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मंगलवार, 17 फ़रवरी 2015

गीता दर्शन--(भाग--6) प्रवचन--145

कर्मयोग की कसौटी(प्रवचनछठवां)

अध्‍याय—12
सूत्र—

अथैतदष्यस्थ्योऽसि कर्तुं मद्योगमख्सि
सर्क्कर्मकलत्यागं न: कुरु यतक्ष्मवान्।। 11।।
श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासत् ज्ञानद्धयानं विशिष्यते
ध्यानात्कर्मफलत्‍याग: त्यागाव्छान्तिरनन्तरम्।। 12।।

और यदि हमको भी करने के लिए असमर्थ है, तो जीते हुए मन वाला और मेरी प्राप्‍तिरूप योग के शरण हुआ सब कर्मों के कल का मेरे लिए त्याग कर।
क्योंकि मर्म को न जाकर किए हुए अभ्यास से परोक्ष ज्ञान श्रेष्ठ है और परोक्ष ज्ञान से मुझ परमेश्वर के स्वरूप का ध्यान श्रेष्ठ है तथा ध्यान से भी सब क्रमों के फल का मेरे लिए त्याग करना श्रेष्ठ है। और त्याग से तत्‍काल ही परम शांति होती है।

 पहले कुछ प्रश्न।

एक मित्र ने पूछा है, बुद्धि और भाव का विकास क्या साथ—साथ संभव नहीं है? स्वस्थ व्यक्ति क्या ध्यान और भक्ति एक साथ नहीं कर सकता? व्यक्ति तो पूरा है—बुद्धि भी, भाव भी, कर्म भी—तो फिर साधना का मार्ग एकांगी क्यों होना चाहिए?

 व्‍यक्ति तो पूरा है, लेकिन वह व्यक्ति है आदर्श। वह आप नहीं हैं, जो पूरे हैं। जब व्यक्ति अपनी पूर्णता को प्रकट होता है, उपलब्ध होता है, तब उसमें सभी बातें पूरी हो जाती हैं। उसकी बुद्धि भी उतनी ही प्रखर होती है, जितना उसका भाव। उसका कर्म, उसकी बुद्धि, उसका हृदय, सभी मिल जाते हैं, त्रिवेणी बन जाते हैं।
लेकिन यह है अंतिम लक्ष्य। आप अभी ऐसे हैं नहीं। और यात्रा करनी है आपको। तो आप तो जिस तरफ ज्यादा झुके हैं, जिस आयाम में आपकी रुचि, रुझान ज्यादा है, उससे ही यात्रा कर सकेंगे। और आप अभी खंड—खंड हैं, अधूरे हैं। कोई है, जिसके पास भाव ज्यादा है और बुद्धि कम है। कोई है, जिसके पास कर्म की कुशलता है और कर्म का लगाव है, न बुद्धि है, न भाव है, या तुलना में कम है। और कोई है कि बुद्धि गहन है, भाव कोरा है, कर्म की वृत्ति नहीं है। ऐसे हम अधूरे—अधूरे हैं।
पूर्णता तो होगी उपलब्ध, अभी है नहीं। और यह जो अधूरा आदमी है, इसे तो अपने अधूरेपन से ही प्रारंभ करना होगा। तो जो आपके पास ज्यादा हो, वैसा ही मार्ग चुनना उचित है।
और मार्ग तो सदा ही एकांगी होता है। मंजिल पूर्ण होती है। मार्ग ही अगर पूर्ण हो, तो फिर मंजिल का कोई अर्थ ही न रहा।
मार्ग और मंजिल में फर्क क्या है? मार्ग और मंजिल में बड़ा फर्क यही है कि मार्ग तो अधूरा होगा। और इसलिए जितने लोग हैं इस जगत में, उतने मार्ग होंगे। हर आदमी अपनी जगह से चलेगा, और हर आदमी वहीं से शुरू करेगा, जहां है और जो है। पहुंचना है वहा, जहां व्यक्ति समाप्त हो जाता है, और जहां अव्यक्ति, निराकार, पूर्ण उपलब्ध होता है।
सभी नदियां यात्रा करती हैं सागर की तरफ। सागर कोई यात्रा नहीं करता। कोई नदी पूरब से चलती है, कोई पश्चिम से चलती है। कोई दक्षिण की तरफ बहती है; कोई उत्तर की तरफ बहती है। नदियों के रास्ते होंगे। और नदियों को रास्ते पकड़ने ही पड़ेंगे। अगर नदी यह सोचे कि सागर का तो कोई आयाम, कोई दिशा नहीं है, इसलिए मैं भी कोई आयाम और दिशा न पकडूं? तो फिर सागर तक न पहुंच पाएगी। सागर तक पहुंचने के लिए रास्ता पकड़ना होगा। हम जहां खड़े हैं, वहा से सागर दूर है।
तो ज्यादा विचारणीय यह नहीं है कि पूर्ण पुरुष क्या है; ज्यादा विचारणीय यह है कि अपूर्ण पुरुष आप कैसे हैं। और अपने को समझकर यात्रा पर निकलना होगा। अगर आप पैदल चल सकते हैं, तो ठीक, बैलगाड़ी से चल सकते हैं, तो ठीक, घोड़े की सवारी कर सकते हैं, तो ठीक; हवाई जहाज से यात्रा कर सकते हैं, तो ठीक। आप क्या साधन चुनते हैं, वह आपकी सामर्थ्य पर निर्भर है। और साधन महत्वपूर्ण है। और साधन एकांगी होगा। क्योंकि जो आपका साधन है, वह दूसरे का नहीं होगा; उसमें फर्क होंगे।
एक भक्त है। अब जैसे मीरा है। मीरा को बुद्ध का मार्ग समझ में नहीं आ सकता। मीरा को—मीरा के पास है हृदय एक स्त्री का, एक प्रेमपूर्ण हृदय—इस प्रेमपूर्ण हृदय को यह तो समझ में आ सकता है कि परमात्मा से अपने को भर ले, परमात्मा को अपने में विराजमान कर ले; परमात्मा के लिए अपने द्वार—दरवाजे खुले छोड़ दे और उसे प्रवेश कर जाने दे। मीरा को बुद्ध की बात समझ में नहीं आ सकती कि अपने को सब भांति खाली और शून्य कर लिया जाए।
थोड़ा समझें। पुरुष को आसान है समझ में आना कि अपने को खाली कर लो। स्त्री को सदा आसान है समझ में आना कि अपने को भर लो, पूरी तरह भर लो। स्त्री गर्भ है, शरीर में भी और मन में भी। वह अपने को भर सकती है। भरने की वृत्ति उसमें सहज है। पुरुष अपने को खाली करता है। शरीर के तल पर भी अपने को खाली करता है। भरना उसे थोड़ा कठिन मालूम होता है।
तो मीरा को समझ में आती है बात कि परमात्मा से अपने को भर ले। गर्भ बन जाए और परमात्मा उसमें समा जाए। बुद्ध को समझ में आनी मुश्किल है। बुद्ध को लगता है, अपने को उलीच दूं और सब भांति खाली कर दूं; और जब मैं शून्य हो जाऊंगा, तो जो सत्य है, उससे मेरा मिलन हो जाएगा।
बुद्ध शून्य होकर सत्य बनते हैं। मीरा अपने को भरकर पूर्ण से सत्य बनती है। उन दोनों के रास्ते अलग हैं। न केवल अलग, बल्कि विपरीत हैं। लेकिन जहां वे पहुंच जाते हैं, वह मंजिल एक है।
मंजिल पर पहुंचकर बुद्ध और मीरा में फर्क करना मुश्किल हो जाएगा। सारा फर्क रास्ते का फर्क था। जैसे—जैसे मंजिल करीब आएगी, अंतर कम होता जाएगा। और जब मंजिल बिलकुल आ जाएगी, तो आप मीरा की शक्ल में और बुद्ध की शक्ल में फर्क न कर पाएंगे। आप पहचान भी न पाएंगे, कौन मीरा है, कौन बुद्ध!
लेकिन यह तो आखिरी घटना है। इस आखिरी घटना के इंचभर पहले भी बुद्ध और मीरा को पहचाना जा सकता है। उनमें फर्क होंगे। यह मैंने मोटी बात कही। लेकिन एक—एक व्यक्ति में फर्क होंगे।
इसीलिए दुनिया में इतने धर्म हैं। क्योंकि अलग—अलग लोगों ने अलग—अलग रास्तों से चलकर उस सत्य की झलक पाई है। और जिसने जिस रास्ते से चलकर झलक पाई है, स्वभावत: वह कहेगा, यही रास्ता ठीक है। उसके कहने में कोई गलती भी नहीं है। दूसरे रास्ते वह जानता भी नहीं है। दूसरे रास्तों पर वह चला भी नहीं है। और जिन रास्तों पर आप चले नहीं हैं, उनके संबंध में आप क्या कहेंगे? जिस रास्ते से आप गुजरे हैं, कहेंगे, यही ठीक है। और कहेंगे कि इसी पर आ जाओ। और समझाएंगे लोगों को कि कहीं भटक मत जाना किसी और रास्ते पर।
इसलिए जब दुनिया में अलग—अलग धर्मों के लोग कहते हैं कि आ जाओ हमारे रास्ते पर, तो जरूरी नहीं है कि उनके इस कहने में करुणा न हो और सिर्फ आपको बदलने की राजनैतिक आकांक्षा हो। जरूरी नहीं है। हो सकता है करुणा हो, और हो सकता है कि जिस रास्ते पर चलकर उनको आनंद की खबर मिल रही है, वे चाहते हों कि आप भी उसी पर चलें।
लेकिन इससे खतरा पैदा होता है। इससे हर रास्ते को जानने वाला दूसरे रास्ते को गलत कहने को तैयार हो जाता है। तब संघर्ष, विवाद, वैमनस्य स्वभावत: पैदा हो जाते हैं।
लेकिन अगर यह बात हमारे खयाल में आ जाए कि जितने लोग हैं इस जमीन पर, जितने हृदय हैं, उतने ही रास्ते परमात्मा की तरफ जाते हैं। जाएंगे ही। न मैं आपकी जगह खड़ा हो सकता हूं, न आपकी जगह से चल सकता हूं। न तो मैं आपकी जगह जी सकता हूं, और न आपकी जगह मर सकता हूं। कोई लेन—देन संभव नहीं है। आप ही जीएंगे अपने लिए और आपको ही मरना पड़ेगा अपने लिए। और आप ही चलेंगे। मैं अपने ही ढंग से चलूंगा। अगर यह बोध साफ हो जाए—और होना चाहिए—तो दुनिया बेहतर हो सके।
अगर यह बोध साफ हो जाए कि प्रत्येक व्यक्ति अपने ही रास्ते से चलेगा, अपने ही ढंग से चलेगा, तो हम धर्मों के बीच कलह का कोई कारण न खोज पाएं। लेकिन सबको ऐसा खयाल है कि जिस रास्ते से मैं चलता हूं वही ठीक है। उपद्रव होता है।
जैसे आप हैं, वैसा ही आपका रास्ता होगा। क्योंकि आपका रास्ता आपसे ही निकलता है। वह पहुंचेगा परमात्मा तक, लेकिन निकलता आपसे है। पहुंचते—पहुंचते आप समाप्त होते जाएंगे और जिस दिन परमात्मा पर आप पहुंच जाएंगे, पाएंगे कि आप बचे नहीं।
इसलिए आज तक किसी व्यक्ति का परमात्मा से मिलना नहीं हुआ है। जब तक व्यक्ति रहता है, तब तक परमात्मा की कोई खबर नहीं रहती। और जब परमात्मा होता है, तो व्यक्ति समाप्त हो गया होता है, मिट गया होता है, खो गया होता है।
जैसे बूंद सागर में गिरती है, तो जब तक बूंद रहती है, तब तक सागर से दूर रहती है, चाहे फासला इंचभर का ही क्यों न हो। आधे इंच का क्यों न हो, जरा—सा रत्तीभर का फासला क्यों न हो, लेकिन जब तक अभी सागर से दूर है, तभी तक बूंद है। जिस क्षण मिलेगी, बूंद खो गई और सागर ही रह गया।
तो यह कहना कि बूंद सागर से मिलती है, बड़ा मुश्किल है। मिलती तब है, जब बूंद नहीं रह जाती। और जब तक बूंद रहती है, तब तक मिलती नहीं, तब तक दूर रहती है।
आप मिट जाएंगे रास्ते पर। रास्ता आपको समाप्त कर लेगा। रास्ते का मतलब ही है, अपने मिटने का उपाय, अपने को खोने का उपाय, समाप्त करने का उपाय।
धर्म एक अर्थ में मृत्यु है और एक अर्थ में जीवन। इस अर्थ में मृत्यु है कि आप मिट जाएंगे; और इस अर्थ में महा जीवन कि परमात्मा उपलब्ध होगा। बूंद खो जाएगी और सागर हो जाएगा। लेकिन अभी आप प्रथम चरण पर पूर्णता का खयाल न करें। अभी तो आप अपना झुकाव समझ लें। और अपने झुकाव को समझकर चलें। अन्यथा बहुत समय, बहुत शक्ति व्यर्थ ही चली जाती है।
अब मैं देखता हूं कि अगर एक व्यक्ति ऐसे घर में पैदा हो जाए जिसका जन्मगत संस्कार भावना का है और वह भावना वाला न हो.। एक व्यक्ति जैन घर में पैदा हो जाए, महावीर की परंपरा में पैदा हो जाए, और उसके पास हृदय हो मीरा जैसा, तो मुश्किल में पड़ेगा। अगर कोई भक्ति के संप्रदाय में पैदा हो जाए और उसके पास बुद्धि हो बुद्ध या महावीर जैसी, तो मुश्किल में पड़ेगा। क्योंकि जो सिखाया जाएगा, वह उसके अनुकूल नहीं है। और जो उसके अनुकूल हो सकता है, वह उसका संप्रदाय नहीं है।
तो अपने विपरीत चलने से बहुत कष्ट होगा। और अपने विपरीत चलकर कोई पहुंच नहीं सकता।
आज दुनिया में जो इतनी अधार्मिकता दिखाई पड़ती है, उसका एक कारण यह भी है कि आप इस बात की खोज ही नहीं करते कि आपके अनुकूल क्या है। आप इसकी फिक्र में लगे रहते हैं, मैं किस घर में पैदा हुआ हूं। कौन—सा शास्त्र मुझे पढ़ाया गया, कुरान, कि बाइबिल, कि गीता? आप इसकी फिक्र नहीं करते कि मैं क्या हूं? मैं कैसा हूं? क्या गीता मुझसे मेल खाएगी? या कुरान मुझसे मेल खाएगा? या बाइबिल मुझसे मेल खाएगी? जो आपसे मेल खाता हो, वही आपके लिए रास्ता है।
दुनिया ज्यादा धार्मिक हो सकती है, अगर हम धर्म को जन्म के साथ जोड़ना बंद कर दें। और बच्चों को सारे धर्मों की शिक्षाएं दी। जाएं और यह बच्चे के निर्णय पर हो कि जब वह इक्कीस वर्ष का हो जाए, एक उम्र पा ले प्रौढ़ता की, तब अपना धर्म चुन ले। उसे सारे धर्मों की शिक्षा दे दी जाए और उसे अपने हृदय की पहचान के मार्ग समझा दिए जाएं और इक्कीस वर्ष का होकर वह अपना धर्म चुन ले। तो यह दुनिया ज्यादा धार्मिक हो सकती है। क्योंकि तब व्यक्ति अपने अनुकूल चुनेगा
अभी आपकी अनुकूलता का सवाल नहीं है। संयोग की बात है कि आप कहां पैदा हो गए हैं। उससे आपका तालमेल बैठता है कि नहीं बैठता है, कहना मुश्किल है। इसलिए देखें, जब भी कोई धर्म प्रारंभ होता है, तो उसमें जो जान होती है, वह बाद में नहीं रह जाती। अब मोहम्मद पैदा हों। तो मोहम्मद जब पैदा होते हैं, तो जो लोग मुसलमान बनते हैं, वे उनकी च्वाइस से बनते हैं। वे मुसलमान घर्म में पैदा नहीं हुए हैं, क्योंकि मुसलमान धर्म तो था नहीं। जब मोहम्मद के प्रभाव में वे आते हैं, तो अपने चुनाव से आते हैं। वे चुनते हैं इस्लाम को। फिर उनके बच्चे तो इस्लाम में पैदा होते हैं, वे मुर्दा होंगे।
बुद्ध जब पैदा होते हैं, तो जो आदमी बौद्ध बनता है, वह चुनता है। वह सोचता है कि बुद्ध से मेरी बात मेल खाती है कि नहीं? यह मुझे अनुकूल पड़ती है या नहीं? तो वह तो चुनकर बनता है। लेकिन उसका बेटा, उसके बेटों के बेटे, वे तो बिना चुने बनेंगे। बस, जैसे ही जन्म से धर्म जुड़ेगा, वैसे मुर्दा होता जाएगा। इसलिए बुद्ध जब जिंदा होते हैं, तो जो ताजगी होती है; महावीर जब जिंदा होते हैं, तो उनके आस—पास जो हवा होती है, मोहम्मद या जीसस जब जिंदा होते हैं, तो उनके पास जो फूल खिलते हैं, फिर वे बाद में नहीं खिलते। वे धीरे— धीरे मुर्झाते जाते हैं। मुर्झा ही जाएंगे। बाद में धर्म एक बोझ हो जाता है।
हजार, दो हजार साल पहले आपके किसी बाप—दादे ने धर्म चुना था, तो उसके लिए तो चुनाव था, क्रांति थी। आपके लिए? आपके लिए बपौती है। आपको मुफ्त मिल गया है, बिना चुनाव किए, बिना मेहनत किए, बिना सोचे, बिना समझे। बस, आपको रटा दिया गया बचपन से। तो आप उस अर्थ में बौद्ध, मुसलमान, हिंदू नहीं हो सकते।
मेरी अपनी समझ है कि दुनिया बेहतर होगी, जिस दिन हम धर्मों की शिक्षा देंगे—सब धर्मों की—और व्यक्ति को स्वतंत्र छोड़ देंगे कि अपना धर्म चुन ले। उस दिन दुनिया से धर्मों के झगड़े भी समाप्त हो जाएंगे। क्योंकि एक—एक घर में पांच—पांच, सात—सात धर्मों के लोग मिल जाएंगे। क्योंकि कोई बेटा चुनेगा सिक्ख धर्म को, कोई बेटा चुनेगा इस्लाम धर्म को, कोई बेटा हिंदू रहना चाहेगा, कोई बेटा ईसाई होना चाहेगा। यह उनकी मौज होगी। और एक घर में जब सात धर्म, आठ धर्म, दस धर्म हो सकेंगे, तो दुनिया से धार्मिक दंगे बंद हो सकते हैं, उसके पहले बंद नहीं हो सकते। कोई उपाय नहीं है उसके पहले बंद करने का।
इसलिए धार्मिक आदमियों के लिए तो एक बड़ी जिम्मेवारी है और वह यह कि वे अपने बच्चों को अगर सच में धार्मिक बनाना चाहते हैं, तो हिंदू मुसलमान, ईसाई न बनाएं। सिर्फ धर्मों की शिक्षा दें। और उनसे कह दें कि तुम समझ लो ठीक से, और जब तुम्हारी मौज आए और जब तुम्हें भाव पैदा हो, तब तुम चुनाव कर लेना। और तुम जो भी चुनाव करो तुम्हारे लिए वह तुम्हारा चुनाव है।
तो हम दुनिया से बहुत—सा उपद्रव अलग कर सकते हैं।
सभी रास्ते सही हैं। लेकिन सभी रास्ते सभी के लिए सही नहीं हैं। हर रास्ता पहुंचाता है, लेकिन हर रास्ता आपको नहीं पहुंचाएगा। आपको तो एक ही रास्ता पहुंचा सकता है। इसलिए खोजना जरूरी है कि कौन—सा रास्ता आपको पहुंचा सकता है। एक संगीतज्ञ है। एक कवि है। एक चित्रकार है। निश्चित ही, इनके धर्म अलग—अलग होंगे। क्योंकि इनके व्यक्तित्व अलग—अलग हैं।
अगर एक कवि को एक ऐसा धर्म पकड़ाया जाए, जो गणित की तरह रूखा—सूखा, नियमों का धर्म है, तो उसे समझ में नहीं आएगा। उससे कोई मेल नहीं बैठेगा। और अगर वह मजबूरी में उसको ओढ़ भी ले, तो वह ऊपर से ओढ़ा हुआ होगा। उसकी आत्मा से कभी भी उसका संबंध नहीं जुड़ेगा। वह धर्म उसके भीतर बीज नहीं बनेगा, अंकुरित नहीं होगा। उसमें फल—फूल नहीं लगेंगे। उसे तो कोई काव्य—धर्म चाहिए। ऐसा धर्म जो नाचता हो, गाता हो। उसे तो उसी धर्म से मेल बैठ पाएगा।
अब एक चित्रकार हो, एक मूर्तिकार हो, उसे तो कोई धर्म चाहिए, जो परमात्मा को सौंदर्य की भांति देखता हो। उसे तो कोई धर्म चाहिए, जो सौंदर्य की पूजा करता हो, तो ही उसके अनुकूल बैठेगा। ऐसा कोई धर्म जो सौंदर्य का दुश्मन हो, विरोध करता हो रस का, राग का, उसके अनुकूल नहीं बैठेगा। और अगर वह किसी तरह उस धर्म में अपने को समाविष्ट भी कर ले, तो कभी भी उसका हृदय उसे छुएगा नहीं। फासला बना ही रहेगा।
एक गणितज्ञ हो और गणित की तरह साफ—सुथरा काम चाहता हो और दो और दो चार ही होते हों, तो उसे कोई कविता वाला धर्म प्रभावित नहीं कर सकता। उसे उपनिषद प्रभावित नहीं करेंगे, क्योंकि उपनिषद काव्य हैं। उसे पतंजलि का योग—सूत्र प्रभावित करेगा, क्योंकि वह विज्ञान है।
अपनी खोज पहले करनी चाहिए, इसके पहले कि आप परमात्मा की खोज पर निकलें। वह नंबर दो है। आप नंबर एक हैं। और अगर आप गलत, अपने को ही नहीं समझ पा रहे हैं ठीक से कि मैं कैसा हूं क्या हूं तो आप परमात्मा को न खोज पाएंगे। क्योंकि रास्ता आपसे निकलेगा।
इसलिए आत्म—विश्लेषण पहला कदम है। और ठीक आत्म—विश्लेषण न हो पाए, तो रुकना, जल्दी मत करना। कोई हर्जा नहीं है। वर्ष, दो वर्ष, चार वर्ष, दस वर्ष इसमें ही खोना पड़े कि मैं क्या हूं, कैसा हूं मेरा रुझान क्या है, मेरा व्यक्तित्व क्या है, तो हर्जा नहीं है।
एक बार ठीक से आप अपनी नस को पकड़ लें और अपनी नाड़ी को पहचान लें, तो रास्ता बहुत सुगम हो जाएगा। अन्यथा आप अनेक दरवाजों पर भटकेंगे, जो दरवाजे आपके लिए नहीं थे। और आप बहुत—से रास्तों पर जाएंगे और सिर्फ धूल— धवांस खाकर वापस लौट आएंगे, क्योंकि वे रास्ते आपके लिए नहीं थे।
लेकिन तब अगर ऐसा भी हो, तो भी यह भूल मत करना कि जिस रास्ते से आपको न मिला हो, तब भी किसी से मत कहना कि वह रास्ता गलत है। क्योंकि वह रास्ता भी किसी के लिए सही हो सकता है। वह आपके लिए गलत सिद्ध हुआ है, इससे सबके लिए गलत सिद्ध नहीं हो गया है।
इतनी विनम्रता मन में रखनी ही चाहिए खोजी को कि जिस रास्ते से मैं नहीं पहुंच पाया, जरूरी नहीं है कि वह रास्ता गलत हो। इतना ही सिद्ध होता है कि मुझमें और उस रास्ते में मेल नहीं बना, तालमेल नहीं बना। मैं उस रास्ते के योग्य नहीं था। वह रास्ता मेरे योग्य नहीं था। लेकिन किसी के योग्य हो सकता है।
और उस व्यक्ति का खयाल रखकर हमेशा एक स्मरण बनाए रखना चाहिए कि जब भी कोई चीज गलत हो, तब कहना चाहिए, मेरे लिए गलत हो गई। और जब भी कोई चीज सही हो, तो कहना चाहिए, मेरे लिए सही हो गई। लेकिन उसे सार्वजनिक, युनिवर्सल दुथ, सार्वभौम सत्य की तरह घोषणा नहीं करनी चाहिए। उससे अनेक लोगों को कष्ट, पीड़ा और उलझाव पैदा होता है।

 एक मित्र ने पूछा है, भक्ति—योग में आपने प्रेम को आधारभूत स्थान दिया है। पता नहीं हम सामान्य लोग प्रेम से परिचित हैं या केवल कामवासना से! दोनों में क्या फर्क है? और क्या कामवासना प्रेम बन सकती है?

 पूछने जैसा है और समझने जैसा है। क्योंकि हम कामवासना को ही प्रेम समझ लेते हैं। और कामवासना प्रेम नहीं है, प्रेम बन सकती है।
कामवासना में संभावना है प्रेम की। लेकिन कामवासना प्रेम नहीं है। केवल बीज है। अगर ठीक—ठीक उपयोग किया जाए, तो अंकुरित हो सकता है। लेकिन बीज वृक्ष नहीं है।
इसलिए जो कामवासना से तृप्त हो जाए या समझ ले कि बस, अंत आ गया, उसके जीवन में प्रेम का पता ही नहीं होता।
कामवासना प्रेम बन सकती है। कामवासना का अर्थ है, दो शरीर के बीच आकर्षण, शरीर के बीच। प्रेम का अर्थ है, दो मनों के बीच आकर्षण। और भक्ति का अर्थ है, दो आत्माओं के बीच आकर्षण। वे सब आकर्षण हैं। लेकिन तीन तलों पर।
जब एक शरीर दूसरे शरीर से आकृष्ट होता है, तो काम, सेक्स। और जब एक मन दूसरे मन से आकर्षित होता है, तो प्रेम, लव। और जब एक आत्मा दूसरी आत्मा से आकर्षित होती है, तो भक्ति, श्रद्धा।
हम शरीर के तल पर जीते हैं। हमारे सब आकर्षण शरीर के आकर्षण हैं। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि शरीर का आकर्षण बुरा है।
शरीर का आकर्षण बुरा बन जाता है, अगर वह उससे ऊपर के आकर्षण तक पहुंचने में बाधा डाले। और शरीर का आकर्षण सहयोगी हो जाता है, सीडी बन जाता है, अगर वह ऊपर के आकर्षण में सहयोगी हो।
अगर आप किसी के शरीर की तरफ आकर्षित होकर धीरे— धीरे उसके मन की तरफ भी आकर्षित होने लगें, और किसी के मन के प्रति आकर्षित होकर धीरे— धीरे उसकी आत्मा के प्रति भी आकर्षित होने लगें, तो आपकी कामवासना विकृत नहीं हुई, ठीक मार्ग से चली और परमात्मा तक पहुंच गई।
लेकिन किसी के शरीर पर आप रुक जाएं, तो ऐसा जैसे आप कहीं गए और किसी के घर के बाहर ही घूमते रहे और दरवाजे से भीतर प्रवेश ही न किया। तो गलती घर की नहीं है; गलती आपकी है। घर तो बुला रहा था कि भीतर आओ। दीवालें बाहर से दिखाई जो पड़ती हैं, वे घर नहीं हैं।
शरीर तो केवल घर है। उसके भीतर निवास है। उसके भीतर दोहरा निवास है। उसके भीतर व्यक्ति का निवास है, जिसको मैं मन कह रहा हूं। और अगर व्यक्ति के भी भीतर प्रवेश करें, तो अंतर्गर्भ में परमात्मा का निवास है, जिसको मैं आत्मा कह रहा हूं। हर व्यक्ति अपने गहरे में परमात्मा है। अगर थोड़ा उथले में उसको पकड़े, तो व्यक्ति है। और अगर बिलकुल बाहर से पकड़े, तो शरीर है। हर व्यक्ति की तीन स्थितियां हैं। शरीर की भाति वह पदार्थ है। मन की भांति वह व्यक्ति है, चेतन। और परमात्मा की भांति वह निराकार है, महाशून्य है, पूर्ण।
काम, प्रेम, भक्ति, तीन कदम हैं। पर समझ लेना जरूरी है कि जब तक आप किसी के शरीर से आकृष्ट हो रहे हैं,। और ध्यान रहे, आवश्यक नहीं है कि आप जीवित मनुष्यों के शरीर से ही आकृष्ट होते हों। यह भी हो सकता है कि कृष्ण की मूर्ति में आपको कृष्ण का शरीर ही आकृष्ट करता हो, तो वह भी काम है।
कृष्ण का सुंदर शरीर, उनकी आंखें, उनका मोर—मुकुट, उनके हाथ की बांसुरी, उनका छंद—बद्ध व्यक्तित्व, उनका अनुपात भरा शरीर, उनकी नीली देह, वह अगर आपको आकर्षित करती हो, तो वह भी काम है। वह भी फिर अभी प्रेम भी नहीं है; भक्ति भी नहीं है।
और अगर आपको अपने बेटे के शरीर में भी, शरीर भूल जाता हो और जीवन का स्पंदन अनुभव होता हो। खयाल ही न रहता हो कि वह देह है, बल्कि इतना ही खयाल आता हो कि एक अभूतपूर्व घटना है, एक चैतन्य की लहर है। ऐसी अगर प्रतीति होती हो, तो बेटे के साथ भी प्रेम हो गया। और अगर आपको अपने बेटे में ही परमात्मा का अनुभव होने लगे, तो वह भक्ति हो गई।
किस के साथ पर निर्भर नहीं है भक्ति और प्रेम और काम। कैसा संबंध! आप पर निर्भर है। आप किस भांति देखते हैं और किस भांति आप गति करते हैं!
तो सदा इस बात को खयाल रखें, क्या आपको आकृष्ट कर रहा है—देह, पदार्थ, आकार?
पर इसका यह मतलब नहीं है कि मैं कह रहा हूं कि कुछ बुरा है। भला है। इतना भी है, यह भी क्या कम है! कुछ तो ऐसे लोग हैं, जिनको देह भी आकृष्ट नहीं करती। तो भीतर के आकर्षण का तो कोई सवाल ही नहीं उठता। उन्हें कुछ आकृष्ट ही नहीं करता। वे मरे हुए लोग हैं; वे लाश की तरह चलते हैं। उन्हें कुछ खींचता ही नहीं। उन्हें कुछ पुकारता नहीं। उनके लिए कोई आह्वान नहीं मालूम पड़ता। वे इस जगत में अकेले हैं, अजनबी हैं। इस जगत से उनका कहीं कोई संबंध नहीं जुड़ता
कोई हर्ज नहीं। कम से कम शरीर खींचता है; यह भी तो खबर है कि आप जिंदा हैं। कोई चीज खींचती है। कोई चीज आपको पुकारती है। आपको बाहर बुलाती है। यह भी धन्यभाग है। लेकिन इस पर ही रुक जाना खतरनाक है। आप बहुत सस्ते में अपने जीवन को बेच दिए। आप कौड़ियों पर रुक गए। अभी और आगे यात्रा हो सकती थी। आप दरवाजे पर ही ठहर गए। अभी तो यात्रा शुरू ही हुई थी और आपने समझ लिया कि मंजिल आ गई! आपने पड़ाव को मंजिल समझ लिया। ठहरें; लेकिन आगे बढ़ते रहें।
मैंने सुना है, यहूदी फकीर हिलेल से किसी ने पूछा कि अध्यात्म का क्या अर्थ है? तो उसने कहा, और आगे, और आगे। वह आदमी कुछ समझा नहीं। उसने कहा, मैं कुछ समझा नहीं! तो हिलेल ने कहा कि जहां भी तेरा रुकने का मन होने लगे, इस वचन को याद रखना, और आगे, और आगे। जब तक तू ऐसी जगह न पहुंच जाए, जहां और आगे कुछ बचे ही नहीं, तब तक तू बढ़ते जाना। यही अध्यात्म का अर्थ है।
शरीर पर रुकना मत। और आगे। शरीर भी परमात्मा का है। इसलिए बुरा कुछ भी नहीं है। निंदा मेरे मन में जरा भी नहीं है। लेकिन शरीर शरीर ही है, चाहे परमात्मा का ही हो। वह बाहरी परकोटा है। और आगे। मन भी एक परकोटा है, शरीर से गहरा, शरीर से सूक्ष्म, लेकिन फिर भी परकोटा है। और आगे। और जब हम शरीर और मन दोनों को छोड़कर भीतर प्रवेश करते हैं, तो सब परकोटे खो जाते हैं और सिर्फ आकाश रह जाता है।
इसलिए किसी भी व्यक्ति के प्रेम से परमात्मा को पाया जा सकता है। एक पत्थर की मूर्ति के प्रेम में गिरकर भी परमात्मा को पाया जा सकता है। परमात्मा को कहीं से भी पहुंचा जा सकता है। सिर्फ ध्यान रहे कि रुकना नहीं है। उस समय तक नहीं रुकना है, जब तक कि शून्य न आ जाए और आगे कुछ भी यात्रा ही बाकी न बचे। रास्ता खो जाए, तब तक चलते ही जाना है।
लेकिन कामवासना के संबंध में मनुष्य का मन बहुत रुग्ण है। और हजारों—हजारों साल से आदमी को कामवासना के विपरीत और विरोध में समझाया गया है। शरीर की निंदा की गई है। और कहा गया है कि शरीर जो है वह शत्रु है। उसे नष्ट करना है, उससे दोस्ती तोड़नी है। उससे सब संबंध छोड़ देने हैं। शरीर ही बाधा है, ऐसा समझाया गया है।
इस समझ के दुष्परिणाम हुए हैं। क्योंकि यह नासमझी है, समझ नहीं है। और जो व्यक्ति अपने शरीर से लड़ने में लग जाएगा, वह इसी लड़ाई में नष्ट हो जाएगा। उसकी सारी खोज भटक जाएगी, इसी लडने में नष्ट हो जाएगा।
शरीर भी परमात्मा का है। ठीक आस्तिक इस जगत में ऐसी कोई चीज नहीं मानता, जो परमात्मा की नहीं है। आस्तिक मानता है, सभी कुछ उसका है। इसलिए सभी तरफ से उसकी तरफ जाया जा सकता है। और हर चीज उसका मंदिर है।
जिन्होंने ये बातें समझाई हैं, दुश्मनी की, घृणा की, कडेमनेशन की, शरीर को दबाने, नष्ट करने की, वे पैथालाजिकल रहे होंगे; वे थोड़े रुग्ण रहे होंगे। उनका चित्त थोड़ा मनोविकार से ग्रसित रहा होगा। वे स्वस्थ नहीं थे। क्योंकि स्वस्थ व्यक्ति तो अनुभव करेगा कि शरीर तक भी उसी की खबर है। शरीर भी है इस दुनिया में इसीलिए, क्योंकि परमात्मा है। नहीं तो शरीर भी नहीं हो सकेगा। और शरीर भी जीवित है, क्योंकि परमात्मा की किरण उस तक आती है और उसे छूती है।
इस भाति जब कोई देखने को चलता है, तो सारा जगत स्वीकार योग्य हो जाता है। कामवासना भी स्वीकार योग्य है। वह आपकी शक्ति है। और परमात्मा ने उसका उपयोग किया है, बहुलता से उपयोग किया है।
फूल खिलते हैं; आप जानते हैं क्यों? पक्षी सुबह गीत गाते हैं, जानते हैं क्यों? मोर नाचता है; जानते हैं क्यों? कोयल बहुत प्रीतिकर मालूम पड़ती है, क्यों?
वह सब कामवासना है। मोर नाच रहा है, वह प्रेमी के लिए निमंत्रण है। कोयल गा रही है, वह साथी की तलाश है। फूल खिल रहे हैं, वह तितलियों की खोज है, ताकि फूलों के वीर्यकणों को तितलिया अपने साथ ले जाएं और दूसरे फूलों पर मिला दें।
सेमर का वृक्ष देखा आपने! जब सेमर का फूल पकता है और गिरता है, तो उस फूल के साथ जो बीज होते हैं, उनमें रुई लगी होती है। वनस्पतिशास्त्री बहुत खोजते थे कि इन फूलों के बीज में रुई की क्या जरूरत है? सेमर में रुई की क्या जरूरत है? बहुत खोज से पता चला कि वे बीज अगर सेमर के नीचे ही गिर जाएं, तो सेमर इतना बड़ा वृक्ष है कि वे बीज उसके नीचे सड़ जाएंगे, पनप नहीं सकेंगे। उन बीजों को दूर तक ले जाने के लिए वृक्ष रुई पैदा करता है। ताकि वे बीज रुई में उलझे रहें और हवा के झोंके में रुई वृक्ष से दूर चली जाए। कहीं दूर जाकर बीज गिरे, ताकि नए वृक्ष पैदा हो सकें।
वे बीज क्या हैं? बीज वृक्ष के वीर्यकण हैं, वे कामवासना हैं। अगर सारे जगत को गौर से देखें, तो सारा जगत काम का खेल है। और इस सारे जगत में केवल मनुष्य है, जो काम से प्रेम तक उठ सकता है। वह केवल मनुष्य की क्षमता है।
कामवासना तो पूरे जगत में है। पौधे में, पशु में, पक्षी में, सब में है। अगर आपके जीवन में भी कामवासना ही सब कुछ है, तो आप समझना कि आप अभी मनुष्य नहीं हो पाए। आप पौधे, पशु—पक्षियों के जगत का हिस्सा हैं। वह तो सब के जीवन में है। मनुष्य प्रेम तक उठ सकता है।
मनुष्य की संभावना है प्रेम। जिस दिन आप प्रेमपूर्ण हो जाते हैं, वासना से उठते हैं और प्रेम से भर जाते हैं। दूसरे के शरीर का आकर्षण महत्वपूर्ण नहीं रह जाता। दूसरे के व्यक्तित्व का आकर्षण, दूसरे की चेतना का आकर्षण, दूसरे के गुण का आकर्षण, दूसरे के भीतर जो छिपा है! आपकी आंखें जब देखने लगती हैं शरीर के पार और जब व्यक्ति की झलक मिलने लगती है, तब आप मनुष्य बने।
और जब आप मनुष्य बन जाते हैं, तब आपके जीवन में दूसरी संभावना का द्वार खुलता है, वह है भक्ति। जिस दिन आप भक्त बन जाते हैं, उस दिन आप देव हो जाते हैं; उस दिन आप दिव्यता को उपलब्ध हो जाते हैं।
काम तो सारे जगत की संभावना है। अगर आप भी कामवासना में ही जीते हैं और समाप्त हो जाते हैं, तो आपने कोई उपलब्धि नहीं की; मनुष्य जीवन व्यर्थ खोया। अगर आपके जीवन में प्रेम के फूल खिल जाते हैं, तो आपने कुछ उपलब्धि की।
और प्रेम के बाद दूसरी छलांग बहुत आसान है। प्रेम आंख गहरी कर देता है और हम भीतर देखना शुरू कर देते हैं। और जब शरीर के पार हम देखने लगते हैं, तो मन के पार देखना बहुत कठिन नहीं है। क्योंकि शरीर बहुत ग्रीस, बहुत स्थूल है। जब उसके भीतर भी हम देख लेते हैं, तो मन तो बहुत पारदर्शी है, काच की तरह है। उसके भीतर भी दिखाई पड़ने लगता है। तब हर व्यक्ति भगवान का मंदिर हो जाता है। तब आप जहां भी देखें, आंख अगर गहरी जाए, तो भीतर वही दीया जल रहा है। दीए होंगे करोड़ों, लेकिन दीए की ज्योति एक ही परमात्मा की है।

 एक मित्र ने पूछा है कि मैं कर्म —योग की साधना में लगा हूं? पर डर होता है कि पता नहीं मैं अपने को धोखा तो नहीं दे रहा हूं! क्योंकि न मैं भक्ति करता हूं? न मैं ध्यान करता हूं। मैं तो, जो कर्म है जीवन का, उसे किए चला जाता हूं। पर मापदंड क्या है कि मुझे पक्का पता चल सके कि जो मैं कर रहा हूं? वह कर्म—योग है, और आत्मवंचना नहीं हो रही है? और यह कर्म—योग मेरा स्वभाव है, मेरे अनुकूल है या नहीं, इसका भी कैसे पता लगे?

 प्रश्न कीमती है। और जिसने पूछा है, उसके मन में सिर्फ जिज्ञासा नहीं है, मुमुक्षा है। पीड़ा से उठा हुआ प्रश्न है, बुद्धि से नहीं।
निश्चित ही, आदमी अपने को धोखा देने में समर्थ है, बहुत कुशल है। और दूसरे को हम धोखा दें, तो वहां तो दूसरा भी होता है, कभी पकड़ ले। हम खुद को ही धोखा दें, तो वहां कोई भी नहीं होता पकड़ने वाला। हम ही होते हैं। सिर्फ देने वाला ही होता है। इसलिए लंबे समय तक हम दे सकते हैं। खुद को धोखा हम जन्मों—जन्मों तक दे सकते हैं। दे सकते ही नहीं, हमने दिया है। हम दे रहे हैं।
तो यह स्वाभाविक है साधक के मन में प्रश्न उठना कि न मैं ध्यान कर रहा हूं न मैं भक्ति कर रहा हूं मैं अपने कर्म को किए चला जा रहा हूं कहीं मैं अपने को धोखा तो नहीं दे रहा?
तीन बातें समझ लेनी जरूरी हैं। पहली बात, अगर आप अपने कर्म को परमात्मा पर छोड़ दिए हैं, तो जो ध्यान से होता है, वह इस छोड़ने से होना शुरू हो जाएगा। आप शांत होने लगेंगे।
अगर आप अशांत हों, तो समझना कि कर्म—योग आप जो कर रहे हैं, वह सिर्फ धोखा है। क्योंकि जैसे ही मैं परमात्मा पर छोड़ देता हूं कि सारा कर्म उसका, मुझे अशांत होने की जगह नहीं रह जाती। अशांति तो तभी तक है, जब तक मैं अपने पर सारा बोझ लिए हुए हूं।
अगर आपके कर्म—योग में आपकी अशांति खो रही हो, खो गई हो, और आप शांत होते जा रहे हों, तो समझना कि ठीक रास्ते पर हैं; धोखा नहीं है।
दूसरी बात, अगर आपने कर्म परमात्मा पर छोड़ दिया है, तो फल कोई भी आए, आपके भीतर समभाव निर्मित रहेगा। चाहे सुखी हों, चाहे दुखी हों; चाहें सफलता आए, चाहे असफलता आए। अगर सफलता अच्छी लगती हो और असफलता बुरी लगती हो, तो समझना कि आप अपने को धोखा दे रहे हैं। क्योंकि जब मैंने छोड़ ही दिया परमात्मा पर, तो मेरी न सफलता रही और न असफलता रही। अब वह जाने। और उसे अगर असफल होना है, तो उसकी मर्जी। और उसे अगर सफल होना है, तो उसकी मर्जी। मैं बाहर हो गया।
कर्म—योग का अर्थ है कि मैंने सब परमात्मा पर छोड़ दिया और मैं केवल वाहन रह गया। अब मेरी कोई जिम्मेवारी नहीं है। सब जिम्मेवारी उसकी है। मैं बाहर हूं। मैं एक साक्षी—मात्र हो गया। समभाव पैदा होगा। सफलता आएगी तो ठीक, असफलता आएगी तो ठीक। और आपके भीतर रंचमात्र भी फर्क नहीं पड़ेगा। आप वैसे ही रहेंगे सफलता में, वैसे ही असफलता में। ऐसी समबुद्धि पैदा हो रही हो, बढ़ रही हो, तो समझना कि कर्म—योग ठीक है; आप धोखा नहीं दे रहे हैं।
और तीसरी बात, जैसे ही कोई व्यक्ति सभी कुछ परमात्मा पर छोड़ देता है, यह सारा जगत उसे स्वप्नवत दिखाई पड़ने लगता है, नाटक हो जाता है। तभी तक यह असली मालूम पड़ता है, जब तक लगता है कि मैं। और जब मैं सभी उस पर छोड़ देता हूं? तो सारी बात नाटक हो जाती है। आप दर्शक हो जाते हैं; आप कर्ता नहीं रह जाते।
ध्यान रहे, जब तक मैं कर्ता हूं तब तक जगत और है। और जब मैंने सब परमात्मा पर छोड़ दिया, तो कर्ता वह हो गया। अब आप कौन रहे? आप सिर्फ दर्शक हो गए। एक फिल्म में बैठे हुए हैं। एक फिल्म देख रहे हैं। नाटक चल रहा है, आप सिर्फ देख रहे हैं। आप सिर्फ देखने वाले रह गए हैं।
तो तीसरी बात, जैसे ही आप सब परमात्मा पर छोड़ देते हैं और कर्म—योग में प्रवेश करते हैं, जगत स्वप्न हो जाता है, एक खेल हो जाता है। आप सिर्फ देखने वाले रह जाते हैं।
तो तीसरी बात, अगर आप में साक्षीभाव बढ़ रहा हो, शांति बढ़ रही हो, समभाव बढ़ रहा हो, साक्षीभाव बढ़ रहा हो, तो आप जानना कि ठीक रास्ते पर हैं, धोखे का कोई उपाय नहीं है। और अगर यह न बढ़ रहा हो, तो समझना कि आप धोखा दे रहे हैं। और अगर यह न बढ़ रहा हो और आप बहुत चेष्टा कर रहे हों, फिर भी न बढ़ रहा हो, तो समझना कि यह आपके स्वभाव के अनुकूल नहीं है। चेष्टा करके देख लेना। अगर बढ़ने लगे गति इन तीन दिशाओं में, तो समझना कि आपके अनुकूल है। अगर न बढ़े, तो किसी और दिशा से चेष्टा करना।
लेकिन लोग क्या समझते हैं कर्म—योग से? लोग समझते हैं, अपने कर्तव्य को निभाना कर्म—योग है। पत्नी है, बच्चे हैं; ठीक है। अब उलझ गए संसार में, तो नौकरी करनी है, धंधा करना है; कमाकर खिला—पिला देना है। अपना कर्तव्य पूरा करना है।

 लेकिन ऐसे जो लोग हैं, जो कहते हैं, कर्तव्य पूरा करना है, इनका चेहरा उदास होगा, आनंद से भरा हुआ नहीं होगा। ये ढो रहे हैं बोझ। इनके मन में भीतर तो कहीं चल रहा है कि ये पत्नी—बच्चे सब समाप्त हो जाते, तो बड़ा अच्छा होता। हत्या का मन बहुत गहरे में है। या यह भूल न की होती, तो बड़ा अच्छा होता। फंस गए, तो अब ढोना है, तो ढो रहे हैं। कर्तव्य अपना पूरा कर रहे हैं। इसको लोग कहते हैं, कर्म—योग कर रहे हैं!
यह कर्म—योग नहीं है। यह तो एक तरह की नपुंसकता है। न तो भाग सकते हैं और न रह सकते हैं। दोनों के बीच में अटके हैं। संन्यासी होने की भी हिम्मत नहीं है कि छोड़ दें; कि ठीक है, जो गलती हो गई, हो गई। अब माफ करो; अब जाते हैं। वह भी हिम्मत तहीं है। यह भी हिम्मत नहीं है कि जो है, उसका पूरा आनंद लें, उसको परमात्मा की कृपा समझें, अहोभाव मानें। यह भी हिम्मत नहीं है। दोनों के बीच में त्रिशंकु की तरह अटके हैं। इसको कहते हैं, कर्तव्य कर रहे हैं।
ध्यान रहे, यह कर्तव्य शब्द बहुत गंदा है। इसका मतलब होता है, बोझ ढो रहे हैं।
दो तरह के लोग हैं। एक तो जो अपनी पत्नी को प्रेम करते हैं, इसलिए नौकरी कर रहे हैं। वे नहीं कहेंगे कभी कि हम कर्तव्य कर रहे हैं। वे कहेंगे, हमारी खुशी है। जिस स्त्री को चाहा है, उसके लिए एक मकान बनाना है; एक गाड़ी लानी है। उसके लिए एक बगीचा लगाना है। जिसको चाहा है, उसे सुंदरतम जगह देनी है। इसलिए हम आनंदित हैं। और कर्तव्य शब्द उपयोग वे नहीं करेंगे। बच्चे हमारे हैं। हम खुश हैं उनकी खुशी में। उनकी आंखों में आती हुई ताजगी और उनकी आंखों में आता उल्लास हमें आनंदित करता है, इसलिए हम मेहनत कर रहे हैं। यह मेहनत हमारी खुशी है, कर्तव्य नहीं है। यह भी आदमी अच्छा है। कम से कम एक बात तो अच्छी है कि खुश है।
एक दूसरा आदमी है, जो कहता है कि हमने सब परमात्मा पर छोड़ दिया है। इसलिए परमात्मा की आज्ञा है कि बच्चों को बड़ा करो, तो हम कर रहे हैं। खुश है, क्योंकि परमात्मा की आज्ञा पूरी कर रहा है। यह भी आनंदित है। यह भी कर्तव्य नहीं निभा रहा है। यह परमात्मा की जो मर्जी, उसको पूरा कर रहा है। और अपने को परमात्मा पर छोड़ दिया है। एक पत्नी के प्रेम में आनंदित था; यह परमात्मा के प्रेम में आनंदित है। लेकिन दोनों आनंदित हैं। इनमें कर्तव्य कुछ भी नहीं है।
इन दोनों के बीच में एक तीसरा त्रिशंकु है। वह न परमात्मा का उसे कुछ पता है और पत्नी को भी पता खो गया है। वह बीच में अटका है। वह कहता है, कर्तव्य पूरा कर रहे हैं। इसको वह कर्म—योग कहता है। यह कर्म—योग नहीं है। यह आदमी मुर्दा है। इसमें हिम्मत ही नहीं है। इसको कुछ न कुछ तय करना चाहिए।
लेकिन एक बात हमेशा खयाल रखिए, जब भी आप सही दिशा में चलेंगे, तो आपके भीतर आनंद बढ़ेगा। और जब आप गलत दिशा में चलेंगे, तो उदासी बढ़ेगी। अगर आपका कर्तव्य आपको उदास कर रहा है, तो कहीं न कहीं भूल हो रही है। या तो परमात्मा की तरफ बढ़े। या पत्नी की तरफ भी बढ़े, तो भी हर्जा नहीं, लेकिन कम से कम खुश हों। क्योंकि पत्नी की तरफ खुश हुआ आदमी, कभी परमात्मा की तरफ भी खुश हो सकता है। क्योंकि खुशी तो उसे आती है। आनंद तो उसे आता है। कम से कम एक बात तो आती है कि वह आनंदित होना जानता है।
और जो पत्नी तक की खुशी में इतना आनंदित हो जाता है, जिस दिन उसे परमात्मा की तरफ यात्रा शुरू होगी, उसकी खुशी का कोई अंत न होगा। जो अपने बच्चे की आंखों में खुशी देखकर इतना खुश हो रहा था, जिस दिन उसे इस सारे जगत में परमात्मा की प्रतीति होने लगेगी, उस दिन उसकी खुशी का कोई अंत होगा! कोई सीमा होगी!
लेकिन यह बीच वाला आदमी बहुत उपद्रव है। इस बीच वाले आदमी से सावधान रहना। यह धोखे की बात है।
जहां—जहां आनंद चुकने लगे, सूखने लगे धारा, समझना कि आप गलत जा रहे हैं। क्योंकि जीवन का सम्यक विकास आनंद की तरफ है। अगर आप उदास होने लगें.।
इसलिए उदास साधु को मैं साधु नहीं मानता। वह बीमार है। उससे तो बेहतर वह गृहस्थ है, जो आनंदित है। कम से कम एक बात तो ठीक है उसमें कि आनंदित है। लेकिन हम जिन साधु—संतों को जानते हैं, आमतौर से सब लटके हुए चेहरे वाले लोग हैं। उनके पास जाओ, तो वे आपका भी चेहरा लटकाने की पूरी कोशिश करते हैं। अगर आप हंस रहे हो, प्रसन्न हो, तो जरूर पाप कर रहे हो। कहीं न कहीं कोई गड़बड है!
इन उदास लोगों से जरा बचना। ये बीमारियां हैं। और हमने और तरह की बीमारियों से तो धीरे— धीरे छुटकारा पा लिया, एंटीबायोटिक्स खोज लिए। अभी इनसे छुटकारा नहीं हो सका। ये मन पर, छाती पर गहरी बीमारियां हैं, नासूर हैं। इनसे बचना।
क्योंकि जो साधु आनंदित नहीं है, समझना कि भूल में पड़ गया है। साधु के आनंद का तो कोई अंत नहीं होना चाहिए! हम क्षुद्र चीजों में इतने आनंदित हैं और तुम परमात्मा के साथ भी इतने आनंदित नहीं हो! हम असार में इतने प्रसन्न हो रहे हैं, और तुम सार को पाकर भी उदास बैठे हुए हो! हम कौड़ियों में नाच रहे हैं और तुम कहते हो, हमने हीरे पा लिए हैं; और तुम्हारी शक्ल से पता लगता है कि तुमने कौड़िया भी गंवा दी हैं। हीरे वगैरह तुम्हें मिले नहीं हैं।
जिंदगी की सहज सम्यक धारा आनंद की तरफ है। आनंद को कसौटी समझ लें। वह निकष है। उस पर हमेशा कस लें। जो चीज आनंद न दे, समझना कि कहीं न कहीं कोई भूल हो रही है।
और आनंद से भयभीत मत होना। और कोई कितना ही कहे कि !, आनंद गलत है, भूलकर उसकी बात में मत पड़ना। क्योंकि अगर आनंद गलत है, तो फिर इस जगत में कुछ भी सही नहीं हो सकता। कसना।
यह भी हो सकता है कि आनंद भूल भरा हो। जहं। आप आनंद पा रहे हों, वहां आनंद पाने योग्य कुछ न हो। यह हो सकता है। लेकिन आप आनंद पा रहे हैं, यह सही है, चाहे वह स्थिति सही न रही हो। तो आनंद पाने को बढ़ाए जाना। जिस दिन आप पाएंगे कि आपका आनंद ज्यादा हो गया और स्थिति छोटी पड़ने लगी, उस दिन आप स्थिति के ऊपर उठने लगेंगे।
एक आदमी के हाथ में.....एक छोटा बच्चा है। कंकड़—पत्थर इकट्ठे कर लेता है। और खुश होता है। रंगीन पत्थर बच्चे इकट्ठे कर लेते हैं, बड़े प्रसन्न होते हैं। खीसों में भर लेते हैं, बोझिल हो जाते हैं। मां—बाप कहते हैं, फेंको! कहां कचरा ढो रहे हो? लेकिन वे नहीं फेंकना चाहते। रात अपने बिस्तर में लेकर सो जाते हैं। उनको आनंद आ रहा है। और अच्छा नहीं है वह बाप, जो कहता है, फेंको। क्योंकि वह उनसे पत्थर ही नहीं छीन रहा है, उनका आनंद भी छीन रहा है। वह उसको पता नहीं है कि वह क्या गड़बड़ कर रहा है।
उसे तो ठीक है कि यह पत्थर है। उसकी समझ बढ़ गई है। लेकिन बच्चे की समझ अभी उसकी समझ नहीं है। और जब वह बच्चे से पत्थर छीनकर फेंक देता है, तो उसे पता नहीं कि उसने एक और अदृश्य चीज भी छीनकर फेंक दी, जो बहुत कीमती थी। पत्थर तो बेकार थे, लेकिन भीतर बच्चे का सुख भी उसने छीन लिया। और इस बच्चे को अभी समझ में आना मुश्किल है कि जो उससे छीन लिया गया, वह व्यर्थ था। क्योंकि कैसे व्यर्थ था! बच्चा जानता है, उससे आनंद मिल रहा था।
कई बार समझदार लोग नासमझियां कर देते हैं। बच्चे से पत्थर छीनने की जरूरत नहीं है। बच्चे को बुद्धि, समझ देने की जरूरत है। जैसे—जैसे बच्चे की समझ बढ़ेगी, एक दिन आप अचानक पाएंगे, पत्थर एक कोने में पड़े रह गए। अब वह उनकी तरफ ध्यान भी नहीं देता, क्योंकि उसने नए आनंद खोज लिए हैं। अब वह पत्थरों पर ध्यान नहीं देता। आप उनको उठाकर फेंक दें, अब उसे पता भी नहीं चलेगा। वह खुद ही एक दिन उनको फेंक देगा।
जैसे समझ बढ़ती है, वैसे आनंद के नए क्षेत्र खुलते हैं। सम्यक धर्म आपसे आनंद नहीं छीनता, सिर्फ आपकी समझ बढ़ाता है। तो जो व्यर्थ होते जाते हैं आनंद, वे छूटते जाते हैं।
निश्चित ही, इस संसार में जो आप आनंद ले रहे हैं, वह लेने जैसा नहीं है। उसमें कुछ खास है नहीं मामला। बच्चों के हाथ में रंगीन पत्थर जैसी बात है। लेकिन कोई हर्ज नहीं है। आप आनंद ले रहे हैं, यह भी ठीक है। समझ बढ़ानी चाहिए।
इस फर्क को आप समझ लें।
अगर आप उदास साधुओं के पास जाते हैं, तो वे आपसे आपका आनंद छीनते हैं। आपके कंकड़—पत्थर छीनते हैं। उनके साथ ही आपके भीतर का आनंद भी छिन जाता है। वे आपको समझ नहीं दे रहे हैं, आपका आनंद छीन रहे हैं। आनंद छीनने से समझ नहीं बढ़ती।
ठीक धर्म आपकी समझ बढ़ाता है, आपकी अंडरस्टैंडिंग बढ़ाता है। समझ बढ़ने से, जो व्यर्थ था, वह छूटता चला जाता है; और जो सार्थक है, उस पर हाथ बंधने लगते हैं। और धीरे— धीरे आप पाते हैं कि संसार अपने आप ऐसे छूट गया, जैसे बच्चे के हाथ से कंकड़—पत्थर। और इसी संसार में उस सारभूत पर दृष्टि पहुंच जाती है और उससे मिलन हो जाता है।
समझ बढ़नी चाहिए। और समझ बढ़ने के साथ आनंद बढ़ता है, घटता नहीं। अगर आप आनंद छोड़ने लगे, तो आनंद भी घटता है और आपकी समझ भी घटती है।
आप जो भी कर रहे हों, एक बात निरंतर कसते रहना कि उससे आपका आनंद बढ़ रहा है, तो आप निर्भय होकर बढ़ते जाना उसी दिशा में। अगर आनंद न भी होगा ठीक, तो भी कोई चिंता की बात नहीं। दिशा ठीक है। आज नहीं कल, जो गलत है, वह छूट जाएगा; और जो सही है, वह आपकी आंखों में आ जाएगा। पर अपने को साधक को कसते रहना चाहिए। और अगर आपको लगता हो, यह कुछ भी नहीं हो रहा, तो उचित है कि किसी और दिशा से परमात्मा को खोजना शुरू करें।
अब हम सूत्र को लें।
और यदि इसको भी करने के लिए असमर्थ है, तो जीते हुए मन वाला और मेरी प्राप्तिरूप योग के शरण हुआ सब कर्मों के फल का मेरे लिए त्याग कर।
कृष्ण ने कहा, तू सब कर्म मैं कर रहा हूं ऐसा समझ ले। लेकिन अगर यह भी न हो सके! हो सकता है, यह भी तुझे कठिन हो कि कैसे समझ लूं कि सब आप कर रहे हैं। कर तो मैं ही रहा हूं।
निश्चित ही कठिन है। अगर कोई आपसे कहे कि सब परमात्मा कर रहा है, तो भी आप कहेंगे कि कैसे मान लूं कि सब परमात्मा कर रहा है?
मैंने ऐसे लोग देखे हैं कि अगर उनको समझा दो कि सब परमात्मा कर रहा है, तो वे सब करना छोड़कर बैठ जाते हैं। वे कहते हैं, जब परमात्मा ही कर रहा है, तो फिर हमको क्या करना है! लेकिन यह बैठना वे कर रहे हैं। इतना वे बचा लेते हैं। इसको वे यह नहीं कहते कि परमात्मा बिठा रहा है, तो ठीक। नहीं, वे कहते हैं, बैठ हम रहे हैं। हम क्या करें अब! जब परमात्मा ही सब कर रहा है, तो फिर हम कुछ न करेंगे।
लेकिन हम कुछ न करेंगे, इसका मतलब इतना तो हम कर ही सकते हैं। इतना हमने अपने लिए बचा लिया। इसका मतलब यह भी हुआ कि जो भी वे कर रहे थे, वे मानते नहीं कि परमात्मा कर रहा था। वे खुद कर रहे थे, इसलिए अब वे कहते हैं, हम रोक लेंगे। अब देखें, परमात्मा कैसे करता है!
कठिन है यह मानना कि परमात्मा कर रहा है, क्योंकि अहंकार मानने को राजी नहीं होता कि मैं नहीं कर रहा हूं। ही, अगर कुछ बुरा हो जाए, तो मानने को राजी हो भी सकता है कि परमात्मा कर रहा है।
असफलता आ जाए, तो आदमी आसानी से छोड़ देता है कि परमात्मा, भाग्य। सफलता आ जाए, तो वह कहता है, मैं। सफलता को उस पर छोड़ना बहुत मुश्किल हो जाता है। क्यों? क्योंकि सफलता से अहंकार परिपुष्ट होता है। तो जिस चीज से अहंकार परिपुष्ट होता है, वह तो हम अपने लिए बचाना चाहते हैं।
सुनी है मैंने एक कहानी। एक संन्यासी छोटा—सा आश्रम बनाकर रहता था। आश्रम मैंने बनाया, ऐसा लोगों से कहता था। ज्ञान मैंने पाया, त्याग मैंने किया, ऐसा लोगों से कहता था। एक दिन एक गाय उसके आश्रम में घुस गई और फूल और बगिया को चर गई। बगिया को चरते देखकर उसे बहुत क्रोध आया। लकड़ी उठाकर उसने गाय को मार दी। गाय मर गई।
एक ब्राह्मण द्वार पर खड़ा था। उसने पूछा कि यह तुमने क्या किया! गाय को मार डाला! तो उस संन्यासी ने कहा कि सब परमात्मा कर रहा है, मैं क्या! तो उसकी मर्जी! उसके बिना मारे गाय मर सकती है? उसके बिना हाथ उठाए, मेरा हाथ उठ सकता है? उसकी बिना आज्ञा के पत्ता नहीं हिलता।
लेकिन आश्रम उसने बनाया है। ज्ञान उसने पैदा किया है। त्याग उसने किया है। गाय भगवान ने मारी है!
ये हमारे मन की तरकीबें हैं। हम सब यही करते रहते हैं। जब आप हार जाते हैं जिंदगी में, तो कहते हैं, भाग्य। और जब जीत जाते हैं, तो कहते हैं, मैं। पर सभी कुछ परमात्मा पर छोड़ना मुश्किल है। असफलता तो छोड़ना बिलकुल आसान है, सफलता छोड़नी मुश्किल है। सब में दोनों आ जाते हैं।
तो कृष्ण कहते हैं, मुश्किल होगा शायद तुझे यह भी करना कि कर्म तू मुझ पर छोड़ दे। क्योंकि खुद को छोड़ना पड़ेगा। और अति कठिन है बात खुद को छोड़ने की। तो फिर तू एक काम कर। कर्म न छोड़ सके, तो कम से कम कर्म का फल छोड़ दे।
यह थोड़ा आसान है पहले वाले से। क्योंकि फल हमारे हाथ में है भी नहीं। कर्म हम कर सकते हैं, लेकिन फल क्या आएगा, इसको हम सुनिश्चित रूप से तय नहीं कर सकते हैं।
मैं एक पत्थर उठाकर मार सकता हूं। लेकिन आप उस पत्थर से मर ही जाएंगे, यह कहना मुश्किल है। यह भी हो सकता है कि पत्थर आपको लगे और आपकी कोई बीमारी ठीक हो जाए। ऐसा हुआ है। ऐसा अनेक बार हो जाता है कि आप किसी का नुकसान करने गए थे और उसको फायदा हो गया।
चीन में ऐसा हुआ, उससे अक्यूपंक्चर नाम की चिकित्सा—पद्धति पैदा हुई। आज से कोई तीन हजार साल पहले एक युद्ध में एक सैनिक को पैर में गोली लगी। उसको जिंदगी भर से सिर में दर्द था। पैर में गोली लगी; गोली आर—पार हो गई। गोली के लगते ही दर्द एकदम गायब हो गया। वह जिंदगी भर का दर्द था। और चिकित्सक हार गए थे, और वह दर्द अलग होता नहीं था।
तो बड़ी हैरानी हुई कि पैर में गोली लगने से दर्द सिर का कैसे चला गया! तो फिर खोजबीन की गई, तो पाया गया कि शरीर में जो नाड़ियों का संस्थान है और जो ऊर्जा का प्रवाह है, उसमें कुछ बिंदु हैं। अगर उन पर चोट की जाए, तो उनका परिणाम दूसरे बिंदुओं पर होता है।
तो फिर चीन में आठ सौ शरीर में बिंदु खोज लिए गए। तो फिर गोली मारने की जरूरत नहीं है, उन पर जरा—सी भी चोट की जाए..। इसलिए अक्यूपंक्चर में सुई चुभा देते हैं। आपके सिर में दर्द है, तो वे जानते हैं कि आपके शरीर में कुछ बिंदु हैं, जहां सुई चुभा दो। सुई चुभाते ही से सिरदर्द नदारद हो जाएगा।
अक्यूपंक्यर हजारों तरह की बीमारियां ठीक करता है बिना इलाज के, सिर्फ सुई चुभाकर। जरा—सी जगह पर, ठीक जगह पर सुई चुभाकर। वह आपके भीतर जो ऊर्जा है शरीर की.।
अब जिस आदमी ने गोली मारी थी, उसने सोचा नहीं था कि इसका सिर ठीक करना है। और उसने यह नहीं सोचा था कि उसके गोली मारने से अक्यूपंक्चर पैदा होगा! और सारी दुनिया में—इसका ही सिर ठीक नहीं होगा—करोड़ों लोगों का सिर ठीक होगा। और सिर ही ठीक नहीं होगा, लाखों बीमारियां ठीक होंगी। आप क्या करते हैं, वह तो सोच सकते हैं कि आप कर रहे हैं। लेकिन क्या होगा, वह आप तय नहीं कर सकते कि क्या होगा। होना आपके हाथ में नहीं है। आप किसी को जहर दें और हो सकता है कि वह अमृत सिद्ध हो जाए। और कई बार आप जहर देकर देख भी लिए हैं। और कई बार आप अमृत देते हैं और जहर हो जाता है। जरूरी नहीं है। क्योंकि फल आप पर निर्भर नहीं है। फल बहुत बड़ी विराट व्यवस्था पर निर्भर है। फल क्या होगा, कहना मुश्किल है।
तो कृष्ण कहते हैं कि कर्म न छोड़ सके, क्योंकि कर्म तो तुझे लगता है कि तू करता है, लेकिन फल तो छोड़ ही सकता है। क्योंकि फल तो पक्का नहीं है कि तू करता है। कर्म तू करता है, फल होता है। और फल निश्चित नहीं किया जा सकता। और तू नियंता नहीं है फल का। इसलिए कम से कम फल ही छोड़ दे। इतना भी कर ले। तो कर्म तू कर और फल मुझ पर छोड़ दे। जो भी होगा, वह भगवान कर रहा है तू कर रहा है, ठीक। लेकिन परिणाम भगवान ला रहा है।
सब कर्मों का फल त्याग कर दे, मेरे ऊपर छोड़ दे। क्योंकि मर्म को न जानकर किए हुए अभ्यास से परोक्ष ज्ञान श्रेष्ठ है।
बहुत—से लोग अभ्यास करते रहते हैं, मर्म को न जानते हुए। उन्हें पता नहीं है, क्यों कर रहे हैं। अभ्यास करते रहते हैं! बहुत लोग हैं। रोज मुझे ऐसे लोग मिलने आ जाते हैं। वर्षों से कुछ कर रहे हैं। उनको पता नहीं, क्यों कर रहे हैं। किसी ने बता दिया, इसलिए कर रहे हैं।
एक सज्जन को मेरे पास लाया गया। उनका दिमाग खराब होने की हालत में आ गया, तब उनके परिचित लोग उन्हें ले आए। किसी ने उनको बता दिया है कि दोनों कान को बंद करके दोनों अंगूठों से, और भीतर बादलों की गड़गड़ाहट सुननी चाहिए। तो उन्होंने सुनना शुरू कर दिया। तीन साल से वे सुन रहे हैं।
अब गड़गड़ाहट इतनी ज्यादा सुनाई पड़ने लगी कि अब और कुछ सुनाई ही नहीं पड़ता। अब अंगूठे न भी लगाएं, तो भी गड़गड़ाहट सुनाई पड़ती है। दूसरा बात भी करे, तो उन्हें सुनाई नहीं पड़ता, क्योंकि उनकी गड़गड़ाहट भीतर चल रही है!
मैंने उनसे पूछा कि तुमने गड़गड़ाहट सुनने की कोशिश काहे के लिए की थी? उन्होंने कहा, मैं तो गया था कि कैसे शांति मिले! उन्होंने कहा कि ऐसे शांति मिलेगी, तुम गड़गड़ाहट सुनो।
तुम सोचते भी तो कि गड़गड़ाहट सुनने से शांति मिलेगी? कि थोड़ी बहुत शांति होगी, वह और नष्ट हो जाएगी! है एक प्रयोग, वह भी ध्यान का एक प्रयोग है। लेकिन तुम समझ तो लेते मर्म उसका! कि तुम करने ही लगे! और अब सफल हो गए तो परेशान हो रहे हो? अब वे सफल हो गए हैं। अब गड़गड़ाहट से छुटकारा चाहिए!
बहुत—से लोग हैं, न मालूम क्या—क्या करते रहते हैं। कोई शीर्षासन कर रहा है, बिना फिक्र किए कि वह क्या कर रहा है। क्योंकि किसी ने कह दिया, कि पंडित नेहरू की आत्मकथा में पढ़ लिया, कि फलां आदमी सिर के बल खड़ा था, तो बड़ा बुद्धिमान हो गया था।
इतना आसान होता बुद्धिमान होना सिर के बल खड़े होने से, तो दुनिया में बुद्धु पाने मुश्किल थे। क्योंकि बुद्ध कम से कम सिर के बल तो खड़े हो ही सकते हैं। इसमें कोई ऐसी अड़चन की बात कहां है? निश्चित ही, लाभ हो सकता है। लेकिन मर्म को जाने बिना! मस्तिष्क में अगर ज्यादा खून चला जाए, तो नुकसान हो जाएगा। कितना खून जाना जरूरी है आपके मस्तिष्क में, न आपको पता है, न जिनसे आप सीख के आ रहे हैं, उनको पता है।
आपको पता है कि आदमी में बुद्धि ही इसलिए पैदा हुई, क्योंकि वह सीधा खड़ा हो गया। और मस्तिष्क में खून कम जा रहा है, इसलिए बुद्धि पैदा हो सकी। जानवरों को बुद्धि पैदा नहीं हो सकी, क्योंकि खून मस्तिष्क में ज्यादा जा रहा है। खून जब ज्यादा जाता है, तो पतले महीन तंतु पैदा नहीं हो पाते। आदमी सीधा खड़ा हो गया, मस्तिष्क में खून कम जा रहा है, तो महीन, बारीक तंतु, डेलिकेट तंतु पैदा हो सके। उन्हीं तंतुओं की वजह से आप बुद्धिमान हैं।
इसलिए रात अगर आप बिना तकिए के सोए, तो नींद नहीं आती। क्यों? क्योंकि वे जो महीन तंतु हैं, खून की धारा उनको छेड़ने लगती है, और आप रात सो नहीं सकते। तकिए पर सिर रख लेते हैं, खून की धारा कम हो जाती है सिर की तरफ, तो महीन तंतु शांति से सो पाते हैं।
अब आप शीर्षासन कर रहे हैं। अब आपको पहले पक्का कर लेना चाहिए कि कितना खून आपके तंतु सह सकेंगे, नहीं तो टूट जाएंगे।
तो मैंने तो अभी तक शीर्षासन करने वालों को बहुत बुद्धिमान नहीं देखा। आप बता दें, एकाध शीर्षासन करने वाले ने कोई विज्ञान का आविष्कार किया हो! कि एकाध शीर्षासन करने वाले को नोबल प्राइज मिली हो!
इसका यह मतलब नहीं कि शीर्षासन का फायदा नहीं हो सकता। लेकिन मर्म को समझे बिना! और फिर पढ़ लिया कि बड़ा लाभ होता है, तो घंटों खड़े हैं शीर्षासन में। सिर्फ खोपड़ी खराब हो जाएगी। फायदा हो सकता है, लेकिन बहुत बारीक मामले हैं। और ठीक प्रशिक्षित व्यवस्था के भीतर ही हो सकता है। जब आपके पूरे मस्तिष्क की जांच हो गई हो और आपके रग—रग का पता हो कि कितना खून कम है। वैसे ही तो कहीं ज्यादा नहीं जा रहा है!
जो लोग रात को नहीं सो पाते, उनका कारण ही यह है कि खून ज्यादा जा रहा है। और मस्तिष्क में खून ज्यादा जा रहा हो, तो नींद नहीं आ सकती; इन्सोमेनिया, अनिद्रा पैदा हो जाएगी। खून की मात्रा मस्तिष्क में कम होनी ही चाहिए, तो ही नींद आ पाएगी, तो ही विश्राम हो पाएगा।
जब आप सोचते रहते हैं, तब नींद नहीं आती। क्योंकि सोचने की वजह से ज्यादा खून की जरूरत पड़ती है मस्तिष्क में, तंतुओं को चलना पड़ता है। इसलिए नींद नहीं आती। तो नींद के लिए जरूरी है; विश्राम के लिए जरूरी है।
लेकिन अगर आपके मस्तिष्क में कम खून जा रहा हो, तो थोड़ी—सी खून की झलक तेजी से पहुंचा देना फायदा भी कर सकती है। तो जो तंतु मुरदा हो गए हैं, वे सजीव भी हो सकते हैं। उनको खून मिल जाए। लेकिन कितना? उस मर्म को बिना समझे जो किए चला जाता है, वह अक्सर लाभ की जगह हानि कर लेता है।
लोग बैठ जाते हैं, कुछ भी कर लेते हैं। अध्यात्म के जगत में तो बहुत अंधापन है, क्योंकि मामला अंधेरे का है। और सब टटोल—टटोलकर चलना पड़ता है। और कोई भी मिल जाता है!
और गुरु बनने का मजा इतना है कि आपको भी कोई मिल जाए, तो आप भी बिना बताए नहीं मानते कि ऐसा करो, तो सब ठीक हो जाएगा। आपको खुद को अभी हुआ नहीं है!
मेरे पास रोज ऐसे लोग आ जाते हैं, जिनके सैकड़ों शिष्य हैं! अब वे मुझसे पूछने आ जाते हैं कि ध्यान कैसे करना?
तुम इतने शिष्य कहां से इकट्ठे कर लिए हो? तुम्हें खुद पता नहीं है, तो तुम इन्हें क्या समझा रहे हो? तो वे कहते हैं, शास्त्रों को पढ़कर!
कृष्ण कहते हैं, मर्म को न जानकर किए हुए अभ्यास से तो परोक्ष ज्ञान श्रेष्ठ है।
ऐसे अभ्यास में मत पड़ जाना, जिसको तुम जानते नहीं हो, क्योंकि अभ्यास आग से खेलना है। अभ्यास का मतलब है, कुछ होकर रहेगा अब। और अगर तुम्हें पता नहीं है कि तुम क्या कर रहे हो और क्या होकर रहेगा, तो तुम कहीं ऐसा न कर लो कि अपने को नुकसान पहुंचा लो।
और जिंदगी बहुत जटिल है। ऐसे ही जैसे आपकी घड़ी गिर गई। खोलकर बैठ गए ठीक करने! तो घड़ी तो कोई बहुत जटिल चीज नहीं है। लेकिन घड़ी भी आप और खराब कर लोगे। वह घडीसाज के पास ही ले जानी चाहिए। वह रुपए, दो रुपए में ठीक कर देगा। आप सौ, दो सौ की चीज ऐसे ही खराब कर लोगे।
लेकिन जब घड़ी गिरती है, तो बुद्धिमान से बुद्धिमान आदमी का मन खोलने का होता है। क्योंकि बुद्धिमान से बुद्धिमान आदमी भी बचकाना है। वह बच्चा जो भीतर है, स्मृरिआसिटी जो है, कि जरा खोलकर हम ही ठीक न कर लें, जरा हिलाकर। कहा जाना? तो जरा हिला लें!
कभी—कभी ऐसा भी होता है कि हिलाने से ठीक हो जाती है। मगर इससे आप यह मत समझ लेना कि आप कलाकार हो गए और आपको पता चल गया कि..। तो दूसरों की घड़ी मत हिलाने लगना, नहीं तो बंद भी हो सकती है। कभी—कभी संयोग सफल हो जाते हैं। कभी आपकी घड़ी बंद है। आपने जरा हिलाई। और आप समझे कि अरे! चल गई! नाहक दों—चार रुपए खराब करने पड़ते। अब हम भी जानकर हो गए। अब जहां भी घड़ी बंद दिखे, उसे हिला देना।
संयोग कभी—कभी जीवन में भी सफल होते हैं। कभी—कभी उनसे लाभ भी हो जाता है। पर उनको विज्ञान नहीं कहा जा सकता। पर जिंदगी तो बहुत जटिल है। घड़ी में तो कुछ भी नहीं है।
आपके छोटे—से मस्तिष्क में कोई सात करोड़ सेल हैं, सात करोड़ जीवंत कोष्ठ हैं! उन सात करोड़ जीवंत कोष्ठ की व्यवस्था पर सब निर्भर है—आपका होना, आपकी चेतना, आपकी बुद्धि, सोच, विचार, भाव—सब।
आप उलटा सिर खड़े हो गए, आपको पता नहीं कि उन सात करोड़ कोष्ठों के साथ क्या हो रहा है। कि आपने प्राणायाम शुरू कर दिया। आपको पता नहीं कि उन कोष्ठों के साथ क्या हो रहा है। आपको पता नहीं कि उन कोष्ठों को कितने आक्सीजन की जरूरत है। और जितनी आप दे रहे हैं, उतनी जरूरत है या नहीं है! क्योंकि ज्यादा आक्सीजन हो जाए, तो भी मूर्च्छा आ जाएगी। कम हो जाए, तो भी मूर्च्छा आ जाएगी। जीवन एक संतुलन है, और बहुत बारीक संतुलन है।
इसलिए कृष्ण कहते हैं कि बिना मर्म को जाने हुए अभ्यास में तो पड़ना मत, अर्जुन। उससे तो बेहतर परोक्ष ज्ञान है।
परोक्ष ज्ञान का अर्थ है, शास्त्र ने जो कहा है। शास्त्र ने जो कहा है, वह बेहतर है, बजाय इसके कि तू अभ्यास अपना करके, बिना मर्म को समझे, कुछ उपद्रव में पड़ जाए। उससे तो शास्त्र ने जो कहा है..। शास्त्र का अर्थ होता है, जिन्होंने जाना, जिन्होंने अनुभव किया, और अपने अनुभव को लिपिबद्ध किया, कि उनके काम आ सके, जो जानते नहीं हैं।
इस बात को ठीक से समझ लें।
जिन्होंने जाना, जिन्होंने अनुभव किया, प्रयोग किया, अभ्यास किया, प्रतीत किया, जो पहुंच गए, उनके वचन हैं। सिर्फ वचन नहीं हैं, उनके लिए, जो नहीं जानते हैं। इसमें फर्क है। क्योंकि वे बोल सकते हैं, जैसा उन्होंने जाना। लेकिन अगर आपका ध्यान न रखा जाए, तो उनका ज्ञान आपके लिए खतरनाक हो जाएगा। वह इस भांति बोला गया है शास्त्र। जो अज्ञानी को खयाल में रखकर बोला गया है कि वह इससे उपद्रव न कर सके।
जीसस ने छोटी—छोटी कहानिया कही हैं। और सभी बातें कहानियों में कही हैं। बड़ी मजे की बात है। और कहानियां इतनी सरल हैं कि कोई भी समझ ले। और इतनी कठिन भी हैं कि बहुत मुश्किल है समझना। पर कहानियों में इस ढंग से कहा है कि जो कहानी समझेगा, उसे पता ही नहीं चलेगा कि भीतर क्या छिपा है। वह सिर्फ कहानी का मजा लेगा, बात खतम हो जाएगी। उसे कहानी कोई नुकसान नहीं पहुंचा पाएगी। थोड़ी उसकी समझ बढ़ेगी
लेकिन जो कहानी में उतर सकता है गहरा, जितना गहरा उतर सकता है, उतना ही अर्थ बदल जाएगा। जीसस की एक—एक कहानी में सात—सात अर्थ हैं। और सात मन की स्थितियां हैं। पहली स्थिति पर सिर्फ कहानी है। उसको बच्चा भी पढ़े तो आनंदित होगा। एक कहानी का मजा आएगा। बात खतम हो जाएगी। लेकिन दूसरी स्थिति में खड़ा हुआ आदमी दूसरा अर्थ लेगा। तीसरी स्थिति में खड़ा हुआ आदमी तीसरा अर्थ लेगा।
शास्त्र का अर्थ है, जो अज्ञानियों को ध्यान में रखकर लिखे गए हैं। और कुंजियां इस भांति छिपाई गई हैं कि गलत आदमियों के हाथ में न पड़ जाएं। और उसी वक्त कुंजी हाथ में पड़े, जब वह आदमी उसका ठीक उपयोग कर सके। उसके पहले हाथ में न पड़े। इतनी सारी व्यवस्था जहां की गई हो, उसका नाम शास्त्र है। हर किसी किताब का नाम शास्त्र नहीं है।
शास्त्र बहुत वैज्ञानिक आयोजन है। और हजारों साल बाद भी उसी ढंग से शास्त्र कारगर है।
लेकिन बड़ा मुश्किल है। इसलिए शास्त्र तो आप पढ़ लेते हैं, उसका अर्थ आपको पता चलता है कि नहीं, यह कहना मुश्किल है। आपको उतना ही पता चलता है, जितना आपको पता चल सकता है। बस, उससे ज्यादा पता नहीं चलता। इसलिए फिर शास्त्रों पर टीकाओं और व्याख्याओं की जरूरत पड़ी। क्योंकि जिनको ज्यादा पता चल गया उन शास्त्रों में—जितना आपको पता चलता था, उससे ज्यादा पता चल गया—तो उन्होंने टीकाएं लिखी हैं। लेकिन उन टीकाओं में भी उन्हीं नियमों का उपयोग किया गया है कि गलत आदमी के हाथ ज्ञान न पड़ जाए।
गलत आदमी अज्ञान में बेहतर है, क्योंकि अज्ञान में ज्यादा खतरा नहीं किया जा सकता।
आपने आमतौर से सुना होगा कि अज्ञान में खतरा होता है। अज्ञान में ज्यादा खतरा नहीं होता। लेकिन अज्ञानी के हाथ में ज्ञान हो, तो फिर ज्यादा खतरा होता है। ऐसा जैसे कि बच्चे के हाथ में तलवार दे दी। और उन्होंने उठाकर पिता की ही गरदन काट दी। वे सिर्फ देख रहे थे कि तलवार काम करती है कि नहीं करती है! असली है कि नकली है!
आज विज्ञान में यही उपद्रव खड़ा हो गया है। आज विज्ञान ने फिर कुछ कुंजियां खोज लीं। आइंस्टीन मरने के पहले कहकर मरा है कि अगर मुझे दुबारा जन्म मिले, तो मैं वैज्ञानिक नहीं होना चाहता। मैं एक प्लंबर हो जाऊंगा, लेकिन अब वैज्ञानिक नहीं होना चाहता। क्योंकि जो मैंने दिया है, वह उनके हाथ में पड़ गया है, जो सारी दुनिया को नष्ट कर देंगे। और मेरा कोई वश नहीं रहा।
अभी वैज्ञानिक विचार करते हैं कि हमें अपना ज्ञान छिपाना चाहिए अब। वह राजनीतिज्ञों के हाथ में न पड़े, क्योंकि राजनीतिज्ञों से ज्यादा नासमझ आदमी खोजने मुश्किल हैं। उनके हाथ में ज्ञान पड़ने का मतलब है, अज्ञानियों के, नेताओं के हाथ में ज्ञान पड़ गया! वे खतरा कर देंगे। वे उपद्रव कर देंगे। अब आज सारी दुनिया के पास ताकत विज्ञान ने दे दी है। और चाबी भी दे दी है।
शास्त्र का अर्थ है, कभी एक बार ऐसा पहले भी हो चुका है। अध्यात्म के जगत में हमने इतने ही मूल्यवान सूत्र खोज लिए थे। लेकिन वे हर किसी को दे देना खतरनाक है। तो उन्हें शास्त्रों में प्रकट भी किया है और छिपाया भी है।
शास्त्र का अर्थ है, जो प्रकट भी करता है और छिपाता भी है। प्रकट उतना करता है, जितना आप आत्मसात कर लो। और उतना छिपाए रखता है, जितना अभी आपके काम का नहीं है। और जब आप एक कड़ी आत्मसात कर लेंगे, तो दूसरी कड़ी आपको दिखाई पड़नी शुरू हो जाएगी। एक सीढ़ी से ज्यादा आपको कभी दिखाई नहीं पड़ पाती। जब दूसरी सीढ़ी आप आत्मसात कर लोगे, तब तीसरी आपको दिखाई पड़ेगी। हर कुंजी जब आप उपयोग कर लोगे, तो दूसरी कुंजी आपके हाथ में दे जाएगी और दूसरा ताला खुलने लगेगा।
शास्त्र एक वैज्ञानिक व्यवस्था है। इसलिए शास्त्र साधारण किताब का नाम नहीं है। आज तो किताबें बहुत हैं। पांच हजार किताबें प्रति सप्ताह छपती हैं। इन किताबों की भीड़ में शास्त्र खो गया। अब शास्त्र का कुछ पता लगाना मुश्किल है कि कौन—सा शास्त्र है!
लेकिन कृष्ण कहते हैं कि न मर्म को समझकर किया हुआ अभ्यास, उससे तो परोक्ष ज्ञान श्रेष्ठ है।
परोक्ष ज्ञान का मतलब, दूसरों ने, लेकिन जिन्होंने जाना है, उनका कहा हुआ ज्ञान। उसको ही स्वीकार कर लेना उचित है। परोक्ष ज्ञान से मुझ परमेश्वर के स्वरूप का ध्यान श्रेष्ठ है।
लेकिन परोक्ष ज्ञान उधार है। शास्त्र से कितना ही पता चल जाए, वह आपका स्वानुभव तो नहीं है। किसी को पता चला, पतंजलि को। किसी को पता चला, वशिष्ठ को। किसी को पता चला, शंकर को, रामानुज को। आपने सुना, उन्हें पता चला है। आपने मान लिया। आपकी थोड़ी बुद्धि तो बढ़ी, लेकिन आप नहीं बढ़े। आपका संग्रह बढ़ा, जानकारी बढ़ी, लेकिन बोध नहीं बढ़ा। बोध तो बढ़ेगा स्वानुभव से।
तो कृष्ण कहते हैं, परोक्ष ज्ञान से, शास्त्र ज्ञान से मुझ परमेश्वर के स्वरूप का ध्यान श्रेष्ठ है।
तो बेहतर है कि तू सीधा न तो अभ्यास की उलझन में पड़, क्योंकि मर्म को बिना समझे खतरा है। न शास्त्रों की समझ में पड़, क्योंकि कितना ही समझ ले, तो भी वह दूसरे का ज्ञान होगा। और सेकेंड हैंड होगा। तेरे लिए नया और ताजा नहीं होगा। अपना नहीं है, वह ताजा भी नहीं है।
और ज्ञान के संबंध में एक बात जान लेनी जरूरी है कि जो अपना नहीं है, वह अपना है ही नहीं। वह कितना ही ठीक पकड़ में आ जाए तो भी वह दूसरे का है। और दूसरे के ज्ञान से आपकी आंख काम नहीं कर सकती। दूसरे के पैर से आप चल नहीं सकते। दूसरे की छाती से आप श्वास नहीं ले सकते। दूसरे की प्रज्ञा आपकी प्रज्ञा नहीं बन सकती। आपकी प्रज्ञा तो तभी बनती है, जब सीधा ध्यान परमात्मा की तरफ लगता है।
परोक्ष ज्ञान से मुझ परमेश्वर के स्वरूप का ध्यान श्रेष्ठ है।
तो जितनी देर आप अभ्यास में लगाते हों, उससे बेहतर है, उतना समय आप शास्त्र में लगाएं। जितना आप शास्त्र में लगाते हों, उससे भी बेहतर है कि उतना परमात्मा के ध्यान में लगाएं। बेहतर है, किताबें बंद कर दें, आंख बंद कर लें और परमात्मा का स्मरण करें। क्या करेंगे परमात्मा के स्मरण में? कैसे होगा परमात्मा का ध्यान? क्या करना पड़ेगा? एक छोटा—सा खयाल समझ लें।
कुछ भी न करें। सिर्फ लेट जाएं या बैठ जाएं और बिलकुल ढीला छोड़ दें अपने को। कुछ भी न करें, श्वास भी न लें। अपने आप जितनी चलती है, चलने दें। एक पाच मिनट तो सिर्फ इतना ही ध्यान रखें कि मैं कुछ न करूं, सिर्फ पड़ा रहूं मुर्दे की भांति।
एक पांच मिनट में सिर्फ अपने को शांत कर लें। दस मिनट, पंद्रह मिनट, जितनी देर आपको लगे। सिर्फ शांत पड़ जाएं, जैसे मुर्दा हैं, आप हैं ही नहीं। सारी क्रिया को शिथिल छोड़ दिया, रिलैक्स कर दिया। और जब यह सब शिथिल और शांत हो जाए सिर्फ श्वास ही सुनाई पड़े...। कभी—कभी कोई विचार मन में तैर जाएगा। कभी कोई चींटी काटती है, तो पता चलेगा। कभी कोई बाहर से आवाज आएगी, तो भनक पड़ेगी। मगर आप अपनी तरफ से बिलकुल शांत पड़े हैं, जैसे हैं ही नहीं।
इस क्षण में सिर्फ एक ही भावना करें। आपके मन में जो भी इष्ट हो, जिस परमात्मा का जैसा नाम आपको प्यारा लगता हो, या मूर्ति प्यारी लगती हो, आकृति प्यारी लगती हो, बुद्ध की प्रतिमा प्यारी लगती हो, तो बस, इस शांत अवस्था में सिर्फ बुद्ध की प्रतिमा का स्मरण करें। इस शून्य मन में सिर्फ बुद्धि की प्रतिमा बने। या आपको अच्छा लगता हो ओम का उच्चार, तो सिर्फ ओम का उच्चार भीतर गंजने दें। या आपको अच्छा लगता हो राम—राम तो राम—राम का उच्चार भीतर गंजने दें। कोई भी एक चीज पकड़ लें, जो आपको प्यारी लगती हो और प्रभु का स्मरण दिलाती हो।
ऐसा हुआ है। मैंने सुना, एक सूफी फकीर हुआ। एक सम्राट उसकी सेवा में आता था। और उसने उसे कहा कि तू ईश्वर का स्मरण कर। उस सम्राट को एक हीरे से बहुत प्रेम था। वह हीरा उसने बड़ी मुश्किल, बड़े युद्धों के बाद पाया था। और वह चौबीस घंटे उसको अपने पास रखता था।
जब वह परमात्मा के स्मरण को बैठा, तो परमात्मा का तो स्मरण न आए, उसको उसी हीरे—हीरे का ही खयाल आए। और वह हीरा दिखाई पड़े। तो वह वापस फकीर के पास आया। उसने कहा कि बड़ी मुश्किल हो गई है। यह हीरा मुझे बाधा डालता है। मैं कैसे इसका त्याग करूं!
तो फकीर ने कहा, तू त्याग मत कर, क्योंकि त्याग से और ज्यादा बाधा डालेगा। तू ऐसा कर कि परमात्मा को छोड़, तू हीरे की ही याद कर। तू आंख बंद कर ले और हीरे को ही देख। और सिर्फ इतना ही खयाल कर कि यह हीरा परमात्मा का रूप है।
वह सम्राट चकित हुआ। उसने सोचा, फकीर कहेगा, हीरे का त्याग कर। कहां की क्षुद्र चीज में उलझा है!
लेकिन फकीर निश्चित समझदार रहा होगा। सम्राट ने हीरे पर ध्यान करना शुरू कर दिया। जब हीरे पर ध्यान किया, तो हीरे ने बाधा डालनी बंद कर दी, स्वभावत:। बाधा वह इसलिए डालता था कि कहां जा रहे हो? जब कहीं जाने की कोई बात न रही, तो हीरे ने बाधा डालनी बंद कर दी। और कुछ था नहीं उसका उलझाव; एक हीरा ही था। और हीरे में वह परमात्मा को अनुभव करने लगा। थोड़े ही दिनों में हीरा खो गया और परमात्मा ही शेष रह गया।
तो जो भी आपका हीरा हो, आपकी पत्नी का चेहरा हो, आपके बेटे की आंख हो, आपके मित्र की छवि हो, कृष्ण का रूप हो, राम का हो, जीसस का हो—आपका जहां सहज रुझान हो—कुछ भी हो। और कुछ भी न हो, तो अपनी ही फोटो। वह तो कम से कम होगी। तो आईने में अपनी शक्ल देख ली। आंख बंद कर लिया और कहा कि यह परमात्मा का रूप है। उसी पर.....। उससे भी पहुंच जाएंगे। कुछ घबड़ाना मत कि अपनी ही तस्वीर कैसे!
अपना ही नाम भी, अगर आपको वही प्यारा हो, तो फिर राम का नाम लेने की जरूरत नहीं है। क्योंकि जो प्यारा ही नहीं है, उसको लेकर कुछ फायदा नहीं होगा। प्रेम के बिना कुछ फायदा नहीं होगा। आपको अगर अपना ही नाम जंचता हो..। सबको जंचता है। और दिल होता है कि कहां राम—राम कर रहे हैं! अपना ही नाम दोहराएं। कोई हर्जा नहीं है, उसी को दोहराना। और समझना कि यह परमात्मा का नाम है। और आप थोड़े ही दिन में पाओगे कि आप खो गए और परमात्मा बच रहा।
परोक्ष ज्ञान से मुझ परमेश्वर के स्वरूप का ध्यान श्रेष्ठ है। ध्यान से भी श्रेष्ठ है सब कर्मों के फल का मेरे लिए त्याग करना।
क्योंकि ध्यान भी आपका कर्म है। आपको लगता है, मैं ध्यान कर रहा हूं। इतनी अड़चन बनी रहती है। मैं ध्यानी हूं और मैंने ध्यान किया परमात्मा का। तो वह भीतर मैं की सूक्ष्म रेखा बनी रहती है। इसलिए कृष्ण कहते हैं, उससे भी श्रेष्ठ है सब कर्मों के फल का त्याग करना। और त्याग से तत्काल ही परम शांति होती है। सब कर्मों के त्याग से तत्काल ही परम शांति होती है।
जैसे ही कोई सब प्रभु पर छोड़ देता है, अशांत होने का सारा कारण ही खो जाता है। अगर अशांति चाहिए तो सब अपने सिर पर रखना। दूसरों का भी उतारकर अपने सिर पर रख लेना। सारी दुनिया में जो—जो तकलीफें हैं, उनको अपने सिर पर रख लेना। तो अशांति आपकी आप कुशलता से बढ़ा सकोगे।
और करीब—करीब इसी तरह लोग बढ़ाए हुए हैं। सारी दुनिया की तकलीफें, सारी दुनिया का बोझ, आप अकेले के सिर पर पड़ गया है। अगर यह बोझ कम करना हो और शांति चाहिए हो, तो यह परमात्मा पर छोड़ देना।
और आप नाहक ही परेशान हो रहे हो। बोझ आपके सिर पर है नहीं। आपकी हालत उस देहाती आदमी जैसी है, जो पहली दफा ट्रेन में सवार हुआ था। तो उसने अपना सब बिस्तर—बोरिया अपने सिर पर रख लिया था। उसने सोचा कि टिकट तो मैंने केवल अपनी ही दी है। और यह बिस्तर—बोरा ट्रेन में रखूं तो पता नहीं, कोई आ जाए और कहे कि कहां रखा है! इसे अपने सिर पर ही रखना ठीक है। और फिर उसने यह भी सोचा कि इतने आदमियों का बोझ वैसे ही ट्रेन पर है, मैं भी चढ़ा हूं, और इस वजन का, इस बिस्तर का बोझ भी और बढ़ जाए तो कहीं ट्रेन रुक ही न जाए। तों अपने सिर पर रख लूं।
लेकिन आप अपने सिर पर भी रखकर बैठे रहें, तो भी ट्रेन पर ही बोझ पड़ रहा है। आप भी झेल रहे हैं, यह मुफ्त में। इसको नीचे रखा जा सकता है। यह ट्रेन लिए जा रही है।
परमात्मा के ऊपर सब छोड़ते ही आप निर्बोंझ हो जाते हैं। इसका यह अर्थ नहीं कि जो बोझ था, वह आप ढो रहे थे। आप अकारण ढो रहे थे। परमात्मा उसे ढो ही रहा है।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, सब कर्म को जो छोड़ देता मेरे ऊपर, वह श्रेष्ठतम है। उसे तो फिर ध्यान की भी जरूरत नहीं है। उसे तो फिर कुछ भी करने की जरूरत नहीं है। एक ही बात कर ली कि सब हो गया। एक करने से सब हो जाता है, कि वह परमात्मा पर छोड़ देता है। त्याग से तत्काल परम शांति होती है। होगी ही।
लेकिन त्याग का मतलब आप यह मत समझ लेना कि घर छोड़ दिया, मकान छोड़ दिया, कपड़े छोड़ दिए, भाग गए। वह त्याग का मतलब नहीं है। उस त्याग में तो त्याग आपको पकड़े ही रहेगा। और आप जहां भी जाओगे, खबर करोगे कि मैं सब त्याग करके आ रहा हूं। वह मैं त्याग करके आ रहा हूं साथ जाएगा।
नहीं; त्याग का गहन अर्थ है कि मैं कर नहीं रहा हूं मैं कर भी नहीं सकता हूं जो करने वाला है, वह वही है। मैं नाहक ही बीच में..।
मैंने सुना है कि रथ निकलता था पुरी में और एक छोटा कुत्ता रथ के आगे चलने लगा। और सब लोग नमस्कार कर रहे थे और रथ के सामने गिर—गिरकर साष्टांग दंडवत कर रहे थे। उस कुत्ते ने कहा कि अरे! बेचारे! वह सबको मन ही मन आशीर्वाद देता रहा, खुश रहो। मगर क्यों इतने परेशान हो रहे हो!
उसकी अकड़ बढ़ती चली गई। उसे लगा कि मेरे लिए रथ निकल रहा है। मेरे लिए सारे लोग दंडवत कर रहे हैं। गजब हो गया। वैसे मैं जानता तो था पहले ही से कि मेरी हालत इतनी ऊंची है! लेकिन दुनिया स्वीकार नहीं करती थी। अब सब ने स्वीकार कर लिया है।
रात कुत्ता सो नहीं सका होगा। और हार्टफेल हो गया हो, तो कुछ आश्चर्य नहीं।
पर हम सब की हालत भी यही है। हम सब ऐसे ही चल रहे हैं कि रथ हमारे लिए चल रहा है। यह सारा जगत हमारे लिए चल रहा है! बड़े परेशान हो रहे हैं। नाहक ही परेशान हो रहे हैं। बिना कारण परेशान हो रहे हैं।
ईश्वर—समर्पण का अर्थ है कि ये परेशानियां मैं छोड़ता हूं। यह सब मेरे लिए नहीं चल रहा है। यह सब मैं नहीं चला रहा हूं। मैं व्यर्थ ही परेशान हो रहा हूं। इसलिए धार्मिक आदमी परम शांत हो जाता है, क्योंकि सब परमात्मा कर रहा है। वह अपने को करने के भाव से मुक्त कर लेता है।
इसका यह अर्थ नहीं है कि वह अकर्मण्य हो जाता है। इसका सिर्फ इतना ही अर्थ है कि वह छोड़ देता है उस पर। वह काम लेना चाहे, तो काम ले। कर्म लेना चाहे, तो कर्म ले। और अकर्मण्य करके बिठालना चाहे, तो अकर्मण्य करके बिठाल दे।
अपनी तरफ अब उसकी कोई भी स्वयं की चेष्टा नहीं है। अब वह बहता है नदी की धारा में, जहां नदी ले जाए। डुबा दे, तो वह डुबाना भी उसके लिए किनारा है।

आज इतना ही।
पांच मिनट रुके। कोई बीच से न उठे। दों—तीन बातें खयाल रखें। कुछ लोग आकर बीच में बैठ जाते हैं; फिर बीच से उठकर जाने की कोशिश करते हैं। बाहर बैठें; जाना हो तो किनारे पर बैठें। और कीर्तन के समय कोई भी उठे न। पांच मिनट कीर्तन करने के बाद जाएं।




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