दिनांक 30 अप्रेेेल 1976 ओशो आश्रम पूूूूना।
प्रश्न—सार:
1—काम की
समस्या उठ खडी
हुई है, क्या
किया जाए?
2—निष्क्रियता
पूर्वक सजग
कैसे हुआ जाए?
3—मेरा
सामान
रेलगाड़ी ले
जाती है, मैं रह
जाता हूं। इस
स्वप्न का
अर्थ क्या है?
4—जिस समय आप मुझसे
कुछ कहते हैं
मैं आपकी बात
नहीं मानता।
इससे छुटकारा
कैसे हो?
प्रश्न:
मैं
किसी अन्य
गुरू के
निर्देशन में साधना
कर रहा था। उस
समय मेरे लिए ‘काम’
समस्या लेकिन
मेरे मन में
तनाव रहा करते
थे। आपकी
छत्रछाया में
आकर तनाव खो
चुके है,
किंतु ‘काम’ की एक नई
समस्या उठ
खड़ी हुई है। ‘काम’ के
कारण एक नया
तनाव आरंभ हो
रहा है। इस
अवस्था में
क्या किया
जाए? कृपया
मेरा मार्ग
निर्देशन
करें।
एक बार तुम
किसी बात को
समस्या की
भांति ले लो तो
इसे हल करना
असंभव हो जाता
है। ऐसे तो
किसी समस्या
का समाधान
नहीं हो सकता
है। यदि तुम
किसी समस्या
में—बिना इसे
समस्या की
भांति
स्वीकार किए—गहराई
तक देखो, तो समाधान
स्वत: ही सतह
पर आ जाता है।
इसलिए सीखने
के लिए पहली
बात है कि
चीजों को समस्या
की भांति
देखने की
पुरानी आदत
त्याग दो।
उनको तुम
समस्या बना
देते हो।
उदाहरण
के लिए, काम। यह
समस्या जरा भी
नहीं है। यदि
यह समस्या है
तो तुम किसी
भी चीज को
समस्या में
बदल सकते हो।
तुम श्वास
लेने को
समस्या में
बदल सकते हो, एक बार तुम
श्वास लेने को
समस्या की
भांति देख लो,
तो तुम
सोचना आरंभ कर
दोगे कि इससे
छुटकारा कैसे
पाया जाए। तुम
श्वास लेने से
भयभीत हो
जाओगे। काम
समस्या नहीं
है। काम एक
सरल, शुद्ध
ऊर्जा है।
किंतु किसी
गुरु के साथ
रहते हुए तुम
संस्कारित हो
गए हो, क्योंकि
गुरुओं में से
करीब—करीब
निन्यानबे
प्रतिशत काम
को समस्या की
भांति लेते
हैं। वास्तव
में वे गुरु
ही नहीं हैं।
उन्होंने
अपने स्वयं के
जीवन में कुछ
भी हल नहीं
किया हुआ है।
वे उतनी ही
परेशानी में
हैं जितनी
परेशानी में
तुम हो। उनमें
उतनी ही
विक्षिप्तता
है जितनी
तुम्हारे
भीतर है।
अंतर्दृष्टि
वाले व्यक्ति
की कोई
समस्याएं नहीं
होतीं, और
अंतर्दृष्टि
रखने वाला
व्यक्ति कभी
किसी अन्य
व्यक्ति की
समस्याग्रस्त
रहने में
सहायता नहीं
करता है।
यदि
तुम्हारे पास
समस्या
निर्मित करने
की यांत्रिक
व्यवस्था है, तो मैं
तुम्हारी समस्या
का समाधान
नहीं कर सकता,
लेकिन मैं
तुमको इसके आर—पार,
इसके शर देख
पाने की, अधिक
पारदर्शितापूर्वक,
अधिक
स्पष्टता और
समझ के साथ
देख लेने के
लिए अपनी
अंतर्दृष्टि
दे सकता हूं।
इसलिए
विचार करने
योग्य पहली
बात यह है कि
तुम काम को
समस्या क्यों
कह्ते हो? इसमें
समस्याकारक
क्या है? यदि
काम समस्या है,
तो भोजन
समस्या क्यों
नहीं है? यदि
काम समस्या है,
तो श्वसन
समस्या क्यों
नहीं है? यदि
काम समस्या है,
तो क्यों
किसी भी बात
को समस्या में
नहीं बदला जा
सकता? तुम्हें
तो बस उस ढंग
से देखने की
आवश्यकता है
और यह समस्या
बन जाता है।
भिन्न—भिन्न
संस्कृतियों
में, विभिन्न
समाजों में
भिन्न—भिन्न
बातों को समस्यामूलक
समझा जाता है।
यदि तुम
फ्रायड के
प्रभाव वाले
समाज में पले—बढ़े
हो, तो काम
तो तनिक भी
समस्या नहीं
होता। तब तो
कामुक न होना
समस्या बन
जाएगा। यह
अनेक
पाश्चात्यों
की समस्या बन
चुका है।
कोई
पैंसठ वर्ष की
स्त्री मेरे
पास आई और
उसने कहा. 'ओशो, मेरी
कामेच्छा मिट
रही है। मेरी
सहायता कीजिए।’
क्योंकि
यदि तुम
फ्रायड से
बहुत अधिक
प्रभावित रहे
हो तो काम
करीब—करीब
जीवन के
समतुल्य है।
यदि कामेच्छा
मिट रही है, इसका अर्थ
हुआ कि तुम मर
रहे हो, तब
मृत्यु अति
निकट है।
इसलिए परम अंत
तक, मृत्युशय्या
पर भी तुमको
कामुक व्यक्ति
बने रहना पड़ता
है, तुम्हें
स्वयं को
जबरदस्ती
कामुक
व्यक्ति बनाए
रखना पड़ता है।
यह
विशेष रूप से
भारतीयों के
लिए बिलकुल नई
समस्या है, जो इसको
समस्या की
भांति सोच
नहीं सकते।
यदि ऐसा उनके
साथ हो जाए तो
वे मंदिर
जाएंगे और
ईश्वर को
धन्यवाद
देंगे। यदि वे
युवा हों तो
भी यदि काम खो
जाता है, वे
अत्याधिक
प्रसन्न, आत्यंतिक
रूप से
प्रसन्न हो
जाएंगे।
परमात्मा
बहुत सहायक
रहा है, समस्या
का समाधान हो
गया है। किंतु
ऐसा भी हो
सकता है कि
समस्या का
समाधान नहीं
हुआ है, वे
बस नपुंसक हो
रहे हों।
यह
समस्या एक
निश्चित
दृष्टिकोण के
कारण उपजती है।
समस्या स्वयं
में कोई
समस्या नहीं
है, यह
तुम्हारे
दृष्टिकोण पर
निर्भर करती
है। यदि तुम
पाश्चात्य हो
तो एल्कोहल से
निर्मित पेय
पीना कोई
समस्या नहीं
है। किसी भी
शीतल पेय
कोकाकोला या
फैंटा की
भांति साधारण
बात है यह।
यदि तुम जर्मन
हो तो बीयर, बस पानी है।
इसमें कोई
समस्या नहीं
है। लेकिन यदि
तुम भारतीय हो
तो समस्या उठ
खड़ी होती है।
कोकाकोला तक
समस्या है।
गांधीजी
तुम्हें
कोकाकोला
पीने की
अनुमति नहीं
देंगे।
उन्होंने
अपने आश्रम
में चाय पर
रोक लगा रखी थी।
चाय! यह उनके
लिए समस्या बन
गई, क्योंकि
इसमें कुछ
मात्रामें
कैफीन होती है।
बौद्धों के
लिए चाय कभी
समस्या नहीं
थी। जापान में,
चीन में यह
करीब—करीब एक
धार्मिक
अनुष्ठान की
भांति है।
एक
बौद्ध भिक्षु
अपना दैनिक
जीवन चाय से
आरंभ करता है।
उषाकाल में, इसके
पूर्व कि वह
ध्यान करने
जाए, वह
चाय पीता है।
ध्यान कर लेने
के उपरांत वह
चाय पीता है, और वह इसे
बहुत धार्मिक
ढंग से, बहुत
गरिमापूर्वक
और अहोभाव
पूर्वक पीता
है। इसे कभी
एक समस्या के
रूप में नहीं
सोचा गया; वस्तुत:
बौद्धों ने ही
इसकी खोज की
थी। ऐतिहासिक
रूप से यह
बोधिधर्म से
संबंधित है।
बोधिधर्म
को चाय का
अन्वेषक समझा
जाता है। वह
पर्वत
उपत्यका में
रहा करता था।
उस पर्वत का
नाम टा था, और
क्योंकि चाय
वहां पहली बार
खोजी गई थी, यही कारण है
कि टा, टी, चा, चाय—वे
सभी 'टा' से जन्में
हुए शब्द हैं।
और बोधिधर्म
ने इसे क्यों
खोजा, और
उसने इसे कैसे
खोजा?
वह परम
जागरूकता की
एक अवस्था
उपलब्ध करने
का प्रयास कर
रहा था। यह
कठिन है। तुम
भोजन के बिना
कई दिन जीवित
रह सकते हूए, लेकिन
नींद के बिना?
और वह जरा
सी नींद को भी
नहीं आने दे
रहा था। एक
समय, सात
आठ, दिन
बाद, अचानक
उसे अनुभव हुआ
कि नींद आ रही
है। उसने अपनी
आंख की पलकें
उखाड़ दीं और
उनको फेंक
दिया, जिससे
कि अब जरा भी
समस्या न रहे।
ऐसा कहा जाता
है कि वे
पलकें भूमि,, पर गिरी, वे
चाय के रूप
में अंकुरित
हो गईं। यही
कारण है कि
चाय जागरूकता
में सहायक
होती है; यदि
तुम रात्रि
में बहुत अधिक
चाय पी लो तो
तुम सोने में
समर्थ नहीं हो
पाओगे। और
क्योंकि सारा
बौद्ध मन यही
है कि कैसे वह
बिंदु उपलब्ध
हो जहां नींद
बाधा न डाले
और तुम
पूर्णत: जागरूक
रह सको, निःसंदेह
चाय करीब—करीब
एक पवित्र
वस्तु, पवित्रों
में पवित्रतम
हो गई है।
जापान
में आश्रमों
में छोटे से
घर, टी
हाउस, चाय—घर
हुआ करते हैं।
जब वे किसी
चाय—घर में
जाते हैं, तो
वे इस भांति
जाते हैं जैसे
कोई चर्च या
मंदिर में जा
रहा हो। वे
स्नान करते
हैं, वे
नये स्वच्छ
वस्त्र धारण
करते हैं, वे
अपने जूते
बाहर छोड़ देते
हैं, वे
मौन में, आशीष
में चलते हैं;
वे बैठ जाते
हैं।.. .और यह एक
लंबा
अनुष्ठान है।
यह कोई ऐसा
नहीं है कि
तुम गए और चाय
ली और पी और
तुम चले आए, इतनी
जल्दबाजी
नहीं।
देवताओं के
साथ शुभ
व्यवहार होना
चाहिए, और
चाय देवता है,
जागृति की
देवता, इसलिए
वे मौन में
बैठेंगे, और
केटली अपना
गीत गाती
रहेगी, पहले
वे इस गीत को
सुनेंगे। अभी
वे तैयारी कर
रहे हैं। वे
गाती हुई
केटली पर
ध्यान
लगाएंगे।
फिर
उनको कप और
प्लेट दिए
जाएंगे। वे
कपों और
प्लेटों को
छुएंगे, उनको
देखेंगे, क्योंकि
वे कला की
कृतियां हैं।
और कोई बाजार
से खरीदे हुए
कप उपयोग करना
नहीं पसंद
करता है।
प्रत्येक
आश्रम अपने
स्वयं के कप
और प्लेट
बनाते हैं।
धनी लोग अपने
स्वयं के लिए
बनाते हैं।
गरीब लोग यदि
अपने स्वयं के
लिए कप और
प्लेट बनाने
के व्यय को वहन
न कर सकें तो
वे बाजार से
खरीद लाते हैं,
उनको तोड़
देते हैं, उनको
पुन: जोड़ते
हैं, तब वे
पूर्णत: अनूठे
बन जाते हैं।
तब चाय
उडेली जाती है।
और प्रत्येक, गहन, ग्राह्य,
ध्यानपूर्ण
भाव—दशा में
होता है, उनकी
श्वास धीमी और
गहरी चल रही
होती है, और
तब चाय पी
जाती है, जैसे
कि कुछ दिव्य
तुम पर बरस
रहा हो। अब
महात्मा
गांधी इसके
बारे में सोच
भी नहीं सकते।
उनके आश्रम
में चाय की
अनुमति नहीं
थी काली सूची,
निषिद्ध
वस्तुओं में
थी चाय। यह
तुम्हारे
दृष्टिकोण पर
निर्भर करता
है।
मैं
तुमसे जो कहना
चाहता हूं वह
यह है कि यह तुम्हारे
ऊपर निर्भर
करता है कि
तुम कितनी
समस्याएं
निर्मित करना
चाहते हो।
जितनी संभव हो
सके उतनी
समस्याएं
गिरा दो।
जितनी कम
समस्याएं
तुम्हारे पास
हों उतना ही उत्तम
है, क्योंकि
तब, यदि
तुम उन कुछ को
नहीं छोड़ सकते
हो, यदि वे
वास्तव में
तुम्हारे
दृष्टिकोण के
कारण नहीं हैं
बल्कि जीवन की
असली
समस्याएं हैं,
तो उनका
समाधान किया
जा सकता है।
मैने
सुना है, एक व्यक्ति
मनोचिकित्सक
के पास गया, उस बेचारे
की आंखों के
नीचे काले
घेरे बने हुए
थे, वह
बहुत थका हुआ
लग रहा था।
मैं हर रात
स्वप्न देखता
हूं डाक्टर
साहब, उसने
अपने
चिकित्सक से
कहा। पिछली
रात का सपना
भयावह था, मैं
एक बड़े
वायुयान में
हूं मेरा
पैराशूट तैयार
है, हम
चालीस हजार
फीट की ऊंचाई
पर उड़ रहे हैं,
जहां से
छलांग लगा कर
मैं नई ऊंचाई से
कूदने का का
रिकार्ड
स्थापित करने
वाला हूं। हम
लोग चालीस
हजार फीट की
ऊंचाई पर हैं—मैंने
दरवाजा खोला,
मैंने एक
कदम आगे बढ़ाया,
मैंने
पैराशूट की
रस्सी खींची—आप
सोच सकते हैं
कि क्या हुआ
होगा?
डाक्टर
ने कहा. मुझे
ऐसा कोई खयाल
नहीं आता।
उस
व्यक्ति ने
कहा. मेरा
पाजामा खुल कर
गिर पड़ा।
अब यह
समस्या है? जब तुम
पृथ्वी से
चालीस हजार
फीट की ऊंचाई
पर हो, तो
क्या यह
समस्या है? सारा जीवन
दांव पर लगा
हुआ है? और
वह भी स्वप्न
में। और वह
थकान अनुभव कर
रहा है। मैंने
सुना है, एक
पार्क की बेंच
पर दो भिखारी
बैठे हुए
बातचीत कर रहे
थे। मैं बस
वहां से गुजर
रहा था। एक
भिखारी ने
कहा. मैंने
सपना देखा कि
मुझे अच्छी
नौकरी मिल गई
है।
दूसरा
बोला. हां, तुम थके
हुए दिखाई दे
रहे हो।
मूढूता
त्यागो। काम
समस्या नहीं
है। काम
तुम्हारी
जीवन—ऊर्जा है।
इसे स्वीकारो।
यदि तुम
स्वीकार करो
तो ही इसका
रूपांतरण
किया जा सकता
है। यदि तुम
इसको इनकार
करते हो, तुम उपद्रव
में रहोगे।
यदि तुम इससे
संघर्ष करो, तो तुम
किसके साथ
संघर्ष कर रहे
हो? जरा
सोचो, स्वयं
के साथ आधे—
आधे, विभाजित।
अपने आप से लड़
रहे हो तुम, निःसंदेह
तुम और—और
पंगु होते चले
जाओगे। स्वयं
से कभी संघर्ष
मत करो।
साधना
कोई संघर्ष
नहीं है, यह कोई
द्वंद्व नहीं।
साधना एक गहरी
समझ, एक
रूपांतरण, एक
जागरूकता है,
जिसमें
तुम्हारा
प्रेम करना, स्वयं को
स्वीकार करना
और समझ के
माध्यम से ऊंचे
और ऊंचे होते
जाने का आरंभ
है। अपने
अस्तित्व से
किसी को भी
निकालना नहीं
है। हर चीज
वैसी ही है
जैसा उसे होना
चाहिए। इसको
उच्चतर
लयबद्धता के
लिए उपयोग
करना पड़ता है,
बस यही है
सारी बात।
वीणा को
फेंकना नहीं
है। यदि तुम
इसे बजाना
नहीं जानते तो
बजाना सीख लो।
वीणा में कुछ
भी गलत नहीं
है। यदि तुम बजा
नहीं सकते, और फिर भी
तुम वीणा बजाओ
तो निःसंदेह
तुम विक्षिप्त
शोर ही पैदा
करोगे। पड़ोसी
जाएंगे और
पुलिस थाने
में तुम्हारी
रिपोर्ट कर
देंगे।
तुम्हारी
पत्नी फौरन
तुम्हें तलाक
दे देगी।
तुम्हारे
बच्चे मायूस
हो जाएंगे। और
तुम स्वयं एक
उपद्रव में
रहोगे, क्योंकि
यदि तुम नहीं
जानते कि वीणा
कैसे बजाई जाए,
कोई
वाद्ययंत्र
कैसे बजाया
जाए, हूं? तो तुम
स्वयं में ही
और—और बिना
सुर—ताल के
होते जाओगे।
लेकिन
स्मरण रखो कि
वीणा में कुछ
भी गलत नहीं है।
तुम्हें पता
नहीं कि इसे
किस भांति
बजाया जाए।
काम—ऊर्जा
एक प्रचंड
ऊर्जा है। तुम
नहीं जानते कि
इससे किस
भांति संगीत
उत्पन्न किया
जाए। और
सदियों से
तुमको इसके
विरोध में
पढ़ाया गया है।
जरा देखो तो
तुम्हारे
धार्मिक
व्यक्तियों ने
संसार के साथ
क्या कर डाला
है। वे काम के
विरुद्ध
सिखाते रहे
हैं, और
उनकी
शिक्षाओं के
कारण काम और—और
महत्वपूर्ण
होता चला जाता
है। सारा
संसार करीब—करीब
विक्षिप्त
ढंग से कामुक
है। कुछ इसमें
इस प्रकार से
संलग्न हैं, जैसे कि
जीवन में कुछ
और है ही नहीं,
और कुछ इससे
इस भांति भाग
रहे हैं जैसे
कि इसके
अतिरिक्त
जीवन में कुछ
नहीं रहा। कुछ
तो बस भाग रहे
हैं और कुछ बस
संघर्ष कर रहे
हैं। दोनों ही
अपना जीवन
नष्ट कर रहे
हैं।
यह एक
महत् ऊर्जा, परमात्मा
की भेंट है।
इसमें अनेक
खजाने छिपे
हुए हैं। इसे
सीखना पड़ता है,
पुस्तक को
खोलना पड़ता है,
व्यक्ति को
इसके भीतर
जाना पड़ता है,
इसको गहराई
से अध्ययन
करके, गहराई
से समझना पड़ता
है। अनंत जीवन
की कुंजी छिपी
है इसमें।
अब तुम
मेरे पास आ गए
हो, मैं
समझ पर जोर
दिए चला जाता
हूं। एक खास
किस्म की
बौद्धिक समझ
तुम्हारे
भीतर पैदा हो
जाती है।
किंतु पुरानी
संस्कारिता
भी जारी रहती
है। कोई ऐसा
नहीं है कि
तुम्हें केवल
इसी जन्म में
संस्कारित
किया गया हो, सदियों से, अनेक जन्मों
से तुम्हें
संस्कारित कर
दिया गया है।
यह
संस्कारिता
करीब—करीब
तुम्हारा
दूसरा स्वभाव
बन चुकी है।
यह शब्द 'काम'
और
तुम्हारे
भीतर कुछ
बेचैन होने
लगता है। यह
शब्द ही
तुम्हारे
भीतर एक प्रतिक्रिया
निर्मित कर
देता है। बिना
किसी वासना के
इसके बारे में
बात करना भी
कठिन है।
वस्तुगत रूप
से इसके बारे
में बात करना
कठिन है।
वैज्ञानिक
रूप से इसके
बारे में बात
करना कठिन है।
इस ढंग से या
उस ढंग से तुम
इसमें
वासनापूर्वक
संलग्न हो
जाते हो।
सारे
विचारों, पूर्वाग्रहों
को छोड़ दो।
जरा इसकी
तथ्यात्मकता
की ओर देखो।
तुम्हारा
जन्म काम—ऊर्जा
से हुआ है। जब
तुम्हारा
जन्म हुआ तो
तुम्हारे
माता—पिता कोई
प्रार्थना
नहीं कर रहे
थे। वे संभोग
कर रहे थे। और
वे किसी गिरजा
घर या मंदिर
में नहीं थे।
तुम इस बारे
में कभी नहीं
सोचते; लोग
ऐसी बातों को
सोचने से बचते
हैं।
तुम्हारे लिए
इसकी कल्पना
करना कठिन
होगा कि तुम्हारे
माता और पिता
संभोग कर रहे
थे। असंभव!
यें तो दूसरे
लोग—गंदे लोग
हैं—जो संभोग
करते हैं।
तुम्हारे
पिता और माता?
कभी नहीं।
इसीलिए
सारे संसार
में अनेक
कहानियां
प्रचलन में
रही हैं। एक
बच्चे का जन्म
होता है और
दूसरे बच्चे
पूछते हैं, यह बच्चा
कहां से आया
है? तुमको
उन्हें
बनावटी उत्तर
देना पड़ते हैं—क्रौंच
पक्षी, या
झाड़ी, या
देवताओं ने
उसे रसोई की
चिमनी से गिरा
दिया है।
मैंने
सुना है कि
मां गर्भवती
हो गई और दादी
को छोटे बच्चे
के बारे में
चिंता पकड गई
कि आज नहीं तो
कल वह पूछेगा।
इसलिए वह उसे
तैयार करना
चाहती थी। वह
उस बच्चे को
एक ओर ले गई और
उससे कहा, क्या तुम
जानते हो कि
तुम्हारी मां
को भगवान की
ओर से पुन: एक
महान भेंट
मिलने वाली है।
यह एक पोटली
में आएगी और
रात में रसोई
की चिमनी के
छेद से, जब
सभी लोग सो
रहे होंगे, इसे तीस
दिया जाएगा।
बच्चे
ने कहा : यह ठीक
है, लेकिन
मैं आपसे एक
बात कहना
चाहता हूं।
भगवान को वह
पोटली ज्यादा
शोरगुल से मत
फेंकने
दीजिएगा
क्योंकि मेरी
मां गर्भवती
है। रात में
वह बहुत अधिक
व्याकुल हो
सकती है। इस
काम को कम से
कम शोर में
होना चाहिए।
काम से
बचाव के लिए
कहानियों का
अविष्कार कर लिया
गया है।
बच्चों से बात
करना कि बच्चा
कैसे जन्म
लेता है, कठिन है, और
यह बनावटीपन
का आरंभ, पाखंड
की शुरुआत है।
अभी या फिर
कभी बच्चा
इसकी खोज कर
लेगा और वह भी
यह खोज लेगा
कि माता और
पिता झूठ बोल
रहे थे। किसलिए?
वे इतने
जीवंत तथ्य को
क्यों छिपा
रहे थे? और
यदि वे इतने
जीवंत तथ्य के
बारे में झूठे
हैं तो और
बातों के बारे
में क्या? एक
बार छोटे
बच्चे के मन
में संदेह उठ
जाए कि उसके
साथ छल किया
गया है, वह
श्रद्धा करने
की क्षमता खो
देता है।
और फिर
तुम उससे कहे
चले जाते हो
कि परम पिता
परमात्मा में—जिसने
हम सभी को रचा
है, जो वहां
स्वर्ग में है—श्रद्धा
रखो, और वह
असली पिता में
जो इसी घर में
रहता है, और
जो धोखेबाज है,
में ही
भरोसा नहीं कर
सकता। वह पिता
में, परमात्मा
रूपी पिता में
कैसे भरोसा कर
सकता है? असंभव।
नहीं, यही
मुझको सुनते
हुए तुम्हें
जीवन की, जैसा
यह है, समझ
पर आना: पड़ेगा।
मैं इसके बारे
में कोई
सिद्धांत नहीं
गढ़ रहा हूं।
मेरी किसी
परिकल्पना के
व्यवसाय में
कोई रुचि नहीं
है। मैं तो
तुमको तथ्य दे
रहा हूं। और
वे सरल हैं, क्योंकि तुम
उनको सुन सकते
हो।
तुम अपने
जीवन में जो
कुछ भी कर रहे
हो.. .यदि तुम एक
बड़े कवि हो, यह काम—ऊर्जा
है जो काव्य
में
रूपांतरित
है। गई है, और
कुछ नहीं, क्योंकि
तुम्हारे लिए
एक मात्र यही
ऊर्जा उपलब्ध
है। यदि तुम
एक बड़े
चित्रकार है।,
तो यह काम—ऊर्जा
है जो रंगों
में कैनवास पर
चित्रित हो रही
है। यदि तुम
एक बड़े चित्रकार
हो को यह काम—ऊर्जा
ही है जो
पत्थर और
संगमरमर से
सुंदर कलाकृतियां
निर्मित कर
रही है। यदि
तुम गायिक हो,
तो यह काम—ऊर्जा
गीत बन रही है।
एक नर्तक, यह
काम—ऊर्जा का
नृत्य है। जो
क़ुछ भी तुम हो,
ही यह इस
प्रकार से, उस प्रकार
से काम—ऊर्जा
का रूपांतरण,
मार्गान्तरीकरण
हैं—तुम्हारी
प्रार्थना भी,
तुम्हारा
ध्यान भी।
काम प्रारंभ
है, समाधि
समापन है।
लेकिन ऊर्जा
वही है। समाधि
है काम अपने
उच्चतम शिखर
पर, और काम
है समाधि अपने
निम्नतम तल पर।
एक बार तुम
इसे समझ लो
फिर तुम जान
लेते हो कि
व्यक्ति को
किस भांति
उच्चतर आयाम
में विकसित
होना है।
किसी को
भी इनकार नहीं
करना है, प्रत्येक का
उपयोग किया
जाना है। सीडी
का प्रत्येक
पायदान, यहां
तक कि सबसे
निचला भी, उपयोग
किया जाना है,
क्योंकि
इसके बिना
सीढ़ी का अस्तित्व
ही न रहेगा।
पूरी कढ़ी इसी
पर आधारित है।
यदि तुम अपने
जीवन से कुछ
भी काट देते
हो, तुम
कभी पूर्ण
नहीं होओगे और
तुम कभी
पवित्र नहीं
होओगे। वह भाग
जिसका इनकार
कर दिया गया
है, हमेशा
पुन: स्वीकृति
के लिए
उपस्थित
रहेगा और यह
भाग तुम्हारे
विरुद्ध
विद्रोह करता
चला जाएगा और
तुम्हारे
विरोध में संघर्ष
करता रहेगा।
मैंने
सुना है, इंगलिश
औद्योगिक नगर
में भेजे गए
रूसी व्यापार
प्रतिनिधि मंडल
का कामरेड
कोहेन एक
सदस्य था। एक
शाम रूसी लोग
स्थानीय
कामगारों के
क्लब में
मेहमान थे। इस
क्लब के
सदस्यों में
से एक था जो छब,
जो निष्ठावान
युवा
समाजवादी था,
वह कामरेड
कोहेन को
चतुराई से
अपने साथ एक कोने
में ले गया।
कामरेड
कोहेन, युवा छब ने
कहा, मैं
समझता हूं कि
आप एक भले
यहूदी हैं, मैं समझता
हूं कि आप।’क समझदार
व्यक्ति हैं,
मैं समझता
हूं कि आपमें
उल्लेखनीय
राजनैतिक चतुराई
है। अब क्योंकि
आपमें ये सभी
श्रेष्ठ गुण
हैं, तो
अरब—इजरायली
संघर्ष पर
सोवियत
दृष्टिकोण के
बारे में आपकी
राय जानना, और
लोकतांत्रिक
इजरायलियों
के विरोध में
मिश्री
फासिस्टों को
रूसी क्यों
समर्थन दे रहे
हैं, यह
जानना मेरे लिए
बेहद रुचिपूर्ण
होगा।
कामरेड
कोहेन ने कोई
उत्तर न दिया।
जरा सा कंधे
उचका दिए।
लेकिन
कामरेड कोहेन
मान भी जाइए, जो छब ने
अपनी बात पर
बल देते हुए
कहा, आखिरकार
आप यहूदी हैं।
आपके देश के, आपकी पार्टी
के अधिकृत
दृष्टिकोण के
बावजूद आपके
पास अपनी राय
होनी चाहिए कि
न्याय कहां है—कौन
सा कारण उचित
है।
लेकिन
कामरेड कोहेन
ने कुछ न कहा, एक शब्द
भी नहीं।
जो छब
और निकट झुका।
करीब—करीब
खुशामदी लहजे
में वह बोला, लेकिन
निश्चित रूप
से कामरेड
कोहेन आपकी
कोई न कोई राय
अवश्य होगी।
कामरेड
कोहेन अपनी
कुर्सी में
जरा सा कसमसाए
और इस युवक को
स्थिर दृष्टि
से देखा और
उन्होंने
अपना मौन तोड़ा, कामरेड
छब, वे
बोले, मेरी
एक राय है, वे
रुक कर बोले, लेकिन मैं
इससे सहमत
नहीं हूं।
अब
अधिकतर लोगों
की ऐसी ही
हालत है।
तुम्हें पता
है कि तथ्य
क्या है, लेकिन तुम
इससे सहमत
नहीं हो, क्योंकि
तुम्हें इससे
राजी न होने
के लिए तैयार
कर दिया गया
है। सत्य जैसा
है वैसा तुम
उसको जानते हो,
लेकिन
तुम्हें उसके
बारे में
पूर्वाग्रहग्रस्त
होने के लिए
संस्कारित कर
दिया गया है।
जरा
सारे
पूर्वाग्रहों
को एक ओर रख दो।
बस जीवन को
देखो भर। जीवन
को तुम्हारे
ऊपर इस भांति
अभिव्यक्त होने
दो जैसे कि
तुम कभी
संस्कारित
नहीं किए गए
थे, जैसे
कि तुम किसी
अन्य ग्रह से
पृथ्वी पर बस
अभी आए हो। और
तुम बस देखो
बिना किसी
विचारधारा की
पृष्ठलुक् के—हिंदू
ईसाई, मुसलमान
के बिना। अतीत
के बिना, वर्तमान
पर दृष्टि
डालो। अतीत को
वर्तमान में
अवरोध मत
उत्पन्न करने
दो। वह जो है
उसे स्वयं को
तुम्हारे ऊपर
अभिव्यक्त
करने दो।
तब
समस्या कहां
है? काम
समस्या क्यों
है? इससे
अधिक प्यारा
और कुछ भी
नहीं है। तुम
पुष्पों की
प्रशंसा किए
चले जाते हो
लेकिन तुमने
कभी सोचा नहीं
कि वे वृक्ष
के कामुक प्रयास
हैं। उनमें
काम— बीजाणु, काम—कोष्ठ
हैं। वह वृक्ष
का तितलियों
और मक्खियों
को धोखा देने
का—ताकि वे
उसके पराग
कणों को मादा
पुष्प तक ले जाएं—उपाय
है। उनकी
प्रशंसा करते
हो तुम, बिना
यह जाने कि
तुम काम—ऊर्जा
की प्रशंसा कर
रहे हो। कितने
सुंदर हैं
सारे फूल, लेकिन
ये सभी काम—ऊर्जा
की
अभिव्यक्तियां
हैं। तुम
पक्षियों के
गीतों की
प्रशंसा करते
हो, किंतु
क्या तुम
जानते हो? वे
और कुछ नहीं
बस रिझाने की
तरकीबें हैं।
नर पक्षी मादा
पक्षी को
पुकारता चला
जाता है, हर
उपाय से, ध्वनि
से, गीत से
उसे मोहित
करने का
प्रयास करता
है। तुमने
किसी मोर को
नाचते हुए
अवश्य देखा
होगा। इसके
जैसा और कुछ
भी नहीं है—
लेकिन यह
विपरीत लिंगी
को रिझाने की
जादुई तरकीब
के अतिरिक्त
और कुछ भी
नहीं है। यदि
तुम चारों ओर
देखो तो तुम
हैरान हो
जाओगे। जो कुछ
भी सुंदर है, कामुक है।
तुम्हारे
सभी साधु—महात्मा
पुष्पों की
प्रशंसा किए
चले जाते हैं।
वे तो बस
मनुष्य के काम
की खिलावट के
विरोध में हैं।
उन्होंने ठीक
से नहीं देखा
होगा कि वे
क्या कर रहे
हैं। तुम
पुष्पों को, बहुत
सारे पुष्पों
को लेकर मंदिर
जाते हो और अपने
देवता के
चरणों में तुम
अपने पुष्पों
को अर्पित कर
देते हो, बिना
जाने कि तुम
क्या कर रहे
हो। यह एक
कामुक उपहार
है।
वह सभी
कुछ, जो
सुंदर है—पुष्प,
गायन, नृत्य—कामुक
है। जहां कहीं
भी तुमको
सौंदर्य का
कोई अनुभव हुआ
हो, यह
कामुक है।
सारा सौंदर्य
कामुक है। इसे
ऐसा होना ही
पड़ता है।
लेकिन
बस मनुष्यों
में द्वैत
निर्मित कर
दिया गया है।
द्वैत को गिरा
दो। मैं
तुम्हारी
समस्या हल
करने नहीं जा
रहा हूं। मैं
तो बस इतना कह
रहा हूं कि
तुम्हारी
समस्या
मूर्खतापूर्ण, बेवकूफी
है। और यह मत
सोचो कि तुम
मेरे पास एक
बड़ी आध्यात्मिक
समस्या लेकर आ
रहे हो। तुम
तो बस एक
मूर्खतापूर्ण
चीज ला रहे हो
जिसका
आध्यात्मिकता
से जरा भी लेना—देना
नहीं है। उसे
गिरा दो।
मैं यह
नहीं कह रहा
हूं कि अपने
काम से संतुष्ट
बने रहो। मैं
कह रहा हूं कि
इसको स्वीकार
करो। इसमें
श्रेष्ठतर
संभावनाएं
छिपी हुई हैं।
लेकिन
स्वीकृति से
ही पहला द्वार
खुलता है; तब दूसरा
द्वार उपलब्ध
हो जाता है।
यह काम—ऊर्जा
है जो ऊर्जा
के अन्य
चक्रों में
गतिS?ाईल
होती है, ऊंची
और ऊंची और
ऊंची चली जाती
है।
यदि
तुम कहीं अटक
गए हो, काम
समस्या बन
जाता है, लेकिन
फिर भी काम
समस्या नहीं
है बल्कि अटके
रहना समस्या
है। यह बात
तुम पर स्पष्ट
हो जानी चाहिए।
काम कभी
समस्या नहीं
है, बल्कि
तुम्हारा
कहीं अटक जाना
समस्या है। यह
बिलकुल दूसरी
बात है। इसलिए
कहीं अटको मत,
जम मत जाओ।
तरल बने रहो
और गतिशील रहो।
बौद्धिक
रूप से तुम
इसे समझ जाते
हो, लेकिन
तुम्हारा
अतीत बाधा
देता है। अब
तुमको एक महत्
चूनाव, एक
बड़ा निर्णय
करना पड़ेगा :
अतीत की सुननी
है या अपने वर्तमान—ताजी
समझ की सुननी
है। तम किसके
साथ रहने जा
रहे हो। अपने
मृत और बोझिल
अतीत के साथ
या अपनी ताजी
समझ के साथ जो
कि अभी—अभी
तुम्हें घटित
हुई है।
एक बार
दो मित्र थे, उनमें से
एक को दूसरे
के साथ
प्रयोगात्मक
मजाक करने का
बेहद शोक था।
एक संध्या, यह जान कर कि
उसका मित्र
चर्च के
प्रांगण के छोटे
रास्ते से
होकर गुजरने वाला
है, वह
अंधेरे
कब्रिस्तान
की एक कब के
पत्थर के पीछे
छिप कर बैठ
गया। कुछ समय
बाद ही उसने
अपने मित्र की
आहट सुनी, जैसे
ही वह निकट
आया, मजाकिया
मित्र ने खून
जमा देने वाली
चीत्कार मारी।
पहला व्यक्ति
घबड़ा कर अपने
रास्ते पर थम
गया और कहने
लगा, क्या
यह तुम हो जॉन?
वह बोला।
वहां
से कोई उत्तर
न आया। मुझे
पता है कि यह
तुम हो जॉन, उस मित्र
ने कहा, मैं
जानता हूं कि
यह तुम हो जॉन,
लेकिन कुछ
भी हो मैं तो
भागने वाला
हूं।
यदि
तुम जानते हो, तो चाहे
कुछ भी हो तुम
भाग क्यों रहे
हो? ताजी
समझ के साथ
जीयो। इस क्षण
के साथ जीयो।
अतीत के
द्वारा
पथभ्रष्ट मत
होओ। सदैव
ताजे और नये
और उसके साथ
रहो जिसका
तुम्हारी
चेतना के
क्षितिज पर
अभी—अभी उदय हो
रहा है, तभी
तुम विकसित
होओगे। यदि
तुम सदैव
पुराने, बीते
हुए के साथ
रहोगे तो तुम
बीते हुए हो
जाओगे, तुम
कभी विकसित
नहीं होओगे।
विकास
वर्तमान में
है, विकास
ताजे, युवा
का है, विकास
नये का है।
इसलिए
प्रतिदिन उस
धूल को झाडू
दो जो सामान्यत:
तुम्हारी
चेतना के दर्पण
पर जम जाती है।
अपने दर्पण को
स्वच्छ रखो
ताकि जो कुछ
भी तुम्हारे
सम्मुख आए
पूरी तरह
प्रतिबिंबित
हो जाए। और
प्रतिबिंबित
करते हुए जीयो,
उस ताजे
परावर्तन के
साथ जीयो।
'मैं
किसी अन्य
गुरु के
निर्देशन में
साधना कर रहा
था। उस समय
मेरे लिए काम
की समस्या
नहीं थी।’
तुम्हें
इसकी समस्या
नहीं होगी यदि
तुमको सिखाया
जाए कि इसका
दमन किस भांति
किया जाए।
इसका इतनी
गहराई तक दमन
किया जा सकता
है कि तुम ऐसा
अनुभव करने
लगो जैसे कि
यह वहां नहीं
है।
'लेकिन
मेरे मन में
तनाव रहा करते
थे।’
तनाव आ
जाएंगे
क्योंकि
तनावों के
बिना कोई दमन
नहीं हो सकता
है। वास्तव
में तुम्हारे
मन की
तनावग्रस्त
अवस्था
सूक्ष्म
दमनों के
प्रतिबिंबों
के अतिरिक्त
और कुछ भी
नहीं हैं। यदि—तुम्हारे
भीतर कोई भी
दमन नहीं है
तो ही तुम विश्रांत
हो सकते हो।
जिस व्यक्ति
में कोई भी
दमन न हो वह
विश्रांत होता
है। वह व्यक्ति
जिसके भीतर
दमन है
विश्रांत
नहीं हो सकता है, क्योंकि
विश्रांति
उसके दमनों के
विरोध में चली
जाएगी। इस
प्रक्रिया को
समझने का
प्रयास करो।
जब तुम
किसी बात का
दमन करते हो, तुमको
सतत रूप से
चौकन्ने रहना
पड़ता है, तुम
लगातार दमन
करते रहते हो।
दमन कोई ऐसा
कृत्य नहीं है
कि तुमने इसे
एक बार कर
लिया और काम
खत्म। इसे
तुम्हारे
जीवन के हर पल
करना पड़ता है।
यदि तुम ऐसा न
करो तो वे
चीजें जिनका
तुमने दमन
किया था सतह
पर आ जाएंगी।
तुमको लगातार
उनकी छाती पर
सवार होकर
उनको वहीं पकड़
कर रखना पड़ता
है। यदि तुम
उनको एक क्षण
के लिए भी छोड़
दो तो शत्रु
फिर उठ खड़ा
होगा और फिर
वही संघर्ष और
फिर वही
द्वंद्व होगा।
इसीलिए
तुम्हारे
साधु—महात्मा
कोई अवकाश
नहीं ले सकते।
असंभव। तुम
अवकाश कैसे ले
सकते हो, क्योंकि
अवकाश हर
मामले को गड़बड़
कर देगा।
तुम्हारे
संतों को
लगातार चौकसी
पर रहना पड़ता
है। यही तनाव
है। सतत
सतर्कता। कोई
स्त्री आ रही
है : अपनी
ऊर्जा को
लगातार संकुचित
करते रहो; इसे
वहां रोक कर
रखो। स्त्री
को निकल जाने
दो। लेकिन वे
लगातार वहां
से होकर गुजर
रही हैं। या
यदि वे नहीं
गुजर रही हैं,
तो यह कुछ और
है, और
अन्य कोई है।
सारा जीवन
कामुक है।
यदि
तुम किसी
प्रकार से
स्त्रियों से
बच जाओ और
हिमालय भाग
जाओ, वहां
पक्षी एक—दूसरे
से प्रेमालाप
कर रहे होंगे।
क्या करोगे
तुम? पशु
आएंगे और
तुम्हें बाधा
देंगे। सारा
जीवन कामुक है;
तुम कहीं
भाग नहीं सकते।
सारा महासागर
काम—ऊर्जा का
है।
और
इसमें गलत कुछ
भी नहीं है; यह सुंदर
ढंग से ऐसा है।
परमात्मा
इस विश्व में
काम की भ [ति
निरूपित हुआ
है। यदि तुम
प्राचीन
शास्त्रों
में विशेषत:
हिंदू
शास्त्रों
में खोजो—तों
तुम्हें यही
मिलेगा।
परमात्मा ने
संसार क्यों
रचा? हिंदू
शास्त्रों का
कहना है, क्योंकि
उसमें
अभिलाषा
उत्पन्न हो गई—उसमें
काम उपजा—उसने
संसार की रचना
की। सारी
सृष्टि काम—ऊर्जा,
इच्छा—काम
से जन्मी है।
लेकिन हिंदू
एक अर्थ में
बहुत
हिम्मतवर रहे
हैं। वे कहते
हैं, परमात्मा
ने संसार रचा,
फिर उसने
वृक्षों, पशुओं
को बनाना आरंभ
किया। उसने
इतने अधिक
वृक्षों को
कैसे बनाया? उसने इतने
सारे पशुओं को
कैसे बनाया? उसकी योजना,
कार्य
प्रणाली क्या
थी? इतने
जटिल संसार पर
कार्य करना
उसने किस भांति
शुरू किया? हिंदू कहते
हैं, यह
बहुत सरल है।
सर्वप्रथम
उसने गाय को
बनाया.......हिंदू
गाय को प्रेम
करते हैं, इसलिए
निःसंदेह
परमात्मा को
पहले गाय की
रचना ही करनी
पड़ी। और गाय
बहुत दिव्य, बहुत शांत, बहुत सुंदर
दिख रही थी।
उसने गाय को
रचा, और तब
वह उस गाय के
प्रेम में पड़
गया। कोई
दूसरा धर्म
इतना साहसी
नहीं है—पिता
पुत्री के
प्रेम में पड़
रहा है। गाय
उसकी पुत्री
है, उसने
इसे बनाया है।
अब वह प्रेम
में पड़ गया है;
तो क्या
किया जाए? वह
स्वयं ही काफी
उलझन में था।
इसलिए वह बैल
बन गया, क्योंकि
गाय से प्रेम
करने का केवल
यही उपाय है, वरना तुम
कैसे प्रेम
करोगे। इससे
बचने के लिए—जैसे
कि स्त्रियां
सदा भागती
रहती हैं...
स्त्रैण
ऊर्जा भागती
है। यही तो
खेल है। ऐसा
नहीं है
वास्तव में
कोई स्त्री
भाग जाना चाहती
है; वह
भागने का खेल
खेलती है। हूं
:....? यदि कोई
पुरुष स्त्री
से प्रेम—प्रस्ताव
करे और वह
तुरंत उसके
साथ बिस्तर में
जाने को तैयार
हो जाए, तो
पुरुष जरा
चिंता करना
आरंभ कर देगा।
इस स्त्री के
साथ क्या गड़बड़
है? क्योंकि
खेल तो खेला
ही नहीं गया।
प्रेम का
सौंदर्य
प्रेम में
इतना अधिक
नहीं है जितना
कि ग्रम करने
से पूर्व खेले
जाने वाले खेल,
प्राक्—क्रीड़ा
में है। तुम
अनेक प्रयास
करते हों—कोर्टशिप,
साथ— साथ
रहना, घूमना—फिरना,
लेकिन
कोर्टशिप तभी
संभव है जब
स्त्री राजी
हो। जरा सा
गौर करना। जब तुम
किसी स्त्री
से बात कर रहे
हो, यदि
तुम उसमें
उत्सुक हो, वह पीछे की
ओर हट रखो
होगी, और
तुम आगे बढ़
रहे होओगे।
लेकिन सदैव
वहां एक दीवाल
हुआ करती है, यदि स्त्री
दीवाल से
विपरीत दिशा
में जाती है
तो वह पकड़ में
आ जाएगी। वह
हमेशा दीवाल
की ओर बढ़ती है—यह
भी चाही हुई
बात है। यह
सभी कुछ चाहा
गया है, यही
सारा खेल है, और सुंदर है
यह खेल।
इस तरह
गाय ने बैल से
बचने के लिए
भागना आरंभ कर
दिया। वह मादा
चीता बन गई।
तो परमात्मा
को चीता बनना
पड़ गया। वह
शेरनी बन गई—बस
भागने के लिए।
परमात्मा को
शेर बनना पड़ा।
और इसी प्रकार
से सारा संसार
निर्मित हो
गया, स्त्री
का भागना, पुरुष
का पीछे दौड़ना।
एक सुंदर
कहानी, और
बहुत सत्य।
इसी
प्रकार से
सारा संसार
सृजित हुआ है :
एक ऊर्जा
भागती हुई, दूसरी
उसके पीछे
दौडती हुई।
लुकाछिपी का
खेल—और स्त्री
छिपती है, और
छिप जाती है
और छिपती रहती
है—और इसका
सौंदर्य—और
परमात्मा उसे
बार—बार खोज
लेता है—नये
रूपों में, नये पुष्पों
में, नये
पक्षियों में,
नये पशुओं
में। और खेल
चलता चला जाता
है.....यह लीला
अनंत है।
हिंदू कहते
हैं कि परमात्मा
की लीला का
कोई अंत नहीं
है।
किंतु
सारा खेल
कामुक है। यह
खेल जैसा है, कामुक है
क्योंकि यह
कार्य नहीं है।
तुम खेल को
इसी के लिए
खेलते हो। यही
कारण है कि
हिंदुओं की
परमात्मा की
अवधारणा, ईसाइयों
और मुसलमानों
और यहूदियों
की परमात्मा
की अवधारणाओं
से कहीं श्रेष्ठ
है। यहूदी
ईश्वर किसी
श्रमिक, करीब—करीब
कामगार, एक
शूद्र जैसा
दिखाई पड़ता है।
हिंदू ईश्वर
कार्य की
चिंता नहीं
करता है, वह
किसी श्रमिक
संघ से
संबंधित नहीं
है। वह खिलाड़ी
है, अभिनेता
है। सारा
संसार उसका
खेल है। वह
इससे आनंदित
होता है, और
इसका कोई अंत
नहीं है। अपने
आप में यही
साध्य है, यह
कोई साधन नहीं
है।
कार्य
और खेल में
यही अंतर है, कार्य
सदैव लक्ष्य
उन्मुख होता
है। अपने आप
में यह व्यर्थ
है, इसीलिए
तुम इसे न
करना चाहोगे।
तुम आफिस जाते
हो, फैक्ट्री
में, दुकान
में जाते हो
और सारा दिन
तुम कार्य
करते हो, क्योंकि
जो कुछ तुम
चाहते हो—कार,
अच्छा मकान,
एक सुंदर
स्त्री—सिर्फ
तभी संभव है
यदि तुम धन
कमाओ। तुम
फैक्ट्री में
इसलिए कार्य
नहीं कर रहे
हो क्योंकि
तुम इससे
प्रेम करते हो,
तुम आफिस
में इसलिए
नहीं हो कि
तुम इसे प्रेम
करते हो।
तुम्हें कुछ
दूसरी
वस्तुओं की
चाह है, लेकिन
वे कार्य के
बिना उपलब्ध
नहीं है, इसलिए
तुम्हें किसी
भी प्रकार से
उनको पाने के
लिए शर्त पूरी
करनी पड़ती है।
इसलिए तुम
कार्य करते हो।
लेकिन
तुम्हारा
लक्ष्य कहीं
और है।
खेल
पूरी तरह अलग
है। तुम खेल
रहे हो; इसका कोई
लक्ष्य नहीं
है। यह स्वयं
में ही लक्ष्य
है। तुम
सक्रियता का
आनंद उसमें ही
ले रहे हो।
मैंने
सुना है, लार्ड
कार्नफोर्थ, लार्ड येले
और लार्ड
डोनिंग्टन एक
रविवार को लान
में बैठ कर
तीसरे पहर की
चाय पी रहे थे।
उनकी बातचीत
का विषय काम—संबंध
की ओर मुड़ गया।
लार्ड
कार्नफोर्थ
ने कहा कि यह
नब्बे
प्रतिशत सुख
है औs दस
प्रतिशत
कार्य; लार्ड
येले ने कहा
कि यह पचास
प्रतिशत
कार्य है और
पचास प्रतिशत
सुख; लार्स
डोनिंग्टन, जो उनमें
सबसे अधिक
उम्र के थे, ने कहा कि यह
दस प्रतिशत
सुख और नब्बे
प्रतिशत
कार्य है।
अपने
विवाद का समापन
करने के लिए
उन्होंने
फूलों की
क्यारी में
काम कर रहे
बूढ़े माली को
बुलाया। जब
उन्होंने यह
प्रश्न उसके
सामने रखा, तो उसने
कहा, क्यों,
निःसंदेह
इस काम में सौ
प्रतिशत सुख
है, यदि
इसमें जरा भी
कार्य करना
पड़ता, तो
हुजूर, अपने
लिए आप लोग यह
काम भी हम
नौकरों से ही
करा लिया करते।
खेल सौ
प्रतिशत सुख
है। परमात्मा
के लिए हिंदू
अवधारणा लीला
करने वाले की
है, और
यह सारी
सृष्टि लीला
से रची गई है।
और इस लीला
में संलग्न
ऊर्जा काम है।
वहां
अटक मत जाओ, क्योंकि
और श्रेष्ठ
खेल हैं; खेले
जाने के लिए
सूक्ष्मतर
खेल हैं। पहले
तुम बाहर की
स्त्री से
खेलते हो, यह
निम्नतम
संभावना है।
फिर तुम भीतर
की स्त्री से
खेलना आरंभ
करते हो। यही
है जिसको योग
सूर्य और
चंद्र, पिंगला
और इड़ा का
मिलन कहता है।
यदि तुम पुरुष
हो तब भीतर की
स्त्री के साथ
या यदि तुम
स्त्री हो
भीतर के पुरुष
के साथ तुम्हारा
खेल आरंभ हो
जाता है।
और
दोनों हैं
तुम्हारे
भीतर, कोई
पुरुष केवल
पुरुष नहीं है,
उसके भीतर
स्त्री है; कोई स्त्री
केवल स्त्री
नहीं है, उसके
भीतर पुरुष है।
ऐसा होना ही
है, क्योंकि
तुम्हारा
जन्म दोनों के
संगम से हुआ है।
तुम्हारा
पिता तुमको
कुछ देता है, तुम्हारी मां
भी तुमको कुछ
देती है। चाहे
तुम पुरुष हो
या स्त्री, इससे जरा भी
अंतर नहीं
पड़ता। तुम दो
ऊर्जाओं—स्त्री,
पुरुष का
सम्मिलन हो।
दोनों तुममें
आधा—आधा
योगदान देते
हैं।
तो एक
पुरुष और एक
स्त्री में
क्या अंतर है? अंतर इस
प्रकार का है.
जैसे कि दो
सिक्के हों, दोनों
बिलकुल एक
समान हों, लेकिन
एक सिक्के का
शीर्ष भाग ऊपर
है, दूसरे
सिक्के का
पृष्ठभाग ऊपर
है। दोनों
बिलकुल एक से
है। अंतर तो
केवल प्रभाव
का है। यह
अंतर
गुणवत्ता का
नहीं है, यह
अंतर ऊर्जा का
नहीं है, यह
अंतर केवल
प्रभाव का है।
एक पुरुष
सचेतन रूप से
पुरुष है, अचेतन
रूप से स्त्री
है; एक
स्त्री सचेतन
रूप से स्त्री
है, अचेतन
रूप से पुरुष
है।
एक बार
तुम जान लो कि
किस भांति से
बाहर की स्त्री
के साथ खेला
जाए। और इसी
कारण से मेरा
जोर इसी बात
पर है कि पहले तुमको
बाहर का खेल
सीखना पड़ता है, तभी तुम
भीतर के
सूक्ष्म
स्त्री या
पुरुष के साथ
खेल खेलना
आरंभ कर सकते
हो। पहले
तुम्हें बाहर
की स्त्री या
पुरुष को राजी
करना पड़ता है,
और वहीं यह
खेल खेलना
पड़ता है, क्योंकि
यह बहुत स्थूल
है और सरलता
से सीखा जा
सकता है। यह
किसी अन्य
महत् खेल की
तैयारी मात्र
है। फिर तुम
भीतर जाते हो।
फिर तुम उस
दूसरे की खोज
आरंभ करते हो
जो तुम्हारे
अस्तित्व में
कहीं छिपा है,
तुम इसे पा
जाते हो, और
तभी तुम्हारे
भीतर एक गहरा
चरम सुख, आर्गाज्य
घटता है।
यह चरम
सुख उच्चतर से
उच्चतर और
विराटतर और विराटतर
होता जाता है
और सहस्रार पर, शीर्ष पर,
तुम्हारे
अस्तित्व के
अंतिम केंद्र
पर परम आर्गाज्य
घटित होता है,
जहां परम
ईश्वर का परम
प्रकृति से
मिलन होता है,
जहां दो परम
मिलते हैं, संबंधित
होते हैं और
स्थ—दूसरे में
विलीन हो जाते
हैं, जहा
चेतना पदार्थ
से मिलती है, पुरुष
प्रकृति से
मिलता है, जहां
दृश्य अदृश्य
से मिलता है
और परम समाधि
घट जाती है।
यह एक
खेल है।
तुम्हें इसे
जितनी
सुंदरता से
संभव हो पाए
खेलते रहना
पड़ता है। और
तुमको इसकी
कला सीखनी
पड़ती है।
इसलिए
यदि तुम दमन
करते हो, तुम्हें
लगातार दमन
करना पड़ता है।
यदि तुम दमन
करते हो तो
तुम्हें
लगातार
चौकीदारी
करनी पड़ती है,
और तुम
विश्रांत
नहीं हो सकते।
विश्रांति
केवल तभी संभव
है जब
तुम्हारे भीतर
कोई शत्रु न
हो, केवल
तभी तुम
विश्रांत हो
सकते हो।
अन्यथा तुम
कैसे
विश्रांत हो
सकते हो, विश्रांति
मन की एक
अवस्था है जहा
कोई दमन, इसका
कोई चिह्न तक
न हो।
एक छोटा
बच्चा
विश्रांत हो
जाता है।
जितनी
तुम्हारी आयु
बढ़ती है उतना
ही शांत हो पाना
तुम्हारे लिए
कठिन हो जाता
है। एक छोटा
बच्चा काफी
गहराई तक शांत
हो जाता है।
जरा देखो, डाइनिंग
टेबल पर भोजन
करने के दौरान
भी छोटा बच्चा
सो सकता है।
वह अपने
खिलौनों से
खेलते—खेलते भी
सो सकता है।
वह कहीं पर भी
सो सकता है।
और बड़ी आयु के
लोगों के लिए
सोना, विश्रांत
होना, प्रेम
करना, विलीन
हो जाना और— और
कठिन होता
जाता है। इतने
अधिक दमन भरे
पड़े हैं भीतर।
और तुम सदैव
इतना बोझ ढोते
रहते हो, तुम
अत्याधिक भार
से दबे हुए हो।
और यह
भार बहुत जटिल
भी है; यह
सरल नहीं है।
यदि तुम काम
का दमन करते
हो—इसको समझने
का प्रयास करो—तुम्हें
साथ ही साथ
बहुत सी अन्य
चीजों का भी दमन
करना पड़ेगा, क्योंकि हर
चीज परस्पर
संबंधित है।
अंदर से यह
बहुत जटिल
मामला है। यदि
तुम काम का
दमन करो तो
तुमको अपनी
श्वास का भी
दमन करना
पड़ेगा। तुम
गहराई से
भलीभांति
श्वास नहीं ले
सकते हो, क्योंकि
गहरी श्वास
काम के आंतरिक
केंद्र की
मालिश करती
रहती है। यदि
तुम वास्तव
में ढंग से
श्वास लो तो
तुम कामुक
अनुभव करोगे।
तुमको श्वसन
प्रक्रिया का
दमन करना
पड़ेगा, तुम
गहराई से
श्वास नहीं ले
सकते, यदि
तुम काम का
दमन करते हो, तो तुम्हें
अपने भोजन में
से कई चीजों
का दमन करना
पडेगा, क्योंकि
ऐसे कई भोज्य
पदार्थ हैं जो
तुम्हें अन्य
की तुलना में
अधिक काम—ऊर्जा
प्रदान करते
हैं। फिर
तुमको अपना
भोजन बदलना पड़
जाएगा। यदि
तुम काम का
दमन करते हो
तो तुम ठीक से
सो नहीं सकते,
क्योंकि
यदि तुम ढंग
से सो जाओ और
तुम पूरी तरह
विश्रांत हो
जाओ तो
तुम्हें
कामुक स्वप्न
आएंगे, निद्रा
में तुम्हारा
स्खलन हो सकता
है, इसका
भय वहां रहेगा।
तुम भलीभांति
सो पाने में
समर्थ न हो
पाओगे। अब
तुम्हारा
सारा जीवन एक
जटिलता, एक
ग्रंथि, एक
घबड़ाहट बन
जाएगा।
तुम
काम का दमन कर
सकते हो, लेकिन फिर
तुम्हें बेहद,
बहुत
तनावग्रस्त, करीब—करीब
पागलों जैसा
तनावग्रस्त
रहना पड़ेगा।
यही है जिसे
होना चाहिए.
'लेकिन
मेरे मन में
तनाव रहा करते
थे। आपकी
छत्रछाया में
आकर तनाव खो
चुके हैं...'
बहुत
शुभ हुआ यह।
निःसंदेह जब
तनाव
विसर्जित
होते हैं, तो उन
तनावों के
द्वारा तुमने
जिस काम को
दबा कर रखा
हुआ था, उभर
आएगा, पुन:
उठ खड़ा होगा।
'…….किंतु
काम की एक नई
समस्या उठ खड़ी
हुई है।’
इसे
समस्या मत कहो।
इसे बस ऐसे
कहो अब काम—ऊर्जा
पुन: प्रवाहित
हो रही है। अब
तुम्हारी काम—ऊर्जा
कोई ठोस वस्तु
न रही, यह
तरल और
प्रवाहमान हो
गई है। अब
तुम्हारा काम
पुन: जीवंत हो
गया है, यह
पंगु और मृत
नहीं रहा। तुम
पुन: युवा हो
गए हो।
मेरा
सारा प्रयास
है तुम्हें उन
शिक्षकों से जिनके
साथ तुम रहे
हो, उन
शास्त्रों से
जिनको तुम
पढ़ते रहे हो, और उन सारी
मूढ़ताओं से
जिनमें तुम
रहा करते थे, कैसे मुक्त
किया जाए—तुम्हें
निर्भार कैसे
करूं। मेरा
नब्बे
प्रतिशत
कार्य इसी
कारण है कि
तुमने कुछ गलत
सीख रखा है अब
तुमको इसे
अनसीखा करना
पड़ेगा। अब
पुन: यदि तुम
इसे समस्या
कहते हो, तो
यह तुम नहीं
हो। तुम्हारे
तथाकथित
शिक्षक की
आवाज
तुम्हारे माध्यम
से कार्य कर
रही है; वह
तुम्हारे
हृदय के
सिंहासन पर
बैठा है और कह
रहा है, देखो।
यह समस्या
पुन: उठ रही है।
इसको रोक दो।
दमन करो इसका।
तुम्हें इस
आवाज के प्रति
उदासीन होना
पडेगा।
यदि
तुम मेरे साथ
रहना चाहते हो, तुम्हें
जीवंत होना
पड़ेगा—इतना
जीवंत कि इससे
बाहर कुछ भी न
हो, सब कुछ
इसमें समाहित
हो जाए। यही
कार्य का आरंभ
है।
यदि
तुम विश्रांत
हो सकते हो, तुम
परमात्मा तक
पहुंच सकते हो।
परमात्मा तक
पहुंचना कोई
प्रयास नहीं
है। यह है
प्रयास रहित
विश्रांति, लेट गो।
प्रश्न: निष्क्रियतापूर्वक
सजग कैसे हुआ जाए?
न बहिर्मुखी
और न अंतर्मुखी
कैसे हुआ जाए?
होना और
फिर भी न होना कैसे
हुआ जाए?
कृपया शब्दों
से नहीं वरन शून्य
द्वारा उत्तर
दे।
तब तो
तुम्हें भी
शून्य के
माध्यम से
पूछना पड़ेगा।
यदि तुम्हें
मेरा मौन
उत्तर चाहिए, तो तुमको
मौन द्वारा ही
पूछना पड़ेगा।
यदि तुम मौन
द्वारा नहीं
पूछ सकते, तब
भी मैं मौन
द्वारा उत्तर
दे सकता हूं
किंतु उस
उत्तर को तुम
समझ न पाओगे।
पहले तुम्हें
मौन की भाषा
सीखनी पड़ेगी।
इसलिए यदि तुम
मुझसे मौन में
कुछ पाना
चाहते हो, तो
स्वयं की
तैयारी करो—और
मौन में
प्रश्न पूछो।
इसे लिखने की
कोई आवश्यकता
नहीं है।
क्योंकि मैं
तुम्हें उतना
ही दे सकता
हूं जितना
ग्रहण करने की
पात्रता
तुममें है।
और ऐसे
दीवानगी भरे
प्रश्न मत
पूछो, क्योंकि
मैं और
दीवानगी से
उत्तर दे सकता
हूं।
मैं
तुम्हें एक
कहानी सुनाता
हूं
एक मां
ने सोचा कि
उसकी बेटी की
असामान्य
प्रवृत्तियों
की संभावना के
लिए जांच की
जानी चाहिए, इसलिए वह
उसे एक
मनोचिकित्सक
के पास लेकर
गई। अन्य
प्रश्नों के
साथ
मनोचिकित्सक
ने पूछा : तुम
लड़का हो या
लड़की?
लड़की
ने उत्तर
दिया. लड़का।
इस
अप्रत्याशित
उत्तर से
हैरान होकर
मनोचिकित्सक
ने पूछा : जब
तुम बड़ी हो
जाओगी तो तुम
क्या बनोगी—स्त्री
या पुरुष?
पुरुष।
उसने उत्तर
दिया।
बाद
में जब वे घर
लौट रहे थे, तो मां ने
पूछा : उनके
द्वारा पूछे
गए प्रश्नों
के तुमने इतने
अजीब से उत्तर
क्यों दिए?
छोटी
लड़की
गर्वपूर्वक
खड़ी हो गई और
उसने कहा. यदि
वे मुझसे
दीवानगी भरे
सवाल पूछने जा
रहे, तो
मैं भी उन्हें
दीवानगी भरे
उत्तर दूंगी—वें
मुझे मूर्ख
नहीं बना सकते।
इस बात
को याद रखो।
यदि तुम पूर्ण
मौन में उत्तर
प्राप्त करना
चाहते हो, तो सीखो
मौन कैसे हुआ
जाए। फिर
तुम्हें
पूछने की
जरूरत न रहेगी,
तुम्हें
अपने भीतर
प्रश्न बनाने
की जरूरत भी न
पड़ेगी, तुम्हें
मेरे पास आने
की आवश्यकता
भी नहीं है, क्योंकि तब
शारीरिक
निकटता की
जरूरत नहीं रहेगी।
तुम जहां कहीं
भी हो तुम
मेरा उत्तर
पाने के योग्य
होओगे। और वह
उत्तर मेरा या
किसी और का
नहीं होगा, यह तुम्हारे
अपने हृदय का
उत्तर होगा।
मुझे
तुम्हें
उत्तर देने
पड़ते हैं
क्योंकि तुम्हें
नहीं पता कि
प्रश्न कैसे
पूछा जाए।
मुझे तुम्हें
उत्तर देने
पड़ते हैं
क्योंकि तुम
अपने स्वयं के
अस्तित्व से
उत्तर पाने
में अभी समर्थ
नहीं हो पाए
हो। एक बार
तुम मौन सीख
लो, तो
तुम आत्यंतिक
रूप से समर्थ
हो जाओगे। बस
मौन हो जाओ और
सारे प्रश्न
खो जाते हैं।
ऐसा नहीं है
कि तुम्हें
कोई उत्तर मिल
जाता है, बस
प्रश्न खो
जाते है, तुम्हारे
पास पूछने के
लिए कोई
प्रश्न नहीं बचता।
बुद्ध
अपने शिष्यों
से कहा करते
थे, एक
वर्ष के लिए
बस चुप हो जाओ,
मौन हो रहो।
एक वर्ष बाद
जो कुछ भी तुम
पूछना चाहो
पूछ सकते हो।
लेकिन एक वर्ष
बाद वे नहीं
पूछेंगे
क्योंकि
प्रश्न खो
जाते हैं।
तुम
जितना अधिक
मौन हो जाते
हो, उतने
ही कम प्रश्न
उठते हैं, क्योंकि
प्रश्न
शोरगुल से भरे
मन का भाग हैं।
प्रश्न
तुम्हारे
जीवन से, तुम्हारे
अस्तित्व से
और तुम्हारे
होने से नहीं
आ रहे हैं। वे
एक विक्षिप्त
मन से आ रहे
हैं। जब
विक्षिप्तता
कुछ कम हो
जाती है, शोरगुल
जरा थम जाता
है और मन का
यातायात खो जाता
है, तो उस
यातायात और
शोरगुल के साथ
प्रश्न भी खो जाते
हैं। अचानक
वहां मौन हो
जाता है।
मौन ही
उत्तर है।
प्रश्न:
ओशो, मैं
बहुत से स्वप्न
देखा करता हूं, किंतु शायद ही
कभी आप मेरे सपनों
में आते है। अक्सर
नैहरू, जयप्रकाश
और दिनकर ही दिखाई
देते है। और वहीं
शैतान रेलगाड़ी
जो हर बार मेरे
सामान लेकर चली
जाती है। लेकिन
मुझे स्टेशन पर
खड़ा छोड़ जाती
है।
सवप्न
में आप एक बार मुझे
आपनी जीप से एक
ऊबड़—खाबड़ नदी
तट पर ले गए थे।
और कल रात
मैंने आपको अनेक
भली स्त्रियों
से एक साथ विवाह
करते हुए देखा, और आपने मुझसे
कहा कि आप उन सभी
के साथ सरलता और
सहजतापूर्वक निभा
लेंगे।
ओशे, कृपया कुछ
कहेंगे कि स्वप्न
देखने वाले के
लिए इस सबका क्या
अभिप्राय है?
यह प्रश्न
स्वामी आनंद
मैत्रेय ने
पूछा है। यह
सुंदर प्रश्न
है। और एक
अच्छा तथा
अर्थपूर्ण
प्रश्न है यह।
यह उनके बारे
में बहुत कुछ
प्रदर्शित
करता है।
पहली
बात, अतीत
में वे राजनीतिज्ञ
रहे हैं, और
उन्हें बहुत
उम्मीदें थीं।
वे पंडित
जवाहरलाल
नेहरू, जयप्रकाश
नारायण और
रामधारी सिंह
दिनकर क़े सहयोगी
रहे हैं। कई
वर्षों तक वे
संसद के सदस्य
भी रहे हैं।
किसी प्रकार
वे मेरे प्रति
आकृष्ट हो गए,
और एक महान
राजनेता, एक
बड़ी राजनैतिक
ताकत बन पाने
के उनके सारे
स्वप्न खो गए।
लेकिन अतीत अब
भी चिपका है।
ये
सपने जिनमें
नेहरू, जयप्रकाश और
दिनकर आते हैं,
बहुत
प्रतीकात्मक
हैं। वे
प्रदर्शित
करते हैं कि
उनके अचेतन
में कहीं भीतर
अभी भी
राजनैतिक
महत्वाकांक्षा
विद्यमान है।
वे अभी तक
इससे पूरी तरह
से छुटकारा
पाने में समर्थ
नहीं हो पाए
हैं। वे
निष्ठापूर्वक
मेरे साथ हैं,
वे
प्रमाणिकता
से मेरे साथ
हैं लेकिन
अतीत अब भी
चिपका है। वे
इससे छुटकारा
पाना चाहते हैं,
यही कारण है
कि अतीत दिन
में नहीं आता
है। रात में
जब वे गहरी
नींद में और
असहाय होते हैं
तब वह आ जाता
है। तब मन
पुरानी
चालबाजियां
बार—बार खेलना
आरंभ कर देता
है।
मैं
उनके सपनों
में अधिक नहीं
आता, क्योंकि
मैं तो यहां
हूं ही। मैं
यथार्थ में
यहां हू इसलिए
मेरे बारे में
स्वप्न
निर्मित करने
में क्या सार
है। याद रखो, स्वप्न सदैव
उन्हीं चीजों
के बारे में
आते हैं जो
उपस्थित नहीं
हैं; या तो
वे अतीत में
थीं या भविष्य
में तुम उन्हें
चाहोगे। जो
कुछ भी
वर्तमान में
तुम्हारी
वास्तविकता
का हिस्सा है,
कभी
तुम्हारे
स्वप्नों में
नहीं आएगा।
तुम्हारी खुद
की पत्नी कभी
भी तुम्हारे
स्वप्नों में
नहीं आएगी, पड़ोसियों की
पत्नियां, वे
आ जाएंगी।
तुम्हारा
अपना पति कभी
तुम्हारे
स्वप्नों में
न आएगा, कोई
सार ही नहीं
है उसके आने
में, लेकिन
दूसरे लोग आ जाएंगे।
स्वप्न
वास्तविकता
का
स्थानापन्न
है। यह
परिपूरक है।
यदि तुमने ढंग
से भोजन किया
है, अपने
भोजन का आनंद
लिया है, इसको
प्रेम किया है,
और तुम
संतुष्ट हो, तो तुम
रात्रि को
स्वप्न में
पुन: भोजन
करते हुए
स्वयं को न
देखोगे और न
ही ऐसा सोचोगे,
ऐसा स्वप्न
नहीं आएगा। एक
दिन उपवास करो,
और फिर
तुम्हें
स्वादिष्ट
भोजन, सुस्वाद
भोजन के
स्वप्न आएंगे—तुम्हें
राजघराने
द्वारा
राजमहल में
निमंत्रित
किया गया है, तुम खाते हो,
खा रहे हो
और खाए जा रहे
हो।
स्वप्न
तो बस इसी को
इंगित करता है
कि तुम्हारे
जीवन में क्या
खोया हुआ है, जो पहले
से ही वहां है
वह कभी स्वप्न
का भाग नहीं
होता। यही
कारण है कि
सबुद्ध
व्यक्ति को
स्वप्न नहीं
आते, क्योंकि
वह किसी भी
बात से नहीं
चूक रहा है।
जो कुछ भी
उसने चाहा घट
गया है और अब
कुछ रहा भी नहीं।
उसके वर्तमान
को प्रभावित
करने के लिए
उसके पास न
अतीत है और न
भविष्य। उसका
वर्तमान
परिपूर्ण है।
जो कुछ भी वह
कर रहा है वह
पूरी तरह उसका
आनंद ले रहा
है। वह इतना
तृप्त है कि
किसी भी
प्रकार के
परिपूरक
स्वप्न की
आवश्यकता ही न
रही।
तुम्हारे
स्वप्न
तुम्हारे
असंतोष है, तुम्हारे
स्वप्न
तुम्हारी
अतृप्तियां
है, तुम्हारे
स्वप्न
तुम्हारी
अधूरी
इच्छाएं हैं।
मैत्रेय
राजनीतिज्ञ
रहे हैं, और उनका मन
अभी भी इस
राजनीति को
साथ रखे हुए है।
और इसीलिए 'वही शैतान
रेलगाडी जो हर
बार मेरा
सामान लेकर चली
जाती है लेकिन
मुझे छोड़ जाती
है' यह भी
उनके
स्वप्नों में
अनेक बार आता
है, यह
बहुत से लोगों
के स्वप्नों
का हिस्सा है।
एक रेलगाड़ी, किसी भांति
तुम उस तक
पहुंचे, दौड़ते—
भागते, किसी
प्रकार से तुम
प्लेटफार्म
तक पहुंच पाए हो
और रेलगाड़ी
छूट गई। और
उनकी परेशानी
तो और भी अधिक
है, उनका
सामान भी
रेलगाड़ी में
रखा हुआ है और
वे प्लेटफार्म
पर बिना किसी
सामान के
अकेले खड़े छोड़
दिए गए हैं।
यही तो हुआ है
उनके साथ।
नेहरू
रेलगाड़ी में
बैठ —कर चले गए,
दिनकर
रेलगाड़ी में
बैठ कर चले गए,
जयप्रकाश नारायण
रेलगाड़ी में
बैठ कर चले गऐ और
वे उनका सामान
भी ले गए और वे
प्लेटफार्म पर
खड़े रह गए हैं
खाली हाथ। वे
महत्वाकांक्षाएं,
राजनैतिक
महत्वाकांक्षाएं
अभी भी उनके
अचेतन में
विद्यमान हैं।
इसीलिए
उनके स्वप्न
में नहीं आ
रहा हूं मैं।
मैं तो यहां
हूं ही। मैं
कोई
महत्वाकांक्षा
नहीं हूं। जब
मैं जा चुका
होऊंगा तो मैं
उनके
स्वप्नों में
आ सकता हूं—अब
उनकी एक और
रेलगाड़ी छूट
चुकी होगी। एक
रेलगाड़ी उनकी
छूट गई है, और
उन्होंने उसे
आत्यंतिक रूप
से छोड़ दिया
है। अब वापस
लौटने का कोई
उपाय रहा नहीं,
क्योंकि एक
खास किस्म की
समझ उनमें जाग
चुकी है। वे
अब वापस नहीं
जा सकते वे
पुन:
राजनीतिज्ञ नहीं
हो सकते। वापसी
नहीं हो रही
है, किंतु
अतीत चिपका रह
सकता है, और
जितना अधिक यह
चिपकता है
उनकी दूसरी
रेलगाड़ी भी
छूट सकती है।
और
निःसंदेह, 'आप एक
बार मुझे अपनी
जीप से एक ऊबड़—खाबड़
नदी तट पर ले
गए थे।’ जीप
है, और
चारों तरफ एक
ऊबड़—खाबड़ नदी
तट है—यह बहुत
ऊबड़—खाबड़ है।
मेरे साथ रहना
सदैव खतरे में,
असुरक्षा
में जीना है।
मैं तुम्हें
कोई सुरक्षा
नहीं देता, वास्तव में
मैं तुमसे
तुम्हारी
सारी सुरक्षाएं
छीन लेता हूं।
मैं करीब—करीब
खाली कर देता
हूं—पकड़ने के
लिए कुछ भी
नहीं, चिपकने
के लिए कुछ भी
नहीं। मैं
तुम्हें
अकेला छोड़
देता हूं। भय
उठ खडा होता
है।
अब
मैत्रेय पूरी
तरह अकेले छूट
गए है—न धन, न शक्ति,
न
प्रतिष्ठा, न कोई
राजनैतिक
स्तर। सब कुछ
जा चुका है, वे मात्र एक
भिक्खु हैं।
मैंने उनको एक
भिक्षुक बना
दिया है। और
वे ऊपर उठ रहे
थे। वे ऊपर और
ऊपर उठ रहे थे।
अब तक तो वे
किसी तरह
मुख्यमंत्री
बर्न चुके
होते या वे
केंद्रीय
मंत्रिमंडल में
सम्मिलित हो
चुके होते।
बहुत आश्वस्त
थे वे। वे सभी
स्वप्न
तिरोहित हो
चुके हैं। अब
वे सपने बनते
रहते हैं और
उनका पीछा
करते रहते हैं,
भूत हैं वे
स्वप्न।
उनको
इस तथ्य को
पहचानना होगा
कि वापस जाना
संभव न रहा।
वे वापस न लौट
सकने वाले
बिंदु पर
पहुंच चुके
हैं। इसलिए अब
उस बोझ को
ढोना
अनावश्यक है।
आदतवश मन इसको
ढोए चला जाता
है। इसे छोड़
दें। इसको
पहचान लें, इसमें
गहराई से देख
लें। इससे
धोखा न खाएं।
मैंने
सुना है, मुल्ला
नसरुद्दीन की
पत्नी अपने
पति की बहुत अधिक
पीने की आदत
से बेहद
चिंतित थी, और एक रात
उसने मुल्ला
को डराने की
ठानी। उसने
खुद को सफेद
कपड़े में
लपेटा और यह
जानते हुए कि
उसके पति की
शराब घर से
आते समय
कब्रिस्तान
से होते हुए
छोटे रास्ते
से आने की आदत
है वह
कब्रिस्तान
में जाकर बैठ
गई। थोड़ी ही
देर में
मुल्ला
लड़खड़ाता हुआ
आया, वह एक
कब के सिरहाने
से कूद कर
अचानक उसके
सामने आ खड़ी
हुई।
हूंऽऽऽ, वह चीखी,
मैं शैतान
हूं।
मुल्ला
नसरुद्दीन ने
अपना हाथ बाहर
निकाला और
उसका कंधा
थपथपा कर वह
बोला.
तुम्हारी बहन
से मेरा विवाह
हो चुका है।
पहचान
लो! इन नेहरू, दिनकर और
जेपी. के
भूतों को
पहचान लो, तुम्हारे
अतीत का उनकी
बहन राजनीति
से विवाह हो
चुका है। इन
भूतों के
द्वारा मत छले
जाओ।
उन्होंने एक
दाग छोड़ दिया
है, इसे
धोकर साफ करना
पडेगा।
और मैं
जानता हूं कि
बहुत कठिन है।
जब तुम बस
सफलता के कगार
पर हो और
अचानक तुम मुड़
गए और तुमने
अपना रास्ता
बदल लिया, तब बड़ी
मुश्किल बात
है यह। जब वे
मुझसे मिले थे
तो वे संसद
सदस्य थे, लेकिन
इस मुलाकात ने
उनका जीवन बदल
दिया। धीरे—
धीरे वे
राजनीति से
हटने लगे, मुझमें
अधिक रुचि
लेने लगे और
अपनी
राजनैतिक गतिविधियों
में रुचि कम
करने लगे। और
वे बस सफलता
के मुकाम पर
खड़े थे। यदि
वे सफल हो गए
होते, और
उन्होंने
सफलता की
पीड़ाओं को सह
लिया होता, और सफलता की
असफलता को भी
झेला होता, तो उनके लिए
पुराने भूतों
को छोड़ पाना
अपेक्षाकृत
आसान रहा होता,
बस सफल होने
के मुकाम पर
खड़े थे वे। बस
उसी दरवाजे पर
जब वे महल में
घुस रहे थे
उनकी भेंट
मुझसे हो गई।
अब वह दरवाजा
और उस महल का
स्वप्न और
वहां रहने का
स्वप्न जारी
है।
यदि वे
उस महल में
कुछ समय रह
लिए होते और
यह जान गए
होते कि इसमें
कुछ नहीं रखा
है, तो
यह सरल रहा
होता, तो
यह बहुत आसान
बात हो गई
होती। इसीलिए
तो मेरा कहना
है कि यदि तुम
किसी
कार्यक्षेत्र
में हो तो उसे
छोड़ने के बजाय
उसमें सफल हो
जाना बेहतर है।
यदि तुम धनवान
होना चाहते हो,
तो धनवान हो
जाओ। इस मामले
को निबटा ही
डालो, एक
बार धन
तुम्हारे पास
हो तभी तुम यह
जान सकोगे कि
यह कुछ नहीं
है, यह
निराशा लाता
है। लेकिन यदि
तुमने सफलता
से पूर्व ही
इसे छोड़ दिया
हो, समस्या
हो जाएगी।
अनेक बार यह
विचार बार—बार
उठेगा, हो
सकता है कि
उसमें कुछ रहा
हो। वरना सारा
संसार क्यों
धन, राजनीति
और शक्ति में
उत्सुक है? वहां कुछ न
कुछ तो है। हो
सकता है कि
मैंने ही गलती
से ट्रेन छोड़
दी हो। मुझे
लगे रहना
चाहिए था, मुझे
सारे मामले को
देख कर उसका
अनुभव कर लेना
चाहिए था।
यदि
तुम किसी
इच्छा को पूरा
करने में सफल
हो चुके हो, तो वह
इच्छा स्वय ही
तुम्हें
इच्छाविहीन
बना देती है।
वह सफलता
स्वत: ही
इच्छा को मार
डालती है। तब
कम जागरूकता
के साथ ही व्यक्ति
त्याग कर सकता
है। लेकिन अगर
तुम बस
पहुंचने ही जा
रहे हो, बस
लक्ष्य छूने
भर की दूरी पर
हो और सभी कुछ
संभव हुआ जा
रहा हो और तुम
पीछे घूम कर
दूर चले जाओ, इसके लिए
अधिक सघन होश
की जरूरत
पड़ेगी। इसलिए
मैत्रेय को और
सघन होश की
जरूरत होगी।
लेकिन
यह भी घटित होना
था, क्योंकि
एक बार तुम
किसी के
प्रभाव
क्षेत्र में आ
जाओ जो
तुम्हें
संसार से बाहर
ले आए, एक
बार तुम्हारा
संपर्क हो जाए—और
तुम अनजाने
में ही
संस्पर्शित
हो गए... मैं एक
अन्य राजनेता
के घर मेहमान
था और
उन्होंने मैत्रेय
को भी
निमंत्रित
किया हुआ था।
अब क्योंकि एक
बुजुर्ग
राजनेता, एक
वरिष्ठ
राजनेता ने
उन्हें
निमंत्रित
किया था तो
उन्हें यह
जानने के लिए
आना ही पड़ता
कि मामला क्या
है। किंतु बार—बार
तुम किसी ऐसे
प्रभाव
क्षेत्र के
संपर्क में आ
जाओ जो तुमको
महत्वाकांक्षा
के संसार से
बाहर ले जा
सकता हो—और
यदि तुम जरा
संवेदनशील हो
और समझपूर्ण
हो—और वे हैं—वे
बात को तुरंत
समझ गए। वे
वयोवृद्ध
राजनेता
जिनके घर मैं
ठहरा हुआ था, मेरे साथ कई
वर्षों तक रहे,
परंतु
मुझको कभी
नहीं समझे। वे
अब विदा ले
चुके हैं, स्वर्गीय
हो गए हैं, लेकिन
वे राजनेता की
भांति मरे, और वे संसद
सदस्यरहते
हुए मरे। वै
सारे संसार के
सर्वाधिक समय
रहने वाले संसद
सदस्यों में
से एक थे। वे
पचास वर्ष तक
संसद सदस्य
रहे। लेकिन वे
मुझे कभी नहीं
समझ सके। वे
मुझको बहुत
चाहते थे, करीब—करीब
मेरे प्रेम
में पड़ गए थे, लेकिन समझ
संभव न हो सकी।
वे बहुत
मंदमति, मूढ़
थे।
उनके
माध्यम से
मैत्रेय मेरे
पास आए, लेकिन वे
बहुत
संवेदनशील
व्यक्ति हैं।
और मेरा उनसे
कहना है कि न
केवल अपने
राजनैतिक
जीवन में वे
सफलता के
पात्र थे वरन
परम के लिए भी
वे बेहद
उपयुक्त
पात्र हैं।
तुमने एक
ट्रेन छोड़ दी
है, दूसरी
को मत छोड़ना।
यदि इस बार
तुम चूक गए, तो न सिर्फ
तुम्हारा
सामान, बल्कि
तुम्हारे
वस्त्र भी
जाने वाले हैं।
तुम नग्न खड़े
रह जाओगे।
एक बार
एक बड़ा
राजनेता मर
गया और उसके
भूत ने शवयात्रा
में, अपनी
खुद की
शवयात्रा के
साथ, चलने
का फैसला किया।
अपने अंतिम संस्कार
के समय उसकी
भेंट एक अन्य
राजनेता के भूत
से हुई जिससे
वह वर्षों से
परिचित था।
कहिए
भई नेताजी, दूसरे
भूत ने कहा, मैं तो कहता
हूं—बड़ी भीड़
है, क्या
बात है आपकी?
ही, पहले भूत
ने कहा, यदि
मुझे मालूम
होता कि मैं
इतनी बड़ी भीड़
जमा कर सकता
हूं तो मैं
कभी का मर
चुका होता।
राजनेता
की इच्छा बेहद
बचकानी इच्छा
होती है, दूसरों की आंखों
में श्रेष्ठ
और महान दीखना।
सरल है इसे
उपलब्ध करना,
क्योंकि
भीड़ तो बस
पागल है।
तुमको बस इतना
मालूम होना
चाहिए कि उनके
पागलपन को
कैसे
इस्तेमाल
किया जाए।
तुमको तो
सिर्फ यह
मालूम होना चाहिए
कि उसकी
प्रशंसा को
कैसे उकसाया
जाए। तुमको बस
जरा सा चालाक
होना पड़ता है।
बस यही सब कुछ
है, किसी
और चीज की
जरूरत ही नहीं
है। भीड़ें तो
मूढ़ हैं।
लेकिन
वास्तव में
महान बन पाना
पूर्णत: अलग
बात है।
वास्तविक रूप
से श्रेष्ठ
बनने के लिए
व्यक्ति को
भीतर जाना
पड़ता है।
व्यक्ति को
सजग, इच्छा
शून्य, अनासक्त,
संकेंद्रित
होना पड़ता है,
व्यक्ति को
परा, अतिक्रमण
के पार के
बिंदु पर
पहुंचना पड़ता
है। इसका
दूसरों से कुछ
भी लेना—देना
नहीं है।
दूसरे भी करीब—करीब
उतने ही
विक्षिप्त
हैं जितने कि
तुम हो। उनको
तुम इस्तेमाल
कर सकते हो, तुम अपने
लिए उनकी
तालियों को और
उनकी प्रशंसा
को उकसा सकते
हो, लेकिन
इसमें क्या
सार है? जरा
इस ढंग से सोच
कर तो देखो, थोड़ा अंक—गणित
तोलगाओ। यदि
एक मूर्ख
तुम्हारी
प्रशंसा में अपने
हाथों से ताली
बजाता है, क्या
इससे तुम
महिमावान हो
जाओगे? तुम
नहीं होओगे।
लेकिन एक
मूर्ख, एक
हजार मूर्ख या
दस लाख
मूर्खों की
ताली में क्या
अंतर है?
यदि
कोई समझदार
व्यक्ति
तुम्हारी ओर
प्रेम और आशीष
से त्रार कर
देखता है, तो यह
पर्याप्त है।
एक चिड़ियाघर
से दो शेर एक
हो दिन भाग गए।
आजाद घूमते
रहने के तीन
सप्ताह बाद
उनकी एक—दूसरे
से मुलाकात
हुई। उनमें से
एक शेर दुबला
और कमजोर था, जब कि दूसरा
तगड़ा—मोटा और
निःसंदेह
खाया—पीया दीख
रहा था।
मैं
चिड़ियाघर में
वापस लौटने की
सोच रहा हूं कमजोर
वाले शेर ने
कहा, पिछले
पंद्रह दिनों
से तो मैंने
कुछ भी नहीं खाया
है।
बेहतर
यह रहेगा कि
तुम मेरे साथ
चलो, मोटे
शेर ने कहा, मैं संसद
भवन में एक
सज्जन के घर
में रहता हूं।
मैं सप्ताह के
हर दिन एक
नेता को खा
लेता हूं और
मजा यह है कि
कोई उनका गम
भी नहीं मनाता।
तुम्हारे
तथाकथित
महत्वपूर्ण
लोग, कौन
उनका अफसोस
करता है? वे
सोचते हैं कि
उनके बिना
सारा संसार
मिट जाने वाला
है। मिटता कुछ
भी नहीं है, सब कुछ जैसे
चलता था वैसे
ही चलता रहता
है।
इसकी
चिंता मत लो
कि तुमसे
महत्वाकांक्षा
की रेलगाड़ी
छूट गई है। यह
पकड़ने योग्य
थी भी नहीं।
यदि तुमने इसे
पकड़ लिया होता
तो तुमने बहुत
निराशा अनुभव
की होती और
तुमने
पश्चात्ताप
किया होता।
लेकिन मन इसी
भांति कार्य
करता है। यदि
तुम सफल हो
जाते हो तुम
पश्चात्ताप
करते हो, यदि तुम
असफल हो जाते
हो तो भी तुम
पश्चात्ताप
करते हो। देख
लो। मन ऐसे या
वैसे परेशानी
ही पैदा करता
है। जो कुछ भी
घटित हो मन
इससे परेशानी
पैदा कर लेता
है। वह
रेलगाड़ी इतनी
मूल्यवान
नहीं है। इसको
इस ढंग से मत
देखो, सिर्फ
तुम्हारा
सामान ट्रेन
में चला गया
है और तुम छूट
गए हो।
प्रसन्न हो
जाओ कि केवल
तुम्हारा
सामान ही चला
गया और तुम बच
गए।
एक दिन
मैं बगीचे में
टहल रहा था और
मैंने एक भिखारी
को देखा, जिसके एक ही
पैर में जूता
था। तो मैंने
उससे पूछा
गरीब आदमी, क्या
तुम्हारा एक
जूता खो गया
है?
वह
बोला नहीं, मुझे एक
जूता मिल गया
है।
विधायक
दृष्टिकोण
रखो।
एक
शर्त पूरी
करने के लिए
एक व्यक्ति
रात भर एक
भुतहा घर में
रुकने को राजी
हो गया। यह
सुनिश्चित
करने के लिए
कि वह रात में
घर छोड़ कर न
भाग सके, सामने व
पिछवाड़े के
दरवाजों में
ताले लगा दिए गए
और खिड़कियां
बंद कर दी गईं।
अगली सुबह जब
उस घर को खोला
गया तो वहां
उस आदमी का
नामोनिशान तक
नहीं था, लेकिन
छत में एक बड़ा
छेद था, और
यह स्पष्ट था
कि रात में वह
इस छेद से
निकल भागा था।
दो दिन बाद वह
गांव में वापस
लौट आया।
पिछले
अड़तालीस
घंटों में तुम
कहां गायब हो
गए थे? उसके
मित्रों ने
पूछा।
वापस
लौट रहा था, उसने कहा.
मैं वापस आ
रहा था।
भय में
वह इतनी तेजी
से भागा होगा
कि उसे वापस इसी
गांव तक लौटने
में अड़तालीस
घंटे लग गए।
यह शुभ
हुआ मैत्रेय
कि तुम्हारी
ट्रेन छूट गई; वरना
वापस लौटने 'में अड़तालीस
जन्म लग जाते।
उनके प्रश्न
का दूसरा भाग
है : ' और कल
रात मैंने
आपको अनेक भली
स्त्रियों से
एक साथ विवाह
करते हुए देखा,
और आपने
मुझसे कहा कि
आप उन सभी के
साथ सरलता और
सहजतापूर्वक
निभा लेंगे।’
क्या
तुम देख नहीं
पा रहे हो कि
सभी के साथ
सहजता और
सरलता पूर्वक
निभा रहा हूं? प्रत्येक
शिष्य स्त्री
होता है—स्त्री
हो या पुरुष—इससे
कोई भेद नहीं
पड़ता, क्योंकि
शिष्य को
स्त्रैण होना
पड़ता है, केवल
तभी वह सीख
सकता है। कोई
दूसरा उपाय है
भी नहीं, क्योंकि
शिष्य को एक
गर्भ की भांति
ग्रहणशील होना
पड़ता है। उसे
मुझको पूरी
तरह ग्रहण
करना पड़ेगा...
उसे निष्किय
ग्राहक होना
पड़ता है।
भारत
में हमारे पास
एक पौराणिक
कहानी है कि
कृष्ण के पास
सोलह हजार
पत्नियां या
सखियां थीं।
उनको 'पत्नियां'
कहना उचित
नहीं है
क्योंकि वे
वास्तव में
क्रांतिकारी
थे। वे पति या
पत्नी होने
में विश्वास
नहीं करते थे।
उन्होंने सखा
या सखी—गोपियां,
सखियां
बनाने का सारा
विचार
निर्मित किया
था। सोलह हजार
सखियां? सम्हालने
के लिए थोड़ा
अधिक मालूम
होता है, लेकिन
यह कहानी प्रतीकात्मक
है, यह बस
कहती है, सोलह
हजार शिष्य।
वे पुरुष भी
हो सकते हैं, वे स्त्री
भी हो सकते
हैं—यह बात
नहीं है—
लेकिन एक
शिष्य
स्त्रैण होता
है। शिष्य
गोपी है, सखी
है, वरना
वह शिष्य नहीं
है।
मेरे
पास भी सोलह
हजार
संन्यासी हैं, संख्या
ठीक वहीं
पहुंच गई है, और भले भी
हैं सभी। और
तुम देख सकते
हो कि मैं ठीक
से सम्हाल भी
रहा हूं।
वास्तव में
ऐसा नहीं है
कि मैं इन्हें
ढंग से सम्हाल
रहा हूं। यह
तो प्रेम है
जो भलीभांति
सम्हालता है।
प्रेम सदा ही
सुंदरता से, सहजता और
सरलता से
सम्हाल लेता
है। प्रेम
किसी तनाव को
नहीं जानता।
तुमसे
तो एक स्त्री
भी ढंग से
नहीं सम्हल
पाती, क्योंकि
अभी भी तुमको
प्रेम का कोई
पता नहीं।
तुमसे एक
प्रेम संबंध
भी सम्हल नहीं
पाता, क्योंकि
प्रेम नहीं है।
केवल संबंध है
वहां, और
प्रेम खोया हुआ
है, तो
निःसंदेह यह
बहुत सी
परेशानियां
पैदा करता है।
मेरी ओर
से प्रेम है, और कोई
संबंध नहीं है।
प्रेम सम्हाल
लेता है।
प्रश्न:
ओशो, आपके साथ कई
व्यक्तिगत साक्षात्कारों
में आप मुझसे कई
बातें कहा करते
थे। उस समय मैं
सोचा करता था कि
ये बातें आपके
द्वारा मेरे मानसिक
प्रोत्साहन के
लिए कही जा रही
है। लेकिन
जैसे—जैसे समय
व्यतीत होता गया
आपके साथ कथन मेरे
अनुभवों में सौ
प्रतिशत सही सिद्ध
हुए है। उन अनुभवों
के बावजूद अब जि
आप मुझसे कुछ कहते
हो तो उस समय मैं
उस बात का भरोसा
नहीं करता हूं।
मैं अनुभव
करता हूं कि पुन:
आपका कथन सौ प्रतिशत
सही होगा, फिर भी जिस
समय आप मुझसे कहते
है मैं आपको बात
नहीं मानता हूं।
इस असहाय अवस्था
से छुटकारा कैसे
हो?
मैं तुमसे
एक कहानी कहता
हूं यही है
मेरा उत्तर।
एक
आदमी घुड़दौड
में अपनी सारी
बचत गंवा बैठा, और उसका
दिल ऐसा टूटा
कि वह वाटरलू
पुल पर चढ़ गया
और नीचे कूदने
को तत्पर हुआ।
अचानक उसके
कान में एक
भूतिया आवाज
फुसफुसाई, कूदो
मत। कल दुबारा
घुडूदौड़ के
मैदान में जाओ
और मैं तुम्हें
बताऊंगा कि
किस घोड़े पर
दांव लगाना है।
वह आदमी घर
चला गया और
अगले दिन उसने
कुछ रुपयों का
इंतजाम किया
और वह घुड़—दौड़
के मैदान में
चला गया। जब
वह खिड़की पर
लाइन में लगा
था, तो
भूतिया आवाज
ने कहा, जो
कुछ भी
तुम्हारे पास
है उसे पहली
रेस में प्ल पीटर
पर लगा दो।
उसने यही किया
और प्ल पीटर
जीत गया। जब
वह दूसरी रेस
की प्रतीक्षा
कर रहा था, तो
उस आवाज ने
कहा, दांव
लगाने के लिए
लिबरटी बैले
ठीक है। यही
हुआ लिबरटी
बैले जीत गया
और उस आदमी के
पास धन आ गया।
यही चलता रहा,
और जब
घुड़दौड़ सिमट
रही थी वह
आदमी दस लाख
रुपये जीत
चुका था। जब
वह अंतिम दांव
के लिए लाइन
में खड़ा हुआ
तो उस आवाज ने
फुसफुसा कर
कहा, अंतिम
रेस में
बिलकुल भी
दांव मत लगाओ।
फिर भी उस
आदमी ने खुद
को किस्मत
वाला मानते हुए
अंतिम रेस में
अपने मन पसंद
घोड़े पर सारा
धन दांव पर
लगा दिया। वह
हार गया।
'अरे
नहीं', जैसे
ही परिणाम की
घोषणा की गई
वह चिल्लाया,
'अब मैं
क्या करूं?'
'अब
तुम वाटरलू के
पुल से छलांग
लगा सकते हो', आवाज ने कहा।
यही
मेरा उत्तर है।
अब फैसला
तुम्हारे हाथ
में है।
आज इतना
ही।
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