प्रितम छवि नैनन बसी-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो
एक नई मनुष्य-जाति की आधारशिला—(पंद्रहवां
प्रवचन)
पंद्रहवां प्रवचन; दिनांक २५ मार्च, १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना
प्रश्नसार:
1—आप सरल, निर्दोष चित्त की सदा प्रशंसा करते हैं। यह
सरलता, यह निर्दोष चित्त क्या है?
2—क्या आप अंग्रेजी भाषा के विरोध में हैं? आप कुछ भी
कहें, मैं तो अंग्रेजी सीखूंगी।
3—पूरब-पश्चिम, विज्ञान-धर्म और बाहर-भीतर का संतुलन
जो आप करने का प्रयास कर रहे हैं, यह साधारण जन की समझ में
क्यों नहीं आता है?
पहला प्रश्न: भगवान,
आप सरल, निर्दोष चित्त की सदा प्रशंसा करते हैं। यह
सरलता, यह निर्दोष चित्तता क्या है?
चिंता,
निर्दोष
चित्तता चित्त का अभाव है। जब तक चित्त है तब तक निर्दोष होना असंभव है। चित्त ही
दोष है। मन ही विकार है।
मन
का अर्थ है: स्मृति,
कल्पना, चिंता--भविष्य की, अतीत की। और इस सब ऊहापोह में जो है, उससे हम चूकते
चले जाते हैं, उससे हमारा संबंध विच्छेद हो जाता है।
जो
है उसका ही दूसरा नाम परमात्मा है। परमात्मा सदा वर्तमान है और चित्त कभी वर्तमान
नहीं है: या तो अतीत या भविष्य। अतीत वह जो हो चुका, अब नहीं है; उसके साथ समय गंवाना व्यर्थ है; उसमें उलझे रहना
मूढ़तापूर्ण है। भविष्य वह है, जो अभी आया नहीं है। उसके
संबंध में चिंता में डूबे रहना, उस बहुमूल्य को गंवाना है जो
हाथ में है। इन दो के बीच आदमी बरबाद होता है--अतीत और भविष्य। इन दोनों के बीच ही
चूक जाता है जीवन से। जीवन है दोनों के मध्य में।
इसलिए
बुद्ध ने कहा: मज्झिम निकाय, बीच का रास्ता। ठहर जाओ बीच में। न इधर न उधर।
जैसे रस्सी पर चलने वाले नट को देखा है--न बाएं न दाएं, मध्य
में सम्हालता है अपने को। ऐसे ही जो मध्य में सम्हाल लेता है--अपने को, निर्दोषता को उपलब्ध होता है।
निर्दोषता
ध्यान का ही दूसरा नाम है। निर्दोषता अमनी अवस्था है। मन बहुत से रोगों का स्रोत
है। सबसे पहले तो मन अहंकार को जन्म देता है; वह उसकी पहली संतान है। फिर अहंकार
अपने पीछे पंक्तिबद्ध उपद्रव लाता है--क्रोध है, काम है,
लोभ है, मोह है, द्वेष
है,र् ईष्या है, मत्सर है। फिर कोई अंत
नहीं। एक अहंकार एक पूरा संसार खड़ा कर देता है। एक झूठ हजार झूठों का जन्मदाता हो
जाता है। और अहंकार से बड़ा कोई दूसरा झूठ नहीं है। अहंकार है ही नहीं; भासता है। जैसे अंधेरे में रस्सी सांप दिखाई पड़ गई हो, या सुबह की धूप में ओस की बूंद मोती मालूम पड़ गई हो; पास जाओ तो पानी हाथ लगता है।
मुल्ला
नसरुद्दीन रास्ते से गुजर रहा था। पत्नी के साथ था, एकदम झपट्टा मार कर आगे
बढ़ा। कुछ उठाया झुक कर सड़क से। फिर क्रोध से बड़ी वजनी गाली दी और जो उठाया था उसे
फेंका। और कहा कि अगर यह आदमी मुझे मिल जाए, तो इसकी गर्दन
काट दूं।
पत्नी
ने कहा, मामला क्या है? किसकी गर्दन काट रहे हो, क्या उठाया, क्या फेंका?
उसने
कहा कि कोई दुष्ट इस तरह से खंखारता है कि अठन्नी मालूम पड़ती है। सुबह की धूप में
किसी ने खंखारा होगा ढंग से। जैसे खंखारने वाले का कसूर है! उसकी गर्दन उतार लेगा।
हम
ऐसी ही भ्रांतियों में जीते हैं। न मालूम क्या-क्या पकड़े बैठे हैं। न मालूम
किन-किन बातों का भरोसा किया हुआ है! देह पर भरोसा किया है, जो
क्षणभंगुर है; आज है, कल नहीं हो जाएगी;
मिट्टी है, मिट्टी में मिलेगी ही। मन पर भरोसा
किया है, जो कि देह का ही अंग है, उपयोगी
है। मगर उसे मालिक बना लिया है। नौकर हो तो ठीक। और जब नौकर मालिक बन जाता है तो
बहुत उपद्रव होते हैं। उसे मालिक होना तो आता नहीं, हुआ तो
था नौकर होने को और हाथ मालकियत लग जाए, तो उपद्रव होगा ही।
न तौर होगा, न तरीका होगा। कोई सलीका न होगा।
मैंने
सुना है, एक झक्की बादशाह ने अपने नौकर पर प्रसन्न होकर कहा कि तेरी जो मर्जी हो
पूरी कर दूं। बहुत प्रसन्न हूं आज तुझ पर। तेरी सेवाओं से आनंदित हूं। मांग ले।
नौकर
ने कहा, मालिक, और क्या मांगना, ऐसे
आपने बहुत दिया है। बस एक बात कभी-कभी दिल में उठती है कि एक चौबीस घंटे के लिए
मुझे बादशाह बना दें। एक बार मैं भी तो बादशाह होकर देख लूं। यह जिंदगी यूं ही चली
जाए। सिंहासन पर बैठ कर देख लूं।
सम्राट
तो झक्की था और फिर कह चुका था। वायदे का पक्का आदमी था। तो चौबीस घंटे के लिए
नौकर को बादशाह बना दिया। चौबीस घंटे में उसने जो उपद्रव किए, वे चौबीस
जन्मों में भी कोई बादशाह नहीं कर सकता है। पहला काम तो उसने यह किया कि बादशाह को
सूली दे दी, तो मामला ही खतम कर दिया। अब चौबीस घंटे के बाद
सिंहासन से उतरने की कोई जरूरत ही न रही।
यह
कहानी सार्थक मालूम होती है--तुम्हारे संबंध में; हर मनुष्य के संबंध में।
यही हुआ है। मन नौकर हो तो ठीक; उसका उपयोग करो, यंत्र है, उपयोगी यंत्र है। जैसे कलम से लिखते हो
पत्र, कलम थोड़े ही लिखती है, लिखते तुम
हो; लेकिन यह भ्रांति हो जाए कि कलम लिखती है तो फिर अड़चन
होगी। मन तो केवल कलम जैसा है। उसका तुम उपयोग करते हो। उससे लिखो, उससे पढ़ो।
लेकिन
हालात बिगड़ गए हैं। मन कभी का तुम्हारी छाती पर सवार हो गया है। तुम नहीं भी चाहते
तो भी चलता चला जाता है। तुम कहते हो रुको, रुकता नहीं। तुम जितना कहो रुको,
उतना ही रुकना मुश्किल हो जाता है। यही विकार है। यही तुम्हारे जीवन
की रुग्ण अवस्था है। अपने ही मन की मालकियत नहीं है।
निर्दोष
व्यक्ति मालिक होता है। सरल व्यक्ति मालिक होता है। मन बहुत कपटी है, बहुत
चालबाज है। अगर उसको तुमने मालिक बनाया तो वह तुम्हें भी कपटी कर डालेगा, चालबाज कर देगा। वह तुम्हें भी ऐसी चालबाजियां सिखाएगा, तुमसे भी ऐसे काम करवा लेगा, जो तुमने खुद कभी न किए
होते। तुम जरा सोचना।
मैं
जो कह रहा हूं,
वह कोई सैद्धांतिक बातचीत नहीं है। सिद्धांतों में मेरा रस ही नहीं
है। मैं जो कह रहा हूं वह तथ्य की बात है। अपने मन की जांच-परख करना। क्या-क्या
तुम्हारे मन ने तुमसे नहीं करवा लिया, कैसी-कैसी मूढ़ताएं
नहीं करवा लीं! और फिर उन मूढ़ताओं के लिए कैसे-कैसे कारण नहीं खोज लिए। मन कारण
खोजने में भी बहुत कुशल है; वही तो उसके कपटी होने का जाल
है। वह हर चीज के लिए कारण खोज लेता है, तर्क खोज लेता है।
हर चीज के लिए बहाने खोज लेता है। लेकिन अगर तुम जरा सा सजग हो जाओ, तो तुम पहचान सकोगे। तुम अगर जरा साक्षी-भाव सम्हालने लगो, थोड़ा सा, इंच भर, तो तुम्हें
दिखाई पड़ने लगेगा मन का जाल।
मुल्ला
नसरुद्दीन रात सोया। रात नींद में कहने लगा, कमला! कमला!! हे प्यारी कमला!
पत्नी
सुन रही थी, झकझोर कर उठाया और कहा, यह कलमुंही कमला कौन है?
किससे बातें कर रहे हो? सपने में राज खुल गया।
शक तो मुझे था ही। तुम्हारे कपड़ों पर रोज लंबे-लंबे बाल देखती हूं जब भी तुम दफ्तर
से आते हो। दफ्तर और घर के बीच तुम कहीं और भी जाते हो। और रोज देर से आते हो। हर
रोज बहाने। आज राज खुल गया। यह कमला कौन है? बताना ही पड़ेगा,
इसी वक्त बताना पड़ेगा!
नसरुद्दीन
ने तत्क्षण तर्क खोजा,
कहा कि तू भी पागल है, कमला यह एक घोड़ी का नाम
है। रेसकोर्स में इसी पर मैंने दाम लगाए हैं। सो उसी की याद आ गई होगी। बड़ी आशा
लगाए बैठा हूं कि इस बार शायद रेसकोर्स में कमला जीत जाए, तो
हमारे भाग्य खुल जाएं, दुर्दिन मिट जाएं।
समझा-बुझा
कर सो गया, पत्नी भी सो गई। दूसरे दिन दफ्तर से लौटा, पत्नी
बाहर ही बैठी थी। उसको देख कर ही समझ गया कि कुछ गड़बड़ है। पूछा कि तू इस तरह क्यों
देख रही है? मुझे इस तरह देख रही है जैसे मैं कोई अजनबी हूं!
उसकी
पत्नी ने कहा कि नहीं,
इस तरह नहीं देख रही हूं। उस घोड़ी का फोन आया था, वह कह रही थी कि प्लाजा टाकीज के पास शाम को मिल जाना।
तरकीबें
तो मन कर लेता है,
जाल भी फैला लेता है। जाल से बचने के लिए और जाल फैला लेता है। मगर
कब तक, कहां तक? सच्चाइयां उभर कर आ ही
जाती हैं। सचाइयों से बचा भी नहीं जा सकता। तुम दबाए जाते हो, छिपाए जाते हो, मगर फिर भी उभर आती हैं। सचाइयों का
गुण है कि उनको सदा के लिए दबाया नहीं जा सकता। और झूठ का गुण है कि सदा के लिए
उसको बचाया नहीं जा सकता। थोड़ी-बहुत देर शायद तुम भरमा लो अपने को, औरों को; मगर यह ज्यादा देर खेल चलता नहीं। और अच्छा
है कि ज्यादा देर खेल नहीं चलता। मगर आदमी इतना मूढ़ है कि खेल टूट-टूट जाता है;
वह गिर-गिर पड़ता है, फिर-फिर उठ आता है,
धूल झाड़ लेता है; फिर-फिर उसी चाल से चलने
लगता है; फिर लड़खड़ाता है, फिर गिरता
है। गिर कर सम्हल भी नहीं पाता कि फिर गिरने की तैयारियां शुरू कर देता है।
सजगता
चाहिए, तो मन के कपट, मन के जाल, मन
की बेईमानियों से, चिंता, मुक्ति हो
सकेगी। और जैसे ही मन के कपट और जाल से मुक्ति हुई, मन से
मुक्ति हुई। फिर रह जाता है--एक यंत्र मात्र विचार की प्रक्रिया का। उसका उपयोग
करो। उसका बाह्य उपयोग है। अंतर्जगत में उसका कोई उपयोग नहीं है। जैसे भाषा का
बाहर उपयोग है। तुमसे बोलना हो तो भाषा। खुद से तो बोलने के लिए भाषा की कोई जरूरत
नहीं, भाव पर्याप्त है। बाहर जाना हो तो जाना; भीतर जाना हो तो अमन।
इसलिए
इतनी प्रशंसा करता हूं,
क्योंकि जो कपटी है वह बाहर ही अटका रह जाता है। और एक दिन मौत आती
है और सब बनाए हुए रेत के घरों को गिरा देती है, सब कागज की
नावें डुबा देती है। मगर तब तक बहुत देर हो गई होती है। फिर तुम लाख हाथ-पैर पटको
तो भी कुछ कर न सकोगे। इसलिए पहले ही चौंक जाना, पहले ही
सम्हल जाना जरूरी है। उस सम्हल जाने का नाम ही संन्यास है।
संन्यास
है मालकियत चेतना की मन के ऊपर।
संन्यास
है साक्षी-भाव।
संन्यास
है इस बात की घोषणा कि अब मैं चेतना को मन से संचालित नहीं होने दूंगा; अब चेतना
मन को संचालित करेगी; चेतना के हाथ में लगाम देता हूं मन की।
और
मालकियत जब होगी तो तुम्हारे हाथ में होगा, जब चाहो मन का उपयोग करो और जब
चाहो तब मन को बंद कर दो।
स्विटजरलैंड
में पिछले दोत्तीन वर्ष पहले ऐसी एक घटना घटी। एक आदमी अस्पताल में बंद था। एक
कार-दुर्घटना में उसके मस्तिष्क को चोट पहुंची थी। कभी-कभी दुर्घटनाओं में अनूठी
बातें घट जाती हैं। चोट से कुछ उसके कानों को ऐसी बात हो गई कि दस मील के
इर्द-गिर्द जो रेडियो स्टेशन थे, उनको वह पकड़ने लगा, कान
से ही पकड़ने लगा। कान के यंत्र में इतनी संवेदनशीलता आ गई। वह बिस्तर पर पड़ा-पड़ा
ही...साफ तो सुनाई नहीं पड़ता था। जैसे तुम्हारे रेडियो पर दोत्तीन स्टेशन साथ-साथ
लगे हों, ऐसी हालत थी उसके कान की। भन-भन, लेकिन कभी कोई लकीर समझ में भी आ जाए, कभी कोई गीत
पकड़ में भी आ जाए। पहले तो उसने सोचा कि सब मन का ही भुलावा है। लेकिन जब यह
बार-बार होने लगा तो उसने नर्सों को शिकायत की कि कुछ गड़बड़ हो रही है, कुछ भन-भन मेरे भीतर चलती रहती है। ऐसा लगता है कि कोई रेडियो बिगड़ा हो और
दोत्तीन स्टेशन एक साथ लग गए हों। नर्सों ने कहा कि भ्रांति है तुम्हारी, चोट खा गए हो, मस्तिष्क को धक्का लग गया है, स्नायुत्तंत्र पूरा का पूरा अस्तव्यस्त हो गया है, सब
ठीक हो जाएगा। टालते ही रहे। लेकिन माना ही नहीं जब वह आदमी, उसने कहा कि मैं बड़ी मुश्किल में पड़ा हूं, न रात सो
सकता हूं, क्योंकि यह चलता ही रहता है। जब बारह बजे रेडियो
स्टेशन बंद होता है तब यह बंद होता है। बारह बजे बंद हो जाता है।
तो
नर्सों को भी लगा कि पता नहीं कुछ हो न। तो डाक्टरों को कहा। पहले तो डाक्टरों ने
भी न माना। फिर एक डाक्टर ने कहा कि प्रयोग करके तो देखें। तो जाकर बगल के कमरे
में एक रेडियो लगा कर देखा और इससे पूछा कि तू बोल, क्या तुझे सुनाई पड़ रहा है?
और वह जो बोला वे वही लकीरें थीं गीत की, जो
रेडियो पर लगी थीं। फिर तो जांच-पड़ताल की गई और पाया गया कि उसके कानों में कुछ
आकस्मिक घटना घट गई है। आपरेशन करके उसके कान ठीक करने पड़े। मगर उससे एक बात
वैज्ञानिकों को पता चल गई कि आज नहीं कल मनुष्य के कानों को इस तरह से व्यवस्थित
किया जा सकता है कि आदमी को रेडियो लिए फिरने की जरूरत न रहे। यह संभावना का द्वार
तो उसकी दुर्घटना ने खोल दिया।
लेकिन
तुम सोचो उस आदमी की मुसीबत। रेडियो तुम्हारे घर में भी है, लेकिन
मुसीबत नहीं है, क्योंकि जब चलाना हो तो चलाओ, जब न चलाना हो तो मत चलाओ। मगर उसके पास तो बंद करने का कोई उपाय ही न था।
चले तो चले, न चले तो न चले।
अभी
तुम्हारे मन की हालत उसी आदमी जैसी है। तुम लाख कहो कि चुप हो जा, वह होता
ही नहीं; वह अपना काम जारी रखता है; वह
अपनी गुनगुन में लगा ही रहता है। और कोई दोत्तीन स्टेशन एक साथ लगे हैं, न मालूम कितने स्टेशन एक साथ लगे रहते हैं! कभी बैठ कर एक कागज पर अपने मन
में चलती हुई सारी बातों को लिखो, बहुत हैरान होओगे, क्या-क्या कचरा मन में तैरता है! कचरा ही कचरा तैरता है! कहां से कौन सी
बात आ जाती है, कुछ पता नहीं चलता। और इसको तुम सोचते हो
स्वस्थ अवस्था।
चिंता, यह स्वस्थ
अवस्था नहीं है, बड़ी रुग्ण अवस्था है। सामान्य तो है,
क्योंकि औरों की भी यही है, मगर स्वस्थ नहीं
है। सामान्य होने से ही कोई बात स्वस्थ नहीं होती। सामान्य तो है, लेकिन जैसी होनी चाहिए वैसी नहीं है। जैसे पूरी मनुष्य-जाति एक तरह की
विक्षिप्तता में जी रही है। सब अपनी-अपनी विक्षिप्तता को छिपाए चल रहे हैं,
कोई कुछ कहता नहीं; मगर कभी-कभी यह
विक्षिप्तता निकल जाती है। कभी क्रोध में तुम ऐसी बातें कह जाते हो, जिनके लिए पीछे पछताते हो। सोची तो तुमने वे बातें बहुत बार थीं, लेकिन कभी कही नहीं थीं। मगर क्रोध में भूल गए। भीतर जो चलता था, वह बाहर निकल गया। कभी-कभी प्रेम में ऐसी बातें कह जाते हो, जिनके लिए पीछे बहुत पछताते हो कि यह मैंने क्या कह दिया, अब क्या होगा! किसी से विवाह का निवेदन ही कर बैठे, अब
पछताओ जिंदगी भर! अब रोओ! अब लौटने का रास्ता नहीं सूझता, कि
अब वापस कैसे लो निमंत्रण को।
ये
तुम्हारे भीतर चलती रहती हैं बातें, बाहर नहीं निकल पातीं, तुम इनको सम्हाले हुए हो। मगर बड़ी पतली सम्हाल है, जरा
सा परदा है। इसलिए जरा सी शराब पिला दो किसी को, वह परदा
गिरा गया। वह आदमी ऐसी बातें बकने लगता है जो तुमने कभी न सोची थीं। खादीधारी है,
सज्जन है, गांधीवादी है, जरा सी शराब पिला दी, एकदम गाली-गलौज करने लगा। एकदम
परमहंसों की भाषा बोलने लगा। क्या तुम सोचते हो शराब से गाली पैदा हो सकती है?
शराब में ऐसा कुछ भी नहीं, जो गाली पैदा कर
सके। गालियां तो भीतर भरी थीं। खादी के भीतर छिपाए था। राम-राम जपता था, राम-राम की गुहार मचाए था। वह बाहर-बाहर थी, परिधि
पर थी। भीतर सब उपद्रव था। वह शराब ने राम-राम की गुहार सुला दी। वह शराब ने भुला
दिया कि मैं गांधीवादी हूं।
अकबर
निकलता था रास्ते से--अपने हाथी पर सवार। शोभायात्रा निकल रही थी किसी उत्सव के
समय। और एक आदमी अपने छप्पर पर खड़े होकर अकबर को अंट-शंट कहने लगा कि अरे हरामजादे, शरम नहीं
आती हाथी पर चढ़ा बैठा है! उसे तत्क्षण पकड़वाया गया, जेल में
बंद करवा दिया गया। दूसरे दिन अकबर ने उसे बुलाया और कहा कि तू होश में है,
क्या बक रहा था? उसने कहा कि मैंने कुछ भी
नहीं कहा, मैं शराब पीए हुए था। इसलिए मैं क्षमा चाहता हूं।
कसूर मेरा नहीं है। मैंने जान-बूझ कर कुछ भी नहीं कहा है। और जो कुछ कहा हो,
मुझे उसका होश भी नहीं है।
शराब
में कोई आदमी तुमसे कुछ कह दे पीए हुए, तो तुम भी कहते हो--शराबी है,
जाने दो। मगर यह आदमी जब शराब नहीं पीए होता है, तब भी भीतर कहता है। भीतर-भीतर कहता रहे तो ठीक, बाहर
न प्रकट हो।
तुम
जरा अपने मन में सोचना। घर में मेहमान आ गए हैं, ऊपर-ऊपर तो तुम कहते हो कि
आपको देख कर हृदय आह्लादित हो उठा, पलक-पांवड़े बिछाए बैठे थे,
कब से राह देखते थे कि आप आओ, घर को पवित्र
करो! गरीबखाना धन्य हुआ! और भीतर कह रहे हो कि ये दुष्ट, इन
कमबख्तों को भी यही आने का वक्त मिला! हजार मुसीबतें हैं और अब ये आ गए। इन से अब
कैसे छुटकारा हो, इसकी चिंता में पड़े हो।
भीतर
कुछ चल रहा है,
बाहर कुछ कह रहे हो। हां, शराब पीए हो तो भीतर
जो चल रहा है वही बाहर आ जाएगा। शराब तुम्हारे भीतर के सत्य प्रकट करवा देती है।
इसलिए तुम्हारे तथाकथित संतजन शराब के बहुत खिलाफ हैं; उसका
कुल कारण इतना है कि शराब तुम्हारे सत्यों को प्रकट करवा देती है।
जार्ज
गुरजिएफ के पास जो भी शिष्य आते थे, पहले उनको शराब पिलाता था, खूब डट कर पिलाता था, इतनी पिला देता था कि वे गिर
पड़ते फर्श पर, लोटने लगते, बकने लगते।
फिर उनके पास बैठ कर सुनता था कि वे क्या कह रहे हैं। क्योंकि वह कहता था कि आदमी
इतना बेईमान है कि इससे अगर तुम ऐसे ही पूछो तो यह कुछ कहता है, जब कि असलियत कुछ और होती है। इसकी असलियत तो तभी जानी जा सकती है जब यह
बिलकुल बेहोश हो, क्योंकि बेहोशी में यह धोखा नहीं दे सकता।
यह
कैसी विडंबना है कि होश में तुम्हारी बात का भरोसा नहीं किया जा सकता; सिर्फ
बेहोशी में तुम्हारी बात का भरोसा किया जा सकता है, क्योंकि
तुम्हारा बेईमान सोया होता है। मनोवैज्ञानिक भी यही करते हैं। वे तुमसे यह नहीं
पूछते कि तुमने दिन में क्या सोचा। वे तुमसे पूछते हैं, रात
तुमने सपने में क्या देखा? क्यों? आखिर
दिन में भी तुम हो, मगर दिन में तुम धोखेबाज हो। दिन में तुम
दबाए जा रहे हो। रात में तुम्हारी असलियतें प्रकट हो जाती हैं। सपने में तुम्हारे
जितने भी तुमने आयोजन किए हैं सुरक्षा के, तुमने जितनी
रोक-टोकें लगा रखी हैं, वे सब गिर जाती हैं। तुम्हारी
दीवारें गिर जाती हैं। तुम्हारे भीतर के रोग सीधे-सीधे प्रकट हो जाते हैं। और सपने
की भाषा ऐसी होती है, चित्रों की, कि
तुम्हें बताते वक्त भी पता नहीं चलता कि तुम जो बता रहे हो उसका मतलब क्या है। वह
तो मनोवैज्ञानिक ही समझता है। तुम तो बता जाते हो कि मैंने यह सपना देखा। तुम्हें
साफ नहीं होता कि इसका मतलब क्या है। अगर मतलब तुम्हें साफ हो तो शायद तुम उसमें
भी धोखा दे जाओ।
जो
लोग बहुत दिन तक मनोवैज्ञानिकों से चिकित्सा करवाते हैं, हद की बात
अनुभव में आई है, वे लोग झूठे सपने देखने लगते हैं। झूठे
यानी ऐसे जैसे कि मनोवैज्ञानिक चाहता है। झूठे अर्थात ऐसे जैसे कि शुभ मालूम पड़ें,
जिनमें अशुभ काट दिया जाए।
आदमी
की तो बात और,
कल मैं पढ़ रहा था कि अगर आदमी के साथ जानवर भी रहें तो जानवर तक झूठ
बोलना और बेईमानी करना सीख जाते हैं। जानवर! झूठ बोलना! पहले तो मुझे भी भरोसा न
आया। लेकिन जब मैंने पूरा प्रयोग पढ़ा तो समझ में आया। एक वैज्ञानिक ने प्रयोग
किया। कुछ बंदरों को एक कोठरी में बंद कर दिया है। जंजीरें हैं उन पर, इसलिए भाग नहीं सकते, कुछ कर भी नहीं सकते, मगर बैठे-बैठे देखते हैं जो भी कमरे में होता है। एक आदमी आता है नीली
वर्दी पहने हुए। कमरे में कई डब्बे रखे हुए हैं, बीस-पच्चीस
डब्बे रखे हुए हैं। वह एक डब्बे में आकर, समझो कि पांच नंबर
के डब्बे में आकर मिठाइयां बंदरों को दिखा कर और डब्बे में बंद कर देता है और ताला
लगा देता है। फिर दूसरा आदमी आता है पीली वर्दी पहने हुए। वह खोजता है कि मिठाई
कहां छिपी है, तो बंदर उसको इशारा करते हैं। वे पांचवें नंबर
के डब्बे की तरफ इशारा कर देते हैं, हाथ बता देते हैं,
आंख मारते हैं कि उधर। वह आदमी खोलता है पेटी और मिठाई खुद खा जाता
है। बंदरों को बड़ा दुख पहुंचता है। एक और आदमी आता है तीसरा, लाल वर्दी पहने हुए। वे उसको भी बताते हैं। वह आदमी वे मिठाइयां निकाल कर
बंदरों को खिला देता है। अब बंदर जानते हैं कि कौन उनका मित्र है और कौन उनका
दुश्मन है। और बस बेईमानी शुरू। अब जब मित्र भीतर आता है तो उसको ठीक डब्बे की तरफ
आंख मारते हैं वे और जब जो आदमी खुद मिठाई खा गया वह आता है तो उसको गलत डब्बा
बताते हैं, जिसमें मिठाई नहीं है। पांचवें को छोड़ कर कोई भी
डब्बा बताते हैं, पांचवां भर नहीं बताते। अगर वह पांचवें की
तरफ भी जाने लगता है तो कहते हैं--ऊंहूं...वहां मत जाओ, कोई
सार नहीं। इशारा कर देते हैं कि बेकार है; इस तरफ। उसको
भड़काने की कोशिश करते हैं।
यह
प्रयोग इतनी बार किया गया और कई तरह के जानवरों पर किया गया और पाया कि सब जानवर
झूठ बोलना सीख लेते हैं,
जरा उनको मौका दिया जाए। जरा उनको अवसर दिया जाए तो चालबाजी उनको
पकड़ में आ जाती है। आदमी की संक्रामक बीमारी उनको भी जैसे लग जाती है।
मनोवैज्ञानिकों
के पास जो लोग बहुत दिन चिकित्सा कराते हैं, वे झूठे सपने देखने लगते हैं। एक
बहुत अनूठा तथ्य पकड़ में आया है। अलग-अलग मनोवैज्ञानिकों की अलग-अलग धारणाएं हैं।
इसलिए फ्रायड को मानने वाले मनोवैज्ञानिक के पास जो लोग चिकित्सा करवाते हैं,
वे इस तरह के सपने देखने लगते हैं जो कि फ्रायड की व्याख्या के
अनुकूल पड़ते हैं। और जो जुंग के मानने वालों के पास व्याख्या करवाते हैं वे जुंग
की तरह के सपने देखने लगते हैं। और जो एडलर के पास करवाते हैं, वे एडलर की तरह के सपने देखने लगते हैं। आदमी की बेईमानी भी हद्द की है!
दिन में ही धोखा नहीं देता, धीरे-धीरे रात के सपनों में भी
धोखा देने लगता है। मगर उन धोखों को भी अगर गौर से तुम देखो तो कहीं न कहीं सत्य
अपने को प्रकट करता हुआ मिल जाएगा।
मैंने
सुना है, अडोल्फ हिटलर एक रात बर्लिन के सबसे प्रसिद्ध सिनेमागृह में गया--यह देखने
कि जब मेरी तस्वीर आती है तो लोग क्या व्यवहार करते हैं। चित्र शुरू होने के पहले
अडोल्फ हिटलर की तस्वीर आई। सारे लोग खड़े हो गए और सबने जय-जयकार की ध्वनि की।
स्वभावतः अडोल्फ हिटलर सिर्फ खड़ा नहीं हुआ, वह क्यों खड़ा हो,
वह तो खुद ही अडोल्फ हिटलर है! वह यह भूल ही गया कि यहां मैं अडोल्फ
हिटलर की तरह नहीं आया हुआ हूं। सभी जय-जयकार की ध्वनि कर रहे हैं। बड़ा प्रसन्न
था। तभी बगल के आदमी ने, जो खड़े होकर जय-जयकार कर रहा था,
उसको कंधे पर धक्का दिया और कहा, खड़ा हो जा
भाई! अगर उस हरामजादे को पता चल गया तो तू पीछे मुसीबत में पड़ेगा।
कहां
तक छिपाओगे? कहीं न कहीं से बात प्रकट हो जाती है।
मुल्ला
नसरुद्दीन रास्ते पर खड़े होकर राष्ट्रपति को गालियां दे रहा था कि उल्लू का पट्ठा
है राष्ट्रपति। मिल जाए तो इसके मुंह पर थूक दूं। ऐसा महामूढ़ मैंने नहीं देखा।
पुलिसवाले
ने उसे पकड़ लिया और कहा कि तुम थाने चलो।
तब
जरा वह होश में आया। उसने कहा कि भई मैं कोई अपने देश के राष्ट्रपति के संबंध में
थोड़े ही कह रहा हूं। अरे मैं तो अमेरिका के राष्ट्रपति के संबंध में कह रहा हूं।
उस
पुलिसवाले ने कहा,
तुमने हमें मूरख समझा है? हमें पता नहीं कि
किस देश का राष्ट्रपति मूरख है! तुम हमें बनाना चाहते हो? चल
थाने!
जब
देखा मुल्ला ने कि बचने का कोई उपाय नहीं, तो उसने कहा, भई, क्या अपने राष्ट्रपति की आलोचना करने में कोई
खराबी है?
उसने
कहा कि खराबी तो कुछ भी नहीं है--पुलिसवाले ने कहा--लेकिन तुम इस तरह की बातें बता
रहे हो कि अगर लोगों को पता चल जाए कि ये गुण जिनमें होते हैं वह आदमी राष्ट्रपति
हो सकता है, तो यह सारा देश ही राष्ट्रपति होने की कोशिश करने लगेगा। तुम हमारी मुसीबत
करवाओगे। तुम राष्ट्रपति की योग्यता बता रहे हो सबको। चल थाने!
आदमी
बचा नहीं सकता,
कहीं न कहीं से बात उघड़ आती है। झूठ टूट-टूट जाता है।
तुम
मन के झूठों को टूटता हुआ देखना शुरू करो। और उसी से तुम्हारे जीवन में क्रांति का
सूत्रपात होगा। तुम मन के झूठ देखो। मन तुम्हें अतीत में भटकाता है, मत भटको
उसके साथ। कह दो कि तू भटक, हम तेरे पीछे नहीं आते हैं। मन
भविष्य में ले जाए, सपने दिखाए, आशाएं
बंधवाए, बड़ी योजनाएं बनवाए--कह दो कि तू जा, हमारे कोई इरादे नहीं। हम तो यहीं भले। हम तो यहीं राजी। हम तो तथाता में
रहेंगे। वर्तमान बहुत है। न हमें अतीत में लौट कर देखना है, न
भविष्य में।
थोड़े
दिन तो मन पुरानी आदत के अनुसार खींचातानी करेगा; खींचेगा--अतीत की तरफ;
खींचेगा--भविष्य की तरफ। लेकिन अगर तुमने तय ही कर लिया हो, संकल्प ही कर लिया हो कि नहीं जाओगे मन के पीछे, तो
जल्दी ही मन थक जाता है। तुम्हारे बिना सहयोग के मन एक इंच नहीं चल सकता। ऊर्जा तो
तुम्हीं देते हो, बल तो तुम्हीं देते हो। भोजन तो तुम्हीं
देते हो। तुम्हारा साथ मिले तो ही चलता है, नहीं तो चलेगा
कैसे?
जल्दी
ही थक जाएगा मन। और जब मन थक जाएगा और देख लेगा कि अब कोई उपाय नहीं है, तो मन
करीब-करीब वैसा ही करता है जैसे कुत्ते: पहले भौंकेंगे और देख लिया कि तुम पर कोई
प्रभाव नहीं पड़ा, तो पूंछ हिलाने लगेंगे। मन की भी वही हालत
है।
विवेकानंद
ने लिखा है कि वे पहली दफा हिमालय गए। एक पहाड़ी के पास से गुजरते थे। संन्यासी के
गैरिक वस्त्र! कुछ बंदरों को मजा आ गया। कुछ बंदर उन्हें चिढ़ाने लगे। संन्यासियों
को देख कर कई तरह के बंदरों को चिढ़ाने का मजा आता है। बंदरों को ही चिढ़ाने का मजा
आता है, और किसको आएगा! अब बंदर कोई धार्मिक तो होते नहीं, शैतान
प्रकृति के होते हैं। मन जैसा ही उनका ढंग होता है। इसलिए तो मन को बंदर कहते हैं।
विवेकानंद
को डर लगा। ऐसे तो मजबूत आदमी थे, मगर कितने ही मजबूत होओ, कोई
बीस-पच्चीस बंदर अगर तुम्हारे पीछे पड़े हों...एक ही काफी है। वे बंदर उनके पीछे ही
चलने लगे। आवाज कसें, खिल्ली उड़ाएं। फिर तो कंकड़-पत्थर
फेंकने लगे। विवेकानंद ने भागना शुरू कर दिया। विवेकानंद भागे तो वे भी भागे।
बंदरों ने भी भागना शुरू कर दिया उनके पीछे। और जब कुछ बंदर भागे तो और बंदर जो
वृक्षों पर बैठे थे, उनको भी रस आ गया। घिराव ही हो गया। और
बंदर भी उतर आए। विवेकानंद ने देखा, यह तो बचने का उपाय नहीं
है। ऐसे अगर मैं भागा तो ये मेरी चिंदी-चिंदी कर डालेंगे। वे रुक कर खड़े हो गए। वे
रुक कर खड़े हुए तो बंदर भी खड़े हो गए। बंदर ही तो ठहरे आखिर! जब उन्होंने देखा कि
मेरे रुकने से ये भी रुक गए, तो पीछे मुड़ कर उन्होंने बंदरों
की तरफ देखा, तो बंदर थोड़े सहमे, दो
कदम पीछे भी हटे। विवेकानंद उनकी तरफ दौड़े, तो वे भाग कर
वृक्षों पर सवार हो गए।
विवेकानंद
ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि उस दिन मुझे समझ में आया कि मन के साथ भी यही
हालत है: इससे डरो,
इसकी मानो, इससे भागो, तो
यह और सताता है। रुको, ठहरो, घूर कर इसे
देखो, मत डरो, दो कदम इसकी तरफ बढ़ाओ,
इसको चुनौती दे दो कि तुझे जो करना हो कर, हम
हिलने वाले नहीं, डुलने वाले नहीं--तो यह पूंछ हिलाने लगता
है।
तुम
जरा प्रयोग करके देखो। अंतर्जगत के थोड़े प्रयोग करने चाहिए। चिंता, प्रश्नों
के उत्तर मुझसे नहीं मिलेंगे। मैं केवल इंगित दे सकता हूं, इशारे
दे सकता हूं। इशारे कि तुम प्रयोग कर सको। प्रयोगों से तुम्हें उत्तर मिलेंगे,
समाधान मिलेंगे। तुम्हारा प्रयोग ही तुम्हारे लिए समाधान बन जाएगा।
मन
तो इसीलिए तुम पर हावी है कि तुम उसे हावी होने देते हो। तुम जिस क्षण तय कर लो कि
अब नहीं हावी होने देना है,
बहुत हो चुका, उसी क्षण मन उतर जाता है,
उसी क्षण रास्ते पर आ जाता है, उसी क्षण
तुम्हारे पीछे छाया की तरह चलने लगता है। और जब मन तुम्हारा मालिक न हो तब एक
निर्दोषता पैदा होती है, एक सरलता पैदा होती है। दंभ मिट
जाता है, क्योंकि मन ही दंभ को पैदा करवाता है। लोभ मिट जाता
है, क्रोध मिट जाता है, मोह मिट जाता
है, माया मिट जाती है। वर्तमान में न तो क्रोध होता है,
न लोभ होता है, न माया होती है। वर्तमान में
तो होती है परम शांति, परम शून्यता। वर्तमान में ज्ञान भी
नहीं होता, ज्ञान का दंभ भी नहीं होता कि मैं वेद का ज्ञाता
हूं, कि उपनिषद का ज्ञाता हूं, कि
कुरान का ज्ञाता हूं। ये सब ज्ञान वगैरह भी व्यर्थ साबित हो जाते हैं। जो है उसकी
छबि बनती है तुम्हारे भीतर। पक्षी गीत गा रहे हैं तो तुम्हारे भीतर उनके गीत
गूंजते हैं--और यही वेदों की ऋचाएं हैं। वृक्षों में फूल खिले हैं और उनके रंग
तुम्हारे भीतर फाग की तरह फैल जाते हैं, जैसे गुलाल उड़ गई
हो! रंग ही रंग हो जाते हैं! यही उपनिषदों का रंग है। रसो वै सः! यही परमात्मा का
रस रूप है। कि पहाड़ से गिरते झरने की मरमर ध्वनि, कि वृक्षों
से गुजरी हुई हवाओं से पैदा हुआ संगीत--यही कुरान की आयतें हैं। फिर जो है तुम्हें
घेरे हुए, यह परमात्मा का ही जगत है। तुम दर्पण की तरह जब
सरल-स्वच्छ हो तो इसकी प्रतिछवि बनती है, इसकी छाया बनती है,
इसका प्रतिफलन बनता है। और जीवन एक धन्यता से, अहोभाव से भर जाता है।
मैंने
जीवन को कब समझा?
कब अपने को पहचाना?
भेद
सकीं कब मेरी आंखें ममता का ताना-बाना?
मैं
तो एक पथिक हूं भाई
अंतहीन
है जिसकी मंजिल,
एक
चमक जिसकी आंखों में,
जो
है अपने से ही गाफिल!
मैं
तो जान सका हूं केवल मिट-मिट कर बनते जाना!
मैंने
जीवन को कब समझा?
कब अपने को पहचाना?
विगत
विगत बन चुका,
न उसको बांध सकूंगा प्राणों से,
मुझमें
यह रुचि नहीं कि उलझूं कटुता के पाषाणों से!
तुम
चाहो तो कायर कह दो,
टिक
न सके ये मेरे दो पग,
ढूंढ
रहा मैं विकल,
विसुध सा
निज
कल्पित सुंदरता का जग,
मुझको
इतना मिला कि बरबस बस आगे बढ़ते जाना!
मैंने
जीवन को कब समझा?
कब अपने को पहचाना?
मैंने
निज को सक्षम समझा,
मैं अक्षम अज्ञानी था,
भिक्षा
पात्र लिए निज कर में बनता दानी-मानी था!
मुझे
मिली है सदा निराशा,
मुझे
मिला अपमान, पराभव,
हतप्रभ
प्राण हो गए पीकर
अविश्वास
का तीखा आसव!
पर
मैंने कब किसको कोसा?
वैर-भाव किससे पाना?
मैंने
जीवन को कब समझा?
कब अपने को पहचाना?
राग-रंग, सुख-वैभव--ये
सब बस केवल सपने निकले,
यहां
और तो और, न मेरे सपने ही अपने निकले!
मुक्त
कंठ से आज कर रहा,
मैं
अपनी स्वीकार पराजय,
मेरे
नयनों के आगे जो
अंधकार
है, वह है अक्षय!
मुझे
मिला है निज निर्बलता से पग-पग पर टकराना!
मैंने
जीवन को कब समझा?
कब अपने को पहचाना?
उठ
पड़ती है बुझे हृदय में एक टीस सी कभी-कभी,
ऐसी
ही कुछ अजब व्यथा में डूब गया हूं अभी-अभी!
कुछ
भारी-भारी दिन लगता;
कुछ
सहमी-सहमी सी रातें
कुछ
सूनी-सूनी लगती हैं
अपनी
और परायी बातें!
चरण
चाहते हैं रुक जाना,
शीश चाहता झुक जाना!
मैंने
जीवन को कब समझा?
कब अपने को पहचाना?
छूट
रही हैं मानो मुझसे काल-नियति की सीमाएं,
सभी
अपरिचित सा लगता है जो कुछ है दाएं-बाएं!
क्या
है? क्या है नहीं यहां पर?
एक
प्रश्न उठ पड़ा अचानक!
कब
से चलना शुरू किया है?
चलना
होगा मुझको कब तक?
इन
सीधे-सादे प्रश्नों का बड़ा कठिन उत्तर पाना!
मैंने
जीवन को कब समझा?
कब अपने को पहचाना?
आज
हृदय पर भार बन गई है मेरी चेतना स्वयम,
अंधकार, आलोक सभी
कुछ आज दिख रहा है विभ्रम!
इस
भ्रम पर विश्वास असह है,
पर
विश्वास यहां पर जीवन,
जीवन
को कैसे भ्रम कह दूं
जब
कि सत्य है उर का स्पंदन!
सत्य
और भ्रम मैं क्या जानूं जब मैं ही हूं अनजाना!
मैंने
जीवन को कब समझा?
कब अपने को पहचाना?
मैं
पुकार उठता हूं बरबस--दया करो मेरे स्वामी!
तुम
कर्ता हो तुम ही कृति हो,
तुम तो हो अंतर्यामी!
मेरी
पीड़ा में तुम पीड़ित
मेरी
शंका में तुम शंकित,
कण-कण
में अस्तित्व तुम्हारा,
श्वास-श्वास
में तुम ही अंकित!
आत्म-समर्पण
आज कर रहा है यह अपना दीवाना,
मैंने
जीवन को कब समझा?
कब अपने को पहचाना?
क्या
हम जानते हैं?
शास्त्रों को जानते हैं, पर शास्त्रों को
जानने से ज्ञान का क्या संबंध? शब्दों को जानते हैं, लेकिन शब्दों की पहचान से क्या कोई सत्य को पहचान पाया है? मन का ऊहापोह हमारा परिचित है। मगर मन का ऊहापोह तो बाधा है; वही तो धुआं है, वही तो धूल है, जिससे हमारा दर्पण दबा है। और यह जगत अपरिसीम रहस्य है। इस जगत को हम
मापने चले हैं--मन की इस छोटी सी चम्मच से जैसे कोई सागर को मापने चला हो! हम पागल
हैं।
चिंता, मन से
मुक्त हुए बिना जीवन से हम वंचित ही रह जाते हैं। न जीवन का उत्सव अनुभव हो पाता,
न जीवन की उमंग, न जीवन का अर्थ खुलता,
न जीवन का रहस्य, न जीवन की रसधार बहती।
इसीलिए कहता हूं: सरल बनो। सरल ऐसे जैसे छोटे बच्चे। सरल ऐसे जैसे फूल। सरल ऐसे
जैसे कुछ भी पता नहीं।
सुकरात
ने कहा है: मैं इतना ही जानता हूं कि मैं कुछ भी नहीं जानता। यह सरलता है। यह
ध्यान की पराकाष्ठा है।
उपनिषद
के ऋषियों ने कहा है: अज्ञान तो भटकाता ही है अंधकार में, ज्ञानी और
भी महाअंधकार में भटक जाते हैं। किन ज्ञानियों के संबंध में कहा है? निश्चित ही पंडितों के संबंध में कहा है। यह मन पंडित बन जाता है--तोते की
तरह; सुंदर-सुंदर वचन सुभाषित रच लेता है। यह मन
ज्ञान-संग्रह करता, धन-संग्रह करता, प्रतिष्ठा-संग्रह
करता--यह मन संग्रह करने में ही जीता है। यह मन कूड़ा-करकट ही इकट्ठा रहता है। यह
इकट्ठा करता करते-करते ही मर जाता है।
इस
मन से थोड़ा सा अपने को अलग जानो। अलग तुम हो। तुम इस मन के साक्षी बनो। तुम इस मन
को भी देखो। इस मन को भी अपना विषय बनाओ। तुम इसके विषयी बनो। तुम इसके द्रष्टा
बनो, इसे बनाओ दृश्य--और वहीं से तुम्हारे जीवन में एक नई किरण, एक नया प्रकाश जलेगा। एक नई ज्योति उठेगी--सरलता की, सौम्यता की, सौंदर्य की, निर्दोषता
की।
मैं
तुम्हें पंडित नहीं बनाना चाहता। मैं तुम्हें सरल बनाना चाहता हूं। और सरलता का
अर्थ तुम ऐसा मत लेना जैसा तुम्हारे पंडित-पुरोहित तुम्हें समझाते हैं कि सादगी से
रहो तो सरल, कि लंगोटी ही लगा लो तो सरल कि नंगे ही हो जाओ तो और भी सरल। झोपड़े में
रहो तो सरल और झाड़ के नीचे रहने लगो तो और भी सरल। ये सब मन के ही खेल हैं। मैं
झोपड़ी में रहने वालों को जानता हूं और झाड़ों के नीचे रहने वालों को जानता हूं,
जिन्होंने सब छोड़ दिया उनको जानता हूं। सरलता उनको नाममात्र को नहीं
छू गई है। उन जैसे जटिल आदमी खोजना कठिन है। वे सब हिसाब-किताब कर रहे हैं स्वर्ग
में स्थान बनाने का। वे परलोक जाने का आयोजन कर रहे हैं। वे बड़े चालबाज हैं। वे
तुमसे ज्यादा चालबाज हैं। तुम तो यहीं बैंक में धन इकट्ठा कर रहे हो; वहां वे परमात्मा के बैंक में धन इकट्ठा कर रहे हैं। वे पुण्य अर्जित कर
रहे हैं। वे बैठे-बैठे देख रहे हैं कि ठीक है, तुम भोग लो
यहां, चार दिन की जिंदगी है, फिर सड़ोगे
नरक में! उनका रस यही है कि तुम सब नरक में सड़ोगे। और हम! हम स्वर्ग में विराजमान
होंगे और भोगेंगे सब आनंद! सब आनंद, जो यहां छोड़े हैं,
वही सब आनंद!
जरा
तुम स्वर्ग की कल्पनाएं उठा कर देखो, उनमें वही सब सुख, जो जहां त्यागने को कहा जा रहा है। यह बड़ी अजीब बात है! कौन सा तर्क है,
कौन सा गणित है? यहां तो शराब छोड़ो और वहां
चश्मे बह रहे हैं शराब के! यहां पीओ तो हराम है और वहां पीओ तो हलाल है। यह क्या
मजा हुआ? अगर शराब यहां पीनी हराम है तो स्वर्ग में पीनी
कैसे हलाल हो जाएगी? शराब तो शराब है। और यहां की शराब में
तो पानी भी मिला हो, वहां शुद्ध शराब है, वहां कोई मिलावट चलती है क्या? तुमने स्वर्ग को कोई
भारतीय समझा हुआ है? वहां तो शुद्ध मिलेगी और बड़ी प्राचीन
मिलेगी, सनातन, कि एक ही घूंट पी लोगे
तो सदियों न उठोगे। शराब के चश्मे बह रहे हैं--नहाओ, धोओ,
डुबकी मारो, तैरो! और यहां पीना मत। यहां किसी
तरह सम्हाले हुए हैं लोग अपने को, कि कोई बात नहीं, अरे दो दिन की जिंदगी है कट जाएगी; इतनी कट गई,
थोड़ी रही, यह भी कट जाएगी। फिर तो मजा ही मजा
है। झेल लो, इतना त्याग कर लो। यह सौदा करने जैसा है।
ये
सब सौदागर हैं। ये कोई सरल लोग नहीं हैं। इनको अगर अभी पता चल जाए कि कोई स्वर्ग
नहीं है, ये अभी अपनी माला वगैरह फेंक कर लंगोटी-वंगोटी फेंक कर वापस संसार में आ
जाएं, कि हम भी अच्छे बुद्धू! बने! कि नाहक बैठे समय खराब
किया! एकदम टूट पड़ें ये संसार पर। ये भी भोग की आकांक्षा से आतुर हैं। लेकिन इनकी
आतुरता तुमसे बड़ी है; ये क्षणभंगुर से राजी नहीं हैं। ये
कहते हैं: ऐसा सुख चाहिए जो सदा ठहरे। हमें शाश्वत सुख चाहिए। यह मन का और भी
विस्तार हो गया। यह मन घटा नहीं, कम न हुआ--और बढ़ गया,
और बड़ा हो गया। यह मन तो और भी साम्राज्यवादी हो गया। अब इसको बड़ा
साम्राज्य चाहिए, छोटे-मोटे से काम नहीं चलेगा। ये साधारण
स्त्रियां काम नहीं देंगी, इसको उर्वशी चाहिए, मेनका चाहिए। इसको इस जगत का सौंदर्य नहीं जंचता। इसको तो सोने के वृक्ष
चाहिए, जिसमें हीरे-पन्नों के फूल लगे हों, सड़कों पर हीरे-जवाहरात बिछे हों। जरा इसकी कामनाएं
तो देखो। स्वर्ग इसकी कामनाओं का सबूत है।
जिन
लोगों ने ये शास्त्र लिखे हैं और स्वर्गों का वर्णन किया है, यह सरल
चित्त लोगों की बात नहीं हो सकती। स्वर्ग में सुंदर-सुंदर परिधान हैं, सब सुंदर है, सुख ही सुख है। दुख का वहां नाम-निशान
नहीं। और इन्हीं ने नरक की कल्पना की। स्वर्ग की खुद के लिए और नरक की उनके लिए,
जो उनकी नहीं मानेंगे! अब बड़ी कठिनाई है। अगर ईसाइयों की मानो तो भी
जैनियों के हिसाब से नरक में जाओगे। अगर मुसलमानों की मानो तो भी ईसाइयों के हिसाब
से नरक में जाओ। दुनिया में तीन सौ धर्म हैं, अगर एक धर्म की
मानो तो दो सौ निन्यानबे के हिसाब से नरक में जाओगे और एक के हिसाब से स्वर्ग में।
संभावना नरक में ही जाने की ज्यादा है। दो सौ निन्यानबे धर्मों के महात्मा नरक
भेजने को तत्पर हैं। हां, एक ही धर्म के महात्मा तुम्हारा
साथ दें तो दें। और महात्माओं का क्या भरोसा! वहां भी धक्कमधुक्की होगी, क्योंकि महात्मागण यहां भी कुछ कम धक्कमधुक्की नहीं करते कि कौन आगे,
कौन बड़ा महात्मा! यहां भी उनके दावे कुछ कम नहीं हैं। यहां भी सब
एक-दूसरे से बढ़-चढ़ कर अपने को बताने की चेष्टा में लगे हैं। ये वहां भी छोड़ देंगे
प्रतियोगिता, इतना आसान नहीं है। वहां भी राजनीति चलेगी।
वहां भी बड़ी मारधाड़ मचेगी। तुम्हारा तो नरक ही निश्चित है, यह
समझ लो। स्वर्ग में तुम क्या पहुंच पाओगे! यहां भी पिछड़ गए हो जिंदगी में। यहीं
नहीं जीत पा रहे हो, जहां कि क्षणभंगुर का ही मामला है,
वहां कैसे जीतोगे जहां शाश्वत पर छीना-झपटी होगी?
तुम्हारे
लिए नरक का इंतजाम किया है। नरक का इंतजाम जिन्होंने किया है, इनको तुम
सरलचित्त कह सकते हो? फिर सरलचित्त का कोई अर्थ ही न रह
जाएगा। ये तो महादुष्ट लोग हैं, जिन्होंने नरक का आयोजन किया
है, नरक की कल्पना की है। कैसी कल्पना की है--कैसी घृणित,
गर्हित कल्पना! आदमी को चुड़ा रहे हैं कड़ाहों में, सड़ा रहे हैं। कीड़े-मकोड़े आदमी के भीतर दौड़ रहे हैं, आदमी
मरता भी नहीं, मर भी नहीं सकता। नरक में, मालूम है आत्महत्या नहीं कर सकते! नरक में आत्महत्या होती ही नहीं। नरक
में कोई उपाय ही नहीं है आत्महत्या का। गिरो पहाड़ से, मगर
जिंदा रहोगे। हड्डी-पसली टूट जाएगी, फ्रैक्चर हो जाएंगे।
प्यास लगेगी, जल के सरोवर सामने होंगे, मगर ओंठ सीए होंगे, पी न सकोगे पानी। कैसे-कैसे
दुष्ट लोगों ने यह कल्पना की होगी! ये कुछ हिटलर से कम हैं इस तरह के लोग?
मैं
तो कई दफा सोचता हूं कि हिटलर और स्टैलिन को भी जो खयाल मिले धर्मशास्त्रों से
मिले होंगे। नहीं तो इनको मिले कहां से? इतने ऊंच-ऊंचे खयाल, ऐसी गहन कल्पनाएं इनके हाथ कैसे लग गईं? धर्मशास्त्रों
से लगी होंगी।
हिंदुस्तान
में तो हिंदुओं का खयाल है ही कि जर्मनों के हाथ में जो भी लगा, वह हमारा
वेद ले गए उठा कर, उसी से लगा। और कुछ लगा हो कि न लगा हो,
मगर नरक की धारणा निश्चित वेदों से लगी होगी। हालांकि हिंदू और
आर्यसमाजी सोचते हैं कि हवाई जहाज बना लिया उन्होंने और एटम बम बनाने के करीब
पहुंच गए तो वह सब हमारे वेद के कारण। और तुम क्या कर रहे हो भैया? वेद तुम्हारे पास पांच हजार साल से कम से कम हैं, तुम
साइकिल भी न बना सके! तुम कम से कम साइकिल तो बना लेते! तुम बैठे-बैठे क्या करते
रहे? तुम्हारा वेद उनके हाथ में लग गया और उन्होंने हवाई
जहाज बना लिया। और तुम्हारे वेदों में साइकिल तक का वर्णन नहीं है। साइकिल का
पंक्चर जोड़ने का भी साल्युशन नहीं बना सके और तुम एटम बम बना लेते!
लेकिन
एक बात से मैं राजी हूं कि नरक के संबंध में जो भी जानकारी अडोल्फ हिटलर को हुई
होगी, वह तुम्हारे वेद से ही हुई होगी, तुम्हारे
धर्मशास्त्रों से ही हुई होगी। नहीं तो ऐसी-ऐसी ऊंची बातें कहां से पता चलतीं,
कि कैसे सताओ लोगों को? अडोल्फ हिटलर ने
ऐसे-ऐसे उपाय किए लोगों को सताने के कि मात कर दिया धर्मगुरुओं को भी। उसके
कारागृहों में यहूदियों को जैसी पीड़ाएं दी गईं, उनका वर्णन
सुन कर भी तुम्हारे रोएं-रोएं कंप जाएं, हृदय की धड़कन बंद हो
जाए। किस तरह सताया, किस बुरी तरह सताया! मरने भी न दे और
जीने भी न दे। और सताने की कितनी-कितनी नई-नई ईजादें कीं! छोटे बच्चों को, स्त्रियों को, पुरुषों को, सबको
कोई भेदभाव नहीं रखा, बिलकुल अद्वैतवादी था। अरे क्या भेदभाव
करना--कौन स्त्री कौन पुरुष, कौन बच्चा कौन बूढ़ा! ये तो सब
ऊपर की बातें हैं--माया! भीतर तो सब एक ही हैं। मारने में जरा भी संकोच नहीं किया,
क्योंकि मानता होगा कि आत्मा तो अमर ही है, मारने
में डर क्या? अरे कहीं आत्मा मरती है? मारो!
जैसा कृष्ण ने गीता में कहा है: काटो बेफिक्री से! न हन्यते हन्यमाने शरीरे। काटने
से कटती नहीं, मारने से मरती नहीं।
यह
अदभुत सूत्र अडोल्फ हिटलर को हाथ में कहां से लगा होगा? करोड़ों
लोगों को काट डाला। जरूर तुम्हारे ही धर्मग्रंथों से लगा होगा।
मैंने
सुना है कि एक आदमी जो भारतीय था, लेकिन जर्मनी में रहा और मरा, जब वह मर कर नरक के द्वार पर पहुंचा, तो उससे पूछा
शैतान ने कि तुम्हें किस नरक में जाना है--भारतीय या जर्मन? उस
आदमी ने कहा, हम तो सोचते थे नरक एक ही होता है। नरक में भी
भेद हैं? यह तो सुना नहीं, किसी
शास्त्र में पढ़ा नहीं।
शैतान
ने कहा कि आदमी बिना भेद के मानता ही नहीं, जहां जाएगा वहां भेद खड़ा करेगा।
कमबख्तों ने यहां भी भेद खड़े कर दिए हैं। यहां भारतीयों का अलग ही मुहल्ला है और
जर्मनों का अलग। तुझे कहां जाना है? तुझसे इसलिए पूछते हैं
कि तू रहा जर्मनी में और पैदा हुआ भारत में।
उसने
पूछा कि क्या मैं थोड़ी सी जानकारी चाह सकता हूं, मिल सकती है, कि दोनों में भेद क्या है? जर्मन नरक का क्या वर्णन
है?
उसने
कहा, जर्मन नरक का वर्णन यह है कि पिटाई होगी, समय से रोज
सुबह छह बजे पिटाई शुरू होगी, शाम छह बजे बंद होगी। ऐसी
पिटाई कि लहूलुहान हो जाओगे। खाने के लिए कूड़ा-करकट मिली हुई रोटियां मिलेंगी,
कंकड़-पत्थर मिली हुई रोटियां मिलेंगी। बिजली के कढ़ाहों में चुड़ाए
जाओ। सब वर्णन जो किया जाना था किया गया।
उसने
पूछा, और भारतीय नरक में?
उसने
कहा कि वहां भी बिजली के कढ़ाहों में चुड़ाए जाओगे, वहां भी सुबह छह बजे से शाम
छह बजे तक पिटाई होगी, लहूलुहान किए जाओगे। रोटियां मिलेंगी,
कंकड़-पत्थर मिले हों।
तो
उसने कहा, मैं कोई फर्क नहीं देखता।
शैतान
हंसने लगा। उसने कहा कि फर्क अनुभव से समझ में आएगा। जर्मन नरक में व्यवस्था जर्मन
ढंग से की जाती है। छह बजे का मतलब छह बजे! भारतीय स्वर्ग-नरक का मामला यूं है कि
कभी सात बजे भी नहीं आते पहरेदार, कभी आठ भी बज जाते हैं, कभी
दिन-दिन भर भी नहीं आते, छुट्टी पर चले जाते हैं कि बीमार हो
जाते हैं। जर्मन नरक में बिजली फेल नहीं होती। भारतीय नरक में दस-पंद्रह दफा तो
दिन में फेल होती ही है।
उस
आदमी ने कहा कि बस तो मुझे भारतीय में भेजो, मुझे जर्मन में नहीं जाना। इतना ही
भेद काफी है।
जर्मनों
ने और भी परिष्कार कर लिया। पढ़े तुम्हारे ही शास्त्र और उनको और परिष्कृत कर लिया।
जर्मन बुद्धि चीजों का परिष्कार करना जानती है और व्यवस्था देना जानती है और हर
चीज को गणित के हिसाब से चलाना जानती है।
आश्रम
की बिजली का काम भी मैंने हरिदास को दिया है--एक जर्मन संन्यासी को। पूना में
बिजली कितनी ही दफा फेल हो,
आश्रम में नहीं होने देता। पूना में होती रहे फेल, लेकिन आश्रम में फेल नहीं होने देता। हरिदास इसकी फिक्र पूरी करता है,
कि उसने इंतजाम कर रखा है पूरा। जनरेटर लगा रखे हैं आटोमेटिक कि इधर
बिजली फेल हुई कि उधर जनरेटर पर बिजली फौरन शुरू हो जाती है। पता ही नहीं चल पाता
कि आश्रम में कभी कोई बिजली फेल होती है। अब किसी भारतीय को मैंने भी नहीं दिया वह
काम।
यह
सीखा कहां से होगा?
यह जो इतनी दुष्टता दुनिया में है, यह
तुम्हारे संत-महात्माओं ने पहले ही इसका आयोजन शास्त्रों में कर रखा है। नरक औरों
के लिए, स्वर्ग अपने लिए। ये कोई सरल चित्त आदमियों के लक्षण
नहीं हो सकते। सरलचित्त व्यक्ति तो क्यों सोचेगा नरक की और स्वर्ग की? सरलचित्त व्यक्ति को न तो कोई नरक है, न कोई स्वर्ग
है। सरलचित्त व्यक्ति की ये धारणाएं ही नहीं हैं, ये
कल्पनाएं ही नहीं हैं। सरलचित्त व्यक्ति के लिए तो यहीं मोक्ष है। न स्वर्ग न नरक,
दोनों से मुक्ति है। सरलचित्त व्यक्ति तो यहीं निर्वाण को उपलब्ध हो
जाता है, प्रतिपल निर्वाण में जीता है। उसकी एक ही आकांक्षा
होती है, एक ही अभीप्सा, और उसकी एक ही
प्रार्थना, एक ही पूजा, एक ही
आराधना--कि और सब भी इसी निर्वाण में प्रविष्ट हो जाएं। वह क्यों सोचेगा नरक की
बातें?
ये
कोई सत्पुरुषों के लक्षण नहीं हैं। जो नरक की बातें सोची गई हैं, ये
दुष्टों की ईजादें हैं, दुष्टों की कल्पनाएं हैं। वे तुम्हें
सताना चाहते हैं। यहां नहीं सता पाए तो वहां सताने का आयोजन कर रहे हैं।
तुम्हारे
तथाकथित महात्मा बहुत महात्मा नहीं हैं। महात्मा दिखाई पड़ते हैं और तुम्हें
महात्मा मालूम भी होते हैं,
क्योंकि तुम्हारी धारणा के अनुकूल हैं। तुम्हारी धारणा ही तय कर
देती है कि कौन महात्मा है, कौन महात्मा नहीं है।
एक मित्र ने पूछा है--कृष्ण सत्यार्थी ने पूछा है कि भगवान, आपने
तथाकथित धर्म को राजनीति ही बताया। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण आचार्य तुलसी हैं। वे जब
प्रवचन करते-करते बीच में चुप होते हैं तो अग्रिम पंक्ति में बैठे श्रावक खम्माघणी
अन्नदाता बोलते हैं। यहां तक कि वे जब कुदरती वायु छोड़ते हैं, तब वे ही श्रावक वही खम्माघणी अन्नदाता बोलते हैं। उन्होंने अपने
उत्तराधिकारी को युवराज पद दिया है एवं पैंसठ वर्षीय मुनि नथमल को युवाचार्य घोषित
किया है। क्या आचार्य भी युवाचार्य, वृद्धाचार्य, एवं बालाचार्य होते हैं? क्या श्रावकों के इस तरह से
खम्माघणी अन्नदाता बोलने से चेतना में क्रांति हो सकेगी? बताने
की कृपा करें!
कृष्ण सत्यार्थी, जो आचार्य तुलसी को मानते हैं,
उनको इसमें कुछ अड़चन नहीं मालूम होगी। उनकी धारणा के अनुकूल सारी
बात हो रही है। जो उन्हें मानते हैं, उनकी मान्यताओं के
हिसाब से सब ठीक हो रहा है। मुंह पर पट्टी बांधे हुए हैं; एक
बार भोजन लेते हैं, मांग कर भोजन लेते हैं; पैदल चलते हैं; जूते नहीं पहनते। और क्या चाहिए?
यही तो महात्मा के लक्षण हैं। और महात्मा तो प्रतिनिधि है परमात्मा
का जगत में। परमात्मा अन्नदाता है, सो उसका प्रतीक महात्मा
भी अन्नदाता है। इसलिए खम्माघणी अन्नदाता।
एक
तो राजस्थान,
वह राजाओं का इलाका, वहां की भाषा में ही ये
बातें भर गई हैं। मैं राजस्थान जाता था तो वे मुझी को अन्नदाता कहते थे। मैंने कई
दफा कहा कि भैया, मुझे मत कहो। वह आचार्य तुलसी को कहते हो,
वह ठीक है। मैं किसी का अन्नदाता नहीं हूं। लेकिन मैं लाख मना करूं,
वे कहें कि नहीं-नहीं, आप कैसी बातें करते हैं
अन्नदाता! पुरानी आदतें पड़ी हैं। राजा-महाराजाओं का हिसाब-किताब रहा। तो संस्कार...कुछ
भी कहो तो वे कहेंगे: हुकुम! तो मैं उनसे कहता कि मेरे सामने हुकुम कहने की जरूरत
नहीं है। मैं कौन हुकुम देने वाला? लेकिन वह पुरानी दासता।
आचार्य
तुलसी को जो लोग अन्नदाता कह रहे हैं, उनकी मान्यताओं से उन्हें कोई अड़चन
नहीं मालूम होगी। सब मारवाड़ी हैं। कल देखा नहीं, मीरा ने
कहा: म्हारो देश मारवाड़! यह मारवाड़ तो अदभुत देश है। यह सदियों से गुलामी की
परंपरा में पला है, भाषा में भी गुलामी छा गई है। मुनि होकर
भी उत्तराधिकारी चुन लिया है, उसको भी युवराज कहते हैं। जैसे
कि राजा-महाराजा...राजा-महाराजा नहीं रहे, सांप मर गए मगर
लकीरें छोड़ गए। शर्म भी नहीं आती कि महात्मा के उत्तराधिकारी कोई युवराज कैसे! मगर
मारवाड़ में सब जमेगा, जंचेगा, बिलकुल
ठीक। हुकुम महाराज! वे कहेंगे: बिलकुल ठीक है, युवराज तो
होना ही चाहिए नाम। अब यह थोड़े ही देखना पड़ता है कि नथमल की उम्र कितनी है। पैंसठ
साल है, मगर आचार्य तुलसी के पास सबसे ज्यादा खुशामदी शिष्य
वही है। मैं तो उनको मुनि थोथूमल कहता हूं। सबसे थोथा आदमी आचार्य तुलसी के पास
वही है। अगर आचार्य तुलसी नंबर एक तो वह नंबर दो। स्वभावतः उन्होंने उसको अपना
युवराज चुन लिया। अपने जैसों को ही चुनेंगे न--खुशामदी, चापलूस,
चमचे जिनको तुम कहते हो।
मगर
प्रत्येक व्यक्ति को अपने धर्म में भूल-चूक नहीं दिखाई पड़ेगी, दूसरे के
धर्म में बिलकुल दिखाई पड़ जाएगी। कारण? क्योंकि हम जिस धर्म
में पैदा होते हैं, उसके रंग में बड़े होते हैं, उसी की धारणाओं में पलते-पुसते हैं; वे हमारे खून के
हड्डी-मांस-मज्जा के हिस्से बन जाते हैं।
दिगंबर
जैन मुनि नग्न चलता है,
दिगंबर जैनी एकदम आह्लादित होते हैं कि अहा, यह
है असली मुनित्व! और बाकी लोग एतराज उठाते हैं कि नंग-धड़ंग घुमाना लोगों को सड़कों
पर, यह बात ठीक नहीं है। आखिर हमारे बच्चे भी देखते हैं,
हमारी पत्नियां देखती हैं। और देखने योग्य भी कहां है दिगंबर जैन
मुनि में कुछ? अस्थिपंजर हो गए होते हैं। कुछ देखने योग्य हो
तो भी ठीक है। देख कर और एकदम वीभत्स मालूम होते हैं। देख कर विराग पैदा हो,
कि पति देख ले तो एकदम भाग जाए पत्नी को छोड़कर, पत्नी देख ले तो फिर पति के पास कभी बैठे नहीं, कि
सब हो गया, अगर शरीर की यह हालत होनी है तो बात खतम। इसलिए
तो वह इतना शरीर को वीभत्स बनाए हुए हैं, ताकि लोगों में
विराग पैदा हो। दतौन नहीं करते, स्नान नहीं करते। विराग पैदा
करवाने के कैसे-कैसे आयोजन किए हुए हैं! अब दूसरा कोई देखेगा तो स्नान नहीं करने
को कहेगा, यह तो बात बड़ी अस्वच्छ हो गई। कम से कम आदमी को
स्वच्छता का तो खयाल रखना ही चाहिए। और महात्मा अस्वच्छ रहे, यह तो ठीक नहीं। ये कैसे महात्मा कि दतौन भी न करें! इनके दांतों पर परतें
जमी होती हैं। इनके मुंह से बदबू आती है। अब दतौन नहीं करोगे तो बदबू आएगी ही।
जैन
मुनि से बात करना पास बैठ कर मुश्किल होता है। मेरे पास आते थे तो मुझे बड़ी हैरानी
और बड़ी मुश्किल होती थी। उनके मुंह से बदबू आती भयंकर बदबू आती। वे इस तरह बदबू का
प्रचार कर रहे हैं,
ताकि लोगों में विराग उत्पन्न हो। वे तो सेवा में लगे हुए हैं। मगर
दूसरों को देख कर अड़चन होगी। दूसरों को देख कर बड़ी बेचैनी होगी कि यह किस तरह का
महात्मापन है। यह तो कुछ रुग्ण अवस्था मालूम होती है। यह तो कुछ पागलपन मालूम होता
है।
दिगंबर
जैन मुनि बाल उखाड़ता है,
क्योंकि वह किसी तरह के साधन का उपयोग नहीं करता। अब उस्तरे का
उपयोग करे या रेजर का उपयोग करे तो वह साधन हो गया, तो हाथ
से उखाड़ता है। भीड़ इकट्ठी होती है दिगंबरों की देखने, कि जब
महाराज केश-लुंच करते हैं, बड़ा उत्सव मनाया जाता है। आंसू
बहते हैं जैनियों की आंखों से कि अहा, धन्यभाग हमारे कि
केश-लुंच देखने मिल गया! और तुम देखो, तुम्हें लगेगा कि यह
क्या गधापच्चीसी हो रही है! यह आदमी पागल है कि होश में है, क्या
कर रहा है? बाल उखाड़ रहा है। विक्षिप्त होते हैं कुछ लोग,
जो बाल उखाड़ते हैं। खास तरह के पागलपन में लोगों को बाल उखाड़ने की
सनक सवार होती है। तुम तो कहोगे कि यह कुछ न कुछ आदमी विक्षिप्त है। अगर
मनोवैज्ञानिक के हाथ में पड़ जाए तो वह इसका इलाज करेगा; नहीं
मानेगा तो बिजली के शाक देगा, कि इसको रास्ते पर लाना पड़ेगा।
अगर ये दिगंबर जैन मुनि भारत के बाहर पश्चिम में चले जाएं तो फौरन पकड़ कर जेल में
बंद किए जाएंगे। इसलिए जैन मुनि बाहर गए भी नहीं कभी। कारण साफ है।
जैन
धर्म का प्रचार भारत के बाहर क्यों नहीं हुआ? बौद्ध धर्म का हो सका। दोनों धर्म
एक साथ पैदा हुए। बौद्ध धर्म ने सारे एशिया को रंग दिया। जैन धर्म क्यों पिछड़ गया?
कुल कारण इतना था कि बौद्ध भिक्षु कपड़े पहन सकता था, नहाता-धोता था, दतौन करता था। यह जैन मुनि को कौन
बरदाश्त करेगा! यह जहां जाता वहीं से भगाया जाता। इसलिए यह भारत के बाहर कहीं जा
नहीं सका। भारत में भी वहीं घूमता है जहां जैनी घर हों, गैर-जैन
इलाकों में भी नहीं घूम सकता, क्योंकि वहां भी इसको कौन
बरदाश्त करेगा!
मगर
यह सारे धर्मों के बाबत में सच है। हिंदू महात्मा हिंदू को महात्मा लगता है। ईसाई
से पूछो, तो वह कहेगा इसमें महात्मा क्या है? महात्मा है मदर
टेरेसा, जो अपाहिजों की, अनाथों की
सेवा करती है, लंगड़े-लूलों की सेवा करती है, अंधों की--वह है महात्मा! ये किस तरह के महात्मा? नहीं
ईसाई मान सकता, ये मुक्तानंद के गुरु नित्यानंद महात्मा हैं
यह नहीं मान सकता।
जरा
नित्यानंद की फोटो देखो। इतनी बड़ी तोंद, मैं नहीं समझता कि दुनिया में किसी
आदमी के पास थी। और लोगों को तोंद होती है, यहां बात उलटी
थी: यहां तोंद को आदमी था। तोंद असली चीज है। यह कैसे उठता-बैठता है आदमी, यही मुश्किल समझ में आती है। तो ईसाई कोई राजी नहीं होगा कि इसको महात्मा
माने। इस आदमी को कहेगा, यह आदमी विक्षिप्त है। इतना तो कोई
साधारण भोगी भी नहीं खाता-पीता जितना यह आदमी खा-पी रहा है। इतना बड़ा पेट, मगर अगर हिंदू महात्मा का पेट बड़ा न हो तो महात्मा ही क्या खाक! उसका पेट
बड़ा होना ही चाहिए। उससे ही तो पता चलता है कि आत्मा कितनी बड़ी है! अरे छोटे से
पेट में छोटी ही आत्मा रहेगी न! पेट बड़ा होगा तो बड़ी आत्मा रहेगी; विराट आत्मा होगी तो विराट पेट होता चला जाएगा।
हिंदू
महात्मा सेवा लेता है,
करता नहीं। सदियों से उसने सेवा ली है। सेवा करने का सवाल ही नहीं
उठता। ईसाई महात्मा सेवा करता है, सेवा लेने की बात ही नहीं
उठती। मगर वह ईसाई को ही महात्मा मालूम पड़ता है। किसी और से पूछो। अगर तुम जैनों
से पूछो कि ईसाई महात्मा मदर टेरेसा जो सेवा करती है, नोबल
प्राइज मिली है, अभी भारत-रत्न की उपाधि मिली है, जगह-जगह उपाधि दी जा रही हैं, इस संबंध में जैनियों
का क्या खयाल है? तो वे कहेंगे कि इसने पिछले जन्म में
दुष्कर्म किए होंगे। पापों के कर्म के कारण ही इस तरह के काम करने पड़ते हैं कि
कोढ़ियों के पैर दाबो; कोई न कोई पाप किया होगा पीछे, नहीं तो कोई कोढ़ियों के पैर किसलिए दाबेगा? बिना पाप
के ऐसा क्यों होगा? जिसने पुण्य-कर्म किए हैं, उसके दूसरे लोग पैर दाबेंगे कि वह दूसरों के पैर दाबेगा?
उनकी
बात में भी बल मालूम होता है। और फिर जैन खासकर आचार्य तुलसी के पंथ के मानने वाले, तेरापंथी
मानते हैं कि किसी की सेवा भूल कर मत करना, क्योंकि सेवा
करने का अर्थ है: उसके कर्मों में बाधा डालना। समझो कि एक आदमी कुएं में गिर गया;
अब तुम सेवक हो और तुमने उसे निकाल बाहर कर दिया। उसने कोई पाप किया
होगा। पिछले जन्म में किसी को धकाया होगा कुएं में, कुछ किया
होगा उपद्रव, जिसका फल भोग रहा था कुएं में गिर कर। और आप आ
गए बीच में बाधा डालने, इसको फिर कुएं में गिरना पड़ेगा। कर्म
का सिद्धांत तो पूर्ण होकर रहेगा। और तुमने जो बाधा दी इसके कर्म में आकर, उससे तुमने एक दुष्कर्म बांध लिया। अब तुम झंझट में पड़ोगे। इसको तो कुछ
लाभ हुआ नहीं, इसकी तुमने हानि कर दी। यह छुटकारा हुआ जा रहा
था, इसका बेचारे का एक झंझट से छुटकारा हुआ जा रहा था,
एक पाप कटा जा रहा था, उसका फल भोग रहा था;
आप आ गए बीच में, फल नहीं भोगने दिया। जैसे किसी
के हाथ में से थाली छीन ली, वह भोजन करने जा रहा था कि फिर
भूखा कर दिया उसे। और अगर यह समझो कि आदमी जाए गांव में और एक आदमी की हत्या कर दे,
या किसी की चोरी कर ले, या किसी के मकान में
आग लगा दे, अरे जो आदमी कुएं में गिर कर आत्महत्या कर रहा था
वह कुछ भी कर सकता है। और जिंदगी में कुछ तो करेगा ही न यह अब। अब जिंदा रहेगा तो
कोई ऐसे ही तो नहीं बैठा रहेगा, कुछ न कुछ करेगा। तो जो भी
पाप यह करेगा उसके भागीदार तुम भी होओगे। न तुम बचाते, न यह
पाप करता।
यह
गणित भी सोचने जैसा है। तेरापंथी कहते हैं, इसलिए किसी की सेवा मत करना। अगर
कोई कुएं में भी गिर गया हो तो अपने रास्ते पर जाना, अपनी
आंखें नीची करके गुजर जाना। इस उत्तेजना में मत पड़ना। यह उत्तेजना तुम्हारे मन को
पकड़ेगी। वह चिल्ला रहा है कि बचाओ। सावधान! बचाने वगैरह की झंझट में मत पड़ना। अगर
तुम्हें मोक्ष पाना है तो और नये जाल खड़े मत करो।
मदर
टेरेसा कोई जैनियों के हिसाब से महात्मा नहीं है।
एक
जैन मुनि ने मुझसे कहा कि आप जीसस का नमा जब महावीर के साथ लेते हैं तो हमें बहुत
दुख होता है। मैंने कहा,
क्यों?
उन्होंने
कहा, स्वभावतः जीसस को सूली लगी, साफ लिखा है जैन
शास्त्रों में कि सूली पिछले जन्मों के किसी महापाप के कारण लगती है। न किया होता
पाप...तो सूली क्यों लगती? महावीर तो चलते थे तो अगर रास्ते
पर कांटा भी पड़ा हो, सीधा पड़ा हो; तो
जल्दी से उलटा हो जाता था क्योंकि इतना पुण्यात्मा आदमी आता है, उसके पैर में कांटा भी नहीं लग सकता, सूली की तो बात
दूर, कांटा नहीं चुभ सकता। पुण्य उसकी रक्षा करते हैं।
मुसलमानों
से पूछो। वे कहेंगे कि सूली तो नहीं लगनी चाहिए। मोहम्मद जब चलते थे अरब में तो
उनके ऊपर एक बदली छाया करके चलती थी। जहां जाते वहीं बदली जाती। छाया रखती।
परमात्मा फिक्र करता है। ये कैसे परमात्मा के इकलौते बेटे कि वक्त पर दगा दे गया!
अपना बाप भी अपना साबित न हुआ। और जीसस ने कहा भी है मरते वक्त कि हे प्रभु, क्या तूने
मुझे छोड़ दिया? यह तू मुझे क्या दिखा रहा है?
तो
मुसलमान कहेंगे,
इससे क्या जाहिर होता है? इससे जाहिर होता है
कि खुद जीसस को भी शक पैदा हो रहा है कि मैं भी किसके चक्कर में पड़ा रहा, किसके पीछे जान गंवा रहा हूं! वह उतरा नहीं, न कोई
चमत्कार घटा। यह तो अवसर था। अरे जरूरत के वक्त मित्र का पता चलता है। और इसको मैं
पिता कहता रहा, बार-बार कहता रहा: अब्बा! अब्बा! पुकारता
रहा। न सुनी गई खबर, न प्रार्थना पहुंची कोई।
हरेक
धर्म की अपनी धारणा है। उसकी धारणा के अनुसार उस धर्म के मानने वाले बिलकुल अंधे
होते हैं। उन्हें अपनी बात ही दिखाई पड़ती है, औरों की बात दिखाई नहीं पड़ती। अगर
ईसाई से पूछो तो वह कहेगा: महावीर और बुद्ध, इन्होंने क्या
किया? इन्होंने कौन सा त्याग किया? जीसस
ने जीवन का बलिदान दिया, अपने को समर्पित कर दिया, अपने को लुटा दिया। इन्होंने क्या किया? इनकी क्या
महत्ता है? इनका क्या मूल्य है? ये तो
स्वार्थी लोग थे। कोई बारह वर्ष ध्यान करता रहा, यह कोई ढंग
है? जब कि अनाथ भूखे मर रहे हैं, गरीब
परेशान हो रहे हैं, बीमार लोग हैं। महावीर को अस्पताल खोलना
चाहिए, स्कूल खोलना चाहिए। बुद्ध को वृद्धाश्रम खोलना चाहिए।
और ये बैठे वृक्ष के नीचे बोधगया में ध्यान कर रहे हैं। स्वार्थी कहीं के! जीसस ने
अंधों को आंखें दीं, लंगड़ों को पैर दिए, मुर्दों को जिलाया। महावीर ने, बुद्ध ने क्या किया?
बड़ा
मुश्किल मामला है। कैसे तय करो? जैनों से पूछो राम के बाबत, तो वे कहेंगे: ये कोई भगवान हैं, धनुष-बाण लिए चल
रहे हैं! यह तो ऐसे ही हुआ कि भगवान बंदूक लिए चल रहे हैं। आधुनिक होते तो बंदूक
लिए चलते। पुराने जमाने के थे, तो धनुष-बाण लेकर चल रहे हैं।
अब तुम भगवान को बंदूक लिए चलते देखो, तो मानोगे कि ये भगवान
हैं? ये कैसे भगवान, बंदूक! बंदूक तो
सब भगवत्ता ही खराब कर देगी। मगर धनुष-बाण लिए!
और
तुलसीदास कहते हैं कि जब तक धनुष-बाण ने हो तब तक मैं सिर ही नहीं झुकाऊंगा। पहले
धनुषबाण लो हाथ! कृष्ण के मंदिर में गए तो वहां भी कहा कि मैं नहीं झुकूंगा, जब तक
धनुष-बाण हाथ नहीं लोगे, मैं नहीं झुकूंगा। बाबा तुलसीदास
अपनी जिद पर रहे। और कहते हैं कि कृष्ण को धनुष-बाण हाथ लेना पड़े। अरे झुकवाना हो
अगर किसी को तो आदमी कुछ भी करता है। बेचारे कृष्ण ने ले लिया होगा धनुष-बाण कि चल
भैया, मगर झुको तो कम से कम! झुकाने के लिए इनकी भी खूब
उत्सुकता है! और बाबा तुलसीदास भी एक! उन्होंने कहा कि ऐसे नहीं झुकूंगा, झुकने में भी शर्त है! झुकने में भी, समर्पण में भी
शर्त है कि तुम पहले अपने ढंग बदलो, धनुष-बाण हाथ लो। यह
मोर-मुकुट और बांसुरी वगैरह नहीं चलेगी। पहले ढंग से खड़े होओ, तब मैं झुकूंगा। झुकाना हो तो तुम्हारी मर्जी, न
झुकाना हो तो आगे बढ़ो।
तुलसीदास
को धनुष-बाण के बिना राम जंचते नहीं। जैनों को धनुष-बाण लिए हुए राम एकदम उपद्रवी
मालूम होते हैं। यह कोई ढंग है! एक महावीर हैं, जिनके पास कुछ भी नहीं
है--निःशस्त्र, निहत्थे। अहिंसक को ऐसा होना चाहिए। इधर
कृष्ण हैं कि मोर-मुकुट बांधे हुए नाच रहे हैं। अकेले नहीं हैं, स्त्रियां नाच रही हैं; खुद की भी नहीं, औरों की भी नचा रहे हैं। सोलह हजार स्त्रियां थीं, इनके
एक ही खुद की परिणीता थी। और परिणीता से तो कम ही संबंध रहा। रुक्मणी का ज्यादा
स्मरण नहीं आता कथाओं में। बाकी जो दूसरों की उड़ा लाए, किसी
की भी लगा लाए, पता नहीं कितने घर उजाड़ दिए होंगे! सोलह हजार
पत्नियां!
मैं
सौराष्ट्र जाता था तो एक दफा तुलसी-श्याम में शिविर था। सुंदर जगह है। वहां नीचे
तुलसी-श्याम का मंदिर है और पहाड़ी पर रुक्मणी का मंदिर है। मैंने पूछा कि मामला
क्या है? रुक्मणी वहां उतने दूर?
उन्होंने
कहा, रुक्मणी गुस्सा होकर वहां बैठी है कि ये भैया तुलसी के साथ रास रचा रहे
हैं, तो रुक्मणी नाराज होकर वहां बैठी है। मगर वह भी ऐसी जगह
पर बैठी है जहां से दिखाई पड़ता रहे, कि क्या कर रहे हो,
कहां तक बात पहुंची! नजर रखे हुए है। मंदिर ऐसी जगह बना है, जहां से कि रुक्मणी देखती रहे कि क्या खेल चल रहा है।
रुक्मणी
का कम ही उल्लेख आता है। वही एकमात्र विवाहित है, बाकी और सब का उल्लेख आता है--राधा
इत्यादि हैं--वे कोई विवाहित नहीं हैं। इनको कैसे जैन मान लें कि ये भगवान हैं!
ये
तो धारणाएं हैं अलग-अलग धर्मों की, सरलचित्त व्यक्ति इन सारी धारणाओं
को छोड़ देता है। वह न हिंदू होता है, न मुसलमान, न जैन, न ईसाई। उसकी सारी सीमाएं टूट जाती हैं। वह
सिर्फ सरल होता है। ये सब धारणाएं जटिल बनाती हैं। वह ध्यानमग्न होता है, शून्य होता है। और उसी शून्य से जीता है। उसी शून्य में पूर्ण का अवतरण
होता है। उसी शून्य में पूर्ण का अतिथि एक दिन आता है, द्वार
खटखटाता है।
चिंता, शून्य बनो
और तुम सरल हो जाओगी, निर्दोष हो जाओगी। हिंदू नहीं चाहिए
दुनिया में, मुसलमान नहीं चाहिए, ईसाई
नहीं चाहिए, भारतीय नहीं चाहिए, जापानी,
चीनी नहीं चाहिए। इस पृथ्वी से अब सारे भेदभाव गिरने चाहिए। इस
पृथ्वी पर धार्मिक लोग चाहिए। धर्म नहीं चाहिए, धार्मिकता
चाहिए। एक धार्मिक भाव चाहिए। प्रार्थना और प्रेम और सहजता और सरलता और निर्दोषता
चाहिए। तो हम एक नई मनुष्यता की आधारशिला रख सकते हैं।
दूसरा प्रश्न: भगवान,
क्या आप अंग्रेजी भाषा के विरोध में हैं? आप कुछ भी
कहें, मैं तो अंग्रेजी सीखूंगी।
सीता,
मैया, जैसी
मर्जी। सीखो। मैं अंग्रेजी भाषा के विरोध में नहीं हूं। मैंने तो यह सोच कर कि
तुम्हारी उम्र ज्यादा हुई, अब कहां की झंझट में पड़ना...! अब
समय आ गया भूलने का और तुम सीखने में लगोगी! अब समय आ गया कि जो जानती हो वह भूलो।
अब समय आ गया कि भाषा छोड़ो, मौन में उतरो। समय आ गया कि
शब्दों को जाने दो, निःशब्द को पकड़ो। और तुम कहती हो,
अंग्रेजी सीखेंगे!
तुम्हें
चिंता इसकी पड़ी है कि यहां रहना है तो यहां इतने लोग हैं विदेशों से, उनसे कैसे
संबंध बनेगा? यहां रह कर तुम्हें मुझसे संबंध बनाना है या
उनसे संबंध बनाना है? यहां रह कर तुम्हें परमात्मा से संबंध
बनाना है या यहां की भीड़-भाड़ से संबंध बनाना है? अगर
परमात्मा से संबंध बनाना है तो मौन सीखो। और सब भूलो। और अगर यहां लोगों से संबंध
बनाना है, फिर तुम्हारी मर्जी; फिर
अंग्रेजी सीखो, जर्मन सीखो, जापानी
सीखो, जो तुम्हें सीखना हो सीखो। थोड़े-बहुत दिन जो जिंदगी के
बचे हैं, जैसे गंवाना हो गंवाओ। ऐसे ही जिंदगी गंवा दी। चार
दिन की जिंदगी है।
उम्रे
दराज मांग के लाए थे चार दिन
दो
आरजू में कट गए दो इंतजार में
यूं
ही गुजर जाते हैं चार दिन--दो आरजू में, दो इंतजारी में। अब तुम्हें
अंग्रेजी सीखनी है!
मैं
कोई अंग्रेजी के विरोध में नहीं हूं। मैं तो चाहता हूं कि भारत में अंग्रेजी
अनिवार्य रहे। मैं तो चाहता हूं कि भारत में तीन भाषाएं प्रत्येक व्यक्ति को सीखनी
चाहिए। अंग्रेजी अंतर्राष्ट्रीय भाषा की तरह अनिवार्य होनी चाहिए। हिंदी राष्ट्रीय
भाषा की तरह अनिवार्य होनी चाहिए। और एक तीसरी भाषा, प्रादेशिक भाषा की भांति
अनिवार्य होनी चाहिए। अंग्रेजी टूटी जा रही है भारत से। और जैसे ही अंग्रेजी भारत
से टूटेगी, भारत का भविष्य अंधकारपूर्ण हो जाएगा। क्योंकि
अंग्रेजी सेतु है विश्व के साथ। अंग्रेजी सेतु है भविष्य के साथ। अंग्रेजी सेतु है
विज्ञान के साथ। अंग्रेजी से जैसे ही भारत का संबंध टूटा कि भारत फिर
पंडित-पुरोहितों के चक्कर में पड़ जाएगा--वही अंधविश्वास, वही
मूढ़ताएं जो सदियों हमने ढोई हैं, फिर हम ढोने लगेंगे।
इसलिए
पंडित-पुरोहित बिलकुल खिलाफ हैं। वे कहते हैं: संस्कृत को बनाओ राष्ट्रभाषा।
स्वभावतः उनका न्यस्त स्वार्थ इसमें है। अगर संस्कृत राष्ट्रभाषा हो जाए तो फिर
क्या कहना! फिर तो बिल्ली के भाग्य से छींका टूटा। फिर तो सब मूढ़ताएं वे वापस ले
आएं जो किसी तरह छूट गई हैं; या नहीं छूटी हैं तो कम से कम छूटने के करीब
हैं। फिर सती-प्रथा हो शुरू। फिर ढांढन सती की सजाओ झांकी! फिर करो सब उपद्रव जो
तुम करते रहे सदियों से और गंवाते रहे। फिर मूढ़ता में पड़ जाओ अतीत की।
नहीं, मैं
अंग्रेजी-विरोधी नहीं हूं। मैं तो इसलिए कहा कि अब इस उम्र में कहां झंझट में पड़ना
तुझे! अब तुझे अपनी फिक्र कर लेनी चाहिए, पता नहीं कब आखिरी
सांस आती हो। कल आ जाए कि परसों आ जाए कि आज ही आ जाए। वैसे तेरी बात भी मैं समझता
हूं। ऐसे लोग भी हैं जो अंग्रेजी के दीवाने हैं।
जसोदा
हरि अंग्रेजी पढ़ावै,
मेरो
लाल कॉनवेंट जात है,
इंग्लिश पोइम गावै।
टा
टा कहि जब विदा होत है,
रोम रोम हरषावै।
आंटी
सुनि चाची बलि जावै,
अंकिल मूंछ फरकावै।
डांस
करत कजिन सिस्टर संग,
नंदबाबा मुसकावै।
बरसाने
या छवि कौ निरखत,
अंग्रेजहु शरमावै।
जसोदा
हरि अंग्रेजी पढ़ावै।
सीता
मैया, जैसी इच्छा! खुद भी पढ़ो, राम जी को भी पढ़ाओ!
आखिरी प्रश्न:
भगवान,
पूरब-पश्चिम, विज्ञान-धर्म और बाहर-भीतर का
संतुलन जो आप करने का प्रयास कर रहे हैं, यह साधारण जन की
समझ में क्यों नहीं आता है?
कमल भारती,
साधारण
जन का अर्थ ही यही होता है जिसकी समझ में कुछ नहीं आता। समझ में ही आ जाए, फिर
साधारण जन क्यों, फिर तो असाधारण हो जाए न। समझ असाधारण
बनाती है। समझ न हो तो साधारण जन, पृथक जन। सूझ-बूझ न हो,
अंधा हो, लकीर का फकीर हो, परंपरागत ढंग से जीता हो, रूढ़िग्रस्त हो--साधारण।
ऐसे
सभी असाधारण पैदा होते हैं और सभी साधारण हो जाते हैं। क्योंकि सभी जल्दी ही न
मालूम किन-किन चक्करों में पड़ जाते हैं। सबकी प्रतिभा खो जाती है। सब दर्पण लाते
हैं ताजा, जिसमें परमात्मा की छबि बने, पर जल्दी ही खूब धूल जम
जाती है।
फिर, साधारण जन
अपने ही ढंग से सोचता है, सुनता है। मैं जो कहता हूं,
वही थोड़े ही सुनता है वह। मैं कुछ कहता हूं, वह
कुछ सुनता है।
मुल्ला
नसरुद्दीन की पत्नी बीमार थी। उसको देखने डाक्टर आया था। उसको देखने के बाद मुल्ला
नसरुद्दीन उसे दूसरे कमरे में ले गया और कहा कि हालत तो मेरी भी खराब है। अब आप आए
ही हैं तो जरा मेरी भी जांच-पड़ताल कर लें। डाक्टर ने कहा, लेटो।
जांच-पड़ताल की, कहा कि तुम्हारी हालत जरूर खराब है। ऐसा
मालूम होता है कोई बहुत पुरानी बीमारी है, जो आपके स्वास्थ्य
को और मानसिक शांति को नष्ट कर रही है।
मुल्ला
नसरुद्दीन बोला कि खुदा के लिए जरा धीरे बोलो, वह दूसरे कमरे में ही बैठी हुई है।
डाक्टर
बोला, दूसरे कमरे में बीमारी बैठी हुई है!
बोला, अभी-अभी
जिसकी जांच करके आए हो, वही तो मेरा स्वास्थ्य खाए जा रही है
और मानसिक शांति खाए जा रही है। जब से वह मिली है तब से सब चौपट हो गया है।
डाक्टर
बीमारी की बात कर रहा है,
मुल्ला अपनी पत्नी की बात समझ रहा है। उसके भीतर तो एक ही घूम रहा
है मामला कि यह बीमारी से कैसे छुटकारा हो। हरेक के भीतर अपनी-अपनी कल्पनाएं हैं,
अपने पक्षपात हैं।
मैं
तुमसे कुछ कहूंगा,
तुम कुछ सुनोगे। रुचि-भेद है। पक्षपात है। निर्मल चित्त कहां,
जो समझ सके वही बात जैसी कही जाए?
तुम
भले उगाओ
कैक्टस
अपने
लान में
तुम्हारी
मां तो
आंगन
की तुलसी पर ही
धरती
है दीया।
स्वभावतः
तुम कितने ही कैक्टस उगाओ,
तुम लाख घर में कैक्टस सजाओ, तुम यह आशा मत
रखना कि तुम्हारी माताराम कैक्टस के पास दीया जलाएंगी शाम को। वह तो तुलसी पर
ही...
तुम
भले उगाओ
कैक्टस
अपने
लान में
तुम्हारी
मां तो
आंगन
की तुलसी पर ही
धरती
है दीया।
ड्राइंग
रूम में
तुम
भले सजा लो
पिकासो
की पेंटिंग्स
शयनकक्ष
में तो
अभिनेत्रियों
के भड़कदार कैलेंडर्स
टांग
रखे हैं घरवाली ने।
बुक-शेल्फ
में
तुम
भले रख लो
काफ्का
और सार्त्र,
तुम्हारा
छोटा भाई तो
छिप-छिप
कर पढ़ता है
खूनी
पंजा
और
असली कोक-शास्त्र।
साधारण
जन क्यों नहीं समझ पाते,
तुम पूछते हो कमल! साधारण जन की खोपड़ी भरी है न मालूम किस-किस कचरे
से! उस कचरे को पार करके पहुंचना आसान नहीं। उस कचरे में से जाते-जाते ही बात का
रंग-ढंग बदल जाता है, रूप बदल जाता है।
आज
अपने विवाह की हम रजत-जयंती मना रहे हैं--फोन पर निमंत्रण देते हुए एक अभिनेता ने
अपने मित्र से कहा।
आश्चर्य
है--मित्र ने कहा--कलियुग में भी आप जैसे सतयुगी लोग मौजूद हैं! क्या सचमुच ही
आपके विवाह को पच्चीस वर्ष हो गए? विश्वास नहीं आता।
अभिनेता
ने कहा, गलतफहमी में मत पड़ो भाई। रजत-जयंती का अर्थ है--इस वर्ष में मेरा यह
पच्चीसवां विवाह है।
अर्थ
अलग, भाव अलग। इसमें कुछ आश्चर्य नहीं कि साधारण जन, मैं
जो कहता हूं उसे समझ नहीं पाते। समझ लें तो असाधारण हो जाएं। नहीं समझ पाते,
तभी तो साधारण हैं।
थोड़े
से ही लोग समझ पाएंगे मेरी बातें को। पर थोड़े से ही लोग समझ लें तो काफी है, क्योंकि
थोड़े से लोग ही इस जगत में प्रकाश को आमंत्रित करने के पात्र हो पाते हैं। और थोड़े
से लोग ही अगर दीये बन जाएं तो काफी रोशनी हो जाती है। फिर उस रोशनी में साधारण जन
भी धीरे-धीरे अपने बुझे दीयों को जलाने लगते हैं।
लेकिन
साधारण जन तो पीछे आएंगे,
बहुत देर में आएंगे। प्रतिभाशाली लोग ही पहले मेरे आ सकते हैं। पहले
मेरा संदेश उनकी ही समझ में पड़ेगा। हिम्मत और साहस जिनके भीतर है, जो दांव पर लगा सकते हैं, सब कुछ दांव पर लगा सकते
हैं--वे ही केवल मेरी बातों को समझने की हिम्मत जुटा पाएंगे। नहीं तो कई समझ भी
जाते हैं, तो भी अनसमझी कर देते हैं; सुन
लेते हैं, अनसुनी कर देते हैं।
मैं
इलाहाबाद में बोल रहा था। एक मित्र मेरे सामने ही बैठे सुन रहे थे। उनकी पत्नी
उनके बगल में ही बैठी थी। मैंने उनकी आंख से आंसू झरते देखे। और फिर बीच में ही वे
उठ कर एकदम चल पड़े। मैं थोड़ा हैरान हुआ कि क्या हुआ। सभा के बाद मैंने उनकी पत्नी
को पूछा कि तुम्हारे पति को क्या हुआ? उसने कहा कि मैं भी कुछ समझी नहीं।
इतने भाव-विभोर थे, इतने वर्षों से आपकी प्रतीक्षा करते थे,
आपकी किताबें पढ़ते हैं, टेप सुनते हैं,
दीवाने हैं आपके, पास-पड़ोस में रजनीशी करके
जाने जाते हैं, अभी भी बैठे-बैठे रो रहे थे और फिर बीच में
क्यों उठ कर चले गए, मुझे भी पता नहीं!
मैं
उनके घर पहुंचा। रास्ते में उनका घर पड़ता था, जहां मैं ठहरा था। सभा-स्थल से
जाते वक्त मैंने कहा कि उनके घर ले चलो। घर पहुंचा तो उन्होंने कहा, आप यहां भी आ गए! मुझे बख्शो!
मैंने
कहा, बात क्या है?
उन्होंने
कहा कि आपकी बात इतनी ठीक मालूम पड़ती है कि मुझे खतरा दिखाई पड़ता है। खतरा यह कि
कहीं मैं इन बातों में पड़ गया तो मेरी घर-गृहस्थी कच्ची है, पत्नी है,
छोटे-छोटे बच्चे हैं, बूढ़े मां-बाप हैं,
इन सबका क्या होगा? वहां बैठ कर मुझे ऐसा लगा
कि संन्यास ही ले लूं। जैसे ही मुझे लगा कि संन्यास का भाव उठा, फिर मैं भागा। मैंने कहा इधर से निकल ही जाना बेहतर है। इसलिए मैं उठ आया।
आप मुझे क्षमा करेंगे! मैंने बीच में उठ कर बाधा डाली, मैं
क्षमायाची हूं। मगर अभी नहीं। आऊंगा, समय आने दें। अब न आपकी
किताब पढूंगा, न आपका टेप सुनूंगा। आपको नहीं मिला था,
नहीं देखा था, नहीं सुना था, तो सोचता था कि किताब पढ़ने की बात है, पढ़ ली। लगती
थी, हृदय को छूती थी, बुद्धि को भी
भाती थी। मगर आप को देख कर लगा कि यह मामला गहरा है, यह
बुद्धि तक रुकने वाला नहीं है, यह हृदय तक ही ठहर जाने वाला
नहीं है। यह आत्मा तक तीर उतर जाएगा। इतनी मेरी अभी हिम्मत नहीं है।
दस
वर्ष हो गए, उनकी हिम्मत अभी तक नहीं हो पाई, वे नहीं आ पाए हैं।
कभी-कभी कोई खबर लाता है उनकी कि मेरा नाम सुनते हैं तो उनकी आंखों में आंसू आ
जाते हैं।
सुन
कर भी लोग अनसुनी कर देते हैं। कभी-कभी समझ कर भी नहीं समझना चाहते। साधारण जन की
तो बात कमल, कहनी ठीक ही नहीं है। साधारण जन एक तो आते ही नहीं। आ भी जाते हैं तो यहां
जो हो रहा है, उनकी समझ-बूझ के बिलकुल बाहर है। वे बिलकुल
किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाते हैं। वे बंधी हुई धारणाएं लेकर आते हैं। उनकी सब धारणाएं
टूट जाती हैं। आश्रम से उनका मतलब होता है कि बुङ्ढे-ठुङ्ढे होंगे अपने-अपने झाड़
के नीचे, कोई चरखा चला रहा होगा, कोई
माला फेर रहा होगा। यहां कोई बुङ्ढे-ठुङ्ढे दिखाई नहीं पड़ते झाड़ों के नीचे बैठे
हुए, माला फेरते हुए--कोई उपवास कर रहा होगा, कोई धूनी रमाए होगा। उन्हें बड़ी हैरानी हो जाती है: यह कैसा आश्रम! आश्रम
से उनका मतलब ही कुछ और है।
आश्रम
से मेरा मतलब कुछ और है। मेरे लिए आश्रम एक सौंदर्य का तीर्थ है। मेरे लिए आश्रम
प्रतिभा का एक तीर्थ है। मेरे लिए आश्रम त्याग नहीं है, आनंद-उत्सव
है।
संन्यास
मेरे लिए जीवन से भागना नहीं है, पलायन नहीं है--जीवन को उसकी अंतरंग गहराइयों
में जीना है। संन्यास से उनका अर्थ है कि जो बाहर से मुंह फेर ले। संन्यास का मेरे
लिए अर्थ है, जो बाहर और भीतर दोनों को जोड़ ले, दोनों का सेतु बना ले; जो बाहर भी जीए, भीतर भी जीए और दोनों में कोई विरोध न पाए, द्वंद्व
न पाए, द्वैत न पाए।
इसलिए
मैं कहता हूं कि पूरब और पश्चिम जुड़े जिसके भीतर, विज्ञान और धर्म जुड़े जिसके
भीतर, बाहर और भीतर जुड़े जिसके भीतर, जिसके
भीतर इन द्वंद्वों के बीच संतुलन आ जाए--उसको ही मैं संन्यास कहता हूं। उसी को मैं
संन्यासी कहता हूं। यह उनकी धारणा नहीं है। वे शंकराचार्य के पास जाते हैं,
उनकी समझ में आता है। आचार्य तुलसी के पास जाते हैं, उनकी समझ में आता है। विनोबा भावे के पास जाते हैं, उनकी
समझ में आता है। वे सोचते हैं यहां मैंने कोई गौशाला खोली होगी, गौमाता की सेवा हो रही होगी, कि हनुमान जी के वंशज,
बंदरों को भोजन कराया जा रहा होगा। यहां यह कुछ भी नहीं हो रहा है।
न गौमाताओं में मेरी कोई उत्सुकता है, न बंदरों में मेरी कोई
उत्सुकता है। तो उनको हैरानी होती है।
विनोबा
जी के आश्रम से तीन महिलाएं कुछ दिन पहले आईं। उनकी सूझ-बूझ के बाहर था कि यह क्या
हो रहा है। लोग नाच रहे हैं, लोग आनंदित हैं, लोग मस्त
हैं! वे तो इतनी घबड़ा गईं कि वे यहां से चली ही गईं। उनको बहुत बेचैन कर गई होगी
बात। वहां से जाकर पत्र लिखा कि हम प्रवचन में भी नहीं आ सके, ध्यान भी नहीं देख सके आकर, क्योंकि जो हमने देखा
उससे बेचैनी आ गई। हां, हमें कुछ चीजें अच्छी लगीं। जैसे एक
तो संन्यासी कुछ कपड़े बुनते हैं, वह हमें अच्छा लगा। कुछ
संन्यासी फर्नीचर बनाते हैं, वह हमें अच्छा लगा। संन्यासियों
की पाकशास्त्र में रुचि है और भोजन बनाते हैं, वह हमें अच्छा
लगा। कुछ संन्यासी साग-सब्जी उगाते हैं, वह हमें अच्छा लगा।
यहां
उन्हें ये बातें आकर अच्छी लगीं। अपनी धारणाएं, गांधीवादी धारणाएं! जो यहां मूल हो
रहा है वह उन्हें अच्छा नहीं लगा! जो यहां वस्तुतः हो रहा है, उसे देखने की भी, उसके साथ सम्मिलित होने की भी
हिम्मत नहीं आई, सुनने की भी हिम्मत नहीं आई! लक्ष्मी से वे
कह कर गईं। कि आनंदित तो हम लोग वहां भी हैं।
तो
लक्ष्मी ने कहा कि फिर यहां काहे के लिए कष्ट किया? हम तो नहीं आते वहां। अच्छा
है आप वहां आनंदित, हम यहां आनंदित! मगर सूरत-शक्ल से कोई
आनंद दिखाई तो पड़ता नहीं। सूरत-शक्ल पर तो मुर्दापन छाया हुआ है, मरघट छाया हुआ है। आनंद वगैरह कहां!
लेकिन
उनके आनंद के भी अर्थ अलग होते हैं। आनंद उनका नाचता हुआ नहीं होता। आनंद उनका ऐसा
होता है जैसे मरघट का सन्नाटा--शून्य, रिक्त, खाली-खाली।
फुलवाड़ी का आनंद नहीं, जहां फूल खिलें, पक्षी गीत गाएं, मोर नाचें!
इसलिए
कमल, साधारण जन को समझ में नहीं आती है बात। लेकिन असाधारण जन को समझ में अगर आ
गई तो एक न एक दिन साधारण जन को समझ में आएगी। आनी ही पड़ेगी। क्योंकि मैं जो कह
रहा हूं, उसके ऊपर मनुष्य का पूरा भविष्य निर्भर है। उसके
बिना मनुष्य के लिए कोई आशा नहीं।
आज इतना ही।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें