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शुक्रवार, 6 फ़रवरी 2015

कृष्‍ण--स्‍मृति--(प्रवचन--03)

सहज शून्यता के प्रतीक कृष्ण—(प्रवचन—तीसरा)


      दिनांक 26 सितंबर 1970;
      मनाली (कुलू)

"सारी गीता में कृष्ण परम अहंकारी मालूम पड़ते हैं। लेकिन आपने सुबह के प्रवचन में कहा कि निरहंकारी होने से ही कृष्ण कह सके कि सब छोड़कर मेरी शरण में आ, मैं ही सब कुछ हूं, आदि। लेकिन बुद्ध और महावीर ऐसा नहीं कहते हैं। क्या इनकी निरहंकारिता भिन्न-भिन्न है? उनका मौलिक अंतर क्या है?'

निरहंकारिता दो ढंग से उपलब्ध हो सकती है। एक तो इस ढंग से उपलब्ध हो सकती है कि कोई अपने को मिटाता चला जाए, अपने को समाप्त करता चला जाए, अपने को काटता चला जाए और ऐसी घड़ी आ जाए कि फिर काटने को कुछ न बचे। तो निरहंकारिता उपलब्ध होती है। लेकिन यह निरहंकारिता "निगेटिव' है, नकारात्मक है। और इसमें एक अहंकार बहुत गहरे में शेष रह ही जाएगा कि मैंने अपने अहंकार को काट दिया है।

एक और ढंग से भी निरहंकारिता उपलब्ध होती है कि कोई अपने को फैलाता चला जाए और इतना बड़ा करता चला जाए कि उसके अलावा फिर कुछ शेष ही न रह जाए, वही शेष रह जाए, सब उसमें समा जाए, तब भी निरहंकारिता, तब भी "इगोलेसनेस' उपलब्ध होती है। लेकिन तब पीछे कहने को इतना भी नहीं रह जाता कि मैं निरहंकारी हो गया हूं।
जो लोग अहंकार को काटकर चलेंगे, वे लोग अंततः आत्मा को उपलब्ध होंगे। आत्मा का अर्थ होगा, उनका अंतिम अहंकार शेष रह जाएगा कि मैं हूं। मैं की और सारी चीजें नष्ट हो जाएंगी, शुद्ध "मैं' ही शेष रह जाएगा। लेकिन जो व्यक्ति अहंकार को काटकर चलेगा, वह कभी परमात्मा को उपलब्ध नहीं होगा। जो व्यक्ति अहंकार को भी विस्तीर्ण करता चला जाएगा, इतना विस्तीर्ण कि सब उसमें समा जाए, उस दिन आत्मा का बोध नहीं रह जाएगा, परमात्मा का ही बोध रह जाएगा।
कृष्ण का जो व्यक्तित्व है, यह "पाजिटिव' है। वह विधायक है, वह निषेधात्मक नहीं है। वे जीवन में किसी भी चीज का निषेध नहीं करते। वे अहंकार का निषेध भी करते नहीं। वे तो कहते हैं, अहंकार को इतना बड़ा कर लो कि सभी उसमें समा जाए। तू बचे ही न, तो फिर स्वयं को मैं कहने का कोई उपाय न रह जाए। हम अपने को "मैं' तभी तक कह सकते हैं जब तक "तू' बाहर अलग खड़ा है। तू के विरोध में ही मैं की आवाज है। तू गिर जाए, तू न बचे, तो मैं भी बचेगा नहीं। मैं इतना बड़ा हो जाए--इसलिए उपनिषद के ऋषि कह सके: "अहं ब्रह्मास्मि'। वह यह कह सके, मैं ही ब्रह्म हूं। इसका यह मतलब नहीं है कि तू ब्रह्म नहीं है। इसका मतलब यह है कि तू तो है ही ब्रह्म, मैं ही हूं। हवाओं में जो लहरा रहा है वह भी मैं ही हूं और जो वृक्षों में लहर खा रहा है, वह भी मैं हूं। वह जो जन्मा है वह भी मैं ही हूं, जो मरेगा वह भी मैं ही हूं। वह जो पृथ्वी है वह भी मैं ही हूं, जो आकाश है वह भी मैं ही हूं। मेरे अतिरिक्त कोई भी नहीं है। इसलिए अब मैं के बचने की भी कोई जगह नहीं बची। मैं किससे कहूं कि मैं हूं? किसके विरोध में कहूं कि मैं हूं? तो कृष्ण का पूरा का पूरा व्यक्तित्व विराट के साथ फैलाव का है, विस्तार का है। इसलिए कृष्ण कह सकते हैं, मैं ब्रह्म हूं। इसमें कोई अहंकार नहीं है। यह भाषा में ही मैं का प्रयोग है, मैं जैसा कोई पीछे बचा नहीं है।
एक दूसरा रास्ता, जो मैंने कहा निषेध का है, नकार का है, इनकार का है, तोड़ने का है, त्याग का है--छोड़ते जाएं। धन "मैं' को मजबूत करता है, धन को छोड़ दें। अमीर का अहंकार होता है, लेकिन गरीब का नहीं होता है, इस भूल में मत पड़ जाना। गरीब का भी अहंकार होता है। वह गरीब होता है, "पुअर इगो' होता है। धन का दावा नहीं कर सकता। गृहस्थी का अहंकार होता है, लेकिन संन्यासी का नहीं होता है ऐसा मत सोचना। संन्यासी का भी अहंकार होता है। अगर मैं छोड़ता चला जाऊं तो जिन-जिन चीजों से अहंकार बढ़ता है, मजबूत होता है, वह सब छोड़ दूं--धन छोड़ दूं, मकान छोड़ दूं, पत्नी छोड़ दूं, बच्चे छोड़ दूं, घर-द्वार छोड़ दूं, तो मेरे अहंकार को टिकने की कोई जगह न रह जाएगी, कोई खूंटी न रह जाएगी जहां मैं अहंकार को टांग सकूं और कह सकूं कि मैं धनी हूं, कह सकूं कि मैं ज्ञानी हूं, कह सकूं कि मैं त्यागी हूं, ऐसी कोई जगह न रह जाएगी, लेकिन इससे मैं मिट नहीं जाऊंगा। और जब मेरे मैं को टिकने के लिए कोई खूंटी नहीं रहेगी, तो मैं फिर बहुत सूक्ष्म में मुझसे ही टिका रह जाएगा। फिर आखिर में मैं ही रह जाऊंगा
यह जो मैं का सूक्ष्मतम अनुभव है, यह निषेध से उपलब्ध होगा। बहुत लोग इसमें अटके रह जा सकते हैं, बहुत से लोग अटक कर रह जाते हैं, क्योंकि यह दिखाई भी नहीं पड़ता, यह बहुत सूक्ष्म है। धनी का अहंकार दिखाई पड़ता है, त्यागी का कैसे दिखाई पड़ेगा। लेकिन धनी का अहंकार क्या है--कि मेरे पास धन है। त्यागी का अहंकार क्या है--कि मैंने त्याग किया है, मैंने धन छोड़ा है। गृहस्थी का अहंकार दिखाई पड़ता है--कि यह रहा उसका घर, यह रही उसकी सीमा, संन्यासी का अहंकार दिखाई नहीं पड़ता। लेकिन उसकी भी सीमाएं हैं। वह हिंदू है, मुसलमान है, ईसाई है, जैन है। उसके भी आश्रम हैं, उसकी भी सीमाएं हैं, उसके भी बंधन हैं, वह भी अटका है। लेकिन वह दिखाई नहीं पड़ता। यह जो घड़ी है निषेध की, इसमें कोई अटक सकता है। अगर अटक जाए, तो लगेगा बिलकुल निरहंकारी क्योंकि वह मैं शब्द का भी उपयोग न करेगा, मैं भी छोड़ देगा, लेकिन उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। इसके भी पार जाना पड़ेगा।
महावीर और बुद्ध इसके पार तो चले जाते हैं, लेकिन यह पार जाना, उस आखिरी सूक्ष्म मैं के पार जाना उन्हें बहुत ही कठिन पड़ता है। वही असली तपश्चर्या है उनकी। बड़ी तपश्चर्या की बात हो जाती है। क्योंकि जो मेरे पास था, जो मेरा था, उसको तो छोड़ दिया गया है, अब मैं ही बचा हूं, अब इसको कैसे छोडूंगा? इसको कैसे छोड़ियेगा? इसलिए निषेध की प्रक्रिया से अगर हजार लोग चलेंगे तो एक ही आदमी निरहंकारिता तक पहुंचता है, नौ सौ निन्यानबे आदमी सूक्ष्म मैं पर खड़े होकर रह जाते हैं। महावीर तो निकल जाएंगे, लेकिन महावीर के पीछे चलने वाला संन्यासी अटक जाएगा। अति दुरूह है यह बात। सहारे तोड़ देना तो बहुत आसान है। जिन-जिन सहारों से मेरा मैं मजबूत होता है, मैं उनको गिरा दूं, लेकिन फिर मैं बच रहूंगा, उसको कैसे गिराऊंगा?
तो निषेध से चलने वाले व्यक्ति की जो तकलीफ है वह आखिरी क्षण में है और विधेय से चलने वाले की जो तकलीफ है, वह पहले क्षण में है। पहले "स्टेज' पर विधेय से चलने वाले की बड़ी कठिनाई आती है कि तू को कैसे इनकार कर दूं? तू है, दिखाई पड़ रहा है, उसको कैसे इनकार करें? कृष्ण की साधना की पहली तकलीफ पहले चरण पर है--असली तकलीफ आखिरी चरण पर है। पहले बहुत आसान है मामला। आखिरी क्षण में जब कि मैं के सब सहारे टूट जाएंगे और शुद्ध मैं बच रहेगा, "प्योरीफाइड इगो' रह जाएगी, उसको कैसे छोड़ियेगा। उसको छोड़ने का क्या करियेगा आप?
पहले चरण पर जो करना पड़ेगा विधायक-साधक को, वही अंतिम चरण पर निषेध के साधक को करना पड़ेगा। पहले चरण पर विधेय का साधक क्या करेगा? वह तू में भी मैं को खोजने की कोशिश करेगा। निषेध का साधक अंतिम चरण पर क्या करेगा? मैं में भी तू को खोजने की कोशिश करेगा। अगर उसे मैं में भी तू मिल जाए, तब तो ठीक। बहुत कठिनाई हो जाएगी। लेकिन तू में मैं को देखना बहुत आसान है, मैं में तू को देखना बहुत कठिन है। और शुद्ध मैं में तो और कठिन हो जाता है, क्योंकि बहुत सूक्ष्म मैं का भाव बचता है। वह इतना बारीक हो जाता है कि उसमें तू को कहां समायें। बुद्ध और महावीर की कठिनाई आती है आखिरी चरण में। इसलिए बुद्ध या महावीर की साधना में आखिरी चरण के पहले से भी गिरना संभव है। आखिरी कदम के पहले भी कोई लौट सकता है, रुक सकता है, अटक सकता है। आखिरी छलांग...और जब पूरी जिंदगी इस मैं को बचाया पूरी साधना में, तो आखिरी क्षण में एकदम से छोड़ना बहुत मुश्किल हो जाएगा।
छोड़ा जा सकता है। एक ही रास्ता है कि इस मैं के बिंदु में तू दिखाई पड़ जाए। इसलिए महावीर या बुद्ध की जो आखिरी साधना की कड़ी है, उसका नाम है--केवल ज्ञान। ज्ञानी न रह जाए, सिर्फ ज्ञान रह जाए। जानने वाला न रह जाए, सिर्फ जानना रह जाए, तो उस जानने में झलक मिल सकती है एकता की। आखिरी मुक्ति मैं से मुक्ति है। मैं को मुक्त नहीं होना है, मैं से मुक्त होना है। लेकिन जो पीछे आता है, उसको कठिनाई हो जाती है। वह यही पूछता रहता है कि मुझे मोक्ष कैसे होगा? "मुझे' कभी मोक्ष हुआ ही नहीं। जब भी मोक्ष हुआ है तो "मुझ' से हुआ है। इसलिए महावीर की साधना-परंपरा में जो लोग पीछे आएंगे, उनके अहंकार के पोषण की बड़ी सुविधा है। महावीर की साधना में चलने वाला साधक अति अहंकारी हो जाए तो आश्चर्य नहीं। त्याग, तपश्चर्या उसके अहंकार को मजबूत करते चलेंगे। कठोर होता जाएगा, सख्त होता जाएगा। आखिर में सब छूट जाएगा और एक मैं की गांठ बच जाएगी। उसको तोड़ना बहुत मुश्किल पड़ेगा। वह टूट सकती है, टूटी है। महावीर को टूटी है। उस क्षण के अलग प्रयोग हैं कि वह मैं की गांठ कैसे छूट जाए।
कृष्ण की साधना में, कृष्ण के व्यक्तित्व में मैं की गांठ को पहले ही तोड़ देना है। जिस बीमारी को आखिरी में गिराना पड़े, उसे इतनी देर तक ढोना भी उचित नहीं है। इतनी देर में वह संक्रामक भी बनेगी, और "क्रॉनिक' भी हो जाएगी। उसे पहले ही तोड़ देना है। इसलिए जिसको महावीर "केवल ज्ञान' कहेंगे, वह अंतिम घड़ी में आ जाएगा। जिसको कृष्ण साक्षीभाव कहेंगे, वह पहली ही घड़ी में आ जाएगा। पहले ही क्षण से इस सत्य को जानना है कि मैं अलग नहीं हूं। लेकिन अगर मैं अलग नहीं हूं तो फिर त्याग बेमानी हो जाएगा। छोड़ेंगे किसको? मैं ही हूं। छोड़ेगा कौन? जिसे छोड़कर जा रहा हूं, वह भी मैं ही हूं। भागूंगा कहां से? जहां से भाग रहा हूं वह भी मैं ही हूं। भागूंगा कहां? जहां भागना है, वह भी मैं ही हूं।
रवीन्द्रनाथ ने एक बहुत गहरी मजाक यशोधरा से करवाई है, बुद्ध के लिए। बुद्ध जब ज्ञान लेकर वापस लौटे हैं, तो यशोधरा उनसे पूछती है कि मुझे सिर्फ एक सवाल पूछना था, आप आ गए हैं तो पूछ लूं। मैं तुमसे यह पूछना चाहती हूं कि जो तुमने जंगल जाकर पाया, वह क्या इस घर में मौजूद नहीं था? और बुद्ध बड़ी मुश्किल में पड़ गए हैं। क्योंकि अगर वह यह कहें कि वह इस घर में मौजूद था--था तो ही, क्योंकि जो जंगल में मिलता है वह घर में भी मिल सकता है--अगर वह यह कहें कि वह यहां भी मौजूद था, तो यशोधरा कहेगी कि मैंने कहा था कि मत जाओ। निश्चित ही उसने कहा था। रात जब गए थे तो उसे बिना बताए ही जाना पड़ा था। और अगर वह यह कहें कि वह यहां भी था जो जंगल में था, तो यशोधरा कहेगी, पागलपन किया इतने दिन? जो यहीं था, उसे खोजने वहां गए? अगर वे यह कहें कि वह यहां नहीं था, जंगल में ही है, तो गलत होगा, क्योंकि बुद्ध अब जानते हैं कि वह यहां भी है जो जंगल में मिला है।
कृष्ण कहीं छोड़कर नहीं जा रहे हैं। बुद्ध को जो आखिरी घड़ी में दिखाई पड़ता है, वह कृष्ण को पहली घड़ी से ही दिखाई पड़ रहा है। बुद्ध जो आखिरी क्षण में जान पाते हैं कि वही है सब जगह, वह कृष्ण पहले से जान रहे हैं कि वही है सब जगह।
मैंने एक फकीर के संबंध में सुना है कि वह एक गांव के किनारे पड़ा रहा जीवन भर। और जब भी कोई उससे पूछता कि तुम कुछ साधना नहीं कर रहे हो, तो वह कहता, किसे साधूं? जिसे साधूंगा, वह साधा ही हुआ है। कोई उससे पूछता है कि तुम कहीं जाते दिखाई नहीं पड़ते। वह कहता, मैं कहां जाऊं? जहां पहुंचना था वहां मैं पहुंचा ही हुआ हूं। कोई उससे पूछता, तुम्हें कुछ पाना नहीं है? तो वह कहता, जिसे पाना है, वह सद से प्राप्त है। यह फकीर क्या साधना करे?
इसलिए कृष्ण की साधना विकसित नहीं हो पाई। कृष्ण का साधक कहीं भी न मिलेगा जो साधना कर रहा हो। साधना किसकी करनी है? साधना उसकी की जा सकती है जो नहीं मिला है और मिल सकेगा। साधना उसकी की जा सकती है जो नहीं पाया है, और पाया जा सकता है। साधना संभावना की है। साधना उपलब्धि की कभी नहीं होती। जो है ही, उसको कैसे पाइएगा? बुद्ध को भी आखिरी क्षण में जब ज्ञान हुआ और किसी ने पूछा कि आपको क्या मिला, हमें बताएं? बुद्ध ने कहा, मिला कुछ भी नहीं; जो मिला ही हुआ था, उसका पता भर चला है। जो था ही मेरे पास, लेकिन मुझे पता नहीं था, अब मैंने जाना कि यह तो मेरे पास ही था। मिला कुछ भी नहीं है, जो था ही उसका पता चला है। जब नहीं था पता, तब भी वह इतना ही, कमी कुछ भी न थी। लेकिन बुद्ध यह आखिरी क्षण में कहते हैं।
कृष्ण यह पहले क्षण में कहेंगे। कृष्ण कहेंगे, कहां जा रहे हो? क्योंकि जहां जाना चाहते हो वहां तो तुम खड़े हो। जिसे तुम मंजिल कह रहे हो वह तो तुम्हारा मुकाम ही है, जहां तुम खड़े ही हो। किस तरफ दौड़ रहे हो? क्योंकि जहां तुम दौड़कर पहुंचोगे, वहां तो तुम पहुंचे ही हुए हो।
इसलिए बुद्ध और महावीर के जीवन में साधना का काल है, फिर सिद्धि की अवस्था है। कृष्ण सदा ही सिद्ध हैं, उनके जीवन में साधना का कोई काल नहीं है। कृष्ण ने कब साधा सत्य को, पता है आपको? कौन-सा ध्यान किया? कौन-सा योग किया? किस जंगल में गए? कौन-सी तपश्चर्या की? कौन-से उपवास किए? कौन-सा आसन, कौन-से व्यायाम? कृष्ण के जीवन में साधना जैसी कोई चीज ही नहीं दिखाई पड़ती। साधना है ही नहीं।
बुद्ध और महावीर आखिरी क्षण में सिद्ध होते हैं, कृष्ण जैसे सिद्ध हैं ही। तब साधना कैसी, साधना किसकी? ये बुनियादी फर्क हैं। और कृष्ण को जो दिखाई पड़ रहा है, उसमें अहंकार का कोई उपाय नहीं है क्योंकि तू है ही नहीं कहीं। कबीर की बात सुबह मैं कर रहा था। कबीर ने एक दिन अपने बेटे को जंगल में भेजा है घास काट लाने को। जैसे यहां पौधे हवा में नाच रहे हैं, ऐसे ही वह जंगल में गया है, हंसिया लेकर घास काट रहा है, सुबह से सांझ होने लगी है और वह नहीं लौट रहा है। कबीर परेशान हो गए और सबने कहा कि कुछ पता लगाओ, घास काटने में इतनी देर की कोई जरूरत न थी, दोपहर तक आ जाना था। फिर सांझ भी हो गई। अब अंधेरा भी घिर जाएगा थोड़ी देर में। लोगों ने कहा तो कबीर और सारे लोग खोजने निकले कि वह कहां गया है? देखा जाकर घास में, गले-गले घास में वह खड़ा है। खड़ा कहना गलत है। हवाएं नाच रही हैं, वह भी नाच रहा है। जैसे वृक्ष नाच रहे हैं, पौधे नाच रहे हैं, घास के पत्ते नाच रहे हैं, वह भी नाच रहा है। उसे हिलाया, उसने आंख खोली। उन सबने कहा, तुम यह क्या कर रहे हो? घास काटी नहीं? उसने कहा, अच्छी याद दिलाई! हंसिया उठाया। उसने कहा, अब तो सांझ भी हो गई है, लोगों ने कहा अब वापिस चलो। लेकिन तुम दिन भर क्या किए? उस लड़के ने कहा, मैं घास हो गया था। मैं भूल ही गया कि मैं भी हूं। मैं भूल ही गया कि वह घास है और उसको काटना है। इतनी आनंद की थी सुबह, सब इतना नाचता हुआ था कि मैं पागल नहीं था कि नाचते हुए समय और काटने में लग जाऊं, मैं नाचने लगा। और फिर तो मुझे याद ही न रही कि कौन घास है और कौन कमाल है जो काटने आया है। यह तो आप आए तो आपने मुझे खयाल दिला दिया।
कृष्ण इतने नाचने में मगन हो गए इस जगत में। कबीर का बेटा तो घास के साथ नाचा, कृष्ण इस पूरे जगत के साथ नाचे। इसके चांदत्तारों के साथ नाचे, इसके स्त्री-पुरुषों के साथ नाचे, इसके फूलों के साथ नाचे, इसके कांटों के साथ नाचे। वह इस जगत के साथ नाचने में ऐसे लीन हो गए कि कौन है मैं, कौन है तू, इसकी कोई जगह न रही। इस क्षण जो निरहंकार उपलब्ध हुआ, वह महावीर और बुद्ध को अत्यंत तपश्चर्या, "आरडुअस' लंबी यात्रा के अंतिम पड़ाव पर उपलब्ध होता है। वे बहुत दौड़कर उस जगह आते हैं, जहां से कृष्ण कभी दौड़े ही नहीं। वे बहुत यात्रा करके उस जगह का पता लगा पाते हैं, जहां से उन्होंने यात्रा शुरू की थी।
इसलिए कृष्ण साधक नहीं हैं। कृष्ण को साधक कहना ही मुश्किल है। कृष्ण सिद्ध हैं और इस सिद्ध अवस्था में, इस चित्त की दशा में जो भी उन्होंने कहा है, उसमें हमें अहंकार दिखाई पड़ सकता है। क्योंकि वह जो शब्द हम उपयोग करते हैं मैं का, वह वह भी कर रहे हैं, लेकिन हमारे और उनके मैं की अभिव्यक्ति और अर्थ में बड़ा फर्क है, "कनोटेशन' में बड़ा फर्क है। जब हम कहते हैं मैं, तो मतलब होता है, इस शरीर के भीतर जो कैद है, वह। और जब कृष्ण कहते हैं मैं, तो वह कहते हैं, जो सब जगह फैला है, वह। इसलिए हिम्मत से कह सकते हैं अर्जुन को कि सब छोड़ और मेरी शरण में आ। यह अगर शरीर के भीतर घिरा हुआ मैं होता, तो इतनी हिम्मत से नहीं कही जा सकती ऐसी बात। और अगर यह शरीर के भीतर बंद मैं होता तो अर्जुन भी कहता कि आप कैसी बात कर रहे हैं? मैं आपकी शरण में क्यों आऊं? फिर तो अर्जुन के मैं को भी चोट लगती। क्योंकि जब भी एक तरह से मैं बोलता है तो दूसरी तरफ से मैं में प्रतिध्वनि पैदा होती है। अगर आप मैं की भाषा बोलते हैं तो दूसरा आदमी तत्काल मैं की भाषा बोलना शुरू कर देता है। मैं एक-दूसरे की भाषा बड़े ढंग से पहचानते हैं और तत्काल प्रतिक्रिया में सन्नद्ध हो जाते हैं। लेकिन कृष्ण कह सके कि तू मेरी शरण में आ। क्योंकि इस शरण का अर्थ है, समस्त की शरण। इसका अर्थ है कि यह सब जो फैला हुआ है, इसकी शरण में चला जा, तू अपने को छोड़।
निरहंकार महावीर और बुद्ध को भी आता है, लेकिन लंबी यात्रा के बाद। और महावीर और बुद्ध की यात्रा पर चलने वाले बहुत से साधकों को कभी नहीं आएगा, क्योंकि वह आखिरी बात है जो वह कर पाएं, न कर पाएं। लेकिन कृष्ण की धारा में जो बहेगा, वह तो पहली ही बात है; न कर पाएं तो उस धारा में बह ही नहीं सकते। महावीर के साथ बहुत दूर तक चल सकते हैं अपने मैं को बचाकर। कृष्ण के साथ तो पहले कदम पर ही नहीं चल सकते। चलना ही है तो मैं छोड़कर ही चलना होगा। नहीं तो चल ही न पाएंगे। महावीर के साथ बहुत दूर तक ताल-मेल बैठ सकता है हमारे मैं का, कृष्ण के साथ नहीं बैठ सकता। पहले क्षण में ही यह जानना होगा। "द फर्स्ट इज़ द लास्ट', कृष्ण के लिए। महावीर और बुद्ध' के लिए, "द लास्ट इज़ द फर्स्ट'। वह जो आखिरी है, वह पहला है। और कृष्ण के लिए जो पहला है वही आखिरी है। यह फर्क खयाल में आ जाए--बड़ा फर्क है, बहुत बुनियादी फर्क है--खयाल में आ जाए तो सारी स्थिति और होगी।
कृष्ण के साथ साधना क्या करियेगा? नाच सकते हैं, गीत गा सकते हैं, डूब सकते हैं। साधना क्या करियेगा? या इसको ही साधना कहें तो बात और है। इसलिए कृष्ण किसी से और कोई अपेक्षा नहीं करते। जब पहला ही चरण निरहंकारिता का है तब और अपेक्षा नहीं की जा सकती। महावीर और बुद्ध के पास जाकर आप कहेंगे कि मैं अहंकारी हूं, मैं क्या करूं? तो वह आपको बता सकते हैं। वह कहेंगे, पहले यह छोड़ो, पहले वह छोड़ो, अहंकार को पीछे देख लेंगे। कृष्ण के पास जाकर आप कहेंगे कि मैं अहंकारी हूं, तो वह कहेंगे, कोई रास्ता ही न रहा। क्योंकि अहंकार ही जाए, वही तो शुरुआत है। इसलिए कृष्ण कोई साधकों का संघ नहीं बना सके। बहुत मुश्किल थी बात। साधक तो वही कहेगा, बस ठीक है, यही पहली बात; अहंकार तो छूटता नहीं, धन छोड़ सकता हूं। कृष्ण कहेंगे कि धन छोड़ने से क्या होगा। धन छोड़कर भी बीमारी तो वही रहेगी।
एक आदमी आया है, वह कहता है कि केंसर है मुझे, केंसर तो नहीं छोड़ सकता, सिर घुटवा सकता हूं। घुटवा लें, इससे कोई अंतर नहीं, इससे कोई संगति नहीं। केंसर अपनी जगह रहेगा। सिर घुटवाने के बाद भी फिर केंसर को ही ठीक करना पड़ेगा। वह आदमी कहता है, मैं कपड़े भी छोड़ सकता हूं। कृष्ण कहेंगे, कपड़े छोड़ने से कुछ लेना-देना नहीं है। महावीर और बुद्ध उसको लौटा नहीं देंगे। महावीर और बुद्ध के द्वार पर सभी को प्रवेश हो जाएगा। वह सभी के लिए तैयार हैं, कि ठीक है, जो तुम कर सकते हो वह करो, आखिरी बात आखिरी में देखेंगे। लेकिन कृष्ण कहते हैं, आखिरी बात करो तो ही मेरे मकान में प्रवेश है। इसलिए कृष्ण का मकान करीब-करीब खाली रह गया। उसमें प्रवेश बहुत मुश्किल हुआ। इसलिए "आर्डर्स' खड़े नहीं हो सके। महावीर के साथ पचास हजार संन्यासी चलते थे। संभव था यह। कृष्ण के साथ मुश्किल है। पचास हजार निरहंकारी आदमी पहले दिन कैसे खोजियेगा?
महावीर और बुद्ध को अगर हम ठीक से कहें तो "ग्रेजुअल एनलाइटेनमेंट' की बात है वह, क्रमिक। क्रम की बात हमें समझ में आती है। एक रुपये से दो रुपये हो सकते हैं, तीन रुपये हो सकते हैं, चार रुपये हो सकते हैं, हमारी समझ में आता है। लेकिन गरीब एकदम अमीर हो सकता है, यह हमारी समझ में नहीं आता। कृष्ण जो बात कर रहे हैं, वह "सडन एनलाइटेनमेंट' की है। वह कहते हैं, नाहक इतनी परेशानी क्यों करते हो? एक रुपया है तब भी तुम गरीब हो, एक रुपये वाले गरीब हो; दो रुपया है तब भी तुम गरीब हो, दो रुपये वाले गरीब हो; तीन रुपया है तब भी तुम गरीब हो, तीन रुपये वाले गरीब हो। करोड़ हैं तो भी तुम गरीब हो, करोड़ रुपये वाले गरीब हो। कृष्ण कहते हैं, हम तुम्हें सम्राट बनाते हैं, रुपये का तुम हिसाब-किताब छोड़ो। रुपये से भी छूट सकता है, दो से भी छूट सकता है, तीन से भी छूट सकता है, करोड़ से भी छूट सकता है। हम तुम्हें सम्राट ही बनाए देते हैं--बना क्या देते हैं, हम तुम्हें याद दिलाना चाहते हैं कि तुम सम्राट हो। इसलिए महावीर और बुद्ध की पद्धति साधना है, कृष्ण की पद्धति सिर्फ "रिमेंबरिंग' है, स्मरण है। स्मरण करो कि तुम कौन हो, बस मामला पूरा हुआ जाता है। "जस्ट रिमेंबर'
एक कहानी मैंने सुनी है, वह मैं आपसे कहूं।
मैंने सुना है कि एक सम्राट ने अपने बेटे को निकाल बाहर किया, नाराज था। एक ही बेटा था। निकाल बाहर कर दिया तो बेटा कुछ भी न जानता था--सम्राट के बेटे क्या जान सकते हैं! न वह पढ़ा-लिखा था, वह कुछ भी नहीं कर सकता था। हां, कभी शौक में कुछ गीत गाना और कुछ नाचना सीखा था, तो सड़कों पर भीख मांगने लगा और नाचने लगा। और नाच-नाचकर भीख मांगने लगा। लेकिन बाप ने उसे देश के बाहर निकालने की आज्ञा दे दी थी, तो अपने देश में तो नहीं कर सकता, देश छोड़ देना पड़ा।
फिर बाप बूढ़ा हुआ। इस बात को वर्षों बीत गए और वह लड़का भूल गया कि मैं सम्राट था। दस साल जो भीख मांगे, उसको याद ही कैसे रहे कि वह सम्राट है। था तो वह सम्राट ही। और दस साल जब उसने भीख मांगी थी, तो वह रोज सम्राट होने का ज्यादा अधिकारी होता चला गया था। क्योंकि उसका बाप बूढ़ा होता चला गया था। एक ही बेटा था। उसके जूते फट गए हैं और धूप है तेज और एक रेगिस्तानी मुल्क में भटक रहा है और वह एक होटल के सामने जहां साधारण-सी, गंदी-सी होटल वहां भीख मांग रहा है और लोगों के सामने बर्तन फैला रहा है, कह रहा है कुछ पैसे दे दें, क्योंकि जूते की जरूरत है, धूप बढ़ती जाती है, पैर पर फफोले पड़ गए हैं। सम्राट बूढ़ा हुआ। उसने अपने वजीरों को खोजने भेजा कि उस बेटे को वापिस लौटा लाओ। क्योंकि यह अब राज्य कौन संभालेगा? न किसी के संभालने से तो बेहतर है कि वह जो नासमझ है वही संभाले।
सम्राट के वजीर उसे खोजने गए। बड़ी मुश्किल से सम्राट का प्रधान वजीर उस गांव में पहुंच गया जहां वह भीख मांग रहा है। रथ सामने आकर रुका तब वह अपने टूटे हुए टीन के बर्तन में भीख मांग रहा था, बजा रहा था और कह रहा था--कुछ पैसे मिल जाएं तो मैं जूते खरीद लूं! रथ रुका, वजीर नीचे उतरा। चेहरा पहचाना हुआ था। कपड़े वही थे जो दस साल पहले पहने निकला था। फट गए थे, चीथड़े हो गए थे। नंगे पैर था, चेहरा सांवला और काला पड़ गया था। वजीर नीचे उतरा, वजीर ने उसके पैर छुए और कहा कि पिता ने क्षमा कर दिया है और वापिस बुलाया है। एक क्षण, एक का भी हजारवां हिस्सा, और वह जो हाथ में टीन का ठीकरा था वह फिंक गया! उस युवक की आंखें एकदम बदल गईं। वह भिखारी नहीं रहा, सम्राट हो गया। उसने वजीर को कहा, जाओ, शीघ्र जूते खरीदो, अच्छे कपड़े लाओ, स्नान का इंतजाम करो। वह रथ पर बैठ गया। वह जिनसे भीख मांगता था, जो न कुछ थे उस होटल में, वह सब भीड़ लगाकर खड़े हो गए और उन्होंने देखा यह आदमी दूसरा है, वह उनकी तरफ देख भी नहीं रहा है। वह उनको पहचानता भी नहीं है। उन्होंने कहा, अरे, हमें भूल गए! उसने कहा, तुम्हें तभी तक याद रख सकता था, जब तक अपने को भूले हुए था। जब अपनी याद आ गई, अब भूल जाओ उस आदमी को जो भीख मांगता था। उन्होंने कहा, अभी क्षण भर पहले! और उसने कहा कि मुझे याद आ गई।
कृष्ण की प्रक्रिया इतनी ही है कि आदमी को सिर्फ इतनी याद दिलाने की बात है कि तुम कौन हो। यह साधने की बात नहीं है, स्मरण की है। और उस याद के साथ ही एक क्षण में सब बदल जाता है, टीन का ठीकरा बाहर फिंक जाता है। जिनसे हम भीख मांग रहे थे, अचानक हाथ खींच लेते हैं, हम खुद ही सम्राट हो जाते हैं। लेकिन यह सम्राट होना "सडन' है। और ध्यान रहे, सम्राट कोई आदमी "सडन' ही होता है। भिखारी "ग्रेजुअल' होता है। सम्राट होने के लिए भी कोई सीढ़ियां हों तो आखिरी सीढ़ी पर खड़े होकर आप थोड़े अच्छे ढंग के भिखारी होंगे, और कोई खास फर्क नहीं पड़ने वाला। पैसे वाला भिखारी होंगे, और कोई खास फर्क नहीं पड़ने वाला। लेकिन भीख जारी रहेगी। और एक दिन आपको छलांग लगानी पड़ेगी, वहां जहां आप "ग्रेजुअली' चढ़-चढ़कर पहुंचे हैं, वहां से कूद जाना पड़ेगा। लेकिन यह घड़ी महावीर और बुद्ध की साधना में आखिरी क्षण आती है, जिस दिन छलांग लगानी पड़ती है। कृष्ण के मामले में पहले ही आ जाती है। कहते हैं, छलांग लगाओ आगे, फिर दूसरी बात। फिर दूसरी बात ही करने की कोई जरूरत नहीं होती, छलांग लगाने की बात है।
गीता में पूरे वक्त अर्जुन को वह कुछ खास नहीं समझा रहे हैं, सिर्फ याद दिला रहे हैं कि तू कौन है। वह कोई उपदेश नहीं दे रहे हैं, वह सिर्फ चोटें दे रहे हैं कि तू कौन है। वह किसी को समझा नहीं रहे, किसी को जगा रहे हैं। वह सिर्फ हिला रहे हैं, झकझोर रहे हैं कि तू उठकर देख कि तू कौन है! तू भी कहां छोटी-छोटी बातों में पड़ा है कि यह मर जाएगा, वह मर जाएगा! तू जागकर देख, कोई कभी मरा ही नहीं है। तू कब मरा! मगर वह नींद में है, और अपने सपने में है, वह यही पूछे जा रहा है कि यह मेरा भाई है, यह मेरा रिश्तेदार है, यह मेरा गुरु है, इनको मैं कैसे मारूं! वह सपने में ही है। कृष्ण उसको समझा नहीं रहे हैं, उसको धक्के दे रहे हैं कि तू नींद खोल, जरा आंख खोलकर देख, क्या सपना देख रहा है। या तो सभी सबके हैं, या कोई किसी का नहीं है। दोनों हालत में मतलब एक है। या तो सभी लोग मर ही जाते हैं, तब मारने न मारने से कोई फर्क नहीं पड़ता; या मरते ही नहीं है, तब भी मारने न मारने से कोई फर्क नहीं पड़ता है।
कृष्ण की जीवन-चिंतना स्मरण की है। इसलिए साधना नहीं है वह। वह सीधे सिद्ध होने में छलांग है। हम उतनी हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं, इसलिए हम कहते हैं यह अपना काम नहीं। हम तो कहीं जाएं जहां धीरे-धीरे, एक-एक कदम हम चलेंगे। लेकिन हर कदम पर आप अपने को बचाते हुए चलेंगे, ध्यान रखना। इसीलिए तो छलांग नहीं लगाते, छलांग लगाने में बच नहीं सकते। बचने में खतरा है। आप कहते हैं, हम तो एक-एक कदम चलेंगे जिसमें अपने को बचाकर चलें। लेकिन जिसको आप बचा रहे हैं, वह आखिरी कदम में भी बचा रहेगा। और वह फिर भी कहेगा कि अपने को बचाकर किसी तरह निकल जाओ मोक्ष। अपने को बचाकर कोई मोक्ष में प्रवेश नहीं कर सकता। अपने को खोकर ही प्रवेश कर सकता है। यह आखिरी क्षण में वही दिक्कत आएगी। और मैं मानता हूं कि जो दिक्कत आखिरी क्षण में आनी हो, वह पहले क्षण में ही आ जाए। क्योंकि इतना समय क्यों व्यय करना है, इतना समय क्यों व्यर्थ खोना।
आखिरी क्षण में महावीर और बुद्ध का जो स्मरण आता है, वह स्मरण है, वह साधना का फल नहीं है। लेकिन हमने साधना देखी है। एक आदमी गांव में बीस चक्कर लगाता है, फिर उसे स्मरण आता है कि मैं कौन हूं। एक आदमी एक ही चक्कर लगाता है, उसे स्मरण आता है कि मैं कौन हूं। कोई-कोई चक्कर नहीं लगता है, उसे स्मरण आता है। लेकिन हम जो देखने वाले हैं, हम कहेंगे, इस आदमी को बीस चक्कर लगाने से कोई "काज़-इफेक्ट' का संबंध नहीं है, यह बात जरा आपको ठीक से समझ लेनी चाहिए।
महावीर ने क्या किया और महावीर को क्या हुआ, इसमें कोई "काज़ल लिंक' नहीं है। इसमें कोई कार्य-कारण का संबंध नहीं है कि महावीर ने ऐसा किया, इसलिए ऐसा हुआ। अगर ऐसा है तो फिर जीसस को नहीं हो सकेगा, क्योंकि जीसस ने वह कुछ भी नहीं किया जो महावीर ने किया। फिर बुद्ध को नहीं हो सकेगा, क्योंकि बुद्ध ने वह कुछ भी नहीं किया जो महावीर ने किया। अगर सौ डिग्री पानी गर्म होने से ही भाप बनता है, तो तिब्बत में बनाया जाए, हिंदुस्तान में बनाया जाए, चीन में बनाया जाए, अमरीका में बनाया जाए, वह सौ डिग्री पर ही भाप बनेगा। उसका सौ डिग्री पर भाप बनना "कॉज़ल' है, उसमें कार्य-कारण है।
आध्यात्मिक जीवन "कॉज़ल' नहीं है। उसमें कार्य-कारण नहीं है। इसलिए तो आध्यात्मिक जीवन मुक्त हो सकता है। कार्य-कारण की शृंखला में मुक्ति कभी भी नहीं हो सकती। कार्य-कारण का मतलब ही बंधन है। हर चीज पिछली चीज से बंधी है। और जो चीज पिछली चीज से बंधी है, वह अगली चीज से बंधी होगी। उसमें "चेन सीरीज़' है, सब चीजें बंधी हैं। अगर पानी भाप बनेगा तो अभी तक पानी के नियमों से बंधा था, अब भाप के नियमों में बंध जाएगा। अगर पानी बर्फ बन जाएगा तो अभी तक पानी के नियमों से बंधा था, अब बर्फ के नियमों से बंध जाएगा। आगे, पीछे, दोनों तरफ बंधन होंगे। जिसको मुक्ति कहते हैं, वह "नॉन-कॉज़ल' है, उसके पीछे कोई कारण नहीं है, कि इस कारण से फलां आदमी मुक्त हुआ, यह-यह कारण से मुक्त हुआ, क्योंकि इसने इतना उपवास किया इसलिए मुक्त हुआ है। तब तो कोई भी आदमी उतना उपवास करे तो मुक्त होना चाहिए। लेकिन यह नहीं होता।
सौ डिग्री पर कोई भी पानी गर्म होता है, भाप बनता है। लेकिन कोई भी आदमी उपवास करे तो मुक्त नहीं होता है। महावीर करते हैं तो होते हैं। कोई भी आदमी नग्न खड़ा हो जाए तो मुक्त हो जाएगा? नहीं होता। बहुत लोग ऐसे ही नग्न हैं, कपड़े ही नहीं है। लेकिन महावीर खड़े हो जाते हैं और मुक्त हो जाते हैं। तो नग्नता से मुक्ति का कोई "कॉज़ल-रिलेशनशिप' है, कोई कार्य-कारण-संबंध है? अगर संबंध है तो फिर सबको करना ही पड़ेगा। नहीं, संबंध नहीं है। असल में मुक्ति का अर्थ ही कार्य-कारण की शृंखला के बाहर हो जाना है। वह जो कार्य-कारण की शृंखला है कि ऐसा करने से ऐसा होता है, ऐसा न करने ऐसा नहीं होता, इस सबके बाहर हो जाना ही मुक्ति का अर्थ है। असल में कार्य-कारण की सीमा में जो बंधा है, उसी का नाम पदार्थ है और कार्य-कारण की सीमा के जो बाहर है, उसी का नाम परमात्मा है।
लेकिन, किस जगह इसके बाहर होंगे आप? हम प्रत्येक घड़ी को कार्य-कारण से जोड़ते हैं। अभी मैं एक कहानी कह रहा था--
एक आदमी एक ट्रेन में सवार हुआ है, पहली दफा। उसके गांव के लोगों ने उसकी जन्म-जयंती मनाई है। पचहत्तर साल का हो गया है, बूढ़ा है और गांव गरीब है, उसको क्या भेंट दें! तो उन्होंने सोचा कि हमारे गांव में कभी कोई ट्रेन पर सवार नहीं हुआ है--पहली दफा ट्रेन चली--तो हम सब गांव के लोग चंदा करके इसको ट्रेन पर भेज दें। तो उसको ट्रेन पर भेजा। साथ में एक मित्र और उसके ट्रेन पर गया है। वे दोनों सवार हुए। पहली दफा गाड़ी में बैठे। बड़े आनंदित हैं और तभी गाड़ी में चीजें बिकने आ गईं। कुछ उन्होंने पाकिट-खर्च भी उनको दिया था कि कुछ खरीद भी करना आते-जाते। आनंद लेना। एक सोडा बेचने वाला, एक आदमी सोडा बेच रहा है। उन्होंने कहा, पता नहीं क्या खतरनाक चीज है, लेकिन पहले कोई पीता हो तो अपन देख लें। एक आदमी ने लेकर पिआ तो उन्होंने कहा, ठीक है, पिआ तो जा सकता है। पर उन्होंने कहा, एक ही लें पहले। आधा तुम पी लो, आधा मैं पी लूं। क्योंकि जंचे भी, जंचे। तो उन्होंने एक सोडे की बॉटल ली। एक आदमी ने आधी बोतल पी। पहले दफे पी थी, और जैसे ही उसने बोतल पी वैसे ही ट्रेन एक "टनल' में, एक बोगदे में प्रवेश की। वह आधे के आगे पीता चला गया तो दूसरे ने रोका, उसने कहा कि तुम आधे के आगे जा रहे हो।  उसने बोतल नीचे की, आंखें खोलीं, घनघोर अंधेरा था। तो उसने दूसरे आदमी को कहा कि, "डोंट टच दिस स्टफ, आई हैव बीन स्ट्रक ब्लाइंड'। इसको छूना ही मत, मैं अंधा हो गया हूं। भूलकर मत पीना, अब जो हो गया मेरे साथ, हो गया।
स्वभावतः वह जो अंधेरा घटित हुआ था, वह उसके लिए "कॉज़ल लिंक में ही सोच सकता है--सोडा पीने से आंखें एकदम अंधी हो गईं। हम जिंदगी में इसी भाषा में सोचते हैं। इससे बड़ी भ्रांतियां पैदा होती हैं। मुक्ति का जो अनुभव है, वह "बियांडकॉज़ल लिंक' है। वह हमारे सब कार्य-कारण के बाहर है। बुद्ध ने जो किया है उसके कारण वह उसको उपलब्ध नहीं हुए, उसके करने के बावजूद उपलब्ध हुए, "इनस्पाइट आफ दैट'। महावीर ने जो किया है उसके कारण उपलब्ध नहीं हुए, उसको करने के बावजूद उपलब्ध हुए हैं। इसलिए कोई अगर महावीर की पूरी नकल भी कर ले तो उपलब्ध नहीं होगा। पूरी नकल कर ले, "टोटल', कि उसमें एक अंक भी कम देने की गुंजाइश न रह जाए, उसको सौ परसेंट आंकड़े देने पड़ें कि अब इसमें कोई कमी नहीं रह गई, फिर भी नहीं होगा। उसका कोई संबंध नहीं है।
मुक्ति "एक्सप्लोजन' है, एक विस्फोट है, कार्य-कारण की शृंखला के बाहर।
कृष्ण यह कहते हैं कि अगर यह खयाल में आ जाए तो वह अभी हो सकता है। पात्र-अपात्र का सवाल नहीं है, सभी पात्र हैं। साधना का उतना सवाल नहीं है। लेकिन कुछ लोग थोड़ा चक्कर खाएंगे। उनको अगर अपने घर भी आना हो तो वह पूरी बस्ती में घूमे बिना नहीं आ सकते। उनके लिए जरूरी होगा कि पूरा गांव घूम आएं। कुछ लोग, अपने पास भी उनको आना है तो "वाया दि अदर', वह दूसरे के बिना अपने पास भी नहीं आ सकते। उनका रास्ता ही वह है। फिर हमारे अपने-अपने चक्कर हैं। वह चक्कर हम पूरा करेंगे। लेकिन कृपा करके अपना ही चक्कर पूरा करें, तब भी ठीक है। दूसरे ने जो चक्कर पूरा किया है, उसको करने निकल जाते हैं आप, तब बहुत मुश्किल में पड़ जाएंगे। वह आपका चक्कर ही नहीं है। कोई दूसरा उस चक्कर से अपने तक आया था, लेकिन आप वह नहीं हैं, आप दूसरे आदमी हैं। आप उस चक्कर से नहीं आ सकते हैं अपने तक।
पहली बार जब उपनिषद पश्चिमी भाषाओं में अनुवादित हुए, तो वहां जिन लोगों ने पढ़ा उनकी पहली जो तकलीफ हुई वह यही थी, कि इनमें कोई साधना तो बताई नहीं है। क्या करना, क्या नहीं करना; क्या खाना, क्या नहीं पीना; क्या पहनना, क्या नहीं पहनना; क्या बुरा है, क्या भला है; यह सब इसमें कुछ बताया हुआ नहीं है। ये किस तरह के धर्मग्रंथ हैं। क्योंकि बाइबिल में सब बहुत साफ है। क्या करो, क्या न करो, यह बहुत साफ है। "कमांडमेंट' जाहिर है; यह कहना है और यह नहीं करना है। यह तो धर्मग्रंथ है। यह उपनिषद किस तरह का धर्मग्रंथ है, जिसमें कोई चर्चा ही नहीं; जिसमें कोई साधना की प्रक्रिया नहीं, आचरण की कोई व्यवस्था नहीं। कठिन है समझना कि बाइबिल में जो उपदेश है, वह धर्म से उसका कोई लेना-देना नहीं है, वह सिर्फ "रिमेंबरिंग' की बात है। वे यह कह रहे हैं कि तुम स्मरण करो। जिसे तुम भूल गए हो, जो तुम हो, जो तुम इसी वक्त हो, उसे स्मरण करो। इसे कहीं पाने नहीं जाना है, अभी और यहीं हो ही तुम। सिर्फ स्मरण करो। यह सिर्फ विस्मृति है।
कृष्ण की दृष्टि में, जो हमें पाना है वह सिर्फ विस्मृत हुआ है, खोया नहीं है। जो हमें पाना है, वह हम भूल गए हैं, बस इससे ज्यादा नहीं है। वह हमें याद नहीं रहा है। इसलिए पहले ही चरण में उसको याद करो और कूद जाओ। इसलिए जो साधनाएं और जो नैतिकताएं और जो व्यवस्थाएं धर्म देगा, वह कृष्ण नहीं दे रहे हैं। कृष्ण का अहंकार, पहले ही क्षण में नहीं है। और जो आदमी भी आंख खोलकर देखेगा, उसका अहंकार नहीं रह जाएगा। आंख बंद करके हम जीते हैं, इसलिए अहंकार रह जाता है। ऐसा नहीं है कि आप कहेंगे, कृष्ण को हुआ, मुझे क्यों नहीं होता है? आप आंख बंद करके जीते हैं। आपने कभी अपने जन्म के संबंध में सोचा कि किसने आपको पैदा किया? आपने पैदा किया? कम-से-कम इतना तो तय है कि आपने पैदा नहीं किया। आप जैसे हैं, ऐसा आपको आपने नहीं बनाया, इतना तो तय है। लेकिन हमें भी वहम पैदा हो जाता है। हमारे बीच में भी कई "सेल्फ-मेड' पागल होते हैं, वह सोचते हैं, मैंने अपने को बनाया। वह भगवान तक को तकलीफ नहीं देते उनको बनाने की, वह खुद ही पर अपना सब थोप लेते हैं। तो मैंने अपने को बनाया--"सेल्फ-मेड'। न हम अपने को बनाते, हमारा होना भी हमारे हाथ में तो नहीं है। ऐसे सीधे-से सत्य भी हमें दिखाई नहीं पड़ते कि मेरा होना भी मेरे हाथ में कहां है! मैं हूं, इसके लिए मेरी जिम्मेवारी कहां है! मैं नहीं होता, तो मैं किससे शिकायत करने जाता? जो नहीं हैं वहां शिकायत कर रहे हैं? नहीं होता तो नहीं होता, हूं तो हूं। मैं ऐसा हूं तो ठीक, और ऐसा नहीं होता, और-जैसा होता तो क्या करता!
अगर हम जीवन के तथ्यों में थोड़ी आंख डालकर देखें तो हमें दिखाई पड़ेगा, न जन्म हमारे हाथ, न मृत्यु हमारे हाथ, हमारे भी हमारे हाथ में नहीं हैं। जरा अपने हाथ से अपने ही हाथ को पकड़ने की कोशिश करें तो पता चलेगा। कुछ भी हमारे हाथ में नहीं हैं। जहां कुछ भी हमारे हाथ में नहीं है, वहां "मैं' कहने का अर्थ क्या है, प्रयोजन क्या है? जहां सभी कुछ संघट है, जहां सभी कुछ एक-साथ घट रहा है--कहा नहीं जा सकता कि आज बगीचे में जो फूल खिले हैं, अगर वह आज नहीं खिलते तो जरूरी था कि मैं फिर भी यहां होता। कोई नहीं कह सकता। आमतौर से हम कहेंगे, इससे क्या संबंध है; बगीचे में फूल नहीं होते, तो भी मैं यहां हो सकता था। जरूरी नहीं है। वह जो बगीचे में एक फूल खिला है, उसकी मौजूदगी और मेरा होना एक ही होने के दो छोर हैं।
अभी सूरज शांत हो जाए तो हम सब यहीं शांत हो जाएंगे। सूरज बहुत दूर है। करोड़ों मील दूर है। उसके होने पर हम निर्भर हैं; और सूरज भी किन्हीं महासूर्यों के होने पर निर्भर है, और वे महासूर्य भी और किन्हीं महासूर्यों के होने पर निर्भर हैं--सब निर्भर है। यहां जीवन "इंटरडिपेंडेंट' हैं, हम छोटे-छोटे द्वीप नहीं हैं, हम महासागर हैं, यहां सब इकट्ठा है। इसको जरा ही आंख खोलकर देख लें तो कोई याद दिलाना पड़ेगा कि मैं और तू हमारे मानवीय आविष्कार हैं, और बड़े गलत आविष्कार हैं! वह दिखाई पड़ जाए तो उसका स्मरण आ जाए जो है। वह दिखाई न पड़े तो उसका स्मरण मुश्किल होगा। तब तक हम अपने को मैं माने चले जाएंगे, दूसरे को तू माने चले जाएंगे और एक कल्पना में, एक पुराण में जी लेंगे; एक "मिथ' में जी लेंगे।
कृष्ण पहले ही चरण में कहते हैं स्मरण करो, और कुछ मत करो। बस स्मरण करो। कौन हो, क्या हो, कहां हो, इसका स्मरण करो और सब प्रगट हो जाएगा।

"भगवान श्री, पूर्णता के संबंध में एक प्रश्न था। आपने सुबह कहा कि पूर्णता का मूल लक्षण आप शून्यता मानते हैं। बुद्ध भी तो परम शून्य थे। क्या उन्हें पूर्ण नहीं कहा जा सकता? और इसी के साथ क्या शून्यता स्वयं में बहु-आयामी नहीं है?

दोत्तीन बातें।
एक तो, बुद्ध शून्यता पर पहुंचे, जैसा मैं अभी कह रहा था। बुद्ध शून्यता पर पहुंचे। वह उनका "अचीवमेंट' है। वह उन्होंने पाया। वे शून्य हुए। जो शून्यता पाई जाएगी, वह "वन डायमेंशनल' हो जाती है। उसकी एक दिशा हो जाती है। वह पाने वाले पर निर्भर हो जाती है।
इसको ऐसा समझें। असल में मैं अपने भीतर से जिस चीज को शून्य कर दूंगा, जिस चीज को काट डालूंगा, अलग कर दूंगा, वह समाप्त हो जाएगी, मेरे भीतर से हट जाएगी। एक तरह का शून्य उपलब्ध होगा। लेकिन वह शून्यता किसी चीज का अभाव होकर आएगी। एक और शून्यता है, जो हम लाते नहीं, जो हमारे होने के बोध में ही जनमती है। हम हैं ही शून्य, हम होते नहीं शून्य। शून्यता हमारा स्वभाव है। ऐसे हम हैं ही। जिस दिन शून्यता हमारा स्वभाव होती है, साधन नहीं, अभ्यास नहीं, उपलब्धि नहीं, उस दिन शून्यता बहु-आयामी, "मल्टी-डायमेंशनल' हो जाती है। हमने किसी चीज को खाली करके अपने को शून्य नहीं किया है। हम शून्य हैं ही, इसको स्मरण किया है।
तो बुद्ध की जो शून्यता हमें दिखाई पड़ती है, वह शून्यता लाई हुई है। और जो शून्यता लाई हुई है, वही हमें दिखाई पड़ती है। कृष्ण में हमें शून्यता कभी नहीं दिखाई पड़ी। कृष्ण को तो लोग कहेंगे, बहुत भरे-पूरे आदमी हैं, बहुत "ऑकुपाइड' आदमी हैं। कृष्ण की "प्रेजेंस' तो अनुभव होती है, कृष्ण में "एब्सेंश' अनुभव नहीं होती। कृष्ण में कुछ मौजूद है, यह तो पता चलता है, कृष्ण खाली हैं, यह पता नहीं चलता। पता हमें चलता है कि बुद्ध खाली हैं। उसका कारण है कि जो हम में भरा है, उसको बुद्ध ने निकाल दिया है, इसलिए बुद्ध खाली लगते हैं। अगर हम में क्रोध है, तो बुद्ध ने उसे निकल दिया; अगर हम में हिंसा है, तो बुद्ध ने उसे निकाल दिया; अगर हम में राग है, तो बुद्ध ने उसे निकाल दिया; अगर हम में मोह है, तो बुद्ध ने उसे निकाल दिया; जिससे हम भरे हैं, बुद्ध उससे खाली हैं। इसलिए हमें लगता है कि वह शून्यता है। बुद्ध शून्य हुए। असल में जिससे हम भरे हैं, वह उनमें नहीं है। हम उनकी शून्यता को पहचान लेते हैं। कृष्ण की शून्यता हमें पहचान में नहीं आती। क्योंकि इस आदमी में अगर लोभ नहीं है, तो भी यह आदमी जुआ खेलने बैठ सकता है। अगर इस आदमी में क्रोध नहीं है, तो यह आदमी हाथ में चक्र लेकर कैसे उतर जाता है युद्ध में! अगर इस आदमी में हिंसा नहीं है, तो अर्जुन को क्यों उकसाता है हिंसा के लिए? अगर इसमें राग नहीं है, तो यह प्रेम क्यों करता है? जिससे हम भरे हैं, वह हमें कृष्ण में दिखाई पड़ता है, कृष्ण की शून्यता हमारी पकड़ में नहीं आ सकती।
बुद्ध की शून्यता को अगर ठीक से समझें, तो वह किसी चीज की "एब्सेंश' है, जो हम में मौजूद है। तो हम पहचान लेते हैं। असल में जिस-जिस को हम मनुष्यता की बीमारियां कहते हैं, बुद्ध में उनका अभाव है। जहां तक मनुष्य के बीमार होने का संबंध है, बुद्ध बिलकुल शून्य हैं। आदमी की कोई बीमारियां उनमें नहीं हैं। बस यहीं तक बुद्ध हमें दिखाई पड़ते हैं। इसके बाद बुद्ध एक और छलांग लेते हैं, वह हमें कभी दिखाई नहीं पड़ती। वह छलांग जो बुद्ध इस शून्यता के बाद लेते हैं, वह हमें कभी दिखाई नहीं पड़ती। वह छलांग जो बुद्ध इस शून्यता के बाद लेते हैं, वह हमें कभी दिखाई नहीं पड़ती। बुद्ध मर रहे हैं और आखिरी क्षण में भी उनके शिष्य उनसे पूछते हैं कि जब आप मर जाएंगे तो आप कहां जाएंगे? कहीं तो होंगे आप! मोक्ष में होंगे? निर्वाण में होंगे? कैसे होंगे? बुद्ध कहते हैं, मैं कहीं नहीं होऊंगा, मैं होऊंगा ही नहीं। यह उनके पकड़ में नहीं आता। क्योंकि वह मानते हैं, जिसने लोभ छोड़ा, क्रोध छोड़ा, मोह छोड़ा, उसे कहीं होना चाहिए? हां, जमीन पर नहीं, मोक्ष में होना चाहिए, लेकिन कहीं होना चाहिए! बुद्ध कहते हैं, मैं कहीं भी नहीं होऊंगा। मैं ऐसे ही मिट जाऊंगा जैसे पानी पर खींची गई रेखा मिट जाती है। जब हम पानी पर रेखा खींचते हैं तब वह होती है, और जब मिट जाती है तब बुद्ध पूछते हैं--वह कहां जाती है? कहीं चली जाती? कहीं रहती? बस मैं पानी पर खींची गई रेखा की तरह मिट जाऊंगा। मैं कहीं भी नहीं होऊंगा। बुद्ध की यह बात उनके शिष्यों की समझ में नहीं आती। कृष्ण इस पानी पर खींची गई रेखा की तरह जिंदगी भर जीते हैं, इसलिए कोई शिष्य भी नहीं खोज पाते, तो किसी को भी समझ में नहीं आते।
बुद्ध और महावीर आखिरी क्षण में उस छलांग को भी पूरा करते हैं, जो एक "डायमेंशनल नथिंगनेस' से, एक-आयामी शून्यता से परम शून्य में छलांग हो जाती है, लेकिन उस शून्य को पकड़ नहीं पाते हम, उसको हम देख नहीं पाते। और कृष्ण के साथ हमारी कठिनाई और ज्यादा हो जाती है क्योंकि वह शून्य में जीते ही हैं। वह रेखा किसी दिन मिटेगी, नहीं, ऐसा नहीं, वह प्रतिपल खींचते हैं और मिट जाती है। न केवल खींचते हैं और मिट जाती है, बल्कि उससे विपरीत रेखा भी खींच देते हैं। रेखाएं-रेखाएं हो जाती हैं, सब मिटता है, सब होता रहता है। बुद्ध शून्यता को किसी दिन उपलब्ध होते हैं, कृष्ण शून्य ही हैं। और इसलिए कृष्ण की शून्यता को पकड़ना मुश्किल होता है।
जिस दिन बुद्ध शून्य होते हैं, उस दिन जहां तक बुद्ध के भीतर जो कैद थी चेतना, जो अस्तित्व, वह मुक्त होकर विराट के साथ एक हो जाता है। लेकिन उस दिन वह बुद्ध नहीं रह जाते--उस दिन वह जो गौतम सिद्धार्थ पैदा हुआ था; उससे कोई संबंध नहीं है। वह जो भीतर एक शून्य था अस्तित्व का, वह विराट अस्तित्व के साथ एक हो गया। इसलिए उस विराट अस्तित्व के साथ एक हो गए उस शून्य की कोई कथा नहीं है हमारे पास। लेकिन कृष्ण पूरे जीवन ऐसे जीते हैं कि उस शून्य की हमारे पास एक कथा है, कि अगर बुद्ध भी उस शून्य के बाद जगत में जिएं, तो कैसे जिएंगे। वह तो हमें मौका नहीं मिलता, वह मौका हमें कृष्ण में मिलता है।
बुद्ध का शून्य होना और समाप्त हो जाना एक साथ घटित होते हैं, कृष्ण का शून्य होना और होना एक साथ चलते हैं। अगर बुद्ध पूर्ण निर्वाण को, महानिर्वाण को पाकर वापस लौट आएं, तो वह कृष्ण-जैसे होंगे। फिर वह चुनाव नहीं करेंगे--फिर वह यह नहीं कहेंगे, यह बुरा है और यह भला है। फिर वह छोड़ेंगे-पकड़ेंगे नहीं। फिर वे कुछ भी नहीं करेंगे, फिर वे जिएंगे। कृष्ण वैसे जीते ही हैं। जो बुद्ध की परम उपलब्धि है, कृष्ण का वह सहज जीवन है। और इसलिए बहुत कठिनाई है। परम उपलब्ध लोग तो समाप्त हो जाते हैं, उपलब्ध होते-होते खो जाते हैं, इसलिए हमें बहुत परेशानी में नहीं डालते। जब तक वे होते हैं, हमारी नैतिक धारणाओं की परिपुष्टि उनसे होती मालूम पड़ती है। लेकिन, यह आदमी होता ही शून्य है और इसलिए हमारी किसी नैतिक मान्यता को इससे पुष्टि नहीं मिलती। यह हमारा सारा-का-सारा अस्तव्यस्त कर जाता है। यह आदमी हमें बड़े भ्रम में छोड़ जाता है। हम समझ ही नहीं पाते कि अब क्या करें और क्या न करें? असल में बुद्ध और महावीर से करने के सूत्र निकलते हैं; कृष्ण से होने का सूत्र निकलता है। बुद्ध और महावीर से "डूइंग' के लिए रास्ता मिलता है, कृष्ण से सिर्फ "बीइंग' के लिए रास्ता मिलता है। कृष्ण सिर्फ "हैं'
एक झेन फकीर से किसी आदमी ने जाकर पूछा है कि मुझे ध्यान सिखाएं। तो उस फकीर ने कहा कि तुम मुझे देखो और सीख लो। वह आदमी बहुत मुश्किल में पड़ गया, क्योंकि वह फकीर अपने बगीचे में गङ्ढे खोद रहा है। उसने थोड़ी देर तो देखा, उसने कहा कि गङ्ढा खोदना मैं बहुत देख चुका हूं, मैंने बहुत खोदे हैं, आप कृपा करके ध्यान सिखाएं। तो उस फकीर ने कहा कि अगर तुम मुझे देखकर नहीं सीख सकते, तो मैं और कैसे सिखा सकता हूं; मैं ध्यान हूं! मैं जो भी कर रहा हूं, वह ध्यान है। मेरे गङ्ढे खोदने को ठीक से देखो। उस आदमी ने कहा, मुझे तो लोगों ने भेजा था कि बड़े ज्ञानी के पास भेज रहे हैं, मैं भी कहां आ गया। गङ्ढा खोदना ही मुझे देखना होता तो मैं कहीं भी देख लेता। उस फकीर ने कहा, एक-दो दिन रुक जाओ।
कभी वह फकीर खाना खाने बैठता, कभी वह सो जाता, कभी वह स्नान करता, कभी वह गङ्ढा खोदता, कभी बीज बोता, दो दिन में वह आदमी घबड़ा गया, उसने कहा, मैं ध्यान सीखने आया हूं, इन सब बातों में मुझे कोई मतलब नहीं है। तो उस फकीर ने कहा, लेकिन मैं करना नहीं सिखाता, मैं होना सिखाता हूं। अगर तुम मुझे गङ्ढा खोदते देखो तो समझो कि ध्यान कैसे गङ्ढा खोदता है। अगर तुम मुझे खाना खाते देखते हो, तो देखो कि ध्यान कैसे खाना खाता है? मैं ध्यान करता नहीं, मैं ध्यान हूं। उस आदमी ने कहा, मैं भी किस पागल के पास आ गया! मैंने सदा यही सुना था कि ध्यान किया जाता है, अब तक मैंने सुना नहीं कि कोई ध्यान होता है। उस फकीर ने कहा, यह तो बहुत मुश्किल सवाल है कि पागल हम दोनों में से कौन है। और हम दोनों तो इसको तय कर ही न सकेंगे।
हम सबने प्रेम किया है, हम कभी प्रेम नहीं हुए हैं, इसलिए अगर कोई आदमी हमारे बीच आ जाए जो प्रेम है, तो मुश्किल में डाल देगा। क्योंकि हम तो प्रेम करते हैं। "लव एज़ एक ऐक्ट' हमारे लिए आता है। "लव एज़ बीइंग' हमारे लिए कभी नहीं है। इसको प्रेम करते, उसको प्रेम करते, कभी करते, कभी नहीं करते, वह हमारा कामधाम है। लेकिन एक आदमी जो प्रेम है, वह हमें मुश्किल में डाल देता। उसका होना प्रेम है। वह जो भी करता है वह प्रेम है। वह जो नहीं करता, वह भी प्रेम है। वह लड़ता है तो प्रेम है, वह गले लगता है तो प्रेम है--वह जो भी करता है। वह आदमी हमें मुश्किल में डाल देगा। हम उससे बहुत कहेंगे कि भाई, हमें प्रेम करो; वह कहेगा प्रेम मैं कैसे करूं, मैं प्रेम हूं; प्रेम तो वे कर सकते हैं जो प्रेम न हों।
कृष्ण की यही कठिनाई है। कृष्ण का अस्तित्व शून्य है, शून्य हुए नहीं है वह। उन्होंने कुछ खाली नहीं किया, उन्होंने कुछ हटाकर जगह रिक्त नहीं बनाई, उन्होंने तो जो है, उसको स्वीकार कर लिया, स्वीकार कर लिया इसलिए शून्य हो गए। इस शून्यता में और बुद्ध और महावीर की शून्यता में आखिरी क्षण के एक क्षण पहले तक फर्क रहेगा। बुद्ध और महावीर आखिरी क्षण तक होंगे कुछ। आखिरी छलांग में न-कुछ हो जाएंगे। लेकिन कृष्ण पूरे जीवन न-कुछ हैं। यह शून्यता, जिसको कहें "लिविंग नथिंगनेस', जीवंत शून्यता है। बुद्ध और महावीर की शून्यता जीवंत नहीं है। जीने के आखिरी क्षण तक तो वे उस शून्यता से भरे रहते हैं जो शून्यता हम पहचान लेते हैं कि यह-यह खाली किया है, आखिरी क्षण में छलांग लेते हैं। इसलिए महावीर और बुद्ध, दोनों कहेंगे, लौटना नहीं है। लौटना नहीं है। लेकिन कृष्ण राधा से कह सकता है कि हम बहुत बार पहले भी आए और नाचे, और बहुत बार फिर भी आएंगे और नाचेंगे।
बुद्ध और महावीर के लिए शून्यता महामृत्यु है। उसके बाद कोई लौटना नहीं है, खो जाना है। वह आवागमन का बंद हो जाना है। कृष्ण कह सकता है कि आवागमन से मुझे क्या डर है? मैं शून्य हूं ही। मुझे मोक्ष में और ज्यादा क्या मिलेगा। मैं जहां हूं वहां मोक्ष है ही। मैं आता रहूंगा। इसलिए वह बड़ी अदभुत बात कहते हैं। वह अर्जुन से कहते हैं कि जब भी मुसीबत हो, मैं आ सकता हूं। जब भी धर्म की ग्लानि हो, मैं आ जाऊंगा। ऐसा बुद्ध और महावीर नहीं कह सकते। ऐसा उनका कोई वक्तव्य नहीं है कि दुनिया में मुसीबत हो, अंधेरा हो, बीमारी हो, तकलीफ हो, अधर्म हो, तो मैं आ जाऊंगा। क्योंकि वह कहेंगे, मैं आऊंगा कैसे, मैं तो मुक्त हो चुका होऊंगा। लेकिन कृष्ण कहते हैं, तुम फिक्र मत करना, कोई मुसीबत हो तो मैं आ सकता हूं। आ सकने का यह मतलब नहीं है कि आ जाएंगे। आ सकने का कुछ मतलब यह है कि इस आदमी को आने-जाने में कोई फर्क नहीं है, इससे कोई बाधा नहीं पड़ती। यह शून्य है ही, इसलिए आने से क्या बिगड़ेगा; कुछ भी नहीं बिगड़ेगा
शून्यता का यह फर्क है।
और महावीर और बुद्ध शून्यता को मुक्ति के अर्थों में ही ले पाएंगे, क्योंकि उनके जीवन भर मुक्ति की आकांक्षा ही उनकी साधना है। इसलिए जब शून्यता आएगी तो वे कहेंगे, हम मुक्त हुए, विश्राम में गए। अब लौटते नहीं हैं। "प्वाइंट आफ नो रिटर्न', अब इससे लौटना नहीं है। अब लौटने का कोई सवाल नहीं है। क्योंकि लौटने का उनके लिए एक ही मतलब साफ होगा कि वही क्रोध, वही लोभ, वही मोह, वही जंजाल, वही संसार, वही उपद्रव, वही मुसीबत। अब लौटना नहीं है। अब हम सबके बाहर हुए। इसलिए शून्य की घटना जब उनके चित्त में घटेगी तो वह डूब जाएंगे उसमें, खो जाएंगे विराट में। वह नहीं लौटने की बात कर सकते। लेकिन कृष्ण के लिए कोई फर्क नहीं पड़ता। वह क्रोध में भी वही हैं, प्रेम में भी वही हैं, राग में भी वही हैं, सब में भी वही हैं। इसलिए वह कहेंगे, अगर लौटना है तो मजे से लौट आएंगे। उसमें कोई तकलीफ नहीं है। इधर कोई बेचैनी, कोई कठिनाई नहीं होती। आना-जाना हो सकता है। इसमें बाधा नहीं है। इसलिए वह कह सकते हैं। उनका शून्य जीवंत है।
लेकिन अनुभूति में कोई फर्क नहीं पड़ेगा। चाहे महावीर और बुद्ध का शून्य आपको मिल जाए तो भी आप आनंद को उपलब्ध हो जाएंगे। चाहे कृष्ण का शून्य आपको मिल जाए तो भी आप आनंद को उपलब्ध हो जाएंगे। लेकिन महावीर और बुद्ध का आनंद जो है, वह विश्राम में ले जाएगा। कृष्ण का जो आनंद है, वह हो सकता है विराट सक्रियता में ले जाए। तो अगर हम ऐसा शब्द बना सकें, "एक्टिव वॉयड', सक्रिय शून्य, तो कृष्ण पर लागू होगा। अगर हम ऐसा कोई बना सकें, निष्क्रिय शून्य, "नॉनएक्टिव वॉयड', तो वह महावीर और बुद्ध पर लागू होगा। अनुभूति तो आनंद की ही होगी, लेकिन एक आनंद सृजनात्मक हो जाएगा और एक आनंद लीन हो जाएगा। वह फर्क है। एकाध सवाल और पूछ लें तो फिर हम बैठें

"बुद्ध पूर्णता अर्थात महाशून्यता के बाद भी तो चालीस-बयालीस साल जीते हैं?'

बुद्ध जीते हैं। महावीर भी चालीस साल जीते हैं, बुद्ध भी चालीस साल, बयालीस साल जीते हैं। लेकिन बुद्ध कहते हैं मरने के पहले कि वह जो निर्वाण मुझे हुआ था चालीस साल पहले, वह निर्वाण था, अब जो हो रहा है, वह महानिर्वाण है। पहले निर्वाण में बुद्ध ने वही शून्य पाया था जो हमें दिखाई पड़ता है। दूसरे महानिर्वाण में बुद्ध उस शून्य को पाते हैं जो हमें दिखाई नहीं पड़ता, जो कृष्ण को दिखाई पड़ सकता है। तो बुद्ध तीस-चालीस साल जीते हैं। उस जीने में भी परम शून्य नहीं हैं। उस जीने में भी एक छोटी-सी बाधा तो है ही। उस जीने में भी अभी कष्ट है। अभी होना चल रहा है। इसलिए बुद्ध अगर गांव-गांव जा भी रहे हैं, तो वह करुणावश जा रहे हैं, आनंदवश नहीं। अगर वह दूसरे को समझा रहे हैं तो करुणा के कारण, कि जो मुझे मिला है मैं आपको भी कह दूं कि शायद आपको मिल जाए। लेकिन कृष्ण अगर दूसरे को कुछ कह रहे हैं, तो आनंद के कारण, वह कोई करुणा के कारण नहीं। कृष्ण में करुणा को न खोज पाओगे तुम।
बुद्ध का व्यक्तित्व "कम्पैसन' है। चालीस साल करुणावश वह जा रहे हैं, आ रहे हैं, लेकिन, वह आखिरी क्षण की प्रतीक्षा है जब यह आना-जाना भी छूट जाएगा। इससे भी मुक्ति होगी। इसलिए बुद्ध कहते हैं, दो तरह के निर्वाण हैं। एक निर्वाण वह है, जो समाधि से मिलता है। और एक महानिर्वाण है, जब कि शरीर भी खो जाता है--मन ही नहीं खोता है, शरीर भी खोता है। वही परम निर्वाण है। परम शून्य उससे ही मिलेगा।
कृष्ण के लिए ऐसा नहीं है। कृष्ण के लिए निर्वाण और महानिर्वाण दो नहीं हैं, एक ही हैं।
...सवाल तो सुबह अब होंगे, इसलिए हवा आनंद ही देगी।


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