दूसरा प्रवचन-(कच्ची कंध उते काना ऐ)
दिनांक 22 नवम्बर, 1980,श्री ओशो आश्रम पूना।
पहला प्रश्न:
भगवान, पंजाबी भाषा में एक
टप्पा है, जिसमें एक प्रेमी अपनी प्रेयसी से कहता है--
कच्ची कंध उते काना ऐ
मिलणा तां रब नूं है
तेरा पिआर बहाना है।
अर्थात कच्ची दीवार पर कौवा बैठा है। और मिलना तो
परमात्मा से है, तेरा प्यार बहाना है।
भगवान, क्या लौकिक प्रेम
अलौकिक प्रेम का साधन है? कृपया समझाएं।
विनोद भारती, टप्पा
तो यह प्यारा है:
"कच्ची कंध उते काना ऐ--कच्ची दीवार पर कौवा बैठा
है।'
अधिकतर लोगों की जिंदगी बस ऐसी--दीवार कच्ची और कच्ची दीवार पर कौवा
बैठा है। जिंदगी भी कच्ची और काली भी। हंस भी नहीं, कौवा बैठा है। और
दीवार भी रेत की है। अभी है, अभी नहीं हो जाएगी। कब गिर
जाएगी, पता नहीं। किस क्षण समाप्त हो जाएगी, कोई भविष्यवाणी नहीं कर सकता। और इस कच्ची दीवार पर बैठा भी कौन है?
कुछ मूल्यवान नहीं। सब दो कौड़ी का है।
"कच्ची कंध उते काना ऐ।'
ये टप्पे सदियों-सदियों में लोकमानस में उभरे हैं। किसी एक व्यक्ति ने
इन्हें लिखा नहीं, ये सदियों की मनुष्य की अनुभूति है। सदियों का सार
है। ऐसे छोटे-छोटे टप्पों में उपनिषद समा गए हैं। और सच तो यह है, बहुत बार उपनिषद भी फीके पड़ जाते हैं। क्योंकि सीधा-सादा आदमी सीधा-सादा
देखता है। जैसा देखता है वैसा ही कह देता है। न कोई पांडित्य, न कोई शब्दों की लफ्फाजी, न कोई सिद्धांतों का जाल,
न कोई शास्त्रों की चिंता--जिंदगी जैसी झलकती है उसके दर्पण में,
बस वैसी कह देता है।
गांव के ग्रामीण जनों ने अपने सीधे-सादेपन में ही यह बात कही होगी। और
सदियों तक निखरती है फिर यह बात। जैसे गंगोत्री से कोई पत्थर गंगा में बह चलता है, तो खाता है चोटें, गिरता है पहाड़ियों से, जलप्रपातों से उतरता है--और जैसे-जैसे गंगा में बहता है वैसे-वैसे उसका
तिरछापन टूटता जाता है, उसमें एक गोलाई आ जाती है, एक सौंदर्य आ जाता है। वैसे ही पत्थर तो गंगा में सरकते-सरकते शिवलिंग बन
जाते हैं। अपूर्व सौंदर्य को उपलब्ध हो जाते हैं। ईश्वरीय हो जाते हैं। परमात्मा
की प्रतिमा बन जाते हैं।
ऐसे ही ये टप्पे हैं। सदियों तक बहते रहे हैं मनुष्य की चेतना की गंगा
में। इनमें माधुर्य भी आ गया, इनका तिरछापन भी कट गया।
सिद्धांत जब नए-नए जन्मते हैं किसी विचारक में तो उनमें थोड़ा तो तिरछापन होता है;
थोड़ा अहंकार होता है, अकड़ होती है; मैं सही, दूसरा गलत, ऐसी
भ्रांति होती है। लेकिन इस तरह के टप्पे किसी ज्ञानी से नहीं जन्मे हैं, किसी व्यक्ति के हस्ताक्षर नहीं हैं इन पर, इन्हें
किसी ने बनाया नहीं है, ये बने हैं, इनका
विकास नैसर्गिक है। इसलिए सरल तो बहुत, सीधे तो बहुत,
पर रसपूर्ण भी उतने।
"कच्ची कंध उते काना ऐ।'
कच्ची है दीवार और दीवार पर कौवा बैठा है। कैसी प्यारी बात और किसने
और कितने प्यारे ढंग से कह दी! और सीधी-साफ। न जैन धर्म आएगा, न हिंदू धर्म, न इस्लाम--धर्मों के पार की बात हो गई,
शास्त्रों का अतिक्रमण हो गया। यही तो मामला है, इतनी ही तो बात है। यह जिंदगी की दीवार कच्ची है। बहुत कच्ची है। यह नाव
कागज की है। इससे तुम भवसागर पार न हो सकोगे। लाख करो उपाय, यह
तो डूबेगी ही डूबेगी। इसका डूबना सुनिश्चित है। इधर से बचाओ, उधर से बचाओ--बचाने में ही नष्ट हो जाओगे। नाव ही कागज की है, सिर्फ दिखाई पड़ती है कि नाव है।
कोई धन पर भरोसा किए बैठा है। कैसी कच्ची दीवार है! कोई पद पर भरोसा
किए बैठा है। कैसी कच्ची दीवार है!
सिकंदर जब भारत आया और पोरस युद्ध में हार गया, तो सिकंदर के दरबार में जंजीरों और बेड़ियों में बंधे हुए पोरस को लाया
गया। युद्ध तो सघन हुआ था, पोरस कुछ सिकंदर से कमजोर आदमी न
था--शायद ज्यादा बलशाली ही था--लेकिन भारतीय मूढ़ता के कारण हारा। भारत हमेशा अपनी
मूढ़ता के कारण परेशान हुआ है। न तो शक्ति की कमी है, न
सामर्थ्य की कमी है, लेकिन मूढ़ता शक्ति और सामर्थ्य के ऊपर
ऐसी सवार है कि शक्ति को भी नष्ट कर देती है, सामर्थ्य को भी
विकृत कर देती है। पोरस हारा सिर्फ एक कारण से कि सिकंदर तो घोड़ों पर आया था लड़ने
और पोरस हाथियों को लेकर युद्ध करने गया।
हाथी बारात वगैरह के लिए अच्छे, साधु-संतों की जमात
के लिए अच्छे, किसी महंत की शोभाऱ्यात्रा निकल रही हो तो
अच्छे, युद्ध के लिए बिलकुल बेकार है। हाथी युद्ध के लिए बना
नहीं है--जगह ज्यादा घेरता है, मुड़ना हो तो भी स्थान चाहिए,
और अगर विकृत हो जाए, विक्षिप्त हो जाए--जिसकी
कि बहुत संभावना है; तीर चुभें, गोलियां
छिदें, अगर पगला जाए तो फिर उसे होश नहीं रहता, फिर वह अपनी ही सेना को रौंद डालता है। और वही हुआ। घोड़े ज्यादा सजग,
ज्यादा त्वरावान, गतिवान, थोड़ी जगह में घूम जाएं, थोड़ी जगह में मुड़ जाएं,
शीघ्रता से पलट जाएं, बिजली की कौंध से लड़ें,
बचाव आसान, आक्रमण आसान, और कोई खतरा नहीं कि अपनी ही सेना को रौंद डालें, ज्यादा
सरलता से वश में किए जा सकें।
यह जो लड़ाई हुई, इसमें सिकंदर नहीं जीता और पोरस
नहीं हारा, इसमें घोड़े जीते और हाथी हारे। मगर यही भारत का
दुर्भाग्य है। आज भी हालत वही है। हम हमेशा पीछे। अभी भी हम बैलगाड़ियों पर भरोसा
किए हैं। अभी हमारे नेतागण चरखा चला रहे हैं। हारोगे नहीं तो क्या होगा? मिटोगे नहीं तो क्या होगा?
और जब पोरस को बंदी बना कर लाया गया तो सिकंदर ने पूछा कि बोल, तेरे साथ कैसा व्यवहार करूं? तो पोरस ने बड़ी प्यारी
बात कही है। हीरों-जवाहरातों में तौली जाए, ऐसी बात कही है।
पोरस ने कहा, व्यवहार? वही व्यवहार जो
एक सम्राट दूसरे सम्राट के साथ करता है! और याद रखना, कल तक
मैं भी सम्राट था, आज जंजीरों में बंधा तुम्हारे सामने खड़ा
हूं। आज तुम सम्राट हो, कल का खयाल रखना, कल का कुछ पक्का नहीं। कल मुझे भी पता नहीं था कि एक ही दिन बाद यह हालत
हो जाएगी।
सिकंदर को बात समझ में आई। आंखें बंद कर लीं कहते हैं सिकंदर ने, क्षण भर चुप रहा और कहा, जंजीरें अलग कर दो, बेड़ियां तोड़ दो, और लाओ दूसरा सिंहासन, मेरे पास ही पोरस को बिठाओ; वह ठीक कहता है।
"कच्ची कंध उते काना ऐ।'
कच्ची दीवार पर कौवा बैठा है। कब उड़ जाएगा, कुछ भरोसा नहीं। दीवार बड़ी कच्ची है, कौवा न भी
उड़ेगा तो भी गिरेगी। कौवे को उड़ना ही पड़ेगा। मगर कितने अकड़ते हैं लोग! पद पर होते
हैं तो कैसे अकड़ जाते हैं! पैर जमीन नहीं छूते, पंख लग जाते
हैं। होश ही नहीं रह जाता। पद जैसी बेहोशी लाता है, कोई चीज
और नहीं लाती। धन क्या पास हो, दीवाने हो जाते हैं। जैसे सब
पा लिया! और सब यहीं पड़ा रह जाएगा; कुछ साथ न जाएगा,
"जब बांध चलेगा बंजारा'। सब यहीं पड़ा रह
जाएगा। और सारी मेहनत जो इसे जुटाने में गई, पानी में गई।
पानी पर लकीरें खींच रहे हैं लोग। पानी पर हस्ताक्षर कर रहे हैं लोग।
जैन शास्त्रों में एक बड़ी प्यारी कथा है। तुमने चक्रवर्ती शब्द सुना
होगा, लेकिन ठीक-ठीक शायद उसका अर्थबोध तुम्हें न हो।
चक्रवर्ती का अर्थ होता है: वह व्यक्ति जो छहों महाद्वीपों का सम्राट हो, सारी पृथ्वी का। जिसका राज्य कहीं भी समाप्त न होता हो, जिसके राज्य की कोई सीमा न हो, जिसका चक्र पृथ्वी के
चारों तरफ घूमता हो। तो चक्रवर्ती सम्राट बड़ी मुश्किल से कोई हो पाता है। बड़ी मुश्किल
से। करीब-करीब असंभव है मामला।
एक व्यक्ति चक्रवर्ती सम्राट हो गया। और चक्रवर्ती सम्राटों के लिए
जैन शास्त्रों में ऐसा कहा है कि चूंकि वे इतना महान कार्य कर लेते हैं, उनके लिए एक विशेष सुविधा मिलती है जो किसी को नहीं मिलती। जब वे स्वर्ग
जाते हैं तो स्वर्ग में मेरु पर्वत है--जैन शास्त्रों की पुराणकथा है--सुमेरु है।
वह पर्वत सच में ही अचल है।
इस पृथ्वी के पर्वत तो कहने को ही अचल हैं। आज हैं, कल नहीं हो जाते हैं। पृथ्वी के पर्वत भी नहीं हो जाते हैं। जमीन पर बहुत
से नए पर्वत पैदा हो गए हैं, पुराने पर्वत विदा हो गए हैं।
विंध्याचल सबसे पुराना पर्वत है। उसकी कमर झुक गई है, वह
बूढ़ा हो गया है, वह मर रहा है--मरणशय्या पर पड़ा है। और
हिमालय अभी बच्चा है। अभी बढ़ रहा है, अभी बड़ा हो रहा है। रोज
थोड़ा-सा ऊपर उठ रहा है। हर साल कोई एक फिट ऊपर उठ जाता है। अभी विकासमान है। विंध्याचल
सबसे पुराना पर्वत है, हिमालय सबसे नया। एक दिन विंध्याचल
समाप्त हो जाएगा। महाद्वीप उभरे और विदा हो गए, पहाड़ों की
क्या गिनती!
अटलांटिस कभी बड़ा महाद्वीप था। उसकी बड़ी सभ्यता थी। विराट सभ्यता थी।
लेकिन अब तो अटलांटिस कहीं भी नहीं है। अटलांटिक महासागर है। पूरा का पूरा
महाद्वीप खो गया अतल सागर में। आज भी सागर की गहराइयों में उसके अवशेष मौजूद हैं।
इस पृथ्वी पर तो हम कामचलाऊ रूप से कहते हैं कि पर्वत अचल हैं; वे भी चलते हैं। वे भी गिरते हैं, उठते हैं। वे भी
बच्चे होते हैं, जवान होते हैं, बूढ़े
होते हैं। लेकिन स्वर्ग में वह जो सुमेरु पर्वत है जैन शास्त्रों का, वह अडिग है, अचल है। वह जैसा है वैसा ही है।
चक्रवर्ती सम्राट को उस पर हस्ताक्षर करने का अवसर मिलता है। वह हर किसी को नहीं
मिलता।
तो यह एक व्यक्ति चक्रवर्ती सम्राट हो गया। इसके आनंद का ठिकाना न
रहा। बस, इसके जीवन में एक ही आकांक्षा थी कि सुमेरु पर्वत पर
हस्ताक्षर कर दूं--क्योंकि और कहीं भी हस्ताक्षर करो तो मिट जाएंगे। अरे, पर्वत ही खो जाएगा तो हस्ताक्षर कहां बचेंगे! पानी पर हस्ताक्षर करो,
जल्दी मिट जाते हैं, पहाड़ पर करोगे, थोड़ी देर में मिटेंगे--मगर मिटेंगे जरूर। देर-अबेर की बात है।
"कच्ची कंध उते काना ऐ--कच्ची दीवार पर कौवा बैठा
है।'
यह सम्राट बड़ा प्रसन्न था--मरणशय्या पर भी प्रसन्न था। पूछा भी किसी
ने कि आप इतने प्रसन्न हैं, क्या बात? तो उसने कहा, बस, एक ही आकांक्षा थी, वह अब
पूरे होने के करीब आ रही है, कि सुमेरु पर हस्ताक्षर कर
सकूंगा। उस पर किए हस्ताक्षर कभी नहीं मिटते। मिटते ही नहीं, क्योंकि सुमेरु ही नहीं मिटता है।
वजीर हंसा। सम्राट ने कहा, तुम क्यों हंसते हो?
उसने कहा कि अभी कहूंगा तो समझ में न आएगा। लेकिन सुमेरु पर्वत पर
पहुंच कर समझ में आ जाएगा कि मैं क्यों हंसा था।
एक पहेली हो गई! सम्राट मरा, मगर वह पहेली उसे याद
रही। वजीर हंसा था। क्यों हंसा था? सुमेरु पर्वत पर जाकर राज
खुलेगा। सुमेरु पर्वत के द्वार पर पहरेदारों ने कहा कि रुकिए, आप अकेले ही भीतर जा सकते हैं। वह ले गया था अपनी पत्नी को, अपने बच्चों को, अपने मित्रों को। वे सब उसके साथ
मरे थे। उनके मरने का इंतजाम किया गया था। क्योंकि अकेले क्या मजा कि तुमने सुमेरु
पर हस्ताक्षर किए। अरे, अपने वाले मौजूद न हों, कोई देखने वाला ही न हो, पत्नी देख न सकेगी कि पति
सुमेरु पर हस्ताक्षर कर रहा है, तो क्या मजा! बच्चे न देख
सकें, मित्र न देख सकें! तो ले गया होगा मित्रों को, बच्चों को, अखबार वालों को, फोटोग्राफरों
को, जनसंपर्क अधिकारियों को--ले गया होगा! मगर पहरेदार ने
कहा कि आप अकेले ही जा सकेंगे, इन सबको बाहर ही छोड़ना होगा।
यह नियम है।
उसे बड़ा दुख हुआ। उसने कहा, यह कैसा नियम! जीवन
भर मेहनत की, सारा जीवन बर्बाद किया सिर्फ इस आशा में कि
दिखा दूंगा! जिनको दिखाना है उनको बाहर छोड़ दूं! कृपा करो, जाने
दो! वह पहरेदार हंसा। वह हंसी ठीक वैसी ही थी जैसी वजीर की। वजीर की याद आ गई।
पूछा सम्राट ने पहरेदार से, हंसते क्यों हो? उसने कहा कि जब तुम पहुंचोगे सुमेरु पर्वत पर तो तुम्हें समझ आ जाएगा। मगर
मेरी मानो, मत आग्रह करो इनको ले जाने का, नहीं तो पीछे पछताओगे।
जब उसने यह कहा तो सम्राट अकेला ही गया लेकर छैनी-हथौड़ा, क्योंकि सुमेरु पर नाम खोदना है। और जाकर चकित हो गया! तब वजीर की हंसी भी
समझ में आ गई, तब पहरेदार की हंसी भी समझ में आ गई, तब यह बात भी समझ में आ गई कि अच्छा हुआ मैंने पहरेदार की बात मान ली और
अपने संगी-साथियों को साथ न लाया, नहीं तो बड़ी भद्द हो जाती!
और वजीर क्यों हंसा? बूढ़ा होशियार था। और पहरेदार ने
क्यों रोका? यह नियम उचित है। मामला यह था कि वह--सुमेरु
पर्वत तो बड़ा पर्वत था; न ओर न छोर; विराट
था, अंतहीन था--लेकिन उस पर जगह ही न थी जहां हस्ताक्षर करो!
इतने हस्ताक्षर हो चुके थे, इतने चक्रवर्ती सम्राट पहले हो
चुके थे! खोज-खोज मर गया, जगह न मिले! सोच कर तो गया था
बड़े-बड़े अक्षरों में हस्ताक्षर करूंगा, ऐसे कि किसी ने भी न
किए हों, मगर जगह ही न थी। लौट कर पहरेदार से पूछा कि क्या
करूं? वहां तो कोई जगह ही नहीं है!
पहरेदार ने कहा कि मेरे पिता भी यहां पहरेदार का काम करते थे, उनके पिता भी यहां पहरेदार का काम करते थे, उनके
पिता भी--यह हमारा वंशानुगत काम है। और यह हमेशा हुआ है, यह
कोई नई बात नहीं है। जहां तक मुझे याद है, जहां तक मेरे पिता
को याद था, उनके पिता को याद था, जब भी
कोई चक्रवर्ती आया, यही झंझट खड़ी हुई कि वहां जगह नहीं। और
उपाय एक ही है कि तुम पुराने कुछ नाम पहले साफ कर दो और अपना नाम लिख दो। यही होता
रहा है। पुराने नाम साफ करने पड़ते हैं और नया नाम लिखना होता है।
सम्राट के हाथ से हथौड़ी और छैनी गिर गई। उसने कहा, वजीर ठीक हंसा था। तो क्या मतलब हुआ! आज मैं हस्ताक्षर करके जाऊंगा,
कल कोई मेरे नाम को पोंछ कर हस्ताक्षर करेगा। कल कोई लिख गया है,
उसका नाम मैं पोंछूंगा और हस्ताक्षर करूंगा। मजा ही जाता रहा।
चाहे जल पर हस्ताक्षर करो और चाहे सुमेरु पर्वत पर--कच्ची कंध उते
काना ऐ--यह दीवार ही कच्ची है। और इस कच्ची दीवार पर कौवा बैठा है।
कौवा प्रतीक है चालबाजी का। लोकमानस में कौवा चालबाजी का प्रतीक है।
बहुत चालबाज है। कहते हैं कौवे की एक ही आंख होती है मगर दोनों तरफ देखता रहता
है--एक ही आंख से। पक्का चालबाज है। काना है, मगर दुनिया को धोखा
देता है दो आंखों का। उसी आंख से बाएं देखता है, उसी आंख से
दाएं, गटर-पटर करता रहता है। यहां से वहां आंख को दौड़ाता
रहता है। कौवा बहुत चालबाज है! बड़ा होशियार है!
लोकमानस में कौवे का जो प्रतीक है, वह चालबाजी का,
बेईमानी का, धोखाधड़ी का। सार-संक्षेप में कहो
तो राजनीति का, कूटनीति का।
इतनी कूटनीति, इतनी चालबाजी, इतनी बेईमानी,
और हाथ क्या लगेगा? यह कच्ची दीवार! और अभी उड़े!
अभी वक्त आ जाएगा! अभी खबर आती होगी कि बस समय समाप्त हुआ, कि
अब चलो, कि यमदूत द्वार पर आकर खड़े हो गए! चार दिन की जिंदगी
में कितना धोखा देते हो! कितनी बेईमानी करते हो! और क्या पा लेते हो! हाथ क्या
लगता है! कुछ भी तो हाथ नहीं लगता। हां, चालबाजियों में कुछ
गंवा जरूर देते हो। वह जो सरलता लेकर आए थे जगत में, वह गंवा
देते हो।
सरलता का प्रतीक है हंस। शुभ्रता का, शुक्लता का। इसलिए जब
कोई ज्ञान को उपलब्ध हो जाता है, उसे हम परमहंस कहते हैं। वह
पुनः बच्चे की भांति सरल हो गया। जैसे बच्चा होता है, कोरी
किताब की तरह, जिस पर अभी कुछ लिखा नहीं गया है, वैसा चित्त हंस कहा जाता है। इसको पुनः पा लेना परमहंस की अवस्था है।
बच्चे को तो विकृत होना पड़ेगा। उसकी विकृति सुनिश्चित है। क्योंकि
बूढ़े कौवों के हाथों में उसको पड़ना पड़ता है। एक से एक चालबाज कौवे, सयाने कौवे!
मेरे दादा--मेरे पिता के पिता--थोड़ी-सी ही बातें कहते थे, सीधे-सादे आदमी थे, ग्रामीण आदमी थे, मगर जो थोड़ी बातें कहते थे वे मतलब की बातें थीं। उनकी कुछ बातों में एक
बात मुझे याद है। काम वे छोटी-सी दुकान करते थे कपड़े की। चेष्टा उनकी यही होती थी
कि व्यर्थ मोलत्तोल में समय खराब न हो। तो वे पूछ लेते ग्राहक से कि क्या मर्जी?
मोलत्तोल करना? तो ध्यान रख, लाख मोलत्तोल कर, चाहे खरबूज छुरी पर गिरे, चाहे छुरी खरबूज पर गिरे, हर हालत में खरबूज कटेगा,
यह मैं तुझे बताए देता हूं। मोलत्तोल से तुझे कुछ लाभ न होगा। तू
हमें न काट सकेगा। हमें पता है कि यह चीज कितने की है। उससे कम पर तो हम देने वाले
नहीं। तो तू सोच ले! और अगर एक बात पर राजी हो, तो हम उतना
ही बता दें जितना कम से कम हम दे सकते हैं।
जो सीधे-सादे लोग होते, वे कहते कि बात तो
समझ में आती है। मोलत्तोल में कोई सार नहीं। यह तो बात जाहिर है। हर हालत में हम
कटेंगे। तो आप एक ही बात कह दो। मगर जो चालबाज होते, वे कहते
कि बिना मोलत्तोल कैसे बात बन सकती है!
तो उनकी दूसरी कहावत थी। वे कहते थे, फिर ठीक है, फिर मोलत्तोल हो जाए। मगर खयाल रख, सयाना कौवा गंदे
घूरे पर बैठता है। ये उनकी दो कहावतें थीं, जो मैंने उनको
बार-बार ग्राहकों से कहते सुना। कि सयाना कौवा गंदे घूरे पर बैठता है! तू सयाना
कौवा मालूम होता है! तू बैठेगा किसी गंदे घूरे पर। तू ठीक जगह पर नहीं बैठ सकता।
तो हो जाए, मोलत्तोल हो जाए।
कुछ लोग मोलत्तोल के इतने आग्रही होते कि वे आकर पूछते थे--क्योंकि
मेरे पिता को यह आदत न थी, वह सीधी एक बात करते--तो कुछ ग्राहक आकर पूछते कि
दादा कहां हैं? क्योंकि आपसे तो एक बात होती है, मजा ही नहीं आता! खरीद-फरोख्त का मजा! दादा कहां हैं? जरा घिसा-पिसी होती है, खरीद-फरोख्त का मजा आता है!
नहीं तो देर ही नहीं लगती! आपने इधर कहा इतने दो, उतने हमने
दिए और गए! शापिंग का मजा! जरा दादा को बुलाओ!
वह जो सयाना कौवा, वह तो मोलत्तोल करेगा। वह
चालबाजी करेगा। वह दूसरों को ही नहीं धोखा देगा, अपने को भी
धोखा देगा। धोखा देना उसकी जीवन-शैली हो जाती है। वह बिना धोखा दिए नहीं बच सकता है।
इसलिए कौवे का प्रतीक उपयोग किया, विनोद!
"कच्ची कंध उते काना ऐ।'
एक तो कच्ची दीवार और उस पर इतना कौवापन, इतना सयानापन, इतनी होशियारी, इतनी
चालबाजी, इतनी राजनीति, इतनी कूटनीति!
किसको काट रहे हो? क्या पा लोगे?
"मिलणा तां रब नूं है
तेरा पिआर बहाना है।'
सच में ही प्यारी बात है! कि मिलना तो है परमात्मा से और तेरा प्यार
तो बहाना है। जो जानते हैं, वे सभी इस बात पर राजी होंगे कि हमारा प्रेम यूं है
जैसे पूर्णिमा का चांद झील में झलकता हो। माना कि झील में झलकता चांद सच्चा चांद
नहीं है, मगर सच्चे चांद की ही झलक है। माना कि झील में
कूदोगे तो चांद को नहीं पाओगे--कूदोगे तो वह जो झलक भी दिखाई पड़ रही थी चांद की,
वह भी खो जाएगी। चांद को पाने के लिए तो झील में कूदने से कुछ सार
नहीं, कितनी ही डुबकी मारो; वहां चांद
है नहीं।
मगर चांद हो या न हो, है तो असली चांद का ही
प्रतिबिंब। जो समझदार हैं, वे झील में चांद को देख कर असली
चांद की यात्रा पर निकल जाते हैं। तब झील का चांद चांद की तरफ अंगुली का इशारा बन
जाता है। चांद तो ऊपर है, दूर है, मगर
झील का चांद उसकी तरफ इशारा बन जाता है। झील में नहीं उतरना है। मगर वह जो पार
चांद है, उसकी यात्रा पर जाना है। झील तब सहयोगी हो जाती है।
तब झील शास्त्र बन जाती है।
तो शास्त्र का दो तरह से उपयोग किया जा सकता है। जो समझदार हैं, वे शास्त्र का इशारा पकड़ कर निःशब्द की यात्रा पर निकल जाते हैं। शब्द का
इशारा, निःशब्द की यात्रा। संसार का प्रेम और परमात्मा की
खोज। क्योंकि प्रेम तो प्रेम है। संसार में केवल उसका प्रतिफलन बन रहा है। संसार
दर्पण है। लेकिन जो नासमझ हैं, वे शास्त्रों में ही डुबकी
मारते रहते हैं। वे शब्दों के ही ऊहापोह में पड़ जाते हैं। वे शब्दों के जाल में
उलझ जाते हैं। वे भूल ही जाते हैं कि शब्द तो केवल तस्वीर हैं, उसे खोजना है जिसकी तस्वीर है।
सदियों के प्रेमियों का अनुभव इसमें समाया हुआ है। जैसे कोई हजारों
गुलाब के फूल इकट्ठे करे और उनसे इत्र निचोड़ ले! तो शायद कुछ बूंद ही इत्र बने, मगर उस बूंद में हजारों फूलों का रस होगा, सुगंध
होगी, सार होगा, प्राण होगा, आत्मा होगी।
मनुष्य-जाति का सदियों-सदियों का अनुभव यह है। कितने लोगों ने प्रेम
नहीं किया! ऐसा कौन है जिसने थोड़ा न बहुत प्रेम न किया हो! कंजूस से कंजूस भी थोड़ा
न बहुत प्रेम करता है। गलत से गलत आदमी भी प्रेम से एकदम नहीं बच पाता, कुछ न कुछ गंध तो हाथ लगती है, कुछ न कुछ तो गीत
हृदय में गूंज लेता है, कुछ तो पैरों में घूंघर बंधते हैं।
फिर चाहे प्रेम तुम अपने बेटे को करो, चाहे पत्नी को करो,
पिता को करो, मां को करो, मित्र को करो, प्रेयसी को करो, संगीत को करो, काव्य को करो, मगर
प्रेम कहीं न कहीं से तो तुम्हारे भीतर झांकेगा।
इन सारे प्रेमों के अनुभव का जो इत्र है वह यह है कि कोई भी प्रेम
तृप्त नहीं कर पाता। चाहे तुम अपनी पत्नी को कितना ही प्रेम करो, अपने पति को कितना ही प्रेम करो, तृप्ति नहीं
मिलेगी। तृप्ति न मिलने के कारण भ्रांति पैदा होती है। लगता है यह पत्नी ठीक नहीं,
लगता है यह पति गलत मिल गया, यह दुर्भाग्य
मेरा कि किस दुष्ट से साथ हो गया; यह कुछ भूल हो गई, चूक हो गई। मगर यह तुम्हारे गणित की भूल-चूक हो रही है और कुछ भूल-चूक
नहीं हुई। तुम पत्नी बदल सकते हो--अब तो सारी दुनिया में तलाक की व्यवस्था हो गई
है--तुम पत्नी बदल सकते हो...।
मैंने सुना, अमरीका में एक आदमी ने आठ बार पत्नियां बदलीं और चकित
हुआ यह बात जान कर कि हर बार चार-छह महीने के बाद उसे लगा कि मैंने फिर नई शक्ल
में--मॉडल नया, संस्करण नया--फिर पुरानी पत्नी खोज ली! वही
की वही! नाक-नक्श अलग है, बाल के रंग अलग हैं, ऊंचाई अलग है, लंबाई अलग है--सब कुछ अलग है, मगर न मालूम क्यों सब मामला वही का वही है! वही कलह, वही उपद्रव, वही झगड़ा, वही
परेशानी। बात क्या है?
बात सीधी-साफ है: खोजने वाला वही है। तो वह बार-बार उसी तरह की स्त्री
के प्रेम में पड़ेगा। तुम कितनी ही पत्नियां बदलो, कितने ही पति बदलो,
कितने ही मित्र बदलो, तुम्हारे जीवन में प्रेम
से तृप्ति नहीं आएगी, क्योंकि यह झील में कूद कर तुम चांद को
पाने की कोशिश कर रहे हो। और तृप्ति न आने की बात अगर ठीक से समझ में आ जाए तो
द्वार खुल जाए--रहस्य का द्वार खुल जाए।
इस जगत की कोई भी प्रीति नहीं भर पाती, यह सौभाग्य है,
दुर्भाग्य नहीं। क्योंकि अगर इस जगत की कोई प्रीति तुम्हें भर दे,
तो फिर परमात्मा को तुम खोजने ही क्यों निकलोगे? फिर परमात्मा की तलाश का सवाल ही नहीं उठता! इस जगत की हर प्रीति असफल हो
जाती है। गिर ही जाती है।
क्यों गिर जाती है? इसीलिए कि तुम्हारे भीतर
आकांक्षा तो परमात्मा को पाने की है, परम प्रीति को पाने की
है और उसी आकांक्षा को लेकर तुमने किसी स्त्री के सामने झोली फैलाई या किसी पुरुष
के सामने झोली फैलाई। वह गरीब स्त्री करे भी तो क्या करे! तुम्हारी झोली कैसे भर
दे अमृत से! उसके पास हो तो भर दे! वह खुद भिखारिन है। वह खुद ही झोली फैलाए
तुम्हारे सामने खड़ी है। तुम भी पागल हो।
मैंने सुना है, एक गांव में दो ज्योतिषी थे। वे रोज सुबह-सुबह जब
अपने काम-धंधे पर बाजार की तरफ जाते, रास्ते पर उनका मिलन
होता, तो कहते, भाई, जरा मेरा हाथ देखना! एक-दूसरे का हाथ देखते, चवन्नी
एक-दूसरे को थमा देते--हर्जा भी नहीं था कुछ, चवन्नी मिल भी
जाती, चवन्नी दे भी दी जाती; पैसा
जितना था अपने पास, अपना, जितना उसके
पास था, उसका और हाथ मुफ्त में दिखाई हो जाती। और एक-दूसरे
से पूछ लेते कि आज धंधा कैसा चलेगा? ये ज्योतिषी हैं! ये
दूसरों का भाग्य बताने निकले हैं!
मनोवैज्ञानिकों के संबंध में तो मैंने और भी एक अदभुत कहानी सुनी है।
दो मनोवैज्ञानिक सुबह ही सुबह अपने दफ्तर जाते हुए रास्ते पर मिले, नमस्कार-वंदना इत्यादि के बाद एक ने पूछा कि आप तो बिलकुल चंगे हैं,
मेरे संबंध में क्या खयाल? आप तो बिलकुल ठीक
हैं, मैं गारंटी देता हूं। अब मेरे संबंध में कुछ कहो।
अपना पता नहीं है, दूसरे के संबंध में गारंटी देने
को आदमी तैयार है। अपने बाबत दूसरे से पूछ रहा है। खुद की खबर नहीं है, औरों की खबर रखता है। मनोवैज्ञानिक एक-दूसरे के पास जाते हैं मनोविश्लेषण
के लिए कि भई, जरा हमारा मनोविश्लेषण करो। बड़ी बेचैनी है,
बड़ी चिंता है, रात नींद नहीं आती, आत्महत्या के विचार उठते हैं।
यह जान कर तुम चकित होओगे कि दुनिया में जितनी आत्महत्या मनोवैज्ञानिक
करते हैं उतना कोई दूसरे धंधे के लोग नहीं करते। अनुपात दो गुना है। न जुआरी, न शराबी, न दलाल--कोई इतनी आत्महत्या नहीं करते
जितनी मनोवैज्ञानिक करते हैं। दो गुनी। और मनोवैज्ञानिक दुगुने पागल भी होते हैं।
कोई इतना पागल नहीं होता। राजनीतिज्ञ भी इतने पागल नहीं होते। उनको भी मात दे दी
मनोवैज्ञानिकों ने। और ये दुनिया भर का पागलपन ठीक करने का धंधा कर रहे हैं!
अजीब अवस्था है यहां। यहां भिखमंगे भिखमंगों के सामने झोली फैलाए खड़े
हैं, कि कुछ मिल जाए, कि आज बिना लिए
नहीं हटूंगा। पत्नी तुमसे मांग रही है कि प्रेम दो! तुम पत्नी से मांग रहे हो कि
प्रेम दो! प्रेम दे कौन? दोनों मांगने वाले हैं, देने वाला तो कोई भी नहीं है, दाता तो कोई भी नहीं
है, दोनों भिखमंगे हैं। फिर झोली तुम्हारी भी खाली, उसकी भी खाली, तो क्रोध आता है। लगता है कि धोखा
दिया गया।
धोखा किसी ने भी नहीं दिया है! जब तुम दूर होते हो तो खुद ही धोखा
खाते हो। दूरी से धोखा होता है। चौपाटी पर मिल लेते हो किसी स्त्री से...। अब
चौपाटी पर कौन चौपट नहीं हो जाता। जिन्होंने भी चौपाटी नाम रखा है, गजब किया है। चौपाटी पर मिलते हो जब तो स्त्री भी सजी-बजी होती है,
तुम भी सजे-बजे होते हो, इत्र-फुलेल लगा होता
है। न तुम्हारी असली गंध का पता चलता है, न उसकी असली गंध का
पता चलता है। तुम भी कपड़ों में छिपे होते हो, वह भी कपड़ों
में छिपी होती है।
कपड़े बड़ा धोखा देते हैं। आदमी सोचता है कि कपड़ा नग्नता को छिपाने के
लिए ईजाद किया गया है, गलत सोचता है। कपड़ा नग्नता को प्रकट करने के लिए ईजाद
किया गया है, उभारने के लिए। नग्न स्त्रियां इतनी सुंदर नहीं
होतीं जितनी वस्त्रों में दिखाई पड़ती हैं। क्योंकि वस्त्र बहुत तरह के धोखे दे
सकते हैं। ढले हुए स्तन ऐसे मालूम हो सकते हैं जैसे जवान हों। छातियां जिनकी
हड्डियां निकली हों, लेकिन कोट के भीतर भरी हुई रुई ऐसी
भ्रांति दे सकती है कि ठेठ हनुमान जी चले आ रहे हैं। कंधे बिलकुल बैठे हों कि कोई
देख ले एक दफा कंधा तो फिर लौट कर न देखे, ऐसा भागे, मगर कंधों में रुई भरी हुई है।
मेरी एक संन्यासिनी है, माधुरी। पूरा परिवार
संन्यासी है। माधुरी संन्यासिनी है, उसकी बहन सरिता
संन्यासिनी है, उन दोनों की मां संन्यासिनी है। माधुरी की
मां ने मुझे कहा कि उसको स्तन का कैंसर हो गया था--उम्र होगी कोई पचपन वर्ष--तो
स्तन काट देने पड़े, दोनों स्तन काट देने पड़े। एक का तो काटना
निश्चित ही था, दूसरे में खतरा था कि फैल सकेगा, तो पहले से ही काट देना ठीक था। वह बहुत परेशान थी। हिंदुस्तान तो है नहीं,
अमरीका है। अमरीका में दोनों स्तन न हों स्त्री के तो मरी ही हुई
समझो। जिंदा ही क्या रहा फिर! सारा खेल स्तन का है! बच्चे ही नहीं जी रहे हैं स्तन
से, बूढ़े भी स्तन से ही जी रहे हैं। बच्चे भी दूध पी रहे हैं,
बूढ़े भी दूध पी रहे हैं। तो बहुत दुखी थी। डाक्टर ने कहा कि दुखी
होने की कोई भी जरूरत नहीं है, अब तो प्लास्टिक के स्तन
उपलब्ध हैं।
तो स्तन तो दोनों कट गए और प्लास्टिक के स्तन उसे दे दिए गए। मुझसे कह
रही थी कि मैं मैक्सिको से लौट रही थी तो एक चौराहे पर रुकी पुलिस वाले से पूछने
को रास्ता, उसकी नजरें मेरे स्तन पर अटक गईं। आपकी संन्यासिनी
हूं, मजाक सूझा। कभी जिंदगी में ऐसा मजाक मैंने किया भी नहीं
था। मगर आपकी संन्यासिनी हुई, तब से मजाक भी करना आने लगा।
मैंने उससे पूछा, पसंद आए? वह थोड़ा
हिचकिचाया, माथे पर पसीना आ गया, घबड़ाया,
इधर-उधर देखा। मैंने कहा, घबड़ाने की कोई जरूरत
नहीं; पसंद आए? सच-सच बोलो। उसने कहा,
पसंद! सुंदर हैं! तो माधुरी की मां ने दोनों स्तन निकाल कर उसको दे
दिए कि फिर तुम्हीं रख लो। तुमको पसंद आ गए, तुम्हीं रख लो।
वह मुझसे कह रही थी, उसकी हालत देखने जैसी थी। हाथ में
प्लास्टिक के स्तन लिए वह ऐसा खड़ा था कि उसे कुछ सूझा ही नहीं, अब करे क्या, करे क्या न। किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया
बिलकुल। कह रही थी, मैं तो गाड़ी लेकर आगे बढ़ गई, उस गरीब पर क्या गुजरी वही जाने!
कपड़े छिपाए रखते हैं। चौपाटी पर मिले किसी से, कुछ पक्का थोड़े ही है कि कौन कैसा है। यह तो असलियत बाद में पता चलेगी। यह
तो जब पास आओगे तब पता चलेगी। कोई किसी को धोखा नहीं दे रहा है। कोई किसी को धोखा
देने नहीं निकला है। लेकिन दूरी धोखा पैदा कर देती है। दूरी भ्रम पैदा कर देती है।
मृग-मरीचिका पैदा हो जाती है। तुम सोचते हो कि मिल गई वह स्त्री जिसकी तलाश थी
जन्मों-जन्मों से। स्त्री सोचती है, मिल गया वह व्यक्ति
जिसकी तलाश थी जन्मों-जन्मों से। और जब पास आते हो तो पता चलता है कि साधारण
स्त्री है, साधारण पुरुष है; कहीं कुछ
मिला नहीं, फिर धोखा हो गया, फिर धोखा
खा गए। और यह धोखा जन्मों-जन्मों से खा रहे हो।
"कच्ची कंध उते काना ऐ।'
कच्ची दीवार पर कौवा बैठा है।
"मिलणा तां रब नूं है।'
और मिलना तो है परमात्मा से। उससे कम में दिल भरेगा नहीं। जब तक सागर
ही बूंद में न उतरेगा तब तक तृप्ति असंभव है। और--
"तेरा पिआर बहाना है।'
यह समझ में आ जाए तो फिर प्यार में भी कोई कसूर नहीं।
"तेरा पिआर बहाना है।'
अगर तुम अपनी पत्नी को यूं प्रेम करो कि जैसे उसके माध्यम से परमात्मा
को प्रेम कर रहे हो, तो कुछ हर्ज नहीं। यही मेरी शिक्षा है। विनोद,
यही मैं शिक्षा दे रहा हूं! यही समझा रहा हूं। प्रेम से भागो मत!
प्रेम में तलाश करो कि वस्तुतः खोज क्या है? तो फिर तुम्हारे
बेटे में, तुम्हारी मां में, तुम्हारी
पत्नी में, तुम्हारे पति में, मित्र
में, उसी की तलाश चल रही है।
सुबह सूर्योदय जब हो और आकाश सुंदर बादलों से भर जाए और रंगीन चारों
तरफ जैसे होली हो गई हो ऐसी गुलाल उड़ने लगे सुबह के सूरज की, पक्षी गीत गाएं, फूल खिलें, तब
भी खयाल रखना--यह सौंदर्य उसका है। रात जब आकाश तारों से भर जाए, तब भी खयाल रखना--ये आंखें उसकी हैं। कोई बांसुरी पर जब गीत छेड़ दे और
तुम्हारे प्राण जब नाच उठें, तो याद रखना--यह बांसुरी उसकी
है, यह गीत उसका है।
तो फिर जहां भी तुम्हारा प्रेम हो--काव्य में हो, संगीत में हो, कला में हो, नृत्य
में हो, स्त्री में हो, पुरुष में हो,
जिसमें भी तुम्हारा प्रेम हो--इतनी भर याद बनी रहे कि यह प्रेम उसी
की तरफ इशारा करता हुआ तीर है। जाना तो वहां है।
"मिलणा तां रब नूं है।'
जाना तो वहां है। मिलना तो रब से है। मिलना तो है उस प्यारे से।
"तेरा पिआर बहाना है।'
और बाकी सब बहाने हैं। बहाने बुरे नहीं। अगर बहाने बहाने समझे जाएं तो
बुरे नहीं हैं, खूंटियां हैं। टांगो उन खूंटियों पर, लेकिन जो टांगो वह रहे परमात्मा का ही प्रेम। काश, तुम
अपनी पत्नी में परमात्मा को देख सको, पति में परमात्मा को
देख सको, तो फिर किसी और मंदिर में जाने की कोई जरूरत नहीं।
कैसे पागल लोग हैं। जिंदा बच्चों में उन्हें परमात्मा नहीं दिखाई पड़ता
और बैठ कर भागवत की कथा सुन रहे हैं! और उसमें केवल एक जिंदा बच्चे की कहानी है, और कुछ भी नहीं। एक शानदार बच्चे की कहानी है, और
कुछ भी नहीं। सूरदास का पद सुन रहे हैं: मैया मैं नहिं माखन खायो। और घर में बच्चा
यही कह रहा है कि मैया मैं नहिं माखन खायो, तो उसकी पिटाई हो
रही है कि तूने ही खाया है! अरे कमबख्त, तूने नहीं खाया तो
किसने खाया? मक्खन गया कहां? और सूरदास
जी का वही भजन गुनगुना रहे हो कि मैया मैं नहिं माखन खायो। क्या गजब हो रहा है!
कृष्ण किसी की मटकी में कंकड़ मार कर फोड़ देते हैं। अहा, गदगद हो रहे हैं भक्त! डोंगरे महाराज की आंखों से आंसू बह रहे हैं। भक्तों
की आंखें गीली हुई जा रही हैं। आंसू ही नहीं टपक रहे, बूंदी
टपक रही है। और खुद का लड़का किसी की गगरी फोड़ आए तो उसकी पिटाई हो रही है। अरे तो
डोंगरे महाराज की पिटाई करो न! कि पकड़ो सूरदास को कि भाग न जाए कहीं! लगाओ ठिकाने
इसको!
कृष्ण जी स्त्रियों के कपड़े लेकर झाड़ पर बैठ गए हैं, भक्त लोग कह रहे हैं--अहा, क्या लीला हो रही है! और
तुम्हारा लड़का किसी के कपड़े लेकर बैठ गया है झाड़ पर, तो उतर
हरामजादे! नीचे आ! अब तुझे वह पाठ सिखाऊंगा कि जिंदगी भर याद रहेगा!
जिंदगी को प्रेम करो! तुम कहानियों में उलझ गए हो! यह जिंदगी बहुत
प्यारी है! इस जिंदगी में सब तरफ से परमात्मा की झलक आ रही है! लेकिन तुम न मालूम
किस कचरे में पड़े हो! टप्पा प्यारा है! इसे याद रखना--
"कच्ची कंध उते काना ऐ
मिलणा तां रब नूं है
तेरा पिआर बहाना है।'
जिंदगी क्या है इक पहेली है
कभी दुश्मन, कभी सहेली है
छू के देखा तो महफिलेऱ्यारां
अपनी-अपनी जगह अकेली है
कभी दुश्मन, कभी सहेली है
दिल के सहरा में साथ की कश्ती
डगमगाते हुए धकेली है
कभी दुश्मन, कभी सहेली है
इसको पढ़ना बड़ी तवज्जो से
यही तकदीर की हथेली है
कभी दुश्मन, कभी सहेली है
छिल गईं उंगलियां इसे छू के
तुमसे किसने कहा, चमेली है
कभी दुश्मन, कभी सहेली है
जिंदगी क्या है इक पहेली है
कभी दुश्मन, कभी सहेली है
लेकिन सब तुम पर निर्भर है। जिंदगी न तो दुश्मन है और न जिंदगी सहेली
है। तुम समझो तो सहेली है, तुम न समझो तो दुश्मन है। तुम समझो तो परमात्मा के
सिवाय और कुछ भी नहीं है, और तुम न समझो तो--कच्ची कंध उते
काना ऐ--कच्ची दीवार है और कौवा बैठा है। और तुम समझो तो शाश्वत है, और हंसों की पंक्तियां उड़ी जा रही हैं, परमहंसों की
पंक्तियां उड़ी जा रही हैं। सब तुम्हारे हाथ में है।
हां मैं दीवाना हूं, चाहूं तो मचल सकता हूं
खिल्वतेऱ्हुस्न के कानून बदल सकता हूं
खार तो खार हैं, अंगारों पै चल सकता हूं
मेरे महबूब, मेरे दोस्त, नहीं ये भी नहीं
मेरी बेबाक तबीयत का तकाजा है कुछ और
इसी रफ्तार से दुनिया को गुजर जाने दूं
दिल में घुट-घुट के तमन्नाओं को मर जाने दूं
तेरी जुल्फों को सरे-दोश बिखर जाने दूं
मेरे महबूब, मेरे दोस्त, नहीं ये भी नहीं
मेरी बेबाक तबीयत का तकाजा है कुछ और
एक दिन छीन लूं मैं अज्मते-गाफिल का जुनूं
तोड़ दूं मैं तोड़ दूं मैं शौकते-दुनिया का फुसूं
और बह जाए यहीं नब्जे-जरोसीं का खूं
गैरते-इश्क को मंजूर तमाशा है यही
मेरी फितरत का मेरे दोस्त तकाजा है यही
हां मैं दीवाना हूं, चाहूं तो मचल सकता हूं
खिल्वतेऱ्हुस्न के कानून बदल सकता हूं
खार तो खार हैं, अंगारों पै चल सकता हूं
मेरे महबूब, मेरे दोस्त, नहीं ये भी नहीं
मेरी बेबाक तबीयत का तकाजा है कुछ और
इस छुद्र में ही समाप्त नहीं हो जाना है। विराट को पाना है। समय में
ही समाप्त नहीं हो जाना है। शाश्वत में घर बनाना है।
मेरी बेबाक तबीयत का तकाजा है कुछ और
दूसरा प्रश्न:
भगवान, दत्ताबाल के संबंध
में और थोड़ी जानकारी--
तीन साल पहले मैं मिरज में था तो उन्होंने मिलने
की आकांक्षा प्रकट की। जिस शिष्या के घर ठहरे थे, वहां हमारी मुलाकात हुई। पूरे समय वे इतने बेचैन थे कि पांच मिनट भी वे एक
जगह बैठते नहीं थे। बार-बार उठ कर अपने कमरे के भीतर चले जाते थे। आते तो जिस हॉल
में हम बैठे थे वहां का फर्नीचर इधर-उधर करने को कहते थे।
आखिर वे बोले कि कुछ बातचीत चलने दें। मैंने कहा
कि मैं कुछ बातचीत करने यहां आया नहीं; अगर आपको कुछ पूछना
हो तो पूछिए। नहीं तो हम सब मिल कर दस मिनट मौन में सत्संग करें। इस पर मेरी तरफ
इशारा करते हुए उन्होंने कहा अपने बैठे हुए शिष्यों से, "सीखिए, इनसे कुछ सीखिए।' लेकिन
खुद वहां से उठ कर चले गए। शिष्यों ने कहा कि डायबिटीज के कारण वे ऐसे बेचैन हैं!
फिर आए तो वही बेचैनी--जैसे कि पिंजड़े में बंद
जानवरों की होती है। बैठे तो अपनी प्रिय शिष्या से, जो कि उनके चरित्र की लेखिका भी हैं, कहा कि तेरी
लिखी हुई पुस्तक तो इन्हें भेंट कर। वह शिष्या उठ कर पुस्तक ले आई तो वे पेन
ढूंढ़ने लगे। मेरा पेन मैंने उन्हें दिया तो उसी बेचैनी में उस पुस्तक पर अपने
हस्ताक्षर करके उन्होंने मेरा पेन ही खराब कर दिया--इतने जोर से उन्होंने लकीर
खींची कि पन्ना ही फटने लगा।
उस चरित्र को मैंने गौर से पढ़ा तो पाया कि पूरी
की पूरी किताब उनके दंभ से भरी हुई है। कुछ अतींद्रिय शक्ति के वे दावेदार
हैं--जिन प्रयोगों की वही एक शिष्या मात्र गवाह है। वे मानते हैं कि दूर बैठे वे
केवल इच्छा-शक्ति से चीजों को हिलाते हैं या बादलों से पानी गिराते हैं। बस, इसी तरह के विस्तार से पूरी पुस्तक भरी है।
भगवान, दत्ताबाल तो इतने
भटके हुए भगवान हैं कि उनके बारे में आप कुछ कहते भी हैं तो उनका सम्मान ही होता
है। मेरे देखे तो वे सिर्फ उपेक्षाऱ्योग्य हैं। भगवान, इन
मूढ़ों पर आप क्यों इतनी मेहनत खराब करते हैं?
अजित सरस्वती, मूढ़
हैं, इसलिए ही। भटके हैं, इसलिए ही।
सोए हैं, इसलिए ही। और ये साधारण मूढ़ नहीं हैं, ये ऐसे मूढ़ हैं कि औरों को भी मूढ़ बना रहे हैं। इसलिए इन पर थोड़ी ज्यादा
ही मेहनत करनी पड़ती है। कुछ तो मूढ़ होते हैं खुद ही मूढ़ हैं, बस अपने में ही उनकी मूढ़ता सीमित है। ज्यादा खतरा नहीं। संक्रामक नहीं हैं।
बीमारी फैलाते नहीं हैं। उनकी बीमारी छूत की बीमारी नहीं है। मगर ये उन मूढ़ों में
से हैं जिनकी बीमारी छूत की बीमारी है।
अजित सरस्वती का प्रश्न महत्वपूर्ण है। क्योंकि कई बार अनेक मित्रों
ने यह प्रश्न पूछा है कि आपको क्यों समय खराब करना चाहिए? जाने दो भाड़ में!
कैसे जाने दूं भाड़ में! वह तो जा रहे हैं, मगर औरों को भी ले जा रहे हैं। अकेले भी जाते हों तो मैं भी सोचूं कि ठीक
है, प्रत्येक व्यक्ति की स्वतंत्रता है। किसी को भाड़ में ही
जाना है तो कोई क्या कर सकता है? इतना ही कह सकते हैं कि जाओ
भाई, तुम्हारी इच्छा पूरी हो! मगर ये औरों को भी ले जा रहे
हैं। और जो जा रहे हैं, वे इतने मूढ़ नहीं हैं लेकिन
भोले-भाले हैं। भोले-भाले हैं, इसलिए फंस जाते हैं। उन
भोले-भालों को जगाने के लिए इतनी मेहनत करनी पड़ती है।
यह पूरा प्रश्न महत्वपूर्ण है। दत्ताबाल अजित सरस्वती से मिलने की आकांक्षा
प्रकट करते हैं। और ऐसी शक्तियों के मालिक हैं कि दूर बैठे इच्छा-शक्ति से चीजों
को हिलाते हैं, बादलों से पानी गिराते हैं। अगर ऐसी इच्छा-शक्ति है
तो कम से कम अजित सरस्वती को तो बिना बुलाए खींच लेना था।
इधर मुझसे भी मिलने आने को आकांक्षा की थी, लेकिन एकांत में मिलना चाहते थे। इस तरह के लोग हमेशा एकांत में मिलना
चाहते हैं। क्योंकि डर उनको यह होता है कि औरों के सामने कुछ पूछेंगे तो भद्द
खुलेगी। ढोल के भीतर बड़ी पोल है। ऊपर से बजाओ तो बड़ी आवाज करता है; मगर खोल कर देखो कि कौन आवाज कर रहा है तो सब गड़बड़ हो जाता है। भीतर कुछ
होता ही नहीं।
किसी उपद्रवी ने चंदूलाल के बेटे को--टिल्लू गुरु उनका नाम
है--जन्मदिन पर एक ढोल भेंट कर दिया। और टिल्लू गुरु दिन-रात ढोल ही बजाएं। नींद
हराम कर दी उन्होंने घरवालों की। बीच रात को उठ कर ढोल बजा दें। मोहल्ले वाले
परेशान। चंदूलाल पगलाने लगे। चंदूलाल की पत्नी घबड़ाने लगी, कि करना क्या? और टिल्लू गुरु को मजा आए। और ढोल लिए
घूमें।
चंदूलाल ने मुझसे कहा कि करें क्या अब? मोहल्ले के लोग मारने
को उतारू हैं। और हम भी अब पगलाए जा रहे हैं। और यह दुष्ट कभी रात में नहीं उठता
था, यह बीच-बीच रात में उठ कर ढोल बजा देता है। दिन भर
परेशान, रात सोने भी नहीं देता। तो मैंने कहा, तुम कुछ न करो, यह चक्कू ले जाओ। उन्होंने कहा,
चक्कू से क्या होगा? मैंने कहा, टिल्लू गुरु को दे देना और कहना, जरा खोल कर भी देख
भीतर क्या है? आवाज कौन कर रहा है? उन्होंने
कहा, यह बात जंचती है।
दे दिया चाकू टिल्लू गुरु को। उन्होंने फौरन खोल कर देख लिया। जैसे ही
ढोल खोला कि पोल खुल गई। भीतर तो कुछ नहीं था, मगर ढोल भी गया।
इस तरह के लोग एकांत में मिलना चाहते हैं। आचार्य तुलसी एकांत में
मिलना चाहते हैं। किसी के सामने नहीं। क्यों? क्योंकि एकांत में
पूछते हैं कि ध्यान कैसे करें? सबके सामने कैसे पूछें! सबके
सामने पूछें तो यह सात सौ साधु-साध्वियों का समूह जो उन्होंने इकट्ठा कर रखा है,
वह कहेगा, अरे, गुरुदेव,
आपको ध्यान का पता नहीं अभी तक?
दत्ताबाल एकांत में मिलना चाहते थे। मैंने कहा कि मिल तो सकते हैं, मगर एकांत में नहीं। सबके सामने जो पूछना हो पूछ लेना। फिर नहीं आए।
क्योंकि एक तो सबके सामने आना, तो उसका मतलब यह हुआ कि अभी
कुछ कमी है। नहीं तो आने की क्या जरूरत है? क्या मिलने की
जरूरत है? जब सब पा ही लिया--जैसा कि दावा है उनका--तो अब
किससे मिलना, क्या पूछना है? मुझसे तो
नहीं मिल सके, तो सोचा होगा कि चलो अजित सरस्वती को बुला
लें। शायद इनसे कुछ राज हाथ लग जाए।
बुला तो बैठे, लेकिन बात कैसे शुरू करें? कहें
क्या? इसीलिए उन्होंने कहा कि कुछ बात शुरू करिए। और ठीक
किया अजित सरस्वती ने कहा कि मैं कुछ बात करने आया नहीं। आपने बुलवाया, मैं तो आया भी नहीं। अगर आपको कुछ पूछना हो तो पूछिए। बस, बिलकुल ठीक यही प्रत्येक संन्यासी को स्मरण रखना चाहिए। उनकी बोलती बंद हो
जाएगी। पूछना उन्हें है नहीं--कम से कम सबके सामने तो नहीं पूछना है--तुम्हीं अपने
आप कह जाओ, कुछ ऐसा बन जाए मामला तो ठीक, तो वह सुन लें। पूछें, तब तो बात गड़बड़ हो जाएगी।
और ठीक कहा अजित सरस्वती ने कि अच्छा हो कि हम दस मिनट मौन में सत्संग
करें।
इन बेचारों को कहां मौन का सत्संग! इनको मौन का कहां पता! यह पांच
मिनट एक जगह शांति से नहीं बैठ सकते। और यह बात तो सरासर झूठ है कि शिष्यों ने कहा
कि डायबिटीज के कारण वे ऐसे बेचैन हैं। यह बिलकुल झूठ बात है। क्योंकि मेरे दादा
को डायबिटीज थी, मेरे पिता को डायबिटीज थी, मुझको
डायबिटीज है, मेरे चाचाओं को डायबिटीज है, मेरे भाइयों को डायबिटीज है--वंश-परंपरा से यह ज्ञान चला आ रहा है--मुझे
तो कोई अड़चन नहीं होती है शांति से बैठने में! डायबिटीज है तो रही आए, कोई आत्मा को थोड़े ही डायबिटीज हो जाती है। और बैठना आत्मा को है शांत।
शरीर में डायबिटीज रहे तो डायबिटीज।
और डायबिटीज से शरीर में भी क्या अशांति होगी। अरे, थोड़ी शक्कर होती है। तो इसमें अशांति क्या होनी, थोड़ा
माधुर्य हो जाता है, थोड़ी बूंदी फैल गई, इसमें बिगड़ा क्या? इसमें तुम्हें अशांत होने की क्या
बात है? चींटे-चींटियां अशांत होने लगें, यह तो समझ में आता है। मगर तुम्हें अशांत होने की क्या जरूरत है? और तुम तो साक्षीभाव रखो, शरीर को डायबिटीज होगी!
अरे, शरीर तो मिट्टी है! कच्ची कंध उते काना ऐ। कच्ची दीवार
पर कौवा बैठा भइया, कौवा को डायबिटीज हो गई, हो जाने दो! दीवार में शक्कर है कि रेत, क्या करना
है तुमको!
मगर अजित कहते हैं कि "वे पूरे समय इतने बेचैन थे कि पांच मिनट
भी एक जगह बैठते नहीं थे।'
इसी तरह के बेचैन लोग इस देश को सदियों से चला रहे हैं। खुद बेचैन हैं
और दूसरों को बेचैन कर रहे हैं। उनकी सत्य की खोज और परमात्मा की खोज इत्यादि सब
सिर्फ बेचैनियों के लक्षण हैं, और कुछ भी नहीं।
"बार-बार उठ कर अपने कमरे के भीतर जाते थे।'
क्या जरूरत बार-बार कमरे के भीतर जाने की और आने की?
सोहन, बाबा मुक्तानंद का सत्संग करने गई थी एक दिन। मैंने
पूछा, सोहन, फिर क्या हुआ? उसने कहा कि बड़ा गजब का सत्संग हुआ! बस, दो मिनट
बाबा बैठें और फिर बाबा भीतर गए। फिर बाबा बाहर आए, फिर बाबा
भीतर गए, फिर बाबा बाहर आए, बस यही
होता रहा। भक्तगण खबर दें कि बाबा भीतर गए। देखते रहो बैठे, बाबा
भीतर चले गए। फिर दो मिनट बाद भक्त खबर दें कि बाबा आ रहे हैं। फिर बाबा आ जाएं,
फिर बैठ गए बाबा, फिर खड़े हो गए, फिर भीतर चले गए। जब बहुत इस तरह का सत्संग हो गया तो सोहन ने कहा,
अपन भी अपने घर जाएं! अरे, जब बाबा ही
बाहर-भीतर हो रहे हैं तो हम क्यों बाहर रहें! सत्संग खतम: बाबा बाहर-भीतर होते
रहें।
ये तुम्हारे आबा-बाबा...इसका मतलब ही यह होता है: आए, गए; आबा, बाबा!
मैं एक गांव में सतना के पास मेहमान था। वहां लोग आदर से गांव में जो
बाबा हैं उनको बाबाजू कहते हैं। मैंने कहा, यह और अच्छा शब्द
तुमने खोज लिया, बाबाजू! यानी बाजू, दूसरी
बाजू--बाबाजू। यह भी ठीक है! इस बाजू भी आते-जाते हैं? कहे
कि इसी बाजू रहते हैं ज्यादातर तो। मगर उन लोगों को बड़ी हैरानी हुई जब मैंने उनसे
कहा कि बाबाजू का मतलब तो हुआ कि उस बाजू, इस बाजू, आ रहे, जा रहे, नाव चला रहे।
यह ठीक तुमने देखा। यही हालत है तुम्हारे साधु-संन्यासियों की--बेचैन
हैं, परेशान हैं। अपने हाथ से परेशान हैं। क्यों? क्योंकि शांति का कोई सूत्र तो समझा नहीं। शांति का सूत्र समझने के लिए
किसी के चरणों में बैठना पड़े। वह साहस नहीं, वह समर्पण नहीं।
मौन होने के लिए कोई कला सीखनी पड़े। उस सीखने के लिए झुकना पड़े। झुकना तो केवल कुछ
दुस्साहसी लोगों के हिम्मत की बात है, सबकी बात नहीं। अकड़े
हुए लोग, अहंकारी लोग, दंभी लोग,
ये तो बिना जाने दावा करने लगते हैं जानने का। तब फिर यह अड़चन खड़ी
होती है। अब वे कैसे बैठें शांति से? दस मिनट इतने लंबे
मालूम पड़ेंगे जिसका हिसाब नहीं!
एक गांव में सत्संग हो रहा था। बहुत शोरगुल मच रहा था। तो जो बाबाजू
सत्संग करवाने आए थे, उन्होंने कहा कि भाइयो एवं बहनो, अरे शांति ऐसी होनी चाहिए कि सुई भी गिरे तो आवाज सुनाई पड़े। सब शांत हो
जाओ! सब शांत हो गए। एक मिनट शांति रही, उन्हीं बाबाजू के
शिष्य ने पूछा, गुरुदेव, अब तो सुई
गिराइए! अरे, बहुत देर हुई जा रही है, अब
तो सुई गिराइए!
ये तुम्हारे सब तथाकथित आध्यात्मिक व्यक्ति, काश तुम इनकी थोड़ी जांच-परख करो, तो जरूर हैरानी में
पड़ोगे। अजित सरस्वती ने वह किताब भी कल मुझे भेज दी है जिस पर उन्होंने दस्तखत किए
हैं। सच में ही सुमेरु पर्वत पर जैसे दस्तखत किए जाते हैं वैसे ही दस्तखत किए हैं।
फाड़ ही डाला पन्ना! और उनकी कलम भी खराब कर दी।
"पूरे समय बेचैन, एक जगह
बैठते नहीं। बार-बार उठ कर कमरे के बाहर-भीतर आते-जाते और जिस हॉल में बैठे थे
वहां का फर्नीचर इधर-उधर करने को कहते थे। आखिर वे बोले कि कुछ बातचीत चलने दें।
मैंने कहा, मैं कुछ बातचीत करने यहां आया नहीं; अगर आपको कुछ पूछना हो तो पूछिए। नहीं तो हम सब मिल कर दस मिनट मौन में सत्संग
करें। इस पर मेरी तरफ इशारा करते हुए उन्होंने वहां बैठे अपने शिष्यों से कहा,
सीखिए, इनसे कुछ सीखिए।'
उनको तो सीखना नहीं, वे तो सीख चुके, शिष्यों से कहा, सीखिए। तो ये क्या करते रहे हैं
शिष्यों को अब तक? उनको क्या सिखाया? यही
आना-जाना सिखाया? फर्नीचर जमाना सिखाया?
"लेकिन खुद वहां से उठ कर चले गए।'
दस मिनट बैठना तो उन्हें मुश्किल हो जाता। दस मिनट बैठना तो असंभव हो
जाता।
"शिष्यों ने कहा कि डायबिटीज के कारण वे ऐसे बेचैन
हैं!'
शिष्य बेचारे एक से एक तर्क खोजते रहते हैं गुरुओं को बचाने का। क्या
तर्क खोजा! डायबिटीज से क्या बेचैनी का संबंध है? डायबिटीज से तो और
माधुर्य फैल जाता। इसलिए लोग मुझ से पूछते हैं कि आपकी बातों में इतना माधुर्य
क्यों है? आज राज बताए देता हूं: डायबिटीज! इसमें मेरा कोई
हाथ नहीं है, मेरा कोई कसूर नहीं है। और जब डायबिटीज होगी तो
शब्दों में माधुर्य होगा ही! और मैं तो तुमसे कहूंगा कि सभी डायबिटीज कर लो,
क्योंकि बाहर तो शक्कर नदारद हुई जा रही है, अब
तो भीतर ही शक्कर होनी चाहिए। अब प्रसाद बाहर वगैरह का ज्यादा नहीं बंटेगा।
सुभाष सरस्वती ने लिखा है कि भगवान, सुना था कि गुरुकृपा
से सब कुछ हो जाता है। अरे, आपने क्या जवाब दिया, तत्क्षण सब कुछ हो गया...।
उन्होंने प्रश्न पूछा था कि डोंगरे महाराज के प्रवचन के बाद लस्सी और
बूंदी प्रसाद में बंटते हैं। सो मैंने बताया कि लस्सी से बल बढ़ता है--शक्ति। और
शक्ति से आती भक्ति। और भक्ति से ध्यान में थिरता। और ध्यान में मिठास, सो फिर बूंदी बंटती। बुंद में समुंद समाना। और सुभाष बेचारे उदास खड़े रहते
थे गर्दन लटकाए, क्योंकि उनकी पत्नी गई हुई हैं राजकोट। और
पुराने ढब के संन्यासी हैं, सो वह पत्नी की राह देखते रहते
हैं। ऐसी गर्दन तिरछी किए, राजकोट की तरफ सिर झुकाए।
सो उन्होंने लिखा है कि आपने गजब कर दिया, आपने उत्तर क्या दिया, उसी दिन कृष्णा और अद्वैत
बोधिसत्व ने बुला कर लस्सी पिलाई, बूंदी खिलाई। अब भगवान कुछ
ऐसा करो कि रसमलाई भी हो जाए!
होगी भाई, जरूर होगी! अभी मैंने सोहन का नाम लिया न, यह बड़ी सत्संगी है! और रसमलाई की जानकार! बस, तुम
वहीं खड़े रहना बाहर और जैसे ही सोहन वहां से निकले, एकदम गिर
पड़ना चरणों में कि जय हो माई! आज ही रसमलाई! करांची वाला की रसमलाई! और जब भी
तुम्हें रसमलाई चाहिए हो, सोहन के पैर पकड़ लेना: जय हो माई!
वह समझ जाएगी, कि रसमलाई। ये तो छोटी-सी बातें हैं। तुम आज
ही करके देखो!
और लिखा है उन्होंने कि आपने गजब की बात कही। जब से लस्सी पी है, गर्दन सीधी हो गई। शक्ति भी आ रही है। और बूंदी जब से खाई है, बड़े ऊंचे-ऊंचे खयाल आ रहे हैं।
वह तो तुम सम्हालना अब, क्योंकि गर्दन अगर
ऊंची हो गई तो खतरा है। क्योंकि तुम शक्ति और भक्ति से कुछ और मत समझ लेना। शक्ति
मेरी एक संन्यासिनी है और भक्ति भी मेरी एक संन्यासिनी है। अब जरा सम्हल कर रहना,
गर्दन ऊंची हुई कि शक्ति आएगी, पीछे से भक्ति
आएगी। और तुम्हारी पत्नी गई है राजकोट। कच्ची कंध उते काना ऐ। कच्ची दीवार पर कौवा
बैठा। मिलणा तां रब नूं है, तेरा पिआर बहाना है। खयाल रखना
कि तुम्हारा रब तो राजकोट गया और ये भक्ति-शक्ति आएं तो घबड़ाना मत! तुम तो साफ कह
देना: कच्ची कंध उते काना ऐ। अरे, यह तो कच्ची दीवार है,
कौवा बैठा है, हम तो रसमलाई खाएंगे! हमें न
भक्ति चाहिए, न शक्ति चाहिए। और गर्दन सीधी करना ही मत! सीधी
गर्दन में बड़े खतरे हैं। वह तो तुम राजकोट की तरफ ही झुकाए रखो।
"अब उन्होंने शिष्यों से कहा, सीखिए, इनसे कुछ सीखिए। लेकिन खुद वहां से उठ कर चले
गए। शिष्यों ने कहा कि डायबिटीज के कारण वे ऐसे बेचैन हैं!'
डायबिटीज से क्या बेचैनी का संबंध है! अरे, डायबिटीज तो यूं समझो कि रसमलाई फैल गई। इसीलिए तो मुझे कोई रसमलाई वगैरह
लेने की जरूरत ही नहीं पड़ती। आज कोई पंद्रह वर्ष हो गए, बस
आखिरी रसमलाई सोहन ने खिलाई थी, उसके बाद नहीं खाई।
"फिर आए तो वही बेचैनी--जैसे कि पिंजड़े में बंद
जानवरों की होती है।'
हैं ही पिंजड़े में बंद जानवर। वे खुद ही कहते हैं अपने को कि मैं
छत्रपति शिवाजी की इस भूमि में पैदा हुआ सिंह हूं। सिंह हो तो पिंजड़े में बंद
होओगे। अब आजकल सिंह कोई ऐसे इधर-उधर तो घूमते-फिरते मिलते नहीं, सर्कस में ही होते हैं। सर्कसी सिंह। और सर्कस में कोई भी सिंह रहे,
वह कितना ही सिंह हो, हालत तो उसकी रास्तों पर
घूमते कुत्तों से भी बदतर हो जाती है। क्योंकि कम से कम कुत्ता स्वतंत्र तो है।
अब वे बेचैन हो रहे हैं! बेचैनी का कारण यह है: आकांक्षा थी बड़ी, महत्वाकांक्षा थी बड़ी--प्रसिद्धि मिले, यश मिले,
जगत में ख्याति मिले, झंडा फहरा दूं हिंदू
धर्म का दुनिया में। वह कोल्हापुर में ही नहीं फहरा पा रहे हैं झंडा! कोल्हापुर
में ही कोई नहीं सुनता। कौन सुने! आखिर कुछ कोई एकाध बुद्धू बन जाए तो बन जाए।
इसलिए वह तुमने जो लिखा अजित कि वही देवी एक जिन्होंने उनका जीवन लिखा, वही उनकी शिष्या है, उसके ही अनुभव में ये सब
चमत्कार हुए हैं...।
अब ये चमत्कार सब ऐसे हैं कि जिसका कोई हिसाब नहीं! कि चमत्कार से
पानी गिरा देते हैं! अगर चमत्कार से पानी गिरा सकते हो, तो इस देश की गरीबी मिटा दो। जहां पानी गिराना है वहां पानी नहीं गिरता इस
देश में। जहां पानी नहीं गिराना है वहां पानी गिरता है। जहां पानी की जरूरत है
वहां अकाल, दुष्काल, सूखा; और जहां पानी की जरूरत नहीं, वहां बाढ़। तो दत्ताबाल
की तो बड़ी जरूरत है। यह तो चमत्कार कर दें! कुछ दिखाओ करके!
"और इच्छा-शक्ति से चीजों को हिलाते हैं।'
पहले कम से कम शरीर को तो ठहराओ!
परसों ही एक संन्यासिनी ने पत्र लिखा था कि उनका व्याख्यान हो रहा था, सोफा पर बैठे थे, डोलते थे, सोफा
पर भी ठीक नहीं बैठ सकते थे। बाएं-दाएं डोल रहे थे। वह खुद ही नहीं डोल रहे थे,
उनके पाजामा के दो फुंदे भी लटके थे नीचे, वे
भी डोल रहे थे। सो उसने लिखा है कि तभी मुझे हंसी आ रही थी बड़ी कि पाजामा के फुंदे
क्यों डोल रहे हैं?
अरे, डायबिटीज! पाजामा के फुंदों में भी आ गई होगी! सत्संग
खराब चीज है! अब ऐसे आदमियों के सत्संग में पाजामा रहेगा तो बिगड़ेगा! वह पाजामा,
कम से कम इच्छा-शक्ति से पाजामा के फुंदे तो ठहरा दो! फिर कुछ और
ठहराना!
मगर नहीं, इस देश में इस तरह की मूढ़ताओं की बातों का खूब समादर
होता है। अब वे अपना पेन ढूंढ़ने लगे, वही न मिले। इनको क्या
खाक आत्मा मिली होगी! और इच्छा-शक्ति से ये दूसरों तक को ठीक कर दें और अपना पेन
नहीं खोज पा रहे हैं! अरे, इच्छा-शक्ति से इतना तो करना था
कम से कम कि अजित का पेन सरक कर उनकी जेब में पहुंच जाता। इतना ही करके दिखा देते!
वह भी अजित को देना पड़ा।
और दस्तखत जो उन्होंने किए हैं, वह सिर्फ पागल के ही
मालूम होते हैं। ऐसा घसीटा है कि कहीं मिट न जाएं, कि कहीं
कोई मिटा न दे, फाड़ डाला पन्ने को! लोग दस्तखत भी करते हैं
तो उसमें भी दंभ होता है।
अमरीका में तो एक अभिनेत्री शादी कर रही थी। जैसे ही रजिस्टर पर दोनों
ने दस्तखत किए पति और पत्नी ने, उस अभिनेत्री ने मजिस्ट्रेट को
कहा कि मुझे शादी नहीं करनी है, तलाक चाहिए, इसी वक्त तलाक चाहिए। मजिस्ट्रेट ने कहा, तू पागल है?
अभी दस्तखत ही हुए हैं, अभी स्याही भी नहीं
सूखी और तुझे तलाक चाहिए! उसने कहा, इसी वक्त! तलाक का फार्म
कहां है? पर मजिस्ट्रेट ने पूछा, कारण
तो मेरी समझ में आए। तुममें बात भी नहीं हुई, दोनों चुप ही
हो अभी, दस्तखत ही पूरे हुए हैं! उसने कहा, बात समझने की जरूरत नहीं, जरा दस्तखत देखो! इस आदमी
ने इतने जोर से दस्तखत किए हैं गड़ा-गड़ा कर और इतने बड़े-बड़े अक्षरों में किए हैं कि
यह मुझे सताएगा! यह मुझे परेशान करेगा! यह मुझे नहीं चाहिए--यह आदमी चाहिए ही नहीं
मुझे! अरे, पूत के लक्षण पालने में! इस कमबख्त ने दस्तखत तो
देखो कैसे किए हैं? आधा पेज रजिस्टर का दस्तखत से भर दिया।
यह इसकी अकड़ का सबूत है।
आदमी के छोटे-छोटे कृत्य में भी सबूत तो होते हैं। छोटी-छोटी बात में
भी लक्षण तो होते हैं। वह भीतर की बेचैनी दस्तखत तक में उतर आई है।
अब तुम पूछते हो कि "मैंने उनकी किताब पढ़ी, वह दंभ से भरी हुई है।' होगी ही। और तुम पूछते हो,
"दत्ताबाल तो इतने भटके हुए भगवान हैं कि उनके बारे में आप कुछ
भी कहते हैं तो उनका सम्मान ही होता है। मेरे देखे तो वे सिर्फ उपेक्षाऱ्योग्य
हैं।'
नहीं अजित, उपेक्षाऱ्योग्य कोई भी नहीं। भगवान कितना ही भटका हो,
है तो भगवान ही। नाली में पड़ा हो, गटर में सड़
रहा हो, तो भी उसको निकालना पड़ेगा, तो
भी उसे बचाना पड़ेगा। तो जो भी बन सके, वह करना जरूरी है। वह
प्रेम का लक्षण है। मैं अपने प्रेम के कारण ही बोलता हूं!
आज इतना ही।
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