दिनांक 8 मई 1976 ओशो आश्रम पूूूूना।
प्रश्न—सार:
1—आपके
प्रति
श्रद्धा रखने
और स्वयं में
श्रद्धा रखने
में क्या
विरोधाभास है?
2—बुद्ध को
क्या प्रेरित
करता है?
3—बच्चे
पैदा करने का
उचित समय कौन
सा है?
4—केवल
सेक्स, प्रेम
और रोमांस के
बारे में
सोचना क्या
गलत है?
पहला
प्रश्न—
आपके
प्रवचनों एक
प्रवचन में
कहीं गई एक
बात ने मुझे
गहराई तक
आंदोलित कर
दिया है। यह
बात है, ‘आपने
आप में
श्रद्धा करने
और आपमें
श्रद्धा रखने
में
विरोधाभास
में भीतर एक
भाग है जो
कहता है: यदि
मैं अपने स्वयं
के स्व में
श्रद्धा करता
हूं और अपने
स्वयं के स्व
का अनुसरण
करता हूं, तो
मैंने आपके समक्ष
समर्पण कर दिया
है और आपको हां
कह दिया है। लेकिन
मैं यह निश्चित
नहीं कर पा रहा
हूं कि क्या यह
सब बस कोई तर्क
द्वारा समझने का
प्रयास है जिसे
मैने अपने स्वयं
के लिए निर्मित
कर लिया है?’
मन
बहुत चालाक है, और
इस बात को
सदैव स्मरण
रखा जाना
चाहिए। यही तो
है जो मैं
तुमसे कहता
रहा हूं कि यदि
तुम अपने आप
पर भरोसा करो
तो तुम मुझ पर
श्रद्धा
करोगे। या
दूसरी ओर से
कहा जाए, यदि
तुम मुझ पर
श्रद्धा करते
हो तो
स्वभावत: तुम
स्वयं पर
श्रद्धा
करोगे। इस बात
मैं कोई
विरोधाभास
नहीं है। मन
के कारण
विरोधाभास उठ
खड़ा होता है।
यदि तुम अपने
आप में
श्रद्धा करते
हो तो तुम सभी
पर श्रद्धा
करते हो, क्यौंकि
तुम जीवन पर
श्रद्धा करते
हो। तुम उन पर
भी श्रद्धा
करते हो जो
तुम्हारे साथ
धोखा करेंगे,
किंतु यह
महत्वपूर्ण
नहीं है। यह
उनकी समस्या
है; यह
तुम्हारी
समस्या नहीं
है। वे तुमको
धोखा देते हैं
या वै तुमको
धोखा नहीं
देते, इसका
तुम्हारी
श्रद्धा से
कुछ भी लेना—देना
नहीं है। यदि
तुम कहते हो, मेरी
श्रद्धा केवल
इसी शर्त पर
रहती है कि
कोई मेरे साथ
धोखा करने का
प्रयास न करे,
तब
तुम्हारी
श्रद्धा नहीं
बनी रह सकती, क्योंकि
धोखे की
प्रत्येक
संभावना
तुम्हारे
भीतर एक
हिचकिचाहट को
उत्पन्न
करेगी—कौन
जाने यह
व्यक्ति मेरे
साथ धोखा करने
जा रहा हो? तुम
भविष्य को
कैसे देख सकते
हो? धोखा
भविष्य में
होगा, यदि
यह घटित होता
है, या ऐसा
नहीं होता है,
यह भी
भविष्य के
गर्भ में है—और
श्रद्धा को
अभी और यहीं
होना है।
और
कभी—कभी कोई
बहुत भला आदमी
भी तुम्हारे
साथ धोखा कर
सकता है। किसी
भी पल एक साधु
भी पापी बन
सकता है। और
कभी—कभी एक
बहुत बुरा
व्यक्ति बहुत
श्रद्धेय बन सकता
है। पापी भी आखिरकार
साधु बन जाते
हैं। लेकिन यह
बात भविष्य
में है। और
तुम अगर अपनी
श्रद्धा के
लिए शर्त रखते
हो तो तुम
श्रद्धा नहीं
कर सकते।
श्रद्धा
बेशर्त होती
है। यह बस
इतना कहना है, मेरे
पास वह गुण है
जो श्रद्धा
करता है। अब
यह असंगत है
कि मेरी
श्रद्धा के
साथ क्या होता
है—इसको
सम्मान मिलता
है या नहीं, इसे धोखा
मिलता है या
नहीं। यह बात
तो जरा भी
नहीं है।
श्रद्धा को
श्रद्धा के
पात्र से कुछ
भी लेना—देना
नहीं है, इसका
संबंध तो
तुम्हारी
भीतरी
गुणवत्ता से
हैं—क्या तुम
श्रद्धा कर
सकते हो? यदि
तुम श्रद्धा
कर सकते हो, तो निःसंदेह
पहली श्रद्धा
तुम पर घटित
होगी, तुम
अपने आप. पर
श्रद्धा करते
हो। पहली बात
तुम्हारे
अस्तित्व के
अंतर्तम केंद्र
पर घटित होनी
चाहिए। यदि
तुम स्वयं पर
श्रद्धा नहीं
करते हो तो
सभी कुछ बहुत
दूर है। फिर
तो मैं तुमसे
बहुत दूर हूं।
तुम मुझ पर
श्रद्धा कैसे
कर सकते हो न:
तुमने अपने आप
पर श्रद्धा
नहीं की है जो
इतना निकट है।
और तुम मेरे
ऊपर श्रद्धा
कैसे कर सकते
हो यदि तुम
अपने आप पर
श्रद्धा नहीं
करते? यदि
तुम अपने आप
पर श्रद्धा नहीं
करते, तो
चाहे तुम जो
कुछ भी करो, एक गहरी
अश्रद्धा, एक
अंतरधारा की
भांति जारी
रहेगी। यदि
तुम अपने आप
पर श्रद्धा
करते हो, तो
तुम पूरे जीवन
पर श्रद्धा
करते हों—केवल
मुझमें नहीं,
क्योंकि
केवल मैं ही
क्यों? श्रद्धा
सभी को समाहित
करती है।
श्रद्धा का
अर्थ है. जीवन
में वह सभी
कुछ जो
तुम्हारे
चारों ओर है, वह सभी कुछ
जिससे तुम आए
हो, वह सभी
कुछ जिसमें एक
दिन तुम विलीन
हो जाओगे, इस
सभी में
श्रद्धा रखना।
श्रद्धा
का अर्थ बस
यही है कि
तुमने संदेह
के पागलपन को
समझ लिया है, कि
तुम संदेह की
पीड़ा को समझ
चुके हो, कि
तुम उस नरक को
समझ गए हो जो
संदेह
निर्मित करता
है। तुमने
संदेह को जान
लिया है और
इसको जान कर
तुमने इसे
त्याग दिया है।
जब संदेह मिट
जाता है तब
श्रद्धा का
उदय होता है।
यह तुम्हारे
भीतर के
रूपांतरण की,
तुम्हारी
अभिरुचि, तुम्हारी
शैली की कुछ
चीज है।
श्रद्धा किसी
विरोधाभास को
नहीं जानती।
प्रश्नकर्ता
पूछता है : 'यह
है अपने आप
में श्रद्धा
करने और आपमें
श्रद्धा रखने
में
विरोधाभास।’ यदि यही
विरोधाभास है
तो अपने आप पर
श्रद्धा करो,
यदि तुम
स्वयं पर
श्रद्धा कर
सकते हो तो और
किसी की
आवश्यक्ता
नहीं है। तब
तुम अपनी
श्रद्धा में
गहराई से जड़ें
जमाए हुए हो, और जब कोई
वृक्ष पृथ्वी
में गहराई से
जड़ें जमाए हुए
होता है तो यह
अशांत आकाश
में अपनी
शाखाएं
फैलाता चला
जाता है। जब
इसने अपनी
जड़ें भूमि में
जमा ली हैं, तो यह आकाश
पर श्रद्धा कर
सकता है। जब
वृक्ष ने भूमि
में जड़ें नहीं
जमाई हैं तो यह
आकाश पर
श्रद्धा नहीं
कर सकता है, तब यह सदैव
भयभीत रहता है,
तूफान से
भयभीत, वर्षा
से भयभीत, धूप
से डरा हुआ, हवा से
भयभीत, हर
बात से भयभीत।
यह भय जडों से
आ रहा है।
वृक्ष को पता
है कि उसकी
जड़ें पूर्णत:
नहीं जमी हैं।
कोई जरा सी
दुर्घटना और
वह विदा हो
जाएगा। वह
विदा हो ही
चुका है। ऐसा
जड़—विहीन, केंद्र—रहित
जीवन जरा भी
जीवन नहीं है।
यह मात्र एक
धीमा आत्मघात
है। इसलिए यदि
तुम अपने आप
पर भरोसा करते
हो तो मेरे
बारे में सभी
कुछ भूल जाओ।
प्रश्न उठाने
तक की
आवश्यकता
नहीं है। लेकिन
तुम जानते हो
और मैं जानता
हूं कि
तुम्हारी
स्वयं पर
श्रद्धा नहीं
है।
मन
एक बहुत
चालाकी का
उपाय निर्मित
कर रहा है। मन
कह रहा है, किसी
पर श्रद्धा मत
करो, अपने
आप पर श्रद्धा
करो, और
तुम अपने आप
पर श्रद्धा कर
नहीं सकते।
इसीलिए तुम
यहां हो। वरना
तुम यहां क्यों
होते? जिस
व्यक्ति को
स्वयं पर
श्रद्धा हो
उसको कहीं
जाने की जरूरत
नहीं है, किसी
सदगुरु के पास
जाने की
आवश्यकता
नहीं है, सीखने
के लिए कहीं—जाने
की आवश्यकता
नहीं है। जीवन
तुम तक लाखों
ढंगों से आ
रहा है : कहीं
और जाने की
कोई आवश्यकता
नहीं है।
तुम
जहां कही भी
हो सत्य घटित
हो जाएगा, लेकिन
तुम अपने आप
पर श्रद्धा
नहीं करते हो।
और जब मैं
कहता हूं मुझ
पर श्रद्धा
करो, तो यह
तुमको
श्रद्धा करने
में सहायता
देने का एक
उपाय मात्र है।
तुम स्वयं पर
श्रद्धा नहीं
कर सकते हो? —ठीक है, मुझ
पर श्रद्धा कर
लो। संभवत:
मुझ पर श्रद्धा
करना तुमको
श्रद्धा का
स्वाद दे देगा
तब तुम अपने
ऊपर श्रद्धा
कर सकते हो।
सदगुरु
और कुछ नहीं
वरन तुम्हारे
स्वयं पर आने
का एक लंबा
मार्ग है, क्योंकि
तुम निकटतम
रास्ते से
नहीं आ सकते
हो। अत: तुमको
थोड़ा लंबा
रास्ता
अपनाना पड़ेगा।
लेकिन सदगुरु
के द्वारा तुम
अपने आप पर
आते हो। यदि
तुम मुझ पर
अटक जाते हो
तब मैं
तुम्हारा शत्रु
हूं तब मैं
तुम्हारे लिए
सहायता नहीं
बना हूं। तब
मैं तुम्हें
प्रेम नहीं
करता, तब
मुझमें
तुम्हारे
प्रति कोई
करुणा नहीं है।
यदि मुझमें
जरा भी करुणा
है, तब
धीरे— धीरे
मैं तुमको
तुम्हारी ओर
वापस मोड़
दूंगा।
इसीलिए मैं
कहे चला जाता
हूं यदि मार्ग
पर तुम्हारा
बुद्ध से मिलन
होता है, तो
उनको मार डालो।
यदि तुम मुझसे
आसक्ति आरंभ
कर देते हो, तो मुझको
तुरंत छोड़ दो।
मुझे मार दो, मेरे बारे
में सभी कुछ
भूल जाओ।
लेकिन
तुम्हारा मन
कहेगा, जब
आसक्त हो जाने
का इतना भय है,
तो बेहतर
यही है कि
यात्रा को कभी
आरंभ ही न किया
जाए। तब तुम
आत्म—अश्रद्धा
में बने रहते
हो। मैं तो बस
तुमको
श्रद्धा का
स्वाद लेने का
एक अवसर
प्रदान कर रहा
हूं।
जब
मैं कह रहा
हूं कि सदगुरु
से आसक्त मत
हो,
तो मुझको
सुनते समय
तुम्हारे
अहंकार को
बहुत अच्छा
अनुभव होने
लगता है। यह
कहता है, बिलकुल
सच है। मुझे
क्यों किसी पर
श्रद्धा करना
चाहिए? मुझको
किसी के प्रति
समर्पण क्यों
करना चाहिए? सही है, यही
उचित बात है!
यही तो है जो
जे. कृष्णमूर्ति
के शिष्यों के
साथ घटित हो
गया है। चालीस,
पचास
वर्षों से वे
सिखा रहे हैं?
और ऐसे अनेक
लोग हैं
जिन्होंने
अपने पूरे जीवन
भर उनको सुना
है और कुछ भी
नहीं घटा है—क्योंकि
वे जोर दिए
चले जाते हैं
कि
न
कोई सदगुरु है, न
कोई शिष्य है।
वे तुमको
तुम्हारे ऊपर
फेंकते चले
जाते हैं इससे
पहले ही कि
तुम श्रद्धा
का स्वाद ले
पाओ, वे
तुमको
तुम्हारे ऊपर
फेंकते चले
जाते हैं।
इसके पहले कि
तुम आसक्त
होना आरंभ करो
वे सचेत हैं, बहुत सचेत
हैं। वे तुमको
उनके निकट
नहीं पहुंचने
देंगे। यह एक
अति है।
तुम्हारे
अहंकार को
बहुत अच्छा
अनुभव होता है
कि तुम्हारा
कोई गुरु नहीं
है, कि तुम्हें
किसी के प्रति
समर्पण नहीं
करना पड़ता है।
तुम और समर्पण
करते हुए? यह
अच्छा नहीं
दिखाई पड़ता, यह तो अपमान
जैसा दिखाई पड़ता
है। तुम्हें
बहुत अच्छा
लगता है।
कृष्णमूर्ति
के पास सभी
प्रकार के
अहंकारी एक
साथ उनके
चारों ओर
एकत्रित हो गए
हैं। यदि तुम
सर्वाधिक सुसंस्कृत
अहंकारियों
को खोजना
चाहते हो तो
तुमको वे
कृष्णमूर्ति
के चारों ओर
मिल जाएंगे।
वे बहुत
सुसंस्कृत, परिष्कृत, बहुत
बुद्धिजीवी, बहुत चालाक
और चतुर, तार्किक,
बुद्धिवादी
हैं, किंतु
उनको कुछ भी
नहीं हुआ है।
उनमें से अनेक
मेरे पास आते
हैं और वे
कहते हैं, हमें
पता है, हम
समझते हैं, लेकिन हमारी
समझ बौद्धिक
बनी हुई है।
कुछ भी नहीं
हुआ है। हमारा
कोई रूपांतरण
नहीं हुआ है, इसलिए क्या
सार है इस
भांति सुनने
में? कृष्णमूर्ति
कहते हैं, उनसे
बंधो मत, लेकिन
तुम अपने आप
से बंध रहे हो।
यदि इस बंधने
में कोई चुनाव
करना हो तो कृष्णमूर्ति
से आसक्त हो
जाना अपने आप
से बंधने से
बेहतर है। कम
से कम तुम
किसी श्रेष्ठ
व्यक्ति से
आसक्त हो रहे
हो।
फिर
एक अन्य अति
भी है। ऐसे
गुरु हैं
जिनका जोर इस
बात पर है कि
तुमको उनसे
बंधे रहना
चाहिए।
समर्पण साध्य
प्रतीत होता
है,
साधन नहीं।
वे कहते हैं, पूरी तरह से
मेरे साथ बने
रहो। कभी अपने
घर वापस मत
लौटना। यह भी
खतरनाक
प्रतीत होता
है, क्योंकि
तब तुम सदैव
रास्ते पर
होते हो और
मंजिल पर कभी
नहीं पहुंचते—क्योंकि
मंजिल तो तुम
ही हो। मैं एक
पथ बन सकता
हूं, कृष्णमूर्ति
तुम्हें उनको
पथ बनाने की
अनुमति नहीं
देंगे। फिर
दूसरे लोग हैं
जो तुमको
लक्ष्य नहीं
बनने देंगे।
वे कहते हैं, चलते रहो, चलते चले
जाओ, चरैवेति—चरैवेति।
तुम सदा
तीर्थयात्रा
करते रहते हो,
और तुम
पहुंचते कभी
नहीं—क्योंकि
तुप्तें अपने
अंतर्तम
अस्तित्व पर ही
तो पहुंचना
पड़ता है।
तुम्हारा
आगमन बिंदु
मैं नहीं हो
सकता। मैं किस
भांति
तुम्हारा
आगमन बिंदु हो
सकता हूं? आज
नहीं तो कल
तुमको मुझे
अपना
प्रस्थान—बिंदु
बनाना पड़ता
है।
मैं
न तो
कृष्णमूर्ति
से राजी हूं न
ही दूसरे अतिवादियों
से। मैं कहता
हूं : 'मेरा एक पथ
की भांति
प्रयोग कर लो,
लेकिन
स्मरण रखो, 'एक पथ की भांति।’
और यदि मैं
लक्ष्य बनने
लगू तो तुरंत
ही मुझे मार
डालो—तुरंत
मुझे त्याग दो
क्योंकि अब
औषधि रोग की
भांति हुई जा
रही है। औषधि
को प्रयोग
किया जाना और
भूल जाना
चाहिए।
तुम्हें अपने
साथ लगातार
चिकित्सक का
परामर्श और
दवा की बोतलें
लिए—लिए नहीं
फिरना है। यह
एक साधन, उपकरण
था, अब तुम
स्वस्थ हो, छोड़ दो इसे, इसके बारे
में सभी कुछ
भूल जाओ। इसके
प्रति आभारी
रहो, इसके
प्रति अहोभाव
से. भरो, लेकिन
इसको लिए—लिए
नहीं फिरना है।
बुद्ध
ने कहा कि
पांच मूर्खों
ने नदी पार की, फिर
उन सभी ने
सोचना शुरू कर
दिया—मूर्ख तो
सदा दार्शनिक
होते हैं, और
इसका उलटा भी
सत्य है—वे
सोचने लगे, क्या किया
जाए? इस
नाव ने हमारी
कितनी अधिक
सहायता की है,
वरना हम तो
दूसरे किनारे
पर मर ही गए
होते। उधर
जंगल था, और
रात्रि होने
वाली थी, और
वहां जंगली
जानवर और डाकू
थे, और कुछ
भी बुरा हो
सकता था। इस
नाव ने हमें
बचाया है।
हमको सदैव और
सदा के लिए इस
नाव का, इस
नाव के प्रति
आभारी होना
चाहिए। तब एक
मूर्ख ने
सुझाव दिया, हां, यह
बात ठीक है।
अब हमको इस
नाव को अपने
सिरों पर लेकर
चलना चाहिए
क्योंकि इस
नाव की तो
पूजा की जानी
चाहिए। तब
उन्होंने
अपने नगर की
ओर जाते समय
नाव को सिर पर
रख कर चलना
आरंभ कर दिया।
अनेक लोगों ने
पूछा, तुम
लोग क्या कर
रहे हो? हमने
नाव में बैठे
हुए लोगों को
देखा है, लेकिन
हमने कभी नाव
को आदमियों के
ऊपर सवारी करते
हुए नहीं देखा।
क्या हो गया
है? उन्होंने
कहा तुम नहीं
जानते, इस
नाव ने हमारी
जिंदगियों को बचाया
है। अब हम यह
बात भूल नहीं
सकते, और
अपने पूरे
जीवन भर हम इस
नाव को अपने
सिरों पर लाद
कर घूमने वाले
हैं। अj इस
नाव ने इनको
पूरी तरह से
मार डाला है।
यही बेहतर रहा
होता कि वे
नदी के दूसरे
किनारे पर ही
छू। गए होते।
यही बेहतर रहा
होता कि इस
नाव को सदा के
लिए, सदैव
ढोने के बजाय
उनको जंगली
जानवर ने मार
डाला होता। यह
एक अंतहीन
पीड़ा थी। नदी
के दूसरे किनारे
पर पल भर में
ही घटनाएं घट गई
होतीं। मामला
निबट गया होता।
अब वर्षों तक
वे लोग इस बोझ,
इस भार, इस
ऊब को ढोते रहेंगे।
और जितना अधिक
वे इसको लेकर
फिरेंगे उतना
ही वे इस बोझ
के आदी हो
जाएंगे। उस
बोझ के बिना
उनको अच्छा
नहीं लगेगा, उनको असहजता
लगेगी। और अब
वे कुछ और कर
भी नहीं
पाएंगे, क्योंकि
कुछ और किया
भी कैसे जा
सकता है? नाव
को सिर पर
उठाए हुए रहना
इतनी सतत
व्यस्तता हो
जाएगी कि कुछ
भी करने में
वे करीब—करीब
असमर्थ हो
जाएंगे।
यही
तो अनेक
धार्मिक
लोगों के साथ
हो गया है, वे
कुछ भी कर
सकने में
असमर्थ हो
चुके हैं, वे
बस अपनी नाव
को ढो रहे हैं।
जाओ और
जैनियों के
आश्रमों, कैथेलिक
मोनेस्ट्रियों,
बौद्धों के
आश्रमों में
देखो—ये लोग
क्या कर रहे
हैं? वे बस
धर्म कर रहे
हैं; सारा
जीवन छूट चुका
है। वे बस
प्रार्थना कर
रहे हैं या बस
ध्यान कर रहे
हैं। क्या कर
रहे हैं वे? जीवन उनके
द्वारा
समृद्ध नहीं
किया जा रहा
है।
सृजनात्मक
नहीं हैं वे।
वे एक अभिशाप
हैं, वरदान
नहीं हैं वे।
उनके कारण
जीवन और अधिक
सुंदर नहीं हो
जात। है। वे
किसी भी भांति
सहायता नहीं
कर रहे हैं।
लेकिन वे बहुत
गंभीर लोग हैं,
और वे
लगातार उलझे
हुए हैं, चौबीसों
घंटे वे उलझे
हुए हैं। वे
अपने सिर पर
एक नाव ढो रहे
हैं। उनके
कर्मकांड
उनकी नाव हैं।
स्मरण
रखो,
मेरे पास आओ,
मुझ पर
श्रद्धा करो।
बस सीख लो कि
श्रद्धा क्या
है। मेरे
उद्यान में आओ
और वृक्षों के
मध्य से प्रवाहित
होती हुई हवा
की आवाज सुनो,
लेकिन बस घर
लौट कर अपना
एक उद्यान
निर्मित करने
के लिए। इन
पुष्पों के, इन गीत गाते
पक्षियों के
निकट आओ,. उनका
एक गहरा अनुभव
प्राप्त करों,
फिर वापस
लौट जाओ। तब
अपना स्वयं का
संसार
निर्मित करो।
बस मेरे झरोखे
से एक झलक पा
लो। मुझको
अपने सम्मुख
बिजली की एक
कौंध की भांति
—चमक जाने दो
ताकि तुम जीवन
का सभी कुछ
देख लो—लेकिन
यह बस एक झलक
ही होने जा
रहा है।
मुझसे
आसक्त हो जाने
की आवश्यकता
नहीं है, क्योंकि
तब तुम अपना
स्वयं का घर
कब बनाओगे, और तुम अपना
स्वयं का
उद्यान कब
बनाओगे, और
कब तुम्हारे
स्वयं के फूल
खिलेंगे, और
कब तुम्हारे
स्वयं के हृदय
के पक्षी गीत
गाएंगे? नहीं,
तब तो तुम
उस नाव को
जिसने
तुम्हारी उस
किनारे पर
सहायता की थी
ढोते फिरोगे।
लेकिन तब यह
दूसरा किनारा
नष्ट हो गया
है क्योंकि
तुम अपने सिर
पर नाव ढोते
फिर रहे होओगे।
दूसरे किनारे
पर तुम नृत्य
कैसे करोगे? उत्सव कैसे
मनाओगे तुम? वह नाव एक
सतत कारागृह
बन जाएगी।
जब
मैं तुमसे
स्वयं पर
श्रद्धा करने
को कहता हूं
तो मैं बस यही
कह रहा हूं कि
मुझ पर जो एक
विशिष्ट
आबोहवा घट चुकी
है,
इसकी एक झलक
पा लो। आओ, और
इस आबोहवा को
तुमको घेर
लेने दो; मुझको
अपने .हृदय
में स्पंदित
होने दो, मुझको
अपने चारों ओर
धड़कने दो; अपने
अस्तित्व के
गहनतम तल में
मुझे तरंगित होने
दो; मुझे
अपने भीतर
प्रतिध्वनित
होने दो। मैं
यहां एक गीत
गा रहा हूं
इसको गंजने दो
ताकि तुम जान
सको कि हां, गीत संभव है।
बुद्ध विदा हो
चुके हैं, जीसस
भी यहां नहीं
हैं यह
स्वाभाविक है।
जीसस को सुन
पाना
तुम्हारे लिए
संभव नहीं है।
तुम बाइबिल पढ़
सकते हो, यह
बस किसी ऐसी
बात का शब्द—चित्र
खींचती है जो
कहीं किसी समय
में घटित हुई
थी, लेकिन
तुम इस पर
विश्वास नहीं
कर सकते। यह
बस कोई पुराण—कथा,
एक कहानी हो
सकती है।
बुद्ध मात्र
एक
काव्यात्मक
कल्पना हो
सकते हैं, हो
सकता है कि
उनको कवियों
ने रचा हो।
कौन जाने? क्योंकि
जीवन में
तुम्हारा ऐसे
व्यक्ति से
आमना—सामना
नहीं होता। जब
तक कि तुम
किसी धार्मिक
व्यक्ति के
संपर्क में
नहीं आते, धर्म
कहीं एक
स्वप्न जैसा
बना रहेगा। यह
कभी एक
वास्तविकता
नहीं बनेगा।
यदि तुम ऐसे
व्यक्ति के
संपर्क मे आते
हो जिसने सत्य
का स्वाद ले
लिया है, जो
एक भिन्न
संसार में और
एक भिन्न आयाम
में जी चुका
है, जिसके
लिए परमात्मा
घट चुका है, और जिसके
लिए परमात्मा
मात्र कोई
सिद्धात नहीं
है, बल्कि
श्वास—प्रश्वास
की भांति एक
यथार्थ है, तब उस पर
श्रद्धा करो,
उसमें समा
जाओ। फिर
हिचकिचाओ मत.
फिर साहस करो।
तब जरा
निर्भीक हो
जाओ। तब कायर
मत बनो और द्वार
के बाहर लुका—छिपी
मत खेलते रहो,
मंदिर में
प्रवेश करो।
निःसंदेह यह
मंदिर
तुम्हारे लिए
आश्रय नहीं बनने
जा रहा है।
तुमको अपना
स्वयं का
मंदिर
निर्मित करना
पड़ेगा—क्योंकि
परमात्मा की
उपासना केवल
तभी की जा सकती
है जब तुमने
अपना स्वयं का
मंदिर
निर्मित कर
लिया हो। उधार'
के मंदिर
में परमात्मा
की उपासना
नहीं की जा सकती
है। परमात्मा
एक सृष्टा है
और केवल
सृजनात्मकता का
सम्मान करता
है। और अपना
स्वयं का
मंदिर
निर्मित करना
आधारभूत
सृजनात्मकता
है। नहीं, उधार
के मंदिरों से
काम नहीं चलने
वाला है।
लेकिन मंदिर
का सृजन किस
भांति किया
जाए?
पहली
बात,
यह विश्वास
कर पाना करीब—करीब
असंभव है कि
कभी मंदिरों
का अस्तित्व
था। जीसस का
अस्तित्व
संदेहास्पद
बना हुआ है, बुद्ध एक
पुराण—कथा की
भांति दिखाई
पड़ते हैं, इतिहास जैसे
नहीं, कृष्ण
तो और भी स्वप्नों
के संसार में
हैं। इतिहास
में तुम जितना
पीछे लौटते हो
उतनी ही अधिक
बातें धूमिल
होकर पुराण—कथाओं
में बदलती
जाती हैं।
यथार्थ पर कोई
चिह्न शेष
नहीं बचा।
जब
मैं कहता हूं
मुझ पर
श्रद्धा करो, तो
मेरा
अभिप्राय बस
यही है : बाहर
मत खड़े रहो।
यदि तुम मेरे
इतने निकट आ
गए हो, तो
थोड़ा और पास आ
जाओ। यदि तुम
आ गए हो, तो
भीतर आ जाओ।
फिर मेरी
आबोहवा को
तुम्हें घेर
लेने दो। वह
तुम्हारे लिए
एक
अस्तित्वगत
अनुभव बन जाएगा।
मेरी आंखों
में देखते हुए,
मेरे हृदय
में प्रविष्ट
होते हुए, तुम्हारे
लिए जीसस में
अश्रद्धा कर
पाना असंभव हो
जाएगा। तब
तुम्हारे लिए
यह कहना कि
बुद्ध मात्र
एक पुराण—कथा
हैं, असंभब
होगा, लेकिन
फिर भी मैं
यही कहे चला
जाऊंगा कि यदि
बुद्ध आते हैं,
रास्ते पर
तुम्हें मिल
जाते हैं, उनको
मार दो।
मेरे
माध्यम से आओ, लेकिन
वहां रुको मत।
अनुभव ग्रहण
करो और अपने
रास्ते चले
जाओ। यदि
अनुभव पुन:
स्मृतियों
में खो जाए और
मंद पड़ जाए, तो जब तक मैं
यहां उपलब्ध
हूं दुबारा
मेरे पास आ
जाओ। एक और
डुबकी मार लो,
लेकिन
लगातार यह
स्मरण रखो कि
तुमको अपना
स्वयं का कुछ
निर्मित करना
है। केवल तभी
तुम उसके भीतर
रह सकते हो।
मैं अधिक से
अधिक तुम्हारे
सामान्य जीवन
से अवकाश का
एक समय बन सकता
हूं लेकिन मैं
तुम्हारा
जीवन नहीं बन
सकता। अपना
जीवन तुम्हें
ही बदलना
पड़ेगा।
अब, मन
बहुत चालाक है।
यदि मैं कहता
हूं मुझ पर
श्रद्धा करो,
तो मन को यह
कठिन लगता है।
किसी और
व्यक्ति पर
श्रद्धा करना
बहुत अंहकार—नाशक
है। यदि मैं
कहूं बस स्वयं
पर श्रद्धा
करो, तो मन
को बहुत.
अच्छा लगता है।
लेकिन केवल
अच्छा लगने से
कुछ नहीं होता
है। मैं तुमसे
कहता हूं अपने
आप में
श्रद्धा रखो।
यदि यह संभव
है तब मुझ पर
श्रद्धा करने
की कोई आवश्यकता
नहीं है। यदि
यह संभव न हो, तब पहले
विकल्प के लिए
प्रयास करो।
मन सदा इसी
खोज मे संलग्न
रहता है कि
किस भांति
प्रत्येक
वस्तु के
माध्यम से
अपने आप को और बलशाली
बनाया जाए।
मैं
तुमको एक
कहानी
सुनाऊंगा।
एक
व्यक्ति किसी
बड़े शहर में
रहने लगा था, और
करीब छह माह
तक प्रत्येक
रविवार को
उसने अपने
अनुकूल
धार्मिक समुदाय
पाने के लिए
भिन्न—भिन्न
चर्चों की
धर्म—सभाओं
में भागीदारी
की। अंततः एक
रविवार की
सुबह बस वह
चर्च में प्रविष्ट
हो ही रहा था
कि उसने
श्रद्धालुओं
को धर्मोपदेशक
के साथ—साथ
बोलते हुए
सुना : हमने उन
कामों को बिना
किए छोड़ दिया
है जो हमें
करना: चाहिए
थे, और हम
उन कामों को
कर चुके हैं
जो हमे नहीं
करना चाहिए थे।
वह अपने आप से
फुसफुसाते
हुए, अंततः
मुझको मेरा
ठिकाना मिल ही
गया, राहत
और संतोष की
श्वास लेकर
वहीं पर बैठ
गया।
तुम
बस किसी ऐसी
चीज को पाने
का प्रयास कर
रहे हो जो
तुम्हें बाधा
न पहुंचाए।
बल्कि इसके
विपरीत यह
तुम्हारे
पुराने मन को सबल
बनाए। यह तुमको
जैसे तुम हो
वैसे ही सशक्त
करे। मन का
सारा प्रयास
यही है : अपने—
आप को तैयार
करना। तुमको
इसके बारे में
मननशील होना
पड़ेगा। जो कहा
गया उसको नहीं, वरन
जो यह सुनना
चाहता है, मन
की उसी को
सुनने की
प्रवृति है।
हैरी
ने अपत्री
अधिक उम्र
वाली कुरूप
पत्नी से केवल
उसके धन की
खातिर विवाह
किया था।
निःसंदेह
उसके पास इस
धन को खर्च
करने के अनेक
ढंग थे। वह
अफ्रीका के
जंगलों में
घूमने गया हुआ
था। तभी दलदल
में से एक बड़ा
घड़ियाल प्रकट
हुआ और उसने
उसकी पत्नी को
अपने जबड़ों मे
दबोच लिया और
खींच कर ले
जाने लगा, हैरी
का रोआं तक नहीं
हिला। जल्दी
करो! इसे शूट
करो! इसे सूट
करो! अभागी
पत्नी
चिल्लाई।
हैरी ने कंधे
उचकाए, प्रिय,
मुझे ऐसा
करके अच्छा
लगता, लेकिन
मेरे कैमरे
में फिल्म
नहीं है।
मन
.में,
जो यह सुनना
चाहता है, वही
सुनने की
प्रवृति होती
है। ऐसा कभी
मत सोचो कि
तुम मुझको सुन
रहे हो। तुम
इसे अनेक
ढंगों से
बदलते चले
जाते हो। जब
कोई बात
तुम्हारी खोपड़ी
में प्रवेश
करती है तो
तुम इसे सीधे
ही. नहीं सुनते।
पहले तुम इसको
अपने खयालों
के साथ
मिश्रित कर
देते हो, तुम
यहां और वहां
परिवर्तन कर
देते हो। तुम
कुछ बातों को
छोड़ देते हो, कुछ बातें
तुम इसमें जोड़
देते हो।
निःसंदेह फिर
यह धीरे— धीरे
तुम्हारे
अनुरूप होने
लगता है और
तुम अपने आपको
समझा लेते हो
कि यह वही है
जो तुमसे कहा
गया था।
लंदन
की एक गली में
आपाधापी के
बीच एक आवारा
चकरा कर गिर
पडा और तुरंत
ही उसके चारों
ओर एक भीड़
एकत्रित हो गई।
बेचारे
को थोड़ा सी
व्हिस्की
पिला दो, एक
वृद्ध महिला
ने कहा।
उसके
ऊपर हवा करो, एक
व्यक्ति बोला।
उसे
थोड़ी सी
व्हिस्की
पिला दो, बूढी
महिला पुन:
बोली।
उसे
अस्पताल ले
जाओ,
एक और आवाज
आई।
उसे
जरा सी
व्हिस्की दे
दो,
बूढ़ी महिला
ने दुबारा फिर
से कहा।
यह
बातचीत इसी
तरह तब तक
चलती रही जब
तक वह उठ कर
नहीं बैठ गया
और चिल्लाया, क्या
आप सब लोग चुप
होकर उस की
महिला की बात
सुनेंगे।
उस
समय भी जब तुम
बेहोश हो, तुम
उस बात को सुन
सकते हो जिसको
तुम सुनना
चाहते थे; और
जब तुम होश
में हो उस समय
भी तुम उस बात
को नहीं सुन
रहे हो जो
तुमसे कही जा
रही है।
एक
भिखारी यहां
मुझको सुनने
आता है। उस
भिखारी ने
मुख्य सड़क पर
एक आदमी से
कहा : मुझको
कॉफी के एक कप
के लिए कुछ
पैसे दे दो। उस
आदमी ने कहा :
लेकिन केवल दस
मिनट पहले ही
मैंने
तुम्हें
अठन्नी दी थी।
उस भिखारी ने
कहा : अरे, अतीत
में जीना छोड़
भी दो। मैं
लगातार तुमको
अतीत में जीना
छोड़ना सिखा रहा
हूं—बिलकुल
सही है उसकी
बात।
स्मरण
रखो,
तुम्हारा
मन लगातार
तुम्हारे साथ
चालाकियां
खेल रहा है।
विरोधाभास
जरा भी नहीं
है, विरोधाभास
तुमने बना
लिया है।
अब
मैं प्रश्न का
शेष भाग
पढूंगा—देखो
जोर किस बात
पर है।
'मेरे
भीतर एक भाग
है जो कहता है,
यदि मैं
अपने स्वयं के
स्व में
श्रद्धा करता
हूं और अपनइ
स्वयं के स्व
का अनुसरण
करता हूं तो
मैंने आपके
समक्ष समर्पण
कर दिया है और
आपको हां कह
दिया है।’ लेकिन
यह केवल एक
भाग है; और
शेष भाग के बारे
में क्या? यदि
तुम इस भाग पर
भरोसा करो, तो शेष मन
कहेगा, तुम
क्या कर रहे
हो? इसी
भांति संदेह
उठ खड़ा होता
है। यदि तुम
प्रश्न के शेष
भाग को सुनो, तो यह भाग
संदेहों को
निर्मित करता
चला जाएगा।
इसी प्रकार से
मन गति करता
है—सदा दुविधा
में। यह अपने
विरोध में
अपने आप को
विभाजित कर
लेता है, और
यह लुका—छिपी
का खेल खेलता
चला जाता है।
इसलिए जो कुछ
भी तुम करते
हो, हताशा
आती ही है—जो
कुछ भी कर लो।
लेकिन हताशा
को अवश्य आना
है। यदि तुम
मुझ पर
श्रद्धा करो
तो तुम्हारे
मन का एक भाग
कहता चला
जाएगा, तुम
यह क्या कर
रहे हो? मैं
सदा से तुमसे
कहता हूं बस
अपने ऊपर
श्रद्धा करो।
यदि तुम मुझ
पर श्रद्धा न
करो और स्वयं
पर श्रद्धा
करो, तो मन
का दूसरा भाग
लगातार हताश
होता रहेगा।
यह कहेगा, तुम
यह क्या कर
रहे हो? उन
पर श्रद्धा
करो। समर्पण
कर दो। अब मन
के दोहरेपन को
देखो।
यदि
तुम मन के इस
सतत विभाजन को
देख सको जो
कभी भी पूर्ण
निर्णय पर
नहीं पहुच
पाता, तो धीरे—धीरे
तुम्हारे
भीतर एक भिन्न
प्रकार की
चेतना उठ खड़ी
होगी जो पूरी
तरह से निर्णय
कर सकती है।
यह निर्णय मन
का नहीं है।' इसीलिए मैं
कहता हैं कि
समर्पण मन का
कृत्य नहीं है।
श्रद्धा मन से
किया गया
कृत्य नहीं है।
मन श्रद्धा
नहीं कर सकता।
अश्रद्धा मन
के लिए बहुत
स्वाभाविक है,
यह
अंतःनिर्मित
है। मन का
अस्तित्व
अश्रद्धा पर,
'संदेह पर
निर्भर है। जब
तुम अत्यधिक
संदेह में
होते हो तो
तुमको अपने भीतर
अत्यंधिक मनन शीलता,
हलचल दिखाई पड़ती
है। मन
अत्यधिक सक्रिय
हो जाता है।
लेकिन जब तुम
श्रद्धा करते
हो, तो मन
के करने के
लिए कुछ भी
नहीं है। क्या
तुमने कभी
इसको देखा है?
जब तुम कहते
हो, नहीं, तो तुम अपनी
चेतना के शांत
सरोवर में एक
पत्थर फेंक
देते हो; लाखों
तरंगें उठती
हैं। जब तुम
कहते हो, हां,
तो तुम कोई
पत्थर नहीं
फेंक रहे हो, अधिक से
अधिक तुम झील
में एक फूल
तैरा रहे हो।
बिना किसी
तरंग के फूल
तैरता रहता है।
यही कारण है कि
लोगों को यह
बहुत कठिन
लगता है कि हां
कहा जाए, और
यह बहुत सरल
लगता है कि न
कह दिया जाए।
न तो सदैव
बिलकुल तैयार
है। उससे पहले
कि तुमने सुना
हो न तैयार है।
मैं
एक बार मुल्ला
नसरुद्दीन के
घर ठहरा हुआ था।
मैंने सुना, पत्नी
नसरुद्दीन से
कह रही थी, नसरुद्दीन
जरा बाहर जाकर
देखो कि बच्चा
क्या कर रहा
है और उसको
मना कर दो।
वह
नहीं जानती कि
बच्चा क्या कर
रहा है. जरा बाहर
जाकर देखो कि
बच्चा क्या कर
रहा है और
उसको मना कर
दो। चाहे वह
जो कुछ भी क
रहा हो, यह
बात नहीं है, बल्कि रोक
देना, नहीं
कहना यही है
असली बात।
इनकार करना
आसानी से आता
है, यह
अहंकार कों
बढ़ा देता है।
अहंकार का
पोषण 'न' पर होता है, मन का पोषण
संदेह, शक,
अश्रद्धा
से होता है।
तुम मन के
द्वारा मुझ पर
श्रद्धा नहीं
कर सकते।
तुमको मन का
द्वैतवाद—सतत
दुविधा, मन
के भीतर
लगातार चलता
रहने वाला
विवाद देख
लेना पड़ेगा।
मन का एक भाग
लगातार
विपक्ष की
भांति कार्य कर
रहा है।
मन
कभी किसी
निर्णय पर
नहीं पहुंचता।
मन में सदैव
कुछ ऐसे भाग
हैं जो असहमत
होते हैं। वे
अपने अवसर की
प्रतीक्षा
करते हैं, और
वे तुमको हताश
कर देंगे।
तब
श्रद्धा क्या
है?
तुम
श्रद्धा कैसे
कर सकते हो? तुम्हें मन
को समझना
पड़ेगा। मन को
और इसके भीतर
के सतत
दोहरेपन को
समझ कर, इसके
साक्षी बन कर
तुम मन से
भिन्न हो जाते
हो। और उस
भिन्नता में
श्रद्धा का
उदय होता है।
और वह श्रद्धा
तुम्हारे और
मेरे मध्य कोई
विभाजन नहीं
जानती। वह
श्रद्धा
तुम्हारे और
जीवन के मध्य
कोई विभाजन
नहीं जानती।
यह श्रद्धा बस
श्रद्धा है।
यह किसी के
प्रति
श्रद्धा नहीं
है, किसी
को संबोधित
श्रद्धा नहीं
है—क्योंकि
यदि तुम मुझ
पर श्रद्धा
करते हो तो तुंरत
ही तुम किसी
पर अश्रद्धा
करोगे। जब कभी
भी तुम किसी
पर श्रद्धा
करते हो, तुरंत
ही दूसरे छोर
पर तुम किसी
और पर अश्रद्धा
कर रहे होओगे।
यदि तुम्हारा
भरोसा कुरान
में है, तो
तुम बुद्ध में
विश्वास नहीं
कर सकते। यदि
तुमको जीसस
में श्रद्धा
है, तो तुम
बुद्ध में
श्रद्धा नहीं
रख सकते। किस
प्रकार की
श्रद्धा है यह?
इसका जरा भी
मूल्य नहीं है।
श्रद्धा
किसी के प्रति
नहीं होती। यह
न तो जीसस के
प्रति है, न
बुद्ध के
प्रति। यह बस
श्रद्धा है।
तुम बस
श्रद्धा करते
हो क्योंकि
तुमको श्रद्धा
रखना अच्छा
लगता है। तुम
तो श्रद्धा
रखते हो और
श्रद्धा रखने का
तम मजा लेते
कि जब तम धोखा
खाते तब भी तम
मजा लेते हो। तुम
मजा लेते हो कि
तुम तब भी
श्रद्धा कर
सकते हो जब कि
धोखा खाने की
पूरी संभावना
है, कि
धोखा
तुम्हारी
श्रद्धा को
नष्ट नहीं कर
सकता, कि
तुम्हारी
श्रद्धा इतनी
विराटतर है कि
धोखा देने
वाला तुमको
विचलित नहीं
कर सका। हो
सकता है कि
उसने
तुम्हारा धन
ले लिया हो, उसने
तुम्हारी
प्रतिष्ठा
छीन ली हो, उसने
तुमको पूरी
तरह से लूट
लिया हो, लेकिन
तुम मजा लोगे।
और तुम
आत्यंतिक रूप
से हर्षित और
आनंदित अनुभव
करोगे कि वह
तुम्हारी
श्रद्धा को
खंडित न कर' सका, अब
भी तुम उस पर
श्रद्धा रखते
हो। और यदि वह
पुन: लूटने
आता है तो तुम
तैयार हो, तुम
अभी भी उस पर
श्रद्धा करते
हो। इसलिए उस
व्यक्ति ने
जिसने तुमको
धोखा दिया है,
तुमको
भौतिक रूप से
लूट लिया है, लेकिन
आध्यात्मिक
रूप से उसने
तुमको समृद्ध कर
दिया है।
लेकिन
आमतौर पर क्या
होता है? एक
व्यक्ति
तुम्हारे साथ
धोखा करता है
और सारी मानव—जाति
की निंदा होती
है। एक ईसाई
तुमको धोखा
देता है और
सभी ईसाइयों
की निंदा होती
है। एक
मुसलमान ने
तुम्हारे साथ
अच्छा
व्यवहार नहीं
किया था और
मुसलमानों का
पूरा समुदाय
पापी हो जाता
है। एक हिंदू
तुम्हारे
प्रति भला
नहीं था, सभी
हिंदू नाकारा
हो जाते हैं।
तुम बस
प्रतीक्षा
करो। बस एक
आदमी ही पूरी
मानवता के लिए
अश्रद्धा उत्पन्न
कर सकता है।
श्रद्धा
का व्यक्ति
श्रद्धा किए
चला जाता है।
चाहे उसकी
श्रद्धा को
कुछ भी हो जाए, एक
बात कभी नहीं
होती : वह कभी
किसी को अपनी
श्रद्धा
खंडित करने की
अनुमति नहीं
देता। उसकी
श्रद्धा बढ़ती—चली
जाती है।
श्रद्धा
परमात्मा है।
लोगों ने
तुमसे
परमात्मा पर
श्रद्धा करने
का कहा हुआ है;
मैं तुमसे
कहता हूं
श्रद्धा
परमात्मा है।
परमात्मा के
बारे में सभी
कुछ भूल जाओ; बस श्रद्धा
करो, और
तुम जहां कहीं
भी होओगे
परमात्मा
तुमको खोजता
और तलाश करता
हुआ आ जाएगा।
प्रश्न :
बुद्ध को क्या
प्रेरित करता है?
यह
प्रश्न असंगत
है,
क्योंकि बुद्ध
केवल तभी
बुद्ध बनता है
जब सारी
प्रेरणाएं
विदा हो चुकी
हैं, सारी
वासनाएं
तिरोहित हो
चुकी हैं। एक
बुद्ध केवल
तभी बुद्ध
होता है
क्योंकि उसके
करने के लिए
कुछ भी नहीं
है, चाहने
के लिए कुछ भी
नहीं, न
कहीं जाना है
और न ही कुछ
उपलब्ध करना
है। उपलब्ध
करने वाला मन
खो जाता हैं—तभी
कोई बुद्ध
बनता है।
इसलिए अगर तुम
पूछते हो :
बुद्ध को क्या
प्रेरित करता
है? तब तुम
एक असंगत
प्रश्न पूछ
रहे हो। उसे
कुछ भी
प्रेरित नहीं
करता, इसीलिए
तो वह बुद्ध
है।
सिद्धार्थ
गौतम को
संबोधि घटित
हुई। कहानी इस
प्रकार है कि
एक ब्राह्मण
वहां से गुजर
रहा था।
उसने
इतना सुंदर
व्यक्ति कभी
नहीं देखा था।
अपने वृक्ष के
नीचे बैठे
बुद्ध को किसी
अपार्थिव आभा
ने घेर रखा था, वे
प्रदीप्त थे,
वहां एक गहन
शांति थी।
ब्राह्मण आगे
न बढ़ सका।
यद्यपि वह
शीघ्रता में
था, उसे
कहीं पहुंचना
था, लेकिन
बुद्ध के मौन
ने उसे
आकर्षित कर
लिया। वह भूल
गया कि वह
कहां जा रहा
था, अपनी
कार्य करने की
प्रेरणा को वह
भूल गया। इस
व्यक्ति के
पास आकर जिसने
प्रेरणा के
पार की अवस्था
उपलब्ध कर ली
थी, वह
उसकी भंवर के
खिंचाव से
आकर्षित कर
लिया गया।
मंत्रमुग्ध
होकर वह वहीं
ठहरा रहा।
कहानी
कहती है कई
घंटे बीत गए।
फिर अचानक
उसको होश आया
कि वह क्या कर
रहा था? तब
अचानक उसको
याद पड़ा कि वह
कहीं जा रहा
था, लेकिन
कहां? फिर
उसने पूछा, मैं कौन हूं ?—जैसे कि
पूरी पहचान, सारा अतीत
कहीं खो गया
था। वह कौन था
इस बात को भी
वह अपने
संज्ञान में
नहीं ला पाया।
फिर उसने शांत
बैठे हुए
बुद्ध को पकड
कर हिलाया और
कहा : आपने
मेरे साथ क्या
कर दिया? मैं
तो पूरी तरह
से भूल गया
हूं कि मैं
कहां जा रहा
था, और मैं
कहां से आ रहा
था, और मैं
कौन हूं। अब
मैं किससे
पछूं। कौन
देगा इसका
उत्तर? और
देश के इस
भूभाग में तो
मैं एक अजनबी
हूं। आप बता
दें कि आपने
क्या कर दिया
है?
बुद्ध
ने अपनी आंखें
खोलीं और
उन्होंने कहा
: मैंने कुछ भी
नहीं किया है।
मैंने करना
छोड़ दिया है।
हो सकता है कि
इसके कारण से, हो
सकता है कि बस
मेरे निकट
होने से हो
गया हो.. .तुम
चिंता मत करो।
तुम तेजी से
मुझको छोड़ कर
यहां से भाग
जाओ।
उस
व्यक्ति ने
कहा : इससे
पहले कि मैं
यहां से चला
जाऊं, एक बात
मुझे पूछनी है,
क्या आप
भगवान हैं'? वह एक
विद्वान
ब्राह्मण था,
उसने सुन
रखा था, उसने
अपनी
प्रतिदिन की
पूजा—अर्चना
में प्रतिदिन
वेदों का पाठ
किया था। उसने
कृष्ण और राम
के बारे में
सुन रखा था, लेकिन ये
सभी मात्र
कहानियां थीं।
पहली बार कोई
व्यक्ति उसको
दिखाई पड़ा था—यथार्थ,
असली, पार्थिव
और फिर भी
दिव्य : क्या
आप भगवान हैं?
बुद्ध
ने कहा : नहीं।
उस
व्यक्ति ने
कहा : क्या आप
कोई संत, कोई
अर्हत हैं ?—क्योंकि वह
व्यक्ति कुछ—कुछ
समझ गया। भारत
में जैन लोग
भगवान में
विश्वास नहीं
रखते, इसलिए
जब कोई पूर्ण,
परम सत्य को
उपलब्ध कर
लेता है, उसे
अर्हत कहा
जाता है; वह
जो पहुंच गया
है; संत, ऋषि। इसलिए
पहले उसने
पूछा, क्या
आप भगवान हैं?
उसने
हिंदुओं की
भाषावली में
प्रश्न पूछा
था और बुद्ध
ने कहा, नहीं।
तब उसने सोचा,
हो सकता कि
वे भारत की
दूसरी परंपरा,
श्रमणों की
परंपरा से जो
भगवान में
विश्वास नहीं
रखते संबंध
रखते हों।
उसने पूछा, क्या आप
अर्हत, एक
ऋषि, एक
संत हैं? और
बुद्ध ने कह
दिया, नहीं।
तब वह दिग्भ्रमित
हो गया, क्योंकि
केवल दो ही
भाषाएं संभव
थीं।
फिर
उसने पूछा, तब
आप कौन हैं?
बुद्ध
ने कहा : मैं
सजग हूं।
यह
बात व्याकरण
के अनुसार सही
नहीं है, लेकिन
सत्य है।
उन्होंने कहा
: मैं सजग हूं।
उन्होंने बस
उस क्षण में
अपने
अस्तित्व के
गुणधर्म के
बारे में
बताया— 'सजगता',
न भगवान, न संत।
क्योंकि जब
तुम कहते हो ' भगवान' तो
ऐसा प्रतीत
होता है जैसे
कि कुछ रुका
हुआ है। जब
तुम कहते हो 'संत' ऐसा
लगता है कि
कुछ पूर्ण, स्थायी है, वस्तु बन
गया है। बुद्ध
ने कहा : मैं
सजग हूं। या
और अधिक उत्तम
अनुवाद.
उन्होंने कहा,
मैं सजगता
हूं—कोई
तादात्म्य
नहीं है, बस
सजग रहने की
एक गतिमान
ऊर्जा है।
सजगता में, ऐसी सजगता
में कोई
प्रेरणा नहीं
होती; और
यदि वहां कोई
प्रेरणा हो तो
वहा कोई सजगता
नहीं है।
मैं
तुमसे एक
कहानी कहता
हूं एक बहुत
सुंदर कहानी।
इसे जितना
संभव हो सके
उतनी गहराई से
सुनो।
एक
महिला और उसका
छोटा सा बच्चा
समुंद्र की लहरों
पर अठखेलियां
करू रहे थे, और
पानी का बहाव
काफी तेज था।
उसने अपने
पुत्र की बांह
मजबूती से पकड़
रखी थी और वे
प्रसन्नतापूर्वक
जलक्रीड़ा में
संलग्न थे, कि अचानक
पानी की एक
विशाल भयानक
तरंग उनके सामने
प्रकट हुई।
उन्होंने
भयाक्रांत
होकर उसको
देखा, ज्वार
की यह लहर
उनके ठीक
सामने ही ऊपर
और ऊपर उठती
चली गई, और
उनके ऊपर छा
गई। जब पानी
वापस लौट गया
तो वह छोटा
बच्चा कहीं दिखाई
नहीं पड़ा।
शोकाकुल मां
ने मेल्विन, मेल्विन तुम
कहां हो? मेल्विन!
चिल्लाते हुए
पानी में हर
तरफ उसको खोजा।
जब यह स्पष्ट
हो गया कि
बच्चा खो गया
है, उसे
पानी सागर में
बहा ले गया है,
तब पुत्र के
वियोग में
व्याकुल मां
ने अपनी आंखें
आकाश की ओर
उठाई और
प्रार्थना की,
'ओह, प्रिय
और दयालु परम
पिता, कृपया
मुझ पर रहम
कीजिए और मेरे
प्यारे .से बच्चे
को वापस कर
दीजिए। आपसे
मैं आपके
प्रति शाश्वत
आभार का वादा
करती हूं। मैं
वादा करती हूं
कि मैं अपने
पति को पुन:
कभी धोखा नहीं
दूंगी; मैं
अब अपने आयकर
को जमा करने
में दुबारा
कभी धोखा नहीं
करूंगी; मैं
अपनी सास के
प्रति दयालु
रहूंगी; मैं
सिगरेट पीना,
और सारे
व्यसन छोड़
दूंगी! सभी
गलत शौक, बस
केवल कृपा
करके मेरा
पक्ष लीजिए और
मेरे पुत्र को
लौटा दीजिए।’
बस
तभी पानी की
एक और दीवार
प्रकट हुई और
उसके सिर पर
गिर पड़ी। जब
पानी वापस लौट
गया तो उसने
अपने छोटे से
बेटे को वहां
पर खड़ा हुआ
देखा। उसने
उसको अपनी
छाती से लगाया, उसको
चूमा और अपने
से चिपटा लिया।
फिर उसने उसे
एक क्षण को
देखा और एक
बार फिर अपनी
निगाहें
स्वर्ग की ओर
उठा दीं। ऊपर
की ओर देखते
हुए उसने कहा,
लेकिन उसने
हैट लगा रखा
था।
मन
यही है, बच्चा
वापस आ गया है,
लेकिन हैट
खो गया है। अब
वह इसलिए
प्रसन्न नहीं
है कि
बेटा
लौट आया है, बल्कि
अप्रसन्न है
कि हैट खो गया
था—फिर शिकायत।
क्या
तुमने कभी
देखा है कि
तुम्हारे मन
के भीतर यही
हो रहा है या
नहीं? सदा ऐसा
ही हो रहा है।
जीवन तुमको जो
कुछ भी देता
है उसके लिए
तुम धन्यवाद
नहीं देते।
तुम बार—बार
हैट के बारे
में शिकायत कर
रहे हो। तुम
लगातार उसी को
देखते जाते हो
जो नहीं हुआ है,
उसको नहीं
देखते जो हो
चुका है। तुम
सदैव देखते हो
और इच्छा करते
हो और अपेक्षा
करते हो, लेकिन
तुम कभी आभारी
नहीं होते।
तुम्हारे लिए
लाखों बातें
घटित हो रही
हैं, लेकिन
तुम कभी आभारी
नहीं होते।
तुम सदैव
चिड़चिड़ाहट और
शिकायत से भरे
रहते हो, और
सदा ही तुम
हताशा की
अवस्था में
रहते हो। यदि
तुम स्वर्ग भी
पहुंच जाओ तो
यह मन तुमको वहां
नहीं रहने
देगा। जहां
कहीं भी तुम
हो तुम वहीं
पर नरक
निर्मित कर
लोगे। कामना
इतनी अधिक है
कि एक कामना
पूरी होती है इससे
दस कामनाएं और
उठ खड़ी होती
हैं, और
इनका अंत कभी
नहीं होता।
कामना
करते हुए किसी
ने शांति की
अवस्था को, निष्काम
अवस्था को कभी
उपलब्ध नहीं
किया है।
कामना को समझ
कर, प्रेरणा
को समझ कर
व्यक्ति धीरे—
धीरे सजग हो
जाता है।
व्यक्ति यह
जान लेता है
कि यदि तुम
प्रेरणा को
त्याग देते हो
तो जीवन में
कोई हताशा
नहीं होती।
फिर कुछ भी
तुमको
अप्रसन्न
नहीं कर सकता।
फिर
प्रसन्नता
स्वाभाविक
होती है; यह
बस तुम्हारे
होने की शैली
बन जाती है।
फिर जो कुछ भी
होता है, तुम
प्रसन्न रहते
हो। अभी तो
चाहे जो कुछ
भी होता हो, तुम
अप्रसन्न बने
रहते हो।
बुद्ध
के पास कोई
प्रेरणा नहीं
होती, इसलिए
वे प्रसन्न
हैं। वे इतने
प्रसन्न हैं
कि यदि तुम
उनसे पूछो, क्या आप
प्रसन्न हैं?
वे अपने
कंधे झटक
देंगे—क्योंकि
जाना कैसे जाए?
प्रसन्नता
को केवल
अप्रसन्नता
की पृष्ठभूमि
में जाना जा
सकता है। वे
अप्रसन्नता
के अनुभव तक
को भूल चुके
हैं, इसलिए
यदि तुम उनसे
पूछो, क्या
आप प्रसन्न
हैं? तो वे
चुप भी रह
सकते हैं। हो
सकता है कि वे
कुछ भी न कहें।
क्योंकि जब
अप्रसन्नता
विदा हो गई तो
इसके साथ
अनुभूतियों
का दोहरापन भी
समाप्त हो गया।
इसी कारण से
बुद्ध ने नहीं
कहा कि परम
अवस्था आनंद
की है। नहीं, उन्होंने
कहा, यह
शांति की
अवस्था है, लेकिन आनंद
की नहीं।
हिंदू
और बौद्धों के
मध्य, पतंजलि
और बुद्ध के
मध्य यह एक
अंतर है। यह
आधारभूत
अंतरों में से
एक है। और
निःसंदेह
दोनों सही हैं;
यदि तुम
परम. के बारे
में जानते हो
और जब तुम उसके
बारे में कुछ
कहते हो, तो
बातें इसी
भांति हो ही
जाती हैं।
इसलिए तुम जो
कुछ भी कहते
हो, यह भले
ही कितना
विरोधाभासी
प्रतीत हो, यह सदैव सही
होता है।
पतंजलि कहते
हैं कि यह
आनंद की
अवस्था है, क्योंकि
सारी पीड़ा, पीड़ा की
सारी संभावना
मिट चुकी है।
निःसंदेह वे
सही हैं।
बुद्ध कहते
हैं, यह आनंद
भी नहीं है, क्योंकि कौन
यह जानेगा और
तुम कैसे जान
लोगे कि यह आनंदपूर्ण
है? जब
सारी पीड़ा खो
चुकी है, वहां
कोई विरोधी
अनुभूति नहीं
है, इसको
जानने का कोई
उपाय नहीं है
कि आनंद है, यदि रात्रि
पूर्णत: मिट ही
गई है तब तुम
कैसे जान लोगे
कि यह दिन है? यह दिन होगा,
किंतु तुम
कैसे जानोगे
कि यह दिन है? बुद्ध भी
सही हैं; यह
आनंद होगा, लेकिन इसको
आनंद नहीं कहा
जा सकता, क्योंकि
ऐसा कह कर तुम
अप्रसन्नता
को भीतर ले आते
हो।
व्यक्ति
तभी बुद्ध
बनता है जब उसने
प्रेरणा की
संपूर्ण
क्रियाविधि
को समझ लिया
है। प्रेरणा
क्या है? —यह
वर्तमान में
अतृप्ति, वर्तमान
में असहजता, और भविष्य
में एक आशा है।
प्रेरणा अभी
और यहीं में
अतृप्ति है, और कहीं
भविष्य में
परितृप्ति का
स्वप्न है।
तुम
एक छोटे से घर
में रहते हो; इस
छोटे से घर के
साथ तुम
अप्रसन्न हो,
अभी और यहीं
में अतृप्त हो,
और तुम
भविष्य में एक
बड़े घर की आशा
लगाते हो।
भविष्य की
जरूरत है, ठीक
अभी बडा घर
संभव नहीं है।
इसको बनाने
के. लिए—धन
कमाने में, हजारों काम
करने में, घर
को पूरा करने
में समय की
आवश्यकता
पड़ेगी, तब
बड़ा घर संभव
हो सकेगा।
इसलिए ठीक अभी
तुम अतृप्ति
.में हो, लेकिन
भविष्य में
तुम्हारे पास
परितृप्ति का
एक स्वप्न है।
तुम कठोर
परिश्रम करते
हो। तब कहीं
जाकर एक दिन
बड़ा घर संभव
हो पाता है, लेकिन अचानक
तुम देखते हो
कि तुमको
परितृप्ति
जैसा कुछ भी
नहीं घट रहा
है। जिस क्षण
बड़ा घर उपलब्ध
हो जाता है
तुम और बड़े घर
के लिए सोचने
लगते हो। तुम
प्रेरणा के
आदी हो चुके
हो। अब तुम
बिना प्रेरणा
के नहीं जी
सकते हो। पुन:
बड़े बर में भी
तुम अप्रसन्न
हो। पुन: तुम
आशा कर रहे हो
किसी दिन किसी
महल में, कहीं
और मुझको खुशी
मिल जाएगी—और
इसी प्रकार से
व्यक्ति आने
सारे जीवन को
व्यर्थ किए चला
जाता है।
प्रेरणा
—की क्रिया—व्यवस्था
को समझो। यह
तुमको भविष्य
में एक स्वप्न
देती है—और
स्वप्न एक
स्वप्न है—और
यह वर्तमान से
सारा आनंद ले
लेती है। किसी
अवास्तविक के
लिए यह उसे
नष्ट कर देती
है जो
वास्तविक है।
एक बार तुम
समझ जाओ, तुम
प्रेरणा के
माध्यम से
जीना बंद कर
देते हो। तब
तुम बस बिना
प्रेरणा के
जीते हो।
प्रेरणा
के बिना जीना
क्या है, क्या
है बिना
प्रेरणा के
जीना? —यहां
और अभी में
गहन
परितृप्ति
में जीना, और
आने वाले कल
की चिंता न
करना।
जीसस
कहते हैं, कान
के बारे में
मत सोचो। खेत
में लगी लिली
को देखो। राजा
सोलोमन भी
अपनी सारी
श्रेष्ठता के
साथ इतना
सुंदर नहीं था।
खेत में
लिलियों को
देखो; वे
कल की चिंता
में नहीं हैं।
वे बस अभी और
यहीं हैं। वे
अभी और यहीं
परमेश्वर के
साथ हैं। उनका
कोई भविष्य
नहीं है; उनका
कोई भूत नहीं
है। उनके लिए
यही क्षण सभी
कुछ है।
वह
मन जिसने
प्रेरणा को
त्याग दिया है, अब
मन नहीं है।
एक बार तुम
प्रेरणा को
छोड़ दो तुम
शाश्वत यथार्थ
के भाग बन
जाते हो जो
सदैव अभी, सदा
यहीं है। और
तब तुम
परितृप्त हो।
तुम्हारी इस
परितृप्ति से
और अधिक
परितृप्ति का
उदय होता है, परितृप्ति
की बड़ी और बड़ी
लहरें उठती
हैं।
तुम्हारी
अतृप्ति से और—और
अतृप्ति
उत्पन्न होती
है।
इसलिए
देखो.. .इसी
क्षण में तुम
प्रेरणा के
संसार में जा
सकते हो, जिसमें
तुम पहले से
ही चल रहे हो—प्रतिस्पर्द्धा,
बाजार, या
तुम प्रेरणा
के पार के
संसार में जा
सकते हो। हर
कदम पर रास्ता
दो भागों मे
बंट जाता है।
यदि तुम
प्रेरणा को
छोड़ देते हो, तुम इसी
क्षण में
प्रसन्न होने
का निर्णय लेते
हो और तुम
कहते हो, ' भविष्य
को अपनी चिंता
स्वयं कर लेने
दो। अब मैं
यहीं और अभी
होऊंगा, और
यही पर्याप्त
है, और मैं
अधिक कुछ नहीं
मांगता। मैं
उसी का आनंद
लूंगा जो मुझे
पहले से ही दे
दिया गया है।
और तुमको
पर्याप्त से
अधिक पहले से
ही दिया गया
है।’
मैंने
कभी ऐसे
व्यक्ति को
नहीं देखा
जिसका जीवन
समृद्ध न हो, लेकिन
एक धनी
व्यक्ति को पा
लेना बहुत
कठिन है—सभी
लोग भिखारी
हैं। और मैं
तुमसे कहता
हूं कि किसी
को भिखारी होने
की आवश्यकता
नहीं है। जीवन
ने तुमको पहले
से ही इतनी
समृद्धियां
दी हुई हैं कि
यदि तुम यह
जान जाओ कि
उनका आनंद कैसे
लिया जाए तो
तुम और अधिक
की मांग नहीं
करोगे। तुम
कहोगे कि मैं
तो इतनी
समृद्धियों का
आनंद नहीं ले
पा रहा हूं।
पहले से ही यह
बहुत अधिक है।
मैं इसको
सम्हाल नहीं
सकता। मेरे
हाथ बहुत छोटे
हैं, मेरा
हृदय बहुत
छोटा है। मैं
इनको नहीं
सम्हाल सकता!
आपने मुझको
इतना अधिक
नृत्य, और
इतना अधिक गीत
और इतना अधिक
आनंद दे दिया
है। मैं और
अधिक नहीं
मांग सकता।
इसी को उपयोग
करके समाप्त
कर पाना संभव
नहीं है।
यहीं
और अभी में
जीना धार्मिक
होना है। यहीं
और अभी में
जीना मन के
बिना जीना है।
यहीं और अभी
जीना बुद्ध हो
जाना है। यही
है जो
उन्होंने कहा
था—मैं सजग
हूं। क्योंकि
देवता भी
प्रेरित हो
जाते हैं वे
भी स्त्रियों
का पीछा कर
रहे हैं—शायद
श्रेष्ठ
स्त्रियों का
कुछ उच्च तल
पर पीछा कर
रहे हैं, लेकिन
स्त्रियों का
पीछा कर रहे
हैं। वे एक—दूसरे
के साथ
प्रतिस्पर्धा
कर रहे हैं।
इस
बारे में
हिंदू
पुराणों मे
वर्णित कथाएं
आत्यंतिक रूप
से सुंदर हैं।
उन्होंने
किसी बात का
वर्णन करने
में संकोच
नहीं किया है।
यदि तुम हिंदू
पुराणों में
लिखी हुई
देवताओं की
कहानियां
सुनो तो तुम
बहुत चकित हो
जाओगे, वे
करीब—करीब
मानवीय हैं।
वे वही सारी
चीजें कर रहे
हैं जो तुम कर
रहे हो शायद
कुछ बेहतर ढंग
से या शायद
किसी उच्चतर
तल पर, लेकिन
उनके कृत्य
तुम्हारी तरह
हैं। उनके
प्रमुख, प्रधान
देवता का नाम
इंद्र है। वह
देवताओं का
राजा है। और
जैसे कि राजा
लोग हमेशा
होते है—वह
सदा भयभीत
रहता है—और
उसका सिंहासन
हमेशा डोलता
रहता है, क्योंकि
कोई न सदैव
उसकी टांग
खींच रहा होता
है। तुम
दिल्ली जा
सकते हो और
लोगों से पूछ
सकते हो। जब
भी तुम किसी
सिंहासन पर
बैठते .हो, कोई
तुमको नीचे
खींच रहा होता
है, वास्तव
में तो अनेक
लोग तुम्हारी
टांगें खींच
रहे होते हैं,
क्योंकि वे
भी उस सिंहासन
पर आसीन होना
चाहते हैं।
इंद्र लगातार
कांपता रहता
है। मैं सोचता
हूं कि अब तक
तो यह कापना
उसकी आदत बन
चुकी होगी।
भले ही कोई
उसकी टांगें
खींच रहा हो
या नहीं, उसको
कांपते रहना
चाहिए।
शताब्दियों
से वह कांपता
रहा है।
कहानियां
कहती हैं कि
पृथ्वी पर कोई
तपस्वी, कोई
संत जब कभी भी
अस्तित्व के
उच्चतर तलों
को उपलब्ध करना
आरंभ कर देता
है, उसको
भय लगने लगता
है। उसका
सिंहासन
डोलने लगता है
कोई उसके साथ
प्रतिस्पर्धा
करने का
प्रयास कर रहा
है। कोई
देवताओं का
राजा बनने का
प्रयास कर रहा
है। तुरंत ही
वह, बेचारे
उस तपस्वी की
तपस्या को
नष्ट करने के
लिए सुंदर
अप्सराएं भेज
देता है। वे
उसके चारों ओर
सुंदर कामुक
नृत्य करती
हैं, वे उस
बेचारे
तपस्वी को
उसके मार्ग से
भटका देती हैं।
और तब इंद्र
चैन की नींद
सोता है : अब एक
प्रतिद्वंदी
नष्ट कर दिया
गया है।
हिंदुओं
के स्वर्ग में
रास्ते हीरों
से जड़े हुए
हैं,
और वृक्ष
सोने के हैं, और पुष्प
चांदी, रत्नों
और जवाहरातों
से बने हुए
हैं—लेकिन
संसार वैसा ही
है। वहां
स्त्रियां
बहुत संदुर
हैं—लेकिन वही
संसार, वही
वासना, वही
इच्छा। हिंदू
कहते हैं, जब
उनके सत्कर्म
समाप्त हो
जाते हैं तब
देवताओं तक को
पृथ्वी पर
पुन: जन्म
लेना पड़ता है,
जब वे अपने
सत्कर्मों का,
अपने
पुण्यों का
उपभोग कर चुके
होते हैं तो
उनको पृथ्वी
पर आना पड़ता
है।
यह
शब्द 'पुण्य' बहुत अच्छा
है।’पूना'
नगर का नाम
पुण्य से आता
है। इसका अर्थ
है :
सत्कर्मों का
नगर। वे देवता
उतने ही
संसारी हैं
जितना यह
संसार। एक बार
उनका पुण्य, उनका
सत्कर्म
समाप्त हो जाए
तब उनको वापस
लौटना पड़ता
है। एक बार
उन्होंने मजा
ले लिया फिर
उनको पुन: घिसटने
के लिए पृथ्वी
पर वापस लौटना
पड़ता है।
बुद्ध
कहते हैं, 'नहीं,
मैं देवता
नहीं हूं
क्योंकि
मुझमें
प्रेरणा नहीं
है।’ 'क्या
आप कोई संत, अर्हत हैं?' बुद्ध कहते
हैं, 'नहीं,
क्योंकि
संत में भी
मोक्ष उपलब्ध
करने की एक
विशेष प्रेरणा
होती है' —कि
मोक्ष किस
भांति पाया
जाए, संसार
से परे कैसे
जाया जाए, इच्छा—शून्य
किस भांति हुआ
जाए। लेकिन
फिर भी इच्छा
तो है वहां पर।
अब इच्छा—शून्य
हो जाने की
इच्छा है।
प्रेरणारहित
होने की
प्रेरणा हो
सकती है : प्रेरणारहित
अवस्था किस
प्रकार से
उपलब्ध हो—यही
प्रेरणा बन
सकती है।
लेकिन यह सभी
कुछ वही है :
तुम पुन: उसी
जाल में फंस
गए हो।
बुद्ध
कहते हैं, 'नहीं,
मैं सजग हूं।’
सजगता में
प्रेरणा नहीं
उठती। इसलिए
जब भी प्रेरणा
उठती है इच्छा
उठ खड़ी होती
है। करो कुछ
मत। सजग हो
जाओ और तुम
देखोगे कि
इच्छा वापस
लौट रही है, मिट रही है, यह तिरोहित
हो जाती है।
जब सजगता का
सूर्य उदित
होता है
इच्छाएं सुबह
की ओस की
बूंदों की
भांति
वाष्पित हो
जाती हैं।
तीसरा प्रश्न
:
क्योंकि
संबुद्ध व्यक्तियों
के बच्चे नहीं
होते है, और
हम विक्षिप्त
व्यक्तियों
को आपके द्वारा
संतान उत्पन्न
करने के लिए अयोग्य
घोषित कर दिया
गया है। अत: बच्चे
करने का उचित समय
कौन सा है?
संबुद्ध
व्यक्तियों
के बच्चे नहीं
होते; विक्षिप्त
व्यक्तियों
के बच्चे नहीं
होने चाहिए।
ठीक उन दोनों
के मध्य में
मानसिक
स्वास्थ्य की,
अविक्षिप्तता
की एक अवस्था
होती है, जिसमें
तुम न तो
विक्षिप्त हो
और न ही संबुद्ध,
बस स्वस्थ
हो। ठीक मध्य
में हों—संतान
उत्पन्न करने
का माता बनने
का या पिता बनने
का यही उचित
समय है।
कठिनाई
यही है, विक्षिप्त
व्यक्तियों
में अनेक
बच्चे पैदा करने
की प्रवृत्ति
होती है।
वस्तुत:
पश्चिम में
विक्षिप्तता
अधिक है।
लोगों के बहुत
अधिक बच्चे
नहीं होते हैं।
विक्षिप्तता
के इतना
प्रभावी होने
के कारणों में
से यह एक कारण
हो सकता है :
बच्चों के साथ
वह पुरानी
संलग्नता अब न
रही। पूर्व
में लोग इतने
विक्षिप्त
नहीं हैं। वे
विक्षिप्तता
को सहन नहीं
कर सकते, बच्चे
पर्याप्त
संख्या में
हैं। एक
संयुक्त
परिवार में
बहुत अधिक
बच्चे होते हैं.।
तुम्हारे पास
पागल हो पाने
के लिए समय ही
नहीं रहता—असंभव
है। वे तुमको
पागल होने ही
न देंगे। तुम
इतनी पगलाई
अवस्था में
रहते हो और
इससे इतने
लयबद्ध हो
जाते हो कि
तुम जान ही
नहीं सकते कि
तुम पागल हो।
पश्चिम में
संयुक्त
परिवार मिट
चुका है।
बच्चे भी जिस
ढंग से वे पूर्व
में होते हैं,
उस भांति
नहीं होते।
वहां अधिक से
अधिक एक या दो
बच्चे होते
हैं। बहुत
अंतराल बच
जाता है।
पुराना सारा
उलझाव अब वहां
नहीं रहा। लोग
और—और समृद्ध,
धनी होते जा
रहे हैं, वहां
कम से कम
कार्य रह गया
है और अधिक से
अधिक विश्राम
उपलब्ध हो रहा
है, और वे
नहीं जानते कि
इस विश्राम के
साथ क्या किया
जाए। वे
विक्षिप्त हो
जाते हैं। जरा
अपने बारे में
सोचो, यदि
तुम्हारे पास
करने को कुछ न
हो, न ही
बच्चे हों
जिनके लिए
तुमको कुछ
करना हो, तो
क्या होगा?
एक
बार मैंने
मुल्ला
नसरुद्दीन से
पूछा, क्या
तुम अभी तक
उसी कंपनी के
लिए काम कर
रहे हो? उसने
कहा : हां, वही
कंपनी है.
पत्नी और तेरह
बच्चे!
तुम्हारे
पास पालने के
लिए एक परिवार
है,
सुबह से
सांझ तक सारा
जीवन कठोर
परिश्रम करना है,
तुम सांझ
थके—हारे घर
आते हो और सो
जाते हो, और
सुबह फिर
तुमको इसी
धंधे में लग
जाना है, तो
तुमको
विक्षिप्त
होने का मौका
कहां मिलेगा?
तुमको
मनोचिकित्सक
के पास जाने
का समय कब मिलेगा?
पूरब में तो
मनोचिकित्सक
होते ही नहीं
हैं। यहां पर
बच्चे ही
एकमात्र
मनोचिकित्सक
हैं।
विक्षिप्त
लोगों में
अपनी
विक्षिप्तता
के कारण अपने
चारों ओर
व्यवस्ता में
उलझने का
माहौल पैदा
करने की
मनोवृत्ति
होती है। ऐसा
होना तो नहीं
चाहिए, क्योंकि
ऐसा करके वे
विक्षिप्तता
का सामना करने
से बच जाते
हैं। उनको
विक्षिप्तता
के तथ्य का
सामना करना
चाहिए और उनको
इसके पार जाना
चाहिए। संबुद्ध
व्यक्ति को
बच्चों की कोई
आवश्यकता
नहीं होती है।
उसने अपने
आपको परम जन्म
दे दिया है।
अब: किसी और को
जन्म देने की
आवश्यकता
नहीं रही। वह
स्वयं अपने आप
के लिए माता
और पिता बन
गया है। अपने
स्वयं के लिए
गर्भ बन चुका
है वह, और
उसका
पुनर्जन्म
हुआ है।
लेकिन
इन दोनों के
मध्य में, जब
विक्षिप्तता
वहां नहीं
होती, तुम
ध्यान करते हो,
तुम थोड़े से
सजग, बोधपूर्ण
हो जाते हो।
तुम्हारा
जीवन बस
अंधकार का
नहीं रहता। यह
प्रकाश उतना
तीव्र नहीं है
जैसा कि यह उस
समय होता है
जब कोई बुद्ध
बन जाता है, लेकिन फिर
भी मोमबत्ती
की एक धीमी
रोशनी उपलब्ध
हो रही है।
यही समय ठीक
है—संक्रमण
काल का समय, जब तुम बस
सीमा—रेखा पर
हो, संसार
से बाहर निकल
रहे हो, दूसरे
संसार में जा
रहे हो, बच्चे
पैदा करने का
यही उचित समय
है, क्योंकि
तब तुम अपनी
सजगता का कुछ
अंश अपने बच्चों
को दे पाने
में समर्थ हो
जाओगे।
अन्यथा उनको
तुम भेंट के
रूप में क्या
दोगे? तुम
उनको अपनी
विक्षिप्तता
दे दोगे।
मैंने
सुना है, अठारह
बच्चों को
लेकर एक
व्यक्ति पशु—प्रदर्शनी
देखना गया। इस
प्रदर्शनी
में एक
विशिष्ट बैल
था, जिसकी
कीमत आठ हजार
रुपये थी। और
उसको केवल
देखने का Sउइाल्क
पांच रुपये था।
इस व्यक्ति ने
सोचा कि इस
प्रकार तो
उसको बहुत
खर्च करना पडेगा।
लेकिन उसके
बच्चे उस बैल
को देखना ही
चाहते थे।
अंततः वे
कठघरे के
प्रवेश—द्वार
पर पहुंचे।
वहां के सहायक
ने पूछा :
महोदय, क्या
ये सभी बच्चे
आपके हैं?
हां, ये
सभी मेरे
बच्चे हैं, उस व्यक्ति
ने उत्तर दिया
क्यों?
सहायक
ने उत्तर दिया
ठीक है, एक
मिनट आप यहीं
रुके, मै
बैल को बाहर
ले आऊंगा ताकि
वह आपको देख
ले!
अठारह
बच्चे। — बैल
तक को ईर्ष्या
हो जाएगी।
तुम
अचेतन अवस्था
में अपनी
प्रतिकृतियों
को जन्म दिए
चले जाते हो।
पहले विचार
करो. क्या तुम
इस अवस्था में
हो कि यदि तुम
किसी बच्चे को
जन्म देते हो, तो
क्या तुम
संसार को कोई
भेंट दे रहे
होगे? क्या
तुम संसार के
लिए एक आशीष
हो या एक
अभिशाप हो? और अब विचार
करो क्या तुम
एक बच्चे की
माता या उसके
पिता बनने के
लिए तैयार हो?
क्या तुम
बिना शर्त
प्रेम देने के
लिए तैयार हो!
क्योंकि बच्चे
तुम्हारे
माध्यम से आते
हैं लेकिन वे
तुम्हारे
नहीं हैं।
उनको तुम अपना
प्रेम दे सकते
हो लेकिन
तुमको उन पर
अपने विचार
नहीं थोपना
चाहिए। तुमको
अपने
विक्षिप्त
रंग—ढंग
उन्हें नहीं
देना चाहिए।
क्या तुम अपने
बच्चों को
अपने
विक्षिप्त
रंग—ढंग नहीं
देने के लिए
तैयार हो? क्या
तुम उनको उनके
स्वयं के ढंग
से खिलने दोगे?
क्या उनको,
उन जैसा हो
पाने की, स्वतंत्रता
दे दोगे? यदि
तुम तैयार हो
तो ठीक है यह, वरना
प्रतीक्षा
करो; तैयार
हो जाओ।
मनुष्य
के साथ संसार
में सचेतन
विकास प्रविष्ट
हो चुका है। पशुओं
की भांति मत
बने रहो कि बस
बेहोशी में प्रजनन
चल रहा है। अब
तैयार हो जाओ।
इसके पूर्व कि
तुम बच्चा
पैदा करना
चाहो, थोड़े और
ध्यानपूर्ण
हो जाओ, थोडे
और मौन और
शांत हो जाओ।
वह सारी
विक्षिप्तता
जो तुम अपने
भीतर लिए हुए
हो उससे
छुटकारा पा लो।
उस क्षण के
लिए प्रतीक्षा
करो जब तुम
पूरी तरह से
स्वच्छ हो, तभी बच्चे
को जन्म दो।
तब अपना जीवन
बच्चे को दो, अपना प्रेम
बच्चे को दो।
तुम एके बेहतर
संसार
निर्मित करने
में सहायता कर
रहे होगे।
वरना तुम बस
संसार में भीड़
बढ़ा रहे होगे।
यह भीड़ पहले 'से ही पगला
देने वाली बन
चुकी है। इस
भीड़ को बढ़ाने
की अब कोई
आवश्यकता
नहीं है। यदि
तुम संसार को
मनुष्य दे सको,
कीड़े—मकोड़े
नहीं जो सारी
पृथ्वी पर
रेंग रहे हैं
और भीड़ बढ़ा
रहे हैं, तो
पहले तैयार हो
जाओ।
मेरे
लिए मां बनना
एक महत
अनुशासन है; पिता
बनना एक महान
तपश्चर्या है।
वरना तुम ठीक
अपने जैसा कोई
या उससे भी
बुरा अपने
स्थान पर छोड़
जाओगे।
तुम्हारी ओर
से वह कोई
अच्छा कृत्य
नहीं होगा। संबुद्ध
व्यक्तियों
को किसी को
जन्म देने की
आवश्यकता
नहीं है; विक्षिप्त
लोगों को
बच्चे नहीं
करना चाहिए।
ठीक इन दोनों
के मध्य में
वे लोग हैं जो
बच्चे पैदा
करने के उचित
पात्र हैं।
अंतिम
प्रश्न:
आप
कहते है, अपने सारे
मुखौटे हटा दो
और प्रमाणिक हो
जाओ। मैं केवल
सेक्स, प्रेम
और रोमांस के बारे
में सोचती हूं, इनके अतिरिक्त
और जानती नहीं
हूं, क्या
में गलत रास्ते
पर हूं?
मुझे
सेक्स में, कुछ
में, रोमांस
में कुछ भी
गलत नहीं
दिखाई पड़ता।
तुम ठीक
रास्ते पर हो।
प्रेम उचित पथ
है, और केवल
प्रेम के जीवन
को जीने के
माध्यम से ही
प्रार्थना
उठती है—और
किसी भांति
नहीं। प्रेम
के गहरे, मीठे
और कड़वे, प्रसन्नतादायी
और पीड़ादायक,
ऊंचे और
नीचे, स्वर्ग
और नरक, अनुभवों
के माध्यम से
ही, केवल
प्रेम के
माध्यम से
मिली पीड़ा और
प्रसन्नता के
गहन अनुभवों
द्वारा ही
व्यक्ति सजग
हो पाता है।
तुमको सजग
बनाने के लिए
उनकी
आवश्यकता होती
है।
पीड़ा
की उतनी ही
आवश्यकता है
जितनी
प्रसन्नता की
है,
क्योंकि
दोनों कार्य
करती हैं। और
धीरे— धीरे
प्रसन्नता और
पीड़ा के मध्य
में तुम रस्सी
पर चलने वाले
नट बन जाते हो।
तुम संतुलन
उपलब्ध कर
लेते हो।
लेकिन
सदियों से प्रेम
की निंदा की
गई है, काम की
निंदा की गई
है। इसलिए, निःसंदेह
तुम्हारे मन
में यह खयाल
उठता है कि तुमको
गलत रास्ते पर
होना चाहिए।
तुम बस
प्राकृतिक हो।
प्राकृतिक
होना गलत
रास्ते पर
होना नहीं है।
यदि तुम इस
ढंग से विचार
करती हो तो
तुम निंदात्मक
वृत्ति वाली
हो जाती हो, और तब तुम
गलत रास्ते पर
होगी। तब तुम
दमन करोगी, और तुम जो
कुछ भी दमन
करोगी वह
तुम्हारे
अचेतन में, तुम्हारे
तलघर में छिप
कर बैठा रहेगा,
और फिर उस
दमन से बहुत
सी कुरूपता उठ
खड़ी होती है।
मैं
तुम्हें कुछ
कहानियां
सुनाता हूं।
एक
बहुत धनी और
विख्यात व्यक्ति
लार्ड डयूसबरी
के बारे में
ऐसा कहा गया
है : उस समय वह
नब्बे वर्ष का
था,
और वह पार्क
लेन के अपने
आवास के भूतल
पर खाड़ी की ओर
खुलने वाली
खिड़की के
सामने बैठा
हुआ, रविवार
की प्रातःकाल
भ्रमण करने
वालों को देख
रहा था। अचानक
उसने एक
आकर्षक, युवा,
गौरवर्ण
लड़की को पार्क
में बच्चा—गाड़ी
धकेलते हुए
देखा। जल्दी
करो जेम्स, वह बोला, मेरे
दांत ले लाओ; मैं सीटी
मारना चाहता
हूं।
नब्बे
साल की आयु!
लेकिन होता है
यह।
यह
प्रश्न
कृष्णप्रिया
ने पूछा है।
याद
रखो,
यदि तुमने
सीटी अभी नहीं
बजाई तो किसी
दिन जब तुम्हारे
दांत भी गिर चुके
होंगे और तुम
किसी युवक को
टहलते हुए देखोगी
और चिल्लाओगी
: जल्दी करो
मेरे दांत ले
आओ! कुरूप
होगा यह। अभी
इसी समय दांत
ठीक—ठाक हैं, तुम सीटी
बजा सकती हो।
प्रत्येक
कार्य को उसके
समय पर ही
किया जाना चाहिए।
अन्यथा चीजें
कुरूप हो जाती
हैं।
एक
बच्चा
तितलियों के
पीछे दौड़ रहा
है,
यह ठीक है, लेकिन चालीस
वर्ष का कोई
व्यक्ति यदि
तितलियों के
पीछे दौड़ रहा
हो तो वह पागल
प्रतीत होगा,
युवा
व्यक्तियों
को थोड़ा सा
मूर्ख होना
अनिवार्य है।
उसकी व्यक्ति
अपेक्षा रखता
है और उसे
स्वीकार भी
करता है। कुछ
भी गलत नहीं
है इसमें। इसको
जीवन का आधार
तथ्य होना
चाहिए :
किन्हीं समयों
पर मूर्ख हो
जाना, क्योंकि
बुद्धिमत्ता
अनेक
मूर्खताओं के
अनुभव से आया
करती है। तुम
अचानक
बुद्धिमान
नहीं हो जाते
हो। तुमको
चलना पडेगा, और भटकना
पड़ेगा, और
अनेक
मूर्खतापूर्ण
कार्य करने
पड़ेंगे। और इन
सभी
मूर्खतापूर्ण
या दूसरे ढंग
के कृत्यों के
द्वारा
बुद्धिमत्ता
का उदय होता
है।
बुद्धिमत्ता
एक सुगंध की
भांति है, और
मूर्खताओं के
अनुभव खाद की
तरह कार्य
करते हैं।
उनसे दुर्गंध
उठती है, लेकिन
उनसे सुंदर
पुष्प आते हैं।
इसलिए जीवन की
खाद की
उपेक्षा मत
करो, वरना
तुम
बुद्धिमत्ता
के पुष्पों से
चूक जाओगे। और
तुम एक इच्छा
का एक ओर से
दमन कर सकती
हो, लेकिन
तब यह दूसरी
ओर से उठने
लगती है। तुम
जीवन को धोखा
नहीं दे सकते।
मम्मी, उस
छोटे विचित्र
बच्चे ने कहा :
स्कूल में बच्चे
कहते रहते हैं
कि मेरा सिर
बहुत बडा है।
तुम्हारा सिर
तो कोई खास
बड़ा नहीं है, मां ने कहा।
उन शैतान
बच्चों के
बारे में बस
भूल जाओ और मेरे
साथ बाजार चलो।
मुझको दस
पाउंड आलू
पांच पाउंड
शलजम और दो गोभियां
खरीदना है।
ठीक
है,
मम्मी।
सब्जी रखने
वाला थैला
कहां है?
ओह, उसकी
चिंता मत करो।
बस अपनी टोपी
का उपयोग कर
लेना।
इसलिए
इस रास्ते से
या उस रास्ते
से.. .एक बार और सोचो
दस पाउंड आलू
पांच पाउंड
शलजम और दो
गोभियां—और बस
अपनी टोपी
प्रयोग कर
लेना। तुम एक
ओर से दमन कर
सकती हो, यह
दूसरी ओर से
उभर कर आ जाता
है। कभी किसी
चीज का दमन मत
करो। यदि काम
वहा है तो
इसके पहले कि
बहुत देर हो
जाए इसे स्वीकार
करो। इसको ही
कहो, इसमें
उतर जाओ, इसे
स्वीकार कर लो।
यह परमात्मा
की दी हुई चीज
है। इसमें कोई
गहरा कारण
होना चाहिए।
इसमें गहरा
कारण है। कभी
किसी ऐसे
उत्तरदायित्व
से बच कर मत
भागो जो
परमात्मा ने
तुमको दिया हुआ
है, वरना
तुम विकसित न
हो पाओगी। और
अब इस शताब्दी
में, इस
बीसवीं
शताब्दी में
ऐसे प्रश्न
पूछना बस निरी
मूर्खता है।
यह
छह वर्षीय
बालक पहली बार
चिड़िया घर
देखने गया था, और
जैसा कि होता
है ढेर सारे
हैरान करने
वाले 'सवाल
पूछे जा रहा
था। पिताजी, हाथी के
बच्चे कहां से
आते हैं, उसने
पूछा। फिर
उसने अपनी बात
को आगे बढ़ाते
हुए कहा, और
यदि अब आपने
अपनी पुरानी
जल—पक्षी वाली
कहानी सुनाई
तो मैं वास्तव
में मान
जाऊंगा कि आप
निरे पागल हैं।
वे
मूर्खतापूर्ण
दिन विदा हो
चुके हैं जब
लोग जीवन—निषेधक
विचारधाराओं, जीवन
की निंदाओं के
रूप में सोचा
करते थे।
फ्रायड के बाद
मनुष्य ने काम—
भावना को अधिक
स्वाभाविक
ढंग से
स्वीकार कर लिया
है। इस संसार
में एक बड़ी
क्रांति घटित
हो चुकी है।
अब
निंदात्मक
रूप में विचार
करना समकालीन
होना नहीं है।
अब कृष्णप्रिया
का प्रश्न ठीक
था,
यदि उसने
इसे पांच सौ
वर्ष पहले
पूछा होता, लेकिन अब? असंगत है यह।
और वह भी मेरे
आश्रम में?
आज
इतना ही।
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