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शनिवार, 7 फ़रवरी 2015

पतंजलि: योगसूत्र--(भाग--5) प्रवचन-83

     तत्‍क्षण बोध(प्रवचनतीसरा)


दिनांक 23 अप्रेेेल  1976 ओशो आश्रम पूूूूना। 


योग—सूत्र: (विभुतिपाद)



      ग्रहणस्वरूपास्मिजन्वयार्थवत्यसंयमादिन्द्रियजय:।।48।।

उनकी बोध की शक्ति, वास्तविक स्वरूप, अस्मिता, सर्वव्यापकता और क्रियाकलापों पर संयम साधने से ज्ञानेंद्रियों पर स्वामित्व उपलब्ध हो जाता है।



      ततो मनोजवित्व विकरणभाक प्रधानजयक्य।।49।।

इसके उपरांत देहू के उपयोग के बिना ही तत्‍क्षण बोध और प्रधान (पौद्गलिक जगत) पर पूर्ण स्वामित्व उपलब्ध हो जाता है।



      सत्त्वपुरुषान्यताख्यातिमात्रस्य सर्वभावाधिष्ठातृत्यं सबंज्ञातृत्व च।। 5०।।

सत्व और पुरुष का विभेद बोध होने के उपरांत ही अस्तित्व की समस्त दशाओं का ज्ञान और उन पर प्रभुत्व उदित होता है।




व्याख्य की व्याख्या करने में पतंजलि की कुशलता अनुपम है। कभी भी कोई उनसे आगे निकल पाने में समर्थ नहीं हो पाया है। उन्होंने चेतना के आंतरिक संसार का जितना ठीक संभव हो सकता है, वैसा मानचित्रण कर दिया है; उन्होंने लगभग असंभव कार्य कर दिखाया है।

मैंने रामकृष्ण के बारे में एक कथा सुनी है :

एक दिन वे अपने शिष्यों से बोले, आज मैं तुम्हें सारी बात बता दूंगा, और कुछ भी रहस्य नहीं रखूंगा। उन्होंने चक्रों की स्पष्ट व्याख्या की, और हृदय तथा कंठ—चक्र तक उनसे संबंधित अनुभवों को भी व्यक्त कर दिया, और तब दोनों भौंहों के मध्य के बिंदु की ओर संकेत करते हुए कहा : परम सत्ता का प्रत्यक्ष शान होता है, और जब मन यहां आता है तो व्यक्ति को समाधि का अनुभव होता है। एक झीना सा पारदर्शी आवरण ही तब परम सत्ता और व्यक्तिगत सत्ता के मध्य में बचा रहता है। तब साधक को अनुभव होता है...। इतना कह कर, जैसे ही उन्होंने परम सत्ता के साक्षात के बारे में विस्तार से बताना शुरू किया, वे समाधि में डूब गए, और सुध—बुध खो बैठे। जब समाधि टूटी और वे वापस सामान्य अवस्था में लौटे, तो उन्होंने फिर इसका वर्णन करने का प्रयास किया और पुन: समाधि में चले गए, फिर वे अपनी सुध—बुध खो बैठे। कई कोशिशों के बाद रामकृष्ण के आसू बह निकले, वे रोने लगे, और अपने शिष्यों से बोले कि इसके बारे में कुछ बताना असंभव है।

लेकिन रामकृष्ण ने कोशिश की, उन्होंने अनेक उपायों से, विभिन्न दिशाओं से, समझाने का प्रयास किया, और उनके पूरे जीवन भर सदा यही होता रहा। जब कभी वे तृतीय नेत्र के चक्र के पार जाते और सहस्रार की ओर बढ़ने लगते, वे किसी आंतरिक भाव से इस कदर वशीभूत हो जाते कि सिर्फ इसकी स्मृति मात्र से, इसे वर्णित करने की कोशिश से ही, वे डुबकी लगा जाते। घंटों वे अचेत पड़े रहते। यह स्वाभाविक था क्योंकि सहस्रार का आनंद ऐसा है कि व्यक्ति करीब—करीब उसके पूर्ण नियंत्रण में हो जाता है। यह आनंद ऐसा सागर सा असीम है कि व्यक्ति पर आच्छादित होकर उसे अपने में समा लेता है। जब व्यक्ति तीसरे नेत्र का अतिक्रमण कर लेता है तो वही व्यक्ति नहीं रह जाता।

रामकृष्ण ने कोशिश की और असफल रहे, वे इसका वर्णन नहीं कर सके। बहुत से अन्य लोगों ने तो इसका प्रयास भी नहीं किया। लाओत्सु इसी के कारण अपने पूरे जीवन भर ताओ के जगत के बारे में कुछ भी कहने से इनकार करता रहा। इसके बारे में कुछ भी नहीं कहा जा सकता, और जिस क्षण तुम इसे कहने की कोशिश करते हो तुम एक आंतरिक चक्रवात में, भंवर में गोता खा जाते हो। तुम खो जाते हो, डूब जाते हो। तुमने एक ऐसे सौंदर्य और अदभुत आनंद में स्नान कर लिया होता है कि तुम एक शब्द भी नहीं बोल सकते'

लेकिन पतंजलि ने एक असंभव कार्य किया है। उन्होंने प्रत्येक चरण को, प्रत्येक एकीकरण को, प्रत्येक चक्र को, इसकी क्रिया विधि को, और इसका अतिक्रमण कैसे करें, सहस्रार तक ही नहीं वरन उसके भी आगे, जितना संभव था उतना ठीक बताया है। प्रत्येक चक्र पर, ऊर्जा के प्रत्येक चक्र पर, एक निश्चित एकीकरण घटता है। जरा इसको समझो।

काम—केंद्र, पहले केंद्र पर, जो सर्वाधिक आदिम और सर्वाधिक प्राकृतिक है, सभी के लिए उपलब्ध है, बाहरी और भीतरी के बीच एकीकरण घटता है। निःसंदेह यह क्षणिक है। जब एक स्त्री का पुरुष से मिलन होता है या पुरुष का स्त्री से मिलन होता है। तो यह एक क्षण को जरा से समय के लिए जहा, बाहरी और भीतरी एक दूसरे से मिलते हैं और एकरूप होकर एक—दूसरे में विलीन हो जाते हैं, आता है। काम का, शिखर अनुभव का, यही सौंदर्य है कि दो ऊर्जाएं, परिपूरक ऊर्जाएं मिलती हैं और एक संपूर्णता बन जाती 'हैं। लेकिन यह क्षणिक होता है, क्योंकि यह मिलन, सर्वाधिक स्थूल अवयव, देह के माध्यम से होता है। देह केवल सतह का ही स्पर्श कर सकती है, लेकिन यह वास्तव में एक—दूसरे में प्रवेश नहीं कर सकती। यह बर्फ के टुकड़ों की तरह है। अगर तुम दो बर्फ के टुकड़ों को पास—पास रखो तो वे एक दूसरे को छू सकते हैं लेकिन अगर वे पिघल कर पानी बन जाए तो वे मिल जाते हैं और एक दूसरे में विलीन हो जाते है। तभी वे आत्यांतिक केंद्र तक पहुंचते हैं। और अगर पानी वाष्पित हो जाए तब यह मिलन बहुत, बहुत गहरा हो जाता है। तब वहां न मैं, न तू न भीतर, न बाहर, कुछ नहीं रहता।

यह पहला केंद्र, 'काम—केंद्र' तुम्हें एक निश्चित एकरूपता देता है। इसी कारण काम का इतना अधिक आकर्षण है। यह स्वाभाविक है अपने आप में यह लाभप्रद और अच्छा है, लेकिन अगर तुम यहीं रुक गए तो तुम महल के दरवाजे पर रुक गए हो। दरवाजा अच्छा है यह तुम्हें महल के भीतर ले आता है, किंतु यह कोई ऐसा स्थान नहीं है जहां तुम्हारा वास हो सके, यह कोई सदा के लिए रुक जाने का स्थान भी नहीं है... और अन्य केंद्रों पर उच्चतर एकीकरण के उस आनंद से जो तुम्हारी प्रतीक्षा में है, तुम चूक जाओगे। और उस आनंद, हर्ष और प्रसन्नता की तुलना में काम का सौंदर्य कुछ भी नहीं है, कामवासना का सुख कुछ भी नहीं है। यह तो बस तुम्हें क्षणिक झलक भर दिखाता है।

दूसरा चक्र है 'हारा।हारा—केंद्र पर जीवन और मृत्यु मिल जाते हैं। अगर तुम दूसरे चक्र पर पहुंचे हो तो तुम एकीकरण के उच्चतर शिखर अनुभव पर पहुंच जाते हो। जीवन मृत्यु से मिलता है, सूर्य चंद्रमा से मिल रहा होता है। और अब मिलन भीतरी है, इसलिए यह मिलन अधिक स्थिर, अधिक स्थायी हो सकता है, क्योंकि तुम किसी अन्य पर निर्भर नहीं हो। अब तुम्हारा मिलन तुम्हारे अपने आंतरिक पुरुष या अपनी आंतरिक स्त्री से हो रहा होता है।

तीसरा चक्र है. 'नाभि।वहां पर विधायक और नकारात्मक, धनात्मक विद्युत और ऋणात्मक विद्युत का मिलन होता है। उनका मिलन जीवन और मृत्यु के मिलन से भी उच्चतर है, क्योंकि विद्युत— ऊर्जा, प्राण, बायो—प्लाज्मा या जीव—ऊर्जा, जीवन और मृत्यु से भी गहरी है। इसका जीवन से पूर्व अस्तित्व होता है, यह मृत्यु के बाद भी अस्तित्व में रहती है। जीवन और मृत्यु का अस्तित्व जीव—ऊर्जा के कारण ही है। जीव—ऊर्जा का नाभि पर यह मिलन तुम्हें एक होने का, समग्र होने का, एकीकृत होने का उच्चतर अनुभव दे देता है।

इसके बाद है : 'हृदय।हृदय—चक्र पर निम्नतर और उच्चतर मिलते हैं। हृदय—चक्र पर प्रकृति और पुरुष, काम और आध्यात्म, सांसारिक और असांसारिक का—या तुम इसे कह सकते हो स्वर्ग. और पृथ्वी का मिलन घटता है। यह थोड़ा और उच्चतर है क्योंकि पहली बार उस पार का कुछ उदित होता है—तुम क्षितिज पर सूर्य का उदय होते देख सकते हो। अभी भी तुम्हारी जड़ें पृथ्वी में ही हैं, पर तुम्हारी शाखाएं ,आकाश में विस्तीर्ण हो रही हैं। तुम एक संगम बन गए हो। इसीलिए हृदय का केंद्र, जो सामान्यत: उपलब्ध, सर्वाधिक परिशुद्ध और सर्वोच्च है—प्रेम का अनुभव प्रदान करता है। प्रेम का अनुभव पृथ्वी कार स्वर्ग का सम्मिलन है, इसलिए एक ढंग से यह पार्थिव है और दूसरे ढंग से स्वर्गिक है।

यदि जीसस परमात्मा को प्रेम की भांति परिभाषित करते हैं, तो यह है इसका कारण, क्योंकि मानवीय चतना में प्रेम उच्चतम झलक मालूम पड़ता है।

आमतौर से लोग कभी भी हृदय—केंद्र के पार नहीं जाते हैं। हृदय—केंद्र पर पहुंचना भी कठिन, करीब—करीब असंभव प्रतीत होता है। लोग काम—केंद्र पर रहते हैं। अगर उन्हें योग, कराटे, अकीडो, ताई—ची का गहरा प्रशिक्षण दिया जाए तो वे दूसरे केंद्र हारा पर पहुंच जाते हैं। यदि उन्हें श्वास, प्राण की गहरी क्रिया विधि सिखाई जाए तो वे नाभि—केंद्र पर पहुंचते हैं। और अगर उन्हें सिखाया जाए कि किस प्रकार से पृथ्वी से परे देखना है, देह के पार देखना है और कैसे इतनी गहराई से और इतनी संवेदना से देखना है कि तुम स्थूल में और अधिक सीमित न रहो, और सूक्ष्म तुम्हारे भीतर अपनी पहली किरणें भेज सके, तो ही हृदय—चक्र।

भक्ति के सारे मार्ग, भक्ति—योग, हृदय—केंद्र पर कार्य करते हैं। तंत्र काम—केंद्र से शुरू करता है। ताओ हारा—केंद्र से शुरू होता है। योग नाभि—केंद्र से शुरू होता है। भक्ति—योग, उपासना और प्रेम के मार्ग सूफी आदि, वे हृदय—केंद्र से आरंभ होते हैं।

हृदय से ऊपर है : 'कंठ—चक्र।पुन: वहां एक दूसरा और ज्यादा श्रेष्ठ और अधिक सूक्ष्म एकीकरण घटता है। यह प्राप्त करने का और बांट देने का केंद्र है। जब बच्चा जन्म लेता है तो वह कंठ—केंद्र से ग्रहण करता है। पहले उसमें कंठ—चक्र के द्वारा जीवन प्रविष्ट होता है—वह हवा खींचता है, श्वास लेता है और फिर वह अपनी मां से दूध चूसता है। बच्चा कंठ—चक्र द्वारा कार्य करता है, लेकिन यह आधा काम है और जल्दी ही बच्चा इसके बारे में भूल जाता है। वह बस ग्रहण ही करता है। अभी तो वह दे नहीं सकता। उसका प्रेम निष्क्रिय है। और अगर तुम प्रेम मांग रहे हो, तो तुम किशोरवय रहोगे, तुम बचकाने बने रहोगे। जब तक तुम वयस्क नहीं होते कि तुम प्रेम दे सको, तुम परिपक्व नहीं हो पाए हो। प्रत्येक व्यक्ति प्रेम की चाह रखता है, प्रेम मांगता है, और देने वाला करीब—करीब कोई भी नहीं है। सारे संसार में यही तो पीड़ा है। और हरेक व्यक्ति जो मांगता है वह सोचता है कि वह दे रहा है, विश्वास करता है कि वह दे रहा है।

मैंने हजारों लोगों में झांक कर देखा है, सभी प्रेम के लिए भूखे हैं, प्रेम के लिए प्यासे हैं, लेकिन कोई किसी भी रूप में देने की कोशिश नहीं कर रहा है। और वे सभी यही विश्वास करते हैं कि वे दे रहे हैं लेकिन उन्हें मिल नहीं रहा है। जब तुम देते हो तो स्वाभाविक तौर से तुम्हें मिलता भी है। यह किसी और ढंग से कभी नहीं होता। जिस क्षण तुम देते हो, प्रेम तुम्हारी और उमड़ पड़ता है। इसका लोगों और व्यक्तियों से कुछ भी लेना देना नहीं है। इसका संबंध परमात्मा की ब्रह्मांडीय ऊर्जा से है।

कंठ—चक्र लेने और देने का मिलन है। तुम इससे लेते हो और इसी से देते हो। जीसस का कथन कि तुम्हें दुबारा बालवत होना पड़ेगा का यही अर्थ है। यदि तुम इस बात को योग की शब्दावली में अनुवाद करो तो इसका अर्थ होगा : दुबारा तुम्हें कंठ—चक्र पर आना पड़ेगा। बच्चा धीरे— धीरे इसे भूलता जाता है।

अगर तुम फ्रायड के मनोविज्ञान में देखो, तो तुम्हें इसके समतुल्य बात उसमें भी मिलेगी। फ्रायड का कहना है कि बच्चे की पहली अवस्था मौखिक है, दूसरी गुदीय है, और तीसरी जननेंद्रिक है। फ्रायड का सारा मनोविज्ञान तीसरे पर आकर समाप्त हो जाता है। निस्संदेह यह मनोविज्ञान बहुत अपर्याप्त, बहुत निम्नतल का, बहुत आशिक है, और मनुष्य के नितांत निचले स्तर के क्रियाकलापों से संबंधित है। मौखिक अवस्था, हां, ठीक है, बच्चा कंठ—केंद्र का उपयोग बस ग्रहण करने के लिए करता है। और जब वह ग्रहणशील हो जाता है तो उसका अस्तित्व गुदा उन्मुख हो जाता है।

क्या तुमने कभी इस बात पर ध्यान दिया है कि कुछ लोग अपनी मृत्यु पर्यंत मौखिक अवस्था को ही पकड़े रहते हैं। ये वे लोग हैं जिन्हें तुम धूम्रपान करता हुआ पाओगे, ये मौखिक अवस्था के लोग हे। वे अभी भी यही सब किए जा रहे हैं... धुंआ, सिगरेट, सिगार इन सबसे ऐसी अनुभूति होती है जैसे कि मां के दूध जैसी कोई उष्ण चीज उनके कंठ—चक्र से होकर प्रवाहित हो रही है, और वे मौखिक अवस्था में ही सीमित रहते हैं, वे कुछ दे नहीं सकते। अगर कोई व्यक्ति अधिक धूम्रपान करता है, रोग स्मोकर है, तो लगभग हमेशा ही वह प्रेम देने वाला नहीं होता। वह मांग करता है, लेकिन वह देगा नहीं।

वे लोग जो अत्यधिक धूम्रपान कर रहे हैं सदैव स्त्रियों के स्तनों में अत्यधिक रुचि रखते हैं। ऐसा होगा ही, क्योंकि सिगरेट चुचुक, निपल का विकल्प है। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि जो लोग धूम्रपान नहीं करते हैं वे स्त्रियों के स्तनों में रुचि नहीं रखते हैं। जो धूम्रपान करते हैं वे उत्सुक हैं, जो धूम्रपान नहीं करते है वे भी उत्सुक हैं; वे या तो पान चूस रहे होंगे या च्‍यूइंगम या कुछ और, या वे लोग बस पोर्नोग्राफी, नग्‍न—चित्रण में रुचि रखते होंगे, या वे लगातार स्तन से ही ग्रस्त रहते होंगे, उनके मन में, उनके स्वप्न में, उनकी कल्पना की, मन की उड़ान में स्तन है और उनके चारों ओर स्तन ही स्तन घूमते रहते हैं। वे मौखिक अवस्‍था के लोग हैं, उसमें अटके हुए।

जब जीसस कहते हैं कि तुम्हें दुबारा बच्चे जैसा हो जाना है, तो उनका अभिप्राय है कि तुम्हें कंठ—चक्र वापस लौटना पड़ेगा, लेकिन देने वाली एक नई ऊर्जा के साथ। सारे सृजनात्मक लोग देने वाले होते है। हो सकता है कि वे तुम्हारे लिए कोई गीत गाएं, या कोई नृत्य करें, या कोई कवित लिखें, या कोई चित्र बनांए, या तुम्हें कहानी सुनाएं। इन सभी के लिए कंठ—चक्र को देने के एक केंद्र की शांति प्रयुक्त किया जाता है। लेने और देने का मिलन कंठ—चक्र पर घटित होता है। ग्रहण करने की और बांट देने की क्षमता बड़ी से बड़ी एकात्मकताओं में से एक है।

कुछ लोग ऐसे भी हैं जो केवल लेने में ही समर्थ हैं, वे दुखी रहेंगे, क्योंकि तुम मात्र लेकर कभी धनी नहीं बनते, तुम देकर ही समृद्ध बनते हो। वस्तुत: जिसे तुम दे सको सिर्फ वही तुम्हारा है। यदि तुम न दे सको तो यह मात्र तुम्हारा विश्वास ही है कि वह तुम्हारा है, यह तुम्हारा नहीं है, तुम इसके मालिक नही हो। अगर तुम अपना धन नहीं दे सकते तो तुम इसके मालिक नहीं हो, तब तो धन ही मालिक है। अगर तुम इसे दे सको, तो निश्चित रूप से तुम ही मालिक हो। यह विरोधाभास जैसा ही दिखता है, लेकिन मैं इसे फिर से दोहरा दूं तुम उसी के मालिक हो सकते हो जिसे तुम दे सको। जिस क्षण तुम देते हो उसी क्षण में तुम मालिक, समृद्ध हो जाते हो। देना तुम्हें समृद्धि प्रदान करता है।

कंजूस लोग संसार मे सबसे दुखी और दरिद्र लोग हैं—दरिद्रों से भी दरिद्र। वे दे ही नहीं सकते, वे अटक गए हैं। वे जमा करते चले जाते हैं। उनके द्वारा जमा किया हुआ उनके अस्तित्व पर एक बोझ बन जाता है, यह उन्हें मुक्त नहीं करता। वस्तुत: अगर तुम्हारे पास कुछ है, तो तुम और मुक्त हो जाओगे। लेकिन कंजूसों को तो देखो, उनके पास काफी है, लेकिन वे बोझ से दबे हैं, वे मुक्त नहीं हैं। उनसे तो भिखारी भी ज्यादा मुक्त हैं। उनको क्या हो गया है? उन्होंने अपने कंठ—चक्र का उपयोग सिर्फ लेने के लिया किया है। न सिर्फ उन्होंने अपने कंठ—चक्र का उपयोग देने में नहीं किया है, बल्कि वे फ्रायड द्वारा बताए गए दूसरे केंद्र, गुदा तक भी नहीं पहुंचे हैं। ये लोग सदैव जमा करने वाले, कंजूस, कब्जग्रस्त होते है; हमेशा कब्ज से पीड़ित रहते हैं। याद रखो, मैं यह नहीं कह रहा हूं कि कब्ज से पीड़ित सभी लोग कंजूस होते हैं, अन्य कारण भी हो सकते हैं, लेकिन कंजूस निश्चित तौर से कब्ज के शिकार होते हैं।

फ्रायड कहता है कि स्वर्ण और मल में कुछ समानता होती है। दोनों पीले दिखते हैं। और जो लोग कब्ज से पीड़ित हैं वे स्वर्ण के प्रति बहुत ज्यादा आकर्षित रहते हैं। अन्यथा सोने का कोई अस्तित्वगत मूल्य नहीं है। न तुम इसे खा सकते हो, न तुम इसे पी सकते हो। तुम इससे क्या कर सकते हो? अस्तित्वगत रूप से एक गिलास पानी भी अधिक मूल्यवान है। लेकिन सोना इतना मूल्यवान क्यों बन गया? लोग सोने के प्रति क्यों इतने आसक्त हैं? वे लोग मौखिक अवस्था से गुदीय अवस्था में नहीं गए हैं। वे अपने आंतरिक अस्तित्व में कोष्ठबद्धता के शिकार हैं। अब उनका सारा जीवन उनकी इस कोष्ठबद्धता को प्रतिबिंबित करेगा, वे सोने के संग्राहक बन जाएंगे। सोना प्रतीकात्मक है। पीलापन ही उन्हें ऐसे विचार प्रदान करता है।

क्या तुमने छोटे बच्चों का निरीक्षण किया है? उन्हें शौचालय जाने के लिए राजी करना करीब—करीब दुष्कर ही होता है, उनको शौचालय भेजना उनके साथ लगभग जबरदस्ती करने जैसा ही है। और फिर वे इस बात पर भी जोर देते रहते हैं, कुछ नहीं हो रहा है, क्या वापस आ सकता हूं? वे कंजूसी का पहला पाठ पढ़ रहे होते हैं—कैसे रोक कर रखा जाए। किस प्रकार से उसे भी जो व्यर्थ है, उसे भी जिसको अगर तुम अपने भीतर रोक लो, तो जो हानिकारक है किस भांति न दिया जाए, कैसे रोका जाए। उनके लिए जहर तक को छोड़ पाना, इसका त्याग करना कठिन है।

मैंने दो बौद्ध भिक्षुओं के बारे में सुना है। उनमें से एक कंजूस और जमाखोर था और वह रुपया एकत्रित करके अपने पास रखता रहता था, और दूसरा उसके इस मूर्खतापूर्ण ढंग पर हंसा करता था। जो कुछ भी उसके सामने आए वह उसका उपयोग कर लेगा, वह इसे कभी जमा करके नहीं रखेगा। एक रात वे नदी पर पहुंचे। शाम हो गई थी, सूर्य अस्त हो रहा था, और वहां ठहरना खतरनाक था। उन्हें दूसरे किनारे पहुंचना ही था, उस पार एक नगर था, इस पार तो बस जंगल ही जंगल था।

जमा करने वाला कहने लगा, अब, तुम्हारे पास रुपये बिलकुल भी नहीं हैं, इसलिए हम नाव वाले को भुगतान नहीं कर सकते, इस बारे में तुम क्या कहते हो? तुम जमा करने के खिलाफ थे; अब अगर मेरे पास जरा भी रुपया नहीं हो तो हम दोनों मर जाएंगे, तुम समझे इस बात को? उसने कहा धन की जरूरत पड़ती है। वह व्यक्ति जो त्यागने में विश्वास रखता था, हंसा, लेकिन उसने कुछ कहा नहीं। फिर जमा करने वाले ने किराया चुकाया और उन्होंने नदी पार कर ली, वे उस पार पहुंच गए। जमा करने वाला फिर कहने लगा, अब इस बात को याद कर लो, अगली बार मुझसे विवाद मत करना, तुम्हें समझ आई? धन सहायता करता है। धन के बिना हम दोनों मर गए होते। उस किनारे पर पूरी रात—जंगली जानवरों के बीच, जिंदगी खतरे में थी।

दूसरा भिक्षु हंसा और उसने कहा लेकिन हम नदी पार इसलिए कर पाए कि तुमने धन खर्च किया। यह जमा करने के कारण संभव नहीं हो पाया कि हम जिंदा बच गए। अगर तुम धन को पकड़े रहने पर ही जोर देते और तुम नाव वाले को किराया न चुकाते तो हम मर गए होते। यह इसलिए हुआ कि तुम त्याग सके, कि तुम इसे छोड़ सके, तुमने इसे दिया—इसी कारण हम जिंदा बचे हैं।

विवाद अब तक जारी है। लेकिन स्मरण रहे, मैं इसके विरोध में नहीं हूं मैं पूर्णत: इसके पक्ष में हूं। किन्‍तु इसको उपयोग करो। इसे रखो, इस पर मालकियत करो, लेकिन तुम्हारी मालकियत तभी प्रकट होती है जब तुम इसे देने में समर्थ होते हो। कंठ—चक्र पर यह नया संश्लेषण घटित होता है। तुम स्वीकार कर सकते हो और तुम प्रदान कर सकते हो।

ऐसे लोग हैं जो एक अति से दूसरी अति पर चले जाते हैं। पहले वे देने में असमर्थ थे, वे केवल ले ही सकते थे, फिर वे बदल जाते हैं, वे दूसरी अति पर पहुंच जाते है—अब वे दे सकते हैं किंतु ले नहीं सकते। यह भी असंतुलित ढंग है। वास्तविक व्यक्ति भेंटें स्वीकार करने और उन्हें देने में समर्थ होता है। भारत में तुम्हें ऐसे अनेक संन्यासी, अनेक तथाकथित महात्मा मिल जाएंगे जो धन नहीं छुएंगे। अगर तुम उन्‍हें कुछ दो, तो वे पीछे हट जाएंगे, जैसे कि तुमने कोई सांप या कोई जहरीली वस्तु उनके सामने ला दी है। वह पीछे को हटना यही दिखाता है कि अब वे दूसरी अति पर चले गए हैं, अब वे ले पाने में असमर्थ हो चुके हैं। दुबारा उनका कंठ—चक्र आधा कार्य कर रहा है। और कोई केंद्र तब तक वास्तविक रूप से सक्रिय नहीं होता जब तक कि वह पूरी तरह कार्यरत न हो, जब तक कि चक्र पूरे ढंग से न घूमे, घूमता जाए और ऊर्जा क्षेत्रों का निर्माण करे।

फिर है 'तृतीय नेत्र' का चक्र। तृतीय नेत्र के चक्र पर दायां और बायां मिलता है, पिंगला और इड़ा मिलते हैं और सुषुम्ना बन जाते हैं। मस्तिष्क के दोनों गोलार्ध तृतीय नेत्र पर मिलते हैं; यह दोनों नेत्रों के ठीक मध्य में है। एक नेत्र दाएं का प्रतिनिधित्व करता है, दूसरा नेत्र बाएं का प्रतिनिधित्व करता है, और यह ठीक बीचोंबीच में है। तृतीय नेत्र पर इन बाएं और दाएं मस्तिष्कों का मिलन होता है, यह बहुत उच्च संश्लेषण है। लोग इस बिंदु तक ही व्याख्या करने में समर्थ रहे हैं। इसीलिए रामकृष्ण भी तृतीय नेत्र तक ही व्याख्या कर पाए। और जब उन्होंने अंतिम, सहस्रार पर घटने वाले परम संश्लेषण के बारे में बात करना आरंभ किया, वे बार—बार मौन में, समाधि में चले गए। यह इतना अधिक था कि वे इसमें डूब गए। यह बाढ़ की भांति था, वे इसके द्वारा सागर की ओर बहा दिए गए। वे अपने आप को चैतन्य, जाग्रत नहीं रख सके।

परम संश्लेषण 'सहस्रार' शीर्ष चक्र पर घटित होता है। इस सहस्रार के कारण ही सारे संसार में राजा, सम्राट, महाराजा और महारानिया मुकुट का प्रयोग करते हैं। यह औपचारिक हो चुका है, लेकिन मूलत: इस बात को माना गया था कि जब तक तुम्हारा सहस्रार सक्रिय न हो तुम राजा कैसे बन सकते हो, महाराजा कैसे बन सकते हो? जब तक कि तुम स्वयं पर शासन न कर सको तुम लोगों पर शासन कैसे कर सकते हो? मुकुट के प्रतीक में रहस्य छिपा है। रहस्य यह है कि वही व्यक्ति जो शीर्ष चक्र पर, अपने अस्तित्व के परम संश्लेषण तक पहुंच गया है सिर्फ वही राजा या रानी बन सकता है और कोई नहीं। केवल वही दूसरों पर शासन करने में समर्थ है, क्योंकि वह स्वयं का शासक बन चुका है, वह अपने आप का मालिक बन गया है, अब वह दूसरों के लिए सहायक हो सकता है।

वास्तव में जब तुम सहस्रार तक पहुंच जाते हो, तो एक हजार पंखुड़ियों वाला कमल खुलता है, तुम्हारे भीतर का मुकुट खिल उठता है। इसकी तुलना किसी बाहरी मुकुट से नहीं की जा सकती, लेकिन तब यह एक प्रतीक बन जाता है। और सारे संसार में ऐसा प्रतीक अस्तित्व में रहा है। इससे यही प्रदर्शित होता है कि प्रत्येक जगह पर लोग इस विधि से या उस विधि से सहस्रार पर घटने वाले इस परम संश्लेषण के प्रति जाग्रत और चैतन्य हुए हैं। यहूदी कपाल टोपी का उपयोग करते हैं; सहस्रार के ठीक ऊपर होती है। हिंदू बालों का एक गुच्छा उस जगह रहने देते हैं, वे इसे चोटी, शिखा कहते हैं। ये बाल ठीक उसी स्थान पर बढ़ाए जाते हैं जहां सहस्रार है या होना चाहिए। कुछ ऐसे ईसाई समाज हैं जो ठीक उसी स्थान को केशरहित कर लेते हैं। जब कोई सदगुरु शिष्य को आशीष देता है तो अपना हाथ वह उसके सहस्रार पर रखता है, और अगर शिष्य वास्तव में ग्रहणशील समर्पित है तो उसे अचानक काम—केंद्र से सहस्रार की ओर ऊर्जा के ऊर्ध्वगमन की अनुभूति होती है।

कभी—कभी जब मैं तुम्हारे सिर को स्पर्श करता हूं और तुम अचानक कामुक हो जाते हो, तो भयभीत मत होना, सिकुड़ मत जाना, क्योंकि ऐसा ही होना चाहिए। ऊर्जा काम—केंद्र पर है, यह अपनी कुंडली को खोलना शुरू कर देती है। तुम डर जाते हो, तुम सिकुड़ते हो, तुम इसका दमन करते हो—क्या हो रहा है? और अपने सदगुरु के चरणों में बैठे हुए कामुक हो जाना जरा अशोभनीय, घबड़ा देने वाला लगता है। ऐसा नहीं है। इसे होने देना, इसे घटने देना, और शीघ्र ही तुम पाओगे कि इसने पहले केंद्र को और दूसरे केंद्र को पार कर लिया है। और अगर तुम समर्पित हो तो एक क्षण में ही ऊर्जा सहस्रार पर गतिमान हो गई होती है, और तुम अपने भीतर एक नई खिलावट की अनुभूति करोगे। यही कारण है शिष्य को अपना सर नीचे झुकाना होता है ताकि सदगुरु उसका सर छू सके।

विषयी और विषय का, बाह्य और अंतर का पुन: अंतिम संश्लेषण घटता है। काम— भोग में बाहरी और भीतरी मिलते तो हैं, किंतु क्षण भर के लिए ही। सहस्रार में वे सदा के लिए मिल जाते हैं।

इसी कारण मैं कहता हूं व्यक्ति को संभोग से समाधि की ओर यात्रा करनी पड़ेगी। संभोग में निन्यानबे प्रतिशत सेक्स है और एक प्रतिशत सहंस्रार। सहस्रार में निन्यानबे प्रतिशत सहस्रार है, एक प्रतिशत सेक्स। दोनों संयुक्त हैं, वे ऊर्जा की गहरी धाराओं द्वारा जुड़े हुए हैं। इसलिए अगर तुमने सेक्स का आनंद लिया है तो अपना घर वहां मत बनाओ। सेक्स सहस्रार का एक झरोखा मात्र है। सहस्रार तुम्हें हजारों गुना आशीष, आनंद देने जा रहा है। बाह्य और अंतस मिलते हैं, मैं और तू मिलते हैं, पुरुष और स्त्री मिलते हैं, यिन और यांग मिलते हैं और यह मिलन परम है। फिर कोई बिछुड़ना नहीं होतो, फिर कोई अलगाव नहीं होता।

इसी को योग कहते हैं। योग का अभिप्राय है दो का मिल कर एक हो जाना। ईसाईयत में रहस्यदर्शियों ने इसे यूनियो मिष्टिका कहा है, यह योग का बिलकुल ठीक अनुवाद है। यूनियो मिष्टिका, रहस्यमय एकत्‍व। सहस्रार पर अल्फा और ओमेगा, आरंभ और अंत मिल जाते हैं। काम—क्रेंद्र में है आरंभ। काम— केंद्र तुम्हारा अल्फा है, समाधि तुम्हारा ओमेगा है। और जब तक कि अल्फा और ओमेगा न मिलें, जब तक कि तुम इस परम एकता को उपलब्ध न कर लो, तुम दुखी रहोगे, क्योंकि वही तुम्हारी नियति है। तुम अतृप्त रहोगे। तुम संश्लेषण के इस उच्चतम शिखर से ही परितृप्त हो सकते हो।



 अब सूत्र :

उनकी बोध की शक्ति, वास्तविक स्वरूप, अस्मिता, सर्वव्यापकता, और क्रिया—कलापों पर संयम साधने से, ज्ञानेंद्रियों पर स्वामित्व उपलब्ध हो जाता है।



 समझने के लिए पहली बात यह है कि तुम्हारे पास संवेदी इंद्रियां हैं, किंतु तुम संवेदना खो चुके हो। तुम्हारे संवेदी अंश लगभग संवेदना शून्य, मृत हैं। वे तुम्हारे शरीर पर बस हैं भर, लेकिन उनमें ऊर्जा प्रवाहित नहीं हो रही है, वे तुम्हारे अस्तित्व के जीवंत अंग नहीं हैं। तुम्हारे भीतर कुछ मृतप्राय: हो चुका है, यह ठंडा, अवरुद्ध हो गया है। हजारों वर्षों के दमन के कारण सारी मानव—जाति के साथ यही घट गया है। और शरीर के विरोध में चली आ रही विचार धाराओं और संस्कारबद्धताओं के हजारों वर्षों ने तुम्हें पंगु बना दिया है, तुम बस नाम के लिए जीवित हो।

अत: पहला काम यही किया जाना है : तुम्हारे संवेदी अंगों को वास्तविक रूप से जीवंत और संवेदनशील होना चाहिए, केवल तभी उन पर स्वामित्व हो सकता है। तुम देखते हो परंतु तुम गहराई से नहीं देखते। तुम वस्तुओं की सतह भर देखते हो। तुम स्पर्श करते हो लेकिन तुम्हारे स्पर्श में कोई उष्णता नहीं है। तुम्हारे स्पर्श से कुछ भी अंदर और बाहर प्रवाहित नहीं होता। तुम सुनते भी हों—पक्षी गीत गाए चले जाते हैं और तुम सुनते हो, और तुम कह सकते हो, ही, मैं सुन रहा हूं और तुम गलत हों—तुम सुन रहे हों—लेकिन यह कभी तुम्हारे अस्तित्व के अंतर्तम केंद्र तक नहीं पहुंचता। यह तुम्‍हारे भीतर नृत्य करता हुआ प्रविष्ट नहीं होता, यह तुम्हारे भीतर खिलावट में, तुम्हारी पर्त्तों के खुलने में सहायता नहीं करता।

इन ज्ञानेंद्रियों को पुन: ऊर्जावान कर देना है। ध्यान रहे, योग शरीर के विरोध में नहीं है। योग कहता है, शरीर के पार जाओ; लेकिन यह शरीर के विरुद्ध नहीं है। योग कहता है, शरीर का उपयोग करो, इसके द्वारा उपयोग में मत आओ; लेकिन यह शरीर के विरोध में नहीं है। योग कहता है, शरीर तुम्हारा मंदिर है। तुम शरीर में हो, और शरीर इतनी सुंदर संघटना है, इतनी जटिल और इतनी सूक्ष्म, इतनी रहस्यपूर्ण और इसके माध्यम से कितने ज्यादा आयाम खुलते हैं। और ये ज्ञानेद्रिया ही एकमात्र द्वार और झरोखे हैं जिनके द्वारा तुम परमात्मा तक पहुंचोगे—इसलिए उनको मुर्दा मत होने दो। उन्हें और— जीवंत बनाओ। उन्हें तरंगित, स्पंदित और स्टेनले केलेमैन की शब्दावली में 'प्रवाहमान' होने दो। यह बिलकुल ठीक शब्द है : उन्हें एक धारा की भांति प्रवाहित होने दो, उमड़ने दो। तुम्हें यह अनुभूति हो सकती है। तुम्हारा हाथ अगर यह ऊर्जा की धारा की भांति प्रवाहित हो रहा है, तो तुम्हें स्पंदन की अनुभूति महसूस होगी, तुम्हें अहसास होगा कि हाथ के भीतर कुछ प्रवाहित हो रहा है और संपर्क बनाना चाहता है, संबंधित होना चाहता है।

जब तुम किसी स्त्री या पुरुष को प्रेम करते हो और तुम उसका हाथ अपने हाथ में लेते हो, यदि तुम्हारा हाथ प्रवाहित नहीं हो रहा है, तो ऐसा प्रेम किसी काम का नहीं है। अगर तुम्हारा हाथ ऊर्जा से स्पंदित और प्रकंपित नहीं हो रहा है और तुम्हारी स्त्री या तुम्हारे पुरुष में ऊर्जा नहीं उंड़ेल रहा है, तो बिलकुल आरंभ से ही यह प्रेम करीब—करीब मृत है। तब यह शिशु जिंदा नहीं जन्मा है। तब जल्दी या देर में तुम समाप्त हो जाओगे—तुम समाप्त हो ही चुके हो। इसे पहचानने में थोड़ा समय खर्च होगा, क्योंकि तुम्हारा मन भी कुंठित है, अन्यथा तुमने इसमें प्रवेश ही न किया होता, क्योंकि यह पहले से ही मृत है। तुम किसलिए इसमें प्रविष्ट हो रहे हो? तुम्हें चीजों को पहचानने में समय लगता है क्योंकि तुम्हारी संवेदनशीलता, प्रतिभा, बुद्धिमत्ता इतनी ज्यादा धुंधली और संशयग्रस्त है।

केवल एक प्रवाहमान प्रेम ही आनंद का, हर्ष का, उल्लास का स्रोत बन सकता है। लेकिन उसके लिए तुम्हें प्रवाहमान ज्ञानेंद्रियों की आवश्यकता पड़ेगी।

कभी—कभी तुम्हें इसकी झलक मिल सकती है; और हरेक व्यक्ति को जब वह बच्चा होता है यह मिलती है। तितली के पीछे भागते हुए किसी बच्चे को देखो। वह प्रवाहमान है, जैसे किसी भी क्षण वह अपने शरीर से बाहर छलांग लगा सकता है। किसी बच्चे को जब वह गुलाब के फूल को देख रहा हो, देखो, उसकी आंखें, उनकी चमक, वह प्रदीप्ति जो उसकी आंखों में आ जाती है, देखो, वह प्रवाहमान है। उसकी आंखें पुष्प की पंखुड़ियों पर नृत्य सा कर रही होती हैं।

यही है होने का ढंग—नदी समान हो जाओ। और केवल तभी इन संवेदकों पर मालकियत संभव है। वस्तुत: लोगों ने बहुत गलत दृष्टिकोण अपनाया हुआ है। वे सोचते है कि अगर तुम्हें अपनी ज्ञानेंद्रियों का मालिक बनना हो तो उन्हें करीब—करीब मृत बना लो। लेकिन तब मालकियत करने में क्या सार है? तुम हत्या कर सकते हो और तुम्हीं मालिक हो। तुम लाश पर बैठ सकते हो। लेकिन तब मालिक होने में क्या सार रहा? लेकिन यह आसान लगता है, पहले उन्हें मार डालो और फिर तुम मालकियत कर सकते हो। अगर शरीर इतना शक्तिशाली, और तीव्र महसूस होता हो तो इसे कमजोर बनाओ और तुम यह महसूस करने लगोगे कि तुम मालिक हो। लेकिन तुमने शरीर को मार डाला है। ध्यान रहे, जीवित पर मालकियत की जानी चाहिए, मुर्दा चीजों पर नहीं, वे किसी काम की न होंगी।

लेकिन यह सुगम उपाय का रूप खोजा गया, इसलिए संसार के सारे धर्म इसका उपयोग कर रहे हैं। धीमे— धीमे अपने शरीर को नष्ट करते जाओ। शरीर से अपना संबंध विच्छेद कर लो। संपर्क में मत रहो, खुद को परे हटा लो। उदासीन हो जाओ। तब तुम्हारा शरीर करीब—करीब एक मुर्दा पेड़ हो जाएगा, अब इस पर नई पत्तियां नहीं उगती हैं, न ही इसमें फूल लगते हैं, न ही अब पक्षी इस पर विश्राम करने आते हैं। यह बस एक मरा हुआ ठूंठ होता है। निस्संदेह तुम इस पर मालकियत कर सकते हो, लेकिन अब इस मालकियत से तुम्हें क्या मिलने वाला है?

यही समस्या है; इसी कारण लोग समझ नहीं पाते कि पतंजलि क्या कह रहे हैं।

'उनकी बोध की शक्ति पर संयम साधने से...।

किंतु उन्हें शक्तिशाली होना पड़ेगा। वरना तुम यह भी अनुभव न कर पाओगे कि शक्ति क्या है। ये ज्ञानेंद्रिया शक्ति से इतनी आपूरित होनी चाहिए, उन्हें शक्ति की उस ऊंचाई पर होना चाहिए, कि तुम उन पर संयम साध सको, तुम उन पर ध्यान कर सको।

अभी तो जब तुम एक फूल को देखते हो, तो फूल वहां है, लेकिन क्या तुमने अपनी आंखों को महसूस किया है? तुम फूल को देखते हो, लेकिन क्या तुमने अपनी आंखों की शक्ति को अनुभव किया है? इसे वहां होना चाहिए क्योंकि तुम फूल को देखने के लिए अपनी आंखों का उपयोग कर रहे हो। और निस्संदेह आंखें किसी भी फूल से ज्यादा सुंदर हैं क्योंकि सभी फूलों का शान तुम्हें आंखों के माध्यम से होता है। आंखों के द्वारा ही तुम्हें फूलों के संसार की जानकारी हो पाई है, किंतु क्या तुमने कभी आंखों की शक्ति को अनुभव किया है। वे संवेदना से लगभग शून्य, मृतप्राय: हैं। वे निष्क्रिय, बस झरोखे जैसी, ग्रहणशील हो गई हैं। वे अपनी विषय वस्तु तक नहीं पहुंचती। और शक्ति का अर्थ है सक्रिय होना। शक्ति का अभिप्राय है कि तुम्हारी आंखें गतिशील होकर फूलों को करीब—करीब छू ही लें, तुम्हारे कान गतिशील होकर पक्षियों के गीतों को करीब—करीब स्पर्श ही कर लें, तुम्हारे हाथ तुम्हारे भीतर की सारीऊर्जा के साथ जो उनमें केंद्रित हो गई हो गतिमान हो और तुम्हारे प्रिय को स्पर्श करें। या तुम घास पर लेटे हो, तुम्हारा सारा शरीर शक्ति से आपूरित, घास से संपर्क बना रहा है, घास से संवाद कर रहा है। या तुम नदी में तैर रहे हो, नदी की गुनगुनाहट सुन रहे हो और उसके साथ धीमे स्वरों में संवाद कर रहे हो—संपर्क में हो, संवाद कर रहे हो, लेकिन शक्ति की जरूरत है।

इसलिए पहली बात जो मैं चाहता हूं कि तुम करो वह यह कि जब तुम देखो, तो वास्तव में देखो, आख ही बन जाओ, बाकी सब कुछ भूल जाओ। अपनी संपूर्ण ऊर्जा को आंखों से होकर प्रवाहित होने दो, और तब तुम्हारी आंखें एक आंतरिक फुहार से स्नान करके स्वच्छ हो जाएंगी और तुम यह देखने में समर्थ हो जाओगे कि अब वृक्ष वैसे ही न रहे, उनकी हरीतिमा अब पहले जैसी नहीं है, यह और हरी हो गई है, जैसे कि इससे धूल हट गई हो। धूल वृक्षों पर नहीं थी, यह तुम्हारी आंखों पर थी। और तब तुम पहली बार देखोगे, और तुम पहली बार सुनोगे।

जीसस अपने शिष्यों से कहे चले जाते हैं, अगर तुम्हारे पास कान हैं, सुनो। अगर तुम्हारे पास आंखें हैं, देखो। वे एकदम अंधे नहीं थे, और वे एकदम बहरे भी नहीं थे। उनका क्या अभिप्राय है? उनका अर्थ यह है कि तुम लगभग बहरे हो गए हो, लगभग अंधे हो गए हो। तुम देखते हो फिर भी तुम नहीं देखते। तुम सुनते हो फिर भी तुम नहीं सुनते। यह शक्ति नहीं है, यह ऊर्जा नहीं है, यह जीवंतता नहीं है।

'उनकी बोध की शक्ति, वास्तविक स्वरूप पर संयम साधने से...।

तब तुम यह देख पाने में समर्थ हो जाओगे कि तुम्हारी ज्ञानेंद्रियों का वास्तविक स्वरूप क्या है। यह दिव्य है। तुम्हारी देह अपने में दिव्य को समाए हुए है। यह परमात्मा है, जिसने तुम्हारी आंखों के माध्यम से देखा है।

मुझे मास्टर इकहार्ट का एक प्रसिद्ध कथन याद आता है। जिस दिन वह जागा, और संबोधि को प्राप्त हुआ, उसके मित्रों और शिष्यों और बंधुओं ने पूछा, आपने क्या देखा? वह हंसा। सारी ईसाइयत में वह ही एक मात्र ऐसा है जो झेन मास्टर के बहुत करीब है, करीब—करीब झेन मास्टर ही है। वह हंसा उसने कहा : मैंने उसको नहीं देखा, उसने स्वयं को मेरे माध्यम से देख लिया है। परमात्मा ने मेरे द्वारा अपने आप को देख लिया है। ये आंखें उसकी हैं। और क्या खेल है, क्या लीला है। उसने खुद को मेरे द्वारा देखा। जब तुम ज्ञानेंद्रियों के स्वरूप की वास्तविक अनुभूति करोगे तो तुम्हें अनुभव होगा कि वे दिव्य हैं। यह परमात्मा ही है जिसने तुम्हारे हाथ के द्वारा गति की है। यह परमात्मा का हाथ है। सारे हाथ उसी के हैं। यह परमात्मा ही है। जिसने तुम्हारे द्वारा प्रेम किया है, सारे प्रेम संबंध उसी के हैं। उसके अतिरिक्त और हो भी क्या सकता है? हिंदू इसे लीला, परमात्मा का खेल कहते हैं। कोयल के रूप में जो तुम्हें बुला रहा है, वह वही है, और जो तुम्हारे द्वारा सुन रहा है वह भी वही है। यह वही और सिर्फ वही है जो हर स्थान पर व्याप्त है।

'उनकी बोध की शक्ति, वास्तविक स्वरूप, अस्मिता, सर्वव्यापकता और क्रियाकलापों पर संयम साधने से ज्ञानेंद्रियों पर स्वामित्व उपलब्ध हो जाता है।

यह शब्द 'अस्मिता' समझ लेने जैसा है, क्योंकि हमारे पास संस्कृत में अहंकार के लिए तीन शब्द हैं और अंग्रेजी में' केवल एक ही शब्द है। इससे कठिनाई उत्पन्न होती है। इस सूत्र में संस्कृत का शब्द है 'अस्मिता' अत : पहले मैं तुम्हें इसे समझता हूं।

ये तीन शब्द हैं : अहंकार, अस्मिता, आत्म। सभी का अर्थ है 'मैं'। अहंकार का अनुवाद ईगो के रूप में किया जा सकता है, यह बहुत स्थूल है, इसमें मैं पर अत्यधिक जोर है। अस्मिता के लिए अंग्रेजी में कोई शब्द नहीं है। अस्मिता का अर्थ है : हूं—पन, मैं हूं। अहंकार में जोर 'मैं' पर है, अस्मिता में जोर 'हूं पर है। हूं—पन, अहंकार से अधिक शुद्ध है। फिर भी यह वहां है, किंतु एक बिलकुल ही अलग रूप में हूं—पन। और 'आत्म', हूं—पन भी खो गया है। अहंकार में 'मैं है; अस्मिता केवल 'हूं और आत्म में यह भी मिट चुका है। आत्म में शुद्ध अस्तित्व है, न मैं और न हूं—पन का प्रयोग है।

इस सूत्र में अस्मिता, हूं—पन का प्रयोग है। स्मरण रखो कि अहंकार मन का होता है, ज्ञानेंद्रियों में कोई अहंकार नहीं होता। उनमें एक निश्चित हूं—पन है, परंतु अहंकार नहीं होता। अहंकार मन का है। तुम्हारी आंखों के पास कोई अहंकार नहीं होता, तुम्हारे हाथों के पास कोई अहंकार नहीं है, उनके पास एक निश्चित हूं—पन है। यही कारण है कि अगर तुम्हारी त्वचा को बदलना पड़े और किसी अन्य की त्वचा प्रत्यारोपित कर दी जाए तो तुम्हारा शरीर उसे अस्वीकार कर देगा, क्योंकि शरीर को पता है कि यह मेरी नहीं है। इसलिए तुम्हारे शरीर के ही दूसरे किसी भाग से, जैसे जांघ की त्वचा निकाल कर प्रत्यारोपण करना पड़ता है, तुम्हारी अपनी त्वचा का प्रत्यारोपण करना पड़ता है। अन्यथा शरीर उसे अस्वीकार कर देगा, तुम्हारा शरीर इसे स्वीकार नहीं करेगा—यह मेरी नहीं है। शरीर के पास कोई मैं नहीं है, लेकिन इसके पास हूं—पन है।

अगर तुम्हें रक्त की आवश्यकता हो तो हर किसी का रक्त काम न पड़ेगा। शरीर हर प्रकार के रक्त को स्वीकार नहीं करेगा, केवल एक विशेष प्रकार का रक्त ही चाहिए। उसके पास इसका अपना हूं—पन है। यही स्वीकार किया जाएगा, कोई अन्य रक्त अस्वीकृत कर दिया जाएगा। शरीर के पास अपने अस्तित्व की एक निजी अनुभूति है। बहुत अचेतन, बहुत सूक्ष्म और शुद्ध, लेकिन यह वहां होती है।

तुम्हारी आंखें तुम्हारी हैं, तुम्हारे अंगूठे की छाप की भांति। तुम्हारी हर चीज तुम्हारी है। अब शरीर विज्ञानी कहते हैं कि प्रत्येक का हृदय अलग है, अलग आकार का है। शरीर क्रिया विज्ञान की पुस्तकों में जो चित्र तुम्हें मिलेगा वह वास्तविक चित्र नहीं है, यह बस औसत है, यह कल्पना द्वारा बनाया गया है। अन्यथा प्रत्येक व्यक्ति का हृदय अलग आकार का है। यहां तक कि हर व्यक्ति का गुर्दा भी अलग आकार का है। इन सभी अंगों पर उन व्यक्तियों के हस्ताक्षर होते हैं, हर व्यक्ति इतना अनूठा है। यही है हूं—पन।

तुम यहां दुबारा फिर कभी नहीं होगे, तुम यहां पहले कभी नहीं थे, इसलिए सावधानी पूर्वक, सजग होकर और प्रसन्नता पूर्वक जीयो। अपने अस्तित्व की गरिमा के बारे में सोचो। जरा सोचो तुम कितने श्रेष्ठ और अनूठे हो। परमात्मा ने तुम्हें बहुत कुछ दिया है। कभी अनुकरण मत करो क्योंकि वह एक धोखा होगा। स्वयं जैसे बनो। इसी को अपना धर्म बन जाने दो। शेष सब कुछ राजनीति है। हिंदू मत बनो, मुसलमान मत बनो, ईसाई मत बनो। धार्मिक बनो, लेकिन केवल एक ही धर्म है, और वह है स्वयं ही, प्रामाणिक रूप से स्वयं ही, हो जाना।

'उनकी बोध की शक्ति, वास्तविक स्वरूप, अस्मिता, सर्व व्यापकता और क्रियाकलापों पर संयम साधने से ज्ञानेंद्रियों पर स्वामित्व उपलब्ध होता है।

और अगर इन चीजों पर ध्यान लगाओ तो तुम मालिक हो जाओगे। ध्यान स्वामित्व लाता है, ध्यान के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है जो स्वामित्व लाता हो। अगर तुम अपनी आख पर ध्यान करो तो पहले तुम गुलाब का फूल देखोगे, धीरे— धीरे तुम उस आख को देखने में समर्थ हो जाओगे जो देख रही है। तब तुम आख के स्वामी हो गए हो। एक बार तुमने देखने वाली आख को देख लिया, तुम स्वामी हो गए। अब तुम इसकी सारी ऊर्जाओं का उपयोग कर सकते हो, और वे सर्वव्यापक हैं। तुम्हारी आंखें उतनी सीमाबद्ध नहीं है जैसा कि उन्हें तुम समझते हो। वे ऐसी और भी बहुत सी चीजें देख सकती हैं जिन्हें तुमने नहीं देखा है। वे ऐसे कई रहस्यों को अनावृत कर सकती हैं जिनका तुम्हें सपने में भी खयाल नहीं आया होगा। लेकिन तुम अपनी आंखों के स्वामी नहीं हो, और तुमने उनका उपयोग बहुत अनजाने ढंग से बिना यह जाने कि तुम क्या कर रहे हो, किया है।

और वस्तुओं के संपर्क में बहुत अधिक रहने के कारण तुम अपनी आंखों का कर्तापन भूल चुके हो। अगर तुम किसी के साथ रही तो ऐसा होता है कि धीरे— धीरे उसके प्रभावक्षेत्र में आ जाते हो। तुम वस्तुओं के संपर्क में इतना अधिक रहे हो कि तुम अपनी' ज्ञानेंद्रियों की आंतरिक गुणवत्ता भूल चुके हो। तुम वस्तुओं को देखते हो, लेकिन अपने देखे जाने को तुम कभी नहीं देखते। तुम गीतों को सुनते हो, लेकिन तुम कभी उन सूक्ष्म तरंगो को, अपने अस्तित्व की ध्वनि को, जो तुम्हारे भीतर चली जाती हैं, कभी नहीं सुनते।

मैं तुमसे एक कहानी कहना चाहूंगा:

एक अत्यंत आवारा व्यक्ति में गजब का आत्मविश्वास था। उसने एक जगमगाते रेस्तरां में छक कर भोजन किया और मैनेजर से कहने लगा मेरे प्रिय महोदय, मुझे आपके यहां का भोजन बहुत पसंद आया है, लेकिन दुर्भाग्य से मैं इसमें से किसी भी चीज का दाम नहीं चुका सकता, मेरे पास तो फूटी कौड़ी भी नहीं है। अब क्रोधित मत हों। जैसा कि आप देख सकते हैं कि मैं पेशेवर भिखारी हूं। मैं अतिशय प्रतिभाशाली भिखारी भी हूं। मैं बाहर जाकर केवल एक घंटे के अंदर ही उतनी धन राशि ला सकता हूं जितना मुझ पर इस खाने के लिए आपका बकाया है। लेकिन फिर भी स्वाभाविक ही है कि आप मेरे लौटने की बात का भरोसा नहीं कर सकते हैं, यह बात मैं पूरी तरह सें समझता हूं। मेरा साथ देने के लिए आपका स्वागत है, लेकिन क्या आप जैसा कोई व्यक्ति जो इतने सुप्रसिद्ध रेस्तरां का मालिक है, मेरे जैसे स्तर के आदमी के साथ देखा जाना पसंद करेगा? नहीं। इसलिए श्रीमन् हमारी छोटी सी समस्या का एकदम सही समाधान मेरे पास है। मैं यहां आपकी प्रतीक्षा करूंगा और आप बाहर जाकर तब तक भीख मांग लें जब तक कि इस भोजन का मूल्य आपके पास एकत्रित न हो जाए।

अगर तुम भिखारी का साथ पकड़ोगे तो तुम भिखारी हो जाओगे। वह तुम्हें अपनी तरह का बनाने के लिए हजारों ढंग सुझा देगा।

हमने विषय वस्तुओं के साथ अपना संबंध इतने लंबे समय से बनाया हुआ है कि अपने विषयी स्वरूप को हम भूल बैठे हैं। हम बाहर की ओर इतने दिनों से केंद्रित रहे हैं, कि अपने व्यक्ति होने को भूल चुके हैं। वस्तुओं से इस दीर्घकालीन जुड़ाव ने तुम्हारी अपनी ही प्रतिभा को नष्ट कर दिया है। तुमको वापस घर लौटना पडेगा।

योग में जब तुम अपनी देखती हुई आख को देखना आरंभ करते हो, तो तुम्हें सूक्ष्म ऊर्जा का संज्ञान होता है। वे इसे तन्मात्रा कहते हैं। जब तुम अपनी देखती हुई आख को देख पाते हो तो आंखों के एकदम पीछे तुम्हें ऊर्जा की एक विराट मात्रा दिखाई पड़ती है। यह आख की ऊर्जा, तन्मात्रा है। कान के पीछे तुम्हें ऊर्जा का विशाल संचय मिलता है, यह कान की तन्मात्रा है। अपने यौनांगों के पीछे तुम्हें बहुत सारी संचित ऊर्जा मिलती है, यह कामवासना की तन्मात्रा है। और इसी भांति और जगहों पर है। हर कहीं पर, क्योंकि तुम्हारी ज्ञानेंद्रियों के पीछे ऊर्जा का अप्रयुक्त कुंड है। एक बार तुम इसे जान लो तुम इस ऊर्जा को अपनी आंखों में प्रवाहित कर सकते हो, और तब तुम्हें वे दृश्य दिखाई पड़ेंगे जो कभी—कभी कवि देखते है, चित्रकार देखते हैं। तब तुम्हें ऐसी ध्वनियां सुनाई पड़ेगी जिन्हें कभी—कभी कवि सुनते हैं, संगीतकार सुनते हैं। और तब उन चीजों को छिपाओगे जिन्हें कभी—कभी दुर्लभ क्षणों में सिर्फ प्रेमी ही जानते हैं:, किस भांति छूना है।

तुम जीवंत, प्रवाहमान हो उठोगे।

सामान्यत: तो तुम्हें यही सिखाया जाता है कि अपनी ज्ञानेंद्रियों को दमित किस प्रकार करो, न कि उन्हें जानो। यह बहुत मूढ़तापूर्ण है, लेकिन बहुत सुविधाजनक है।

ऐसा हुआ, एक गांव में विवाह के बाद दूल्हा और दुल्हन घोड़ागाड़ी में बैठ कर अपने फार्म हाउस की और चल दिए। सड़क पर लगभग एक मील चलने के बाद घोड़ा लड़खड़ा गया—यह हुआ : एक! दूल्हा चिल्लाया।

वे चलते गए, और घोड़ा फिर लड़खडाया—यह हुआ. दो! दूल्हा चिल्ला कर बोला।

जैसे ही वे फार्म हाउस के निकट पहुंचे, घोड़ा फिर से लड़खड़ा गया—यह हुआ. तीन। दूल्हा चिल्लाया और सीट के पीछे से बंदूक उठा कर उसने गोली घोड़े के सिर के पार कर दी।

दुल्हन तो भौचक्की सी बैठी रही। फिर उसने बड़े निश्चित ढंग से अपने नये वर को बताया कि उसके इस कृत्य के बारे में उसने क्या सोचा? वह उस समय तक चुप बैठा रहा, जब तक कि वह शात न हो गई फिर उसने उसकी और संकेत किया और चिल्लाया, यह हुआ : एक!

यह दंपति अगले साठ वर्षों तक सुखपूर्वक जीए।

किंतु यह प्रसन्नता वास्तविक प्रसन्नता नहीं हो सकती। बंदूक की नोक से दमन करना आसान है, लेकिन तब इन दो लोगों के बीच किस प्रकार का प्रेम घटा होगा? सदैव ही बंदूक दोनों के बीच में खड़ी रही होगी और पत्नी सदा भयभीत रही होगी कि अब किसी भी क्षण वह कहने जा रहा है—अब यह हुआ. दो! अब यह हुआ तीन! और खत्म।

तुमने अपनी ज्ञानेंद्रियों के साथ, अपने शरीर के साथ यही किया हुआ है। तुमने इसका दमन किया है। लेकिन तुम असहाय थे। मैं यह नहीं कहता कि इसके दमन के लिए तुम उत्तरदायी हो। तुम्हारा लालन— पालन ही इस प्रकार से हुआ है, किसी ने तुम्हारी ज्ञानेंद्रियों को स्वतंत्रता नहीं दी। इसी प्रकार से हुआ है किसी ने तुम्हारी ज्ञानेंद्रियों को स्वतंत्रता नहीं दी। प्रेम के नाम पर केवल दमन जारी रहता है। माता—पिता, लोग, समाज, वे सभी दमन किए चले जाते हैं। धीरे— धीरे वे तुम्हें एक तरकीब सिखा देते हैं, और तरकीब है—खुद को स्वीकार मत करो, इनकार करो। हर बात को एक निश्चित अनुरूपता दे दी जानी है। तुम्हारी प्रचंडता को तुम्हारी आत्मा के अंधेरे भाग में धकेल दिया जाता है और एक छोटा सा कोना, ड्राइंग रूम की भांति साफ कर दिया जाता है जहां तुम लोगों से मिल सको, उनके साथ बैठ सको और जी सको और अपने प्रचंड अस्तित्व, अपने यथार्थ अस्तित्व के बारे में सब कुछ भूल सको। तुम्हारे पिता लोग और तुम्हारी माताएं भी इसके लिए उत्तरदायी नहीं हैं क्योंकि उनका लालन पालन भी इसी भांति हुआ था।

इसलिए कोई भी उत्तरदायी नहीं है। लेकिन एक बार तुम इसे जान लो, और तुम कुछ भी न करो तो तुम उत्तरदायी हो जाते हो। मेरे निकट रहते हुए, मैं तुम्हें बहुत अधिक उत्तरदायी बनाने जा रहा हूं क्योंकि तुम इसे जान लोगे, और तब तुमने यदि कुछ न किया तो तुम उत्तरदायित्व किसी और पर नहीं थोप सकोगे। फिर तो तुम्हीं उत्तरदायी होने जा रहे हो।

अब तुम जानते हो कि किस भांति तुमने अपनी ज्ञानेंद्रियों को नष्ट किया है और किस प्रकार से उन्हें पुनजावित करना है। कुछ करो। दमनकारी मन को पूर्णत:, बंदूक को पूर्णत:, तिलांजलि दो। स्वयं को अवरोध मुक्त करो। पुन: प्रवाहमान हो जाओ। अपने अस्तित्व से दुबारा जुड़ना शुरू करो। अपनी ज्ञानेंद्रियों से फिर से संबंधित होना शुरू करो। तुम एक काटी गई टेलीफोन लाइन जैसे हो। सब कुछ पूर्णत: ठीक दिखता है, टेलीफोन मौजूद है, लेकिन लाइन कटी हुई है। इसे पुन: जोड़ लो। अगर इसे काटा जा सकता है तो इसे दुबारा जोड़ा भी जा सकता है। दूसरों ने इसे काट दिया है क्योंकि उन्हें भी ऐसे ही सिखाया गया था, लेकिन तुम इसको दुबारा जोड़ सकते हो।

मेरे सारे ध्यान प्रयोग तुम्हें प्रवाहमान ऊर्जा प्रदान करने के लिए हैं। इसीलिए मैं उन्हें सक्रिय विधियां कहता हूं। पुराने ध्यान प्रयोग कुछ न करते हुए मात्र मौन बैठना भर थे। मैं तुम्हें सक्रिय विधियां देता हूं क्योंकि जब ऊर्जा का प्रवाह तुममें उमड़ रहा होता है तो तुम शांत बैठ सकते हो, यह काम देगा, लेकिन ठीक अभी, पहले तो तुम्हें जीवंत होना पड़ेगा।

'इसके उपरांत देह के उपयोग के बिना ही कबण बोध और प्रधान (पौद्गलिक जगत) पर पूर्ण स्वामित्व उपलब्ध हो जाता है।

अगर तुम तन्मात्राओं, अपनी ज्ञानेंद्रियों की सूक्ष्म ऊर्जाओं को देख सकते हो तो तुम अपने बोध का बिना इन स्थूल अवयवों के, उपयोग करने में समर्थ हो जाओगे। यदि तुम्हें पता है कि आख के पीछे ऊर्जा का एक संचित कुंड है तो तुम आंखों को बंद करके ऊर्जा को सीधे ही प्रयोग कर सकते हो। तब तुम अपनी आंखों को खोले बिना ही देखने में सक्षम हो जाओगे। दूरबोध, दिव्य—दृष्टि, दूरस्थ श्रवण यही तो है।

सोवियत रूस में एक स्त्री है जिस पर वैज्ञानिक ढंग से खोज—बीन की गई है, वह किसी भी वस्तु को बीस फीट की दूरी से मात्र ऊर्जा द्वारा खींच लेती है। वह अपने हाथों को, बीस फूट दूर से, हिलाती है। जैसा कि तुमने किसी सम्मोहन कर्ता को हस्त संचालन करते देखा होगा। वह केवल रेखांकन मुद्राएं बनाती है। पंद्रह मिनट के भीतर ही, चीजें उसकी और खिसकने लगती हैं। उसने उन्हें छुआ भी नहीं। यह जानने के लिए कि क्या होता है, काफी जांच—पड़ताल की गई। और उस स्त्री का इस आधे घंटे के प्रयोग से कम से कम आधा पाउंड वजन कम हो जाता है। निश्चित रूप से वह किसी रूप में ऊर्जा गंवा रही है।

यही है जिसे योग तन्मात्रा कहता है। साधारणत: जब तुम किसी चीज, किसी पत्थर, किसी चट्टान को उठाते हो तो ऊर्जा का हाथों के माध्यम से उपयोग करते हो। तुम इसे उठा कर चलते हो तुम उसी ऊर्जा को हाथों द्वारा उपयोग में लाते हो। लेकिन अगर तुमने इस ऊर्जा को सीधे ही जाना है तो तुम हाथ का प्रयोग बंद कर सकते हो। वस्तु को वह ऊर्जा सीधे ही सरका सकती है। टेलीपैथी, दूर—बोध का भी यही ढंग है— तुम— लोगों के विचार सुन या पढ़ सकते हो या दूर—दूर के दृश्य देख सकते हो। एक बार तुम तन्मात्रा को, उस सूक्ष्म ऊर्जा को जान लो, तो तुम्हारी आंखों द्वारा प्रयुक्त की जा रही है, तो आंखों का उपयोग समाप्त किया जा सकता है। एक बार तुम जान लो यह ज्ञानेंद्रिय नहीं है जो कार्य कर रही है, बल्कि ऊर्जा है तो तुम ज्ञानेंद्रिय से मुक्त हो।

मैंने एक कहानी सुनी है

एक लड़के ने, कोहेन और गोल्डबर्ग, थोक विक्रेता के यहां फोन किया।

कृपया मेरी मिस्टर कोहेन से बात कराएं।

मैं क्या कहूं श्रीमान, मिस्टर कोहेन बाहर गए हैं, स्विच बोर्ड आपरेटर लड़की ने कहा।

तब मेरी मिस्टर गोल्डबर्ग से बात कराएं।

मैं क्या कहूं श्रीमान, मिस्टर गोल्डबर्ग तो इस समय फंसे हुए हैं।

ठीक है, मैं कुछ देर बाद फोन करूंगा।

दस मिनट बाद

कृपया, मिस्टर गोल्डबर्ग को फोन दें।

मैं क्या कहूं श्रीमान, मिस्टर गोल्डबर्ग अभी तक फंसे 'हुए हैं।

मैं फिर फोन करूंगा।

आधा घंटे बाद :

मिस्टर गोल्डबर्ग से बात कराएं।

मुझे सख्त अफसोस है श्रीमानजी, लेकिन मिस्टर गोल्डबर्ग अभी तक फंसे हैं।

मैं फिर फोन करूंगा।

फिर और आधा घंटा बीत गया

मिस्टर गोल्डबर्ग।

मेरे पास आपको देने कि लिए बुरी खबर है श्रीमान, मिस्टर गोल्डबर्ग अभी' तक फंसे हुए हैं।

लेकिन देखिए यह कितना विचित्र है, इस तरह आप व्यापार का संचालन कैसे कर सकेंगे? एक पार्टनर पूरी सुबह बाहर गया हुआ है।

और दूसरा घंटों कहीं फंसा हुआ है। वहां क्या हो रहा है?

अच्छी बात है श्रीमान, देखिए, जब कभी भी मिस्टर कोहेन बाहर जाते हैं वे मिस्टर गोल्डबर्ग को बांध कर जाते हैं।

तुम्हारे भीतर भी यही कुछ हो रहा है। जब कभी भी तुम अपनी आंखों के द्वारा, हाथों के माध्यम से, यौनांगों द्वारा, कानों से बाहर की और गति करते हो, जब भी बहिर्गामी होते हो, सतत रूप से एक प्रकार का प्रतिबंध और बांधा जाना निर्मित होता रहता है। धीरे— धीरे तुम एक विशेष इंद्रिय के साथ बंध जाते हो, आंखें या कान, क्योंकि यही हैं जिनसे तुम बार—बार बाहर जाते हो। फिर धीरे— धीरे तुम उस ऊर्जा को भूल जाते हो जो बाहर जा रही है।

इंद्रियों के साथ इस प्रकार से बंधन में बंधना ही सारा जगत, संसार है। स्वयं को इंद्रियों के बंधन से कैसे मुक्त करें? और एक बार तुम संवेदी अंगों के साथ बंध जाओ, तुम उनके परिप्रेक्ष्य में ही सोचेने लगते हो। तुम स्वयं को भूल जाते हो।

एक और कहानी:

एक शिष्य संसार को छोड़ कर अपने गुरु का अनुसरण करने की तीव्र अभीप्सा रखता था, लेकिन उसने कहा कि उसकी पत्नी और परिवार उसे इतना अधिक प्रेम करते हैं कि वह अपना घर छोड़ने में असमर्थ है।

गुरु ने एक योजना बनाई। इस व्यक्ति को कुछ ऐसे यौगिक रहस्य सिखा दिए गए जिनसे देखने वालों को ऐसा प्रतीत हो कि वह मर गया है। अगले दिन उस व्यक्ति ने इन निर्देशों का पालन किया और उसकी पत्नी तथा परिवार के लोग उसके शरीर के चारों ओर एकत्रित होकर विलाप करने, शोक मनाने लगे। गुरु उनके दरवाजे पर एक जादूगर का रूप बना कर आया और उस परिवार से कहने लगा, यदि वे इस व्यक्ति को इतना ही प्रेम करते हैं तो वह उसे पुन: जीवित कर सकता है। उसने बताया अगर कोई और उसके स्थान पर मर जाए, जादूगर की यह दवा पी ले, तो वह व्यक्ति जी उठेगा।

परिवार के हर सदस्य ने अपने जीवन को बचाने की आवश्यकता के उचित कारण गिना दिए, और उसकी पत्नी कहने लगी, जो कुछ भी हो, अब तो वे मर ही गए हैं, हम किसी प्रकार गुजारा कर लेंगे।

इस पर वह योगी उठ खड़ा हुआ और बोला, हे नारी, अगर तुम मेरे बिना रह सकती हो, तो मैं अपने गुरु के साथ जा सकता हूं। उसने अपने गुरु की ओर देखा और कहा. अब हमें चलना चाहिए श्रीमान, आदरणीय सदगुरु, मैं आपका अनुगामी बनूंगा।

इंद्रियों के साथ बन जाने वाला यह जुड़ाव इस तरह का है जैसे कि तुम इंद्रियां ही बन गए हो, जैसे कि तुम उनके बिना जी ही नहीं सकोगे, जैसे कि तुम्हारा सारा जीवन उनमें ही सिमटा हो। लेकिन तुम उन्हीं तक सीमित नहीं हो। तुम उनको त्याग सकते हो, और फिर भी तुम जीवित रह सकते हो, और एक उच्चतर तल पर जीते हो। कठिन है। जैसे कि तुम एक बीज को फुसलाना चाहो, मर जाओ और जल्दी ही एक सुंदर पौधे का जन्म होगा। वह कैसे विश्वास कर सकता है, क्योंकि उसे तो मरना होगा। और आज तक किसी बीज ने नहीं जाना कि उसकी मृत्यु से एक नया अंकुर फूटता है, एक नया जीवन उदित होता है। इसलिए इस पर विश्वास कैसे किया जाए? या अगर तुम एक अंडे के पास जाते हो और तुम भीतर के पक्षी को राजी करना चाहते हो कि बाहर आ जाओ, लेकिन पक्षी को कैसे विश्वास आए कि अंडे के बिना भी जीवन की कोई संभावना है? या अगर तुम मां के गर्भ में बच्चे से बात करो और उसे बताओ, बाहर आ जाओ, भयभीत मत हो। लेकिन उसे तो गर्भ के बाहर का कुछ पता भी नहीं पता। यह गर्भ ही उसका सारा जीवन रहा है, उसे तो बस इतना ही पता है। वह भयभीत है। ठीक यही परिस्थिति है, इंद्रियों से घिरे हुए, हम एक सीमित अवस्था, एक कारागृह में जीते हैं।

व्यक्ति को थोड़ा साहसी, हिम्मतवर होना पड़ेगा। ठीक अभी तुम जहां भी हो और तुम जैसे भी हो, तुम्हारे साथ कुछ भी घटित नहीं हो रहा है। अपने जोखिम उठाओ। अशात में उतरो। फिर जीवन के नये ढंग को पाने का प्रयास करो।

'इसके उपरांत देह के उपयोग के बिना ही तत्‍क्षण बोध और प्रकृति, पौद्गलिक जगत पर पूर्ण स्वामित्व उपलब्ध हो जाता है।

अब तक तुम पौद्गलिक जगत के वशीभूत रहे हो। एक बार तुम जान लो कि तुम्हारे पास पौद्गलिक जगत से पूर्णत: मुक्त, अपनी ऊर्जा है, तो तुम मालिक बन जाते हो। अब संसार तुम पर और अधिक कब्जा नहीं रख पाता, तुम इसके स्वामी हो। केवल वही जो त्याग सकते हैं असली मालिक बन जाते हैं।सत्व और पुरुष का विभेद बोध होने के उपरांत ही अस्तित्व की समस्त दशाओं का ज्ञान और उन पर प्रभुत्व उदित होता है।

और सत्व और पुरुष, बुद्धिमत्ता और जागरूकता के मध्य सूक्ष्मतम विभेद को जानना होगा। स्वयं को शरीर से अलग समझना बहुत सरल है। शरीर इतना स्थूल है कि तुम्हें इसकी प्रतीति हो सकती है, तुम यह नहीं हो सकते। तुमको इसके भीतर होना चाहिए। यह देखना अत्यंत सरल है कि तुम आंखें नहीं हो सकते। तुम्हें तो वह होना चाहिए जो आंखों के द्वारा देखता है, पीछे छिपा है; वरना आंखों के द्वारा कौन देखेगा? तुम्हारा चश्मा तो देख नहीं सकता। चश्मे के पीछे आंखों की जरूरत होती है। तुम्हारी आंखें भी चश्मे की भांति हैं। वे —बश्मा ही हैं, वे देख नहीं सकतीं। देखने के लिए कहीं पीछे तुम्हारी आवश्यता है। लेकिन सूक्ष्मतम तादात्म्य बुद्धि के साथ होता है। तुम्हारी सोचने की सामर्थ्य, तुम्हारी बुद्धि की समझ की क्षमता, यही सूक्ष्मतम चीज है। जागरूकता और बुद्धिमत्ता के बीच विभेद कर पाना बेहद कठिन है। किंतु इनमें भेद किया जा सकता है।

धीमे— धीमे, कदम दर कदम, पहले तो यह जान लो कि तुम देह नहीं हो। इस समझ की गहरे में विकसित, संघनित होने दो। फिर यह जानो कि तुम इंद्रियां नहीं हो। इस समझ को विकसित, घनीभूत होने दो। फिर यह जानो कि तुम तन्मात्राएं, ज्ञानेंद्रियों के पीछे के ऊर्जा—कुंड नहीं हो। इस बात को भी विकसित और संकेंद्रित होने दो। और तब तुम यह देख पाने में समर्थ हो जाओगे कि बुद्धि भी ऊर्जा का एककुंड है। यह एक सहभागी कुंड है जिसमें तुम्हारी आंखें अपनी ऊर्जा उड़ेलती हैं, कान अपनी ऊर्जा उड़ेलते हैं, हाथ अपनी ऊर्जा उड़ेलते हैं। सारी इंद्रियां नदियों की भांति हैं और बुद्धिमत्ता केंद्रीय स्थान है, जिसमें वे सूचनाएं लेकर आती हैं और उड़ेल देती हैं।

जो कुछ भी तुम्हारा मन जानता है, वह इंद्रियों द्वारा दिया गया है। तुमने रंग देख लिए हैं, —तुम्हारा मन इन्हें जानता है। यदि तुम वर्णांध, रंगों के प्रति अंधे हो, यदि तुम हरा रंग नहीं देख सकते, तब तुम्हारा मन हरे के बारे में कुछ भी नहीं जानता है। बर्नार्ड शॉ ने यह बात जाने बिना कि वह वर्णांध है अपना सारा जीवन जी लिया। इसको जान पाना बहुत मुशकिल है, लेकिन संयोगवश घटी एक घटना ने इसके बारे में सचेत कर दिया। एक बार उसके एक जन्म—दिवस पर किसी ने उसे एक सूट भेंट में दिया लेकिन उसके साथ टाई नहीं थी। तो वह एक ऐसी टाई खोजने बाजार में गया जो उस सूट के साथ मेल खा सके। सूट का रंग हरा था लेकिन वह पीली टाई खरीदने लगा। उसकी सचिव यह देख रही थी, वह बोली, आप क्या कर रहे हैं? यह मेल नहीं खाती। सूट हरा है और टाई पीली है। वह बोला क्या इन दोनों के बीच कोई अंतर है? वह सत्तर साल जी चुका था बिना यह जाने कि वह पीला रंग नहीं देख सकता। उसे हरा दिखता था। अब पीला उसके मन का भाग नहीं था। उसकी आंखों ने मन में ऐसी सूचना कभी नहीं पहुंचाई थीं।

आंखें सेवकों जैसी, सूचना संग्राहकों, पी. आर. ओं. की भांति हैं—सारे संसार में करती हुईं, सूचनाएं बनाए एकत्रित करती हुईं उन्हें मन में उड़ेलती रहती हैं, वे मन को पोषित करती रहती हैं। मन ही केंद्रीय कुंड है।

पहले तुम्हें इस बात के प्रति सचेत होना पड़ेगा कि तुम आख नहीं हो, न ही वह ऊर्जा हो जो आख के पीछे छिपी है, तभी तुम यह देख पाने में समर्थ हो सकोगे कि प्रत्येक ज्ञानेंद्रिय मन में उडेली जा रही हैं, तुम मन भी नहीं हो, तुम वह हो जो उसे उड़ेला जाता देख रहा है, तुम तो सिर्फ किनारे पर खड़े हो, सारी नदियां समुद्र में उडेली जा रही है, तुम द्रष्टा हो, साक्षी हो।

स्वामी राम ने कहा है : वितान को परिभाषित करना दुष्कर है, लेकिन संभवत: इसका सर्वाधिक आवश्यक तत्व है उसके अध्ययन में लगना, जो प्रेक्षक से बाहर है। ध्यान की विधियां ऐसा रास्ता दिखाती हैं जो व्यक्ति को उसकी अपनी आंतरिक अवस्थाओं के परे ले जाता है। ध्यान की विधियां ऐसा रास्ता दिखाती हैं जिससे व्यक्ति अपनी आंतरिक अवस्थाओं का अतिक्रमण कर लेता है।—और ध्यान का चरम बिंदु यह जान लेना है कि जो कुछ भी तुम जान लेते हो वह तुम नहीं हो। जो कुछ भी जानी गई वस्तु के रूप में आ गया है वह तुम नहीं हो; क्योंकि तुम्हें एक वस्तु नहीं बनाया जा सकता। तुम सदा से ही आत्मनिष्ठ, ज्ञाता, ज्ञानी, जानने वाले रहे हो। और ताता को भी शात नहीं बनाया जा सकता है।

यही है पुरुष, जागरूकता। यही है आत्यंतिक समझ जो योग से उदित होती है। इस पर ध्यान करो।


 आज इतना ही।

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