प्रश्न—सार:
1—मैं
बूढ़ा होने से
सदा भयभीत क्या
रहता हूं?
2—क मेरी
तीन समस्याएं
हैं : कामुक अनुभव
करना, दसरे की खोज
और मन में बना
रहना कृपया
मुझे मार्ग
दिखाएं?
3—जीवन—साथी
का होना या न
होना किस
प्रकार से व्यक्ति
की अंतर—उम्मुखता
और आध्यात्मिक
विकास को
प्रभावित
करता है?
4—अवरोध
हैं मेरे भीतर
उन्हें किस
भांति हटाया जाए?
प्रश्न:
मैं बूढ़ा
होने से सदा
भयभीत क्यों रहता
हूं? मुझे
इससे छुटकारा पाने
का मार्ग दिखाएं?
जीवन, यदि
ठीक से जीया
गया है, वास्तव
में जीया गया
है, तो कभी
मृत्यु से
भयभीत नहीं
होता। अगर
तुमने अपना
जीवनजीया है,
तुम मृत्यु
का स्वागत
करोगे। यह एक
विश्राम, एक
गहन निद्रा की
भांति आएगी।
यदि तुमने
अपने जीवन के
शिखर को, ऊंचाइयों
को जीया है तो
मृत्यु एक
सुंदर विश्रांति,
एक आशीष है।
लेकिन अगर तुम
जीए ही नहीं
हो तो
निःसंदेह
मृत्यु भय
उत्पन्न करती
है। यदि तुम
जी ही नहीं
पाए हो तो
निश्चित रूप
से मृत्यु
तुम्हारे
हाथों से समय,
जीवित रहने
के सारे
भविष्य के
अवसरों को छीन
लेगी। अतीत
में तुम ठीक
से जी नहीं
पाए, और अब
भविष्य भी
नहीं रहेगा, भय उठ खड़ा
होता है। भय, मृत्यु के
कारण नहीं, बल्कि अनजीए
जीवन के कारण
उठता है।
और
मृत्यु के इस
भय के कारण, वृद्धावस्था
भी भयप्रद
होती है
क्योंकि यह मृत्यु
का पहला कदम
है। अन्यथा
वृद्धावस्था
भी सुंदर है।
यह तुम्हारे
अस्तित्व की
संपूर्णता, विकास की
परिपक्यता है।
यदि तुम क्षण—
क्षण उन सभी
चुनौतियों को जो
जीवन तुम्हें
देता है, जीते
हो, और तुम
उन सभी अवसरों
का जिन्हें
जीवन ने तुम्हारे
लिए खोला है
उपयोग कर लेते
हो, और यदि
तुम उस अज्ञात
में, जिसमें
जीवन तुम्हें
पुकारता और
निमंत्रित करता
है, उतरने
का साहस करते
हो, तो
वृद्धावस्था
एक परिपक्वता
है। वरना
वृद्धावस्था
एक रोग है।
दुर्भाग्य
से अनेक लोग
बस उम्र ही
बढ़ाते हैं, वे उससे
संबंधित
परिपक्वता के
बिना के हो
जाते हैं। तब
वृद्धावस्था
एक बोझ होती
है। तुम शरीर
से उमरदार हो
गए हो लेकिन
तुम्हारी चेतना
किशोरावस्था
में रहती है।
तुम शरीर से
तो के हो गए
लेकिन अपने आंतरिक
जीवन में तुम
परिपक्व नहीं
हुए हो। आंतरिक
प्रकाश का
अभाव है, और
प्रतिदिन मौत
निकट आ रही है;
निःसंदेह
तुम कांपोगे
और तुम भयभीत
होगे और
तुम्हारे
भीतर एक महत
संताप उठने
लगेगा।
जिन्होंने
जीवन को ढंग
से जीया है, वे
वृद्धावस्था
को गहन स्वागत
भाव से
स्वीकार करते
हैं, क्योंकि
वृद्धावस्था
मात्र इतना
बताती है कि
अब वे खिलने
जा रहे हैं, कि वे अब
फलवान होने जा
रहे हैं, कि
जो भी
उन्होंने
उपलब्ध किया
है अब वे उसे बांटने
में समर्थ हो
जाएंगे।
साधारणत:
वृद्धावस्था
कुरूप होती है, क्योंकि
यह बस एक रोग
है। तुम्हारी
दैहिक संरचना
विकसित नहीं
हुई है, वरन
और—और रुग्ण, कमजोर और
अशक्त हो गई
होती है। वरना
तो
वृद्धावस्था
जीवन का
सर्वाधिक
सुंदर समय है।
बचपन की सारी
मूर्खता जा
चुकी है, यौवन
की सारी वासना
और उत्ताप जा
चुका है.. .एक शांति
उदित होती है,
मौन, ध्यान,
समाधि।
वृद्धावस्था
आत्यंतिक रूप
से सुंदर है, और इसे
ऐसा होना ही
चाहिए, क्योंकि
सारा जीवन इसी
ओर बढ़ता है।
इसको तो शिखर
होना चाहिए।
शिखर आरंभ में
ही कैसे हो
सकता है? शिखर
मध्य में कैसे
हो सकता है? किंतु अगर
तुम यह सोचते
हो कि
तुम्हारा
बचपन शिखर था,
जैसा कि
बहुत लोग
सोचते हैं, तो निःसंदेह
तुम्हारा
सारा जीवन एक
संताप हो जाएगा,
क्योंकि
अपना शिखर तो
तुम पा चुके
हो—अब तो सब
कुछ एक पतन, अधोगमन है।
अगर तुम सोचते
हो कि
युवावस्था
शिखर है, जैसा
बहुत से लोग
सोचते हैं, तो निःसंदेह
पैंतीस वर्ष
के बाद तुम
दुखी, उदास
हो जाओगे, क्योंकि
प्रतिदिन तुम
खोओगे, खो
रहे होओगे, खोते जाओगे,
और पा कुछ
भी नहीं रहे
होओगे। ऊर्जा
खो जाएगी, तुम
कमजोर हो
जाओगे, तुम्हारे
भीतर
बीमारियां
घुस आएंगी और
मृत्यु द्वार
पर दस्तक देने
लगेगी। घर खो
जाएगा और
अस्पताल
दिखने लगेगा।
तुम प्रसन्न
कैसे हो सकते
हो? नहीं, लेकिन पूरब
में हमने कभी
नहीं माना कि
बचपन या जवानी
शिखर है। शिखर
तो ठीक अंत के
लिए
प्रतीक्षा
करता है।
और यह
अगर उचित ढंग
से हो तो धीरे—
धीरे तुम
उच्चतर से
उच्चतर
शिखरों तक
पहुंचते हो।
मृत्यु वह
उच्चतम शिखर, चरम
उत्कर्ष है, जिसे जीवन
उपलब्ध करता
है।
किंतु
हम जीवन को
क्यों चूकते
जा रहे हैं? क्यों हम
केवल बूढ़े हुए
चले जाते हैं,
परंतु
परिपक्व नहीं
होते। कहीं न
कहीं कुछ
गड़बड़ी जरूर हो
गई है, कहीं
पर तुम्हें
गलत मार्ग पर
डाल दिया गया
है, कहीं न
कहीं तुम गलत
रास्ते पर
डाले जाने से
राजी हो गए हो।
इस समझौते को
तोड़ना पड़ेगा;
इस अनुबंध
में आग लगानी
पड़ेगी। इसी को
मैं संन्यास
कहता हूं एक
समझ कि अब तक मैं
गलत ढंग से
जीया हूं—मैंने
समझौते किए
हैं, वास्तव
में जीया नहीं
हूं।
जब तुम
छोटे बच्चे थे
तो तुमने
समझौते किए, तुमने
अपने
अस्तित्व को
ना—कुछ के लिए
बेच डाला। जो
भी तुम्हें
मिला वह कुछ
नहीं मात्र
कूड़ा—कर्कट है।
छोटी—छोटी
बातों के लिए
तुमने अपनी आत्मा
को खो दिया।
तुम स्वयं के
स्थान पर कुछ
और होने को
राजी हो गए, यहीं पर तुम
अपने रास्ते
से चूक गए।
मां चाहती थी
कि तुम कुछ
बनो, पिता
चाहते थे कि
तुम कुछ बनो, समाज चाहता
था कि तुम कुछ
बनो, और
तुम राजी हो
गए। धीरे—
धीरे तुमने
स्वयं न होने
का फैसला कर
लिया। और तब
से तुम कुछ और
होने का
दिखावा करते
रहे हो।
तुममें
परिपक्वता
नहीं आ सकती, क्योंकि
कोई और
परिपक्व नहीं
हो सकता। यह
नकली है। यदि
मैं एक मुखौटा
लगा लूं तो
मुखौटा
परिपक्व नहीं
हो सकता, यह
मृत है। मेरा
चेहरा
परिपक्व हो
सकता है, लेकिन
मेरा मुखौटा
नहीं। और.
तुम्हारे
मुखौटे की
उम्र बढ़ती
जाती है।
मुखौटे के
पीछे छिपे हुए
तुम विकसित
नहीं हो रहे
हो। तुम केवल
तभी विकसित हो
सकते हो जब
तुम स्वयं को
स्वीकार कर लो
कि तुम कोई
अन्य नहीं, स्वयं ही
होने जा रहे
हो।
गुलाब
की झाड़ी हाथी
हो जाने के
लिए राजी हो
गई है; हाथी
गुलाब की झाड़ी
हो जाने को
तैयार है।
गरुड़ चिंतित
है, बस
मनोचिकित्सक
के पास जाने
ही वाला है, क्योंकि उसे
कुत्ता बनने
की इच्छा है; और कुत्ता
अस्पताल में
पड़ा है
क्योंकि वह
गरुड़ की भांति
उड़ना चाहता है।
मानव—जाति के
साथ यही घट
गया है। कुछ
और हो जाने के
लिए राजी हो
जाना सबसे बड़ी
आपदा है, तुम्हारा
विकास कभी न
हो सकेगा।
तुम
कभी भी किसी
और तरह विकसित
नहीं हो सकते।
तुम केवल
तुम्हारी भांति
परिपक्व हो
सकते हो। ’चाहिए' को छोड़ देना
पडेगा, और
तुम्हें इस
बात से ज्यादा
मतलब नहीं
रखना है कि
लोग क्या कहते
हैं? उनकी
राय क्या है? वे होते कौन
हैं? तुम
यहां पर स्वयं
होने के लिए
हो। तुम यहां
किसी की
अपेक्षाओं को
पूरा करने के लिए
नहीं हो, और
हर व्यक्ति
इसी कोशिश में
लगा हुआ है।
पिता का निधन
हो चुका है और
तुम उस वादे
को पूरा करने
के प्रयास में
हो जो तुमने
उनसे किया था।
और वे खुद
अपने पिता से
किया गया वादा
पूरा करने की
कोशिश में
संलग्न रहे, और इसी
भांति चलता
रहा था, यह
मूढूता
बिलकुल आरंभ
तक जाती है।
समझने
का प्रयास करो, और साहस
करो—और अपना
जीवन अपने
स्वयं के
हाथों में ले
लो। अचानक
तुम्हें
ऊर्जा का
उद्वेलन
महसूस होगा।
जिस क्षण तुम
निर्णय लेते
हो, 'मैं अब
स्वयं ही होने
जा रहा हूं और
कोई दूसरा नहीं।
जो भी कीमत हो,
लेकिन मैं
स्वयं होने जा
रहा हूं।’ —उसी
क्षण तुम एक
बड़ा परिवर्तन
देखोगे, तुम
जीवंत अनुभव
करोगे
तुम्हें
अनुभव होगा कि
ऊर्जा
प्रवाहित हो
रही है, धड़क
रही है।
जब तक
यह नहीं घटता
तुम
वृद्धावस्था
से भयभीत रहोगे, क्योंकि
तुम इस तथ्य
को अनदेखा
कैसे कर सकते
कि तुम समय
नष्ट कर रहे
हो, और जी
नहीं रहे हो
और वृद्धावस्था
आई जा रही है, और तब तुम जी
पाने के योग्य
नहीं रहोगे।
इस तथ्य को
देखने से तुम
कैसे बच सकते
हो कि मृत्यु
प्रतीक्षारत
है और रोज—रोज
वह निकट और
निकट, निकटतर
आती जा रही है,
और तुम तो
अभी जीए ही
नहीं? तुम्हें
तो गहन संताप
होगा ही।
इसलिए
अगर तुम मुझसे
पूछते हो कि
क्या करूं, तो मैं
तुमसे
आधारभूत बात
कहूंगा। और यह
सदा ही
आधारभूत
प्रश्न रहा है।
कभी भी दूसरी
बातों से
परेशान मत होओ,
क्योंकि
उनको तुम बदल
सकते हो, फिर
भी कुछ बदलेगा
नहीं।
आधारभूत को
बदल दो।
उदाहरण
के लिए, क्या है
दूसरी बात?
'मैं
का होने से
सदा भयभीत
क्यों रहता
हूं? मुझे
इससे छुटकारा
पाने का मार्ग
दिखाएं।’
यह
प्रश्न ही भय
के कारण उठ
रहा है। तुम 'इससे
छुटकारा पाना'
चाहते हो, इसे समझना
नहीं चाहते हो,
इसलिए
निःसंदेह तुम
किसी व्यक्ति
या विचारधारा
के चंगुल में
फंसने जा रहे
हो जो
तुम्हारी
इससे छुटकारा
पाने में सहायता
करे। मैं
तुम्हारी
इससे छुटकारा
पाने में
सहायता नहीं
कर सकता।
वस्तुत:
समस्या ही वही
है। मैं
चाहूंगा कि
तुम समझो और
अपना जीवन
बदलो। यहां
समस्या से
छुटक्टरा
पाने का
प्रश्न है ही
नहीं, यह
तो तुम्हारे
मुखौटे से, तुम्हारे
झूठे ओढ़े गए
व्यक्तित्व—जिस
ढंग से तुमने
होने का
प्रयास किया
है और जो
सच्चा रास्ता
नहीं है—से
छुटकारा पाने
का प्रश्न है।
तुम
प्रामाणिक—नहीं
हो। तुम अपने
स्वयं के
प्रति
निष्ठावान
नहीं हो, तुम
अपने
अस्तित्व को
छलते रहेहो।
तो अगर तुम
पूछते हो—
पुरोहित हैं,
दर्शनशास्त्री
हैं, और
जननायक हैं, यदि तुम जाओ
और उनसे पूछो
कि इससे
छुटकारा कैसे
पाऊं? वे
कहेंगे, 'आत्मा
कभी की नहीं
होती। चिंता
मत करो। बस
याद कर लो कि
तुम आत्मा हो।
यह तो शरीर है,
तुम शरीर
नहीं हो।’ उन्होंने
तुम्हें
सांत्वना दे
दी। हो सकता
है कि एक क्षण
के लिए तुम
अच्छा अनुभव
करो, लेकिन
इससे तुम्हें
कोई सहायता न
मिलेगी, यह
तुम्हें
बदलने नहीं जा
रहा है। कल
फिर पुरोहित
के प्रभाव से
बाहर होते ही
तुम इसी नाव
में होगे।
और
कमाल की बात
है कि तुम कभी
भी पुरोहित की
ओर नहीं देखते, वह स्वयं
भयभीत है। तुम
दर्शनशास्त्री
की ओर कभी
नहीं देखते, वह खुद डरा
हुआ है'।
मैंने
सुना है, एक नया
धर्माधिकारी
अत्यधिक श्रम
कर रहा था, और
परीक्षणों से
पता लगा कि
उसके फेंफडे
बुरी तरह
प्रभावित हो
गए हैं।
चिकित्सक ने
कहा कि लंबे
समय तक आराम
करना नितांत
आवश्यक है।
धर्माधिकारी
ने विरोध करते
हुए कहा कि
उसके लिए अपना
कार्य छोड़
पाना संभव नही
हो सकेगा।
ठीक है, डाक्टर
बोला, आपके
पास चुनाव है—स्वर्ग
या
स्विटजरलैंड?
धर्माधिकारी
थोड़ी देर कमरे
में टहलता रहा
और तब उसने
कहा : आप जीत गए
स्विटजरलैंड
ही ठीक है।
जब
जीवन और
मृत्यु का
प्रश्न हो तो, पुरोहित,
दर्शनशास्त्री,
वे लोग भी
जिनके पास तुम
पूछने जाते हो—वे
भी जी नहीं
पाए हैं। अधिक
संभावना तो इस
बात की है कि
उन्होंने तो उतना
भी नहीं जीया,
जितना तुम
जीए हो; वरना
वे पुरोहित
नहीं हो सकते
थे। पुरोहित
बनने के लिए उन्होंने
अपने जीवन को
पूर्णत :
इनकार कर दिया।
साधु, संन्यासी,
महात्मा हो
जाने के लिए
उन्होंने
अपने अस्तित्व
को पूरी तरह
नकार दिया है,
और समाज जो
कुछ भी उनसे
चाहता है उसे
उन्होंने मान
लिया है। वे
इससे
संपूर्णत:
राजी हो गए
हैं। वे अपने
आप से, अपनी
स्वयं की जीवन
ऊर्जा से राजी
न हुए, और
वे नकली, मूढ़तापूर्ण
बातों—
प्रशंसा, सम्मान
से राजी हो गए।
और तुम
जाते हो और
पूछते हो उनसे।
वे स्वयं ही
कांप रहे हैं।
कहीं गहरे में
वे स्वयं ही
भयभीत हैं। वे
और उनके शिष्य, सभी एक ही
नाव में सवार
हैं।
मैंने
सुना है, वेटिकन में
पोप बहुत
ज्यादा बीमार
पड़ गए, और
एक संदेश जारी
हुआ कि सेंट
पीटर्स की
बॉलकनी से
कार्डिनल एक
विशेष
उदघोषणा
करेंगे।
जब वह
दिन आया, तो प्रख्यात
चौक
निष्ठावानों
से खचाखच भर
गया।
वयोवृद्ध
कार्डिनल ने
कांपती हुई
आवाज में कहा : 'पवित्र
आत्मा (पोप) को
केवल हृदय
प्रत्यारोपण
द्वारा ही
बचाया जा सकता
है, और आज
यहां एकत्रित
हुए सभी भले
कैथेलिकों से मैं
दान के लिए
निवेदन करता
हूं।’
उसने
हाथ में पंख
थामे हुए आगे
कहा : 'मैं
यह पंख आपके
बीच गिरा
दूंगा, और
जिस पर भी यह
गिरता है, उस
व्यक्ति को
पवित्र
परमात्मा के
द्वारा पवित्र
पिता का जीवन
बचाने के लिए
चुन लिया गया
जब
उसने वह पंख
गिराया......और
चारों तरफ जो
भी सुना जा
सकता था, वह था बीस
हजार
श्रद्धालु
रोमन
कैथेलिकों का धीमे—
धीमे फूंक
मारना।
प्रत्येक
व्यक्ति
भयभीत है। अगर
पवित्र पिता
जिंदा रहना
चाहते हैं तो
इन बेचारे
कैथेलिकों को
क्यों दानी
बनाया जाए?
मैं
तुम्हें कोई
सांत्वना
नहीं देने जा
रहा हूं। मैं
तुमसे नहीं
कहने जा रहा
हूं 'आत्मा
शाश्वत है।
चिंता मत करो,
तुम कभी
नहीं मरोगे।
केवल शरीर ही
मरता है।’ मुझे
पता है कि यह
सत्य है, लेकिन
इस सत्य को
कठिन रास्ते
से अर्जित
करना पड़ता है।
तुम किसी और
के द्वारा
इसके बारे में
कहे गए कथन और वक्तव्य
से नहीं सीख
सकते। यह कोई
वक्तव्य नहीं
है, यह एक
अनुभव है। मैं
जानता हूं कि
ऐसा है, लेकिन
तुम्हारे लिए
यह नितांत
अर्थहीन है।
तुम तो यह भी
नहीं जानते कि
जीवन क्या है।
तुम यह कैसे
जान सकते हो
कि शाश्वतता
क्या है? तुम
समय में जीने
में समर्थ तो
हो नहीं पाए
हो, तुम
शाश्वतता में
जीने में
समर्थ कैसे हो
पाओगे?
कोई
अमर्त्य के
प्रति तभी
जागरूक होता
है जब वह
मृत्यु को
स्वीकार करने
में समर्थ हो
चुका हो।
मृत्यु के
द्वार के
माध्यम से अमर्त्य
अपने आपको
प्रकट करता है।
मृत्यु
अमर्त्य के
लिए अपने आपको
तुम पर उदघाटित
करने का एक
उपाय है..
.लेकिन भय के
कारण तुम अपनी
आंखें बंद कर
लेते हो और
तुम अचेत हो
जाते हो।
नही, मैं
तुम्हें इससे
छुटकारा पाने
की कोई विधि, कोई
सिद्धांत, नहीं
देने जा रहा
हूं। इसके
लक्षण
उत्पन्न हुए
हैं। यह शुभ
है कि यह बात
तुम्हें
संकेत देती
रहती है कि
तुम झूठी
जिंदगी जी रहे
हो। यही कारण
है कि वहां भय
है। इस संकेत
को समझो और
लक्षण को
बदलने की
चेष्टा मत करो,
बल्कि
मूलभूत कारण
को बदलो।
एकदम
आरंभ से ही हर
बच्चे को गलत
जानकारी, गलत सूचनाएं
दी जाती हैं, उसे गलत
दिशा, गलत
निर्देश दे
दिए जाते हैं।
ऐसा जानबूझ कर
नहीं किया
जाता, क्योंकि
माता—पिता भी
उसी जाल में
हैं, उन्हें
भी गलत दिशा
दिखाई गई थी।
उदाहरण के लिए
यदि कोई बच्चा
अधिक
ऊर्जावान है,
तो परिवार
असहजता महसूस
करता है, क्योंकि
अधिक ऊर्जा
वाला बच्चा घर
में एक उपद्रव
है। कुछ भी
सुरक्षित
नहीं है, बिलकुल
सुरक्षित
नहीं है। वह
ऊर्जावान
बच्चा हर चीज
तोड़—फोड़ देगा।
उसे रोकना
पड़ेगा। उसकी
ऊर्जा को
अवरोधित करना
पड़ेगा, उसकी
जीवंतता को कम
करना होगा।
उसको निंदित,
दंडित करना
पड़ेगा। और जब
वह ढंग से व्यवहार
करे सिर्फ तब
पुरस्कृत
करना पड़ेगा।
और तुम क्या
अपेक्षा रखते
हो? तुम
उससे लगभग एक
वृद्ध
व्यक्ति बन
जाने की उम्मीद
रखते हो—वह
ऐसी किसी
वस्तु को जिसे
तुम मूल्यवान
समझते हो कोई
हानि न
पहुंचाए। एक
घडी को बचाने
की खातिर तुम
एक बच्चे को
नष्ट करते हो।
या अपनी
क्राकरी
बचाने के लिए
तुम बच्चे को
नष्ट कर डालते
हो। या अपना
फर्नीचर
बचाने के लिए।
वरना उस पर इस
छोर से उस छोर
तक खरोंच आ
जाएगी। तुम
परमात्मा की
भेंट, एक
नव—आगंतुक
अस्तित्व, को
नष्ट करते हो।
तुम फर्नीचर
को खरोंचे
जाने से बचाने
के लिए बच्चे
का अस्तित्व
खरोंचते रहते
हो।
धीरे—
धीरे बच्चा
तुम्हारा
अनुगमन करने
को बाध्य हो
जाता है, क्योंकि वह
असहाय है, वह
तुम पर आश्रित
है, उसका
जीवित रहना
तुम पर निर्भर
है। जीवित
रहने की खातिर
वह मृत होने
को राजी हो जाता
है। बस जीवित
रहने की खातिर;
क्योंकि
तुम उसे दूध
और भोजन देते
हो, और
उसकी देखभाल
करते हो। यदि
तुम उसके इतने
अधिक विरोध
में हो तो वह
कहां जाएगा? धीरे— धीरे
वह अपना
अस्तित्व
तुम्हें
बेचता जाता है।
जो कुछ भी तुम
कहते हो, धीरे—
धीरे वह मान
लेता है।
तुम्हारे
पुरस्कार और
तुम्हारे दंड
ही वे उपाय
हैं जिनके
द्वारा तुम
उसे दिग्भ्रमित
करते हो।
धीरे—
धीरे वह अपने
अंतस की आवाज
से अधिक तुम
पर विश्वास
करने लगता है, क्योंकि
वह जानता है
कि उसके भीतर
की आवाज हमेशा
उसे झंझट में
डालती है।
उसके भीतर की
आवाज सदा उसके
लिए दंड
दिलवाने वाली
सिद्ध हुई है।
इसलिए सजा और
उसके भीतर की
आवाज संयुक्त
हो जाते हैं।
और जब कभी भी
वह अपनी आंतरिक
आवाज नहीं
सुनता और
तुम्हारा
अंधानुकरण
करता है, उसे
पुरस्कृत
किया जाता है।
जब कभी भी वह
स्वयं होता
है. उसे दंडित
किया जाता है;
जब कभी भी
वह स्वयं नहीं
होता उसे
पुरस्कृत
किया जाता है।
यह तर्क
स्पष्ट है।
धीरे—
धीरे तुम उसे
उसकी अपनी
जिंदगी से
भटका देते हो—।
धीरे— धीरे वह
भूल जाता है
कि उसकी आंतरिक
आवाज क्या है।
अगर लंबे समय
तक तुम इसे न
सुनो तो फिर
तुम इसे नहीं
सुन सकते।
किसी
भी क्षण अपनी आंखें
बंद कर लो—तुम्हें
अपने पिता, अपनी
माता, अपने
साथियों, अध्यापकों
की आवाजें
सुनाई पड़ेगी,
और तुम कभी
अपनी आवाज
नहीं सुनोगे।
अनेक लोग मेरे
पास आते हैं, वे कहते हैं,
आप भीतर की
आवाज के बारे
में कहते हैं;
हम इसे कभी
नहीं सुनते, वहां तो भीड़
लगी है। जब
जीसस कहते हैं,
अपने पिता
और माता से घृणा
करो, वे
वास्तव में
तुम्हारे
माता—पिता से
घृणा करने को
नहीं कह रहे
हैं, वे कह
रहे हैं, उन
पिता और उन
माता से घृणा
करो जो
तुम्हारे भीतर
अंतश्चेतना
बन गए हैं।
घृणा करो, क्योंकि
यह एक
सर्वाधिक
कुरूप समझौता
है—आत्मघाती
अनुबंधन, जो
तुमने किया है।
घृणा करो, इन
आवाजों को
मिटा डालो, ताकि
तुम्हारी
आवाज मुक्त और
स्वतंत्र की
जा सके; जिससे
कि तुम अनुभव
कर सको कि तुम
कौन हो और तुम
क्या होना
चाहते हो।
आरंभ
में निःसंदेह
तुम पूर्णत:
खोया हुआ अनुभव
करोगे। यही तो
ध्यान में
घटता है। अनेक
लोग मेरे पास
आते हैं और
कहते हैं, हम तो
रास्ता खोजने
आए थे, इसके
विपरीत ध्यान
प्रयोगों से
यह —भी पूर्णत:
खोया हुआ लग
रहा है 1 इससे
शात होता है
कि दूसरों की
पकड़ ढीली पड़
रही है, इसलिए
तुम अपने को
खोया हुआ
महसूस करते हो,
क्योंकि
दूसरों की वे
आवाजें
तुम्हें
निर्देश दे
रही थीं, और
तुमने उनमें
विश्वास करना
शुरू कर दिया
था। तुमने
उनमें इतने
लंबे समय से
विश्वास किया
है वे
तुम्हारे
दिशा—
निर्देशक बन
चुके थे। अब, जब तुम
ध्यान करते हो
तो ये आवाजें
मिट जाती हैं।
तुम जाल से
मुक्त हो गए
हो। दुबारा
तुम बच्चे बन
जाते हो, और
तुम नहीं
जानते कि कहां
जाना है। क्योंकि
सारे
मार्गदर्शक
खो गए हैं।
पिता की आवाज
वहां नहीं है,
मां की आवाज
वहां नहीं है,
अध्यापक
वहां नहीं है,
स्कूल नहीं
रहा अचानक तुम
अकेले हो।
व्यक्ति भय
अनुभव करने
लगता है, मेरे
मार्ग—निर्देशक
कहां चले गए? कहां हैं वे
लोग जो हमेशा
मुझे उचित
रास्ते की ओर
ले जाते थे?
वास्तव
में कोई भी
तुम्हें सही
रास्ते पर नहीं
ले जा सकता, क्योंकि
सारे पथ—प्रदर्शन
गलत होने वाले
हैं। कोई नेता
सही नेता नहीं
हो सकता है, क्योंकि
नेतृत्व, जैसा
भी है, गलत
ही है। जिसको
भी तुम
नेतृत्व की
अनुमति देते
हो, तुम्हें
कुछ हानि ही
पहुंचाएगा, क्योंकि वह
कुछ करना, तुम
पर कुछ थोपना,
तुम्हें एक ढांचा
देना शुरू कर
देगा, और
तुम्हें तो एक
संरचना विहीन
जीवन, सारे
ढांचों, संदर्भों,
अनुबंधों
से मुक्त, सारी
संरचना और
चरित्र से
मुक्त, अतीत
से मुक्त होकर
इसी क्षण में
जीवन को जीना
है।
इसलिए
सारे
मार्गदर्शक
दिशा भ्रम
देते हैं। और
जब वे खो जाते
हैं, और
तुमने उनमें
इतने लंबे समय
से विश्वास
किया है कि
अचानक
तुम्हें
खालीपन अनुभव
होता है, तुम
खालीपन से
घिरे होते हो
और सारे
रास्ते विलुप्त
हो जाते हैं।
जाना कहां है?
व्यक्ति
के जीवन में
यह बड़ा क्रांतिकारी
समय होता है।
तुम्हें इससे
साहसपूर्वक
गुजरना होता
है। यदि तुम
निर्भय होकर
इसमें रुके
रहे, तो
शीघ्र ही तुम
अपनी आवाज को
जो लंबे समय
से दमित है, सुनना आरंभ
कर देते हो।
शीघ्र ही तुम
इसकी भाषा
सीखना आरंभ कर
दोगे, क्योंकि
तुम इसकी भाषा
ही भूल चुके
हो। तुम वही
भाषा जानते हो
जो तुम्हें
सिखाई गई है।
और यह भाषा, अंदर की
भाषा, शाब्दिक
नहीं होती। अनुभूतियों
की भाषा है यह।
और सभी समाज अनुभूतियों
के विरोध में
हैं; क्योंकि
अनुभूति एक
जीवंत घटना है,
यह
विद्रोही है।
विचार मृत
होता है, यह
विद्रोही
नहीं होता।
अत: प्रत्येक
समाज ने
तुम्हें सिर
में रहने को
बाध्य किया है,
तुम्हें
तुम्हारे
सारे शरीर से
निकाल कर सिर में
धकेल दिया है।
तुम
केवल सिर में
जीते हो। यदि
तुम्हारा सिर
काट दिया जाए
और तभी अचानक तुम
अपने बिना सिर
के शरीर को
देखो, तो
तुम इसको
पहचान नहीं
सकोगे। केवल
चेहरे ही
पहचाने जाते
हैं।
तुम्हारा
सारा शरीर
सिकुड़ चुका है,
नरमी, कांति,
तरलता खो
चुका है। यह
एक लकड़ी के
लट्ठे की
भांति लगभग
मृत वस्तु है।
तुम इसका
उपयोग करते हो,
कार्यात्मक
रूप में यह
चलता रहता है
लेकिन इसमें
कोई जीवन नहीं
है। तुम्हारा
सारा जीवन सिर
में समा गया
है। वहां अटक
गया है, तुम
मृत्यु से
भयभीत हो
क्योंकि
तुम्हारे रहने
का एक मात्र
स्थान, एक
मात्र स्थान
जिसमें तुम रह
सकते हो, तुम्हारे
सारे शरीर में
होना चाहिए।
तुम्हारे
सारे जीवन को
तुम्हारे
सम्पूर्ण शरीर
में
विस्तारित और
प्रवाहित
होना चाहिए।
इसे एक नदी, एक धारा
बनना पड़ेगा।
एक
छोटा बच्चा
अपने
जननांगों से
खेलना आरम्भ करता
है। तुरंत ही
उसके माता—पिता
चिंतित हो
जाते हैं— 'इसे बंद
करो।’ यह
चिंता उनके
स्वयं के
दमनों से आती
है—क्योंकि वे
भी रोके गए थे।
अचानक वे
उद्विग्न हो
उठते हैं एक
दुश्चिंता
उनमें उठती है,
क्योंकि
उन्हें कुछ
बातें सिखाई
गई थीं कि ऐसा
करना गलत है।
उन्हें कभी
अपने
जननांगों को
नहीं छूने
दिया गया।
बच्चे को कैसे
इसकी अनुमति
हो? वे
बच्चे को उसके
जननांग न छूने
के लिए बाध्य करते
हैं, वे
बच्चे को
दंडित करते
हैं।
बच्चा
क्या कर सकता
है? वह
यह नहीं समझ
पाता कि
जननांगों में
गलत क्या है? वे उसके
हाथों उसकी
नाक, उसके
पांवों के
अंगूठों की
भांति ही उसका
एक अंग हैं, वह अपने
शरीर के हरेक
स्थान को छू
सकता है, किंतु
जननांगों को
नहीं। और यदि
वह बारंबार
दंडित किया
जाता है तो
निःसंदेह
अपनी ऊर्जा को
वह जननांगों
से बलात वापस
भेजना आरंभ कर
देता है। इसे
वहां
प्रवाहित
नहीं होने
देना चाहिए
क्योंकि अगर
यह उस ओर
प्रवाहित
होती है तो वह
उनसे खेलना
चाहता है। और
यह सुखद है, और कुछ भी
गलत नहीं है, बच्चा यह
देख नहीं पाता
कि इसमे गलत
क्या है।
वास्तव में यह
शरीर का सबसे
सुखदायी अंग
है।
लेकिन
मां—बाप भयभीत
हैं, और
बच्चा उनके
चेहरे और उनकी
आंखें देख
सकता है :
अचानक ही— वे
सामान्य
व्यक्ति थे—जिस
क्षण वह अपने
जनन अंगों को
स्पर्श करता
है वे
असामान्य बन
जाते हैं, लगभग
पागल से।
उनमें कुछ
इतनी कठोरता
से बदलता है
कि बच्चा भी
भयभीत हो जाता
है—कुछ न कुछ
गलती अवश्य
होनी चाहिए
इसमें। यह कुछ
न कुछ गलत
माता—पिता के
मन में है, बच्चे
के शरीर में
नहीं है, लेकिन
बच्चा कर ही
क्या सकता है?
इस
स्थिति को, इस
घबड़ाहट भरी
परिस्थिति को
दर—किनार करने
भर से ही, सर्वाधिक
सुंदर
अनुभूतियों
में से एक को
इतनी गहराई तक
दमित किया गया
है कि
स्त्रियों ने चरम
सुख, ऑर्गाज्म
को अनुभव ही
नहीं किया है।
भारत में
स्त्रियां अभी
भी नहीं जानती
कि चरम सुख
क्या है।
उन्होंने
इसके बारे में
कभी सुना ही
नहीं है; वास्तव
में वे यही
जानती हैं कि
यौनानद
पुरुषों के
लिए है, स्त्रियों
के लिए नहीं।
बेहूदी बात है
यह, क्योंकि
परमात्मा
उग्र
पुरुषवादी
नहीं है, और
वह पुरुषों के
पक्ष और
स्त्रियों के
विरोध में
नहीं है। उसने
एक समान रूप
से प्रत्येक
को दिया है।
लेकिन
लड़कियों पर
लड़की की तुलना
में अधिक
रोकथाम की
जाती है, क्योंकि
समाज पुरुष—प्रधान
है। अत: उनका
कहना है, लड़के
तो लड़के हैं, अगर तुम
उन्हें रोक दो,
तब भी वे
कुछ न कुछ तो
कर ही लेंगे।
लेकिन
लड़कियां, उन्हें
तो संस्कृति,
नैतिकता, शुद्धता, कौमार्य का
प्रतिमान
बनना पड़ता है।
उन्हें अपने
जननांगों को
छूने की जरा
भी अनुमति
नहीं है।
इसलिए बाद में
चरम सुख
उपलब्ध करना
कैसे संभव है,
क्योंकि
ऊर्जा उस
रास्ते जाती
ही नहीं है?
और
क्योंकि
ऊर्जा उस
रास्ते नहीं
जाती है, हजारों
समस्याएं उठ
खड़ी होती हैं।
स्त्रियां
उन्मादी, हिस्टेरिकल
हो जाती हैं।
पुरुष यौन से
अत्यधिक
ग्रसित हो
जाते हैं।
स्त्रियां
करीब—करीब
उदास और
अवसादग्रस्त
हो जाती हैं, क्योंकि वे
काम—अनुभव का
आनंद नहीं ले
सकतीं, इसके
करीब—करीब
विरोध में हो
जाती हैं। और
पुरुष यौन में
बहुत अधिक
रुचि रखने
लगते हैं, क्योंकि
सारे अनुभवों
में कुछ न कुछ
छूट जाता है।
पुरुष यह
अनुभव करता
रहता है कि वह
कुछ चूक रहा है,
कुछ चूक रहा
है, अत: और
अधिक काम—अनुभव
में करूं, इसे
कई स्त्रियों
के साथ करूं।
यह समस्या
नहीं है। तुम
एक के साथ
चूकते जाओगे;
तुम अनेक के
साथ चूकते
जाओगे।
समस्या
तुम्हारे
भीतर है :
तुम्हारी
ऊर्जा जननांगों
के द्वारा
प्रवाहित
नहीं हो रही
है।
और इस
ढंग से, सारी ऊर्जा
धीरे— धीरे
सिर में धकेल
दी जाती है।
हमारे पास हेड
क्लर्क, हेड
सुपरिनटेंडेंट, हेड
मास्टर जैसे
शब्द हैं, सभी
हेड्स हैं। ’हैड्स' का
प्रयोग
श्रमिकों के
लिए होता है।’हेड्स, प्रधान,
श्रेष्ठतर
लोग हैं—राज्यों
के 'हेड्स।’
'हैड्स' मात्र
हाथों से काम
करने वाला, महत्वहीन।
भारत में
ब्राह्मण 'हेड्स'
हैं। और
बेचारे शूद्र
तो हाथ भी
नहीं हैं—पांव,
पैर हैं।
हिंदू
शास्त्रों
में ऐसा कहा
गया है कि
परमात्मा ने
ब्राह्मणों
को सिर के रूप
में और शूद्रों
को पैर के रूप
में रचा है और
क्षत्रियों, योद्धाओं को,
बांहों, हाथों,
शक्ति तथा
व्यापारियों,
वैश्यों को
पेट की भांति
रचा है। लेकिन
ब्राह्मण सिर
हैं।
सारा
संसार
ब्राह्मण बन
गया है। यही
समस्या है—प्रत्येक
व्यक्ति सिर
में जी रहा है, और सारा
शरीर संकुचित
हो गया है।
जरा कभी दर्पण
के सामने खड़े
होकर देखो कि
तुम्हारे
सारे शरीर को
क्या हो गया
है। तुम्हारा
चेहरा बहुत
जीवंत लगता है,
जीवन की
लालिमा से
आलोकित, लेकिन
तुम्हारा
सीना? —सिकुड़ा
हुआ।
तुम्हारा पेट?
—लगभग
यंत्रवत, यांत्रिक
ढंग से कार्य
करता चला जाता
है। तुम्हारा
शरीर.......
यदि
लोग नग्न खड़े
हों, उनके
शरीरों को देख
कर ही तुम जान
सकते हो कि अपने
जीवन में वे
किस ढंग का
कार्य कर रहे
हैं। यदि वे
श्रमजीवी हैं,
उनके हाथ
जीवंत, मांसल
होंगे। यदि वे
सिर का उपयोग
करने वाले—बुद्धिजीवी,
प्रोफेसर्स,
उप—कुलपति
और उस प्रकार
के बकवासी लोग
हैं—तब तुम
उनके सिरों को
बहुत
प्रभापूर्ण, लालिमायुक्त
देखोगे। यदि
वे पुलिसवाले
या डाक बांटने
वाले हों, तो
उनकी टांगें
बेहद मजबूत
होंगी। लेकिन
तुम किसी के
पूरे शरीर, सारे शरीर
को एक सा
विकसित नहीं
देखोगे, क्योंकि
कोई भी
व्यक्ति एक
संपूर्ण
जैविक इकाई की
भांति नहीं जी
रहा है।
व्यक्ति
को एक समग्र
जैविक इकाई की
भांति जीना
चाहिए।
संपूर्ण शरीर
पर पुन: ध्यान
दिया जाना है।
क्योंकि
पैरों के
द्वारा तुम
पृथ्वी के
संपर्क में हो, तुम्हारा
पृथ्वी से गहन
संवाद होता है—यदि
तुम अपनी
टांगों और
उनकी शक्ति से
असंबद्ध हो और
वे मुर्दा अंग
बन कर रह गई
हैं, तो अब
पृथ्वी से
तुम्हारा
संबंध
विच्छेद हो चुका
है। तुम उस
वृक्ष जैसे हो
जिसकी जड़ें
मृत या सड़ी हुई,
कमजोर हो
चुकी हैं; अब
यह वृक्ष अधिक
समय जीवित
नहीं रह पाएगा
और समग्रता से
स्वस्थ होकर
पूर्णत: जी न
सकेगा।
तुम्हारे
पैरों को
पृथ्वी में
जड़ें जमाने की
जरूरत है, वे
ही तुम्हारी
जड़ें हैं।
कभी एक
छोटा सा
प्रयोग करो।
कहीं भी
समुद्र के
किनारे नदी के
तट पर नग्न हो
जाओ, बस
धूप में नग्न—और
कूदना, धीरे—
धीरे दौड़ना, और अपनी
ऊर्जा को अपने
पैरों से, अपनी
टांगों
द्वारा
पृथ्वी में
प्रवाहित होते
हुए महसूस करो।
धीरे— धीरे
दौड़ते रहो और
टांगों के
माध्यम से
अपनी ऊर्जा को
पृथ्वी में
जाता हुआ
अनुभव करो।
फिर कुछ मिनट
धीरे— धीरे
दौड़ने के बाद
बस शांत होकर
पृथ्वी में जड़ें
जमा कर खड़े हो
जाओ, और बस
पृथ्वी के साथ
अपने पैरों का
एक संवाद का
अनुभव करो।
अचानक
तुम्हें
पृथ्वी के साथ
अपनी जड़ों का
गहन जुड़ाव का
गहरा और ठोस अनुभव
होगा। तुम
देखोगे, पृथ्वी
संवाद करती है;
तुम देखोगे,
तुम्हारे
पैर संवाद
करते हैं, पृथ्वी
और तुम्हारे मध्य
एक वार्तालाप
हो रहा है।
यह
जुड़ाव खो चुका
है। लोगों की
जड़ें उखड़ चुकी
हैं, वे
अब जुड़े हुए
नहीं रहे। और
तब वे जी नहीं
पाते।
क्योंकि जीवन
सारे शरीर से
संबद्ध है
केवल सिर से
नहीं।
पश्चिम
में कुछ
वैज्ञानिक
प्रयोगशालाओं
में वे कुछ
प्रयोग कर रहे
हैं जहां कि कुछ
सिरों को
जीवित रखा गया
है। एक बंदर
का सिर उसके
शरीर से काट
लिया गया, उसे कुछ
ऐसे यांत्रिक़
उपकरणों सें
जोड़ा गया जो
शरीर की भांति
कार्य करते
हैं। सिर
सोचता रहता है,
स्वप्न
देखता रहता है।
सिर इससे
प्रभावित
नहीं हुआ, जरा
भी नहीं।
जो
घटना घटी है, वह यही तो
है। पश्चिम की
कुछ
प्रयोगशालाओं
में ही नहीं, हरेक आदमी
के साथ यही
घटा है।
तुम्हारा
सारा शरीर एक
यांत्रिक चीज
बन कर रह गया
है, केवल
तुम्हारा सिर
ही जीवित है।
यही कारण है
कि सिर में
इतनी ज्यादा
आपाधापी, इतने
सारे विचार, इतना अधिक
सोच—विचार है।
लोग मेरे पास
आते हैं और
कहते हैं, इसको
कैसे रोकें? किस भांति
इसे रोकें यह
समस्या नहीं
है। समस्या है
कि इसको सारी
देह में किस
प्रकार प्रसारित
किया जाए।
निःसंदेह यह
बहुत अधिक भरा
है क्योंकि
सारी ऊर्जा
वहीं है—और यह
इतनी अधिक
ऊर्जा वहन
करने में
समर्थ नहीं, इसीलिए तुम
पगला जाते हो,
तुम बहक
जाते हो।
पागलपन
हमारी
संस्कृति
द्वारा
उत्पन्न एक रोग
है; यह
सांस्कृतिक
बीमारी है.।
पृथ्वी पर कुछ
ऐसी आदिम
संस्कृतियां
रही हैं जहां
पागल आदमी हुए
ही नहीं, जहां
विक्षिप्तता
कभी थी ही
नहीं। और अब
भी तुम इसे
देख सकते हो, उन समाजों
में जो आर्थिक
रूप से बहुत
समृद्ध नहीं
है, शैक्षिक
स्तर पर जहां
सार्वभौमिक
शिक्षा की आपदा
अभी तक नहीं
आई है, जहां
लोग अब भी
मात्र अपने
सिरों में ही
नहीं है बल्कि
अन्य अंगों
में भी हैं—भले
ही आशिक रूप
में हों, लेकिन
फिर भी कहीं
ऊर्जा का कुंड
होता है, पैरों
में हो, पेट
में ऊर्जा का
कुंड हो—भले
ही वे उसके
संपर्क में
नहीं हैं, असंबद्ध
कुंड हैं, लेकिन
फिर भी ऊर्जा
कहीं न कहीं
फैली हुई है—सब
ओर फैली हुई
है— भलीभांति
वितरित है, तो पागलपन
कभी—कभार ही
घटता है।
जितना अधिक
कोई समाज सिर—उन्मुख
हो जाता है
उतना ही
पागलपन।
यह इस
प्रकार है कि
एक सौ दस
वोल्ट के तार
से तुम एक
हजार वोल्ट की
बिजली
प्रवाहित
करने का जबरन
प्रयास करो—तो
हर चीज छिन्न—भिन्न
हो जाएगी। सिर
को भली प्रकार
से कार्य करने
कि लिए ऊर्जा
की अल्प
मात्रा की
आवश्यकता है।
सिर में
अत्यधिक
ऊर्जा, फिर वह
निरंतर
कार्यरत रहता
है, इसे
पता नहीं कब
रुकना है, क्योंकि
ऊर्जा को
विसर्जित
कैसे किया जाए?
यह सोचता है,
विचारता है,
विचार करता
चला जाता है, और स्वप्न
पर स्वप्न
देखता रहता है
दिन—रात, साल
दर साल व्यतीत
होते जाते हैं,
सत्तर वर्ष
तक। जरा सोचो
तो। बस इतना
ही है
तुम्हारा
जीवन।
निस्संदेह
व्यक्ति
बुढ़ापे से
भयभीत हो जाता
है। समय गुजर
रहा है।
असंदिग्ध रूप
से व्यक्ति
स्वभावत:
मृत्यु से भयभीत
हो जाता है।
मृत्यु किसी
भी क्षण आ
सकती है। और
तुम बस सिर
में चक्कर काट
रहे हो। किसी
और स्थान पर
तो तुम गए ही
नहीं, जीवन
का सारा
परिक्षेत्र
अस्पर्शित ही
रह गया। जीयो
अपने सारे
शरीर में
गतिशील हो।
इसे गहन प्रेम
से स्वीकारो
अपने शरीर के
साथ करीब—
करीब प्रेम
में ही पड़ जाओ।
यह एक दिव्य
भेंट, वह
मंदिर है जहां
परमात्मा ने
बसने का
निर्णय लिया
है। फिर
वृद्धावस्था
का कोई भय
नहीं रहेगा; तुम परिपक्व
होने लगोगे।
तुम्हारे
अनुभव
तुम्हें
परिपक्व
करेंगे फिर
वृद्धावस्था
एक रोग की
भांति नहीं
होगी, यह
एक सुंदर घटना
होगी। सारा
जीवन इसी के
लिए तैयारी है।
यह रुग्णता
कैसे हो सकती
है? सारे
जीवन तुम इसकी
ओर अग्रसर हुए
हो। यह शिखर
है, वह
अंतिम गीत और
नृत्य जो तुम
संपन्न करने
जा रहे हो।
और कभी
किसी चमत्कार
की प्रतीक्षा
मत करो।
तुम्हीं को
कुछ करना
पड़ेगा। मन
कहता है कि
ऐसा कुछ या
वैसा कुछ होगा
और फिर सब कुछ
ठीक हो जाएगा।
यह इस प्रकार
से नहीं होने
जा रहा है।
चमत्कार नहीं
घटते।
मैं एक
कहानी सुनाता
हूं:
एक दुर्घटना
में एबी की
दोनों टांगें
टूट गईं।
हड्डियां जोड़
दी गईं और एबी
ने जिम्मेवार
बीमा कंपनी पर
क्षतिपूर्ति
के लिए दावा
दायर कर दिया।
उसका आरोप था
कि वह सदा के
लिए अपाहिज हो
गया है और अब
उसे सारी
जिंदगी व्हील
चेयर पर
गुजारनी
पड़ेगी। बीमा
कंपनी ने
परिस्थिति का
जायजा लेने के
लिए शल्य
चिकित्सकों
को नियुक्त
किया।
उन्होंने
रिपोर्ट दी कि
हड्डियां
पूरी तरह से
ठीक हो चुकी
हैं, कि
एबी कोहेन अब
चलने में
समर्थ हैं, और वे केवल
बहानेबाजी कर
रहे हैं। फिर
भी जब यह
मुकदमा अदालत
में पहुंचा तो
न्यायाधीश को
व्हील चेयर पर
बैठे इस
बेचारे पर दया
आ गई और उसने
क्षतिपूर्ति के
रूप में दस
हजार पाउंड की
राशि दिए जाने
का आदेश कर
दिया। एबी
अपने लिए चैक
लेने व्हील
चेयर से ही
मुख्यालय
पहुंचा।
'मिस्टर
कोहेन, मैनेजर
ने कहा, यह
मत सोचना कि
तुम बच कर
निकल जाओगे।
हम जानते हैं
कि तुम
बहानेबाजी कर
रहे हो। और
मैं तुम्हें
बता दूं कि हम
तुम्हारे लिए
एक बड़ी
रिपोर्ट
तैयार कर रहे
हैं। रात—दिन
हम तुम्हारे
ऊपर निगाह
रखने वाले हैं।
हम तुम्हारे
फोटो खींचते
रहेंगे और अगर
हमने सबूत पेश
कर दिया कि
तुम चल—फिर
सकते हो, तो
न केवल
तुम्हें
क्षतिपूर्ति
वापस करनी होगी
बल्कि झूठी
शपथ लेने का
परिणाम भी
भुगतना होगा।
मिस्टर
मैनेजर, मैं तो सदा
के लिए अपंग
होकर इस व्हील
चेयर में बैठ
गया हूं।
बहुत
अच्छा, यह रहा दस
हजार पाउंड का
चैक, आप
इससे क्या
करने का इरादा
रखते हैं?
अच्छा, मिस्टर
मैनेजर, मैं
और मेरी पत्नी,
हम दोनों
हमेशा से
भ्रमण करना
चाहते थे।
इसलिए हम
नावें के ऊपरी
भाग से यात्रा
आरंभ करेंगे
और
स्कैन्दिनेविया
(प्रभाव डालने
के लिए उसने
अपनी अंगुली
से नीचे संकेत
किया) से गुजर
कर, फिर
स्विटजरलैंडइr?
इटली, ग्रीस—और
मुझे
तुम्हारे
एजेंट और
जासूस जो कि
मेरा पीछा कर
रहे होंगे, की जरा भी
फिकर नहीं है;
मैं तो
अपाहिज हुआ
अपनी कुर्सी
पर बैठा रहूंगा—तो
स्वाभाविक है
कि हम इजरायल
जा रहे होंगे,
फिर ईरान और
भारत और इसे
पार करते हुए
(उसने अंगुली
से प्रभाव
डालने के लिए
संकेत किया)
जापान और तब फिलीपाइंस—
और मैं तो अभी
भी व्हील चेयर
पर होऊंगा, इसलिए मुझे तुम्हारे
जासूसों की जो
अपने कैमरे
लेकर मेरा
पीछा कर रहे
हैं, कोई
चिंता नहीं है,
और वहा से
हम
आस्ट्रेलिया
के आर—पार
जाएंगे और फिर
दक्षिण
अमरीका और
वहां से सीधे
मैक्सिको
पहुंचेंगे
(उसने रास्ते
को संकेत से
बताया) और याद
रहे, मैं
अब भी अपाहिज
होकर व्हील
चेयर पर बैठा
हूं। इसलिए
तुम्हारे
जासूसों का
उनके कैमरों
के साथ क्या
उपयोग रहा ?—फिर कनाडा।
और वहां से हम
फ्रांस को पार
करते हुए
लॉर्डस नामक
स्थान को
देखने जाएंगे,
और वहां तुम
देखोगे—एक
चमत्कार।
लेकिन
असली जीवन में
चमत्कार नहीं
घटते।
तुम्हारे लिए
कोई लॉर्डस
नहीं है। अगर
तुम अपंग हो
तो तुम्हीं को
कुछ करना पड़ेगा—क्योंकि
यह तुम्हीं हो
जिसने, कुछ ऐसी बात
स्वीकार करके
जो नितान्त
मूढ़तापूर्ण
है, स्वयं
को अपंग कर
लिया है।
फिर भी
मैं जानता हूं
कि तुम्हें
इसे स्वीकारना
पड़ा है। जीवित
रहने के लिए
तुम मृत रहने
का निर्णय करते
हो। जिंदा रह
पाने के लिए
तुमने अपने
अस्तित्व को
बेच दिया है।
किंतु
अब उस मूढ़ता
की बात को
जारी रखने की
कोई आवश्यकता
नहीं है। तुम
इससे बाहर हो
सकते हो।
प्रश्न:
अधिक समय
तो मैं कामुक अनुभव
करता हूं, और मेरी आंखें
दूसरे की खोज करती
रहती है। और मैं
मन में भी बहुत
अधिक बना रहता
हूं, जहां तक
मैं स्वयं को
समझता हूं,
ये तीन ही मेरी
मूलभूत समस्याए
है। मैं इन समस्याओं
की बदलियों में
धिरा रहता हूं, इसलिए जैसे मुझे
आपको सुनना चाहिए, उस प्रकार से
नहीं सून पाता
हूं, कृपया
मुझे मार्ग दिखाएं।
ये
समस्याएं
नहीं हैं।
तुमने इनको
समस्याएं बना
लिया है। और
एक बार तुम एक
सरल बात को भी
समस्या की तरह
देख लो, यह समस्या
बन जाती है—यह
है नहीं। यह
तुम्हारी
दृष्टि, तुम्हारा
देखने का ढंग है।
'अधिक
समय तो मैं
कामुक अनुभव
करता रहता हूं
और मेरी आंखें
दूसरे की खोज
करती रहती हैं।’
तो
इसमें क्या
समस्या है? समस्या
कहां है? यह
तो इस प्रकार
हुआ कि कोई
भूखा व्यक्ति
भोजन के बारे
में सोचता है
और
रेस्तरांओं
की खोज करता
रहता है।
इसमें गलत
क्या है? क्या
तुम कहोगे कि
वह
समस्याग्रस्त
है और उसे इससे
बाहर निकलना
ही है? यदि
वह समस्या से
बाहर आता है
तो वह मर
जाएगा, उसे
भोजन खोजना ही
है। प्रेम
भोजन है, एक
अति सूक्ष्म
भोजन।
'अधिकतर
समय तो मैं
कामुक अनुभव
करता हूं और
मेरी आंखें
दूसरे की खोज
करती रहती हैं।’
स्वाभाविक
है। तुम भोजन
खोज रहे हो, और तुम
भूखे हो।
लेकिन लोगों
ने तुमको
पढ़ाया है कि
कामवासना समस्या
है। यह समस्या
नहीं है। यह
शुद्ध ऊर्जा
है। यह दिव्य
है। इसमें
समस्या जैसा
तो कुछ भी
नहीं है। यदि
तुम ऊर्जा को
स्वीकार न करो,
यदि तुम
इसके साथ
प्रवाहित मत
हो, तो तुम
समस्या
निर्मित कर
सकते हो। और
मुझे पता है, यदि तुम
इसके साथ
प्रवाहित हो,
एक दिन तुम
अतिक्रमण कर
लोगे। तुम
उच्चतर तल पर
पहुंचोगे, तुम
इस पर आरूढ़
होओगे, और
तुम अधिक और
अधिक
ऊंचाइयों पर
पहुंचोगे। यह
एक सुंदर
ऊर्जा है, जो
तुम्हें परम
आत्यंतिक तक
ले जा सकती है,
लेकिन अगर
तुम इसमें से
समस्या बना लो
तो तुम इससे
सदा—सदा के
लिए ग्रसित
रहोगे। और
जितना अधिक
तुम इसके साथ
संघर्ष करोगे
उतना ही अधिक
कामवासना और
काम—ऊर्जा तुम
पर पलट वार
करेगी। इसे
पलट वार करना
पड़ता है, क्योंकि
यह जीवन
संरक्षक
ऊर्जा है।
तुम
काम—ऊर्जा से
निर्मित हो।
अगर तुम्हारे
माता—पिता ने
सोचा होता कि
यह समस्या है, तो तुम
यहां नहीं
होते। तुम इसी
समस्या से आए
हो, तुम्हारा
अस्तित्व इसी
समस्या के
कारण है।
क्योंकि
तुम्हारे
माता— पिता
समस्या नहीं
सुलझा सके, इसीलिए तुम
यहां हो।
मेरे
देखने में आया
है कि जो
व्यक्ति
कामवासना को
समस्या की तरह
देखता है, कभी अपने
माता— पिता के
प्रति
सम्मानपूर्ण
नहीं हो सकता।
वह कैसे
सम्मान करे? जरा देखो।
यह तो सीधा सा
गणित है। तुम
अपने पिता के
प्रति
सम्मानपूर्ण
कैसे हो सकते
हो? वे
तुम्हारी मां
के साथ कुछ
गंदा व्यवहार
कर रहे थे।
वस्तुत: तुम
तो उस व्यक्ति
की तुरंत
हत्या कर देना
चाहोगे। और
तुम अपनी मां
का सम्मान
कैसे कर सकते
हो? वह भी
एक कामुक
व्यक्ति थी, जैसे कि कोई
दूसरी स्त्री,
एकदम पशुवत।
तुम अपनी मां
के चरण स्पर्श
कैसे कर सकते
हो? असंभव।
जब तक तुम
कामवासना को
एक भेंट, एक
दिव्य भेंट के
रूप में न
स्वीकारो, तुम
अपने पिता और
माता का
सम्मान नहीं
कर सकते।
गुरजिएफ
अपने शिष्यों
से कहा करता
था : उसने इसे
अपने घर पर
लिख रखा था, कि जब तक
तुम अपने पिता
और माता का
सम्मान नहीं
करते, यहां
प्रवेश मत करो।
और गुरजिएफ
जैसा व्यक्ति
भी लिखने के
लिए इससे
श्रेष्ठ और
कुछ न पा सका? 'यदि तुम
अपने पिता और
माता का
सम्मान नहीं
करते हो, तो
यहां प्रवेश
मत करो।’ लेकिन
उसने एक सरल
ढंग से बहुत
बातें कह दी
हैं। केवल वही
व्यक्ति जो
काम—ऊर्जा को
पूरी तरह से
स्वीकार करता
है अपने पिता
और माता का
सम्मान कर
सकता है।
अन्यथा तो तुम
दिखावा कर
सकते हो, तुम
सम्मान नहीं
कर सकते।
और यदि
तुम सोचते हो
कामवासना एक
समस्या है, कोई
बीमारी है, जिससे
तुम्हें
छुटकारा पाना
है, तो
क्या तुम अपने
बच्चों से
प्रेम कर
पाओगे? तुम
अपने बच्चों
से कैसे प्रेम
कर सकतें हो? वे एक
समस्या से, एक रोग से, आए हैं। तुम
उनसे घृणा
करोगे। तुम
दिखावा कर
सकते हो कि
तुम उन्हें
प्रेम करते हो
लेकिन तुम
जानते हो कि
वे तुम्हारी समस्या
की
अभिव्यक्तियां
हैं। वे सदैव
तुम्हें एक
कामुक
व्यक्ति की
तरह इंगित
करेंगे। वे
संसार में एक
प्रमाण की तरह
जाएंगे कि तुम
पशुवत थे, कि
तुम कामवासना
के पार नहीं
जा पाए थे। वे
एक प्रमाण
होंगे, तुम्हारा
स्तर से नीचे
गिरे होने का
स्थायी प्रमाण।
नहीं, मैं तुमसे
कहना चाहूंगा
कि कामवासना
समस्या नहीं है।
यह एक शुद्ध
ऊर्जा है। और
यदि तुम इससे
बचते हो, तो
निःसंदेह तुम
सदैव खोजते
रहोगे। तब यह
एक
मनोग्रस्तता
बन जाएगी। फिर
तुम पूर्णत:
इससे ग्रसित
हो जाओगे और
यह एक विकृति
बन जाएगी। तब
जो कुछ भी तुम
देखोगे, तुम्हें
उसमें
कामवासना ही
दिखाई पड़ेगी,
और कुछ भी
नहीं। और तुम
इतने ग्रस्त
हो सकते हो कि
तुम पागल हो सकते
हो।
फ्रायड
ने कहा कि
पागल होने
वाले सौ लोगों
में से कम से
.कम नब्बे लोग
निश्चित रूप
से कामवासना—दमित
काम के कारण
पागल होते हैं।
कामवासना को
समझा जाना है, इसे सृजनात्मक
रूप से उपयोग
करना है। यह
जाग्रत जीवन,
अग्नि, जीवंतता
है। तुम्हारा
निर्माण इसी
से हुआ है, प्रत्येक
व्यक्ति इसी
से निर्मित.
है।
इससे
बचने के लिए
ईसाई लोग यह
सिद्ध करने का
प्रयास करते
रहे कि जीसस
का अब तार 'कुंवारी'
मेरी से हुआ
है—इसी बात से
बचने के लिए कि
जीसस कैसे
सामान्य काम
से संबंध से
अवतरित हो
सकते।१। और
उन्हें पता है
कि वे इस बात
को प्रमाणित
करने में सभी
सफल नहीं हो
सके हैं।
मैं एक
कहानी पढ़ रहा
था
एक
सुंदर युवा
स्त्री एक
चिकित्सक कें
पास आई।
चिकित्सक ने
उसकी जांच की
और बोला : मिस 'आप
गर्भवती हैं?
वह
स्त्री बोली :
नहीं, कभी
नहीं, ऐसा
नहीं हो सकता,
यह असंभव है।
मैंने तो कभी
किसी पुरुष का
संसर्ग किया
ही नहीं, इसलिए
ऐसा कैसे हो
सकता है?
चिकित्सक
बोला : लेकिन
यह तो निश्चित
तथ्य है, उस स्त्री
ने इनकार किया,
वह बोली : यह
असंभव है, ऐसा
नहीं हो सकता।
मेरा किसी
पुरुष से कभी
साथ हुआ ही
नहीं।
तब वह
चिकित्सक
बोला : ठहरिए, मुझे
अपना सामान
बांध लेने दें।
मैं आपके साथ
चल रहा हूं।
वह स्त्री
बोली. क्यों? किसलिए?
उसने
कहा इस बार
मैं चूकूंगा
नहीं। मैंने
सुना है कि
पूर्व से 'वर्जिन
मेरी' का
दर्शन करने
तीन विद्वान
आए थे। इस बार
मैं चूकूंगा
नहीं, मैं
आ रहा हूं मैं
उन तीन
विद्वानों को
देखना चाहता
हूं।
बस एक
घबड़ाहट भरी
परिस्थिति से
बचने के लिए
ही—जीसस! एक
कामुक प्रेम
संबंध से जन्म
लें? लेकिन
यह
अनुयायियों
की मूढ़ता ही
दर्शाता है।
हमने
भारत में कभी
ऐसा नहीं किया।
हम बुद्ध, महावीर, राम, कृष्णी
सभी को काममय
प्रेम संबंध
से जन्मा हुआ
स्वीकार करते
हैं। हमने इस
भाषा में कभी
नहीं सोचा कि
काम पाश्विक
है। बुद्ध का
जन्म भी इसी
से होता है।
हमें पता है
कि कमल उस
कीचड़ से बहुत
अलग है जिससे
यह आता है, लेकिन
यह कीचड़ से
आता है। कीचड़
का सम्मान
करना पड़ता है,
वरना सारे
कमल खो जाएंगे।
हां, पानी
गंदला है
लेकिन 'तुम्हें
इसमें जीना है,
तुम्हें
इसमें होकर
गुजरना है, तुम्हें
इससे पार जाना
है, इसके
ऊपर, कहीं
दूर, कमल
की भांति
खिलना है। कोई
कल्पना भी
नहीं कर सकता
कि कमल गंदले
कीचड़ से आता
है। यह
परिवर्तित
रूप है, यह
उत्कांति है।
पतंजलि
का पूरा
प्रयास यही
है. तुम्हें
बताना कि काम—केंद्र
से सहस्रार तक
यह वही ऊर्जा
है, नये
रूपांतरणों
से गुजरती हुई,
हरेक चक्र
पर एक नया
दृष्टिकोण, एक नई
संभावना, नये
पंख, खिलती
हुई और—और
पंखुड़ियां।
काम—केंद्र पर
एक कमल है—चार
पंखुड़ियों
वाला कमल, लेकिन
कमल है। भले
ही चार
पंखुड़ियों
वाला हो, किंतु
फिर भी कमल ही
है। सहस्रार
पर यह सहस्र
दल कमल बन
जाता है, लेकिन
फिर भी है तो
कमल ही—एक
हजार
पंखुड़ियों
वाला, जैसे
कि लाखों
सूर्यों और
चंद्रमाओं का
मिलन हो रहा
है। ऊर्जा का
एक महत संलयन
और संश्लेषण,
लेकिन उसी
ऊर्जा का। वही
ऊर्जा
आयुष्मान हो
गई है, विकसित
हुई है, खिल
उठी है।
इसलिए
मैं तुमसे जो
पहली बात कहना
चाहूंगा. कृपा
करके
कामवासना को
समस्या की
भांति मत देखो।
यह समस्या
नहीं है।
अन्यथा यह
समस्या बन
जाएगी।
अगर
कुछ मूढ़
शिक्षाओं के
कारण, जो
तुम्हारे ऊपर
थोप दी गई हैं,
और तुम उनके
लिए
संस्कारित हो
चुके हो, तुम
अपने जीवन में
इससे बचना
चाहते हो तो
यह समस्या बन
जाएगी। यह
तुम्हारा
पीछा करेगी—।
यह करीब—करीब
प्रेत बन
जाएगी, सदा
तुम्हारे साथ
रह कर तुमसे
बातचीत करती
रहेगी। यह एक अंदरूनी
वार्ता बन
जाएगी और तुम
हर ओर देख रहे
होगे, हर
ओर, गहरे
में अतृप्त
आत्मा के साथ।
तुम करीब—करीब
एक भिखमंगे बन
जाते हो, भीख
ही भीख मांगते
हुए और दोषी
अनुभव करते
हुए, लगभग
किसी अपराधी
की तरह बुरा
अनुभव करते हुए।
केवल एक
दृष्टिकोण के
कारण। ऐसा
प्रतीत होता
है कि तुम
धार्मिक
लोगों से, चर्च
से, मंदिर
से, पुरोहित
से, अत्यांधिक
प्रभावित रहे
हो।
मैं
तुमसे एक
कहानी कहना
चाहता हूं :
एक
पुराने
अनुभवी
चिकित्सक ने, जिसका
पुत्र अभी
मेडिकल कॉलेज
से स्नातक हुआ
था, उसे
अपने व्यवसाय
के बारे में
कुछ टिप्स
देने का
निर्णय लिया।
एक दिन उसका
पुत्र भी
अस्पताल के
राउंड पर निकले
अपने
चिकित्सक
पिता के साथ
था। जिस पहले
रोगी को
उन्होंने
देखा, उसे
उसके पिता ने
धूम्रपान में
कमी लाने को
कहा।
आप इस
निष्कर्ष पर
किस प्रकार
पहुंचे? पुत्र ने
पूछा।
बस जरा
उसके कमरे में
चारों ओर
निगाह तो
दौड़ाओ, और देखो
सिगरेट के
कितने सारे
टोटे पड़े हैं,
उसका उत्तर
था।
दूसरे
रोगी को इतनी
अधिक चॉकलेट न
खाने के लिए
कहा गया। पुन:
वह नया
चिकित्सक
विस्मित हुआ, कैसे
जाना? वह
बोला।
तुम
देखते ही नहीं
हो, पिता
ने कहा, यदि
तुमने देखा
होता तो तुमने
उस स्थान पर
चारों ओर पड़े
चॉकलेट के
बहुत सारे
खाली बाक्स
देख लिए होते।
मैं
सोचता हूं कि
आपकी बात मेरी
समझ में अब आ चुकी
है, पुत्र
ने कहा। अगले
रोगी को मुझे
देखने दें।
उस
महिला से जो
तीसरी रोगी थी, पुत्र ने
चर्च, धर्म
और पादरियों
से परहेज करने
को कहा।
आश्चर्यचकित
पिता ने अपने
पुत्र से पूछा
कि वह विचित्र
निष्कर्ष पर
कैसे पहुंचा,
क्योंकि
वार्तालाप
में तो चर्च
का कहीं उल्लेख
तक नहीं हुआ
था और उस
स्थान पर
चारों ओर कहीं
चर्च हो भी
नहीं सकते।
ठीक है पिताजी,
यह इस
प्रकार से हुआ,
पुत्र ने
कहा, आपने
ध्यान दिया कि
मैंने
थर्मामीटर
गिरा दिया था?
जब मैं इसको
उठाने के लिए
नीचे झुका तो
मुझको पलंग के
नीचे धर्म—उपदेशक
लेटा हुआ
दिखाई पड़ा।
यही है
जो मैं देखता
हूं :
तुम्हारे
पलंग के नीचे
धर्म—उपदेशक
है, तुम्हारे
पलंग के ऊपर
एक
धर्मोपदेशक
है, उस
स्थान पर चारों
ओर मंदिर और
चर्च हैं।
इनको त्यागो,
थोड़ा और
मुक्त हो जाओ।
‘अधिक
समय तो मैं
कामुक अनुभव
करता हूं और
मेरी आंखें
दूसरे की खोज
करती रहती हैं।
और मन में भी
बहुत अधिक बना
रहता हूं।’
यही
होगा
तुम्हारे साथ।
क्योंकि यदि
तुम कामवासना
से लडोगे तो
और कहां जाओगे।
तब सारी कामवासना
एक मानसिक
वस्तु बन
जाएगी। फिर यह
सिर में चली
जाएगी। फिर
तुम इसके बारे
में सोचोगे, कल्पना
करोगे, इसके
स्वप्न
देखोगे। और वे
सपने संतुष्ट
नहीं कर सकते
क्योंकि खाने
के बारे में
कोई स्वप्न
संतुष्ट नहीं
कर सकता। तुम खाने
के बारे में
कल्पनाएं और
राजाओं के
महलों से
प्राप्त
निमंत्रण के
बारे में
कल्पनाएं करते
रह सकते हो, लेकिन इससे
कोई मदद न
मिलेगी। जब
तुम स्वप्न से
बाहर आओगे तो
पुन: तुम्हें
भूख अनुभव
होगी, कुछ
ज्यादा ही भूख।
स्वप्न के
बाद तुम और
अधिक
असंतुष्ट
अनुभव करोगे—और
बार—बार यही
होगा, क्योंकि
तुम एक
वास्तविकता, जीवन के एक
सत्य, एक
तथ्य, जिसे
स्वीकार किया
जाना है, प्रयोग
किया जाना है,
सृजनात्मक
रुप से
रूपांतरित
किया जाना है,
से बच रहे
हो।
मुझे
पता है, यह संभव है
कि एक दिन
तुम्हारी
ऊर्जा
सहस्रार में
चली जाएगी, लेकिन इसको
एक परिपक्व
ऊर्जा के रूप
में गति करने
दो। एक दिन
तुम्हारे
जीवन से
कामवासना बस
खो जाएगी, फिर
तुम इसके बारे
में नहीं
सोचोगे। तब
तुम्हारे लिए
यह और अधिक
कल्पनाचित्र
नहीं रहेगी।
यह बस तिरोहित
हो जाएगी। जब
तुमने उसी
ऊर्जा के
उच्चतर
चरमोत्कर्ष
को उपलब्ध कर
लिया है तो
निम्नतर चरम
सुख का कोई
आकर्षण नहीं रहता।
लेकिन तब तक
यह मनोविलास
की वस्तु बनी
रहेगी।
और अगर
कामवासना
जननेंद्रियों
में है तो यह शुभ
है, क्योंकि
यही वह उचित
स्थान है जहां
इसे होना चाहिए।
यदि यह सिर
में है, तो
तुम उपद्रव
में हो।
गुरजिएफ अपने
शिष्यों से
कहा करता था
कि यदि
प्रत्येक
चक्र उसी
स्थान पर सक्रिय
हो जहां इसे
सक्रिय होना
चाहिए तो व्यक्ति
स्वस्थ रहता
है। जब चक्र
परस्पर
अतिक्रमण
करते हैं और
उनका स्वाभाविक
पथ खो जाता है
और ऊर्जा ऊल—जलूल
ढंग से गति
करती है... अगर
तुम लोगों के
सिर में झरोखे
बना सको तो
तुम्हें वहां
उनके जननांग
दिखाई पड़ेंगे,
क्योंकि
कामवासना
वहां पहुंच गई
है, और निःसंदेह
यदि तुम
उपद्रव में हो,
तो इसमें
हैरानी की कोई
बात नहीं है।
ऐसा होना ही
है।
अपनी
ऊर्जा को उसके
स्वाभाविक
केंद्र पर ले
आओ, प्रत्येक
ऊर्जा को इसके
स्थान पर ले
आओ। तभी यह
ढंग से कार्य
करती है। तब
तुम अंग उपांग
की समग्र
क्रियाशीलता
के गुंजार की
ध्वनि को भी
सुन सकते हो।
यह एक
सुव्यवस्था
से क्रियारत
कार की भांति
है। हूं......? तुम
इसे चलाते हो
और तुम अपने
चारों ओर इसकी
गज की आवाज
अनुभव कर सकते
हो।
लेकिन
जब चीजें गड़बड़
हो जाती हैं, तब निःसंदेह
तुम
अस्तव्यस्त
उलटे—पुलटे हो
जाते हो। कुछ
भी वहां नहीं
होता, जहां
इसे होना
चाहिए। हरेक
चीज अपने
स्वाभाविक
केंद्र से खो
चुकी होती है
और किसी दूसरे
स्थान पर
अध्यारोपण
करती हुई, छिपती
हुई, पलायन
करती हुई
मिलती है। तुम
एक अव्यवस्था
बन जाते हो।
और यही तो है
पागलपन।
एक बार
ऐसा हुआ:
एक
पादरी मर गया
और उसने स्वयं
को स्वर्ग के
द्वार पर खड़ा
पाया। जैसे ही
उसे भीतर लेने
के लिए द्वार
धीरे— धीरे
खोला गया उसे
एक अदभुत
धूमधाम मालूम
पड़ी, और
फिर सारे
सामान्य और
विशिष्ट
देवदूत, थलचर
और नभचर
स्वर्गदूत, सिंहासनारूढ़
और अधिष्ठाता,
संत और धर्म
के बलिदानी, ये सभी
क्रमबद्ध रूप
से अपने
पदानुसार
उसका सम्मान
करने को
अनुशासित ढंग
से आए।
बहुत
अच्छा, मैं तो गदगद
हो गया, पादरी
ने सेंट पीटर
से पूछा, क्या
स्वर्ग में
आने वाले हर
पादरी का आप
ऐसा ही स्वागत—सत्कार
करते हैं?
ओह
नहीं, सेंट
पीटर ने कहा, ऐसा इसलिए
हुआ कि तुम
यहां प्रवेश
करने वाले पहले
पादरी हो। और
मैं तो इस पर
भी शक करता
हूं। पादरी
स्वर्ग में
प्रवेश नहीं
पा सकते क्योंकि
पादरी समग्र
नहीं हो सकते।
तो फिर वे
पवित्र कैसे
हो सकते हैं? असंभव।
और तुम
मुझसे पूछते
हो : 'मैं
इने समस्याओं
की बदलियों से
घिरा रहता हूं
इसलिए जैसे
मुझे आपको
सुनना चाहिए
उस प्रकार से
नहीं सुन पाता
हूं। कृपया
मुझे मार्ग
दिखाएं।’
तुम
अभी तक मार्ग—निर्देशकों
से उकताए नहीं।
वे ही
तुम्हारी
समस्या हैं।
और तुम अभी, तक 'चाहिए'
से ऊबे नहीं
हो। यही
तुम्हारी
पीड़ा है, सारा
संताप है। सभी
'चाहिए' छोड़ दो, सारे
मार्ग—
निर्देशकों
को हटा दो।
यही एक मात्र
मार्ग—निर्देशन
मैं तुम्हें
दे सकता हूं।
पूर्णत: अकेले
हो जाओ, उााऐर
अपने भीतर की
आवाज को सुनो।
जीवन पर
श्रद्धा रखो
किसी और पर 'नहीं। और
जीवन सुंदर और
आंतरिक रूप से
मूल्यवान है।
और यदि तुम
जीवन के विरोध
में हर किसी
को सुनते हो, तो तुम भटक
जाओगे।
इसलिए
मैं उसे ही
सच्चा सदगुरु
कहता हूं जो
तुम्हें
तुम्हारी
भीतरी आवाज
वापस देने में
सहायक हो। वह
तुम्हें अपनी
आवाज नहीं
देता है।
तुम्हें
तुम्हारी स्वयं
की खोई हुई
आवाज पुन: पा
लेने में
सहायता देता
है। वह
तुम्हें निर्देशित
भी नहीं करता, वास्तव
में तो वह
तुमसे सारे
मार्गु—निर्देशक
छीन लेता है
ताकि तुम
स्वयं अपने मार्ग—निर्देशक
बन जाओ और तुम
अपने जीवन को
अपने हाथों
में ले सको और
तुम
उत्तरदायी बन
सको।
बार—बार
किसी से पूछना, 'मुझे
क्या करना
चाहिए?' यही
अनुत्तरदायित्व
है।
और यही
कारण है कि
तुम मेरे साथ
सदा झंझट में
महसूस करते
रहते हो। तुम
चाहोगे कि मैं
चम्मच से
निवाला
तुम्हारे मुंह
में रख दूं
ताकि तुम्हें
कुछ भी न करना
पड़े। मुझे ही
सब कुछ करना
चाहिए। चबाना
और सब कुछ और
मुझे तुम्हें
चम्मच से
खिलाना चाहिए।
यह मैं नहीं
करने वाला हूं
क्योंकि यही
तो दूसरों ने
तुम्हारे साथ
किया है और
तुम्हें नष्ट
कर दिया है।
मैं
तुम्हें
प्रेम करता हू।
मैं ऐसा नहीं
कर सकता। मैं
तुम्हें
अत्यंत प्रेम
करता हू मेरे
लिए ऐसा कर
पाना असंभव है।
मैं तुम्हें
उत्तरदायी, अपने
जीवन का
दायित्व
स्वयं
सम्हालने
वाला बनाना
चाहता हूं।
तुम अपने जीवन
का दायित्व कब
सम्हालोगे? तुम बच्चे
नहीं हो, तुम
असहाय नहीं हो।
मेरी
सहायता तो
तुम्हें इसी
प्रकार से
मिलेगी, तुमको बस
तुम बना कर तुमको
उस दिशा की ओर
गतिशील करने
में सहायक
होकर, जो
तुम्हारी
नियति है।
प्रश्न:
आपने व्यक्ति
भीतर सूर्य और
चंद्र
सम्मिलन और उसके
पार जाने को कहा
है। ऐसा प्रतीत
होता है कि अपने
से बाहर का जीवन—साथी
होना उसके महत्व
से कहीं ज्यादा
उलझाव और पीड़ादायक
है। जीवन साथी
होना या न होना
किस प्रकार से
व्यक्ति की अंतर
उन्मुखता और आध्यात्मिक
विकास को बढाता
या घटता है, कृपाया इसे
स्पष्ट करें।
प्रश्न
उलझाव का नहीं
है। प्रश्न
अनुभव की
समृद्धि का है।
यह तो उलझाव
भरा ही होगा।
तुम अकेले
उलझन में हो, जब कोई
पुरुष मित्र
या महिला
मित्र, 'किसी
पुरुष या
स्त्री से
तुम्हारा संग—साथ
हो जाता है, तो निःसंदेह
दो उलझे हुए
व्यक्ति साथ—साथ
हो जाते हैं।
और यह कोई
सामान्य जोड़
जैसा नहीं है,
यह तो गुणा
हो जाने वाला
है। चीजें
निश्चित रूप
से उलझ जाती
हैं।
लेकिन
उसी जटिलता के
द्वारा ही
तुम्हें राह खोजनी
है। यह एक
चुनौती है। वह
प्रत्येक
स्त्री या
पुरुष जिनसे
तुम्हारा
संपर्क होता
है एक महान
चुनौती है। तुम
इन चुनौतियों
से बच सकते हो।
यही तो
महात्मागण
सदा से करते आ
रहे हैं—संसार
से पलायन, चुनौती
से बच निकलना।
निःसंदेह तुम
अधिक स्थिरता,
शांति
अनुभव करोगे,
तुम्हारा
जीवन उलझन भरा
नहीं होगा, किंतु तुम
बहुत निर्धन
होगे। और जब
मैं कहता हूं
निर्धन तो
मेरा
अभिप्राय है
कि तुम अत्यंत
अनुभवहीन
अपरिपक्व
होंगे।
क्योंकि तुम
परिपक्वता
कहां से पा
लोगे? जीवन
जो समृद्धि और
अनुभव लाता है
वे तुम्हें कहां
से मिल जाएंगे?
और कोई
दूसरा रास्ता
भी नहीं है—इसे
खरीदा नहीं जा
सकता, इसे
उधार नहीं
लिया जा सकता।
यह कोई हिमालय
में भी नहीं छिपा
है कि तुम जाओ
और इसे खोद कर
निकाल लाओ, यह वहां
नहीं है। यह
जीवन में
निहित है, व्यक्तियों
के साथ है, यह
संबंधित होने
में है।
इसलिए
मैं जानता हूं
कि यह जटिल है, लेकिन बस
जटिलताओं की
खातिर यदि तुम
सोचते हो कि
अकेले रहना
उत्तम रहेगा
तो तुम्हारा
अकेलापन आध्यात्मिक
होने नहीं जा
रहा है। यह
कायर का
अकेलापन होगा,
बहादुर
आदमी का नहीं।
मैं
तुमसे एक
कहानी कहना
चाहूंगा:
एक
व्यक्ति
जिसको बहुत कम
सुनाई पड़ता था, अपने
चिकित्सक से
मिलने गया, उसने उसका
भलीभांति
परीक्षण किया और
बोला, सत्तर
वर्ष की आयु
के लिहाज से
आपकी सेहत
काफी अच्छी है।
क्या आप
धूम्रपान
करते हैं? चिकित्सक
ने पूछा।
आपने
क्या कहा? वृद्ध
व्यक्ति ने
पूछा।
मैंने
पूछा, क्या
आप धूम्रपान
करते हैं? चिकित्सक
ने जोर से कहा।
जी ही, वृद्ध
व्यक्ति ने
बताया।
अधिक
मात्रा में? चिकित्सक
ने पूछा।
कौन? वृद्ध
व्यक्ति बोला।
क्या
आप अधिक
मात्रा में
धूम्रपान
करते हैं? चिकित्सक
ने पूछा।
सिगरेट, सिंगार
और कभी—कभी
पाइप, ही, मैं सारा
वक्त
धूम्रपान
करता रहता हूं
उसने उसे
बताया।
पीते
हैं? चिकित्सक
ने पूछा।
नौ बजे
के बाद, वृद्ध
व्यक्ति ने उत्तर
दिया।
नहीं, नहीं, चिकित्सक
ने कहा, क्या
आप शराब पीते
हैं?
जी ही, मैं कुछ
भी पी लूंगा, वह बोला।
मेरा
अनुमान है कि
आप देर रात तक
जागते हैं, खूब सारी
पार्टियां? महिलाओं का
साथ? अब तक
चिकित्सक भी
थोड़ा तंग आ
चुका था।
निश्चित
रूप से। और
मैं लंबे समय
तक यही कुछ
करना चाहता
हूं।
ठीक है, चिकित्सक
ने कहा, मुझे
भय है, आपको
इस सब में कमी
करनी पड़ेगी।
क्या? वृद्ध
व्यक्ति कम
सुनाई पड़ने के
कारण नहीं बल्कि
आश्चर्य के
कारण चिल्ला
कर बोला!
आपको
इस सब में
कटौती करनी
पड़ेगी, चिकित्सक ने
चिल्ला कर कहा।
बस, ज्यादा
बेहतर सुनने के
लिए? वृद्ध
व्यक्ति ने
कहा, नहीं,
धन्यवाद।
केवल
जटिलताओं से
बचने के लिए? नहीं, कभी
नहीं। यह तो
कायर का ढंग
है। समस्याओं
से कभी मत
भागों। वे
सहायक हैं
आत्यांतिक
रूप से सहायक
हैं। विकास की
स्थितियां
हैं वे।
और यदि
तुम किसी
स्त्री की खोज
में हो तो गौ
जैसी पाने का
प्रयास न करो।
फिर कम जटिल
हो जाएगी यह
बात। एक असली
स्त्री को
खोजो जो
तुम्हें हर
तरह की झंझट
में डालेगी।
तभी तुम्हारे
साहस की परख
होगी।
एक
नवयुवक ने
सुकरात से
पूछा, महोदय,
क्या मैं
विवाह करूं? और इसीलिए
उसने सुकरात
से पूछा क्योंकि
वह सोच रहा था
कि विवाह न
करना पड़े। और
तब उसे यह बात
पूछने के लिए
बिलकुल ठीक
आदमी मिल गया,
क्योंकि
अपनी पत्नी के
कारण सुकरात
ने बहुत कष्ट
उठाए थे। वह
सच में भयंकर
थी, मगरमच्छ
जैसी। वह
सुकरात को
पीटा करती थी,
उसने उसके
चेहरे पर गर्म
चाय की केटली
उड़ेल दी थी और
उसे जला दिया
था—उसका आधा
चेहरा सारे
जीवन जला हुआ
ही रहा। इतना
सुंदर
व्यक्ति, इतना
सुंदर इनसान
सुकरात जैसा,
और उसे बहुत
भयंकर स्त्री
मिली थी।
इसीलिए इस
नवयुवक ने
पूछा। सुकरात
ने कहा : हां, अगर तुम
मेरी बात सुनो
तो विवाह कर
लो। दो
संभावनाएं
हैं। यदि
पत्नी मेरी
पत्नी जैसी हो
तो तुम मेरी
तरह के महान
दार्शनिक बन
जाओगे। और यदि
तुम्हें: कोई
सुशील पत्नी
मिल गई तो निःसंदेह
तुम अपने जीवन
का आनंद लोगे।
दोनों
संभावनाएं
अच्छी ही हैं।
उसने
कहा : तुम मेरी
तरह के एक
महान
दार्शनिक बन
जाओगे, बस लगातार
बकझक, यह
ध्यान में एक
बड़ी सहायता है।
धीरे— धीरे
व्यक्ति
अनासक्त होने
लगता है। उसे
होना ही पड़ेगा।
व्यक्ति को
अनुभव होने
लगता है, यह
सब कुछ भ्रम
है, माया
है।
इसलिए
जीवन में
जटिलताओं से
मत बचो, क्योंकि
जीवन का मतलब
ही है
जटिलताएं।
सीखो उनसे
होकर गुजरो, क्योंकि
विकसित होने का
यही एकमात्र
ढंग है।
एक
आवारा
व्यक्ति ने
किसी का
दरवाजा
खटखटाया, एक लंबी—चौड़ी
विशाल और कठोर
चेहरे वाली
स्त्री ने दरवाजा
खोला।
भागों
यहां से, तुम कमबख्त
आवारा, वह
चिल्लाई। अगर
तुम गए नहीं
तो मैं अपने
पति को बुलाती
हूं।
मैं
सोचता हूं ऐसा
नहीं हो सकेगा,, वे घर
में नहीं हैं,
आवारागर्द
ने
शांतिपूर्वक
उत्तर दिया।
तुमने
यह कैसे जाना? स्त्री
ने पूछा।
क्योंकि, आवारा
व्यक्ति बोला,
जब कोई आदमी
तुम जैसी औरत
से शादी करता
है तो वह केवल
खाना खाने के
समय ही घर में
होता है।
यह
प्रश्न आलोक
ने पूछा है।
आलोक, किसी
वास्तविक प्रचंड
स्त्री को खोज
लो।
प्रश्न
:
अब मुझको
ऐसा लगता है कि
जब तक कोई तैयार
न हो, कुछ
भी संभव नहीं
है। मैं कई वर्षों
से कुंजी खोज रहा
था, मैंने कई
बार आपसे भी पूछा, किंतु आप खामोश
रहे। ओशो, एक
दिन अचानक आपने
मेरे हाथ में कुंजी
रख दी। अब कुंजी
मेरे पास है। लेकिन
मैं स्वयं को
ताला खोलने में
असमर्थ हूं। मेरे
भीतर अवरोध है।
कुंजी मेरे पास
है। मेरे सामने
ताला भी है। फिर
भी तब यह क्या
हो रहा है? आप
उपस्थितं है, मेरी असहाय अवस्था
को देखिए। एक समय
में सोचा करता
था कि मेरे पास
कुंजी नहीं है।
और अशांत था, अब मेरे पास मेरी
कुंजी है और मैं
अधिक अशांत हूं।
कृपया मेरी सहयता
करें। ओशो,
मैं जानता हूं
कि आप सदा सहायता
करते है, अवरोध
है मेरे भीतर।
कृपया मुझे बताएं
उन्हें किस भांति
हटाया जाए जिससे
कि.......जिससे कि......
पहली बात, जो कुंजी
मैंने
तुम्हें दी थी,
नकली कुंजी
है। क्योंकि
असली कुंजी दी
ही नहीं जा
सकती।
तुम्हें इसे
अर्जित, इसे
उपलब्ध करना
पड़ेगा।
क्योंकि तुम
इस कदर मेरे
पीछे पड़ गए थे,
तो मैंने
कहा, ठीक
है, यह रखो,
अब अपना सिर
दीवाल से मत
टकराते रहो।
उस कुंजी को
फेंक दो।
तुम्हारे साथ
कुछ भी गलत
नहीं है, वह
कुंजी नकली है।
सारी
कुंजियां
नकली हैं।
क्योंकि ताला
तुम्हारा है।
किसी और के
पास से
तुम्हें उसकी
कुंजी कैसे
मिल सकती है? तुम्हीं तो
ताला हो!
तुम्हें
कुंजी अपने
भीतर निर्मित
करनी है, जिस
प्रकार तुमने
ताला बना लिया
है।
और एक
बार तुमने
कुंजी बना ली, ताला
विलुप्त हो
जाता है; ऐसा
नहीं है कि
कुंजी को ही
इसे खोलना
पड़ता है। एक
बार तुम जान
लो, समस्या
तिरोहित हो
जाती है। ऐसा
नहीं है कि
समस्या का
समाधान करने
के लिए तुम्हें
अपना ज्ञान
प्रयोग करना
पड़ता है। एक
बार समझ आ जाए
समस्या मिट
जाती है।
कुंजी और ताले
का मिलन कभी
नहीं होता।
ताला वहां है
ही इसलिए
क्योंकि
कुंजी नहीं है।
जब कुंजी वहां
होती है तो
ताला बस खो जाता
है, यह
बचता ही नहीं।
और मैं
कुंजी दे ही
नहीं सकता। वह
सारा कुछ जो
उधार का है और
ज्यादा झंझट
पैदा करने
वाला है, क्योंकि तुम
तो पहले से ही
जटिल हो और अब
यह उधार की
चीज तुम्हें
और अधिक
उलझनग्रस्त
बना देती है।
मैंने
सुना है, एक अति
व्यस्त
बिजनेस एक्वजूक्यूटिव
डाक्टर से मिलने
गया, उसे
बताया गया कि
उस पर काम का
बोझ बहुत
ज्यादा है और
उसे व्यायाम
करना चाहिए।
एक
पहिया ले
लीजिए और कार
में चलने के
बजाय इसे
चलाते हुए रोज
आफिस आएं—जाएं, इससे आप
नये आदमी हो
जाएंगे, डाक्टर
ने बताया।
तो
उसने एक पहिया
खरीदा और जैसा
डाक्टर ने कहा
था करने लगा।
प्रतिदिन वह
इसे चलाता हुआ
जाता और
कार्यावधि
में उसे गैरेज
में रख दिया
जाता। एक शाम
जब वह किसी
तरह घर को चला
उसे पता लगा
कि पहिया खो
गया है, गैरेज वाले
ने कहा, किसी
गलती से उसका
पहिया किसी और
को दे दिया गया
है। लेकिन
चिंता न करें
श्रीमान, उसने
कहा, हम
बिना कोई कीमत
लिए कल दूसरा
ला देंगे।
एक्जिक्यूटिव
बोला : कल? कल से
तुम्हारा
क्या मतलब है?
मैं आज रात
अपने घर कैसे
पहुंच पाऊंगा?
यदि
समझ वहां नहीं
हो, तो
सारी विधियां
सहायक होने के
स्थान पर बाधाएं
बन जाती हैं।
और अगर
समझ मौजूद ही
नहीं और तुम
मेरी आंखों से
देखना शुरू कर
दो तो
तुम्हारी आंखें
देखना बंद तो
नहीं कर देंगी, वे मेरी आंखों
के माध्यम से
देखती रहेंगी।
इससे तो बहुत
उलझन होने
वाली है। एक
और कहानी :
'मैंने
सुना है कि
तुम्हारे पति
ने घर की आग से पूरी
की पूरी
भौंहें जला
डाली हैं? एक
महिला ने अपनी
सहेली से पूछा।
हां, उत्तर
आया, लेकिन
चिकित्सक ने
उनका बेहतरीन
इलाज किया।
दरअसल उसने
कुत्ते के
पिछले पांव से
बाल लेकर उनकी
नई भौंहें
प्रत्यारोपित
कर दीं।’
यह तो
आश्चर्यजनक
है, उसकी
मित्र ने कहा,
अब कैसा चल
रहा है?
ओह, कोई
ज्यादा बुरा
भी नहीं है, वह बोली, मैं
तुम्हें बता
दूं अब भी
उन्हें कुछ
समस्या है। जब
भी बिजली के
खंबे के पास
से गुजरते हैं
तो वे भौचक्के
हो जाते हैं।
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