घिर मन जैसी कोई चीज नहीं होती। जहां थिरता आती है, मन तिरोहित हो जाता है। जैसे स्वस्थ बीमारी जैसी कोई बीमारी नहीं होती। जैसे ही स्वास्थ्य आता है, बीमारी खो जाती है; वैसे ही थिरता आती है, मन खो जाता है। मन के होने के लिए अथिरता जरूरी है।
ऐसा समझें कि सागर में लहरें हैं, या झील पर बहुत लहरें हैं। झील अशात है। तो हम कहते हैं, लहरें बड़ी अशांत हैं। कहना नहीं चाहिए, क्योंकि अशांति ही लहरें हैं। फिर जब शात हो जाती है झील, तब क्या आप ऐसा कहेंगे कि अब शांत लहरें हैं! लहरें होतीं ही नहीं। जब लहरें नहीं होतीं, तभी शांति होती है। जब झील शांत होती है, तो लहरें नहीं होतीं। लहरें तभी होती हैं, जब झील अशात होती है। तो अशांति ही लहर है।
आपकी आत्मा झील है, आपका मन लहरें है। शांत मन जैसी कोई चीज नहीं होती। अशांति ही मन है।
तो अगर हम किसी भी तरह से किसी एक चीज पर टिका लें अपने को, तो थोड़ी ही देर में मन खो जाएगा, क्योंकि मन एकाग्र हो ही नहीं सकता। जो एकाग्र होता है, वह मन नहीं है; वह भीतर का सागर है। वह भीतर की झील है। वही एकाग्र हो सकती है।
तो कोई भी आब्जेक्ट, चाहे परमात्मा की प्रतिमा हो, चाहे कोई यंत्र हो, चाहे कोई मंत्र हो, चाहे कोई शब्द हो, चाहे कोई आकार—रूप हो, कोई भी हो, इतना ही उसका उपयोग है बाहर रखने में कि आप पूरे संसार को भूल जाएंगे और एक रह जाएगा। जिस क्षण एक रहेगा—युगपत—उसी क्षण एक भी खो जाएगा और आप अपने भीतर फेंक दिए जाएंगे।
यह बाहर का जो विषय है, एक जंपिंग बोर्ड है, जहां से भीतर छलांग लग जाती है।
तो किसी भी चीज पर एकाग्र हो जाएं। इसलिए कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप उस एकाग्रता के बिंदु को अल्लाह कहते हैं; कोई फर्क नहीं पड़ता कि ईश्वर कहते हैं, कि राम कहते हैं, कि कृष्ण कहते हैं, कि बुद्ध कहते हैं। आप क्या कहते हैं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। आप क्या करते हैं, इससे फर्क पड़ता है। राम, बुद्ध, कृष्ण, क्राइस्ट का आप क्या करते हैं, इससे फर्क पड़ता है। क्या कहते हैं, इससे फर्क नहीं पड़ता।
करने का मतलब यह है कि क्या आप उनका उपयोग अपने को एकाग्र करने में करते हैं? क्या आपने उनको बाहर का बिंदु बनाया है, जिससे आप भीतर छलांग लगाएंगे? तो फिर क्या फर्क पड़ता है कि आपने क्राइस्ट से छलांग लगाई, कि कृष्ण से, कि राम से! जिस दिन भीतर पहुंचेंगे, उस दिन उसका मिलना हो जाएगा, जो न क्राइस्ट है, न राम है, न बुद्ध है, न कृष्ण है—या फिर सभी है। कहां से छलांग लगाई, वह तो भूल जाएगा।
कौन याद रखता है जंपिंग बोर्ड को, जब सागर मिल जाए! सीढ़ियों को कौन याद रखता है, जब शिखर मिल जाए! रास्ते को कौन याद रखता है, जब मंजिल आ जाए! कौन—सा रास्ता था, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। सभी रास्ते काम में लाए जा सकते हैं। काम में लाने वाले पर निर्भर करता है।
अभी आप बाहर हैं, इसलिए बाहर परमात्मा की धारणा करनी पड़ती है आपकी वजह से। परमात्मा की वजह से नहीं, आपकी वजह से। भीतर की भाषा आपकी समझ में ही न आएगी।
इक्‍क्यु हुआ है एक झेन फकीर। किसी ने आकर इक्‍क्यु से पूछा कि सार, सारे धर्म का सार संक्षिप्त में कह दो। क्योंकि मेरे पास ज्यादा समय नहीं है। मैं काम— धंधे वाला आदमी हूं। क्या है धर्म का मूल सार? तो इक्‍क्‍यु बैठा था रेत पर, उसने अंगुली से लिख दिया, ध्यान। उस आदमी ने कहा, ठीक। लेकिन थोड़ा और विस्तार करो। इतने से बात समझ में नहीं आई। तो इक्‍क्‍यु ने और
बड़े अक्षरों में रेत पर लिख दिया, ध्यान। तो वह आदमी थोड़ा संदिग्ध हुआ। उसने कहा कि उसी शब्द को दोहराने से क्या होगा! थोड़ा और साफ करो। तो इक्‍क्‍यु ने और बड़े अक्षरों में लिख दिया, ध्यान।
उस आदमी ने कहा कि तुम पागल तो नहीं हो? मैं पूछता हूं कुछ साफ करो। तो इक्‍क्‍यु ने कहा, साफ तो तुम्हारे करने से होगा। साफ मेरे करने से नहीं होगा। अब साफ तुम करो। बात सार की मैंने कह दी। अब करना तुम्हारा काम है। इससे ज्यादा और मैं कुछ नहीं कह सकता हूं। और इससे ज्यादा मैं कुछ भी कहूंगा तो गड़बड़ हो जाएगी।
उस आदमी की कुछ भी समझ में न आया होगा। क्योंकि इक्‍क्‍यु जो भाषा बोल रहा है, वह भाषा उसके लिए जटिल पड़ी होगी। उसने शुद्धतम बात कह दी। लेकिन शुद्धतम बात समझने की सामर्थ्य भी चाहिए।
इसलिए जो बहुत करुणावान हैं, वे हमारी अशुद्ध भाषा में बोलते हैं। इसलिए नहीं कि अशुद्ध बोलने में कुछ रस है। बल्कि इसलिए कि हम अशुद्ध को ही समझ सकते हैं। और धीरे—धीरे ही हमें खींचा जा सकता है उस भीतर की यात्रा पर। एक—एक इंच हम बहुत मुश्किल से छोड़ते हैं। हम संसार को इस जोर से पकड़े हुए हैं कि एक—एक इंच भी हम बहुत मुश्किल से छोड़ते हैं! और यह यात्रा है सब छोड़ देने की। क्योंकि जब तक पकड़ न छूट जाए और हाथ खाली न हो जाएं, तब तक परमात्मा की तरफ नहीं उठते। भरे हुए हाथ उसके चरणों में नहीं झुकाए जा सकते। सिर्फ खाली हाथ उसके चरणों में झुकाए जा सकते हैं। क्योंकि भरे हुए हाथ वाला आदमी झुकता ही नहीं है।
इसीलिए जीसस ने कहा है कि चाहे सुई के छेद से ऊंट निकल जाए लेकिन धनी आदमी मेरे स्वर्ग के राज्य में प्रवेश न कर सकेगा। यह किस धनी आदमी की बात कही है? वे सभी धनी हैं, जिनके हाथ भरे हुए हैं; जिन्हें लगता है, कुछ हमारे पास है; जिन्हें लगता है कि कुछ पकड़ने योग्य है; जिन्हें लगता है कि कोई संपदा है। वे उस द्वार में प्रवेश न कर सकेंगे।
जिसके पास कुछ है, उसके लिए द्वार बहुत संकीर्ण मालूम पड़ेगा। उसमें से वह निकल न सकेगा। और जिसके पास कुछ नहीं है, उसके लिए वह द्वार इतना विराट है, जितना विराट हो सकता है। यह पूरा संसार उससे निकल जाए, इतना बड़ा वह द्वार है। लेकिन जिसके पास कुछ है, उसके लिए सुई के छेद का द्वार भी बड़ा है। वह द्वार छोटा हो जाएगा। जितना हमारे हाथ पकड़े होते हैं चीजों को, उतने हम भारी और वजनी, उड़ने में असमर्थ हो जाते हैं। जितने हमारे हाथ खाली हो जाते हैं........।
इसलिए जीसस ने जो कहा है कि भीतर की दरिद्रता, उसका अर्थ इतना ही है कि जिसने सारी पकड़ छोड़ दी संसार पर, वही भीतर से दरिद्र है।
लेकिन आदमी बहुत उपद्रवी है, बहुत चालाक है। और सब चालाकी में अपने को ही फंसा लेता है। क्योंकि यहां कोई और नहीं है, जिसको आप फंसा सकें। आप खुद ही जाल बुनेंगे और फंस जाएंगे। खुद ही खड्डा खोदेंगे और गिर जाएंगे। हम सब अपनी—अपनी कब्रें खोदकर तैयार रखते हैं। कब मौका आ जाए गिरने का, तो गिर जाएं! गिराते दूसरे हैं, कब्रें हम ही खोद लेते हैं। और वे दूसरे भी हमारी सहायता इसलिए करते हैं, क्योंकि हम उनकी सहायता करते रहे हैं।
आदमी बहुत जटिल है और सोचता है कि बहुत होशियार है। तो कभी—कभी ऐसा भी हो जाता है कि वह बाहर की, संसार की संपत्ति छोड़ देता है, तो फिर कुछ भीतरी गुणों की संपत्ति को पकड़ लेता है।
सुना है मैंने, एक तथाकथित संत का परिचय दिया जा रहा था। और जो परिचय देने खड़ा था—जैसा कि भाषण में अक्सर हो जाता है—उसकी गरमी बढ़ती गई, जोश बढ़ता गया। और वह फकीर की बड़ी तारीफ करने लगा। और उसने कहा कि ऐसा फकीर पृथ्वी पर दूसरा नहीं है। इन जैसा ज्ञान लाखों वर्षों में कभी होता है। बड़े—बड़े पंडित इनके चरणों में आकर बैठते हैं और सिर झुकाते हैं। इन जैसा प्रेम असंभव है दोबारा खोज लेना। सब तरह के लोग इनके प्रेम में नहाते हैं और पवित्र हो जाते हैं। और वह ऐसा कहता चला गया।
जब सारी बात पूरी होने के करीब थी, तो उस फकीर ने उस भाषण करने वाले का कोट धीरे से झटका और कहा कि मेरी विनम्रता के संबंध में मत भूल जाना। डोंट फारगेट माई खुमिलिटी। मेरी विनम्रता के संबंध में भी कुछ कहो!
विनम्रता के संबंध में भी कुछ कहो! तो यह आदमी विनम्र रहा होगा कि नहीं? तब तो विनम्रता भी अहंकार हो गया। और तब तो विनम्रता भी संपत्ति हो गई। यह आदमी बाहर से हो सकता है, सब छोड़ दिया हो, लेकिन इसने भीतर से सब पकड़ा हुआ है। इससे कुछ भी छूटा नहीं है, क्योंकि पकड़ नहीं छूटी है। और जो विनम्रता को पकड़े हुए है, वह उतना ही अहंकारी है, जितना कोई और अहंकारी है। और कई बार तो ऐसा होता है कि स्थूल अहंकार तो खुद भी दिखाई पड़ता है, सूक्ष्म अहंकार दिखाई नहीं पड़ता।
यह जो परमात्मा की यात्रा है, यह तो भीतर की ही यात्रा है। लेकिन बाहर से हम छोड़े, तो हम भीतर की तरफ सरकने शुरू हो जाते हैं। बाहर से हम छोड़ सकें, इसलिए बाहर ही परमात्मा को हमने खड़ा किया है। हमारे सब मंदिर, हमारी सब मस्जिदें, गिरजे, गुरुद्वारे, सब प्रतीक हैं। बाहर कोई मंदिर है नहीं। लेकिन बाहर मंदिर बनाना पड़ा है, क्योंकि हम केवल बाहर के ही मंदिर अभी समझ सकते हैं। लेकिन वह बाहर का मंदिर एक जगह हो सकती है, जहां से हम संसार को छोड़कर उस मंदिर में प्रवेश कर जाएं। और फिर वह मंदिर भी छूट जाएगा। क्योंकि जब इतना बड़ा संसार छूट गया, तो यह छोटा—सा मंदिर ज्यादा देर नहीं रुक सकता है। और जब संसार छूट गया, तो संसार में बैठे हुए परमात्मा की प्रतिमा भी छूट जाएगी। वह केवल बहाना है।
संसार को छोड़ सकें, इसलिए परमात्मा को बाहर रखते हैं। फिर तो वह भी छूट जाता है। और जो संसार को ही छोड़ सका, वह अब इस एक को भी छोड़ देगा। जिसने अनेक को छोड़ दिया, वह एक को भी छोड़ देगा। और जब अनेक भी नहीं बचता और एक भी नहीं बचता, तभी वस्तुत: वह एक बचता है, जिसको हमने अद्वैत कहा है। इसलिए हमने उसको एक नहीं कहा।
क्योंकि अनेक बाहर हैं, इनको छोड़ने के लिए एक परमात्मा की धारणा काम में लानी पड़ती है। संसार को हम छोडते हैं उस एक के लिए। फिर जब वह एक भी छूट जाता है, तब जो बचता है, उसको हम क्या कहें! उसको अनेक नहीं कह सकते। अनेक संसार था, छूट गया। उसको एक भी नहीं कह सकते। क्योंकि वह एक भी जो हमने बाहर बनाया था, वह भी बहाना था। वह भी छूट गया। अब जो बचा, उसे हम क्या कहें? अनेक कह नहीं सकते; एक कह नहीं सकते। इसलिए बड़ी अदभुत व्यवस्था हमने की। हमने उसको कहा, अद्वैत। न एक, न दो। हमने सिर्फ इतना कहा है, जो दो नहीं है। हमने केवल संख्या को इनकार कर दिया।
सब संख्याएं बाहर हैं—एक भी, अनेक भी। वे दोनों छूट गईं। अब हम उस जगह पहुंच गए हैं, जहां कोई संख्या नहीं है। लेकिन इस तक जाने के लिए बाहर के प्रतीक सहारे बन सकते हैं।
खतरा जरूर है। खतरा आदमी में है, प्रतीकों में नहीं है। खतरा यह है कि कोई सीढ़ी को ही रास्ते की अड़चन बना ले सकता है।
और कोई समझदार हो, तो रास्ते पर पड़े हुए पत्थर को भी सीढ़ी बना ले सकता है। यह आप पर निर्भर है कि आप उसका उपयोग सीढ़ी की तरह करेंगे, उस पर चढ़ेंगे और आगे निकल जाएंगे, या उसी के किनारे रुककर बैठ जाएंगे कि अब जाने का कोई उपाय न रहा। यह पत्थर पड़ा है। अब कोई उपाय आगे जाने का नहीं है।
सीढ़ी अवरोध बन सकती है। अवरोध सीढ़ी बन सकता है। आप पर निर्भर है। प्रतीक खतरनाक हो जाते हैं, अगर उनको कोई जोर से पकड़ ले। प्रतीक छोड़ने के लिए हैं। प्रतीक सिर्फ बहाने हैं। उनका उपयोग कर लेना है और उन्हें भी फेंक देना है। और जब कोई व्यक्ति फेंकता चला जाता है, उस समय तक, जब तक कि फेंकने को कुछ भी शेष रहता है, वही व्यक्ति उस अंतिम बिंदु पर पहुंच पाता है।
एक प्रश्न और, फिर मैं सूत्र लूं।

 आपने कल कहा कि अनुभव पर आधारित श्रद्धा ही वास्तविक श्रद्धा है। और यह भी कहा कि प्रेम और भक्ति की साधना सहज व सरल है। यह भी कहा कि आज तर्क व बुद्धि के अत्यधिक विकास के कारण झूठी आस्तिकता खतरे में पड़ गई है। तो समझाएं कि अनुभवशून्य साधक कैसे श्रद्धा की ओर बड़े? और आज के बौद्धिक युग में भक्ति—योग अर्थात भावुकता
का मार्ग कैसे उपयुक्त है? श्रद्धा के अभाव में भक्ति—योग की साधना कैसे संभव है?

 हली बात, कैसे अनुभवशून्य साधक अनुभव की ओर बढ़े? पहली बात तो वह यह समझे कि अनुभवशून्य है। बड़ी कठिन है। सभी को ऐसा खयाल है कि अनुभव तो हमें है ही। अपने को अनुभवशून्य मानने में बड़ी कठिनाई होती है। लेकिन धर्म के संबंध में हम अनुभवशून्य हैं, ऐसी प्रतीति पहली जरूरत है। क्योंकि जो हमारे पास नहीं है, वही खोजा जा सकता है। जो हमारे पास है ही, उसकी खोज ही नहीं होती।
बीमार आदमी समझता हो कि मैं स्वस्थ हूं, तो इलाज का कोई सवाल ही नहीं है। बीमार की पहली जरूरत है कि वह समझे कि वह बीमार है। कोई आदमी कारागृह में बंद हो और समझता हो कि मैं मुक्त हूं तो कारागृह से छूटने का कोई सवाल ही नहीं है। और अगर कारागृह को अपना घर ही समझता हो और कारागृह की दीवालें उसने भीतर से और सजा ली हों, तब तो अगर आप छुड़ाने भी जाएं तो वह इनकार करेगा कि क्यों मेरे घर से मुझे बाहर निकाल रहे हो! और अगर उसने अपनी हथकड़ियों को, अपनी बेड़ियों को सोने के रंग में रंग लिया हो और चमकीले पत्थर लगा लिए हों, तो वह समझेगा कि ये आभूषण हैं। और अगर आप तोड्ने लगें, तो वह चिल्लाएगा कि मुझे बचाओ, मैं लुटा जा रहा हूं।
कारागृह में बंदी आदमी बाहर आने के लिए क्या करे? पहली बात तो यह समझे कि वह कारागृह में है। फिर कुछ बाहर आने की बात उठ सकती है। फिर कुछ रास्ता खोजा जा सकता है। फिर उनकी बात सुनी जा सकती है, जो बाहर जा चुके हैं। फिर उनसे पूछा जा सकता है कि वे कैसे बाहर गए हैं। फिर कुछ भी हो सकता है। लेकिन पहली जरूरत है कि अनुभवशून्य व्यक्ति समझे कि मैं अनुभवशून्य हूं।
लेकिन बड़ी कठिनाई है। किताबें हम पढ़ लेते हैं, शास्त्र हम पढ़ लेते हैं। और शास्त्रों के शब्द हममें भर जाते हैं और ऐसी भांति होती है कि हमें भी अनुभव है।
अभी एक वृद्ध सज्जन मेरे पास आए थे। आते से ही वे बोले कि ऐसे तो मुझे समाधि का अनुभव हो गया है, लेकिन फिर भी सोचा कि चलो, आपसे भी पूछ आऊं। मैंने उनको कहा कि कुछ भी साफ कर लें। अगर अनुभव हो चुका है समाधि का, तो अब दूसरी बात करें। यह छोड़ ही दें। फिर पूछने को क्या बचा है?
नहीं, उन्होंने कहा कि मैंने सोचा कि चलें, पूछ लेने में हर्ज क्या है! तो मैंने कहा, अनुभव हो गया हो, तो पूछने में समय खराब मेरा भी न करें, अपना भी खराब न करें। मेरा समय उनमें ही लगने दें, जिन्हें अनुभव नहीं हुआ है। तो वे बोले, अच्छा, आप फिर ऐसा ही समझ लें कि मुझे अनुभव नहीं हुआ है। लेकिन बताएं तो कि ध्यान कैसे करूं! मैंने कहा, मैं समझूंगा नहीं। क्योंकि आप समझें कि अनुभव नहीं हुआ है, मैं क्यों समझूं कि आपको नहीं हुआ है। अगर हुआ है, तो बात खत्म हो गई।
कैसी अड़चन है! आदमी का अहंकार कैसी मुश्किल खड़ी करता है। वे जानना चाहते हैं कि ध्यान क्या है, लेकिन यह भी मानने का मन नहीं होता कि ध्यान का मुझे पता नहीं है। ध्यान का तो पता है ही। चलते रास्ते सोचा कि चलो, आपसे भी पूछ लें।
तो मैंने कहा, मैं चलते रास्ते लोगों को जवाब नहीं देता। आप सोचकर आएं, पक्का करके आएं। और यदि वगैरह से काम नहीं चलेगा, कि समझ लें। मैं नहीं समझूंगा; आप ही समझकर आएं।
हुआ हो, तो कहें ही। बात खत्म हो गई। न हुआ हो, तो कहें नहीं।
फिर बात शुरू हो सकती है।
सुन लेते हैं, पढ़ लेते हैं, शब्द मन में घिर जाते हैं। शब्द इकट्ठे हो जाते हैं, जम जाते हैं। उन्हीं शब्दों को हम दोहराए चले जाते हैं और सोचते हैं कि ठीक, हमें पता तो है। थोड़ा कम होगा, किसी को थोड़ा ज्यादा होगा। लेकिन पता तो हमें है।
ध्यान रखना, उसका अनुभव थोड़ा और कम नहीं होता। या तो होता है, या नहीं होता। अगर आपको लगता हो कि थोड़ा— थोड़ा अनुभव हमें भी है, तो आप धोखा मत देना। परमात्मा को टुकड़ों में काटा नहीं जा सकता। या तो आपको अनुभव होता है पूरा, या नहीं होता। थोड़ा— थोड़ा का कोई उपाय नहीं है; डिग्रीज का कोई उपाय नहीं है। कोई यह नहीं कह सकता कि हम जरा अभी इंचभर परमात्मा को जानते हैं, आप चार इंच जानते होंगे। हम पावभर जानते हैं, आप सेरभर जानते होंगे! बाकी जानते हम भी हैं। क्योंकि परमात्मा का कोई खंड नहीं है; वह अखंड अनुभव है।
अगर आपको लगता हो, थोड़ा— थोड़ा अनुभव है, तो समझ लेना कि अनुभव नहीं है। और जिसको अनुभव हो जाता है, उसकी तो सारी खोज समाप्त हो जाती है। अगर आपकी खोज जारी है,
अगर थोड़ा—सा भी असंतोष भीतर कहीं है, अगर थोड़ा भी ऐसा लगता है कि जीवन में कुछ चूक रहा है, तो समझना कि अभी ' अनुभव नहीं है। क्योंकि उसके अनुभव के बाद जीवन में कोई कमी का अनुभव नहीं रह जाता, कोई अभाव नहीं रह जाता। फिर कोई असंतोष की जरा—सी भी चोट भीतर नहीं होती। फिर कुछ पाने को नहीं बचता।
अगर कुछ भी पाने को बचा हुआ लगता हो, और लगता हो कि अभी कुछ कमी है, अभी कुछ यात्रा पूरी होनी है, तो समझना कि उसका अनुभव नहीं हुआ। परमात्मा अंत है—समस्त अनुभव का,
समस्त यात्रा का, समस्त खोज का।
तो पहली बात तो अनुभवशून्य साधक को समझ लेनी चाहिए कि मैं अनुभवशून्य हूं। और ऐसा इसलिए नहीं कि मैं कहता हूं। ऐसा उसको ही समझना चाहिए। उसकी ही प्रतीति, कि मैं अनुभवशून्य हूं रास्ता बनेगी।
एक फर्क खयाल में रखें।
जो साधक नहीं है, वह पूछता है, ईश्वर है या नहीं? जो साधक है, वह पूछता है कि मुझे उसका अनुभव हुआ या नहीं? इस फर्क को ठीक से समझ लें। जो साधक नहीं है, सिर्फ जिज्ञासु है, दार्शनिक होगा। वह पूछता है, ईश्वर है या नहीं? उसको अपने में उत्सुकता नहीं है; उसे ईश्वर का सवाल है कि ईश्वर है या नहीं। यह खोज व्यर्थ है। क्योंकि आप कैसे तय करेंगे कि ईश्वर है या नहीं? पूछने की सार्थक खोज तो यह है कि मुझे उसका अनुभव नहीं हुआ; कैसे उसका अनुभव हो? वह है या नहीं, यह बड़ा ,?, सवाल नहीं है। कैसे मुझे उसका अनुभव हो? और अगर मुझे अनुभव होगा, तो वह है। लेकिन अगर मुझे अनुभव न हो, तो जरूरी नहीं है कि वह न हो। क्योंकि हो सकता है, मेरी खोज में अभी कोई कमी हो।
तो साधक कभी भी इनकार नहीं करेगा। वह इतना ही कहेगा कि मुझे अभी अनुभव नहीं हुआ है। वह यह नहीं कहेगा कि ईश्वर नहीं है। क्योंकि मुझे क्या हक है कहने का कि ईश्वर नहीं है! मुझे पता नहीं है, इतना कहना काफी है। लेकिन हमारी भाषा में बड़ी भूल होती है।
हम निरंतर अपने को भूलकर बातें करते हैं। अगर एक आदमी। कुछ कहता है, और आपको अच्छा नहीं लगता, तो आप ऐसा नहीं कहते कि तुमने जो कहा, वह मुझे अच्छा नहीं लगा। आप ऐसा नहीं कहते हैं। आप ऐसा कहते हैं कि तुम गलत बात कह रहे हो। आप सारा जिम्मा दूसरे पर डालते हैं।
सूरज उगता है सुबह, आपको सुंदर लगता है। तो आप ऐसा नहीं कहते कि यह सूरज का उगना मुझे सुंदर लगता है। आप कहते हो, सूरज बड़ा सुंदर है। आप बड़ी गलती कर रहे हो। क्योंकि आपके पड़ोस में ही खड़ा हुआ कोई आदमी कह सकता है कि सूरज सुंदर नहीं है। वह भी यही कह रहा है कि मुझे सुंदर नहीं लगता है। सूरज की बात ही करनी फिजूल है। सूरज सुंदर है या नहीं, इसे कैसे तय करिएगा? इतना ही तय हो सकता है कि आपको कैसा लगता है।
किसी ने गाली दी, आपको बुरी लगती है, तो आप यह मत कहिए कि यह गाली बुरी है। आप इतना ही कहिए कि यह गाली मुझे बुरी लगती है। मैं जिस ढंग का आदमी हूं उसमें यह गाली जाकर बड़ी बुरी लगती है।
अपने को केंद्र बनाकर रखेगा साधक। अगर उसे ईश्वर दिखाई नहीं पड़ता, तो वह यह नहीं कहेगा कि संसार में कोई ईश्वर नहीं है। यह तो बड़ी नासमझी की बात है। इतना ही कहेगा कि मुझे संसार में ईश्वर का कोई अनुभव नहीं होता—मुझे!
साधक हमेशा स्वयं को केंद्र में रखेगा। और तब सवाल उठेगा कि मुझे अनुभव नहीं होता, तो मैं क्या करूं कि अनुभव हो सके? वह प्रमाण नहीं पूछेगा ईश्वर के लिए कि प्रमाण क्या हैं? वह पूछेगा, मार्ग क्या हैं?
तो पहली बात कि मुझे अनुभव नहीं है, इसकी गहरी प्रतीति। फिर दूसरी बात कि अनुभव का मार्ग क्या है? क्योंकि मुझे अनुभव नहीं है, उसका अर्थ ही यह हुआ कि मैं उस जगह अभी नहीं हूं जहां से अनुभव हो सके। मैं उस द्वार पर नहीं खड़ा हूं, जहां से वह दिखाई पड़ सके। मैं उस तल पर नहीं हूं जहां से उसकी झलक हो सके। मेरी वीणा तैयार नहीं है कि उसके हाथ उस पर संगीत को पैदा कर सकें। मेरे तार ढीले होंगे, तार टूटे होंगे। तो मुझे मेरी वीणा को तैयार करना पड़ेगा। मुझे योग्य बनना पड़ेगा कि उसका अनुभव हो सके।
ईश्वर की तलाश स्वयं के रूपांतरण की खोज है। ईश्वर की क्षलाश ईश्वर की तलाश नहीं है, आत्म—परिष्कार है। मुझे योग्य बनना पड़ेगा कि मैं उसे देख पाऊं। मुझे योग्य बनना पड़ेगा कि वह मुझे प्रतीत होने लगे, उसकी झलक, उसका स्पर्श।
आपको खयाल है कि जितनी चीजें आपके चारों तरफ हैं, क्या आपको उन सबका पता होता है? वैज्ञानिक कहते हैं कि सौ में से केवल दो प्रतिशत चीजों का आपको पता चलता है। और पता इसलिए चलता है कि आप उन पर ध्यान देते हैं, इसलिए पता चलता है। नहीं तो पता नहीं चलता।
अगर आप एक कार में बैठे हैं और कार का इंजन थोड़ी—सी खट—खट की आवाज करने लगे, आपको पता नहीं चलेगा, ड्राइवर को फौरन पता चल जाएगा। आप भी वहीं बैठे हैं। आपको क्यों सुनाई नहीं पड़ता? आपका ध्यान नहीं है उस तरफ। सुनाई तो आपके भी कान को पड़ता ही होगा, क्योंकि आवाज हो रही है। लेकिन ड्राइवर को सुनाई पड़ता है, आपको सुनाई नहीं पड़ता। आपका ध्यान उस तरफ नहीं है, ड्राइवर का ध्यान उस तरफ है।
आप अपने कमरे में बैठे हैं। कभी आपने खयाल किया कि दीवाल की घड़ी टक—टक करती रहती है, आपको सुनाई नहीं पड़ती। आज लौटकर कमरे में आख बंद करके ध्यान करना, फौरन टक—टक सुनाई पड़ने लगेगी। और टक—टक धीमी आवाज है। बाहर का कितना ही शोरगुल हो रहा है, अगर आप ध्यान देंगे, तो टक—टक सुनाई पड़ने लगेगी।
अगर आप थोड़ा—सा शांत होकर ध्यान दें, तो हृदय की धड़कन भी सुनाई पड़ने लगेगी। वह तो चौबीस घंटे धड़क रहा है। आपको उसका पता नहीं चलता, क्योंकि उस तरफ ध्यान नहीं है। जिस तरफ ध्यान होता है, उस तरफ अनुभव होता है।
तो साधक पूछेगा कि परमात्मा के अनुभव के लिए कैसा ध्यान हो मेरा? किस तरफ मेरे ध्यान को मैं लगाऊं कि वह मौजूद हो, तो उसकी मुझे प्रतीति होने लगे? उसकी प्रतीति आपके ध्यान के प्रवाह पर निर्भर करेगी।
आपको वही दिखाई पड़ता है, जो आप देखते हैं। अगर आप चमार हैं, तो आपको लोगों के सिर नहीं दिखाई पड़ते, पैर दिखाई पड़ते हैं। दिखाई पड़ेंगे ही। क्योंकि ध्यान सदा जूते पर लगा हुआ है। और चमार दुकान पर आपकी शक्ल नहीं देखता, आपका जूता देखकर समझ जाता है कि जेब में पैसे हैं या नहीं। वह जूता ही सारी। कहानी कह रहा है आपकी। जो उसकी गति आपने बना रखी है, उससे सब पता चल रहा है कि आपकी हालत क्या होगी। आपके जूते की हालत आपकी हालत है।
मैंने सुना है कि एक दर्जी घूमने गया रोम। लौटकर आया तो उसके पार्टनर ने, उसके साझीदार ने पूछा, क्या—क्या देखा? तो सब बातें उसने बताईं और उसने कहा कि पोप को भी देखने गया था। गजब का आदमी है। तो उसके साझीदार ने कहा कि पोप के संबंध में कुछ और विस्तार से कहो। उसने कहा कि आध्यात्मिक है, दुबला—पतला है। ऊंचाई पांच फीट दो इंच से ज्यादा नहीं, और कमीज की साइज थर्टी सिक्स शार्ट!
पोप का दर्शन करने गया था वह। मगर दर्जी है, तो पोप की कमीज पर खयाल जाएगा। अब वह अगर लौटकर पोप की कमीज की खबर दे, तो इसका यह मतलब नहीं कि पोप की कोई आत्मा नहीं थी वहां। मगर आत्मा देखने के लिए कोई और तरह का आदमी चाहिए।
ध्यान जहां हो, वही दिखाई पड़ता है। तो फिर साधक पूछेगा कि मुझे उसका अनुभव नहीं होता, तो कहीं कोई आयाम ऐसा है जिस तरफ मेरा ध्यान नहीं जाता है। तो उस तरफ मैं कैसे ध्यान को ले जाऊं?
फिर ध्यान की विधियां हैं। फिर प्रार्थना के मार्ग हैं। फिर उनमें से चुनकर लग जाना चाहिए। जो भी प्रीतिकर लगे, उस दिशा में पूरा अपने को डुबा देना चाहिए। अगर आपको लगता है कि प्रार्थना, कीर्तन— भजन आपके हृदय को आनंद और प्रफुल्लता से भर देते हैं, तो फिर आप फिक्र मत करें।
लेकिन हम बड़े अजीब लोग हैं! परमात्मा की खोज में भी हम पड़ोसी की फिक्र रखते हैं, कि पड़ोसी क्या सोचेगा! अगर मैं सुबह से उठकर कीर्तन कर दूं तो आस—पास खबर हो जाएगी कि आदमी पागल हो गया। हम पड़ोसियों की इतनी फिक्र करते हैं कि मरते वक्त भी परमात्मा का ध्यान नहीं होता। मरते वक्त भी यह ध्यान होता है कि कौन—कौन लोग मरघट पहुंचाने जाएंगे। फलां आदमी जाएगा कि नहीं! मरते वक्त भी यह खयाल होता है कि कौन—कौन पड़ोसी पहुंचाने जाएंगे।
क्या फर्क पड़ता है कि कौन पहुंचाने आपको गया! और न भी गया कोई पहुंचाने, तो कोई फर्क नहीं पड़ता। मर ही गए। लेकिन मरने के बाद भी पड़ोसियों का ध्यान रहता है। जिंदा में भी पूरे वक्त पड़ोसी से परेशान हैं _ कि पड़ोसी क्या सोचेगा! और पड़ोसी सोच रहा है कि आप क्या सोचेंगे! वह आपकी वजह से रुका है, आप उसकी वजह से रुके हैं! यह भी हो सकता है कि आप नाचने लगें, तो शायद पड़ोसी भी नाच उठे। तो वह भी आपकी वजह से रुका हो।
अगर प्रार्थना आपको प्रीतिकर लगती हो, तो भय छोड़ दें, और उस तरफ पूरे हृदय को आनंद से भरकर नाचने दें और लीन होने दें। अगर आपको प्रार्थना ठीक न समझ में आती हो, तो प्रार्थना ठीक नहीं है, ऐसा कहकर बैठ मत जाएं। तो फिर बिना प्रार्थना के मार्ग भी हैं; ध्यान है, निर्विचार होने के उपाय हैं। तो फिर विचार के त्याग का प्रयोग शुरू करें।
लेकिन बड़े मजेदार लोग हैं। अगर उनसे कहो प्रार्थना, तो वे कहते हैं, लोग क्या कहेंगे! अगर उनसे कहो ध्यान, तो वे कहते हैं, बड़ा कठिन है। हमसे न हो सकेगा। न करने का बहाना हम हजार तरह से निकाल लेते हैं।
साधक हमेशा करने का बहाना खोजेगा कि किस बहाने मैं कर सकूं। कोई भी बहाना मिल जाए, तो मैं कर सकूं। ऐसी जिसकी विधायक खोज है, वह आज नहीं कल अपने ध्यान को उस दिशा में लगा लेता है, जहां परमात्मा की प्रतीति है।
अब हम सूत्र को लें।
और जो पुरुष इंद्रियों के समुदाय को अच्छी प्रकार वश में करके मन—बुद्धि से परे सर्वव्यापी, अकथनीय स्वरूप और सदा एकरस रहने वाले, नित्य, अचल, निराकार और अविनाशी, सच्चिदानंदघन ब्रह्म को निरंतर एकीभाव से ध्यान करते हुए उपासते है, वे संपूर्ण भूतों के हित में रत हुए और सब में समान भाव वाले योगी भी मेरे को ही प्राप्त होते हैं।
कोई ऐसा न समझे कि भक्ति से ही पहुंचा जा सकता है। कोई ऐसा न समझे कि भक्ति के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं है। तो क्या दूसरे सूत्र में तत्काल कहते हैं कि वे जो भक्त हैं, और मेरे में सब भांति डूबे हुए हैं, जिनका मन सब भाति मुझमें लगा हुआ है, और जो मुझ सगुण को, साकार को निरंतर भजते हैं श्रद्धा से, वे श्रेष्ठतम योगी हैं। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि केवल वे ही पहुंचते हैं। वे भी पहुंच जाते हैं, जो निराकार का ध्यान करते हैं। वे भी पहुंच जाते हैं, जो शून्य के साथ अपना एकीभाव करते हैं। वे भी मुझको ही उपलब्ध होते हैं। उनका मार्ग होगा दूसरा, लेकिन उनकी मंजिल मैं ही हूं। तो कोई सगुण से चले कि निर्गुण से, वह पहुंचता मुझ तक ही है।
पहुंचने को और कोई जगह नहीं है। कहां से आप चलते हैं, इससे कोई भेद नहीं पड़ता। जहां आप पहुंचेंगे, वह जगह एक है। आपके यात्रा—पथ अनेक होंगे, आपके ढंग अलग—अलग होंगे। आप अलग—अलग विधियों का उपयोग करेंगे, अलग नाम लेंगे, अलग गुरुओं को चुनेंगे, अलग अवतारों को लेंगे, अलग मंदिरों में प्रवेश करेंगे, लेकिन जिस दिन घटना घटेगी, आप अचानक पाएंगे, वे सब भेद खो गए, वे सब अनेकताएं समाप्त हो गईं और आप वहा पहुंच गए हैं, जहां कोई भेद नहीं है, जहां अभेद है।
बड़ा उलटा मालूम पड़ता है। जो तर्क, चिंतन करते रहते हैं, उन्हें लगता है, दोनों बातें कैसे सही हो सकती हैं! क्योंकि निराकार और साकार तो विपरीत मालूम पड़ते हैं। सगुण और निर्गुण तो विपरीत मालूम पड़ते हैं। कितना विवाद चलता है! पंडितों ने अपने सिर खाली कर डाले हैं। अपनी जिंदगियां लगा दी हैं इस विवाद में कि सगुण ठीक है कि निर्गुण ठीक है। बड़े पंथ, बड़े संप्रदाय खड़े हो गए हैं। बड़ी झंझट है। एक—दूसरे को गलत सिद्ध करने की इतनी चेष्टा है कि करीब—करीब दोनों ही गलत हो गए हैं।
इस जमीन पर इतना जो अधर्म है, उसका कारण यह नहीं है कि नास्तिक हैं दुनिया में बहुत ज्यादा। नहीं। आस्तिकों ने एक—दूसरे को गलत सिद्ध कर—करके ऐसी हालत पैदा कर दी है कि कोई भी सही नहीं रह गया। मंदिर, मस्जिद को गलत कह देता है, मस्जिद मंदिर को गलत कह देती है। मंदिर इस खयाल से मस्जिद को गलत कहता है कि अगर मस्जिद गलत न हुई, तो मैं सही कैसे होऊंगा! मस्जिद इसलिए गलत कहती है कि अगर तुम भी सही हो, तो हमारे सही होने में कमी हो जाएगी।
लेकिन सुनने वाले पर जो परिणाम होता है, उसे लगता है कि मस्जिद भी गलत और मंदिर भी गलत। ये जो दोनों को गलत कह रहे हैं, ये दोनों गलत हैं। और यह गलती की बात इतनी प्रचारित होती है, क्योंकि दुनिया में कोई तीन सौ धर्म हैं, और एक धर्म को दो सौ निन्यानबे गलत कह रहे हैं। तो आप सोच सकते हैं कि जनता पर किसका परिणाम ज्यादा होगा! एक कहता है कि ठीक। और दो सौ निन्यानबे उसके खिलाफ हैं कि गलत। हरेक के खिलाफ दो सौ निन्यानबे हैं। इन तीन सौ ने मिलकर तीन सौ को ही गलत कर दिया है और जमीन अधार्मिक हो गई है।
सुना है मैंने, दो विद्यार्थी परीक्षा के दिनों में बात कर रहे थे। उनका दिल था कि जाएं और आज एक फिल्म देख आएं। लेकिन दोनों को अपने पिताओं का डर था। मन तो पढ़ने में बिलकुल लग नहीं रहा था। फिर एक ने कहा कि छोड़ो भी, कब तक हम परतंत्र रहेंगे? यह गुलामी बहुत हो गई। अगर यही गुलामी है जिंदगी, तो इससे तो बेहतर है, हम दोनों यहां से भाग खड़े हों। परीक्षा से भी छूटेंगे और यह बापों की झंझट भी मिट जाएगी।
पर दूसरे ने कहा कि यह भूलकर मत करना। क्योंकि वे हमारे दोनों के बाप बड़े खतरनाक हैं। वे जल्दी, देर—अबेर, ज्यादा देर नहीं लगेगी, हमें पकड़ ही लेंगे और अच्छी पिटाई होगी। तो दूसरे ने कहा कि कोई फिक्र नहीं; अगर पिटाई भी हो, तो अब बहुत हो गया सहते। हम भी सिर खोल देंगे उन पिताओं के।
तो उस दूसरे ने कहा, यह जरा ज्यादा बात हो गई। धर्मशास्त्र में लिखा हुआ है, माता और पिता का आदर परमात्मा की भांति करना चाहिए। तो उस दूसरे ने कहा, तो फिर ऐसा करना, तुम मेरे पिता का सिर खोल देना, मैं तुम्हारे पिता का! तो धर्मशास्त्र की भी आज्ञा पूरी हो जाएगी।
ये दुनिया में तीन सौ धर्मों ने यह हालत कर दी है। एक—दूसरे ने एक—दूसरे के परमात्मा का सिर खोल दिया है। लाशें पड़ी हैं अब परमात्माओं की। और वे सब इस मजे में खोल रहे हैं कि हम तुम्हारे परमात्मा का सिर खोल रहे हैं, कोई अपने का तो नहीं!
हिंदुओं ने मुसलमानों को गलत कर दिया है; मुसलमानों ने हिंदुओं को गलत कर दिया है। साकारवादियो ने निराकारवादियो को गलत कर दिया है; निराकारवादियो ने साकारवादियो को गलत कर दिया है। बाइबिल कुरान के खिलाफ है; कुरान वेद के खिलाफ है, वेद तालमुद के खिलाफ है, तालमुद इसके.। सब एक—दूसरे के खिलाफ हैं और पूरी जमीन परमात्मा की लाशो से भर गई है।
कृष्ण का यह तत्‍क्षण दूसरा सूत्र इस बात छ खबर छ कितने ही विपरीत दिखाई पड़ने वाले मार्ग हों, मंजिल एक है।
इसे थोड़ा समझें, क्योंकि तर्क के लिए बड़ी कठिनाई है। तर्क कहता है कि अगर आकार ठीक है, तो निराकार कैसे ठीक होगा? क्योंकि तर्क को लगता है कि आकार के विपरीत है निराकार। लेकिन निराकार आकार के विपरीत नहीं है। आकार में भी निराकार ही प्रकट हुआ है। और निराकार भी आकार के विपरीत नहीं है। जहां आकार लीन होता है, उस स्रोत का नाम निराकार है।
लहर के विपरीत नहीं है सागर। क्योंकि लहर में भी सागर ही प्रकट हुआ है। लहर भी सागर के विपरीत नहीं है, क्योंकि सागर से ही पैदा होती है, तो विपरीत कैसे होगी! और सागर में ही लीन होती है, तो विपरीत कैसे होगी! जो मूल है, उदगम है और जो अंत है, उसके विपरीत होने का क्या उपाय है?
निराकार और आकार विपरीत नहीं हैं। विपरीत दिखाई पड़ते हैं, क्योंकि हमारे पास देखने की सीमित क्षमता है। वे विपरीत दिखाई पड़ते हैं, क्योंकि देखने की हमारे पास इतनी विस्तीर्ण क्षमता नहीं है कि दो विरोधों को हम एक साथ देख लें। हमारी देखने की क्षमता तो इतनी कम है कि जिसका हिसाब नहीं।
अगर मैं आपको एक कंकड़ का छोटा—सा टुकड़ा हाथ में दे दूं और आपसे कहूं कि इसको पूरा एक साथ देख लीजिए, तो आप पूरा नहीं देख सकते। एक तरफ एक दफा दिखाई पड़ेगी। फिर उसको उलटाइए, तो दूसरी तरफ दिखाई पड़ेगी। और जब दूसरा हिस्सा दिखाई पड़ेगा, तो पहला दिखाई पड़ना बंद हो जाएगा।
एक छोटे—से कंकड़ को भी हम पूरा नहीं देख सकते, तो सत्य को हम पूरा कैसे देख सकते हैं? कंकड़ तो बड़ा है, एक छोटे—से रेत के कण को भी आप पूरा नहीं देख सकते, आधा ही देख सकते हैं। आधा हमेशा ही छिपा रहेगा। और जब दूसरे आधे को देखिएगा, तो पहला आधा आख से तिरोहित हो जाएगा।
आज तक किसी आदमी ने कोई चीज पूरी नहीं देखी। बाकी आधे की हम सिर्फ कल्पना करते हैं कि होनी चाहिए। उलटाकर जब देखते हैं, तो मिलती है, लेकिन तब तक पहला आधा खो जाता है। आदमी के देखने की क्षमता इतनी संकीर्ण है!
तो हम सत्य को पूरा नहीं देख पाते हैं। सत्य के संबंध में हमारी हालत वही है, जो हाथी के पास पांच अंधों की हो गई थी। उन सबने हाथी ही देखा था, लेकिन पूरा नहीं देखा था। किसी ने हाथी
का पैर देखा था; और किसी ने हाथी का कान देखा था; और किसी ने हाथी की सूंड देखी थी। और वे सब सही थे, और फिर भी सब गलत थे।
और जब वे गांव में वापस लौटकर आए, तो बड़ा उपद्रव और विवाद खड़ा हो गया। क्योंकि उन सबने हाथी देखा था, और सभी का दावा था कि हम हाथी देखकर आ रहे हैं। लेकिन किसी ने कहा कि हाथी सूप की भांति है; और किसी ने कहा कि हाथी है मंदिर के खंभे की भांति; और बडी मुश्किल खड़ी हो गई। और निर्णय कुछ भी नहीं हो सकता था, क्योंकि सभी की बातें इतनी विपरीत थीं। लेकिन वे सारी विपरीत बातें इसलिए विपरीत मालूम पड़ती थीं कि उन सबने अधूरा—अधूरा देखा था। और कोई हाथी से अगर पूछता, तो वह कहता, यह सब मैं हूं।
यह अर्जुन हाथी के सामने खड़ा है। इसलिए अगर एक ने कहा हो कि निराकार है वह, और किसी दूसरे ने कहा हो, साकार है वह। यह अर्जुन हाथी के सामने खड़ा है और हाथी से पूछ रहा है कि क्या हो तुम! तो हाथी कहता है, सब हूं मैं। वह जिसने कहा है कि सूप की भांति, वह मैं ही हूं; और जिसने कहा है, खंभे की भांति, वह मैं ही हूं। उन सब की भूल इसमें नहीं है; वे जो कहते हैं, उसमें भूल नहीं है। उनकी भूल उसमें है, जो वे इनकार करते हैं।
कोई भूल नहीं है अंधे की, अगर वह कहता है कि हाथी मैंने देखा जैसा, वह खंभे की भांति है। अगर वह इतना ही कहे कि जितना मैंने देखा है हाथी, वह खंभे की भांति है, तो जरा भी भूल नहीं है। लेकिन वह कहता है, हाथी खंभे की भांति है। और जब कोई कहता है कि हाथी खंभे की भांति नहीं है, सूप की भांति है, तो झगड़ा शुरू हो जाता है। तब वह कहता है, हाथी सूप की भांति हो नहीं सकता, क्योंकि खंभा कैसे सूप होगा!
हाथी से कोई भी नहीं पूछता! और हाथी से पूछने के लिए अंधे समर्थ नहीं हो सकते। और अगर हाथी कह दे कि मैं सब हूं तो अंधे सोचेंगे, हाथी पागल है। क्योंकि अंधे तो देख नहीं सकते हैं। ' सोचेंगे, हाथी पागल हो गया है। अन्यथा ऐसी व्यर्थ, बुद्धिहीन बात नहीं कहता। कोई अंधा उसकी मानेगा नहीं। सब अंधे अपनी मानते हैं। और जब अपनी मानते हैं, तो दूसरे के वक्तव्य को गलत करने की चेष्टा जरूरी हो जाती है। क्योंकि दूसरे का वक्तव्य स्वयं को गलत करता मालूम पड़ता है।
कृष्ण का यह सूत्र कह रहा है कि वे भी पहुंच जाते हैं, जो प्रेम से चलते हैं। और वे भी पहुंच जाते हैं, जो ज्ञान से चलते हैं। मार्ग विपरीत हैं।
ज्ञान से चलने वाले को शून्य होना पड़ता है। और प्रेम से चलने वाले को पूर्ण होना पड़ता है। लेकिन शून्यता और पूर्णता एक ही घटना के दो नाम हैं। शून्य से ज्यादा पूर्ण कोई और चीज नहीं है। और पूर्ण से ज्यादा शून्य कोई और चीज नहीं है।
हमारे लिए तकलीफ है। क्योंकि हमारे लिए शून्य का अर्थ है कुछ भी नहीं। और हमारे लिए पूर्ण का अर्थ है सब कुछ। ये हमारे देखने के ढंग, दृष्टि, हम जितना समझ सकते हैं, हमारी सीमा, उसके कारण यह अड़चन है।
लेकिन जो शून्य हो जाता है, वह तत्‍क्षण पूर्ण का अनुभव कर लेता है। और जो पूर्ण हो जाता है, वह भी तत्‍क्षण शून्य का अनुभव कर लेता है। थोड़ा—सा फर्क होता है। वह फर्क आगे—पीछे का होता है। जो शून्य होता हुआ चलता है, उसे पहले अनुभव शून्य का होता है। शून्य का अनुभव होते ही पूर्ण का द्वार खुल जाता है। जो पूर्ण की तरफ से चलता है, उसे पहले अनुभव पूर्ण का होता है। पूर्ण होते ही शून्य का द्वार खुल जाता है।
ऐसा समझ लें कि शून्यता और पूर्णता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जो सिक्के का हिस्सा आपको पहले दिखाई पड़ता है, जब आप उलटाएंगे, पूरा सिक्का आपके हाथ में आएगा, तो दूसरा हिस्सा दिखाई पड़ेगा।
इसीलिए ज्ञानी पहले प्रेम से बिलकुल रिक्त होता चला जाता है और अपने को शून्य करता है। प्रेम से भी शून्य करता है, क्योंकि वह भी भरता है।
तो महावीर ने कहा है कि सब तरह के प्रेम से शून्य; सब तरह के मोह, सब तरह के राग, सबसे शून्य। इसलिए महावीर ने कह दिया कि ईश्वर भी नहीं है। क्योंकि उससे भी राग बन जाएगा, प्रेम बन जाएगा। कुछ भी नहीं है, जिससे राग बनाना है। सब संबंध तोड़ देने हैं। और प्रेम संबंध है। और अपने को बिलकुल खाली कर लेना है।
जिस दिन खाली हो गए महावीर, उस दिन जो पहली घटना घटी, वह आप जानते हैं वह क्या है! वह घटना घटी प्रेम की। इसलिए महावीर से बड़ा अहिंसक खोजना मुश्किल है। क्योंकि शून्य से चला था यह आदमी। और सब तरफ से अपने को शून्य कर लिया था। परमात्मा से भी शून्य कर लिया था। जिस दिन पहुंचा मंजिल पर, उस दिन इससे बड़ा प्रेमी खोजना मुश्किल है। यह उलटी बात हो गई।
इसलिए महावीर ने जितना जोर दिया फिर प्रेम पर—वह अहिंसा उनका नाम है प्रेम के लिए। वह ज्ञानी का शब्द है प्रेम के लिए। क्योंकि प्रेम से डर है कि कहीं आम आदमी अपने प्रेम को न समझ ले। इसलिए अहिंसा। अहिंसा का मतलब इतना ही है कि दूसरे को जरा भी दुख मत देना।
और ध्यान रहे, जो आदमी दूसरे को जरा भी दुख न दूं इसका खयाल रखता है, उस आदमी से दूसरे को सुख मिल पाता है। और जो आदमी खयाल रखता है कि दूसरे को सुख दूं वह अक्सर दुख देता है।
भूलकर भी दूसरे को सुख देने की कोशिश मत करना। वह आपकी सामर्थ्य के बाहर है। आपकी सामर्थ्य इतनी है कि आप कृपा करना, और दुख मत देना। आप दुख से बच जाएं दूसरे को देने से, तो काफी सुख देने की आपने व्यवस्था कर दी। क्योंकि जब आप कोई दुख नहीं देते, तो आप दूसरे को सुखी होने का मौका देते हैं। सुखी तो वह खुद ही हो सकता है। आप सुख नहीं दे सकते; सिर्फ अवसर जुटा सकते हैं।
सुख देने की कोशिश मत करना किसी को भी भूलकर, नहीं तो वह भी दुखी होगा और आपको भी दुखी करेगा। सुख कोई दे नहीं सकता है।
इसलिए महावीर ने नकार शब्द चुन लिया, अहिंसा। दुख भर मत देना, यही तुम्हारे प्रेम की संभावना है। इससे तुम्हारा प्रेम फैल सकेगा।
महावीर शून्य होकर चले और प्रेम पर पहुंच गए। कृष्ण पूरे के पूरे प्रेम हैं। और उनसे शून्य आदमी खोजना मुश्किल है। सारा प्रेम है, लेकिन भीतर एक गहन शून्य खड़ा हुआ है। इसलिए इस प्रेम में कहीं भी कोई बंधन निर्मित नहीं होता।
इसलिए हमने कहानी कही है कि सोलह हजार प्रेयसिया, पत्नियां हैं उनकी। और फिर भी हमने कृष्ण को मुक्त कहा है। सोलह हजार प्रेम के बंधन के बीच जो आदमी मुक्त हो सके, वह भीतर शून्य होना चाहिए; नहीं तो मुक्त नहीं हो सकेगा।
पर जैन नहीं समझ सके कृष्ण को। जैसा कि हिंदू नहीं समझ सकते महावीर को। जैन नहीं समझ सके, क्योंकि जैनों को लगा, जिसके आस—पास सोलह हजार स्त्रियां हों! एक स्त्री नरक पहुंचा देने के लिए काफी है। सोलह हजार स्त्रियां जिसके पास हों, इसके लिए बिलकुल आखिरी नरक खोजना जरूरी है। इसलिए जैनों ने कृष्ण को सातवें नरक में डाला हुआ है। क्योंकि जहां इतना प्रेम घट रहा हो, वहा बंधनहो ही गया होगा।
लेकिन उन्हें खयाल नहीं है कि यह आदमी बांधा नहीं जा सकता, क्योंकि भीतर यह आदमी है ही नहीं। यह मौजूद नहीं है। जो मौजूद हो, वह बांधा जा सकता है। अगर आप आकाश पर मुट्ठी बांधेंगे, तो मुट्ठी रह जाएगी, आकाश बाहर हो जाएगा। आकाश को अगर बांधना हो, तो हाथ खुला चाहिए। आपने बांधा कि आकाश बाहर गया।
जो शून्य की भांति है, वह बांधा नहीं जा सकता। भीतर यह आदमी शून्य है, लेकिन इसकी यात्रा प्रेम की है। इसलिए कृष्ण जैसा शून्य आदमी खोजना मुश्किल है।
आप दोनों तरफ से चल सकते हैं। अपनी—अपनी पात्रता, क्षमता, अपना निज स्वभाव पहचानना जरूरी है।
इसलिए कृष्ण ने कहा कि वे जो दूसरी तरफ से चलते हैं—निराकार, अद्वैत, निर्गुण, शून्य—वे भी मुझ पर ही पहुंच जाते हैं।
तब सवाल यह नहीं है कि आप कौन—सा मार्ग चुनें। सवाल यह है कि आप किस मार्ग के अनुकूल अपने को पाते हैं। आप कहां हैं? कैसे हैं? आपका व्यक्तित्व, आपका ढांचा, आपकी बनावट, आपके निजी झुकाव कैसे हैं?
एक बड़ा खतरा है, और सभी साधकों को सामना करना पड़ता है। और वह खतरा यह है कि अक्सर आपको अपने से विपरीत स्वभाव वाला व्यक्ति आकर्षक मालूम होता है। यह खतरा है। इसलिए गुरुओं के पास अक्सर उनके विपरीत चेले इकट्ठे हो जाते हैं। क्योंकि जो विपरीत है, वह आकर्षित करता है। जैसे पुरुष को स्त्री आकर्षित करती है; स्त्री को पुरुष आकर्षित करता है।
आप ध्यान रखें, यह विपरीत का आकर्षण सब जगह है। अगर आप लोभी हैं, तो आप किसी त्यागी गुरु से आकर्षित होंगे। फौरन आप कोई त्यागी गुरु को पकड़ लेंगे। क्यों? क्योंकि आपको लगेगा कि मैं एक पैसा नहीं छोड़ सकता और इसने सब छोड़ दिया! बस, चमत्कार है। आप इसके पैर पकड लेंगे। तो त्यागियों के पास अक्सर लोभी इकट्ठे हो जाएंगे। यह बड़ी उलटी घटना है, लेकिन घटती है।
अगर आप क्रोधी हैं, तो आप किसी अक्रोधी गुरु की तलाश करेंगे। आपको जरा—सा भी उसमें क्रोध दिख जाए, आपका विश्वास खतम हो जाएगा। क्योंकि आपका अपने में तो विश्वास है नहीं; आप अपने दुश्मन हैं; और यह आदमी भी क्रोध कर रहा है, तो आप ही जैसा है; बात खतम हो गई।
जिस दिन आपको पता चलता है कि गुरु आप जैसा है, गुरु खतम। वह आपसे विपरीत होना चाहिए। अगर आप स्त्रियों के पीछे भागते रहते हैं, तो गुरु को बिलकुल स्त्री पास भी नहीं फड़कने देनी चाहिए; उसके शिष्य चिल्लाते रहने चाहिए कि छू मत लेना, कोई स्त्री छू न ले। तब आपको जंचेगा कि हौ, यह गुरु ठीक है। सब अपने दुश्मन हैं, इसलिए अपने से विपरीत को चुन लेते हैं। फिर बड़ा खतरा है। क्योंकि अपने से विपरीत को चुन तो लेते हैं आप, आकर्षित तो होते हैं, लेकिन उस मार्ग पर आप चल नहीं सकते हैं। क्योंकि जो आपके विपरीत है, वह आप हो नहीं सकते। इसलिए अक्सर चेले कहीं भी नहीं पहुंच पाते।
साधक को पहली बात ध्यान में रखनी चाहिए कि मेरी स्थिति क्या है? मैं किस ढंग का हूं? मेरा ढंग ही मेरा मार्ग बनेगा।
तो बेहतर तो यह है कि अपनी स्थिति को ठीक से समझकर और यात्रा पर चलना चाहिए। गुरु को समझकर यात्रा पर चलने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। अपने को समझकर गुरु खोजना चाहिए। गुरु खोजकर पीछा नहीं करना चाहिए। जो अपने को समझकर गुरु खोज लेता है, मार्ग खोज लेता है, जो अपने स्वधर्म को पहचान लेता है...।
समझ लें कि आपको प्रेम का कोई अनुभव ही नहीं होता। बहुत लोग हैं, जिनको अनुभव नहीं होता। मगर सबको यह खयाल रहता है कि मैं प्रेम करता हूं। तब बड़ी कठिनाई हो जाती है। अगर आपको प्रेम का कोई अनुभव ही नहीं होता है, तो भक्ति का मार्ग आपके लिए नहीं है। अगर प्रेम करने वाले आपको पागल मालूम पड़ते हैं, तो भक्ति का मार्ग आपके लिए नहीं है।
कभी आपने सोचा कि अगर मीरा आपको बाजार में नाचती हुई मिल जाए, तो आपके मन पर क्या छाप पड़ेगी?
इसको ऐसा सोचिए कि अगर आप बाजार में नाच रहे हों कृष्ण का नाम लेकर, तो आपको आनंद आएगा या आपको फिक्र लगेगी कि कोई अब पुलिस में खबर करता है! लोग क्या सोच रहे होंगे? लोक—लाज, मीरा ने कहा है, छोड़ी तेरे लिए। वह लोक—लाज छोड़ सकेंगे आप?
प्रेम का कोई अनुभव आपको अगर हुआ हो और वह अनुभव आपको इतना कीमती मालूम पड़ता हो कि सब खोया जा सकता है, तो. ही भक्ति का मार्ग आपके लिए है।
और कुनकुने भक्त होने से न होना अच्छा। ल्‍यूक वार्म होने से कुछ नहीं होता दुनिया में। उबलना चाहिए तो ही भाप बनता है पानी। और जब तक आपकी भक्ति भी उबलती हुई न हो, कुनकुनी हो, तब तक सिर्फ बुखार मालूम पड़ेगा, कोई फायदा नहीं होगा। बुखार से तो न—बुखार अच्छा। अपना नार्मल टेम्प्रेचर ठीक। क्योंकि बुखार गलत चीज है; उससे परिवर्तन भी नहीं होता, और उपद्रव भी हो जाता है।
और ध्यान रहे, परिवर्तन हमेशा छोर पर होता है। जब पानी उबलता है सौ डिग्री पर, तब भाप बनता है। और जब प्रेम भी उबलता है सौ डिग्री पर, जब बिलकुल दीवाना हो जाता है, तो ही मार्ग खुलता है। उससे पहले नहीं।
अगर वह आपका झुकाव न हो, तो उस झंझट में पड़ना ही मत। तो फिर बेहतर है कि आप प्रेम का खयाल न करके, ध्यान का खयाल करना। फिर किसी परमात्मा से अपने को भरना है, इसकी फिक्र छोड़ देना। फिर तो सब चीजों से अपने को खाली कर लेना है, इसकी आप चिंता करना। वही आपके लिए उचित होगा। फिर एक—एक विचार को धीरे—धीरे भीतर से बाहर फेंकना। और भीतर साक्षी— भाव को जन्माना। और एक ही ध्यान रह जाए कि उस क्षण को मैं पा लूं जब मेरे भीतर कोई चिंतन की धारा न हो, कोई विचार न हो।
जब मेरे भीतर निर्विचार हो जाएगा, तो मेरा निराकार से मिलन हो जाएगा। और जब मेरे भीतर प्रेम ही प्रेम रह जाएगा—उन्मत्त प्रेम, विक्षिप्त प्रेम, उबलता हुआ प्रेम—तब मेरा सगुण से मिलन हो जाएगा।
अपना निज रुझान खोजकर जो चलता है, और उसको उसकी पूर्णता तक पहुंचा देता है...। आप ही हैं द्वार; आप ही हैं मार्ग; आप में ही छिपी है मंजिल। थोड़ी समझ अपने प्रति लगाएं और थोड़ा अपना निरीक्षण करें और अपने को पहचानें, तो जो बहुत कठिन दिखाई पड़ता है, वह उतना ही सरल हो जाता है।

आज इतना ही।
पांच मिनट रुकेंगे। कोई उठे नहीं। कीर्तन में भाव से भाग लें और फिर जाएं।




कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें