अध्याय—12
सूत्र-
तेषामहं
समुद्धर्ता
मृत्युसंसारसागरात्।
भवामि
नचिरात्यार्थ
मय्यावेशितचेतसाम्।।
7।।
मय्येव
मन आधत्स्व
मयि बुद्धिं
निवेशय।
निवीसष्यीस
मय्येव अत
ऊर्ध्व न
संशय:।। 8।।
हे
अर्जुन? उन मेरे
में चित्त को
लगाने वाले
प्रेमी भक्तों
का मैं शीघ्र
ही मृत्यु—
रूप संसार—
समुद्र से
उद्धार करने
वाला होता है।
इसलिए है
अर्जुन? तू
मेरे में मन
की लगा और मेरे
में ही बुद्धि
को लगा; हसके
उपरांत तू
मेरे में ही
निवास करेगा
पहले
थोड़े से
प्रश्न।
एक
मित्र ने पूछा
है, शंका,
अश्रद्धा, अनास्था, विद्रोह आदि
से भरा हुआ
व्यक्ति कैसे
प्रार्थना
करे, भक्ति
करे, समर्पण
करे?
जिसके मन में
यह सवाल उठ
आया हो कि
कैसे समर्पण करूं, कैसे
प्रार्थना
करूं, वह
व्यक्ति, और
वह व्यक्ति जो
अश्रद्धा से
भरा हो, अनास्था
से भरा हो, शंका
से भरा हो, एक
ही नहीं हो
सकते।
क्योंकि जो
शंका से भरा
है, प्रार्थना
का सवाल ही
उसके मन में
नहीं उठेगा।
जो शंका से
भरा है, समर्पण
का विचार ही
उसके मन में
नहीं उठेगा।
और
जिसके मन में
समर्पण और
प्रार्थना का
विचार उठना
शुरू हो गया
है, उसे
समझ लेना
चाहिए, उसकी
शंकाएं
बीमारियां बन
गई हैं; उसकी
अश्रद्धा उसे
खा रही है।
अपनी अनास्था
से वह खुद ही
सड़ रहा है। उसकी
अनास्था उसके
लिए कैंसर है।
और जब
तक यह दिखाई न
पड़ जाए, तब तक
प्रार्थना की
यात्रा नहीं
हो सकती। कोई
दूसरा आपको
यात्रा नहीं
करा सकेगा।
आपको स्वयं ही
जानना पड़ेगा
कि अश्रद्धा
की पीड़ा क्या
है। अनास्था
का कांटा आपको
बुरी तरह
चुभेगा, तो
ही आप उसे
निकालने के लिए
तैयार होंगे।
इसलिए
मुझसे अगर
पूछते हैं कि
क्या करें, अश्रद्धा
से भरे हैं? तो पूरी तरह
अश्रद्धा से
भर जाएं।
कुनकुनी
अश्रद्धा ठीक
नहीं है।
अश्रद्धा से
पूरी तरह भर
जाएं, ताकि
उससे ऊब सकें
और छुटकारा हो
सके।
आम
हालत ऐसी है
कि न तो आप
श्रद्धा से
भरे हैं, और न अश्रद्धा
से। आप दोनों
की खिचड़ी हैं।
वही तकलीफ है।
उसकी वजह से न
तो आप
अश्रद्धा की
यात्रा कर सकते
हैं, क्योंकि
जब अश्रद्धा
पर जाना चाहते
हैं, तो
श्रद्धा पैर
को रोक लेती
है, और
उसकी वजह से
श्रद्धा की
यात्रा भी
नहीं कर सकते
हैं, क्योंकि
जब श्रद्धा की
तरफ जाना
चाहते हैं, तो अश्रद्धा
पैर रोक लेती
है।
कृपा
करें और पूरी
तरह
अश्रद्धालु
हो जाएं। डरें
मत। भय भी न
खाएं। तर्क ही
करना है, तो पूरा कर
लें। कुतर्क
की सीमा का भी
कुछ संकोच न
करें। पूरी
तरह उतर जाएं
अपनी
अश्रद्धा में।
वह पूरी तरह
उतर जाना ही
आपको नरक में
ले जाएगा। और
नरक में जाए
बिना नरक से
कोई छुटकारा
नहीं है।
और
दूसरों की
बातें मत
सुनें।
क्योंकि
अधकचरी
दूसरों की
बातें कोई
सहायता न
पहुंचाएंगी।
जब आप नरक की
तरफ जा रहे
हों, तो
स्वर्ग की बात
ही भूल जाएं
और पूरी तरह
नरक में उतर
जाएं। एक बार
अनुभव कर लें
ठीक से, तो
फिर किसी को
कहना नहीं
पड़ेगा कि
श्रद्धा का
अमृत क्या है।
अश्रद्धा का
जहर जिसने देख
लिया, वह
अपने आप
श्रद्धा के
अमृत की तरफ
चलना शुरू हो
जाता है।
इस युग
की तकलीफ
अश्रद्धा
नहीं है। इस
युग की तकलीफ
अधूरापन है।
आपका आधा
हिस्सा
श्रद्धा से
भरा है और आधा
अश्रद्धा से
भरा है। कोई
भी यात्रा
पूरी नहीं हो
पाती।
और
ध्यान रहे, बुराई से
भी छूटने का
कोई उपाय नहीं
है, जब तक
बुराई पूरी न
हो जाए। और
पाप के भी
बाहर उठने का
कोई रास्ता
नहीं है, जब
तक कि पाप में
आप पूरी तरह
डूब न जाएं।
जिसमें हम
पूरी तरह
डूबते हैं, जिसका हमें पूरा
अनुभव हो जाता
है, फिर
किसी को कहने
की जरूरत नहीं
होती कि आप इसके
बाहर निकल आएं।
आप स्वयं ही
निकलना शुरू
कर देते हैं।
अभी तो
बहुत लोग आपको
समझाते हैं कि
श्रद्धा करो
और श्रद्धा
नहीं आती।
क्योंकि
जिसने
अश्रद्धा ही
ठीक से नहीं
की है, उसे
श्रद्धा कैसे
आ सकेगी!
श्रद्धा
अश्रद्धा के
बाद का चरण है।
आस्तिक वही हो
सकता है, जो
नास्तिक हो
चुका है।
नास्तिकता के
पहले सारी
आस्तिकता
बचकानी, दो
कौड़ी की होती
है। जिसने
नास्तिकता
नहीं जानी, वह आस्तिक
हो कैसे सकेगा?
जिसने अभी
इनकार करना
नहीं सीखा, उसके हं। का
भी कोई मूल्य
नहीं है। उसके
स्वीकार में
भी कोई जान
नहीं है। उसका
स्वीकार
नपुंसक है, इम्पोटेंट
है
कोई डर
नहीं है। न
कहें, परमात्मा
नाराज नहीं
होता है।
लेकिन पूरे
हृदय से न
कहें, तो न
भी उबारने
वाली हो जाती
है। और जिसने
पूरी तरह से न
कहकर देख लिया
और देख लिया
कि न कहने का दुख
और संताप क्या
है और झेल ली
चिंता और आग
की लपटें, वह
आज नहीं कल ही
कहने की तरफ
बढ़ेगा। उसकी
हा में बल
होगा। उसकी ही
में उसके जीवन
का अनुभव होगा।
तो
मुझसे यह मत
पूछें कि आपका
चित्त
अश्रद्धा से
भरा है, तो आप
प्रार्थना की
तरफ कैसे जाएं।
पूरी तरह
अश्रद्धा से
भर जाएं। आपके
लिए
प्रार्थना की
तरफ जाने के
अतिरिक्त कोई
मार्ग न बचेगा।
मगर
अधूरे—अधूरे
होना अच्छा
नहीं है।
परमात्मा की
प्रार्थना भी
कर रहे हैं और
भीतर संदेह भी
है, तो
प्रार्थना
क्यों कर रहे
हैं? बंद
करें यह
प्रार्थना।
अभी संदेह ही
कर लें ठीक से।
और जब संदेह न
बचे, तब
प्रार्थना
शुरू करें।
कुछ भी पूरा
करना सीखना
चाहिए।
क्योंकि पूरा
करते ही
व्यक्तित्व
अखंड हो जाता
है। आप टुकड़े—टुकड़े
में नहीं होते।
आपके
भीतर पच्चीस
तरह के आदमी
हैं। आप एक
भीड़ हैं। एक
मन का हिस्सा
कुछ कहता है।
दूसरा मन का
हिस्सा कुछ
कहता है। तीसरा
मन का हिस्सा
कुछ कहता है।
एक
देवी मेरे पास
आज सुबह ही आई
थीं। कहती हैं
कि बीस साल से
ईश्वर की खोज
कर रही हैं।
मैंने उनसे
कहा कि कल
सुबह चौपाटी
पर ध्यान के
लिए पहुंच
जाएं छ: बजे।
उन्होंने कहा, छ: बजे
आना तो बहुत
मुश्किल होगा।
बीस
साल से ईश्वर
की खोज चल रही
है! सुबह छ: बजे
चौपाटी पर आना
मुश्किल है! यह
ईश्वर की खोज
है! इस तरह के
अधूरे लोग
कहीं भी नहीं
पहुंचते। ये
त्रिशंकु की
भांति अटके रह
जाते हैं।
संकोच भी नहीं
होता, सोचने
में खयाल भी
नहीं आता कि
मैं कह रही
हूं कि बीस
साल से मैं
ईश्वर को खोज
रही हूं और सुबह
छ: बजे
पहुंचना
मुश्किल है!
यह खोज कितनी
कीमत की है?
बीस
जन्म भी इस
तरह खोजो, तो कहीं
पहुंचना नहीं
हो पाएगा। यह
खोज है ही
नहीं। यह
सिर्फ धोखा है।
ईश्वर से कुछ
लेना—देना भी
मालूम नहीं
पड़ता है। यह
भी ऐसे रास्ते
चलते पूछ लिया
है। यह भी ऐसे
ही कि कहीं
ईश्वर पड़ा हुआ
मिल जाए और
फुर्सत का समय
हो, तो
जैसा ताश खेल
लेते हैं, ऐसा
उसको भी उठा
लेंगे। ईश्वर
अगर कहीं ऐसे
ही मिलता हों—बिना
कुछ खर्च किए,
बिना कुछ
श्रम किए, बिना
कुछ छोड़े, बिना
कुछ मेहनत
उठाए—तो
सोचेंगे; ले
लेंगे।
इस भाव
से जो चलता है, उसकी
श्रद्धा भी
झूठी है, उसकी
अश्रद्धा भी
झूठी है। उसकी
खोज भी झूठी
है। उसका
व्यक्तित्व
ही पूरा झूठा
है।
सच्चे
होना सीखें।
सच्चे होने के
लिए धार्मिक
होना जरूरी
नहीं है।
नास्तिक भी
सच्चा हो सकता
है। फिर
नास्तिकता
पूरी होनी
चाहिए; तो आप सच्चे
नास्तिक हो गए।
और मैंने अब
तक नहीं सुना
है कि कोई
सच्चा
नास्तिक
आस्तिक बनने
से बच गया हो।
सच्चे
नास्तिक को
आस्तिक बनना
ही पड़ता है।
क्योंकि
जिसकी
नास्तिकता तक
में सच्चाई है,
वह कितने
देर तक अपने
को आस्तिक
बनाने से रोक सकता
है!
लेकिन
तुम्हारी
आस्तिकता तक
झूठी है। और
जिसकी
आस्तिकता तक
झूठी है, वह कैसे
परमात्मा तक
पहुंच सकता
है! धार्मिकता
भी झूठी है, ऊपर—ऊपर है।
जरा—सा खोदो, तो हर आदमी
के भीतर
नास्तिक मिल
जाता है। बस, ऊपर से एक
पर्त है
आस्तिकता की,
स्किन डीप।
चमड़ी जरा—सी
खरोंच दो, नास्तिक
बाहर आ जाता
है। और वह जो
भीतर है, वही
असली है। वह
जो ऊपर—ऊपर है,
उसका कोई
मूल्य नहीं है।
तो
पहले तो
ईमानदारी से
इस बात की खोज
करें कि अश्रद्धा
है, शंका
है, तो ठीक
है। मेरे
चित्त में जो
स्वाभाविक है,
मैं उसका
पीछा करूंगा।
तो मैं शंका
पूरी करूंगा
जब तक कि हार न
जाऊं। और जब
तक कि मेरी
शंका टूट न
जाए, तब तक
जहां मेरी
शंका मुझे ले
जाएगी, मैं
जाऊंगा।
थोड़ी
हिम्मत करें
और शंका के
रास्ते पर
चलें। ज्यादा
आगे आप नहीं
जा सकेंगे।
क्योंकि शंका
का रास्ता
कहां ले जाएगा? शंका का
अंतिम परिणाम
क्या होगा? संदेह करके
कहां
पहुंचेंगे? क्या मिलेगा?
आज तक
किसी ने भी
नहीं कहा कि
संदेह से उसे
आनंद मिला हो।
और आज तक किसी
ने भी नहीं
कहा कि शंका
से उसे जीवन
की परम अनुभूति
का अनुभव हुआ
हो। आज तक
किसी ने भी
नहीं कहा कि
इनकार करके
उसने अस्तित्व
की गहराई में
प्रवेश कर
लिया हो।
आज
नहीं कल आपको
दिखाई पड़ने
लगेगा कि आप
अस्तित्व के
बाहर—बाहर
परिधि पर भटक
रहे हैं। आज
नहीं कल आपको
खुद ही दिखाई
पड़ने लगेगा, आपकी
शंका ईश्वर को
नहीं मिटा रही
है, आपको
मिटा रही है।
और आपका संदेह
धर्म के खिलाफ
नहीं है, आपके
ही खिलाफ है, आपके ही
पैरों को और जडों
को काटे डाल
रहा है।
जब तक
आपको यह दिखाई
न पड़ जाए कि
आपकी शंका आपकी
ही शत्रु है, तब तक, तब तक आप
प्रार्थना की
यात्रा पर
नहीं निकल सकते
हैं। मेरे
कहने से आप
नहीं
निकलेंगे।
किसी के कहने
से आप नहीं
निकलेंगे। जब
आपकी शंका
आपको आग की
तरह जलाने
लगेगी, तभी!
बुद्ध
के पास एक
आदमी आया था।
और वह आदमी
कहने लगा, आपकी
बातें सुनते
हैं, अच्छा
लगता है; लेकिन
संसार से
छूटने का मन
नहीं होता अभी।
और आप कहते
हैं कि संसार
दुख है, यह
भी समझ में
आता है, लेकिन
फिर भी अभी
संसार में रस
है। तो बुद्ध
ने कहा, मेरे
कहने से कि
संसार दुख है,
तुझे कैसे
समझ में आ
सकेगा! और जिस
दिन तुझे समझ
में आ जाएगा
कि संसार में
दुख है, तू
मेरे लिए
रुकेगा! तू
छलांग लगाकर
बाहर हो जाएगा।
बुद्ध
ने कहा, तू ऐसा समझ
कि तेरे घर
में आग लग गई
है। तो तू
मुझसे पूछने
आएगा कि घर से
बाहर निकलूं न
निकलूं? तू
किस से पूछने
रुकेगा? अगर
मैं तेरे घर
में मेहमान भी
हूं तो भी तू
मुझे भीतर ही छोड़कर
बाहर निकल
जाएगा। पहले
तू बाहर निकल
जाएगा।
लेकिन
तुझे खुद ही
अनुभव होना
चाहिए कि घर
में आग लगी है।
तुझे तो लग
रहा हो कि घर
के चारों तरफ
फूल खिले हैं
और आनंद की
वर्षा हो रही
है, और
मैं तुझसे कह
रहा हूं कि
तेरे घर में
आग लगी है, तो
तू मुझसे कहता
है, आपकी
बात समझ में
आती है।
क्योंकि तेरी
इतनी हिम्मत
भी नहीं है
कहने की कि
आपकी बात मुझे
समझ में नहीं
आती। तेरा यह
भी साहस नहीं
है कहने का कि
तुम झूठ बोल
रहे हो। यह घर
तो बड़े आनंद
से भरा है। आग
कहां लगी है!
तू बिलकुल
कमजोर है। तो
तू कहता है कि
बात समझ में
आती है कि घर
में आग लगी है,
फिर भी
छोड़ने का मन
नहीं होता। ये
दोनों बातें
विरोधी हैं।
अगर घर में आग
लगी है, तो
छोड़ने का मन
होगा ही।
छोड़ने का मन
कहना भी ठीक
नहीं है। घर
में आग लगी हो,
तो आपको पता
भी नहीं चलता
कि आग लगी है।
जब आप घर के
बाहर हो जाते
हैं, ठीक
से सांस लेते
हैं, तब
पता चलता है
कि घर में आग
लगी है। घर
में आग लगी है,
यह सोचने के
लिए भी समय
नहीं गंवाते।
भागकर पहले
बाहर हो जाते
हैं। जिस दिन
आपकी शंका, संदेह, अनास्था
आपके लिए
अग्नि की
लपटें बन जाएगी,
उसी दिन आप
प्रार्थना की
तरफ दौड़ेंगे,
उसके पहले
नहीं।
इसलिए
मैं आपसे कहता
हूं किसी की
सुनकर प्रार्थना
के रास्ते पर
मत चले जाना।
किसी की मानकर
कि संसार दुख
है, परमात्मा
को मत खोजने
लगना। अपनी ही
मानना, क्योंकि
आपके
अतिरिक्त आप
जब भी किसी और
की मान लेंगे,
आप झूठे हो
जाएंगे।
तो
अच्छा है; बुरा कुछ
भी नहीं है।
आपकी
अश्रद्धा भी
आपके जीवन में
निखार लाएगी।
आपकी
नास्तिकता भी
आपको तैयार
करेगी आस्तिकता
के लिए। आपका
संदेह भी आपको
छांटेगा, काटेगा,
तराशेगा, और आप योग्य
बनेंगे कि
परमात्मा के
मंदिर में प्रवेश
कर सकें।
मेरी
दृष्टि में
परमात्मा के
विपरीत कुछ भी
नहीं है। हो
भी नहीं सकता।
इसलिए अगर कोई
कहता है कि
नास्तिक
परमात्मा के
विरोध में है, तो वह
नासमझ है। उसे
आस्तिकता की
कोई खबर नहीं
है।
नास्तिक
भी तैयारी कर
रहा है आस्तिक
होने की। वह
भी कह रहा है
कि नहीं है
परमात्मा।
उसके भीतर भी
खोज शुरू हो
गई है। नहीं
तो क्या
प्रयोजन है यह
कहने से भी कि
परमात्मा
नहीं है? क्या
प्रयोजन है
सोचने से कि
वह है या नहीं?
क्या जरूरत
है कि
अश्रद्धा
करके हम अपनी
शक्ति नष्ट
करें?
वह जो
अश्रद्धा कर
रहा है, वह असल में
श्रद्धा की
तलाश में है।
वह चाहता है
कि हो। लेकिन
उसे मालूम
नहीं पड़ता कि
है। इसलिए
इनकार करता है।
और इनकार करता
है, तो
पीड़ा अनुभव
करता है।
इनकार
पूरा होने दें।
यह धार तलवार
की गहरे उतर
जाए और हृदय
को काट डाले
पूरा। आप
प्रार्थना के
रास्ते पर आ
जाएंगे।
प्रार्थना के
रास्ते पर आना
स्वाभाविक हो
जाता है।
और
जल्दी मत करें।
बिना अनुभव के
कहीं से भी
निकल जाना
खतरनाक है।
बिना अनुभव के
कहीं से भी
भाग जाना खतरा
है। क्योंकि जहां
से भी आप बिना
अनुभव के भाग
जाते हैं, वह जगह
आपका पीछा
करेगी। और
आपके मन में
रस तो बना ही
रहेगा। और
आपके मन की
दौड़ तो उसी
तरफ होती ही
रहेगी। आप भाग
सकते हैं कहीं
से भी। लेकिन
जिससे आप बिना
अनुभव के भाग
रहे हैं, वह
आपका पीछा
करेगा, वह
छाया की तरह
आपके साथ होगा।
तो
मेरी दृष्टि
भागने की नहीं
है। मेरी
दृष्टि तो
किसी चीज के
अनुभव की
परिपक्वता
में उतर जाने
की है। जब पका
हुआ पता वृक्ष
से गिरता है, तो उसका
सौंदर्य
अनूठा है। न
तो वृक्ष को
पता चलता कि
पत्ता कब लरि
गया; न
वृक्ष में कोई
घाव होता है
पत्ते के
गिरने से; न
कोई पीड़ा होती।
न पत्ते को
पता चलता है
कि मैंने
वृक्ष को कब
छोड़ दिया। हवा
का एक हलका—सा
झोंका काफी हो
जाता है।
लेकिन
कच्चे पत्ते
की भी नस—नस तन
जाती है।
कच्चे पत्ते
का टूटना
दुर्घटना है।
पके पत्ते का
गिरना एक सुखद, शात, नैसर्गिक
बात है।
आप
जहां से भी
हटें, पके
पत्ते होकर
हटना। कच्चे
पत्ते की तरह
मत टूट जाना, नहीं तो घाव
रह जाएंगे। और
पके पत्ते का
जो सौंदर्य है,
उससे आप वंचित
रह जाएंगे।
डरें
मत। अभी संदेह
है, तो
संदेह को पकने
दें। और किसी
की मत सुनना।
क्योंकि
चारों तरफ
सुनाने वाले
लोग बहुत हैं।
चारों तरफ
आपको सुधारने
वाले लोग बहुत
हैं। उनसे
सावधान रहना।
चारों तरफ
आपको बनाने
वाले लोग बहुत
हैं, उनसे
जरा बचना।
अपनी जीवन—
धारा को मौका
देना कि वह
स्वभावत: जो
भी चाहती है, उसके पूरे
अनुभव से गुजर
जाए। नहीं तो
बड़ा उपद्रव
होता है। पूरे
इतिहास में यह
उपद्रव हुआ है।
हमारी
तकलीफ क्या है? जिस
मित्र ने पूछा
है, संदेह
मन में होगा, प्रार्थना
का लोभ भी
नहीं छूटता।
क्योंकि हमने
देखा है उन
लोगों को, जो
प्रार्थना
में आनंदित
हैं। तकलीफ
कहां खड़ी होती
है? मीरा
नाच रही है।
आपको लगता है
कि काश, मैं
भी ऐसा नाच
सकता! यह नाच
संक्रामक है।
यह आपके हृदय
में भी पुलक
जगाता है; प्रलोभन
पैदा करता है।
यह मीरा की
मुस्कुराहट, यह उसकी आंखों
की ज्योति, यह उसके
चेहरे से
बरसती हुई
अमृत की धारा,
यह आपको भी
लगती है कि
मेरे जीवन में
भी हो।
लेकिन
मीरा कहती है
कि मैं कृष्ण
को देखकर नाच
रही हूं। भीतर
संदेह खड़ा हो
जाता है।
कृष्ण आपको
कहीं दिखाई
नहीं पड़ते।
मीरा पागल
मालूम पड़ती है।
यह कृष्ण पर
भरोसा करना
मुश्किल है।
मीरा
जिसके लिए नाच
रही है, उस पर भरोसा
करना मुश्किल
है; और
मीरा के नाच
से बचना भी
मुश्किल है।
इससे तकलीफ
खड़ी होती है।
लगता है, काश,
हम भी ऐसा
नाच सकते!
लेकिन जिस
कारण मीरा नाच
रही है, उसके
लिए
तर्कयुक्त
प्रमाण नहीं
मिलते। किस
ईश्वर के लिए
नाच रही है, वह ईश्वर
कहीं दिखाई
नहीं पड़ता।
हजार शंकाएं
बुद्धि खड़ी
करती है।
तो हम
कहते हैं, कोई
ईश्वर वगैरह
नहीं है। तो
फिर मीरा पागल
है, दिमाग
इसका खराब है,
ऐसा कहकर
अपने को समझा
लेते हैं। फिर
भी वह मीरा की
धुन, वह
नाच पीछा करता
है। वह आपके
सपनों में
आपके साथ
जाएगा। आप
उठेंगे और
बैठेंगे और
लगेगा,
कहीं मन का
कोई कोना
कहेगा, काश!
मीरा का ईश्वर
सच होता, तो
हम भी नाच
सकते थे।
नाचना
आप चाहते हैं; आनंदित
आप होना चाहते
हैं। ऐसा आदमी
खोजना
मुश्किल है, जिसकी आनंद
की आकांक्षा न
हो। और संदेह
से आनंद मिलता
नहीं।
अश्रद्धा से
आनंद मिलता
नहीं। अनास्था
से आनंद मिलता
नहीं। और आनंद
की आकांक्षा
है, और
बुद्धि संदेह
खड़े कर देती
है। जहां आनंद
मिल सकता है, वहां बुद्धि
सवाल खड़ा कर
देती है। और
हृदय मांगता
है आनंद। और
बुद्धि आनंद
दे नहीं सकती।
इस दुविधा में
प्राण उलझ
जाते हैं।
तो आप
भी नकली नाच—नाच
सकते हैं। आप
भी मजीरा
उठाकर नाच
सकते हैं।
लेकिन वह ऊपर—ऊपर
होगा।
क्योंकि मीरा
के नाच में
मीरा के पांव
असली काम नहीं
कर रहे हैं, मीरा की
श्रद्धा असली
काम कर रही है।
मीरा से अच्छी
नर्तकियां
होंगी, जो
ज्यादा अच्छा
नाच लेंगी।
लेकिन मीरा के
नाच का गुण और
है। कितनी ही
बड़ी कोई
नर्तकी और
नर्तक हो, मीरा
के नाच में जो
बात है, वह
उसके नाच में
नहीं हो सकती।
मीरा के पैर
अनगढ़ होंगे।
ताल न हो; लय
न हो; संगीत
का अनुभव न हो;
लेकिन कुछ
और है, जो
संगीत से भी
बड़ा है। और
कुछ और है, जो
व्यवस्था से
भी बड़ा है। और
कुछ इतना गहन
उतर गया है
भीतर कि उसके
उतरने के कारण
नाच हो रहा है।
इस नाच के
पीछे कुछ
अलौकिक खड़ा है।
वह
अलौकिक की
श्रद्धा न हो, तो नाच तो
आप भी सकते
हैं, लेकिन
आपकी आत्मा
में आनंद पैदा
नहीं होगा।
नाच बाहर—बाहर
रह जाएगा। आप
भीतर खाली के
खाली, रिक्त,
उदास, वैसे
के वैसे रह
जाएंगे।
मीरा
की श्रद्धा ही
केंद्र है। आप
संदेह के
केंद्र पर नाच
सकते हैं, लेकिन
मीरा के सुख
की अनुभूति
आपको नहीं
होगी।
और बडी
कठिनाई इससे
खड़ी होती है
कि जाग्रत पुरुषों
का भी बाहर का
जीवन ही हमें
दिखाई पड़ता है।
उनके भीतर का
तो हमें कुछ
पता नहीं है।
हम
महावीर को
देखते हैं।
उनकी शात
मुद्रा दिखाई
पड़ती है। उनकी
आंखों का मौन
दिखाई पड़ता है।
मन प्रलोभन से
भर जाता है।
काश, ऐसा
हमें भी हो
सके! फिर
महावीर की बात
सुनते हैं, उस पर
श्रद्धा नहीं
आती।
बुद्ध
को देखते हैं।
उनके आस—पास
जो हवा बहती
है शांति की, वह हमें
भी छूती है।
उनके पास पहुंचकर
जो स्थान हो
जाता है, कि
पोर—पोर जैसे
किसी ताजगी से
भर गए, वह
हमें भी
प्रतीत होता
है। लेकिन
बुद्ध की बात
सुनकर
श्रद्धा नहीं
आती।
बुद्ध
के भीतर जो है, उसका
हमें पता नहीं।
बाहर जो है, हमें पता है।
तो एक बड़ी
उलटी
प्रक्रिया
शुरू होती है
कि हम सोचते
हैं, जिस
भांति बुद्ध
बैठे हैं, हम
भी बैठ जाएं, तो शायद जो
भीतर घटा है, वह हमें भी
घट जाएगा। तो
महावीर जैसा
चलते हैं, हम
भी चलने लगें।
महावीर ने
वस्त्र छोड़
दिए, तो हम
भी वस्त्र छोड़
दें।
तो
अनेक लोग
महावीर को
देखकर नग्न
खड़े हो गए हैं!
वे सिर्फ नंगे
हैं; दिगंबर
नहीं हैं।
क्योंकि
महावीर की
नग्नता के
पहले भीतर एक
आकाश उत्पन्न
हो गया है। उस
आकाश में
वस्त्र छोड़
दिए हैं। इनके
भीतर वह आकाश
उत्पन्न नहीं
हुआ।
इन्होंने
सिर्फ वस्त्र
छोड़ दिए हैं।
इनकी देह भर
नंगी हो गई है।
महावीर
चींटी भी हो, तो पांव
फूंक—फूंककर
रखते हैं। इसलिए
नहीं कि
उन्हें डर है
कि कहीं चींटी
मर न जाए।
उनके पीछे
चलने वाला भी
पांव फूंक—फूंककर
रखने लगता है
कि कहीं चींटी
मर न जाए।
लेकिन इसे
अपनी ही आत्मा
का पता नहीं
है, इसे
चींटी की
आत्मा का पता
कैसे हो सकता
है! इसे अपने
ही भीतर के
जीवन का कोई
अनुभव नहीं है,
चींटी के
जीवन का अनुभव
कैसे हो सकता
है! इसकी अहिंसा
थोथी, उथली,
ऊपर—ऊपर हो
जाती है। ऊपर
से आचरण हो
जाता है। भीतर
का अंतस वैसा
का वैसा बना
रहता है।
भीतर
अंतस बदले, तो ही
बाहर जो क्रांति
घटित होती है;
वह
वास्तविक
होती है।
लेकिन यह भूल
होती रही है।
मैंने
सुना है, एक यहूदी
फकीर हुआ, बालशेम।
थोड़े से जमीन
पर हुए कीमती
फकीरों में एक।
बालशेम से
किसी ने पूछा
कि तुम जब भी
बोलते हो, तो
तुम ऐसी चोट
करने वाली
मौजू कहानी कह
देते हो। कहा
से खोज लेते
हो ये
कहानियां? तो
बालशेम ने कहा,
एक कहानी से
समझाता हूं।
और
बालशेम ने कहा
कि एक सेनापति
एक छोटे गांव
से गुजरता था।
बड़ा कुशल
निशानेबाज था।
उस जमाने में
उस जैसा
निशानेबाज
कोई भी न था।
सौ में सौ
निशाने उसके
लगते थे।
अचानक उसने
देखा गाव से
गुजरते वक्त
अपने घोड़े पर, एक बगीचे
की चारदीवारी
पर, लकड़ी
की चारदीवारी,
फेंसिंग, उसमें कम से कम
डेढ़ सौ गोली
के निशान हैं।
और हर निशान
चाक के एक गोल
घेरे के ठीक
बीच केंद्र पर
है। डेढ़ सौ!
सेनापति
चकित हो गया।
इतना बड़ा
निशानेबाज इस
छोटे गांव में
कहा छिपा है!
और जो चाक का
गोल घेरा है, ठीक उसके
केंद्र पर
गोली का निशान
है। गोली लकड़ी
को आर—पार
करके निकल गई
है। और एकाध
मामला नहीं है,
डेढ़ सौ
निशान हैं!
उसे
लगा कि कोई
मुझ से भी बड़ा
निशानेबाज
पैदा हो गया।
पास से निकलते
एक राहगीर से
उसने पूछा कि
भाई, यह
कौन आदमी है? किसने ये
निशान लगाए
हैं? किसने
ये गोलियां
चलाई हैं? इसकी
मुझे कुछ खबर
दो। मैं इसके
दर्शन करना चाहूंगा!
उस ग्रामीण ने
कहा कि ज्यादा
चिंता मत करो।
गांव का जो
चमार है, उसका
लड़का है। जरा
दिमाग उसका
खराब है। नट—बोल्ट
थोड़े ढीले
हैं!
उस
सेनापति ने
कहा, मुझे
उसके दिमाग की
फिक्र नहीं है।
जो आदमी डेढ़
सौ निशाने लगा
सकता है इस
अचूक ढंग से, वर्तुल के
ठीक मध्य में,
उसके दिमाग
की मुझे चिंता
नहीं। वह
महानतम
निशानेबाज है।
मैं उसके
दर्शन करना
चाहता हूं।
उस
ग्रामीण ने
कहा कि थोड़ा
समझ लो पहले।
वह गोली पहले
मार देता है, चाक का
निशान बाद में
बनाता है।
करीब—करीब
धर्म के
इतिहास में
ऐसा हुआ है।
हम सब गोली
पहले मार रहे
हैं, चाक
का निशान बाद
में बना रहे
हैं! लेकिन
राहगीर को तो
यही दिखाई
पड़ेगा कि गजब
हो गया। जिसे
पता नहीं, उसे
तो दिखाई
पड़ेगा कि गजब
हो गया।
जिंदगी
बाहर से भीतर
की तरफ उलटी
नहीं चलती है।
जिंदगी की
धारा भीतर से
बाहर की तरफ
है, वही
सम्यक धारा है।
गंगोत्री
भीतर है। गंगा
बहती है सागर
की तरफ। हम
सागर से
गंगोत्री की
तरफ बहाने की
कोशिश में लगे
रहते हैं।
अगर
आपके भीतर
संदेह है, तो
घबडाएं मत।
संदेह की गंगा
को सागर तक
पहुंचने दें।
और रुकावट मत
डालें। आज
नहीं कल आप
पाएंगे कि
संदेह ही आपको
समर्पण तक ले
आया। इससे
उलटा कभी भी
नहीं हुआ है।
सभी
संदेह करने
वाले, सम्यक
संदेह करने
वाले, राइट
डाउट करने
वाले लोग
समर्पण पर
पहुंच गए हैं।
अश्रद्धा ही
श्रद्धा का
द्वार बन जाती
है। मगर पूरी
अश्रद्धा।
अनास्था
ईमानदार, प्रामाणिक
अनास्था
आस्था की जननी
है।
थोपें
मत। ऊपर—ऊपर
से थोपें मत।
ऊपर की चिंता
मत करें। मत
पूछें कि मन
अनास्था से
भरा है, तो कैसे
प्रार्थना
करें।
अनास्था से
पूरा भर जाने
दें। और मैं
आपको कहता हूं
कि प्रार्थना
का बीज आपके
भीतर छिपा है।
अनास्था को
पूरी तरह बढ़ने
दें। यह
अनास्था ही उस
बीज के लिए
भूमि बन जाएगी।
प्रार्थना का
अंकुर आपके भीतर
पैदा होगा।
नास्तिक
होने से मत
डरें अगर
आस्तिक होना
है। और अगर
किसी दिन
ईश्वर के
चरणों में
पूरा सिर रखकर
हौ भर देनी है, तो अभी जब
तक आपको लगे
कि वह नहीं है,
तब तक
ईमानदारी से
इनकार करना।
जल्दी ही मत
भरना। जल्दी
भरी गई ही
गर्भपात है, एबार्शन है।
उससे जो बच्चा
पैदा होता है,
वह मुर्दा
पैदा होता है।
अनास्था के
गर्भ को कम से
कम नौ महीने
तक तो चलने
दें। और अगर
यह गर्भ पूरा
हो गया हो, तो
फिर मुझसे
पूछने की
जरूरत न रह
जाएगी। अगर आप
सच में ही ऊब
गए हों अपनी
अश्रद्धा से,
तो आप उसे
छोड़ ही देंगे,
फेंक ही
देंगे। न ऊबे
हों, तो
थोड़ी
प्रतीक्षा
करें। थोड़ा
ऊबे।
डर
इसलिए नहीं है
मुझे, क्योंकि
अश्रद्धा से
कभी आनंद
मिलता नहीं, इसलिए आप
तृप्त नहीं हो
सकते। आज नहीं
कल आप उसे
फेंक ही देंगे।
श्रद्धा से ही
आनंद मिलता है।
और बिना आनंद
के कोई
व्यक्ति कब तक
जीवित रह सकता
है?
धर्म
को पृथ्वी से
मिटाया नहीं
जा सकता तब तक, जब तक कि
आदमी आनंद की
मांग कर रहा
है। जिस दिन
आदमी आनंद के
बिना जीने को
राजी हो जाएगा,
उस दिन धर्म
को मिटाया जा
सकता है, उसके
पहले नहीं।
धर्म
परमात्मा की
खोज नहीं है, आनंद की
खोज है। और
जिन्हें आनंद
खोजना है, उन्हें
परमात्मा
खोजना पड़ता है।
और आनंद की
खोज हमारे
भीतर का
नैसर्गिक
स्वर है।
इससे
ही संबंधित एक
प्रश्न और एक
मित्र ने पूछा
है, ईश्वर
की ओर श्रद्धा
बढाना बहुत
कठिन लगता है,
क्योंकि
उसके
अस्तित्व को
मानने का कोई
ठोस सबूत या
कारण नहीं
मिलता!
ईश्वर की
श्रद्धा
बढ़ाना बहुत ही
कठिन मालूम
पड़ता है।
बढ़ाइए ही
क्यों? ऐसी झंझट
करनी क्यों!
कौन—सी अड़चन आ
रही है आपको
कि ईश्वर की
श्रद्धा बढ़ानी
है! मत बढ़ाइए।
छोड़िए ईश्वर
की बात ही।
बेचैनी क्या
है? क्यों
चाहते हैं कि
ईश्वर की
श्रद्धा बढ़े?
तो
अपने भीतर
तलाश करिए।
बिना ईश्वर के
आपको शांति नहीं
मालूम पड़ती।
बिना ईश्वर के
चैन नहीं
मालूम पड़ता।
इसलिए
श्रद्धा
बढ़ाना चाहते
हैं। पहले
अपने भीतर की
इस बात को
समझिए कि मेरे
भीतर कोई
बेचैनी है, जिसकी
वजह से ईश्वर
की श्रद्धा
बढाना चाहता हूं।
और अगर बेचैनी
ठीक से समझ
में आ जाए, तो
आप फिर प्रमाण
नहीं पूछेंगे,
सबूत नहीं
पूछेंगे।
प्यासा
आदमी यह नहीं
पूछता कि पानी
है या नहीं म्
प्यासा आदमी
पूछता है, पानी कहा
है? प्यास
न लगी हो, तो
आदमी पूछता है,
पता नहीं, पानी है या
नहीं! प्यासे
आदमी ने अब तक
नहीं पूछा है
कि पानी है या
नहीं! प्यासा
आदमी पूछता है,
पानी कहां
है? कैसे
खोजूं?
ईश्वर
के प्रमाण की
जरूरत क्या है? आपके
भीतर ईश्वर के
बिना बेचैनी
है, यह
काफी प्यास है।
और यही उसका
प्रमाण है। इस
बात के फर्क
को समझ लें।
एक
आदमी पूछता है, ईश्वर है
या नहीं, इसका
प्रमाण चाहिए।
मैं प्रमाण
नहीं देता।
मैं कहता हूं
छोड़ो फिक्र। जिसका
प्रमाण नहीं,
उसकी फिक्र
क्यों करनी? ईश्वर को
जाने दो, उसकी
बला। तुम अपने
रास्ते पर जाओ।
ईश्वर तुमसे
कभी कहने आता
नहीं कि मेरा
प्रमाण तुमने
अभी तक पता
लगाया कि नहीं।
तो झंझट में
पड़ते क्यों हो?
क्यों अपने
मन को खराब
करते हो? शांति
से सोओ। क्यों
नींद खराब
करनी! अनिद्रा
मोल लेनी!
क्या बात है?
चैन
नहीं है भीतर।
कहीं भीतर कोई
एक प्यास है, जो बिना
ईश्वर के नहीं
बुझ सकती।
बिना ईश्वर के
प्यास नहीं
बुझ सकती। वह
प्यास भीतर से
धक्के देती है
कि पता लगाओ ईश्वर
का।
अपनी
प्यास को समझो, ईश्वर को
छोड़ो। पानी
उतना महत्वपूर्ण
नहीं है, जितनी
प्यास
महत्वपूर्ण
है। पानी तो
गौण है। अगर
प्यास न हो, तो पानी का
करिएगा भी
क्या! और अगर
प्यास हो, तो
हम पानी खोज
ही लेंगे।
एक
नियम जीवन का
है कि उसी चीज
की प्यास होती
है, जो
है। जो नहीं
है, उसकी
प्यास भी नहीं
होती। जो नहीं
है, उसका
कोई अनुभव भी
नहीं होता, प्यास का भी
अनुभव नहीं
होता। उसके
अभाव का भी
अनुभव नहीं
होता।
आदमी
की प्यास ही
प्रमाण है।
इसका मतलब यह
हुआ कि आपको
सब कुछ मिल
जाए तो भी तृप्ति
न होगी, जब तक कि
आपको ईश्वर न
मिल जाए। अगर
आपको तृप्ति
हो सकती है
बिना उसके, तो आप तृप्त
हो जाएं; ईश्वर
को कोई एतराज
नहीं है। आप
मजे से तृप्त
हो जाएं। वह
आपकी तृप्ति
में बाधा
डालने नहीं
आएगा।
लेकिन
आप तृप्त हो
नहीं सकते। यह
कठिनाई ईश्वर
की नहीं है।
यह आदमी के
होने के ढंग
की कठिनाई है।
आदमी इस ढंग
का है कि बिना
ईश्वर के
तृप्त नहीं हो
सकता। और
इसलिए जब हम
आदमी से ईश्वर
छीन लेते हैं, तो वह न
मालूम किस—किस
तरह के ईश्वर
गढ़ लेता है।
रूस
में एक बड़ा
प्रयोग हुआ कि
कम्युनिस्टों
ने ईश्वर छीन
लिया। तो आपको
पता है क्या
हुआ? जैसे
ही ईश्वर छिन
गया, लोगों
ने राज्य को
ईश्वर मानना
शुरू कर दिया।
चर्च से जीसस
की मूर्ति तो
हट गई, लेकिन
क्रेमलिन के
चौराहे पर
लेनिन की लाश
रख दी गई। लोग
उसको ही फूल
चढ़ाने लगे, उसके ही
चरणों में सिर
रखने लगे!
यह बड़े
मजे की बात है।
लेनिन तो
नास्तिक था।
मानता नहीं है
कि मृत्यु के
बाद कुछ भी
बचता है।
लेकिन उसकी
लाश रखी है
क्रेमलिन में।
लाखों लोग
प्रतिवर्ष
चरण छू रहे
हैं। किसके
चरण छू रहे
हैं? जो
नहीं है अब
उसके? और
जो अब नहीं है,
वह कभी भी
नहीं था। इस
मुर्दे को
क्यों छू रहे
हैं?
गहरी
प्यास है।
कहीं किसी चरण
में सिर रखने
की आकांक्षा
है। किसी
अज्ञात के
सामने झुकने
का मन है।
तृप्ति न होगी; तो लेनिन के
ही चरणों में
सिर रख रहे
हैं। ईश्वर को
हमने छीन लिया
है। तो हमने
फिर कुछ भी गढ़
लिया है।
लेकिन आदमी
बिना श्रद्धा
के नहीं रह
पाता। ईश्वर
की श्रद्धा
छीनी, राज्य
की श्रद्धा
करेगा, नेता
की श्रद्धा
करेगा। यहां
तक कि अभिनेता
की श्रद्धा
करेगा! कुछ चाहिए
जो उसके श्रद्धा
का आश्रय बन
जाए। कुछ
चाहिए जिसके
लिए वह समझे
कि जी सकता
हूं।
लेकिन
आदमी बिना
ईश्वर के नहीं
रह सकता। आदमी
ईश्वर के बिना
बेचैन ही रहता
है। एक परम
आश्रय चाहिए।
तो मैं
आपसे नहीं
कहता कि कोई
प्रमाण है
उसका। कोई
प्रमाण नहीं
है आपकी प्यास
के अतिरिक्त।
अपनी प्यास को
मिटा लो, आपने ईश्वर
को मिटा दिया।
ईश्वर को
मिटाने की
फिक्र मत करो।
वह आपके वश की
बात नहीं है।
अपनी प्यास को
मिटा लो; ईश्वर
मिट गया।
और
आपकी प्यास के
मिटाने का कोई
उपाय नहीं है।
आप ही हो वह
प्यास। अगर
प्यास आपसे
कोई अलग चीज
होती, तो
हम उसे मिटा भी
लेते। आप ही
हो प्यास।
आदमी
परमात्मा की
एक प्यास है।
आदमी अलग होता,
तो प्यास को
हम काट देते।
कोई सर्जरी कर
लेते। और आदमी
को अलग कर
लेते। आदमी
खुद ही प्यास
है।
नीत्शे
ने कहा है, जिस दिन
आदमी अपने से
ऊपर जाना बंद
कर देगा, उस
दिन मर जाएगा।
यह अपने से
ऊपर जाने की
एक प्यास है
आदमी के भीतर।
जैसे
बीज टूटता है
और आकाश की
तरफ उठना शुरू
हो जाता है।
वह आकाश की
तरफ उठने की आकांक्षा
ही वृक्ष बन
जाती है। आदमी
भी निरंतर
अपने से ऊपर
उठकर आकाश की
तरफ जाना
चाहता है। वह
आकाश की तरफ
जाने की आकांक्षा
ही ईश्वर है।
आप तब तक बीज ही
रहेंगे, जब तक ईश्वर
का वृक्ष आप
में न लग जाए।
जब तक आप
ईश्वर न हो
जाएं, तब
तक कोई संतोष
संभव नहीं है।
ईश्वर से कम
में कोई
तृप्ति नहीं
है।
यही
प्रमाण है कि
आपके भीतर
प्यास है।
इसके
अतिरिक्त और
कोई प्रमाण
नहीं है। कोई
गणित नहीं है
ईश्वर का, कि सिद्ध
किया जा सके
कि दो और दो
चार होते हैं,
ऐसा कोई
गणित हो। कोई
तर्क नहीं है,
जिससे
साबित किया जा
सके कि वह है।
और
अच्छा है कि
कोई तर्क नहीं
है। क्योंकि
तर्कों से जो
सिद्ध होता है, वह और कुछ
भी हो—गणित की
थ्योरम हो, विज्ञान का
फार्मूला हो—धर्म
की अनुभूति
नहीं होगी। और
अच्छा है कि
तर्क से वह
सिद्ध नहीं
होता, क्योंकि
तर्क से कोई
चीज कितनी ही
सिद्ध हो जाए
उससे प्यास
नहीं बुझती।
समझें।
प्यास तो पानी
से बुझती है।
लेकिन एच टू ओ
का फार्मूला
कागज पर लिखा
रखा हो, बिलकुल गणित
से व्यवस्थित,
उससे नहीं
बुझती। एच टू
ओ के फार्मूले
को आप पी जाना
घोलकर, प्यास
नहीं बुझेगी।
प्यास तो पानी
से बुझेगी।
क्योंकि
प्यास एक
अनुभव मांगती
है, एक
ठंडक मांगती
है, जो
आपके प्राणों
में उतर जाए।
एक रस मांगती
है, जो
आपके भीतर जाए
और आपको
रूपांतरित .कर
दे। फार्मूला
तो किताब पर
होता है।
ईश्वर
का कोई फार्मूला
नहीं है। और
जितनी
किताबें
ईश्वर के लिए
लिखी गई हैं, वे केवल
इशारे हैं; उनमें ईश्वर
का कोई
फार्मूला
नहीं है।
सब
शास्त्र हार
गए हैं, अब तक उसे कह
नहीं पाए हैं।
कभी उसे कहा
भी नहीं जा
सकेगा। लेकिन
शास्त्रों ने
कोशिश की है।
कोशिश इशारे
की तरह है; मील
के पत्थर की
तरह है कि और
आगे, और
आगे। हिम्मत
देने के लिए
है, कि बढ़े
जाओ; दो
कदम और; ज्यादा
दूर नहीं है; पास ही है।
हिम्मत
से कोई बढ़ा
चला जाए, तो एक दिन उस
अनुभव में उतर
जाता है।
लेकिन प्रमाण
मत खोजना आप।
प्रमाण कोई है
नहीं। और या
फिर हर चीज
प्रमाण है।
फिर ऐसी कौन—सी
चीज है, जो उसका
प्रमाण नहीं
है? फिर
चारों तरफ आंखें
डालें। आकाश
में सूरज का
उगना, और रात
आकाश में तारों
का भर जाना, और एक बीज का
फूटकर वृक्ष
बनना, और
एक झरने का
सागर की तरफ
बहना, और
एक पक्षी के
कंठ से गीत का
निकलना। एक
बच्चे की आंखों
में झांकें; और एक काई
जमे हुए पत्थर
को देखें; और
सागर के
किनारे की रेत
को, और
सागर की लहरों
को—तो फिर हर
जगह उसका
प्रमाण है।
फिर वही वही
है।
एक दफा
खयाल में आ
जाए कि वह है, तो फिर सब
जगह उसका
प्रमाण है। और
जब तक उसका
खयाल न आए, तब
तक उसका कोई
प्रमाण नहीं
है।
और
कहां आएगा
उसका खयाल? पहले
सागर में नहीं
आएगा। पहले
फूलों में
नहीं आएगा।
पहले आकाश के
तारों में
नहीं आएगा।
पहले तो अपने
में ही लाना
पड़ेगा उसका
खयाल। क्योंकि
मैं ही अपने
निकटतम हूं।
अगर वहां भी
उसकी भनक मुझे
नहीं सुनाई
पड़ती, तो
पत्थर में
कैसे सुनाई
पड़ेगी!
अब लोग
मजेदार हैं।
लोग
मूर्तियों के
सामने सिर टेक
रहे हैं। वे
मूर्तियां
उनके लिए
भगवान कैसे हो
पाएंगी? वे कितना ही
मानें कि
भगवान हैं, वे हो न
पाएंगी। क्योंकि
जिनको अपने
भीतर के
चैतन्य में भी
भगवत्ता का
कोई स्पर्श
नहीं हुआ, उनको
पत्थर में
छिपी भगवत्ता
बहुत दूर है।
वहां भी है, पर फासला
बहुत ज्यादा
है। और पत्थर
की भाषा अलग
है; आदमी
की भाषा अलग
है।
आदमी
में भगवान
नहीं दिखता और
पत्थर में
दिखता है!
आदमी—जिसको हम
समझ सकते हैं, छू सकते
हैं, जिसके
भीतर उतर सकते
हैं, जिसकी
चेतना का
संस्पर्श हो
सकता है—उसमें
दिखाई नहीं
पड़ता, और
पत्थर में
दिखाई पड़ जाता
है! तो आप अपने
को धोखा दे
रहे होंगे।
क्योंकि
पत्थर तो बहुत
दूर है; अभी
आदमी में तो
दिखाई पड़े, तो फिर किसी
दिन पत्थर में
भी दिखाई पड़
सकता है। और
फिर तो ऐसा हो
जाता है कि
ऐसी कोई चीज
नहीं दिखाई
पड़ती, जिसमें
वह न हो। फिर
तो सारा जगत
उसका प्रमाण
है।
तो दो
बातें हैं, या तो उसके
कोई प्रमाण
नहीं है। अगर
आप किताबों, शब्दों, तर्कों
में सोचें, उसका कोई
प्रमाण नहीं
है। और या अगर
अस्तित्व में
सोचें, तो
सभी कुछ उसका
प्रमाण है।
फिर ऐसी कोई
चीज नहीं है, जहां उसका
हस्ताक्षर न
हो। रेत के दाने—दाने
पर उसका
हस्ताक्षर है।
लेकिन वह है
अस्तित्व की
भाषा, एक्सिस्टेंस
की।
आपको
अपने ही
अस्तित्व का
कोई पता नहीं
है। आप ऐसे
जीए चले जाते है।
कि पक्का करना
मुश्किल है कि
आप जी रहे है, कि मर गए है।
कि......।
मैंने
सुना है कि
अनेक लोगों को
तो तभी पता चलता
है कि वे
जिंदा थे, जब वे मर
जाते हैं।
मरकर उनको पता
चलता है कि
अरे! यह क्या
हो गया? मर
गए!
जिंदगी
का ही हमें
कोई खयाल नहीं
आ पाता।
अस्तित्व
भीतर बहा चला
जाता है और हम
चीजें बटोरने
में, फर्नीचर
इकट्ठा करने
में, मकान
बनाने में, क्षुद्र में
व्यस्त होते
हैं। वह
क्षुद्र की
व्यस्तता
इतनी ज्यादा
है कि यह भीतर
की जो धारा बह
रही है, इसका
हमें अवसर ही
नहीं मिलता, मौका ही
नहीं मिलता है।
मेरे
पास लोग आते
हैं। एक बूढ़े
मित्र, एक कालेज के
प्रिंसिपल
हैं, वे
कुछ दिन पहले
मेरे पास आए।
कम से कम साठ
के करीब उम्र
हो गई होगी।
वे कहने लगे
कि अब तो ऊब
गया संसार से।
अब तो मेरा मन
परमात्मा की
तरफ लगा दें।
तो मैंने उनसे
कहा, अगर
सच में ही ऊब
गए हों, तो
एक छलांग लें।
अब सारा जीवन
ध्यानपूर्ण
करने में लग
जाएं।
उन्होंने
कहा, सारा
जीवन! घंटा, आधा घंटा
रोज दे सकता
हूं। क्योंकि
अभी नौकरी
जारी रखी है।
वैसे तो कोई
जरूरत नहीं है
अब नौकरी की।
सब है। लेकिन
वक्त—बेवक्त
कब जरूरत पड़
जाए, इसलिए!
ऐसे तो सब
लड़के कामकाज
में लग गए हैं।
लड़कियों की
शादी हो गई है।
लेकिन
प्रतिष्ठा है,
बंगला है, कार है, तो
उस सब को तो
सम्हालना
पड़ता है। तो
ऐसी कुछ तरकीब
बताएं कि आधा
घंटा रोज ध्यान
कर लूं। और दो
साल बाद, पक्का
आपको विश्वास
!? दिलाता
हुं कि दो साल
बाद पूरा जीवन
ध्यान में लगा
दूंगा।
मैंने
कहा, माना।
मुझे तो आप
विश्वास
दिलाते हैं, दो साल बाद।
दो साल बाद आप
बचेंगे, इसका
कोई पक्का
भरोसा है! और
कहते हैं कि
संसार से मन
ऊब गया, लेकिन
बंगले की
प्रतिष्ठा है,
वह नहीं
छोड़ी जाती! और
कहते हैं कि
अब संसार में
कुछ लेना—देना
नहीं रहा, लेकिन
नौकरी को
खींचे जा रहे
हैं जबरदस्ती!
क्या
है, कठिनाई
क्या है आदमी
की? और दो
साल बाद टाल
रहे हैं, कि
दो साल बाद।
दो साल बाद भी
पक्का मानिए
अगर वे बचे
रहे, तो वे
और आगे सरका
देंगे बात को।
क्योंकि यह
सरकाने वाला
मन दो साल बाद
भी तो साथ ही
रहेगा। यह
पोस्टपोन
करता जाता है।
यह तब तक
हटाता जाता है,
जब तक मौत
आकर इसको काट
ही नहीं डालती।
और कह देती है
कि अब हटाने
की कोई जगह न
बची, समय
समाप्त हो गया।
यह जो
हमारी
क्षुद्र में
उलझी हुई
चित्त की दशा
है, इसके
कारण उसका
प्रमाण नहीं
मिलता।
क्षुद्र में
जब चित्त लगा
होगा, तो
क्षुद्र का ही
प्रमाण मिलता
है।
क्षुद्र
से थोड़ा हटें
भीतर की तरफ, और विराट
को थोड़ा मौका
दें। उसकी
आवाज आपको
सुनाई पड़ सके,
इसलिए थोड़ा
चुप हों। अपनी
आवाज थोड़ी बंद
करें।
क्योंकि उसकी
आवाज बहुत
धीमी है। और अपनी
दौड़— धूप जरा
रोकें और थोड़ा
रुके; ठहरें।
क्योंकि
ठहरेंगे, तो
उसका पता
चलेगा, जो
भीतर सदा से
ठहरा हुआ है।
जब तक आप दौड़
रहे हैं, तब
तक भीतर जो
ठहरा हुआ है, उससे संबंध
नहीं हो पाता।
थोड़े रुक जाएं।
परमात्मा
को खोजने के
लिए कोई दौड़ने
की जरूरत नहीं
है। संसार
खोजना हो, तो दौड़ना
पड़ता है।
परमात्मा को
खोजना हो,।
तो रुकना पड़ता
है। परमात्मा
को खोजने के
लिए कोई
शोरगुल मचाने
की जरूरत नहीं
है। उसे खोजना
हो, तो चुप
और मौन होने
की जरूरत है।
तो प्रमाण
मिलना शुरू हो
जाएगा।
और कोई
दूसरा आपको
प्रमाण नहीं
दे सकता। आप
ही अपने को
प्रमाण दे
सकेंगे। अपनी
प्यास को
समझें और अपने
भीतर झांकने
की कला सीखें।
प्रमाण
बहुलता से है।
उसी—उसी का
प्रमाण है।
लेकिन देखने
वाली आंखें और
सुनने वाले
कान चाहिए।
जीसस
ने बार—बार
कहा है, अगर आंखें
हों, तो
देख लो, अगर
कान हों, तो
सुन लो। अगर
समझ हो, तो
समझ लो।
जिनसे
कहा है, वे आप ही
जैसे कान वाले
थे, आंख
वाले थे, समझ
वाले थे। यह
जीसस की बात
ठीक नहीं
मालूम पड़ती।
यह आंख वाले
लोगों से ऐसा
कहना कि आंख
हो तो देख लो, कान हो तो
सुन लो, समझ
हो तो समझ लो, अपमानजनक
मालूम पड़ता है।
क्योंकि इतने
अंधे, इतने
बहरे, इतने
बुद्धिहीन
कहां खोजे
होंगे!
क्योंकि
जिंदगी भर
जीसस यही कहते
हैं।
वे
किन्हीं और आंखों
की बात कर रहे
हैं। इन आंखों
से आप
परमात्मा का
प्रमाण न पा
सकेंगे। इन आंखों
से पदार्थ का
ही प्रमाण
मिलेगा। इन
कानों से आप
उसकी आवाज न
सुन सकेंगे।
इन कानों से
तो आपको जगत
का शोरगुल ही
सुनाई पड़ेगा।
इस बुद्धि से
आप उसको न समझ
पाएंगे। इस
बुद्धि से तो
आप हिसाब—किताब
की दुनिया में
ही, रुपए—पैसे
की दुनिया में
ही, बैंक बैलेंस
को बढ़ा पाएंगे।
और भी
एक आंख है।
उसी आंख को
कृष्ण
श्रद्धा कह
रहे हैं। उसी आंख
को बुद्ध
ध्यान कहते
हैं। उसी आंख
को मीरा
कीर्तन कहती
है, भजन
कहती है, प्रार्थना
कहती है।
एक और
कान है—मौन का, चुप हो
जाने का। जब
बाहर की सब
आवाजें छोड़ दी
जाती हैं, तो
भीतर की सतत
ध्वनि सुनाई
पड़ने लगती है।
नाद
भीतर बज रहा
है, पर
आप खाली नहीं
हैं, आप उन्मुख
नहीं हैं। आप
उस नाद की तरफ
बेमुख हैं, पीठ किए खड़े
हैं। वहां सतत
धीमी— धीमी
चोट पड़ रही है।
वहां कोई
निरंतर तारों
को छेड़ रहा है।
और आप कहते
हैं, प्रमाण
कहां है?
हमारी
हालत ऐसी है, मैंने
सुना है कि एक
संगीतज्ञ
अपनी पत्नी के
साथ एक चर्च
के पास से
गुजरता था। और
सांझ को चर्च
की घंटियां बज
रही थीं। बड़ी
प्यारी और
मधुर थीं। और
सांझ के
सन्नाटे में,
जब रास्ता
सुनसान हो गया
था और चर्च के
वृक्षों के
पक्षी भी आकर
शांति से सो
गए थे, सांझ
के उस सन्नाटे
में उन
घंटियों का
बजना उस
संगीतज्ञ के
हृदय में
लहरें लेने
लगा।
उसने
अपनी पत्नी से
कहा—धीमे से
कहा; संगीतज्ञ
था, जोर से
बोलने में उसे
लगा होगा, हिंसा
होगी; इतनी
मधुर आवाज में
बाधा पड़ेगी—उसने
धीरे से कहा, सुनती हो; कितनी
प्यारी। आवाज
है! घंटियां
कितनी मधुर
हैं!
उसकी
पत्नी ने क्या
कहा पता है!
उसने कहा, ये चर्च
के मूरख लोग
घंटा बजाना
बंद करें, तो
तुम्हारी बात
सुन सकूं कि
तुम क्या कह
रहे हो!
संगीतज्ञ
ने दुबारा
नहीं कहा होगा
उससे, अब
कुछ कहने का
उपाय नहीं रहा।
बाहर घंटा बज
रहा है, उसमें
शोरगुल भी
सुनाई पड़ सकता
है और संगीत
भी। अगर संगीत
को पकड़ने वाला
हृदय है, तो
संगीत सुनाई
पड़ सकता है।
नहीं
तो मैंने सुना
है कि मुल्ला
नसरुद्दीन एक
शास्त्रीय
संगीतज्ञ को
सुनने चला गया
था। थोड़ी ही
देर में
मुल्ला की
पत्नी ने देखा
कि मुल्ला
बहुत बेचैन हो
रहा है, करवट बदल
रहा है अपनी
कुर्सी पर।
उसकी पत्नी ने
कहा, तुम
इतने परेशान
क्यों हो रहे
हो? उसके
माथे पर पसीना
भी बह रहा है।
उसने
कहा कि मैं
इसलिए परेशान
हो रहा हूं
क्योंकि यह आदमी
जैसी आवाजें
कर रहा है, ऐसे ही
अपना बकरा भी
आवाजें करके
मर गया था।
इसकी हालत
खराब है। यह
सन्निपात में
मालूम होता है।
अब यह जल्दी
ही मरने वाला
है। अपन यहां
से निकल भागें।
कहीं हम भी न
फंसे इस उपद्रव
में कि यह
कैसे मर गया!
और यह मरेगा
पक्का। यही
हालत अपने
बकरे की हो गई
थी, जब वह
इस तरह की
आवाजें कर—करके
मरा था।
संगीत
की समझ कान से
नहीं होती।
कान से तो
सुनाई पड़ रहा
है उसे भी।
संगीत की समझ
भीतर एक
हारमनी, एक समस्वरता
पैदा हो, तो
पकड़ में आती
है।
ईश्वर
तो विराटतम
समस्वरता है; वह तो
महानतम संगीत
है। उसके
योग्य हृदय
बनाना होगा, तो उसका
प्रमाण
मिलेगा। उसका
प्रमाण खोजकर
आप सोचते हैं
कि हम अपने को
बदलेंगे, तो
आपको जन्मों—जन्मों
तक उसकी कोई
खबर न मिलेगी।
आप अपने को
बदलें, तो
उसका प्रमाण
आपको आज भी
मिल सकता है।
जन्मों तक
रुकने की कोई
जरूरत नहीं है।
लेकिन
हम उलटे हैं।
हम कहते हैं, पहले
प्रमाण चाहिए,
तभी तो हम
उसको खोजने
निकलेंगे! और
उसकी खोज ही
शुरू तब होती
है, जब आप
अपने हृदय को
उसके प्रमाण
को पाने योग्य
बनाते हैं। यह
अड़चन है।
अगर
आपकी तैयारी
हो, कि
बिना इसकी
फिक्र किए कि
वह है या नहीं,
हम अपने
हृदय को शात
करने को तैयार
हैं। और हर्ज
क्या हो जाएगा?
अगर वह न भी
हुआ और आपका
हृदय शांत हो
गया, तो
क्या हर्ज हो
जाएगा? फायदा
ही होगा। और
अगर वह न भी
हुआ और आपका
हृदय प्रेम से
भर गया, तो
नुकसान क्या
है? फायदा
ही होगा। और
अगर वह न भी
हुआ और आप मौन
हो गए और
ध्यान में उतर
गए, तो
क्या खो देंगे
आप? कुछ पा
ही लेंगे।
लेकिन जो भी
उस ध्यान में
गए हैं, जो
भी उस मौन में
गए हैं, उन्होंने
तत्क्षण कहा
कि मिल गया
प्रमाण उसका।
वह है। लेकिन
वे भी हमें
प्रमाण नहीं
दिला सकते।
उनको ही
प्रमाण मिला
है। धर्म की
सभी
अभिव्यक्तियां
निजी और
वैयक्तिक हैं।
और धर्म के
सभी गवाह निजी
और वैयक्तिक
हैं। वे दूसरे
के लिए गवाही
नहीं दे सकते
हैं।
मैं
अपने लिए
गवाही दे सकता
हूं कि मिल
गया। पर मेरी
गवाही आपके
लिए क्या मतलब
की होगी? आप फिर भी
कहेंगे, प्रमाण?
तो फिर मैं
आपसे भी
कहूंगा, स्वाद
लेना पड़ेगा, चखना पड़ेगा।
तो तैयार हों
चखने के लिए, स्वाद लेने
के लिए। लेकिन
अगर आप कहें
कि जब तक हम
मानें न कि वह
है, तब तक
हम चखें कैसे?
स्वाद तो हम
पीछे लेंगे, पहले पक्का
प्रमाण हो जाए
कि वह है। तो
फिर आपको
रुकना पड़ेगा।
फिर किसी के
वश के बाहर
हैं आप। फिर
आप इंपासिबल
हैं, असंभव
हैं। फिर आपके
साथ कुछ किया
नहीं जा सकता।
तो
रुके। धीरे—धीरे
थक जाएंगे
अपने से किसी
दिन, तो
शायद आप राजी
हो जाएं कि
ठीक; चखेंगे
पहले, प्रमाण
बाद में खोज
लेंगे। और जो
चखने को राजी
हो जाता है, उसे प्रमाण
मिल जाता है।
आखिरी
प्रश्न।
आपने
कहा है कि दो
विपरीत मार्ग
हैं, ध्यान
और प्रेम; बुद्धि
या भाव। तो
बताएं कि
ध्यान—साधना
और प्रेम—साधना
में क्या फर्क
है? क्या
ध्यानी
व्यक्ति
समाधि के पहले
प्रेमपूर्ण
नहीं होता?
ध्यान और
प्रार्थना
में बहुत फर्क
है; भाषाकोश
में चाहे फर्क
न भी मिले। जो
लोग प्रयोग
करते हैं, उनके
लिए बहुत फर्क
है। दोनों की
प्रक्रियाएं
विपरीत हैं।
परिणाम जब आता
है, तो
फर्क नहीं रह
जाता। लेकिन
मार्ग पर बहुत
फर्क है।
ऐसा
समझें कि आप
एक बड़ा वर्तुल
बनार्ण्न्म, एक
सर्किल बनाएं।
और वर्तुल का
एक केंद्र हो,
और वर्तुल
की परिधि से
आप लकीरें
खींचें केंद्र
की तरफ। तो
परिधि से जब
आप दो लकीरें
केंद्र की तरफ
खींचेंगे, तो
दोनों में
फासला होगा।
फिर जैसे—जैसे
वे केंद्र के
करीब पहुंचने
लगेंगी, फासला
कम होता जाएगा।
और जब वे
बिलकुल
केंद्र पर
पहुंचेंगी, तो फासला
समाप्त हो जाएगा।
एक ही बिंदु
पर दोनों मिल
जाएंगी।
परिधि पर
फासला होगा; केंद्र पर
फासला समाप्त
हो जाएगा।
सभी
मार्ग संसार
की परिधि से
परमात्मा के
केंद्र की तरफ
जाते हैं।
मार्गों में
बड़ा फर्क है।
विपरीतता भी
हो सकती है।
लेकिन केंद्र
पर पहुंचकर
सारी
विपरीतता खो जाती
है, और
वे एक हो जाते
हैं। प्रेम के
मार्ग का अर्थ
है, दूसरा
महत्वपूर्ण
है मुझ से, पहली
बात। मुझे
अपने को
समाप्त करना
है और दूसरे
को बढ़ाना है।
वह दूसरा कोई
भी हो। वह
क्राइस्ट हों,
कृष्ण हों।
कोई भी प्रतीक
हो। गुरु हो, कोई धारणा
हो, कोई भी
भाव हो। दूसरा
महत्वपूर्ण
है; मैं
महत्वपूर्ण
नहीं हूं।
मुझे अपने को छांटना
है और दूसरे
को बड़ा करना
है।
और एक
ऐसी जगह आ
जाना है, जहां मैं
बिलकुल शून्य
हो जाऊं और वह
दूसरा ही
सिर्फ शेष रह
जाए। मुझे
मेरी कोई खबर
न रहे। मैं
मिट जाऊं। मैं
बचूं न। मैं
ऐसा पुंछ जाऊं,
जैसे कहीं
था ही नहीं।
जैसे पानी पर
खींची लकीर
मिट जाती है, ऐसे मैं मिट
जाऊं, और
दूसरा रह जाए।
और दूसरा ही
रह जाए। बस, दूसरे का ही
मुझे पता हो।
दूसरे की ही
प्रतीति मुझे
हो कि वह है, और मैं न
रहूं। तू बचे
और मैं खो जाए।
यह तो प्रेम
की प्रक्रिया
है। प्रार्थना
का यही रूप है।
ध्यान
की प्रक्रिया
बिलकुल उलटी
है। ध्यान की
प्रक्रिया है
कि सारा जगत
खो जाए और मैं
ही बचूं। सब
खो जाए मेरे
चित्त से।
जिन्हें मैं
प्रेम करता
हूं वे भूल
जाएं।
जिन्हें
मैंने चाहा है, वे भूल
जाएं। ईश्वर
भी मेरे खयाल
में न रह जाए।
दूसरा न बचे।
दूसरे का कोई
बोध ही न बचे।
दि अदर, वह
जो दूसरा है, उसको मैं
पोंछ डालूं
बिलकुल
समाप्त कर दूं।
वह रहे ही न।
बस, एक मैं
ही रह जाऊं, अकेला। कोई
विचार न हो; कोई भाव न हो;
कोई विषय न
हो। कुछ भी न
बचे। खाली, अकेला मैं
बचूं सारा
संसार खो जाए।
यह ध्यान की
प्रक्रिया है।
तू
बिलकुल मिट
जाए और शुद्ध
मैं बचे—यह
ध्यान है। मैं
बिलकुल मिट
जाऊं, शुद्ध
तू बचे—यह
प्रेम है। ये
बिलकुल उलटे
चलते हैं।
इसलिए रास्ता
बिलकुल अलग—अलग
है।
इसलिए
ध्यानी मजाक
उड़ाका प्रेमी
की, कि
क्या पागलपन
में पड़ा है!
दूसरे को छोड़,
क्योंकि
दूसरा बंधन है।
और प्रेमी
मजाक उड़ाका
ध्यानी की, कि क्या कर
रहे हो! खुद को
बचा रहे हो? यह खुद का
बचाना ही तो
उपद्रव है।
खुद को मिटाना
है। यह मैं ही
तो रोग है। और
तुम इसी को
बचा रहे हो!
इसको समर्पित
कर दो। तू। के
चरणों में डाल
दो।
तो
प्रेमी और
ध्यानी मार्ग
पर जब होते हैं, तब एक—दूसरे
को समझ भी
नहीं पाते। एक—दूसरे
को गलत ही
समझेंगे।
क्योंकि उलटे
जा रहे हो!
इससे तो और
भटक जाओगे।
लेकिन जब
दोनों पहुंच
जाते हैं
बिंदु पर, तो
बड़ी अदभुत
घटना घटती है।
वह
अदभुत घटना यह
है कि चाहे
मैं तू को
मिटाकर चलूं
और मैं को
बचाऊं—ध्यान
का मार्ग; या मैं
मैं को मिटाऊं
और तू को
बचाऊं—प्रार्थना
का मार्ग; जिस
क्षण मैं मिट
जाता है, उस
क्षण तू नहीं
बच सकता। और
जिस क्षण तू
मिट जाता है, उस दिन मैं
नहीं बच सकता।
क्योंकि
दोनों साथ—साथ
बचते हैं।
इसे
थोड़ा समझ लें।
यह आखिरी
बिंदु की बात
है।
जब मैं
अपने मैं को
मिटाता चला
जाता हूं और
सिर्फ तू ही
बचता है, तो ध्यान
रहे, मुझे
उस तू का पता
तभी तक होगा, जब तक मुझे
सूक्ष्म में
मेरा भी पता
चल रहा है।
नहीं तो तू का
पता नहीं होगा।
तू कहिएगा
कैसे उसे? किसके
खिलाफ? किसके
विरोध में? अगर सफेद
लकीर दिखाई
पड़ती है, तो
काली पृष्ठभूमि
चाहिए।
अगर
मैं बिलकुल ही
मिट गया हूं
तो तू कैसे
बचेगा? थोड़ा मुझे
बचना चाहिए, थोड़ा; तो
मुझे तू का
पता चलेगा।
मैं होना
चाहिए। मैं को
ही तो पता
चलेगा कि तू
है। तो मैं को
भुला सकता हूं
लेकिन मिट
नहीं सकता।
अगर मैं
बिलकुल मिट
जाऊंगा, जिस
क्षण मेरा मैं
बिलकुल
तिरोहित हो
जाएगा, उसी
क्षण तू भी खो
जाएगा। एक
बचेगा, जो
न मैं है और न
तू।
और ठीक
ऐसा ही घटेगा
ध्यान के
मार्ग पर। जब
मैं बिलकुल
अकेला मैं बक।, तब भी
मुझे कैसे पता
चलेगा कि मैं
हूं? मेरे
होने का बोध
भी दूसरे के
बोध के कारण
होता है।
दूसरा चाहिए
परिधि पर, तभी
मुझे पता लगता
है कि मैं हूं।
और जब दूसरा
बिलकुल खो गया,
पूरा संसार
खो गया, तो
मैं भी नहीं
बच सकता। मैं
भी उस संसार
का एक हिस्सा
था। मैं भी
उसी संसार के
साथ खो जाऊंगा।
जैसे ही तू
पूरा मिट जाता
है, मैं भी
तिरोहित हो
जाता हूं। और
जो बचता है, वह न मैं है, न तू है।
ये
मार्ग विपरीत
हैं। इन
मार्गों से
जहां पहुंचा
जाता है, वह एक ही है।
और अब आप समझ
सकते हैं कि
दोनों तरफ से
पहुंचा जा
सकता है। दो
में से एक को
मिटा दो, दूसरा
अपने आप मिट
जाता है। अब
आप किसको
चुनते हैं
मिटाना, यह
व्यक्ति की
निजी रुझान पर
है।
दो में
से एक को मिटा
देने की कला
है। दूसरा
मिटेगा, क्योंकि
दूसरा उस एक
का ही
अनिवार्य
हिस्सा था।
अगर हम दुनिया
से प्रकाश को
मिटा दें, तो
अंधेरा मिट
जाएगा। लगेगा
मुश्किल है।
क्योंकि घर
में आप दीया
बुझा देते हैं,
अंधेरा तो
नहीं मिटता।
अंधेरा और
प्रकट हो जाता
है। लेकिन
दुनिया से
नहीं मिट रहा
है प्रकाश।
अस्तित्व से
अगर प्रकाश
मिट जाए, तो
अंधेरा मिट
जाएगा। अगर
अंधेरा मिट
जाए, तो
प्रकाश मिट
जाएगा।
अगर
दुनिया से हम
मृत्यु को
मिटा दें, तो जीवन
उसी दिन मिट
जाएगा। अभी
हमको उलटा
लगता है। अभी
तो हमको लगता
है कि मृत्यु
जीवन को
मिटाती है।
आपको पता नहीं
है फिर। वे एक
ही चीज के दो
हिस्से हैं।
अगर मृत्यु न
हो, तो
जीवन नहीं हो
सकता। और जीवन
न हो, तब तो
मृत्यु होगी
ही कैसे? एक
चीज को मिटा
दें, दूसरी
तत्क्षण मिट
जाएगी।
बहुत
मजे की बात है।
अगर हम दुनिया
से दुख मिटा
दें, तो
सुख मिट
जाएंगे। अगर
हम दुनिया से
शत्रु मिटा
दें, तो
मित्र मिट
जाएंगे। अगर
हम दुनिया से'
घृणा मिटा
दें, तो
प्रेम मिट
जाएगा। आप
दूसरे को नहीं
बचा सकते हैं;
वह
अनिवार्य
जोड़ा है। वे
एक साथ ही
होते हैं।
इसी का
प्रयोग है
ध्यान, इसी का
प्रयोग है
प्रार्थना।
एक को मिटा
दें, दूसरा
अपने आप मिट
जाएगा। उसकी
फिक्र न करें।
आप एक को
मिटाने में
लगें। फिर
आपका रुझान है,
जो आपको
करना हो। अपने
को मिटाने की
तैयारी हो, तो
प्रार्थना
में चल पड़े।
डर लगता हो
अपने को
मिटाने में, तो फिर
समस्त को मिटा
दें, जो भी
पर है। भाव से,
विचार से, सब को हटा
दें। फिर
अकेले रह जाएं।
दोनों से ही
पहुंच जाएंगे
वहा, जहां
दोनों नहीं
बचते हैं।
अब हम
सूत्र को लें।
हे
अर्जुन, उन मेरे में
चित्त को
लगाने वाले
प्रेमी भक्तों
का मैं शीघ्र
ही मृत्यु—रूप
संसार समुद्र
से उद्धार
करने वाला
होता हूं।
इसलिए हे
अर्जुन, तू
मेरे में मन
को लगा, और
मेरे में ही
बुद्धि को लगा।
इसके उपरात तू
मेरे में ही
निवास करेगा
अर्थात मेरे
को ही प्राप्त
होगा, इसमें
कुछ भी संशय
नहीं है।
मुझ
में चित्त
लगाने वाले
प्रेमी
भक्तों का मैं
शीघ्र ही
मृत्यु—रूपी
समुद्र से
उद्धार करने
वाला होता
हूं!
जैसा
मैंने कहा, प्रार्थना
के मार्ग पर
स्वयं को
मिटाना शुरू करना
होता है। तो
वह जो तू है, प्रार्थना
के साधक के
लिए परमात्मा
जो है, भगवान
जो है, जो
भी उसकी धारणा
है परम सत्ता
की, वह
अपने को गलाता
है, मिटाता
है, उसके
चरणों में
समर्पित करता
है। और जैसे—जैसे
वह अपने को
गलाता है, मिटाता
है, वैसे—वैसे
परमात्मा
शक्तिशाली
होता जाता है।
परमात्मा
की शक्ति का
अर्थ ही यह है
कि मैं अब कोई
बाधा नहीं डाल
रहा हूं। मैं
अपने को मिटा
रहा हूं। अब
मैं कोई अड़चन
खड़ी नहीं कर
रहा हूं। मैं
अपने को हटा
रहा हूं। मैं
रास्ते से मिट
रहा हूं। और
मैं उसे कह
रहा हूं कि अब
तू जो भी करना
चाहे, कर।
ऐसा
समझें कि आप
द्वार—दरवाजे
बंद करके अपने
घर में बैठे
हैं। बाहर
सूरज निकला है।
सारा जगत आलोक
से भरा है। और
आप अपने द्वार—दरवाजे
बंद करके घर
के अंदर
अंधेरे में
बैठे हैं।
भक्त
कहता है कि
प्रकाश को तो
भीतर लाना
मुश्किल है।
क्योंकि मेरी
सामर्थ्य
क्या? उस
सूरज के
प्रकाश को मैं
भीतर लाऊंगा
भी कैसे? कोई
पोटलियां
बांधकर उसे
लाया भी नहीं
जा सकता। और
अगर आप
पोटलियां
बांधकर
प्रकाश को
भीतर लाएंगे,
तो
पोटलियां
भीतर आ जाएंगी,
प्रकाश
बाहर ही रह
जाएगा।
प्रकाश
को लाने का, भक्त
कहता है, एक
ही उपाय है कि
मैं अपने
द्वार—दरवाजे
खोल दूं। मैं
कोई बाधा न
डालूं। मैं
किसी तरह का
अवरोध खड़ा न
करूं। तो
प्रकाश तो
अपने से आ
जाएगा।
प्रकाश तो आ
ही रहा है।
मेरे ही कारण
रुका है।
भक्त
की साधना का
भाव यह है कि
परमात्मा तो
प्रतिपल
उपलब्ध है।
मेरे ही कारण
रुका है। उसे
खोजने नहीं
जाना है। मैं
ही उसको जगह—जगह
से दीवालें
बनाकर रोके
हूं कि मेरे
भीतर नहीं आ
पाता। मैं ही
इतना होशियार, इतना
कुशल, इतना
चालाक हूं कि
मैं उसको भी
सम्हाल—सम्हालकर
भीतर आने देता
हूं। जहां तक
तो मैं उसे
भीतर प्रवेश
करने नहीं
देता। चारों
तरफ मैंने
सुरक्षा की
दीवाल बना रखी
है। भक्त कहता
है, इस
दीवाल को गिरा
देना है।
तो
कृष्ण कह रहे
हैं कि जैसे
ही कोई अपने
चारों तरफ की
अस्मिता की, अहंकार
की दीवाल को
गिरा देता है,
मैं तत्क्षण
उसका उद्धार
करने में लग
जाता हूं।
क्योंकि
प्रकाश भीतर
प्रवेश करने
लगता है। और
उस प्रकाश की
किरणें आकर
आपको
रूपांतरित करने
लगती हैं। और
जब आपको मिटने
में मजा आ
जाता है, तो
फिर मिटने में
दिक्कत नहीं
रहती।
पहले
ही चरण की
कठिनाई है।
हमें लगता है
कि अगर मिट गए
तो! कहीं मिट न
जाएं! तो डरे
हुए हैं। एक
दफा आपको
मिटने का जरा—सा
भी मजा आ जाए, जरा—सा भी
स्वाद आ जाए, तो आप
कहेंगे कि अब,
अब बचना
नहीं है, अब
मिटना है।
रामानुज
के पास एक
आदमी आया। और
उस आदमी ने
कहा कि तुम
जैसे आनंद में
डूब गए हो, मुझे भी
डुबा दो। मुझे
परमात्मा की
बड़ी तलाश है।
मुझे भी सिखाओ
यह परमात्मा
का प्रेम। तो
रामानुज ने
कहा कि तूने
कभी किसी को
प्रेम किया है?
उस आदमी ने
कहा कि मैं
हमेशा
परमात्मा की
खोज करता रहा
और प्रेम
वगैरह से मैं
हमेशा दूर रहा।
इस झंझट में
मैं पड़ा नहीं।
रामानुज
ने कहा कि फिर
भी तू सोच।
थोड़ा—बहुत, किसी को
भी कभी प्रेम
किया हो—किसी
मित्र को, किसी
स्त्री को, किसी बच्चे
को, किसी
पशु को, पक्षी
को—किसी को
कभी थोड़ा
प्रेम किया हो।
उसने कहा कि
मैं संसार की
झंझट में नहीं
पड़ता। मैं तो
अपने को रोके
हुए हूं।
परमात्मा को
प्रेम करना है।
आप मुझे
रास्ता बताओ।
ये बातें आप
क्यों पूछ रहे
हो!
रामानुज
ने तीसरी बार
पूछा कि मैं
तुझसे फिर पूछता
हूं। थोड़ा खोज; अपने
अतीत में कभी
कोई थोड़ी—सी
झलक भी प्रेम
की तुझे मिली
हो? उस
आदमी ने कहा
कि मैं आया
हूं परमात्मा
को खोजने और
तुम कहां की
बातों में
मुझे लगा रहे
हो! सीधी
रस्ता बता दो।
तो रामानुज ने
कहा कि फिर
मुश्किल है।
क्योंकि अगर
तूने थोड़ा—सा
भी मिटना जाना
होता किसी के
भी प्रेम में,
तो तुझे
थोड़ा—सा रस
होता। थोड़ा—सा
ही मिटना जाना
होता किसी के
भी प्रेम में!
छोटा—सा
भी प्रेम करो, तो थोड़ा
तो मिटना ही
पड़ता है। चाहे
एक स्त्री से
प्रेम हो, एक
पुरुष से
प्रेम हो। एक
छोटे—से बच्चे
से भी प्रेम
करो, तो
थोड़ा तो मिटना
ही होता है।
अपने को थोड़ा
तो खोना ही
होता है, तभी
तो वह दूसरा
आप में प्रवेश
कर पाता है।
नहीं तो
प्रवेश ही
नहीं कर पाता।
तो
रामानुज ने
कहा कि फिर
मेरे वश के
बाहर है तू।
तेरी बीमारी
जरा कठिन है। अगर
तूने किसी को
प्रेम किया
होता, तो
मैं तुझे यह
बड़े प्रेम का
मार्ग भी बता
देता।
क्योंकि तुझे
थोड़ा स्वाद
होता, तो
तू समझ जाता
कि मिटने का
मतलब क्या है।
तू कहता है, कभी तूने
किया ही नहीं,
तो तुझे
मिटने का कोई
अनुभव नहीं है।
संसार
के प्रेम भी
परमात्मा के
रास्ते पर सबक
हैं। इसलिए
संसार के
प्रेम से भी
घबड़ाना मत। उस
प्रेम के भी
अनुभव को ले
लेना।
थोड़ा
ही सही, क्षणभर को
ही सही, क्षणभंगुर
ही सही, थोड़ा—सा
भी मिटने का
अनुभव इतनी तो
खबर दे जाएगा
कि मिटने में
दुख नहीं है, मिटने में
सुख है। इतनी
तो प्रतीति हो
जाएगी कि मिटने
में एक मजा है।
क्षणभर सही; वह स्वाद
क्षणभर रहा हो।
एक बूंद ही
मिली हो उसकी,
लेकिन इतना
तो समझ में आ
जाएगा कि
मिटने में घबड़ाने
की जरूरत नहीं
है। मिटने में
रस है, सुख
है। मिटने में
मजा है, एक
मस्ती है। तो
फिर हम
परमात्मा की
तरफ मिटने की
बात भी सीख
सकते हैं।
परमात्मा
की तरफ तो
पूरा मिटना
होगा, रत्ती—रत्ती।
कुछ भी बचना
नहीं होगा।
लेकिन जैसे ही
हम मिटना शुरू
हो जाते हैं
कि परमात्मा
प्रवेश करने
लगता है।
कृष्ण
का यह कहना कि
उन मेरे में
चित्त को लगाने
वाले प्रेमी
भक्तों का मैं
शीघ्र ही
मृत्यु—रूप
संसार समुद्र से
उद्धार करने
वाला हूं।
इसमें दूसरा
शब्द है
मृत्यु—रूप
संसार, जो सोचने
जैसा है। इस
जगत में प्रेम
के अतिरिक्त
मृत्यु के
बाहर का कोई
अनुभव नहीं है।
जिसने प्रेम
को नहीं जाना,
उसने सिर्फ
मृत्यु को ही
जाना है।
इसलिए एक बड़ी
मजेदार घटना
घटती है कि
प्रेमी मरने
को तैयार होता
है। लेकिन
जिसने प्रेम
नहीं किया, वह मरने से
बहुत डरता है।
प्रेमी
मरने को हमेशा
तैयार है।
प्रेमी मजे से
मर सकता है।
प्रेमी को
मरने में जरा
भी भय नहीं है।
तो अगर मजनू
को मरना हो, तो मर
सकता है।
फरिहाद को
मरना हो, तो
मर सकता है।
कोई अड़चन
नहीं है। क्या
बात है? आखिर
प्रेमी मरने
से क्यों नहीं
डरता?
जरूर
प्रेमी ने कुछ
जान लिया है, जो
मृत्यु के आगे
जाता है और
मृत्यु जिसे
नहीं मिटा
पाती। इसलिए
जिसके जीवन
में प्रेम की
अनुभूति हुई,
वह मरने से
नहीं डरेगा।
मरने से तो वे
ही डरते हैं, जिन्होंने
जाना ही नहीं
कि मृत्यु के
आगे कुछ और भी
है।
कृष्ण
कहते हैं, जो मुझ
में पूरी तरह
मिटने को
तैयार है, मिटने
को अर्थात मुझ
में पूरी तरह
मरने को तैयार
है, उसे
मैं मृत्यु—रूपी
संसार से ऊपर
उठा लेता हूं।
वह तो
जैसे ही कोई
मिटने को
तैयार होता है
प्रेम में, वैसे ही
मृत्यु के पार
उठ जाता है।
प्रेम मृत्यु
पर विजय है।
आपका क्षुद्र
प्रेम भी
मृत्यु पर
छोटी—सी विजय
है। और अगर
आपके जीवन में
कोई भी प्रेम
नहीं है, तो
आप सिर्फ मरे
हुए जी रहे हो।
आपको जीवन का
कोई अनुभव ही
नहीं है।
इसीलिए
जीवन इतना
तड़पता है
प्रेम को पाने
के लिए। जीवन
की यह तड़प
मृत्यु के ऊपर
कोई अनुभव
पाने की आकांक्षा
है। यह तड़प
इतनी जोर से
है, कि
प्रेम! कहीं
से प्रेम!
किसी को मैं
प्रेम कर सकूं
और कोई मुझे
प्रेम कर सके!
यह असल में
किसी भांति
मैं जान सकूं—स्व
क्षण ही सही—जो
मृत्यु के
बाहर है, अतीत
है, पार है,
अतिक्रमण
कर गया हो
मृत्यु का।
तो
प्रभु का
प्रेम तो पूरा
मिटा डालता है।
प्रेमियों का
प्रेम पूरा
नहीं मिटाता
है। क्षणभर को
मिटाता है।
कभी—कभी
मिटाता है।
क्षणभर बाद हम
वापस अपनी जगह
खड़े हो जाते
हैं। द्वार—दरवाजे
मिटते नहीं।
जैसे हवा का
तेज झोंका आता
है, जरा—सा
खुलते हैं और
फिर बंद हो
जाते हैं। जरा—सी
झलक बाहर की
रोशनी की, और
द्वार फिर बंद
हो जाते हैं।
ऐसा साधारण
प्रेम है।
लेकिन
परमात्मा का
प्रेम तो सारे
द्वार—दरवाजे
गिरा देने का
है। सब जलाकर
राख कर देने
का है। अपने
को उसमें ही
खत्म कर देने
का है। फिर जो
अनुभूति होती
है, वह
अमृत की है।
इसलिए
कृष्ण कहते
हैं, मृत्यु
के पार उद्धार
करने वाला हूं।
इसलिए हे
अर्जुन, तू
मेरे में मन
को लगा; मेरे
में ही बुद्धि
को लगा। इसके
उपरांत तू मुझ
में ही निवास
करेगा, मुझको
ही प्राप्त
होगा। इसमें
कुछ भी संशय
नहीं है।
मुझ
में मन को लगा
और मुझ में ही
बुद्धि को लगा।
दो बातें कही
हैं। मुझ में
मन को लगा, मुझ में
ही बुद्धि को
लगा। लेकिन
पहले कहा कि
मुझ में मन को
लगा।
हम सब
कोशिश करते
हैं, पहले
बुद्धि को
लगाने की।
प्रमाण चाहिए
तर्क चाहिए, तब हम भाव
करेंगे! यह
नहीं हो सकता,
यह उलटा है।
पहले भाव। तो
कृष्ण कहते
हैं, मुझ
में मन को लगा।
बुद्धि को भी
लगा।
एक दफा
मन लग जाए तो
फिर बुद्धि भी
लग जाती है।
तर्क तो हमेशा
भाव का अनुसरण
करता है।
क्योंकि भाव
गहरा है और
तर्क तो उथला
है। बच्चा भाव
के साथ पैदा
होता है, तर्क तो बाद
में सीखता है।
तर्क तो
दूसरों से
सीखता है; भाव
तो अपना लाता
है। बुद्धि तो
उधार है; मन
तो अपना है, निजी है। यह
जो निजी भाव
अगर एक दफा चल
पड़े, तो
फिर बुद्धि
इसके पीछे
चलती है।
इसलिए देखें,
हमारे
तर्कों में
बड़ा फर्क होता
है, अगर
हमारे भाव में
फर्क हो। अगर
हमारा भाव अलग
हो, तो वही
स्थिति हमें
दूसरा तर्क
सुझाती है।
सुना
है मैंने कि
एक सूफी फकीर
शराब पीकर और
प्रार्थना कर
रहा था। उसके
गुरु को खबर
दी गई।
जिन्होंने
खबर दी, वे शिकायत
लाए थे, और
उन्होंने कहा
कि निकाल बाहर
करो अपने इस
शिष्य को। यह
शराब पीकर
प्रार्थना कर
रहा है! और अगर
लोग देख लेंगे
कि प्रार्थना
करने वाले लोग
शराब पीते हैं,
तो कैसी
बदनामी न
होगी!
गुरु
सुनकर नाचने
लगा। और उसने
कहा कि
धन्यवाद तेरा, कि मेरे
शिष्य शराब भी
पी लें, तो
भी प्रार्थना
करना नहीं
भूलते हैं! और
गजब हो जाएगा,
अगर दुनिया
यह जान लेगी
कि अब शराबी
भी प्रार्थना
करने लगे हैं!
स्थिति
एक थी। तर्क
अलग हो गए। वे
खबर लाए थे कि
अलग करो इसको
आश्रम से। और
गुरु ने कहा
कि मैं जाऊंगा
और स्वागत से
उसे वापस
लाऊंगा कि
तूने तो गजब
कर दिया। हम
तो बिना शराब
पीए भी कभी—कभी
प्रार्थना
करना भूल जाते
हैं। बिना
शराब पीए कभी—कभी
प्रार्थना
करना भूल जाते
हैं! तू तो हद
कर दिया कि
शराब पीए है, तो भी
प्रार्थना
करने गया है!
तेरी
याददाश्त, तेरा
स्मरण शराब भी
नहीं मिटा
पाती!
स्थिति
एक है, भाव
अलग हैं, तो
तर्क बदल जाते
हैं। तर्क भाव
के पीछे चलें,
तो ही कोई
परमात्मा की
खोज में जा
सकता है। अगर तर्क
के पीछे आप
भावों को
घसीटेंगे, तो
आपने बैलगाड़ी
के पीछे बैल
बांध रखे हैं।
फिर आप कितनी
ही कोशिश करें,
बैलगाड़ी
कहीं जा नहीं
सकती। और अगर
जाएगी भी, तो
किसी गड्डे
में जाएगी।
सीधा करें
व्यवस्था को।
भाव से बहे, क्योंकि भाव
स्वभाव है, निसर्ग है।
बुद्धि को
पीछे चलने दें।
बुद्धि
हिसाबी—किताबी
है। अच्छा है;
उसकी जरूरत
है।
इसलिए
कृष्ण कहते
हैं, मुझ
में मन को लगा।
पहले अपने भाव
को मुझ से जोड़
दे। फिर कोई
हर्जा नहीं
तेरी बुद्धि
का।
इसलिए
ऐसा मत सोचना
कि आस्तिक जो
हैं, वे
कोई तर्कहीन
हैं। अतर्क्य
हैं, तर्कहीन
नहीं हैं।
आस्तिक जो हैं,
वे भी तर्क
करते हैं, और
खूब गहरा तर्क
करते हैं।
लेकिन भाव के
ऊपर तर्क को
नहीं रखते हैं।
कोई
तार्किकों की
कमी नहीं है
आस्तिकों के
पास। लेकिन
भाव पहले है।
और जो
उन्होंने भाव
से जाना है, उसे ही वे
तर्क की भाषा
में कहते हैं।
अब कोई
शंकर से बड़ा
तार्किक
खोजना आसान
थोड़े ही है।
लेकिन शंकर का
तर्क है भाव
से बंधा। भाव
पहले घट गया
है। और अब
तर्क केवल उस
भाव को
प्रस्थापित
करने के लिए, उस भाव को
समझाने के लिए,
उस भाव को
पुष्ट करने के
लिए है। जब
कोई आदमी तर्क
को पहले रखता
है, तो वह
अपने को पहले
रखता है। जब
कोई आदमी भाव
को पहले रखता
है, तो वह
निसर्ग को
पहले रखता है।
निसर्ग आपसे
बड़ा है, विराट
है। बड़े को
पीछे मत
बांधिए छोटे
के। छोटे को
बड़े के पीछे
चलने दीजिए।
तो कृष्ण कहते
हैं, मुझ
में मन को लगा,
मुझ में
बुद्धि को लगा।
इसके उपरात तू
मुझ में ही निवास
करेगा। तू फिर
मेरे हृदय में
आ जाएगा।
तो ऐसा
मत सोचना कि
भगवान ही भक्त
के हृदय तक आता
है। जिस दिन
भक्त राजी हो
जाता है कि
भगवान उसके हृदय
में आ जाए उस
दिन भक्त भी
भगवान के हृदय
में पहुंच
जाता है'। तो ऐसा ही
नहीं है कि
भक्त ही याद
कर—करके भगवान
को अपने हृदय
में रखता है।
शुरुआत भक्त
को ऐसे ही
करनी पड़ती है।
जिस दिन यह
घटना घट जाती
है...।
कबीर
ने कहा है कि
बड़ी उलटी हालत
हो गई है। हरि
लागे पाछे
फिरैं, कहत कबीर
कबीर। पहले हम
चिल्लाते
फिरते थे कि
हे प्रभु, कहां
हो! और अब हालत
ऐसी हो गई है
कि हम कहीं भी
भागें—हरि
लागे पाछे
फिरैं, कहत
कबीर कबीर—अब
हरि पीछे—पीछे
भागते हैं और
कहते हैं, कबीर!
कबीर! कहां
जाते हो कबीर?
भक्त
शुरू करता है
भगवान को अपने
भीतर लेने से
और आखिर में
पाता है कि
भगवान ने उसे
अपने भीतर ले
लिया है।
कृष्ण कहते
हैं, उसके
उपरात तू
मुझमें ही
निवास करेगा,
मुझको ही
प्राप्त होगा।
इसमें कुछ भी
संशय नहीं है।
अगर
भाव से शुरू
करें, तो
कुछ भी संशय
नहीं है। अगर
बुद्धि से
शुरू करें, तो संशय ही
संशय है। जरा—सा
फर्क कि आप
बुद्धि को
पहले रख लें, फिर संशय ही
संशय है। भाव
को पहले रख
लें, फिर
कोई संशय नहीं
है।
अपने
भीतर खोज करनी
चाहिए कि
मैंने किस चीज
को प्राथमिकता
दे रखी है।
हमारा अहंकार
अपने को ही
प्राथमिकता
दिए हुए है।
और हम को तो
ऐसा लगता है
कि हमारे ही
ऊपर तो सारा
सब कुछ टिका
है। अगर हम ही
जरा डांवाडोल
हो गए अपने
अहंकार से, तो सारा
जगत न गिर जाए!
सब को ऐसा
लगता है।
सुना
है मैंने, छिपकलियां
मकानों को
सम्हाले रहती
हैं।
छिपकलियां
सोचती हैं कि
अगर वे हट गईं,
तो कहीं
मकान की छत न
गिर जाए! हम सब
को भी ऐसा लगता
है कि अगर
हमने अपना
तर्क छोड़ दिया,
बुद्धि छोड़
दी, तो यह
सारा जगत अभी
भूमिसात हो
जाए! सब गिर न
जाए।
एक
छोटी—सी कहानी
से अपनी बात
मैं पूरी करूं।
नाजी जर्मनी
में जब हिटलर
की हुकूमत थी, एक दिन
अखबार में एक
विज्ञापन
निकला। किसी
पुलिस के बड़े
आफिसर की जगह
खाली थी। और
कोई बड़ा
महत्वपूर्ण
पद था। जिस
आफिसर को
इंटरव्यू
लेना था उस
जगह के लिए, सुबह ही
उसने देखा कि
एक यहूदी बूढ़ा
अखबार हाथ में
लिए है और जहां
विज्ञापन
निकला था
अखबार में, एडवरटाइजमेंट
निकला था, उस
पर लाल स्याही
से गोल घेरा
बनाए हुए अंदर
आया।
वह
आफिसर थोड़ा
चकित हुआ कि
यह का यहूदी
क्या इस
विज्ञापन के
लिए आया हुआ
है! उसने पूछा
कि क्या आप इस
विज्ञापन के
लिए आए हुए
हैं? उस
बूढ़े ने कहा, जी ही। तो
आफिसर और भी
चकित हुआ।
उसने कहा, थोड़ा
देखिए तो कि
विज्ञापन में
क्या लिखा है! कि
आदमी जवान
चाहिए, और
आपकी उम्र कम
से कम सत्तर
पार कर चुकी
है। आदमी
स्वस्थ—सुडौल
चाहिए, और
आपकी हालत ऐसी
है कि आप
जिंदा कैसे
हैं, इस पर
आश्चर्य होता
है। इसमें
लिखा हुआ है
कि आंखें
बिलकुल
स्वस्थ और ठीक
होनी चाहिए और
आप इतना मोटा
चश्मा लगाए
हुए हैं कि
मुझे शक है कि
आपने यह
विज्ञापन पढ़ा
कैसे! और फिर
इसमें लिखा
हुआ है कि
आदमी आर्यन
जाति का चाहिए,
और स्पष्टत:
आप यहूदी हैं।
तो आप किस लिए
आए हैं?
तो उस
यहूदी के ने
कहा, टु
टेल यू जस्ट
दिस, दैट
डोंट डिपेंड।
आन मी—सिर्फ
यही खबर करने
आया हूं कि
मुझ पर निर्भर
मत रहना। कोई
और आदमी खोज
लो। इतना भर
स्पन करने आया
हूं कि मुझ पर
निर्भर मत
रहना।
हंसी
आती है, लेकिन थोड़ा
खोजेंगे, तो
उस यहूदी को
अपने भीतर
पाएंगे। सारी
दुनिया जैसे
आपकी ही सोच—समझ,
आपकी
बुद्धि, आपके
तर्क पर
निर्भर है! और
अगर आप जरा
डांवाडोल हुए
वहां से, तो
यह सारी
व्यवस्था टूट
जाएगी!
कुछ
नहीं है वहां
भीतर
सम्हालने को, लेकिन बस,
सम्हाले
हुए हैं! और
कोई आप पर
निर्भर नहीं
है। लेकिन बड़ी
जिम्मेवारी
उठाए हुए हैं।
सारा भार सारे
संसार का आपकी
ही समझ पर है!
अगर आप नासमझ
हो गए, तो
सारा जगत
रास्ते से
विचलित हो
जाएगा। यह जो
तर्क की
दृष्टि है, यह जो
अहंकार का बोध
है, इसकी
वजह से हम भाव
को कभी भी आगे
रखने में डरते
हैं, क्योंकि
भाव अराजक है।
और भाव कहां
ले जाएगा, नहीं
कहा जा सकता।
इसलिए हम सदा
भाव को दबाए
रखते हैं, क्योंकि
भाव क्या
करेगा, वह
भी अनजान, अपरिचित,
अज्ञात है।
तो भाव
से हम भयभीत
हैं। न तो कभी
हम हंसते हैं
खुलकर, क्योंकि डर
लगता है कि
कहीं सीमा के
बाहर न हंस
दें! न हम कभी
रोते हैं
हृदयपूर्वक, क्योंकि
लगता है कि
लोग क्या
कहेंगे कि अभी
भी बच्चों
जैसा काम कर
रहे हो!
नहीं; हम कुछ भी
भाव से नहीं
करने देते। सब
पर बुद्धि को
अड़ा देते हैं।
तो भीतर आंसू
भी इकट्ठे हो
जाते हैं।
सागर में भी
इतना खारापन
नहीं है, जितना
आपके भीतर एक
जिंदगी में
इकट्ठा हो जाता
है। आंसू ही आंसू
इकट्ठे हो
जाते हैं।
हंसे भी कभी
नहीं, तो
मुर्दा
हंसिया
इकट्ठी हो
जाती हैं, उनकी
लाशें सड़ जाती
हैं। सब जहर
हो जाता है
भीतर। भाव
कहीं बाहर
निकल न जाए, तो बुद्धि
को सम्हाल—सम्हालकर
चलते हैं।
इस
दुनिया में
इसलिए लोगों
को इतनी
ज्यादा शराब
पीने की जरूरत
पड़ती है, क्योंकि
शराब पीकर
थोड़ी देर को
बुद्धि एक तरफ
हट जाती है और
भाव बाहर आ
जाता है। और
जब तक हम भाव
को आगे नहीं
रखते, तब
तक दुनिया से
शराब नहीं मिट
सकती। अब यह
बड़े मजे का और
उलझा हुआ
मामला है।
अक्सर जो लोग
दुनिया से
शराब मिटाना
चाहते हैं, वे ही इस
दुनिया में
शराब के
जिम्मेवार
हैं। क्योंकि
वे ही लोग
बुद्धि को
थोपते हैं, कि शराब में
यह खराबी है, यह खराबी है,
इसलिए मत
पीओ। इससे यह
नुकसान है, यह नुकसान
है, इसलिए
मत पीओ। ये ही
लोग हैं, जिन्होंने
सब नुकसान और
खराबियां बता—बताकर
भाव के जगत को
भीतर बिलकुल
कुंठित कर
दिया है। और
इन्हीं की
कृपा है कि उस
कुंठित आदमी
को थोड़ी देर
को तो राहत
चाहिए, तो
वह पीकर राहत
ले लेता है।
थोड़ी देर को
वह खुल जाता
है।
आप
देखें, एक आदमी
शराब पीता है;
जैसे—जैसे
शराब पकड़ने।
लगती है उसको,
उसके चेहरे
पर रौनक आने
लगती है।
मुस्कुराने '
लगता है।
जिंदगी में
गति मालूम
पड़ने लगती है।
क्या हो रहा
है? यह
आदमी अभी मरा—मरा
क्यों था? इस
आदमी में यह
ताजगी कहां से
चली आ रही है?
यह
शराब से नहीं
आ रही है।
शराब तो जहर
है; उससे
क्या ताजगी
आएगी! यह
ताजगी इसलिए आ
रही है कि
ताजगी तो सदा
से भाव में
भरी थी, लेकिन
दबाकर बैठा था।
अब वह जो
दबाने वाली थी
बुद्धि, शराब
उसको बेहोश कर
रही है। वह
पहरेदार
बेहोश हो रहा
है। तो भीतर
के दबे हुए
भाव बाहर आ
रहे हैं।
इसलिए
शराब पीकर
आदमी ज्यादा
आदमी मालूम
पड़ता है, जिंदा मालूम
पड़ता है, अच्छा
मालूम पड़ता है,
भला मालूम
पड़ता है। शराब
यह सब कुछ
नहीं कर रही
है। लेकिन
शराब पहरे को
हटा रही है।
वह जो तर्क का
और बुद्धि का
झंडा गड़ा हुआ
था और बंदूक
लिए पहरेदार
खड़ा था, वह
पी रहा है
शराब, वह
बेहोश हो
जाएगा। यही
काम नींद कर
रही है। सुबह
आप ताजे मालूम
पड़ते हैं, क्योंकि
रात सपनों में
तर्क से नहीं
चलते, भाव
से चलते हैं।
रात सपने में
तर्क सो जाता
है और भाव की
दुनिया मुक्त
हो जाती है।
आकाश में उड़ना
हो, तो
उड़ते हैं। उस
वक्त यह नहीं
कहते कि मैं
संदेह करता
हूं आकाश में
उड़ना कैसे हो
सकता है? हम
उड़ते हैं।
सुबह भला
संदेह करें।
लेकिन रात मजे
से उड़ते हैं।
और जिससे
प्रेम करना है,
उससे सपने
में प्रेम कर
लेते हैं। उस
वक्त यह नहीं
कहते कि यह
मैं क्या कर
रहा हूं! यह
अनैतिक है।
सपने
में आप भाव से
जीने लगते हैं; बुद्धि
हट जाती है।
इसलिए रात
ताजगी देती है।
सुबह आप ताजे
उठते हैं। आप
सोचते होंगे
कि सपनों की
वजह से आपको
नुकसान होता
है, तो आप
गलती में हैं।
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
अगर सपना न आए,
तो आप सुबह
ताजे होकर न
उठ सकेंगे।
सपना आपको
ताजा कर रहा
है, क्योंकि
सपना छुटकारा
दे रहा है
बुद्धि से।
अभी
वैज्ञानिकों
ने प्रयोग किए
हैं कि अगर नींद
में बाधा डाली
जाए तो ज्यादा
नुकसान नहीं
होता। लेकिन
सपने में बाधा
डाली। जाए, तो
ज्यादा
नुकसान होता
है। रात में
कुछ घड़ी आप
सपना देखते
हैं, कुछ
घड़ी सोते हैं।
तो
वैज्ञानिकों
ने ऐसे प्रयोग
किए है—अब तो
जांचने का
उपाय है कि कब
आप सपना ले
रहे हैं और कब
सो रहे है—तो
जब आप सपना ले
रहे हैं, तब
जगा दिया
हड़बड़ाकर। जब
भी सपना लिया,
तब जगा दिया।
और जब शांति
से सोए रहे, तो सोने
दिया। तो पाया
कि आदमी तीन
दिन से ज्यादा
बिना सपने के
नहीं रह सकता।
बिलकुल टूट
जाता है।
दूसरा
प्रयोग भी
किया है कि जब
नींद आई, तब जगा दिया।
और जब सपना
आया, तब
सोने दिया।
कोई तकलीफ
नहीं होती।
सुबह
आदमी उतना ही
ताजा उठता है।
इसलिए पहले
खयाल था कि
नींद से ताजगी
मिलती है। अब
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं, सपने से
ताजगी मिलती
है।
बड़ी
हैरानी की बात
है। सपने से
ताजगी क्यों
मिलती होगी? सपने से
ताजगी इसीलिए
मिलती है कि
बुद्धि का बोझ
हट जाता है।
और जब बुद्धि
का बोझ हट
जाता है, तो
आप जिंदगी का
रस लेकर वापस
लौट आते हैं।
भक्त
जागते जिंदगी
का बोझ फेंक
देता है और एक आध्यात्मिक
स्वप्न में
लीन हो जाता
है। उस स्वप्न
में वह सब कुछ
न्योछावर कर
देता है। और
कृष्ण कहते
हैं, तब
उसे मैं उठा
लेता हूं।
तुम्हारी
बुद्धि से जो
सत्य दिखाई पड़
रहा है, वह इतना
सत्य नहीं है,
जितना
प्रेम और भाव
से दिखाई पड़ने
वाला स्वप्न
भी सत्य होता
है।
आज इतना
ही।
अब
पांच मिनट
कीर्तन करें।
लेकिन कोई बीच
में न उठे।
कीर्तन पूरा
करें और फिर
जाएं।
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