कुल पेज दृश्य

गुरुवार, 31 मार्च 2016

संतो मगन भया मन मेरा--(प्रवचन--10)

ठहर जाना पा लेना है—(प्रवचन—दसवां)
दिनांक 21 मई 1979;  श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्न सार:
1—आपके हिंदी प्रवचनों में भी सत्तर—अस्सी प्रतिशत वे पाश्चात्य संन्यासी होते हैं जिन्हें हिंदी—भाषा बिल्कुल नहीं आती। आप फिर भी उसी तत्परता, सहजता और गहनता से बोलते हैं मानो पूरी मंडली भाषा समझ रही हो। क्या आपको इस बात से कोई अड़चन नहीं आती?
2— इस सदी का मनुष्य अधार्मिक क्यों हो गया है?
3—बहुत दिनों से बड़ी बेचैन और गुमसुम हो रही हूँ। पहले की तरह खुलकर हँस भी नहीं सकती हूँ। दो दिन के दर्शन से अपूर्व आनंदित हुई। लेकिन चार रात से सो नहीं पाती और ऐसी हालत बहुत दिनों से है।
तुझे क्या सुनाऊँ मैं दिलरुबा. ....
4—परमात्मा से वियोग क्यों?



पहला प्रश्न : आपके हिंदी प्रवचनों में भी सत्तर—अस्सी प्रतिशत वे पाश्चात्य संन्यासी होते हैं जिन्हें हिंदी—भाषा बिल्कुल नहीं आती। आश्चर्य है कि आप फिर भी उसी तत्परता, सहजता और गहनता से बोलते हैं, मानो कि पूरी मंडली भाषा समझ रही हो। क्या आपको इस बात से कोई अड़चन नहीं आती? यह कैसे संभव है, यह समझाने की अनुकंपा करें।
चिन्मय! भाषा की यहाँ बात ही नहीं है, भाव की बात है। फिर भाषा जो समझते हैं, वे भी कहाँ समझ पाते हैं? भाषा समझने से ही तो नहीं समझ लोगे। जो कहा जा रहा है, वह भाषा में आबद्ध भला हो, भाषा में सीमित नहीं है। भाषा के द्वारा संवादित किया जा रहा हो, लेकिन भाषा का ही नहीं है। भाव से जुड़ो तो ही समझ में आएगा।
अनेक को यह प्रश्न उठता होगा मन में कि जो हिंदी—भाषा नहीं समझ रहे हैं, वे कैसे समझ रहे होंगे? मैं जो बोल रहा हूँ उसे वे नहीं समझेंगे, लेकिन मैं जो हूँ उसे वे समझेंगे। और वही मूल्यवान है। जो कहा जा रहा है, वह नहीं, वरन जहाँ से कहा जा रहा है, वह। मेरी चुप्पी मूल्यवान है। उसी चुप्पी से शब्द निर्मित हो रहे हैं। शब्द तो ऐसे हैं जैसे झील पर तरंगें। तरंगें ही थोड़े झील का सब कुछ हैं। झील बिना तरंगों के भी हो सकती है। वे मेरी झील को देख रहे हैं, उन्हें तरंगें दिखायी नहीं पड़ रही हैं, वही असली बात भी है।
और कई बार तो ऐसा हो जाता है, उल्टा ही हो जाता है, जो भाषा समझ पाता है, वह भाषा समझने के कारण ही भाव नहीं समझ पाता। भाषा में अटक जाता है। मैंने कोई बात कही, तुमने भाषा समझी, तो तुम ऊहापोह में पड़े, सोच—विचार में उलझे, अर्थ निकालने लगे। अर्थ तो तुम्हारे होंगे। शब्द मेरे, अर्थ की कलमें तुम अपनी लगाओगे—अनर्थ हो जाएगा। बात सुनी—समझी, तुम्हारे भीतर न—मालूम कितनी स्मृतियाँ जग गयीं। तुमने जो पढ़ा है, सुना है, गुना है, वह सब आंदोलित हो उठा। तुम्हारे भीतर शोरगुल मच गया। तुम्हारे भीतर एक बाजार खड़ा हो गया। उस बाजार में मेरी आवाज खो जाएगी। तुम्हारे भीतर विवाद उठेंगे, तर्क उठेंगे, संदेह उठेंगे, क्योंकि भाषा समझ में आ रही है। तो बहुत बार यह भी हो जाता है कि भाषा समझ में न आती हो और अगर प्रेम हो, तो न तो विवाद पैदा होगा, न विचार पैदा होंगे, न ऊहापोह जन्मेगा, सन्नाटा छा जाएगा; शब्द का व्यवधान नहीं होगा, निःशब्द में सेतु बन जाएगा।
जो हिंदी—भाषा नहीं समझ रहे हैं, वे यहाँ अकारण नहीं बैठे हैं, बड़ी समझ से बैठे हैं, उतनी समझ हिंदी समझने वालों की नहीं है। क्योंकि जब मैं अंग्रेजी में बोलता हूँ, हिंदी समझने वाले विदा हो जाते हैं। फिर उनका पता नहीं चलता। वे कहते हैं—हमें अंग्रेजी समझ में नहीं आती। तुम ज़रा अपना अंधापन समझो। जिनको हिंदी समझ में नहीं आ रही है, वे बैठे सुन रहे हैं, रोज, यह भी तुम देखते हो, लेकिन जब मैं अंग्रेजी में बोलता हूँ और तुम्हें अंग्रेजी समझ में नहीं आती, तुम विदा हो जाते हो। तुम भी कभी बैठकर देखो! भाषा के बिना मुझसे जुड़कर देखो। और शायद फिर भाषा से जुड़ना उतना महत्त्वपूर्ण नहीं रह जाएगा। क्योंकि यहाँ जो बात हो रही है, वह बात की बात नहीं है। बात तो केवल बहाना है, बात तो तुम्हारे मन को दिया गया खिलौना है। असली बात तो कुछ और है, बात तो कुछ और है।
असली बात तो एक अवस्था का निर्माण है—एक क्षेत्र का, एक आकाश का—जहाँ तुम मेरे साथ तरंगित हो सको। जहाँ तुम मेरे साथ लयबद्ध हो सको, जहाँ तुम्हारी साँस मेरी साँस के साथ चले। जहाँ तुम मेरे साथ ऐसे जुड़ जाओ कि मेरी ऑंखों से देख सको और कानों से सुन सको। जहाँ तुम मेरे साथ उस अंतर्यात्रा पर निकल पड़ो जहाँ परमात्मा का निवास है। यहाँ कोई दर्शनशास्त्र नहीं समझाया जा रहा है। यह कोई स्कूल नहीं है, कोई विद्यालय नहीं है, यह तो ध्यानपीठ है। यहाँ ज्ञान नहीं दिया जा रहा है, ध्यान का रस लगाया जा रहा है, ध्यान का पागलपन दिया जा रहा है, ध्यान की मस्ती बाँटी जा रही है। लेना—देना क्या है भाषा से? मैंने जो कहा वह समझा कि नहीं समझा, उसका मूल्य कितना है? मेरे पास बैठे दो घड़ी, मेरे साथ डोले दो घड़ी, मेरे साथ एकरस हो लिए दो घड़ी; मेरे भाव में नहाए, मेरे रंग में रंगे, मेरे गीत में डोले, मेरी तरन्नुम से बँधे, बस हो गया। उन घड़ी—दो घड़ियों में कुछ हो जाएगा जो मूल्यवान है। उन दो घड़ियों में तुम संसार के पार चलोगे, अतीत चलोगे, अतिक्रमण करोगे। उन घड़ी—दो—घड़ी में भावातीत अवस्था बन जाएगी।
तो जिनको भाषा समझ में नहीं आ रही है, तो उन पर दया मत खाना, तुम यह मत सोचना कि बेचारे, ये बैठे हैं और इनको कुछ समझ में नहीं आ रहा है! बैठे हैं, उसी बैठने में कुछ हो रहा है। चुप हैं, सुनायी कुछ भी नहीं पड़ रहा है, उसी न सुनायी पड़ने में कुछ हो रहा है। भीतर कोई तरंगें नहीं चल रही हैं, सब निस्तरंग है, सब ठहरा हुआ है, ऊर्जा का ऊर्जा के साथ नृत्य हो रहा है, भाव भाव से गठबंधित हो रहा है, एक रास चल रहा है, एक रहस्य का आदान—प्रदान हो रहा है।
बोलना पड़ता है मुझे, क्योंकि तुम बिना बोले न समझोगे। लेकिन चेष्टा तो यही है धीरे—धीरे तुम बिना बोले समझो। इस दुनिया से जाने के पहले यही चाहूँगा कि मेरे हजारों संन्यासी मेरे साथ चुप बैठे हों और समझें, बोलना न पड़े। वही गंतव्य है। जब तुम आओगे, जब तुम चुपचाप मेरे पास बैठोगे, और बात होने लगेगी, और बात हो जाएगी, और न कुछ कहना पड़ेगा, और न कुछ सुनना पड़ेगा, न कोई वक्ता होगा, न कोई श्रोता होगा, तब तुम जिन ऊँचाइयों में उठोगे और जिन गहराइयों में उतरोगे, उन्हें शब्दों में कहने का काई उपाय नहीं है। शब्द बड़े सतही हैं। उन गहराइयों को नहीं छू पाते। वह शब्दों की सामर्थ्य नहीं, उनका स्वभाव नहीं। शब्द तो बाजारू हैं, बाजार के लिए हैं, कामचलाऊ हैं। मंदिर में शब्द की क्या जरूरत?—मस्ती की जरूरत है। मधुशाला में शब्द की क्या जरूरत?—मस्ती की जरूरत है।
तुमने पूछा—"आपके हिंदी प्रवचनों में सत्तर—अस्सी प्रतिशत वे पाश्चात्य संन्यासी होते हैं जिन्हें हिंदी—भाषा बिल्कुल नहीं आती। आश्चर्य है कि फिर भी आप उसी तत्परता, सहजता और गहनता से बोलते हैं।' मैं यहाँ कोई बोलनेवाला नहीं हूँ—यहाँ कोई वक्ता नहीं है। वक्ता हो तो श्रोता पर बँधा होता है। वक्ता हो तो श्रोता को देखकर बोलता है। वक्ता हो तो श्रोता के पीछे चलता है। वक्ता हो तो ध्यान रखना पड़ता है कि श्रोता जिस बात से राजी हो, वही कहो। जिस बात से नाराजी हो, वह मत कहो। इसीलिए तो राजनीतिज्ञ के वक्तव्य कभी भी सुनिश्चित नहीं होते—हो नहीं सकते। उसे श्रोताओं को देखकर रोज अपने वक्तव्य बदल लेने पड़ते हैं। या उसे ऐसे वक्तव्य देने पड़ते हैं जिनके अनेक अर्थ हो सकें; जब जैसा अर्थ निकालना हो निकाला जा सके। राजनीतिक वक्ता खयाल रखकर बोल रहा है—श्रोता कितनी दूर तक मेरे साथ जाने को राजी है? उसे श्रोता को कहीं ले जाना है, श्रोता का कुछ उपयोग करना है। श्रोता साधन है, उसकी सीढ़ियाँ बनानी हैं, उसके कंधों पर पैर रखने हैं, उसके सिरों का उपयोग करना है; उसे यात्रा करनी है श्रोता के ऊपर। तो श्रोता की मर्जी का ध्यान रखना पड़ेगा।
मैं कोई वक्ता नहीं हूँ। मैं तुम्हारी सीढ़ी नहीं बनाना चाहता। सच तो यह है कि मैं तुम्हारे लिए सीढ़ी बनना चाहता हूँ। चाहता हूँ कि तुम मेरा उपयोग कर लो। मेरी सीढ़ियों पर पैर रखो, मेरे कंधों पर चढ़ो और उन ऊँचाइयों को देख लो जो शायद तुम अपने ही पैरों पर खड़े रहे तो न देख सकोगे। तो मुझे तुम्हें राजी करने को कुछ नहीं बोलना है। इसलिए तो मुझसे लोग इतने नाराज हैं। जब राजी करने को न बोलूँगा तो नाराज होंगे। उन्हें धक्के लगते हैं; उन्हें बेचैनी होती है, उन्हें परेशानी होती है। मैं यहाँ तुम्हें राजी करने को नहीं हूँ। मुझे तुमसे कोई मत नहीं लेना है। मुझे तुम्हारी भीड़ अनुयायियों की तरह इकट्ठी नहीं करनी है। मेरा तुमसे कोई न्यस्त स्वार्थ नहीं है। मुझे कुछ मिला है, वह जरूर बाँट देना चाहता हूँ। जो भी मौजूद होगा, उसीको बाँटँगा। अगर मनुष्य न होंगे तो पशु—पक्षियों को बाँटँगा। अगर पशु—पक्षी न होंगे तो पौधों—पहाड़ों को बाँटँगा
तुमने सुना है, महावीर जब पहली बार बोले तो कोई मनुष्य नहीं था सुनने को। अभी मनुष्यों को तो खबर ही नहीं लगी थी कि महावीर को ज्ञान उपलब्ध हो गया। जब पहली बार बोले तो कोई भी नहीं था सुनने को। कहानियाँ कहती हैं कि देवता थे। देवता का मतलब होता है, कोई भी नहीं था। शून्य में बोले होंगे। कहानी लिखने वालों को अड़चन हुई होगी कि इसमें तो महावीर पागल मालूम पड़ेंगे—कि कोई सुननेवाला नहीं, क्योंकि दिखायी कोई भी नहीं पड़ता, किससे बोलते हैं—कहानी लिखनेवालों को बेचैनी हुई, तो उन्होंने देवता कल्पित किए कि देवताओं से बोले। देवता थे—अदृश्य देवता खड़े थे। ...... तुम यहाँ नहीं होओगे तो मुझे भी अदृश्य देवताओं से बोलना पड़ेगा।
तुम चकित होओगे जानकर कि फिर धीरे—धीरे आदमी भी आए—आदमियों तक खबर पहुँची—फिर धीरे—धीरे आदमी ही नहीं आए, पशु—पक्षी भी आए—उन तक भी खबर पहुँची। अब महावीर पशु—पक्षियों से क्या बोलते होंगे? क्या तुम सोचते हो पशु—पक्षी महावीर जो बोलते होंगे उसे समझते होंगे? नहीं, लेकिन महावीर को तो समझते थे। जो बोला, वह नहीं समझा गया होगा, लेकिन जो महावीर का अस्तित्व था, जो धड़कन थी, जो रक्स, जो नृत्य जन्मा था महावीर में, वह तो समझा होगा। शायद आदमियों से ज्यादा बेहतर समझा होगा। महावीर के भीतर जो नृत्य हो रहा था, वह मोरों ने ज्यादा बेहतर समझा होगा तुम्हारी बजाय, क्योंकि तुम तो नाच भूल गए हो। मोर को अभी भी नाच आता है......सुनते हो इस कोयल की आवाज को? महावीर ने जो गीत गाया, कोयलें ज्यादा समझी होंगी, अभी उनका स्वर नहीं खो गया है। अभी स्वर जीवित है। आदमी का तो स्वर खो गया है। आदमी तो गीत गाना भूल गया है। आदमी तो सिर्फ रोना जानता है, गाना जानता कहाँ है? हाँ, कभी—कभी गाने में भी रोता है, यह दूसरी बात है, मगर गाता कहाँ है? आनंद कहाँ है? उत्सव कहाँ है?
शायद पौधे ज्यादा समझे होंगे, क्योंकि पौधों में अब भी फूल खिलते हैं, अब भी रंग आता है, गंध आती है। पौधे अब भी आकाश में उठना जानते हैं। अभी भी तारों से बातें करते हैं। हवाओं में नाचते हैं, सूरज से मुलाकात लेते हैं। महावीर के शब्द तो नहीं समझे होंगे पौधे, पशु—पक्षी, महावीर को तो समझे होंगे! और मुझे लगता है आदमियों के बजाय महावीर को पौधे और पशु ज्यादा समझे। कम—से—कम उन्होंने महावीर को पत्थर तो नहीं मारे! कम से कम उन्होंने महावीर के कानों में कीलें तो नहीं ठोंके। उन्होंने महावीर को एक गाँव से दूसरे गाँव तो नहीं खदेड़ा। वे महावीर पर नाराज तो नहीं हो गए कि तुम नग्न क्यों हो? पौधे, पशु—पक्षी नग्न ही हैं। उन्हें तो आश्चर्य इस पर होता है कि आदमी ने कपड़े क्यों पहने हैं?
इस प्रकृति में सिर्फ आदमी ही कपड़े पहने हुए हैं। आदमी ही अपने को छिपा रहा है। आदमी ही अपने से भयभीत है। आदमी ही अपनी देह से डरा है। आदमी को ही अपनी देह के प्रति हीनता की ग्रंथि पैदा हो गयी कि कुछ पाप है देह में, कुछ बुराई है देह में, छिपाओ। पशु—पक्षी, पौधे अब भी तो नग्न हैं। आदमी भर कुछ रुग्ण है। इंग्लैंड में ऐसी महिलाएँ हैं जो अपने कुत्तों को भी कपड़े पहनाती हैं। इन महिलाओं का दिमाग खराब है। और इन महिलाओं के मन में जरूर कोई गहन रोग है।
तुम जानकर यह हैरान होओगे, विक्टोरिया के जमाने में कुर्सियों के पैर भी नंगे नहीं छोड़े जाते थे, क्योंकि पैर हैं न वे! कुर्सियों के पैर, उन पर कपड़ा चढ़ाया जाता था। क्योंकि पैर नंगे नहीं होने चाहिए। अब जो कुर्सियों के पैरों पर कपड़ा चढ़ाते होंगे, इनकी बेहूदगी देखते हो? इनका नंगापन देखते हो? इनका नंगापन देखते हो? इनकी भीतरी दरिद्रता देखते हो? इनका रोग देखते हो! इनकी कामुकता देखते हो? इनकी कामग्रसित मनोग्रंथियाँ देखते हो? ये बीमार हैं, ये विक्षिप्त हैं।
महावीर को गाँव—गाँव से भगाया गया। क्योंकि वे नग्न थे। पौधों की तरह, पशुओं की तरह, पक्षियों की तरह।
जीसस से किसी ने पूछा है, आपका मूल संदेश क्या है? जीसस ने कहा—फूलों से पूछ लो; पक्षियों से पूछ लो; मछलियों से पूछ लो, और वे तुम्हें मेरा असली संदेश बता देंगी। क्या कह रहे हैं जीसस? जीसस कह रहे हैं—निसर्ग मेरा संदेश है। तुम फिर स्वाभाविक हो जाओ, यही मेरा संदेश है।
महावीर को ज्यादा प्यार किया पौधों ने, पशुओं ने, पक्षियों ने। कुछ आश्चर्य नहीं कि वे सुनने आते हों। सुनने आते हों कहना ठीक नहीं है, क्योंकि भाषा तो उनकी समझ में नहीं आएगी; लेकिन महावीर को देख तो सकते हैं, महावीर की तरंग को तो छू सकते हैं। सारी दुनिया में पुलिस कुत्तों का उपयोग करती है अपराधियों को पकड़ने के लिए, हत्यारों को पकड़ने के लिए। अगर कुत्तों के पास इतना बोध है कि हत्यारों को पहचान लें, हत्यारे की गंध को पहचान लें, तो क्या कुत्तों के पास इतना बोध नहीं हो सकता कि महावीर की गंध को पहचान लें, ज्ञानी की गंध को पहचान लें? यह तो उसी तर्क का हिस्सा है।
अब वैज्ञानिक कहते हैं कि जब कोई लकड़हारा कुल्हाड़ी उठाकर वृक्ष के पास वृक्ष को काटने आता है, तो वृक्ष उदास हो जाता है। इसको अब जाँचने के उपाय हैं। अब यंत्र बन गए हैं। जैसे तुम्हारी छाती पर डाक्टर स्टेथॅस्कोप लगाकर जाँच लेता है। या कार्डियोग्राफ। तुम्हारे भीतर कुछ गड़बड़ हो गयी होती है, तो कार्डियोग्राफ पकड़ लेता है। वैसे यंत्र बन गए हैं जो हृदय की धक—धक को वृक्ष की पहचानने लगे हैं। वृक्ष की संवेदना को पकड़ते हैं। ग्राफ बन जाता है मशीन पर कि वृक्ष कैसा अनुभव कर रहा है—प्रसन्न है, दुःखी है, उदास है? हत्यारे को आते देखकर, लकड़हारे को आते देखकर वृक्ष बेचैन हो जाता है, दुःखी हो जाता है। और भी जानकर तुम आश्चर्यचकित होओगे कि एक वृक्ष काटा जाता है, तो उसके आसपास के सारे वृक्ष उदास और दुःखी हो जाते हैं। और यही वृक्ष जब माली आता है, पानी सींचने, तो बड़े आनंदविभोर हो जाते हैं। और यह भी आश्चर्य की बात है कि अभी कुल्हाड़ी चली नहीं है, सिर्फ कुल्हाड़ी को लेकर हत्यारा आ रहा है, दूर है अभी और वृक्ष उदास होने लगते हैं, बेचैन होने लगते हैं। अभी कुल्हाड़ी चली होती तो भी ठीक था, कुल्हाड़ी मारी होती वृक्ष को तो भी ठीक था, हम समझ सकते थे कि वृक्ष को चोट लगेगी। लेकिन दूर से आता कुल्हाड़ी लिए हुए आदमी! और यह भी आश्चर्य की बात है, अगर वह सिर्फ कुल्हाड़ी लिए निकल रहा है और काटने का कोई इरादा नहीं है, तो कोई वृक्ष परेशान नहीं होता। काटने का इरादा है तो ही परेशान होता है। मतलब इरादे भी पकड़े जा रहे हैं।
आदमी ही संवेदनशील नहीं है, पशु—पक्षी भी हैं। शायद ज्यादा हैं। भाषा से ही थोड़े समझा जाता है, और भी समझने के उपाय हैं, और भी गहनतर उपाय हैं। भाषा तो बहुत ही कामचलाऊ उपाय है।
सद्गुरु के पास होना हो तो भाषा तो निम्नतम उपाय है। मजबूरी है। क्योंकि तुम्हारे पास और कुछ समझने को नहीं है, इसलिए इसका उपयोग करना पड़ता है।
मैंने सुना है, एक सेनापति ने एक बिल्कुल मूढ़ सेक्रेटरी अपने पास रख छोड़ा था। जड़ बुद्धि। सम्राट ने उससे पूछा कि और सब तो ठीक है, तुमने अपने स्टाफ पर बुद्धिमान लोग रखे हैं, मगर यह एक बुद्धू क्यों रखा है? यह बिल्कुल जड़ है। उस जनरल ने कहा—इसके रखने का कारण है। जब भी मैं कोई आज्ञा निकालता हूँ सैनिकों के लिए, तो पहले इसको पढ़ने को देता हूँ। अगर यह समझ लेता है, तो मैं समझता हूँ कि दुनिया में सभी लोग समझ लेंगे। अगर यह नहीं समझता, तो फिर से मैं उसको लिखवाता हूँ। इसका एक बड़ा उपयोग है, यह बड़ा कीमती आदमी है, इसको मैं अपने साथ ही रखता हूँ। जो बात यह समझ लेता है, वह दुनिया में सभी समझ लेंगे
भाषा में जो समझता है, वह आखिरी बात है। सबसे नीचे तल की बात है। जो तुम भाषा के द्वारा समझ लेते हो, वह तो कोई भी समझ लेगा जो भाषा समझता है, उसका कोई बहुत मूल्य नहीं है। भाषा से शून्य को समझो; शून्य की मात्रा बढ़ती जाए, भाषा की मात्रा कम होती जाए, तो तुम ऊपर उठने लगे।
यहाँ जो हिंदी नहीं समझ रहे हैं, और शांत बैठे हैं, वे भी कुछ समझ रहे हैं। वे तरंगित हो रहे हैं। वे तरंगों को समझ रहे हैं। वे संवेदित हो रहे हैं। उन्होंने अपना हृदय मेरे प्रति खोल रखा है। वे आंदोलित हो रहे हैं भीतर। एक भाव का रिश्ता, एक नाता बन रहा है।
मैं तुमसे कहूँगा, जब मैं अंग्रेजी में बोलता हूँ तब भाग मत जाया करो। तुम भी बैठकर सुना करो। तुम भी यह लाभ लो! ऐसा समझो कि जब हिंदी में बोलता हूँ तो उनके लिए बोलता हूँ जो हिंदी नहीं समझते और जब अंग्रेजी में बोलता हूँ तो उनके लिए बोलता हूँ जो अंग्रेजी नहीं समझते। ऐसा समझो। तब तुम दोहरे लाभ ले सकोगे—भाषा से जो समझ में आ सकता है, वह भाषा से समझ में आ जाएगा और जो भाषा से समझ में नहीं आता, वह भी जब तुम मौन मेरे पास बैठोगे तब समझ आ जाएगा।
रही मेरी बोलने की बात, तो यहाँ कोई बोलनेवाला नहीं है। नहीं तो अड़चन होती। मैं भी सोचता कि इतने लोग यहाँ बैठे हैं जो समझते नहीं, तो मैं बोल किससे रहा हूँ? फूल खिलता है एकांत में, इसकी थोड़े ही चिंता होती है कि कितने लोग राह से गुजरेंगे जो मेरी सुगंध से आंदोलित होंगे? कितने लोग प्रभावित होंगे? कितने लोग आकर धन्यवाद करेंगे? एकांत में खिला फूल भी अपनी गंध को बिखेरता है। ऐसे ही मैं गंध को बिखेर रहा हूँ। तुम हो या नहीं; यह निमित्त की बात है। तुम हो, ठीक, तुम नहीं हो, ठीक, जो मुझसे प्रगट हो रहा है, होता रहेगा। ऐसा मत समझो कि तुम हो, इसलिए बोल रहा हूँ ऐसा समझो कि मैं बोल रहा हूँ, इसलिए तुम यहाँ हो। तुम्हारे कारण मैं यहाँ नहीं हूँ, मेरे कारण तुम यहाँ हो। तब दृष्टि बदल जाएगी।
फिर मैं तो जो करता हूँ, जो होता है, वह पूरा ही हो सकता है। तुम समझो कि न समझो, इससे प्रयोजन नहीं है। लेकिन मैं बोलूँ, तो पूरी ही तत्परता से बोल सकता हूँ—अन्यथा बोलूँगा ही नहीं। जिस दिन मुझे लगेगा आज तत्परता से नहीं बोल सकता हूँ, उस दिन बोलूँगा ही नहीं। जो काम समग्र तत्परता से नहीं हो सकता वह मैं करुंगा ही नहीं। अपने पूरे प्राण उँडेल सकता हूँ किसी बात में, तो ही करूँगा। नहीं तो नहीं करूँगा। क्योंकि फिर बात झूठी हो जाती है। जिसमें त्वरा नहीं है, तीव्रता नहीं है, सहजता नहीं है, समग्रता नहीं है, वह बात अधूरी हो जाती है, झूठी हो जाती है। जब हँस सको पूरा तो हँसना और जब रो सको पूरा तो रोना। आधे—आधे काम मत करना।
तुम्हारी चिंता भी मेरी समझ में आती है। चिन्मय ने पूछा है; तो कारण स्पष्ट है। चिन्मय को हैरानी होगी, अगर इतने लोग न समझते हों और बोलना पड़े तो हैरानी होगी कि किससे बोलना है, यहाँ कोई समझने वाला नहीं है? समझाने की आतुरता। सुननेवाला वहाँ बैठा हो ताली बजाने को, तो बोलने में मजा आ जाता है। लेकिन वह मजा उधार है। सुननेवाले पर निर्भर है, बासा है। एक और बोलना है, जो अंतर्भाव से जगता है। तुम्हारे भीतर है इतना ज्यादा कि बाँटना है, पात्र मिले कि अपात्र मिले।
एक तिब्बती कहानी मैंने सुनी है। एक फकीर बड़ा ख्यातिनाम, दूर—दूर से लोग उसके दर्शन को आते हैं और वे सभी एक प्रार्थना करते रहे और वर्षों तक एक ही प्रार्थना करते रहे कि आप शिष्य स्वीकार क्यों नहीं करते? तो वह फकीर कहता था—कोई पात्र मिले तो स्वीकार करूँ। पात्र ही कोई नहीं दिखायी पड़ता। और उसने पात्र की ऐसी परिभाषा की थी कि अगर वैसी पात्रता का कोई व्यक्ति हो तो वह स्वयं ही गुरु हो जाएगा, वह किसी का शिष्य क्यों होगा? तो उसकी पात्रता की परिभाषा ही असंभव थी पूरा करना। न कोई पात्र मिलता था, न वह शिष्य बनाता था। सेवा—टहल के लिए एक आदमी उसके पास रहता था। वह भी शिष्य नहीं था। क्योंकि शिष्य तो वह बनाता ही नहीं था।
मरने के तीन दिन पहले एक दिन अचानक उसने ऑंख खोली सुबह और अपने उस आदमी को कहा जो उसकी सेवा—टहल करता था कि जा, पहाड़ से नीचे उतर और जो भी लोग शिष्य बनना चाहते हों, उन सबको ले आ। उसने पूछा—सबको! पात्रता का क्या होगा? उसने कहा—छोड़ पात्रता इत्यादि की बात, अब समय खोने को नहीं है। तू भाग! जो मिले, जो आने को राजी हो। उसको भरोसा नहीं आया, क्योंकि जिंदगी—भर बड़े—बड़े गुणी लोग आए थे, योग्य लोग आए थे, साधक आए थे, तपस्वी आए थे, वर्षों ध्यान किया था ऐसे लोग आए थे, चरित्रवान थे, शीलवान थे और इंकार कर दिए गए थे। क्योंकि वह बूढ़ा पात्रता की ऐसी शर्तें बताता था कि कोई भी पूरी नहीं कर पाता था।
गया गाँव में, डुंडी पीट दी की अब बूढ़ा गुरु किसी को भी शिष्य बनाने को तैयार है, जिसको भी आना हो! लोगों को यह भरोसा नहीं हुआ इस बात पर। बड़े—बड़े लौट आए थे खाली हाथ। मगर फिर कुछ लोग चल पड़े। उन्होंने कहा—चलो देखें, हर्ज क्या है, दर्शन ही हो जाएँगे! कोई भी चल पड़ा। एक आदमी बेकार था, नौकरी नहीं लगी थी, उसने सोचा—चलो, बैठे—बैठे यहीं क्या कर रहे हैं, चल पड़ो। एक की पत्नी मर गयी थी, वह वैसे ही उदास था, उसने कहा—चलो, मन ही बहल जाएगा। बाजार की छुट्टी थी आज, कुछ लोग खाली थे, उन्होंने कहा—हम भी चलते हैं। एक छोटा बच्चा भी साथ हो लिया। ऐसे कोई भी—एक तरह की भीड़—कोई पच्चीस एक आदमी पहुँच गए। भरोसा उनको किसी को भी नहीं था कि वह गुरु स्वीकार करेगा।
गुरु ने एक—एक को बुलाया, पूछा कि क्यों दीक्षा लेना चाहते हो? उनके उत्तर बड़े अजीब थे। एक ने कहा कि मेरी पत्नी मर गयी और मैं खाली बैठा था—सच तो यह है कि दीक्षा इत्यादि से मुझे कुछ लेना—देना नहीं है—मगर कोई भी व्यस्तता चाहिए। घाव गहरा है, किसी भी काम में उलझ जाऊँ। तभी यह आदमी डुंडी पीट रहा था कि गुरु शिष्य स्वीकर करने को राजी है, जिसको भी आना हो। तो मैंने सोचा—चलो, बैठे—ठाले यही क्या करते हैं? चलो, बैठे—ठाले यह भी क्या बुरा है? बैठे—ठाले अध्यात्म! चल पड़ा।
इसने पूछा—तू किसलिए आया है? उसने कहा कि मैं, नौकरी नहीं लगती। सोचा कि व्यर्थ बैठे रहने से तो राम—भजन ही ठीक है। शायद राम—भजन से ही नौकरी लग जाए! ऐसे लोग आ गए थे। किसी ने कहा—दुकान बंद है आज और किसी ने कुछ कहा। जो सेवा—टहल करता था, वह तो खड़ा देख रहा था, कि यह इस तरह के लोगों को कैसे शिष्य स्वीकार किया जाएगा? लेकिन गुरु ने सबको स्वीकार कर लिया।
वह जो आदमी सेवा—टहल करता था, वह चरणों में गिर पड़ा और उसने कहा—आप होश में हैं, आप क्या कर रहे हैं? बड़े—बड़े ज्ञानी, बड़े—बड़े ध्यानी लौटा दिए, और इस कचरे को! उस गुरु ने कहा, अब तू सच्ची बात समझ ले। तब मेरे पास देने को कुछ था ही नहीं। अपनी दीनता छिपाता था उनकी पात्रता की बात करके। उनकी पात्रता मैंने असंभव बना दी थी सिर्फ इसीलिए कि न होगा कोई पात्र, न मेरी दीनता पता चलेगी। मेरी सुराही खाली थी। इसलिए मैं कहता था—लाओ सोने के पात्र, हीरे—जवाहरात जड़े पात्र, तो ढालूँगा सुराही। मेरी सुराही खाली थी और यह दीनता मैं किसी को बताना नहीं चाहता था; इसलिए मैंने पात्रता का इतना शोरगुल मचा रखा था। न कोई पात्र होगा, न मेरी खाली सुराही का पता चलेगा। ढालने की नौबत ही न आएगी। आज मेरी सुराही भर गयी है, अब क्या पात्र और क्या अपात्र! मिट्टी का पात्र हो तो चलेगा। और नहीं जिनके पास कोई पात्र हो—कुल्हड़ से ही पीना हो, हाथ से ही पीना हो, तो भी चलेगा। हाथ भी जिनके न हों तो उनके मुँह में ही ढाल दूँगा, तो भी चलेगा। आज पिलाना है, आज मेरे पास है। खयाल रखना, सद्गुरु तुम्हारी पात्रता से नहीं देता है। सद्गुरु अपने भराव से देता है। उसके भीतर घटा है; करेगा क्या? मेघ सघन हुआ है, बरसेगा। दिया जला है, रोशनी बिखरेगी। कमल खिला है, सुगंध उठेगी। ऐसा ही सहज।
मैं तो जो भी करूँ, या जो भी हो, वह समग्रता से ही हो सकता है। तुम समझो, तुम न समझो; तुम पात्र हो, तुम अपात्र हो; इसका हिसाब तुम ही रखो। यह हिसाब मैं नहीं रखता हूँ।
मेरे पास लोग आ जाते हैं— आध्यात्मिक किस्म के लोग—वे कहते हैं—आप हर किसी को संन्यास दे देते हैं! पात्रता तो सोचिए! मैं कहता हूँ—परमात्मा हर किसी को जीवन दे देता है और पात्रता नहीं सोचता, मैं बीच में पात्रता सोचनेवाला कौन? अगर जीवन दिया जा सकता है अपात्रों को, तो संन्यास क्यों नहीं? अगर अपात्रों को परमात्मा जिलाए रखता है रोज—चोरों को भी, बेईमानों को भी—श्वास देता है, प्राण देता है, आत्मा देता है, तो संन्यास क्यों नहीं? जब परमात्मा ही हर किसी को देने को राजी है, तो मैं क्यों शर्तें लगाऊँ? जिसको लेना हो ले ले, जिसको न लेना हो न ले। हालाँकि यह सच है—केवल वे ही ले पाएँगे जो पात्र होंगे और वे वंचित रह जाएँगे जो अपात्र होंगे। क्योंकि देने से ही तुम्हें थोड़े मिल जाता है।
ज़रा सोचो फिर उस कहानी को। वह बूढ़ा देने को राजी, उसकी सुराही भर गयी। लेकिन क्या तुम सोचते हो वे सब लोग जो दीक्षा लेने आए थे, ले पाएँगे? दीक्षा के कृत्य से भला गुजर जाएँ, दीक्षा घट नहीं पाएगी। क्योंकि जब वे गुरु के चरणों में सिर झुकाएँगे तब भी वह आदमी सोच रहा होगा कि नौकरी लगती है कि नहीं, देखें? कि मेरी पत्नी तो मर गयी, अब मैं यह क्या कर रहा हँ? अच्छा तो यही होता कि जाकर दूसरी पत्नी की तलाश करता। यह मैं कहाँ के चक्कर में पड़ रहा हूँ, दूसरा सोच रहा होगा। तीसरा सोच रहा होगा कि अब जाने का वक्त आ गया, अब यहाँ कब तक बैठा रहूँ, अब दुकान खुलने का समय है, अब मुझे वापिस होना चाहिए, कि पत्नी घर राह देखती होगी, कि भोजन बन गया होगा, कि अब तो भूख भी लग गयी है; इस तरह की बातें सोच रहे होंगे वे लोग। और मधु ढाला जाएगा इस तरह की बातों में, पहुँचेगा कैसे? गुरु तो सभी को देता है, पात्र ले पाते हैं, अपात्र वंचित रह जाते हैं। वर्षा तो सभी पर होती है। प्यासे पी लेते हैं, जो प्यासे नहीं हैं, वे मुँह फेर कर खड़े हो जाते हैं।

दूसरा प्रश्न : इस सदी का मनुष्य अधार्मिक क्यों हो गया है?
किसने तुम्हें कहा? आदमी का अहंकार हमेशा इसी तरह सोचता रहा है कि पहले, पूर्वज, बाप—दादे बड़े धार्मिक थे; और अब सब अधर्म हो गया है। किन पूर्वजों की बात कर रहे हो! ज़रा शास्त्र तो उठाकर देखो, तुम ऐसा ही आदमी पाओगे, तुम हमेशा ऐसा ही आदमी पाओगे जैसा आदमी आज है। युधिष्ठिर को जुआ खेलते नहीं देखते? द्रोपदी को दाँव पर लगाया हुआ नहीं देखते? सीता चोरी जाती है, यह नहीं देखते? राम—रावण का युद्ध होता है, यह नहीं देखते? सब तरह की चालबाजियाँ, सब तरह की घातें, सब तरह की हिंसाएँ होती हैं, यह नहीं देखते? तुम सोचते हो आज का आदमी अधार्मिक है, पहले के आदमी धार्मिक थे? तो तुम्हारे पुराणों में कथाएँ किसकी हैं? और फिर बुद्ध—महावीर—कृष्ण और सारे तीर्थंकर, सारे पैगंबर और सारे अवतार लोगों को समझा क्या रहे थे?
बुद्ध चालीस साल तक एक ही बात समझाते रहे—चोरी मत करो, बेईमानी मत करो, झूठ मत बोलो, हिंसा मत करो, व्यभिचार मत करो; ये किसको समझा रहे थे? धार्मिक पुरुषों को? ये जिनको समझा रहे होंगे, वे लोग चोर होंगे, बेईमान होंगे, व्यभिचारी होंगे—नहीं तो बुद्ध पागल थे। अगर समझो कि सारे महापुरुष दुनिया के कहते हों कि भाई, पागलपन मत करो, तो एक बात जाहिर है कि वे पागलखाने में उपदेश दे रहे होंगे। किसको ये उपदेश दिए जा रहे थे? साफ जाहिर है, आदमी ऐसा ही था।
और अगर तुम मुझसे पूछो, तो मेरी अपनी दृष्टि कुछ और भी है। मेरी दृष्टि है कि आज का आदमी चाहे पुराने ढाँचे—ढर्रे में न बँधा हो, इसलिए अधार्मिक लगता हो, क्योंकि सत्यनारायण की कथा न करता हो, रविवार को चर्च न जाता हो, मंदिर के पुजारी के चरणों में न झुकता हो, रोज बाइबिल न पढ़ता हो, यह हो सकता है कि आज का आदमी यह काम न करता हो, लेकिन इससे कोई आदमी अधार्मिक नहीं हो जाता। चर्च जाने से अगर आदमी धार्मिक होता, तो चर्च न जाने से अधार्मिक हो जाता। हम चर्च जानेवालों को जानते हैं। वे धार्मिक नहीं हैं। और हम सत्यनारायण की कथा करवानेवालों को जानते हैं। उनका सत्य से कोई संबंध नहीं है और न नारायण से कोई संबंध है। हम यज्ञ—हवन करनेवाले लोगों को जानते हैं, उनके यज्ञ झूठे, उनके हवन झूठे। तीर्थयात्रा करनेवालों को हम जानते हैं, हज—यात्रा करनेवालों को हम जानते हैं—चारों तरफ तो ऐसे लोग भरे पड़े हैं, उनमें कौन—सा धर्म है? कौन—सी धर्म की गंध है? कौन—सा धर्म का प्रकाश उनके भीतर से प्रगट हो रहा है? कौन—सा दिया जला है? नहीं, ये बातें धार्मिक होने से इनका कोई संबंध नहीं है।
इसलिए जो नहीं मंदिर जाते हैं और नहीं तीर्थ जाते हैं, उनको अधार्मिक मत मान लेना। लेकिन पंडित—पुजारी उनको अधार्मिक कहेंगे, क्योंकि इन लोगों के कारण उनके व्यवसाय को नुकसान पहुँच रहा है। उनके लिए धार्मिक का अर्थ यह है, जो उनके चक्कर में है— वह धार्मिक। जो उनके शोषण को स्वीकार करता है, वह धार्मिक। जो उनके द्वारा पैदा की गयी दासता में बँधा रहता है, वह धार्मिक। जो उनसे मुक्त होना चाहता है, वह अधार्मिक।
और सच तो यह है कि धार्मिक व्यक्ति सदा मुक्त होना चाहता है। मोक्ष उसकी आकांक्षा है। वह सब चीजों से मुक्त होना चाहता है वह कोई बंधन नहीं मानना चाहता। वह बंधनों के पार जाना चाहता है। यही तो धर्म की अभीप्सा है, यही तो मुमुक्षा है—मोक्ष की आकांक्षा कि मैं सब बंधनों से मुक्त हो जाऊँ। जो सारे बंधनों से मुक्त होने चला है, वह पंडित—पुरोहितों के बनाए गए क्षुद्र—से बंधनों को अंगीकार करेगा? जो सब तरह से मुक्त होना चाहता है, वह क्रियाकांडों से भी मुक्त होगा। और तुम जिसको धार्मिक कहते हो, वह सिर्फ क्रियाकांडी है, उसको तुम धार्मिक कहते हो। किसी ने चुटैया बढ़ा रखी है—कैसा धार्मिक आदमी जा रहा है! अब चुटैया से धर्म का क्या लेना—देना? इतना सस्ता धर्म! कोई जनेऊ पहने हैं और धार्मिक हो गए! जिन्होंने तिलक लगा लिया है और धार्मिक हो गए! धार्मिक होने का संबंध इन बातों से नहीं हो सकता। धार्मिक होने का संबंध कुछ आंतरिक है। ध्यान जले, भीतर प्रीति उमगे, प्रार्थना का फूल खिले। और मैं तुमसे कहता हूँ, इस सदी का आदमी जितना ध्यान में और प्रार्थना में अंतर्यात्रा में उत्सुक है, कभी भी नहीं था। और मैं तुमसे यह भी कहना चाहता हूँ कि धर्म की परिभाषा हमारी इतनी ऊँची हो गयी है, इसलिए बहुत—से लोग अधार्मिक मालूम हो रहे हैं।
धर्म की परिभाषा ऊपर उठ गयी है। हमारा धर्म का मापदंड ऊपर उठ गया है। हमारी धर्म की कसौटी उठ गयी है। इसीलिए आदमी अधार्मिक मालूम हो रहा है। पुराने दिनों में धर्म की कसौटी बड़ी नीची थी। युधिष्ठिर को धर्मराज कहा। आज तुम किसी जुआरी को धर्मराज कह सकोगे? और जुआरी ऐसा—वैसा नहीं, पत्नी को भी दाँव पर लगा दिया। युधिष्ठिर आज हों तो तिहार जेल में होंगे। पत्नी को दाँव पर लगाओगे, कोई मजाक है! दुनिया सभ्य हो गयी है। नियम—कानून हैं कुछ। फिर तिहार जेल किसके लिए है?
युधिष्ठिर को काई धर्मराज कहेगा? किस आधार पर कहेगा? इन पाँच भाइयों ने अपनी पत्नी को बाँट लिया था। पत्नी कोई संपत्ति है जो पाँच भाई बाँट सकेंगे? फिर व्यभिचार क्या है? फिर पाप क्या है? स्त्री कोई वस्तु है कि बाँट लिया? स्त्री में आत्मा नहीं है? लेकिन पुराने धर्म की परिभाषा में स्त्री में आत्मा अंगीकार नहीं थी। स्त्री पदार्थ की तरह थी। स्त्री—धन कहते थे उसे। बाप जब बेटी का विवाह करता था तो कहता था—कन्यादान। दान! तुम कोई धन—पैसा दे रहे किसको? कन्यादान जैसा बेहूदा शब्द! स्त्री—धन जैसा बेहूदा शब्द! अपमानजनक। अधार्मिक।
चीन में ऐसा था कि कोई अपनी पत्नी को मार डाले, उस पर कोई मुकदमा नहीं चल सकता था। ऐसे ही है जैसे कि कोई अपने कुत्ते को मार डाले। इसमें मुकदमा क्या चलना? या कोई अपनी गाय को मार डाले, या अपने घोड़े को मार डाले, इसमें मुकदमा क्या चलना? अपना घोड़ा, मारें कि रखें। चीन में कोई कानून नहीं था; कोई अपनी पत्नी को मार डाले, मार सकता था। पत्नी में आत्मा अंगीकार नहीं की गयी थी। ये धार्मिक लोग थे? किस तरह के धार्मिक लोग!
नहीं, धर्म की परिभाषा बड़ी ओछी थी, बड़ी संकीर्ण थी, बड़ी साधारण थी। धर्म की परिभाषा विकसित हुई है। आदमी विकसित हुआ है, आदमी प्रौढ़ हुआ है। और यह बिल्कुल स्वाभाविक है कि जैसे—जैसे समय बढ़ा है, आदमी की समझ भी बढ़ी है। आज युधिष्ठिर को कोई धर्मराज नहीं कह सकेगा। आज धर्मराज होने के लिए युधिष्ठिर से काफी ऊपर जाना पड़ेगा। इसलिए बहुत—से लोग अधार्मिक मालूम हो रहे हैं। क्योंकि मापदंड ऊपर हो गया है और लोग उतने ऊपर नहीं उठ पा रहे हैं। मापदंड को नीचा कर लो, बहुत—से लोग धार्मिक मालूम पड़ने लगेंगे। धर्म का शोषण बहुत हुआ है। धर्म के नाम पर भी शोषण बहुत हुआ है। इससे भी लोग बेचैन हो गए हैं और परेशान हो गए हैं। आज की दुनिया में करीब—करीब जिनको तुम अधार्मिक कहते हो, वे धार्मिक लोग हैं अगर वे ईश्वर को भी इनकार करते हैं तो इसीलिए इनकार करते हैं कि ईश्वर के नाम से बहुत ज्यादा षडयंत्र, बहुत ज्यादा शोषण हो चुका है। अब यह नाम उपयोगी नहीं है। यह नाम विदा कर दिया जाना चाहिए।

इक जनम—जनम का रोगी अपना रोग दिखाने आया, दाता  
जनम—जनम दुःख पाया
दीन धरम की ओर से तेरी खोट मिटाने आया, दाता   
यह कैसा भेष बनाया
तेरी अंधी श्रद्धा ने क्या—क्या अंधेर मचाया, दाता
तुझको ध्यान न आया
क्या इस कारण ही मैंने तुझको भगवान बनाया, दाता  
क्या माँगा क्या पाया
मैं तेरी अनदेखी सूरत अपने ध्यान में लाऊँ
परबत काटके पत्थर चाटके अपना जी बहलाऊँ
आप बनाऊँ तेरी मूरत आप ही फूल चढ़ाऊँ
मैंने अपनी भूल से जुग—जुग तेरा ढोंग रचाया, दाता
अपना आप लुटाया
आज मैं तेरे ऊँचे शीशमहल को ढाने आया, दाता  
बात चुकाने आया
आदमी थक गया है। तुम्हारी ईश्वर की धारणा से थक गया है। तुम्हारे पाप—पुण्य की कल्पना से थक गया है। तुम्हारे पुनर्जन्म—कर्म के सिद्धांतों से थक गया है। क्योंकि उनके सबके पीछे अधर्म चला है। आदमी गरीब है, पूछो—क्यों? पिछले जन्म में पाप किए होंगे। यह गरीबी को छिपाने का आधार बन गया, यह ओट बन गयी। अच्छे कर्म करो। और अच्छे कर्म यानी क्या? वही सत्यनारायण की कथा करवाओ, तीर्थयात्रा करो, तीर्थ पर दान करो, ब्राह्मण को भोजन कराओ, ब्राह्मण देवता के चरणों में झुको—अच्छे कर्म करो। अगले जनम में सब लाभ होगा।
न पिछले का कुछ पता है न अगले का कुछ पता है। अगले—पिछले के हिसाब पर यह समझाया जा रहा है जो ऑंख के सामने है। आदमी गरीब है, तो कह रहे हैं कि उसके पिछले जन्मों का पाप। आदमी अमीर है, तो पिछले जन्मों का पुण्य। हालत बिल्कुल उल्टी है। पुण्यों से कहीं धन इकट्ठा हुआ है? पाप के बिना असंभव है धन इकट्ठा करना। क्योंकि धन इकट्ठा करने का अर्थ ही यह होता है कि किसी के पास से छिनेगा। किसी की जेब से जाएगा, तो तुम्हारी जेब में आएगा। कहीं से हटेगा तो तुम्हारे पास ढेर लगेगा। लेकिन लुटेरे और डाकू पुण्यात्मा समझे गए, क्योंकि उनके पास धन था। सीधे—सादे लोग पापी समझे गए, क्योंकि गरीब थे। आदमी थक गया इन बातों से। ये बातें झूठी थीं। और ये बातें धर्म की नहीं थीं, ए बातें पंडित—पुरोहितों का लंबा जाल था।
आज की दुनिया में जो लोग तुम्हें अधार्मिक मालूम पड़ते हैं, मेरी दृष्टि में वे ही धार्मिक हैं, क्योंकि वे इन सब चीजों को तोड़कर बाहर आ गए हैं। वे एक नया धर्म चाहते हैं, वे धर्म की नयी परिभाषा चाहते हैं, एक नया आकाश चाहते हैं। क्योंकि नया आकाश नहीं मिल रहा है, वे अपने को अधार्मिक घोषित करने को मजबूर हैं। मैं जो प्रयास यहाँ कर रहा हूँ, वह प्रयास यही है कि जो आज अधार्मिक होने को मजबूर है उसके लिए धार्मिक होने का नया आकाश मिल सके। नया द्वार मिल सके। उसके लिए नया मंदिर निर्मित हो सके। क्रियाकांड का नहीं अतीत के ऊपर निर्भर नहीं, नवोन्मेष हो धर्म का। एक नयी भाषा हो धर्म की। नया ढंग हो जो आज की भाषा बोले, इस सदी की समझ में आ सके। अब पुरानी बात चलेगी नहीं।

एक आवाज—खुदा देख रहा है सब कुछ
अपने खालिक की परिस्तिश के लिए झुक जाओ
आओ प्यासो तुम्हें दरिया से मिलेगी शबनम
उसके इल्ताफ से महरूम न हो रुक जाओ

खनखनाती हुई जेबों के रसीले नग्में
झूमकर जब भी समाअत पै बिखर जाते हैं
प्यास और भूख से लिथड़े हुए मरियल चहरे
सुर्खिएजरकी तमाजत से निखर जाते हैं

जिंदगी चीखती है—तुम मुझे रुसवा न करो
पेट कहता है कि ईधन तो बहरतौर मिले
रूह कहती है कि इंसान की तौहीन है यह
जिस्म कहता है, नहीं और मिले और मिले

जिंदगी पेट के शफ्फाक तकाजे लेकर
हाथ फैलाए कतारों में खड़ी रहती है
कोई नग्मा, कोई खुश्बू कोई जरकार चमक
इसी उम्मीद पै राहों में गड़ी रहती है

एक आवाज—मुकद्दर की यही है तक्सीम
सुबहे—नौ तुझको मिले, मुझको सियह रात मिले
गर खुदा है तो उसे यह न गवारा होगा
एक सोने में तुले एक को खैरात मिले

आज का आदमी यह सवाल उठा रहा है।

एक आवाज—मुकद्दर की यही है तक्सीम
अब तक यही समझाया गया है कि यह भाग्य का बँटवारा है कि एक होगा गरीब, एक होगा अमीर। यह भाग्य का बँटवारा है।

एक आवाज—मुकद्दर की यही है तक्सीम
सुबहे—नौ तुझको मिले......
एक को सुबह की प्रभात मिले और दूसरे को अंधेरी रात मिले ......

सुबहे—नौ तुझको मिले, मुझको सियह रात मिले
अगर खुदा है तो उसे यह न गवारा होगा
अब आदमी पूछ रहा है यह कि या तो यह पुराना ईश्वर ही झूठा था और था ही नहीं—कोई ईश्वर नहीं है—या नया ईश्वर तलाशो। नया ईश्वर गढ़ो

गर खुदा है तो उसे यह न गवारा होगा
एक सोने में तुले एक को खैरात मिले
एक भीख माँगे और एक सोने में तुले; यह ईश्वर को गवारा नहीं हो सकता, यह भाग्य का बँटवारा नहीं हो सकता। कहीं आदमी की चालबाजी है। और अब तक दो तरह के लोगों ने मिलकर आदमी को सताया है। एक है राजनीतिज्ञ और एक है पुरोहित। और उन दोनों का सदा साथ रहा है। उन दोनों ने एक—दूसरे को सहारा दिया। उन दोनों ने मिलकर आदमी को चूसा। आदमी थक गया है। भले आदमियों ने, समझदार आदमियों ने धर्म की तरफ पीठ फेर ली है। मगर इसके कारण मैं उनको अधार्मिक नहीं कहूँगा। मैं तो कहूँगा—वे ही सच्चे धार्मिक हैं, भविष्य उनका है। हम नया ईश्वर तरासेंगे, हम नया ईश्वर गढ़ेंगे। हम नए काबा बनाएँगे—अगर पुराने काबा पड़ गए झूठे तो पड़ जाने दो। हम नए अर्थ देंगे धर्म को, नयी भावभंगिमाएँ देंगे, नए रंग देंगे—हम फिर से प्राण फूँकेंगे धर्म में।
अगर लोग अधार्मिक हैं तो इसीलिए कि अब लाश की पूजा नहीं करना चाहते। तुम्हारे धर्म का मूल्य नहीं रह गया है, गंदगी रह गयी है धर्म के नाम पर और लाश पड़ी है। जाओ और देखो तुम्हारे तीर्थस्थानों में, सिवाय धर्म की लाश के और कुछ भी नहीं है। जिनके पास भी थोड़ी समझ है, वे लाश की पूजा नहीं करेंगे। जिंदगी का सबूत दो—धर्म जिंदगी का सबूत दे।
मैंने सुना है, हबीबुल्ला नामक एक सरदार एक बार तुर्की के राजा कादिर हसन के पास अपने घोड़े को बेचने के लिए गया। राजा कादिर ने पूछा—इसकी क्या कीमत है? सरदार ने जवाब दिया—सिर्फ पाँच हजार रुपए, श्रीमान! राजा ने कहा—मित्र, इसकी कीमत पाँच सौ रुपह से अधिक नहीं है। परंतु सरदार ने पाँच हजार रुपए से कम में घोड़ा बेचने के लिए स्वीकृति न दी। राजा को घोड़ा अच्छा लगा। और इसीलिए उसने पाँच हजार रुपए देकर घोड़ा खरीद भी लिया और साथ ही यह भी कहा कि दोस्त, तुम मुझे ठग रहे हो। सरदार कुछ नहीं बोला और चुपचाप रुपए अपनी जेब में रख लिए और इसके बाद वह पलटकर गजब की तेजी से उसी घोड़े पर चढ़ा और तीर की तरह राजमहल से बाहर निकल गया। राजा कादिर ने अपने बीस घुड़सवारों को सरदार हबीबुल्ला को पकड़ने के लिए भेजा। दिन—भर पीछा करने के बाद भी वह सरदार पकड़ा न जा सका।
दूसरे दिन वही सरदार राजा कादिर हसन के दरबार में हाजिर हुआ। उसने पाँच हजार रुपए राजा के सामने रख दिए और कहा कि आपको रुपए रखने हों रुपए रख लें, घोड़ा रखना हो घोड़ा रख लें।
सबूत दे दिया उसने घोड़े की ताकत का। और क्या सबूत चाहिए, तुम्हारे बीस घुड़सवार दिन—भर पीछा करके भी धूल ही खाते रहे, घोड़े के पास भी न पहुँच सके। और क्या सबूत चाहिए? राजा ने सिर झुका लिया। पाँच हजार रुपए घोड़े के दाम दिए और पाँच हजार पुरस्कार भी।
प्रमाण दो। अगर लोग अधार्मिक हैं तो सिर्फ इसीलिए अधार्मिक हैं कि तुम्हारे धर्म से प्राण निकल गए हैं, प्रमाण निकल गए हैं। तुम्हारा धर्म निस्तेज पड़ा है। तुम्हारा धर्म केवल बुद्धुओं को राजी कर पा रहा है। बुद्धिमानों को राजी नहीं कर पा रहा है। और खयाल रखना, जब भी धर्म सिर्फ बुद्धुओं को राजी कर पाता है, तो दो कौड़ी का हो जाता है। जब धर्म बुद्धिमानों को राजी करता है, तभी उसमें कुछ मूल्य होता है।
ज़रा लौटकर देखो, बुद्ध के पास जो लोग इकट्ठे हो गए थे, वे बुद्धू नहीं थे, वे उस सदी के सबसे श्रेष्ठतम लोग थे। बुद्धू तो अभी भी अपना वैदिक हवन—यज्ञ—याग कर रहे थे। बुद्ध के पास जो लोग इकट्ठे हो गए थे, वे बुद्धिमान थे, विचारशील लोग थे—तेजस्वी, प्रतिभाशाली। जब भी कोई नया धर्म जन्मता है, तब तेजस्वी लोग उसके करीब आते हैं—तेजस्वी ही आ सकते हैं, क्योंकि वे ही साहस कर सकते हैं। और हिम्मत और जुर्रत और जोखम उठा सकते हैं। और तेजस्वी ही उसके पास आ सकते हैं, क्योंकि वे ही तलाश भी कर सकते हैं! सत्य की उनकी खोज होती है। जो तृतीय कोटि के हैं, वे तो पुरानी लकीर के फकीर होते हैं।
फिर बुद्ध मर गए। फिर बुद्ध का धर्म भी धीरे—धीरे जड़ हो गया। फिर उसके आसपास भी बुद्धुओं की जमात इकट्ठी हो गयी। फिर शंकराचार्य ने एक आवाज दी। और शंकराचार्य के आसपास फिर समझदार लोगों की जमान इकट्ठी हो गई। फिर समझदार लोग, जागरूक हुए। फिर एक नयी परिभाषा आकाश से उतरी। फिर शंकर में एक नया आविर्भाव हुआ, धर्म की नयी प्रतिभा जगी। अब शंकर को गए भी हजार साल बीत गए। अब फिर बुद्धुओं की जमात शंकर के आसपास इकट्ठी है। पुरी के शंकराचार्य जैसे लोग अब शंकराचार्य हैं। जिनमें तुम लाख खोजो, बुद्धि न पा सकोगे। जिनमें प्रतिभा का कोई निखार नहीं पा सकोगे। जिनमें नियमबद्धता है और जड़ता है। जो लकीर के फकीर हैं। और जो लकीर से इंच—भर यहाँ—वहाँ नहीं हो सकते।
फिर नए धर्म की जरूरत है। सदा ही नए धर्म की जरूरत रहेगी। क्योंकि यह एक ऐतिहासिक पहलू है : जब भी नया धर्म पैदा होता है—नए धर्म का मतलब जब भी धर्म नया वेश लेता है, नयी सदी का वेश लेता है, नयी भाषा का परिधान पहनता है और उतरता है—तो बुद्धिमान लोग उसके आसपास इकट्ठे होते हैं। बुद्धू उसका विरोध करते हैं। और जब नया धर्म धीरे—धीरे पुराना पड़ जाता है, लकीरें बन जाती हैं, तो बुद्धिमान उससे हट जाते हैं। फिर बुद्धू उसमें सम्मिलित हो जाते हैं। जब कोई धर्म मरने के करीब होता है तो बुद्धुओं के हाथ में होता है और जब कोई धर्म जन्मने के करीब होता है तो बुद्धों के हाथ में होता है।
तुम्हें अगर दुनिया में आज अधर्म दिखायी पड़ रहा है, तो उसका एक ही कारण है—आज नए धर्म को संजीवन देनेवाले लोगों की कमी है। और पुराने धर्म में लोग अब नहीं जाएँगे। जाना भी नहीं चाहिए। पीछे लौटकर कोई जीवन की यात्रा होती भी नहीं है। यात्रा सदा आगे की तरफ है। यात्रा सदा भविष्य की ओर है।
उतारो नए वेद। गाओ नए उपनिषद। फिर उठने दो भगवद्गीता को। तो लोग धार्मिक होंगे। अब तुम कहो कि हमारी पुरानी भगवद्गीता, इसी को मानकर चलो; अब यह संभव नहीं है। अतीत को आदमी मानकर चलें भी क्यों? समय प्रवाहमान है। लेकिन पंडित—पुरोहित को तो रस अतीत में है, क्योंकि उसका न्यस्त स्वार्थ तो अतीत से है। भविष्य से उसको क्या लेना—देना?
अब यह खयाल में ले लेना, धर्म तो भविष्य से ही जीवित होता है। और पंडित—पुरोहित जीता है अतीत से, इसलिए पंडित—पुरोहित और धर्म का कभी कोई संबंध नहीं होता। मेरे देखे, पंडित—पुरोहित इस दुनिया में सबसे ज्यादा अधार्मिक लोग हैं। उनको एक ही काम है—उनकी दुकान चलती रहे। वे हर मौके से अपनी दुकान को ही उठा लेते हैं। कोई भी बहाना मिल जाए। अब दुनिया में अशांति है, वे कहेंगे—यज्ञ करो; शतचंडी यज्ञ। विश्वशांति के लिए! विश्वशांति से तुम्हारे यज्ञ का क्या लेना—देना? और कितने यज्ञ तुम कर चुके हो, विश्वशांति होती नहीं— विश्वशांति तो छोड़ो, तुम एकाध मुहल्ले में तो शांति करवा के दिखा दो! मुहल्ले को छोड़ो, वे जो पाँच सौ ब्राह्मण एक करोड़ रुपए को फूँकने के लिए इकट्ठे हो जाते हैं, उनमें ही भारी अशांति होती है, और झगड़ा मचा रहता है कि कौन कितना खींच ले। तुम जरा यज्ञ जब पूरा हो जाता है, तब ज़रा जाकर देखना—वहाँ कैसी खींचातान मचती है। किसको कितना मिल गया, कौन ने ज्यादा पा लिया, किसको कम मिला—सब उपद्रव वही—का—वही, तुम विश्वशांति करने चले थे! कोई भी बहाना खोज लेते हो। आदमी अपने ही व्यवसाय में लगा रहता है।
मैंने सुना है, अपातकाल से पहले तथा बाद की स्थिति पर लेखकों को एक—दूसरे पर आक्षेप करते देखकर एक श्रोता ने कहा— आप जब अधिक गर्मी में आएँ, हमारी कंपनी के जूते चलाएँ।
वह अपना जूता बेचने में लगे हैं! उनको इसकी कोई फिकर नहीं कि यहाँ क्या हो रहा है। आप जब अधिक गर्मी में आएँ, हमारी कंपनी के जूते चलाएँ। वह बेचारा जूता कंपनी का एजेंट होगा। वहाँ बैठा होगा, उसने देखा कि अब अवसर आ रहा है करीब, अब जूते चलेंगे, इस मौके को चूकना नहीं चाहिए।
तुम्हारे पंडित—पुरोहित हर मौके पर एक ही काम कर रहे हैं—किसी तरह पुराने को घसीटकर ले आओ। तुम बीमार हो, वे कहते हैं—चलो, यह मंत्र, यह पाठ, यह पूजा तुम्हें नौकरी नहीं मिलती, यह मंत्र, यह पाठ, यह पूजा। परिवार में प्रेम नहीं है, यह मंत्र, यह पाठ, यह पूजा। तुम लाओ कोई भी बीमारी, उनके पास उत्तर तैयार है। और मजा यह है कि उनके उत्तर से कुछ हल नहीं हुआ—कभी हल नहीं हुआ। न किसी को नौकरी मिली है, न किसी के घर में शांति हुई है, लेकिन जब तुम्हारे घर में शांति एक मंत्र से नहीं होती, तो तुम ऐसे मूढ़ हो कि तुम सोचते हो कि इस पंडित को ठीक मंत्र नहीं आता, किसी दूसरे पंडित के पास जाएँ। चले तुम दूसरे बाबा की तलाश में! वहाँ नहीं मिलेगा तो तीसरे बाबा की तलाश। खोजते रहते हो और ऐसे ही जिंदगी गँवा देते हो।
धर्म तुम्हारी जिंदगी की छोटी—मोटी समस्याओं का उत्तर नहीं है, धर्म तो तुम्हारे जीवन की समस्या का उत्तर है। इसे तुम ठीक से समझ लो। न तुम्हारी बीमारी का उत्तर है धर्म में, न तुम्हारे व्यवसाय की सफलता का उत्तर है धर्म में, न अदालत में जीतने की कोई व्यवस्था है धर्म में। अगर अदालत में जीतना हो तो बेहतर है अधार्मिक लोगों की सलाह लो, क्योंकि अदालतों में उनकी चलती है। और अगर व्यवसाय में सफल होना है तो धर्म इत्यादि की बात भूल जाओ, क्योंकि व्यवसाय अधर्म से चलता है। धर्म का संबंध ही इन सब बातों से नहीं है। धर्म तो उत्तर है पूरे जीवन का। यह क्षुद्र—क्षुद्र सस्याओं का उत्तर वहाँ नहीं है। तुम्हारा पूरा जीवन ही जब तुम्हें एक समस्या की भाँति लगे, जब तुम्हें लगे कि मैं क्यों हूँ, किसलिए हूँ, क्या हूँ, तभी धर्म का उत्तर तुम्हारे काम आ सकता है। और वह उत्तर तुम्हें पंडित—पुरोहित से नहीं मिलेगा, सद्गुरु से मिलेगा।
सद्गुरु का अर्थ होता है, जो किसी शास्त्र की गवाही से नहीं बोल रहा है। जो अपनी बात की खुद ही गवाही है। जो खुद ही साक्षी है। जो कह रहा है—मैंने देखा है। जो कहता है—मैंने जाना है। तुम आओ और मैं तुम्हारी ऑंखें भी खोलूँगा। तुम आओ मेरे पास और मेरे हृदय से झाँको; यह खिड़की तुम्हें परमात्मा का अनुभव कराएगी। लेकिन उस अनुभव से तुम यह मत सोचना कि अदालत का मुकदमा जीत जाओगे। जीत रहे होओगे तो हार जाओगे। बाजार में सफलता मिलेगी, यह मत सोचना। मिल रही होगी तो सब डाँवाँडोल हो जाएगी।
यह संसार चलता है झूठ से। परमात्मा अर्थात् सत्य।
सत्य का एक नया प्रतिमान जन्म रहा है, एक नया भाव जन्म रहा है। और जब तक वह नया भाव विस्तीर्ण नहीं हो जाता तुम्हें ऐसा लगेगा कि लोग अधार्मिक हो गए हैं। लोग अधार्मिक नहीं हो गए हैं, सिर्फ पुराना धर्म मर गया है। मौरे नए धर्म की जरूरत गहरी प्यास की तरह अनुभव की जा रही है।

तीसरा प्रश्न : बहुत दिनों से बड़ी बेचैन और गुमसुम हो रही हूँ। पहले की तरह खुलकर हँस भी नहीं सकती हूँ। तारीख पंद्रह और सोलह दोनों दिनों के दर्शन से अपूर्व आनंदित हुई। लेकिन चार रात से सो नहीं पाती और ऐसी हालत बहुत दिनों से है।

तुझे क्या सुनाऊँ मैं दिलरुबा
तेरे सामने मेरा हाल है
तेरी एक निगाह की बात है
मेरी जिंदगी का सवाल है
तुझे क्या सुनाऊँ मैं दिलरुबा......
वीणा, बेचैनी बढ़ेगी। और बढ़ेगी। क्योंकि जिसे तुमने अब तक चैन समझ रखा था, वह झूठा था। जिसको तुमने अब तक घर समझा था, सराय थी। जरा सोचो, एक आदमी सराय में ठहरा हो और उसे घर समझता हो, फिर एक दिन उसे याद आनी शुरू हो जाए कि यह सराय है, तो बेचैनी बढ़ेगी। कल तक सब ठीक चलता था, घर मानकर बैठे रहते थे, आज पता चला सराय है। फिर घर कहाँ है? अब घर को तलाशना होगा। या घर को बनाना होगा। सब निश्चिंत हो गया था, सराय को घर मान लिया था, कोई चिंता न रही, फिकर न रही, आश्वस्त हो गए थ, सब आश्वासन गया, सब सुरक्षा गयी। ऐसा ही हो रहा है। जो मेरे पास आए हैं, वे बेचैन होंगे। तुम्हारा चैन मैं तुमसे छीन लूँगा। तुम्हारा चैन झूठा। तुम्हारा चैन ही क्या है? कि सब ठीक चल रहा है। कुछ ठीक नहीं चल रहा है।
मैं विश्वविद्यालय में अध्यापक था बहुत वर्षों तक। सुबह मैं घूमने निकलता था, दो—चार विश्वविद्यालय के प्रोफेसर और भी थे जो घूमने निकलते थे। लेकिन धीरे—धीरे जिस रास्ते पर मैं घूमने जाता था, उस पर उन्होंने घूमने जाना बंद कर दिया। क्योंकि मैं उनसे पूछता—कहिए, कैसे हैं? वे कहते—सब ठीक। मैं उनसे पूछता कि कुछ भी ठीक नहीं है, मुझे बताइए—क्या ठीक? आपकी शकल तो कुछ और कह रही है कि कुछ भी ठीक नहीं है। यह शकल तो उदास है। वह तिलमिला जाते। सुबह—सुबह यह कौन सुनना चाहता है! और जब लोग कहते हैं सब ठीक है, तो उनका मतलब थोड़े ही होता है सब ठीक है, वे कह रहे हैं—बस, छोड़ो भी, जाने दो; सब ठीक है, आगे बात नहीं चलानी! आगे बात छेड़ना भी मत। मैं उनके साथ ही हो लेता कि यह तय ही हो जाए कि सब ठीक है कि नहीं है। वे मुझसे कन्नी काटने लगे। मैं जिस रास्ते पर घूमने जाता, उस पर उन्होंने जाना ही बंद कर दिया। मेरा रास्ता एकदम सन्नाटा हो गया, मैंने कहा—यह भी अच्छा हुआ!
सुकरात से लोग नाराज थे यूनान में। नाराजगी का एक कारण यही था कि तुम कुछ भी कहो और सुकरात तुम्हें फिर पीछा नहीं छोड़ेगा। तुमने ऐसी औपचारिक बात कही और वह तुम्हारा पीछा पकड़ लेगा, बीच बाजार में हाथ पकड़कर रोक लेगा, वह कहेगा अब इसे सिद्ध करो।
तुम भी जानते हो, दुनिया जानती है कि यहाँ कुछ भी ठीक नहीं है, मगर मानकर चल रहे हैं। एक मनौती की दुनिया बना ली है।
वीणा, मनौती की दुनिया टूटती है तो बेचैनी होनी शुरू होती है। कल तक तेरा घर था, पति था, बच्चे थे, अब कुछ भी नहीं। बेचैनी न होगी तो क्या होगी? कल तक सब ठीक चल रहा था, एक सपना था, मैंने तुझे झकझोरा और जगा दिया, अब तू ऑंखें बंद करके कोशिश कर रही है कि सपना फिर जम जाए—कोई सपना दुबारा थोड़े ही जम सकता है, उखड़ गया सो उखड़ गया। तुमने कभी कोशिश की? आधे सपने में उठ आए, फिर ऑंख बंद कर ली अब पूरा तो देख लें कम—से—कम—फिर वह पूरा नहीं होता। वह गया तो गया। सपने को तोड़कर फिर पूरा नहीं किया जा सकता।
बेचैनी तो बढ़ेगी। यह अच्छा लक्षण है। कठिन लगेगा, घाव की तरह लगेगा, छाती में छुरी की तरह चुभेगा—और तू ठीक ही कहती है : तेरी एक निगाह की बात है, मेरी जिंदगी का सवाल है। मुझे भी पता है। उसी निगाह ने तो सब गड़बड़ की है। उसी निगाह ने तो बेचैनी पैदा कर दी। उसी निगाह की तो तू शिकार हो गयी। मगर यह शुभ हुआ है। जो आज बेचैनी है, वह कल असली चैन में ले जाएगी।
एक झूठा चैन है, एक असली चैन है। एक सराय को घर मानना है और फिर एक घर को पा लेना है। यह झूठे चैन में जिंदगी ही व्यर्थ जाती है। यह तो छिन गयी बात। अब लौटने का कोई उपाय नहीं। जब एक दफे जान लिया कि यह सराय है, अब तुम लाख उपाय करो, खूब सजाओ दीवालों को, बंदनवार लटकाओ, व्यवस्था जमाओ, नया फर्नीचर लाओ, मगर एक बार पता चल गया कि यह सराय है, अब चैन नहीं होगा—चैन नहीं हो सकता। यह जिंदगी सराय है।
सूफी फकीर हुआ—इब्राहीम। सम्राट था, अपने महल में सोया था, रात देखा—छप्पर पर कोई चल रहा है। उसने पूछा—कौन है, भाई? ऊपर छप्पर पर क्या कर रहा है? सम्राट वैसे ही घबड़ाया हुआ आदमी होता है। छप्पर पर कौन चढ़ आया? क्या कर रहा है? कोई दुश्मन तो नहीं आ गया? खपरे उठाकर अंदर तो नहीं कूद पड़ेगा? उस ऊपर वाले आदमी ने कहा—तुम शांति से सोए रहो, मेरा ऊँट खो गया है, मैं उसको खोज रहा हूँ। इब्राहीम तो हैरान हो गया कि ऊँट खो गया है, छप्पर पर खोज रहे हो, राजमहल की! तुम्हारा ऊँट छप्पर पर कहाँ जाएगा? उठा। सिपाहियों को कहा कि पकड़ो इस आदमी को। या तो यह पागल है—और खतरनाक हो सकता है। लेकिन वह आदमी पकड़ा नहीं जा सका। वह निकल भागा।
दूसरे दिन इब्राहीम बड़ा उदास था। सिंहासन पर बैठा था, मगर उदास था। बार—बार उसे याद आने लगी—यह आदमी कौन था? रात छप्पर पर चढ़ा कैसे? पहरा इतना है! फिर निकल भी भागा। और उत्तर जो उसने दिया, ऊँट खोज रहा हूँ! इससे दो बातें हो लेतीं तो हल हो जाता। रात—भर सो भी नहीं सका, इसी में पड़ा रहा सोच में और तभी उसने देखा कि द्वारपाल से कोई आदमी हुज्जत कर रहा है।
एक आदमी दरवाजे पर खड़ा कह रहा था द्वारपाल से—मुझे रुकने दो, मुझे इस धर्मशाला में रुकने दो। मैं रुक कर रहूँगा। द्वारपाल कह रहा था—तुम पागल तो नहीं हो, होश में हो? यह धर्मशाला नहीं है, यह सम्राट का निवासस्थान है, यह सम्राट का खुद का निजी घर है। और वह आदमी कह रहा था—छोड़ो बकवास, मुझे पक्का पता है—यह धर्मशाला है, सराय है। सम्राट ने भीतर से आवाज सुनी, यह आवाज पहचानी मालूम हुई, तत्क्षण उसे खयाल आया यह वही आवाज है जो रात छप्पर पर कह रहा था आदमी। वही कड़क आवाज में, वही विशिष्टता। उसने कहा—इस आदमी को भीतर लाओ, भगाओ मत। वह आदमी भीतर लाया गया—एक मस्त फकीर था।
उस फकीर से सम्राट ने कहा—यह हुज्जत करनी शोभा देती है? तुम जानते हो भलीभाँति यह सम्राट का महल है। मुझे देखते हो? यह मेरा सिंहासन देखते हो? यह मेरा दरबार देखते हो? यह धर्मशाला नहीं है। और उस फकीर ने कहा—मैं फिर कहता हूँ कि यह धर्मशाला है। और मैं इसमें रुकूँगा। उसने इतने बल से कहा कि सम्राट भी कँप गया भीतर। उससे पूछा—तुम किस प्रमाण से कहते हो कि धर्मशाला है? उस फकीर ने कहा—मैं पहले भी आया हूँ तब यहाँ एक दूसरा आदमी बैठा था सिंहासन पर। और वह भी यही कहता था यह मेरा घर है। अब वह आदमी कहाँ है? सम्राट ने कहा—अब मैं समझा, वह मेरे पिता थे, वह स्वर्गीय हो गए। और उस फकीर ने कहा—उसके पहले भी मैं यहाँ आया था, तब एक तीसरा आदमी बैठा था, एक बुङ्ढा यहाँ था, वह भी यही कह रहा था कि मेरा घर है, वह कहाँ है? सम्राट ने कहा—तुम फिजूल की बकवास में पड़े हो, वे मेरे दादा थे। उस फकीर ने कहा—जब इतने लोग यहाँ रहते हैं और अपना घर बताते हैं और चले जाते हैं, कोई भी रह नहीं पाता, यह क्या खाक घर है! तुम अगली बार मुझे मिलोगे? पक्का वायदा करते हो कि जब मैं दुबारा आऊँगा, तुम यहाँ रहोगे?हाथ—पैर कँप गए होंगे, पसीना आ गया होगा, झुरझुरी फैल गयी होगी इब्राहीम के हृदय में। बात तो सच थी। अगले दिन का भरोसा नहीं है। और इतने लोग इस महल में रह चुके और सभी ने इसको घर समझा और सभी जा चुके—घर होता तो रहते, सराय ही है। कोई दो दिन ठहरता, कोई दो साल ठहरता है, कोई ज्यादा ठहर जाता है, मगर है तो सराय। इब्राहीम उतरकर नीचे खड़ा हो गया, उस फकीर के चरणों में गिर पड़ा और कहा कि तुम रुको, यह सराय ही है, मैं चला। उसी क्षण इब्राहीम ने महल छोड़ दिया।
ऐसा ही कुछ हो रहा है, वीणा! बेचैनी तो होगी। तेरे घर को मैंने सराय बता दिया। चलते वक्त सम्राट ने इतना ही पूछा था—एक बात और बता दें, वह रात का सवाल, नहीं तो मैं जिंदगी—भर उसी में उलझा रहूँगा। यह तो ठीक हो गया, यह सिद्ध हो गया, यह सराय ही है, तू मजे से ठहर। वह रात जो तू ऊँट खोजते निकला था मेरे छप्पर पर, वह क्या मामला था? उस फकीर ने कहा—वह ऐसा ही मामला था, वह तुझे सजग करने की चेष्टा थी, कि जैसे महलों के छप्परों पर ऊँट नहीं खोते, ऐसे ही संसार में आनंद नहीं खोया है। और जैसे ऊँटों को पाने के लिए छप्परों पर जाना मूढ़ता है, पागलपन है, वैसे ही आनंद को खोजने अपने से बाहर जाना मूढ़ता है, पागलपन है। सोने के सिंहासनों पर बैठ जाने से आनंद नहीं मिलता। आनंद वहाँ खोया नहीं है। आनंद कहीं और खोया है! जैसे ऊँट छप्पर पर नहीं खोते, जैसे यह असंभव है, ऐसे ही आनंद भी सोने के सिंहासनों पर बैठकर मिल नहीं जाता। यह भी उतना ही असंभव है। यही कहने को मैंने तुझसे रात का उपाय किया था। तू उस समय नहीं चौंका, तो मुझे फिर आना पड़ा। अब यह सराय की बात लेकर आना पड़ा।
तो वीणा, तुझे दिखायी पड़ना शुरू हो गया है कि सराय सराय है। इसलिए बेचैनी है। "बहुत दिनों से बड़ी बेचैन और गुमसुम हो रही हूँ'। और गुमसुम भी हो ही जाएगी। जब घर सराय हो जाए, अपने अपने न मालूम पड़ें, पराए पराए न मालूम पड़ें, गुमसुम न होओगे तो करोगे क्या? एकदम सन्नाटा छा जाएगा। पुराना सब अस्त—व्यस्त हो गया। अब पुरानी कोई बात सार्थक नहीं मालूम होती, संगत नहीं मालूम होती। एक चुप्पी आ जाएगी। "पहले की तरह खुलकर हँस भी नहीं सकती हूँ'। वह हँसी सब झूठी थी। अब कैसे हँसोगी? वह हँसी झूठी थी, वह हँसी तो सिर्फ ऑंसुओं को छिपाने का उपाय थी।
फेड्रिक नीत्शे ने कहा है......किसी मित्र ने उससे पूछा कि तुम हमेशा हँसते हो, बात क्या है? तुम इतने प्रसन्न क्यों हो? उसने कहा—मत पूछो। यह बात पूछो मत। असल में मैं प्रसन्न आदमी नहीं हूँ—वह था भी नहीं प्रसन्न आदमी—उसने कहा मैं बहुत दुःखी आदमी हूँ, लेकिन मैं हँसता रहता हूँ। अगर मैं न हँसूँ, तो मुझे डर है कि मैं रोने लगूँगा। हँसकर रोने को छिपा लेता हूँ।
तुम्हारी हँसी में तुम्हारे ऑंसुओं की खनक होती है, भनक होती है। मैंने तुम्हें हँसते देखा है, मैंने वीणा को हँसते देखा है, वह हँसी झूठी थी। वह हँसी ऊपर—ऊपर थी। एक छिपाव था उसमें। उसमें इतना ही कहना था—अब रोने से क्या सार है? फायदा क्या है; कौन सुनेगा? कौन समझेगा? नाहक रोकर और अपने को दुःखी क्यों करना है? उलझा लो अपने को, लगालो अपने को किसी काम में। लोग मनोरंजन के साधन खोजते रहते हैं। चलो सिनेमा हो आओ! दो घड़ी अपने को भूल जाएँगे। चलो उपन्यास पढ़ लो। कि चलो रेडियो, कि चलो संगीत, कि चलो क्लब, कहीं भी अपने को उलझा लो। कहीं चलो, चार लोग बैठेंगे, हँसेगे, गपशप करेंगे, थोड़ी चिंता कम हो जाएगी। वे सब हँसियाँ झूठी हैं।
अब तो असली रोना पैदा होगा। और असली रोने के बाद असली हँसी है। नकली हँसी गयी, ऊपर के आवरण गए, अब ऑंसू बहेंगे। और उन ऑंसुओं के बाद ऑंखें स्वच्छ हो जाएँगी—ऑंख ही नहीं, ऑंसू हृदय को भी स्वच्छ कर जाते हैं—फिर एक हँसी आएगी, बुद्धों की हँसी, एक आनंद का भाव, एक मुस्कान जो तुम्हारे रोएँरोएँ पर फैल जाएगी। जो तुम सोओ तो भी मौजूद रहेगी। जो जिंदगी में भी साथ होगी, मौत में भी साथ होगी। जो तुम्हारा स्वभाव होगी। इसके पहले कि वह हँसी आए, झूठी हँसी तो जाएगी।
असत्य को असत्य की भाँति जान लेना सत्य को जानने का एकमात्र उपाय है। असार को असार की भाँति पहचान लेना सार की पहचान की तरफ पहला कदम है।
"पहले की तरह खुलकर हँस भी नहीं सकती हूँ। तारीख पंद्रह और सोलह दोनों दिनों के दर्शन से अपूर्व आनंदित हुई हूँ। लेकिन चार रात से सो नहीं पाती और ऐसी हालत बहुत दिनों से है'। मेरे पास आओगी, मेरे पास बैठोगी, तो कुछ—कुछ तुम्हें तुम्हारे भविष्य की झलक मिलेगी, वही "दर्शन' है। कुछ—कुछ जैसा तुम्हारे भीतर होना चाहिए, उसका थोड़ा आभास होगा—जैसे दूर से आती हुई संगीत की आवाज सुनायी पड़ी हो। जितने मेरे करीब आओगे, उतना तुम्हारा भविष्य तुम्हारे करीब आ रहा है। मेरे भीतर जो हो गया है, वह तुम्हारे भीतर होना है।
बुद्ध ने कहा है, अपने एक शिष्य को, कि तू चिंतित न हो, तू दुःखी मत हो, तू परेशान मत हो, क्योंकि मैं भी तेरे ही जैसा चिंतित था, तेरे ही जैसा दुःखी था, तेरे ही जैसा परेशान था; एक दिन था मैं तेरे जैसा था, एक दिन होगा कि तू मेरे जैसा हो जाएगा। क्योंकि हम दोनों स्वभावतः एक—जैसे हैं। अब मैं आनंदित हूँ, अब मैं प्रसन्न हूँ, तू ज़रा मेरे करीब आ, गौर से मुझे देख, यह तेरा भविष्य है। तू मेरा अतीत है, मैं तेरा भविष्य हूँ। वीणा, यही मैं तुझसे कहता हूँ। तू मेरा अतीत है, मैं तेरा भविष्य हूँ। यही तो सारे गुरुओं ने अपने शिष्यों से कहा है। सत्संग का और अर्थ क्या होता है? इतना ही अर्थ होता है कि गुरु के दर्पण में अपने भविष्य की छाया को देख लेना। आनंद होगा, रसविभोर हो उठोगी
और कहा कि "चार दिन से सो नहीं पाती' पुरानी नींद भी गयी, पुराने सपने भी गए। नींद की भी गुणवत्ता बदलेगी—जल्दी ही बदलेगी—एक नए ढंग की नींद आनी शुरू होगी। एक ऐसी नींद जिसमें आदमी सोया भी होता है और जागा भी होता है, एक ऐसी नींद जिसमें शरीर सोया होता है और प्राण जागे होते हैं, और भीतर चेतना का दिया जलता ही रहता है। पुरानी नींद तो गयी। और अब कोशिश भी मत करना उसको लौटाने की। लौटायी भी नहीं जा सकती। मैं उसे लौटने भी नहीं दूँगा। अड़चन होगी, कठिनाई होगी—नींद न आए रात—भर तो लगेगा कुछ खाली—खाली हो गया। घबड़ाना मत। जल्दी ही एक नयी नींद इसका स्थान लेगी। पुराने का स्थान खाली करने दो, नया मेहमान आता ही होगा। घर खाली हो जाए पुराने से तो नया आ जाए। नयी नींद आएगी अब। योगियों ने उसको श्वान—निद्रा कहा है। जैसे कुत्ता सोता है और जागा भी रहता है—ज़रा—सी खनक हो जाए और खड़ा हो जाता है। ज़रा—सी आवाज हो जाए और ऑंख खोल देता है।
कृष्ण ने कहा है—जब सब सोते हैं, तब भी योगी जागता है। "या निशा सर्वभूतानाम् तस्याम् जागर्ति संयमी'। क्या कहा है? इसका कोई मतलब यह थोड़े ही है कि योगी बैठा रहता है ऑंखें खोले अपना छप्पर देखता रहता है! ऑंख तो उसकी भी बंद होती है, देह तो उसकी भी सो जाती है, लेकिन कुछ है भीतर जो नहीं सोता। कुछ है भीतर जो जागा रहता है—चैतन्य जागा रहता है। अभी हालत ऐसी है कि तुम राह पर चलते हो, बाजार में काम करते हो, दुकान पर बैठते हो, सब करते हो और सोए हुए हो। अभी तुम जागे हो नाममात्र को। वस्तुतः सोए हो। योगी सोता है नाममात्र को, वस्तुतः जागा होता है। अभी तुम्हारा दिन भी रात है, तब तुम्हारी रात भी दिन हो जाती है। जल्दी ही वैसी घड़ी भी आएगी। और जो प्रतीक्षा करते हैं, जो धीरज से प्रतीक्षा करते हैं, उनकी झोली निश्चित अपूर्व अनुभवों से भर दी जाती है।

तुझे क्या सुनाऊँ मैं दिलरुबा

तेरे सामने मेरा हाल है

तेरी एक निगाह की बात है

मेरी जिंदगी का सवाल है

तुझे क्या सुनाऊँ मैं दिलरुबा......
मुझे पता है। मुझे खयाल में है। जो मुझसे जुड़े हैं, उनमें से एक—एक का मुझे पता है—कौन कहाँ है? कौन के भीतर क्या हो रहा है, कैसा हो रहा है? जिस दिन मैंने तुम्हें संन्यास दिया, उस दिन से यह मेरा उत्तरदायित्व हो गया कि जीवन में कि मृत्यु में, सब तरफ, सब जगह तुम्हें साथ दूँ। तुम्हारी तैयारी—भर होनी चाहिए साथ लेने की। मेरे हाथ, कितने ही दूर तुम होओ, तुम्हारे पास पहुँच जाएँगे।

आखिरी प्रश्न : परमात्मा से वियोग क्यों?
नुष्य की तरफ से ही है। परमात्मा की तरफ से ज़रा भी नहीं। विस्मरण है, वियोग नहीं। वियोग हो जाए तो फिर तो योग हो न सकेगा—फिर कैसे होगा योग? फिर कहाँ खोजेंगे उसे? फिर उसका पता—ठिकाना भी तो मालूम नहीं। उसका नाम—धाम भी तो मालूम नहीं। किस दिशा पर जाओगे? फिर तो सब तरफ अंधेरा होगा; किस दीए को लेकर खोजोगे? किसको खोजोगे? और मिल भी जाएगा रास्ते में तो कैसे पहचानोगे? क्या प्रत्यभिज्ञा होगी? नहीं, वियोग नहीं हुआ है। वियोग हो गया तो फिर योग हो ही नहीं सकता।
योग हो सकता है इसीलिए कि वियोग हुआ नहीं, सिर्फ विस्मरण हुआ है। परमात्मा से तुम अभी भी जुड़े हो, इस क्षण भी जुड़े हो—उतने ही जितने पहले जुड़े थे, उतने ही जितने आगे जुड़े रहोगे। तुम परमात्मा में उतने ही हो, जितना मैं हूँ। तुम परमात्मा में उतने ही हो, जितने कृष्ण हैं, क्राइस्ट हैं, बुद्ध हैं। परमात्मा में कम और ज्यादा होने का उपाय नहीं है। परमात्मा में होकर ही हमारा जीवन है। हमारी श्वास—श्वास उसकी ही है। और हमारी धड़कन—धड़कन उसकी है। लेकिन हम भूल गए हैं। किसी को याद आ गयी है, किसी को याद भूल गयी है।
मछली सागर में है। जिस मछली को याद आ गयी कि यही सागर है, वह बुद्ध हो गयी। और जिस मछली को याद नहीं आ रही कि यही सागर है और पूछती फिरती है कि सागर कहाँ है? और......ठीक ही पूछती है। क्योंकि सागर में ही पैदा हुई, सागर में ही बड़ी हुई तो सागर का पता कैसे चले? सोच—विचार करती है, ऑंख बंद कर लेती है, योगासन साधती है—सागर कहाँ है? गुरुजनों से पूछती है, दार्शनिक—चिंतकों के पास जाती है—सागर कहाँ है? और उत्तर हजार मिलते हैं। मगर वे सब उत्तर व्यर्थ हैं। क्योंकि सागर यहीं है। सागर यही है। मछली सागर में है।
कबीर ने कहा है न कि मुझे बड़ी हँसी आयी यह जानकर कि मछली सागर में प्यासी! "मोहे आवै बहुत, हाँसी, मछली सागर में प्यासी'। यही हमारी दशा है।
तुम पूछते हो—परमात्मा से वियोग क्यों है? नहीं, है ही नहीं वियोग; विस्मरण है तुम बस भूल गए हो। और भूलने का कारण यही है कि परमात्मा चौबीस घंटे उपलब्ध है, अहर्निश उपलब्ध है, सतत् उपलबध है। जो सतत् उपलब्ध हो जाता है, वह हमें भूल जाता है। तुम्हें अपनी श्वास की याद आती है? सतत् उपलब्ध है। कोई अड़चन होती है तो याद आती है। सर्दी—जुकाम हो गया, तो याद आती है श्वास की। नहीं तो याद नहीं आती। तुमने खयाल किया, सिर में दर्द होता है तो सिर की याद आती है। नहीं तो सिर की कहीं याद आती है?
संस्कृत में शब्द है—वेदना। उसके दो अर्थ होते हैं—एक दुःख और एक ज्ञान। वेदना उसी सूत्र से आया है, जिससे वेद। उसका एक अर्थ होता है—ज्ञान और एक अर्थ होता है—दुःख। दुःख और ज्ञान एक ही शब्द के अर्थ? दुःख के कारण ही ज्ञान होता है। और परमात्मा ने तुम्हें कभी दुःख नहीं दिया, इसलिए उसका ज्ञान नहीं हो रहा है। सुख—ही—सुख दिया है। उसकी तरफ से सुख की ही धारा बहती रही है। उसने तुम्हें दुःख नहीं दिया, इसलिए उसका ज्ञान नहीं हो रहा है।
और जितने दुःख तुमने दिए हैं अपने को, वे तुमने ही दिए हैं। अपने ही दुःखों के कारण तुम उससे दूर मालूम पड़ रहे हो। अपने ही चक्कर तुमने खड़े कर लिए हैं। तुमने खूब शोरगुल मचा रखा है अपने चारों तरफ, तुमने खूब धुऑं उठा रखा है अपने चारों तरफ—विचार का, वासना का, क्रोध का, काम का—इतना धुऑं उठा रखा है कि दिखायी नहीं पड़ रहा है परमात्मा। और परमात्मा ही तुम्हें चारों तरफ से घेरे हुए है—बाहर भी वही, भीतर भी वही।
परमात्मा को खोजने मत निकल जाना। परमात्मा को खोजने निकले कि चूके। जागो, होश से भरो, यहीं पा लो, अभी पा लो। कल देखा नहीं रज्जब ने कहा—"तत छन परसन होत ही'। परस होते ही, एक क्षण में यह क्रांति घट जाती है। परमात्मा को पाने में समय की यात्रा नहीं करनी होती है। एक क्षण में यह क्रांति घट जाती है। तत्क्षण। इसी क्षण। न पड़ो विचार में, इसी क्षण न पड़ो ऊहापोह में, इसी क्षण बस मौजूद रह जाओ—शांत, स्थिर—यह पक्षियों की आवाजें हों, ये सूरज की किरणें, यह उपस्थिति, और तुम चुप, मौन, सन्नाटे में। फिर कबीर तुम पर नहीं हँसेगे। फिर कबीर देख लेंगे कि कम—से—कम इस मछली को तो सागर मिल गया।
और जिस दिन कबीर तुम पर न हँसे, उस दिन ही तुम हँसने के हकदार हो। जब तक कबीर तुम पर हँसते हैं, तब तक तुम सिर्फ रोने के हकदार हो, हँसने के नहीं हो।
परमात्मा से कोई वियोग न कभी हुआ है, न हो सकता है। परमात्मा तुम्हारा स्वभाव है। जागो और अपने अधिकार को माँग लो। तुम्हारा स्वरूपसिद्ध अधिकार है परमात्मा। एक क्षण को भी न तुमने खोया है, न तुम खो सकते हो। चाहो तो भी नहीं खो सकते हो। पापी—से—पापी आदमी में परमात्मा उतना ही है जितना पुण्यात्मा में। उसकी नजर में कुछ भेद नहीं है। वियोग ज़रा भी नहीं है, इसीलिए योग हो सकता है।
इस भाव से भरो। मेरी ऑंख में झाँको। यही भाव तुम में उँडेलना चाहता हूँ। यही भाव तुममें भरना चाहता हूँ। मगर तुम इधर—उधर देखते हो, तुम ऑंखें बचाते हो; तुम कहते हो, हमें तो परमात्मा को खोजना है। मैं कहता हूँ—अभी है, यहीं है, मिला हुआ है। तुम कहते हो—यह कैसे हो सकता है? यह तो असंभव दिखता है। मैं तो खोजूँगा। बस उसी खोज से तुम वंचित रह जाते हो। वही खोज तुम्हें दूर—से—दूर भटकाए रहती है। खोजने वाले भटकते हैं, ठहर जानेवाले पा लेते हैं।

आज इतना ही।


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें