कुल पेज दृश्य

बुधवार, 10 मई 2017

मृत्युार्मा अमृत गमय-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-10

मृत्युार्मा अमृत गमय-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो

दिनांक 10 अगस्त सन् 1979
प्रवचन-दसवां   

* सदगुरु की पुकार
* जागरण चाहिए--अभ्यास नहीं
* बांटो--लुटाओ

प्रश्न-सार


*मैं चकित हूं यह देख कर कि आपके तीर्थ में किस भांति देश-देश से दूर-दूर की यात्राएं करके लोग आ रहे हैं! और आप हैं कि कभी अपने कक्ष से भी बाहर नहीं जाते! यह चमत्कार क्या है?
*क्या परमात्मा को पाने के लिए भी किसी अभ्यास की जरूरत होती है?
*आपसे जो मिला है, उसे बांटूं या सम्हालूं?

*पहला प्रश्न: भगवान! मैं चकित हूं यह देख कर कि आपके तीर्थ में किस भांति देश-देश से दूर-दूर की यात्राएं करके लोग आ रहे हैं। और आप हैं कि कभी अपने कक्ष से भी बाहर नहीं जाते! यह चमत्कार क्या है? समझावें।

प्रेम कीर्ति! चमत्कार इसमें जरा भी नहीं। एस धम्मो सनंतनो! ऐसा ही सनातन नियम है। दीया जलेगा, तो परवाने दूर-दूर से खोजते चले आएंगे। दीये को उन्हें ढूंढ़ने नहीं जाना पड़ता। दीया अपनी जगह होता है; परवाने आते हैं। और परवाने मिटने आते हैं, दीये के साथ जल कर एक हो जाने आते हैं!

शिष्य अपनी मृत्यु खोज रहा है। अपनी मृत्यु अर्थात अहंकार की मृत्यु। शिष्य बोझिल है अपने होने से। बहुत ढो चुका भार। खींच चुका हिमालय को बहुत अपने सिर पर। निर्भार होना चाहता है। कोई चरण चाहता है, जहां अपना सारा भार उतार कर रख सके। कोई सान्निध्य चाहता है, जहां बोध जगे, होश जगे, कि अब तक जो कांटे बोए हैं, आगे उनका बोना बंद हो जाए। क्योंकि जो हम बोते हैं, वही हम काटते हैं। कांटे बोते हैं, कांटे काटते हैं। बोते तो कांटे हैं, आशा करते हैं फूलों की। इससे निराशा हाथ लगती है।
शिष्य खोज रहा है कोई स्थल, कोई विद्यापीठ, कोई सत्संग--जहां फूलों के बीज कैसे बोए जाएं, फूल कैसे उगाए जाएं--इसकी कला सीख सके। और इस कला का पहला कदम है--अपने को मिटा देना, अपने को समर्पित कर देना। समर्पण से बड़ा सौभाग्य इस जगत में दूसरा नहीं है।
प्रत्येक व्यक्ति समर्पण को खोज रहा है--जाने-अनजाने, गलत-सही। जब तुम प्रेम के लिए आतुर होते हो, तो तुम समर्पण के लिए आतुर हो। लेकिन प्रेम तृप्ति नहीं देगा। क्योंकि समान चेतना की अवस्था वाले दो व्यक्ति एक-दूसरे के प्रति वस्तुतः समर्पित नहीं हो सकते हैं। बुझे दीये के सामने पतिंगा समर्पित भी हो, तो कैसे हो? वह ज्योति ही नहीं है, जिसमें डूबा जा सके, मिटा जा सके, लीन हुआ जा सके।
बुझे लोग तो बहुत मिलते हैं, तुम अपना प्रेम भी उन पर ढालते हो। पर हाथ कुछ लगता नहीं। लग सकता नहीं। तुम भी बुझे, वे भी बुझे। जहां एक बुझा दीया था, वहां दो बुझे दीये हो जाते हैं। इसलिए प्रेम विषाद लाता है। यद्यपि प्रेम की तलाश समर्पण की थी, लेकिन जल्दी ही प्रेम समर्पण की जगह एक-दूसरे पर मालकियत करने की दौड़ में परिणत हो जाता है।
बुझा दीया तुम्हें मिटा तो सकता नहीं। बुझे दीये के साथ करोगे क्या? बुझा दीया तुम पर मालकियत करने की कोशिश करेगा। क्योंकि बुझा दीया यानी अहंकार से भरा हुआ व्यक्ति। और अहंकार की एक ही चेष्टा है--दूसरे के ऊपर मालिक हो जाना। अहंकार दावेदार है, परिग्रही है, परिग्रह से ही जीता है। दूसरे पर जितना दावा हो उतना ही अहंकार परिपुष्ट होता है। चले थे समर्पण को, बात उलटी ही हो गई। करने लगे संघर्ष।
इसलिए जो प्रेम बड़ी सुखद कल्पनाओं और आशाओं में शुरू होते हैं, वे बड़े दुखद नरकों में परिणत हो जाते हैं। परंतु फिर भी प्रेम में खोज तो समर्पण की ही थी। दिशा गलत थी, बात और। लेकिन आकांक्षा सही थी। रेत से तेल निचोड़ना चाहा था। तेल निचोड़ना चाहा था, वह आकांक्षा तो ठीक थी। पर रेत से तेल निचोड़ा नहीं जा सकता, इसलिए असफलता हाथ लगेगी। जीवन एक लंबी विफलता और व्यथा की कहानी हो जाएगा। मरते समय तुम पाओगे: खाली हाथ आए थे, और भी खाली हाथ जाते हो।
जिनका प्रेम सब जगह से असफल हो चुका है, वे ही सदगुरु के पास आकर सफल हो पाते हैं। जिन्होंने प्रेम को बहुत-बहुत रूपों में देखा, परखा और उसकी पीड़ा झेली है, वे ही सदगुरु के प्रेम में गिर पाते हैं। वह प्रेम की अंतिम पराकाष्ठा है। उसके पार फिर प्रेम निराकार हो जाता है। सदगुरु तक प्रेम में आकार होता है। सदगुरु से प्रवेश हुआ कि प्रेम निराकार हुआ। परवाना जलती हुई शमा पर गिरा कि निराकार हुआ। और जैसे शमा की ज्योति भागी जा रही है आकाश की तरफ, परवाना मिटा कि उसके लिए भी आकाश के द्वार खुले।
तुम जरा शमा तो जलाओ! और देखो दूर-दूर से पतिंगे आने शुरू हो जाते हैं। इसमें चमत्कार कुछ भी नहीं है। मनुष्य सदा से तलाश में है। सत्य की किसको अभीप्सा नहीं है?
मैं यहां बैठ कर मौन पुकार दे रहा हूं। वह मौन पुकार सुनी जाएगी दूर-दूर तक। जहां भी हृदय प्रेम के लिए लालायित है, वहीं हृदयत्तंत्री बज उठेगी। समय और स्थान इस पुकार में व्यवधान नहीं बनते हैं। प्रेम समय और स्थान के अतीत है। वहां दूरियां मिट जाती हैं। वहां कोई दूरी नहीं होती।
इसलिए ऊपर से लगता है कि इस तीर्थ में देश-देश से, दूर-दूर से यात्राएं करके लोग आ रहे हैं। वे आ रहे हैं इसीलिए कि उन्होंने कुछ अपने हृदय में होते देखा है, और अब हृदय कोई दूरी नहीं मानता। हृदय ने कभी दूरी मानी नहीं। दूरी तो नाप-जोख है मस्तिष्क का। और हृदय तो सात समुंदर लांघ सकता है, क्योंकि हृदय दुस्साहस करना जानता है।
बुद्धि तो कायर है; डरती है, झिझकती है; नाव की जंजीर को किनारे से जोर से बांध लेती है, कि कहीं नाव जाने-अनजाने छूट न जाए। सागर में तूफान है। और सागर में सदा तूफान है--कभी कम, कभी ज्यादा। और नौका तो छोटी है और सागर बहुत बड़ा है। और दूसरा किनारा दिखाई भी नहीं पड़ता है।
लेकिन कभी-कभी न दिखाई पड़ने वाले उस किनारे की आवाज सुनाई पड़ती है। न दिखाई पड़ने वाले उस किनारे की भी झलक अंतस्तल में उतरने लगती है। न दिखाई पड़ने वाले उस किनारे का सौंदर्य भी कभी दुर्निवार पुकारने लगता है।
फिर जाना ही होता है। फिर जाना ही पड़ेगा। फिर एक अनिवार्यता है, जिसे टाला नहीं जा सकता, कल के लिए स्थगित नहीं किया जा सकता। नाव अभी खेनी होगी; नाव अभी छोड़नी होगी; नाव अभी खोलनी होगी। फिर रात का अंधकार हो, कि झंझावात उठे हों, कि मिट जाने और डूब जाने का खतरा हो, लेकिन रुका नहीं जा सकता। और जो इतने साहस से उस दूसरे किनारे की तलाश में चलता है, उसके लिए मझधार भी किनारा है। वह मझधार में डूब भी जाए, तो भी पहुंच गया।
जो किनारों से बंधे हैं, किनारों पर ही डूब जाते हैं। उनकी कायरता उन्हें मार डालती है। कहावत है न: वीर पुरुष एक बार ही मरता, कायर हजार बार। किस मरण की बात हो रही है? समर्पण से जो मरण घटित होता है, उसी मरण की बात है।
नहीं, चमत्कार कुछ भी नहीं है। ऐसा ही सदा होता रहा; ऐसा ही सदा होता रहेगा। जिनकी तलाश है, दूर से आ जाएंगे। और जिनकी तलाश नहीं है, पास भी होंगे और उनके होने से कुछ भी न होगा।
एक महिला ने चार-छह दिन पहले ही पत्र लिख कर पूछा कि मैं यहां रहूं कि अपने देश वापस जाऊं? क्या आप मुझे दूर मेरे देश में भी इतने ही उपलब्ध होंगे, जितने यहां?
मैंने उसे उत्तर दिया कि हां, उतना ही, जितना यहां।
लोग तो अपना-अपना अर्थ लेते हैं। मेरा अर्थ कुछ और था। उसने कुछ और अर्थ लिया। वह मैं जानता था कि वह यही अर्थ लेगी। मेरा अर्थ था कि न तो तू मुझे यहां उपलब्ध है, न तू मुझे वहां उपलब्ध होगी। मेरा मतलब था: जितनी तू मुझे यहां उपलब्ध है, उतनी ही वहां उपलब्ध होगी। मजे से जा। यहां रहना व्यर्थ, अकारण है।
वह समझी कि अरे, तो मैं बड़ी धन्यभागी हूं कि जितने मुझे यहां उपलब्ध हैं, उतने ही वहां मुझे उपलब्ध होंगे!
कल वह महिला ऊर्जा-दर्शन के लिए आई थी। हजारों लोग ऊर्जा-दर्शन में आए हैं, मगर इतना बंद और किसी को मैंने नहीं पाया। इतना दूर! उसके सिर पर हाथ रखे हूं और फासला ऐसा कि हजारों कोस का! हाथ उसके सिर को छू रहा है, लेकिन उसका हृदय अछूता है। मैं उस पर बरस रहा हूं, लेकिन उसका पात्र उलटा है। लेने में भी उसे कंजूसी है!
लोग देने में तो कंजूसी करते ही हैं, फिर कंजूसी उनका अभ्यास हो जाती है। फिर वे लेने में भी कंजूस हो जाते हैं। फिर वे लेने में भी डरते हैं कि कहीं ऐसा न हो कि अभी लेना पड़े और फिर कल देना पड़े। इसलिए उचित है कि लें ही न। कहीं देने की झंझट न आ जाए!
तुमने कंजूस देखे हैं, जो देने में डरते हैं। मैं ऐसे कंजूसों को जानता हूं, जो लेने में डरते हैं। और यह अंतर-जीवन की संपदा ऐसी है कि लेने के लिए भी साहस चाहिए। क्योंकि इसे लेने का मतलब मिटना है, इसे लेने का मतलब मरना है।
परवाने को ज्योति उपलब्ध हो सकती है। परमात्मा उसके लिए ज्योति के रूप में प्रकट हुआ है। लेकिन ज्योति के साथ उसे एक होना पड़ेगा, जलना होगा। ज्योति तो जल रही है। जैसी ज्योति जल रही है, इसी भांति उसे भी जलना होगा, तब दोनों में तालमेल बैठेगा।
दूर और पास की बात नहीं, भूगोल की बात नहीं।
वह महिला निश्चिंत जा रही है कि मैं उसे उतना ही उपलब्ध रहूंगा जितना यहां! और मैंने जो कहा है वह झूठ नहीं कहा, उतना ही उपलब्ध रहूंगा जितना यहां। मैं तो उपलब्ध हूं यहां भी। लेकिन लेने की उसकी तैयारी नहीं है, द्वार-दरवाजे बंद किए बैठी है। तो वहां तो और भी कस कर बंद कर लेगी। जब यहां नहीं खुल पा रही, तो वहां कैसे खुलेगी?
गहरे अंधियारे को चीरती
आई कीर की पुकार
पहले कुछ मद्धिम,
फिर दुर्निवार!
तम में अतल तक डूबी हुई डालों पर
सोए अनगिनती खग
उस उद्दाम स्वर से ही अनुप्रेरित हो
डोल उठे!
उत्तर में जाग कर बोल उठे!!
गूंज उठा आसमान गीतों के प्रभात में।
तू भी ओ मेरे अप्रस्तुत मन!
टेर दे!
घुटते तिमिर को स्वरों से बिखेर दे!!
अभी, पल झपते ही
मौन अंधियारे से
तेरे अनगिनती अपरिचित सह-भोगी
प्रतिध्वनि उठाएंगे!
गाएंगे!!
सुबह होती है। सूरज एक-एक पक्षी को जाकर जगाता तो नहीं। सुबह होती है। सूरज एक-एक वृक्ष को झकझोरता तो नहीं कि जागो, सुबह हुई; कि छोड़ो स्वप्न, दिन आया। इधर सूरज उगता है और अनिवार्यरूपेण वृक्ष जाग जाते हैं। पक्षियों के कंठ रात भर के विश्राम के बाद नये-नये गीतों, नयी-नयी ध्वनियों, नये-नये संगीतों में फूट उठते हैं। सूरज कुछ कहता नहीं, मगर यह घटना घट जाती है। यह चुपचाप घट जाती है। सूरज की पुकार किसी परोक्ष मार्ग से वृक्षों को जगा जाती है। फूल खिलने लगते हैं; कलियां पंखुरियां खोल देती हैं; सुवास उड़ने लगती है। पक्षी न मालूम कैसे सुराग पा जाते हैं कि सूरज जाग गया!
आदमी भर ऐसा है कि जिसको सुराग नहीं मिलता। उसे अलार्म लगाना पड़ता है, तब जागे। और अक्सर तो ऐसा होता है कि खुद ही अलार्म को बंद कर देता है, करवट लेकर फिर सो जाता है।
सिर्फ आदमी कुछ निसर्ग से टूट गया है। अन्यथा किसी बुद्धपुरुष का जन्म अनिवार्यरूपेण पृथ्वी पर उन सबको खींच लाएगा, जिनके भीतर थोड़ी भी प्राण-ऊर्जा है; जिनके भीतर थोड़ा भी अंगार है; जो वस्तुतः जीवित हैं, मुर्दे नहीं हैं, लाशें नहीं हैं; जो अपने को ढो नहीं रहे हैं, जिनके जीवन में जरा भी जिज्ञासा है, मुमुक्षा है, खोज है। वे कहीं भी हों, दूर गुफाओं में छिपे हों, कुछ फर्क न पड़ेगा। बुद्धत्व का जन्म चेतना के जगत में सूर्योदय है। इसलिए जो वस्तुतः चेतन हैं, वे गुनगुना उठेंगे।
गहरे अंधियारे को चीरती
आई कीर की पुकार
पहले कुछ मद्धिम,
फिर दुर्निवार!
पहले धीमी-धीमी सुनाई पड़ेगी।
पहले कुछ मद्धिम,
फिर दुर्निवार!
फिर तुम बच न सकोगे। काम में रहोगे, व्यवसाय में रहोगे, उठते-बैठते, सोते-जागते, कोई अदृश्य किरण तुम्हें खींचने लगेगी--दुर्निवार! बचने का उपाय नहीं। और आवाज बढ़ती चली जाएगी। और आवाज गहन होती चली जाएगी। और आवाज उस घड़ी पर तुम्हें ले आएगी, जहां यात्रा पर निकलना ही होगा।
तम में अतल तक डूबी हुई डालों पर
सोए अनगिनती खग
उस उद्दाम स्वर से ही अनुप्रेरित हो
डोल उठे!
उत्तर में जाग कर बोल उठे!!
गूंज उठा आसमान गीतों के प्रभात में।
यह सहज नियम है। सोए पक्षी जाग उठेंगे। उत्तर में गीत गा उठेंगे। धन्यभागी हैं--सूरज फिर ऊगा है। फिर फूल खिले। फिर दर्शन हुआ है प्रकाश का। गाएं न तो क्या करें! गुनगुनाएं न तो क्या करें! नाचें न तो क्या करें! और धन्यवाद कैसे दें?
सुबह गाते हुए पक्षी प्रार्थना में लीन हैं। सुबह गाते पक्षी स्तुति में डूबे हैं। ये जो वृक्षों में सुबह-सुबह फूल खिल आए हैं, ये उनकी मौन अभिव्यक्तियां हैं--कृतज्ञता की।
तू भी ओ मेरे अप्रस्तुत मन!
टेर दे!
घुटते तिमिर को स्वरों से बिखेर दे!!
अभी, पल झपते ही
मौन अंधियारे से
तेरे अनगिनती अपरिचित सह-भोगी
प्रतिध्वनि उठाएंगे!
गाएंगे!!
मैं अपने कक्ष में बैठा और क्या कर रहा हूं? टेर दे रहा हूं। घुटते तिमिर में स्वरों को बिखेर रहा हूं। क्योंकि भरोसा है:
अभी, पल झपते ही
मौन अंधियारे से
तेरे अनगिनती अपरिचित सह-भोगी
प्रतिध्वनि उठाएंगे!
गाएंगे!!
और जिन्हें सुनाई पड़ना शुरू हो गया है, वे आने लगे। और बहुत आने को हैं। असंख्य लोग आने को हैं। ये तो वसंत के अभी पहले-पहले फूल हैं। लेकिन कहते हैं, वसंत का पहला फूल भी खिल जाए, तो वसंत आ गया। फिर पंक्तिबद्ध फूल खिलेंगे, फिर असंख्य फूल खिलेंगे। फिर गिनती करने का कोई उपाय न रह जाएगा। ये जो छोटी सी शिखाएं अभी जली हैं, ये जो गैरिक लपटें छोटी सी संख्या में आज यहां इकट्ठी हैं, इन लपटों से और लपटें पैदा होंगी। दीयों से और दीये जलेंगे। यह गैरिक अग्नि सारी पृथ्वी को घेर लेगी।
और चमत्कार कुछ भी नहीं। इसमें कुछ जादू नहीं है। जो होना है, जैसा होना है, वैसा ही हो रहा है। इस जगत में कुछ भी अपवाद नहीं होते। इसलिए चमत्कार होते ही नहीं। जगत में तो नियम है। उस नियम का नाम ही परमात्मा है। नियम कहो--अगर गणित की भाषा का उपयोग करना है। परमात्मा कहो--अगर भाव की भाषा का उपयोग करना है। मगर दोनों से इंगित एक ही की तरफ है।
अभी शमा की मुस्कानों का चुका सका तू मोल कहां
छूट, छूट कर आ, आकर इन लपटों को अपनाता जा
ज्योति बने या धुआं, परख होगी स्नेह की यह अंतिम
मिटने  से  पहले  तू  अपना  सच्चा  रूप  दिखाता  जा
, , आ मेरे परवाने!
लौ की लहरों पर लुट जाने।
, , आ मेरे परवाने!
लौ की लहरों पर लुट जाने!
पुकार दे दी गई है। पुकार मौन है। अपने कक्ष में बैठा अकेला पुकार दे रहा हूं। नहीं कान सुनेंगे उसे, लेकिन जहां भी हृदय जीवंत होंगे, वहां टंकार होगी।
प्यार से सींचूं तुझे ओ बीज मेरे!
एक दिन तू ही बनेगा फूल
एक दिन गुण-गान गाएंगे सभी ये भ्रमर तेरे
आ जुटेंगे सभी तेरे कूल
इसलिए आयास
क्योंकि होगा व्यक्त तू ही हास, मधुर विकास में!
इसलिए आयास
क्योंकि आलिंगन बनेगा एक दिन तू ही अनिल के पाश में!
देख मत तू: आज तेरी सेज मृण्मय है
देख मत तू: भ्रमर-दल किस ओर तन्मय है
सोच मत तू: तुझे आता है न वैसा हास
ध्यान कर: तेरी अभी कितनी नवल वय है!
सतत चेष्टा,
सतत मुक्ति-प्रयास, चिर-उद्योग
--फूटने का, बिकसने का पर्व--यह संयोग!
हास, फुल्लोल्लास--पाएगा सभी, तू समय आने दे
आज मिट्टी में तुझे मुझको बिछाने दे
जल बहाने दे!
बीज तू, तू मूल-भव! तू ही अरे! है वह्नि-चिह्ना क्रांति
सुप्त तू, तुझमें प्रसुप्ता अनुगता भू-कांति!
यह जो गैरिक संन्यासियों का, दीवानों का एक दल यहां इकट्ठा होता जा रहा है, यह एक बहुत बड़ी आने वाली क्रांति का प्राथमिक चरण है। जैसे सूरज उगने के पहले प्राची लाली से भर जाए; पूर्व का क्षितिज सुर्ख हो उठे; लक्षण है कि सूरज आता है, आता है, आता ही होगा। ऐसे ही मेरा संन्यासी मनुष्य की चेतना में एक नयी क्रांति का पहला स्वर है--पहला फूल है वसंत का।
लेकिन फूल बनने के पहले गर्भ की पीड़ा से गुजरना जरूरी है।
प्यार से सींचूं तुझे ओ बीज मेरे!
तुम्हें जब मैं संन्यास देता हूं, तो यही कह रहा हूं।
प्यार से सींचूं तुझे ओ बीज मेरे!
एक दिन तू ही बनेगा फूल
एक दिन गुण-गान गाएंगे सभी ये भ्रमर तेरे
आ जुटेंगे सभी तेरे कूल
इसलिए आयास
क्योंकि होगा व्यक्त तू ही हास, मधुर विकास में!
इसलिए आयास
क्योंकि आलिंगन बनेगा एक दिन तू ही अनिल के पाश में!
लेकिन बीज को जब कोई कहता है कि प्यार से सींचूं तुझे ओ बीज मेरे! बीज घबड़ाता है। क्योंकि प्यार से कितना ही सींचो, बीज मरेगा। बीज मरेगा तो अंकुरित होगा। संन्यासी को मरना है, ताकि उसका पुनरुज्जीवन हो सके। संन्यासी को द्विज बनना है--दूसरा जन्म! लेकिन दूसरा जन्म तभी हो सकता है, जब पहले की मृत्यु हो जाए।
देख मत तू: आज तेरी सेज मृण्मय है
और मिट्टी में डालना होगा बीज को। और कौन चाहता है कि मिट्टी में डाला जाए! मिट्टी में तो कब्र बनती है। लेकिन बिना कब्र बने फूल नहीं खिलते।
देख मत तू: आज तेरी सेज मृण्मय है
देख मत तू: भ्रमर-दल किस ओर तन्मय है
आज भंवरे कहीं और गा रहे। बीज को थोड़ीर् ईष्या भी होती होगी। भंवरे फूलों पर गा रहे हैं। भंवरों ने फूलों के पास रास रचाया है।
देख मत तू: भ्रमर-दल किस ओर तन्मय है
देख मत तू: आज तेरी सेज मृण्मय है
सोच मत तू: तुझे आता है न वैसा हास
ध्यान कर: तेरी अभी कितनी नवल वय है!
बीज, तू नया-नया है। आज तुझे हंसना भी नहीं आता। बीज हंसे कैसे! कभी बीज को हंसते देखा? हंसते हैं फूल। यद्यपि फूल बीज में ही छिपे हैं। बीज संभावना है, फूल सत्य हो गए।
जब तुम मेरे पास आते हो, एक संभावना की तरह आते हो। इस संभावनाओं से भरे हुए तुम्हारे जीवन को तुम पहचान भी नहीं सकते आज कि क्या है! क्योंकि संभावना दिखाई नहीं पड़ती। हाथ में पकड़ में नहीं आती। न स्पर्श कर सकते हो उसका, न उसकी कोई स्पष्ट रूप-रेखा बनती है। तुम्हें भरोसा दिलाना होता है कि खिलोगे, जरूर खिलोगे! मत करो फिक्र। आज जो मिट्टी की सेज तुम्हें दी जा रही है, वही तुम्हें आकाश में उठने का कारण बनेगी। वही मिट्टी तुम्हें आकाश में उठाएगी। हवाओं में नचाएगी। चांदत्तारों से गुफ्तगू कराएगी। और आज तो मिटना है, मृत्यु है जो, कल वही महाजीवन होगा। और ये ही भंवरे जो आज किन्हीं और फूलों के पास नाच रहे हैं, कल तुम्हारे पास भी नाचेंगे। ये कल गुनगुन तुम्हारे पास भी करेंगे। तुम्हारी सुगंध फूटने दो।
कठिन है प्रक्रिया मृत्यु की। अहंकार को गलाना बहुत मुश्किल है। इसलिए थोड़े से ही लोग संन्यास का साहस कर पाते हैं।
सतत चेष्टा,
सतत मुक्ति-प्रयास, चिर उद्योग
--फूटने का, बिकसने का पर्व--यह संयोग!
मैं यहां हूं, तुम यहां हो!
--फूटने का, बिकसने का पर्व--यह संयोग!
मरने, नये जीवन को पाने का यह संयोग! यह महापर्व! इधर तुम्हें सूली भी दूंगा, उधर तुम्हारा पुनरुज्जीवन होगा।
हास, फुल्लोल्लास--पाएगा सभी, तू समय आने दे
आज मिट्टी में तुझे मुझको बिछाने दे
जल बहाने दे!
बीज तू, तू मूल-भव! तू ही अरे! है वह्नि-चिह्ना क्रांति
सुप्त तू, तुझमें प्रसुप्ता अनुगता भू-कांति!
पृथ्वी के दूर-दूर देशों से आए हुए ये लोग, आने वाली पूरी पृथ्वी पर क्रांति के पहले प्रतीक हैं। यह छोटी घटना नहीं है। आज तो तुम इसे देखोगे, तो छोटी ही घटना है। बीज तो छोटा ही होता है। जब वृक्ष बनेगा और बादलों को छुएगा, तब तुम पहचान पाओगे, कितनी क्षमता छिपी थी एक बीज में! वैज्ञानिक कहते हैं, वनस्पति-शास्त्री कहते हैं कि एक बीज पूरी पृथ्वी को हरियाली से भर सकता है। क्योंकि एक बीज में वृक्ष, फिर एक वृक्ष में अनंत बीज, फिर एक-एक बीज में अनंत बीज। एक बीज सारी पृथ्वी को हरा कर सकता है। और एक संन्यासी सारी पृथ्वी को गैरिक कर सकता है। एक बुद्ध सारी पृथ्वी को बुद्धत्व की ओर अनुप्राणित कर सकता है।
न कहीं जाना है, न कहीं जाने का कोई सवाल है। जिन्हें आना है, वे प्यासे तलाश करते कुएं की अपने आप चले आएंगे। और उन्होंने आना शुरू कर दिया है।
अभागे चूकेंगे। और अभागे, हो सकता है, पड़ोस में रह कर चूक जाएं। और लोग ऐसी छोटी-छोटी चीजों से चूकते हैं कि जिसका हिसाब लगाना मुश्किल है।
परसों एक बहुत बड़ा सरकारी अधिकारी, जो रिटायर हुआ, आश्रम आया। उसने आकर लक्ष्मी को बताया कि मुझे क्षमा करो। मैं सात वर्षों से भगवान को इस तरह घृणा करता हूं कि जिस तरह किसी ने भी न की होगी! और कारण बताते हुए मुझे लज्जा होती है। लेकिन आज कह दूंगा तो मन हलका हो जाएगा। आज आकर सात साल की घृणा प्रेम में परिवर्तित हो गई है। और इसलिए कहना जरूरी है।
और तुम चकित होओगे, घृणा का कारण क्या था! घृणा का कारण था एक बहुत छोटा, जिससे मेरा कोई संबंध नहीं है। वह व्यक्ति किताबों का प्रेमी है। किताबों के कीड़े होते हैं, उन व्यक्तियों में एक। बंबई की जिस किताब की दुकान पर वह जाए, जो भी अच्छी किताबें उसे पसंद आएं, दुकानदार कहे: छूना मत। वे किताबें भगवान के लिए हैं! इससे उसे बड़ी घृणा पैदा हुई, कि जो किताब मैं खरीदना चाहता हूं...। वे किताबें मेरी आर्डर दी हुई किताबें हैं। वह दुकानदार उनको बेच नहीं सकता। वह सिर्फ प्रतीक्षा कर रहा है कि और किताबें आ जाएं तो मुझे पहुंचा दे। मगर इस व्यक्ति को बड़े आघात, बड़ी चोट पहुंची।
न कभी आया, न कभी मुझे सुना, न कभी मेरी किताब पढ़ी। किताबों का दीवाना है, लेकिन मेरी कोई किताब कभी नहीं पढ़ी! एक दुश्मनी पैदा हो गई कि जो किताब मुझे चाहिए, वही किताब खरीदी जा चुकी है पहले! और यह एक ही आदमी! एकर् ईष्या, एक जलन। मुझसे कभी मिलना नहीं, मुझसे कोई संबंध नहीं।
आया तो रोया। आया तो क्षमा मांगी। आया तो समझा कि कैसी मूढ़ता कर रहा था।
अजीब-अजीब लोग हैं। मैं जबलपुर था। एक महिला ने मुझे आकर कहा कि मेरे पति आपकी हर बात से राजी हैं। सिर्फ आपके कुर्ते की जो बांह है, वह बहुत ढीली है, उससे उन्हें नाराजगी है! वे आपके कुर्ते की बांह को बरदाश्त नहीं कर सकते।
तब से, तुम देखते हो, मैंने बांह कुर्ते की छोटी कर ली। मगर वे अभी तक नहीं आए! आज दस साल हो गए। उनकी पत्नी को मैंने खबर भिजवा दी है कि कुर्ते की बांह छोटी कर ली है। तुम्हारे पति की प्रतीक्षा कर रहा हूं!
लोग बहुत बेबूझ हैं। दूसरों के लिए नहीं, खुद के लिए ही बेबूझ हैं। उनकी खुद की ही समझ के बाहर है, वे क्या कर रहे हैं। अब मेरी कुर्ते की बांह ढीली है या नहीं है, इससे क्या लेना-देना है! लेकिन नहीं, उससे उन्हें अड़चन हो गई। और उन्होंने जरूर कोई भीतर कारण खोज लिए होंगे। वकील हैं। हाईकोर्ट के वकील हैं। कई तर्क खोज लिए होंगे कि इतनी ढीली बांह! यह दिखावा है, प्रदर्शन है! और सत्य को उपलब्ध व्यक्ति कहीं प्रदर्शन करेगा?
और ये तो साधारण लोगों की बातें हैं। नरेंद्र ने एक प्रश्न पूछा है: कि रामकृष्ण की अंतिम घड़ी है; मरण का क्षण आ गया है। रामकृष्ण के गले में कैंसर हो गया था; बोलना मुश्किल हो गया था। जैसे रमण को हुआ, वैसे ही रामकृष्ण को हुआ था। भोजन बंद हुआ था। पानी भी नहीं पी सकते थे। मृत्यु अब आई, तब आई। सारे शिष्य इकट्ठे हैं--दुख में, पीड़ा में, गहन संताप में डूबे। विवेकानंद रामकृष्ण की खाट के पास ही बैठे हैं। और तुम चकित होओगे कि विवेकानंद के मन में क्या प्रश्न उठा! कि यह आदमी सच में भगवान है या नहीं? पहली तो बात यह कि भगवान को कैंसर! अगर भगवान है, तो अपना कैंसर दूर नहीं कर सकता? और जो अपना कैंसर दूर नहीं कर सकता, वह क्या दुनिया को मुक्ति देगा! मगर फिर भी मैं मान लूंगा कि भगवान है, क्योंकि इन्होंने मुझसे कहा था कि मैं भगवान का अवतार हूं। अगर अब जब कि कंठ से वाणी नहीं निकलती, जब कि शब्द बोलना असंभव हो गया है, जब कि कंठ बिलकुल अवरुद्ध हो गया है, अगर अब, अभी ये फिर कह सकें कि हां, मैं भगवान हूं, तो मान लूंगा!
रामकृष्ण आंखें बंद किए थे। आंखें खोल दीं। बामुश्किल हाथ टेक कर उठ कर बैठ गए और कहा कि हां, जो राम था, वह मैं ही हूं। और जो कृष्ण था, वह मैं ही हूं। मैं रामकृष्ण हूं। मैं दोनों हूं। तुझे कुछ और पूछना है?
विवेकानंद ने पूछा नहीं था। वे तो सिर्फ मन में ही सोच रहे थे। पछताए होंगे बहुत बाद में कि मरते क्षण भी मैं क्या सोचता रहा! और यही कह कर रामकृष्ण का अवसान हो गया।
विवेकानंद जैसा व्यक्ति भी--साधारण लोगों को तो छोड़ दो--विवेकानंद जैसा व्यक्ति भी अपने गुरु की अंतिम घड़ी में इस तरह के बेहूदे सवालों से भरा हो सकता है। और अगर रामकृष्ण ने यह न कहा होता, तो शायद विवेकानंद का संदेह प्रगाढ़ हो गया होता। और क्या तुम सोचते हो, इतना ही कह देने से संदेह मिट गया होगा? किताबें कुछ कहती नहीं। लेकिन मैं नहीं मान सकता कि इतने ही कहने से संदेह मिट गया होगा। सोचा होगा, शायद टेलीपैथी जानते हैं, दूसरे का विचार पढ़ लेते हैं। इसमें कौन सी खास बात है! जादूगर कर देते हैं। या सोचा होगा कि जब बोल सकते हैं, तो अब इतना भी क्यों नहीं करते कि कैंसर भी दूर करके दिखा दें!
और ऐसा कोई रामकृष्ण के शिष्य के साथ ही हुआ, ऐसा नहीं है। सदा ऐसा होता रहा है।
जीसस को सूली पर लटकाया जा रहा है। और शिष्य तो भाग गए हैं, सिर्फ एक शिष्य छिपा है भीड़ में। और क्या देखने के लिए छिपा है--कि अब देखें सच में चमत्कार होता है? जीसस अपने को बचा पाते हैं या नहीं? अगर ये ईश्वर के सच्चे बेटे हैं, तो ईश्वर अपने बेटे को बचाएगा।
जीसस को सूली लग रही है। लेकिन उस आदमी के मन में क्या विचार उठ रहा है?
जीसस परमात्मा से प्रार्थना कर रहे हैं कि हे प्रभु, इन सबको क्षमा कर देना, क्योंकि ये लोग नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं!
यह चमत्कार नहीं है! चमत्कार तो तब होता, जब परमात्मा उतरता स्वर्ण-रथ पर, सूली से उतारता जीसस को, और घोषणा करता भीड़ के सामने कि यह मेरा असली बेटा है, एकमात्र, इकलौता बेटा है। तब चमत्कार होता।
चमत्कार क्या है? तुम चाहते हो, जीवन के नियम टूटें। चमत्कार की अपेक्षा, अगर ठीक से समझो, तो अधार्मिक अपेक्षा है। चौंकना मत मेरी बात से। चमत्कार की अपेक्षा अधार्मिक अपेक्षा है। धार्मिक व्यक्ति तो मानता है कि जीवन नियम है। बुद्ध ने तो धर्म का अर्थ ही नियम किया है। वही उसका अर्थ है भी। वही वेद कहते हैं: धर्म यानी ऋत। धर्म यानी परम नियम, शाश्वत नियम, जिससे जगत चलता है। इस नियम में कभी कोई भेद नहीं आता। निरपेक्ष यह नियम अपनी गति करता है। यह पक्षपात नहीं करता। चमत्कार का तो अर्थ होगा पक्षपात। जो किसी के लिए नहीं किया गया था, वह जीसस के लिए किया जाए--तो चमत्कार।
और तुम सोचते हो कि जो लोग चमत्कारियों के पास इकट्ठे हो जाते हैं, ये धार्मिक हैं? इनकी अपेक्षा ही अधार्मिक है। किसी के हाथ से राख निकल आई; बस चमत्कार हो गया!
एक मित्र ने मुझे लिखा है। वे मेरे भक्त हैं और उनकी पत्नी सत्य साईंबाबा की भक्त है। उन दोनों में सदा विवाद होता रहता है कि कौन सही। वे मानते नहीं कि चमत्कार हो सकते हैं। लेकिन पत्नी के कमरे में जो सत्य साईंबाबा का चित्र लगा है, उसमें से राख झरती है। उनको शक है कि इसमें कुछ धोखाधड़ी है, कि फ्रेम में पहले से ही राख भरी है, कि कुछ और मामला है। डाक्टर हैं। हजार तरकीबें सोचते हैं।
लेकिन एक दिन तो हद हो गई। तब उन्होंने मुझे पत्र लिखा कि अब बड़ी मुश्किल हो गई। मेरे कमरे में आपका चित्र लगा है, उसमें से भी राख झर रही है! अब चमत्कार न मानूं तो क्या करूं? अब आप मुझे समझाएं!
मैंने उनको खबर की कि जो चमत्कार पत्नी सत्य साईंबाबा की तस्वीर से कर रही थी, वही पत्नी यह चमत्कार भी कर रही है। पत्नी ने तुम्हें चारों खाने चित्त किया। अक्सर पत्नियां चारों खाने चित्त कर देती हैं पतियों को। यह पत्नी ही है, जिसका हाथ है इस राख के झराने में। मैंने उनको लिखा कि मेरा कोई हाथ नहीं है।
मगर वे मानने को राजी नहीं हैं। वे लिखे ही चले जाते हैं, मैं कैसे मानूं? उन्होंने राख इकट्ठी करके--डाक्टर हैं--कैंब्रिज विश्वविद्यालय भिजवाई है कि उसका परीक्षण होना चाहिए वैज्ञानिक, कि उस राख में क्या है? दोनों राखें भिजवाई हैं।
परीक्षण से कुछ सिद्ध नहीं होगा। इतना ही सिद्ध होगा--दोनों राखें हैं। और दोनों राखों के पीछे एक ही स्त्री का हाथ है। स्त्रियां चमत्कारी होती हैं। और यह कोई पहली घटना नहीं है जो मैं कह रहा हूं। इस तरह की बहुत घटनाएं रोज घटती हैं। और कई बार तो अचेतन रूप से घटती हैं। यह भी मैं नहीं कह रहा हूं कि उनकी स्त्री जान कर धोखा दे रही होगी, यह जरूरी नहीं है। मन बड़ी उलझी बात है।
लंदन में कुछ वर्ष पहले एक घटना पकड़ी गई। एक स्त्री के सारे कपड़े कट जाते थे, जैसे किसी ने कैंची से उठा कर काट दिए। बस कभी-कभी दो-चार-आठ दिन में यह घटना घटती। जिंदगी मुश्किल हो गई। अगर सारे कपड़े कट जाएं--बंद अलमारी के भीतर के कपड़े कट जाएं, बंद सूटकेस के भीतर के कपड़े कट जाएं--तो भूत-प्रेत के सिवाय और क्या इसकी व्याख्या हो सकती है! बहुत झाड़-फूंक वाले बुलाए गए। तंत्र-मंत्र वाले बुलाए गए। कोई सफल नहीं हुआ। और तब एक जासूस ने पति को कहा कि अगर मुझे एक मौका दें...।
उसने कहा, तुम क्या करोगे? यह कोई जासूसी का काम नहीं है!
उसने कहा, सिर्फ मुझे एक मौका दें। एक सात दिन का समय मुझे दें। और कुंजी मुझे दें घर की। सात दिन मेरा आना-जाना रात, बेवक्त-वक्त, मुझे छोड़ दें पूरा स्वतंत्र। एक मौका!
और कोई उपाय नहीं था। मौका दिया गया। और मामला क्या पाया गया? रात वह स्त्री नींद में उठ कर नींद में ही अपने कपड़े काट डालती थी। सुबह उसे भी होश नहीं रहता था कि उसने स्वयं कपड़े काटे हैं। इसलिए तुम उसे दोषी नहीं ठहरा सकते। जान कर वह नहीं कर रही थी। यह निद्रा में ही किया गया मामला था।
सौ में से दस आदमी नींद में काम कर सकते हैं। दस छोटी संख्या नहीं है। सौ में से दस, दस में से एक। दस में से एक आदमी नींद में चल सकता है, नींद में काम कर सकता है। और ऐसे काम कर सकता है जिनके लिए सुबह उसे खुद भी याद नहीं रहेगी।
न्यूयार्क में एक आदमी अपनी छत से दूसरे की छत पर कूद जाता था। और न्यूयार्क की छत पूना की छत नहीं है। कोई मकान सौ मंजिल, कोई मकान नब्बे मंजिल! अपने मकान की छत से दूसरे मकान की छत पर कूद जाता था--नींद में! दूरी इतनी थी कि बंदर भी कूदने में झिझकते थे। और कोई आदमी कूद सकता है, यह तो किसी को भरोसा ही नहीं आ सकता था। रोज रात! धीरे-धीरे खबर फैलने लगी पड़ोस में। रोज रात सैकड़ों लोगों की भीड़ इकट्ठी हो जाती नीचे। काफी फासला, सौ मंजिल नीचे, भीड़ इकट्ठी है। और लोग बिलकुल श्वास बंद करके देखते रहते कि कब वह आदमी आए। बारह और एक बजे के बीच में वह आदमी आता अपनी छत पर। बस आता, अपनी छत से दूसरी छत पर कूदता। दूसरी छत पर चक्कर लगाता थोड़ी देर, फिर वापस अपनी छत पर कूदता। कमरे में जाकर सो जाता।
भीड़ बढ़ती गई। एक दिन तो इतनी भीड़ इकट्ठी हो गई कि हजारों लोग! और जब वह आदमी छत पर आया, तो जैसे किसी हीरो को देख कर जनता एकदम ताली पीट दे और शोरगुल मचा दे, वह आदमी छलांग लगाने को था कि लोग एकदम आनंद-उल्लास में जोर से आवाज कर दिए। आवाज से उसकी नींद टूट गई। नींद टूटते ही वह आदमी छलांग नहीं लगा पाया। सौ मंजिल मकान से नीचे गिर गया, मर गया। मार डाला उस आवाज ने। नींद में ही घट सकती थी वह घटना। जागरण में तो वह भी साधारण आदमी था।
मैंने उनको लिखा कि तुम जरा अपनी पत्नी की जांच-पड़ताल करो। बच्चे उनके हैं नहीं। घर में दो ही व्यक्ति हैं--पति और पत्नी। पत्नी ही गिरा रही होगी राख साईंबाबा की फोटो से। और अब तुमको हराने के लिए उसने आखिरी उपाय खोजा है। तुम चमत्कार नहीं मानते; अब तो मानोगे! तुम्हारे गुरु की ही फोटो से लो गिर जाती है राख!
और उन्होंने मुझे लिखा कि एक और हैरानी की बात है कि सत्य साईंबाबा की तस्वीर में तो फ्रेम है, तो यह हो भी सकता है शक कि फ्रेम में थोड़ी राख छिपाई गई हो। लेकिन मेरी टेबल पर आपकी जो तस्वीर है, उसमें कोई फ्रेम नहीं है। बिना फ्रेम की तस्वीर, उसमें से राख गिर रही है! अब तो चमत्कार मानना ही होगा।
मैंने उनको कहा कि तुम्हारी पत्नी ने तुम्हें हराया। सवाल सत्य साईंबाबा को मानने का नहीं है। सवाल चमत्कार को मानने का है।
चमत्कार होते ही नहीं। जीवन अपने नियम से ही चलता है। और अगर कभी तुम्हें लगे कि कोई चमत्कार हो रहा है, तो इतना ही जानना कि तुम्हें पूरे नियम का पता नहीं है। इतना ही जानना कि नियम के और भी पहलू हैं, जो तुमसे अपरिचित हैं, बस। मगर नियम के विपरीत न कुछ कभी हुआ है, न कभी कुछ हो सकता है।
इसलिए प्रेम कीर्ति, यह कोई चमत्कार नहीं है। दीया जला है, परवाने आने शुरू हो गए हैं। माली मौजूद हो गया है, बीज आतुर हुए हैं कि उन्हें भी फूल होने का अवसर मिले। यह एक अपूर्व संयोग है। इस संयोग का उपयोग कर लो।
सतत चेष्टा
सतत मुक्ति-प्रयास, चिर-उद्योग
--फूटने का, बिकसने का पर्व--यह संयोग!


*दूसरा प्रश्न: भगवान!
      करत-करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान।
      रसरी आवत-जात है, सिल पर परत निशान।।
भगवान! क्या परमात्मा को पाने के लिए भी किसी अभ्यास की जरूरत होती है? कृपया स्पष्ट करें।

कृष्णतीर्थ भारती! परमात्मा को पाने के लिए तो किसी अभ्यास की कोई जरूरत नहीं होती, लेकिन अहंकार को मिटाने के लिए बहुत अभ्यास की जरूरत होती है। ऐसा समझो कि तुम एक कुआं खोदना चाहते हो। जल पाने के लिए तो किसी अभ्यास की कोई जरूरत नहीं होती। जल की धारा तो सतत भूमि के नीचे बह ही रही है। लेकिन जल की धारा और तुम्हारे बीच में जो मिट्टी और पत्थरों की पर्तें हैं, उनको तोड़ने के लिए अभ्यास की जरूरत होती है।
तुम भी हो, प्यासा भी मौजूद है, और पानी भी मौजूद है, मगर दोनों के बीच मिट्टी की पर्तों की एक लंबी दीवार है। खोदना पड़ेगा। पहले कंकड़-पत्थर हाथ आएंगे, कूड़ा-करकट हाथ आएगा। थक न जाना। हार न जाना। निराश न हो जाना। हताशा न ले लेना। फिर सूखी मिट्टी हाथ आएगी। घबड़ा मत जाना कि ऐसी सूखी मिट्टी में कहां जल के स्रोत होंगे! खोदते जाना। फिर गीली मिट्टी हाथ आएगी। खोदते जाना। फिर जल के झरने फूटने लगेंगे। मगर गंदे होंगे। पीने योग्य नहीं होगा पानी अभी। खोदते जाना। जल्दी ही तुम उस जगह पहुंच जाओगे, जब स्वच्छ झरने उपलब्ध हो जाएंगे।
लेकिन पानी को पाने के लिए कोई प्रयास नहीं किया गया। इसे याद रखना! प्यास भी थी, पानी भी था। लेकिन दोनों के बीच में व्यवधान था। उस व्यवधान को दूर करने के लिए ध्यान है। उस व्यवधान को दूर करने के लिए प्रार्थना है, पूजा है, अर्चना है। उस व्यवधान को दूर करने के लिए साक्षी का उपाय है, विपस्सना की पद्धति है। जागरूक होने के नियम, विधियां हैं। योग है, तंत्र है, भक्ति है। लेकिन तुमने जो पद उद्धृत किया है, उसके अर्थ गलत हो सकते हैं।
"करत-करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान।'
अभ्यास करने से जड़मति सुजान नहीं हो सकता। अभ्यास करने से जड़मति चालाक हो जाएगा, चालबाज हो जाएगा। लेकिन मौलिक जड़ता नहीं टूटेगी। अगर सच में जड़मति था, तो जितना अभ्यास करेगा, उतना ही जड़मति आच्छादित हो जाएगी, सुंदर परिधान पहन लेगी। मगर मूल में कोई अंतर नहीं हो सकता। तुम अगर ईंट को घिसते रहो, घिसते रहो, घिसते रहो, तो भी दर्पण नहीं बनेगा।
इसलिए झेन फकीर रिंझाई जब साधना में लीन था, तो एक दिन उसका गुरु आया--बीस वर्ष से साधना में लीन था--उसका गुरु आया और उसके सामने ही बैठ कर एक ईंट पत्थर पर घिसने लगा। रिंझाई को बड़ा क्रोध आया। स्वभावतः, कोई और हो तो माफ भी कर दो। यह बूढ़े गुरु को क्या सूझा! मैं ध्यान कर रहा हूं!
अब तुम सोचो थोड़ा। तुम ध्यान कर रहे हो--कृष्णतीर्थ भारती ध्यान कर रहे हों--और मैं एक ईंट लेकर सामने बैठ कर घिसने लगूं। तो वैसे ही तो ध्यान मुश्किल से लगता है। लगता ही कहां! हजार विचार चलते हैं। और सामने कोई ईंट घिसे, तो दांत तक किरकिराने लगेंगे! कसमसी छूटेगी। क्रोध जगेगा।
और गुरु था कि घिसे ही गया। थोड़ी देर तो बरदाश्त किया रिंझाई ने। फिर आंख खोली और कहा कि महानुभाव, आप यह क्या कर रहे हैं? गुरुदेव, यह आपको क्या हुआ बुढ़ापे में! दूसरे अगर आकर शैतानी भी करें और ध्यान में बाधा भी डालें--यह मैं सुनता आया हूं कि शैतान ध्यान में बाधा डालता है। यह मैंने कभी नहीं सुना कि गुरु स्वयं ध्यान में आकर बाधा डालते हैं। अब यह ईंट घिस-घिस कर मुझे ऐसा क्रोध चढ़ा रहे हो कि थोड़ी-बहुत शांति जम रही थी वह भी उखाड़ दी। अब एक ही विचार चल रहा है भीतर कि कब यह दुष्ट ईंट का घिसना बंद करे! और मेरे दांत तक किरकिरा रहे हैं!
गुरु ने कहा, मैं तुझसे एक बात पूछने आया हूं। जैसे गुरु ने ये सब बातें सुनी ही नहीं। मैं तुमसे यह पूछने आया कि अगर ईंट को मैं घिसता रहूं, घिसता रहूं, घिसता रहूं, तो ईंट एक दिन दर्पण बन जाएगी कि नहीं? रिंझाई ने कहा, सुनो! मैं सोचता था आपसे मैं ज्ञान लूं। आपको खुद ही अभी छोटी-मोटी चीजों के ज्ञान की जरूरत है दूसरों से लेने की! ईंट को लाख घिसो, जनम-जनम घिसो, दर्पण न बनेगी। कहां दर्पण, कहां ईंट! गुरु ने कहा, तो फिर मैं चला। तू भी इस सिर को कितना ही घिसता रह, घिसता रह जनम-जनम तक--ध्यान नहीं बनेगा। ध्यान दर्पण है, और खोपड़ी ईंट से भी गई-बीती चीज है। ईंट का तो कुछ काम भी है, खोपड़ी का कोई काम भी नहीं। ईंट को जोड़ो तो मकान भी बन जाए; खोपड़ी का क्या करोगे?
और कहते हैं, गुरु का यह कहना और ईंट का उठा कर चले जाना--जो बीस साल में नहीं घटा था, उस क्षण में घट गया। रिंझाई दौड़ कर पैरों में गिर पड़ा और कहा, मुझे क्षमा करें। जो मेरे अभ्यास से न हुआ, वह आपके चेताने से हो गया!
सदगुरु चेताने की अदभुत विधियां खोजते हैं। शिष्य के योग्य विधि खोजते हैं। जो चोट उसके भीतर जलधार तोड़ देगी, वैसी विधि खोजते हैं।
तुम पूछते: "करत-करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान।'
ऐसा स्कूलों में कहते हैं। शिक्षक-अध्यापक इस तरह की बातें दोहराते हैं कि घिसते रहो ईंट, हो जाएगा दर्पण। सुना नहीं कभी। जड़मति इस तरह सुजान नहीं होते--अभ्यास से नहीं। जड़मति भी सुजान हो सकता है। अभ्यास से नहीं हो सकता, क्योंकि अभ्यास कौन करेगा? वही जड़मति ही तो अभ्यास करेगी न!
अगर एक क्रोधी आदमी अक्रोधी होना चाहता है, तो अक्रोध का अभ्यास कौन करेगा? क्रोधी आदमी ही करेगा न! एक कामी काम से मुक्त होना चाहता है, अभ्यास कौन करेगा? कामी आदमी ही अभ्यास करेगा न! तो कामी क्या करेगा? ज्यादा से ज्यादा काम को दबा कर बैठ जाएगा; छाती में दबा कर बैठ जाएगा। और छाती में दबाया हुआ अभ्यास, छाती में दबाए हुए रोग, छाती में दबाई हुई वृत्तियां और भी घातक हो जाती हैं--महा घातक हो जाती हैं। जिस चीज को तुम अपने भीतर दमित कर लेते हो, उससे मुक्त नहीं होते।
हां, मूर्खों को भी सजा-बजा कर खड़ा कर दिया जा सकता है। और ऐसे ही मूर्ख बहुत से महापंडित समझे जाते हैं। बुनियादी रूप से मूढ़ हैं। लेकिन पांडित्य का आवरण है। उस आवरण से संसार को धोखा हो सकता है, लेकिन परमात्मा को तुम धोखा न दे पाओगे। और गहरे में तुम तो जानते ही रहोगे। तुम अपने को कैसे भुला पाओगे कि तुम जड़बुद्धि हो? और यह सब अभ्यास जड़बुद्धि का ही अभ्यास है।
कटघरे में खड़े मुल्ला नसरुद्दीन को संबोधित करते हुए जज ने कहा, बड़े मियां, तुम्हें बार-बार कचहरी आते शर्म नहीं आती! मुल्ला नसरुद्दीन ने इत्मीनान से जज की ओर उन्मुख होकर उत्तर देते हुए कहा, हजूर, मैं तो कभी-कभी आता हूं। मगर आप तो रोज आते हैं!
इसी जज ने एक बार पुनः मुल्ला नसरुद्दीन से कहा, मुल्ला, तुमने अपने मित्र को कुर्सी से क्यों मारा? नसरुद्दीन ने बड़ी मासूमियत से कहा, हुजूर, मेज मुझसे उठाई न गई!
जड़मति तो जड़मति ही है। अभ्यास से नहीं होगा। फिर क्या किया जाए? क्या जड़मति के लिए कोई उपाय ही नहीं?
नहीं, उपाय है--जागरण, होश, साक्षी-भाव। तुम अपनी बुद्धि की जड़ता को भीतर बैठ कर देखो भर। द्रष्टा बनो। कुछ करो मत। करोगे तो ईंट घिसोगे, करोगे तो अभ्यास हो जाएगा। करने से कुछ लाभ न होगा। करो ही मत कुछ। क्योंकि करने में तुम्हारी जड़मति का ही हाथ होगा। कृत्य तो तुम्हारी बुद्धि से ही निकलेंगे।
एक जैन मुनि शाकाहार के संबंध में प्रवचन दे रहा था। बड़ी प्रशंसा कर रहा था पशु-पक्षियों की, कि उनमें भी आत्मा है, उनमें भी जीवन है; और जो दूसरे को दुख देगा, वह खुद दुख पाएगा।
मुल्ला नसरुद्दीन सुन रहा था। एकदम खड़ा हो गया। और उसने कहा, आप बिलकुल ठीक कहते हैं। एक बार एक मछली ने मेरे प्राण बचाए थे। मुनि तो बहुत आनंदित हुआ। मुल्ला को पास बिठाया, पीठ थपथपायी। और लोगों से कहा, देखो, प्रत्यक्ष प्रमाण। और तुम मछलियों को खाते हो! मुल्ला से कहा, तू मेरे पास ही रुक। तू प्रत्यक्ष प्रमाण है।
जब भी मुनि प्रवचन देते, मुल्ला को दिखाते कि देखो, यह मुल्ला! क्यों मुल्ला, कहो लोगों से! मुल्ला कहता कि मछली ने एक बार मेरी जान बचाई थी।
कई दिन बीत गए। एक दिन मुनि ने पूछा, लेकिन तुम जरा विस्तार से तो कहो। कब बचाई थी? कैसे बचाई थी? मुल्ला ने कहा, वह आप न पूछें तो ठीक। एक बार मैं बिलकुल भूखा था। और एक मछली को खाकर ही बचा। नहीं तो बस जान गई ही गई थी। मैं मछली का बहुत ऋणी हूं!
तुम्हारा व्यक्तित्व, तुम्हारा कृत्य, तुम्हारे वक्तव्य, तुम्हारी साधना, तुम्हारा अभ्यास, तुम्हारे उपवास, व्रत, नियम इत्यादि कौन साधेगा? कौन करेगा? तुम हो कौन? लेकिन एक तत्व तुम्हारे भीतर है, जो तुम नहीं हो। बस वही तुम्हारी एकमात्र आशा है। तुम्हारे भीतर एक द्रष्टा-भाव है, एक साक्षी-भाव है, जो तुम नहीं हो। बस वही साक्षी-भाव जगाना है।
और ध्यान रहे, साक्षी-भाव का अभ्यास नहीं करना होता। वह तो है ही। सिर्फ स्मरण काफी है। इसलिए बुद्ध ने कहा है: सम्यक स्मृति। सम्मासति। संतों ने कहा है: सुरति। जार्ज गुरजिएफ कहता था: सेल्फ रिमेंबरिंग। अभ्यास नहीं--सिर्फ आत्म-स्मरण।
राह पर चल रहे हो, अपने को चलता हुआ देखो। बैठे हो, अपने को बैठा हुआ देखो। भोजन कर रहे हो, अपने को भोजन करता हुआ देखो। बोल रहे हो--बोलता। सुन रहे हो--सुनता। ऐसा अपने को देखो। जैसा हो रहा है, वैसा अपने को देखो। रात बिस्तर पर लेटते-लेटते अपने को बिस्तर पर लेटते देखो। झपकी आने लगी। आखिर-आखिर तक देखते रहो, देखते रहो कि नींद उतर रही, नींद उतर रही। यह उतरी, यह उतरी, यह परदा गिरा।
और एक दिन तुम हैरान हो जाओगे। अभ्यास नहीं है यह, बोध-मात्र है। एक दिन तुम चकित होकर पाओगे कि नींद का परदा भी गिर गया और तुम जागे ही हुए हो। या निशा सर्वभूतानाम्--जब सब सो गए, तब भी तुम जागे हुए हो--तस्याम् जागर्ति संयमी।
यह एक संयम है--अभ्यास नहीं। यह एक संतुलन है--अभ्यास नहीं।
अभ्यास छोटी चीज है। जैसे कोई दंड-बैठक लगाए, वह अभ्यास है। जैसे कोई राम-राम, राम-राम, राम-राम जपता रहे, वह अभ्यास है। कोई माला फेरता रहे, फेरता रहे, वह अभ्यास है। और राम-राम जपते-जपते जीभ में छाले पड़ जाएंगे, मगर लाभ कुछ और न होगा। माला जपते-जपते हाथ में गङ्ढे पड़ जाएंगे, और लाभ कुछ भी न होगा। तुम जड़बुद्धि हो सो तुम जड़बुद्धि रहोगे।
तुम्हारा मौलिक रूपांतरण सिर्फ एक ही प्रक्रिया से हो सकता है कृष्णतीर्थ भारती! वह प्रक्रिया है साक्षी की। मैं तुम्हें साक्षी की ही शिक्षा दे रहा हूं। तुम जो भी कर रहे हो, बस उस करते समय स्मरण रहे कि मैं क्या कर रहा हूं। श्वास भीतर गई तो देखो--भीतर गई। श्वास बाहर गई तो देखो--बाहर गई।
तुम्हें इसमें बहुत आध्यात्मिकता मालूम नहीं होगी। तुम कहोगे, यह कैसा अध्यात्म? राम-राम जपें, तो अध्यात्म मालूम होता है। हालांकि तोते राम-राम जप रहे हैं, और उनमें से कोई आध्यात्मिक नहीं हो गया है! और तोते स्वर्ग नहीं जाते। ग्रामोफोन के रिकार्ड हैं। तुम भी ग्रामोफोन के रिकार्ड बन सकते हो। ऊपर-ऊपर राम-राम जपते रहो और भीतर-भीतर न मालूम क्या-क्या कूड़ा-कबाड़ चलता रहे! वह सब बहता रहे। माला हाथ जपते रहेंगे, और मन? मन अपनी जड़ता में डूबा रहेगा।
जड़ता यानी मूर्च्छा। और मूर्च्छा को तोड़ने का एक ही उपाय है--जागरण, साक्षी। इसका अभ्यास नहीं करना है। हां, इसका निरंतर स्मरण करना है जरूर। दोनों में बहुत बारीक भेद है।
तुम्हें लगेगा कि स्मरण भी तो अभ्यास ही है। तुम्हारा मन कहेगा: तो बार-बार स्मरण करना, वह भी तो अभ्यास है!
नहीं, वह अभ्यास नहीं है। अभ्यास का अर्थ होता है, जैसे एक आदमी कार चलाना सीखता है, तो शुरू-शुरू में बड़ी अड़चन होती है। क्योंकि उसे याद रखना पड़ता है। स्टेयरिंग को सम्हाले। रास्ते पर तरहत्तरह के लोग चल रहे हैं, इन पर ध्यान रखे। बच्चे दौड़ रहे हैं। ट्रक आ रहे हैं। बसें जा रही हैं। इतना रास्ता चल रहा है--इस सबका ध्यान रखे कि कहीं चूक न हो जाए। जरा चूक हुई कि गए! इधर एक्सीलरेटर का ध्यान रखे कि एक पैर एक्सीलरेटर पर है। इधर ब्रेक का ध्यान रखे कि दूसरा पैर ब्रेक पर है। इधर गेयर का ध्यान रखे कि अब गेयर बदलना है। इतनी चीजों को एक साथ ध्यान रखना बड़ा मुश्किल मालूम होता है। इसलिए शुरू-शुरू में ड्राइविंग सीखने वाले को पसीना-पसीना हो जाना पड़ता है।
फिर धीरे-धीरे अभ्यास हो जाता है। फिर पैर सम्हाल लेता है एक्सीलरेटर को, फिर तुम्हें सम्हालने की जरूरत नहीं रहती। हाथ सम्हाल लेते हैं स्टेयरिंग को, तुम्हें सम्हालने की जरूरत नहीं रहती। तुम सिगरेट पीयो, फिल्मी गाना गाओ, कार में रेडियो हो तो रेडियो सुनो, मित्र बैठा हो तो गपशप करो--फिर तुम्हें कोई ध्यान देने की जरूरत नहीं है। यंत्रवत हो गया कार का चलाना।
जो चीज अंततः यंत्रवत हो जाए, उसकी प्रक्रिया का नाम अभ्यास है। और जो चीज कभी यंत्रवत न हो, उस प्रक्रिया का नाम साक्षी-भाव है। इसलिए दोनों के भेद को तुम ठीक-ठीक समझ लेना। अभ्यास हमेशा हर चीज को यंत्रवत कर देता है। और जो चीज यंत्रवत हो जाती है, वही तुम बेहोशी में करने लगते हो। होश की जरूरत नहीं रह जाती। लेकिन साक्षी-भाव को कभी बेहोशी में नहीं किया जा सकता। साक्षी-भाव और बेहोशी में कैसे करोगे! ऐसा अभ्यास कभी नहीं हुआ साक्षी-भाव का कि कोई बस बेहोशी में साक्षी बना रहे। साक्षी और बेहोशी तो विपरीत हैं।
इसलिए इसको तुम व्याख्या समझो: जिस चीज का अंतिम परिणाम जड़ता होती हो, वह अभ्यास। इसलिए अभ्यास से जड़मति सुजान नहीं होता, जड़मति कुशल होता है।
और तुम कहते: "रसरी आवत-जात है, सिल पर परत निशान।'
हां, रस्सी जरूर बार-बार आती है कुएं पर, तो सिल पर निशान पड़ जाते हैं। मगर ध्यान ऐसे निशानों का नाम नहीं है। रस्सी बार-बार आएगी-जाएगी तो निशान तो पड़ेंगे। पत्थर पर पड़ जाते हैं, तो मन पर भी पड़ जाएंगे। वैज्ञानिक तो कहते हैं कि मन में और कुछ है ही क्या, बार-बार पड़े निशान! एक ही काम को तुमने बार-बार किया, निशान पड़ गए। फिर तुम्हें ध्यानपूर्वक करने की जरूरत नहीं रह जाती। वे निशान ही करने लगते हैं। मस्तिष्क तुम्हारा एक कंप्यूटर हो जाता है। तुम्हें जरूरत नहीं रहती सोचने-विचारने की। अपने आप मस्तिष्क काम करने लगता है। बटन दबाई और काम शुरू हो जाता है। बटन बंद कर दी, काम बंद हो जाता है।
तुमने नाम सुना होगा डाक्टर हरि सिंह गौर का। उन्होंने सागर विश्वविद्यालय का निर्माण किया। वे हिंदुस्तान के बड़े से बड़े वकीलों में एक थे। हिंदुस्तान के ही नहीं, सारी दुनिया के दो-चार बड़े वकीलों में एक थे। सारी दुनिया में उनके आफिस थे--पेकिंग में, दिल्ली में, लंदन में। आज दिल्ली, कल पेकिंग, परसों लंदन। प्रिवी कौंसिल के बड़े से बड़े वकील थे। लेकिन उनकी एक आदत थी, अभ्यास था। तुम्हारी भी इस तरह की आदतें होंगी, खयाल करोगे तो समझ में आ जाएंगी।
जैसे किसी आदमी को कुछ सोच-विचार करना हो, तो वह सिर खुजलाने लगता है। बस उसका हाथ पकड़ लो, सिर न खुजलाने दो। वह बड़ी मुश्किल में पड़ जाएगा! वह सोच-विचार ही नहीं पाएगा। वह कहेगा, मेरा हाथ छोड़ो, नहीं तो मेरा सब सोच-विचार खराब हुआ जा रहा है! वह यंत्रवत आदत है।
किसी आदमी को सोचना हो, सिगरेट को जला लेता है। धुआं निकालने लगे, फिर सोच-विचार सुगम हो जाता है। उसकी सिगरेट छीन लो, वह एकदम अस्तव्यस्त हो जाएगा। उसकी समझ में न आएगा कि अब मैं क्या करूं, क्या न करूं? और एक आदमी रोज सुबह प्रार्थना करता है, मंदिर में घंटी बजाता है, पूजा का थाल उतारता है। बस एक दिन उसको मंदिर में न घुसने दो, वह दिन भर परेशान रहेगा। इन सब में कुछ भेद है--तुम समझते हो--सिर खुजलाना, या मंदिर की घंटी बजाना, या सिगरेट पीना? जरा भी भेद नहीं है।
डाक्टर हरि सिंह गौर को एक आदत थी--यह कहानी उन्होंने खुद ही मुझे सुनाई थी--कि जब भी वे प्रिवी कौंसिल में कोई गहरे मसले पर बोलते, तो अपने कोट का बटन घुमाते रहते थे। कोट का बटन हाथ में आया कि उनका मस्तिष्क तेजी से काम करता था। हर मुकदमा जीतते थे वे। उनका विरोधी वकील, जो विपरीत उनके कई मुकदमे लड़ चुका था और हार चुका था, धीरे-धीरे यह देख-देख कर आदी हो गया था कि बटन में कुछ राज है। क्योंकि जब भी वे बटन घुमाने लगते, तब उनकी तर्क-शैली और उनके बोलने का ढंग बड़ा प्रखर हो जाता, तलवार में धार आ जाती। वे बटन ही तब छूते हैं, जब जरूरत होती है। साधारणतः बटन नहीं छूते। जब मामला बिलकुल आखिरी चरम अवस्था में आ जाता, तब उनकी बटन पकड़ी जाती।
उस वकील ने उनके शोफर को रिश्वत देकर उनके कोट की बटन तुड़वा दी। एक बड़ा मामला था। राजस्थान के एक राजा का मामला था, लाखों का मामला था प्रिवी कौंसिल में। आखिरी फैसले का मामला था। उन्होंने कोट डाल लिया। उन्होंने देखा ही नहीं कि बटन उसमें है या नहीं। अंदर पहुंच गए। मुकदमा शुरू हुआ। जैसे ही बात अड़चन की आई, बटन पर हाथ गया, वहां बटन थी ही नहीं। एकदम पसीना छूट गया! वे मुझसे कह रहे थे कि मेरा मस्तिष्क एकदम खटाक से बंद हो गया। मैंने बहुत कोशिश की, मगर मेरी आंखों के सामने अंधेरा छा गया। मुझे कुछ सूझे ही नहीं! मुझे क्षमा मांगनी पड़ी। मुझे कहना पड़ा कि आज स्थगित करें; मेरी हालत खराब है; मैं बीमार हूं; मुझे चक्कर आ रहा है। दूसरे दिन जब अपनी बटन लगा कर पहुंचा, तब सब ठीक से चला।
अब हरि सिंह गौर जैसे बुद्धिमान आदमी की अगर यह दशा हो, तो औरों का क्या कहना! यंत्रवत! एक बार ऐसा हुआ कि हरि सिंह गौर--जरा पीने के आदी थे, ज्यादा पी जाते थे--ज्यादा पी गए। अदालत गए। भूल ही गए कि किसके पक्ष में हैं। तो विपक्ष में बोल गए। अपने ही मुवक्किल के खिलाफ बोल गए। धुआंधार बोले। बटन पर हाथ घुमाते रहे और दिल खोल कर बोले। मजिस्ट्रेट हैरान। खुद का मुवक्किल हैरान। विरोधी वकील हैरान--कि अब मेरे लिए कुछ बचा ही नहीं। यह हो क्या रहा है! मगर हरि सिंह को बीच में कौन रोके? मजिस्ट्रेट भी उनसे भय खाते थे।
जब दोपहर का चाय का समय मिला, तब उनके असिस्टेंट ने बाहर आकर कहा कि महाराज, यह आपने क्या किया! सब गुड़-गोबर कर दिया! गया यह मुकदमा। आप ही हार गए अपने हाथ से। आप अपने ही पक्ष के खिलाफ बोलते रहे!
हरि सिंह को थोड़ा होश आया। कहा, घबड़ा मत! अभी आधा समय बाकी है। चाय के समय के बाद जब वे अदालत में पहुंचे, तब उन्होंने कहा मजिस्ट्रेट को, परम आदरणीय, अब तक मैंने वे दलीलें दीं जो मेरा विरोधी वकील देगा। अब मैं उनका खंडन शुरू करता हूं। फिर बटन पर हाथ! और फिर उन्होंने दिल खोल कर खंडन किया।
वकील या वेश्या, इनका कुछ भरोसा नहीं। ये तो किसी के भी साथ हो सकते हैं। लेकिन मन भी वकील और वेश्या जैसा ही है। इसका भी कुछ भरोसा मत करना। नास्तिक हो जाओ, तो यह नास्तिकता की दलीलें देगा। आस्तिक हो जाओ, आस्तिकता की दलीलें देगा। पूजा-पाठ करो, तो पूजा-पाठ के पक्ष में बोलेगा। और पूजा-पाठ छोड़ना हो, तो पूजा-पाठ के खिलाफ बोलने लगेगा।
इस मूर्च्छित मन से तुम कितना भी अभ्यास करो, यह मूर्च्छित मन--हां, सुंदर हो जाएगा, सज जाएगा। मगर जैसे मूर्ख को सुंदर पगड़ी बांध दी, मूंछों पर ताव दे दिया, इत्र-फुलेल लगा दिया, शानदार कपड़े पहना दिए, इससे ही क्या होता है? भीतर तो वे वही के वही हैं!
मुल्ला नसरुद्दीन और उसके तीन मित्रों ने तय किया कि बहुत सुनते हैं कि मौन से परमात्मा का दर्शन होता है, तो हम भी एक महीने का मौन साधें। चारों गए, बैठ गए हिमालय की एक गुफा में। कोई आधा घड़ी बीती होगी कि पहले ने कहा कि अरे, मुझे लगता है कि मैं बिजली घर की जली ही छोड़ आया। महीने भर में तो बहुत बिल चढ़ जाएगा! दूसरा बोला, अरे बुद्धू, हमने कसम ली एक महीना चुप रहने की, और तू बोल गया! तीसरा हंसा और उसने कहा, बोल तो तुम भी गए! मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा कि हे प्रभु! हम ही भले। अब तक हम ही नहीं बोले!
बस आधा घड़ी में सब मामला खत्म हो गया। जड़ मस्तिष्क कितनी देर अभ्यास करेगा? क्या अभ्यास करेगा?
नहीं, अभ्यास से नहीं--बोध से, होश से, जागरूकता से। कृष्णतीर्थ, प्रत्येक कृत्य के साथ-साथ साक्षी-भाव को जोड़ो। बहुत अध्यात्म जैसा नहीं लगेगा कि श्वास भीतर गई--देखा। श्वास बाहर गई--देखा। यह बायां पैर उठा--देखा। यह दायां पैर उठा--देखा। इसमें बहुत अध्यात्म जैसा नहीं लगेगा। अध्यात्म है भी नहीं। यह विज्ञान है। आत्मा को जानने का विज्ञान है। हां, राम-राम जपा, माला जपी, तिलक-चंदन लगाया, तो अध्यात्म मालूम होता है। अध्यात्म कुछ भी नहीं है। तुम सिर्फ बुद्धू हो। और तुम से भी जो ज्यादा कुशल बुद्धू हैं वे तुम्हें लूट रहे हैं।


*आखिरी प्रश्न: भगवान! आपसे जो मिला है, उसे बांटूं या सम्हालूं?

आनंद देव! सम्हालने का एक ही उपाय है--बांटना। सम्हाला, और बांटा नहीं--खो जाएगा। बांटा, और सम्हाला नहीं--सम्हल जाएगा। दो! लुटाओ! यह कोई जीवन का क्षुद्र अर्थशास्त्र नहीं है कि तिजोड़ी में बंद करके रख दो। ये फूल तिजोड़ी में बंद करके रखने योग्य नहीं हैं। नहीं तो मर जाएंगे, सड़ जाएंगे। यह दीया तिजोड़ी में बंद मत कर देना, नहीं तो बुझ जाएगा।
बांटो! साझीदार बनाओ! जितने साझीदार बना सकते हो, उतने बनाओ! बेशर्त बांटो! पात्र-अपात्र का भी भेद मत करना। हम कौन हैं जो निर्णय करें--कौन पात्र, कौन अपात्र! हम कौन हैं जो निर्णय करें--कौन बीज फूटेगा, कौन बीज नहीं फूटेगा! बोओ बीज। जहां जगह मिले, वहां बीज बोओ।
ब्लावटस्की, जिसने थियोसाफिकल सोसायटी को जन्म दिया, एक ट्रेन में यात्रा कर रही थी। उसने अपने पास एक झोला रख छोड़ा था। बार-बार झोले में हाथ डालती और कुछ बाहर फेंकती। आखिर और यात्रियों की जिज्ञासा बढ़ी। फिर वे रुक न सके। उन्होंने कहा कि क्षमा करें! अकारण आपके कार्य में बाधा देना हम उचित नहीं मानते। लेकिन हमारी जिज्ञासा अब सीमा के बाहर हो गई है। इस झोले में क्या है? और बार-बार मुट्ठी भर कर आप क्या फेंकती हैं?
ब्लावटस्की ने कहा, देख लो झोले में। फूलों के बीज हैं। इन्हीं को मैं बाहर फेंक रही हूं टे्रन से।
उन्होंने कहा, हम अर्थ नहीं समझे! इसका क्या सार?
ब्लावटस्की ने कहा, सार! आकाश में बादल घिरने लगे हैं। आषाढ़ आ गया। जल्दी ही वर्षा होगी। ये बीज फूल बन जाएंगे।
मगर उन लोगों ने कहा कि क्या आपको बार-बार इसी ट्रेन में सफर करनी पड़ती है? क्या इसी रास्ते से आप बार-बार गुजरती हैं?
ब्लावटस्की ने कहा कि नहीं, मैं पहली बार गुजर रही हूं और शायद दुबारा कभी मौका न आए।
तो उन्होंने कहा, हम फिर समझे नहीं! तो फिर बीज फेंकने से आपको क्या फायदा? बीज अगर फूल बने भी, तो आप तो कभी देख भी न सकेंगी।
ब्लावटस्की ने कहा, यह थोड़े ही सवाल है कि मैं देख सकूं। कोई तो देखेगा! सब आंखें मेरी हैं। किसी के नासापुटों में तो सुगंध भरेगी! सब नासापुट मेरे हैं। कोई तो प्रसन्न होगा, आनंदित होगा। रोज यात्री इस ट्रेन से आते-जाते हैं हजारों; और-और ट्रेनें निकलती हैं इस रास्ते से। लाखों लोग उन फूलों को नाचते देखेंगे हवा में, सूरज में--प्रसन्न होंगे।
एक ने कहा, लेकिन उनको तो पता भी नहीं चलेगा कि आपने ये फूल बोए हैं!
ब्लावटस्की ने कहा, इससे क्या फर्क पड़ता है कि वे जानें कि किसने फूल बोए हैं; कि वे मेरे नाम का स्मरण करें, कि मुझे धन्यवाद दें। वे प्रसन्न होंगे, इसमें मेरी प्रसन्नता है। वे आनंदित होंगे, मुझे आनंद मिल जाएगा।
आनंद दो--आनंद मिलता है। आनंद बांटो--और तुम्हारे भीतर आनंद के नये-नये झरने फूटेंगे। आनंद देव, तुम्हें नाम दिया है--आनंद देव। दो! आनंद को बांटो!
बरसते बादल, सरसती वायु, पल तन्मय,
बोल रे! कुछ खोल गांठें, बांट कुछ संचय।
बांट रे! जग मांगता है आज रस की भीख,
भरे दिल ओ! भरे बादल से क्रिया यह सीख।

सीख: अंतर की विकल घुमड़न बने रसदान,
तप्त भावोच्छवास झुक भेंटें धरा के प्राण।
लघु हृदय की लहर छू ले फैल नभ के छोर,
सफल हो यह साध कण-कण को अमृत में बोर।

बोल ओ बंदी हृदय की ग्रंथियों के! बोल!!
ढाल जीवन, धरा उत्सुक है अधर-पट खोल
तड़ित-कंपनत्तेज में बीते न अंतर-शक्ति
शून्य में ही चुक न जाए सिंधु की आसक्ति
दंभ है यह उच्चता, रे! रिक्त है यह धूम
उतर भू पर, प्रणय की हरियालियों को चूम
आज छा ले सृष्टि को तू सजल भार उतार
कामना हो फलवती, हो फूल का संसार

मुक्त हो तू, महत हो तू, ज्यों अमित आकाश
छोड़  यह  संकोच, मन  रे!  तोड़  मित्ति  के  पाश।
मिट्टी के बंधन छोड़ो; मिट्टी का अर्थशास्त्र छोड़ो; आत्मा का अर्थशास्त्र समझो।
इस जगत में तो चीजें बचाओ, तो बचती हैं; बांटो--समाप्त हो जाती हैं। भीतर के जगत में उलटा नियम है: बचाओ--नष्ट हो जाती हैं। बांटो--बच जाती हैं। मृत्यु के क्षण में तुम पाओगे: तुम्हारे साथ वही जाएगा, जो बांटा, जो दिया; जो बेशर्त दिया, जिसमें कोई अपेक्षा भी न रखी; जिसमें उत्तर की कोई आकांक्षा भी न थी; जिसमें धन्यवाद मिले, इतना भी भाव नहीं था। ऐसा जो दिया, वही मृत्यु में तुम्हारे साथ जाएगा। वही तुम्हारी असली संपदा है, वही तुम्हारा संचय है। जैसे बादल बरसते हैं; इनसे कुछ सीखो।
बरसते बादल, सरसती वायु, पल तन्मय,
बोल रे! कुछ खोल गांठें, बांट कुछ संचय।
बांट रे! जग मांगता है आज रस की भीख,
भरे  दिल  ओ!  भरे  बादल  से  क्रिया  यह  सीख।
भरा दिल और भरा बादल एक जैसा व्यवहार करते हैं। भरा बादल बरसेगा ही बरसेगा। भरा बादल बोझिल है। भरा बादल जब बरसता है तप्त धरती पर, और पी जाती है धरती जब उसके रस को, तो धन्यवाद देता है धरती को, क्योंकि धरती ने उसे निर्भार किया, बोझ से मुक्त किया। और भरा दिल भी इसी तरह धन्यवाद करता है उसका, जो उसके प्रेम से उसे निर्भार करता है, जो उसके आनंद से उसे निर्भार करता है। ध्यान रखना, जल बहता रहे, तो स्वच्छ होता है। रुक जाए--गंदा हो जाता है। बहो! बहोगे--स्वच्छ रहोगे। रुकोगे--सड़ जाओगे।
सीख: अंतर की विकल घुमड़न बने रसदान,
तप्त भावोच्छवास झुक भेंटें धरा के प्राण।
लघु हृदय की लहर छू ले फैल नभ के छोर,
सफल हो यह साध कण-कण को अमृत में बोर।
तुम्हें मिले, तो फिर कण-कण को अमृत में डुबाओ। पुरानी आदत है कंजूसी की, आनंद देव! धन को पकड़ते थे; ध्यान को पकड़ने लगते हो! वस्तुओं को पकड़ते थे; आनंद को पकड़ने लगते हो! बाह्य को पकड़ते थे; अंतर को पकड़ने लगते हो। और जो पकड़ेगा, वह बंधन में बंध जाएगा। परिग्रह बंधन है।
लुटाओ! दोनों हाथ उलीचिए। उलीचे चलो! और डरो मत कि चुक जाएगा। जितना उलीचोगे, उतना ही भरोसा आएगा कि और-और नये झरने खुलने लगे; और-और नये द्वार खुलने लगे। जो जितना देता है, उतना ही परमात्मा से पाने का हकदार हो जाता है, अधिकारी हो जाता है।
तुम्हें कुछ झलक मिल रही है, यही झलक सुबह हो जाएगी--अगर बांटोगे। तुम्हें थोड़ी सुगंध आ रही है, यही सुगंध पूरी बगिया हो जाएगी--अगर बांटोगे। तुम्हें जीवन का थोड़ा सा साफ-सुथरापन उपलब्ध हो रहा है; बांट दो! देर न करना--तो सारा आकाश तुम्हारा है। आंगन से ही क्यों बंधे हो! और इसी आकाश की तो तलाश चल रही है--असीम की, अनंत की।
सीमा तृप्त नहीं कर सकती; केवल असीम ही तृप्त कर सकता है। और असीम को पाने का ढंग रोकना नहीं है। असीम होने का ढंग--सब दे देना है। जैसे नदी दे देती है सब सागर को, और सागर हो जाती है। काश! तुम यह कर सको, तो जिस प्रार्थना पर हम चर्चा कर रहे हैं, वह पूरी हो जाए। तमसो मा ज्योतिर्गमय--हे प्रभु, मुझे अंधकार से प्रकाश की ओर ले चल।
लेकिन तुम प्रकाश दोगे, तो ही प्रकाश की ओर ले जाए जा सकोगे। परमात्मा तुम्हें वही दे सकता है, जो तुम दूसरों को दोगे। दुख दोगे--दुख पाओगे। सुख दोगे--सुख पाओगे। जो बोओगे--वही काटोगे।
तमसो मा ज्योतिर्गमय--हे प्रभु, अंधकार से प्रकाश की ओर ले चल।
लेकिन जाने की तैयारी तो दिखाओ!
असतो मा सद्गमय--हे प्रभु, असत्य से सत्य की ओर ले चल।
लेकिन सत्य तुम्हें मिले, तो उसे छिपाओ मत। तुम लोगों को सत्य की ओर ले चलो। जो भी छोटा-मोटा सत्य है तुम्हारा, जितना बन सके, तुम्हारे छोटे हाथों से जितना दिया जा सके--दो। स्मरण रखो, तुम जो लोगों को दोगे, जगत को दोगे, वही अनंत-अनंत गुना होकर परमात्मा से तुम्हें मिलता है।
मृत्योर्मा अमृतं गमय--हे प्रभु, मृत्यु से मुझे अमृत की ओर ले चल।
अमृत की बूंद तुम्हें मिली, बांट दो! फिर सागर तुम्हारा है; फिर अमृत का पूरा सागर तुम्हारा है।

आज इतना ही।



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें