दिनांक 7 मई 1976 ओशो आश्रम पूूूूना।
योग—सूत्र
(कैवल्यपाद)
सदा
ज्ञाताश्चित्तवृत्तयस्तह्मभो:
पुरुषस्यपिम्णामित्वात्।।
18।।
मन
की वृत्तियों
का ज्ञान सदैव
इसके प्रभु, पुरुष,
को शुद्ध
चेतना के
सातत्य के
कारण होता है।
न तत्स्वाभासं
दृश्यत्यात्।।
19।।
मन
स्व प्रकाशित
नहीं है, क्योंकि
स्वयं इसका
प्रत्यक्षीकरण
हो जाता है।
एकसमये
चोभयानवधारणमू।।
20।।
मन
के लिए अपने
आप को और किसी
अन्य वस्तु को
उसी समय में
जानना असंभव
है।
चित्तान्तरदृश्ये
बुद्धिबुद्धेरतिप्रसङ्ग:
स्मृतिसंकरश्च।।
21।।
यदि
यह मान लिया
जाए कि दूसरा
मन पहले मन को
प्रकाशित
करता है, तो
बोध के बोध की
कल्पना करनी
पड़ेगी, और
इससे
स्मृतियों का
संशय उत्पन्न
होगा।
चितेखतिसंक्रमायास्तदाकारापत्तौ
स्वबुद्धिसंवेदनमू।।
22।।
आत्म—बोध
से अपनी स्वयं
की प्रकृति का
ज्ञान मिल जाता
है,
और जब चेतना
इस रूप में आ
जाती है तो यह
एक स्थान से
दूसरे स्थान
को नहीं जाती।
द्रष्ट्रदृश्योपरक्तं
चित्तं
सर्वार्थम्।।
23।।
जब
मन ज्ञाता और
ज्ञेय के रग
में रंग जाता
है,
तब यह
सर्वज्ञ हो
जाता है।
तदसंख्येयवासनाभिश्चित्रमपि
परार्थं संहत्यकारित्वात्।।
24।।
यद्यपि
मन असंख्य
वासनाओं के
रंग में रंगता
है,
फिर भी मन
लगातार उनकी
पूर्ति हेतु
कार्य करता है,
इसके लिए यह
सहयोग से
कार्य करता है।
पहला
सूत्र——
'मन की
वृत्तियों का ज्ञान
सदैव इसके
प्रभु, पुरुष,
को शुद्ध
चेतना के
सातत्य के
कारण होता है।’
पतंजलि
मनुष्य के
अस्तित्व की
सारी जटिलता को
खयाल में रखते
हैं,
इसको समझ
लेना चाहिए। न
कभी उनसे पहले
और न कभी उनके
बाद ऐसा
व्यापक निर्देश—तंत्र
विकसित किया
गया। मनुष्य
कोई सरल अस्तित्व
नहीं है।
मनुष्य एक
अत्यंत जटिल
संरचना है। एक
चट्टान सरल है,
क्योंकि
चट्टान के पास
केवल एक परत
है—देह की परत।
यही है जिसको
पतंजलि
अन्नमय कोष :
सर्वाधिक स्थूल,
मात्र एक
परत, कहते
हैं। तुम
चट्टान के
भीतर जा सकते
हो, तुम्हें
चट्टान की
परतें
मिलेंगी, लेकिन
और कुछ नहीं
मिलेगा। एक
वृक्ष को देखो
और तुम देह के
अतिरिक्त कुछ और
भी पाओगे।
वृक्ष मात्र
एक शरीर ही
नहीं है।
सूक्ष्म जगत
का भी कुछ
इसके साथ घटित
हुआ है। यह
उतना मुर्दा
नहीं है जितनी
कि चट्टान है;
यह अधिक
जीवित है—इसके
भीतर एक
सूक्ष्म शरीर
अस्तित्व मे आ
चुका है। यदि
तुम वृक्ष के
साथ एक चट्टान
जैसा व्यवहार
करते हो, तो
तुम इसके साथ
दुर्व्यवहार
करते हो। तब
तुमने उस
सूक्ष्म
विकास को खयाल
में नहीं रखा
है जो चट्टान
से वृक्ष के
अंतराल में हो
चुका है।
वृक्ष उच्च
विकसित है। यह
अधिक जटिल है।
फिर किसी पशु
को खयाल में
लो—और अधिक
जटिल।
सूक्ष्म शरीर
की एक और परत
विकसित हो
चुकी है।
मनुष्य
के पांच शरीर, पांच
बीज होते हैं,
इसलिए यदि
तुम मनुष्य और
उसके मन को
वास्तव में
समझना चाहते
हो—और यदि तुम
सारी जटिलता
को नहीं समझते
तो इसके पार
जाने का कोई
उपाय नहीं है—तब
हमको बहुत
धैर्यवान और
सावधान होना
पड़ेगा। यदि
तुम एक कदम भी
चूक गए तो तुम
अपने अस्तित्व
के अंतर्तम तल
तक पहुंचने
में समर्थ
नहीं हो पाओगे।
वह शरीर जिसे
तुम दर्पण में
देख सकते हो
तुम्हारे
अस्तित्व का
बाह्यतम खोल
है। अनेक
लोगों ने गलती
से इसी को सब
कुछ समझ लिया है।
मनोविज्ञान
में 'व्यवहारवाद'
नाम का आंदोलन
है, जो
सोचता है कि
मनुष्य एक
शरीर के
अतिरिक्त और
कुछ भी नहीं
है। ऐसे लोगों
से सदैव सचेत
रहो जो 'इसके
अतिरिक्त और
कुछ नहीं' की
बात करते हैं।
मनुष्य सदा से
किसी 'इसके
अतिरिक्त और
कुछ नहीं' से
अधिक रहा है।
व्यवहारवादी
लोग : पावलफ, बीफ. स्किनर
और उनके साथी
सोचते हैं कि
मनुष्य केवल
एक शरीर हैं—ऐसा
नहीं है कि
तुम्हारे पास
शरीर है, ऐसा
नहीं है कि
तुम शरीर में
हो, बल्कि
केवल यही कि
तुम शरीर हो।
तब मनुष्य को
उसकी निम्नतम
पायदान तक
नीचे गिरा
दिया जाता है।
और निःसंदेह
वे इसको सिद्ध
कर सकते हैं।
वे इस बात को
सिद्ध कर सकते
हैं क्योंकि
मनुष्य का
अधिकतम स्थूल
भाग
वैज्ञानिक
प्रयोग के लिए
सरलता से
उपलब्ध है।
मनुष्य के
अस्तित्व की
सूक्ष्म
परतें वैज्ञानिक
अनुसंधान के
लिए इतनी
सरलता से
उपलब्ध नहीं
हैं। या दूसरे
शब्दों में
कहा जाए कि
वैज्ञानिक उपकरण
अब तक इतने
सूक्ष्मग्राही
नहीं हो पाए
हैं। ये उपकरण
मनुष्य की
सूक्ष्म
परतों को
स्पर्श नहीं
कर सकते हैं।
फ्रायड, एडलर
मनुष्य के
भीतर थोड़ा
गहरे उतरते
हैं। फिर
मनुष्य मात्र
एक शरीर ही
नहीं रहता। वे
दूसरे —शरीर
को थोड़ा बहुत
स्पर्श करते
हैं, जिसको
पतंजलि प्राणमय
कोष, जीवंत
शरीर, ऊर्जा
शरीर कहते हैं।
लेकिन फ्रायड
और एडलर ने
इसका एक बहुत
छोटा हिस्सा
ख्युा है—एक
भाग का स्पर्श
फ्रायड ने
किया है और
दूसरे भाग का
एडलर ने।
फ्रायड
मनुष्य को
मात्र
कामुकता के तल
पर गिरा देता
है। यह भी
मनुष्य में है, लेकिन
यही पूरी कथा
नहीं है। एडलर
मनुष्य को
केवल
महत्वाकांक्षा,
शक्ति की
अभीप्सा के तल
तक नीचे ले
आता है।
मनुष्य में वह
भी है। मनुष्य
बहुत विराट है,
बहुत जटिल
है। मनुष्य
वाद्ययंत्रों
का एक समूह है,
इसमें अनेक
वाद्ययंत्र
सम्मिलित हैं।
लेकिन
सदा से ऐसा
हुआ है। यह एक
विपदा है, लेकिन
ऐसा सदा ही
हुआ है : जब
किसी को कुछ
मिल जाता है
तो वह अपनी इस
खोज से एक
पूरा
दर्शनशास्त्र
बनाने का
प्रयास करता
है। इसके
प्रति एक गहरा
प्रलोभन होता
है। फ्रायड को
संयोगवश
कामवासना मिल
गई, और वह
भी पूरी की
पूरी
कामवासना
नहीं। उसको
केवल दमित
कामवासना
मिली। उसका
सामना दमित
लोगों से हुआ।
ईसाई धर्म
द्वारा सिखाए
गए दमन ने
मनुष्य में
अनेक अवरोध
निर्मित कर
दिए, जहां
पर ऊर्जा
अपनें भीतर
वर्तुल बना कर
अटक गई, अवरुद्ध
हो गई, अब
वह प्रवाहमान
न रही। उसे
मनुष्य की
ऊर्जा की धारा
में ये चट्टान
जैसे अवरोध
मिले, और
उसने सोचा—और
अहंकार सदैव
इसी ढंग से
सोचता है—कि
उसने परम सत्य
को पा लिया है।
एडलर को, जो
कि दूसरे ढंग
से कार्य कर
रहा था, ऊर्जा
का दूसरा
अवरोध शारि।’
अभीप्सा, मिल गया।
फिर उसने इससे
एक पूरा
दर्शनशास्त्र
निर्मित कर
दिया।
मनुष्य
को खंडों में
समझा गया है।
इस संपूर्ण अस्तित्व
में योग एक
मात्र
दर्शनशास्त्र
है जो मनुष्य
की संपूर्णता
को खयाल में
रखता है। जुग
थोड़ा सा और
आगे,
और गहराई
में गया।
मनुष्य के
तीसरे शरीर—मनोमय
कोष का एक अंश
उसे मिल गया, और उसने
इसके आधार पर
एक पूरे दर्शनशास्त्र
का निर्माण कर
दिया। समस्त
भौतिक शरीर की
व्यापक
व्याख्या कर
पाना अभी तक
संभव नहीं हो
पाया है,
क्योंकि यह
शरीर अपने आप
में अत्यंत
जटिल है.
लाखों कोशिकाएं
एक गहन
लयबद्धता में
एक आश्चर्यजनक
ढंग से कार्य
कर रही हैं।
जब अपनी मां
के गर्भ में
तुम्हारा
सृजन हुआ था, तो तुम
मात्र एक छोटी
सी कोशिका थे।
उस एक कोशिका
में से दूसरी
कोशिका जन्मी।
कोशिका
विकसित होती
है और दो में
विभाजित हो
जाती है, और
फिर ये दो
कोशिकाएं
विकसित होती
हैं और चार
में बंट जाता
है। एक विभाजन
के द्वारा—और
यह विभाजन
बढ़ता चला जाता
है—तुम्हारे
पास लाखों
कोशिकाएं हैं।
और ये सारी
कोशिकाएं एक
गहरे सहयोग
में कार्य
करती हैं, जैसे
कि किसी ने
उनको सम्हाल
रखा हो। यह
कोई
अव्यवस्था
नहीं है, तुम
एक
सुव्यवस्था
हो।
और
फिर कुछ
कोशिकाएं
तुम्हारी आंखें
बन जाती हैं, कुछ
कोशिकाएं
तुम्हारे कान
बन जाता है, कुछ
कोशिकाएं
तुम्हारे जनन
अंग बन जाती
हैं, कुछ कोशिकाएं
तुम्हारी
त्वचा बन जाती
हैं, कुछ कोशिकाएं
तुम्हारी
अस्थियां, कुछ
कोशिकाएं
तुम्हारा
मस्तिष्क, कुछ
कोशिकाएं
तुम्हारे
नाखून और और वे
सभी उसी एक
कोशिका से आ
रही हैं। वे
सभी एक सी हैं।
उनमें कोई
गुणात्मक भेद
नहीं है,
किंतु वे
कितनी
भिन्नतापूर्वक
कार्य करती
हैं। आंखें
देख सकती हैं,
कान देख
नहीं सकते, कान सुन
सकते है,
किंतु सूंघ
नहीं सकते।
इसलिए वे
कोशिकाएं न
केवल
लयबद्धता से
कार्य करती
हैं बल्कि वे विशेषज्ञ
हो जाती हैं।
वे एक निश्चित
विशेषज्ञता
उपलब्ध कर
लेती हैं। कुछ
कोशिकाएं आंखें
बन जाती है।
क्या घटित हो
गया है?
किस प्रकार का
प्रशिक्षण चल
रहा है? एक
विशेष प्रकार
की कोशिकएं ही
क्यों आंखें
बन जाती हैं, और दूसरे
विशेष प्रकार
की कोशिकाएं
ही क्यों कान
बन जाती हैं, और फिर कुछ
अन्य विशेष
प्रकार की
कोशिकाएं
तुम्हारी नाक
बन जाती हैं, और वे सभी एक
सी हैं? भीतर
अवश्य एक
प्रशिक्षण
होना. चाहिए—कोई
अज्ञात शक्ति
उनको एक विशेष
उद्देश्य के लिए
प्रशिक्षित
कर रही है।
और
स्मरण रखना, जब
वे कोशिकाएं
देखने के लिए
तैयार हो रही
होती हैं तो
उन्होंने कुछ
भी देखा नहीं
होता है। जब
बच्चा गर्भ
में होता है
उस समय वह
पूरी तरह से अंधा
बना रहता है। उसने
जरा भी प्रकाश
नहीं देखा
होता है, उसकी
आंखें बंद हैं।
एक चमत्कार है
यह देखने का
कोई
प्रशिक्षण
नहीं हुआ है
और आंखें
देखने के लिए
तैयार हैं र
देखने की कोई
संभावना नहीं
है और आंखें
देखने के लिए
तैयार है।
बच्चा
अपने फेफड़ों
से श्वास नहीं
लेता है, उसने
तो जाना भी
नहीं कि श्वास
लेना क्या है,
लेकिन
फेफड़े श्वसन
क्रिया के लिए
तैयार हैं।
इससे पहले कि
बच्चा संसार
में प्रवेश
हेतु जाए और
श्वास ले, वे
तैयार हैं।
इससे पहले कि
बच्चा संसार
में प्रवेश
हेतु जाए और
देखे, आंखें
तैयार हैं।
सभी कुछ तैयार
है। जब बच्चे
का जन्म होता
है तो वह परम
जटिलता, विशेषज्ञता
और सूक्ष्मता
वाला पूर्ण
मनुष्य होता
है। और उसका
कोई
प्रशिक्षण, कोई पूर्व
तैयारी नहीं
हुई है। बच्चे
ने कभी एक
श्वास तक नहीं
ली होती है, लेकिन मां
के गर्भ से
बाहर आते ही
वह चीखता है और
अपनी पहली
श्वास लेता है।
इसके पूर्व कि
कोई
प्रशिक्षण
दिया जाए उसकी
दैहिक
व्यवस्था
तैयार है। कोई
परम शक्ति है,
कोई शक्ति
है जो भविष्य
की सारी
संभावनाओं का लेखा—जोखा
रखती है, कोई
शक्ति है जो
बच्चे को जीवन
और भविष्य की
सभी
संभावनाओं का
सामना करने
में समर्थ
होने के लिए
तैयार कर रही
है, जो
भीतर गहरे में
कार्यरत है।
इस
शरीर तक को
अभी तक नहीं
समझा गया है।
हमारी सारी
समझ आशिक है।
अभी तक मनुष्य
का वितान
अस्तित्व में
नहीं आ पाया
है। इस संदर्भ
में पतंजलि का
योग कभी भी
किए गए प्रयासों
में मनुष्य के
निकटतम है। वे
शरीर को पांच
परतों में, या
पांच शरीरों
में विभाजित
करते हैं।
तुम्हारे पास
एक ही शरीर
नहीं है, तुम्हारे
पास पांच शरीर
हैं, और इन
पांच शरीरों
के पीछे
तुम्हारा
अस्तित्व है।
यही
मनोविज्ञान
में घटित हुआ
है, और यही
चिकित्साशास्त्र
में हो गया है।
एलोपैथी केवल
भौतिक शरीर
में, स्थूल
शरीर में
भरोसा करती है।
यह
व्यवहारवाद
की भांति है।
एलोपैथी
स्थूलतम औषधि
है। यही कारण
है कि यह वैज्ञानिक
हो गई है, क्योंकि
वैज्ञानिक
उपकरण अभी तक
स्थूल को ही
पकड़ पाने में
समर्थ हैं। और
गहराई में जाओ।
चीनी
औषधि—विज्ञान
एक्युपंक्चर
एक और परत में
प्रवेश करता
है। यह प्राण
शरीर, प्राणमय
कोष पर कार्य
करता है। यदि
भौतिक शरीर
में कुछ गलत
हो जाता है तो
एक्युपंक्यर
भौतिक शरीर को
जरा भी नहीं
छूता। यह
प्राण शरीर पर
कार्य करने का
प्रयास करता है।
यह जैव ऊर्जा,
बायो—प्लाज्मा
पर कार्य करने
का प्रयास
करता है। उस
तल पर वहां यह
किसी चीज को
समायोजित कर
देता है, और
भौतिक शरीर
तुरत ही भली
प्रकार से
कार्य करना
आरंभ कर देता
है। यदि प्राण
शरीर में कुछ
गड़बड़ हो जाती
है तो एलोपैथी
इसी शरीर
भौतिक शरीर पर
कार्य करती है।
निःसंदेह
एलोपैथी के
लिए यह चढ़ाई
चढ़ने जैसा है।
एक्युपंक्चर
के लिए यह
चढ़ाई से नीचे
आने जैसा काम
है।
एक्युपंक्यर
के लिए यह
अधिक सरल है
क्योंकि प्राण
शरीर भौतिक
शरीर से थोड़ा
ऊंचे तल पर है।
यदि प्राण
शरीर को
संतुलित कर
दिया जाए, तो
भौतिक शरीर तो
बस उसका
अनुसरण करता
है, क्योंकि
क्यू—प्रिंट
तो प्राण शरीर
में ही होता
है। भौतिक
शरीर तो प्राण
शरीर का
कार्यकारी
उपकरण मात्र
है।
अब
एक्युपंक्चर
को धीरे:— धीरे
प्रतिष्ठा
प्राप्त हो
रही है, क्योंकि
सोवियत रूस
में एक बहुत
संवेदनशील फोटोग्राफी,
किरलियान
फोटोग्राफी
ने मनुष्य के
शरीर में प्राण—ऊर्जा
के सात सौ
बिंदु खोज
निकाले हैं, जिनकी घोषणा
पिछले पांच
हजार वर्षों
से
एक्युपक्चर—विद
सदा से करते आ
रहे थे। शरीर
में वे प्राण—
ऊर्जा के
बिंदु कहां
हैं उनको जान
पाने के कोई
उपकरण उनके
पास नहीं थे।
लेकिन सदियों
से, धीरे—
धीरे प्रयास
और भूल के
द्वारा
उन्होंने सात
सौ बिंदु खोज
निकाले थे। अब
किरलियान ने
भी वही सात सौ
बिंदु
वैज्ञानिक
उपकरणों
द्वारा खोज निकाले।
और किरलियान
फोटोग्राफी
ने एक बात
सिद्ध कर दी
कि प्राण शरीर
को भौतिक शरीर
के द्वारा
बदलने का
प्रयास असंगत
है। यह नौकर
को बदल कर
मालिक को
बदलने का
प्रयास करना
है करीब—करीब
असंभव है यह, क्योंकि
मालिक नौकर की
जरा भी नहीं
सुनेगा। यदि
तुम नौकर को
बदलना चाहते
हो मालिक को
बदल दो। तुरंत
नौकर भी बदल
जाता है।
प्रत्येक
सैनिक को
बदलने के
स्थान पर
बेहतर यही
रहेगा कि
सेनापति को
बदल दो। शरीर
के पास लाखों
सिपाही, कोशिकाएं
हैं जो बस
किसी आदेश के
अनुरूप, किसी
अनुशासन के
अनुसार कार्य
करने में
संलग्न हैं।
अनुशास्ता को
बदल लो और
शरीर का सारा
प्रारूप बदल
जाता है।
होम्योपैथी
और अधिक गहराई
में जाती है।
यह मनोमय कोष, मनस
शरीर पर कार्य
करती है।
होम्योपैथी
के संस्थापक
हैनिमैन ने
सर्वकालिक
महानतम खोजों
में से एक खोज
की और वह थी औषधि
की मात्रा
जितनी
सूक्ष्मतर
होती जाती है
उतनी ही वह और
गहराई में
पहुंच जाती है।
उन्होंने
होम्योपैथी
की औषधि को
बनाने की इस विधि
को 'शक्तिकरण'
कहा। वे
औषधि की
मात्रा कम
करते चले जाते
हैं। वह इस
ढंग से कार्य
करेगा वह औषधि
की एक निश्चित
मात्रा लेगा
और इसे दस
गुना मिल्क
शुगर या पानी
के साथ
मिश्रित
करेगा। एक भाग
औषधि और दस
भाग पानी, वह
इनको मिला
देगा। फिर
पुन: वह इस नये
मिश्रण का एक
भाग लेगा और
पुन: वह इसको
नौ गुने पानी
या मिल्क शुगर
के साथ मिला
देगा। इसी ढंग
से वह आगे
बढ़ेगा; पुन:
वह नये घोल से
एक भाग लेगा
और उसे नौ गुने
पानी में मिला
देगा। वह ऐसा
करेगा और औषधि
की शक्ति
बढ़ेगी। धीरे—
धीरे औषधि
परमाणु के तल
पर पहुंच
जाएगी। यह
इतनी सूक्ष्म
हो जाएगी कि
तुम विश्वास
ही नहीं कर
सकते कि यह
कार्य कर सकती
है; यह
करीब—करीब मिट
चुकी होती है।
यही है जो
होम्योपैथिक
औषधियों पर
लिखा होता है.
शक्ति, दस
शक्ति, बीस
शक्ति, एक
सौ शक्ति, एक
हजार शक्ति।
जितनी बड़ी
शक्ति होगी
औषधि की
मात्रा उतनी
ही कम होगी।
दस लाख शक्ति
का अर्थ है :
मूल औषधि का
दस लाखवां भाग
ही शेष बचा है,
लगभग ना—कुछ
अंश है उसमें।
वह करीब—करीब
मिट चुकी है, लेकिन तब यह
मनोमय की सर्वाधिक
गहरी परत में
प्रविष्ट हो
जाती है। यह
तुम्हारे मनस
शरीर में
प्रविष्ट हो
जाती है। यह
एक्युपंक्यर
से अधिक गहराई
में जाती है।
यह करीब—करीब
ऐसा ही है
जैसे कि तुम
परमाणु के तल
पर या परमाणु
से भी सूक्ष्म
स्तर पर पहुंच
गए हो। तब यह
तुम्हारे
शरीर को
स्पर्श नहीं
करती है, तब
यह तुम्हारे
प्राण शरीर को
स्पर्श नहीं
करती, यह
तो बस भीतर
प्रविष्ट हो
जाती है। यह
इतनी सूक्ष्म
है और इतनी
छोटी कि इसके
रास्ते में
कोई अवरोध
नहीं आता। यह
तो बस मनोमय
कोष, मनस
शरीर में
प्रविष्ट हो
जाती है और
वहां से यह
कार्य करना
आरंभ कर देती
है। अब तुमको
प्राणमय कोष
से भी बड़ा
अधिष्ठाता मिल
गया है।
भारतीय
चिकित्सा
पद्धति
आयुर्वेद इन
तीनों का
संश्लेषण है।
औषधियों में
यह सर्वाधिक
संश्लेषणात्मक
सम्मोहन
चिकित्सा और
अधिक गहराई
में जाती है।
यह विज्ञानमय
कोष,
चौथे शरीर,
चेतना के
शरीर को
स्पर्श करती
है। यह
औषधियों का
प्रयोग नहीं
करती है। यह
किसी भी वस्तु
का प्रयोग
नहीं करती। यह
तो केवल
सुझावों का
उपयोग करती है,
बस इतना ही।
यह तुम्हारे
मन में बस
सुझाव रख देती
है—चाहे इसको
जीवधारियों
का चुंबकत्व
कहो, या
मेस्मैरिज्म,
सम्मोहन या
जो कुछ भी तुम
इसे कहना चाहो—लेकिन
यह विचार की
शक्ति है, पदार्थ
की शक्ति नहीं
है।
होम्योपैथी
भी पदार्थ की
अत्यधिक
सूक्ष्म मात्रा
की शक्ति है।
सम्मोहन
चिकित्सा
पूरी तरह से
पदार्थ से छुटकारा
पा लेती है, क्योंकि भले
ही कितना
सूक्ष्म हो, यह है तो
पदार्थ ही। दस
हजार शक्ति है
लेकिन फिर भी
यह पदार्थ की
ही शक्ति है।
यह बस विचार
ऊर्जा, विज्ञानमय
कोष चेतना के
शरीर पर छलांग
लगा देती है।
यदि तुम्हारी
चेतना बस एक
विशेष विचार
को स्वीकार कर
ले तो यह
सक्रिय हो
जाता है।
सम्मोहन
चिकित्सा, हिम्मोथेरेपी
का भविष्य
उज्जवल है। यह
भविष्य की
औषधि बनने जा
रही है, क्योंकि
बस तुम्हारे
विचारों के
प्रारूप को बदल
देने से ही
तुम्हारे मन
को परिवर्तित
किया जा सकता
है, तुम्हारे
मन के माध्यम
से तुम्हारे
प्राण शरीर और
प्राण शरीर के
माध्यम से
तुम्हारे
स्थूल शरीर को
बदला जा सकता
है। तब औषधि
के रूप में
विष की चिंता
क्यों की जाए,
स्थूल
औषधियों की
फिकर में क्या
पड़ना? क्यों
न इस कार्य को
विचार शक्ति
से कर लिया जाए?
क्या तुमने
कभी किसी
सम्मोहन—विद
को किसी
माध्यम पर
कार्य करते
हुए देखा है? यदि तुमने
नहीं देखा है,
तो यह देखने
लायक घटना है।
यह तुमको एक
विशेष
अंतर्दृष्टि
देगा।
शायद
तुमने सुना हो
या शायद तुमने
देखा भी हों—भारत
में यह होता
है;
तुमने आग पर
चलने वालों को
अवश्य देखा
होगा। यह और
कुछ नहीं वरन
हिप्नोथेरैपी
है। यह विचार
कि वे किसी
विशिष्ट
देवता या किसी
विशिष्ट देवी
से आविष्ट हो
गए हैं और अब
उनको कोई आग
नहीं जला सकती,
बस यह विचार
ही पर्याप्त
है। यह विचार
उनके शरीरों
के सामान्य
क्रियाकलापों
का नियंत्रण
और रूपांतरण
कर देता है।
वे
तैयारी किए
हुए होते हैं.
चौबीस घंटे
पहले से वे
उपवास करते
हैं। जब तुम
उपवास कर रहे
हो तो
तुम्हारा
पूरा शरीर
शुद्ध है और
इसके भीतर मल
नहीं रहा, तब
तुम्हारे और
स्थूल शरीर के
मध्य का सेतु गिर
जाता है।
चौबीस घंटे तक
वे किसी मंदिर
में या मस्जिद
में स्तुति
गाते हुए, नाचते
हुए परमात्मा
से लय मिलाते
हुए रहते हैं।
फिर वह क्षण
आता है जब वे
आग पर चलते
हैं। वे नृत्य
करते हुए
आविष्ट की भाव—दशा
में आते हैं।
वे पूरी
श्रद्धा से
आते हैं कि
उनको आग जला
नहीं सकती, बस यही है; और कुछ भी
नहीं है इसमें।
प्रश्न यही है
कि श्रद्धा
किस भांति
निर्मित की
जाए। फिर वे
आग पर नृत्य
कर लेते हैं
और आग नहीं
जलाती।
ऐसा
अनेक बार हो
गया है कि कोई
व्यक्ति जो बस
एक दर्शक था
वह तक आविष्ट
हो गया। बीस
लोग आग पर चल
रहे हैं और
जले नहीं, और
कोई व्यक्ति
अचानक इतना
आश्वस्त हो
गया है : 'यदि
ये लोग आग पर
चल रहे हैं तो
मैं क्यों
नहीं चल सकता?'
और वह भीतर
कूद पड़ा और आग
ने उसको नहीं
जलाया। उसी
क्षण में
अचानक एक
श्रद्धा जाग
उठी। कभी—कभी
ऐसा हो गया कि
जो लोग तैयारी
करके आए थे, जल गए। कभी—कभी
कोई बिना
तैयारी किया हुआ
दर्शक आग पर
चल गया और नहीं
जला। क्या हो
गया ?—जिन
लोगों ने
तैयारी की थी
उनमें कहीं
कोई संदेह
अवश्य रहा
होगा। वे यह
अवश्य सोच रहे
होंगे कि ऐसा
होने जा रहा
है या नहीं।
उनकी चेतना
में, विज्ञानमय
कोष में एक
सूक्ष्म
संदेह अवश्य रहा
होगा। यह
संपूर्ण
श्रद्धा नहीं
थी। इसलिए वे
आए थे, लेकिन
संदेह के साथ।
उस संदेह के
कारण शरीर
उच्चतर आत्मा
से संदेश
ग्रहण नहीं कर
सका। दोनों के
मध्य में
संदेह आ खड़ा
हुआ और शरीर
ने सामान्य
ढंग से कार्य
करना जारी रखा;
वह जल गया।
यही कारण है
कि सभी धर्म
श्रद्धा पर बल
दिया करते हैं।
सम्मोहन
चिकित्सा है
श्रद्धा।
श्रद्धा के
बिना तुम अपने
अस्तित्व के
सूक्ष्म
भागों में
प्रविष्ट
नहीं हो सकते,
क्यौंकि एक
जरा सा संदेह
और तुमको वापस
स्थूल पर फेंक
दिया जाता है।
विज्ञान
संदेह के साथ
कार्य करता है।
संदेह वितान
की विधि है, क्योंकि विज्ञान
स्थूल के साथ
कार्य करता है।
तुम संदेह
करते हो या
नहीं, एक
एलौपैथ
चिकित्सक को
चिंता नहीं
होती। वह
तुमसे अपनी
औषधि में
भरोसा करने के
लिए नहीं कहता,
वह तो बस
तुमको दवा दे
देता है।
लेकिन एक
होम्योपैथ
चिकित्सक
पूछेगा, क्या
तुमको भरोसा
है, क्योंकि
किसी
होम्योपैथ के
लिए तुम्हारे
विश्वास के
बिना तुम पर
कार्य कर पाना
अधिक कठिन
होगा। और एक
सम्मोहन—विद
पूर्ण समर्पण
के लिए कहेगा।
वरना कुछ नहीं
किया जा सकता
है।
धर्म
है समर्पण।
धर्म है
सम्मोहन
चिकित्सा।
लेकिन अभी एक
और शरीर है, वह
है आनंदमय कोष
: आनंद का शरीर।
सम्मोहन
चिकित्सा
चौथे शरीर तक
जाती है।
ध्यान
पांचवें शरीर
तक जाता है।’मेडिटेशन' यह शब्द ही
सुंदर है
क्योंकि इसका
मूल वही है जो
मेडिसिन का है।
दोनों एक ही
मूल से आते
हैं। मेडिसिन
और मेडिटेशन
एक ही शब्द की
व्युत्पत्तियां
है वह जो
स्वस्थ करता
है, वह जो
तुमको स्वस्थ
और समग्र
बनाता है, मेडिसिन
(औषधि) है और
गहनतम तल पर
यही मेडिटेशन
(ध्यान) है।
ध्यान तुमको
सुझाव तक नहीं
देता, क्योंकि
सुझाव बाहर से
दिए जाते हैं।
किसी और को
तुम्हें
सुझाव देना
पड़ता है।
सुझावों का
अभिप्राय है
कि तुम किसी
और पर निर्भर
हो। वे तुमको
पूरी तरह से
चैतन्य नहीं
बना सकते क्योंकि
दूसरे की
आवश्यकता
पड़ेगी, और
तुम्हारे
अस्तित्व पर
उसकी एक छाया
पड जाएगी।
ध्यान तुमको
पूरी तरह से
चैतन्य बना
देता है—किसी
छाया के बिना—बिना
अंधकार के
परिपूर्ण
प्रकाश। अब
सुझाव भी एक
स्थूल चीज
समझा जाता है।
कोई सुझाव
देता है—इसका
अर्थ है कि
कोई चीज बाहर
से आती है, और
जो कुछ भी
बाहर से आता
है, .विश्लेषण
की परम
सूक्ष्मता
में वह भौतिक
है। केवल
पदार्थ ही
नहीं बल्कि वह
सभी जो बाहर
से आता है
भौतिक है। एक
विचार तक
पदार्थ का
सूक्ष्म रूप
है। सम्मोहन
चिकित्सा भी
भौतिकवादी है।
ध्यान
सारी
संभावनाएं, सभी
सहारे गिरा
देता है। यही
कारण है कि
ध्यान को समझ
पाना संसार का
सर्वाधिक
कठिन कार्य है,
क्योंकि
बचता कुछ भी
नहीं है—बस एक
शुद्ध समझ, एक
साक्षीभाव।
पहला सूत्र
यही कह रहा है।
'मन की
वृत्तियों का ज्ञान
सदैव इसके
प्रभु........'
तुम्हारे
भीतर प्रभु
कौन है? उस
प्रभु को
खोजना पड़ता है।
'मन की
वृत्तियों का ज्ञान
सदैव इसके
प्रभु, पुरुष,
को शुद्ध
चेतना के सातत्य
के कारण होता
है।’ तुम्हारे
भीतर दो बातें
घट रही हैं।
पहली है
विचारों, भावनाओं,
इच्छाओं का
झंझावात—तुम्हारे
चारों ओर
विराट भंवर है,
सतत
परिवर्तनशील,
अपने आप को
लगातार
परिवर्तित
करता हुआ, लगातार
गतिशील। यह एक
प्रक्रिया है।
इस प्रक्रिया
के पीछे
तुम्हारी
साक्षी आत्मा
है—शाश्वत, स्थायी, जरा
भी न बदली हुई।
यह कभी नहीं
बदली है। यह
शाश्वत आकाश
जैसी है मेघ
आते हैं और
चले जाते हैं,
एकत्रित
होते हैं, बिखर
जाते हैं...
आकाश
अस्पर्शित, अप्रभावित
बिना किसी छाप
के मौजूद रहता
है। यह शुद्ध
और कुंवारा
बना रहता है।
तुम्हारे
भीतर शाश्वत,
प्रभु यही
है।
मन
बदलता रहता है।
अभी एक क्षण
पूर्व
तुम्हारे पास
एक मन था, एक
क्षण बाद
तुम्हारे पास
दूसरा मन होता
है। अभी कुछ
मिनट पहले तुम
क्रोधित थे, और अब तुम
हंस रहे हो।
अभी कुछ मिनट
पहले तुम
प्रसन्न थे, अब तुम उदास
हो।
मनोवृत्तियां,
परिवर्तन, लगातार ऊपर
और नीचे
तरंगित होते
रहते हैं, जैसे
कि यो—यो का
खेल चलता रहता
है। लेकिन
तुम्हारे
भीतर कुछ
शाश्वत है : वह
जो इस खेल को, तमाशे को
देखता रहता है।
वही साक्षी, प्रभु है।
यदि तुम
साक्षी होना
आरंभ कर देते
हो, तो तुम
धीरे— धीरे
प्रभु से
निकटतर और निकटतर
हो जाओगे।
वस्तुओं
का साक्षी
होना आरंभ करो।
तुम एक वृक्ष
को देखते हो, तुम
वृक्ष को
देखते हो
लेकिन तुम
इसके प्रति सजग
नहीं हो कि
तुम इसको देख
रहे हो, तब
तुम साक्षी
नहीं हो। तुम
एक वृक्ष को
देखते हो, और
उसी समय तुम
देखते हो कि
तुम देख रहे
हो, तब तुम साक्षी
हो। चेतना को
दो नोकों वाला
तीर बनना पड़ता
है : एक तीर
वृक्ष की ओर
जा रहा है, दूसरा
तुम्हारे
कर्त्तापन की
ओर जा रहा है।
कठिन
है यह, क्योंकि
जब तुम अपने
प्रति सजग हो
जाते हो तो तुम
वृक्ष को भूल
जाते हो और जब
तुम वृक्ष के
प्रति सजग
होते हो तो
तुम स्वयं को
भूल जाते हो।
लेकिन धीरे—
धीरे व्यक्ति
संतुलन बनाना
सीख लेता है, ठीक वैसे ही
जैसे तनी हुई
रस्सी पर चलने
वाला व्यक्ति
संतुलन सीख
लेता है। आरंभ
में यह कठिन, खतरनाक, संकटपूर्ण
होता है, किंतु
धीरे— धीरे
व्यक्ति
संतुलन बनाना
सीख लेता है।
बस प्रयास
करते चले जाओ।
जब कभी तुमको
साक्षी होने
का अवसर मिले
इसको गवाओ मत,
क्योंकि
साक्षीभाव से
अधिक
मूल्यवान और
कुछ भी नहीं
है। किसी
कृत्य को करते
हुए, चलते
हुए या भोजन
करते हुए या
स्थान करते
हुए साक्षी भी
हो जाओ।
फव्वारे से
अपने ऊपर पानी
गिरने दो, किंतु
तुम भीतर सजग
बने रहो और
देखो कि क्या
घटित हो रहा
है—पानी का
ठंडापन और
सारे शरीर में
सनसनाहट की अनुभूति,
तुमको
घेरता हुआ एक
विशेष प्रकार
का मौन, तुम्हारे
भीतर एक
अच्छेपन की
भावना का उदय
होना—लेकिन
साक्षी बने
रहना जारी रखो।
तुमको
प्रसन्नता
अनुभव हो रही
है, बस
प्रसन्न
अनुभव करना
पर्याप्त
नहीं है—साक्षी
हो जाओ। बस
देखते रहो—मैं
प्रसन्नता
अनुभव कर रहा
हूं.. मैं
उदासी अनुभव
कर रहा हूं —
मैं भूखा
अनुभव कर रहा
हूं—देखते चले
जाओ। धीरे—
धीरे तुम देख
लोगे कि
प्रसन्नता
तुमसे अलग है,
अप्रसन्नता
भी तुमसे अलग
है। वह सभी
कुछ जिसके तुम
साक्षी हो
सकते हो, तुमसे
भिन्न है। तुम
साक्षी के
साक्षी नहीं
हो सकते, वही
प्रभु है। तुम
प्रभु से परे
नहीं जा सकते,
तुम ही
प्रभु हो।
अस्तित्व का
परम केंद्र
तुम ही हो।
'मन स्व
प्रकाशित
नहीं है, क्योंकि
स्वयं इसका
प्रत्यक्षीकरण
हो जाता है।’
स्वयं
मन को देखा जा
सकता है। यह
विषय बन सकता
है। इसका
प्रत्यक्षीकरण
किया जा सकता
है,
इसलिए यह
प्रत्यक्षीकरण
करने वाला
नहीं है।
सामान्यत: हम
सोचते हैं कि
यह मन ही है जो
फूल को देख
रहा है। नहीं,
तुम मन के
पार जा सकते
हो और तुम मन
को देख सकते हो,
ठीक उसी
प्रकार से
जैसे कि मन
फूल को देख
रहा है) तुम
जितनी गहराई
में उतरते हो
उतना ही अधिक
तुमको यह पता
लगेगा कि
देखने वाला
स्वयं ही
दिखाई पड़ने
लगता है। यही
कारण है कि
कृष्णमूर्ति बार—बार
कहे चले जाते
हैं, 'देखने
वाला ही देखा
जाता है।
प्रत्यक्षीकरण
करने वाले का
प्रत्यक्षीकरण
किया जाता है।’
जब तुम
गहराई में
उतरते हो तो
पहले तुम
वृक्षों को और
गुलाब को और
सितारों को
देखते हो और
तुम सोचते हो
कि मन साक्षी
हो रहा है।
फिर अपनी आंखें
बंद कर लो, अब
मन में इनकी
छवियों को
देखो गुलाबों
की, सितारों
की, वृक्षों
की। अब शांता
कौन है? शांता
जरा गहराई में
चला गया है।
मन स्वय ही एक
विषय बन चुका
है।
ये
पांचों कोष, ये
पांचों बीज, वे पांच
स्थान हैं
जहां शांता
बार—बार गेय
बन जाता है।
जब तुम स्थूल
शरीर, भोजन
निर्मित शरीर,
अन्नमय कोष
से प्राण शरीर
की ओर जाते हो,
तो तुरंत ही
प्राण शरीर से
तुम देख लेते
हो कि स्थूल
शरीर को एक
विषय की भांति
देखा जा सकता
है। यह प्राण
शरीर के बाहर
है, ठीक
उसी तरह जैसे
कि मकान
तुम्हारे
बाहर है, जब
तुम प्राण
शरीर में खड़े
होते तो
तुम्हारा अपना
शरीर ठीक
तुम्हारे
चारों ओर की
दीवार की भांति
होता है। पुन:
तुम प्राण
शरीर से मनोमय
कोष, मनस
शरीर में जाते
हो तो ठीक यही
घटित होता है।
अब प्राण शरीर
भी तुमसे बाहर
है, तुम्हारे
चारों ओर एक
बाड़ की तरह; और इसी तरह
यह सिलसिला
चलता चलौ जाता
है। यह उस परम
बिंदु तक जाता
है जहां केवल
साक्षी बचता
है। तब तुम
स्वयं को इस
भांति नहीं
देखते, 'मैं
आनंदित हूं ' तुम स्वयं
को आनंद के
साक्षी की
भांति देखते हो।
अंतिम
शरीर आनंद
शरीर है। इसका
विभेद कर पाना
अत्यधिक कठिन
है,
क्योंकि यह
प्रभु के बेहद
निकट है। यह
प्रभु को करीब—करीब
ऐसे घेरे हुए
है जैसे कि
वातावरण ने
तुमको घेरा
हुआ है। लेकिन
इसको जानना
पड़ता है। इस
अंतिम पड़ाव पर
भी जब तुम
आह्लाद से ओत—प्रोत
हो, फिर भी
तुमको चरम
प्रयास, विभेद
का अंतिम
प्रयास, और
यह देखने का
प्रयास कि
आनंद तुमसे
भिन्न है, करना
पड़ता है।
यही
है मुक्ति, कैवल्य।
फिर तुम अकेले
बच जाते हो, बस
साक्षीमात्र,
और
प्रत्येक
वस्तु—शरीर, मन, ऊर्जा
को विषयों में
परिवर्तित
किया जा चुका
है। यहां तक
कि आनंद, यहां
तक कि समाधि, यहां तक कि
ध्यान भी वहां
शेष नहीं बचता।
जब ध्यान
पूर्ण हो जाता
है तो अब वह
ध्यान नहीं
रहता। जब
ध्यान करने
वाले ने
वास्तव में
लक्ष्य पा लिया
हो तो वह
ध्यान नहीं
करता। वह
ध्यान नहीं कर
सकता क्योंकि
अब यह भी—चलने
की, भोजन
करने की भांति
एक कृत्य है।
वह प्रत्येक
चीज से भिन्न
हो चुका है।
ध्यान और
समाधि के मध्य
यही अंतर है।
ध्यान
पांचवें शरीर,
आनंद शरीर
का है। अभी भी
यह एक
चिकित्सा, एक
औषधि है। अभी
भी तुम थोड़े
से रुग्ण हो, रुग्ण हो
क्योंकि तुम
अपने आप का
तादात्म्य
किसी ऐसी बात
के साथ कर रहे
हो जो तुम
नहीं हो।
तादात्म्य ही
सारी बीमारी
है, और परम
स्वाथ्य अ—
तादात्म्य के
माध्यम से
उपलब्ध होता
है। समाधि तभी
है जब ध्यान
तक पीछे छूट
चुका हो।
मैं
एडवर्ड डी
बोनो द्वारा
लिखी गई एक
पुस्तक पढ़ रहा
था। उसने चीन
में घटी एक
बहुत प्राचीन
घटना के बारे
में लिखा है।
प्राचीनकाल
में चीन में
एक पगोडा में, एक
चीनी मंदिर में
आग लग गई।
खोजियों को
पगोडा की राख
में से उठती
हुई विचित्र
और भूख बढ़ाने
वाली गंध ने, एक अभागे
सुअर की ओर
आकर्षित किया जो
ज्वाला मैं
फंस गया था और
अग्नि में भुन
गया था। इसके
बाद से चीन
में भुना हुआ
सुअर एक सुरुचिपूर्ण
भोजन बन गया।
आकस्मिक रूप
से यह खोज
लिया गया, क्योंकि
पगोडा में आग
लग गई थी और एक
सुअर उसमें जल
कर भुन गया था।
लेकिन फिर
लोगों ने सोचा
कि हो न हो
इसका पगोडा से
कोई संबंध है,
वरना सुअर
इतना
स्वादिष्ट
किस प्रकार हो
सकता है? इसलिए
चीन में
सदियों से यह
जारी रहा कि
जब भी उनको
भुना हुआ सुअर
खाना हो, तो
पहले वे एक
पगोडा बनाते थे,
फिर उसके
भीतर एक सुअर
को बंद करके
उसमें आग लगा
देते थे। बहुत
महंगा था यह, किंतु यह
उनको बहुत
वैज्ञानिक
प्रतीत होता था।
अनेक
शताब्दियों
के बाद यह
उनको पता लगा
कि यह
मूर्खतापूर्ण
था। सुअर को
पगोडा जलाए
बिना भी भूना
जा सकता है।
इसके लिए
पगोडा
अनिवार्य
नहीं है।
लेकिन
मनुष्य का मन
इसी भांति
कार्य करता है, क्योंकि
सबसे पहले तुम
अपने शरीर के
प्रति सजग हुए
थे और हर बात
इससे संबंधित
हो जाती है।
जब तुमको एक
खास किस्म के
अच्छेपन, अपने
चारों ओर एक
आनंद की
अनुभूति होती
है, तो
निःसंदेह
तुमको यह लगता
है कि इस शरीर
के कारण हो
रहा है, क्योंकि,
'मैं स्वस्थ
अनुभव कर रहा
हूं न कोई
रुग्णता, न
कोई बीमारी।
इसीलिए यह
वहां है।’ तब
तुम शरीर को
युवा, स्वस्थ
रखने का
प्रयास करते
हो। इसमें कुछ
भी गलत नहीं
है, लेकिन
यह अच्छापन
तुम्हारे
भीतर कहीं
गहराई से आता
है। ही, एक
स्वस्थ शरीर
की आवश्यकता
होती है, वरना
वे गहरे
जलस्रोत
सक्रिय नहीं
हो पाएंगे।
तुम्हारे
अंतर्तम
केंद्र से
अच्छेपन की
अनुभूति को
बाहर लाने के
लिए स्वस्थ
शरीर एक वाहन
का कार्य करता
है, लेकिन
यह स्थूल शरीर
स्वयं मूल
कारण नहीं है।
मैं
तुमको कुछ
कहानियां
सुनाता हूं कि
मन किस प्रकार
से बहुत
तर्कयुक्त
प्रतीत होता
है उर लेकिन
कहीं गहराई
में बहुत
असंगत परिणाम
हुआ करते हैं।
एक
बार एक
प्रोफेसर ने
सौ पिस्सुओं
को जब उनको वह
उचित आदेश दे
तब उछलने के
लिए
प्रशिक्षित किया।
जब एक बार
उन्होंने
संतोषजनक ढंग
से यह कार्य
कर लिया तो
उसने एक कैंची
ली और उनके
पैर काट दिए।
जैसे ही उसको
यह पता लगा कि
उसके द्वारा
कूदने के लिए
दिए जाने वाले
आदेश का पालन
एक भी पिस्सू
नहीं कर रहा
है,
तो उसने
अपनी शोध की
घोषणा
विज्ञान जगत
में इस प्रकार
से की कि
सज्जनों मेरे
पास इस बात के
अकाट्य
प्रमाण हैं कि
पिस्सू के कान
उनकी टांगों
में होते हैं।
मानव
विचार के पूरे
इतिहास में
ऐसा अनेक बार
हुआ है.
टांगें काट
दीं,
अब वे नहीं
कूदते, वे
आदेश को नहीं
सुनते है। तो
निस्संदेह, स्वभावत:
पिस्सुओं के
कान उनकी टांगो
मैं हैं।
तर्क
नितांत
तर्कविहीन
निष्कर्षों
पर पहुंच सकता
है। तर्क
नितांत
तर्कहीन
निष्कर्षों
का निष्पादन
कर सकता है।
शरीर
सर्वाधिक
स्थूल, सरलतापूर्वक
समझ लेने
योग्य भाग है,
तुम इसको
पकड़ सकते हो, तुम इसे
प्रशिक्षित
कर सकते हो, इसको भोजन
और पोषण देकर
तुम इसे अधिक
स्वस्थ कमा
सकते हो। तुम
इसे भूखा रख
कर इसे मार
सकते हो। यह
पकड़ में आ
जाता है। शरीर
से— परे
ज्ञानातीत का
संसार आरंभ होता
है।
वैज्ञानिक
ज्ञानातीत
संसार में
जाने से जरा
भयभीत हैं, क्योंकि
वहां पर उनकी
कसौटी सही
प्रकार से काम
नहीं करती है।
तब प्रत्येक
बात धुंधली से
और धुंधली
होती चली जाती
है। निःसंदेह
वे वहीं ठहरते
हैं जहां पर
प्रकाश है।
राबिया—
अल— अदाबिया
के बारे में
एक प्रसिद्ध
कथा है। एक
संध्या वह गली
में किसी
वस्तु को खोज
रही थी। किसी
ने पूछा, तुम
क्या खोज रही
हो? उसने
कहा मेरी सुई
खो गई है।
इसलिए उन
लोगों ने, दयालु
लोगों ने उसकी
मदद करना आरंभ
कर दी। वृद्ध
स्त्री, निर्धन
स्त्री, बेचारी
से उसकी, सुई
खो गई; प्रत्येक
व्यक्ति ने
मदद करने का
प्रयास किया।
लेकिन फिर
किसी को खयाल
आया कि सुई तो
बहुत ही छोटी
वस्तु है, ठीक—ठीक
कहां पर गिरी
है यह? गली
तो बहुत बड़ी
है। यदि हम इस
प्रकार से
खोजते रहे तो
सदियां लग जाएंगी।
इसलिए
उन्होंने
पूछा, सुई
ठीक किस स्थान
पर गिरी थी, जिससे हम
केवल उसी
स्थान पर उसे
खोज सकें? राबिया
ने कहा यह मत
पूछो, क्योंकि
सुई तो भीतर
मेरे घर में
गिरी थी। वे
सभी उठ खड़े
हुए और बोले, क्या तुम
पागल हो गई हो!
यदि सुई घर के
भीतर गिरी है
तो उसको वहीं
पर खोजो!
राबिया ने कहा
लेकिन वहां
रोशनी नहीं है।
यहा गली में
अभी तक रोशनी
है। सूर्य अभी
तक अस्त नहीं
हुआ है। समय
मत गंवाओ। मदद
करो, क्योंकि
शीघ्र ही
सूर्य अस्त हो
जाएगा और गली में
अंधकार हो
जाएगा।
एक
ढंग से यह
अतर्क्य
प्रतीत होता
है;
दूसरे ढंग
से यह बहुत
तर्कपूर्ण
लगता है। यही
तो विज्ञान कर
रहा है। यह
भौतिक शरीर
तुम्हारा एक
मात्र
प्रकाशित भाग
प्रतीत होता
है, शेष सब
कुछ तो अंधकार
में है। जितनी
गहराई में तुम
जाते हो, उतना
ही अधिक
अंधकार। तुम
जितनी गहराई
में उतरते हो,
उतना ही
दिशा—बोध खोने
लगता है। तुम
गहराई में
जाते हो, वह
सभी कुछ जो
स्पष्ट दिखाई
दिया था, अब
नहीं दिखाई
पड़ता।
प्रत्येक
वस्तु एक चरम
संशय में
प्रतीत होती है।
इसलिए बेहतर
है कि
प्रकाशित भाग
पर रुको, वहीं
बने रहो।
स्थूल शरीर के
साथ कुछ किया
जा सकता है, क्योंकि
शरीर को
समायोजित
किया जा सकता
है।
लेकिन
इस डग से कुछ
अत्यधिक
मूल्यवान है
जिसे खोया जा
रहा है, धीरे—
धीरे मानव—जाति
शरीर पर बहुत
केंद्रित हो
चुकी है। और
यह शरीर बस
तुम्हारा
बाह्य आवरण है।
एक
कारागृह में
ऐसा हुआ, जो
नाम के
व्यक्ति को
डकैती में
शामिल होने पर
बीस वर्ष के
कारावास का दड
मिला।
कारावास की
अवधि आरंभ
होने के कुछ
समय बाद ही उसे
अपने बालों
में एक पिस्सू
मिला, कुछ
करने के लिए
था भी नहीं, तो जो ने
उसको
प्रशिक्षित
करना आरंभ कर
दिया। सबसे
पहले जो ने उस
पिस्सू को
आदेश दिए जाने
पर उछलना
सिखाया, फिर
क्रमश: उस
पिस्सू की
होशियारिया
और—और जटिल
होती गईं।
प्रत्येक
सप्ताह के
प्रत्येक दिन
लगातार
अभ्यास और धैर्यपूर्वक
प्रशिक्षण
जारी रखा, इसलिए
जब उसके जेल
से छूटने का
समय आया, तब
तक उसने उस
पिस्सू को उन
कारनामों को
भी करना सिखा
दिया था जो नितांत
अविश्सवनीय
थे। जैसे ही
जो कारागृह के
द्वार से बाहर
आया वह विश्व
के विशालतम
सर्कस में दौड़
कर पहुंच गया।
शीघ्रतापूर्वक
मैनेजर के
तंबू में
पहुंच कर जो
ने पिस्सू को
अपनी ऊपर वाली
जेब से निकाला
और उसे मेज पर
रख दिया, जरा
इसको देखिए, जो ने
मैनेजर से कहा।
हां, मैनेजर
ने कहा। और
वैसे ही उसने
बड़ा भारा? ऐशट्रे
पिस्सू पर दे
मारा। उपद्रव
हैं ये कीडे, हैं न?
उसने
पिस्सू को
मार डाला, और
अब बेचारे जो
के पास यह
सिद्ध करने का
कोई उपाय ही न
रहा कि उसने पिस्सू
को करीब—करीब
आश्चर्यजनक
कार्य, अविश्वसनीय
कार्य करने
में
प्रशिक्षित
कर दिया था।
अब इसको सिद्ध
करने का कोई
उपाय न रहा।
यही
वह स्थूल सोच
है जो मनुष्य—जाति
के प्रति हो
गई है, इसने
भीतर के रहस्य
को मार डाला
है। इसने
लोगों को
भौतिक शरीर के
प्रति इतना
आसक्त बना
दिया है कि वे
अपने भीतरी
संसार को भूल
चुके हैं। अब
तो इसकी सत्ता
को सिद्ध करना
असंभव हो गया है।
बुद्ध, कृष्ण
और जीसस जैसे
लोग पागल
दिखाई पड़ते
हैं।
अंग्रेजी
भाषा तथा अन्य
पश्चिमी
भाषाओं मे ऐसी
पुस्तकें हैं
जो सिद्ध करती
हैं कि जीसस
विक्षिप्त
हैं।
निःसंदेह यदि
तुमने भीतरी
संसार का कुछ
नहीं जाना है
तो वे
विक्षिप्त
दिखाई पड़ते
हैं। यदि तुम
भीतरी संसार
के बारे में
कुछ नहीं जानते
हो तो वे
विक्षिप्त
हैं। तब वे
पागल आदमी
जैसे प्रतीत
होते हैं, क्योंकि
कभी—कभी वे
परमात्मा से
बातें करते
हैं, और वे
घोषणा करते
हैं कि उनको
उत्तर भी
मिलते हैं। और
तुम भीतर के
संसार से सारा
संपर्क खो
चुके हो, इसलिए
एक पागल आदमी
और उनके बीच
में क्या अंतर
है? पागल
आदमी भी आवाजें
सुनता है। तुम
इसे देख सकते
हो; पागलखाने
में चले जाओ
और तुम देख
सकते हो कि पागल
लोग अकेले
बैठे हैं और
इतनी तन्मयता
से बातें कर
रहे हैं जैसे
कि कोई वहां
उपस्थित हो।
भेद क्या है? जब
गेथसेमाने के
बाग में जीसस
ने प्रार्थना
की, आकाश
की ओर अपने
हाथ उठाए और
परमात्मा से
बातें करना
आरंभ कर दी, तब क्या भेद
है? ऐसा
प्रतीत होता
है कि वहां
कोई नहीं है, जीसस भी
उतने ही पागल
हैं जितना कोई
और पागल। जब
सूली पर
उन्होंने
रोना और
परमात्मा से
बातें करना
शुरू कर दिया,
तो क्या
अंतर है? क्योंकि
वहां कई हजार
लोग इकट्ठे हो
गए थे, उनको
वहां कोई भी
नहीं दिखाई
पड़ा। और जीसस
ने कहा, पिता
इन लोगों को
क्षमा कर दो, क्योंकि वे
नहीं जानते कि
वे क्या कर
रहे हैं। वे
पागल हैं। वे
किसके साथ
बातें कर रहे
हैं? वे
अपने
होशोहवास में
नहीं हैं।
धीरे— धीरे
यदि तुम्हारा
अंतर्तम
संसार अपूर्ण
है और तुम इसके
साथ संपर्क खो
चुके हो, तो
तुम जीसस, कृष्ण,
बुद्ध या
पतंजलि में
विश्वास नहीं
कर सकते हो।
वे किसके बारे
में बात कर
रहे हैं। और
तुम, जो
बहुत चतुर लोग
हो, अपने स्वप्नों
के बारे में
बहुत
वैज्ञानिक
ढंग से बात
किए चले जाते
हो।
अनेक
पागल लोग बहुत, बहुत
तर्कयुक्त
होते हैं। यदि
तुम पागल
लोगों की
बातें सुनो तो
तुम हैरान हो
जाओगे। वे
बहुत
तर्कनिष्ठ, बहुत
तर्कपूर्ण
होते हैं, और
एक सीमा तक तो
तुम उनसे करीब—करीब
राजी भी हो
जाओगे।
मैंने
एक व्यक्ति के
बारे में सुना
है,
जो अपने
किसी ऐसे संबंधी
से मिलने गया
था जो
पागलखाने में
था। उसी कोठरी
में एक दूसरा
रोगी भी था, और यह दूसरा
व्यक्ति इतना
भला आदमी, इतना
आह्लादित दिख
रहा था और वह
इतनी गरिमा के
साथ बैठा हुआ
समाचार पत्र
पढ़ रहा था कि
इस मुलाकाती
ने उससे पूछा,
आप तो जरा
भी पागल नहीं
लगते। उसने इस
आदमी से
बातचीत की और
वह पूरी तरह
से तर्कयुक्त,
नितांत
सामान्य था।
मुलाकात करने
आया व्यक्ति
तो हैरान था। तुमको
यहां पर क्यों
रख दिया गया
है? उसने
बताया, मुझको
अपने
रिश्तदारों
की वजह से
यहां रखा गया
है, वे
मुझे यहां भेज
देना चाहते थे
क्योंकि वे उस
सारी संपत्ति
पर कब्जा
जमाना चाहते
थे जो मेरे
पास है, और
इसका यही
एकमात्र उपाय
था या तो
मुझको मार डालों
या मुझको
पागलखाने में
डाल दो। और
मैं भी राजी
हो गया। यह
बेहतर है। कम
से कम मैं
जीवित तो हूं।
वरना
उन्होंने तो
मुझे मार ही
डाला होता।
मेरे पास बहुत
अधिक धन है।
और
सब कुछ इतना
सामान्य और
तर्कपूर्ण था
कि इस व्यक्ति
ने कहा, तुम
चिंता मत करो।
मैं गवर्नर को
जानता हूं और
मैं उनके पास
जाऊंगा और
पूरी बात बता
दूंगा। उस
पागल आदमी ने
कहा. कृपा
करें, यदि
आप कुछ कर
सकते हैं तो
कीजिए। जब वह
व्यक्ति बस
बाहर निकल ही
रहा था, अचानक
इस पागल आदमी
ने उछल कर
उसके सर पर
जोर से प्रहार
किया। उस
व्यक्ति ने
पूछा, अरे,
तुम यह क्या
कर रहे हो? इस
पागल ने कहा :
बस आपको याद
दिलाने के
लिए...गवर्नर
के पास जाना
मत भूलिएगा।
अब आप नहीं
भूलेंगे।
कहीं
न कहीं सभी
कुछ
तर्कयुक्त था, लेकिन
पागल आदमी और
रहस्यदर्शी
के बीच अंतर
कैसे किया जाए?
क्योंकि
रहस्यदर्शी
में भी एक
निश्चित सीमा तक
सभी कुछ
तर्कपूर्ण
प्रतीत होता
है। फिर अचानक
वह किसी ऐसी
चीज के बारे
में बात करने
लगता है जिसका
तुम्हें कभी
अनुभव नहीं
हुआ था। तब
तुम डर जाते
हो, और
स्वयं को भय
से बचाने के
लिए तुम अपने
भय को तर्क
द्वारा
समझाने का
प्रयास करते
हो।
'मन के लिए
अपने आप को और
किसी अन्य
वस्तु को उसी
समय में जानना
असंभव है।’
ये
सूत्र
साक्षीभाव के
बारे में हैं।
पतंजलि
क्रमबद्ध रूप
से यह कह रहे
हैं कि मन के
लिए दो कार्य
एक साथ कर
पाना असंभव है, ज्ञेय
हो जाए और शांता
भी बन जाए। या
तो वह जान
सकता है या
उसके बारे में
जाना जा सकता
है। इसलिए जब
तुम अपने मन
के साक्षी हो
सकते हो तो यह
बात आत्यंतिक
रूप से सिद्ध
कर देती है कि
मन ज्ञाता
नहीं है। तुम
ज्ञाता हो।
तुम शरीर नहीं
हो; तुम मन
भी नहीं हो।
सारा जोर इस
बात पर है. जो
तुम नहीं हो
उससे अंतर
करने में
तुम्हारी
सहायता किस
भांति की जाए।
'यदि यह मान
लिया जाए कि
दूसरा मन पहले
मन को .प्रकाशित
करता है, तो
बोध के बोध की
कल्पना करनी
पड़ेगी, और
इससे
स्मृतियों का
संशय उत्पन्न
होगा।’
लेकिन
ऐसे भी दर्शनशास्त्री
हुए हैं जिनका
कहना है कि
साक्षी को
मानने की कोई
आवश्यकता
नहीं है, हम एक
और मन को मान
सकते है : पहले
मन को दूसरे
मन के द्वारा
जान लिया जाता
है। यही वह
बात है जिससे
मनोवैज्ञानिक
भी सहमत होंगे,
क्योंकि
किसी नितांत
अज्ञात वस्तु
को क्यों महत्व
देना? मन
का स्वय मन के
द्वारा, एक
सूक्ष्म मन
द्वारा
निरीक्षण
किया जाता है।
लेकिन पतंजलि
इस दृष्टिकोण
का एक तहत
तर्कपूर्ण
खंडन
प्रस्तुत
करते है। वे
कहते हैं, यदि
तुम यह मान लो
कि पहले मन का ज्ञान
दूसरे मन
द्वारा होता
है, तो
दूसरे मन का ज्ञान
कि सकी होता
है? फिर तीसरा
मन, फिर
तीसरे मन का ज्ञान
किसको होता है?
फिर इससे
संशय निर्मित
होगा। यह पीछे
लौटते जाने की
एक अंतहीन
प्रक्रिया होगी।
फिर तुम बढ़ते
चले जाओ अनंत
तक और पुन: यदि
तुम कहते हो, एक हजारवा
मन, लेकिन
फिर भी समस्ता
वही बनी रहती
है। फिर तुमको
पुन: एक
हजारवें मन के
पीछे एक हजार
एकवें मन की
कल्पना करनी
पड़ेगी—और यह
आगे और आगे
चलता चला
जाएगा।
नहीं, व्यक्ति
को किसी ऐसी
बात को समझना
पड़ता है जो
नितांत भीतर
है जिससे परे
कुछ भी नहीं
है। वरना
स्मृति ये। का
संशय होगा, वरना उलझन
होगी। शरीर, मन और
साक्षी
साक्षी परम है।
लेकिन साक्षी
का ज्ञान
किसको होता है?
साक्षी को
कौन जानता है?
और तब हम
योग की
सर्वाधिक
महत्वपूर्ण
परिकल्पनाओं
में से एक पर आ
जाते हैं।
‘आत्म—बोध से
अपनी स्वयं की
प्रकृति का
ज्ञान मिल जाता
है, और जब
चेतना इस रूप
में आ जाती है
तो यह एक स्थान
से दूसरे
स्थान को नहीं
जाती।’
योग
का मानना है
कि साक्षी एक
स्व
प्रकाशमान घटना
है। यह बस
प्रकाश की
भांति है।
तुम्हारे
कमरे में एक
छोटी सी
मोमबत्ती है, यह
मोमबत्ती
पूरे कमरे को—फर्नीचर
को, दीवारों
को, दीवार
पर लगी पेटिंग
को, प्रकाशित
कर देती है।
मोमबत्ती को
कौन प्रकाशित
करता है? तुमको
इस मोमबत्ती
की खोज करने
के लिए एक
अन्य मोमबत्ती
की आवश्यकता
नहीं होती; यह मोमबत्ती
स्वयं
प्रकाशित हो
रही है। यह
दूसरी
वस्तुओं को
प्रकाशित
करती है और
साथ ही साथ यह
अपने आप को भी
प्रकाशित
करती है।
स्वबुद्धिसवेदनम—अंतर्तम
चेतना स्व
प्रकाशित है।
यह प्रकाश की
प्रकृति है।
सूर्य
सौरमंडल की
प्रत्येक
वस्तु को
प्रकाशित
करता है—और
साथ ही साथ यह
अपने आप को भी
प्रकाशित
करता है।
साक्षी उस
प्रत्येक बात
का साक्षी है
जो इन पांच
बीजों और इस
संसार में
उसके चारों ओर
चल रही है, ठीक
उसी समय यह अपने
आप को भी
प्रकाशित
करता है। यह
पूर्णत:
तर्कयुक्त
लगता है। कहीं
न कहीं हमें
सागर में
उतरते चले
जाएं तो चट्टानी
तलहटी पर आना
पड़ता है। वरना
हम और—और आगे
बढ़ते चले
जाएंगे— और
इससे सहायता
नहीं मिलेगी,
और समस्या
वैसी ही बनी
रहती है।
'आत्म—बोध से
अपनी स्वयं की
प्रकृति का
ज्ञान मिल
जाता है, और
जब चेतना इस
रूप में आ
जाती है तो यह
एक स्थान से
दूसरे स्थान
को नहीं जाती।’
जब
तुम्हारी आंतरिक
चेतना अ—गति
के क्षण में आ
चुकी है, जब यह
गहनता से
केंद्रित हो
चुकी है और
दृढ़ता से
स्थापित हो
चुकी है, जब
यह कंपित नहीं
हो रही है, जब
यह सजगता की
अनवरत
अग्निशिखा बन
चुकी है, तब
यह अपने आप को
प्रकाशित
करती है।
'जब मन
ज्ञाता और
ज्ञेय के रंग
में रंग जाता
है तब यह
सर्वज्ञ हो
जाता है।’
मन
तुम्हारे और
संसार के ठीक
मध्य में है।
तुम्हारे और
संसार के मध्य
में,
साक्षी और
साक्षित्व के
विषय के मध्य
में, मन
सेतु है। मन
एक सेतु है।
और मन यदि
वस्तुओं के
रंग में रंग
जाता है, और
साक्षी के
द्वारा भी रंग
जाता है, तब
यह सर्वज्ञ हो
जाता है। यह
ज्ञान का
प्रचंड उपकरण
बन जाता है।
लेकिन दो
प्रकार से
रंगे जाने की
आवश्यकता है।
एक, इसको
उन वस्तुओं के
द्वारा रंगा जाना
चाहिए जिनको
यह देखता है
और दूसरा इसको
साक्षी
द्वारा रंग
दिया जाना
चाहिए।
साक्षी को
अपनी ऊर्जा मन
की ओर
प्रवाहित कर देना
चाहिए, केवल
तभी मन
वस्तुओं को
जान सकता है।
उदाहरण
के लिए, एक
वैज्ञानिक
कार्यरत है, उसने एक
व्यक्ति के
शरीर का
विच्छेदन
किया हुआ है और
वह बहुत
बारीकी से, उतनी
सूक्ष्मता से
जितनी
उपकरणों
द्वारा संभव
है, निरीक्षण
कर रहा है। वह
आत्मा को खोज
रहा है, और
उसे कोई आत्मा
नहीं मिलती, बस पदार्थ
ही पदार्थ
मिलता है।
अधिक से अधिक
उसे कुछ ऐसा
मिल सकता है
जो भौतिक
विज्ञान के
संसार से
संबद्ध हो या
रसायन
विज्ञान के
संसार से जुड़ा
हो, लेकिन
ऐसा कुछ नहीं
मिलता है जो
चेतना के संसार
से संबंधित हो।
और वह
प्रयोगशाला
से बाहर आता
है और वह कहता
है, 'वहां
कोई चेतना
नहीं है।’ अब
वह एक बात से
चूक गया है।
मृत शरीर में
कौन देख रहा
था, अपने
आप को वह पूरी
तरह से भूल
चुका था।
वैज्ञानिक
विषय को देख
रहा है, लेकिन
वह अपने स्वयं
के अस्तित्व
को पूरी तरह से
भूल गया है।
वैज्ञानिक
चेतना को बाहर
खोजने का
प्रयास कर रहा
है, लेकिन
वह उसको पूरी
तरह से भूल
चुका है जो
प्रयासरत है,
वही चेतना
है। खोजने
वाला ही खोजा
जाने वाला है,
वह विषयवस्तु
पर अत्यधिक
केंद्रित हो
चुका है और
विषयी, कर्त्ता
भुला दिया गया
है।
विज्ञान
वस्तु पर
अत्यधिक
केंद्रित है, और
तथाकथित धर्म
विषयी पर
अत्यधिक
केंद्रित हैं।
लेकिन योग का
कहना है :
एकपक्षीय
होने की कोई आवश्यकता
नहीं है।
स्मरण रखो कि
संसार वहां है
और यह भी
स्मरण रखो कि
तुम हो। विषय
और विषयी
दोनों की अपनी
स्मृति को
पूर्ण और
समग्र होने दो।
जब तुम्हारा
मन तुम्हारी
चेतना से
प्रेरित होता
है और वस्तुगत
संसार से ओत—प्रोत
होता है तब
वहां पर
सर्वज्ञता
घटित हो जाती
है।
और
पतंजलि कहते
हैं : 'जब मन
ज्ञाता और ज्ञेय
के रंग में
रंग जाता है, तब यह
सर्वज्ञ हो
जाता है।’
यह
उस सभी कुछ को
जान सकता है
जिसे जाना जा
सकता है। जिसे
जाना जा सकता
है उस सभी को
यह जान सकता
है। फिर मन से
कुछ भी छिप
नहीं पाता। एक
धार्मिक मन
जिसे हम
अंतर्मुखी मन
कह सकते हैं—क्रमश:
केवल अपने
विषयी रूप को
जान लेता है
और यह कहना शुरू
कर देता है कि
संसार माया है, भ्रम
है, एक
स्वप्न है, जो उसी
पदार्थ से बना
है जिससे
स्वप्न बनते
हैं। एक
वैज्ञानिक जो
वस्तुओं पर
बहुत अधिक
केंद्रित है
वस्तुगत जगत
में विश्वास
करना आरंभ कर देता
है और कहता है
कि केवल
पदार्थ का ही
अस्तित्व है;
चेतना केवल
एक काव्य
मात्र है, स्वप्नदर्शियों
की बातचीत है,
अच्छी है, मनोहारी है,
किंतु यह
वास्तविकता
नहीं है।
वैज्ञानिक का
कहना है कि
चेतना एक
भ्रांति है।
बहिर्मुखी
कहता है कि
चेतना भ्रम है,
अंतर्मुखी
कहता है कि
संसार भ्रम है।
लेकिन
योग सर्वोच्च
विज्ञान है।
पतंजलि कहते
है 'दोनों
यथार्थ हैं।’
वास्तविकता
के दो आयाम
होते हैं.
बाह्य पक्ष और
भीतरी पक्ष।
और स्मरण रखो,
भीतरी पक्ष
कैसे हो सकता
है, बाह्य
पक्ष के बिना
इसका होना किस
भांति संभव है? क्या तुम
कल्पना कर
सकते हो कि
केवल भीतरी
पक्ष का
अस्तित्व है
और बाह्य पक्ष
भ्रम है? यदि
बाह्य पक्ष
भ्रम है तो
भीतरी पक्ष
स्वत: ही भ्रम
हो जाएगा। यदि
तुम्हारे
मकान का भीतरी
भाग वास्तविक
है और बाहरी
भाग
अवास्तविक, तो तुम उनके
मध्य अंतर किस
प्रकार से
करोगे? कहां
पर
वास्तविकता
समाप्त होती
है और भ्रम
आरंभ हो जाता
है? और एक
ऐसा बाह्य
पक्ष जो
भ्रामक हो
उसका भीतरी
पक्ष यथार्थ
कैसे हो सकता
है? एक
अवास्तविक
शरीर में एक
अवास्तविक मन
होगा, एक
अवास्तविक मन
के पास एक
अवास्तविक
चेतना होगी।
असली चेतना के
लिए एक असली
मन चाहिए, एक
असली मन के
लिए वास्तविक
शरीर चाहिए, वास्तविक
शरीर के लिए
यथार्थ संसार
चाहिए।
योग
किसी चीज से
इनकार नहीं
करता। योग
नितांत
यथार्थवादी
है,
अनुभवात्मक
है। यह
विज्ञान से
अधिक
वैज्ञानिक है,
और धर्मों
से अधिक
धार्मिक है, क्योंकि यह
अंतस और बाह्य
का एक महत्तर
संश्लेषण
निर्मित करता
है।
'यद्यपि मन
असंख्य
वासनाओं के
रंग में रंगता
है, फिर भी
मन लगातार
उनकी पूर्ति हेतु
कार्य करता है,
इसके लिए यह
सहयोग से
कार्य करता है।’
मन
लगातार कार्य
करता चला जाता
है,
किंतु यह
अपने लिए
कार्य नहीं कर
रहा है। इसके
पास प्रबंधकीय
पद है, मालिक
पीछे छिपा हुआ
है। यह मालिक
के साथ सहयोग
करता है। अब
इसको गहराई से
समझ लेना
पड़ेगा।
यदि
मन मालिक के
साथ सहयोग
करता है तो
तुम स्वस्थ
एवं पूर्ण हो।
यदि मन भटक
जाता है, मालिक
के विरोध में
हो जाता है, तो तुम रुग्ण
और अस्वस्थ हो।
यदि नौकर
मालिक का छाया
की भांति
अनुसरण करता
है, तो सभी
कुछ ठीक है।
यदि मालिक
कहता है, बाईं
ओर जाओ और
नौकर दाईं ओर
चला जाता है, तो कुछ गड़बड़
हो गई है। यदि
तुम चाहो कि
तुम्हारा
शरीर दौड़े और
शरीर कहता है,
मैं नहीं
दौड़ सकता, तब
तुम पंगु हो।
यदि तुम कुछ
करना चाहते हो
और शरीर और मन
कहते हैं, नहीं,
या वे कुछ
ऐसा किए चले
जाते हैं
जिसको तुम नहीं
करना चाहते, तब तुम एक
बडे संशय में
घिर जाते हो।
इसी प्रकार से
सारी मनुष्य—जाति
जी रही है।
योग
ने इसे एक
लक्ष्य बना
रखा है कि
तुम्हारे मन
को तुम्हारे
प्रभु, अंतर्तम
आत्मा के
अनुसार कार्य
करना चाहिए।
तुम्हारे
शरीर को
तुम्हारे मन
के अनुरूप
कार्य करना
चाहिए, और
तुमको अपने
चारों ओर एक
ऐसा संसार
निर्मित करना
है जो सहयोग
में हो। जब
प्रत्येक
वस्तु सहयोग
में हो—निम्नतर
सदैव उच्चतर
के सहयोग में
है, उच्चतर
सदा उच्चतम के
सहयोग में है,
और उच्चतम
आत्यंतिक परम
सत्ता के
सहयोग में है—तब
तुम्हारा
जीवन एक
लयबद्धता है।
तब तुम एक
योगी हो। फिर
तुम एक हो
जाते हो, किंतु
इस अर्थ में
नहीं कि केवल
एक का ही
अस्तित्व
रहता है, अब
तुम एक स्वर
के अर्थ में
एक हो गए हो।
तुम एक
आर्केस्ट्रा
के अर्थ में:
वाद्यर्यत्र
अनेक हैं, लेकिन
संगीत एक ही
है, तुम एक
हो गए हो— अनेक
शरीर, लाखों
विषय—वासनाएं,
महत्वाकांक्षाएं,
भाव—दशाएं,
शिखर और
घाटियां, असफलताएं
और सफलताएं, एक विराट
विविधता, लेकिन
सभी कुछ एक
स्वर में, लयबद्धता
में हैं। तुम
एक वाद्य—
समूह बन गए हो।
प्रत्येक
अन्य सभी के साथ
सहयोग कर रहा
है, और
अंतत: सभी
तुम्हारे
अस्तित्व के
परम केंद्र के
साथ सहयोग कर
रहे हैं।
यही
कारण है कि
भारत में हमने
संन्यासियों
को 'स्वामी' कहा
है। स्वामी का
अर्थ है.
प्रभु, जिसका
स्वयं पर
प्रभुत्व है।
तुम स्वामी
केवल तब बनते
हो जब तुमने
इस लयबद्धता
को उपलब्ध कर
लिया है जिसकी
बात पतंजलि कर
रहे हैं। चाहे
वह जो कुछ भी
हो पतंजलि
किसी चीज के
भी विरोध में
नहीं हैं; वे
लयबद्धता के
पक्ष में हैं।
वे नकार के
विरोध में हैं।
वे किसी चीज
के विरोध में
नहीं हैं, वे
शरीर के विरोध
में नहीं हैं,
वे देह
विरोधी
व्यक्ति नहीं
.हैं, वे
संसार के
विरोधी नहीं
हैं, जीवन—निषेधक
नहीं हैं वे, वे सभी कुछ
आत्मसात कर
लेते हैं। और
इस भांति
आत्मसात करके
वे उच्चतर
संश्लेषण का
सृजन करते हैं।
और परम
संश्लेषण तब
होता है जब हर
चीज सहशोग में
हो, जहां
एक भी स्वर
लयविहीन न हो।
मैंने
एक कथा सुनी है, एक
बबून का पाच
वर्षीय बच्चा
जन्म से अभी
तक एक शब्द भी
नहीं बोला था।
उसके माता—पिता
को विश्वास हो
चुका था कि
उनका बच्चा गूंगा
है,
जब तक कि एक
रात उसने केला
नहीं खाया।
अचानक उसने अपनी
मां की ओर
निगाह उठाई और
स्पष्ट रूप से
कहा, 'मुझे
सड़ा केला खिला
दिया, कैसी
घटिया बात थी
यह। माता बबून
अतिहर्षित हो
गई और उस ने
अपने बच्चे से
पूछा कि इसके
पहले वह कभी
क्यों नहीं
बोला। ठीक है,
छोटे बस्त
ने कहा, अब
तक भोजन ठीक जो
था।
यदि
तुम लयबद्धता
में हो तो तुम
संसार के बारे
में शिकायत
नहीं करोगे, तुम
किसी चीज के
बारे मैं
शिकायत नहीं
करोगे।
शिकायत कर्ता
मन तो बस यह
दिखा रहा है
कि भीतर चीजें
लयबद्धता में
नहीं हैं : जब
सभी कुछ लयबद्धता
में हो तो कोई
शिकायत नहीं
होती है। अब
तुम अपने
तथाकथित
संतों के पास
चले जाओ, प्रत्येक
व्यक्ति
शिकायत कर रहा
है—संसार की
शिकायत, अभिलाषाओं
की शिकायत)
शरीर की
शिकायत, इसकी
और उसकी
शिकायत।
प्रत्येक
व्यक्ति
शिकायतों में
जीता है, कुछ
गड़बड़ है।
संपूर्ण
व्यक्ति वह है
जिसके पास कोई
शिकायतें
नहीं हैं। वह
व्यक्ति
परमात्म—पुरुष
है जिसने
प्रत्येक चीज
को स्वीकार कर
लिया है, आत्मसात
कर लिया है और
ब्रह्मांड बन
गया है, अब
उसके भीतर कुछ
भी. उपद्रव
नहीं रह गया
है।
एक
और कहानी। जिस
ढंग से उसने
अपने बोलने
वाले तोते को
प्रशिक्षित
किया था, उस पर
इस वृद्ध
महिला को गर्व
था, और वह
इसे पादरी को
दिखा रही थी.
यदि आप इसका
बायां पैर
खींचते हैं तो
यह परमेश्वर
की स्तुति
बोलता है और
यदि आप इसका
दायां पैर
खींचते हैं तो
यह भजन
दोहराता है, उसने समझाया।
यदि
दोनों पैर एक
साथ खींच लो
तो क्या होगा? पादरी
ने पूछा।
मैं
पीठ के बल
लुढुक जाऊंगा, मूर्ख
बुड्डे!
मुंहतोड़ जवाब
देते हुए तोते
ने कहा।
और
मनुष्य के साथ
भी यही हो गया
है। यदि तुम
एक टांग खींचो
तो ठीक है; यदि
तुम दूसरी टांग
खींचो तो यह
भी सही है; लेकिन
यदि तुम दोनों
पैर खींच लो
तो प्रत्येक चीज
को नीचे लुढ़क
ही जाना है, यही तो
मनुष्य के साथ
हो गया है।
उसके पूरे
अस्तित्व को
नीचे खींच
लिया गया है।
धर्म उसके
शरीर को नीचे
खींचने का
प्रयास करते
रहे हैं। उसके
शरीर के प्रति
वे बहुत अधिक
भयभीत, बहुत
अपराध—बोध से
भरे हुए हैं।
वे लगातार
शरीर को
विनष्ट करने
का और उसको विषाक्त
करने का
प्रयास करते
रहे हैं। वे
तुमको
प्रेतों की
भांति
शरीरविहीन
देखना चाहेंगे।
उनका खयाल यही
है कि शरीर
अपने अंतर्तम
से ही गलत है, कि शरीर पाप—काया
है। इसलिए
तुमको
आत्माओं की
भांति होना
चाहिए, शरीर
के बिना, देहविहीन।
अब
भौतिकवादी, साम्यवादी,
मार्क्सवादी,
वैज्ञानिक
दूसरे ढंग से
प्रयास कर रहे
हैं। वे दूसरी
टाँग को खींचने
का प्रयास कर
रहे हैं। वे
कहते हैं कि
चेतना जैसी
कोई चीज नहीं
होती; आत्मा
नहीं है। यह
भौतिक और
रासायनिक
वस्तुओं का
संयोजन मात्र
है, जो तुम
हो। तुमको
शरीर ही होना
चाहिए और कुछ
भी नहीं। अब
दोनों ने एक
साथ दोनों
टांगें खीच ली
हैं, और
पूरा का पूरा
मनुष्य ही एक
पीड़ित जीव, एक रोग, एक
दुविधा बन
चुका है।
पतंजलि
कहते हैं : 'हर
वस्तु को
स्वीकार करो,
इसका
प्रयोग करो, इसके बारे
में
सृजनात्मक
बनो, निषेध
मत करो।’ इनकार
उनका ढंग नहीं
है, बल्कि
स्वीकार है
उनका उपाय।
यही कारण है
कि पतंजलि ने
शरीर पर, भोजन
पर, योगासनों
पर, प्राणायाम
पर, इतना
अधिक कार्य
किया है। ये
सभी प्रयास
लयबद्धता
निर्मित करने
के लिए हैं; शरीर के लिए
सम्यक आहार, शरीर के लिए
सम्यक आसन, प्राण शरीर
के लिए लयबद्ध
श्वसन क्रिया।
अधिक प्राण, अधिक
जीवंतता को
आत्मसात करना
पड़ेगा। ऐसे
ढंग और उपाय
खोजने पड़ते
हैं जिससे तुम
कभी सतत ऊर्जा
विहीनता से
पीड़ित न रहो, बल्कि ऊर्जा
के अतिरेक में
रहो।
मन
के साथ भी
प्रत्याहार, मन
एक सेतु है; तुम सेतु से
बाहर की ओर जा
सकते हो, तुम
उसी पुल पर चल
सकते हो और
भीतर जा सकते
हो। जब तुम
बाहर की ओर
जाते हो तो
वस्तुएं, इच्छाएं,
तुमको
प्रभावित
करती हैं। जब
तुम भीतर की
ओर जाते हो तो
इच्छाविहीनता,
जागरूकता, साक्षीभाव
तुम्हारे ऊपर
प्रभाव डालते
हैं, लेकिन
सेतु वही है।
इसका प्रयोग
करना पड़ता है,
इसको तोड़ कर
फेंक नहीं
देना है, इसकी
विनष्ट नहीं
कर देना है, क्योंकि यह
वही सेतु है
जिससे तुम
संसार में आए
हो और जिससे
होकर ही तुमको
पुन: आंतरिक
स्वभाव में
लौटना पड़ता है,
और इसी
प्रकार इसे
किया जा सकता
है।
पतंजलि
प्रत्येक
वस्तु का
उपयोग किए चले
जाते हैं।
उनका धर्म भय
का नहीं बल्कि
समझ का धर्म
है। उनका धर्म
परमात्मा के
लिए,
और संसार के
विरोध में नही
है। उनका धर्म
संसार के
माध्यम से
परमात्मा के
लिए है, क्योंकि
परमात्मा और
संसार दो नहीं
है। संसार
परमात्मा का
सृजन है। यह
संसार उसकी
सृजनात्मकता
है, उसकी
अभिव्यक्ति
है, यह
संसार उसका
काव्य है। यदि
तुम काव्य के
विरोध में हो
तो, तुम
कवि के समर्थन
में किस भांति
हो सकते हो? काव्य की
निंदा करने
में तुमने कवि
की निंदा कर
ही दी है। निस्संदेह,
काव्य ही
लक्ष्य नहीं
है, तुमको
कवि की खोज भी
करनी पड़ेगी।
लेकिन कवि तक
पहुंचने के
रास्ते में
तुम काव्य का
आनंद भी उठा
सकते हो, इसमें
कुछ भी गलत
नहीं है।
एक
मेथोडिस्ट
धर्म प्रचारक
वायुयान से
अमरीका जा रहा
था,
जब एअर
होस्टेस ने
पूछा कि क्या
वह बार से कोई पेय
लेना चाहेगा,
तो उसने
पूछा, हम
कितनी ऊंचाई
पर उड़ रहे हैं?
जब यह बताया
गया कि तीस
हजार फीट, तो
उसने उत्तर
दिया, नहीं,
मुझे कुछ
नहीं चाहिए......मुख्यालय
के इतने पास
नहीं पियूंगा।
भय, धार्मिक
लोग लगातार भय
से ग्रसित हैं।
लेकिन भय
तुम्हें
ईश्वर की कृपा
नहीं दे सकता, तुमको
गरिमा नहीं दे
सकता। भय पंगु
बना देता है, अपंग कर
देता है, विकृत
कर डालता है।
भय के कारण
धर्म करीब—करीब
एक रोग बन
चुका है। यह
तुमको
असामान्य बना
देता है, यह
तुम्हें
स्वस्थ नहीं
करता, यह
तुमको जीने से
और—और भयभीत
कर देता है, नरक है, और
तुम जो कुछ भी
करते हो ऐसा
लगता है कि
तुम कुछ गलत
कर रहे हो।
तुम प्रेम
करते हो और यह
गलत है, तुम
आनंद लेते हो
और यह गलत है।
प्रसन्नता को
अपराध—बोध से
जोड़ दिया गया
है। केवल गलत
लोग ही
प्रसन्न
मालूम पड़ते
हैं। भले लोग
सदा गंभीर
रहते हैं और
कभी प्रसन्न नहीं
होते। यदि तुम
स्वर्ग जाना
चाहते हो तो
तुमको गंभीर
और अप्रसन्न
और उदास और
संतापग्रस्त
होना पड़ता है।
तुमको तपस्वी
होना पड़ता है।
यदि तुम नरक
जाना चाहते हो,
तो प्रसन्न
हो जाओ और
नृत्य करो और
आनंद लो।
किंतु स्मरण
रखना, उमर खय्याम
ने कहीं पर
कहा है, 'मुझे
सदैव एक बात
के बारे में
चिंता रहती है
: यदि ये सारे
अप्रसन्न लोग
स्वर्ग जा रहे
हैं तो वहां
पर वे करेंगे
क्या? वे
नृत्य नहीं कर
सकते, वे
गीत नहीं गा
सकते, वे
पी नहीं सकते,
वे आनंद
नहीं उठा सकते,
वे प्रेम
नहीं कर सकते।
सारा मौका इन
मूढ़ लोगों पर
गंवा दिया
जाएगा। वे लोग
जो आनंद उठा
सकते हैं नरक
में भेज दिए जाते
हैं। वास्तव
में उनको
स्वर्ग में
होना चाहिए।’
यह अधिक
तर्कपूर्ण
प्रतीत होता
है। उमर खय्याम
का कहना है, 'यदि तुम
वास्तव में
स्वर्ग जाना
चाहते हो तो
यहीं पर
स्वर्ग सा जीवन
जीयो ताकि तुम
तैयार रही।’
पतंजलि
चाहेंगे कि
तुम जीवन से
आलोकित रहो, अज्ञात
से स्पंदित
रहो। वे किसी
चीज के विरोध
में नहीं हैं।
यदि तुम प्रेम
में हो, तो
वे कहते हैं, अपने प्रेम
को थोड़ा और
गहराओ।
तुम्हारे लिए
अधिक बड़े
खजाने
प्रतीक्षा कर
रहे हैं। ये
खजाने अच्छे
हैं, ये
वृक्ष, ये
पुष्प अच्छे
हैं। फिर
पुरुष, स्त्री,
वे सुंदर और
अच्छे हैं, क्योंकि
किसी भी तरह
से, भले ही
कितनी दूर हो
फिर भी
परमात्मा
उनके माध्यम
से तुम तक
आज्ज है। हो
सकता है वहां
अनेक पर्दे
हों। जब तुम
किसी स्त्री
या पुरुष से
मिलते हो तो
अनेक पर्दे और
परतें हों, लेकिन फिर
भी जो प्रकाश
है वह
परमात्मा का
है। शायद यह
अनेक अवरोधों
से होकर गुजरा
हो, यह
विकृत हो सकता
है, लेकिन
फिर भी यह
प्रकाश
परमात्मा का
है।
पतंजलि
कहते हैं : 'इस
संसार के
विरोध में मत
होओ। बल्कि
संसार के
माध्यम से खोज
करो। एक उपाय
खोज लो ताकि
तुम प्रकाश के
मूलस्रोत, शुद्ध,
अस्पर्शित
प्रकाश को
उपलब्ध कर सको।’
ऐसे
लोग हैं जो
केवल भोजन के
लिए जीते हैं, और
ऐसे लोग हैं
जो भोजन के
विरोध में चले
जाते हैं—दोनों
ही गलत हैं।
जीसस कहते हैं
: मनुष्य केवल
रोटी के सहारे
नहीं जी सकता,
सच है, पूरी
तरह से सच है—लेकिन
क्या मनुष्य
रोटी के बिना
जी सकता है? इसको याद
रखना चाहिए।
मनुष्य केवल
रोटी से जीवित
नहीं रह सकता,
ठीक; लेकिन
मनुष्य रोटी
के बिना भी
नहीं जी सकता।
मैं
एक छोटी सी
कहानी पढ़ रहा
था।
पालतू
पक्षियों की
दुकान से एक
महिला ने इस
आश्वासन पर एक
तोता खरीदा कि
वह बात करेगा।
दो सप्ताह बाद
वह शिकायत
करने के लिए
दुकान पर आई।
उसके खेलने के
लिए एक छोटी
सी घंटी खरीद
लीजिए, दुकानदार
ने सलाह दी।
इससे उसको
बोलने में
अक्सर सहायता
मिलती है। उस
महिला ने घंटी
खरीद ली और
चली गई; एक
सप्ताह बाद वह
यह कहने के
लिए आई कि
पक्षी ने अभी
तक एक भी शब्द
नहीं बोला है।
दुकानदार ने
राय दी कि वह
एक दर्पण खरीद
ले, जो कि
पक्षियों को
बोलने के लिए
उकसाने का अचूक
उपाय है। उसने
दर्पण ले लिया
और चली गई।
केवल तीन दिन
बाद ही वह
वापस लौट आई।
इस बार
दुकानदार ने उसे
एक छोटी सी
प्लास्टिक की
चिड़िया बेच दी,
जिसके बारे
में उसने
बताया कि यह
तोते को कुछ बातचीत
करने के लिए
अवसर देगी। एक
सप्ताह और बीत
गया और महिला
यह बताने के
लिए आई कि
तोता अब मर
गया है।
क्या
वह बिना बोले
ही मर गया.? दुकानदार
ने पूछा।
अरे
नहीं, उस
महिला ने
उत्तर दिया।
उसने मरने के
ठीक पहले एक
बात कही थी।
क्या
कहा था?
खाना!
भगवान के लिए
मुझको खाना दे
दो!
व्यक्ति
को बहुत, बहुत
ही सजग होना
पड़ता है, वरना
व्यक्ति बहुत
सरलता से
विपरीत
ध्रुवीयता पर
जा सकता है।
मन अतिवादी है।
मैंने वह
निरीक्षण
किया है : वे
लोग जो केवल
भोजन के लिए जीते
रहे हैं, जब
वे अपनी
जीवनशैली से
ऊब जाते हैं
तो उपवास आरंभ
कर देते हैं।
तुरंत ही वे
दूसरी अति पर
चले जाते हैं।
मैं कभी भी
किसी ऐसे
उपवास करने
वाले के, जो
उपवास को लेकर
दीवाना हो, संपर्क में
नहीं आया हूं
जो इसके पहले
भोजन के प्रति
अति आसक्त न
रहा हो। वे
वही लोग हैं।
वे लोग जो काम—
भोग में बहुत
अधिक संलग्न
हैं
ब्रह्मचारी
होना आरंभ कर
देते हैं। वे
लोग जो अति
कंजूस हैं
प्रत्येक
पदार्थ का त्याग
करना आरंभ कर
देते हैं। इसी
भांति मन एक
अति से दूसरी
अति में चला
जाता है।
पतंजलि
तुम्हारे
जीवन को
संतुलित करना, उसमें
एक साम्य लाना
चाहेंगे।
मध्य में कहीं
उस स्थान पर
जहां पर तुम
भोजन के प्रति
दीवाने नहीं
हो, और तुम
भोजन के विरोध
में भी दीवाने
नहीं हो, जहां
पर न तो तुम
स्त्रियों या
पुरुषों के
पीछे दीवाने
हो और तुम
उनके विरोध
में भी दीवाने
नहीं हो, तुम
बस संतुलित हो,
प्रशांत हो।
एक
मनस्विद का
कहना है कि हम
अपने व्यवहार
में कुछ
विचित्र हैं।
हम सभी अपने
व्यवहार में
थोडे विचित्र
हैं। इस बात
को कहने का
दूसरा ढंग यह
है कि मैं
मौलिक हूं तुम
सनकी हो, वह
मूर्ख है। जब
तुम वही कार्य
करते हो तो
तुम सोचते हो
कि तुम मौलिक
हो, जब
तुम्हारा
मित्र वही
कार्य कर रहा
होता है तो
तुम सोचते हो
कि वह सनकी है,
और
तुम्हारा
शत्रु जब वही
कार्य कर रहा
है तो तुम
सोचते हो कि
वह मूर्ख है।
याद रखो, सोचने
का यही
अहंकारपूर्ण
ढंग विकास के
सारे अवसरों
को नष्ट कर
देगा। अपने
बारे में बहुत
वस्तुनिष्ट
हो जाओ।
प्रत्येक
व्यक्ति में
पागलपन की
प्रवृति है, क्योंकि
लाखों वर्षों
से मानव—जाति
विक्षिप्त
रही है।
प्रत्येक
व्यक्ति में
स्नायु रोगी
की प्रवृति है,
क्योंकि
हमारी सभ्यता
अभी तक उस
बिंदु पर नहीं
आई है जहां पर
यह मनुष्य को
संपूर्ण
क्रियाकलाप की
अनुमति दे सके।
यह दमनात्मक
रही है। इसलिए
निरीक्षण करो
: यदि तुम
विक्षिप्त हो
तो तुम बहुत
अधिक खा लोगे।
तुम दूसरी अति
पर जा सकते
हों—तुम भोजन
करना पूरी तरह
से बंद कर सकते
हो—लेकिन
तुम्हारा
पागलपन वैसा
ही रहता है।
अब पागलपन
भोजन के विरोध
में है। और
ऐसा मत सोचो
कि तुम एक
महान
आध्यात्मिक, बहुत मौलिक
कार्य रहे हो।
एक
बार वीणा मेरे
पास एक लडके
को लेकर आई।
वस्तुत: उसका
मुझसे संबंध
ही तब बना। वह
किसी और लड़के
को लेकर आई थी
जो करीब—करीब
पागल था। वह
मुझसे यह
पूछने आया था, 'क्या
मनुष्य केवल
पानी पर जी
सकता है?' वह
केवल पानी पर
जीवित रहना
चाहता था। और
वह बेहद दुबला
और पीला और
लगभग
मृतप्राय था।
जब मैंने कहा,
मूर्ख मत
बनो, तो वह
प्रसन्न नहीं
हुआ। उसने कहा,
बस मुझको
किसी का पता
बता दें, कुछ
लोग जो मेरी
सहायता कर
सकें, क्योंकि
मैं केवल पानी
पर जीना चाहता
हूं।
प्रत्येक
वस्तु अशुद्ध
है—केवल पानी
ही शुद्ध है।
विक्षिप्त
हैं ये लोग।
सारे भारत में
वे तुमको मिल
जाएंगे.
आश्रमों में, मठों
में। सौ में
पिचानबे
लोगों को तुम
विक्षिप्त
पाओगे। और
उनको तुम पागल
कह नहीं सकते
क्योंकि वे
लोग योग, आसन,
उपवास, प्रार्थना,
यह और वह कर
रहे हैं।
लेकिन उनके
पागलपन को
तुरंत देखा जा
सकता है। किसे
पागलपन कह रहा
हूं मैं? कोई
भी अतिवाद
पागलपन है।
संतुलित होना
ही स्वस्थ
होना है, असंतुलित
होना
विक्षिप्तता
है। जब कभी भी
तुमको स्वयं
के भीतर या
किसी और में
कहीं असंतुलन
दिखाई पड़े, सचेत हो जाओ।
वरना तुम परम
लयबद्धता से
चूक जाओगे।
एकागी, असंतुलित
होकर तुम उस
आकेस्ट्रा का
सृजन नहीं कर
सकते, जिसकी
झलक तुमको
देने का
प्रयास
पंतजलि कर रहे
हैं।
'मन की
वृत्तियों का
ज्ञान सदैव
इसके प्रभु, पुरुष, को
शुद्ध चेतना
के सातत्य के
कारण होता है।’
सदा
ज्ञाताश्चित्तवृत्तयस्तत्पभो
पुरुषस्यापरिणामित्वात्।
तत्प्रभो:, उस
प्रभु की खोज
करनी है। वह
तुम्हारे
भीतर छिपा है,
तुम्हें
उसकी खोज करनी
पड़ेगो। तुम
जैसे भी हो, वह उपस्थित
है। जो कुछ भी
तुम करते हो, उसे करने
वाला वही है।
जो कुछ भी तुम
देखते हो, उसका
द्रष्टा वही
है। यहां तक
कि तुम जो कुछ
भी चाह करते
हो, यह वही
है जिसने चाहा
है। प्याज की
भांति, परत
दर परत, तुमको
अपने आप को
छीलना पड़ेगा।
किंतु अपने आप
को
क्रोधपूर्वक
नहीं बल्कि प्रेमपूर्वक
छीलो। स्वयं
को बहुत सावधानी
पूर्वक, सजगता
से छीलो,
क्योंकि
जिसे तुम छील रहे
हो वही परमात्मा
है। बहुत प्रार्थना
पूर्वक छीलो।
आत्म—पीड़क मत बन
जाओ। अपने आपके
लिए पीड़ा निर्मित
मत करो। पीड़ा
का आनंद मत लो।
यदि तुमने पीड़ा
में आनंद आरंभ
कर दिया और
तुम स्व—पीड़क
बन गए, तो तुम
आत्मघातीयात्रा
पर जा रहे हो।
तुम अपने आप
को नष्ट कर
लोगे।
व्यक्ति को
बहुत, बहुत
ही चौकन्ना, सावधान और
सृजनात्मक
रहना पड़ता है।
तुम एक पवित्र
भूमि पर चल
रहे हो।
जब
मूसा पर्वत
शिखर पर पहुंच
गए जहां उनकी
भेंट
परमात्मा से
हुई,
तो
उन्होंने
क्या देखा? उन्होंने एक
झाड़ी, एक
ज्योति, एक
अग्नि को देखा
और उन्होंने
एक आवाज सुनी :
अपने जूते उतार
दो, क्योंकि
जिस पर तुम चल
रहे हो यह
पवित्र भूमि
है। लेकिन तुम
जहां भी चल
रहे हो तुम
पवित्र भूमि
पर ही चल रहे
हो। जब तुम
अपने शरीर का
स्पर्श करते
हो तब तुम किसी
पवित्र वस्तु
का स्पर्श कर
रहे हो। जब
तुम कुछ खा रहे
हो तुम कुछ
पवित्र ही खा
रहे हो, अन्नम्
ब्रह्म:, भोजन
परमात्मा है।
जब तुम किसी
को प्रेम करते
हो, तुम
दिव्यता को
प्रेम कर रहे
हो, क्योंकि
वही लाखों
रूपों में
चारों ओर है।
यह वही है जो
अभिव्यक्त हो
रहा है।
इसे
सदैव अपने मन
में रखना, जिससे
कोई
विक्षिप्तता
तुम पर हावी न
हो सके।
संतुलित और
प्रशांत बने
रहो, बस
मध्य के मार्ग
पर चलते रहो
और तुम कभी
भटकोगे नहीं,
तुम कभी
असंतुलित, एकांगी
नहीं होओगे।
योग
संतुलन है।
योग को संतुलन
बनना पड़ता है, क्योंकि
यह परम एकता
का, जो कुछ
है उस सभी की, चरम
लयबद्धता का
मार्ग बनने जा
रहा है।
आज
इतना ही।
सत्य वचन है ओशो के
जवाब देंहटाएंAdbhut osho yog ka sahi mayne aj samajh aaye
जवाब देंहटाएंBahut sundar ,baki ke pravachan bhi share kare patanjali par , dhanyawad 🙏❤️
जवाब देंहटाएंOsho naman
जवाब देंहटाएंBeloved Bagwan
Osho naman
जवाब देंहटाएंBeloved Bagwan
Pranam savikar karlan
Harare aas pass he to ho
मैं ओशो के चित्र का पुजारी नहीं हूँ। उनकी आत्मा और उनके वक्तव्यों का पुजारी हूँ। शराब के ब्राण्ड या लेबल से सरोकार कम रखता हूँ, कितनी टेस्टी है और कितना सुकून देती है, बस इसी विषय का कायल हूँ।
जवाब देंहटाएंअद्भुत।नमन ओशो
जवाब देंहटाएं