(ओशो)
अध्याय—(12—13)
(ओशो
द्वारा
श्रीमद्भगवदगीता
के अध्याय
बारह ‘भक्तियोग’ एवं तेरह ‘क्षेत्र—क्षेत्रक—विभाग—योग’ पर दिए गए
तेईस अमृत
प्रवचनों का
अर्पूव संकलन।)
जो शब्द
अर्जुन से कहे
थे, उन
पर तो बहुत
धूल जम गयी है; उसे हमें
रोज बुहारना
पड़ता है। और जितनी
पुरानी चीज हो,
उतना ही
श्रम करना
पड़ता है, ताकि
वह नयी बनी
रहे। इसलिए
समय का प्रवाह
तो किसी को भी
माफ नहीं करता,
पर अगर हम
हमेशा समय के
करीब खींच
लाएं पुराने
शास्त्र को, तो शास्त्र पुन:
— पुन: नया हो
जाता है।
उसमें फिर
अर्थ जीवित हो
उठते हैं, नये
पत्ते लग जाते
हैं, नये
फूल खिलने
लगते हैं।
गीता
मरेगी नहीं, क्योंकि
हम किसी एक
कृष्ण से बंधे
नहीं हैं।
हमारी धारणा
में कृष्ण कोई
व्यक्ति नहीं
हैं —सतत
आवर्तित होने
वाली चेतना की
परम घटना हैं।
इसलिए कृष्ण
कह पाते हैं
कि जब —जब होगा
अंधेरा, होगी
धर्म की
ग्लानि, तब
—तब मैं वापस आ
जाऊंगा—सम्भवामि
युगे युगे। हर
युग में वापस
आ जाऊंगा।
—ओशो
गीता
काव्य है, इसलिए एक—एक
शब्द को,
जैसे हम काव्य
को समझते है, वैसे समझना
होगा। कठोरता
से नहीं,
काट—पीट कर
नहीं, बड़ी
श्रद्धा और
बड़ी
सहानुभूति से; एक दुश्मन
की तरह नहीं,एक प्रेमी
की तरह; तो
ही रहस्य
खुलेगा, और
तो ही आप उस
रहस्य के साथ
आत्मसात हो
पाएंगे।
जो भी
कहा है, वे केवल
प्रतीकों को
आप याद कर
सकते है;
गीता कंठस्थ
हो सकती है; पर जो कंठ
में है,
उसका कोई मूल्य
नहीं, क्योंकि
कंठ शरीर का
ही हिस्सा है।
जब तक आत्मस्थ
न हो जाए,
जब तक आत्मसात
न हो जाए,
जब तक ऐसा न हो
जाए कि आप
गीता के अध्येता
हो जाएं,
गीता का वचन न
रहे बल्कि
आपका वचन हो
जाए; जब
आपको न लगे कि
कृष्ण मैं हो
गया हूं,
और जो बोला जा
रहा है, वह
मेरे अंतर—अनुभूति
की ध्वनि है।
वह मैं ही हूं, वह मेरा ही
फैलाव है। जब
तक गीता पराई
हो रहेगी; तब
तक दूरी
रहेगी। द्वैत
बना रहेगा। और
जो भी समझ
होगी गीता की, वह बौद्धिक
होगी। उससे आप
पंडित तो हो
सकते है,
प्रज्ञावान
नहीं।
--ओशो
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