"अकारण' के आत्यंतिक
प्रतीक कृष्ण—(प्रवचन—पांचवां)
दिनांक
27 सितंबर, 1970;
सांय,
मनाली (कुल्लू्)
"भगवान श्री,
श्रीकृष्ण
के जन्म के
समय क्या
सामाजिक, राजनैतिक
और धार्मिक स्थितियां
थीं, जिनके
कारण कृष्ण
जैसी आत्मा के
अवतरण होने का
आधार बना? कृपया
इस पर प्रकाश
डालें।'
कृष्ण
जैसी चेतना के
जन्म के लिए
सभी समय, सभी
काल, सभी
परिस्थितियां
काम की हो
सकती हैं। कोई
काल, कोई
परिस्थिति
कृष्ण जैसी
चेतना के पैदा
होने का कारण
नहीं होती है।
यह दूसरी बात
है कि किसी
विशेष
परिस्थिति
में वैसी
चेतना को
विशेष व्यवहार
करना पड़े।
लेकिन ऐसी
चेतनाएं
काल-निर्भर
नहीं होतीं।
सिर्फ सोए हुए
लोगों के
अतिरिक्त काल
पर कोई भी
निर्भर नहीं
होता। जागा
हुआ कोई भी
व्यक्ति अपने
समय से पैदा
नहीं होता।
बल्कि बात बिलकुल
उलटी है--जागा
हुआ व्यक्ति
अपने समय को
अपने अनुकूल
ढाल लेता है।
सोए हुए
व्यक्ति समय
के अनुकूल
पैदा होते
हैं।
लेकिन
हम सदा ऐसा
सोचते रहे हैं
कि कृष्ण शायद
इसलिए पैदा
होते हैं कि
युग बहुत बुरा
है, इसलिए
पैदा होते हैं
कि बहुत
दुर्दिन हैं।
इस समझ में
बुनियादी भूल
है। इसका मतलब
यह हुआ कि
कृष्ण जैसे
व्यक्ति एक "कॉज़ल चेन' में पैदा
होते हैं, एक
कार्य-कारण की
शृंखला में
पैदा होते
हैं। इसका
मतलब हुआ कि
हमने कृष्ण के
जन्म को भी "युटिलिटेरियन'
कर लिया, हमने
उपयोगिता में
ढाल दिया।
इसका यह भी
मतलब हुआ कि
कृष्ण जैसे
व्यक्ति को भी
हम अपनी सेवा
के अर्थों में
ही देख सकते
हैं, और
किसी अर्थों
में नहीं देख
सकते।
अगर
रास्ते के
किनारे फूल खिलें, तो राह से
गुजरने वाला
सोच सकता है
कि मेरे लिए
खिल रहा है।
मेरे लिए
सुगंध दे रहा
है। हो सकता
है अपनी डायरी
में लिखे कि
मैं जिस
रास्ते से
गुजरता हूं, मेरे कारण
मेरे लिए फूल
खिल जाते हैं।
लेकिन फूल
निर्जन
रास्तों पर भी
खिलते हैं।
फूल किसी के
लिए नहीं
खिलते, फूल
अपने लिए
खिलते हैं।
किसी दूसरे को
सुगंध मिल
जाती है, यह
बात दूसरी है।
कृष्ण
जैसे व्यक्ति
किसी के लिए
पैदा नहीं होते।
अपने आनंद से
ही जन्मते
हैं। दूसरों
को सुगंध मिल
जाती है, यह
बात दूसरी है।
और ऐसा कौन-सा
युग है, जिस
में कृष्ण
जैसा व्यक्ति
पैदा हो तो हम
उससे कोई
उपयोग न लें
सकेंगे? सभी
युगों में ले
लेंगे। सभी
युगों में
जरूरत है। सभी
युग पीड़ित हैं,
सभी युग
दुखी हैं। तो
कृष्ण जैसा
व्यक्ति तो किसी
भी क्षण में
उपयोगी हो
जाएगा। सुगंध
ही चाह किस को
नहीं है! किस
के नासापुट
सुगंध के लिए
आतुर नहीं
हैं! फूल किसी
भी रास्ते पर
खिले, और
कोई भी गुजरे
तो सुगंध ले
लेगा। मैं
आपसे यह कहना
चाहता हूं कि
कृष्ण जैसे
व्यक्तियों को
"युटिलिटेरियन',
उपयोगिता
की भाषा में
सोचना ही गलत
है।
लेकिन
हमारी मजबूरी
है। हम हर चीज
को उपयोग में
सोचते हैं, किस उपयोग
में आएगी? निरुपयोगी
का हमारे लिए
कोई मूल्य ही
नहीं है, "परपजलेस' का हमारे
लिए कोई अर्थ
नहीं है। आकाश
में बादल चलते
हैं तो सोचते
हैं कि शायद
हमारे खेतों में
वर्षा करने के
लिए चलते हैं।
अगर घड़ियां आपके
हाथों पर बंधी
सोच सकें, तो
वे शायद यही सोचेंगी
कि हम बंध
सकें, इसलिए
यह आदमी पैदा
हुआ है।
निश्चित ही
चश्मे अगर सोच
सकें, तो
वे सोचेंगे कि
हम लग सकें, इसलिए ये
आंखें पैदा
हुई हैं।
लेकिन वे सोच
नहीं सकते, इसलिए
मजबूरी है।
आदमी सोच सकता
है तो वह हर चीज
को "इगोसेंट्रिक'
कर लेता है।
वह अपने
अहंकार को केंद्र
पर लेता है।
वह कहता है, सब मेरे लिए
है। कृष्ण
जन्मते हैं तो
मेरे लिए, बुद्ध
जन्मते हैं तो
मेरे लिए, फूल
खिलते हैं तो
मेरे लिए, चांदत्तारे चलते हैं तो
मेरे लिए।
आदमी के लिए
सब चल रहा है।
आकाश में चांदत्तारे
चलते हैं वे
भी हमारे लिए,
सूरज
निकलता है वह भी
हमारे लिए है।
यह दूसरी बात
है कि सूरज के
निकलने से हम
रोशनी ले लेते
हैं, लेकिन
हमें रोशनी
देने को सूरज
नहीं निकलता है।
जिंदगी
की धारा
उपयोगिता की
धारा नहीं है।
उपयोगिता की
भाषा में ही
सोचना गलत है।
जिंदगी में सब
हो रहा है, किसी के लिए
नहीं, होने
के लिए ही।
फूल खिल रहे
हैं अपने आनंद
में, नदियां बह रही हैं
अपने आनंद में,
बादल चल रहे
हैं अपने आनंद
में, चांदत्तारे चल रहे हैं
अपने आनंद
में। आप किस
के लिए पैदा हुए
हैं? आप
किस कारण पैदा
हुए हैं? आप
अपने आनंद में
ही जी रहे
हैं। और कृष्ण
जैसा व्यक्ति
तो पूरी तरह अपने
आनंद में जी
रहा है। ऐसा
व्यक्ति कभी
भी पैदा हो
जाए तो हम
जरूर उसका कुछ
उपयोग करेंगे।
सूरज कभी भी
निकले तो हम
उसकी रोशनी
अपने घरों में
ले जाएंगे। और
बादल कभी भी बरसें, हम
फसल पैदा
करेंगे। और
फूल कभी भी खिलें,
हम उनकी मालाएं
बनाएंगे।
लेकिन इस सब
के लिए यह
नहीं हो रहा
है।
लेकिन
निरंतर हम इसी
भाषा में
सोचते
हैं--महावीर
क्यों पैदा
हुए? कौन-सी
राजनैतिक
स्थिति थी
जिससे महावीर
पैदा हुए? बुद्ध
क्यों पैदा
हुए? कौन-सी
सामाजिक
स्थिति थी
जिससे बुद्ध
पैदा हुए? ध्यान
रहे, इसमें
एक और खतरनाक
बात है, और
वह यह है कि व्यक्ति
की चेतना
सामाजिक
परिस्थितियों
से पैदा होती
है, ऐसा
माक्र्स का
सोचना था।
माक्र्स कहता
था कि चेतना
परिस्थितियां
नहीं बनाती, परिस्थितियों
से चेतना
जन्मती है।
लेकिन जो नहीं
हैं कम्यूनिस्ट,
वह भी इसी
तरह सोचते
हैं। उन्हें
पता नहीं होगा
कि जिन लोगों
ने भी कभी यह
कहा है कि इस
कारण से
महावीर पैदा
हुए, इस
कारण से कृष्ण
पैदा हुए, वे
यह कह रहे हैं
कि समाज की
परिस्थितियां
उनके जन्म का
कारण हैं।
नहीं, समाज
की
परिस्थितियां
उनके जन्म का
कारण नहीं
हैं। और समाज
की ऐसी कोई भी
परिस्थिति
नहीं है जो
कृष्ण जैसी
चेतना को जन्म
दे दे। समाज
तो बहुत पीछे
होता है कृष्ण
जब पैदा होते
हैं। समाज तो
बहुत पीछे
होता है, कृष्ण
जैसी चेतना को
जन्म देने की
क्षमता उसकी
नहीं है।
बल्कि कृष्ण
ही पैदा करके
उस समाज को नई
दिशाएं
अनजाने में दे
जाते हैं। नए
मार्ग दे जाते
हैं, नई
शक्ल, नई
रूपरेखा दे
जाते हैं।
मैं
परिस्थितियों
को बहुत मूल्य
नहीं देता। मैं
मूल्य चेतना
को "कांशसनेस' को ज्यादा
देता हूं। और
आपसे यह कहना
चाहूंगा कि
जीवन उपयोगितावादी
नहीं है, जीवन
खेल जैसा है, लीला जैसा
है। एक आदमी
जा रहा है
रास्ते पर। उसे
कहीं पहुंचना
है। उसे कोई
मंजिल, कोई
मुकाम, उसे
किसी काम के
लिए जाना है।
यह आदमी भी
चलता है
रास्ते पर। एक
आदमी सुबह
घूमने निकला
है। उसे कहीं
पहुंचना नहीं
है, कहीं
जाना नहीं है,
कोई लक्ष्य
नहीं है, सिर्फ
घूमने निकला
है। लेकिन कभी
आपने खयाल किया
है कि वही
रास्ता, जब
आप काम करने
के लिए निकलते
हैं, तो
बोझिल हो जाता
है और वही
रास्ता जब आप
घूमने के लिए
निकलते हैं, तो
आनंदपूर्ण हो
जाता है। वे
ही पैर, जब
काम करने को
जाते हैं तो
भारी हो जाते
हैं। वे ही
पैर, जब
फिर घूमने को
जाते हैं तो
पर लग जाते
हैं, हलके
हो जाते हैं।
वही आदमी जब
काम करने जाता
है तो उसके
सिर पर मनों
बोझ होता है; और उसी
रास्ते पर, उन्हीं
कदमों से, उतनी
ही दूरी पूरी
करता
है--सिर्फ
घूमने के लिए--तब
कोई हिसाब
नहीं उसके
आनंद का, कोई
बोझ नहीं होता
है।
कृष्ण
जैसे व्यक्ति
किसी काम के
लिए नहीं जीते।
उनकी जिंदगी
घूमने जैसी है, कहीं जाने
जैसी नहीं।
उनकी जिंदगी
एक खेल है।
निश्चित ही
जिस रास्ते वे
गुजरते हैं, उस रास्ते
पर अगर कांटे
पड़े हों, तो
उसे हटा देते
हैं। यह
बिलकुल दूसरी
बात है। यह भी
उनके आनंद का
हिस्सा है।
लेकिन कृष्ण उस
रास्ते से
कांटों को
हटाने के लिए
नहीं निकले
थे। निकले थे
और कांटे पड़े
थे तो वे हटा
दिए हैं। और
उस रास्ते पर
अगर कोई आदमी
यह न सोचे कि
वह कोई
"ट्रैफिक' के,
पुलिस के
आदमी हैं कि
उसके लिए खड़े
थे वहां, रास्ता
बताने को। वह
वहां से निकले
थे, आपने
पूछा है, उन्होंने
बता दिया। यह
सब "नान-कॉज़ल'
है। इसके
कार्य-कारण की
कोई शृंखला
नहीं है।
इसलिए मैं
कृष्ण को या
बुद्ध को, या
क्राइस्ट को,
या महावीर
को हमारी
शृंखला में
सोचने के लिए
तैयार नहीं
हूं। वे घटित
होते हैं
अकारण। या कहें
कि उनके कारण
उनके आंतरिक
हैं, हमारे
सामाजिक और
बाह्य कारण
नहीं हैं।
व्यक्ति
की आत्मा और
व्यक्ति की
चेतना का अर्थ
ही यही है कि
व्यक्ति की
चेतना भीतर
परम स्वतंत्र
है। उसे कोई बांधता
नहीं। उसे कोई
बांध नहीं
सकता।
एक
बहुत बड़े
ज्योतिषी के
संबंध में
मैंने सुना है
कि उसके गांव
के लोग उस
ज्योतिषी से
बहुत परेशान
हो गए थे। वह
जो भी कहता था, वह ठीक निकल
जाता था। तब
उस गांव के दो
युवकों ने
सोचा कि कभी
तो एक बार इस
ज्योतिषी को
गलत करना
जरूरी है।
सर्दी के दिन
थे, वे
अपने बड़े "ओवर
कोट' के
भीतर एक कबूतर
को छिपाकर उस
ज्योतिषी के
पास पहुंचे और
उस ज्योतिषी
से उन्होंने
कहा कि इस कोट
के भीतर हमने
एक कबूतर छिपा
रखा है, हम
आपसे पूछने आए
हैं कि वह
जिंदा है या
मरा हुआ है? वे यह तय
करके आए थे कि
अगर वह कहे
जिंदा है, तो
भीतर उसकी
गर्दन मरोड़
देनी है। मरा
हुआ कबूतर
बाहर निकालना
है। अगर वह
कहे मरा हुआ
है, तो
कबूतर को
जिंदा ही बाहर
निकाल दें। एक
दफा तो मौका
होना ही चाहिए
कि ज्योतिषी
गलत हो जाए।
उस बूढ़े
ज्योतिषी ने
नीचे से ऊपर
देखा, और
उसने जो
वक्तव्य दिया
वह बहुत अदभुत
था। उसने कहा,
"इट इज
इन योर
हैंड'।
उसने कहा, न
कबूतर जिंदा
है, न मरा
है, तुम्हारे
हाथ में है।
तुम्हारी
जैसी मर्जी। उन
युवकों ने कहा,
बड़ा धोखा दे
दिया आपने!
जिंदगी
हमारे हाथों
में है। और
कृष्ण जैसे लोगों
के तो बिलकुल
हाथों में है।
वे जैसे जीना चाहते
हैं, वैसा ही
जीते हैं। न
कोई समाज, न
कोई
परिस्थिति, न कोई बाहरी
दबाव उसमें
कोई फर्क ला
पाता है। उनका
होना अपना
होना है।
निश्चित ही
कुछ फर्क हमें
दिखाई पड़ते
हैं, वे
दिखाई
पड़ेंगे।
क्योंकि
हमारे बीच
जीते हैं, बहुत-सी
घटनाएं घटती
हैं, जो
हमारे बीच
घटती हैं जो
कि नहीं घटी
होतीं अगर
किसी और समय
में वे होते।
लेकिन वे गौण
हैं, "इर्रेलेवेंट'
हैं, असंगत
हैं, उनसे
कृष्ण के
आंतरिक जीवन
को कोई
लेना-देना नहीं
है।
इसलिए
कृपा करके, कृष्ण किसी
समाज के लिए
पैदा नहीं
होते, न
किसी
राजनैतिक
स्थिति के लिए
पैदा होते हैं।
न किसी के
बचाने के लिए
पैदा होते
हैं। हां, बहुत
लोग बच जाते
हैं, यह
बिलकुल दूसरी
बात है। बहुत
लोगों को
रास्ता मिल
जाता है, यह
बिलकुल दूसरी
बात है। कृष्ण
तो अपने आनंद
में खिलते हैं;
और यह खिलना
वैसे ही अकारण
है जैसे आकाश
में बादलों का
चलना, जमीन
पर फूलों का
खिलना, हवाओं
का बहना। यह
उतना ही अकारण
है। लेकिन हम
इतने अकारण
नहीं हैं, इसलिए
कठिनाई होती
है समझने में।
हम तो कारण से
जीते हैं। हम
तो किसी को
प्रेम भी करते
हैं तो भी
कारण से करते
हैं। प्रेम भी
हम कारण से
कहते हैं, प्रेम
का फूल भी
अकारण नहीं
खिल पाता। हम
बिना कारण के
तो कुछ भी कर
ही नहीं सकते।
और ध्यान रहे,
जब तक आपकी
जिंदगी में
बिना कारण के
किसी करने का
जन्म न हो, तब
तक आपकी
जिंदगी में
धर्म का भी
जन्म नहीं
होगा। जिस दिन
आपकी जिंदगी
में कुछ अकारण
भी होने लगे, कि आप बिना
कारण करते हैं,
"अनकंडीशनल',
कोई वजह
नहीं थी करने
की, करने
का आनंद ही
एकमात्र वजह
थी।
"आपने
कहा कि कृष्ण
का जन्म अकारण
है। लेकिन गीता
में कृष्ण ही
कहते हैं कि
जब-जब धर्म की
हानि होती है,
तबत्तब मुझे आना
पड़ता है।
कृपया इसे
स्पष्ट करें।'
हां, कृष्ण कहते
हैं कि जब-जब
धर्म की हानि
होती है, तबत्तब
मुझे आना पड़ता
है।
इसका
क्या मतलब
होगा फिर?
यह वही
व्यक्ति कह
सकता है, जो
परम स्वतंत्र
हो। आप तो
नहीं कह सकते
कि जब-जब ऐसा
होगा, मैं आऊंगा। आप
यह भी नहीं कह
सकते कि अगर
ऐसा नहीं होगा
तो मैं नहीं आऊंगा।
हमारा आना
बंधा हुआ आना
है। लंबे
कर्मों का बंधन
है हमारा, "कॉज़ल चेन' है।
हम ऐसा वायदा
नहीं कर सकते;
हम ऐसी
"प्रॉमिस' नहीं
दे सकते। हम
हिम्मत भी
नहीं कर सकते
ऐसा वायदा
करने की।
कृष्ण यह भी
हिम्मत कर रहे
हैं। इस
हिम्मत का भी
कारण वही है
कि वे किसी
कारण से नहीं
जीते हैं बंधकर,
उनकी मौज है,
इस मौज से
कुछ भी निकल
सकता है। यह
वायदा स्वतंत्र
चेतना से ही
संभव है। अगर
कृष्ण कहते
हैं मैं आ जाऊंगा
ऐसी स्थिति
अगर हुई, तो
स्थिति के
कारण नहीं
कृष्ण आ
जाएंगे, अपनी
स्वतंत्रता
के कारण आ
जाएंगे।
स्थिति के
कारण नहीं। कृष्ण
यह नहीं कहते
हैं कि अगर
ऐसी स्थिति
हुई, तो
मजबूरी है।
ऐसा नहीं है।
यह "प्रॉमिस' है, यह
वचन है। आ जाऊंगा,
ऐसी स्थिति
हुई। लेकिन यह
वचन कौन दे
सकता है?
एक
बहुत अदभुत
घटना महाभारत
में है। सुबह
है एक दिन, भीम और
युधिष्ठिर
अपने घर के
बाहर बैठे हैं,
और एक
भिखारी भीख
मांगने आ गया,
और
युधिष्ठिर ने
उससे कहा कि
तुम कल आ
जाना। अभी
थोड़ा काम में
हूं, अच्छा
हो कि कल आ
जाओ।
भिखारी
चला गया। भीम
बैठकर यह
सुनता था।
उसने पास में
पड़ा हुआ ढोल
उठा लिया और
बजाता हुआ और गांव
की तरफ भागा।
युधिष्ठिर ने
कहा, यह क्या
कर रहे हो? तो
उसने कहा, समय
न चूक जाए मैं
गांव में खबर
कर दूं कि
मेरे भाई ने
कल के लिए वचन
दिया है, मेरा
भाई समय का
मालिक हो गया।
मुझे पता नहीं
था कि तुम समय
के मालिक हो
गए हो। तुम कल
बचोगे, पक्का
है? कल यह
भिखारी बचेगा,
पक्का है? कल तुम
दोनों मिल
सकोगे, यह
पक्का है? तुमने
समय को जीत
लिया, मैं
जाऊं गांव में
खबर कर दूं।
क्योंकि मुझे
कुछ भरोसा
नहीं कि अगर
घड़ी-दो घड़ी
चूका तो मैं बचूंगा
कि नहीं।
इसलिए मैं ढोल
लेकर दौड़ता
हूं।
युधिष्ठिर ने
कहा ठहरो, मुझसे
भूल हो गई। यह
वचन तो केवल
वे ही दे सकते
हैं जो परम
स्वतंत्र हैं,
भिखारी को
वापिस बुला
लो। जो मुझे
देना है, आज
ही दे दूं, कल
का कोई भरोसा
नहीं है।
लेकिन
कृष्ण कल का
वायदा नहीं कर
रहे हैं, बड़ा
लंबा वायदा
है। वायदा यह
है कि जब भी, तब मैं आ जाऊंगा।
यह कोई कैदी
नहीं कर सकता
वायदा। एक कारागृह
में हम किसी
कैदी को डाल
दें, वह
वायदा नहीं कर
सकता। यह
वायदा तो परम
स्वतंत्रता
ही कर सकती है
कि मैं आ जाऊंगा।
कोई जंजीरें
नहीं हैं।
लेकिन ध्यान
रहे यह परिस्थितियों
के कारण नहीं
आना है, यह
स्वतंत्र
चेतना के कारण
यह वायदा है।
इस
फर्क को ठीक
से समझ लेना।
इस
वायदे में भी
कृष्ण की
सिर्फ इतनी ही
सूचना है कि
समय से, परिस्थितियों
से मेरा कोई
बंधन नहीं है।
मैं स्वतंत्र
हूं। यह
स्वतंत्रता
की ही घोषणा
है। लेकिन कई
बार घोषणाएं
बड़ी उलटी होती
हैं; तब हम
बड़ी कठिनाई
में पड़ जाते
हैं। हम सोचते
हैं, कृष्ण
को भी आना पड़ेगा।
जैसे पानी को
गर्म करते हैं
तो सौ डिग्री पर
उसे भाप बनना
पड़ता है। अगर
पानी किसी दिन
मुझसे कहे, मत घबड़ाओ,
अगर गर्मी
कम होगी तो
नब्बे डिग्री
पर भी भाप बन जाऊंगा, तो उस दिन
समझना कि पानी
स्वतंत्र हो
गया, अब
कोई सौ डिग्री
का बंधन न
रहा। ऐसे
आश्वासन परिपूर्ण
स्वतंत्रता
के बोध से
निकलते हैं।
जहां परतंत्रता
बिलकुल गिर गई
है, वहां
से ऐसे फूल
खिल जाते हैं
स्वतंत्रता
के, आश्वासन
के; अन्यथा
नहीं खिलते।
नहीं, कोई कृष्ण
जैसा व्यक्ति
आपके कारण
नहीं आता है, अपने कारण
आता है। हम सब
बंधे हुए चलते
हैं।
"भगवान
श्री, एक "कंडीशन' उन्होंने
रखी है--"परित्राणाय
साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्...'; उसका
क्या अर्थ है?'
"साधुओं
की रक्षा के
लिए और
दुष्टों के
अंत के लिए
मैं आऊंगा।'
ठीक है।
दोनों
का एक ही मतलब
है। दुष्टों
के अंत के लिए
का भी वही
मतलब है।
दुष्ट का अंत
कब होता है, यह थोड़ा
समझने जैसा
है।
दुष्ट
का अंत कब
होता है? मार
डालने से? मार
डालने से
दुष्ट का अंत
नहीं होता।
क्योंकि
कृष्ण
भलीभांति
जानते हैं कि
मारने से कुछ
मरता नहीं।
दुष्ट का अंत
तभी होता है
जब उसे साधु
बनाया जा सके,
और कोई उपाय
नहीं। मारने
से दुष्ट का
अंत नहीं
होता। इससे
सिर्फ दुष्ट
का शरीर बदल
जाएगा, और
कोई फर्क नहीं
पड़ने वाला।
दुष्ट का अंत
एक ही स्थिति
में होता है, जब वह साधु
हो जाए। और
बड़े मजे की
बात है कि दूसरी
बात उन्होंने
कही कि साधुओं
की रक्षा के
लिए। साधुओं
की रक्षा की
जरूरत तभी
पड़ती है जब वे
दिखावटी साधु
रह जाएं, अन्यथा
नहीं पड़ती। एक
साधु की रक्षा
की क्या जरूरत
होगी? साधु
को भी रक्षा
की जरूरत
पड़ेगी तो फिर
तो बहुत
मुश्किल हो
जाएगा।
साधुओं की
रक्षा के लिए आऊंगा, इसका
मतलब है, जिस
दिन साधु झूठे
साधु होंगे, असाधु होंगे,
उस दिन मैं आऊंगा।
सिर्फ असाधु
के लिए ही
रक्षा की
जरूरत पड़ सकती
है, जो
दिखाई पड़ता हो
साधु हो।
अन्यथा साधु
को क्या रक्षा
की जरूरत हो
सकती है? और
कृष्ण आएंगे
भी तो साधु
कहेंगे, आप
नाहक मेहनत न
करें, हम
अपनी
असुरक्षा में
भी सुरक्षित
हैं। साधु का
मतलब ही यह
होता, "सिक्योर इन हिज इनसिक्योरिटी'। अपनी असुरक्षा
में जो
सुरक्षित है,
उसी का नाम
साधु है। अपने
खतरे में भी
जो "एट ईज'
है, उसी
का नाम साधु
है। साधु का
मतलब ही यही
है कि जिसके
लिए अब कोई
असुरक्षा न
रही, जिसके
लिए कोई "इनसिक्योरिटी'
न रही।
कृष्ण को क्या
जरूरत होगी
उसको बचाने की?
यह वचन
बहुत मजेदार है, इसमें कृष्ण
यह कहते हैं
कि साधुओं को
बचाने आना
पड़ेगा। जिस
दिन साधु साधु
नहीं होगा, असाधु ही
साधु दिखाई
पड़ेंगे, उस
दिन बचाने आना
पड़ेगा और उसी
दिन दुष्टों
को भी बदलने
की जरूरत
पड़ेगी। नहीं
तो यह काम तो साधु
भी कर ले सकते
हैं, इसके
लिए कृष्ण की
क्या जरूरत है?
कृष्ण की
जरूरत उसी दिन
पड़ सकती है।
दुष्ट को मारने
का काम तो कोई
भी कर ले सकता
है। हम सभी करते
हैं, अदालतें
करती हैं, दंड
करता है, कानून
करता है, यह
सब दुष्टों को
मारने का काम
है; दुष्टों
को बदलने का
काम, "ट्रांसफार्मेशन'
का काम नहीं
है। दुष्ट
साधु बनाए जा
सकें। लेकिन
जिस दुनिया
में साधु भी
असाधु होगा, उस दुनिया
में दुष्ट की
क्या स्थिति
होगी?
लेकिन
इस वाक्य को
भी बड़ा अजीब
समझा गया है।
साधु समझते
हैं, हमारी
रक्षा के लिए
आएंगे। और
जिसको अभी
रक्षा की
जरूरत है, वह
साधु नहीं है।
और दुष्ट
समझते हैं कि
हमें मारने के
लिए आएंगे।
दुष्टों का
समझना ठीक है
क्योंकि
दुष्ट दूसरे
को मारने को
उत्सुक और
आतुर रहते हैं,
उनको एक ही
खयाल आ सकता
है कि हमें
मारने को। लेकिन
कोई मारा तो
जा नहीं सकता,
वह वापिस
लौटकर वही हो
जाता है। वह
नासमझी कृष्ण
नहीं कर सकते।
"दुष्टों
के विनाश के लिए'। दुष्ट का
विनाश ऐसा
होता है
साधुता से।
"साधुओं की
रक्षा के लिए'। साधुओं की
रक्षा की
जरूरत पड़ती है
जब साधु सिर्फ
"एपियरेंस',
दिखावा रह
जाता है। भीतर
उसकी कोई
आत्मा साधुता
की नहीं रह
जाती। यह वचन
बहुत अदभुत
है।
लेकिन साधुजन
बैठकर अपने
मठों में इस
पर विचार करते
रहते हैं कि
बड़ी अपने ऊपर
कृपा है! जब दिक्कत
आएगी तो जरूर
आएंगे।
दिक्कत, तो!
और साधु अपने
मन में इससे
भी तृप्ति
पाता है कि
जो-जो हमें
सता रहे हैं
वे दुष्ट हैं।
साधु की दुष्ट
की यही
परिभाषा होती
है, कि
जो-जो साधु को
सता रहा है, वह दुष्ट
है। जबकि साधु
की आंतरिक
व्यवस्था यह
है कि जो उसे सताए, वह
भी उसे मित्र
मालूम होना
चाहिए, दुष्ट
नहीं मालूम
होना चाहिए।
अगर सताने
वाला शत्रु
मालूम पड़ने
लगे, दुष्ट
मालूम पड़ने
लगे, तो यह
जो सताया गया
है साधु नहीं
है। साधु का तो
मतलब यह है कि
जिसे अब शत्रु
दिखाई नहीं
पड़ता। उसे
सताओ तो भी
दिखाई नहीं
पड़ता। तो साधु
बैठकर सोचते
रहते
हैं--अर्थात
असाधु बैठकर
सोचते रहते
हैं--कि हमारी
रक्षा के लिए,
और ये जो
दुष्ट हमें
सता रहे हैं
इनके नाश के लिए
वे आएंगे।
इसलिए गीता के
इस वचन का बड़ा
पाठ चलता है।
इस वचन पर बड़े
मन से, भाव
से लोग लगे रहते
हैं।
लेकिन
उन्हें पता
नहीं कि यह
वचन साधुओं के
लिए बड़ी मजाक
है। इस वचन
में बड़ा
व्यंग्य है।
व्यंग्य गहरा
है और ऊपर से
एकदम दिखाई
नहीं पड़ता है।
कृष्ण जैसे
लोग जब मजाक
करते हैं तो
गहरी ही करते
हैं! कोई
साधारण मजाक
नहीं करेंगे, सदियां लग
जाती हैं मजाक
को समझने में।
कहावत है कि
अगर कोई मजाक
कही जाए तो सुनने
वाले लोग तीन
किश्तों में
हंसते हैं। पहले
तो वे लोग
हंसते हैं जो
उसी वक्त समझ
जाते हैं, दूसरे
लोग इन हंसते
हुए लोगों को
देखकर हंसते हैं
कि कुछ मामला
हो गया। तीसरे
लोग कुछ भी नहीं
समझते। वे
सिर्फ यह
सोचकर कि कहीं
हम नासमझ न
समझे जाएं, सब हंस रहे
हैं तो हमें
हंस देना
चाहिए। मजाक को
समझने में भी
वक्त लग जाता
है। और कृष्ण
जैसे लोग जब
मजाक करते हैं
तब तो बहुत
वक्त लग जाता
है। अब इस वचन
में बड़ा
व्यंग्य है, बड़ी मजाक
है। गहरी मजाक
है साधु के
ऊपर। और वह मजाक
यह है कि एक
वक्त आएगा कि
साधु को भी
रक्षा की
जरूरत पड़ेगी।
"भगवान
श्री, पुराण-कथाओं
के आधार पर
पता चलता है
कि कृष्ण ही
राम का रूप
लेकर आते हैं
और राम ही
कृष्ण का रूप
लेकर आते हैं।
ये दोनों
व्यक्ति क्या
एक ही हैं? इस
संबंध में आप
प्रकाश
डालें।'
इस
संबंध को दोत्तीन
बातें समझने
से समझा जा
सकता है।
जगत की
सृजन की जो
प्रक्रिया है, उस
प्रक्रिया
में सदा से ही
जिन्होंने
खोज की है
उन्होंने
पाया कि वह
प्रक्रिया
तीन चीजों पर
निर्भर है। वह
"थ्री फोल्ड' है। अभी
विज्ञान ने भी
जब खोज किया
अणु की, तो
उसने पाया कि
अणु भी गहरे
में तोड़ने पर
तीन चीजों में
टूट जाता है।
वह जो अंतिम
हमारी
उपलब्धि है
विज्ञान की, वह भी कहती
है, "इलेक्ट्रॉन',
"प्रोटॉन',
और
न्यूट्रॉन' में अणु टूट
जाता है। जिन
लोगों ने धर्म
के जगत में
बड़ी गहरी
अंतर्दृष्टि
पाई थी, उन्होंने
भी जगत को तीन
हिस्सों में तोड़कर
देखा था।
विष्णु
उन्हीं तीन के
एक हिस्से
हैं।
ब्रह्मा, विष्णु, महेश,
ये तीन शब्द
धर्म के
द्वारा जगत की
सृजन-प्रक्रिया
के तीन
हिस्सों के
नाम हैं। और
इन तीनों के
तीन अर्थ हैं।
इसमें
ब्रह्मा
जन्मदाता, स्रष्टा,
बनानेवाला,
"क्रिएटिव
फोर्स' है।
इसमें शंकर, शिव--महेश--विध्वंस,
प्रलय, विनाश,
अंत की
शक्ति है।
विष्णु इन
दोनों के बीच
में है--संस्थापक,
चलानेवाला। मृत्यु है,
जन्म है और
बीच में फैला
हुआ जीवन है।
जिसकी शुरुआत
हुई है, उसका
अंत होगा। और
शुरुआत और अंत
के बीच में फैला
हुआ जीवन है।
जिसकी शुरुआत
शिव के बीच की
यात्रा हैं।
ब्रह्मा की एक
दफे जरूरत
पड़ेगी सृजन के
क्षण में। और
शिव की एक बार
जरूरत पड़ेगी
विध्वंस के
क्षण में। और
विष्णु की
जरूरत दोनों
बिंदुओं के
मध्य में।
सृजन और
विध्वंस, और
दोनों के बीच
में जीवन।
जन्म और
मृत्यु, और
दोनों के बीच
जीवन।
ये तीन
जो नाम हैं, ब्रह्मा, विष्णु, महेश
के, ये
व्यक्तियों
के नाम नहीं
हैं। ये कोई
व्यक्ति नहीं
हैं, ये
सिर्फ
शक्तियों के
नाम हैं। और
जैसा मैंने कहा,
सृजन की तो
एक दिन जरूरत
पड़ती है, फिर
विध्वंस की एक
दिन जरूरत
पड़ती है, लेकिन
बीच में जीवन
की जो जरूरत
है, वह
जीवन की जो ऊर्जा
है, "लाइफ
एनर्जी', या
जिसको बर्गसन
ने "एलान
वाइटल' कहा
है, वही
विष्णु है।
इसलिए इस देश
के सभी अवतार
विष्णु के
अवतार हैं।
असल में सभी
अवतार विष्णु
के ही होंगे।
आप भी अवतार
विष्णु के ही
हैं। अवतरण ही
विष्णु का
होगा। जीवन का
नाम विष्णु है।
ऐसा न समझ
लेना कि जो
व्यक्ति राम
था, वही
व्यक्ति
कृष्ण है।
नहीं, जो
ऊर्जा, जो
"एनर्जी', जो
"एलान वाइटल' राम में
प्रगट हुआ था,
वही कृष्ण
में प्रगट
है--और वही आप
में भी प्रगट
हो रहा है। और
ऐसा नहीं है
कि जो राम में
प्रगट हुआ था
वही रावण में
प्रगट नहीं हो
रहा है। हो तो
वही प्रगट हो
रहा है। वह
जरा भटके हुए
विष्णु हैं, और कोई बात
नहीं है। वह
जरा रास्ते से
उतर गई जीवन-ऊर्जा
है, और कोई
बात नहीं है।
समस्त
जीवन का नाम
विष्णु है।
समस्त अवतरण
विष्णु का है।
लेकिन भूल
होती रही है, क्योंकि हम
विष्णु को ही
व्यक्ति बना
लिए। राम एक
व्यक्ति नहीं
हैं। कृष्ण एक
व्यक्ति हैं,
विष्णु
व्यक्ति नहीं
हैं। विष्णु
केवल शक्ति का
नाम है।
लेकिन
पुरानी सारी अंतर्दृष्टियां
काव्य में
प्रगट हुईं।
इसलिए
स्वभावतः
काव्य
प्रत्येक
शक्ति को व्यक्तिवाची
बना लेता है।
बनाएगा ही
अन्यथा बात
नहीं हो सकती, और उससे बड़ी पहेलियां
पैदा हो जाती
हैं।
मैंने
सुना है, एक
आदमी मर रहा
है। वह मरणशैया
पर पड़ा है। वह
ईसाई है और
चर्च का पादरी
उसे आखिरी
प्रायश्चित्त
कराने आया है,
"रिपेंटेंस'
कराने आया
है।
नियमानुसार
उस मरते हुए
आदमी से उस
पुरोहित ने
पूछा, "डू
यू बिलीव
इन गॉड दि
फादर?' वह आदमी
चुप रहा। फिर
दुबारा उससे
पूछा कि "डू यू
बिलीव इन
गॉड दि सन?' वह
आदमी फिर भी
चुप रहा। फिर
उस पुरोहित ने
पूछा कि "एंड
डू यू बिलीव
इन गॉड दि
होली घोस्ट?' ये ईसाइयों
के तीन नाम
हैं। गॉड, सन,
होली
घोस्ट।
परमात्मा, पुत्र
और पवित्र
आत्मा। ये
उनके तीन नाम
हैं। तो उसने
पूछा कि क्या
तुम पितारूपी
परमात्मा में
विश्वास करते
हो? क्या
तुम पुत्ररूपी
परमात्मा में
विश्वास करते
हो? क्या
तुम पवित्र आत्मारूपी
परमात्मा में
विश्वास करते
हो? उस
मरते हुए आदमी
ने अपने आसपास
खड़े हुए लोगों
से कहा, "लुक,
हियर आय एक
डाइंग एंड दिस
फेलो इज
आस्किंग
मी पजॅल्स!'
इधर तो मैं
मर रहा हूं, और यह सज्जन पहेलियां
पूछ रहे हैं!
स्वभावतः, उस
मरते हुए आदमी
को ये पहेलियां
थीं। मरते हुए
आदमी को ही पहेलियां
नहीं हैं, हम
जीवित
आदमियों को भी
बड़ी-से-बड़ी
पहेली जीवन की
पहेली है।
क्या
है यह जीवन? कैसे जन्मता,
कैसे चलता,
कैसे
समाप्त होता?
क्या है
इसकी ऊर्जा? जो इसे
फैलाती, चलाती,
सिकोड़ती,
विदा करवा
देती।
विज्ञान
वैज्ञानिक
ढंग के नाम
देता है। वह
कहता है, "इलेक्ट्रॉन'
हैं, "प्रोटॉन' हैं, "न्यूट्रॉन'
हैं। ये तीन
भी बड़े मजे के
शब्द हैं।
इनमें एक
विधायक शक्ति
का नाम है, "प्रोट्रॉन'। "पॉजिटिव
इलेक्ट्रॉन',
विधायक
विद्युत।
कहना चाहिए
ब्रह्मा।
दूसरा शब्द है,
"इलेक्ट्रॉन'। वह
"निगेटिव इलेक्ट्रिसिटी',
निषेधात्मक
विद्युत।
कहना चाहिए, शिव, शंकर।
और तीसरा है
"न्यूट्रॉन' जो दोनों के
बीच डोलता और
जोड़ता है।
कहना चाहिए, विष्णु। वह
सिर्फ भाषा एक
विज्ञान की है,
एक धर्म की
है, उससे
ज्यादा फर्क
नहीं है। सारा
जीवन विष्णु का
अवतरण है। फूल
खिलते हैं तो
विष्णु खिलते
हैं, हवाएं बहती हैं तो
विष्णु बहते
हैं। नदियां
दौड़ती हैं तो
विष्णु दौड़ते
हैं। वृक्ष
बड़े होते हैं
तो विष्णु बड़े
होते हैं।
आदमी जन्मता
है, बढ़ता
है, जीता
है, तो
विष्णु। सब
घड़ियां
मृत्यु की
शंकर की हैं। जब
आदमी मरता है,
तब विष्णु
"चार्ज' सौंप
देते हैं, तत्काल।
वह शंकर के
हाथ में चला
जाता है मामला।
इसीलिए तो
शंकर को कोई
अपनी लड़की
देने को राजी
नहीं होता था।
मृत्यु के
हाथों में कौन
लड़की को दे!
विध्वंस के
हाथों में कौन
स्त्री को दे,
जो कि मूलतः
सृजन की धारा
है।
विष्णु
के अवतार का
मतलब यह नहीं
है कि विष्णु
नाम के
व्यक्ति राम
में हुए, फिर
कृष्ण में हुए,
फिर किसी और
में हुए। नहीं,
विष्णु नाम
की ऊर्जा राम
में उतरी, कृष्ण
में उतरी, सब
में उतरती है,
उतरती
रहेगी। शंकर
नाम की ऊर्जा
है, उसे
विदा देती
रहेगी। इस तरह
समझेंगे तो
बात सीधी और
साफ समझ में आ
सकती है। फिर
पहेली नहीं रह
जाती, फिर
पहेली नहीं
है।
जीवन
में कोई भी
चीज निर्माण
करनी हो तो जो
न्यूनतम संख्या
है, वह तीन
है। इससे
न्यून संख्या
से काम नहीं
चलेगा। दो से
काम नहीं
चलेगा। एक से
तो चल ही नहीं सकता।
एक तो बिलकुल
एकरूप हो
जाएगा सब। एक
रंग, एकरस
हो जाएगा। सब वैविध्य
खो जाएगा। दो
भी काफी नहीं
है क्योंकि दो
को जोड़ने
के लिए सदा
तीसरे की
जरूरत पड़ेगी।
अन्यथा वे अजुड़े
रह जाएंगे, अनजुड़े रह जाएंगे, अलग-अलग रह
जाएंगे।
न्यूनतम जो
संभावना है जगत
की, विकास
की, वह तीन
से शुरू होती
है। तीन से
ज्यादा हो सकता
है, तीन से
कम करना
मुश्किल
पड़ेगा। लेकिन
वे तीन भी एक
की ही शक्लें
हैं। इसलिए
हमने
त्रिमूर्ति
बनाई। इसलिए
हमने इन
देवताओं को
अलग-अलग नहीं
रखा। क्योंकि
अलग-अलग रखने
से भूल हो
जाती है।
क्योंकि अगर
ये तीन देवता
अलग हों, तो
फिर इनको जोड़ने
की जरूरत पड़
जाएगी, और
यह अंतहीन, "इनफिनिट रिग्रेस'
हो जाएगी।
इसमें कोई
हिसाब लगाना
मुश्किल हो जाएगा
कि कहां रुकें।
इसलिए ये तीन
चेहरे एक ही
ऊर्जा के, एक
ही "एलान
वाइटल' के,
एक ही
जीवन-शक्ति के
तीन चेहरे
हैं। वही जन्म
लेता, वही
चलाता, वही
विदा करता है।
लेकिन, "ऑफिशियली'
तीन
हिस्सों में
हम बांटते
हैं। वे तीन
हिस्से जो हैं,
"ऑफिशियल डिवीजन' हैं।
वह सिर्फ काम
का बंटवारा है,
"डिवीजन आफ
लेबर' है।
जीवन-ऊर्जा
तीन हिस्सों
में बंटकर
सारे जगत का
विस्तार करती
है।
"श्रीकृष्ण
की लीलाएं
अनुकरणीय हैं
या चिंतनीय? जो
अनुकरण करने
जाएगा, वह
पतित नहीं
होगा?'
डरे
हुए आदमियों
को कृष्ण से
जरा दूर रहना
चाहिए!...(सब तरफ
हास्य)...ठीक
सवाल पूछते
हैं।
अनुकरणीय
कृष्ण तो क्या, कोई भी नहीं
है। और ऐसा
नहीं है कि
कृष्ण का अनुकरण
करने जाएगा, तो पतित
होगा। किसी का
भी अनुकरण
करने जाएगा तो
पतित होगा।
अनुकरण ही पतन
है। कृष्ण के
संबंध में
लेकिन हम
विशेष रूप से
पूछते हैं।
महावीर के
संबंध में
नहीं पूछेंगे
ऐसा, बुद्ध
के संबंध में
नहीं पूछेंगे,
राम के
संबंध में
नहीं पूछेंगे
ऐसा। कोई नहीं
कह सकेगा कि
राम का अनुकरण
करने जाएंगे
तो पतन हो
जाएगा। अकेले
कृष्ण पर यह
सवाल क्यों
उठता है? राम
का तो हम अपने
बच्चों को समझाएंगे
कि अनुकरण
करो। कृष्ण के
मामले में
कहेंगे, जरा
सावधानी से
चलना। इसीलिए
तो, हमारा
डरा हुआ मन!
लेकिन
मैं आपसे कहता
हूं, अनुकरण
ही पतन है, किसी
का भी अनुकरण
पतन है।
अनुकरण किया
कि आप गए, आप
खो गए। न तो
कृष्ण
अनुकरणीय हैं,
न कोई और।
वे सब चिंतनीय
हैं, सब
विचार करने
योग्य हैं।
बुद्ध भी, महावीर
भी, क्राइस्ट
भी, कृष्ण
भी। और मजे की
बात यह है कि
बुद्ध पर
विचार करने
में इतनी
कठिनाई न
होगी। और न
क्राइस्ट पर
विचार करने
में इतनी
कठिनाई होगी।
असली कठिनाई
कृष्ण पर ही
विचार करने
में पैदा
होगी।
क्योंकि महावीर,
बुद्ध या
क्राइस्ट का
जीवन विचार की
पद्धतियों
में समाया जा
सकता है। उनके
जीवन का ढंग
मर्यादा है।
उनके जीवन का
ढंग सीमा है।
कृष्ण का जीवन
विचार में
पूरा समा नहीं
सकता। उनके
जीवन का ढंग
अमर्याद है, असीम है, उसको
कहीं सीमा
नहीं है।
हमारी तो सीमा
आ जाएगी, और
वह हमसे
कहेंगे, और
आगे; वह
हमसे कहेंगे,
और आगे।
हमारी तो जगह
आ जाएगी जहां
से आगे जाने
में खतरा है, वह कहेंगे, और आगे।
लेकिन
कृष्ण ही
चिंतनीय बन
जाते हैं
इसलिए और भी
ज्यादा।
क्योंकि मेरी
दृष्टि में
वही चिंतनीय
है जो अंततः
चिंतन के पार
ले जाए। चिंतन
अंतिम बात
नहीं है, चिंतन
प्राथमिक चरण
है। एक क्षण
आना चाहिए जब चिंतन
के ऊपर भी उठा
जा सके। लेकिन
चिंतन के ऊपर
वही उठ आएगा
जो चिंतन को
डगमगा दे। और
चिंतन के ऊपर
वही उठ आएगा
जो चिंतन को
घबड़ा दे। और
चिंतन के ऊपर
वही उठ आएगा
जो चिंतन में
न समाए और
चिंतन के बाहर
चला जाए।
सभी
चिंतनीय हैं।
सभी सोचने
योग्य हैं।
अनुकरणीय तो
सिर्फ आप ही
हैं अपने लिए, और कोई
नहीं। अपना
अनुकरण करें,
समझें सबको;
अपने पीछे
जाएंगे, किसी
के पीछे न
जाएं। समझें
सबको, जाएं
पीछे अपने।
लेकिन
भय क्या है? कृष्ण के
साथ सवाल
क्यों उठता है?
भय है। और
भय यही है कि
हमने अपनी
जिंदगी को दमन
की, "सप्रेशन'
की जिंदगी
बना रखा है।
हमारी जिंदगी
जिंदगी कम, दबाव ज्यादा
है। हमारी
जिंदगी
खालीपन नहीं है,
"फ्लावरिंग'
नहीं है, कुंठा है।
इसलिए डर लगता
है कि अगर
कृष्ण को हमने
सोचा भी, तो
कहीं ऐसा न हो
कि जो हमने
अपने में
दबाया है, वह
कहीं फूटकर
बहने लगे।
कहीं ऐसा न हो
कि जो हमने
अपने में रोका
है, उसके रोकने
के लिए जो
हमने तर्क दिए
हैं, वे
टूट जाएं और
गिर जाएं।
कहीं ऐसा न हो
कि हमने अपने
भीतर ही अपनी
बहुत-सी
वृत्तियों को
जो कारागृह
में डाला है, वे बाहर
निकल आएं, और
वे कहें कि
हमें बाहर आने
दो। डर भीतर
है। घबराहट
भीतर है।
लेकिन इसके
लिए कृष्ण
जिम्मेदार नहीं
हैं। इसके लिए
हम जिम्मेदार
हैं। हमने अपने
साथ यह दर्ुव्यवहार
किया है। हमने
अपने साथ ही
यह अनाचार
किया है। हमने
अपने पूरे
व्यक्तित्व
को कभी न जाना,
न स्वीकार,
न जिआ। हमने
उसमें बहुत
कुछ दबाया है।
और थोड़ा-बहुत
जीने की कोशिश
की है।
हम ऐसे
लोग हैं, जैसे
कि सभी लोग
होते हैं
साधारणतः, अगर
किसी के घर
में जाएं तो
वह अपने बैठकखाने
को
साज-संवारकर,
ठीक करके रख
देता है। यह
ड्राइंग रूम
की दुनिया अलग
है। लेकिन
किसी के
ड्राइंग रूम
को देखकर यह
मत समझ लेना
कि यह उसका घर
है। यह उसका
घर है ही
नहीं। न वह
वहां खाना
खाता, न वह
वहां सोता, यहां वह
सिर्फ
मेहमानों का
स्वागत करता
है। यह सिर्फ
चेहरा है
जिसको वह
दूसरों को
दिखाता है।
ड्राइंग रूम
घर का हिस्सा
नहीं है।
ड्राइंग रूम
घर से अलग बात
है। इसलिए
किसी का
ड्राइंग रूम
देखकर उसके घर
का खयाल मत
करना। उसका घर
तो वहां है, जहां वह
सोता है, लड़ता
है, झगड़ता है, खाता
है, पीता
है, वहां
उसका घर है।
ड्राइंग रूम
किसी का भी घर
नहीं है।
ड्राइंग रूम
चेहरा है, "मास्क'
है, जो
हम दूसरों को
दिखाने के लिए
बनाए हुए हैं।
इसलिए
ड्राइंग रूम
जिंदगी की बात
नहीं है। ऐसे
ही हमने
जिंदगी के साथ
भी किया है। जिंदगी
में हमने
ड्राइंग रूम
बनाए हैं, हमने
चेहरे बनाए
हैं, जो
दूसरों को
दिखाने के लिए
हैं। वह हमारी
असलियतें
नहीं हैं, हमारा
असली घर भीतर
है--अंधेरे
में डूबा हुआ,
अचेतन में
दबा हुआ। उसका
हमें कोई पता
भी नहीं है।
हमने भी उसका
पता लेना छोड़
दिया है। हम
खुद भी डर गए
हैं। यानी हम
ऐसे आदमी हैं
जो खुद भी अपने
घर से डर गया
है और वह
ड्राइंग रूम
में ही रहने
लगा है। और
खुद भी भीतर
जाने में
घबराता है। तो
जिंदगी उथली
हो ही जाएगी।
इससे
कृष्ण से डर
लगता है, क्योंकि
कृष्ण पूरे घर
में रहते हैं।
और उन्होंने
पूरे घर को
बैठकखाना बना
दिया है, और
वह हर कोने से
अतिथि का
स्वागत करते
हैं। जहां से
भी आओ, वह
कहते हैं, चलो
यहीं बैठो।
उनके पास
बैठकखाना अलग
नहीं है। उनकी
पूरी जिंदगी
खुली हुई है।
उसमें जो है, वह है। उसका
कोई इनकार
नहीं, उसका
कोई विरोध
नहीं। उसको
उन्होंने
स्वीकार किया
है। हम डरेंगे,
हम हैं "सप्रेसिव',
हम हैं
दमनकारी।
हमने अपनी
जिंदगी के निन्नयानबे
प्रतिशत
हिस्से को तो
अंधेरे में
ढकेल दिया है।
और एक प्रतिशत
को जी रहे
हैं। वह निन्नयानबे
प्रतिशत पूरे
वक्त धक्के
मार रहा है कि
मुझे मौका दो
जीने का। वह
लड़ रहा है, वह
संघर्ष कर रहा
है, सपनों
में टूट रहा
है। जागने में
भी टूट पड़ता है।
रोज-रोज टूटता
है, हम फिर
उसे धक्का
देकर पीछे कर
आते हैं।
जिंदगी भर इसी
संघर्ष में
बीत जाती है, उसको धकाते
हैं, पीछे
करते हैं।
अपने से ही
लड़ने में आदमी
हार जाता है
और समाप्त हो
जाता है। इससे
डर है कि अगर कृष्ण
को समझा--यह
बिना बैठकखाने
का आदमी, यह
बिना चेहरे का
आदमी, इसकी
पूरी जिंदगी
एक जैसी है, सब तरफ से
द्वार खोल रखे
हैं इसने, कहीं
से भी आओ
स्वागत है, कुछ दबाया
नहीं, अंधेरे
को भी स्वीकार
करता है, उजाले
को भी स्वीकार
करता है, कहीं
इसे देखकर
हमारी आत्मा
बगावत न कर दे
हमारे दमन से।
कहीं हम ही
अपने खिलाफ
बगावत न कर
दें। वह जो
हमने इंतजाम
किया है कहीं
टूट न जाए, इसलिए
डर है।
लेकिन
यह डर भी
विचारना।
यह डर
कृष्ण के कारण
नहीं है, यह
हम जिस ढंग से
जी रहे हैं
उसके कारण है।
अगर सीधा-साफ
आदमी है और
जिंदगी को
सरलता से जीआ
है, वह
कृष्ण से नहीं
डरेगा। डरने
का कोई कारण
नहीं है।
जिंदगी में
अगर कुछ भी
नहीं दबाया है,
कृष्ण से
नहीं डरेगा।
डरने का कोई
कारण नहीं है।
हमारे डर को
भी हमें समझना
चाहिए कि हम
क्यों डर रहे
हैं? और
अगर हम डर रहे
हैं, तो यह
हमारी
रुग्ण-अवस्था
है, यह हम बीमार
हैं। यह हम
विक्षिप्त
हैं और हमें
इस स्थिति को
बदलने की
कोशिश करनी
चाहिए। इसलिए
कृष्ण तो बहुत
विचारणीय
हैं। लेकिन हम
कहेंगे कि हम
तो
अच्छी-अच्छी
बातों पर
विचार करते
हैं। क्योंकि
अच्छी-अच्छी
बातें हमें
अपने को दबाने
में सहयोगी
बनती हैं। हम
तो बुद्ध का वचन
पढ़ते हैं
जिसमें कहा है
कि क्रोध मत
करना। हम तो
जीसस का वचन
पढ़ते हैं
जिसमें कहा है,
शत्रु को भी
प्रेम करना।
हम कृष्ण से
तो डरते हैं।
यह डर! इस डर का
तीर किस तरफ
है? कृष्ण
की तरफ कि
अपनी तरफ?
और अगर
कृष्ण से डर
लगता है तब तो
बड़ा अच्छा है।
कृष्ण आपके
काम पड़ सकते
हैं। आपको
खोलने में, उघाड़ने में, आपको
नग्न करने में,
आपको
स्पष्ट-सीधा
करने में काम
पड़ सकते हैं।
उनका उपयोग कर
लें--उनको आने
दें, उनको विचारें, बचें मत, भागें
मत। उनके
आमने-सामने
खड़े हो जाएं। "एनकाउंटर'
होने दें।
यह मुठभेड़
अच्छी होगी।
इसमें अनुकरण
नहीं करना है
उनका। इसमें
समझना ही है
उनको। उनको
समझने में ही आप
अपने को समझने
में बड़े सफल
हो जाएंगे।
उनको
समझते-समझते
ही आप अपने को
भी समझ
पाएंगे। उनको
समझते-ही-समझते
हो सकता है आप
खुद अपने को समझने
में अदभुत
साक्षात्कार
को उपलब्ध हो
जाएं और जान
पाएं कि यह तो
मैं भी हूं, यही तो मैं
हूं।
एक
मित्र मेरे
पास आए, और
उन्होंने कहा,
कृष्ण की
सोलह हजार
स्त्रियां
थीं, क्या
आप इसमें
भरोसा करते
हैं? मैंने
कहा कि छोड़ो
इसे, मैं
तुमसे पूछता
हूं कि
तुम्हारे मन
में सोलह हजार
से कम
स्त्रियां
तृप्ति दे
सकती हैं? उन्होंने
कहा, क्या
कहते हैं आप? मैंने कहा, यह कृष्ण की
सोलह हजार
स्त्रियां
थीं या नहीं, सवाल बड़ा
नहीं है, कोई
पुरुष सोलह
हजार
स्त्रियों से
कम पर राजी नहीं
है। कृष्ण की
सोलह हजार
स्त्रियां
थीं अगर ऐसा
पक्का हो जाए
तो वह हमारे
भीतर का जो पुरुष
है वह घोषणा
करेगा, तो
फिर देर क्यों
कर रहे हो? उससे
हमें डर है।
वह भीतर बैठा
हुआ पुरुष
हमें डरा रहा
है। लेकिन
उससे डरकर, भागकर, बचकर
कुछ भी हो
नहीं सकता है।
उसका सामना
करना पड़ेगा, समझना
पड़ेगा।
इस
संबंध में और
भी बात कल कर
सकेंगे।
...वर्षा
आती है तो
ध्यान में
आनंद आएगा।
शुक्रिया जी
जवाब देंहटाएंएक इतना गहरा आदमी जिसने बुद्ध महावीर कृष्ण ओर शिव के जीवन को जिया हो आखिर वो आदमी अपना उतरा अधिकारी के लिए एक शिष्य नहीं निखार पाया । असल बात ये है कि ईश्वर के सुख को छोड़ शिष्य के ह्रदय में उतर कर उसे अपने सामान बनाना आसान नहीं
जवाब देंहटाएंहालांकि ये सब बातें कहीं तो जा सकती है किन्तु आविष्कार करना उतना ही रिस्की ।
THANK YOU GURUJI
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