प्रश्न—सार:
1—'ओशो, आप
मुझसे बहने के
लिए कहते हैं,
यह कैसे
संभव है?
2—'मैं
अनुत्तरदायी
अनुभव करता
हूं और उलझ
जाता हूं कि
संन्यास क्या
है?
3—ओशो
समस्या क्या
है?
4—'आप कहते हैं, वही गलती
दुबारा मत करो,
यह कैसे हो
पाएगा?
5—क्या आप
किसी बात को
गंभीरता से
नहीं ले सकते?
6—'क्या मुल्ला
नसरुद्दीन
आश्रम में कोई
समूह चलाएंगे?
7—'संन्यास
आपका आशीष है
या मेरा
सत्याग्रह?
8—'आपके
स्त्रोत से
पीकर भी प्यास
कम नहीं हुई
है?
प्रश्न:
ओशो, आप मुझसे
बहने को कहते
हैं एक बेजान
से बोझ मन के
साथ मेरा शरीर
इतना भारी है
कि मुझे लगता
है यदि मैने
बहना चाहा जे
कहीं मैं डूब
न जाऊं अत
घबड़ा कर मैने
तैरना जारी
रखा है?
बहना जीवन का
समग्ररूपेण
नया ढंग है।
तुम्हें
संघर्ष करने
की आदत है, तुम धारा
के विपरीत
तैरने के आदी
हो। यदि तुम
किसी के साथ
संघर्ष करो तो
अहं पोषित होता
है। यदि तुम
संघर्ष न करो
तो बस अहंकार
विलीन हो जाता
है। अहंकार का
अस्तित्व
बनाए रखने के
लिए संघर्ष को
जारी रखना परम
आवश्यक है। इस
ढंग से या उस
ढंग से, चाहे
सांसारिक मामला
हो या
आध्यात्मिक
मामला, लेकिन
संघर्ष करते
रहो। चाहे
दूसरों से
संघर्ष करो या
स्वयं से
संघर्ष, लेकिन
संघर्ष जारी
रखो। जिन
लोगों को तुम
सांसारिक
कहते हो वे
दूसरों से
संघर्षरत हैं
और जिन्हें
तुम
आध्यात्मिक कहते
हो स्वयं के
साथ संघर्ष कर
रहे हैं।
लेकिन बुनियादी
बात वही रहती
है।
सच्ची
दृष्टि का
जन्म सिर्फ
तभी होता है
जब तुम संघर्ष
बंद कर देते
हो। तब तुम
मिटने लगते हो, 'क्योंकि
संघर्ष के
अभाव में
अहंकार एक पल
भी नहीं टिक.
सकता। इसके
लिए लगातार
पैडल चलाते
रहना पड़ता है।
यह एक साइकिल
की भांति है।
यदि तुम पैडल
चलाना बंद कर
दो तो यह
गिरेगी ही, यह ज्यादा देर
नहीं चल पाएगी।
संभवत: पहले
से निर्मित
संवेग के कारण
थोड़ी—बहुत
चलती रहे, लेकिन
अहं के लिए, इसे जिंदा
रखने के लिए
तुम्हारा
सहयोग जरूरी है।
और यह सहयोग
संघर्ष, प्रतिरोध
के द्वारा ही
किया जाता है।
जब
मैंने तुमसे
बहने को कहा, तो मेरा
अर्थ यह है कि
तुम
ब्रह्मांड के
इतने छोटे
सूक्ष्म अंश
हो कि उसके
साथ संघर्ष
करने की बात
ही बेतुकी है।
तुम किसके साथ
संघर्ष कर रहे
हो? सारा
संघर्ष मूलत: परमात्मा
के विरुद्ध है,
क्योंकि
वही है
तुम्हारे
चारों ओर। यदि
तुम धारा के
विपरीत तैरने
की कोशिश कर
रहे हो, तुम
परमात्मा के
विरोध में
जाने का
प्रयास कर रहे
हो। यदि वह
नीचे सागर की
ओर प्रवाहित
हो रहा हो, तो
उसका अनुसरण
करो।
जब तुम
नदी के साथ
बहना शुरू कर
देते हो, तो तुम्हारे
भीतर एक
पूर्णत: भिन्न
गुणवत्ता का
उदय होगा। उस
पार का कुछ
अवतरित होगा।
तुम वहां नहीं
होगे, तुम
बस एक खालीपन,
एक विराट
शून्यता, एक
ग्राह्यता बन
जाते हो। जब
तुम संघर्ष
करते हो, तो
तुम सिकुड़
जाते हो। जब
तुम संघर्ष
करते हो, तो
तुम छोटे हो
जाते हो। जब
तुम संघर्ष
करते हो, तो
तुम कठोर हो
जाते हो। जब
तुम संघर्ष
नहीं करते—तुम
समर्पण करते
हो, तो
जैसे कमल अपनी
पंखुड़ियां
खोल रहा हो इस
भांति तुम खुल
जाते हो, तब
तुम ग्रहण
करते हो।
निर्भय होकर
तुम गतिशील हो
जाते हो, जीवन
के साथ गतिमान,
नदी के साथ प्रवाहित
होने लगते हो।
तुम्हारा
प्रश्न है : 'आप मुझसे
बहने को कहते
हैं, लेकिन
मैं भयभीत हूं;
यदि मैंने
बहना चाहा तो
मैं डूब
जाऊंगा।’
यदि
तुम डूबते हो, यह शुभ है,
क्योंकि
सिर्फ अहंकार
ही डूब सकता
है, तुम
नहीं। जब तुम
संघर्षरत हो,
वस्तुत:
तुम्हारे
अंतर्तम से
तुम्हारा
अहंकार ही
संघर्ष कर रहा
होता है। तुम
डूबोगे।
लेकिन उस
डूबने से ही
तुम पहली बार
बहने के योग्य
होओगे, तुम्हारा
बहना पहली बार
तभी संभव हो
सकेगा। जब तुम
चुनाव करते हो
तो तुम अहंकार
चुन लेते हो।
चुनावरहित
रहो, जीवन
को तुम्हारे
लिए चुनाव
करने दो और
तुम अहंकार—शून्य
हो जाओगे। तुम
जब भी चुनोगे
नरक ही चुनोगे।
चुनाव नरक है।
मत चुनो। अपने
हृदय में जीसस
की इस
प्रार्थना को—
'तेरी
मर्जी पूरी हो,
तेरा राज्य
आए' गूंजने
दो। उसे ही
तुम्हारे लिए
करने दो।
खुद को
मिटा दो, डुबा दो, अस्तित्व
के उस तल से हट
जाओ, और तब
अचानक तुम वही
मनुष्य नहीं
रहते, तुम
अति मानव हो।
तुम्हारा
सारा: जीवन
परमानंद से
ओतप्रोत हो जाएगा।
मैं
तुमसे एक
कहानी कहना
चाहूंगा।
एक
अभागी आत्मा
नरक के द्वार
पर पहुंची, और शैतान
ने खुद ही
उसका
साक्षात्कार
लिया।’तुम्हें
कौन से समूह
में जाना पसंद
आएगा?' उस
पर तिरछी
निगाह डालते
हुए वह बोला, समूह! क्या
मतलब है आपका?
नवआगंतुक
ने पूछा।
तुम
समझो,. शैतान
बोला, हमारे
पास यहां पर
हर प्रकार की
यंत्रणाएं हैं,
और हम लोगों
को इन्हें खुद
के लिए पसंद
करने की अनुमति
देते हैं।
हमरा विश्वास लोकतंत्र
में है, और
हम तानाशाही
प्रवृत्ति के
नहीं हैं। और
यहां कोई
आपातकाल भी
नहीं चल रहा
है।' अपना
चुनाव
तुम्हें खुद
ही करना है।
लेकिन यह
चुनाव सदा के
लिए होगा, यह
बात समझ लो, इसे याद
रखना, अत:
तुम्हें अपने
लिए सावधानी
पूर्वक चुनाव
करना चाहिए।
मैं तुम्हें
सारी जगह दिखा
दूंगा।
इस
प्रकार शैतान
उसे नरक में
सब जगह ले गया।
एक समूह कीचड़
में लोट लगा
रहा था और कीट—पतंगे
उसे लगातार
खाए जा रहे थे।
एक और समूह
लालु—लाल तपते
हुए
त्रिशूलों
द्वारा भेदा
जा रहा था। एक
और समूह यातना—यंत्र
पर खींचा जा
रहा था। इसी
प्रकार और भी
थे और
नवआगंतुक
इन्हें देख कर
काफी निराशा
महसूस कर रहा
था।
फिर
शैतान उसे एक
ऐसे समूह में
ले गया जहां
सारे निवासी
एक खास किस्म
के, बेहद
बदबूदार मल से
भरे गर्त में
कमर तक डूबे खड़े
थे और चाय पी
रहे थे।
यह कोई
ज्यादा बुरा
नहीं लगता, उसने
सोचा, मैं
यही समूह
चुनूंगा, उसने
शैतान से कहा।
क्या
तुम पक्के तौर
से कह रहे हो, शैतान ने
पूछा, याद
रहे, तुम
फिर अपना मन
नहीं बदल
सकोगे, और
यह हमेशा—हमेशा
और हमेशा के
लिए है।
नहीं, मेरा
फैसला अटल है,
मेरे लिए
यही ठीक है,. नये नरकजीवी
ने कहा।
बहुत
अच्छा, शैतान ने
कहा, इसमें
चले जाओ।
और
जैसे ही वह
अभागा जीव
उसमें कूदा, एक सीटी
बजी और आवाज
सुनाई दी, बस
बहुत हुआ, चलो
सभी लोग सिर
के बल खड़े हो
जाओ, चाय
का समय खत्म
हो गया है।
यदि
तुम चुनाव करो
तो तुम नरक
चुनते हो।
चुनाव नरक है।
इसी प्रकार से
तुमने—चुनाव
करके ही खुद
के चारों ओर
अपना नरक
निर्मित कर
लिया है। जब
तुम चुनाव
करते हो तो
तुम परमात्मा
को तुम्हारे
लिए नहीं
चुनने देते।
कृष्णमूर्ति
चुनावरहितता
पर जोर दिए चले
जाते हैं। यह
सारी कहानी का
सिर्फ एक छोर
है। दूसरा छोर
यह है कि अगर
तुम
चुनावरहित हो
तो परमात्मा
तुम्हारे लिए
चुनता है।
चुनावरहित
रहो, यह
कहानी का आधा
भाग हैं—मात्र
एक आरंभ। जिस
क्षण तुम
चुनावरहित
होते हो, जीवन
प्रवाहित
होता है। तुम
वहां नहीं
होते—जीवन प्रवाहित
होगा। और तुम
नरक के सिवाय
कुछ भी नहीं
हो। जैसे ही
तुम स्वयं एवं
परमात्मा के
बीच से हट जाते
हो, वही
चुनाव करता है।
वह सदा से ही
तुम्हारे लिए
चुनता रहा है।
एक कहावत है
जिसमें कहा
गया है, 'मनुष्य
प्रस्तावित
करता है परंतु
ईश्वर इसे समाप्त
कर देता है।’ वास्तविकता
इससे बिलकुल
विपरीत है, ईश्वर
प्रस्तावित
करता है और
मनुष्य इसे
मिटाए चला
जाता है। जब
तुम्हें
अचुनाव के
सौंदर्य और
उसके साथ बहने
की अनुभूति हो
जाती है तो
फिर तुम कभी
नहीं चुनोगे।
क्योंकि जब भी
तुम चुनते हो
तुम नरक चुनते
हो, और जो
कुछ भी तुम
चुनते हो तुम
नरक को ही
चुनते हो।
इसलिए
मैं चाहूंगा
कि तुम डूबो, मेरे
आशीष के साथ
डूबो।
जब
जीसस कहते हैं
कि जो खुद से
चिपकेंगे
अपने आप को खो
देंगे, और जो खो
देने को राजी
हैं वे पा
लेंगे, तो
उनका
अभिप्राय ठीक
यही है। जब
सूफी कहते हैं,
अपनी मौत से
पहले 'मर
जाओ, और तब
तुम अमर हो
जाओगे, तो
उनका मतलब भी
यही है।
अहंकार
की मृत्यु
समर्पण
द्वारा ही
घटती है। लोग
आकर मुझसे
पूछते हैं, 'निर—अहंकारी
कैसे बनें?' लेकिन तुम
निर—अहंकारी
होने के लिए
कुछ भी नहीं
कर सकते। जो
कुछ भी तुम करोगे
वही तुम्हें
पुन: अहंकारी
बना देगा। तुम
कोशिश कर सकते
ही, अहंकार
को अनुशासित
करो, लेकिन
तुम निर—
अहंकारी न हो
पाओगे
क्योंकि जो भी
तुम करते हो, अहंकार को
बढ़ाता ही है।
जिस क्षण तुम
कर्ता बन जाते
हो, चाहे
किसी भी ढंग
से, तुम
विनम्र होने
का प्रयास कर
सकते हो, लेकिन
अगर तुम्हारी
विनम्रता
अभ्यास से आई
है, तुम्हारे
द्वारा
आरोपित की गई
है, तब
कहीं गहराई
में विनम्रता
के भीतर
अहंकार ताज
पहने बैठा
रहेगा, और
यह कहता रहेगा,
'देखो मैं
कितना विनम्र
हूं।’
मैंने
एक —व्यक्ति
के बारे मे
सुना है, जो महान
मनस्विद एडलर,
जिसने
हीनता—ग्रंथि,
इनफिरिआरिटी
काम्पलेक्स
शब्द ईजाद
किया था, से
मिलने गया। उस
व्यक्ति का
मनोविश्लेषण
किया गया। कुछ
माह बाद और
बड़े परिश्रम
के उपरांत
एडलर ने उससे
कहा अब तुम
ठीक हो गए हो।
उस व्यक्ति ने
कहा : हां, मैं
भी महसूस करता
हूं कि मैं
ठीक हूं। अब
मैं ऐसा
व्यक्ति हूं
जिसमें
दुनिया की सबसे
सुंदर हीनता—ग्रंथि
है—सारे संसार
की
सर्वश्रेष्ठ
हीनता—ग्रंथि।
हीनता
की ग्रंथि और
वह भी सबसे
सुंदर और
सर्वश्रेष्ठ? ऐसा संभव
है; यह रोज
ही घटता है।
तुम हीनता की
ग्रंथि के
बारे में भी
अहंकारी हो
सकते हो।
तुम्हारी
हीनता की
ग्रंथि के
बारे में भी
तुममें
श्रेष्ठता की
ग्रंथि हो
सकती है।
मनुष्य कितना
विचित्र होता
है।
धार्मिक
व्यक्तियों
के पास जाकर
उनकी शक्लें
देखो। वे हर
प्रकार से
विनम्रता
दिखाते हैं, लेकिन
उनसे परिचित
होने के लिए
तुम्हें उनके भीतर
जरा गहरे
उतरना पड़ेगा।
गहरे में उनका
अहंकार यह
महसूस करते
हुए मुझसे
ज्यादा
विनम्र कोई और
नहीं है, अति
प्रसन्न रहता
है। यदि तुम
किसी धार्मिक
व्यक्ति से
कहो, मुझे
एक ऐसा
व्यक्ति मिल
गया है जो
आपसे ज्यादा
विनम्र है, तो उसे चोट
पहुंचेगी, वह
अपमानित
महसूस करेगा,
उससे
ज्यादा
विनम्र कोई
नहीं हो सकता,
यह असंभव है।
लेकिन अहंकार
का कुल प्रयास
यही तो है—मुझसे
ज्यादा अच्छा
मकान किसी के
पास न हो, मेरी
कार से ज्यादा
अच्छी कार
किसी पास न हो,
किसी का
चेहरा मुझसे
अधिक सुंदर न
हो, मुझसे
ज्यादा
जानकारी किसी
के पास न हो।
ऐसी तुलना में
पड़ कर स्वयं
को बेहतर
समझना ही तो
है अहंकार।
इसे
बदलने के लिए
तुम कुछ भी नहीं
कर सकते। तुम
तो बस इस बात
को देख सकते
हो कि
तुम्हारी ओर
से कुछ भी किए
जाने की कोई
जरूरत नहीं है।
और एक बार तुम
इसे गिरा दो, बल्कि यह
कहना उचित
रहेगा कि एक
बार तुम्हारी गहरी
समझ में यह
गिर जाए—तुम
जीवन के प्रति
खुल जाते हो।
तब एक खुले
कक्ष में बहती
शीतल समीर की
भांति जीवन
तुममें से
प्रवाहित होने
लगता है। अभी
तुम एक बंद
कमरे जैसे हो,
सारी
खिड़कियां—दरवाजे
बंद हैं, न
कोई प्रकाश
किरण तुममें
प्रविष्ट
होती है, न
कोई ताजी हवा
का झोंका
तुममें होकर
गुजरता है।
तुम अपनी गुफा
में हो, बंद।
और निःसंदेह
अगर तुम्हें
दम घुटने जैसा
लगे तो यह
स्वाभाविक है।
लेकिन
मैं जानता हूं
कि खुद को
डूबने देना
कठिन है।
इसमें समय
लगता है। कुछ
झलकियां
चाहिए। कभी—कभी
बहते जाओ, तैसे मत,
महसूस करो
कि नदी
तुम्हें लिए
जा रही है।
कभी बाग में
बस बैठ जाओ, चुनाव मत
करो। ऐसा मत
कहो कि क्या
सुंदर है और
क्या कुरूप।
विभाजन मत करो,
बस
प्रत्येक
वस्तु के
प्रति मात्र
वहां उपस्थित
रहो। कभी
बाजार में
टहलने निकल
पड़ो, न
निंदा, न
प्रशंसा, कुछ
कहना मत। बहुत
से ढंगों से
सीखो कि कैसे
बिना
मूल्यांकन
किए बस मौजूद
रहा जाए।
क्योंकि जिस
क्षण तुम
मूल्यांकन
करते हो, तुमने
चुनाव कर लिया।
जिस क्षण
तुमने कहा, यह अच्छा है,
तुम कह रहे
हो, 'मैं
इसे पाना
चाहता हूं।’ जिस क्षण
तुम कहते हो, यह बुरा है, तुम कह रहे
हो, 'मैं
इसे नहीं
चाहता; मैं
इसे पाना नहीं
चाहता हूं।’ जिस क्षण
तुमने कहा, यह स्त्री
खूबसूरत है, तुममें
कामना उठ गई।
जिस पल तुमने
कहा, यह
स्त्री
बदसूरत है, तुम
विकर्षित हो
चुके होते हो।
तुम पहले से
ही भले और
बुरे की, सुंदर
और कुरूप की
द्वैत की पकड़
में फंस चुके होते
हो, तुम्हारे
भीतर चुनाव
प्रविष्ट हो
चुका है।
अहंकार
के ढंग बहुत
सूक्ष्म हैं।
व्यक्ति को
बहुत सजग रहना
होता है।
और एक
बार—बस एक पल
के लिए ही तुम
जान लो कि
अहंकार वहां नहीं
है, तुम
इसे निर्मित
नहीं कर रहे
हो—अचानक सारे
द्वार खुल
जाते हैं, और
हर ओर से, सारी
दिशाओं से
जीवन
तुम्हारी और
उमड़ने लगता है।
यह उमड़ना अति
सुकोमल है।
अगर तुम
जागरूक नहीं
हो, तो तुम
इसे जान भी न पाओगे,
महसूस भी न
कर सकोगे।
परमात्मा का
स्पर्श बहुत
सूक्ष्म होता
है, इसकी
अनुशन के लिए
बहुत
संवेदनशील
होने की जरूरत
है।
अभी उस
दिन मैं हब
उस्टर ह्यूस
की एक छोटी सी
कविता पढ़ रहा
था।
नहीं
भेजता प्रभु
अपने वचन
हो जल का
जैसे तीव्र
प्रवाह
उग्र
तूफान और जल
प्लावन
बहा ले
जाता हम को आह।
शीत में
हरी शाख हो
खड़ी
झलक
दिखाता हो
दिनेश
धरा
पर कोमल
रिमझिम झड़ी
ऐसे वह
आता है सर्वेश।
.......धरा
पर कोमल
रिमझिम झड़ी, ऐसे वह आता
है सर्वेश।
गहन
समर्पण, संवेदनशीलता,
जागरूकता
में अचानक तुम
किसी ऐसे भाव
से भर उठते हो
जिसे तुमने
पहले कभी न
जाना था। यह
हमेशा से वहां
था, लेकिन
इसकी संचेतना
होने के लिए
तुम अति स्थूल
थे। यह सदा से
वहां था, लेकिन
तुम संघर्ष
में, अहंकार
को पोषित करने
के उपायों में
इस कदर उलझे
हुए थे कि तुम
कभी पीछे मुड
कर इसे महसूस
न कर सके। यह
वहां सदा
मौजूद था पर
तुम उपस्थित
नहीं थे। यह
हमेशा से
तुम्हारी
प्रतीक्षा कर
रहा था, लेकिन
तुम घर लौटना
भूल चुके थे।
अहंकार को
गिरा देना ही
घर लौटने का
उपाय है।
इसलिए
खुद को डुबा
दो। यहां मैं
तुम्हें इसी
की सारी कला
सिखा रहा हूं।
यदि मैं कुछ
भी सिखा रहा
हूं तो मैं
तुम्हें मृत्यु
सिखा रहा हूं।
क्योंकि मैं
जानता हूं
केवल मृत्यु
द्वारा ही
पुनर्जीवन
मिलता है।
प्रश्न:
आज
सुबह आप उत्तरदायी
होने की आवश्यकता
पर, दूसरों
पर निर्भर न
होने पर और
एकाकी होने पर
बोले। मैं
समझता हूं कि
इन बातों से
बचने का बहाना
करने के लिए
मैं संन्यास
ले रहा हूं—हर
बार आपसे
पूछते रहना अब
मैं क्या
करूं, जब
मैं उदास और
अकेला होता
हूं तो आपको
उपस्थिति की
पुकार, कल्पना
करता हूं,
कि खालीपन को
भरते हुए आप
मेरे पास आते
है। मैं उनुत्तरदायी
अनुभव करता
हूं, और
फिर से उलझ
जाता हूं कि
संन्यास क्या
है?
अगर तुम किसी
दूसरे पर
निर्भर रहे तो
तुम सदा उलझे
रहोगे, क्योंकि तब
समझ तुम्हारी
नहीं होगी। और
समझ उधार नहीं
ली जा सकती।
अत: कुछ समय के
लिए तुम खुद
को मूर्ख बना
सकते हो।
लेकिन बार—बार
सच्चाई प्रकट
होती रहेगी और
तुम उलझन में पड़
जाओगे। इसलिए
उलझन से बचने
का एकमात्र
उपाय है—खुद
को तर्क में
मत समझाओ।
उलझन से बचने
का एकमात्र
उपाय—आत्मनिर्भर
होना, सचेत
होना और
जागरूक होना
है।’जागरूकता
को स्थगित मत
करो।
जब कभी
तुम किसी पर
निर्भर होने
लगते हो तुम जागरूकता
से बच रहे हो।
और एकदम शुरू
से ही तुम्हें
इसके लिए
शिक्षित और
संस्कारित
किया गया है।
मां—बाप, अधिकारी, समाज, शिक्षाविद,
राजनेता
सभी तुम्हें
इस भांति
संस्कारित करते
रहते हैं कि
तुम हमेशा
दूसरों पर
निर्भर रहो।
तभी तुम्हें
उनके अनुसार
चलाया जा सकता
है, तुम पर
अधिकार जमाया
जा सकता है।
तभी तुम्हें
दमित और शोषित
किया जा सकता
है, तुम्हें
गुलामी की
हालत में लाया
जा सकता है।
तुम अपनी
आजादी खो देते
हो।
ऐसी है
तुम्हारे मन
की दशा। जब
तुम मेरे पास
आते हो तो तुम
इसी
मनःस्थिति के
साथ आते हो।
निःसंदेह कोई
और ढंग है भी
नहीं। और
तुरंत
तुम्हारा मन
तुम्हारी इसी
मनःस्थिति से
कार्य करने
लगता है, तुम मुझ पर
निर्भर होने
लगते हो।
लेकिन मैं
तुम्हें यह सब
नहीं करने दे
रहा हूं।
तुम्हें बार—बार
धकेल कर मैं
तुम्हें बार—बार
तुम पर फेंक
दूंगा।
क्योंकि मैं
तुम्हें
तुम्हारी
स्वयं की समझ पर
निर्भर रखना
चाहता हूं तभी
यह कुछ
स्थायित्वपूर्ण
होगी, फिर
तुम कभी उलझन
में न पड़ोगे।
उलझाव
आ ही जाता है..
.मैं तुमसे
कुछ कहता हूं
तुम इसमें
विश्वास करना
शुरू कर देते
हो, परंतु
यह तुम्हारी
अपनी दृष्टि,
तुम्हारा
स्वयं का बोध
नहीं होता है।
फिर कल जिंदगी
में कुछ घटता
है और तुम
मुश्किल में
पड़ते हो।
मुश्किल
इसलिए आती है कि
तुमने
यंत्रवत सीखा
है, तुमने
मेरी बातें
याद कर ली हैं।
अब तुम इस
उधार की समझ
के द्वारा
प्रतिसंवेदित
करने की कोशिश—
करोगे। जीवन
प्रतिपल
बदलता है।
मेरी इस पल की
समझ अगले पल
ही तुम्हारे
किसी काम की न
रहेगी। मेरी
इस समझ को
स्थायी
संदर्भ नहीं
बनाया जा सकता।
और अगर तुमने
इसे शाब्दिक
रूप से, बौद्धिकता
से, मानसिक
रूप से ही
ग्रहण किया हो
और तुम इसे साथ
लिए फिरो, तो
तुम बार—बार
उलझन में
पड़ोगे
क्योंकि जीवन
हमेशा तुम्हारी
इस तथाकथित
समझ को बेकार
सिद्ध करता
रहेगा।
जीवन
केवल असली समझ
पर भरोसा करता
है। असली का
अर्थ है : तुम्हारी
अपनी, प्रामाणिक,
जिसका
तुममें जन्म
हुआ हो।
मैं
यहां तुम्हें
जानकारी देने
के लिए नहीं हूं
मैं यहां
तुम्हें
सिद्धात देने
के लिए नहीं
हूं यही तो
सदियों से
किया जा रहा
है और आदमी सदा
से अज्ञानी
बना रहा है।
तुम्हें उस
सत्य के प्रति
सचेतन करने को
हूं जो
तुम्हारे
पीछे तुममें
छिपा है, वह है
प्रकाश—स्रोत।
उस स्रोत पर
दस्तक दो, उस
प्रकाश को
अपने भीतर
ज्योतिर्मय
होने दो। और
तभी तुम्हारे
पास कुछ जीवंत
होगा। तब जीवन
में जो भी
समस्याएं
आएंगी, तुम
उन्हें अपने
अतीत की
जानकारी से
नहीं सुलझाओगे,
तुम उन्हें
वर्तमान में
सुलझाओगे।
तुम उनका
सामना अपनी
वर्तमान समझ
से करोगे।
मैं जो
कुछ भी कहता
हूं वह हमेशा
अतीत बन जाएगा।
इस पल में
मैंने कहा और
उस पल में
तुमने सुना, इस बीच यह
अतीत में जा
चुका होता है
और जीवन बदलता
चला जाता है, यह एक सतत
प्रवाह है। यह
किसी विराम को
नहीं जानता, विश्राम को
नहीं जानता।
इसलिए
बार—बार तुम
उलझन में
पड़ोगे।
और
मेरे साथ तो
एक समस्या और
भी है। .यदि
अगले पल में
तुम वही
प्रश्न
पूछोगे तो भी मैं
वही उत्तर
दुबारा नहीं
दूंगा।
क्योंकि मैं
प्रतिसंवेदित
करता हूं। मैं
उत्तर नहीं
देता। मैं
अपने पुराने
उत्तर याद नहीं
रखता—मैं
प्रति
संवेदना करता
हूं।
तुम्हारा
प्रश्न वहां
है, मैं
यहां हूं मैं
पुन:
प्रतिसवेदना
करूंगा। और
अगर तुम मेरे
उत्तर
एकत्रित करते
गए, तो तुम
न केवल उलझोगे
वरन तुम पागल
हो जाओगे।
क्योंकि
उनमें तुम कोई
समस्वरता या
कोई सुसंगति न
पाओगे। वे
असंगत हैं। मैं
कर भी क्या
सकता हूं? जीवन
ही असंगत है।
यदि मुझे जीवन
के प्रति
सच्चा रहना है
तो मुझे अपने
वक्तव्यों
में असंगत
होना पड़ेगा।
यदि मैं अपने वक्तव्यों
के प्रति
सच्चा होना
चाहूं तो मैं जीवन
के साथ छल
करूंगा। और
मैं जीवन के
प्रति सच्चा
होना चाहूंगा।
मैं अपने अतीत
का विश्वास
तोड़ सकता हूं
लेकिन मैं
वर्तमान के
साथ
विश्वासघाती
नहीं हो सकता।
मैं अपने
वक्तव्यों के
विपरीत जा
सकता हूं लेकिन
मैं वर्तमान
जीवन के इस पल
के विपरीत
नहीं जा सकता।
इसलिए
उलझन तो होगी।
किसी दिन मैं
कुछ कहूंगा और
किसी दिन मैं
कोई और बात कह
दूंगा। यदि
तुम तुलना करो, अगर मेरे
वक्तव्यों
में संगति की
खोज करो, तो
तुम परेशानी
में, गहरी
परेशानी में
पड़ोगे। ऐसा मत
करो। तुम तो
बस मुझे सुनो।
और मेरे
उत्तरों को मत
याद करो, मेरी
प्रतिसंवेदना
को सीखो। जो
मैंने कहा
उसकी चिंता मत
करो, उस
भंगिमा को
देखो जिससे
मैंने कहा है।
उस ढंग को
देखो जिससे
मैं एक प्रश्न,
एक
परिस्थिति को
प्रतिसंवेदित
करता हूं।
उत्तर नहीं
बल्कि मेरी
जीवंत प्रतिसंवेदना
ही
महत्वपूर्ण
है।
और अगर
तुम जीवंत
प्रतिसंवेदना
सीख सको तो
तुम
उत्तरदायी हो
जाते हो।
रिस्पासिबिलिटी
शब्द का मेरा
अर्थ शब्दकोश
में दिए गए
अर्थ से भिन्न
है। शब्दकोश
में
रिस्पासिबिलिटी
का अर्थ कर्तव्य, प्रतिबद्धता,
जैसे कि तुम
किसी दूसरे के
प्रति
जवाबदेह हो, इस प्रकार
का है। यह
शब्द करीब—करीब
भद्दा है। मां
अपने बच्चे से
कहती रहती है,
याद रहे, तुम्हारा
उत्तरदायित्व
मेरे प्रति है।’पिता अपने
पुत्र से कहे
चला जाता है, तुम मेरे
प्रति
जवाबदेह हो, याद रखो।
समाज
व्यक्तियों
से कहता रहता
है, तुम
हमारे प्रति,
समाज के
प्रति
जवाबदेह हो, याद रहे। और
तुम्हारे
तथाकथित
ईश्वर के
अवतार भी, वे
भी लोगों से
कहते रहे, तुम
हमारे प्रति,
मेरे प्रति
जिम्मेदार हो।
जब मैं
रिस्पासिबिलिटी
शब्द का
प्रयोग करता हूं
तो मेरा
अभिप्राय है
तुम्हारी
जीवंतता, प्रतिसवेदनात्मक
जीवंतता। तुम
इस पल में
अपने
अस्तित्व के
अतिरिक्त किसी
अन्य के प्रति
उत्तरदायी
नहीं हो। तुम
प्रतिसंवेदना
के लिए
उत्तरदायी हो।
खुले हृदय से,
ग्रहणशील
होते हुए
संवेदित होने
के लिए। बंद
मुट्ठियों के
साथ नहीं
बल्कि खुले
हाथों से। कुछ
रोकते या
छिपाते हुए
नहीं, स्वयं
को पूर्णत:
खोलते हुए, जीवन के
प्रति गहन
श्रद्धा के
साथ, चालाक
और कुटिल होने
की कोशिश न
करते हुए। ऐसे
में तुम जीवन
के साथ प्रतिपल
बहते रहते हो...
क्योंकि जीवन
बदलता रहता है,
इसलिए
तुम्हारा
प्रतिसंवेदन
भी बदलता रहेगा।
कई बार
गर्मी होती है
और तुम धूप
में नहीं बैठ सकते
हो, तो
तुम्हें छाया
की जरूरत
पड़ेगी। कभी
बहुत सर्दी
होती है और
तुम छाया में
नहीं बैठ सकते
हो, तुम
धूप में बैठना
चाहोगे, लेकिन
तब कोई भी
तुमसे यह नहीं
कहने जा रहा
है कि
तुम्हारा
बर्ताव बहुत
असंगत है, उस
दिन तुम छांव
में बैठे थे, और अब तुम
धूप में बैठे
हो? सुसंगत
बनो। चुनाव
करो! यदि तुम
धूप में बैठना
चाहते हो, संगत
बनाते हुए धूप
में बैठे रहो।’
तुम इस
बेतुकेपन पर हंसोगे,
लेकिन लोग
तुमसे जीवन
में यही
उम्मीद लगाते
हैं।
तुम्हारे
चारों ओर सब
कुछ बदल रहा
है, स्थायी
विचारों के
चक्कर में मत
पड़ो वरना तुम संशयग्रस्त
हो जाओगे।
और
दूसरे जो कहते
हैं, उसे
मत सुनना, अपने
हृदय की सुनो।
मैंने
सुना है,
जिस
बात से मनुष्य—जाति
पीढ़ियों से
भयभीत थी वह
हो गई एक
नाभिकीय
प्रक्रिया
अनियंत्रित
हो गई और सारा
भूमंडल विस्फोटित
हो गया, जिससे वहां
के सारे
जीवधारी मारे
गए।
स्वभावत:
परलोक के
द्वार पर
भयंकर उलझन
खड़ी हो गई। एक
ही समय में
इतनी सारी
आत्माएं जो आ
पहुंची, अत: सेंट
पीटर ने कई
नोटिस लगा दिए
जिनके पीछे
आत्माएं अपने
वर्ग के
अनुसार
पंक्ति बद्ध
होकर खड़ी रहें।
एक जगह
लिखा था.
मालिकों कि
लिए। दूसरी
जगह. वे पुरुष
जो अपनी
पत्नियों के
नियंत्रण में
हैं।’मालिकों
के लिए' वाले
स्थान में
केवल एक आत्मा
खड़ी थी, जब
कि दूसरे
सूचना—पट के
पीछे इतनी
लंबी लाइन थी
कि वह आकाश—गंगा
तक पहुंच रही
थी।
सेंट
पीटर ने उस
अकेली आत्मा
से उत्सुकता
वश कहा केवल
तुम ही यहां
हो, ऐसा
कैसे हो गया? मुझे नहीं
पता, पत्नी
ने मुझे यहां
खड़े होने को
कहा, उत्तर
मिला।
कभी तो
पत्नी कहती है, कभी पति
कहता है, कभी
पिता, तो
कभी मां, और
कभी गुरु।
किसी ने यहां
तुमसे खड़े
होने को कहा
है और तुम नहीं
जानते, क्यों?
सुनिश्चित
करो कि तुम
यहां क्यों
खड़े हो? सुनो।
यह थोड़ा जटिल
है। यदि तुम
किसी का
अनुगमन भी
करना चाहते हो
तो अपने हृदय
की सुनो, क्या
तुम ऐसा ही
चाहते हो। मैं
ऐसा नहीं कहता
कि किसी का
अनुगमन मत करो,
क्योंकि
अगर तुम्हारा
दिल कहता है
कि अनुगमन करो,
तब तुम क्या
करोगे? लेकिन
हृदय की बात
सुनो, अपनी
अनुभूति को
पहले अनुभव
करो, क्योंकि
अंततः अपने
हृदय के लिए
तुम्हीं जिम्मेवार
होगे। और सब
कुछ बाद में
आता है, तुम
ही प्राथमिक
हो। अपने
संसार का केंद्र
तुम ही हो।
अगर
तुम मेरा
अनुगमन करने
का चुनाव करते
हो या तुम
मेरे द्वारा
दीक्षित होना
चुनते हो, यदि तुम
मेरे प्रति
समर्पण का
चुनाव करते हो,
पहले अपनी
अनुभुति को
अनुभव करो।
वरना तुम बार—बार
उलझन में
पड़ोगे, और
बार—बार तुम
सोचने लगोगे,
'मैं यहां
क्या कर रहा
हूं। तुम
सोचने लगोगे,
'मैंने
संन्यास
क्यों लिया? क्यों? क्योंकि
कोई और कह रहा
है इसलिए इसे
मत लेना। इसे
अनुभव करो। तब
उलझन कभी नहीं
उठेगी। तब यह
उठ ही नहीं
सकती, तब
उलझन का कोई
सवाल ही नहीं
है।
उलझन
एक गलत
क्रियाकलाप
है। यदि तुम
अपने केंद्र
से कार्य करते
हो, तो
उलझन कभी नहीं
पैदा होती।
यदि तुम किसी
और व्यक्ति के
केंद्र से
कार्य करो तो
लगातार उलझन
पैदा ही होती
रहेगी—और लोग दूसरों
की समझ, सलाहकारों,
विशेषज्ञों
की राय से
कार्य कर रहे
हैं। वे उनके
द्वारा जी रहे
हैं। लोगों ने
अपना जीवन
पूरी तरह से
दूसरों के
हाथों में छोड़
रखा है। इसे
महसूस करो, अनुभूति के
उदय की
प्रतीक्षा
करो। धैर्य
रखो, जल्दबाजी
में मत पड़ी।
और अगर तुमने
अनुभूति को
ठीक से महसूस
कर लिया है तो
तुम्हारी जड़
गहरी है और
यही जड़ तुम्हें
बल प्रदान
करेगी, और
यही जड़ किसी
उलझन को
तुम्हारे पास
ठहरने ही नहीं
देगी।
प्रश्न:
समस्या
क्या है?
अब तुम मेरे
लिए समस्या
निर्मित कर
रहे हो। यह
प्रश्न ऐसा ही
है, जैसे
कोई आए और
पूछे पीलापन
क्या है? या
'पीला रंग
क्या है'? पीले
फूल होते हैं,
पुराने
पीले पत्ते
होते हैं, पीला
सुनहरा सूर्य
होता है और भी
हजारों चीजें
हैं जो पीली
हैं, लेकिन
क्या तुमने
पीलापन देखा
है। पीली
चीजें तुमने
देखी हैं, लेकिन
पीलापन! उसे
किसी ने नहीं
देखा, कोई
देख भी नहीं
पाएगा।
समस्याएं
ही समस्याएं
हैं, लेकिन
तुम कभी नहीं
जान पाते कि
समस्या क्या है;
तब प्रश्न
निरपेक्ष है।
समस्या जैसा
कुछ भी नहीं
है। समस्याएं
इसीलिए हैं
क्योंकि
तुम्हारे भीतर
का
अंतर्द्वंद
समस्या है।
तुम्हारे
भीतर दो मन
हैं, तभी
समस्या उठती
है। तुम नहीं
जानते कहां
जाऊं, इस
रास्ते या उस
रास्ते, तभी
समस्या उठ खड़ी
होती है।
तुम्हारे
भीतर के द्वैत
का प्रश्न ही
समस्या है, तुम यह करना
चाहते हो, और
तुम वह भी
करना चाहते हो,
और समस्या
उपजती है।
लेकिन अगर तुम
एक हो तो, कोई
समस्या नहीं
हैं। तुम
सहजता से चलते
हो। जब कभी भी
तुम इस प्रकार
का निरपेक्ष
प्रश्न—समस्या
क्या है या
पीलापन क्या
है या प्रेम
क्या है पूछते
हो, तो बात
कठिन हो जाती
है।
संत
अगस्तीन ने
कहा है : मैं
जानता हूं समय
क्या है, लेकिन जब
लोग मुझसे
पूछते हैं, समय क्या है,
मैं अचानक
दिग्भ्रमित
हो जाता हूं।
हरेक व्यक्ति
जानता है समय
क्या है, लेकिन
अगर कोई पूछता
है, बिलकुल
ठीक—ठीक बताओ
यह क्या है, तुम मुश्किल
में पड़ जाओगे।
तुम यह दिखा
सकते हो कि
समय क्या है, लेकिन अपने
शुद्धतम रूप
में, निरपेक्षत:
समय है क्या?
लेकिन
मैं समझता हूं
कि यह समस्या
क्यों आ खड़ी
हुई है। कुछ
ऐसे लोग हैं
जो इतने
संशयग्रस्त
हैं कि वे तय
नहीं कर सकते
कि समस्या
क्या है। वे
इतने
संशयग्रस्त
हैं, ऐसे
चौराहे पर खड़े
हैं कि समाधान
क्या है यह तो
बहुत दूर की
बात है, अभी
तो वे यह भी तय
नहीं कर पाए
हैं कि समस्या
क्या है। बहुत
हैं ऐसे लोग, क्योंकि
तुमने अपनी
भावनाओं से
अपने. अस्तित्वगत
हृदय से
संपर्क खो
दिया है।
इसलिए समाधान
ही नहीं, बल्कि
समस्या भी
दूसरे के
द्वारा दी
जाती है। तुम
मुझसे पूछ रहे
हो कि मैं
तुम्हें
बताऊं कि
तुम्हारी
समस्या क्या
है। तुम मुझ
पर न सिर्फ
समाधान के लिए
निर्भर हो, तुम मुझ पर
समस्या के लिए
भी निर्भर हो।
लेकिन अतीत
में यह इसी
भांति होता
चला आया है।
जब लोग
मेरे पास आते
हैं तो मैं
तुरंत ही यह
देख सकता हूं
कि उनके पास
अपनी समस्या
है या वे इसे
उधार मांग कर
लाए हैं। अगर
कोई ईसाई आता
है तो वह ऐसी
समस्या लेकर
आता है जिसे
कोई हिंदू कभी
नहीं ला सकता।
यदि कोई यहूदी
आता है तो वह
ऐसी समस्या
लाता है जिसे
कोई ईसाई कभी
नहीं ला सकता।
जब कोई जैन
आता है तो वह
बिलकुल ही अलग
समस्या लेकर
आता है जिसे
कोई हिंदू कभी
नहीं ला सकता।
क्या होता है? ये
समस्याएं
जीवन की
समस्याएं
नहीं हो सकती
हैं, क्योंकि
जीवन की
समस्याएं
यहूदी, हिंदू
ईसाई या जैन
नहीं हो सकती
हैं, जीवन
की समस्याएं
केवल जीवन की
समस्याएं ही
हैं। ये
समस्याएं
सैद्धांतिक
हैं, वे
सिखाई गई हैं।
उनको
समस्याएं भी
सिखाई जाती है—अब
पूछने को क्या
बचा?
मानवता
का बहुत चालाक
लोग शोषण करते
रहे हैं। पहले
वे सिखाते हैं
कि क्या पूछा
जाए, और
फिर उनके पास
उत्तर भी होता
है। यदि तुम
सही प्रश्न
पूछो तो वे
सही उत्तर दे
देते हैं। और
दोनों ही झूठे
हैं क्योंकि
प्रश्न भी
उन्हीं के
द्वारा
सिखाया गया है
और फिर वही
तुमने पूछा।
और वे तुम्हें
केवल वे ही
प्रश्न
सिखाते हैं जिनका
उत्तर वे दे
सकते हों। इस
प्रकार खेल
अच्छी तरह, बिलकुल
बढ़िया ढंग से
चलता रहता है।
अगर
तुम किसी जैन
साधु के पास
जाओ और
तुम्हें जैनों
ने न सिखाया
हो कि कौन सो
प्रश्न पूछना
है, तुम
समस्या खड़ी कर
दोगे, तुम
वहां घबड़ाहट
फैला दोगे।
क्योंकि तुम
ऐसे प्रश्न
पूछोगे जिनके
लिए परंपरा
नें—उनकी
परंपरा ने—उत्तर
तैयार नहीं कर
रखे हैं। यदि
तुम किसी जैन
से पूछो, परमात्मा
ने संसार ' मरो
बनाया, तो
वह हैरान रह
जाएगा, क्योंकि
उसके धर्म—सिद्धांत
में कोई
परमात्मा है
ही नहीं, उसके
धर्म—सिद्धांत
में कभी भी
कुछ बनाया
नहीं गया है, यह संसार
सदा, सदा
और सदा से
विद्यमान है।
सृष्टि रचना
कभी हुई ही
नहीं। अत: अगर
तुम पूछ लो कि
परमात्मा ने
संसार क्यों
बनाया, तो
एक जैन के लिए तुम्तारा
प्रश्न
बिलकुल
बेतुका है, क्योंकि न
कोई परमात्मा
है और न कोई
सृष्टि, यह
संसार सदा से
है। ‘सृष्टि’
शब्द ही जैन—
भाषावली में
नहीं हैं, क्योंकि
सृष्टि का
मतलब होता है :
स्रष्टा का अस्तित्व,
और जब कोई
सृष्टि ही
नहीं हुई तो
कोई स्रष्टा
कैसे हो सकता
है? यह
संसार है, लेकिन
यह कोई सृष्टि
नहीं है। यह
शाश्वत है, असृजित है; यह सदा से
मौजूद रहा है।
कभी भी
सैद्धांतिक
प्रश्न मत
पूछो, क्योंकि
यह उधार लिया
हुआ है।
अस्तित्वगत
प्रश्न खोज लो।
पता लगाओ कि
तुम्हारी
कठिनाई क्या
है। जान लो कि
तुम्हारा
जूता कहां
काटता है।
अपनी निजी
समस्याओं को
जानो।
और हो
सकता है कि
तुम्हारी
समस्या किसी
दूसरे की
समस्या न हो, इसलिए
दूसरा इस बात
पर राजी ही न
हो कि यह एक
समस्या है।
समस्याएं
व्यक्तिगत
होती हैं वे
कोई जागतिक घटना
नहीं हैं। मेरी
समस्या मेरी
समस्या है, तुम्हारी
समस्या
तुम्हारी
समस्या है। वे
तुम्हारे
अंगूठों की
छाप की तरह ही
अलग—अलग हैं, और उन्हें
होना ही चाहिए।
जब मैं
देखता हूं लोग
उधार की
समस्याएं पूछ
रहे हैं, उन पर
तुम्हारे
हस्ताक्षर
नहीं हैं, और
तब वे निरर्थक
हो जाती हैं—पूछने
योग्य भी नहीं
हैं, तो
उत्तर के
योग्य भी नहीं
होती हैं।
तुम्हारी
समस्याओं पर
तुम्हारे
हस्ताक्षर होने
चाहिए।
उन्हें
तुम्हारे
जीवन से, उसके
संघर्ष, चुनौतियों,
तुम्हारी
प्रतिसंवेदनाओं,
और उनका
सामना करने की
क्षमता से
उठना चाहिए।
मैंने
सुना है, अंतत: विवाह
के दलाल ने
कोहेन को उस
लड़की से मिलने
के लिए राजी
कर ही लिया।
उसे सुंदर, प्रतिभाशाली,
शिक्षित और
ढेरों रुपये—पैसे
वाली बताया
गया था।
कोहेन
उससे मिला, पसंद
किया, और
विवाह कर लिया।
एक ही
दिन बाद वह उस
विवाह के दलाल
के पास पहुंचा
और क्रोधित
होकर बोला, तुमने
मेरे साथ गंदा
मजाक किया है,
ओह, उसने
खुद ही माना
है कि वह पूना
के आधे पुरुषों
के साथ सो
चुकी है। तो
क्या हुआ, आखिर
पूना है ही
कितना बड़ा, दलाल ने
उत्तर दिया।
तुम्हारी
समस्या दलाल
की समस्या
नहीं है।
तुम्हारी
समस्या
तुम्हारी है, किसी और
की नहीं। याद
रहे अगर यह
व्यक्तिगत
समस्या है तो
ही सुलझाई जा
सकती है
क्योंकि यह
सच्ची है। यदि
तुमने इसे
परंपरा, समाज
या किसी और से
उधार ले लिया
है तो इसका कभी
उत्तर नहीं
दिया जा सकेगा
क्योंकि पहली
बात तो यही है
कि यह
तुम्हारी
समस्या ही
नहीं थी। जैसे
कि तुमने किसी
से कोई बीमारी
सीख ली हो।
अभी उस
रात को ही मैं
पढ़ रहा था कि
एक प्रसिद्ध चिकित्सक
के क्लीनिक
में एक नोटिस, विशेषकर
महिलाओं के
लिए, लगा
था, उसमें
लिखा कृपया
अन्य महिलाओं
के साथ अपनी बीमारियों
और लक्षणों के
बारे में बात
न करें—लक्षणों
का आदान—प्रदान
न करें, क्योंकि
यह डाक्टर को
उलझा देगा।
डाक्टर की
प्रतीक्षा
करती हुई
महिलाएं बात तो
करेंगी ही, और एक—दूसरे
के लक्षणों से
प्रभावित भी
जरूर होंगी।
और निश्चित
रूप से यह
डाक्टरों को
उलझाता है, क्योंकि फिर
वह नहीं जान
पाता कि बात
क्या है।
ऐसे भी
लोग हैं जो अखबारों
में दवाओं के
विज्ञापन पढ़
कर बीमारियां
ले लेते हैं।
मैने एक आदमी
के बारे में
सुना है जिसने
आधी रात में
अपने
चिकित्सक को
फोन किया।
निःसंदेह आधी
रात में अपनी
नींद तोड़े
जाने से
डाक्टर
क्रोधित हुआ।
उसने फोन
उठाया, पूछा, बात
क्या है? और
उस व्यक्ति ने
बीमारी का
वर्णन करना
शुरू कर दिया।
डाक्टर ने
कहा: संक्षेप
में बताएं, मैंने भी
समाचार
पत्रिकाओं
में यह लेख
पड़ा है, संक्षिप्त
करें।
लोग
अपनी
बीमारियां
पत्रिकाओं से
सीख लेते हैं।
जरा अपने मन
को देखो। यह
इतना नकलची है
कि यह दूसरों
की समस्याओं से
प्रभावित हो
सकता है, और तुम्हें
इतना
प्रभावग्राही
बना सकता है कि
तुम उसे अपनी
समस्या के रूप
में सोच सकते
हो। फिर इसे
सुलझाने का
कोई उपाय नहीं
है, क्योंकि
पहली बात तो
यही है कि यह
तुम्हारी समस्या
है ही नहीं।
मेरे
देखने में यही
आया है : अगर
कोई समस्या
असली है तो ही
इसे सुलझाया
जा सकता है।
मैं समस्या को
इसी भांति
परिभाषित
करता हूं : यह
कि इसे
सुलझाया जा
सकता है। यदि
इसे सुलझाया न
जा सके तो यह
समस्या नहीं है।
कोई रोग, तब ही रोग है,
जब कि उसका
इलाज किया जा
सके। सभी
रोगों का
उपचार हो सकता
है, सैद्धांतिक
रूप से संभव
है ही। लेकिन
अगर तुम्हें
बीमारी है ही
नहीं, तो
तुम्हें
असाध्य
बीमारी है। तब
कोई सहायता न
कर सकेगा, तब
यह सिर्फ
तुम्हारे मन
में ही है।
कोई दवा
तुम्हारी
सहायता नहीं
कर सकती।
इसलिए
समस्या के
बारे में
समझने वाली
पहली बात तो
यह कि इसे
अस्तित्वगत
होना चाहिए, सैद्धांतिक,
वैचारिक, दर्शन
शास्त्रीय
नहीं। बल्कि
इसे दर्शन
शास्त्रीय न
होकर मनोवैज्ञानिक
होना चाहिए, और इसे जीवन
के संघर्ष से
उपजना चाहिए।
क्योंकि
तुम मृत
विचारों में
जकड़े हुए हो, इसी से
तुम्हारी
नब्बे
प्रतिशत
समस्याएं जन्मती
हैं, और
तुम उन्हीं
विचारों से
चिपकते हो। जब
कोई ऐसी
परिस्थिति
सामने आती है
जो तुम्हारे
विचारों के
अनुकूल न हो, तभी समस्या
उठ खड़ी होती
है—और तुम
विचार बदलने
के स्थान पर परिस्थिति
को बदलने की
कोशिश करने लगते
हो। यदि
तुम्हारे
सामने ऐसी
स्थिति आ जाए
जो तुम्हारी
विचार पद्धति
से मेल न खाती
हो, तो तुम
अपनी विचार
पद्धति बदलने
के स्थान पर उस
परिस्थिति को
बदलने की जी—तोड़
कोशिश करते हो,
तभी समस्या
का जन्म होता
है।
हमेशा
अपने मन को
बदलने को
तैयार रहो
क्योंकि जीवन
को तुम्हारी
मान्यताओं के
अनुसार नहीं बदला
जा सकता है।
लेकिन हमने
सीख रखा है कि
जीवन को किस
ढंग से देखें, कैसे
उसकी
व्याख्या
करें, हम
बंधी बधाई लीक
पर चलते रहते
हैं।
मैं
तुमसे एक
कहानी कहना
चाहता हूं—
एक
छोटा सा आदमी
अपने बॉस से
बहुत भयभीत
रहा करता था।
एक दिन उसने
अपने साथ के
कर्मचारी को
बताया कि वह
बीमार है।
उसका मित्र
बोला, तुम
अपने घर क्यों
नहीं चले जाते?
ओह! मैं
ऐसा नहीं कर
सकता।
क्यों
नहीं कर सकते? नासमझ मत
बनो, उसे
कभी पता नहीं
चलेगा, वह
तो आज यहां है
भी नहीं।
अंतत:
वह व्यक्ति
राजी हो गया
और घर चला गया।
जब वह वहां
पहुंचा, उसने खिड़की
से देखा—और उसका
बॉस वहीं था, उसकी पत्नी
के आलिंगन और
चुंबन में
व्यस्त।
इसलिए वह
दौड़ता हुआ
वापस
कार्यालय में
पहुंचा! क्या
खूब मित्र हो
तुम भी, उसने
अपने सहकर्मी
से कहा, मैं
तो फंसता—फंसता
बचा।
सोचने
का बस वही
पुराना ढंग।
परिस्थिति
बिलकुल अलग थी।
उसने अपने बॉस
को पकड़ लिया
होता, लेकिन
वही पुराना
विचार कि उसका
बॉस हमेशा उसे
ही पकड़ना.
चाहता है।
जीवन
का निरीक्षण
करो, और
अपने मन से मत
चिपको।
तुम्हारी
नब्बे
प्रतिशत
समस्याएं
बिना किसी
परेशानी के
मिट जाएंगी।
तुम्हारी दस
प्रतिशत
समस्याएं
बचेंगी, वे
अस्तित्व गत
हैं। और उनकी
वहां जरूरत भी
है, क्योंकि
तुम्हें उनके
माध्यम से
विकसित होना
है। यदि वे भी
मिट जाएं तो
तुम विकसित
नहीं होगे।
संघर्ष की
जरूरत है।
दर्द की
आवश्यकता है।
पीड़ा की जरूरत
है। क्योंकि
इसी से
तुम्हारा
संकेंद्रण
होगा, यह
तुम्हें और
जागरूक
बनाएगी। और
अगर तुम इसका
अतिक्रमण कर
सके तो
तुम्हें वही
आनंद उपलब्ध
होगा जो किसी
समस्या से पार
पाने में
मिलता है।
यह
पर्वतारोहण
जैसा है। तुम
पहाड़ पर ऊपर
की ओर जा रहे
हो—थके हुए, पसीना—पसीना,
श्वास
कठिनाई से चल
पार रही है, चोटी पर
पहुंचना
असंभव मालूम
पड़ रहा है, और
तभी तुम शिखर
तक पहुंच गए, और तुम आकाश
के नीचे लेटे
हो, और तुम
शिथिल हो गए
हो, और तुम
आराम कर रहे
हो, फिर भी
तुम प्रसन्न
हो कि तुमने
चढ़ाई करने का निर्णय
लिया था।
लेकिन एक कठिन
चढ़ाई के बाद
ही होता है।
तुम उस शिखर
पर
हेलिकाप्टर
से भी जा सकते
हो, लेकिन
तब तुमने इसे
अर्जित नहीं
किया है। इसलिए
जो व्यक्ति
शिखर पर
हेलिकाप्टर
द्वारा पहुंचता
है, और वह
व्यक्ति जो
अपने पैरों पर
चल कर गया है, अलग शिखरों
पर पहुंचते
हैं। वे कभी
भी एक ही शिखर
पर नहीं
पहुंचते।
तुम्हारे साधन
तुम्हारे
साध्य बदल
देते हैं। जो
व्यक्ति
हेलिकाप्टर
से उतारा गया
है, उसे
कुछ अच्छा
लगेगा, वह
कहेगा, ही,
यह खूबसूरत
है। उसका हर्ष
उस आदमी जैसा
होगा जिसका
पेट खाने से
एकदम भरा हुआ
है, और तभी
एक सुस्वादु
भोजन की एक
प्लेट उसके
सामने आ जाती
है, वह
कहता है, अच्छा
है। वह इसे
थोड़ा बहुत चख
सकता है—जरा
सा, लेकिन
उसका पेट इतना
ज्यादा भरा है
कि उसे जरा भी
भूख नहीं है।
और उसके पास
एक ऐसा
व्यक्ति खड़ा
है जो भूखा है।
शिखर
तक पहुंचने के
लिए व्यक्ति
में अभीप्सा भी
होनी चाहिए।
और यह अभीप्सा
तुम्हारे
चढ़ने के साथ—साथ
बढ़ती है। तुम
अधिकाधिक
अभीप्सा से
भरते हो, तुम और—और
थकते जाते हो,
तुम और— और
तत्पर होते जाते
हो... और जब तुम
शिखर पर पहुंच
जाते हो तो तुम
विश्राम करते
हो। तुमने इसे
अर्जित किया
है।
जीवन
में बिना
अर्जित किए
तुम्हें कुछ
नहीं मिल सकता
और जब तुम
जीवन के साथ
चालाकी करने
की कोशिश करते
हो तो तुम
अनेक अवसरों
को खो दोगे।
इसलिए
उन समस्याओं
को छोड़ दो जो
तुम्हारी
नहीं हैं। उन
समस्याओं को
छोड़ दो
जिन्हें
तुमने दूसरों से
सीख लिया है।
उन समस्याओं
को छोड़ो जो
तुम्हारे जड़
मताग्रहों से
जन्मी हैं।
तरल हो जाओ, गतिमय हो।
प्रतिपल अतीत
के प्रति मरो
और पुन: जन्म
लो ताकि तुम
पर कोई
मान्यता, जीवन
के प्रति कोई
जड़ दृष्टिकोण
हावी न रहे, और तुम सदा
खुले, उपलब्ध
और प्रतिसंवेदनात्मक
रहो। तब सिर्फ
वे समस्याएं
ही रहेंगी
जिनकी आवश्यकता
है, जो
तुम्हारे
विकास का एक
अवयव हैं।
जैसा
कि मैं देखता
हूं लोग हैं
जो डरें में
बंधा जीवन जी
रहे हैं, वह सच्चा
जीवन नहीं है,
बस खोखली
मुद्राएं
मात्र हैं।
उनकी
समस्याएं भी
अर्थहीन, खोखली
हैं। कोई आता
है और पूछता
है, क्या
परमात्मा है?
यह समस्या
खोखली है।
तुम्हें
परमात्मा से
क्या लेना—देना?
तुमने तो
अभी स्वयं को
ही नहीं जाना।
प्रारंभ से ही
आगे बढ़ो, प्रारंभ
से ही शुरू
करो। तुमने तो
अभी जानने
वाले को ही
नहीं जाना।
तुम्हें तो यह
भी नहीं पता
कि तुम्हारे
भीतर की यह
जागरूकता
क्या है। और
तुम परमात्मा
के बारे में
पूछ रहे हो, तुम उस परम
जागरूकता के
बारे में पूछ
रहे हो, आत्यंतिक
जागरूकता के
बारे में? और
जो जागरूकता
तुम्हें भेंट
स्वरूप मिली
हुई है, उसके
बारे में
तुमने जाना भी
नहीं। जो
पुष्प
तुम्हारे हाथ
में है उसके
बारे में तुमने
सीखा ही नहीं
और तुम परम
खिलावट के
बारे में पूछ
रहे हो।
मूढ़तापूर्ण
है यह बात।
परमात्मा
के बारे में
सब कुछ भूल
जाओ। बिलकुल
अभी तो अपने
अस्तित्व में
प्रवेश .करो
और देखो
परमात्मा ने
तुम्हें क्या
दिया है, समग्र
अस्तित्व ने
तुम्हें क्या
दिया है। और
अगर तुम इसे
जान सके तो
तुम्हारे लिए
और भी द्वार
खुल जाएंगे।
जितना तुम
जानते हो उतने
ही ज्यादा
रहस्य अनावृत
हो जाते हैं।
और परमात्मा
तो परम रहस्य
है—जब तुमने
और सब कुछ जान
लिया, और
अब जानने को
कुछ न बचा, और
तुम जीवन की
सारी पीड़ाओं,
संतापों और
दुश्चिताओ को
झेल चुके हो, सिर्फ तब।
परमात्मा
अंतिम उपहार
है, तुम्हें
इसे अर्जित
करना पड़ेगा।
ऐसे
प्रश्न मत
पूछो जो
तुम्हारे साथ
असंगत हों।
और
खोखली
मुद्राओं का, ढर्रे
में बंधा जीवन
मत जीयो। लोग
चर्च चले जाते
हैं, खोखला
प्रयास है यह।
वे वहां कभी
जाना नहीं
चाहते थे; फिर
तुम क्यों जा
रहे हो? क्योंकि
हर कोई जा रहा
है, क्योंकि
यह एक सामाजिक
औपचारिकता है,
क्योंकि
अगर तुम चर्च
जाओगे तो लोग
अच्छा समझते
हैं, क्योंकि
इससे तुम्हें
एक प्रकार का
सम्मान मिलता
है। ये लोग
जीसस के पास
नहीं गए होते,
लेकिन वे
चर्च जाते हैं।
चर्च
सम्मानित हैं,
जीसस कभी न
थे। जीसस के
पास जाना
मुश्किल था।
जीसस के पास
जाना, तुम्हारी
प्रतिष्ठा को
दांव पर लगाना
था।
तुम
यहां हो, तुम्हें
अपनी
प्रतिष्ठा
दांव पर लगानी
पड़ती है, क्योंकि
मेरे पास आने
से तुम्हें
कोई
प्रतिष्ठा तो
मिलने से रही।
उसे खो तो
सकते हो, परंतु
पा नहीं सकते।
यह औपचारिक
नहीं हो सकता,
क्योंकि
महज एक
औपचारिकता के
लिए कोई क्यों
इतना कुछ दांव
पर लगाएगा? यह तो बस
हृदय की बात
हो सकती है।
लोग
अपनी प्रार्थनाएं
करते हैं, क्योंकि
ऐसा किया जाना
है, खोखली
चेष्टा है यह।
उनके हृदयों
में कोई प्रेम
नहीं है, उनके
हृदयों में
कोई अहोभाव
नहीं है और वे
प्रार्थना
किए चले जा
रहे हैं। तब
ऐसी समस्याएं
उठती हैं जो
व्यर्थ हैं।
सिर्फ
वही करो—जिसके
लिए तुममें
भावना हो।
मैंने
सुना है, लगभग अस्सी
वर्ष की आयु
के भूतपूर्व
रेलवे कर्मचारी
का घर रेलवे
लाइन के निकट
था, वह
रिटायर हो
चुका था, जो
भी मालगाड़ी
वहां से
गुजरती वह
उसके डिब्बे गिना
करता था। इसकी
कोई जरूरत तो
नहीं थी, बस
पुरानी आदत भर
थी। एक रविवार
को पारिवारिक
पिकनिक के दौरान
उसके पुत्र ने
गौर किया कि
वह गुजरती हुई
ट्रेन की
उपेक्षा कर
रहा है, उसने
पूछा, क्यों,
आप डिब्बों
को क्यों नहीं
गिन रहे हैं?
के
आदमी ने जवाब
दिया, मैं
रविवार को काम
नहीं करता।
अपने
जीवन का
निरीक्षण करो, उसे
ज्यादा सच्चा,
प्रामाणिक,
वास्तविक
बनाओ। अर्थहीन
मुद्राओं के
साथ मत चलो, वरना
तुम्हारे
प्रश्न भी
अर्थहीन
होंगे। वे
समस्याओं की
भांति प्रतीत
होंगे, परंतु
वे वास्तविक
समस्या नहीं
होंगे।
अब
असली समस्या
और नकली
समस्या में
अंतर क्या है? झूठी
समस्या वह है
जिसे हल किया
जा सके, फिर
भी कुछ न
सुलझे। और
सच्ची समस्या
वह है जो भले
ही हल न हो, फिर
भी इसे
सुलझाने के
प्रयास में ही
बहुत कुछ सुलझ
जाए। इस
प्रयास में ही
तुम और सजग, और जानकार, और समझदार
हो जाते हो।
तुम अपने बारे
में इतना कुछ
जान लेते हो, जितना तुमने
पहले कभी न
जाना था
समस्या
स्वयं का
सामना करने का, अपने अंतस
की
तीर्थयात्रा
पर निकलने का
एक अवसर है।
समस्या तो एक
द्वार है।
इसका अपने
अस्तित्व में
उतरने कि लिए
उपयोग कर लो।
तो
मेरा उत्तर है
: समस्या
विकास का एक
अवसर है।
समस्या
परमात्मा की
भेंट, दिव्यता
से एक चुनौती
है। इसका
सामना करो, इसका
अतिक्रमण
करने के, इससे
ऊपर जाने के
उपाय खोजो और
तुम अदभुत रूप
से लाभान्वित
होंगे।
प्रश्न:
आप कहते
है, वही गलती
दुबारा मत करो।
जब तक मैं अपने
मन को, मूल्यांकन, तुलना और निर्णय
हेतु बीच में
न लाऊं, तब
तक मैं ऐसा कैसे
कर सकता हूं? और तब मुझे न कहना
पड़ता है।
जब मैं कहता
हूं एक गलती
को दुबारा मत
करो, तो
मैं
मूल्यांकन, निर्णय, तुलना
करने को नहीं
कह रहा हूं। मैं
तो देखने को
कह रहा हैजब
तुम गलती कर
रहे होते हो, इसे ऐसी
समग्रता से
देखो कि
तुम्हें दिख
जाए कि यह
गलती है। इस
देखने में ही
यह गिर जाती
है, तुम
उसे कभी दोहरा
नहीं पाओगे।
उदाहरण
के लिए, अगर तुमने
अपना हाथ आग
में डाला और
यह जल गया है।
अगली बार जब
तुम आग के पास
होगे तो क्या
तुम अरस्तु का
न्यायिक तर्क
प्रयोग करोगे,
कि यह भी एक
आग है, सारी
अग्निया
जलाती हैं, इसलिए मुझे
अपना हाथ
इसमें नहीं
डालना चाहिए।
क्या तुम अतीत
के अनुभव से
तुलना करोगे?
क्या तुम
मूल्यांकन
करोगे? यदि
तुमने ऐसा
किया तो तुम
वही गलती
दुबारा करने
से बच नहीं
पाओगे।
क्योंकि, तब
तुम्हारा मन
कहेगा, शायद
यह आग कुछ अलग
किस्म की है।
और कौन जाने
कि आग ने अपनो
जीवन—शैली बदल
ली हो। हो
सकता है कि अब
वह वैसा ही
व्यवहार न करे।
हो सकता है उस
समय वह क्रोध
में थी और इस
समय वह क्रोध
में नहीं है।
और कौन जानता
है कि कब क्या
हो?
वह मन
जो मूल्यांकन
करता है, निर्णय करता
है, तुलना
करता है, वह
तो यह दिखा ही
रहा है कि
उसको बात समझ
में नहीं आ
पाई है। वरना
मूल्यांकन और
तुलना की
जरूरत क्या है?
यदि तुमने
एक तथ्य को
देख लिया है
तो वह तथ्य ही
पर्याप्त है।
तुम आग से
बचोगे।
अत: जब
तुम अनुभवों
से गुजर रहे
होतो सजग रहो, अंधे' और
बहरे मत बनो।
मैं पीछे
देखने को नहीं
कह रहा हूं।
मैं तो अभी
इसी समय में
देखने के लिए
कह रहा हूं
जहां कहीं भी
तुम हो वहीं, और यदि यह
गलती है तो, यह स्वत: ही
गिर जाएगी। एक
गलती को गलती
की भांति
जानने से ही
यह गिर जाती
है। यदि यह
खुद से ही
नहीं गिर रही
है तो इसका
अभिप्राय यही
है कि तुमने
अभी पूरी तरह
से नहीं जान
पाया कि यह
गलती है। कही
न कहीं या
किसी रूप में
यह भ्रम बना
रहता है कि यह
गलती नहीं है।
लोग
आकर मुझसे
कहते हैं, हमें पता
है क्रोध बुरा
है, और हम
यह जानते हैं
कि यह जहरीला
है, और हम
जानते हैं कि
हमारे लिए
घातक है, लेकिन
करें क्या? हम तो
क्रोधित होते
ही रहते हैं? वे क्या कह
रहे हैं? वे
कह रहे हैं कि
उन्होंने
सुना है लोग
कहते हैं कि
क्रोध बुरा है,
उन्होंने
शास्त्रों
में पढ़ लिया
है कि क्रोध
जहरीला है
लेकिन इसे
उन्होंने
स्वयं नहीं जाना
है, अन्यथा
बात समाप्त हो
गई होती।
सुकरात
ने कहा है
ज्ञान ही
सदगुण है।
श्रेष्ठ है यह
कथन। वह कहता
है, जानने
का अर्थ है, हो जाना। एक
बार तुम जान
लो कि यह
दीवाल है, द्वार
नहीं, तो
तुम बार—बार
जाकर अपना सिर
उससे नहीं
टकराते। एक
बार पता चल
गया कि यह
दीवाल है तब
तुम द्वार की
खोज करते हो।
एक बार
तुम्हें
द्वार मिल गया
तो तुम सदा ही
द्वार से होकर
गुजरते हो।
यहां कोई बार—बार
पिछले अनुभव
के बारे में
सोचने, तुलना
करने, निश्चय
करने और
निष्कर्ष
निकालने का
प्रश्न नहीं
उठता है।
मैंने
सुना है, एक बहरा
पादरी
स्वीकारोक्तिया,
कनफेशंस
सुन रहा था, तभी एक आदमी
कठघरे में आया,
कदमों पर
झुका और बोला,
ओह फादर, मैंने एक
जघन्य कृत्य
कर डाला है।
मैंने अपनी
मां की हत्या
कर दी।
क्या? का पादरी
कान के पीछे
हाथ रख कर
बोला।
मैंने
अपनी मां की
हत्या कर दी
है, दोषी
व्यक्ति कुछ
जोर से बोला
क्या
बात हुई, जरा जोर से
कहो, ईश्वर
के उस दूत ने
आशा दी।'
मैंने
अपनी मां की
हत्या कर दी
है, परेशान
पापी जोर से
चिल्लाया।
आह!
पादरी ने कहा, कितनी
बार?
बहरा
आदमी तो बहरा
आदमी है, अंधा आदमी
तो अंधा आदमी
है। यदि तुम
अनुभव की बात
नहीं सुनते, यदि तुमने
अपने अनुभव के
प्रति कान बंद
कर रखे हैं, तब तुम बार—बार
और बार—बार
उसी को
पुनरुक्त
करते रहोगे।
वस्तुत: तुम
पुनरुक्ति कर
रहे हो यह
कहना भी ठीक
नहीं है. तुम
इसी को पुन: कर
रहे हो, एक
नये काम की
तरह—क्योंकि
पिछली बार तुम
चूक गए थे। यह
कोई
पुनरुक्ति
नहीं है।
मेरी
समझ ऐसी है. कि
कोई गलती कभी
दोहराई नहीं जाती, यदि एक
बार तुमने इसे
गलती की भांति
समझ लिया तो
काफी है। यदि
तुम इसे
दोहराते हो तो
इसका मतलब है
कि तुम इसे
नये ढंग से कर
रहे हो, क्योंकि
अतीत अभी तक
तुम्हारी
चेतना में
प्रविष्ट नहीं
हुआ है। तुम
इसे दुबारा
पहली बार कर
रहे हो लेकिन
यह पुनरुक्ति
नहीं है। अगर
तुम इसे समझ
चुके हो तो
इसको दोहराया
नहीं जा सकता।
समझ एक कीमिया
है, यह
तुम्हें
रूपांतरित
करती है।
इसलिए
मैं तुम्हें
बहुत चालाक, हिसाबी—किताबी,
और सदा यह
सोचने वाला कि
क्या अच्छा है
और क्या बुरा
है, और
क्या करना है
और क्या नहीं
करना है, और
क्या नैतिक है,
क्या
अनैतिक है, यह बनने को
नहीं कह रहा
हूं। मैं यह
सब नहीं कह
रहा हूं। मैं
तो सिर्फ इतना
कह रहा हूं कि
तुम जहां से भी
गुजरो पूर्ण
सजगता से गुजरो
ताकि जो कुछ
भी गलत है
दोहराया न जाए।
जागरूकता
का यही
सौंदर्य है कि
जो कुछ भी सही है
उसका इससे
संवर्धन होता
है, और
जो कुछ भी गलत
है वह इसके
द्वारा
विनष्ट हो जाता
है। जागरूकता
शुभ के लिए
जीवन ऊर्जा की
भांति और अशुभ
के लिए मृत्यु
ऊर्जा की
भांति है।
जागरूकता शुभ
के प्रति आशीष
और अशुभ के
प्रति अभिशाप
के रुप में
कार्य करती है।
यदि तुम पाप
के लिए मेरी
परिभाषा पूछो
तो यह मेरी
परिभाषा है.
जो कुछ भी
परिपूर्ण जागरूकता
के साथ किया
जा सके पाप
नहीं है; वह
जो पूर्ण
जागरूकता के
साथ न किया जा
सके पाप है।
वह जिसे बिना जागरूकता
के ही किया जा
सके पाप है, और वह जो
सिर्फ
जागरूकता में
ही किया जा
सके पुण्य है।
इसलिए पाप और
पुण्य के बारे
में भूल जाओ।
जागरूकता और
गैर—जागरूकता
को याद रखो।
विकास
का केंद्रीय
तत्व होश और
बेहोशी के मध्य
में है और
अधिक
होशपूर्ण हो
जाओ और बेहोशी
को कम करो।
अपनी ऊर्जा को
जागरूकता से
और अधिक
प्रदीप्त होने
के लिए अर्पित
करो, बस
यही तो है।
प्रश्न:
प्यारे
ओशो, क्या
आप किसी बात को
गंभीरता से नहीं
ले सकते?
मैं एक चीज को
बहुत गंभीरता
से लेता हूं
चुटकुलों को
मैं बहुत
गंभीरता से
लेता हूं। और
इस पर तो
तुमने भी जरूर
ध्यान दिया
होगा। जब मैं
कोई चुटकुला
सुनाता हूं तो
मैं कभी नहीं
हंसता हूं मैं
वास्तव में
इसे गंभीरता
से लेता हूं।
चुटकुले के
सिवाय संसार' में और
कुछ भी गंभीर
नहीं है।
प्रश्न:
अगर
मुल्ला नसरूद्दीन
अश्रम में आ जाए, तो क्या आप
उन्हें किसी समूह—चिकित्सा
में सम्मिलित
करेंगे? या
आप उनसे उनका खुद
का समूह चलाने
को कहेंगे?
यदि ऐसा हो तो यह
समूह किस प्रकार
का होगा?
मैंने पहले भी
ऐसा किया है, लेकिन
बात नहीं बनी।
मुल्ला
नसरुद्दीन तो
नेताओं का
नेता है, उसे
किसी समूह में
भागीदार की
भांति नहीं
रखा जा सकता।
उसका अहंकार
ऐसा नहीं होने
देगा। मैंने
उससे पूछा था,
उसने कहा, ठीक है, आप
मुझे नेता बना
सकते हैं।
मैंने उसे एक
अवसर दिया, एक तीन दिवसीय
ग्रुप; और
सारे मूढ़ और
सारे
बुद्धिमान
लोग भागीदारी के
लिए एकत्रित
हो गए।
क्योंकि
मुल्ला
नसरुद्दीन
में दोनों
प्रकार के लिए
आकर्षण है। जो
मूर्ख हैं वे
उसे मूर्ख
समझते हैं, जो
बुद्धिमान
हैं वे उसे
बुद्धिमान
व्यक्ति समझते
हैं। वह
होशियार है या
वह सीमा पर है—वह
दोनों ओर खड़ा
हुआ है। उसे
एक मूर्ख की
तरह प्रस्तुत
किया जा सकता
है; उसकी
कभी भी हुए
सर्वाधिक
बुद्धिमान
व्यक्ति की
तरह भी
व्याख्या की
जा सकती है।
वह
समूह के
सम्मुख खड़ा
हुआ और बोला, क्या
आपको पता है
कि मैं आपको
क्या सिखाने
जा रहा हूं?
निसंदेह
प्रत्येक
व्यक्ति ने
कहा. हमें
कैसे पता होगा? हम नहीं
जानते।
उसने
कहा. यदि आपको
यह नहीं पता, इतना भी
नहीं पता, तो
मैं कुछ नहीं
सिखाऊंगा, क्योंकि
आप लोग इस
योग्य नहीं
हैं।
वह चला
गया। अगले दिन
मैंने उसे फिर
से राजी किया।
पुन. वह वहां
गया और
भागीदारों से
पूछा, क्या
आप जानते हैं,
मैं क्या
सिखाने जा रहा
हूं?
अब तक
उन लोगों ने
भी कुछ सीख
लिया था, अत:
उन्होंने कहा.
हां, हमें
पता है।
वह
बोला : तब इसकी
आवश्यकता ही
क्या है? यदि आपको
पता ही है तो
आप जानते हैं,
और वह चला
गया।
मैंने
तीसरे दिन फिर
उसे जाने के
लिए राजी कर
लिया। वह वहां
खड़ा हुआ, उसने पूछा, क्या आपको
पता है कि मैं
आपको क्या
सिखाने जा रहा
हूं।
अब तक
लोग कुछ और
ज्यादा सीख
चुके थे; वे बोले, हां,
हममें से
आधे लोग जानते
हैं और आधे
नहीं जानते।
उसने
कहा : यह
बिलकुल ठीक है, इसलिए वे
लोग जो जानते
हैं, उनको बता
दें जो नहीं
जानते। मेरे
यहां मौजूद
रहने की जरूरत
ही क्या है?
मुल्ला
नसरुद्दीन एक
बहुत—बहुत
पुराना सूफी
उपाय है। यह
व्यक्ति कभी
हुआ हो या न
हुआ हो, यह निश्चित
नहीं है। शायद
वह रहा हो, शायद
वह कभी न हुआ
हो। ऐसे बहुत
से देश हैं जो
उस पर अपना
दावा करते हैं।
ईरान उसे अपना
कहता है; वहां
ईरान में
मुल्ला
नसरुद्दीन की
एक कब भी है।.
सोवियत रूस भी
उस पर अपना
दावा करता है।
कुछ और देश भी
हैं जो अपना
दावा करते हैं।
लगभग अत
मध्यपूर्व यह
दावा करता है
कि वह उनका है।
और ऐसे बहुत
से स्थान हैं
जहां पर उसके
दफनाए जाने की
बात की जाती
है।
हो
सकता है कि
कभी उसका
अस्तित्व रहा
हो, हो
सकता है न रहा
हो, परंतु
उसका प्रभाव
अदभुत है। जो
कुछ भी उसने
किया या जो
कुछ भी' उसके
द्वारा किया
गया कहा जाता
है, वह
अत्याधिक, बहुत
अर्थपूर्ण है—जैसे
कि इस कहानी
में जब उसने
पूछा, क्या
आपको पता है
मैं क्या
सिखाने जा रहा
हूं? प्रत्येक
ने कह दिया :
नहीं। लेकिन
कोई भी मौन
नहीं रहा।
नहीं, कहना
सरल है, नास्तिक
होना बहुत
आसान है। और
अगर तुम्हारे
पास 'नहीं'
का
दृष्टिकोण है
तो यह कठिन है,
तब तुम्हें
सिखाना कठिन
है। अगले दिन
प्रत्येक ने
कहा : ही, क्योंकि
वह जो कहना
चाहता था वे
उसे सुनने के
लिए बहुत लोभ
से भरे थे।
उनकी ही उनके
लोभ से आई थी, और लोभ को
कभी संतुष्ट
नहीं किया जा
सकता। और
मुल्ला बोला :
यदि आप जानते
ही हैं तो
बताने में
क्या सार है? तीसरे दिन
उन्होंने खुद
को और अधिक
चालाक, और
होशियार
सिद्ध करने की
कोशिश की।
उन्होंने कहा
: हमने दो
विकल्पों के
लिए प्रयास
किया, अब
तीसरे की
कोशिश की जाए,
एकमात्र
बची हुई बात
रह गई थी :
हममें से आधे
जानते हैं और
हममें से आधे
नहीं जानते।
अब वे मुल्ला
को ठिकाने
लगाने की
कोशिश कर रहे
थे। लेकिन तुम
उसको ठिकाने
नहीं लगा सकते।
वह तो करीब—करीब
पारे जैसा है;
वह
तुम्हारे हाथ
से फिसल जाता
है। उसने कहा :
एकदम ठीक। जब
आपमें से आधे
लोग जानते ही
हैं और आधे
लोग नहीं
जानते, तब
जो जानते हैं
वे उनको बता
दें जो नहीं
जानते, तो
फिर मेरी यहां
जरूरत ही क्या
है, मेरा
समय क्यों
बरबाद करते
हैं।
पहले
वे बोले नहीं, कोई चुप न
रहा फिर
उन्होंने कहा
ही, लेकिन
कोई भी चुप न
रहा; फिर
उन्होंने हां ओर
ना दोनों एक
साथ बोल दिए, लेकिन कोई
चुप नहीं था।
वह लौट
कर मेरे पास
आया और उसने
कहा : इन लोगों
को सिखाया
नहीं जा सकता, क्योंकि
जो लोग मौन
हों, उन्हीं
को सिखाया जा
सकता है।
मौन
शिष्यत्व है।
अगर यहां तुम
पहले से ही
ज्ञानी होकर
आए हो, तो
तुम्हें
सिखाया नहीं
जा सकता। अगर
तुम यहां नकार
का दृष्टिकोण,
नास्तिक की दृष्टि,
संदेह और शक
लेकर आए हो तो
तुम्हें
सिखाया नहीं
जा सकता। या
अगर तुम कहो
कि मुझे थोड़ा
सा मुझे पता
है और थोड़ा
मैं नहीं
जानता, तो
भी तुम्हें
सिखाया नहीं
जा सकता। तुम
चालाक बन रहे
हो। क्योंकि
ये तीन
दृष्टिकोण
हैं—नहीं कहने
वाले का, ही
कहने वाले का,
और उसका जो
दोनों नावों
पर यात्रा
करने की कोशिश
कर रहा है, जिसका
प्रयास है कि
केक खा भी
लिया जाए और
केक पूरा
साबुत भी रहे,
जो चालबाज
है—तो संसार
में ये जो तीन
प्रकार के
व्यक्ति हैं,
ये सभी
समझने में
असमर्थ हैं।
केवल
उसे जो मौन है, जो अपने
मौन के द्वारा
उत्तर देता है,
और मुक्त—हृदय
है, उसी को।
सखाया जा सकता
है। इस कहानी
का यही मतलब
है।
मुल्ला
नसरुद्दीन को
जितना ज्यादा
हो सके उतना
पढ़ो, और
उसे समझने का
प्रयास करो।
वहां तुम्हारे
लिए महत् आशीष
बन सकता है
क्योंकि वह
हास—परिहास के
माध्यम से
सिखाता है।
उसकी?' प्रत्येक
कहानी अपने
गर्भ में
अदभुत अर्थ समाए
हुए है, लेकिन
तुम्हें इसे
अनावृत करना
पड़ेगा।
इसीलिए मैं कहता
हूं कि ऐसे
लोग हैं जो
उसे मूर्ख
समझते हैं। वे
बेस एक कहानी
पढ़ते हैं और
वे हंसते हैं,
फिर उनके
लिए बात
समाप्त हो गई।
वे इसे बस एक
चुटकुला
समझते हैं।
ऐसा नहीं है।
कोई चुटकुला
महज एक
चुटकुला नहीं
होता। अगर तुम
बुद्धिमान हो
तो तुम इसके
भीतर झांकोगे,
आखिर असली
बात क्या है।
और एक बार तुम
इसके आंतरिक
अर्थ की झलक
भर पा लो, तुम
अत्यधिक
प्रसन्न हो
जाओगे। तुम एक
नये आयाम के
प्रति सजग
होने लगोगे।
अब
मुल्ला
नसरुद्दीन को
पश्चिमी
देशों में भी
पढ़ा जाता है, लेकिन
लोग चूक रहे
हैं। वे सोचते
हैं कि वे
सिर्फ मजाक भर
हैं। वे मजाक
ही नहीं हैं।
वे हास—परिहास
के माध्यम से
तुम्हें उस
परम पावन को सिखाने
का उपाय हैं।
और इसे सिर्फ
हास्य के
माध्यम से ही
सिखाया जा
सकता है—केवल
हास्य के
माध्यम से।
क्योंकि
सिर्फ हास्य
ही तुम्हें
विश्रांत कर
सकता है। और
परमात्मा को
गहन
विश्रांति
में ही जाना
जा सकता है।
जब तुम हंसते
हो तो
तुम्हारा
अहंकार खो
जाता है। जब
हंसी यथार्थ
में
प्रामाणिक
होती है, पेट
की हंसी, जब
तुम्हारा
सारा शरीर इस
परमानंद की
ऊर्जा से
स्पंदित होता
है, जब
हंसी
तुम्हारे
सारे
अस्तित्व पर
फैल जाती है, जब तुम बस
इसी में खो
जाते हो, तभी
तुम परमात्मा
के लिए खुलते
हो। गंभीर लोग
कभी परमात्मा
तक नहीं
पहुंचे। वे
पहुंच ही नहीं
सकते।
परमात्मा ऐसा
खतरा मोल नहीं
लेगा। हूं.....वे
तो उसे उबा कर
मार ही है..
डालेंगे।
एक छोटे
बच्चे को पहली
बार चर्च में
लाया गया।
उसने लोगों के
चेहरे देखे—लटके
हुए उदास, गंभीर।
सारा माहौल
कुछ ऐसा जान
पड़ा जैसे कि
कोई मर गया हो।
घर लौट कर मां
ने पूछा, तुम्हें
कैसा लगा? उसने
कहा : मुझे सच
कह देना चाहिए।
मुझे लगा जैसे
ईश्वर को वहां
कुछ बुरा लग
रहा हो।
मां ने
कहा. तुम्हारा
मतलब क्या है?
वह
बोला : ऐसे
लटके चेहरे
देख कर तो
ईश्वर को ऊब
जाना चाहिए।
और मम्मी क्या
इसी प्रकार के
लोग हरेक
रविवार को आते
हैं?
ही, निःसंदेह,
वे ही लोग।
इनमें से कुछ
ऐसे हैं जो
वहा चालीस—पचास
सालों से आर
रहे हैं।
बच्चा
अत्यधिक उदास
हो गया, उसने कहा :
ईश्वर के बारे
में सोचो, हर
रविवार को वे
ही उदास लोग, वे ही चेहरे,
उसे तो ऊब
कर मरने की
हालत में
पहुंच जाना
चाहिए।
तुम
परमात्मा तक
हंसी के
माध्यम से
पहुंचते हो।
मैं तुम्हें
हंसी सिखाता
हूं। तुम
परमात्मा तक
नाचते हुए, गाते हुए,
हर्षित, प्रफुल्लित,
उत्सव
मनाते हुए
पहुंचते हो।
हंसना सीखो।
और जब
तुम हंस रहे
हो तो देखो
तुम्हारे
भीतर क्या घट
रहा है। वरना
तुम इसके सारे
सौंदर्य से
चूक जाओगे। जब
तुम हंस रहे
होते हो तो
देखो' कैसे
अचानक अहंकार
यहां नहीं
होता। देखो
किस भांति मन
एक क्षण को
ठहर गया होता
है। एक महीन
से क्षण में
मन वहां नहीं
होता—वहां कोई
विचार नहीं
होता। जब तुम
गहराई से
हंसते हो तो
वहा कोई विचार
नहीं बचता।. :
हंसी
ध्यानमयी है...
और औषधियुक्त
है। भौतिक
शरीर के लिए
यह औषधिमय है; आध्यात्मिक
शरीर के लिए
ध्यानमय।
मैं
चाहूंगा कि
मुल्ला
नसरुद्दीन
किसी ग्रुप को
आरंभ करे, लेकिन यह
मुश्किल प्रतीत
होता है। वह
दुष्कर
व्यक्ति है।
प्रश्न :
प्यारे
ओशो, आपके
दिव्य संगीत ने
मेरे आस्तित्व
के किसी गहनतर
तल को छू लिया
है। जब मैं पहली
बार आया था मैं
संन्यास के लिए
पूरी तरह तैयार
था। मेरा संन्यास
आपका आशीष था या
मेरा सत्याग्रह, यह बात मुझे साफ
पता नहीं है। आप
कहते है, आओ
मेरा अनुसरण करो।
लेकिन आपका अनुसरण
कैसे हो, क्योंकि
में तो आपको जानता
ही नहीं? कभी—कभी
आपकी सुवास महसूस
करता हूं और कभी—कभी
वह खो जाती है।
जब मैं
कहता हूं आओ
मेरा अनुसरण
करो, मैं
अपने ज्ञान का
अनुसरण करने
को नहीं कह
रहा हूं। जब
मैं कहता हूं
आओ मेरा
अनुसरण करो, मैं कह रहा
हूं कि आओ और
अपने ज्ञान के
बिना मैं जो हूं
उसका अनुसरण
करो। जब मैं
कहता हूं आओ
मेरा अनुसरण
करों तो मैं तुम्हें
अशात की ओर
आने को कह रहा
हूं। मैं
तुम्हें
अज्ञेय की ओर
आने का
निमंत्रण दे
रहा हूं। जब
मैं कहता हूं
आओ, मेरा
अनुसरण करो तो
मैं अपना
अनुसरण करने
को नहीं कह
रहा हूं—क्योंकि
मैं नहीं हूं।
मैं तुम्हें
एक विराट
शून्यता में आमंत्रित
कर रहा हूं।
एक बार
तुम द्वार में
प्रविष्ट हो
जाओ, तुम्हें
न तो मैं मिलूंगा
न तुम।
तुम्हें कुछ
पूर्णत: भिन्न
ही मिलेगा।
यही है जिसे
लोगों ने
परमात्मा कहा
है।
और
मुझे पता है
कि कई बार तुम
मेरे
अस्तित्व की
सुवास की
अनुभूति में
समर्थ होओगे
और कई बार यह
खो जाएगी, क्योंकि
ऐसी भाव—दशाएं
होती हैं जब
तुम मेरे निकट
होते हो, और
ऐसी भाव—दशाएं
होती हैं जब
तुम मुझसे दूर,
बहुत दूर
होते हो। जब
तुम निकट होते
हो तो सुवास
आएगी; जब
तुम दूर होओगे
तो तुम इसे खो
दोगे। अत: उन
भाव—दशाओं की
अनुभूति का
प्रयास करो जब
तुम मुझसे
निकटता महसूस
करते हो, और
उन भाव—दशाओं
में ज्यादा से
ज्यादा रहो, उन भाव—दशाओं
में और—और
विश्रांत हो
जाओ।
यह
मेरे और
तुम्हारे बीच
के भौतिक
अंतराल की बात
नहीं है। यह
आध्यात्मिक
अंतराल का
प्रश्न है।
यदि हंसते समय
तुम्हें
मुझसे निकटता
अनुभव हो और
अचानक यह
सुवास
तुम्हारे
नासापुटों और
अस्तित्व को
भर दे, तो
और हंसना सीखो।
अगर तुम्हें
केवल यहीं पर,
बस मुझे
देखते हुए, जब विचारों
की आपाधापी न
होती हो, यह
सुवास अनुभव
होती हो, तो
विचारों को और—और
विदा करना
सीखो। जो कुछ
भी तुम महसूस
कर रहे हो, उस
सुनिश्चित
भाव—दशा के
प्रति और—और
उपलब्ध हो जाओ,
और मेरी
सुवास
तुम्हारी
सुवास बन
जाएगी।
क्योंकि यह न मेरी
है न तुम्हारी,
यह
परमात्मा की
सुवास है।
प्रश्न:
ओशो, पाँच महीनों
तक स्त्रोत से
पीकर भी मेरी प्यास
कम नहीं हुई, इसने मुझे और
प्यासा कर दिया
है। आपके पानी
में निश्चित
ही कुछ अनूठापन
है।
ध्यान के समय
मुझे यह सुनाई
पड़ा:
मधुर—जल
की एक छोटी सी
झील,
छिपी है
श्यामल जंगल
में,
वही
उद्गम है सागर
का।
ओशो, आप मीठे
और नमकीन हैं;
और इस
क्षण में बहुत
नमकीन।
मैं
यहां जाने के
कारण उदासी
अनुभव कर रही
हूं
मैं इस
स्रोत तक पुन:
वापस आना
चाहती हूं
पीती
रहूं तब तक कि
मैं इतना भर
जाऊं
कि मैं
स्रोत में गिर
पडूं।
यह आनंद
उर्मिला ने
पूछा है।
यह सच
है, ऐसा
ही है। जितना
अधिक तुम मुझे
पियोगी, उतना
ही तुम प्यासी
हो जाओगी।
क्योंकि मैं
तुम्हें तृप्त
करने वाला
नहीं हूं। मैं
तुम्हें और—और
अतृप्त बनाता
चला जाऊंगा, क्योंकि यदि
तुम मुझसे
तृप्त हो गईं
तो तुम कभी
परमात्मा तक
नहीं पहुचोगी।
मैं
यहां अधिक
प्यास
निर्मित करने
के लिए हूं।
मैं यहां
तुम्हें और
भूखा बना देने
के लिए हूं।
ताकि एक दिन
तुम बस प्यास, बस भूख, शुद्ध भूख
ही रह जाओ। उस
क्षण में तुम
विस्फोटित और
तिरोहित हो
जाती हो और
परमात्मा मिल
जाता है। अगर
तुम मुझसे ही
तृप्त हो गईं,
तो मैं
तुम्हारा
मित्र नहीं
शत्रु बन
जाऊंगा, क्योंकि
तब तुम मुझसे
और मेरे
उत्तरों से
बंध जाओगी।
मैं
अधिक से अधिक
एक द्वार हो
सकता हूं।
मुझसे होकर
गुजर जाओ, मुझसे
बंधो मत।
यात्रा का
आरंभ मेरे साथ
होता है, इसका
अंत मुझ पर
नहीं होता।
और मैं
जानता हूं कि
तुम्हें
उदासी अनुभव
हो रही होगी।
लेकिन अपनी
उदासी के
प्रति सजग हो
जाओ और इससे
तादात्म्य मत
बनाओ। यह वहा
है, तुम्हारे
चारों ओर, लेकिन
यह तुम नहीं
हो। इस अवसर
का भी अधिक
जागरूक, अधिक
साक्षी होने
में उपयोग करो।
और अगर तुम
अपनी उदासी के
साक्षी हो सको,
तो उदासी
मिट जाएगी। और
अगरु तुम अपनी
उदासी के
प्रति सजग हो
सको तो तुम
सजगता के
द्वारा इसके
मिटने में
सहायक हो सकती
हो, जहां
कहीं भी तुम
जाओ मैं
तुम्हारे साथ
आऊंगा। हो
सकता है तब
स्रोत तक वापस
आने की जरूरत
ही न पड़े, क्योंकि
अपने
साक्षीभाव
में तुम चाहे
कहीं रहो, तुम
मेरे निकट
रहोगी। तुम
स्रोत के निकट
होओगी।
स्रोत
कोई तुमसे
बाहर नहीं है।
और जब तुम वास्तव
में मुझे
सुनती हो तो
यह किसी ऐसे
व्यक्ति को सुनना
नहीं है जो
तुम्हारे
बाहर हो। यह
किसी ऐसे को
सुनना है जो
तुम्हारे
भीतर है। यह
तुम्हारी
अपनी आंतरिक
आवाज है। जब
तुम मेरे
प्रेम में
पड़ती हो तो
वस्तुत: जो हुआ
है वह यह कि
तुम पहली बार
अपने प्रति
प्रेम में पड़ी
हो।
आज इतना
ही।
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