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गुरुवार, 5 फ़रवरी 2015

गीता--दर्शन--(भाग--6) प्रवचन--140

प्रेम का द्वार: भक्‍ति में प्रवेश(प्रवचनपहला)


अध्‍याय—12

(श्रीमद्भगवद्गली अथ द्वद्वशोऽध्याय)



      अर्जन उवाच:

एवं सततयुक्ता ये भक्तास्‍त्वां ययुंपासते।

ये चाप्यक्षरमक्तं तेषां के यीगीवत्तमा: ।।। 1।।



श्रॉभगवानवाच:



मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्‍ता उपासते।

श्रद्धया यरयौयेतास्ते मे युक्ततमा मता:।। 2।।



इस प्रकार भगवान के वचनों को सुनकर अर्जुन बोला है, कृष्ण, जो अनन्य प्रेमी भक्तजन हम पूर्वोक्त प्रकार से निरंतर आपके भजन व ध्यान में लगे हुए आप सगुणरूप परमेश्वर को अति श्रेष्ठ भाव से उपासते हैं और जो अविनाशी सच्चिदानंदघन निराकार को ही उपासते है, उन दोनों प्रकार के भक्तों में अति उत्तम योगवेत्ता कौन है?
इस प्रकार अर्जुन के पूछने पर श्रीकृष्ण भगवान बोले मेरे में मन को एकाग्र करके निरंतर मेरे भजन— ध्यान में लगे हुए जो भक्तजन अतिशय श्रेष्ठ श्रृद्धा  से युक्‍त हुए मुझ सगुणरूप परमेश्वर को भजते है, वे मेरे को योगियों में भी अति उत्तम योगी मान्य हैं अर्थात उनको मैं अति श्रेष्ठ मानता हूं।



 क अतर्क्य यात्रा पर इस अध्याय का प्रारंभ होता है। एक तो जगत है, जो मनुष्य की बुद्धि समझ पाती है; सरल है। गणित और तर्क वहां काम करता है। समझ में आ सके, समझ के नियमों के अनुकूल, समझ की व्यवस्था में बैठ सके, विवाद किया जा सके, निष्कर्ष निकाले जा सकें—ऐसा एक जगत है। और एक ऐसा जगत भी है, जो तर्क के नियमों को तोड़ देता है। बुद्धि वहां जाने की कोशिश करे, तो द्वार बंद पाती है। वहा हृदय ही प्रवेश कर सकता है। वहां अंधा होना ही आख वाला होना है, और वहां मूढ़ होना बुद्धिमत्ता है।

ऐसे अतर्क्य के आयाम में भक्ति—योग के साथ प्रवेश होगा। बहुत सोचना पड़ेगा; क्योंकि जो सोचने की पकड़ में न आ सके, उसके लिए बड़ी चेष्टा करनी पड़ेगी। जो समझ के बाहर हो, उसे समझने के लिए स्वयं को पूरा ही दांव पर लगा देना होगा। और ऐसा साहस भी रखना होगा कि जहां हम चुक जाते हैं, जरूरी नहीं कि सत्य चुक जाता हो। और जहां हमारी सीमा आ जाती है, जरूरी नहीं है कि अस्तित्व की सीमा आ जाती हो।

अपने से भी आगे जाने का साहस हो, तो ही भक्ति समझ में आ सकती है। जो अपने को ही पकड़कर बैठ जाते हैं, भक्ति उनके समझ में नहीं आ सकेगी। जो अपनी बुद्धि को ही अंतिम मापदंड मान लेते हैं, उनके मापदंड में भक्ति का सत्य नहीं बैठ सकेगा। इस बात को पहले समझ लें। कुछ जरूरी बातें इस बात को समझने के लिए खयाल में लेनी होंगी।

एक तो जो हमें तर्क जैसा मालूम पड़ता है और उचित लगता है, सब भाति बुद्धि को भाता है, जरूरी नहीं है कि बहुत गहरी खोज पर सही ही सिद्ध हो।

जो हम जानते हैं, अगर वहा तक सत्य होता, तो हमें मिल गया होता। जो हमारी समझ है, अगर वहीं परमात्मा की अनुभूति होने वाली होती, तो हमें हो गई होती। जो हम हैं, वैसे ही अगर हम उस परम रहस्य में प्रवेश कर पाते, तो हम प्रवेश कर ही गए होते। एक बात तो साफ है कि जैसे हम हैं, उससे परम सत्य का कोई संबंध नहीं जुड़ता है। हमारी बुद्धि जैसी अभी है, आज है, उसका जो ढांचा और व्यवस्था है, शायद उसके कारण ही जीवन का रहस्य खुल नहीं पाता; द्वार बंद रह जाते हैं।

कभी आपने देखा हो. सूफी निरंतर कहते रहे हैं..। सूफी फकीर बायजीद बार—बार कहता था कि एक बार एक मस्जिद में बैठा हुआ था। और एक पक्षी खिड़की से भीतर घुस आया। बंद कमरा था, सिर्फ एक खिड़की ही खुली थी। पक्षी ने बड़ी कोशिश की, दीवालों से टकराया, बंद दरवाजों से टकराया, छप्पर से टकराया। और जितना टकराया, उतना ही घबड़ा गया। जितना घबड़ा गया, उतनी बेचैनी से बाहर निकलने की कोशिश की।

बायजीद बैठा ध्यान करता था। बायजीद बहुत चकित हुआ। सिर्फ उस खिड़की को छोड़कर पक्षी ने सारी कोशिश की, जो खिड़की खुली थी और जिससे वह भीतर आया था!

बायजीद बहुत चिंतित हुआ कि इस पक्षी को कोई कैसे समझाए कि जब तू भीतर आ गया है, तो बाहर जाने का मार्ग भी निश्चित ही है। क्योंकि जो मार्ग भीतर ले आता है, वही बाहर भी ले जाता है। सिर्फ दिशा बदल जाती है, द्वार तो वही होता है। और जब पक्षी भीतर आ सका है, तो बाहर भी जा ही सकेगा। अन्यथा भीतर आने का भी कोई उपाय न होता।

लेकिन वह पक्षी सब तरफ टकराता है, खुली खिड़की छोड़कर। ऐसा नहीं कि उस पक्षी को बुद्धि न थी। उस पक्षी को भी बुद्धि रही होगी। लेकिन पक्षी का भी यही खयाल रहा होगा कि जिस खिड़की से भीतर आकर मैं फंस गया, उस खिड़की से बाहर कैसे निकल सकता हूं! जो भीतर लाकर मुझे फंसा दी, वह बाहर ले जाने का द्वार कैसे हो सकती है! यही तर्क उसका रहा होगा। जिससे हम झंझट में पड़ गए, उससे हम झंझट के बाहर कैसे निकलेंगे! इसलिए उस खिड़की को छोड़कर पक्षी ने सारी कोशिश की।

बायजीद ने सहायता भी पहुंचानी चाही। लेकिन जितनी सहायता करने की कोशिश की, पक्षी उतना बेचैन और परेशान हुआ। उसे लगा कि बायजीद भी उसको उलझाने की, फांसने की, गुलाम बनाने की, बंदी बनाने की कोशिश कर रहा है। और भी घबड़ा गया।

बायजीद ने लिखा है कि उस दिन मुझे समझ में आया कि संसार में आकर हम भी ऐसे ही उलझ गए हैं; और जिस द्वार से हमने भीतर प्रवेश किया है, उस द्वार को छोड़कर हम सब द्वारों की खोज करते हैं। और जब तक हम उसी द्वार पर नहीं पहुंच जाते, जहां से हम जीवन में प्रवेश करते हैं, तब तक हम बाहर भी नहीं निकल सकते हैं।

बुद्धि के कारण आप जगत में नहीं उलझ गए हैं। विचार के कारण आप जगत में नहीं उलझ गए हैं। आपके जगत में आगमन का द्वार प्रेम है। आपके अस्तित्व का, जीवन का द्वार प्रेम है। और प्रेम जब उलटा हो जाता है, तो भक्ति बन जाती है। जब प्रेम की दिशा बदल जाती है, तो भक्ति बन जाती है।

जब तक आप अपनी आंखों के आगे जो है उसे देख रहे हैं, जब तक उससे आपका मोह है, लगाव है, तब तक आप संसार में उतरते चले जाते हैं। और जब आप आख बंद कर लेते हैं और जो आख के आगे दिखाई पड़ता है वह नहीं, बल्कि आख के पीछे जो छिपा है, उस पर लगाव और प्रेम को जोड़ देते हैं, तो भक्ति बन जाती है। द्वार वही है। द्वार दूसरा हो भी नहीं सकता।

जिससे हम भीतर आते हैं, उससे ही हमें बाहर जाना होगा। जिस रास्ते से आप यहां तक आए हैं, घर लौटते वक्त भी उसी रास्ते से जाइएगा। सिर्फ एक ही फर्क होगा कि यहां आते समय आपका ध्यान इस तरफ था, आंखें इस तरफ थीं, रुख इस तरफ था। लौटते वक्त इस तरफ पीठ होगी। आंखें वही होंगी, सिर्फ दिशा बदल जाएगी। आप वही होंगे, रास्ता वही होगा; सिर्फ दिशा बदल जाएगी।

प्रेम की दिशा के परिवर्तन का नाम भक्ति है। और प्रेम से हम इस जगत में प्रवेश करते हैं। प्रेम से ही हम इस जगत के बाहर जा सकते हैं। लेकिन प्रेम के कुछ लक्षण समझ लेने जरूरी हैं।

प्रेम का पहला लक्षण तो है उसका अंधापन। और जो भी प्रेम में नहीं होता, वह प्रेमी को अंधा और पागल मानता है। मानेगा। क्योंकि प्रेमी सोच—विचार नहीं करता, तर्क नहीं करता, हिसाब नहीं लगाता; क्या होगा परिणाम, इसकी चिंता नहीं करता। बस, छलांग लगा लेता है। जैसे प्रेम इतनी बड़ी घटना है कि उसमें डूब जाता है, और एक हो जाता है।

वे, जो भी आस—पास खड़े लोग हैं, वे सोचेंगे कि कुछ गलती हो रही है। प्रेम में भी विचार होना चाहिए। प्रेम में भी सूझ—बूझ होनी चाहिए। कहीं कोई गलत कदम न उठ जाए, इसकी पूर्व—धारणा होनी चाहिए।

प्रेम अंधा दिखाई पड़ेगा बुद्धिमानों को। लेकिन प्रेम की अपनी ही आंखें हैं। और जिसको वे आंखें उपलब्ध हो जाती हैं, वह बुद्धि की आंखों को अंधा मानने लगता है। जिसको प्रेम का रस आ जाता है, उसके लिए सारा तर्कशास्त्र व्यर्थ हो जाता है। और जो प्रेम की धुन में नाच उठता है, जो उस संगीत को अनुभव कर लेता है, वह आपके सारे सोच—विचार को दो कौड़ी की तरह छोड़ दे सकता है। उसके हाथ में कोई हीरा लग गया। अब इस हीरे के लिए आपकी कौड़ियों को नहीं सम्हाला जा सकता।

प्रेम अंधा मालूम पड़ता है। क्योंकि प्रेम के पास वे ही आंखें नहीं हैं, जो बुद्धि के पास हैं। प्रेम के पास कोई दूसरी आंखें हैं। प्रेम के देखने का ढंग कोई और है। प्रेम हृदय से देखता है। और चूंकि हम इस जगत में प्रेम के कारण ही प्रविष्ट होते हैं। अपने प्रेम के कारण, दूसरों के प्रेम के कारण हम इस जगत में आते हैं। हमारा शरीर निर्मित होता है। हम अस्तित्ववान होते हैं। इसी प्रेम को उलटाना पड़ेगा। इसी अंधे प्रेम का नाम, जब यह जगत की तरफ से हटता है और भीतर चैतन्य की तरफ मुड़ता है, श्रद्धा है। श्रद्धा अंधा प्रेम है, लेकिन मूल—स्रोत की तरफ लौट गया। संसार की तरफ बहता हुआ वही प्रेम वासना बन जाता है। परमात्मा की तरफ लौटता हुआ वही प्रेम श्रद्धा और भक्ति बन जाती है।

जैसा प्रेम अंधा है, वैसी भक्ति भी अंधी है। इसलिए जो बहुत बुद्धिमान हैं, उनके लिए भक्ति का मार्ग, मार्ग ही मालूम नहीं पड़ेगा। जो बहुत सोच—विचार करते हैं, जो बहुत तर्क करते हैं, जो परमात्मा के पास भी बुद्धिमानीपूर्वक पहुंचना चाहते हैं, उनके लिए भक्ति का मार्ग नहीं है।

उनके लिए मार्ग हैं। लेकिन कृष्ण इस सूत्र में कहेंगे कि भक्ति से श्रेष्ठ उन मार्गों में कोई भी मार्ग नहीं है। किस कारण? क्योंकि बुद्धि कितना ही सोचे, अहंकार के पार जाना बहुत मुश्किल है। प्रेम छलांग लगाकर अहंकार के बाहर हो जाता है। बुद्धि लाख प्रयत्न करके भी अहंकार के बाहर नहीं हो पाती। क्योंकि जब मैं सोचता हूं तो मैं तो बना ही रहता हूं। जब मैं हिसाब लगाता हूं तो मैं तो बना ही रहता हूं। मैं कुछ भी करूं—पूजा करूं, ध्यान करूं, योग साधू—लेकिन मैं तो बना ही रहता हूं।

भक्ति पहले ही क्षण में मैं को पार कर जाती है। क्योंकि भक्ति का अर्थ है, समर्पण। भक्ति का अर्थ है कि अब मैं नहीं, तू ज्यादा महत्वपूर्ण है। और अब मैं मैं को छोडूंगा, मिटाऊंगा, ताकि तुझे पा सकूं। यह मेरा मिटना ही तेरे पाने का रास्ता बनेगा। और जब तक मैं हूं तब तक तुझसे दूरी बनी रहेगी। जितना मजबूत हूं मैं, उतनी ही दूरी है, उतना ही फासला है। जितना पिघलूंगा, जितना गलूंगा, जितना मिटूंगा, उतनी ही दूरी मिंट जाएगी।

भक्ति को कृष्ण श्रेष्ठतम योग कहते हैं, एक कारण और है जिस वजह से।

जहां दो हों, और फिर भी एक का अनुभव हो जाए, तो ही योग है। और जहां एक ही हो, और एक का अनुभव हो, तो योग का कोई सवाल नहीं है।

अगर कोई ऐसा समझता हो कि केवल परमात्मा ही है और कुछ भी नहीं, तो योग का कोई सवाल नहीं है, मिलन का कोई सवाल नहीं है। जब एक ही है, तो न मिलने वाला है, न कोई और है, जिसमें मिलना है। मिलने की घटना तो तभी घट सकती है, जब दो हों।

एक शर्त खयाल रखनी जरूरी है। दो हों, और फिर भी दो के बीच एक का अनुभव हो जाए, तभी मिलने की घटना घटती है। मिलन बड़ी आश्चर्यजनक घटना है। दो होते हैं, और फिर भी दो नहीं होते। दो लगते हैं, फिर भी दुई मिट गई होती है। दो छोर मालूम पड़ते हैं, फिर भी बीच में एक का ही प्रवाह अनुभव होता है। दो किनारे होते हैं, लेकिन सरिता बीच में बहने वाली एक ही होती है। जब दो के बीच एक का अनुभव हो जाए तो योग।

इसलिए कृष्ण भक्ति को सर्वश्रेष्ठ योग कहते हैं।

मजा ही क्या है, अगर एक ही हो; तो मिलने का कोई अर्थ भी नहीं है। और अगर दो हों, और दो ही बने रहें, तो मिलने का कोई उपाय नहीं है। दो हों और एक की प्रतीति हो जाए; दो होना ऊपरी रह जाए, एक होना भीतरी अनुभव बन जाए। दो के बीच जब एक की प्रतीति होती है, कृष्ण उसी को योग कहते हैं। वही मिलन है, वही परम समाधि है।

इस मिलने में परमात्मा तो पहले से ही तैयार है, सदा तैयार है। हम बाधा हैं। आमतौर से हम सोचते हैं, हम परमात्मा को खोज रहे हैं और परमात्मा नहीं मिल रहा है। इससे बडी भ्रांति की कोई और बात नहीं हो सकती। सचाई कुछ और ही है। परमात्मा हमें निरंतर से खोज रहा है। लेकिन हम ऐसे अड़े हुए हैं अपने पर कि हम उसको भी सफल नहीं होने देते।

सुना है मैंने, एक सम्राट अपने बेटे पर नाराज हो गया था, तो उसने उसे घर से निकाल दिया। फिर बाप था; साल, छ: महीने में पिघल गया वापस। खबर भेजी लड़के को कि लौट आओ। लेकिन लड़का भी जिद्दी था, और उसने लौटने से इनकार कर दिया कि जब एक बार निकाल ही दिया, तो अब अब आना उचित नहीं है। अब मैं न हिलूंगा यहां से। वह राज्य की सीमा के बाहर जाकर बैठ गया था।

सम्राट ने मंत्री को भेजा और कहा, थोड़ा तो हिलो, एक कदम ही सही। तुम एक कदम चलो, बाकी कदम मैं चल लूंगा। बाप ने खबर भेजी है कि तुम एक कदम ही चलो, तो भी ठीक, बाकी कदम मैं चल लूंगा। लेकिन तुम्हारा एक कदम चलना जरूरी है। ऐसे तो मैं भी पूरा चलकर आ सकता हूं। जब इतने कदम चल सकता हूं तो एक कदम और चल लूंगा। लेकिन वह मेरा आना व्यर्थ होगा, क्योंकि तुम मिलने को तैयार ही नहीं हो। तुम्हारा एक कदम, तुम्हारी मिलने की तैयारी की खबर देगा। बाकी मैं चल लूंगा।

आपका एक कदम चलना ही जरूरी है, बाकी तो परमात्मा चला ही हुआ है। लेकिन आपकी मिलने की तैयारी न हो, तो आप पर आक्रमण नही किया जा सकता।

परमात्मा अनाक्रमक है; वह प्रतीक्षा करेगा। फिर उसे कोई समय की जल्दी भी नहीं है। फिर आज ही हो जाए, ऐसा भी नहीं है। अनंत तक प्रतीक्षा की जा सकती है। समय की कमी हमें है, उसे नहीं। समय की अड़चन हमें है। हमारा समय चुक रहा है, और हमारी शक्ति व्यय हो रही है। लेकिन एक कदम हमारी तरफ से उठाया जाए, तो परमात्मा की तरफ से सारे कदम उठाए ही हुए हैं।

वह एक कदम भक्ति एक ही छलांग में उठा लेती है। और ज्ञान को उस एक कदम को उठाने के लिए हजारों कदम उठाने पड़ते हैं। क्योंकि ज्ञान कितने ही कदम उठाए, अंत में उसे वह कदम तो उठाना ही पड़ता है, जो भक्ति पहले ही कदम पर उठाती है। और वह है, अहंकार विसर्जन।

ज्ञानी कोई कितना ही बड़ा हो जाए, एक दिन उसे ज्ञानी होने की अस्मिता भी छोड़नी पड़ती है। इसलिए साक्रेटीज ने कहा है कि ज्ञान का अंतिम चरण है इस बात का अनुभव कि मैं ज्ञानी नहीं हूं। ज्ञान की पूर्णता है इस प्रतीति में कि मुझसे बड़ा अज्ञानी और कोई भी नहीं है।

अगर ज्ञान की पूर्णता इस प्रतीति में है कि मैं अज्ञानी हूं? तो इसका अर्थ क्या हुआ? इसका अर्थ हुआ कि भक्त जो कदम पहले ही उठा लेता है...। भक्त पहले ही कदम पर अंधा हो जाता है, ज्ञानी अंतिम कदम पर अंधा होता है। बहुत यात्रा करके उसी द्वार पर आना होता है, जहां आदमी अपने को खोता है।

पर शानी बहुत चक्कर लेता है! बड़े शास्त्र हैं, बड़े सिद्धात हैं, बड़े वाद हैं, उन सबमें भटकता है। बड़े विचार हैं। और जब तक ऊब नहीं जाता, और जब तक अपने ही विचारों से परेशान नहीं हो जाता, और जब तक उसे यह समझ में नहीं आ जाता कि मेरे विचार ही जाले की तरह मुझे बांधे हुए हैं, और मेरे विचार ही मेरी हथकड़ियां हैं, और मैंने अपने ही विचारों से अपना कारागृह निर्मित किया है, तब तक, तब तक वह लंबी भटकन से गुजरता है।

भक्त पहले ही कदम में अपने को छोड़ देता है। और जिस क्षण कोई अपने को छोड़ देता है, उसी क्षण परमात्मा उसे उठा लेता है। भक्त का साहस अदभुत है। साहस का एक ही अर्थ होता है, अशात में उतर जाना। साहस का एक ही अर्थ होता है, अनजान में उतर जाना।

ज्ञानी जान—जानकर चलता है; सोच—सोचकर कदम उठाता है। हिसाब रखता है। भक्त पागल की तरह कूद जाता है। इसलिए ज्ञानियों को भक्त सदा पागल मालूम पड़े हैं। और उन भक्त पागलों ने हमेशा ज्ञानियों को व्यर्थ के उपद्रव में पड़ा हुआ समझा है।

ये जो भक्ति के सूत्र इस अध्याय में हम चर्चा करेंगे, इनमें ये बातें ध्यान रख लेनी जरूरी हैं।

ये प्रेम और पागलपन के सूत्र हैं। इनमें थोड़ा—सा आपको पिघलना पड़ेगा अपनी बुद्धि की जगह से। थोडा आपका हृदय गतिमान हो और थोड़ी हृदय में तरंगें उठें, तो इन सूत्रों से संबंध स्थापित हो जाएगा। आपके सिरों की बहुत जरूरत नहीं पड़ेगी, आपके हृदय की जरूरत होगी। आप अगर थोड़े—से नीचे सरक आएंगे, अपनी खोपड़ी से थोड़े हृदय की तरफ; सोच—विचार नहीं, थोड़े हृदय की धड़कन की तरफ निकट आ जाएंगे, तो इन सूत्रों से आपका संबंध और संवाद हो पाएगा।

और ऐसा नहीं है कि एक बार आपका हृदय समझ जाए, तो आपकी बुद्धि की कसौटी पर ये सूत्र नहीं उतरेंगे। उतरेंगे! लेकिन एक बार हृदय समझ जाए, एक बार आपके हृदय में इनके रस की थोड़ी—सी धारा बह जाए तो फिर बुद्धि की भी समझ में आ जाएंगे। लेकिन सीधा अगर बुद्धि से प्रयोग करने की कोशिश की, तो बुद्धि बाधा बन जाएगी।

जैसा मैंने कहा, बहुत बार लगता है कि बुद्धि बिलकुल ठीक कह रही है। चूंइक हमें ठीक का कोई पता नहीं है, जो बुद्धि कहती है, उसी को हम ठीक मानते हैं।

सुना है मैंने, एक बहुत बड़ा तर्कशास्त्री रात सोया हुआ था। उसकी पत्नी ने उसे उठाया और कहा कि जरा उठो। बाहर बहुत सर्दी है और मैं गली जा रही हूं। खिड़की बंद कर दो। उसकी पत्नी ने कहा, देअर इज टू मच कोल्ड आउटसाइड। गेट अप एंड क्लोज दि विंडो। उस तर्कशास्त्री ने कहा कि तू भी अजीब बातें कर रही है! क्या मैं खिड़की बंद कर दूं तो बाहर गरमी हो जाएगी? इफ आई क्लोज दि विंडो, विल आउटसाइड गेट वार्म? क्या बाहर सर्दी चली जाएगी अगर मैं खिडकी बंद कर दूं?

तर्क की लिहाज से बिलकुल ठीक बात है। उसकी पत्नी कह रही थी कि बाहर बहुत सर्दी है, खिड़की बंद कर दो। उस तर्कशास्त्री ने कहा, क्या खिड़की बंद करने से बाहर गरमी हो जाएगी? खिड़की बंद करने से बाहर गरमी नहीं होने वाली। और पति सो गया! तर्क की किताब में भूल खोजनी मुश्किल है। क्योंकि पत्नी ने जो कहा था, उसका जवाब दे दिया गया।

हमारी जिंदगी में हम अज्ञात के संबंध में जो तर्क उठाते हैं, वे करीब—करीब ऐसे ही होते हैं। उनके जवाब दिए जा सकते हैं। और फिर भी जवाब व्यर्थ होते हैं। क्योंकि जिस संबंध में हम जवाब दे रहे हैं, उस संबंध में तर्कयुक्त हो जाना काफी नहीं है।

और तर्क की और एक असुविधा है कि तर्क कुछ भी सिद्ध कर सकता है। और तर्क कुछ भी असिद्ध कर सकता है। तर्क वेश्या की भांति है। उसका कोई पति नहीं है। तर्क का कोई भी पति हो सकता है। जो भी तर्क को चुकाने को तैयार है पैसे, वही पति हो जाता है। इसलिए तर्क कोई भरोसे की नाव नहीं है।

आज तक दुनिया में ऐसा कोई तर्क नहीं दिया जा सका, जिसका खंडन न किया जा सके। और मजा यह है कि जो तर्क एक बात को सिद्ध करता है, वही तर्क उसी बात को असिद्ध भी कर सकता है।

मैंने सुना है, एक बड़ा तर्कशास्त्री सुबह अपने बगीचे में बैठकर नाश्ता कर रहा था। और जैसा कि अक्सर होता है, तर्कशास्त्री निराशावादी होता है। क्योंकि तर्क से कोई आशा की किरण तो निकलती नहीं। आशा की किरण तो निकलती है प्रेम से, जो अतर्क्य है। तर्क से तो केवल उदासी निकलती है। जिंदगी में क्या—क्या व्यर्थ है, वही दिखाई पड़ता है; और कहां—कहां काटे हैं, वही अनुभव में आते हैं। फूलों को समझने के लिए तो हृदय चाहिए। कीटों को समझने के लिए बुद्धि काफी है, पर्याप्त है।

तर्कशास्त्री निराशावादी था। वह चाय पी रहा था और अपने टोस्ट पर मक्खन लगा रहा था। तभी वह बोला कि दुनिया में इतना दुख है और दुनिया में सब चीजें गलत हैं कि अगर मेरे हाथ से यह रोटी का टुकड़ा छूट जाए, तो मैं कितनी ही शर्त बद सकता हूं अगर यह रोटी का टुकड़ा मेरे हाथ से छूटे, तो दुनिया इतनी बदतर है कि जिस तरफ मैंने मक्खन लगाया है, उसी तरफ से यह जमीन पर गिरेगा, ताकि धूल लग जाए और नष्ट हो जाए!

उसकी पत्नी ने कहा, ऐसा अनिवार्य नहीं है। दूसरी तरफ भी गिर सकता है! तो उस तर्कशास्त्री ने कहा, फिर तुझे पता नहीं कि जो संसार के ज्ञानी कहते रहे कि संसार दुख है।

बात बढ़ गई और शर्त भी लग गई। तर्कशास्त्री ने उछाला रोटी का टुकड़ा। संयोग की बात, मक्खन की तरफ से नीचे नहीं गिरा। मक्‍खन की तरफ ऊपर रही, और जिस तरफ मक्खन नहीं था, उस तरफ से फर्श पर गिरा। पत्नी ने कहा कि देखो, मैं शर्त जीत गई! तर्कशास्त्री ने कहा, न तो तू शर्त जीती और न मेरी बात गलत हुई। सिर्फ इससे इतना ही सिद्ध होता है कि मैंने गलत तरफ मक्खन लगाया! टुकड़ा तो वहीं गिरा है जैसा गिरना चाहिए था, सिर्फ मक्खन मैंने दूसरी तरफ लगा दिया।

तर्क का कोई भरोसा नहीं है। पर हम तर्क से जीत हैं और हम पूरी जिंदगी को तर्क के जाल से बुन लेते हैं। उसके बीच लगता है, हम बहुत बुद्धिमान हैं। और अक्सर उसी बुद्धिमानी में हम जीवन का वह सब खो देते हैं, जो हमें मिल सकता था।

भक्ति, तर्क के लिए अगम्य है; विचार के लिए सीमा के बाहर है। होशियारों का वहां काम नहीं। वहा नासमझ प्रवेश कर जाते हैं। तो नासमझ होने की थोड़ी तैयारी रखना।

अब हम इन सूत्रों को लें।

इस प्रकार भगवान के वचनों को सुनकर अर्जुन बोला, हे कृष्ण, गा —भनन्य प्रेमी, भक्तजन इस पूर्वोक्त प्रकार से निरंतर आपके भजन व ध्यान में लगे हुए आप सगुणरूप परमेश्वर को अति श्रेष्ठ भाव से उपासते हैं और जो अविनाशी सच्चिदानंदघन निराकार को ही उपासते हैं, उन दोनों प्रकार के भक्तों में अति उत्तम योगवेत्ता कौन है?

अर्जुन ने पूछा, दो तरह के लोग देखता हूं दो तरह के साधक, दो तरह के खोजी। एक वे, जो देखते हैं कि आप निराकार हैं; आपका कोई रूप नहीं, कोई गुण नहीं, कोई सीमा नहीं, कोई आकृति नहीं। आपका कोई अवतार नहीं। आपको न देखा जा सकता, न छुआ जा सकता। वे, जो मानते हैं कि आप अदृश्य, विराट, असीम, निर्गुण, शक्तिरूप हैं, शक्ति मात्र हैं। ऐसे साधक,— ऐसे योगी हैं। और वे भी हैं, जो आपको अनन्य प्रेम से भजते हैं, ध्यान करते हैं आपके सगुण रूप का, आपके आकार का, आपके अवतरण का। इन दोनों में कौन श्रेष्ठ है?

अर्जुन यह पूछना चाह रहा है कि मैं किस राह से चलूं? मैं खुद कौन—सी राह पकडूं? मैं आपको निराकार की तरफ से स्पर्श करूं कि साकार की तरफ से? मैं आपके प्रेम में पड़ जाऊं और दीवाना हो जाऊं, पागल हो जाऊं? या विचारपूर्वक आपके निराकार का ध्यान करूं? मैं भक्ति में पडुं प्रार्थना—पूजा में, प्रेम में; या ध्यान में, मौन में, निर्विचार में?

क्योंकि जो निराकार की तरफ जाए, उसे निर्विचार से चलना पड़ेगा। सब विचार आकार वाले हैं। और जहां तक विचार रह जाता है, वहा तक आकार भी रह जाएंगे। सभी विचार सगुण हैं। इसलिए विचार से निर्गुण तक नहीं पहुंचा जा सकता। तो सारे विचार छोड़ दूं। खुद भी शून्य हो जाऊं भीतर, ताकि आपके शून्यरूप का अनुभव हो सके।

और ध्यान रहे, जो भी अनुभव करना हो, वैसे ही हो जाना पड़ता है। समान को ही समान का अनुभव होता है। जब तक मैं शून्य न हो जाऊं, तब तक निराकार का कोई अनुभव न होगा। और जब तक मैं प्रेम ही न हो जाऊं, तब तक साकार का कोई अनुभव न होगा। जो भी मुझे अनुभव करना है, वैसा ही मुझे बन जाना होगा।

इसलिए बुद्ध अगर कहते हैं, कोई ईश्वर नहीं है, तो उसका कारण है। क्योंकि बुद्ध का जोर है कि तुम शून्य हो जाओ। ईश्वर की धारणा भी बाधा बनेगी। अगर तुम यह भी सोचोगे कि कोई ईश्वर है, तो यह भी विचार हो जाएगा। और यह भी तुम्हारे मन के आकाश को घेर लेगा एक बादल की भांति। तुम इससे आच्छादित हो जाओगे। इतनी भी जगह मत रखो। तुम सीधे खाली आकाश हो जाओ, जहां कोई विचार का बादल न रह जाए परमात्मा के विचार का भी नहीं।

बुद्ध कहते हैं, कोई मोक्ष नहीं है। क्योंकि मोक्ष की धारणा भी तुम्हारे मन में रह जाएगी, वह भी कामना बनेगी, इच्छा बनेगी, वह भी तुम्हारे मन को आच्छादित कर लेगी। तुम बिलकुल खाली, शून्य हो जाओ। तुम कोई धारणा, कोई विचार मत बनाओ।

इसलिए बुद्ध ईश्वर को, मोक्ष को, आत्मा तक को इनकार कर देते हैं। इसलिए नहीं कि ईश्वर नहीं है; इसलिए नहीं कि आत्मा नहीं है, इसलिए भी नहीं कि मोक्ष नहीं है। बल्कि इसीलिए ताकि तुम शून्य हो सको। और जिस दिन तुम शून्य हो जाओगे, तुमने जो पूछा था कि मोक्ष है या नहीं, पूछा था कि ईश्वर है या नहीं, वह तुम जान ही लोगे। इसलिए उसकी कोई चर्चा करनी बुद्ध ने जरूरी नहीं समझी।

इस कारण बुद्ध को लोगों ने समझा नास्तिक। असल में जो निराकार को मानता है, वह नास्तिक मालूम पड़ेगा ही। क्योंकि सभी आकार इनकार करने हैं। सभी आकार तोड डालने हैं। सारी मूर्तियां सारी प्रतिमाएं चित्त से हटा देनी हैं। सारे मंदिर, मस्जिद विदा कर देने हैं। कुछ भीतर न बचे। भीतर खालीपन रह जाए। उस खालीपन में ही निराकार का संस्पर्श होगा। क्योंकि जो मैं हो जाऊं, उसी को मैं जान सकूंगा। बुद्ध इनकार कर देते हैं, ताकि आप शून्य हो सकें। अर्जुन पूछता है, ऐसे लोग हैं, ऐसे साधक, खोजी हैं, सिद्ध हैं, क्या वे उत्तम हैं? या वे लोग जो प्रेम से, अनन्य भक्ति से आपको खोजते हैं?

प्रेम की पकड़ बिलकुल दूसरी है। निर्विचार होना है, तो खाली होना पड़े। निराकार की तरफ जाना है, तो खाली होना पड़े, बिलकुल खाली। और अगर भक्ति से जाना है, तो भर जाना पड़े—पूरा। उलटा है! जो भी भीतर है, खाली कर दो, ताकि शून्य रह जाए, और शून्य में संस्पर्श हो सके निराकार का।

भक्ति का मार्ग है उलटा। भक्ति कहती है, भर जाओ पूरे उसी से, परमात्मा से ही। वही तुम्हारे हृदय में धड़कने लगे; वही तुम्हारी श्वासों में हो; वही तुम्हारे विचारों में हो। निकालो कुछ भी मत, सभी को उसी में रूपांतरित कर दो। तुम्हारा खून भी वही हो। तुम्हारी हड्डी और मांस—मज्जा भी वही हो। तुम्हारे भीतर रोआं—रोआं उसी का हो जाए। तुम उसी में सास लो। उसी में भोजन करो। उसी में उठो, उसी में बैठो। तुम में तुम जैसा कुछ भी न बचे। तुम उसी के रंग—रूप में हो जाओ। तुम उससे इतने भर जाओ कि तुम्हारे भीतर रत्तीभर जगह खाली न बचे।

ध्यान रखें, निराकार का साधक कहता है, तुम्हारे भीतर रत्तीभर जगह भरी न रहे; सब खाली हो जाए। जिस दिन तुम पूरे खाली हो जाओगे, उस दिन वह घटना घट जाएगी, जिसकी तलाश है।

भक्ति का मार्ग कहता है, तुम्हारे भीतर जरा—सी भी जगह खाली न बचे। तुम इतने भर जाओ कि वही रह जाए तुम न बचो। क्योंकि वह जो खाली जगह है; उसी में तुम बच सकते हो। वह जो खाली जगह है, उसी में तुम छिप सकते हो। तो तुम्हारे विचार, तुम्हारे भाव, तुम्हारी धड़कनें, सब उसी की हो जाएं। अनन्य भक्ति का अर्थ यह होता है। जैसे प्रेमी अपनी प्रेयसी से भर जाता है या प्रेयसी अपने प्रेमी से भर जाती है, उसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं बचता।

अगर आप प्रेम में हैं, तो यह सारा संसार खो जाता है, बस आपका प्रेमी बचता है। आप खाना भी खाते हैं, लेकिन खाते समय भी प्रेमी ही आपके भीतर होता है। आप रास्ते पर चलते भी हैं, बाजार में भी जाते हैं, दुकान पर भी बैठते हैं, काम भी करते हैं; सब होता रहता है; लेकिन भीतर चौबीस घंटे उसी की धुन बजती रहती है। प्रेमी मौजूद रहता है। उठने में, बैठने में, चलने में, सोते में, सपने में, वही छा जाता है। साधारण प्रेमी भी!

परमात्मा के प्रेम में पड़ना असाधारण प्रेम है। भक्त बचे ही न, इतना भर जाए।

अर्जुन पूछता है, ऐसे दो मार्ग हैं। बड़े उलटे मालूम पड़ते हैं। एक तरफ निराकार है और निर्विचार होना है। और एक तरफ साकार आप हैं; और सब भांति आपकी भक्ति से ही परिपूर्ण रूप से भर जाना है। घड़ा जरा भी खाली न रहे। कौन—सा मार्ग इनमें श्रेष्ठ है?

इस प्रश्न को पूछने में कई बातें छिपी हैं।

पहली बात, जरूरी नहीं है कि कृष्ण, अर्जुन के अलावा किसी और ने पूछा होता, तो यही उत्तर देते। पहला तो आप यह खयाल में ले लें। जरूरी नहीं है कि अर्जुन के अलावा किसी और ने पूछा होता, तो कृष्ण यही उत्तर देते। अगर बुद्ध जैसा व्यक्ति होता, तो कृष्ण यह कभी न कहते कि भक्ति का मार्ग ही श्रेष्ठ है। कृष्ण का उत्तर दूसरा होता।

अर्जुन सामने है। यह उत्तर वैयक्तिक है, ए पर्सनल कम्युनिकेशन। सामने खड़ा है अर्जुन। और जब कृष्ण उससे कहते हैं, तो इस उत्तर में अर्जुन समाविष्ट हो जाता है। इस कारण बड़ी अड़चन होती है। इस कारण गीता पर सैकड़ों टीकाएं लिखी गईं और बड़ा विवाद है कि कृष्ण ऐसा क्यों कहते हैं!

अगर शंकर लिखेंगे टीका, तो निश्चित ही उनको बड़ी अड़चन मालूम पड़ेगी कि भक्ति—योग श्रेष्ठ! बहुत मुश्किल होगा। फिर तोड़—मरोड़ होगी। फिर कृष्ण के मुंह में ऐसे शब्द डालने पड़ेंगे, जो उनका प्रयोजन भी न हो। इस तोड़—मरोड़ के करने की कोई भी जरूरत नहीं है।

मेरी दृष्टि ऐसी है कि जब भी दो व्यक्तियों के बीच कोई संवाद होता है, तो इसमें बोलने वाला ही महत्वपूर्ण नहीं होता, सुनने वाला भी उतना ही महत्वपूर्ण होता है। क्योंकि जिससे बात कही गई है, वह भी समाविष्ट है। जब कृष्ण कहते हैं कि भक्ति का मार्ग श्रेष्ठ है, तो पहली तो बात यह है कि अर्जुन के लिए भक्ति का मार्ग श्रेष्ठ है।

दूसरी बात यह जान लेनी चाहिए कि अर्जुन जैसे सभी लोगों के लिए भक्ति का मार्ग श्रेष्ठ है। और अर्जुन जैसे लोगों की संख्या बहुत बड़ी है। थोड़ी नहीं, सौ में निन्यानबे लोग ऐसे हैं, जिनके लिए भक्ति का मार्ग श्रेष्ठ है। क्योंकि निर्विचार होना अति दुरूह है। लेकिन प्रेम से भर जाना इतना दुरूह नहीं है। क्योंकि प्रेम एक नैसर्गिक उदभावना है। और निर्विचार होने के लिए तो आपको बहुत सोचना पड़ेगा कि क्यों निर्विचार हों! लेकिन प्रेम से भरने के लिए बहुत सोचना न होगा। प्रेम एक स्वाभाविक भूख है।

निर्विचार कौन होना चाहता है? शायद ही कोई आदमी मिले। लेकिन प्रेम से कौन नहीं भर जाना चाहता? शायद ही कोई आदमी मिले, जो प्रेम से न भर जाना चाहता हो!

जो आदमी प्रेम में जरा भी उत्सुक न हो, निराकार उसका रास्ता है। लेकिन आपकी अगर जरा—सी भी उत्सुकता प्रेम में हो, तो साकार आपका रास्ता है। क्योंकि जो आपके भीतर है, उसके ही रास्ते से चलना आसान है। और जो आपमें छिपा है, उसको ही रूपांतरित करना सुगम है। और जो आपके भीतर अभी मौजूद ही है, उसी को सीढ़ी बना लेना उचित है।

प्रेम की गहन भूख है। आदमी बिना भोजन के रह जाए, बिना प्रेम के रहना बहुत कठिन है। और जो लोग बिना प्रेम के रह जाते हैं, वे आदमी हो ही नहीं पाते।

अभी मनसविद बहुत खोज करते हैं। और मनसविद कहते हैं कि अब तक खयाल में भी नहीं था कि प्रेम के बिना आदमी जीवित न रह सकता है, न बढ़ सकता है, न हो सकता है।

जिन बच्चों को मां के पास न बड़ा किया जाए और बिलकुल प्रेमशून्य व्यवस्था में रखा जाए, वे बच्चे पनप नहीं पाते और शीघ्र ही मर जाते हैं। भोजन पूरा दिया जाए, चिकित्सा पूरी दी जाए, सिर्फ मां की ऊष्मा, वह जो मां की गरमी है प्रेम की, वह उनको न मिले। अगर उनको किसी और की गरमी और ऊष्मा और प्रेम दिया जाए, तो भी उनके भीतर कुछ कमी रह जाती है, जो जीवनभर उनका पीछा करती है।

मनसविद कहते हैं कि जब तक हम इस जमीन पर और बेहतर माताएं पैदा नहीं कर सकते, तब तक दुनिया को बेहतर नहीं किया जा सकता। और प्रेमपूर्ण माताएं जब तक हम पैदा नहीं करते, दुनिया में युद्ध बंद नहीं किए जा सकते, घृणा बंद नहीं की जा सकती, वैमनस्य बंद नहीं किया जा सकता। क्योंकि आदमी के भीतर कुछ मौलिक तत्व, प्रेम के न मिलने से, अविकसित रह जाता है। और वह जो अविकसित तत्व भीतर रह जाता है, वही जीवन का सारा उपद्रव है। घृणा, हिंसा, क्रोध, हत्या, विध्वंस, सब उस अविकसित तत्व से पैदा होते हैं।

अगर आपके भीतर प्रेम की एक सहज—स्वाभाविक भूख है—जो कि है। आप प्रेम चाहते भी हैं, और आप प्रेम करना भी चाहते हैं। कोई आपको प्रेम करे, इसकी भी गहन कामना है। क्योंकि जैसे ही कोई आपको प्रेम करता है, आपके जीवन में मूल्य पैदा हो जाता है। लगता है, आप मूल्यवान हैं। जगत आपको चाहता है। कम से कम एक व्यक्ति तो चाहता है। कम से कम एक व्यक्ति के लिए तो आप अपरिहार्य हैं। कम से कम कोई तो है, जो आपकी गैर—मौजूदगी अनुभव करेगा; आपके बिना जो अधूरा हो जाएगा। आप न होंगे, तो इस जगत में कहीं कुछ जगह खाली हो जाएगी, किसी हृदय में सही।

जैसे ही कोई आपको प्रेम करता है, आप मूल्यवान हो जाते हैं। अगर आपको कोई भी प्रेम नहीं करता, तो आपको कोई मूल्य नहीं मालूम पड़ता। आप कितने ही बड़े पद पर हों, और कितना ही धन इकट्ठा कर लें, और आपकी तिजोड़ी कितनी ही बड़ी होती जाए लेकिन आप समझेंगे कि आप निर्मूल्य हैं; आपका कोई मूल्य नहीं है। क्योंकि प्रेम के अतिरिक्त और कोई मूल्य का अनुभव होता ही नहीं।

लेकिन इतना ही काफी नहीं है कि कोई आपको प्रेम करे। इससे भी ज्यादा जरूरी है कि कोई आपका प्रेम ले। ठीक जैसे आप श्वास लेते हैं और छोड़ते हैं। सिर्फ आप श्वास लेते चले जाएं, तो मर जाएंगे। आपको श्वास छोड़नी भी पड़ेगी। श्वास लेनी भी पड़ेगी और श्वास छोड़नी भी पड़ेगी, तभी आप जिंदा और ताजे होंगे; और तभी आपकी श्वास नई और जीवंत होगी। प्रेम लेना भी पडेगा और

प्रेम देना भी पड़ेगा। सिर्फ जो आदमी प्रेम ले लेता है, वह भी मर जाता है। उसने सिर्फ श्वास ली, श्वास छोड़ी नहीं।

इस दुनिया में दो तरह के मुर्दे हैं, एक जो श्वास न लेने से मर गए हैं, एक जो श्वास न देने से मर गए हैं। और जिंदा आदमी वही है, जो श्वास लेता भी उतने ही आनंद से है, श्वास देता भी उतने ही आनंद से है; तो जीवित रह पाता है।

प्रेम एक गहरी श्वास है। और प्रेम के बिना भीतर का जो गहन छिपा हुआ प्राण है, वह जीवित नहीं होता। इसकी भूख है। इसलिए प्रेम के बिना आप असुविधा अनुभव करेंगे।

यह प्रेम की भूख अध्यात्म बन सकती है। अगर यह प्रेम की भूख मूल की तरफ लौटा दी जाए; अगर यह प्रेम की भूख पदार्थ की तरफ से परमात्मा की तरफ लौटा दी जाए; अगर यह प्रेम की भूख परिवर्तनशील जगत से शाश्वत की तरफ लौटा दी जाए, तो यह भक्ति बन जाती है।

इसलिए कृष्ण यह कहते हैं कि प्रेम का, भक्ति का मार्ग श्रेष्ठ है, तो उसके कारण हैं। एक तो अर्जुन से, और दूसरा सारी मनुष्य जाति से। क्योंकि ऐसा व्यक्ति खोजना मुश्किल है, अति मुश्किल है, जिसके लिए प्रेम का कोई भी मूल्य न हो।

जिसके लिए प्रेम का कोई भी मूल्य नहीं है, निर्विचार उसकी साधना होगी। वह अपने को शून्य कर सकता है। जिसका प्रेम मांग कर रहा है पुष्पित—पल्लवित होने की, बेहतर है कि वह भक्ति के द्वार से परमात्मा को, सत्य को खोजने निकले।

अर्जुन का यह पूछना अपने लिए ही है। लेकिन हम अक्सर अपने को बीच में नहीं रखते, पूछते समय भी। अर्जुन यह नहीं कह रहा है कि मेरे लिए कौन—सा मार्ग श्रेष्ठ है। अर्जुन कहता है, कौन—सा मार्ग श्रेष्ठ है। लेकिन उसकी गहन कामना अपने लिए ही है। क्योंकि हमारे सारे प्रश्न अपने लिए ही होते हैं।

आप जब भी कुछ पूछते हैं, तो आपका पूछना निवैंयक्तिक नहीं होता, हो भी नहीं सकता। भला आप प्रश्न को कितना ही निवैंयक्तिक बनाएं, आप उसके भीतर खड़े होते हैं; और आपका ' प्रश्न आपके संबंध में खबर देता है। आप जो भी पूछते हैं, उससे आपके संबंध में खबर मिलती है।

अर्जुन को यह सवाल उठा है कि कौन—सा है श्रेष्ठ मार्ग। यह सवाल इसीलिए उठा है कि किस मार्ग पर मैं चलूं? किस मार्ग से मैं प्रवेश करूं? कौन से मार्ग से मैं पहुंच सकूंगा? कृष्ण जो उत्तर दे रहे हैं, उसमें अर्जुन खयाल में है।

इस प्रकार अर्जुन के पूछने पर कृष्ण ने कहा, हे अर्जुन, मेरे में मन को एकाग्र करके निरंतर मेरे भजन व ध्यान में लगे हुए जो भक्तजन अति श्रेष्ठ श्रद्धा से युक्त हुए मुझ सगुणरूप परमेश्वर को भजते हैं, वे मेरे को योगियों में भी अति उत्तम योगी मान्य हैं अर्थात उनको मैं अति श्रेष्ठ मानता हूं।

मेरे में मन को एकाग्र करके निरंतर मेरे भजन व ध्यान में लगे हुए जो भक्तजन अति श्रेष्ठ श्रद्धा से युक्त हुए मुझ सगुणरूप परमेश्वर को भजते हैं..। इसमें बहुत—सी बातें समझ लेने जैसी हैं।

मुझमें मन को एकाग्र करके!

क्या आपने कभी खयाल किया कि एकाग्रता प्रेम की भूमि में सहज ही फलित हो जाती है! प्रेम की भूमि हो, तो एकाग्रता अपने आप अंकुरित हो जाती है। असल में आप अपने मन को एकाग्र इसीलिए नहीं कर पाते, क्योंकि जिस विषय पर आप एकाग्र करना चाहते हैं, उससे आपका कोई प्रेम नहीं है।

अगर एक विद्यार्थी मेरे पास आता है और कहता है, मैं पढ़ता हूं—डाक्टरी पढ़ता हूं इंजीनियरिंग पढ़ता हूं—लेकिन मेरा मन नहीं लगता, मन एकाग्र नहीं होता; तो मैं पहली बात यही पूछता हूं कि जो भी तू पढ़ता है, उससे तेरा प्रेम है? क्योंकि अगर प्रेम नहीं है, तो एकाग्रता असंभव है। और जहां प्रेम है, वहा एकाग्रता न हो, ऐसा असंभव है। वही युवक कहता है कि उपन्यास पढ़ता हूं तो मन एकाग्र हो जाता है। फिल्म देखता हूं तो मन एकाग्र हो जाता है। तो जहां प्रेम है, वहां एकाग्रता हो जाती है। जहां लगाव है, वहां एकाग्रता हो जाती है। जब भी आप पाएं कि किसी बात में आपकी एकाग्रता नहीं होती, तो एकाग्रता करने की कोशिश न करके इस बात को पहले समझने की कोशिश कर लेनी चाहिए कि मेरा प्रेम भी वहा है या नहीं है? प्रेम के लिए एकाग्रता का प्रश्न ही नहीं उठता।

अगर आइंस्टीन अपने गणित को हल करता है, तो उसे एकाग्रता करनी नहीं पड़ती। गणित उसका प्रेम है। उसकी प्रेयसी भी बैठी रहे, तो वह प्रेयसी को भूल जाएगा और गणित को नहीं भूलेगा। डाक्टर राममनोहर लोहिया मिलने गए थे आइंस्टीन को, तो छ: घंटे उनको प्रतीक्षा करनी पड़ी। और आइंस्टीन अपने बाथरूम में। है और निकलता ही नहीं। आइंस्टीन की पत्नी ने बार—बार उनको 'कहा कि आप चाहें तो जा सकते हैं; आपको बहुत देर हो गई। और क्षमायाचना मांगी। लेकिन कोई उपाय नहीं है। यही संभावना है कि।, वे अपने बाथ टब में बैठकर गणित सुलझाने में लग गए होंगे।। छ: घंटे बाद आइंस्टीन बाहर आया, तो बहुत प्रसन्न था, क्योंकि कोई पहेली हल हो गई थी। खाना भूल जाएगा। पत्नी भूल जाएगी। लेकिन वह जो गणित की पहेली है, वह नहीं भूलेगी।

जहां प्रेम है, वहां एकाग्रता सहज फलित हो जाती है। एकाग्रता प्रेम की छाया है। आप चाहें भी तो फिर मन की एकाग्रता को तोड़ नहीं सकते। इसीलिए तो जब आप किसी के प्रेम में होते हैं और उसे भुलाना चाहते हैं, तो बड़ी मुश्किल हो जाती है। जिससे प्रेम नहीं है, उसे याद करना जितना मुश्किल है, उससे ज्यादा मुश्किल है, जिससे प्रेम है उसे भुलाना।

जिससे प्रेम है, उसे भुलाइएगा कैसे? कोई उपाय नहीं है। भुलाने की कोशिश भी बस, उसको याद करने की कोशिश बनकर रह जाती है। और भुलाने में भी उसकी याद ही आती है, और कुछ भी नहीं होता। और भुलाने में भी याद मजबूत होती है, पुनरुक्त होती है।

जहां प्रेम है, वहां एकाग्रता छाया की तरह चली आती है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, मेरे में मन को एकाग्र करके!

एकाग्रता का अर्थ ही है, मुझमें अपने प्रेम को पूरी तरह डुबाकर; मुझमें अपने हृदय को पूरी तरह रखकर या अपने हृदय में मुझे पूरी तरह रखकर। प्रेम का अर्थ है, अपने को गंवाकर, अपने को खोकर। मैं ही बचूं; रोआं—रोआं मेरी ही याद करे।

मेरे भजन और ध्यान में लगे हुए!

मेरा ही गीत, मेरा ही नृत्य, उठते—बैठते जीवन की सारी क्रिया मेरी ही स्मृति बन जाए। जहां भी देखें, मैं दिखाई पडूं।

अगर आपने कभी किसी को प्रेम किया है। अगर इसलिए कहता हूं, क्योंकि प्रेम की घटना कम होती जाती है। प्रेम की चर्चा बहुत होती है, प्रेम की कहानियां बहुत चलती हैं, प्रेम की फिल्में बहुत बनती हैं। वे बनती ही इसलिए हैं कि प्रेम नहीं रहा है। वे सब्‍सटियूट हैं।

भूखा आदमी भोजन की बात करता है। जिसके पास भोजन पर्याप्त है, वह भोजन की बात नहीं करता। नंगे आदमी कपड़े की चर्चा करते हैं। और जब कोई आदमी कपड़े की चर्चा करता मिले, तो समझना कि नंगा है, भला कितने ही कपड़े पहने हो। क्योंकि हम जो नहीं पूरा कर पाते जीवन में, उसको हम विचार कर—करके पूरा करने की कोशिश करते हैं।

आज सारी जमीन पर प्रेम की इतनी चर्चा होती है, इतने गीत लिखे जाते हैं, इतनी किताबें लिखी जाती हैं, उसका कुल मात्र कारण इतना है कि जमीन पर प्रेम सूखता चला जा रहा है। अब चर्चा करके ही, फिल्म देखकर ही अपने को समझाना—सुलझाना पड़ता है।

इसलिए कहता हूं कि अगर आपने किसी को कभी प्रेम किया हो, तो एक बात आपके खयाल में आई होगी कि आप जहां भी देखें, आपको अपने प्रेमी की भनक अनुभव होगी। अगर प्रेमी आकाश में देखे, तो तारों में उसकी प्रेयसी की आख उसे दिखाई पड़ेगी। चांद को देखे, तो प्रेयसी दिखाई पड़ेगी। सागर की लहरों को सुने, तो प्रेयसी की प्रतीति होगी। फूलों को खिलता देखे, कि कहीं कोई गीत सुने, कि कहीं कोई वीणा का स्वर सुने, कि पक्षी सुबह गीत गाएं, कि सूरज निकले, कि कुछ भी हो, इससे फर्क नहीं पड़ेगा। सब तरफ से उसे एक ही खबर मिलती रहेगी और एक ही स्मरण पर चोट पड़ती रहेगी, और उसके हृदय में एक ही धुन बजती रहेगी।

जब कोई परमात्मा की तरफ इस भांति झुक जाता है कि फूल में वही दिखाई पड़ने लगता है, आकाश में उड़ते पक्षी में वही दिखाई पड़ने लगता है, कि घास पर जमी हुई सुबह की ओस में वही दिखाई पड़ने लगता है; तब समझना, भजन पूरा हुआ।

भजन का मतलब है, वही दिखाई पड़ता हो सब जगह। ऐसा मुंह ,? से राम—राम कहते रहने से भजन नहीं हो जाता। वह भी सज्जीटधूट है। जब अस्तित्व में अनुभव नहीं होता, तो आदमी मुंह से कहकर परिपूर्ति कर लेता है।

एक आदमी सुबह से राम—राम कहता चला जा रहा है। पास में खिले फूल में उसे राम नहीं दिखाई पड़ता। आकाश में सूरज ऊग रहा है, उसे राम नहीं दिखाई पड़ता। वह अपने होठों से ही राम—राम कहे चला जा रहा है। बुरा नहीं है; कुछ और कहने से बेहतर ही है। कुछ न कुछ तो वह कहेगा ही। होंठ कुछ न कुछ करेंगे ही। बेहतर है; कुछ बुरा नहीं है; लेकिन यह भजन नहीं है। भजन तो यह है कि चारों तरफ जो भी हो रहा है, वह सभी राम—मय हो जाए और सभी में वही दिखाई पड़ने लगे।

जब तक आपको मंदिर में ही भगवान दिखाई पड़ता है, तब तक समझना कि अभी आपको भगवान के मंदिर का कोई पता नहीं है। जब तक आपको उसकी किसी बंधी हुई मूर्ति में ही उसकी प्रतीति होती है, तब तक समझना कि अभी आपको उसका कोई पता ही नहीं है। अन्यथा सभी मूर्तियां उसकी हो जाएंगी। अनगढ़ पत्थर भी उसी की मूर्ति होगा। रास्ते के किनारे पड़ी हुई चट्टान भी उसी की मूर्ति होगी। क्योंकि भजन से भरे हुए हृदय को सब तरफ वही सुनाई पड़ने लगता है।

यह जगत एक प्रतिध्वनि है। जो हमारे हृदय में होता है, वही हमें सुनाई पड़ने लगता है।

सुना है मैंने कि फ्रायड के पास, सिग्मंड फ्रायड के पास एक मरीज आया। उसके दिमाग में कुछ खराबी थी और घर के लोग परेशान थे। तो फ्रायड सबसे पहले फिक्र करता था कि इस आदमी में कोई काम—विकार, इसके सेक्स में कोई ग्रंथि, कोई उलझाव तो नहीं है। क्योंकि आमतौर से सौ बीमारियों में—मानसिक बीमारियों में—नब्बे बीमारियां तो काम—ग्रंथि से पैदा होती हैं। कहीं न कहीं सेक्स एनर्जी, काम—ऊर्जा उलझ गई होती है और उसकी वजह से मानसिक बीमारी पैदा होती है। तो फ्रायड पहले फिक्र करता था कि इसके संबंध में जांच—पड़ताल कर ले।

सामने से एक घोड़े पर एक सवार जा रहा था। तो फ्रायड ने उससे पूछा.।

फ्रायड के सिद्धांतों का एक हिस्सा था, फ्री एसोसिएशन आफ थाट्स, विचार का स्वतंत्र प्रवाह। उससे अनुभव में आता है कि आदमी के भीतर क्या चल रहा है।

उसने अचानक उस मरीज से पूछा कि देखो, वह घोड़े पर सवार जा रहा है। तुम्हें एकदम से घोड़े पर सवार को देखकर किस बात की याद आती है? एकदम! सोचकर नहीं, एकदम जो भी याद आती हो, मुझे कह दो। उस आदमी ने कहा कि मुझे औरत की याद आती है, स्त्री दिखाई पड़ती है।

फ्रायड दूसरी बातों में लग गया। एक पक्षी आकर खिड़की पर बैठकर आवाज करने लगा। तो फ्रायड ने फिर बातचीत तोड़कर कहा कि यह पक्षी आवाज कर रहा है, इसे सुनकर तुम्हें किस बात की याद आती है? उसने कहा कि औरत की याद आती है।

फ्रायड भी थोड़ा बेचैन हुआ। हालांकि उसके सिद्धात के अनुसार ही चल रहा था यह आदमी। तभी फ्रायड ने अपनी पेंसिल जो हाथ में ले रखी थी, छोड़ दी, फर्श पर पटक दी। और कहा, इस पेंसिल को गिरते देखकर तुम्हें किस चीज की याद आती है? उस आदमी ने कहा, मुझे औरत की याद आती है!

फ्रायड ने कहा, क्या कारण है तुम्हें औरत का हर चीज में याद आने का? उस आदमी ने कहा, मुझे और किसी चीज की याद ही नहीं आती। ये सब बेकार की चीजें आप कर रहे हैं—घोड़ा, पक्षी, कि पेंसिल—इतना परेशान होने की जरूरत नहीं। मुझे और किसी चीज की याद ही नहीं आती।

कामवासना से भरे आदमी को ऐसा होगा। कामवासना भीतर हो, तो सारा जगत स्त्री हो गया। जगत प्रतिध्वनि है। अगर आप लोभ से भरे हैं, तो आपको चारों तरफ, बस अपने लोभ का विस्तार, धन ही दिखाई पड़ेगा।

ऐसा करें कि किसी दिन उपवास कर लें, और फिर सड़क पर निकल जाएं। आपको सिवाय होटलों और रेस्तरां के बोर्ड के कुछ भी दिखाई नहीं पड़ेगा। जिस रास्ते से आप रोज निकले थे, जिस होटल का बोर्ड आपने कभी नहीं पढ़ा था, आप उसको बड़े रस से पढ़ेंगे। आज भीतर उपवास है, भीतर भूख है, और भोजन अतिशय महत्वपूर्ण हो गया है। आपको भोजन ही दिखाई पड़ेगा।

जर्मन कवि हेनरिक हेन ने लिखा है कि एक दफा मैं जंगल में भटक गया और तीन दिन तक भोजन न मिला। तो हमेशा जब भी पूर्णिमा का चांद निकलता था, तो मुझे अपनी प्रेयसी की तस्वीर दिखाई पड़ती थी। उस दिन भी पूर्णिमा का चांद निकला, मुझे लगा कि एक रोटी, सफेद रोटी आकाश में तैर रही है। प्रेयसी वगैरह दिखाई नहीं पड़ी। सफेद रोटी!

जो भीतर है, वह चारों तरफ प्रतिध्वनित होने लगता है। यह जगत आपकी प्रतिध्वनि है। इस जगत में चारों तरफ दर्पण लगे हैं, जिनमें आपकी तस्वीर ही आपको दिखाई पड़ती है।

भजन का अर्थ है, जब आपके भीतर भगवान का प्रेम गहन होता है, तो सब तरफ उसकी प्रतिध्वनि सुनाई पड़ने लगती है। फिर आप जो भी करते हैं, वह भजन है।

कबीर ने कहा है, उठुं बैठु चलूं सब तेरा भजन है। इसलिए अब अलग से करने की कोई जरूरत न रही।

मेरे में मन को एकाग्र करके निरंतर मेरे भजन व ध्यान में लगे हुए जो भक्तजन अति श्रेष्ठ श्रद्धा से युक्त हुए...।

अति श्रेष्ठ श्रद्धा क्या है? एक तो श्रद्धा है, जो तर्क पर ही निर्भर होती है। वह श्रेष्ठ श्रद्धा नहीं है। क्योंकि उसका वास्तविक सहारा बुद्धि है। अभी भी छलांग नहीं हुई। लोगों ने ईश्वर के होने के प्रमाण दिए हैं। जो उन प्रमाणों को मानकर श्रद्धा लाते हैं, उनकी श्रद्धा निकृष्ट श्रद्धा है।

जैसे पश्चिम में, पूरब में अनेक दार्शनिक हुए, जिन्होंने प्रमाण दिए हैं कि ईश्वर क्यों है। अनेक प्रमाण दिए हैं। कोई कहता है, इसलिए ईश्वर को मानना जरूरी है, कि अगर वह न हो, तो जगत को बनाया किसने? जब जगत है, तो बनाने वाला होना चाहिए। जैसे कुम्हार घड़ा बनाता है, तो कुम्हार भी होना चाहिए, नहीं तो घड़ा कैसे होगा!

तर्क देने वालों ने कहा है कि जगत में प्रयोजन दिखाई पड़ता है। जगत प्रयोजनहीन नहीं मालूम पड़ता। जगत में एक्सिडेंट नहीं मालूम पड़ता; एक सिस्टम, एक व्यवस्था मालूम पड़ती है। तो जरूर कोई व्यवस्थापक होना चाहिए। जगत चैतन्य मालूम पड़ता है। यहां मन है, विचार है, चेतना है। यह चेतना पदार्थ से पैदा नहीं हो सकती। तो जगत के पीछे कोई चैतन्य हाथ होना चाहिए।

हजारों तर्क इस तरह के लोगों ने ईश्वर के होने के दिए हैं। और अगर आप इन तर्कों के कारण ईश्वर को मानते हैं, तो आपकी श्रद्धा निकृष्ट श्रद्धा है। निकृष्ट इसलिए कि ये सब तर्क कमजोर हैं और सब खंडित किए जा सकते हैं। इनमें कोई भी तर्क ऐसा नहीं है, जिसका खंडन न किया जा सके। और जिस तर्क से आप सिद्ध करते हैं ईश्वर को, उसी तर्क से ईश्वर को असिद्ध किया जा सकता है।

जैसे कि आस्तिक हमेशा कहते रहे हैं कि जब भी कोई चीज हो, तो उसका बनाने वाला चाहिए, क्रिएटर, स्रष्टा चाहिए। तो चार्वाक ने कहा है कि अगर हर चीज का बनाने वाला चाहिए, तो तुम्हारे ईश्वर का बनाने वाला कौन है? वही तर्क है। आस्तिक नाराज हो जाता है इस तर्क से। लेकिन इसी तर्क पर उसकी श्रद्धा खड़ी है। वह कहता है, बनाने वाला चाहिए, स्रष्टा चाहिए; सृष्टि है, तो स्रष्टा चाहिए। बिना स्रष्टा के यह सब बनेगा कैसे?

नास्तिक कहता है, हम मानते हैं आपके तर्क को। लेकिन ईश्वर को कौन बनाएगा? वहा आस्तिक को बेचैनी शुरू हो जाती है। इस बात को वह कहता है कुतर्क।

अगर यह कुतर्क है, तो पहला तर्क कैसे हो सकता है! और. नास्तिक कहता है, अगर ईश्वर बिना बनाए हो सकता है, तो फिर जगत को भी बिना बनाए होने में कौन—सी अड़चन है! अगर ईश्वर बिना बनाया है, अनक्रिएटेड है, अस्रष्ट है, तो फिर फिजूल की बात में क्यों पड़ना! यह जगत ही अस्रष्ट मान लेने में हर्ज क्या है? जब अस्रष्ट को मानना ही पड़ता है, तो फिर इस प्रत्यक्ष जगत को ही मानना उचित है। इसके पीछे और छिपे हुए, रहस्यमय को व्यर्थ बीच में लाने की क्या जरूरत है!

ऐसा कोई भी तर्क नहीं है, जो नास्तिक न तोड़ देते हों। इसलिए ' आस्तिक नास्तिकों से डरते हैं। इसलिए नहीं कि वे आस्तिक हैं; आस्तिक होते तो न डरते। निकृष्ट आस्तिक हैं। उनके जिन तर्कों पर आधार है ईश्वर—आस्था का, वे सब तर्क तोड़े जा सकते हैं। और नास्तिक उन्हें तोड़ता है। इसलिए नास्तिक से बड़ा भय है।

और आज जो जमीन पर इतनी ज्यादा नास्तिकता दिखाई पड़ रही है, वह इसलिए नहीं कि दुनिया नास्तिक हो गई है। वह जो निकृष्ट आस्तिकता थी, वह मुश्किल में पड़ गई है। दुनिया ज्यादा तर्कवान हो गई है। जिन तर्कों से आप ईश्वर को सिद्ध करते थे, उन्हीं से लोग अब ईश्वर को असिद्ध कर रहे हैं।

दुनिया ज्यादा तर्कवान हो गई है, ज्यादा विचारशील हो गई है। इसलिए अब धोखा नहीं दिया जा सकता। अब आपको तर्क को उसकी पूरी अंतिम स्थिति तक ले जाना पड़ता है। अड़चन हो जाती है।

श्रेष्ठ श्रद्धा क्या है? जो तर्क पर खड़ी नहीं है, अनुभव पर खड़ी है। जो विचार पर खड़ी नहीं है, प्रतीति पर खड़ी है। जो यह नहीं कहती कि इस कारण ईश्वर होना चाहिए। जो कहती है कि ऐसा अनुभव है, ईश्वर है। होना चाहिए नहीं, है!

अरविंद को किसी ने पूछा कि क्या ईश्वर में आपका विश्वास है? तो अरविंद ने कहा, नहीं। जिसने पूछा था, वह बहुत हैरान हुआ। उसने पूछा था, डू यू बिलीव इन गॉड? और अरविंद ने कहा, नो। सोचकर आया था दूर से वह खोजी कि कम से कम एक अरविंद तो ऐसा व्यक्ति है, जो मेरा ईश्वर में भरोसा बढ़ा देगा। और अरविंद से यह सुनकर कि नहीं! उसकी बेचैनी हम समझ सकते हैं।

उसने कहा, आप क्या कह रहे हैं! ईश्वर नहीं! आपका भरोसा नहीं; विश्वास नहीं। तो क्या ईश्वर नहीं है? तो अरविंद ने कहा, नहीं, ईश्वर है। लेकिन मुझे उसमें विश्वास की जरूरत नहीं है। क्योंकि मैं जानता हूं वह है। एंड दिस इज नाट ए बिलीफ, आइ नो, ही इज।

यह थोड़ा सोचने जैसा है। हम विश्वास ही उन चीजों में करते हैं, जिनका हमें भरोसा नहीं है। आप सूरज में विश्वास नहीं करते। पृथ्वी में विश्वास नहीं करते। मैं यहां बैठा हूं इसमें आप विश्वास नहीं करते। आप जानते हैं कि मैं यहां बैठा हूं। आप ईश्वर में विश्वास करते हैं, क्योंकि आप जानते नहीं कि ईश्वर है या नहीं है। जहां भरोसा नहीं है, वहां विश्वास।

यह जरा उलटा लगेगा, पैराडाक्सिकल लगेगा। क्योंकि हम तो विश्वास का मतलब ही भरोसा समझते हैं। जब कोई आदमी आपसे आकर कहे कि मुझे आपमें पक्का विश्वास है, तब आप समझ लेना कि इस आदमी को आपमें विश्वास नहीं है। नहीं तो पक्का विश्वास कहने की जरूरत न थी। भरोसा विश्वास शब्द का उपयोग ही नहीं करता। और जब कोई आदमी बहुत ही ज्यादा जोर देने लगे कि नहीं, पक्का ही विश्वास है, तब आप अपनी जेब वगैरह से सावधान रहना! वह आदमी कुछ भी कर सकता है। और उस आदमी को घर में मत ठहरने देना, क्योंकि इतना ज्यादा विश्वास खतरनाक है। वह बता रहा है कि वह भरोसा दिला रहा है आपको कि विश्वास है। उसे विश्वास नहीं है।

जिस दिन कोई प्रेमी बार—बार कहने लगे कि मुझे बहुत प्रेम है, मुझे बहुत प्रेम है, उस दिन समझना कि प्रेम चुक गया। जब प्रेम होता है, तो कहने की जरूरत ही नहीं पड़ती; अनुभव में आता है। जब प्रेम होता है, तो उसकी तरंगें अनुभव होती हैं। जब प्रेम होता है, तो उसकी सुगंध अनुभव में आती है। जब प्रेम होता है, तो वाणी बहुत कचरा मालूम पड़ती है; कहने की जरूरत नहीं होती कि मुझे प्रेम है। जब प्रेम चुक जाता है.।

इसलिए अक्सर प्रेमी और प्रेयसी एक—दूसरे से नहीं कहते कि मुझे बहुत प्रेम है। पति—पत्नी अक्सर कहते हैं, मुझे बहुत प्रेम है! रोज—रोज भरोसा दिलाना पड़ता है, अपने को भी, दूसरे को भी, क्योंकि है तो नहीं। अब भरोसा दिला—दिलाकर ही अपने को समझाना पड़ता है, और दूसरे को भी समझाना पड़ता है।

जिस बात की कमी होती है, उसको हम विश्वास से पूरा करते हैं। अरविंद ने ठीक कहा कि मैं जानता हूं, वह है। उसके होने के लिए कोई तर्क की जरूरत नहीं है। उसके होने के लिए अनुभव की जरूरत है।

क्या है अनुभव उसके होने का? और आपको नहीं हो पाता अगर अनुभव, बाधा क्या?

ऐसा ही समझें कि सागर के किनारे खड़े हैं; लहरें उठती हैं। हर लहर समझ सकती है कि मैं हूं। लेकिन लहर है नहीं; है तो सिर्फ सागर। अभी लहर है, अभी नहीं होगी। अभी नहीं थी, अभी है, अभी नहीं हो जाएगी। लहर का होना क्षणभंगुर है। लेकिन लहर के भीतर वह जो सागर है, वह शाश्वत है।

आप अभी नहीं थे, अभी हैं, अभी नहीं हो जाएंगे। आप एक लहर से ज्यादा नहीं हैं। इस जगत के सागर में, इस होने के सागर में, अस्तित्व के सागर में आप एक लहर हैं। लेकिन लहर अपने को मान लेती है कि मैं हूं। और जब लहर अपने को मानती है, मैं हूं तभी सागर को भूल जाती है। स्वयं को मान लेने में परमात्मा विस्मरण हो जाता है। क्योंकि जो लहर अपने को मानेगी, वह सागर को कैसे याद रख सकती है!

इसे थोड़ा समझ लें। लहर अगर अपने को मानती है कि मैं हूं तो उसे मानना ही पड़ेगा कि सागर नहीं है। क्योंकि अगर उसे सागर दिखाई पड़ जाए कि सागर है, तो उसे अपने भीतर भी सतार ही दिखाई पड़ेगा, फिर अपने को अलग मानने का उपाय न रह जाएगा। लहर अपने अहंकार को बचाना चाहती हो, तो सागर को। इनकार करना जरूरी है। उसे कहना चाहिए, सागर वगैरह सब बातचीत है, कहीं देखा तो नहीं।

और आप भी जानते हैं, सागर आपने भी नहीं देखा है। दिखाई तो हमेशा लहरें ही पड़ती हैं। सागर तो हमेशा नीचे छिपा है; दिखाई कभी नहीं पड़ता। जब भी दिखाई पड़ती है, लहर दिखाई पड़ती है। तो लहर कहेगी, सागर को देखा किसने है? किसी ने कभी नहीं देखा। सिर्फ बातचीत है। दिखती हमेशा लहर है। मैं हूं और सागर सिर्फ कल्पना है।

लेकिन लहर अगर अपने भीतर भी प्रवेश कर जाए, तो सागर में प्रवेश कर जाएगी। क्योंकि उसके भीतर सागर के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। लहर सागर का एक रूप है। लहर सागर के होने का एक ढंग है। लहर सहार की ही एक तरंग है। लहर होकर भी लहर सागर ही है। सिर्फ आकृति में थोड़ा—सा फर्क पड़ा है। सिर्फ आकार निर्मित हुआ है।

जब कोई व्यक्ति अपने अस्तित्व को ठीक से समझ पाता है, अपने को भी समझ पाता है ठीक से, तो लहर खो जाती है और सागर प्रकट हो जाता है। या अगर कोई व्यक्ति किसी दूसरे को भी ठीक से समझ पाता है, तो लहर खो जाती है और सागर प्रकट हो जाता है।

अगर आप किसी के गहरे प्रेम में हैं, तो जिस क्षण गहरा प्रेम होगा, उस क्षण उस व्यक्ति की लहर खो जाएगी और उस लहर में आपको सागर दिखाई पड़ेगा। इसलिए अगर प्रेमियों को अपने प्रेमियों में परमात्मा दिखाई पड़ गया है, तो आश्चर्य नहीं है। दिखाई पड़ना ही चाहिए। और वह प्रेम प्रेम ही नहीं है, जिसमें लहर न खो जाए और सागर का अनुभव न होने लगे।

दूसरे में भी दिखाई पड़ सकता है। स्वयं में भी दिखाई पड़ सकता है। जहां भी ध्यान गहरा हो जाए, वहीं दिखाई पड़ सकता है। ऐसी प्रतीति जब आपको हो जाए सागर की, तो उस प्रतीति से जो श्रद्धा का जन्म होता है, वह विश्वास नहीं है। दैट्स नाट ए बिलीफ। श्रद्धा कोई विश्वास नहीं है, श्रद्धा एक अनुभव है। और तब ये सारी दुनिया के तर्क आपसे कहें कि परमात्मा नहीं है, तो भी आप हंसते रहेंगे। और सारे तर्क सुनने के बाद भी आप कहेंगे कि ये सारे तर्क बड़े प्यारे हैं और मजेदार हैं, मनोरंजक हैं। लेकिन परमात्मा है, और इन तर्कों से वह खंडित नहीं होता।

ध्यान रहे, न तो तर्कों से वह सिद्ध होता है और न तर्कों से वह खंडित होता है। जो लोग समझते हैं, तर्कों से वह सिद्ध होता है, वे हमेशा मुश्किल में पड़ेंगे; क्योंकि फिर तर्कों से मानना पड़ेगा कि वह खंडित भी हो सकता है। जो चीज तर्क से सिद्ध होती है, वह तर्क से टूटने की भी तैयारी रखनी चाहिए। और जिस चीज के लिए आपके प्रमाण की जरूरत है, वह आपके प्रमाण के हट जाने पर खो जाएगी।

परमात्मा को आपके प्रमाणों की कोई भी जरूरत नहीं है। परमात्मा का होना आपका निर्णय नहीं है, आपके गणित का निष्कर्ष नहीं है। परमात्मा का होना आपके होने से पूर्व है। और परमात्मा का होना अभी, इस क्षण में भी आपके होने के भीतर वैसा ही छिपा है, जैसे लहर के भीतर सागर छिपा है।

आप जब नहीं थे, तब क्या था? जब आप नहीं थे, तो आपके भीतर जो आज है, वह कहां था? क्योंकि जो भी है, वह नष्ट नहीं होता। नष्ट होने का कोई उपाय नहीं है। विनाश असंभव है।

विज्ञान भी स्वीकार करता है कि जगत में कोई भी चीज विनष्ट नहीं हो सकती। क्योंकि विनष्ट होकर जाएगी कहां? भेजिएगा कहां उसे? पानी की एक बूंद को आप नष्ट नहीं कर सकते। भाप बन सकती है, लेकिन भाप बनकर रहेगी। भाप को भी तोड़ सकते हैं। तो हाइड्रोजन—आक्सीजन बनकर रहेगी। लेकिन आप नष्ट नहीं कर सकते। एक पानी की बूंद भी जहां नष्ट नहीं होती, वहां आप जब कल नहीं थे, तो कहां थे?

झेन में, जापान में साधकों को वे एक पहेली देते हैं। उसे वे कहते हैं कोआन। वे कहते हैं कि जब तुम नहीं थे, तो कहां थे, इसकी खोज करो। और जब तुम पैदा नहीं हुए थे, तो तुम्हारा चेहरा कैसा था, इस पर ध्यान करो। और जब तुम मर जाओगे, तो तुम कहां पहुंचोगे, इसकी थोड़ी खोज करो। क्योंकि जब तक तुम्हें इसका पता न चल जाए कि जन्म के पहले तुम कहां थे और मरने के बाद तुम कहा रहोगे, तब तक तुम्हें यह भी पता नहीं चल सकता कि इसी क्षण अभी तुम कहां हो।

अभी भी तुम्हें पता नहीं है। हो भी नहीं सकता। क्योंकि लहर का भर तुम्हें पता है, जो अभी नहीं थी, अभी है, अभी नहीं हो जाएगी। उस सागर का कोई पता नहीं है, जो था, इस लहर के पहले भी, अभी भी है; और लहर मिट जाएगी, तब भी होगा। सिर्फ आकार मिटते हैं जगत में, अस्तित्व नहीं।



 हम आकार हैं। और आकार के भीतर छिपा हुआ जो अस्तित्व है, वह परमात्मा है।

श्रेष्ठ श्रद्धा उस श्रद्धा का नाम है, जो इस प्रतीति, इस साक्षात से जन्म पाती है। यह किसी शास्त्र से पढ़ा हुआ, किसी गुरु का कहा हुआ मान लेने से नहीं होगा। यह आपके ही जीवन—अनुभव का हिस्सा बनना चाहिए। यह आपको ही प्रतीत होना चाहिए। अगर परमात्मा आपका निजी अनुभव नहीं है, तो आपकी आस्तिकता थोथी है। उसकी कोई कीमत नहीं है। वह कागज की नाव है; उससे भवसागर पार करने की कोशिश मत करना। उसमें बुरी तरह डूबेंगे। उससे तो किनारे पर ही बैठे रहना, वही अच्छा है। अनुभव की नाव ही वास्तविक नाव है।

मेरे में मन को एकाग्र करके निरंतर मेरे भजन व ध्यान में लगे हुए जो भक्तजन अति श्रेष्ठ श्रद्धा से युक्त मुझ सगुणरूप परमेश्वर को भजते हैं, वे मेरे को योगियों में भी अति उत्तम योगी मान्य हैं अर्थात उनको मैं अति श्रेष्ठ मानता हूं।

प्रेम परम योग है। प्रेम से श्रेष्ठ कोई अनुभव नहीं है। और इसीलिए भक्ति श्रेष्ठतम मार्ग बन जाती है, क्योंकि वह प्रेम का ही रूपांतरण है।



आज इतना ही।

पांच मिनट रुकेंगे। कीर्तन करेंगे और फिर जाएंगे।

कोई भी बीच में उठे न। और जब तक कीर्तन पूरा न हो जाए यहां धुन बंद न हो जाए तब तक बैठे रहें। और सम्मिलित हों। कौन जाने कोई धुन आपके हृदय को भी पकड़ ले और भक्ति का जन्म हो जाए।



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