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मंगलवार, 24 फ़रवरी 2015

पतंजलि: योगसूत्र--(भाग--5) प्रवचन--95

यही है यह—(प्रवचन—पंद्रहवां)

दिनांक  5 मई  1976 ओशो आश्रम पूूूूना। 

योग—सूत्र (कैवल्‍यपाद)

      हेतुफलाश्रयालम्बुत्रैं संगृहीत्‍त्‍वादेषमभावे तदभाक:।। 11।।
प्रभाव के कारण पर अवलंबित होने से, कारणों के मिटते ही प्रभाव तिरोहित हो जाते हैं।

      अतीतानागतं स्वरूपतोऽख्यध्यभेदाद्धर्माणाम्।। 12।।
अतीत और भविष्य का अस्तित्व वर्तमान में है, किंतु वर्तमान में उनकी अनुभूति नहीं हो पाती है, क्योंकि वे विभिन्न तलों पर होते हैं।

      ते व्यक्तसूक्ष्‍मा गुणात्मान:।। 13।।
वे व्यक्त हों या अव्यक्त अतीत, वर्तमान और भविष्‍य सत, रज और तम गुणों की प्रकृति हैं।
     
परिणामैकत्‍वाद्वस्‍तुतत्‍वम्।। 14।।
किसी वस्‍तु का सारतत्‍व, इन्‍हीं तीन गुणों के अनुपातों के अनूठेपन में निहित होता है।


      वस्‍तुसाम्‍ये चित्रदात्‍तयोर्विभिक्‍त: पन्‍था:।। 15।।
भिन्‍न—भिन्‍न मनों के द्वारा एक ही वस्‍तु विभिन्‍न ढंगों से देखी जाती है।


तदुपरागापेक्षित्याच्चित्तस्य वस्तु ज्ञाताज्ञातम्।। 17।।
वस्तु का ज्ञान या अज्ञान इस पर निर्भर होता है कि मन उसके रंग में रंगा है या नहीं।


पहल सूत्र——
'प्रभाव के कारण पर अवलंबित होने से, कारणों के मिटते ही प्रभाव तिरोहित हो जाते हैं।
अविद्या, अपने स्वयं के अस्तित्व का अज्ञान, इस संसार का आधारभूत कारण है। एक बार अविद्या, अपने स्वयं के अस्तित्व का अज्ञान मिट जाए, यह, संसार भी विलीन हो जाता है—वस्तुओं का संसार नहीं, बल्कि इच्छाओं का संसार, वह संसार नहीं जो तुम्हारे बाहर है, बल्कि वह संसार जिसे तुम भीतर से सतत आरोपित करते रहे हो। जिस क्षण तुम्हारे भीतर से अज्ञान मिटता है उसी क्षण तुम्हारे स्वप्नों, भ्रमों, प्रक्षेपणों का संसार तिरोहित हो जाता है।
इसे समझ लेना चाहिए, बस ज्ञान का अभाव अजान नहीं है, इसलिए तुम ज्ञान का संकलन करते रह सकते हो, किंतु इस ढंग से अज्ञान नहीं मिटेगा। तुम बहुत ज्ञानवान हो सकते हो, किंतु फिर भी तुम अज्ञानी बने रहोगे। वास्तव में जानकारी अज्ञान के लिए सुरक्षा का कार्य करती है। अज्ञान को जानकारी से नष्ट नहीं किया जा सकता। बल्कि इसके विपरीत इस अज्ञान की इस जानकारी से रक्षा होती है। जानकारी एकत्रित करने की, जानकारी संचित करने की इच्छा अपने स्वयं के अज्ञान को छिपाने के सिवाय और कुछ भी नहीं है। जितना अधिक तुम जानते हो उतना ही अधिक तुम सोचते हो कि तुम अब अज्ञानी नहीं रहे।
तिब्बत में एक कहावत है : 'जो अज्ञानी हैं वे सौभाग्यशाली हैं, क्योंकि वे यह सोच कर प्रसन्न हैं कि वे सब कुछ जानते हैं।
प्रत्येक बात को जान लेने के प्रयास से कोई सहायता नहीं मिलने जा रही है, यह सारे मामले से चूक जाना है। अपने स्व को जान लेने का प्रयास पर्याप्त है। यदि तुम अपने स्वयं के अस्तित्व को जान सको तो तुमने सभी कुछ जान लिया है, क्योंकि अब तुम समग्र के साथ भागीदारी करते हो, तुम्हारा स्वभाव समग्र का स्वभाव है।
तुम पानी की एक बूंद के समान हो। यदि तुम पानी की एक बूंद को जान लो तो तुमने अतीत, वर्तमान और भविष्य के सभी महासागरों को जान लिया है। पानी की एक बूंद में ही सागर का पूरा स्वभाव उपस्थित है।
वह व्यक्ति जो जानकारी के पीछे पड़ जाता है, लगातार स्वयं को भूलता रहता है और सूचनाओं का संचय करता चला जाता है। संभवत: वह बहुत अधिक जानता है, लेकिन फिर भी वह अज्ञानी बना रहेगा। इसलिए अज्ञान जानकारी का विरोधी नहीं है, अज्ञान को जानकारी से नहीं मिटाया जा सकता है। तब अज्ञान को मिटाने का क्या उपाय है? योग कहता है : सजगता, न कि जानकारी, जानना नहीं, स्वयं को बाहर केंद्रित नहीं करना बल्कि ज्ञान के अंतस्रोत पर केंद्रित कर देना।
जब बच्चा मां के गर्भ में होता है तो वह पूर्ण सुप्तावस्था में होता है। मां के गर्भ में आरंभ के महीने गहन निद्रा, जिसे योग सुषुप्ति, स्वप्न विहीन निद्रा कहता है, के होते हैं। फिर लगभग छठे माह के अंत या सातवें माह के आरंभ में बच्चा थोड़े बहुत स्वप्न देखना शुरू कर देता है। निद्रा में बाधा पड़ने लगती है, यह पूर्ण नहीं रह पाती। बाहर कुछ होता हैं—जरा सा शोर और बच्चे की निद्रा बाधित हो जाती है। बाहर उत्पन्न कंपन उस तक पहुंच जाते हैं और उसकी गहन निद्रा में विक्षेप उत्पन्न हो जाता है और वह स्वप्न देखना आरंभ कर देता है। स्वप्न की पहली तरंगिकाए उठती हैं। स्वप्न विहीन निद्रा चेतना की पहली अवस्था है।
दूसरी अवस्था है : निद्रा और स्वप्न। दूसरी अवस्था में निद्रा बनी रहती है लेकिन एक नया आयाम सक्रिय हो जाता है : स्वप्न देखने का आयाम। फिर बच्चे का जन्म हो जाता है तो एक तीसरे आयाम का उदय होता है, जिसे हम सामान्यत: जागृति की अवस्था कहते हैं। यह वास्तव में जागृति की अवस्था नहीं है बल्कि एक नया आयाम सक्रिय हो जाता है और वह आयाम है विचार का। बच्चा सोचना आरंभ कर देता है।
पहली अवस्था स्वप्न रहित निद्रा की थी, दूसरी अवस्था थी निद्रा और स्वप्न, तीसरी अवस्था है निद्रा, और स्वप्न, और विचार, किंतु निद्रा अब भी रहती है। निद्रा पूरी तरह टूट नहीं गई है। तुम अपने सोचने के समय भी निद्रा में बने रहते हो। तुम्हारा सोचना और कुछ नहीं बल्कि स्वप्न देखने का एक और ढंग है, निद्रा बाधित नहीं होती है। ये सामान्य अवस्थाएं हैं। कभी कोई बिरला व्यक्ति ही तीसरी, सोचने की अवस्था से ऊपर उठ पाता है। और योग का लक्ष्य यही है—शुद्ध जागरूकता की अवस्था, जो इतनी शुद्ध है जितनी कि पहली अवस्था पर पहुंचना। पहली अवस्था शुद्ध निद्रा की है और अंतिम अवस्था शुद्ध जागरूकता, शुद्ध जागृति की है। एक बार तुम्हारी जागरूकता उतनी शुद्ध हो जाए जितनी कि तुम्हारी गहन निद्रा है, तुम बुद्ध बन जाते हो, तुमने पा लिया है, तुम घर लौट आए हो।
पतंजलि कहते हैं : समाधि जागरूकता की परम अवस्था, बस सुषुप्ति की भांति है; किंतु एक अंतर है। यह उतनी ही शांत और विश्रांत है जैसी कि निद्रा, उतनी ही मौन, निद्रा की भांति बाधाहीन, उतनी ही समग्र और आनंददायी जैसी कि निद्रा होती है, लेकिन एक अंतर के साथ, यह पूरी तरह सजग है। ये विकास के सोपान हैं। सामान्यत: हम तीसरी अवस्था पर रहते हैं। गहराई में निंद्रा जारी रहती है; इसके ऊपर स्वप्नों की परत है, उसके ऊपर विचार प्रक्रिया की एक अन्य परत है, किंतु निद्रा भंग नहीं हुई है। और तुम इसको देख सकते हो, यह कोई सिद्धांत नहीं है। इसकी वास्तविकता को तुम देख सकते हो।
किसी भी क्षण अपनी आंखें बंद कर लो, पहले तुम विचारों को देखोगे अपने चारों ओर, विचारों की एक परत, तरंगित होते हुए विचार—स्व आ रहा है, एक जा रहा है—एक भीड़, एक यातायात। कुछ क्षणों के लिए मौन रहो और अचानक तुम देखोगे कि अब वहां विचार—प्रक्रिया न रही बल्कि स्वप्न देखना आरंभ हो गया है। तुम स्वप्न देख रहे हो कि तुम देश के राष्ट्रपति हो गए हो या तुम्हें सड़क पर सोने की एक ईंट मिल गई है, या तुम्हें कोई सुंदर स्त्री या पुरुष मिल गया है, और अचानक तुम कल्पनाओं का प्रक्षेपण आरंभ कर देते हो; स्वप्न सक्रिय हो जाते हैं। यदि तुम लंबे समय तक स्वप्न देखना जारी रखो तो एक क्षण ऐसा आएगा जब तुम सो जाओगे—सोचना, स्वप्न देखना, सो जाना और निद्रा, पुन, स्वप्न देखना और सोचना—इसी भांति तुम्हारा सारा जीवन—चक्र घूमता है। वास्तविक जागरूकता अभी जानी नहीं गई है, और यही वह जागरूकता है जिसके लिए पतंजलि कहते हैं कि यह अज्ञान को नष्ट कर देगी— जानकारी नहीं, बल्कि जागरूकता अज्ञान को नष्ट कर देगी। हम बस स्वयं को और अन्य लोगों को मूर्ख बनाने के लिए जानकारी एकत्रित करते हैं।
मैंने सुना है, एक छोटे से विद्यालय में ऐसा हुआ कि कक्षा में आकर विद्यालय निरीक्षक ने पूछा, जेरिको की दीवाल किसने गिराई? और विद्यार्थियों में से एक लड़के ने जिसका नाम बिली ग्रीन था, तुरंत उत्तर दिया, श्रीमान, मैंने यह नहीं किया है। निरीक्षक अनभिज्ञता के इस प्रदर्शन पर हैरान रह गया और अपने निरीक्षण के समापन पर उसने सारा मामला प्रधानाध्यापक को बताया। क्या आप जानते हैं, उसने कहा, मैंने कक्षा में जाकर पूछा, जेरिको की दीवाल किसने गिराई, और एक छात्र बिली ग्रीन ने कहा कि यह उसने नहीं किया है। प्रधानाध्यापक ने कहा : बिली ग्रीन? ओह, अच्छा.. .मुझे यह कहना पड़ रहा है कि मैंने ड़स लड़के को सदैव ईमानदार और भरोसे लायक पाया है, और यदि वह कहता है कि उसने ऐसा' नहीं किया है, तो उसने ऐसा नहीं किया है।
निरीक्षक कोई और टिप्पणी किए बिना विद्यालय से चला गया, किंतु बिना कोई समय गंवाए उसने घटनाओं का पूरा क्रम लिखित रूप में शिक्षा मंत्रालय को भेज दिया। कुछ समय बाद उसे यह उत्तर प्राप्त हुआ, महोदय, जेरिको की दीवाल के संदर्भ में प्राप्त आपके पत्र के बारे में हमें सूचित करना है कि यह लोकनिर्माण मंत्रालय का मामला है, इसलिए उनके ध्यानाकर्षण हेतु आपका पत्र उनके पास भेज दिया गया है।
किंतु कोई भी इस साधारण तथ्य को नहीं पहचानना चाहता है कि वे नहीं जानते। प्रत्येक व्यक्ति प्रयास करता है, चाहे प्रश्न जो भी हो, प्रत्येक व्यक्ति उत्तर देने का प्रयास करता है। यदि तुम प्रयास करो तो अनेक बार तुम स्वयं को ऐसा करते हुए रंगे हाथ पकड़ लोगे। कोई व्यक्ति कुछ पूछता है, कोई व्यक्ति कुछ ऐसी बात करता है जिसके बारे में तुम नहीं जानते, किंतु तुम टिप्पणी करना, राय देना या कुछ ऐसी बात या ऐसा कुछ कहना आरंभ कर देते हो जिससे तुमको अज्ञानी न समझा जाए, कोई यह न सोचे कि तुम अज्ञानी हो। किंतु जागरूकता का प्रथम आरंभ इस प्रत्यभिज्ञा से होता है कि तुम अज्ञानी हो। अज्ञान को नष्ट तो किया जा सकता है लेकिन इसको पहचाने बिना नहीं।
जब जॉर्ज गुरजिएफ का महान शिष्य पी. डी. आस्पेंस्की पहली बार अपने सदगुरु से मिला, तो वह पहले से ही बहुत प्रसिद्ध, संसार का सुपरिचित व्यक्ति था। गुरजिएफ प्रसिद्ध नहीं था, आस्पेंस्की पहले से ही बहुत विख्यात था। वह इस बीसवीं सदी की सर्वश्रेष्ठ पुस्तकों में से एक 'टर्शियम आर्गानम' को लिख चुका था। यह वास्तव में एक साहसिक प्रयास है। वास्तव में इस सदी में किसी अन्य व्यक्ति ने ऐसा साहसपूर्ण अवलोकन करने का प्रयास नहीं किया। हिम्मत के साथ आस्पेंस्की ने अपनी पुस्तक को ज्ञान की तीसरी शाखा के रूप में वर्णित किया : टर्शियम आर्गानम, ज्ञान का तीसरा सिद्धात। पहला अरस्तू द्वारा लिखा गया आर्गानम; दूसरा बेकन द्वारा लिखा गया नोवम आर्गानम। और उसने कहा, मैं ज्ञान का तीसरा सिद्धात लिखता हूं। उसने कहा, पहला और दूसरा तीसरे के सामने कुछ भी नहीं हैं। तीसरे का अस्तित्व पहले के पूर्व था। यह वास्तव में एक साहसिक प्रयास था, और केवल अहकारपूर्ण प्रयास नहीं था यह, उसका दावा करीब—करीब सच था।
जब आस्पेंस्की गुरजिएफ के पास गया, गुरजिएफ ने उसकी ओर देखा। उसने उस पांडित्य से भरे व्यक्ति को देखा जो बहुत कुछ जानता था, जो यह भी जानता था कि दूसरे भी जानते हैं कि वह बहुत कुछ जानता है—सूक्ष्म अहंकार। गुरजिएफ ने उसको एक कागज दिया, कागज का एक कोरा पृष्ठ और उससे? कहा कि वह बगल के कमरे में चला जाए और जो कुछ भी वह जानता है उसे एक ओर लिख दे और कागज के दूसरी ओर वह सब लिख दे जो उसे नहीं पता है। क्योंकि कार्य केवल तभी आरंभ किया जा सकता है जब आस्पेंस्की को स्पष्ट रूप से पता हो कि वह क्या जानता है और क्या नहीं जानता है। गुरजिएफ ने कहा. याद रखो, जो कुछ भी तुम लिख लाओगे कि तुम्हें पता है, उसको मैं स्वीकार कर लूंगा, और हम इसके बारे में दुबारा कभी बात नहीं करेंगे। यह मामला समाप्त
हो गया, तुम इसे जानते ही हो। जो कुछ भी तुम लिख दोगे कि तुम नहीं जानते, उस पर हम कार्य करेंगे। और गुरजिएफ ने जो पहली बात कही वह थी यह जान लेना कि तुमको क्या पता है और तुमको क्या पता नहीं है।
आस्पेंस्की कमरे में चला गया। उसने सोचना आरंभ किया कि वह क्या जानता है, और उसके जीवन में पहली बार ऐसा हुआ कि कागज पर वह एक बात भी नहीं लिख सका। उसने प्रयास किया—परमात्मा, स्व, संसार, मन, जागरूकता, इन सबके बारे में वह क्या जानता है? पहली बार यह प्रश्न प्रमाणिकता पूर्वक पूछा गया था। परमात्मा के बारे में उसे अनेक बातें पता थीं, और वह आत्मा के बारे में बहुत सी बातें जानता था; और जागरूकता के बारे. में उसे कई बातें पता थीं, किंतु वास्तव में ईश्वर के बारे में वह एक चीज भी नहीं जानता था। ये सभी सूचनाएं थीं, यह उसका अनुभव नहीं था। और जब तक किसी चीज का अनुभव तुम्हें न हुआ हो तुम कैसे कह सकते हो कि तुम इसे जानते हो?
तुम प्रेम के बारे में जान सकते हो, लेकिन वास्तव में यह प्रेम का ज्ञान नहीं है। तुम्हें प्रेम से होकर गुजरना पड़ेगा, तुम्हें प्रेम की अग्नि से होकर गुजरना पड़ेगा। तुम्हें जलना पडेगा, तुम्हें चुनौती पर खरा उतरना पड़ेगा, और जब तुम प्रेम से बाहर निकल कर आओगे तो तुम पूर्णत: भिन्न होओगे, उस व्यक्ति से पूर्णत: भिन्न होओगे जो भीतर गया था। प्रेम रूपांतरण करता है। सूचना तुम्हारा रूपांतरण कभी नहीं .करती। सूचना एक लत बनती चली जाती है, जो कुछ भी तुम हो यह उसी में कुछ और जोडती चली जाती है। यह तुम्हारे लिए खजाने की तरह हो जाती है, किंतु तुम जैसे थे वैसे ही रहते हो। अनुभव तुमको रूपांतरित कर देता है। वास्तविक जान कोई संचय नहीं है, यह रूपांतरण है, एक उत्काति—पुराना मर जाता है और नये का जन्म होता है। कठिन है यह...
आस्पेंस्की ने जितना संभव हो सकता था उतना भरपूर प्रयास किया कि कम से कम कुछ बातें तो खोज ले जिन्हें वह जानता है, क्योंकि कुछ भी न लिखना उसके अहंकार के नितांत विपरीत हुआ जा रहा था। वह यह भी न लिख सका कि मैं अपने आपको जानता हूं। यदि तुमने आधारभूत इकाई, अपने आप को भी नहीं जाना, तो और क्या तुम जानते हो? यह सर्दी की एक रात थी और उसको पसीना छूटने लगा। अभी बस एक क्षण पूर्व ही वह सर्दी से कांप रहा था। उसका सारा अस्तित्व दांव पर लगा हुआ था। उसे चक्कर आने लगे, जैसे कि वह चक्कर खाकर गिरने वाला हो या उसे दौरा पड़ने वाला हो। घंटों बीत गए, तब गुरजिएफ ने द्वार खटखटाया और कहा 'क्या तुमने कुछ किया है?' और गुरजिएफ देख पाया कि यह आदमी बदल गया है। बस कोरे कागज का एक पन्ना हाथ में लिए वहां बैठा हुआ है। यह बैठना एक श्रेष्ठ ध्यान झाझेन बन गया था। उसने रिक्त, कोरा कागज गुरजिएफ को दे दिया और कहा : मैं कुछ नहीं जानता हूं। मैं नितांत अज्ञानी हूं। मुझे अपने शिष्य के रूप में स्वीकार करें। गुरजिएफ ने कहा : फिर तो तुम मेरा शिष्य हो पाने के लिए तैयार हो.....यह जान
लेना कि व्यक्ति अज्ञानी है बुद्धिमत्ता की ओर पहला कदम है।
'प्रभाव के कारण पर अवलंबित होने से, कारणों के मिटते ही प्रभाव तिरोहित हो जाते हैं।
पतंजलि कहते हैं कि तुम अनैतिक हो, किंतु यह एक प्रभाव है। तुम लोभी हो, किंतु यह एक प्रभाव है। तुमको क्रोध की अनुभूति होती है, यह एक प्रभाव है। कारण को खोज लो। प्रभावों से संघर्ष. मत करते रहो क्योंकि इससे कोई सहायता नहीं मिलने वाली है। तुम अपने लोभ से संघर्ष कर सकते हो और यह कहीं और से पुन: प्रकट हो जाएगा। तुम अपने क्रोध से संघर्ष कर सकते हो, यह दमित हो जाएगा और कहीं और से फूट पड़ेगा। प्रभावों से संघर्ष करके प्रभावों को विनष्ट नहीं किया जा सकता है। यही कारण है कि योग नैतिकता की कोई व्यवस्था नहीं है, यह जागरूकता की विधि है। असली कारण की खोज करनी पड़ती है। यदि तुम किसी वृक्ष की पत्तियां काटते और छांटते चले जाओ तो इससे वृक्ष पर कोई प्रभाव नहीं पड़ने जा रहा है। नयी पत्तियां निकल आएंगी। तुमको वास्तविक कारण, जड़ को खोज निकालना पड़ेगा। यदि तुम वृक्ष को नष्ट करना चाहते हो तो तुमको जड़ों को नष्ट करना पड़ेगा। जड़ों के नष्ट होने के साथ वृक्ष मिट जाएगा। किंतु तुम शाखाओं को काटते रह सकते हो, इससे वृक्ष नष्ट नहीं होगा। वास्तव में होगा तो यह कि जहां पर तुम एक शाखा काटते हो वहां पर तीन शाखाएं निकल आती हैं। एक वृक्ष की पत्तियों को छांट दो और यह अधिक सघन और अधिक मोटा हो जाएगा। जड़ों को काट दो और वृक्ष मिट जाता है।
योग कहता है : नैतिकता प्रभावों से संघर्ष करती चली जाती है।
'तुम लोभी हो; तुम निर्लोभी होने का प्रयास करते हो, लेकिन क्या होता है? तुम निर्लोभी केवल तभी हो सकते हो जब तुम्हारे लोभ को निर्लोभ की ओर मोड़ दिया जाए। यदि कोई कहता है कि यदि तुम निर्लोभी हो जाओ तो तुम स्वर्ग चले जाओगे, और यदि तुम लोभी बने रहे तो तुम नरक में जाओगे, अब वह क्या कर रहा है? वह तुम्हारे लोभ के लिए एक नया विषय दे रहा है। वह कह रहा है, निर्लोभी हो जाओ और तुम स्वर्ग उपलब्ध कर लोगे और वहां पर तुम सदा और सदैव के लिए खुश रहोगे। अब लोभी व्यक्ति यह सोचने लगेगा कि निर्लोभ का अभ्यास कैसे किया जाए जिससे वह स्वर्ग पहुंच सके।
तुम भयभीत हो; भय वहां है। भय से कैसे मुक्त हुआ जाए? तुमको और अधिक भयभीत बनाया जा सकता है, और भय के बारे में तुम्हारे भीतर इतना भय निर्मित किया जा सकता है कि तुम इसको दमित करना आरंभ कर दो। यह तुमको निर्भय बनाने नहीं जा रहा है, तुम बस और अधिक भयभीत हो जाओगे। एक नया भय उठ खड़ा होगा, भय का भय।
तुम क्रोधित होते हो। तुम्हारे लिए क्रोधित होना सरल है, और मन की इस वृत्ति का प्रतिरोध करना भी बहुत कठिन है। अब कुछ किया जा सकता है। तुम क्रोधित क्यों होते हो? जब कभी तुम्हारा अहंकार आहत होता है तुम क्रोधित हो जाते हो। अब तुमको यह सिखाया जा सकता है कि वह व्यक्ति जो नियंत्रण में रहता है, समाज में सम्मान पाता। वह व्यक्ति अपना क्रोध इतनी आसानी से प्रदर्शित नहीं करता उसे महान व्यक्ति समझा जाता है। तब तुम्हारा अहंकार बढ़ाया जा रहा है; अधिक अनुशासित और नियंत्रित हो जाओ, और इतनी जल्दी क्रोधित होने के लिए व्याकुल मत हो जाओ। तुम्हारा अहंकार नष्ट नहीं होता, बल्कि यह और ताकतवर हो जाता है। रोग अपना रूप, नाम बदल सकता है लेकिन रोग रहेगा। इसे स्मरण रखो, योग नैतिकता की कोई व्यवस्था नहीं है क्योंकि यह प्रभावों की चिंता जरा भी नहीं लेता है। यही कारण है कि दस आज्ञाओं जैसी कोई बात यहां योग—सूत्र में नहीं है।
लोग मूलभूत कारण को जाने बिना एक—दूसरे को सिखाए चले जाते है, और जब तक मूलभूत कारण को न जान लिया जाए कुछ भी नहीं किया जा सकता है, मनुष्य का व्यक्तित्व वही रहता है, यहां— वहां शायद थोड़ी सी लीपा—पोती, यहां—वहां थोड़ी सी बदलाहट।
मैंने सुना है, एक पोलिश व्यक्ति आंखों की जांच करवाने के लिए नेत्र चिकित्सालय में गया। जांच के लिए चिकित्सक ने उसे सामने दिख रहे चार्ट की पंक्तियों को एक—एक करके पढ़ने को कहा। उसने नीचे वाली पंक्ति को देखा. सी एस वी ई एन सी जे डब्लू वह थोड़ा सा हिचकिचाया। डाक्टर ने उससे कहा : तुम चिंतित क्यों लग रहे हो। यदि तुम इनको नहीं पढ़ पा रहे हो तो अपनी ओर से भरपूर प्रयास तो करो। पोलिश व्यक्ति ने कहा : इसे पढ लूं? मैं इस आदमी को व्यक्तिगत रूप से जानता हूं।
यह स्वीकार करना अत्यंत कठिन है कि तुम नहीं जानते, कि तुमको नहीं पता कि तुम इतने अहंकारी क्यों हो। तुम नहीं जानते कि तुम इतनी आसानी से क्रोधित क्यों हो जाते हो। तुम नहीं जानते कि वहां तुम्हारे भीतर लोभ क्यों है। तुम नहीं जानते कि वहां वासना क्यो है, वहां भय क्यों है। कारण को जाने बिना तुम प्रभावों से संघर्ष करना आरंभ कर देते हो। तुम मान लेते हो कि तुम जानते हो। अनेक लोग मेरे पास आते हैं और वे कहते हैं, किसी भी तरह हम क्रोध से छुटकारा पाना चाहते हैं। मै उनसे पूछता हूं क्या तुमको कारण पता है? वे अपने कंधे उचका देते हैं। वे कहते हैं, बस क्रोध है, और मैं बहुत आसानी से क्रोधित हो जाता हूं और यह मुझको विचलित कर देता है, मेरे संबधों को खराब कर देता है, मुझको और तनावग्रस्त कर देता है, चिंता, पश्चात्ताप और अपराध— बोध निर्मित कर देता है। किंतु ये सभी प्रभाव हैं।
पहली बात, क्रोध उठता ही क्यों है? कोई पूछता नहीं। और इसका सौंदर्य यही है, यदि तुम कारण के बारे में पूछो, तुम्हें यह जान कर आश्चर्य होगा कि कारण एक ही है। प्रभाव तो लाखों हो सकते हैं परंतु कारण एक है, जड़ एक है। क्रोध, लोभ, अहंकार, वासना, भय, घृणा, ईर्ष्या, शत्रुता, हिंसा, चाहे जो भी प्रभाव हो, कारण एक ही है। और कारण है कि तुम पर्याप्त जागरूक नहीं हो। तुम क्रोध को काबू कर. सकते हो, किंतु. इससे तुम्हें सहायता नहीं मिलेगी। यह तुम्हारे भीतर के रोग को बस नियंत्रण में करना है, उसे पकड़ कर रखना है। यह तुमको स्वस्थ नहीं कर देगा। बल्कि यह तुम्हें और अस्वस्थ बना सकता है। इसे तुम देख सकते हो—एक व्यक्ति जो सरलता से क्रोधित हो जाता है वह कभी बहुत खतरनाक नहीं होता। उसके बारे में तुम निश्चित हो सकते हो कि वह कभी हत्या नहीं करेगा। वह कभी इतना क्रोध एकत्रित नहीं कर लेगा जिससे वह हत्यारा बन जाए। प्रत्येक दिन वह रेचन कर देता है। किसी भी उद्दीपन से, सरलतापूर्वक वह क्रोधित हो जाता है। इसका अर्थ है बहुत देर तक उसकी भाप उसके भीतर एकत्रित नहीं रह पाती। उसका पात्र रिसता रहता है।. जब कभी भी बहुत अधिक भाप हो जाती है वह उसको निकल जाने देता है। वह व्यक्ति जो बहुत अधिक नियंत्रित है, एक खतरनाक व्यक्ति है। वह अपने भीतर भाप रोकता चला जाता है, उसकी ऊर्जाएं बंध जाती हैं, रुक जाती हैं। आज नहीं तो कल उसकी ऊर्जाएं उसके नियंत्रण से अधिक बलशाली सिद्ध हो जाएंगी। तब उसका विस्फोट हो जाएगा, फिर कुछ ऐसा करेगा जो वास्तव में संगीन अपराध होगा। वह व्यक्ति जो सरलता से क्रोधित हो जाता है, सरलता से शांत भी हो जाता है।
मैंने सुना है, 'मुझे अफसोस है श्रीमान', क्लर्क ने कहा, 'लेकिन मैं त्यागपत्र देना चाहता हूं।’ 'लेकिन क्यों?' बीस ने हैरानी से पूछा।
'ठीक है, श्रीमान, आपको सच बता ही देता हूं आपके जल्दी से क्रोधित होने वाले स्वभाव के कारण मैं यहां रुक नहीं सकता हूं।
अरे अब मान भी जाओ भाई', बीस ने समझाया, 'मैं जानता हूं कि कभी—कभी मैं थोड़ा सा बदमिजाज हो जाता हूं लेकिन यह तो तुमको मानना ही पड़ेगा कि मेरा दिमाग बहुत जल्दी ठंडा हो जाता है।
'यह सच है श्रीमान, लेकिन यह भी सच है कि जैसे ही यह ठंडा होता है वैसे ही तुरंत गर्म होने लगता है।
लेकिन इस प्रकार का व्यक्ति कभी हत्यारा नहीं हो सकता। वह कभी उतनी भाप एकत्रित नहीं करता। वे लोग जो जल्दी से भावुक हो जाते हैं भले लोग होते हैं। वे बहुत नियंत्रित नहीं हो सकते हैं, वे चीख सकते हैं और रो सकते हैं और हंस सकते हैं, किंतु वे भले लोग हैं। उनके साथ रहना
किसी धार्मिक व्यक्ति, नैतिक, शुद्धतावादी, बहुत सम्हालने वाले नियंत्रित व्यक्ति से कहीं अधिक बेहतर है। वह व्यक्ति खतरनाक होता है।
अभी कुछ दिन पहले ही तीर्थ के एनकाउंटर—ग्रुप, समूह—चिकित्सा में एक युवक भागीदारी कर रहा था। उसने कई वर्ष अकीदो का प्रशिक्षण प्राप्त किया था। अब अकीदो, को, कराटे और जुजुत्सु की सभी विधियां नियंत्रण की शिक्षाएं हैं। तुम्हें अपने आपको इस कदर नियंत्रण में रखना पड़ता है कि तुम लगभग एक मूर्ति जैसे हो जाते हो, इतने नियंत्रित कि तुम्हें कोई उत्तेजित नहीं कर सकता। अब इस युवक ने एनकाउंटर—ग्रुप में भाग लिया।
अब एनकाउंटर—मूप का विधि—विज्ञान पूर्णत: भिन्न है। जो कुछ भी तुम्हारे भीतर है उसे बाहर निकालना है। कभी इसको संचित मत करो। अभिव्यक्त करो, निकल जाने दो, रेचन कर दो। एनकाउंटर और अकीदो, दो पूर्णत: परम विरोधी बातें हैं। अकीदो कहता है : नियंत्रण करो, क्योंकि अकीदो का प्रशिक्षण योद्धा बनाने के लिए प्रशिक्षण है। सभी जापानी प्रशिक्षण तुमको महान योद्धा बनाने के लिए हैं, और निश्चित रूप से उन्होंने ऐसी विधियां विकसित कर ली हैं जो आत्यंतिक रूप से खतरनाक हैं। लेकिन उनको ऐसा होना ही था, क्योंकि जापानी बहुत छोटे लोग हैं। उनकी लंबाई बहुत कम होती है, और उन्हें ऐसे लोगों से संघर्ष काना पड़ा जो उनसे डीलडौल में कहीं अधिक बड़े थे। उन्हें ऐसे उपाय निर्मित करने पड़े जिनके द्वारा वे स्वयं को स्वयं से अधिक बडे लोगों, शक्तिशाली लोगों से अधिक बलशाली सिद्ध कर सकें, और उन्होंने वास्तव में ऐसे उपाय खोज लिए। तुम्हारे भीतर की प्रत्येक ऊर्जा को नियंत्रण में कर लेना एक उपाय है। ऐसा करने से ऊर्जा संगृहीत हो जाती है। इसलिए जापानी और चीनी लोग बहुत नियंत्रण और अनुशासन में जीते रहे हैं। वे खतरनाक हैं। एक बार वे तुम्हारे ऊपर आक्रमण कर दें, फिर वे तुमको जिंदा नहीं छोड़ेंगे। सामान्यत: वे तुम पर आक्रमण नहीं करेगे, किंतु एक बार वे तुम पर आक्रमण कर दें, तो तुम यह निश्चित मान सकते हो कि वे तुमको मार डालेंगे।
तो यह व्यक्ति जो अकीदो में गहनता से संलग्न रहा था, अब एनकाउंटर—ग्रुप में था, और तीथ भीतर छिपी हुई चीजों को बाहर लाने के लिए उससे आग्रह कर रहा था, और वह ऐसा नहीं करेगा। उसका सारा प्रशिक्षण उसे यह नहीं करने दे रहा था, बाद में उस युवक ने मुझसे कहा, मेरा साराप्रशिक्षण नियंत्रित बने रहने का है। अब उस समूह की सहभागी एक युवती ने उसको पीटना आरंभ कर दिया। वह अपने क्रोध को बाहर निकाल रही थी, और वह युवक मूर्तिवत खड़ा रहा, क्योंकि उसका प्रशिक्षण कोई कृत्य भी नहीं करने का है। वह बुद्ध की भांति बना रहा, वास्तव में बुद्ध नहीं, क्योंकि बुद्ध जागरूक होता है, नियंत्रित नहीं। बाहर से तो वे दोनों एक जैसे दिखाई पड़ सकते हैं। वह व्यक्ति जो नियंत्रित है और वह व्यक्ति जो सजग है, एक जैसे दीख सकते हैं, किंतु भीतर गहराई में वे पूर्णत: भिन्न होते हैं। उनकी ऊर्जा गुणवत्ता के स्तर पर पूर्णत: भिन्न होती हैं।
वह अपने भीतर और और क्रोधित होता रहा, और साथ ही साथ और नियंत्रित भी होता चला गया, क्योंकि उसका सारा प्रशिक्षण दांव पर लगा था। फिर उसने उस लड़की के ऊपर एक तकिया फेंक दिया, और अकीदो में प्रशिक्षण लेने वाले व्यक्ति के द्वारा फेंका गया तकिया भी खतरनाक हो सकता है। वह तुमको ऐसे कोमल बिंदु पर, इतनी ताकत से आघात पहुंचा सकता है कि तकिए की चोट से मृत्यु तक हो सकती है। अकीदो का पूरा प्रशिक्षण यही है, सीखने में व्यक्ति को बरसों लग जाते हैं, एक छोटा सा आघात, किंतु अत्यंत कोमल स्थानों पर।
जापानियों ने इसको जान लिया है कि कहां पर बहुत आहिस्ते से आघात किया जाए, और व्यक्ति के प्राण निकल जाएं। बस केवल एक अंगुली से वे शत्रु को पराजित कर सकते हैं। उन्होंने आघात करने के लिए नाजुक स्थानों की खोज कर ली है, और साथ ही साथ यह खोज भी की है कि कैसे आघात किया जाए और कब आघात किया जाए।
किंतु फिर वह स्वयं ही भयभीत हो गया, भयग्रस्त हुआ कि उसके द्वारा इस प्रकार तकिए के प्रहार से उस युवती की हत्या भी हो सकती थी। वह इतना भयाक्रांत हो गया कि वह इस समूह—चिकित्सा को छोड़ कर भाग गया और वह मेरे पास आया और उसने शिकायत की। वह बोला, आश्रम में इस प्रकार की समूह—चिकित्साओं की अनुमति नहीं होनी चाहिए। अन्यथा किसी दिन कोई किसी की ' हत्या कर सकता है। वह ठीक कह रहा है, क्योंकि वहां उसके भीतर हत्यारा छिपा है। उसका भय उचित है, यह उसके स्वयं के बारे में सही है। वह एक हत्यारा हो सकता है। वास्तव में इस प्रकार के प्रशिक्षण तुम्हें मानव—हंता, योद्धा बनाने के लिए प्रशिक्षण हैं।
याद रखो, यदि तुम क्रोध, लोभ और इस प्रकार के मनोभावों पर नियंत्रण करोगे तो वे तुम्हारे अस्तित्व के तलघर में एकत्रित होते चले जाएंगे और तुम एक ज्वालामुखी पर बैठे होगे। योग का दमन से कुछ भी लेना—देना नहीं है। योग का विश्वास जागरूकता में है।
'प्रभाव के कारण पर अवलंबित होने से, कारणों के मिटते ही प्रभाव तिरोहित हो जाते हैं।
कारण को खोज लो, और कारण एक ही है। और चीजें सरल हो जाती हैं, क्योंकि तुमको अनेक प्रभावों से संघर्ष नहीं करना है। तुम तो बस एक जड़, मुख्य जड़ को काट देते हो, और एक हजार एक शाखाओं वाला वृक्ष बस खो जाता है, विदा हो जाता है। और जागरूक हो जाओ।
निद्रा से स्वप्नावस्था उठ खड़ी होती है, स्वप्न तैरना आरंभ कर देते हैं। क्या तुमने देखा है, कभी—कभी स्वप्न में भी तुम यह स्वप्न देखते हो कि तुम जागे हुए हो? बिलकुल ठीक यही घट रहा है : विचार करते समय तुम सोचते हो कि तुम जागे हुए हो—लेकिन तुम जागे हुए नहीं हो। वास्तविक जागृति केवल तभी —घटित होती है जब सारे विचार खो चुके हैं—तुम्हारे भीतर कोई बादल नहीं है, एक विचार भी नहीं तैर रहा हैं, मात्र शुद्ध तुम। यह मात्र एक शुद्धता है, प्रत्‍यक्षीकरण की स्पष्टता, मात्र दृष्टि जिसमें तुम्हारी दृष्टि में कुछ भी नहीं है, सारा आकाश रिक्त। यदि तुम किसी चीज को देखो, तो तुम्हारे भीतर कोई शब्द नहीं उमड़ता। तुम एक गुलाब का फूल देखते हो : तुम्हारे भीतर इतना विचार तक नहीं उठता कि यह एक खूबसूरत पुष्प है। तुम बस देखते हो गुलाब वहां, तुम यहां, और तुम दोनों के मध्य कोई शब्दीकरण नहीं। उस मौन में पहली बार तुम जानते कि जागरूक होना क्या है, जागृति की अवस्था क्या है, और यह जड़ को काट देता है। अब अनेक उपायों से इसका प्रयास करो।
एक उपाय है, जब तुम क्रोधित हो जाओ तब सजग होने का प्रयास करो। अचानक तुम देखोगे कि या तो तुम क्रोधित हो सकते हो या तुम सजग हो सकते हो; तुम दोनों एक साथ नहीं हो सकते हो। जब कामवासना उठती है, सजग होने का प्रयास करो। अचानक तुम देखोगे कि या तो तुम सजग हो सकते हो या तुम कामुक हो सकते हो, तुम एक साथ दोनों नहीं हो सकते हो। यह तुमको इस तथ्य को देखने में मदद करेगा कि सजगता प्रति—विष है, नियंत्रण नहीं। यदि तुम और और सजग होते चले जाओ तो ऊर्जा एक नितांत भिन्न आयाम में गतिशील होना आरंभ कर देती है। वही ऊर्जा जो क्रोध में, लोभ में, कामवासना में जा रही थी मुक्त हो जाती है, तुम्हारे भीतर प्रकाश के एक स्तंभ की भांति गतिमान होने लगती है। और यह जागरूकता मानव विकास की उच्चतम अवस्था है। जब व्यक्ति सजग होता है तो वह परमात्मा बन जाता है। जब तक तुम उसे उपलब्ध न कर लो, तुम्हारा जीवन एक व्यर्थता रहता है। हम ऐसे जीते हैं जैसे कि हम नशे में हों।
मैं तुमसे एक कहानी कहता हूं :
पुराने मैक्सिको में एक हंगामेदार रात के बाद अत्यधिक शराब पीकर होने वाले तेज ' से पीड़ित पर्यटक जब सोकर उठा तो उसके मन में पिछली रात की कुछ धुंधली सी याद बच थी। उसने देखा कि उसके बिस्तर पर एक भद्दी, कुरूप, झुर्रीदार और दंतविहीन की महिला सो है। उस पर घृणा भरी दृष्टि डाल कर उबकाई रोकता हुआ वह स्नानागार की ओर दौड़ा, जहां छ बाहर निकलती हुई सुंदर युवा मैक्सिकन लड़की से टकराया। क्यों, क्या पिछली रात को मैं नशे में था. उसने युवती से पूछा। मेरा विचार है कि तुम्हें नशे में होना चाहिए, उत्तर आया, वरना तुमने मेरी मां ' शादी न कर ली होती।
अब तक तुमने जो कुछ भी किया है, एक दिन अचानक तुम देखोगे कि सब कुछ गलत हो चुका है तुम्हारा जीवन अब तक जिससे भी प्रेरित होता रहा हो, चाहे जिसके साथ भी तुम्हारा विवाह हुआ हो, अब तक तुम्हारी जो भी इच्छा रही हो, एक दिन तुम जागरूक हो जाओगे और देखोगे कि यह सभी कुछ उस तरह था जैसे कि तुम नशे में थे।
जॉन स्मिथ एक मशहूर शराबी था। एक शाम को पीकर, वह शहर के कब्रिस्तान के मध्य से निकलने वाले छोटे रास्ते द्वारा रात में, घर लौट रहा था कि एक पत्थर से टकरा कर वह औंधे मुंह जमीन पर गिर पड़ा। अगली सुबह तक उसे होश नहीं आया, और जब सुबह उसकी आख खुली तो पहली चीज जो उसने देखी वह था कब का पत्थर। जॉन स्मिथ तो एक आम प्रचलित नाम है, और जिस कब पर वह लेटा हुआ था वह उसी के नाम वाले एक अन्य व्यक्ति की थी। जैसे ही उसकी निगाह में ये शब्द आए, जॉन स्मिथ की पवित्र स्मृति में, उसने बड़बड़ा कर अपने आप से कहा, अच्छा, ठीक, तो यह मेरी कब है, लेकिन मुझे अपने अंतिम संस्कार के बारे में एक जरा सी बात तक याद नहीं आ रही है।
जब कोई व्यक्ति ध्यान करना आरंभ करता है, तो वह अनेक जन्मों के लंबे नशे से बाहर आ रहा होता है। पहली बार, व्यक्ति विश्वास तक नहीं कर पाता कि अब तक वह किस भांति जीता रहा है। यह एक दुख स्वप्न जैसा प्रतीत होता है—भयावह। इसीलिए लोग सजग होने का प्रयास भी नहीं करते, क्योंकि जागरूकता की पहली झलक उनके उस जीवन को छिन्न—भिन्न, विनष्ट करने जा रही है—जिसे वे अभी तक किसी अर्थ से भरा हुआ सोचते थे। उनका सारा जीवन अर्थहीन, महत्वहीन होने जा रहा है। सजगता का भय यही है कि यह तुम्हारे सारे जीवन को गलत सिद्ध कर सकती है। यही कारण है कि बेहद हिम्मतवर लोग ही ध्यान करने का, सजग होने का प्रयास करते हैं। वरना लोग बस उन्हीं इच्छाओं और उन्हीं स्वप्‍नों और उन्हीं विचारों के दुचक्र में घूमते चले जाते हैं, और वे बार—बार लौट कर जीवन में आते हैं और पुन: मर जाते हैं—पालने से कब तक
जरा थोड़ा सा सोचना आरंभ करो, जो तुम अब तक करते रहे हो—कुछ अचेतन इच्छाओं को दोहराते रहना, कुछ ऐसा दोहराते जाना जो तुम्हें कभी आनंद नहीं देता, जो तुमको सदैव हताश करता है, उसके बारे में थोड़ा मनन करो। फिर भी तुम ऐसे जीते हो जैसे कि तुम्हें सम्मोहित कर दिया गया हो। वास्तव में योग यही कहता है कि हम एक गहरे सम्मोहन में जीते हैं। हमको किसी और ने सम्मोहित नहीं किया है, हम अपने स्वयं के मनों के द्वारा सम्मोहित कर लिए गए हैं, किंतु हम एक सम्मोहन में जीते हैं।
मैंने सुना है, एक शराबी लड़खडाता हुआ जैसे ही अपने घर पहुंचा, उसने अपनी ऐसी दशा को अपनी पत्नी से छिपाने के लिए अपना दिमाग दौड़ाया। अंततः उसे एक बढ़िया विचार सूझ गया,
वह जाएगा और एक पुस्तक उठा लेगा।आखिरकार' उसने सोचा 'कभी किसी पियक्कड़ को किसी ने पुस्तक पढ़ते सुना है?' अपनी योजना को मूर्तमान करते हुए वह अपने घर में चला गया, सीधा शयनकक्ष में पहुंचा और वहां जाकर बैठ गया। एक मिनट बाद उसकी पत्नी सीढ़ियों से धम— धम करती नीचे उतर कर आई और द्वार से ही उसे घूरने लगी। जो तुम इस समय कर रहे हो उस बारे में तुम्हारा क्या खयाल है? उसने पूछा। शराबी ने उत्तर दिया, बस पढ़ रहा हूं प्रिये। तुम नशेबाज मूर्ख, तुम फिर से पीकर अंधे हो गए, उसकी पत्नी क्रोध से चिल्लाई। अब सूटकेस बंद करो और पलंग पर आकर लेटो।
जो कुछ भी तुम अपनी अचेतन अवस्था में कर रहे हो, चाहे वह जो कुछ भी हो, मैं बिना किसी शर्त के यह कह सकता हूं कि यह मूर्खतापूर्ण होने जा रहा है। कभी—कभी तुम्हें भी ऐसा ही लगता है, किंतु तुम बार—बार विषय को छोड़ देते हो। तुम लंबे समय तक इसको स्मरण नहीं रखते, क्योंकि इससे भी खतरा हो सकता है।
तुम एक स्त्री को प्रेम करते हो, यदि तुम सजग हो जाओ तो प्रेम खो भी सकता है, क्योंकि तुम्हारा प्रेम मात्र एक सम्मोहन भी हो सकता है—जैसा कि यह सामान्यत: होता है। तुम महत्वाकांक्षी हो, तुम राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री हो पाने के लिए राजधानी पहुंचने का प्रयास कर रहे हो, अब तुम सजग होने से भयभीत हो जाओगे, क्योंकि यदि तुम सजग हो गए तो सारी बात मूढ़तापूर्ण दिखाई पड़ेगी, और तुमने इसके लिए अपना सारा जीवन दांव पर लगा दिया है।
अभी उसी दिन मैंने सीनेटर (अमरीकी सांसद) हम्फ्री की रोती हुई तस्वीर अखबार में देखी, क्योंकि वे अपने सारे जीवन अमरीका का राष्ट्रपति बनने का प्रयास करते रहे थे, और यह उनका अंतिम अवसर था, और अब कोई संभावना दिखाई भी नहीं पड़ती। इसलिए अपने प्रशंसकों के सामने खड़े होकर उन्होंने रोना आरंभ कर दिया। उनकी आंखों में आंसू आ गए और उन्होंने कहा, अब मैं वृद्ध हो गया हूं और यह मेरा आखिरी मौका मालूम पड़ता है; अब मैं पुन: राष्ट्रपति पद के लिए कभी खड़ा नहीं हो पाऊंगा। एक छोटे बच्चे की भांति रोते हुए.. .तुम्हारे राजनेता बस छोटे बच्चे हैं, जो एक—दूसरे के साथ खेलते और लड़ते रहते हैं।
यदि तुम सजग हो जाओ तो अपने प्रयासों की सारी मूढ़ता तुम्हें अचानक दिखाई पड़ सकती है। तुम ठहर सकते हो—और तुम्हारे भीतर कहीं गहरे में यह अनुभव सदा होता रहता है। तुम धन के पीछे दौड़ रहे हो...
एक बार ऐसा हुआ, एक बहुत धनवान व्यक्ति मुझे सुनने आया करता था। अचानक उसने आना बंद कर दिया। कई माह बाद उससे सुबह टहलते समय मेरी अचानक भेंट हो गई। मैंने उससे पूछा, कहां रह गए थे आप? आप अचानक गायब हो गए? उसने कहा, ऐसा अचानक नहीं हुआ, लेकिन धीरे—धीरे मैं भयभीत हो गया। मैं आपको सुनने आऊंगा, लेकिन अभी वह समय नहीं है। मैं युवा हूं और आपको सुनते हुए मैं धीरे— धीरे और—और कम महत्वाकांक्षी होने लगा, अभी यह खतरनाक होगा। पहले मुझे अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करना है। अपने बाद के वर्षों में जब मैं वृद्ध हो चुका होऊंगा, तब मैं ध्यान करुंगा, लेकिन अभी मेरे लिए यह ध्यान करने का समय नहीं है। पहले मैं आपके पास कौतुहलवश आ गया था, लेकिन धीरे— धीरे मैं इसमें फंसने लगा। मैंने स्वयं को रोका। रुकना कठिन था, लेकिन मैं भी दृढ़ इच्छा शक्ति वाला व्यक्ति हूं।
तुम सजग नहीं हो सकते क्योंकि तुमने अपनी मूर्खता में, अपने अज्ञान में, अपनी मूर्च्छा में बहुत योगदान दिया हुआ है। इस निद्रा में, इस सुप्तावस्था में तुमने अपना जीवन और अनेक चीजें अर्पित कर रखी हैं। अब सजगता की पहली किरण आई और तुम अनुभव करोगे कि तुम्हारा सारा जीवन एक व्यर्थता रहा है। फिर भी तुम साहसी नहीं हो। इसीलिए लोग प्रभावों को बदलते चले जाते हैं, क्योंकि फिर वहां कोई खतरा नहीं है। और वे जड़ को कभी स्पर्श नहीं करते।
एक बार ऐसा हुआ, मैं मुल्ला नसरुद्दीन के साथ यात्रा कर रहा था। अचानक उसे पता लगा कि उसका टिकट खो गया है। उसने अपनी सारी जेबों में—कोट की, शर्ट की, पेंट की, सभी में देखा—लेकिन मैं उसको देख रहा था, वह अपनी एक जेब में नहीं देख रहा था। इसलिए मैंने उससे कहा : तुम प्रत्येक जेब में देख रहे हों—सूटकेस में, बैग में और सारे सामान में, लेकिन तुम इस जेब में क्यों नहीं देखते? उसने कहा : मैं डरा हुआ हूं यदि टिकट वहां नहीं हुआ तो मैं मर जाऊंगा। मैं इसको इसीलिए छोड़ रहा हूं ताकि आशा बंधी रहे कि यदि टिकट कहीं और नहीं है तो कम से कम यह जेब तो बची हुई है, हो सकता है कि टिकट वहां हो? यदि मैं इसमें देख लूं और यह वहां न हुआ तो मैं मुर्दा होकर गिर जाऊंगा।
तुम जानते हो कि देखना कहां है लेकिन फिर भी तुम भयभीत हो। तब तुम इसे अन्य स्थानों पर, बस उलझे रहने के लिए देखते रहते हो:। तुम धन में, शक्ति में, प्रतिष्ठा में, इसमें और उसमें देखते चले जाते हो, किंतु कभी भीतर, कभी अपने आंतरिक अस्तित्व में नहीं देखते हो। तुम भयभीत हो, ऐसा लगता है कि यदि तुम वहां देखो और कुछ न मिला तो तुम मुर्दा होकर गिर पड़ोगे। लेकिन वे लोग जिन्होंने वहां देखा है सदैव पाया है। एक भी अपवाद अभी तक नहीं हुआ है कि वह जो भीतर गया है उसको खजाना नहीं मिला हो। यह सर्वाधिक सार्वभौम तथ्यों में से एक है। वैज्ञानिक तथ्य तक इतने सार्वभौमिक नहीं होते; यह तथ्य बिना अपवाद का है। जब कहीं, और जहां कहीं किसी देश में, किसी शताब्दी में किसी स्त्री या किसी पुरुष ने अपने भीतर झांक कर देखा है, उनको खजाना मिल गया है। किंतु व्यक्ति को भीतर देखना पड़ता है, और इसके लिए बहुत साहस की आवश्यकता है। तुमने अपने से बाहर अपना संसार व्यवस्थित कर लिया है। तुम्हारा प्रेम, तुम्हारी शक्ति, तुम्हारा धन, तुम्हारा यश, तुम्हारा नाम, सभी कुछ तुमसे बाहर हैं। वह व्यक्ति जो भीतर जाना चाहता है उसको इन चीजों को छोड़ना पड़ेगा, अपनी आंखों को बंद करना पड़ेगा, और व्यक्ति अंत तक इन सभी से चिपकता है।
जीवन तुम्हें हताश करता चला जाता है, यह एक आशीष है। जीवन तुमको बार—बार हताश करता चला जाता है; जीवन कह रहा है, भीतर जाओ। सभी हताशाएं बस संकेत हैं कि तुम गलत दिशा में देख रहे हो। परितृप्ति केवल ठीक दिशा से ही संभव है। जीवन तुम्हें हताश करता है क्योंकि जीवन एक परम आशीष है। यदि तुम बाहर से संतुष्ट हो गए तो तुम सदा के लिए भटक जाओगे; फिर तुम कभी भीतर नहीं देखोगे। किंतु इन सभी हताशाओ के बावजूद तुम आशा लगाए चले जाते हो।
मैंने एक व्यक्ति के बारे में सुना है, तुमने अपनी पिछली नौकरी क्यों छोड़ दी? मेरे बीस ने कहा कि मैं नौकरी से निकाल दिया गया हूं लेकिन मैंने इस बात पर कोई ध्यान नहीं दिया। वे तो ऐसा सदा कहते रहते थे। इसलिए अगले दिन मैं आफिस चला गया और देखा कि मेरा सारा सामान आफिस से हटा दिया गया। फिर मैं अगले दिन गया, तो मेरी नाम पट्टिका दरवाजे से हट चुकी थी, और अगले दिन मैंने अपनी कुर्सी पर किसी और को बैठे देखा। यह बहुत अधिक है! मैनें अपने आप से कहा, इसलिए मैंने त्यागपत्र दे दिया।
किंतु तुम्हारे लिए यह भी बहुत अधिक नहीं है। प्रत्येक दिन तुमको इनकार किया जाता है, प्रत्येक दिन तुमको निकाला जाता है, हर दिन; हर पल तुम हताश होते हो। जो भी व्यवस्थाएं तुम बनाते हो हर क्षण नष्ट कर दी जाती हैं, तुम्हारा उद्देश्य चाहे जो भी हो, रह हो जाता है। तुम्हारी सभी आशाएं बस निराशाए सिद्ध होती हैं, तुम्हारे सभी स्वप्न मिट्टी हो जाते हैं और मुंह में बहुत कडुवा स्वाद छोड़ जाते हैं। तुमको लगातार मितली अनुभव होती है, किंतु फिर भी तुम चिपकते चले जाते हो, शायद किसी दिन, कहीं से हो सकता कि तुम्हारे स्वप्न पूरे हो जाएं। तुम अपने प्रक्षेपणों के काल्पनिक संसार में इसी भांति झूलते रहते हो। जब तक कि तुम सजग न हो जाओ और अपनी आशाओं की निराशाओं को न देखो, जब तक तुम सभी आशाओं को न छोड़ दो, तुम भीतर नहीं मुडोगे, और तुम कारण को नष्ट कर पाने में सक्षम नहीं हो पाओगे।
'अतीत और भविष्य का अस्तित्व वर्तमान में है, किंतु वर्तमान में उनकी अनुभूति नहीं हो पाती है, क्योंकि वे विभिन्न तलों पर होते हैं।
योग का विश्वास शाश्वतता में है, समय में नहीं। योग कहता है : सभी सदा हैं—अतीत अब भा ह वर्तमान में छिपा है और भविष्य भी यहीं है वर्तमान में छिपा हुआ, क्योंकि अतीत बस मिट नहीं सकता




 और भविष्य ना—कुछ पन से बस प्रकट नहीं हो सकता। भूत, वर्तमान, भविष्य, तीनों अभी और यहीं हैं। हमारे लिए वे विभाजित हैं, क्योंकि हम समग्रता को नहीं देख सकते हैं। यथार्थ को देखने के लिए हमारी ज्ञानेंद्रियों, हमारी आंखों की क्षमताएं बहुत सीमित हैं। हम विभाजित करते हैं।
यदि हमारी चेतना शुद्ध है और इसमें कोई भी बादल नहीं है, तब हम शाश्वतता को जैसी यह है वैसी ही देख लेंगे। वहां कोई अतीत नहीं होगा और वहां कोई भविष्य नहीं होगा। वहां केवल यही क्षण होगा शाश्वत रूप से यही क्षण।
एक महान झेन सदगुरु बोकोजू मर रहा था, और उसके शिष्य एकत्रित हो गए। मुख्य शिष्य ने पूछा, प्यारे सदगुरु आप हमें छोड़ कर जा रहे हैं, जब आप विदा हो चुकेंगे तो लोग हमसे पूछेंगे कि आपका संदेश क्या था। यद्यपि आप हमें सदैव और हमेशा सिखाते रहे हैं, आपने अनेक बातें सिखाई हैं और हम अज्ञानी लोग हैं, हम लोगों के लिए आपके संदेश को संक्षिप्त कर पाना कठिन होगा, इसलिए कृपया, इसके पूर्व कि आप विदा हों, अपनी देशना का परम सार बस एक वाक्य में कह दें। बोकोजू ने अपनी आंखें खोलीं और जोर से कहा : 'यही है यह!' अपनी आंखें बंद कीं और मर गया। अब उसके बाद शताब्दियों से लोग यही पूछते रहे हैं की उसका अभिप्राय क्या था, यही है यह? उसने सभी कुछ कह दिया था।
यही.. .है......यह...
उसने सारा संदेश दे दिया था, यही क्षण ही सब कुछ है। यही क्षण सारा अतीत, सारा वर्तमान, सारा भविष्य, इसी क्षण में समाहित है। किंतु तुम इसको इसकी संपूर्णता में नहीं देख सकते, क्योंकि तुम्हारा मन, विचारों, स्वप्नों, निद्रा से, इतना धूमिल, इतना मेघाच्छादित है, इतने अधिक सम्मोहन, इच्छाएं उद्देश्य हैं कि तुम नहीं देख पाते। तुम संपूर्ण नहीं हो, तुम्हारी दृष्टि संपूर्ण नहीं है। एक बार दृष्टि संपूर्ण हो जाए, पतंजलि कहते हैं, 'तो अतीत और भविष्य का अस्तित्व वर्तमान में है, किंतु वर्तमान में उनकी अनुभूति नहीं हो पाती है, क्योंकि वे विभिन्न तलों पर होते हैं।अतीत एक भिन्न तल पर चला गया है। यह तुम्हारा अवचेतन बन गया है और तुम अपने अवचेतन में नहीं जा सकते, इसलिए तुम अपने अतीत को नहीं जान सकते। भविष्य का अस्तित्व एक अलग तल पर है, इसका अस्तित्व तुम्हारे पराचेतन में है। किंतु क्योंकि तुम अपने पराचेतन में नहीं जा सकते हो इसलिए तुम अपना भविष्य नहीं जान सकते। तुम अपनी छोटी सी, बहुत आशिक चेतना में बंद हो। तुम एक हिमशैल के अग्रभाग की भांति हो, गहराई में बहुत कुछ छिपा है, तुम्हारे ठीक नीचे, और तुम्हारे ठीक ऊपर बहुत कुछ छिपा है। ठीक नीचे और ऊपर और सारी वास्तविकता तुम्हारे चारों ओर है, लेकिन तुम एक बहुत छोटी सी चेतना से आसक्त हो। इस चेतना को विराटतर और विशालतर बनाओ।
ध्यान यही सब कुछ तो है—तुम्हारी चेतना को किस भांति विराटतर बनाया जाए, तुम्हारी चेतना को किस प्रकार असीम बनाया जाए। तुम उतनी ही वास्तविकता को जान पाने में समर्थ हो पाओगे, उसी अनुपात में तुम वास्तविकता को जान लोगे जैसी चेतना तुम्हारे पास है। यदि तुम्हारे पास अनंत चेतना है, तो तुम असीम को जान लोगे। यदि तुम्हारे पास क्षणिक चेतना है, तो तुम क्षण को जानोगे। प्रत्येक बात तुम्हारी चेतना पर निर्भर है।
'वे व्यक्त हों या अव्यक्त, अतीत, वर्तमान और भविष्य सत, रज और तम गुणों की प्रकृति हैं।
पहले भी हम तीन गुणों—सत्व अर्थात स्थायित्व, रजस अर्थात सक्रियता, और तमस अर्थात जड़त्व की चर्चा कर चुके हैं। अब पतंजलि अतीत, वर्तमान और भविष्य को इन तीन गुणों से जोड़ रहे हैं। पतंजलि के लिए जीवन और अस्तित्व की हरेक बात किसी भी प्रकार से इन तीन गुणों से, इन तीन गुणधर्मों से संयुक्त है। पतंजलि की त्रिमूर्ति यही है, प्रत्येक चीज में तीन चीजें निहित हैं। स्थायित्व; अतीत एक स्थायित्व है। यही कारण है कि तुम अपने अतीत को बदल नहीं सकते, यह करीब—करीब स्थायी बन चुका है। अब तुम इसको परिवर्तित नहीं कर सकते। इसको बदलने का कोई उपाय नहीं है। यह स्थायी हो चुका है। वर्तमान सक्रियता है, रजस। वर्तमान एक सतत प्रक्रिया, गतिशीलता है। वर्तमान सक्रियता है और भविष्य जड़ है। अभी भी यह बीज में है, गहरी निद्रा में। बीज में वृक्ष सोया हुआ है, जड़त्व में है।
भविष्य एक संभावना है, अतीत एक वास्तविकता है, और वर्तमान वास्तविकता की संभावना की ओर गतिशीलता है। अतीत वह है जो हो चुका है, भविष्य वह है जो होने जा रहा है, और वर्तमान दोनों के मध्य यात्रा—पथ है। वर्तमान भविष्य के अतीत बन जाने का, बीज के वृक्ष बन जाने का रास्ता है।किसी वस्तु का सार—तत्व, इन्हीं तीन गुणों के अनुपातों के अनूठेपन में निहित होता है।
अब भौतिकविदों का कहना है कि इलेक्ट्रॉन, न्यूट्रॉन और प्रोटीन मूल तत्व हैं, और प्रत्येक वस्तु इन्हीं से बनी है। प्रत्येक वस्तु इन्हीं तीन धनात्मक, उदासीन और ऋणात्मक कणों से बनी है। सत्व, रजस और तमस का ठीक यही अभिप्राय है. धनात्मक, उदासीन और ऋणात्मक और प्रत्येक वस्तु इन्हीं तीन से बनी है। बस अनुपातों में भेद है, अन्यथा ये ही वे मूलभूत तत्व हैं जिन से मिल कर सारा संसार बना है।
'भिन्न—भिन्न मनों के द्वारा एक ही वस्तु विभिन्न ढंगों से देखी जाती है'.. .किंतु भिन्न प्रकार का मन एक ही वस्तु को भिन्न ढंग से देखता है।
उदाहरण के लिए बगीचे में एक लकड़हारा आता है—वह पुष्पों को नहीं देखेगा, वह हरियाली की ओर नहीं देखेगा, वह लकड़ी की ओर—और इस लकडी से क्या बन सकता है, इसकी संभावना
की ओर—कौन सा वृक्ष सुंदर मेज बन सकता है, कौन सा वृक्ष द्वार बन सकता है—बस यही देख रहा होगा। उसके लिए वृक्षों का अस्तित्व फर्नीचर बनाने की सामग्री के रूप में है। संभावित फर्नीचर, यही है जिसे वह देखेगा। और यदि कोई चित्रकार वहां आता है, तो वह फर्नीचर के बारे में जरा भी नहीं सोचेगा। एक क्षण के लिए भी फर्नीचर उसकी चेतना में नहीं आएगा। वह चित्र के बारे में, इन रंगों को कैनवास पर लाने के बारे में, विचार करेगा। यदि कोई कवि आता है, तो वह चित्रकारी के बारे में नहीं सोचेगा, वह कुछ और सोचेगा। एक दर्शनशास्त्री आता है, तो और वह किसी अन्य के बारे में सोचेगा। यह मन पर निर्भर करता है। वस्तु सदैव मन के माध्यम से देखी जाती है. मन इसे रंग प्रदान करता है।
मैं तुमसे कुछ कहानियां कहता हूं :
एक आवास आदमी किसी भद्र पुरुष से मिलने गया। मैं तुमसे एक प्रश्न पूछना चाहता हूं उस व्यक्ति ने पूछा। क्या तुम शराब पीते हो? इसके पहले कि मैं उत्तर दूं आवारा ने कहा, मैं जानना चाहता हूं कि यह पूछताछ है या निमंत्रण।
यह निर्भर करता है.......उत्तर प्रश्न पर निर्भर करेगा। वह आवारा आदमी आश्वस्त होना चाह रहा है कि यह निमंत्रण है या पूछताछ। उसकी हां और न इस पर निर्भर करेगी कि यह प्रश्न क्या है। जब तुम किसी खास वस्तु को देखते हो तो तुम उसको वैसा नहीं देखते जैसी कि वह है।.
इमैनुअल कांट ने लिखा है कि किसी वस्तु को जैसी कि वह है उस रूप में नहीं जाना जा सकता, और एक प्रकार से वह सही है। वह ठीक कहता है, क्योंकि जब कभी भी तुम किसी वस्तु को जानते हो, तुम्हारा मन, तुम्हारा पूर्वाग्रह, तुम्हारा लोभ, तुम्हारी अवधारणा, तुम्हारी संस्कृति ये सभी उस वस्तु को देख रहे हैं। किंतु इमैनुअल कांट आत्यंतिक रूप से सत्य नहीं है क्योंकि वस्तु को मन के बिना भी देखने का एक उपाय है। लेकिन उसको ध्यान के बारे में जरा भी पता नहीं था।
पाश्चात्य दर्शनशास्त्र और भारतीय दर्शन के मध्य यह अंतर है। पाश्चात्य दर्शनशास्त्र मन के द्वारा विचार किए चला जाता है और पूर्व का कुल प्रयास यही है कि मन को किस भांति गिरा दिया जाए और तब वस्तुओं को देखा जाए, क्योंकि तब वस्तुएं अपने स्वयं के आलोक में, अपने आंतरिक गुणों के साथ प्रकट हो जाती हैं। तब तुम उन पर कुछ भी आरोपित नहीं करते हो।
वह पूरे नगर का सर्वाधिक आलसी व्यक्ति था। दुर्भाग्यवश उसके साथ एक बुरी दुर्घटना हो गई, वह अपने घर में ही सोफे से नीचे गिर पड़ा। एक चिकित्सक ने उसकी जांच की और कहा, मुझे भय है कि मेरे पास आपके लिए एक बुरी खबर है, महोदय। अब आप पुन: कभी अपने हाथों से कोई काम नहीं कर पाएंगे। धन्यवाद, डाक्टर साहब, उस आलसी ने कहा, अब बताएं कि बुरी खबर क्या है?
एक आलसी व्यक्ति के लिए यह कोई बुरी खबर नहीं है कि अब वह जीवन भर कोई काम नहीं कर सकेगा। उसके लिए यह अच्छी खबर है, यह तुम्हारी व्याख्या पर निर्भर करता है। और सदैव स्मरण रखो कि सारी व्याख्या भ्रामक है, क्योंकि यह वास्तविकता का मिथ्याकरण कर देती है।
मनोचिकित्सक के कोच पर लेटा हुआ व्यक्ति मानसिक तनाव की अवस्था में था। मुझे यह भयानक दुख स्वप्न बार—बार आता रहता है, उसने मनोचिकित्सक से कहा। इस स्वप्न में मैं अपनी सास को एक नरभक्षी घड़ियाल को पट्टे से बांधे हुए अपना पीछा करते हुए देखता हूं। यह वास्तव में भयावह है। मुझे उसकी पीली आंखें, सूखी सिन्नेदार खाल, पीले सड़ते हुए और उस्तरे से तेज दांत दिखाई पड़ते हैं, और उसकी गंदी, भारी श्वास की बू आती है।
यह किस कदर गंदा लगता है, मनोचिकित्सक ने सहानुभूतिपूर्वक कहा।
यह तो कुछ भी नहीं है डाक्टर साहब, उस आदमी ने अपनी बात जारी रखते हुए कहा, जब तक मैं उस नरभक्षी के बारे में आपको पूरी बात न बता दूं जरा रुकिए फिर अपनी राय दीजिएगा।
तुम्हारा मन लगातार कुछ न कुछ आरोपित करता चला जाता है। वास्तविकता एक पर्दे की भांति कार्य करती है और तुम चलचित्र प्रक्षेपक की भांति कार्य करते रहते हो। वह व्यक्ति जो सीख रहा है कि सजग किस प्रकार से हुआ जाए, सीख लेगा कि अपने प्रक्षेपणों को किस भांति गिरा दिया जाए और तथ्यों को उसी प्रकार से देखा जाए जैसे कि वे हैं। अपने मन को बीच में मत लाओ, अन्यथा तुम कभी भी सच्चाई को जान पाने में समर्थ नहीं हो पाओगे। तुम अपनी व्याख्याओं के घेरे में बंद रहोगे।
'भिन्न—भिन्न मनों के द्वारा एक ही वस्तु विभिन्न ढंगों से देखी जाती है।
'वस्तु एक मन पर ही निर्भर—नहीं है।
लेकिन फिर भी पतंजलि वे ही बातें नहीं कह रहे हैं जो बिशप बर्कले ने कही हैं। बर्कले का कहना है कि वस्तुओं का ज्ञान पूरी तरह से मन पर निर्भर है। उसका कहना है कि जब आप कमरे से बाहर चले जाते हैं तो कमरे के भीतर की प्रत्येक वस्तु तिरोहित हो जाती है। यदि उनको देखने वाला कोई न हो तो वस्तुओं का अस्तित्व कैसे संभव है? और एक प्रकार से उसकी बात काट पाना कठिन है, क्योंकि वह कहता है, जब आप कमरे में पुन: वापस लौटते हैं तो वस्तुएं प्रकट हो जाती हैं, जब आप बाहर निकल जाते हैं वे लुप्त हो जाती हैं; क्योंकि उनको अर्थ प्रदान करने के लिए एक मन की आवश्यकता होती है। बर्कले कह रहा है कि वस्तुएं और कुछ नहीं वरन व्याख्याएं हैं। इसलिए जब तुम बाहर जाते हो तो निःसंदेह तुम्हारी व्याख्याएं तुम्हारे साथ चली जाती हैं और कमरे में कुछ भी शेष नहीं रहता। यह सिद्ध करना बहुत कठिन है कि वह गलत है, क्योंकि यदि तुम सिद्ध करने के लिए कमरे में लौट कर आते हो तो तुम वापस लौट आए हो, इसलिए वस्तुएं प्रकट हो गई हैं। लेकिन लोगों ने प्रयास किए हैं। एक व्यक्ति ने कुछ ऐसी वस्तुएं खोजने का प्रयास किया है जिनको मानने के लिए बिशप बर्कले को भी बाध्य होना पड़ेगा।
तुम एक रेलगाड़ी में बैठे हुए हो और रेलगाड़ी चल रही है और तुम इसके पहियों को नहीं देख रहे हो, लेकिन फिर भी वे हैं, क्योंकि रेलगाड़ी चल रही है। पहियों को कोई भी नहीं देख रहा है, किंतु तुम उनके होने से इनकार नहीं कर सकते, वरना तुम एक स्टेशन से दूसरे तक नहीं पहुंचोगे। और सारे यात्री रेलगाड़ी के भीतर हैं लेकिन पहियों को कोई भी नहीं देख रहा है, किंतु पहिए हैं। निःसंदेह वह भी वस्तुओं के बारे चिंतित था क्योंकि यदि सभी वस्तुएं खो जाएं तब वे पुन: वापस किस प्रकार से आएंगी? अंततः उसने यह तय किया कि उनका अस्तित्व ईश्वर के मन में है, इसलिए भले ही तुम वहा नहीं हो फिर भी ईश्वर तुम्हारे फर्नीचर को देख रहा है। यही कारण है कि वह बना रहता है; अन्यथा तो यह खो जाएगा।
एक ढंग से बर्कले का दर्शनशास्त्र बहुत तर्कयुक्त है। उसका भरोसा मन में है और वह पदार्थ में विश्वास नहीं करता है। वह कहता है कि पदार्थ का अस्तित्व उसी प्रकार से है जैसा कि तुम्हारे स्वप्नों में होता है। तुम अपने स्वप्न में एक महल देखते हो, वहां यह उतना ही असली होता है जैसी कि कोई भी अन्य वस्तु जो तुमने देख रखी है। फिर सुबह होने पर जब तुम अपनी आंखें खोलते हो तो यह चला जाता है। किंतु जब तुम पुन: स्वप्‍न देखते हो तो पुन: यह वहां होता है। वह एक पूर्ण मायावादी, भ्रम में पूरा विश्वास करने वाला है, कि यह संसार भ्रम है।
लेकिन पतंजलि बहुत वैज्ञानिक ढंग के व्यक्ति हैं। वे कहते हैं कि किसी वस्तु का अस्तित्व में होना तुम्हारी व्याख्या नहीं है, यद्यपि तुम उस वस्तु के बारे में जो कुछ भी सोचते हो वह तुम्हारी व्याख्या है। वस्तु का अपने आप में ही अस्तित्व है। जब बगीचे में कोई भी नहीं आता है—बढ़ई, लकड़हारा, चित्रकार, कवि, दर्शनशास्त्री; कोई भी बगीचे में नहीं आता है—फिर भी पुष्प खिलते हैं, किंतु बिना किसी व्याख्या के। कोई कहता नहीं कि वे सुंदर हैं—इसलिए वे सुंदर नहीं हैं, वे कुरूप नहीं हैं। कोई नहीं कहता कि वे लाल हैं या सफेद—इसलिए लाल या सफेद नहीं हैं, किंतु फिर भी वे हैं।
वस्तुओं का अस्तित्व उन्हीं में है, किंतु हम वस्तुओं को यर्थाथत: केवल तभी जान सकते हैं जब हमने अपने मनों को गिरा दिया हो। अन्यथा हमारे मन छल करते चले जाते हैं। हम उन वस्तुओं को देखते रहते हैं जिन्हें हम चाहते हैं। हम केवल वही देखते हैं जो हम देखना चाहते हैं। यह यहां प्रतिदिन हुआ करता है। मैं तुमसे बोलता हूं तुम वही सुनते हो जो तुम सुनना चाहते हो। तुम उसे चुन लेते हो जो तुम्हारी सहायता करता है। इससे तुम्हारा अपना मन सबल हो जाता है। यदि मैं कुछ ऐसा कहता हूं जो तुम्हारे विरुद्ध जाता है, तो इस बात की पूरी संभावना है कि तुम उसको नहीं सुनोगे। या यदि तुम इसको सुन भी लो तो तुम इसकी इस ढंग से व्याख्या कर लोगे कि यह तुम्हारे मन में कोई बेचैनी उत्पन्न न करे, कि यह आत्मसात हो जाए, कि तुम इसको अपने मन का एक हिस्सा .बगलो, जो कुछ भी तुम सुनते हो उसे तुम्हारी व्याख्या बन जाना पड़ता है, क्योंकि तुम मन के माध्यम से सुनते हो।
पतंजलि कहते हैं. सम्यक श्रवण का अभिप्राय है मन के बिना सुना जाना; सम्यक दर्शन का अभिप्राय है मन के बिना देखा जाना—बस तुम सजग हो।
'वस्तु का ज्ञान या अज्ञान इस पर निर्भर होता है कि मन उसके रंग में रंगा है या नहीं।
अब एक और बात, जब तुम किसी वस्तु को देखते हो तो तुम्हारा मन उस वस्तु को रंग देता है और वह वस्तु तुम्हारे मन को रंग देती है। इसी प्रकार से वस्तुएं शांत या अशांत होती हैं। जब तुम एक फूल पर दृष्टिपात करते हो, तो तुम कहते हो, सुंदर। तुमने फूल पर कुछ आरोपित कर दिया है। फूल भी अपने आप को तुम्हारे मन में प्रक्षेपित कर रहा है, उसका रंग उसका रूप। तुम्हारा मन फूल के रंग और रूप के साथ लय में आ जाता है; तुम्हारा मन फूल के द्वारा रंग दिया जाता है। किसी वस्तु को जानने का यही एक मात्र उपाय है। यदि तुम फूल के द्वारा नहीं रंगे गए होते तो फूल वहां होता लेकिन तुमने उसको नहीं जाना होता।
क्या कभी तुमने गौर किया है? —तुम बाजार में हो और कोई कहता है, तुम्हारे घर में आग लग गई है। तुम दौड़ना आरंभ कर देते हो, तुम्हारे पास से होकर अनेक लोग गुजरते हैं। कोई व्यक्ति कहता है, अरे, आप कहां दौड़े जा रहे हैं? किंतु तुम नहीं सुनते। किसी और दिन, किसी और समय पर तुमने सुन लिया होता, किंतु इस समय तुम्हारे घर में आग लगी हुई है, तुम्हारा मन पूरी तरह से तुम्हारे घर की ओर लगा हुआ है, इस वक्त तुम्हारा अवधान यहां नहीं है। तुम यहां घटने वाली घटनाओं से अभिरंजित नहीं हो रहे हो। तुम एक सुंदर फूल के निकट से होकर गुजरते हो लेकिन इस समय तुम नहीं कहोगे सुंदर, तुम तो यह पहचान भी न सकोगे कि वहां कोई फूल भी है—असंभव।
मैंने एक व्यक्ति, एक बहुत बड़े दर्शनशास्त्री के बारे में सुना है, उनका नाम ईश्वर चंद्र विद्यासागर था। उनकी सेवाओं, उनकी विद्वत्ता, उनके ज्ञान के लिए भारत का गर्वनर जनरल उनको एक पुरस्कार देने जा रहा था। वे कलकत्ता में रहने वाले एक निर्धन बंगाली थे, और उनके वस्त्र ऐसे नहीं थे कि वे उन वस्त्रों को पहन कर उस समय जाएं जब वह पुरस्कार उनको दिया जा रहा हो। इसल्रिए उनके मित्र उनके पास आए और उन्होंने कहा, आप चिंता न करें, हम लोगों ने आपके लिए सुंदर वस्त्रों की व्यवस्था कर दी है। लेकिन वे विद्यासागर बोले, मैंने कभी इन वस्त्रों से अधिक कीमती वस्त्र नहीं पहने। बस एक पुरस्कार लेने के लिए क्या मैं अपने जीवन का सारा ढंग बदल लूं? किंतु मित्रों ने उनको समझा लिया और वे तैयार हो गए। उसी शाम जब वे बाजार से घर लौट रहे थे, बस एक मुस्लिम सज्जन के पीछे चलते हुए आ रहे थे, जो बहुत शानदार ढंग से चल रहे थे—बहुत धीरे, प्रसादपूर्ण ढंग से—एक बहुत सुंदर व्यक्ति थे वे, और तभी एक नौकर उन मुस्लिम सज्जन के पास भागता हुआ आया और बोला, हुजूर, आपके घर में आग लग गई है, लेकिन उन मुस्लिम सज्जन ने उसी प्रकार चलना जारी रखा। नौकर ने कहा. आपने मेरी बात सुन ली या नहीं? आपके घर में आग लग गई है, हर चीज जल रही है! उन मुस्लिम सज्जन ने कहा : मैंने तुम्हारी बात सुन ली है, लेकिन बस, क्योंकि घर में आग लग गई है इसलिए मैं अपने चलने का ढंग नहीं बदल सकता। और यदि मैं दौड़ पडूं तो भी मकान को मैं नहीं बचा सकता, इसलिए चाल बदलने से भी क्या हो जाएगा?
ईश्वरचंद्र ने नौकर और मालिक के मध्य होने वाला यह वार्तालाप सुन लिया। उनको अपनी आंखों पर भरोसा न हुआ, वे अपने कानों पर विश्वास न कर सके कि ये सज्जन क्या कह रहे हैं? और फिर उनको स्मरण हो आया, मैं तो बस अपने वस्त्र बदलने ही वाला था, मात्र एक पुरस्कार प्राप्त करने की खातिर, मैं तो उधार मांगे हुए वस्त्र पहन कर जाने वाला था? उन्होने यह विचार त्याग दिया। अगले दिन वे अपने उन्हीं सामान्य वस्त्रों में पहुंच गए। गर्वनर जनरल ने पूछा, मित्रों ने पूछा, तब उन्होंने यह कहानी सुना दी।
अब इन मुसलमान सज्जन में एक विशेष सजगता है, एक ऐसी विशिष्ट सजगता जिसको किसी चीज के द्वारा धुंधला नहीं किया जा सकता, एक खास किस्म की जागृति जिसको आसानी से विचलित नहीं किया जा सकता। सामान्यत: प्रत्येक वस्तु तुम्हारे मन को रंग देती है और तुम प्रत्येक वस्तु को रंग देते हो। जब यह रंगा जाना रुक जाता है, यह उभयपक्षीय रंगना रुक जाता है, तभी वस्तुएं अपने सच्चे अस्तित्व में प्रकट होना आरंभ कर देती हैं। तब तुम वास्तविकता को उसी प्रकार से देख लेते हो जैसी कि वह है। तब तुम जान जाते हो. यही है यह। तब तुम उसको जान लेते हो जो है।
ये सूत्र मात्र संकेत देते हैं कि जब तक अ—मन की अवस्था उपलब्ध नहीं कर ली जाती अज्ञान को विनष्ट नहीं जा सकता है। जागरूकता अज्ञान के विरोध में है, जानकारी अज्ञान के विरोध में नहीं है। इसलिए तोते मत बन जाओ, मात्र याददाश्त पर ही भरोसा मत रखो। सूचनाओं से मन को मत भरो, देखने का प्रयास करो। वस्तुओं को जैसी वे हैं वैसी ही देखने का प्रयास करो। वेदों, उपनिषदों, कुरान, बाइबिल से सहायता नहीं मिल सकती। तुम महान ज्ञानवान, विद्वान बन सकते हो, किंतु कहीं गहरे में तुम बस मूर्ख ही बने रहोगे। और जब अज्ञान की सजावट जानकारी से हो जाती है तो व्यक्ति इससे आसक्त हो जाता है। व्यक्ति इसको नष्ट करना नहीं चाहता। वास्तव में अहंकार को अत्यधिक प्रसन्नता अनुभव होती है।
तुम्हें चुनाव करना पड़ेगा। यदि तुम अहंकार को चुनते हो, तो तुम अज्ञानी बने रहोगे। यदि तुम सजगता चाहते हो, तो तुम्हें अहंकार की उन चालबाजियों के प्रति जागरूक होना पड़ेगा जो वह तुम्हारे साथ खेलता है।
इसी सुबह, मनन करो कि तुम क्या जानते हो और तुम क्या नहीं जानते, और सरलता से संतुष्ट मत हो जाओ। तुम क्या जानते हो और क्या नहीं जानते, इसमें जितना हो सके उतनी गहराई तक उतर जाओ। यदि तुम यह निर्णय कर सको कि यह तुम जानते हो और यह नहीं जानते हो, तो तुमने एक बड़ा कदम उठा लिया है। और यह कदम, यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण कदम है जो एक व्यक्ति कभी भी उठा सकता है, क्योंकि तभी तीर्थयात्रा, सत्यता की ओर की तीर्थयात्रा का आरंभ होता है। यदि तुम यह विश्वास करते चले जाओ कि तुम अनेक बातों को जानते हो और तुम उन्हें नहीं जानते, तब तुम स्वयं को धोखा दे रहे हो, तुम अपनी जानकारी से सणोहित रहोगे। तुम अपना सारा जीवन नशे में बरबाद कर दोगे। सामान्यत: लोग बस ऐसे जीते हैं जैसे कि वे गहरी निद्रा में हों, अपनी निद्रा में चल रहे हों, अपनी निद्रा में सारे कार्य कर रहे हों, सोमनैमबुलिस्ट, निद्राचारी हों।
गुरजिएफ आस्पेंस्की और अपने तीस शिष्यों को एक बहुत दूरस्थ स्थान पर ले गया। और उसने अपने तीसों शिष्यों से तीन माह तक पूर्णत: मौन रहने को कहा, उसने उनसे इतना मौन हो जाने को कहा कि वे नेत्रों या मुख—मुद्राओं द्वारा भी संवाद न करें। और तीस लोगों को एक छोटे से बंगले में इस भांति रहना था जैसे कि वहां तीस लोग नहीं थे, बल्कि प्रत्येक व्यक्ति अकेला ही रह रहा था। कुछ दिनों बाद कुछ लोग छोड़ कर भाग गए, क्योंकि यह नियम बहुत अधिक कठोर था, असंभव था इस भांति रह पाना। और गुरजिएफ अत्यधिक कठोरता से काम लिया करता था। यदि वह किसी को किसी अन्य व्यक्ति की ओर मुस्कुराते हुए देख लेता तो उसे तुरंत निकाल देता, क्योंकि उसने संवाद कर लिया था, मौन तोड़ दिया गया था। उसने कहा था. इस मकान में इस भांति रहो जैसे कि तुम अकेले हो। यहां पर उनतीस अन्य व्यक्ति हैं, किंतु तुम्हारा उनसे कोई सरोकार नहीं है—जैसे कि वे नहीं हैं। जब तीन माह का समय पूरा हुआ, तो मात्र तीन व्यक्ति बचे; सत्ताइस लोग छोड़ कर जा चुके थे। आस्पेंस्की उन तीन व्यक्तियों में से एक था। वे तीन लोग इतने मौन हो गए कि गुरजिएफ उनको बंगले से बाहर नगर में ले गया, उनको बाजार में घुमाया, और आस्पेंस्की अपनी डायरी में लिखता है, पहली बार मैं देख सका कि सारी मानव—जाति निद्रा में चल रही है। लोग अपनी निद्रा में बातचीत कर रहे हैं। दुकानदार सामान बेच रहे हैं, ग्राहक सामान खरीद रहे हैं, बड़ी भीड़ें इधर—उधर जा रही हैं, और उस क्षण में मैं देख सका कि प्रत्येक व्यक्ति गहरी निद्रा में है, कोई भी सजग नहीं है। उसने कहा, उस विक्षिप्त स्थान में हमें इतना असहज लगा कि हमने गुरजिएफ से हम लोगों को बंगले में वापस ले चलने के लिए कहा। किंतु वह बोला, वह बंगला तुमको मनुष्यता की असलियत दिखाने के लिए मात्र एक प्रयोग था, तुम भी इसी प्रकार से जीते रहे हो। क्योंकि अब तुम मौन हो और तुम देख सकते हो कि लोग बस बेहोश, अचेतन हैं, वास्तव में जी नहीं रहे हैं, बस बिना जाने क्यों, बिना जाने किसलिए, चलते चले जा रहे हैं।
स्वयं का निरीक्षण करो, इस पर ध्यान करो, और देखो क्या तुम निद्रा में जी रहे हो? यदि तुम निद्रा में जी रहे हो, तो इससे बाहर निकलो।
ध्यान और कुछ नहीं बल्कि उस जरा सी चेतना को जो तुम्हारे पास है, एक साथ एकत्रित करने का प्रयास है, इसे एक साथ एकत्रित कर लेना, इसको संकेंद्रित करना, इसको और—और बढ़ाने, और अचेतनता को घटाने के लिए हर प्रकार के उपाय करने का प्रयास है। धीरे— धीरे चेतना ऊंची और ऊंची होती जाती है, कम से कम स्वप्न चलते हैं, तुमको कम से कम विचार आते हैं, और मौन के अधिक और अधिक अंतराल आते हैं। इन अंतरालों के माध्यम से दिव्यता के झरोखे खुल जाएंगे। एक दिन जब तुम वास्तव में समर्थ हो चुके होते हो और तुम यह कह सको कि मैं कुछ मिनट तक बिना किसी विचार या स्वप्न द्वारा मुझको विचलित किए बिना रह सकता हूं तो पहली बार तुम जानोगे। उद्देश्य पूरा हो गया है। गहन निद्रा से तुम गहन जागरूकता में आ चुके हो। जब गहन निद्रा और गहन जागरूकता का मिलन होता है, तो वर्तुल पूरा हो जाता है।
यही है समाधि। पतंजलि इसको कैवल्य, शुद्ध चेतना, एकांत कहते हैं; इतनी शुद्ध, इतनी एकाकी कि और किसी का अस्तित्व रहता ही नहीं। सिर्फ इस एकाकीपन में ही व्यक्ति आनंदित हो जाता है। केवल इस एकांत में ही व्यक्ति जान लेता है कि सत्य क्या है। सत्य तुम्हारा होना है। यह वहीं है लेकिन तुम सोए हुए हो।
जागो।
आज इतना ही।





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