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गुरुवार, 18 मई 2017

पिया को खोजन मैं चली-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-04

पिया को खोजन मैं चली-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो

दिनांक 04 जून सन् 1980,
ओशो आश्रम पूना।
प्रवचन-चौथा

प्रश्न-सार:

1—आप मेरी सुहागरातों के मालिक हैं। मुझे कभी वैधव्य का दुख देना ही नहीं। बस इतनी ही चाह है--जीओ हजारों साल!

2—मैं नौ वर्षों से आर्यसमाज में पुरोहित था। पांच वर्षों से आपके संपर्क में हूं। मैं पांच जून को संन्यास लेकर जा रहा हूं। मैं आर्यसमाज से घूमने के बहाने पच्चीस दिन की छुट्टी लेकर यहां आया था। अब मैं माला लेकर जाऊंगा। वे लोग मेरे दुश्मन हो जाएंगे, मुझे धक्के देकर वहां से निकाल देंगे। ऐसी अवस्था में मैं क्या करूं?

3—हम कैसे आपसे जुड़ जाएं? कृपया बतलाएं।

4—आप स्त्रियों के प्रति सामान्यतः अत्यंत करुणा भाव से सराहना करके उनको सम्मान देते हैं। मगर जब स्त्री की बात पत्नी के रूप में करते हैं, तब उसे डांटते हैं और बहुत अलग रूप में चित्रित करते हैं। ऐसा क्यों?

5मेरे पति आपके संन्यासी हैं, मुझे कोई एतराज नहीं। वे मुझे आपके प्रवचनों में, कीर्तन, ध्यान, शिविर और पूना तक के कार्यक्रमों में साथ भी लाते हैं। मैंने आपका संन्यास अभी तक नहीं लिया है, फिर भी वे लेने को मजबूर नहीं करते हैं। मगर मेरी शिकायत सिर्फ इतनी है कि वे न सिनेमा देखने जाते हैं, न साथ घूमने निकलते हैं; घर में ही चुपचाप बैठे रहते हैं; और खुले आकाश को ताकते रहते हैं। बातचीत में कोई उत्सुकता नहीं रखते। ज्यादा समय आपकी बातों में ही पड़े रहने का क्या मतलब? मैं भी उनकी पत्नी हूं, जरा मेरी भी सुनें!


6—एक ही नजर में देख कर मैं आपका दीवाना हो गया हूं। ऐसा लगा है कि मेरा आपका पूर्व-जन्म का संबंध है। दिन-रात बस आप ही आप की बातें मेरे मस्तिष्क में घूमती रहती हैं, और हृदय में बराबर यह प्रतीति बनी रहती है कि मैंने आपके चेहरे को कहीं और भी देखा है। प्रभु, कुछ कहें।

7—हमेशा दिन को ही सूरज क्यों निकलता है, रात को क्यों नहीं?

8—क्या आपने कभी गधों के सवालों का भी जवाब दिया है?

9—मैं पूर्ण भोजनभट्ट हूं। मैं क्या करूं?

पहला प्रश्न: भगवान!
आप मेरी सुहागरातों के मालिक हैं। मुझे कभी वैधव्य का दुख देना ही नहीं। बस इतनी ही चाह है--जीओ हजारों साल!

चंद्रकांत भारती!
उसका ही अनजाने वे लोग आयोजन कर रहे हैं, जो मुझे मार डालना चाहते हैं। हजारों साल जीने का वह सुगमतम उपाय है। न चढ़ाया होता जीसस को सूली पर, न तुम जीसस को याद रख सकते। न पिलाया होता जहर सुकरात को, सुकरात कभी का भूल चुका होता।
मरते समय सुकरात के एक शिष्य क्रेटो ने पूछा, गुरुदेव, यह तो बता दें जाते समय कि आप अपना अंतिम संस्कार किस विधि से करवाना चाहेंगे--पूर्वीय विधि से? सुकरात निश्चित ही पूर्वीय रहस्यवाद में उत्सुक था। क्या आप पसंद करेंगे अग्नि से संस्कार हो? आपकी देह अग्नि में तिरोहित हो जाए? या आप पश्चिम की विधि को पसंद करेंगे कि आपकी देह को जमीन में गड़ा दिया जाए?
सुकरात जहर पी चुका था, जहर का असर होना शुरू हो चुका था, फिर भी उसने आंख खोलीं, लड़खड़ाती जबान से जवाब दिया, क्रेटो, तू भी पागल है। वे जो मुझे जहर पिला रहे हैं, सोचते हैं मुझे मार रहे हैं। वे सोचते हैं कि मेरे दुश्मन हैं। तू सोचता है कि मेरा मित्र है। दुश्मन सोच रहे हैं--कैसे मारें! मित्र सोच रहे हैं--कैसे गड़ाएं! न वे मुझे मार पाएंगे, न तुम मुझे गड़ा पाओगे। जब उन्हें भी लोग भूल जाएंगे और तुम्हें भी लोग भूल जाएंगे, तब भी मैं जीवित रहूंगा। अगर उनका नाम और तुम्हारा नाम याद भी रहा, तो मेरे कारण याद रहेगा।
सच ही है यह बात। आज क्रेटो का कौन नाम याद रखता? आज पच्चीस सौ साल बाद, इस सुबह, क्रेटो के नाम की याददाश्त का कोई भी तो कारण नहीं था। क्रेटो के जीवन में कुछ और तो था ही नहीं।
पांटियस पायलट ने, जिसने जीसस को सूली की आज्ञा दी, कौन याद रखता उस छोटे-मोटे गवर्नर जनरल को? कितने गवर्नर जनरल हुए हैं दुनिया में! वह रोमन गवर्नर जनरल था जेरुसलम में। उसके पहले भी बहुत गवर्नर जनरल हुए, उसके बाद भी बहुत हुए। किसी और का नाम याद भी नहीं। सिर्फ पांटियस पायलट का नाम याद है। छोटे-छोटे बच्चों को भी याद है।
एक स्कूल में, चित्रकला की कक्षा में अध्यापक ने कहा, बच्चो, तुम्हें मैंने जीसस की कहानी सुनाई है, यूं भी तुम रविवार को धर्मगुरु से जीसस की कहानी बहुत बार सुन चुके हो। तुम सभी जीसस का चित्र बनाने की कोशिश करो।
एक बच्चे ने बहुत अनूठा चित्र बनाया। उसने हवाई जहाज बनाया, जिसमें चार खिड़कियां हैं। चारों खिड़कियों से चार लोगों के चेहरे दिखाई पड़ते हैं। शिक्षक ने पूछा, यह क्या है? मैं कुछ समझा नहीं। कहा था जीसस के संबंध में चित्र बनाओ।
उसने कहा, जीसस के संबंध में ही चित्र है। आपने ही तो कहानी सुनाई थी कि ईश्वर के तीन रूप हैं। ईश्वर पिता--गॉड दि फादर। यह जो बूढ़ा आदमी पहली खिड़की में से झांक रहा है, यह ईश्वर है। और दूसरा आदमी आपने ही कहा था होली घोस्ट--पवित्र आत्मा। यह दूसरी खिड़की से जो झांक रहा है आदमी यह पवित्र आत्मा है। और आपने ही कहा था कि जीसस ईश्वर के इकलौते बेटे हैं। तीसरी खिड़की से जो झांक रहा है, वह वही इकलौता बेटा है--जीसस।
शिक्षक ने कहा, यह भी समझ में आ गया, मगर यह चौथा आदमी कौन है?
उस बच्चे ने कहा, यह आप भी समझ सकते हैं। यह है पांटियस दि पायलट।
छोटा बच्चा, उसने समझा कि पांटियस पायलट और कौन होगा! पायलट तो कहते हैं हवाई जहाज चलाने वाले को, तो यह हवाई जहाज को चलाने वाला पांटियस पायलट! छोटे बच्चों को भी याद है। कारण? कारण है जीसस को लगी सूली।
जो मुझे मारने का आयोजन कर रहे हैं, सफल हों या असफल, एक परिणाम उसका जरूर होगा, उनकी सारी चेष्टाओं का यह परिणाम होना ही है कि वे मुझे हजारों साल के लिए जिंदा कर जाएंगे। जो मुझे मारने के लिए आयोजन कर रहे हैं, उनसे जरा भी चिंता न लेना; उनके कारण, जो मुझे प्रेम करते हैं, वे और भी मेरे निकट आ जाएंगे। जिन्होंने मुझे चाहा है, वे और परिपूर्ण हृदय से चाह सकेंगे। उनके-मेरे बीच अगर कोई भी थोड़ी-बहुत दूरी रह गई होगी, वह भी मिट जाएगी। वे मुझे नहीं मार पाएंगे, मेरे और मेरे प्रियजनों के बीच की दूरी को मार डालेंगे।
जीवन का गणित बड़ा अजीब है। चंद्रकांत, जीवन के इस गणित को कभी मत भूलना। ऊपर से कुछ और दिखाई पड़ता है, भीतर परिणाम कुछ और होते हैं। अब मुझ पर यह फेंका गया छुरा, सारी दुनिया में लाखों लोगों को मेरे प्रति एक अपूर्व प्रेम से भर गया। कितने तार आए हैं, कितने पत्र आए हैं--उन्हें उत्तर भी देना मुश्किल है--कितने फोन आए हैं, कितने लोगों ने लिखा है कि हम आपकी जगह मरने को तैयार हैं! उन्होंने कभी सोचा भी न होगा ऐसा। मगर यह छुरा काम कर गया। इसने मेरे बीच और अनेक लोगों के बीच के फासले गिरा दिए।
सत्य के साथ एक अदभुत बात है, उसे हानि पहुंचाई ही नहीं जा सकती। तुम हानि पहुंचाओ, तो भी लाभ ही पहुंचाते हो। असत्य को लाभ नहीं पहुंचाया जा सकता; तुम लाभ भी पहुंचाओ, तो भी हानि ही पहुंचाते हो। सत्य को मिटा डालने का कोई उपाय न कभी था, न है, न होगा। असत्य को छिपा लेने का, बचा लेने का न कभी कोई उपाय था, न है, न होगा। असत्य किसी न किसी तरह से प्रकट हो जाएगा कि असत्य है। और सत्य, हजार दबाओ तो भी उभर आएगा, हजार रूपों में उभरेगा, इधर दबाओगे तो उधर उभरेगा, एक जगह दबाओगे तो हजार जगह उभरेगा।
इसलिए ऊपर से जैसा दिखाई पड़ता है, वैसा ही नहीं है। उतने से चिंता नहीं लेना। प्रेम मरता ही नहीं। इतने लोगों ने मुझे चाहा है कि प्रेम कैसे मर सकता है। और सब मर जाता है, प्रेम नहीं मरता।
तुम कहते हो: "आप मेरी सुहागरातों के मालिक हैं। मुझे कभी वैधव्य का दुख देना ही नहीं।'
मैं देना भी चाहूं तो नहीं दे सकता, असंभव है। यह नाता शाश्वत है। मेरे और तुम्हारे बीच जो घट रहा है, वह समय के पार है। मेरे और तुम्हारे बीच जो घट रहा है, वह मेरे और तुम्हारे शरीर के बीच नहीं घट रहा है, मेरी और तुम्हारी आत्मा के बीच घट रहा है। यह प्रेम सगाई है। यह कोई साधारण सुहागरात नहीं है। तुम्हारी चाह पूरी हो रही है। तुम्हारी चाह पूरी होगी।


दूसरा प्रश्न: भगवान!
मैं नौ वर्षों से आर्यसमाज में पुरोहित था। पांच वर्षों से आपके संपर्क में हूं। पुरोहित की मौत हो गई है। मैं पांच जून को संन्यास लेकर जा रहा हूं। मैं आर्यसमाज से घूमने के बहाने पच्चीस दिन की छुट्टी लेकर यहां आया था। अब मैं माला लेकर दस जून को जाऊंगा। वे लोग मेरे गले में माला पड़ी देखेंगे, मेरे दुश्मन हो जाएंगे, मुझे धक्के देकर वहां से निकाल देंगे। मैंने पहले ही निकलने की तैयारी कर ली है। ऐसी अवस्था में मैं क्या करूं?

कैलाश!
यह सौभाग्य है कि तुम पुरोहित को मर जाने दिए; बड़ी मुश्किल होती है, बड़ी कठिनाई होती है। और आर्यसमाजी पुरोहित और सभी पुरोहितों से ज्यादा जड़बुद्धि होता है, ज्यादा कट्टरपंथी होता है, ज्यादा अंधा होता है।
दूसरे धर्मों में तो शायद कभी प्रथमतः कोई ज्योति भी थी, यह आर्यसमाज तो धर्म ही नहीं है; इसमें तो ज्योति कभी रही ही नहीं। दयानंद को कभी सत्य का साक्षात्कार हुआ ही नहीं। दयानंद महापंडित थे, इसमें कोई शक-शुबहा नहीं। इस देश ने बहुत थोड़े से ऐसे पंडित पैदा किए। दयानंद की गिनती महापंडितों में की जानी चाहिए। कुशल थे, मेधावी थे, प्रतिभाशाली थे, मगर पंडित ही थे--प्रज्ञावान नहीं, कोई बुद्धपुरुष नहीं।
बौद्ध धर्म में कितना ही सब मर गया हो और कितनी ही राख के हिमालय इकट्ठे हो गए हों, तो भी कहीं दूर दबी बुद्ध की जीवंत चिनगारी है। पारसी कितने ही दूर चले गए हों और कितने ही जंगलों में भटक गए हों, लेकिन उनकी भटकन में भी कहीं जरथुस्त्र के स्वर हैं; कहीं कोई दबी हुई आवाज, जो उकसाई जा सकती है। राख झड़ाई जा सकती है बौद्ध की और उसके भीतर बुद्ध को जगाया जा सकता है। पारसी को उसकी भटकन से जगाया जा सकता है, सपनों में खो गया होगा, उसके भीतर जरथुस्त्र की हंसी फिर गूंज सकती है।
जरथुस्त्र की यह कहानी मुझे बार-बार कह कर भी कहने का मन होता है कि जरथुस्त्र पृथ्वी पर अकेला आदमी है, एकमात्र घटना है, ऐसा न कोई दूसरा व्यक्ति हुआ और शायद कभी होगा भी नहीं। शायद यह घटना कभी घटी भी न हो, सिर्फ प्रतीक है, मगर जरथुस्त्र के संबंध में बड़ी सूचक है। और मुझे प्यारी है, क्योंकि मेरी जीवन-दृष्टि से मेल खाती है, तालमेल खाती है। जरथुस्त्र जब पैदा हुआ तो हंसता हुआ पैदा हुआ। बच्चे रोते हुए पैदा होते हैं। जरथुस्त्र ने जो पहला काम किया, वह था किलकारी मार कर हंसना। बात करीब-करीब असंभव लगती है। लेकिन जरथुस्त्र का पूरा जीवन हंसी का एक फव्वारा है, एक उत्सव है, एक तारों से भरी रात, एक फूलों से भरी बगिया।
इसलिए पारसी कितने ही दूर चला गया हो जरथुस्त्र से--और बहुत दूर चला गया, क्योंकि हजारों साल का फासला हो गया--लेकिन उसे खींचा जा सकता है। अगर ज़रीन मुझमें उत्सुक हो गई है, तो मेरी आवाज में जरथुस्त्र की आवाज को सुन कर ही उत्सुक हुई है। मेरे भीतर उसे जरथुस्त्र दिखाई पड़ा है, तो उत्सुक हुई है।
ऐसी ही बात जैनों के संबंध में सच है। कितना ही शोरगुल मचाया हो उन्होंने--और बहुत शोरगुल मचाया है। पच्चीस सौ साल में जैनों ने जितनी दुकानें चलाई हैं, उतनी किसी ने चलाई नहीं। और दुकानें, और बाजार, और शोरगुल--महावीर से बिलकुल उलटा सब कर डाला। कहां महावीर कहते हैं--धन का अपरिग्रह! और जितना धन का परिग्रही जैन होता है, उतना कोई भी नहीं। इस देश में तुम जैन भिखमंगे को नहीं पा सकते हो। है न चमत्कार! जैन इस देश में सर्वाधिक संपन्न जातियों में से एक हैं, सर्वाधिक सुशिक्षित भी। बहुत थोड़े से हैं, लेकिन चूंकि उनके पास धन है, इसलिए बहुत दिखाई पड़ते हैं। ज्यादा उनकी संख्या नहीं है, तीस-पैंतीस लाख। सत्तर करोड़ के देश में तीस-पैंतीस लाख की कोई संख्या होती है? दाल में भी नमक थोड़ा ज्यादा होता है। मगर फिर भी जैन दिखाई पड़ते हैं।
धन हो तो दिखाई पड़ने में अड़चन नहीं होती। हजार गरीब गुजर जाएं, दिखाई नहीं पड़ते; देखना ही कौन चाहता है! एक अमीर गुजरे, तो दिखाई पड़ जाता है, गिनती में आ जाता है। महावीर नग्न रहे और तुमने चमत्कार देखा कि जैन अधिकतर कपड़ों की दुकान करते हैं--कापड़ मार्केट उन्हीं का।
मेरे एक प्रियजन हैं, उनकी दुकान का नाम है--दिगंबर क्लाथ शॉप। मैंने उनसे पूछा कि भैया मेरे, दिगंबर का अर्थ जानते हो? दिगंबर का अर्थ होता है--नंगा आदमी, जिसके लिए आकाश ही वस्त्र है। दिगंबर का अर्थ होता है--इतना नंगा कि आकाश ही जिसका एकमात्र वस्त्र है। छप्पर को भी नहीं लेता बीच में, खुले आकाश! जमीन जिसकी चादर और आकाश जिसकी ओढ़नी--इन दो के बीच और कुछ नहीं मानता। तुम थोड़ी शर्म तो खाओ, मैंने उनसे कहा कि दिगंबर क्लाथ शॉप! दिगंबर क्लाथ शॉप का मतलब क्या हुआ? नंगों की कपड़ों की दुकान! नंगे कपड़े क्या करेंगे? और कपड़े ही नंगे खरीद लेंगे, तो फिर नंगे कैसे रहेंगे? तुम तो कपड़े छीनो यहां; कोई कपड़ा पहने मिले, एकदम छीन लिए।
उन्होंने कहा, आप क्या बातें करते हैं?
तो मैंने कहा, इसमें से काट दो कुछ एक--या तो दिगंबर हटा दो या क्लाथ शॉप हटा कर कुछ और...बाल्टियां बेचो, क्योंकि नंगों को भी पानी तो भरना ही पड़ेगा कुएं से। रस्सियां बेचो। कुछ ऐसा बेचो जो दिगंबर से मेल खाता हो।
न तो उन्होंने दिगंबर हटाया, न क्लाथ शॉप हटाई; एक ही काम किया, फिर मुझे दुकान पर बुलाना बंद कर दिया। मैं वहां से निकलूं भी तो वे जयरामजी भी करनी बंद कर दिए, इधर मुंह फेर लें। फिर भी मैं खड़ा रहूं। जब तक जयरामजी वे न करें, तब तक मैं हटूं ही नहीं। मैं कहूं कि कोई बात नहीं, मैं रुका हूं, मैं रुका रहूंगा जब तक जयरामजी नहीं करोगे।
लेकिन फिर भी, इतने दूर चले गए हों, बिलकुल उलटे हो गए हों...कहां महावीर का आनंद और कहां जैन मुनियों की शक्लें! कहां महावीर का उत्सवपूर्ण व्यक्तित्व, कहां वे रसपूर्ण आंखें और कहां जैन मुनि का सूखा-साखा जीवन, जिसमें रस बहता ही नहीं, ठूंठ की तरह! अगर इस जमीन पर तुम्हें ठूंठ खोजने हों, जो जैन मुनियों से ज्यादा ठूंठ आदमी नहीं मिल सकते। उनमें सूखी पत्तियां भी नहीं लगतीं, हरी पत्तियां तो बहुत दूर। पत्तियां लगती ही नहीं। उनकी जड़ें भी तिरोहित हो गई हैं। उनमें कोई रसधार नहीं बहती। फिर भी, अगर इस शोरगुल में भी कोई शांति से सुनने की कोशिश करे, तो महावीर के संगीत को पकड़ा जा सकता है। और ऐसा ही सच है हिंदुओं के संबंध में, मुसलमानों के संबंध में, ईसाइयों के संबंध में, यहूदियों के संबंध में।
आर्यसमाज तो एक अनूठी घटना है। यह धर्म है ही नहीं। यह एक सामाजिक आंदोलन है। दयानंद में तो कोई सत्य जैसी बात नहीं है। हां, एक विवादी व्यक्तित्व था। इसलिए तुम अगर दयानंद की जो श्रेष्ठतम पुस्तक है, वह पढ़ोगे--सत्यार्थ प्रकाश--तो बड़े हैरान हो जाओगे। इतनी दुर्गंधयुक्त कोई पुस्तक दुनिया में नहीं है। गालियां ही गालियां हैं। सबको गालियां हैं। सारे धर्मों को गालियां हैं। बस, केवल वैदिक धर्म सही है, वेद सही हैं, और सब गलत है--बाइबिल गलत है, कुरान गलत है, तालमुद गलत है, जिन-सूत्र गलत है, धम्मपद गलत है--सब गलत है। कोई और तीर्थंकर, कोई और पैगंबर सही नहीं--सिर्फ वेद!
और किस तरह की तोड़-मरोड़ की है...क्योंकि वेदों में निन्यानबे प्रतिशत कचरा है। होगा ही, क्योंकि वेद कोई सिर्फ धर्मशास्त्र नहीं हैं, उस समय की सारी की सारी घटनाओं का संकलन है उनमें। वेद तो यूं है जैसे एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका। उसमें सभी कुछ है। उस समय का सारा संकलन है। इसलिए वेद संहिता है। उस समय जो कुछ भी उपलब्ध था ज्ञान--गलत, सही, सब इकट्ठा है। मगर उस सबको सही करने की कोशिश की जाती है। उस सबके भीतर से कुछ न कुछ निकालने की तरकीब जुड़ाई जाती है। जिसमें से कुछ भी नहीं निकलता, निकल सकता नहीं, उसमें भी बड़ी राज की बातें निकाली जाती हैं--जबरदस्ती!
दयानंद ने दुनिया में सबसे बड़े मिथ्या धर्म को जन्म दिया। अगर उसमें से राख हटाओ, तो राख ही राख मिलती है। मैंने सब राख हटा कर देखी है, इसलिए कह रहा हूं, यूं ही नहीं कह रहा हूं। क्योंकि अगर कुरान में मुझे खोजने पर महावीर, कृष्ण और बुद्ध जैसी ही वाणी मिल सकी मोहम्मद की, अगर मुझे कुरान में भी सत्य की कहीं न कहीं कोई झनकार मिल सकी, तो मुझे क्या एतराज होता आर्यसमाज में! अगर मुझे गुरुग्रंथ साहिब में मिल सका धर्म, तो मुझे क्या तकलीफ थी आर्यसमाज में! दयानंद के ही समसामयिक थे रामकृष्ण परमहंस, उनमें अगर मुझे धर्म का साकार रूप दिखाई पड़ता है, तो दयानंद से मेरा क्या झगड़ा! लेकिन मैं भी क्या करूं, बहुत खोजने के बाद भी कहीं कोई अंगार उसमें पाई नहीं। सब शब्दजाल है, तर्कजाल है।
कैलाश, अच्छा हुआ कि यह आर्यसमाज का पुरोहित तुम्हारे भीतर मर गया। यह एक बड़ी बीमारी थी। तुम्हारा छुटकारा कैंसर से हो गया--यह आत्मा का कैंसर समझो। तुम मुक्त हुए। कोई भी कीमत चुकानी पड़े, सस्ता सौदा है। धक्के मार कर निकालें, तो भी आनंद से गीत गाते हुए निकलना। कृपा ही मानना उनकी कि उन्होंने धक्के देकर निकाला; धक्के प्रमाणपत्र होंगे। उनके हर धक्के से तुम्हारे भीतर धन्यवाद ही पैदा हो, ऐसी आशा करता हूं। धक्के तो वे देंगे, बुरे धक्के देंगे। वे तुम्हारे साथ जितना दर्ुव्यवहार कर सकते हैं, उतना करेंगे। क्योंकि सदव्यवहार दयानंद में नहीं था तो उनके अनुयायियों में तो क्या होगा!
तुम कहते हो: "मैं नौ वर्षों से आर्यसमाज में पुरोहित था।'
लंबा समय था नौ वर्ष। और पुरोहित होना मतलब बस उससे नीचे गिरना मुश्किल था। तुम बिलकुल खड्डे में पड़े थे। मगर निकल आए। चमत्कार होते हैं! तुम्हारा निकल आना एक चमत्कार है। परमात्मा को धन्यवाद दो।
तुम कहते हो कि अब पुरोहित की मौत हो गई है।
खुशियां मनाओ। जलसे मनाओ। दावतें दो।
तुम कहते हो: "मैं पांच जून को संन्यास लेकर जा रहा हूं। मैं आर्यसमाज से घूमने के बहाने पच्चीस दिन की छुट्टियां लेकर यहां आया था। अब मैं माला लेकर दस जून को जाऊंगा। वे लोग मेरे गले में माला पड़ी देखेंगे तो मेरे दुश्मन हो जाएंगे।'
उनकी क्या चिंता लेना! न उनकी मैत्री से कुछ मिलने वाला है, न उनकी दुश्मनी से कुछ खोने वाला है। जिनकी मैत्री से ही कुछ नहीं मिला--नौ वर्ष तो उनके साथ रह कर देख लिए--उनकी दुश्मनी से क्या खो जाएगा? हां, थोड़े-बहुत धक्के देंगे, गालियां देंगे, खंडन करेंगे, निंदा करेंगे, जिसमें वे कुशल हैं--सह लेना। जल्दी निकल आए। और सुबह का भूला शाम भी घर लौट आए, तो भूला नहीं कहलाता।
इंश्योरेंस कंपनी के आफिस में फोन बजा। एक महिला बोली, जी, मैं इंश्योरेंस करवाना चाहती हूं। मैनेजर ने कहा, हम अभी उधर आते हैं। महिला ने कहा, जी नहीं, आप फोन पर ही कर दें। मैनेजर ने कहा, ऐसा नहीं कर सकता। महिला ने कहा, फिर रहने दें, अब तो घर में आग लग चुकी है।
तुम्हारा घर जलने के पहले बचा जा रहा है। धन्यवाद दो परमात्मा को। अभी तुम बिलकुल नहीं मर गए थे, तुममें कुछ जिंदा था, तुममें कुछ चिनगारी थी--इसलिए तुम मेरी पुकार सुन सके, इसलिए तुम मेरी आंखों में आंखें डाल कर देख सके, इसलिए तुम्हारा हृदय मुझसे तरंगित हो सका, इसलिए तुम मौका दिए मुझे कि मैं तुम्हारे हृदय की वीणा को बजा सकूं। तुम बिलकुल नहीं मर गए थे, इसलिए पुरोहित मर सका। तुम बिलकुल मर गए होते तो फिर पुरोहित को मारना मुश्किल था। फिर तो यह जीवन गया था हाथ से। बच गया, लाख-लाख शुक्र करो परमात्मा का।
तुम कहते हो: "मैंने पहले ही निकलने की तैयारी कर ली है।'
तुम करो या न करो, वे तुम्हें निकालेंगे। कर ली है तो अच्छा है। कर ली है तो सुविधा रहेगी।
अब पूछते हो: "ऐसी अवस्था में मैं क्या करूं?'
निकलो पहले तो। फिर जो सहज स्फुरणा हो वह होने देना।
मेरे संन्यासी का जीवन, नियोजित जीवन नहीं है। पहले से कुछ योजनाबद्ध करके चलने से कुछ सार भी नहीं है। क्योंकि इधर आदमी कुछ करता है, कुछ तय करता है, कुछ बनाता है... लेकिन आदमी की बिसात कितनी है? यह इतना विराट विश्व हमारे अनुकूल नहीं चलता, हमको ही इसके अनुकूल चलना होता है। और वही आस्तिकता है कि हम इसके अनुकूल चलें। नास्तिकता का अर्थ है: हम इसे अपने अनुकूल चलाएंगे। जिसने इसे अपने अनुकूल चलाना चाहा, वह दुख भोगेगा; और जो इसके अनुकूल चला, उसके जीवन में सुख ही सुख की वर्षा हो जाएगी।
पहले निकलो। फिर जो होगा संन्यास से, ध्यान से, प्रेम से, प्रार्थना से जो स्फूर्त होगा, वह होगा। छोड़ो परमात्मा पर। जो करवाएगा करवा लेगा। तुम कोई अपेक्षा लेकर चलोगे, अगर वह पूरी न हुई तो दुख होगा। अपेक्षा रखो ही मत। मैं सिखाता ही हूं एक बात: अपेक्षा-शून्य जीवन। और तब बहुत घटता है, खूब घटता है। और जिसने अपेक्षा की, उसके जीवन में दुख ही दुख है, विषाद ही विषाद है। अपेक्षा से मुक्त हो जाना संन्यास है। संन्यासी क्षण में जीता है, अभी जीता है, यहां जीता है। कल की किसको खबर है! कल जब आएगा, तब देखा जाएगा।
पहले जाओ, पहले धक्के तो खाओ, पहले धक्कों का मजा लो। वे सब पागल कहेंगे--यह सब सुनो। जिन्होंने तुम्हारे पैर छुए होंगे, वे ही तुम्हें धक्के मारेंगे--यह भी जरा देखो। यह मजा भी देखो, यह तमाशा भी देखो कि जो तुम्हें ज्ञानी मानते थे, वही कहेंगे कि तुम पागल हो गए, अज्ञानी हो गए। जैसे कि ज्ञानी भी अज्ञानी हो सकता है! जैसे कि ज्ञानी भी पागल हो सकता है! उनकी कड़वी बातें सुनो, तब तुम्हें उनका असली रूप दिखाई पड़ेगा। अभी तुमने उनका जो रूप देखा है, वह सब थोथा और ऊपरी है, वह सब लिपा-पुता है, रंग-रोगन है। असली चेहरे उनके देखो। वे तुम्हारे साथ जो दर्ुव्यवहार करेंगे, उससे तुम्हें उनके असली चेहरे दिखाई पड़ जाएंगे। फिर जो हो, होने देना।
संन्यासी को यूं जीना चाहिए जैसे हवा में उड़ता हुआ सूखा पत्ता।


तीसरा प्रश्न: भगवान!
हम आपको पूछना बहुत चाहते हैं, मगर प्रश्न बनता नहीं; मिलना भी चाहते हैं, मगर मिल भी नहीं सकते; बदलना भी चाहते हैं, मगर कुछ बदलाहट होती नहीं। हम कैसे आपसे जुड़ जाएं, कृपया बतलाएं।

भरत राजगुरु!
मुझसे मिलना तो सरल मामला है, सीधा मामला है। एक छोटा सा शब्द याद रखो: संन्यास! संन्यास सेतु है। और अब उसके अतिरिक्त मुझसे मिलने का कोई उपाय नहीं। अब धीरे-धीरे तो मैं सिर्फ संन्यासियों के लिए ही जीऊंगा। अब तो मेरा सारा समय और मेरी सारी ऊर्जा और मेरा सारा आनंद उनके लिए ही होगा, जो परवाना होने की हिम्मत रखते हैं। शमा परवानों के लिए जलती है। मैं भी उनके लिए ही जलूंगा।
अगर तुम झूठ बोलोगे तो कहां जाओगे, न्यायाधीश द्वारा यह पूछे जाने पर धर्मगुरु मटकानाथ ने कहा, वत्स, सीधा नरक जाऊंगा। यह सुन कर जज बहुत प्रभावित हुआ। दूसरा प्रश्न उसने किया, और यदि सच बोलोगे तो कहां जाओगे? ब्रह्मचारी जी ने निराश स्वरों में मात्र एक ही शब्द में जवाब दिया, जेल।
मैं भी तुम्हें एक ही शब्द में जवाब देता हूं--संन्यास। उतनी हिम्मत जुटाओ। साहस के बिना तो कुछ भी नहीं हो सकता है।
लोग सस्ते-सस्ते बदलाहट चाहते हैं, क्रांति चाहते हैं! कुछ न हो, कुछ करना न पड़े और जीवन में क्रांति घट जाए, अमृत बरस जाए। लोग सोचते हैं बस प्रार्थनाएं करते रहें--और प्रार्थनाएं भी क्या, दो कौड़ी की प्रार्थनाएं--सोते वक्त आधे नींद में आधे होश में दोहरा देते हैं रटे-रटाए शब्द तोतों की भांति, सो जाते हैं। सुबह उठ कर फिर तोतों की भांति उन्हीं शब्दों को दोहरा देते हैं। न उनमें कुछ अर्थ रहा है, इतनी बार दोहराए हैं कि वे यंत्रवत हो गए हैं। और सोचते हैं बस क्रांतियां हो जाएंगी, जीवन बदल जाएंगे, मोक्ष मिलेगा, निर्वाण मिलेगा!
कल्पनाओं में खो रहे हो। व्यर्थ कल्पनाओं के जाल से जगो।
संन्यास साहस है--सोने से जागने का, सपनों को तोड़ने का। और सत्य अवतरित होता है तभी, जब तुम्हारे सब सपने टूट जाते हैं।


चौथा प्रश्न: भगवान!
मैं आपको सालों से सुनती हूं और कल भी सुना, तो लगा कि आप स्त्रियों के प्रति सामान्यतः अत्यंत करुणा भाव से सराहना करके उनको सम्मान देते हैं। मगर जब स्त्री की बात पत्नी के रूप में करते हैं, तब उसे डांटते हैं और बहुत अलग ही रूप में चित्रित करते हैं। ऐसा क्यों?

योग सुशीला!
पति बनते ही पुरुष पुरुष नहीं रह जाता; पत्नी बनते ही स्त्री स्त्री नहीं रह जाती। दोनों कुछ गंवा बैठते हैं। दोनों स्वतंत्रता गंवा बैठते हैं। और वही तो प्राण है जीवन का, वही तो आत्मा है। और स्वभावतः स्त्री की स्वतंत्रता ज्यादा खो जाती है। यह समाज पुरुष के द्वारा निर्मित है, इस समाज का सारा आचरण, जीवन, नीति पुरुष ने निर्धारित की है। तो पुरुष ने दो तरह के मापदंड उपयोग किए हैं--अपने लिए एक, स्त्रियों के लिए और। स्वभावतः मालिक जो है, ताकत जिसके हाथ में है, लाठी जिसके हाथ में है उसकी भैंस है। तो उसने अपने लिए सुविधाएं बना ली हैं, सब तरह की सुविधाएं, तरहत्तरह की सुविधाएं। अपने लिए स्वतंत्रता के कुछ न कुछ उसने दरवाजे खुले छोड़ रखे हैं, स्त्री के लिए सब दरवाजे बंद कर दिए हैं।
इसका परिणाम यह हुआ है कि स्त्री की आत्मा इतनी पददलित हो जाती है, और पददलित होने के कारण इतनी क्रुद्ध हो जाती है, इतनी रुष्ट हो जाती है--हो ही जाएगी--इतनी अपमानित हो जाती है कि उस अपमान का बदला लेने की और प्रतिशोध की अग्नि से जलने लगती है। स्त्री चौबीस घंटे पति से बदला लेती रहती है। जैसे ही वह पत्नी होती है कि वह बदला लेना शुरू कर देती है।
निश्चित ही उसके बदला लेने के ढंग स्त्रैण हैं, इसलिए बहुत साफ-साफ दिखाई नहीं पड़ते। उसके बदला लेने के ढंग गांधीवादी हैं। स्त्रियां सदा से गांधीवादी हैं। गांधी ने जो भी जीवन-दर्शन दिया है, वह कुछ नहीं है, सदियों के स्त्रियों के अनुभव का सार-निचोड़ है।
गांधी खुद भी बहुत कमजोर आदमी थे, अति कमजोर आदमी थे, डरपोक थे। जब भारत से वे पहली दफा इंग्लैंड अध्ययन करने जा रहे थे, तो जहाज पर दो व्यक्तियों से उनकी मैत्री हो गई। जब काहिरा में जहाज रुका तो उन दोनों मित्रों ने कहा कि आओ, यहां पड़े-पड़े क्या करोगे! दोत्तीन दिन जहाज को यहां रुकना है। चलो हम तुम्हें वेश्या के यहां ले चलें। कभी स्त्री का स्वाद चखा है?
गांधी ने कहा कि नहीं।
और मां ने चलते वक्त कसम दिला दी थी कि लंगोट के पक्के रहना, ब्रह्मचर्य पक्की तरह साधना। दो ही कसमें दिलाई थीं--ब्रह्मचर्य, और मांसाहार न करना।
मगर वे इतने कमजोर आदमी थे कि वे यह भी न कह सके कि मुझे नहीं जाना है। इसमें कोई बड़ी भारी बहादुरी की जरूरत नहीं थी। नहीं जाना है वेश्या के यहां, तो कह देते कि नहीं जाना है। मगर यह सोच कर कि ये लोग क्या सोचेंगे कि यह कैसा नामर्द है। सभी जा रहे थे वेश्या के यहां, सारा जहाज खाली हो रहा था, तीन दिन लोग पड़े-पड़े करेंगे क्या! जहां-जहां जहाज रुकते हैं ज्यादा देर तक, वहां वेश्याओं के अड्डे होते हैं। जहां फौजी ठहरते हैं ज्यादा देर तक, वहां वेश्याओं के अड्डे होते हैं। अकेला मैं न जाऊंगा तो लोग हंसेंगे, मजाक उड़ाएंगे, खिल्ली करेंगे। जाना तो नहीं था; मां ने मना किया था। मगर कैसे मना करें! मना करने तक की हिम्मत इस आदमी में नहीं थी। तो चले गए साथ।
उन्होंने जाकर एक वेश्यालय में इनके लिए एक स्त्री भी चुन दी। इनको देखा कि यह आदमी अजीब सा ही है। इनको धक्का देकर उसके कमरे में भी अंदर कर दिया और दरवाजा भी उन लोगों ने बाहर से अटका दिया।
भीतर जो गांधी पर गुजरी, वह घटना उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखी है कि मेरी समझ में न आए कि अब मैं क्या करूं! मां की याद आए कि कसम खिला दी है। और न भी खिलाई होती कसम तो स्त्रियों से कोई परिचय भी नहीं था कि करना तो क्या करना, बात शुरू भी करनी तो कहां से करनी। सो वे आंखें नीची किए हुए, वेश्या के पलंग के एक कोने पर बैठे हुए हैं!
वेश्या भी घबड़ाई--आदमी उसने बहुत देखे थे--कि इस बेचारे को क्या हुआ? हिलाया-डुलाया कि जिंदा है कि गया! पूछा कि भई, कुछ तो बोलो। मगर वे बोलें ही न। पक्के गुजराती भाई थे, बोलें ही न। वे तो आंख ऊपर न उठाएं। पर-स्त्री को तो देखना भी पाप है। अरे तो साफ कह देते कि भई, मुझे आना नहीं था, जबरदस्ती ये लोग ले आए। इतनी ही तो कहनी थी बात! मगर इसके लिए भी मुंह न खोलें, गला सूख गया, आवाज न निकले, घिग्घी बंध गई। स्त्री भी बैठ कर रोने लगी। उसने कहा अब करना क्या। उसको भी बड़ा दुख होने लगा कि इस बेचारे को क्या हुआ है! कैसे तुम्हारी सेवा करूं? कैसे तुम्हें प्रसन्न करूं? और वे पसीना-पसीना हुए जा रहे हैं। स्त्री टावल से उनका पसीना पोंछ रही है!
घंटे भर बाद जब वे बाहर निकले और मित्रों के साथ बाहर अपने जहाज की तरफ चले, तो मित्र बताने लगे जो-जो घटना घटी। इनसे पूछा, क्या घटा? ये क्या बताएं बेचारे कि क्या घटा! छिपाए ही रखे बात को। यह तो आत्मकथा में बाद में उन्होंने लिखा, वर्षों बाद, कि कुछ नहीं घटा। घट सकता ही नहीं था। वे तो आंखें झुकाए बैठे रहे।
उस स्त्री को इतनी दया आई कि जो पैसे दिए थे, वे भी उसने इनको कहा कि भैया, तुम अपने पैसे भी वापस ले जाओ। पैसों का दुख हो रहा हो तो ये पैसे ले लो। और कुछ जरूरत हो तो बोलो। उसको इतनी दया आई कि यह बेचारा किस तरह का आदमी है!
स्त्रियों का जो सदा-सदा से ढंग रहा है व्यवहार का, विद्रोह का, प्रतिशोध का, वही गांधी ने उपयोग किया। नाम उसको प्यारे दे दिए--अहिंसा, सत्याग्रह। अगर पुरुष को क्रोध आता है तो वह स्त्री को पीटेगा; अगर स्त्री को क्रोध आता है तो वह खुद को पीटती है। यह सत्याग्रह हो गया--खुद को पीटना। अगर पुरुष को क्रोध आ जाए तो वह स्त्री का सिर फोड़ देता है। स्त्री को क्रोध आ जाए, अपने बाल नोंचती है, अपना सिर दीवाल से पीटती है। वह भेद है दोनों की अभिव्यक्ति में, मगर बात वही है। दोनों क्रुद्ध हैं। पुरुष को क्रोध आ जाए तो वह गालियां बकेगा; स्त्री को क्रोध आ जाए तो वह रोएगी। मगर उसके रोने में गालियां ही हैं। वह उसका ढंग है गालियां देने का।
स्त्री का तो मेरे मन में बहुत सम्मान है। पुरुष का भी मेरे मन में बहुत सम्मान है। लेकिन पति का मेरे मन में कोई सम्मान नहीं है और न पत्नी का मेरे मन में कोई सम्मान है। मैं एक दुनिया चाहता हूं जहां पुरुष हों, स्त्रियां हों, प्रेमी हों, प्रेमिकाएं हों; जीवन भर भी साथ रहने का जिनका मेल बनता हो, वे जीवन भर साथ रहें; और अनेक-अनेक जन्मों तक जिनका मेल बनता हो, अनेक-अनेक जन्मों तक साथ रहें--उसमें मुझे एतराज नहीं; मगर रहें सिर्फ प्रेम के कारण साथ, कोई कानून की वजह से नहीं, कोई जबरदस्ती के कारण नहीं, किसी सामाजिक बंधन के कारण नहीं, किसी आरोपण के कारण नहीं। क्योंकि जहां आरोपण होगा, जहां बंधन होगा--वहां प्रेम नष्ट होने लगता है, वहां प्रेम की जगह क्रोध आ जाता है।
इसलिए सुशीला, तुझे ठीक लगा कि जब भी मैं स्त्रियों की बात करता हूं, तो सम्मान और सराहना। पुरुषों से भी ज्यादा सम्मान मेरे मन में स्त्रियों का है। क्योंकि उनका अपमान इतना हुआ है; उस अपमान की पूर्ति होनी चाहिए। और पुरुषों ने ही अपमान किया है, सदियों से अपमान किया है; मनु से लेकर आज तक अपमान ही अपमान, जहर ही जहर स्त्री को पिलाया गया है।
और उसको इस तरह से जहर पिलाया गया है कि जो अपमानजनक बातें पुरुषों ने उसे सिखा दी हैं, वह खुद भी उनको दोहराती है! भूल ही गई वह कि ये बातें अपमानजनक हैं, उसे नहीं दोहरानी चाहिए। ये शास्त्र अपमानजनक हैं। उन्हीं महात्माओं को सुनने जाती है...! असल में महात्माओं के पास भीड़ ही स्त्रियों की होती है। पुरुषों को कोई रस ही नहीं है महात्माओं में। पुरुषों को और हजार कामों में रस है। महात्माओं के पास अगर उन्हें जाना पड़ता है, तो सिर्फ स्त्री की वजह से जाना पड़ता है। या तो अपनी स्त्री की वजह से जाना पड़ता है कि वह ज्यादा उपद्रव मचाएगी। एक मामले में वह पुरुष को दबा सकती है कि वह ज्यादा धार्मिक है, तुम कम धार्मिक हो। वह ज्यादा मंदिर जाती है, ज्यादा शास्त्र पढ़ती है, ज्यादा साधु-सत्संग करती है--तुम नहीं करते। तुम्हें अपने ताश खेलने से, शतरंज बिछाने से, क्लबघर जाने से फुर्सत नहीं है। तुम अपना जीवन व्यर्थ गंवा रहे हो। यह एक मौका है स्त्री को जहां वह पुरुष को चारों खाने चित्त करती है।
तो या तो वह अपनी स्त्री के डर के कारण महात्मा जी को सुनने जाता है। सुन कर उसे कुछ जंचता नहीं, कुछ बात भरती नहीं, मगर बैठा रहता है स्त्री के डर से। और या फिर दूसरी स्त्रियों के कारण पहुंचता है कि किसी को धक्का ही मार लेगा, भीड़-भाड़ में किसी का पल्लू ही खींच लेगा, किसी को चुटकी ही काट देगा, कचोटी ही भर लेगा--कुछ न कुछ कर लेगा। जो मौका मिल जाएगा, जितना सुअवसर हाथ आ जाएगा। और जितना सुअवसर धर्म-सभा में आएगा, उतना और कहां आएगा! मगर महात्मा वगैरह से कुछ लेना-देना नहीं है पुरुषों को।
और ये महात्मा स्त्रियों को गाली देने के सिवाय कोई काम करते नहीं। ये उनको नरक का द्वार बताते हैं। और स्त्रियां ही सिर हिलाती हैं! वे कहती हैं कि बिलकुल ठीक कह रहे हैं। घर में लड़का पैदा होता है तो बाजे बजते हैं और लड़की पैदा होती है तो उदासी छा जाती है। क्या पागलपन है! और पुरुष अगर बाजे बजाएं लड़के के पैदा होने पर तो ठीक है, स्त्रियां भी लड़का पैदा होता है तो प्रसन्न होती हैं, गीत गाती हैं; और लड़की पैदा हो जाए तो स्त्रियां ही मातम मनाती हैं!
स्त्रियों को यह भी खयाल नहीं रहता, भूल ही गई हैं, इतनी सदियों तक उनके संस्कारों को खराब किया गया है कि वे खुद ही स्त्रियों के विपरीत हैं, खुद ही स्त्रियों की दुश्मन हो गई हैं। लड़के के साथ स्त्रियां और तरह का व्यवहार करती हैं, लड़की के साथ और तरह का--खुद स्त्रियां! कम से कम उन्हें तो लड़की के साथ सदव्यवहार करना चाहिए। अगर लड़का कुछ गड़बड़ करेगा तो वे कहेंगी कि लड़के लड़के हैं। लड़की माफ नहीं की जा सकती। लड़की के पीछे तो माताएं बिलकुल हाथ धोकर पड़ी रहती हैं। लड़कों को सब छूट है।
सदियों-सदियों में जो अन्याय हुआ है, उसकी परिपूर्ति के लिए मैं स्त्रियों का ज्यादा सम्मान करता हूं पुरुषों की बजाय। वे सम्मान की अधिकारिणी हो गई हैं अब। उन्होंने बहुत अपमान सह लिया। उन्हें उसी मात्रा में सम्मान ज्यादा मिलना चाहिए ताकि एक तरह की समता आज नहीं कल पैदा हो सके। अंततः तो दोनों समान हैं।
लेकिन पत्नी होने की बात ही गलत है। पत्नी होने का अर्थ है कि तुमने गुलामी स्वीकार कर ली। पति होने की बात गलत है।
मैं जब विश्वविद्यालय से नया-नया बाहर आया, स्वभावतः बहुत से पिता उत्सुक थे कि उनकी लड़कियों का विवाह मुझसे हो जाए। उनको आशा भी थी कि विश्वविद्यालय में सर्वप्रथम आया हूं, तो भविष्य भी मेरा उज्ज्वल है। उन्हें क्या पता था कि मेरा भविष्य बिलकुल अंधकारमय है। एक डाक्टर अपनी लड़की को लेकर आ गए। कहने लगे कि आप मेरी लड़की तो देख लो, उससे बात तो कर लो। लड़की सुंदर थी। मैंने कहा, लड़की सुंदर है। और मेरे साथ रहना चाहे तो मुझे कोई एतराज नहीं। उन्होंने कहा, आपका मतलब! मैंने कहा, मेरा मतलब यह कि मेरे साथ कोई भी रहना चाहे तो मुझे कोई एतराज नहीं। जो सेवा मुझसे बन सकेगी, करूंगा; और जो सेवा इससे बन सकेगी, यह करेगी। पर उन्होंने कहा, विवाह वगैरह? तो मैंने कहा, विवाह वगैरह संभव नहीं है। विवाह की क्या जरूरत? जब तक बनेगी, बनेगी; जब नहीं बनेगी, तो जय-जयरामजी। उन्होंने कहा, आप बात कैसी करते हैं? होश-ठिकाने की बात करिए। आप मजाक कर रहे हैं?
मैंने कहा, मैं मजाक नहीं कर रहा हूं। मैं किसी स्त्री का इतना अपमान नहीं कर सकता कि उसको पत्नी बनाऊं। और मैं किसी स्त्री का इतना अपमान नहीं कर सकता कि उसका पति बनूं। पति का अर्थ ही होता है स्वामी।
मगर हमारी आदतें खराब हो गई हैं। तो हम मुल्क के प्रेसीडेंट को राष्ट्रपति कहते हैं। खराब आदतें ऐसी हैं कि शर्म भी नहीं आती हमें राष्ट्रपति कहते हुए। जरा यूं सोचो कि एक महिला हो जाए मुल्क की प्रेसीडेंट, उसको राष्ट्रपत्नी कहोगे? तब तत्क्षण अखरेगी बात। वह महिला भी राजी नहीं होगी। वह कहेगी, इसका क्या मतलब? राष्ट्रपत्नी? इसका मतलब तो वेश्या से भी गए-बीते हो गए। वेश्या भी नगरवधू होती है। सिर्फ एक गांव की वधू। राष्ट्र भर की, सत्तर करोड़ की पत्नी? कभी नहीं। मगर ये भोंदू जो राष्ट्रपति बन कर बैठते हैं, ये नहीं कहते कि राष्ट्रपति हम नहीं बनते; राष्ट्रपति शब्द अशोभन है। सत्तर करोड़ लोगों में पैंतीस करोड़ तो स्त्रियां हैं। पैंतीस करोड़ स्त्रियों के पति और पैंतीस करोड़ पुरुषों के पति--यह तो हद हो गई!
मगर हम पति शब्द को बिलकुल सोचते ही नहीं, विचार में ही नहीं लाते। वह हमें स्वीकार है। अर्थ भी भूल गए हैं हम उसका, कि उसका अर्थ ही स्वामी होता है। लैंडलार्ड को भूमिपति कहते हो कि नहीं? राजा को भूपति कहते हो कि नहीं? पति यानी स्वामी, मालिक। और स्त्री यानी संपत्ति, पत्नी यानी संपत्ति! हमारे पास शब्द हैं--स्त्री संपत्ति। बाप जब बेटी का विवाह करता है तो कन्यादान करता है। कन्या न हुई, कोई चीज-वस्तु हुई, दान कर दी। पुत्रदान नहीं करता, कन्यादान! ये बेहूदे शब्द...!
तो मैंने उनसे कहा कि मुझे कोई एतराज नहीं है। यह साथ रहने को उत्सुक हो, तो जिस जगह मैं रह रहा हूं काफी जगह है, यह भी रह सकती है। आपको रहना हो, आप भी रह सकते हैं।
उन्होंने कहा, तुम बातें कैसी करते हो बहकी-बहकी!
बहकी-बहकी बातें नहीं कर रहा हूं, मगर मैं किसी का अपमान नहीं कर सकता। मैंने कहा, आप सोच-विचार लें दोनों। अगर सोच-विचार कर तय करें तो लौट आना, नहीं तो कोई मेरा आग्रह नहीं है।
ऐसे न मालूम कितने लोगों ने मुझसे कहा होगा, उनसे सबसे मैंने यही कहा--ये ही बहकी-बहकी बातें। फिर वे दोबारा आए ही नहीं। धीरे-धीरे उन्होंने आशा ही छोड़ दी कि यह आदमी आशा रखने योग्य नहीं है।
मैं किसी स्त्री को पत्नी के रूप में सम्मान नहीं दे सकता, न किसी पुरुष को पति के रूप में सम्मान दे सकता हूं। इसलिए सुशीला, तुझे लगता होगा--यह क्या बात है कि मैं स्त्रियों का सम्मान करता हूं और पत्नियों की जितनी मजाक उड़ा सकता हूं उड़ाता हूं। मगर उसके पीछे कारण है।
मैं मुल्ला नसरुद्दीन से पूछ रहा था, आप अपने दफ्तर में केवल विवाहितों को ही क्यों लेते हैं? तो मुल्ला ने कहा, क्योंकि विवाहितों को कितना भी डांटो, वे सह लेते हैं; उन्हें डांट खाने की आदत रहती है; कुंआरे अनुभव-शून्य रहते हैं।
एक दिन चंदूलाल की पत्नी चंदूलाल से कहने लगी, आखिर तुम यह कैसे कह रहे हो कि तेरह अंक तुम्हारे लिए अशुभ है?
चंदूलाल ने कहा, अब झगड़ा न खड़ा करो तो अच्छा। अब सुबह-सुबह झगड़ा खड़ा न करो तो अच्छा। सुबह से ही उपद्रव मचाओगी, दिन भर खराब जाएगा।
पत्नी ने कहा, इसमें उपद्रव की बात ही क्या है? मैं तो एक शुद्ध सवाल तुमसे पूछ रही हूं, इसमें झगड़ा कहां है, कि तुम तेरह के अंक को अपने लिए अशुभ क्यों मानते हो?
चंदूलाल ने कहा कि नहीं मानती तो सुनो--क्योंकि आज से तेरह वर्ष पूर्व, तेरह तारीख को ही मेरा तुमसे विवाह हुआ था।
विवाह से बड़ी कोई अशुभ घटना नहीं है। इसीलिए तो सभी सगे-संबंधी, मित्र, परिचित शुभकामना करने आते हैं कि भैया जा तो रहे हो, ईश्वर तुम्हारी रक्षा करें! अब तुम मानते ही नहीं हो, तो जैसी मर्जी। कहते हैं न: जो दुख में, सुख में काम आए सो मित्र! और खासकर तो जो दुख में काम आए सो मित्र। इसलिए विवाह के समय सब मित्र आते हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन का विवाह हो रहा था। उसके एक दिन पहले चंदूलाल रास्ते पर मिल गए, एकदम गले लगा लिया, नसरुद्दीन का चुंबन ले लिया और कहा, नसरुद्दीन, आज का दिन तुम्हारे जीवन में बड़े सौभाग्य का दिन है।
नसरुद्दीन ने कहा, लेकिन मेरा विवाह आज नहीं हो रहा, कल हो रहा है।
चंदूलाल ने कहा, इसीलिए तो कह रहा हूं कि बस आज आखिरी दिन समझो, फिर कल से तो उपद्रव ही उपद्रव है। तो आज मैं तुम्हें धन्यवाद देता हूं कि आज आखिरी दिन है, मना लो खुशी! आओ नाश्ता करवा दूं, शराब पिलवा दूं, सिनेमा दिखला दूं। जो भी कहो आज करने को तैयार हूं। कल के बाद तो तुम अपने मालिक भी न रह जाओगे। क्या खाओ, क्या पीओ, कहां उठो, कहां बैठो--इस सबका इंतजाम तुम्हारी पत्नी करेगी। इसलिए कहता हूं कि आज का दिन तुम्हारे जीवन में सबसे बड़े सौभाग्य का दिन है।
मुल्ला नसरुद्दीन अपनी पत्नी से कह रहा था एक दिन, गुलजान, शादी के समय तुमने तो यह वचन दिया था कि तुम मेरा सम्मान करोगी, मुझे प्रेम करोगी और मेरी सेवा भी। पर अब तुम्हें क्या हो गया है कि सदा चुड़ैल की तरह पेश आती हो?
गुलजान ने कहा, नाशमुए, तुझमें इतनी भी अक्ल नहीं कि कुछ समझ सको! उस वक्त क्या इतने लोगों के सामने तुमसे विवाद करती? वह दुष्ट मुल्ला कह रहा था कि प्रेम करेगी, सेवा करेगी, पति का सदा सम्मान करेगी, तो उस वक्त क्या नहीं करती? कह देती कि नहीं? इतने आदमियों के सामने विवाद खड़ा करती? अब एकांत में तो जो सत्य है, वही प्रकट होगा। वहां भीड़-भाड़ में तो मैंने सब बातों में हां भर दिया था।
एक दुबला-पतला आदमी एक मोटी स्त्री के साथ विवाह कर रहा था। जब पंडित ने पूछा, क्या तुम ईश्वर को साक्षी रख कर यह कहते हो कि इस स्त्री को ग्रहण करते हो?
उसने कहा, मैं कोई ग्रहण-व्रहण नहीं करता, मैं ग्रहण किया जा रहा हूं। मैं भाग नहीं सकता बस, इतना ही समझो।
एक युवक से उसकी प्रेयसी के बाप ने पूछा कि क्या तुम मेरी लड़की से विवाह करोगे?
उस युवक ने कहा कि क्या मुझे अभी भी चुनाव करने का अधिकार है? मुझे विकल्प है? क्या मैं स्वतंत्र हूं कि तय कर सकूं कि करूं या न करूं?
स्वतंत्रता बहुत पहले खोनी शुरू हो जाती है। एक-दूसरे पर पाश पड़ना शुरू हो जाता है। तुम्हें पता है पशु शब्द किस चीज से बनता है? पाश से बनता है। पशु का अर्थ होता है: बंधा हुआ, पाश में पड़ा हुआ। जंगली जानवर को पशु नहीं कहना चाहिए। जानवर कहो ठीक, पशु कहना ठीक नहीं है भाषा के लिहाज से, क्योंकि वह बंधा हुआ नहीं है। तुम्हारे घर में जो भैंस बंधी है, वह पशु है। लेकिन जंगली जो भैंसा है, वह पशु नहीं है। लेकिन पत्नी और पति को क्या कहोगे? पशु! इनको जानवर भी नहीं कह सकते। जान वगैरह तो कब की निकल चुकी, अब क्या जानवर कहोगे! अब तो पशु बचे--एक-दूसरे की गर्दन में पाश डाले, एक-दूसरे को कसे हुए, एक-दूसरे से जुते हुए।
इसलिए इनकी मैं मजाक उड़ाता हूं।
चंदूलाल को एक दिन उदास देख कर नसरुद्दीन ने पूछा कि क्या बात है भई, यह रोनी सूरत क्यों बना रखी है?
चंदूलाल बिलकुल रो देने वाले अंदाज में बोला, क्या बताऊं दोस्त, मेरी पत्नी ने मेरा सब कुछ ले लिया और मुझे तलाक दे दिया।
नसरुद्दीन बोला, अरे किस्मत वाले हो चंदूलाल, अरे मेरी बीबी ने तो मेरा सब कुछ भी ले लिया और मुझे तलाक भी नहीं दिया।
नसरुद्दीन की सातवीं पत्नी गुलजान का भी रात अचानक हार्टफेल हो गया था। गुलाबो चंदूलाल से बोली, जाइए न, क्या आपको अपने दोस्त की पत्नी की मैयत में नहीं जाना है?
चंदूलाल तैश में आकर जोर से बोला, अरे हद हो गई दोस्ती की जी, मैं छह बार उसके यहां हो आया, वह हरामजादा एक भी बार मेरे यहां नहीं आया। मैं क्यों जाऊं? मैं भी नहीं जाता हूं अब।
और उदाहरण के लिए यह प्रश्न देख सुशीला--

भगवान, मेरे पति आपके संन्यासी हैं, मुझे कोई एतराज नहीं है। वे मुझे आपके प्रवचनों में, कीर्तन, ध्यान, शिविर और पूना तक के कार्यक्रमों में साथ भी लाते हैं। मैंने आपका संन्यास अभी तक नहीं लिया है, फिर भी वे लेने को मजबूर नहीं करते हैं। मगर मेरी शिकायत सिर्फ इतनी ही है कि वे न सिनेमा देखने जाते हैं, न साथ घूमने निकलते हैं; घर में ही चुपचाप बैठे रहते हैं और खुले आकाश को ताकते रहते हैं, बातचीत में कोई उत्सुकता नहीं रखते। ज्यादा समय आपकी बातों में ही पड़े रहने का क्या मतलब? मैं भी उनकी पत्नी हूं, जरा मेरी भी सुनें!

शांताबेन ने पूछा है। शांताबेन पत्नी हैं स्वामी चंद्रकांत भारती की। चंद्रकांत भारती का पहला प्रश्न था, भूल मत जाना। उन्होंने कहा था: "आप मेरी सुहागरातों के मालिक हैं। मुझे कभी वैधव्य का दुख देना ही नहीं। बस इतनी सी चाह है--जीओ हजारों साल!'
अब यह पत्नी उनको घर जाकर ठीक करेगी। ये शांता बहन किसी भी क्षण अशांता बहन हो सकती हैं। ये कहेंगी कि तुमको शर्म नहीं आई कहते कि आप मेरी सुहागरातों के मालिक हैं, तो फिर मैं कौन हूं?
शांताबेन का प्रश्न देखा? एक-एक शब्द सोचने जैसा है। कहा है कि "मेरे पति आपके संन्यासी हैं, मुझे कोई एतराज नहीं।'
एतराज है, नहीं तो यह बात भी लिखने की कोई जरूरत न थी। अक्सर हम जो कहते हैं, वह उससे उलटा होता है जो असलियत होती है।
मैं मैट्रिक का विद्यार्थी था और एक नये-नये शिक्षक, श्री निगम, अध्यापक होकर आए विज्ञान के। देखने में बिलकुल डरपोक, दब्बू मालूम पड़ते थे, मगर आते ही से उन्होंने रोब बांधने की कोशिश की। यह पता था कि वह मेरी जो कक्षा है, उपद्रवियों की है। सो उन्होंने सोचा कि पहले ही...और अध्यापकों ने उनको सुझाया होगा कि पहले ही दिन बांध लेना रोब; अगर पहले दिन ही नहीं बांध पाए, तो फिर बांधना मुश्किल है। सो उन्होंने आकर बहुत ही शोरगुल मचाया। बड़े जोर-जोर से चीखे-चिल्लाए। और कहा कि मैं किसी से डरता नहीं। मैं तुममें से किसी से नहीं डरता हूं। अरे तुमसे क्या डरूंगा, मैं भूत-प्रेत से नहीं डरता।
मैंने उनसे पूछा कि भूत-प्रेत की बात ही नहीं हो रही, आप केमिस्ट्री पढ़ाने के लिए अध्यापक हुए हैं कि भूत-प्रेत पढ़ाने के लिए? और हमने आपसे कहा नहीं कि आप हमसे डरो। आप ये बातें क्यों कर रहे हैं कि मैं आपसे डरता ही नहीं? आप जरूर डरते हैं।
उन्होंने कहा, मैं नहीं डरता। मैंने कहा, आप डरते हैं। वे एकदम कंपने लगे कि नहीं डरता। जब मेरे विद्यार्थी साथी जो थे, उन्होंने देखा कि ये तो डरने लगे, तो उन सारे लड़कों ने मेरा साथ दिया, सब चिल्लाए कि आप डरते हैं। वे इतने घबड़ा गए कि गश खाकर गिर पड़े। वह पहले दिन ही उनका मामला खत्म हो गया। हमको उनकी हवा करनी पड़ी, पानी छिड़कना पड़ा। जब होश में आए, हमने कहा कि अब आप इस तरह की बातें न करना।
कहने लगे, ये लोग किस तरह के हैं? यह क्लास कैसी है? ये सारे के सारे एकदम खड़े हो गए और कहने लगे कि आप डरते हैं। तुम लोगों ने सिर आसमान पर उठा लिया।
पूरे स्कूल में खबर हो गई। सारे स्कूल से लोग भागे आए--शिक्षक भागे आए, चपरासी भागे आए, हेडमास्टर भागे आए। पूछा कि यह मामला क्या है? मैंने कहा, मामला कुछ नहीं है। इन्होंने ही शुरू किया। हम तो कोई बात ही नहीं कर रहे थे, हम लोग सब चुपचाप बैठे थे। हम तो जरा देख रहे थे कि आदमी किस तरह के हैं, किस ढंग से इनसे व्यवहार करना।
मगर होश में आकर वे फिर बोले हेडमास्टर और सब मास्टरों को देख कर कि मैं कहे देता हूं कि मैं डरता नहीं। मुझे मिरगी की बीमारी है जी। यह बीमारी तो मुझे है बहुत पुरानी।
मैंने कहा, यह मिरगी की बीमारी नहीं है। मिरगी की बीमारी में आदमी के मुंह से फसूकर आता है, तुम्हारे मुंह से फसूकर नहीं आया। दोबारा जब बेहोश होओ, फसूकर लाकर दिखलाना।
मगर वे माने ही नहीं। नहीं माने तो मैंने कहा ठीक है। मुसलमानों के कब्रिस्तान पर जो आदमी कब्रिस्तान की रखवाली करता था, वह मेरा दोस्त था, लंगोटिया यार था। हम एक ही पहलवान के अखाड़े में डंड-बैठक लगाते थे। सो उससे मैंने कहा, भैया, तू एक खोपड़ी मुझे दे दे। उसने कहा, खोपड़ी का क्या करोगे? मैंने कहा, एक मास्टर आ गए हैं, वे कहते हैं कि भूत-प्रेत से नहीं डरते। उनको भूत-प्रेत दिखलाना है। तो उसने कहा कि दे देंगे। जाकर हमने एक कब्र खोद ली और एक मुर्दे की खोपड़ी निकाल लाए।
साफ-सुथरी करके, वह जिस मकान में रहना उन्होंने शुरू किया था, बड़ा मकान था। छोटा गांव, पांच रुपये महीने पर बड़ा मकान मिल जाए। मैं उसके ऊपर चढ़ गया, खपड़ा एक सरका कर, खोपड़ी के ऊपर एक छेद कर लिया था, उसमें रस्सी बांध कर, खोपड़ी वहां से लटकाई। और चार-छह लड़कों को आस-पास छिपा रखा था। उन्होंने जोर से खी-खी खी-खी खी-खी की आवाज की, जैसे कि भूत-प्रेत हंसते हैं।
वे अपने बिस्तर पर पड़े थे। उनकी आंखें खुलीं। खोपड़ी उतरती देखी उन्होंने और खी-खी की आवाज सुनी, बस उनकी घिग्घी बंध गई। एकदम से उन्होंने हूऱ्हू हूऱ्हू...।
तभी से तो मुझे हूऱ्हू का ध्यान समझ में आया। यह उन्हीं निगम मास्टर से मैंने सीखा। वे तो चले गए, स्कूल छोड़ दिया, मगर यह ध्यान की विधि दे गए। वह जो उनको हूऱ्हू की जिच बंधी, खोपड़ी भी हमने खींच ली, उनका खप्पड़ भी जमा दिया, हम भाग भी गए, मुहल्ले के लोगों ने दरवाजा खोल लिया, हम वापस भी पहुंच गए, दरवाजे से अंदर भी घुस गए, उनको बहुत समझाया, हिलाया-डुलाया, मगर वह हूऱ्हू उनकी बंद न हो। और हम लोगों को उन्होंने देखा। पूछा, बात क्या है? उन्होंने कहा, कुछ बात नहीं जी। मुझे ऐसा कभी-कभी हो जाता है। कोई दुखस्वप्न मैंने देखा।
मगर वह बात तो पूरे गांव में फैल गई। और जब दूसरे दिन वे स्कूल में पहुंचे तो उनकी टेबल पर खोपड़ी रखी थी। और खोपड़ी के माथे पर लिखा था: हूऱ्हू। बस उन्होंने इस्तीफा दे दिया और वे चले गए। फिर उनका पता नहीं चला। फिर मैं तलाश ही करता रहा। मैं पूरे मुल्क में घूमता रहा। जहां जाता था वहीं पूछता था कि भई, निगम मास्टर करके कोई आदमी यहां शिक्षक तो नहीं हैं केमिस्ट्री के? क्योंकि उनसे एक दफा मुलाकात करनी है और धन्यवाद देना है कि उन्होंने जो हूऱ्हू की थी--क्या गजब की हूऱ्हू की थी--मुझ पर ऐसा प्रभाव छोड़ गई है कि मैं लाखों लोगों को हूऱ्हू करवा रहा हूं। हूऱ्हू करने से भूत-प्रेत भाग जाते हैं!
तू कहती है शांताबेन: "मुझे कोई एतराज नहीं है।'
एतराज है बाई--सख्त एतराज है। मगर मैं तेरे पति को जानता हूं, तू एतराज भी करे तो वे कुछ मानने वाले नहीं हैं। वे भी एक सिद्धपुरुष हैं। एतराज करने में कोई सार भी नहीं है। एतराज करके झंझट ही खड़ी होगी। इसलिए तू एतराज नहीं कर रही, मगर एतराज है। और फिर इतने आदमियों के सामने क्या कहना! एतराज वगैरह प्राइवेट बातें हैं, एकांत में की जाती हैं।
तू कहती है: "वे मुझे आपके प्रवचनों, कीर्तन, ध्यान, शिविर और पूना तक के कार्यक्रमों में साथ भी लाते हैं।'
लाना पड़ता होगा। क्योंकि कई पत्नियां कहती हैं कि साथ लेकर चलो, क्योंकि वहां इतनी स्त्रियां हैं, क्या पता! और वहां सब स्वतंत्रता है, वहां कोई पर रोक-टोक नहीं है। वहां तुम पता नहीं किसके गले में हाथ डाल लो, किसका हाथ हाथ में ले लो। मैं नजर रखूंगी! तू कहती है कि लाते हैं, मगर बात और है--लाना पड़ता है।
और तू कहती है: "मैंने आपका संन्यास अभी तक नहीं लिया है।'
अगर तू यहां आती होती और सच में सुनती होती, ध्यान शिविर में भागीदार होती होती, तो संन्यास लेने से कैसे बच सकती थी! यहां आए और बिना भीगे चली जाए! नहीं, मगर यहां तू नजर रखती होगी चंद्रकांत पर कि क्या कर रहे हैं? कहां देख रहे हैं? किसी को धक्का वगैरह तो नहीं मार रहे! किसी से दोस्ती वगैरह तो नहीं बना रहे! किसी से आंखों-आंखों में बातचीत तो नहीं हो रही! अरे तुझे दूसरे काम में लगे रहना पड़ता होगा यहां।
और तू कहती है कि "मगर मेरी शिकायत सिर्फ इतनी ही है...।'
अब यह कोई छोटी शिकायत है तू जो कह रही है कि इतनी ही? यह बड़ी से बड़ी शिकायत है।
"कि वे न सिनेमा देखने जाते हैं।'
अब जो ध्यान करेगा वह सिनेमा देखने क्यों जाएगा, किसलिए जाएगा? सिनेमा वगैरह देखने तो दुखी लोग जाते हैं। जिनके जीवन में कुछ नहीं है, थोथापन भरा है, वे घंटे, दो घंटे गुजार कर अपने को भुला लेते हैं। परदे पर धूप-छाया का खेल है। आंखें अलग खराब होती हैं।
मैं तो कोई तीस साल से गया नहीं, तो मुझे पता नहीं हालतें क्या हैं। तीस साल पहले कुछ मित्रों ने कहा कि चलें, एक दफा तो चलें, तो मैं गया था देखने। सो उन्होंने तो फिल्म देखी, मैं सोया। जब बाहर उन्होंने आकर मुझसे पूछा कि क्या खयाल है? मैंने कहा कि बड़ी ताजगीदायी फिल्म है। उन्होंने कहा, मतलब? मैंने कहा कि नींद भी गहरी आई और तबियत बिलकुल ताजी हो गई। और अब दोबारा नहीं आऊंगा, क्योंकि यह नींद तो मैं घर ही ले सकता हूं। यह यहां आकर और न मालूम कितने लोग जिन कुर्सियों पर बैठते हैं, कोई टी.बी. का बीमार, कोई कैंसर का बीमार, कोई खंखार रहा है, कोई खांस रहा है, कोई थूक रहा है, कोई बिड़ी पी रहा है, एक-एक तरह के छंटे हुए नालायक जहां इकट्ठे होते हों और जहां की हवा एकदम गंदे धुएं से भरी है, क्योंकि लोग बिड़ी पी रहे, सिगरेट पी रहे, पान की पिचकारियां दीवालों पर पड़ी हुई हैं--इस दृश्य को दोबारा नहीं देखना। देख लिया एक दफा, जी भर गया। अब इस नरक में दोबारा नहीं आना।
नरक? आप कैसी बातें करते हैं! लोग वहां पैसा देकर जाते हैं।
मैंने कहा, यही तो हैरानी की बात है कि लोगों की मूढ़ता का कोई अंत नहीं है। कि लोग पैसा देकर और ऐसी-ऐसी बेवकूफी के कामों में पड़ते हैं कि अगर एक दफे भी सोचें...।
उतनी देर ताजी हवा...। तेरे पति चंद्रकांत को ज्यादा अकल है। खुले आकाश को देखने का मजा; तारों भरे आकाश को देखने का आनंद; बादल आकाश में तैरते हों, उन तैरते बादलों पर ध्यान; सूरज निकलता हो कि डूबता हो, वह सारा जादू--उसको छोड़ कर किसी गंदे कटघरे में...। पहले तो कतार में खड़े रहो। जमाने भर के लोगों के धक्के खाओ, गालियां सहो। किसी तरह टिकिट लेकर भीतर पहुंचो। जहां सांस लेना भी दूभर हो, वहां गंदगी की सांस लो। और फिर आंखें खराब करो। सार क्या है? और कहानी में रखा क्या है? जो तूने दिखा दिया जिंदगी में, अब और कौन सी फिल्म दिखाएगी? अरे यही तो वहां होना है। चारों तरफ कहानियां ही कहानियां तो चल रही हैं। ये ही कहानियां फिल्म पर दोहराई जा रही हैं। यही त्रिकोण--कि दो औरतें, एक आदमी; कि दो आदमी, एक औरत। खेल में मामला कितना? और खेल खत्म! खेल की कुल कहानी इतनी है, वही पुरानी रामलीला। राम और रावण और सीता मैया। वही पुराना त्रिकोण, ट्राएंगल। कैसे ही बना लो उसको, जैसा बनाना चाहो, थोड़ा रंग-बिरंगा, अलग बात है।
सिर्फ मूढ़ ही वहां इकट्ठे होते हैं। जिनमें थोड़ा बोध आ जाएगा, इस जगत में बहुत सौंदर्य है देखने योग्य--सागर के तट पर बैठो, सागर के तट से टकराती हुई लहरों की गूंज को सुनो। पैसा ही ज्यादा इकट्ठा हो जाए और जेब में न समाता हो, तो पहाड़ों पर चले जाओ; जंगलों में जाओ--जहां परमात्मा अभी भी अनुभव हो सकता है, क्योंकि जहां आदमी ने अभी सभी नष्ट नहीं कर दिया है। शहरों में तो परमात्मा को खोजना मुश्किल होता जाता है, क्योंकि सीमेंट के रोड परमात्मा ने नहीं बनाए; और न सीमेंट की गगनचुंबी इमारतें परमात्मा ने बनाई हैं; और न बड़े-बड़े कारखाने परमात्मा ने बनाए हैं। जहां परमात्मा की बनाई एक चीज नहीं, जैसे बंबई में या न्यूयार्क में, वहां तुम लाख कोशिश करो तो परमात्मा का कोई प्रमाण नहीं मिलता।
यह जान कर तुम चकित होओगे कि लंदन में बच्चों का एक सर्वे किया गया, छोटे बच्चों का, दस लाख बच्चों ने गाय नहीं देखी! इन बच्चों के जीवन में कुछ कमी रह जाएगी। सात लाख बच्चों ने कभी खेत नहीं देखे--दूर-दूर तक, दूर क्षितिज तक फैले हुए हरियाली से भरे खेत! इन बच्चों की जिंदगी में कुछ हरियाली कम रह जाएगी। ये तो बैठे टेलीविजन के सामने।
पश्चिम में टेलीविजन को ठीक नाम दे दिया है, उसको कहते हैं--ईडियट बॉक्स। पांच-पांच, छह-छह घंटे एक डब्बे के सामने बैठे रहोगे तो बुद्धू तो हो ही जाओगे, और बचेगा क्या तुममें! और लोग ऐसे बैठे हैं कुर्सियों से चिपके हुए कि जैसे गाद लगा दी गई हो, वहां से हट नहीं सकते। और देख क्या रहे हो? और जितना टी.वी. नुकसान पहुंचा रहा है, उतनी कोई चीज आंखों को नुकसान नहीं पहुंचा रही। टी.वी. आंखों का कैंसर पैदा कर रहा है। और जहां टी.वी. आ गया, वहां सिनेमा दकियानूसी हो जाता है; वहां तो टी.वी. ही देखोगे, फिर क्या जरूरत इतनी दूर जाने की? अपने घर में बैठ कर ही चाय की चुस्कियां भी ले रहे हैं, सिगरेट के कश भी मार रहे हैं, टी.वी. भी देख रहे हैं, और आंखें खराब भी कर रहे हैं, आंखों का कैंसर भी पैदा कर रहे हैं।
तू पूछती है कि बस इतनी ही शिकायत है कि वे सिनेमा नहीं जाते।
शिकायत छोटी नहीं है शांताबेन, शिकायत बड़ी है! शिकायत यह कह रही है कि अब वे बुद्धूपन नहीं करते।
और कहती है: "न साथ घूमने निकलते हैं।'
अब अपने भीतर जाएं कि तेरे साथ जाएं? और तू घूमने भी कहां ले जाएगी? कि चलो बाजार। लोग शॉपिंग करने निकलते हैं उसको घूमना कहते हैं! जंगल तो ले नहीं जाएगी। जंगल में क्या रखा है! पहले हुआ करता था कहते हैं जंगल में मंगल, अब नहीं होता। अब तो मंगलवारा, कहीं कोई बाजार। और डरते होंगे बेचारे चंद्रकांत। अब ध्यानी आदमी हैं, ज्यादा कमाई भी नहीं कर सकते। ऐसे भी जिंदगी में उन्होंने कोई ज्यादा कमाई की नहीं; धन के पीछे दीवाने भी नहीं हैं। उनकी दुकान को मैंने देखा है। उस पर ग्राहक वगैरह तो दिखाई पड़ते ही नहीं कभी। जब मैं गया था तो कोई आधा घंटा उनकी दुकान पर था, कोई ग्राहक वगैरह आया नहीं। और मुझ जैसे ग्राहकों को दुकान पर ले जाओगे तो नुकसान में ही पड़ोगे; मुझे कुछ और भेंट देना पड़ा।
घूमने जाने का क्या मतलब तेरा? घूमने जाने का मतलब यह कि यह साड़ी खरीदनी है। यह साड़ी तो खरीदनी ही पड़ेगी। ध्यानी आदमी कहां झंझट में पड़ें साड़ियों की! वे प्रतीक्षा कर रहे हैं कि कब तू साड़ियों की झंझट छोड़े और गैरिक वस्त्र पहने। गैरिक वस्त्र पहनते ही से साड़ियों की झंझट छूट जाती है, साड़ियों का उपद्रव छूट जाता है।
कई स्त्रियां संन्यास नहीं ले पा रहीं सिर्फ साड़ियों के कारण। और कोई बाधा नहीं है--न तो कोई कर्मों की बाधा है; न कोई भाग्य में बाधा है। मुझसे महिलाएं पूछती हैं कि हमारे भाग्य में संन्यास नहीं है? मैं कहता, बकवास न करो, सिर्फ तुम्हारे घर में साड़ियां ज्यादा हैं और कोई मामला नहीं है। साड़ियां बांट दो, कल तुम्हारा संन्यास हो जाए। तब वे कहती हैं कि बात तो सच है। असल बात तो यही है कि साड़ियों से मोह नहीं जाता।
संन्यास भी ले लेती हैं, तो फिर मुझे पूछती हैं कि अगर बार्डर लगा हुआ साड़ी पहनें तो कुछ, बार्डर अगर थोड़े और रंग का हो तो कुछ हर्जा है? थोड़ा बेलबूटा हो तो चलेगा?
क्या-क्या तरकीबें निकालने की कोशिश में लगी रहती हैं--थोड़ा बेलबूटा, थोड़ा बार्डर! वे पीछे के दरवाजे से सब वापस ले आएंगी।
वे डरते होंगे तेरे साथ जाने से। और जाना कहां है? तेरे साथ जिंदगी भर तो रह लिया, अब कृपा कर, तू जा तो उनको कुछ देर एकांत मिले। वे कहते होंगे कि बाई, तू जा जहां तुझे जाना हो, थोड़ी देर तो मुझे अकेले में छोड़ दे। मगर पति-पत्नी एक-दूसरे को अकेले में छोड़ते ही नहीं। अकेले छोड़ने में डरते हैं। नजर रखनी पड़ती है। कैसे छोड़ दें! तो साथ चलो।
तू कहती है, "घर में चुपचाप बैठे रहते हैं।'
तो और क्या करें! अपने से बोलें? खुद ही बैठे-बैठे बकवास करें? दीवालों से बोलें? और तुझसे क्या बोलने को बचा होगा! वह जो बोलना था, शादी के पहले बोल चुके। न बोलते तो शादी ही कैसे होती! वह तो हो गया खत्म मामला। शादी हो गई कि बोल बंद। फिर कहां बोलना वगैरह! फिर तो तू बोलती है और उनको सुनना पड़ता है। तो चुपचाप, मौका मिल जाता होगा, तो चुपचाप बैठते होंगे। तेरे को लगता है चुपचाप बैठे हैं, वे ध्यान कर रहे हैं।
एक महिला दूसरी महिला से कह रही थी कि चलो कुछ भी हो, मेरे पति रजनीश के चक्कर में पड़ गए, एक लाभ तो हुआ--पहले चुपचाप बैठे रहते थे, अब कम से कम ध्यान तो करते हैं।
बात वही की वही है--पहले चुपचाप बैठे रहते थे, अब ध्यान करते हैं। मगर ध्यान करने का मतलब ही इतना होता है: चुपचाप बैठे रहना। ध्यान है चुप्पी, मौन।
और तू कहती है, "खुले आकाश को ताकते रहते हैं। बातचीत में कोई उत्सुकता नहीं रखते।'
है क्या बातचीत में? किसकी बातचीत करें--कि पड़ोसी की पत्नी किसके साथ भाग गई; कि पड़ोसी के बेटे को कितने नंबर मिले स्कूल में; कि पड़ोसी कौन सी कार खरीद लाया; कि पड़ोसी की पत्नी ड्राइवर के साथ रंगरेलियां कर रही है--क्या बातचीत करें?
और तेरे को इससे भी बहुत ज्यादा एतराज है कि "ज्यादा समय आपकी बातों में ही पड़े रहने का क्या मतलब?'
जब तू मुझसे ही पूछ रही है खुलेआम, तो उनकी क्या गति करती होगी वह मैं समझ सकता हूं।
"मैं भी उनकी पत्नी हूं, जरा मेरी भी तो सुनें!'
सुन चुके बाई, तेरी बहुत सुन चुके। शांताबेन, अब शांत हो जा।
चंदूलाल अपनी सास से कह रहा था, आपने कहा था कि आपकी लड़की संपूर्ण शाकाहारी है!
सास ने कहा, बिलकुल है।
चंदूलाल ने कहा, फिर दो-दो घंटे मेरा दिमाग खाती है, शाकाहारी कैसे है?
अब बेचारे चंद्रकांत भारती को छोड़। मत उनका सिर खा। कुछ थोड़ा-बहुत बचा हो, तो बच जाने दे। यूं तो संभावना बहुत कम है कि कुछ बचा हो।
नसरुद्दीन ने चंदूलाल को दावत पर बुलाया था। खाना बनाते-बनाते पत्नी काफी झुंझला चुकी थी, क्योंकि घर में राशन नहीं और इस नसरुद्दीन के बच्चे को अपने मित्र को ऐसे समय में ही दावत पर बुलाने की सूझी। जब उसने देखा कि शक्कर के डब्बे में शक्कर बिलकुल नहीं है, तो चीख कर नसरुद्दीन से बोली कि सुनते हो जी, घर में शक्कर बिलकुल खत्म हो गई है। बताओ अब खीर में क्या डालूं?
नसरुद्दीन, जो कि तल्लीनता से अखबार पढ़ने में जुटा था, एकदम से भड़क गया। वह भी चिल्लाया कि हद हो गई शराफत की, कभी तो चैन से अखबार पढ़ने दिया होता। मेरा भेजा डाल दे खीर में! अरे एक दिन तो, छुट्टी के दिन तो कम से कम चैन लेने दिया कर।
पत्नी तो पत्नी, बेचारी यह सुन कर शांत हो गई। थोड़ी देर बाद नसरुद्दीन को चाय की तलफ महसूस हुई। वे कुर्सी पर बैठे-बैठे ही अपनी पत्नी गुलजान को आवाज देकर बोले कि सुनती हो, जरा एक कप चाय बना कर तो दे जाओ।
गुलजान बोली, हजार दफे कह चुकी कि शक्कर खत्म है।
नसरुद्दीन क्रोध से फिर बौखला उठा और बोला, मैंने तुझसे कहा न कि शक्कर नहीं तो मेरा भेजा डाल दे, अब क्यों सिर चाट रही है?
गुलजान बोली, अब चाय में तुम्हारा भेजा कहां से डालूं; वह तो मैं पहले ही खीर में डाल चुकी हूं।
मैं नहीं सोचता कि बहुत चंद्रकांत पर बचा होगा भेजा कि तू अब और खा सके, मगर जो कुछ बचा हो छोड़ दे। कुछ परमात्मा को चढ़ाने के लिए भी शेष रहने दे। तुझे जाना हो जहां जा। तुझे जो घूमना हो घूम। सिनेमा देखना हो सिनेमा देख। यह पति के गले में रस्सा डाल कर जगह-जगह मत घूम। और तुझे यहां आना हो, तो आ; मुझमें रस हो, तो आ। रस मालूम नहीं होता। नहीं तो तू ऐसा नहीं कह सकती थी कि आपकी बातों में ही पड़े रहने से क्या मतलब? नाहक जासूसी करने उनके पीछे मत आ।
कोई पत्नी अपने पति पर भरोसा नहीं करती। और कोई पति अपनी पत्नी पर भरोसा नहीं करता। एक-दूसरे की जासूसी में लगे रहते हैं। यह कैसा प्रेम है? प्रेम के नाम से क्या चल रहा है! कैसे धोखे को हमने प्रेम कह रखा है! इस धोखे से जगो। एक-दूसरे को स्वतंत्रता दो। प्रेम स्वतंत्रता देता है। प्रेम परम स्वतंत्रता देता है।

छठवां प्रश्न: भगवान!
एक ही नजर में देख कर मैं आपका दीवाना हो गया हूं। ऐसा लगता है कि मेरा और आपका पूर्व-जन्म का संबंध है। मैं तो पागल सा हुआ जा रहा हूं। दिन-रात बस आप ही आप की बातें मेरे मस्तिष्क में घूमती रहती हैं, और हृदय में बराबर यह प्रतीति बनी रहती है कि मैंने आपके चेहरे को कहीं और भी देखा है। प्रभु, कुछ कहें।
सरदार बलवीर सिंह!

हे सरदार जी, यह संभव नहीं कि तुमने मेरे चेहरे को कहीं और भी देखा हो। वह निश्चित ही तुम्हारी सरदारी कल्पना है। क्योंकि जहां तक मुझे स्मरण पड़ता है, हालांकि मेरी स्मृति बहुत कमजोर है, फिर भी इस बात के संबंध में मुझे पक्की याद है कि पिछले उनचास वर्षों से मेरा चेहरा मेरी ही गर्दन पर विराजमान है, तुमने उसे और कहीं देखा ही नहीं होगा।

सातवां प्रश्न: भगवान!
हमेशा दिन को ही सूरज क्यों निकलता है, रात को क्यों नहीं?

सरदार बलवीर सिंह!
सत श्री अकाल! रात को भी निकलता है श्रीमान, मगर अंधेरे के कारण दिखाई नहीं देता।

आठवां प्रश्न: भगवान!
क्या आपने कभी गधों के सवालों का भी जवाब दिया है?

सरदार बलवीर सिंह!
नहीं भाई, आज यह पहला मौका है। वाह गुरुजी की फतह! वाह गुरुजी का खालसा! आप क्या आ गए, मजा आ गया। आप दीवाने क्या हुए, मैं भी आप पर दीवाना हो गया हूं।

आखिरी प्रश्न: भगवान!
मैं पूर्ण भोजनभट्ट हूं। मैं क्या करूं?

गणेशीलाल!
पूर्ण तो इस संसार में कोई भी नहीं, सो वह भ्रांति तो छोड़ दो। और पूर्ण भोजनभट्ट तो बहुत ही कठिन बात है, करीब-करीब असंभव।
मथुरा के चौबे, वे वहां के पंडे हैं, बड़े भोजनभट्ट होने के लिए विख्यात हैं। एक बार उनका जातीय भोज था, जिसे देखने के लिए ढेर लड़के इकट्ठे हो गए। भोज एक अहाते में आयोजित था। जब समाप्त हुआ तो भीतर से एक चौबे अपनी उभरी तोंद पर हाथ फेरते हुए बाहर निकले। लड़कों ने ताली बजा कर कहा, यह रहा खाने वाला चौबे। उस चौबे ने बहुत धीमी आवाज में कहा, अभी क्या देखा है! खाने वाला पीछे आ रहा है। लड़के उत्सुकता से उसकी राह देखने लगे। जब कि दो नौकरों के कंधों पर हाथ धर कर दूसरा चौबे बाहर आया, लड़कों ने ताली बजा कर कहा, यह रहा खाने वाला चौबे। इस चौबे ने बड़ी उपेक्षा से कहा, खाने वाला पीछे आ रहा है। लड़के चकित हुए कि इससे भी बड़ा भोजनभट्ट कौन है! तभी बैलगाड़ी पर लद कर तीसरा चौबे आता दिखाई पड़ा। यह रहा असली भोजनभट्ट--लड़कों ने ताली पीट कर फिर कहा। लेकिन बैलगाड़ी के ऊपर से आवाज आई, असली भोजनभट्ट पीछे आ रहा है। और तभी भीतर से एक चौबे की अरथी लिए हुए, रामनाम सत्य है कहते हुए, एक झुंड बाहर आया।
इसको कहते हैं पूर्ण भोजनभट्ट। यहां तक तुम आ ही नहीं सकते थे अगर पूर्ण भोजनभट्ट होते। छोटे-मोटे भोजनभट्ट होओगे, तो ऐसी क्या अड़चन है! नाम है तुम्हारा गणेशीलाल, थोड़ा-बहुत तो होना ही चाहिए, गणेश जी की तोंद तो होनी ही चाहिए। सूंड नहीं है, यही क्या कम है! और गणेश जी को देखा, जब बैठे हैं तभी हाथ में लड्डू लिए हुए। मोतीचूर का लड्डू कोई कहता, कोई कहता अंडा। पता नहीं क्या है राज, मगर जो कुछ भी हो, है खाने की चीज। चौबीस घंटे हाथ में रखे बैठे हैं। क्यों चिंता में पड़े हो!
एक ही बात स्मरण रखो, जो मैं निरंतर कहता हूं कि हमेशा समस्याओं की जड़ में जाओ। लक्षणों को, ऊपरी लक्षणों को मत चिंता दो, मत ऊपरी लक्षणों का बहुत विचार करो। बहुत भोजन करते हो, इसका मतलब है भीतर बहुत दुखी होओगे। उस दुख को काटो, भोजन अपने आप विदा हो जाएगा। लोग कोशिश करते हैं भोजन कम करने की। आठ-दस दिन, महीना पंद्रह दिन जबरदस्ती करके भोजन कम कर लोगे। फिर एकदम से टूट पड़ोगे, दोगुना बदला लोगे फिर। देखते नहीं, जैन दस दिन पर्युषण में भोजन थोड़ा कम कर देते हैं, सब्जियों के बाजार में दाम गिर जाते हैं। और दस दिन के बाद ऐसे टूटते हैं भोजन पर कि दस दिन में जो थोड़ा-बहुत वजन गंवाया हो, उससे दोगुना वजन पांच-सात दिन के भीतर कमा कर बता देते हैं।
अक्सर जो लोग ज्यादा भोजन करते हैं, उनके साथ यह हमेशा घटता रहता है। परेशान होकर...क्योंकि ज्यादा भोजन करोगे तो शरीर बोझिल हो जाएगा, खींचना पड़ेगा शरीर को। नाहक का बोझ! जैसे कोई आदमी हमेशा अपना बिस्तरा अपने कंधे पर लिए चल रहा हो, बेकार ही। और यह बिस्तरा बाहर हो तो उतार कर भी रख दो, यह बिस्तरा भीतर है, सो इसको उतार कर भी नहीं रख सकते।
मगर दुखी आदमी भोजन ज्यादा करता है। मेरी चिंता तुम्हारे भोजन से नहीं है, तुम्हारे दुख से है। और तुम्हारे दुख के कटने का एक ही उपाय है--ध्यान। सच तो यह है कि सारी बीमारियों का एक ही उपचार है--ध्यान। ध्यान आ जाए तो सारी बीमारियां कट जाएं। ध्यान अमृत है।
तुम और छोटी-छोटी बीमारियों को मत मेरे पास लाओ। और फिर तुम कोई भी बीमारी लाओ, फर्क पड़ता नहीं; मेरी तो एक ही रामबाण औषधि है कि तुमसे कहूंगा--ध्यान। तुम कहो लोभ से परेशान हूं, क्रोध से परेशान हूं, काम से परेशान हूं, मैं कहूंगा--ध्यान। तुम्हारी परेशानी कुछ भी हो, तुम कहो या न कहो, अगर तुम परेशान हो तो ध्यान की जरूरत है। परेशानी का क्या कारण है ऊपर, यह गौण बात है। भीतर एक कारण है और वह यह है कि तुम्हारे भीतर आनंद नहीं है। ध्यान तुम्हारे भीतर आनंद के फूल को खिला देगा।
और गणेशीलाल, भीतर आनंद का फूल खिले, बस तुम भीतर भर जाओ आनंद से, ऐसे भरे-पूरे हो जाओ लबालब कि फिर अपने से भोजन कम हो जाएगा, लोभ कम हो जाएगा, क्रोध कम हो जाएगा, काम कम हो जाएगा--सब अपने आप क्षीण हो जाती हैं ये बातें। जैसे घर में कोई दीया जला ले, अंधकार विदा हो जाता है।
बुद्ध ने कहा है: जिस घर में दीया जलता है, उस घर में चोर नहीं आते। ऐसे ही जिस घर में ध्यान का दीया जलता है, उस घर में कोई रोग प्रवेश नहीं करते। ये सब रोग हैं। ये ही असली रोग हैं। शरीर के रोग तो कुछ खास नहीं हैं। उनका तो इलाज चिकित्सक कर देता है। मैं भी चिकित्सक हूं, लेकिन मैं आत्मा के रोगों का चिकित्सक हूं।
लक्षणों पर मत जाओ, हमेशा जड़ को काटो। और जड़ को काटने की एक ही कुल्हाड़ी है--ध्यान।
झेन फकीर रिंझाई नदी के तट पर बैठा था। और एक आदमी ने उससे पूछा, संक्षिप्त में कह दें कि आपकी शिक्षा का सार क्या है? वह चुपचाप ही बैठा रहा। कुछ बोला ही नहीं। उस आदमी ने कहा, आपने सुना नहीं? आप बहरे तो नहीं हैं? ऊंचा तो नहीं सुनते हैं? मैंने पूछा--उसने चिल्ला कर कहा अब की बार--कि मैंने पूछा कि आपकी शिक्षाओं का संक्षिप्त सार क्या है, थोड़े में बता दें।
रिंझाई ने कहा, बताया, लेकिन तुम समझे नहीं। मैं चुप जो बैठा रहा, वही मेरी शिक्षाओं का सार है। चुप बैठ जाओ। उस आदमी ने कहा, इतना संक्षिप्त भी न करो, थोड़ा विस्तार। तो रिंझाई ने अंगुली से रेत पर लिख दिया--ध्यान। उस आदमी ने कहा, यह भी कोई विस्तार हुआ! यह तो बात वही की वही हुई। रिंझाई ने कहा, मैं भी क्या करूं, सागर को कहीं से भी चखोगे तो खारा ही पाओगे। उस आदमी ने कहा, थोड़ा और, मुझे समझाने के लिए जरा जोर देकर, स्पष्ट कर दें।
तो रिंझाई ने बड़े-बड़े अक्षरों में लिख दिया--ध्यान। उस आदमी ने कहा, तुम आदमी पागल तो नहीं हो? मैं पूछता हूं कि मुझे समझाने के लिए, साफ करने के लिए और थोड़ा प्रकाश डालो, और स्पष्ट करो। तो रिंझाई खड़ा हो गया और अपने पैर से उसने रेत पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिख दिया--ध्यान। और उसने कहा कि अब इससे ज्यादा मैं भी नहीं कर सकता।
ध्यान ही सार-सूत्र है। ध्यान मिल गया तो सब संपदा मिल गई, प्रभु का राज्य मिल गया। ध्यान नहीं मिला तो तुम कुछ भी पा लो, सब व्यर्थ है।

आज इतना ही।




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