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शनिवार, 6 मई 2017

लगन महुरत झूठ सब-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-05

लगन महुरत झूठ सब-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो
पांचवां प्रवचन- (मेरे संन्यासी तो मेरे हिस्से हैं)

दिनांक 25 नवम्बर, 1980,श्री ओशो आश्रम पूना।
पहला प्रश्न:
भगवान, संस्कृत में एक सुभाषित है कि यदि शील अर्थात शुद्ध चरित्र न हो तो मनुष्य के सत्य, तप, जप, ज्ञान, सर्व विद्या और कला, सब निष्फल होते हैं।
सत्यं तपो जपो ज्ञान
      सर्वा विद्याः कला अपि।
नरस्य निष्फलाः सन्ति
      यस्य शील न विद्यते।।
भगवान, निवेदन है कि इस सूक्ति पर कुछ कहें।

आनंद किरण, सुभाषित शब्द तो बहुत प्यारा है। संभवतः दुनिया की किसी और भाषा में वैसा शब्द नहीं। उस शब्द से बहुत-सी बातों की ध्वनि उठती है--खिले हुए फूलों की, बजती हुई बांसुरी की, अमृत के स्वाद की, मिठास की।

जीवन में यूं तो जहर है--लेकिन जो न पहचाने, न जाने, उसके लिए। जो पहचान ले, जान ले, जीवन ही अमृत भी हो जाता है। नासमझ तो घर को खाद से भर ले सकता है, और तब दुर्गंध ही दुर्गंध हो जाएगी। समझदार खाद को घर में नहीं भरता, बगिया में फैलाता है। उसी खाद से फूलों की सुगंध उठती है। शब्द ही गालियां बन जाते हैं और शब्द ही सुभाषित।
सुभाषित हमने उन सूक्तियों को कहा है, जो बुद्धों ने कहीं, जाग्रत पुरुषों ने कहीं, जिनके शब्दों में शून्य की झंकार है। वे शून्य में ही मीठे नहीं, सुभाष ही नहीं, जीने में और भी मीठे हैं। इशारे हैं उनमें, इंगित हैं, दूर चांद की तरफ उठी हुई अंगुलियां हैं। जैसे फूल खिलता है--सुबह-सुबह कमल का खिला फूल; कीचड़ से निकलता है। कीचड़ को देख कर किसे भरोसा आए कि इससे कमल भी पैदा हो सकता है! कमल शब्द का ही अर्थ है कीचड़ से पैदा हुआ, मल से पैदा हुआ।
कमल के लिए संस्कृत शब्द है: पंकज। पंक का अर्थ होता है: कीचड़; ज का अर्थ होता है: जन्मा; कीचड़ से जन्मा। संस्कृत की कुछ खूबियां हैं! क्योंकि जिन लोगों ने उसे रचा, बुना, उसे रूप दिया, रंग दिया, उनमें बहुतों के हाथ बुद्धों के हाथ थे। बांसुरी किसके हाथ में पड़ जाएगी, इस पर सब निर्भर है। बांसुरी तो पोली है, कौन गाएगा गीत! बुद्धों ने शब्दों को छूकर भी समाधि का रूप दे दिया।
कमल कीचड़ से खिलता है। कीचड़ से ही उठता है, कीचड़ से ही जन्मता है। कीचड़ में ही छिपा था। न तो कीचड़ को देख कर कोई कह सकता है कि कमल इसमें छिपा होगा और न कमल को देख कर कोई कह सकता है कि यह कीचड़ से पैदा हुआ होगा। मगर कमल और कीचड़ के बीच सारे जीवन की कथा है। पैदा तो हर एक व्यक्ति कीचड़ की तरह होता है, लेकिन संभावना लाता है कमल होने की।
फिर, कमल झील पर तैरता है--फिर भी झील का जल उसे छू नहीं पाता। झील में होकर भी झील में नहीं। झील में तो होता है, लेकिन अछूता। झील में तो होता है, अस्पर्शित। कमल तो झील में होता है, लेकिन झील कमल में नहीं हो पाती। यही संन्यासी की जीवनचर्या है।
और सुभाषित भी ऐसे ही हैं। शब्दों में हैं, लेकिन शब्दों में मत पकड़ना, नहीं तो चूक जाओगे। शब्दों से बहुत ज्यादा उनमें भरा है। शब्द को ही पकड़ा तो कुछ पकड़ में न आएगा। खोल ही हाथ लगेगी, भीतर का सार चूक जाएगा। खोल को तो अलग कर दो, शब्दों को तो हटा दो। शब्दों के जाल में मत उलझ जाना। उसी जाल में उलझे हुए लोगों का नाम पंडित है। शब्दों के भीतर झांको, उनमें मौन को सुनो, सन्नाटे को अनुभव करो। शब्द अगर विचारे तो दर्शन का जंगल है फिर। जिसका कोई अंत नहीं। झाड़ियों पर झाड़ियां। और रोज घनी होती जाती हैं। और उलझाव बढ़ता जाता है। शब्दों पर ध्यान करो!
सुभाषित ध्यान करने के लिए हैं। उनको पीओ! चुप, मौन, उनको भीतर उतरने दो। उन्हें मांस-मज्जा-हड्डी-खून बनने दो। वे तुम्हारे भीतर रसधार की तरह बहने लगें। यह एक अलग ही प्रक्रिया है। विचारना बुद्धि की बात है; पी जाना, पचा लेना अस्तित्वगत है, बौद्धिक नहीं। और तब ये छोटे-छोटे वचन--ये छोटे-छोटे फूल--इतना छिपाए हुए हैं। एक-एक सुभाषित में एक-एक वेद छिपा है।
सत्यं तपो जपो ज्ञान
      सर्वा विद्याः कला अपि।
नरस्य निष्फलाः सन्ति
      यस्य शील न विद्यते।।
"जहां शील न हो वहां तप, सत्य, जप, ज्ञान, विद्या, कला, सब व्यर्थ हैं।'
यह शील क्या है? आनंद किरण, तुमने जहां से भी अनुवाद लिया, वहीं भूल है। अनुवाद में ही भूल आ गई, पांडित्य आ गया। जिसने भी किया हो यह अनुवाद, चूक गया। निशाना ठीक जगह नहीं लगा। अनुवाद करने वाले लोग शब्दों का अनुवाद करते हैं। काश, ये सुभाषित सिर्फ शब्द ही होते तब तो इनका अनुवाद बड़ा आसान था। इनका अनुवाद तो केवल ध्यानी ही कर सकते हैं, समाधिस्थ ही कर सकते हैं।
अनुवाद तुमने जो दिया है: "शील अर्थात शुद्ध चरित्र।'
यह जो अर्थात आ गया और शुद्ध चरित्र आ गया, फिर सब भ्रांति हो गई; फिर सब गड़बड़ हो गया; फिर तुमने गुड़ गोबर कर दिया; फिर कमल कीचड़ हो गया। कहां शील और कहां चरित्र! जमीन-आसमान का फर्क है। उस भेद को ही समझो तो सुभाषित का अर्थ प्रकट होने लगेगा।
चरित्र होता है ऊपर से आरोपित। दूसरे सिखाते हैं तुम्हें जो, वह चरित्र। और जो तुम्हारे अंतर से आविर्भूत होता है, वह शील। शील का अर्थ है: ध्यान से खुली हो आंख, फिर तुम्हारा जो हलन-चलन है, गति है, तुम्हारे जीवन की जो विधि है, शैली है, वह शील।
खुद की तो आंख बंद है, खुद तो अंधे हो, किसी ने लाठी पकड़ा दी, किसी ने दिशा बता दी, किसी ने कहा यूं जाना, यूं जाना, बाएं मुड़ जाना, दाएं मुड़ जाना--और तुम चल पड़े हो। तुम्हें पक्का नहीं तुम क्या कर रहे हो, तुम्हें यह भी पक्का नहीं कि तुम ठीक चल रहे हो कि नहीं चल रहे हो, तुम्हें यह भी पक्का नहीं कि जिसका तुमने मार्ग-निर्देश लिया है वह भी अंधा था या आंख वाला था; कहीं ऐसा तो नहीं कि उसने भी किसी और से निर्देश लिया हो! यूं सदियों-सदियों निर्देश चलते रहते हैं।
नानक ने कहा है: अंधा अंधा ठेलिया, दोनों कूप पड़ंत।
अंधे अंधों को धक्के दे रहे हैं, अंधे अंधों को चला रहे हैं, और दोनों कुएं में गिर रहे हैं। अंधों की अपनी दुनिया है। अंधे अनुकरण ही कर सकते हैं। चरित्र है: अनुकरण।
मुल्ला नसरुद्दीन गया था ईद की नमाज पढ़ने ईदगाह। जब नमाज करने को झुका तो उसके कुर्ते का एक छोर पाजामे में अटका रह गया पीछे। उसके पीछे के आदमी ने देखा, शोभा योग्य नहीं था, तो उसने झटका देकर कमीज को पाजामे से छुटकारा दिला दिया। वह जो पाजामे में अटक गया था छोर, उसको मुक्त कर दिया। मुल्ला नसरुद्दीन ने सोचा, होगा जरूर इसमें कोई राज! नहीं तो क्यों पीछे वाला आदमी झटका देता! होगा इसमें कोई रिवाज! सो उसने आगे वाले आदमी के कमीज को पकड़ कर झटका दिया। आगे वाले आदमी ने भी सोचा कि शायद नमाज का यह हिस्सा है, सो उसने आगे वाले आदमी की कमीज को पकड़ कर झटका दिया। आगे वाला आदमी चौंका, उसने कहा कि क्यों मेरे कमीज को झटका दे रहे हो? उसने कहा कि मुझसे न पूछो, पीछे वाले से पूछो। पीछे वाले से पूछा; उसने कहा, मुझसे न पूछो, यह मुल्ला नसरुद्दीन, जो मेरे पीछे बैठा है! मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, मुझे तो बीच में डालो ही मत! मेरे जो पीछे बैठा है! इसी कमबख्त ने मेरे कमीज को झटका दिया। फिर यह सोच कर कि नमाज तो व्यवस्था से करनी चाहिए, मैंने भी झटका दिया। मेरा इसमें कोई हाथ नहीं।
और सदियों-सदियों से ऐसा तुम कर रहे हो। इस करने का नाम चरित्र है। चरित्र है: अनुकरण। न बोध है, न बुद्धि है; न सोचा है, न समझा है, न ध्याया है; और कर रहे हैं तो तुम भी कर रहे हो। किसी एक घर में पैदा हुए हो, वहां एक चरित्र की व्यवस्था थी, तो तुम भी पूरा कर रहे हो। नहीं कर पाते हो तो अपराध अनुभव होता है और करते हो तो जीवन में कोई फूल नहीं खिलते।
चरित्र की यह दुविधा है--और यही उसकी पहचान भी। पूरा करो, तो जीवन उदास-उदास। न पूरा करो, तो ग्लानि, आत्म-ग्लानि। हर हाल में मुसीबत! पूरा करो तो मुसीबत। तुम्हारे संतों को देखो, महात्माओं को देखो! उदास। न मुस्कुराहट है जीवन में, न हंसी की फुलझड़ियां हैं, न आनंद का उत्सव है, न दीए जलते हैं, न रंग है, न गुलाल है, न होली, न दीवाली। मरुस्थल की तरह रूखे-सूखे लोग, उनको देख कर किसी को भी विरक्ति पैदा हो जीवन से, उनको देख कर जीवन व्यर्थ मालूम पड़ने लगे, इसमें कुछ आश्चर्य नहीं। और यही उनका उपदेश, और उनका जीवन उनके उपदेश का प्रमाण कि जीवन व्यर्थ है।
और मैं तुमसे कहता हूं: जीवन व्यर्थ नहीं है। क्योंकि जीवन में ही छिपा है सत्य, और जीवन में ही छिपा है मोक्ष, और जीवन में ही छिपा है परमात्मा। जीवन में छिपा है सारा साम्राज्य शाश्वत का, सनातन का। एस धम्मो सनंतनो। यही जीवन तो सनातन धर्म है। और यह जीवन कितने रंगों में, कितने रूपों में प्रकट हो रहा है!
मगर, अगर तुम किसी की बात मान कर चलते रहे, मान कर ही चलते रहे, तो तुम्हारा कभी इस जीवन से संबंध न जुड़ पाएगा। तुम टूटे-टूटे रह जाओगे, तुम उदास हो जाओगे। अनुकरण का अर्थ है: थोथा हो जाना, नकली हो जाना; झूठा सिक्का, पाखंड। चरित्र तो पाखंड होता है। इसीलिए मैं कहता हूं: संन्यासी का कोई चरित्र नहीं होता। शील तो होता है, लेकिन चरित्र नहीं होता।
चरित्र है बाह्य व्यवस्था। इसलिए हिंदू का चरित्र अलग होता है, मुसलमान का अलग होता है, जैन का अलग होता है, बौद्ध का अलग होता है, सिक्ख का अलग होता है, पारसी का अलग होता है। लेकिन शील तो अलग-अलग नहीं होते। बुद्ध का भी वही, कृष्ण का भी वही, महावीर का भी वही, लाओत्सू का भी वही, जरथुस्त्र का भी वही। शील तो अलग-अलग नहीं हो सकते। लेकिन आचरण तो अनंत प्रकार के हो सकते हैं।
दुनिया में ऐसी कोई चीज नहीं है जो कहीं किसी देश में, किसी जाति में, किसी काल में आदृत न रही हो। और ऐसी भी कोई चीज नहीं है जो किसी देश में, किसी जाति में, किसी काल में अनादृत न रही हो। पृथ्वी पर हजारों तरह के कबीले हैं। जो तुम सोच भी नहीं सकते, उसे करने वाले लोग भी हैं। और जो तुम कर रहे हो, उस पर हंसने वाले लोग भी हैं। चरित्र के साथ यह दुविधा रहेगी।
एक ईसाई मिशनरी को अफ्रीका के जंगलों में आदमखोर लोगों ने पकड़ लिया। ईसाई मिशनरी ने समझाने की कोशिश की कि तुम यह क्या कर रहे हो, आदमी को मार रहे हो, मुझे मार रहे हो! मुझे बचने की उतनी फिकर नहीं, मगर तुम यह कर क्या रहे हो! क्या आदमी को खाना उचित है? वे आदमखोर बोले--दूसरे महायुद्ध के जमाने की बात है--कि तुम और हमें सिखाते हो! लाखों लोग मारे जा रहे हैं, खबरें हम तक भी आती हैं, हम तुमसे यह पूछते हैं, इतने आदमियों को मारते हो तो करते क्या हो? अरे, खाने के लिए कोई मारे तो समझ में आता है। न खाना है न पीना है, सिर्फ मारना है! यह बात निपट मूर्खतापूर्ण है। हम तो मारते हैं तभी जब खाना होता है। और तुम तो खाना भी नहीं होता और मारे चले जाते हो! और एक-दो नहीं, लाखों को मारते हो। और हमने तो सुन रखा है कि यही तुम्हारा इतिहास है। और हमको तुम कहते हो, अमानवीय! और तुम मनुष्य हो!
बात तो बड़ी सोचने जैसी है। तीन हजार साल में आदमी ने पांच हजार युद्ध लड़े हैं। अरबों लोगों को काटा है! और ये काटने वाले लोग सोचते हैं कि आदमखोर जो हैं, आदमियों को खाने वाले जो लोग हैं, ये पशु से भी गए-बीते हैं। और ये अरबों को मारने वाले लोग, ये ईसाई हैं, मुसलमान हैं, हिंदू हैं, जैन हैं, बौद्ध हैं--ये धार्मिक लोग हैं।
महाभारत के युद्ध का अगर हम शास्त्रीय विवरण स्वीकार करें, जो कि करने योग्य नहीं है, तो अंदाजन सवा अरब आदमी महाभारत के युद्ध में मरे। सवा अरब आदमी! अभी भी पृथ्वी की कुल आबादी चार अरब है। सवा अरब आदमी उस युद्ध में मरे! और मारने वाले लोग धर्म के नाम पर मार रहे थे। धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे! वह जो कुरुक्षेत्र था, वह धर्म का क्षेत्र था। धर्म की रक्षा के लिए मार-काट की जा रही थी। अरे, किसी और चीज के लिए मार-काट करो तो समझ में भी आ जाए, धर्म की रक्षा के लिए मार-काट! मार-काट से धर्म की रक्षा होगी! अधर्म से धर्म की रक्षा होगी!
ठीक कहा उस आदमखोर ने कि हम तो कभी-कभी खाते हैं, और हम तभी किसी को मारते हैं जब भूखे होते हैं, यूं हम नहीं मारते तुम्हारे जैसे! तुम हो पशुओं से गए-बीते! मिशनरी तो बहुत हैरान हुआ इस तर्क से। बात में तो बल था। फिर भी अपनी जान तो बचाने के लिए उसे कोशिश और भी करनी जरूरी थी। उसने कहा कि तुमको धर्म का कोई भी स्वाद नहीं। उन्होंने कहा, है जी! पहले भी हम दो मिशनरी खा चुके हैं! कोई तुम नए थोड़े ही हो। हम तो मिशनरियों की प्रतीक्षा ही करते हैं। हमें और धर्म का स्वाद नहीं! तुम्हें नहीं है। तुमने कभी मिशनरी खाया? पादरी-पुरोहित-पंडित तुमने कभी खाया? साधु? अरे, हम सबको पचाए हैं। अनुभव से कहते हैं, सबका स्वाद लिया है। और तुम हमसे पूछ रहे हो कि धर्म का स्वाद है या नहीं!
आचरण तो अजीब-अजीब तरह के होंगे।
अफ्रीका का एक कबीला चींटे और चींटियों का भोजन करता है। एकदम चींटे-चींटियां इकट्ठा करता रहता है। छोटे-छोटे बच्चे चींटा दिखा कि गप्प कर जाते हैं। और तुम्हारी तो सब्जी में भी चींटी दिख जाए, चींटा मिल जाए मरा हुआ, तो सब्जी भी खाई न जाए तुमसे! और वे इसको स्वादिष्ट मानते हैं। चींटे-चींटियों को इकट्ठा करते हैं, सुखा कर रखते हैं। मौके-बेमौके मेहमान आ जाए--तो चींटे-चींटियों का नाश्ता।
चीन में लोग सांप को खाते हैं। सांप की सब्जी बहुत बहुमूल्य सब्जी समझी जाती है। और साधारण आदमी ही नहीं खाते, बौद्ध भिक्षु भी खाते हैं।
प्रसिद्ध बौद्ध भिक्षु लिंची के संबंध में यह उल्लेख है कि कोई मेहमान आया हुआ था--प्रतिष्ठित; वजीर था, बड़े ओहदे पर था, धनपति था--उसके स्वागत में लिंची ने अपने पूरे आश्रम को भोजन दिया था। पांच सौ भिक्षु उसके साथ भोजन करने बैठे। लिंची के पास ही वजीर बैठा था। और जब रसोइयों ने आकर भोजन परोसा और प्रधान रसोइए ने आकर वजीर की और लिंची की थाली में सब्जी परोसी, तो लिंची थोड़ा हैरान हुआ। उसने कुछ उठा कर दिखाया रसोइए को--यह क्या है? सांप का मुंह था। मुंह नहीं डाला जाता, मुंह काट कर फेंक दिया जाता है, क्योंकि मुंह में जहर की ग्रंथि होती है। सब्जी बाकी शरीर की बनती है, मुंह को छोड़ कर। लेकिन यह कहानी झेन शास्त्रों में बहुत आदर से उल्लिखित है। आदर का कारण है।
जब उसने मुंह उठा कर दिखाया तो उस रसोइए ने क्या किया! वह भी भिक्षु था, आश्रम का रसोइया था। उसने झट से मुंह हाथ में लिया, अपने मुंह में डाल दिया और कहा: धन्यवाद! गुरु तो बहुत प्रसन्न हुआ। न जरा झिझका, न जरा परेशान हुआ, सांप के मुंह को भी अपने मुंह में डाल दिया। बात को यूं पचा गया। किसी की समझ में ही नहीं आया कि क्या हुआ। लोग यही समझे कि कोई मीठी चीज, कोई स्वादिष्ट भोजन प्रसाद रूप में भिक्षु को मिला है।
लेकिन सांप की सब्जी खाई जाती थी। अब भी खाई जाती है। अभी कल के अखबार में खबर थी कि एक आदमी रोज ही एक सांप खाता है चीन में। जिस दिन सांप नहीं मिलता, उस दिन उसकी तबीयत ढीली हो जाती है, सुस्त हो जाता है। सांप चाहिए ही चाहिए। पौष्टिक आहार है। उसके बिना वह नहीं जी सकता।
दुनिया में कहीं भी कोई सांप को खाने का खयाल न करे! मगर बिच्छू को खाने वाले लोग भी हैं। और जो जिस घर में पैदा हुआ है, जिस परिवार में, जिस संस्कार में, उसको ही पकड़ लेता है। और तो कुछ पकड़ने को होता भी नहीं। मां-बाप सिखा देते हैं; शिक्षक, गुरु, पंडित-पुरोहित, सब सिखा देते हैं; वह वैसा ही आचरण करना शुरू कर देता है।
इस आचरण का नाम शील नहीं है। यह तो बिलकुल थोथी बात है। यह तो ऊपर से पहनाए गए वस्त्रों जैसी है। यह तो मुखौटा है। जैसे किसी ने चेहरे को रंग दिया हो, सुंदर बना दिया हो। यह तो पानी पड़ जाए एक तो बह जाए। बूंदा-बांदी हो जाए तो सब राज खुल जाए।
इसलिए, आनंद किरण, शील का अर्थ शुद्ध चरित्र न करो। और तुम्हारा मन--या जिसने भी यह अनुवाद किया हो--सिर्फ चरित्र से ही न माना, उसमें शुद्ध और जोड़ दिया। चरित्र काफी नहीं, शुद्ध भी होना चाहिए। प्रेम काफी नहीं, शुद्ध प्रेम। दूध काफी नहीं, शुद्ध दूध। मिलावटी दिमाग हो गया हमारा। हर चीज में मिलावट है। आजकल तो प्रेमी भी प्रेयसियों से कहते हैं कि बिलकुल खालिस प्रेम है, सौ टका। ऐसा मत समझना कि कुछ मिलावट है, कि पानी वगैरह मिलाया हुआ है, बिलकुल शुद्ध प्रेम है, कोई फिल्मी नहीं है।
अब तो कोई चीज शुद्ध नहीं है। इसलिए शुद्ध का आग्रह बढ़ता जा रहा है। जब शुद्ध घी मिलता था तो दुकानों पर तख्तियां नहीं लगती थीं कि शुद्ध घी बिकता है। तब "घी बिकता है', इतना ही काफी था। जब से शुद्ध घी नहीं मिलता, तब से "शुद्ध घी बिकता है'
अब तो हालत और बिगड़ गई। अब तो शुद्ध डालडा भी बिकता है। अब तो डालडा भी शुद्ध कहां है? इसलिए अब शुद्ध डालडा की भी तख्ती लगी रहती है कि यहां शुद्ध डालडा मिलता है। पहले डालडा यानी अशुद्ध ही चीज थी। अब डालडा शुद्ध चीज है, क्योंकि उससे भी रद्दी घी को मिलाने वाले लोग हैं। घी भी नहीं है, उसको भी मिलाने वाले लोग हैं। चर्बी मिला दें, कुछ भी मिला दें।
अब तो दवाओं का भी कोई भरोसा नहीं है। अब तो तुम इंजेक्शन ले रहे हो और सोच रहे हो इंजेक्शन है, हो सकता है सिर्फ पानी हो। और वह पानी भी जरूरी नहीं कि शुद्ध हो।
तो हम इतने से ही राजी नहीं होते कि चरित्र। चरित्र पर्याप्त है। चरित्र का अर्थ ही होना चाहिए: शुद्ध। और चरित्रहीनता का अर्थ होगा: अशुद्ध। शुद्ध चरित्र का क्या मतलब? लेकिन हमारे दिमाग में मिलावट घुस गई है। एक तो चरित्र शील का अर्थ नहीं है--यह बाहरी आडंबर है--दूसरा इसमें भी शुद्ध जोड़ रहे हो! आडंबर को और भी झूठा बना रहे हो।
शील का अर्थ होता है: ध्यान के शून्य में जिसने अपने अंतःकरण को पहचाना है; जिसने शून्य में अपने केंद्र से संबंध जोड़े हैं; जो अपने प्राणों के प्राण से संयुक्त हुआ है; जिसने पहली दफा जाना है कि मैं परिधि ही नहीं हूं, केंद्र भी हूं; और जिसकी परिधि केंद्र से प्रभावित होने लगी--उसका नाम शील है। शील है तुम्हारे भीतर से ऊगा हुआ और चरित्र है ऊपर से थोपा हुआ। जैसे कोई कागजी फूल लाकर वृक्षों पर अटका दे। हो सकता है राह चलते राहगीरों को धोखा हो जाए।
मगर तुम किसको धोखा दे रहे हो? क्या मधुमक्खियों को धोखा दे पाओगे? कोई एक मधुमक्खी भी तुम्हारे कागज के फूल पर न बैठेगी। क्या तुम भंवरों को धोखा दे पाओगे? कोई भंवरा तुम्हारे कागज के फूलों के पास गुनगुन करके गीत न गाएगा। तुम किसे धोखा दे रहे हो? और तुम सबको भी धोखा दे दो, मगर तुम्हें तो पता ही रहेगा कि फूल कागजी हैं। तुमने ही लटकाए हैं। तुम अपने को तो धोखा न दे पाओगे। तुम वृक्ष को तो धोखा न दे पाओगे। इन कागजी फूलों को वृक्ष रस नहीं देने लगेगा। और अगर दिया भी उसने रस तो ये गल जाएंगे। ये मर जाएंगे। वह जीवनदायी रस इनके लिए मृत्यु हो जाएगा। असली फूल वृक्ष में लगते हैं। उसके अंग होते हैं।
शील है असली फूल--तुम्हारे भीतर ऊगा, तुम्हारे भीतर लगा। नकली नहीं, बाजारू नहीं, कागजी नहीं। और तब इस सुभाषित का अर्थ खुल सकेगा। तो मैं शील का अर्थ शुद्ध चरित्र नहीं करता हूं। यह "अर्थात शुद्ध चरित्र' छोड़ दो! खयाल से ही हटा दो! इतना ही कहो कि शील न हो तो मनुष्य के जीवन में सत्य नहीं होता।
क्या होगा! अगर सत्य हो तो शील ही होगा; अगर शील हो तो सत्य भी होगा। जिसने अपने जीवन के केंद्र को जान लिया, उस जानने को, उस पहचानने को ही तो सत्य का अनुभव कहते हैं। और जिसके जीवन में आत्म-अनुभव हो, उसके जीवन में तप होता है।
तप का क्या अर्थ है? तप शब्द को समझना चाहिए।
लोग सोचते हैं तप का अर्थ है अपने को सताना, गलाना, परेशान करना, हैरान करना। तब तो तप एक तरह की आत्म-हिंसा हो गई। तो फिर दुनिया में दो तरह के लोग हैं: दूसरों को सताने वाले और अपने को सताने वाले। इनमें कुछ फर्क नहीं है, जहां तक सताने का संबंध है, ये एक जैसे हैं। इनकी कोटियां अलग-अलग नहीं हैं। कोई दूसरे को अगर सताए तो हम उसको दुष्ट कहते हैं। और अपने को सताए तो उसको संत कहते हैं। गजब के लोग हैं! हम भी गजब के लोग हैं! हमारी कोटियां भी गजब की, हमारी व्याख्याएं भी अदभुत!
अरे, दूसरे को जो सताए वह उतना दुष्ट नहीं है, क्योंकि दूसरा अपनी आत्म-रक्षा भी कर सकता है। लेकिन जो खुद को सताए, वह तो बहुत ही दुष्ट है, क्योंकि खुद की अब कोई आत्म-रक्षा करने वाला भी नहीं है। अब तो जिसको हमने रक्षक समझा था, वही सता रहा है। अब तो जिससे हम बचना चाहते थे, वही मार रहा है। अब कौन बचाएगा? जिसको हमने सुरक्षा मानी थी, वही झूठी सिद्ध हो गई।
इसलिए जो कायर हैं और दूसरों को सताने में डरते हैं--क्योंकि दूसरों को सताने में खतरा है; दूसरों को छेड़ने में खतरा है! जैसे कोई मधुमक्खी का छत्ता छेड़ दे! दूसरे को छेड़ोगे तो दूसरा बदला लेगा, आज नहीं कल, कल नहीं परसों। और कौन जाने खतरनाक आदमी हो!
मुल्ला नसरुद्दीन चला जा रहा था एक रास्ते से, ऊपर से एक ईंट गिरी, उसकी खोपड़ी पर पड़ी। भनभना गया। तमतमा गया। उठाई ईंट और गुस्से में गया जीना चढ़ कर ऊपर कि सिर खोल दूंगा! कौन हरामजादा है जिसने ईंट पटकी? देखता भी नहीं!
उधर जाकर देखा तो एक पहलवान खड़ा था। अभी दंड-बैठक लगा कर ही उठा था। पहलवान को देख कर मुल्ला चौकड़ी भूल गए। पहलवान ने पूछा; "कहो, क्या काम है?'
उसने कहा: "कुछ नहीं, आपकी ईंट गिर गई थी, वह वापस करने आया हूं। अरे, कभी भी जरूरत हो तो पड़ोस में ही रहता हूं, आवाज दे दी। कोई चीज गिर जाए, कुछ हो तो उठा कर ला दूंगा। सेवा तो हमारा धर्म है!'
भूल गए चौकड़ी! गए तो थे कि खोल दूंगा सिर, ईंट लौटा कर वापस अपना सिर मलते आ गए!
एक दिन मुल्ला घर लौटा, देखा कि पत्नी के बिस्तर पर कोई सोया हुआ है। दोनों कंबल के भीतर हैं। आगबबूला हो गया। सोचा कि निकाल लूं तलवार, कि पिस्तौल। पर इसके पहले कि पिस्तौल निकालने जाऊं, जरा देख तो लूं कि कौन है? कंबल उठाया, वही पहलवान! जल्दी से कंबल उढ़ा दिया। पत्नी ने कहा: "क्यों, क्या करते हो?'
"अरे,' उसने कहा, "बेचारे पहलवान को ठंड न लग जाए! और एक कंबल ले आऊं, भैया? शांति से सो!' मगर दिल तो भनभना रहा था। यह तो हद हो गई! ईंट भी ठीक थी, मगर अब जरा बात आगे बढ़ गई बहुत! कंबल तो उढ़ा कर बाहर लौट आया, पहलवान का छाता रखा था। पहलवान का छाता अपनी टांग पर रख कर तोड़ दिया और कहा कि हे प्रभु, अब ऐसा हो कि जम कर बरसे, पानी ऐसा बरसे कि कमबख्त को पता चल जाए! घर पहुंचने में मजा आ जाए इसको भी!
अब और क्या करोगे? उसका छाता तोड़ कर परमात्मा से प्रार्थना कर रहे हैं।
जो लोग दूसरों को नहीं सता सकते, क्योंकि दूसरों को सताना खतरे से खाली नहीं है, जोखिम का काम है, वे अपने को सताने लगते हैं। और मजा यह है कि यही कायर तुम्हारे महात्मा बन जाते हैं। यही तुम्हारे संत बन जाते हैं। इन्हीं के चरणों में तुम सिर झुका रहे हो। इन्हीं कायरों की पूजा चल रही है।
तप का यह अर्थ नहीं है। तप का अर्थ होता है--तप शब्द में ही अर्थ छिपा हुआ है: तप यानी तपिश। एक ऊर्जा, एक गर्मी। जैसे भीतर सूरज ऊग आया हो। जैसे जीवन की सारी ऊर्जा जाग्रत हो गई हो। जैसे सोए स्रोत खुल गए हों। झरने फूट पड़े हों। एक दीप्ति, एक ओजस।
जिस व्यक्ति ने स्वयं के सत्य को जाना है, उसके जीवन में एक गर्मी होगी--क्रांति की, बगावत की। उसके जीवन में एक आग्नेयता होगी। क्योंकि उसके भीतर आत्म-ज्योति का दीया जलेगा। उसके भीतर ठंडा बरफ जैसा हृदय नहीं होगा, मुर्दा हृदय नहीं होगा, जीवंत हृदय होगा। तप का अर्थ है: ऊर्जा, गर्मी। जैसे सूरज निकल आता है तो फूल जो बंद थे रात भर, खुल जाते हैं; पक्षी जो रात भर सोए रहे, जग जाते हैं; जिनके कंठ रात भर चुप थे, अचानक गीतों में फूट पड़ते हैं; वैसे ही सत्य के अनुभव के साथ तुम्हारे जीवन में ऊर्जा का पदार्पण होता है। सूरज ऊगता है, फूल खिलते हैं, जागरण आता है--और गीत और नृत्य और उत्सव।
तप अपने को सताना नहीं है, अपनी जीवन-ऊर्जा को उसकी पराकाष्ठा पर प्रकट होने देना है। और जिसकी जीवन-ऊर्जा पराकाष्ठा पर प्रकट होगी, निश्चित ही उसका अंतिम परिणाम सृजन होगा, कला होगी। क्योंकि ऊर्जा तुम्हें स्रष्टा बनाएगी। तुम गीत रचो, कि मूर्ति रचो, कि चित्र बनाओ, कि तुम जो कुछ भी करोगे, उस सब में एक सौष्ठव होगा, उस सब में एक संस्कृति होगी। तुम मिट्टी छुओगे तो सोना हो जाएगी। और मिट्टी को छूकर सोना बना देने का नाम ही कला है।
जब तक स्वयं के सत्य को नहीं जाना, शील को नहीं पहचाना, अपने भीतर के केंद्र को अनुभव नहीं किया, तब तक सब झूठ है; उसके साथ ही सब सच हो जाता है। एक को जान लो तुम, स्वयं को, तो तुम्हारे जीवन में फूल ही फूल खिल जाते हैं। इतने फूल खिल जाते हैं कि तुमने कभी कल्पना भी न की थी। इतने गीत कि तुमने कभी सोचा भी न था कि तुम्हारे भाग्य में होंगे! इतना आनंद, इतना नृत्य, इतनी ऊर्जा कि नृत्य तो फूटेगा ही, आनंद तो जागेगा ही। ऊर्जा तो अपने आप नाचती है। ऊर्जा बिना नाचे नहीं रह सकती! झरने फूट पड़ेंगे!
और तभी जप। यह बैठ कर जो रामनाम की चदरिया ओढ़े हुए और माला हाथ में लिए हुए जप कर रहे हैं मुर्दों की भांति, इनके जप का कोई मूल्य नहीं है। लेकिन जप का अर्थ होता है: जब तुम्हारे जीवन में आनंद की पुलक आई, लहर दौड़ी और तुम्हारे भीतर अनुग्रह का भाव उठा। परमात्मा को--या परमात्मा शब्द को बीच में न भी लाओ तो भी चलेगा--अस्तित्व को जब धन्यवाद देने के लिए तुम झुके, उस झुकने का नाम जप है। फिर वह मौन भी हो सकता है, मुखर भी हो सकता है।
उस स्वानुभूति के पहले जो ज्ञान है, कचरा है, किताबी है, शास्त्रीय है। उस स्वानुभव के बाद ही ज्ञान है। ज्ञान एक ही है: अपने को जानना।
उपनिषदों ने बड़ी अनूठी व्याख्या की है। दुनिया में कभी ऐसी व्याख्या नहीं की गई। जिसको आज हम विज्ञान कहते हैं, उसको उपनिषद अविद्या कहते हैं। बाहर का ज्ञान अविद्या। यह भूगोल और यह इतिहास और यह गणित और यह भौतिकी और यह रसायन--बाहर का सब ज्ञान उपनिषद अविद्या कहते हैं। और भीतर के ज्ञान को विद्या कहते हैं।
तो ज्ञान तो एक ही बचा फिर: स्वयं को जानना, आत्म-साक्षात्कार। और शेष सब अविद्या हो गया। शेष सब कामचलाऊ है। उपादेयता है उसकी, लेकिन उससे कोई मुक्ति नहीं बनती। और उससे जीवन में कोई आनंद नहीं निर्मित होता और अमृत नहीं निचुड़ता। ज्ञान तो वह है जो मुक्तिदायी हो।
सा विद्या या विमुक्तये।
वही है विद्या जो मुक्ति लाए। यह परिभाषा हुई विद्या की--जो मुक्ति लाए वह विद्या। जो बांध दे, वह विद्या नहीं। जो खोल दे सारे बंधन, वही विद्या, वही ज्ञान।
सत्यं तपो जपो ज्ञान
      सर्वा विद्याः कला अपि।
नरस्य निष्फलाः सन्ति
      यस्य शील न विद्यते।।
शील न हो तो कुछ भी नहीं। भीतर अंधेरा हो तो कुछ भी नहीं। भीतर उजाला हो तो सब कुछ। इसलिए मेरा जोर एक ही बात पर है--सिर्फ एक बात पर--कि कुछ भी हो, किसी भी कीमत पर हो, समाधि को पाना है। ध्यान को जगाना है। ध्यान की अंतिम चोटी को छू लेना है। वही समाधि है, संबोधि है, बुद्धत्व है। उसको छू लिया तो शेष सब रूपांतरित हो जाएगा। और उसको न छुआ, तो तुम लाख वीणा बजाओ--तकनीकी दृष्टि से शायद तुम वीणावादक हो जाओगे, लेकिन तुम्हारे वीणा बजाने में प्राण नहीं होंगे। तार झनझनाएंगे, गीत भी ओंठों से आएगा, मगर हृदय से नहीं।
अकबर ने तानसेन से कहा था कि तेरा वीणा-वादन देख कर कभी-कभी यह मेरे मन में खयाल उठता है कि कभी संसार में किसी आदमी ने तुझसे भी बेहतर बजाया होगा या कभी कोई बजाएगा? मैं तो कल्पना भी नहीं कर पाता कि इससे श्रेष्ठतर कुछ हो सकता है।
तानसेन ने कहा, क्षमा करें, शायद आपको पता नहीं कि मेरे गुरु अभी जिंदा हैं। और एक बार अगर आप उनकी वीणा सुन लें, तो कहां वे और कहां मैं!
बड़ी जिज्ञासा जगी अकबर को। अकबर ने कहा, तो फिर उन्हें बुलाओ!
तानसेन ने कहा, इसीलिए मैंने कभी उनकी बात नहीं छेड़ी। आप मेरी सदा प्रशंसा करते थे, मैं चुपचाप पी लेता था, जैसे जहर का घूंट कोई पीता है, क्योंकि मेरे गुरु अभी जिंदा हैं, उनके सामने मेरी क्या प्रशंसा! यह यूं है जैसे कोई सूरज को दीपक दिखाए। मगर मैं चुपचाप रह जाता था, कुछ कहता न था, आज न रोक सका अपने को, बात निकल गई। लेकिन नहीं कहता था इसीलिए कि आप तत्क्षण कहेंगे, उन्हें बुलाओ। और तब मैं मुश्किल में पडूंगा, क्योंकि वे यूं आते नहीं। उनकी मौज हो तो जंगल में बजाते हैं, जहां कोई सुनने वाला नहीं। जहां कभी-कभी जंगली जानवर जरूर इकट्ठे हो जाते हैं सुनने को। वृक्ष सुन लेते हैं, पहाड़ सुन लेते हैं। लेकिन फरमाइश से तो वे कभी बजाते नहीं। वे यहां दरबार में न आएंगे। आ भी जाएं किसी तरह और हम कहें उनसे कि बजाओ तो वे बजाएंगे नहीं।
तो अकबर ने कहा, फिर क्या करना पड़े? कैसे सुनना पड़े?
तो तानसेन ने कहा, एक ही उपाय है कि यह मैं जानता हूं कि रात तीन बजे वे उठते हैं, यमुना के तट पर आगरा में रहते हैं--हरिदास उनका नाम था--हम रात चल कर छुप जाएं। दो बजे रात चलना होगा; क्योंकि कभी तीन बजे बजाएं, चार बजे बजाएं, पांच बजे बजाएं; मगर एक बार जरूर सुबह-सुबह स्नान के बाद वे वीणा बजाते हैं। तो हमें चोरी से ही सुनना होगा; बाहर झोपड़े के छिपे रह कर सुनना होगा।
शायद ही दुनिया के इतिहास में किसी सम्राट ने--अकबर जैसे बड़े सम्राट ने--चोरी से किसी की वीणा सुनी हो! लेकिन अकबर गया। दोनों छिप रहे एक झाड़ की ओट में, पास ही झोपड़े के पीछे। कोई तीन बजे स्नान करके हरिदास यमुना से आए और उन्होंने अपनी वीणा उठाई और बजाई। कोई घंटा कब बीत गया--यूं जैसे पल बीत जाए! वीणा तो बंद हो गई, लेकिन जो राग भीतर अकबर के जम गया था वह जमा ही रहा।
आधा घंटे बाद तानसेन ने उन्हें हिलाया और कहा कि अब सुबह होने के करीब है, हम चलें! अब कब तक बैठे रहेंगे! अब तो वीणा बंद भी हो चुकी।
अकबर ने कहा, बाहर की तो वीणा बंद हो गई मगर भीतर की बजी ही चली जाती है। तुम्हें मैंने बहुत बार सुना, तुम जब बंद करते हो तभी बंद हो जाती है। यह पहला मौका है कि जैसे मेरे भीतर के तार भी छिड़ गए हैं। और आज सच में ही मैं तुमसे कहता हूं कि तुम ठीक ही कहते थे कि कहां तुम और कहां तुम्हारे गुरु! अकबर की आंखों से आंसू झरे जा रहे हैं। उसने कहा, मैंने बहुत संगीत सुना, इतना भेद क्यों है? और तेरे संगीत में भी और तेरे गुरु के संगीत में इतना भेद क्यों है? जमीन-आसमान का फर्क है।
तानसेन ने कहा, कुछ बात कठिन नहीं है। मैं बजाता हूं कुछ पाने के लिए; और वे बजाते हैं क्योंकि उन्होंने कुछ पा लिया है। उनका बजाना किसी उपलब्धि की, किसी अनुभूति की अभिव्यक्ति है। मेरा बजाना तकनीकी है। मैं बजाना जानता हूं, मैं बजाने का पूरा गणित जानता हूं--मगर गणित, बजाने का अध्यात्म मेरे पास नहीं! और मैं जब बजाता होता हूं तब भी इस आशा में कि आज क्या आप देंगे? हीरे का हार भेंट करेंगे? कि मोतियों की माला? कि मेरी झोली सोने से भर देंगे कि अशर्फियों से? जब बजाता हूं तब भी नजर भविष्य पर अटकी रहती है, फल पर लगी रहती है। वे बजा रहे हैं, न कोई फल है, न कोई भविष्य, वर्तमान का क्षण ही सब कुछ है। उनके जीवन में साधन और साध्य में कोई फर्क नहीं है, साधन ही साध्य है; और मेरे जीवन में अभी साधन और साध्य में बहुत फर्क है। बजाना साधन है। पेशेवर हूं मैं। उनका बजाना आनंद है, साधन नहीं। वे मस्ती में हैं। वे पीए हैं।
और जो परमात्मा को पीए है, उसके बजाने में जरूर वही शराब कुछ तो बह ही आएगी! उन तक भी बह आएगी जिन्होंने तौबा कर रखी है कि कभी न पीएंगे; उनके कंठों में भी उतर जाएगी। किसी सच्चे पीने वाले के पास अगर बैठ गए, किसी पियक्कड़ के पास अगर बैठ गए, तो तुम्हारे तौबा के जीने से ही उतर-उतर कर तुम्हारे हृदय तक शराब पहुंच जाएगी। तुम्हारी कसमों को तोड़ देगी। तुम्हारे नियम-व्रत-उपवास तोड़ देगी। आनंद तुम्हें बहा ले जाएगा। बह जाओगे तभी पता चलेगा कि अरे, कितनी दूर निकल आए? बहुत दूर निकल आए!
शील हो तो शेष सब आ जाता है। और शील न हो तो तुम जमाते रहो, बिठाते रहो सब साज-सामान, बस कचरा ही इकट्ठा कर रहे हो। मुक्ति नहीं होगी, और कचरे से दब जाओगे। शील मुक्ति है। चरित्र बंधन है।

दूसरा प्रश्न:
भगवान, आप बड़ौदा आए थे और घर पर भी आए थे। तब खाने-पीने की कुछ बातें चल पड़ी थीं। फिर तीन दिन के बाद जब आप बंबई वापस जा रहे थे तब मैं आपको छोड़ने के लिए स्टेशन पर आई थी और तब आपको मैंने कहा था कि दही-शक्कर खाने से जुकाम मिट जाएगा। तब आपने, आज प्रवचन में जैसे मजाकी वातावरण पैदा कर दिया, ऐसा ही वातावरण बना कर मुझे कहा था: मैं जरूर आऊंगा दही-शक्कर खाने के लिए! तू बुलाएगी जरूर न? तो आप कब आ रहे हैं? मैं इंतजार कर रही हूं।
जो वादा किया वो निभाना पड़ेगा
रोके जमाना चाहे रोके खुदाई
तुझको आना पड़ेगा
जो वादा किया वो निभाना पड़ेगा
निभाना पड़ेगा।

वीणा भारती! मैं बामुश्किल एकाध प्रलोभन पार कर पाता हूं, फिर कोई प्रलोभन! इसीलिए तो ऋषि-मुनि कह गए कि यह भवसागर अनंत है! कहां से बात शुरू हुई थी--लस्सी से। बामुश्किल लस्सी से छुटकारा पाया, बूंदी पर आ गई। बूंदी से बचे, रसमलाई पर आ गई। किसी तरह तैर कर रसमलाई पार किए, आइसक्रीम पर पहुंचे, अब यह दही-शक्कर! देख वीणा, इस तरह किसी त्यागीत्तपस्वी को भ्रष्ट नहीं करते! इस तरह के प्रलोभन नहीं! इसी तरह तो योग से लोग भ्रष्ट हो चुके हैं--यह दही-शक्कर!
मैं तो जरूर आ जाऊं--क्योंकि मुझे कुछ अड़चन नहीं है भ्रष्ट होने में--लेकिन फिर तेरी भी सोचता हूं कि तू कहीं मुश्किल में न पड़ जाए! मैं तो आ जाऊं, और तू कहती है कि वादा निभाना पड़ेगा, तो निभा दूंगा, दही-शक्कर भी खानी है तो खा लेंगे। मगर खतरा यह है कि मैं अगर एकदम से तेरे द्वार पर आ जाऊं तो कहीं तेरे हृदय की धड़कन बंद न हो जाए! दही-शक्कर कौन खिलाएगा? दही-शक्कर बनाने के लिए तेरा हृदय भी तो धड़कता रहना चाहिए! इसका पक्का भरोसा दिला कि मैं द्वार पर आऊं तो तेरी धड़कन बंद न हो जाए। और मुझे नारी-हत्या का भागीदार न बना! और फिर तेरे बच्चों की भी सोचता हूं, फिर चितरंजन का भी खयाल आता, कि इन बेचारों का क्या होगा!

मैं नजर से पी रहा हूं, ये समां बदल न जाए
न झुकाओ तुम निगाहें कहीं रात ढल न जाए
मैं नजर से पी रहा हूं...

मेरे अश्क भी हैं इसमें, ये शराब उबल न जाए
मेरा जाम छूने वाले तेरा हाथ जल न जाए
मैं नजर से पी रहा हूं...
मेरी जिंदगी के मालिक, मेरे दिल पर हाथ रख दे
तेरे आने की खुशी में मेरा दम निकल न जाए
मैं नजर से पी रहा हूं...

अभी रात कुछ है बाकी, न उठा नकाब साकी
तेरा रिंद गिरते-गिरते कहीं फिर संभल न जाए
मैं नजर से पी रहा हूं ये समां बदल न जाए

इससे डरता हूं। वादा तो पूरा कर दूं, डरता हूं:
तेरे  आने  की  खुशी  में  मेरा  दम  निकल  न  जाए
डरता ही नहीं हूं, मुझे पक्का भरोसा है। मैं तेरे द्वार पर आया वीणा, कि तेरा दम निकला!
और सच तो यह है कि अब तेरा घर और कहां है? मैं तेरा घर हूं। अब तू मुझे कहां बुला रही है! अब तो मैं ही तुझे बुला लिया हूं! मेरे संन्यासी तो मेरे हिस्से हो गए। अब उनका क्या घर, क्या द्वार! अगर कहीं हैं भी वे तो इसीलिए हैं कि मैंने उनको वहां रहने को कहा है। और वीणा तो आज कह दूं यहीं रुक जा, तो यहीं रुक जाए। दरवाजे के बाहर भी न जाए।
और जल्दी ही रोक लूंगा। जल्दी ही व्यवस्था करनी है कि जो मेरे हृदय से जुड़ गए हैं, इस सत्संग को एक सागर बना लें, इसके अंग हो जाएं, इसमें डूब जाएं। एक ही दीया हजारों दीयों को जला सकता है। और जब हजारों दीए जलते हैं एक साथ, जब दीवाली होती है, तभी तो संघ का जन्म होता है।
बुद्ध के शिष्य बुद्ध के चरणों में तीन प्रार्थनाएं करते थे।
बुद्धं शरणं गच्छामि। वह पहली प्रार्थना है कि हम उनकी शरण जाते हैं जो जाग गए हैं।
फिर दूसरी: संघं शरणं गच्छामि। हम उनकी शरण जाते हैं, जो जागने वाले के साथ हो लिए हैं। पहली प्रार्थना: हम दीए की शरण जाते हैं; दूसरी प्रार्थना: उस दीए से जल गए जो दीए, उन सबकी शरण जाते हैं--संघं शरणं गच्छामि।
और तीसरी प्रार्थना: धम्मं शरणं गच्छामि। दीए--फिर चाहे बुद्ध हों और चाहे बुद्ध से जले हुए और दीए--आज नहीं कल तिरोहित हो जाएंगे; इनका तो निर्वाण हो जाएगा। निर्वाण शब्द दीए के बुझने से बना है। निर्वाण का अर्थ होता है: दीए का बुझ जाना। ये दीए तो आज प्रकट हैं, कल अप्रकट हो जाएंगे। आज अभिव्यक्त हो रहे हैं, कल शून्य में तिरोहित हो जाएंगे। मगर इन दीयों के जलने का जो राज है--धर्म--हम उसकी शरण जाते हैं।
शुरू यात्रा होती है बुद्ध के शरण से, मध्य में आता है संघ और अंत में आता है धर्म।
मेरे संन्यासियों ने पहली प्रार्थना पूरी कर ली है। अब दूसरी प्रार्थना पूरी करने का समय आ रहा है। संघं शरणं गच्छामि। जल्दी ही यह संघ बनेगा, वीणा, तू इसका हिस्सा हो जाने वाली है। दही-शक्कर सब ले आना!
और देखा तूने मजा--इसीलिए तो कहते हैं दुनिया गोल है--लस्सी से शुरू किया और दही-शक्कर। और दही-शक्कर यानी फिर लस्सी बनी! लस्सी के बिना चलेगा नहीं। लाख बचो, बच नहीं सकते। लस्सी का बड़ा तत्वज्ञान है। तन-मन शीतल करे!
तुझे जो वायदा किया था, उससे लाखों गुने रूप में पूरा कर दिया है। पहचाने कि न पहचाने! मैंने तो वायदा किया था मैं तेरे घर आऊंगा और किस तरह पूरा कर दिया कि तुझे अपने घर बुला लिया! उतना ही पूरा करता कि तेरे घर आता तो एक दिन चला जाता। तुझे ही बुला लिया तो अब जाने का उपाय भी न रहा! वायदा तो पूरा कर दिया है! और तू भी जानती है कि पूरा कर दिया है!

तीसरा प्रश्न:
भगवान, कल आपने आदर्श जोड़ियों की बात की। क्या इसे विस्तार से समझाएंगे?

विमल किशोर! भैया, इसका विस्तार तो बहुत हो सकता है! मगर थोड़ी कही ज्यादा समझना। विस्तार में खतरा है। भारत में हजारों घरों में ठहरा हूं, मगर अंगुलियों पर गिनी जा सकें, बस इतनी ही जोड़ियों को कह सकता हूं कि जोड़ियां हैं। मेरी जोड़ी की परिभाषा उलटी है--उनका कसूर नहीं, तुम्हारा कसूर नहीं! मेरी परिभाषा यह है कि जो लोग विवाह के बाद भी प्रेमी बने रहें। बहुत कठिन मामला है!
विवाह के पहले प्रेम तो बहुत आसान बात है। कोई भी बुद्धू कर ले। बुद्धू ही करते हैं। विवाह के बाद भी प्रेम बना रहे! कहने की बात नहीं, बना ही रहे, सच में बना रहे! कठिन मामला है, दुस्तर मामला है। विवाह सब मटियामेट कर देता है। सभी जोड़ियां आदर्श जोड़ियों की तरह शुरू करती हैं यात्रा, मगर दो-चार कदमों पर ही गिरना शुरू हो जाती हैं आदर्श जोड़ियां। मुश्किल से पांच नाम मैं ले सकता हूं। दो के तो मैंने तुम्हें कल नाम लिए। एक वीणा-चितरंजन की जोड़ी है, जो कि विवाह के बाद भी प्रेमी हैं। वैसे ही प्रेमी जैसे विवाह के पहले रहे होंगे। विवाह कुछ भी नहीं कर पाया! कोई फर्क नहीं कर पाया! एक मैंने तुम्हें माणिक बाबू और सोहन की जोड़ी कही। एक जोड़ी है: कपिल और कुसुम की। एक जोड़ी है: प्रेमतीर्थ और नीलम की। एक जोड़ी है: चैतन्य और चेतना की। बस, यूं थोड़ी-सी जोड़ियां हैं। यूं मैं भारत भर में घूमा हूं। मगर विवाह के बाद प्रेम का बचना बड़ी कठिन बात है।

कॉमेडी फिल्म में भी हम
हंसने के बजाय
किस्मत पर आंसू बहाते रहे,
श्रीमती जी हॉल में
पिक्चर देखती रहीं
हम मुन्ने को
बाहर घुमाते रहे!
उस दिन जब मैं चंदूलाल से भेंट करने गया तो देखा पति-पत्नी मुंह लटकाए बैठे हुए हैं। मैंने पूछा: "क्या हुआ, चंदूलाल?' चंदूलाल ने उदास स्वर में कहा: "क्या बतलाऊं! भगवान, यह टिल्लू की मां और मैं कल मुल्ला नसरुद्दीन के घर बैठने गए थे, उस मूरख ने अपने बच्चे आगे करके मुझसे कहा, अरे चंदूलाल, आपके ही हैं! बस उसी समय से यह टिल्लू की मां मेरी जान लिए ले रही है! इसका गुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ा हुआ है। कहती है कि यह उसने क्यों कहा कि ये बच्चे आपके ही हैं? इसका मतलब क्या?'
चंदूलाल सपने में चिल्लाए: "तू पागल!' चंदूलाल की पत्नी ने कहा: "अरे, कमबख्त, क्या कहा?' चंदूलाल ने पुनः सपने में ही कहा: "तू पागल!'
चंदूलाल की पत्नी ने हिलाया और कहा: "हरामी! क्या कहा, फिर से तो कह!' तब तक उनकी नींद खुल गई, चंदूलाल बोले: "अरे आप हैं क्या? मैं पागल! नींद में कुछ भूल-चूक हुई हो तो क्षमा करना, टिल्लू की मां! अरे, नींद का क्या!'
मगर नींद में ही सचाइयां प्रकट होती हैं। मनोवैज्ञानिक तुमसे सपनों के संबंध में पूछता है, क्योंकि जाग्रत में तो ऐसा झूठ छाया हुआ है! अब सपनों का ही भरोसा करना पड़ता है कि शायद सपने में सच निकल आए तो निकल आए।
घर लौट कर पति ने देखा कि पत्नी उसके गहरे दोस्त के साथ बिस्तर पर लेटी है। उसने चीख कर कहा: "क्या हो रहा है?' पत्नी ने उसके दोस्त से कहा: "देखा, मैंने कहा न था कि यह निपट अनाड़ी है!'
बीबी से झगड़ने के कारण चंदूलाल का एक हाथ टूट गया और उसे अस्पताल जाना पड़ा। अस्पताल में उसकी नजर एक ऐसे व्यक्ति पर पड़ी जिसके दोनों हाथ पर पट्टियां बंधी थीं। उसने आश्चर्य से पूछा कि महाशय जी, क्या आपकी दो बीबियां हैं?
जोड़े तो यूं बहुत हैं, मगर गजब के जोड़े हैं!
महंगाई का जमाना, आमदनी अठन्नी और खर्च रुपैया, बेचारे ढब्बू जी काफी चिंतित रहने लगे थे। आखिर घर का खर्चा कैसे चलेगा? लेकिन उनकी श्रीमती जी को संदेह होने लगा। एक दिन उन्होंने कहा कि सुनो जी, कई महीनों से देख रही हूं चुपचाप बैठ कर गुमसुम ठंडी सांसें भरते हो। कहीं कोई प्यार-व्यार का चक्कर तो नहीं चला रखा है तुमने?
वे बेचारे पड़े हैं निन्यानबे के चक्कर में, ठंडी सांसें भरते हैं, मगर पत्नी हिसाब लगा रही है कि कोई प्यार-व्यार का चक्कर तो नहीं चल पड़ा है!
जैसे ही विवाह हुआ कि यह शक पैदा होना शुरू होता है। पति हंसे तो शक। पत्नी हंसे तो पति को शक। पत्नी प्रसन्न आए नजर तो पति सोचता है कि माजरा क्या है? पति प्रसन्न आए तो पत्नी सोचती है कि मामला क्या है? तुम देखो पति-पत्नियों को चलते साथ-साथ। जब भी कोई जोड़ा तुम्हें उदास चलता हुआ दिखाई पड़े तो समझना कि दंपति हैं! अगर प्रसन्न दिखाई पड़ें तो समझ लेना कि पत्नी और किसी की है, पति किसी और का है। तभी इतने प्रसन्न नजर आ रहे हैं।
ढब्बू जी रात देर से घर लौटे। पत्नी बिगड़ी, बोली: "यह बड़ा अच्छा समय है घर आने का! जल्दी से मुझे इसकी सफाई दो कि रात को दो बजे तक कहां रहे और सच-सच बोलना!' ढब्बू जी शांति से बोले: "पहले तुम एक बात तय कर लो कि तुम्हें सफाई चाहिए या सच बात? दोनों एक साथ मैं नहीं सम्हाल सकता।'
दोनों कौन एक साथ सम्हाल सकता है!
पिकासो ने जाकर एक अरबपति से कहा: "मैं आपकी बीबी की ऐसी तस्वीर बनाऊंगा कि मुंह से बोल उठेगी।' उस धनपति ने जवाब दिया: "माफ करो भाई, पहले से ही यहां नाक में दम कर रखा है। अब अगर तस्वीर भी बोलने लगी तो जीना भी मुश्किल हो जाएगा।'
पति ने काम की अधिकता का बहाना बनाते हुए पत्नी के साथ उसके मायके जाने में असमर्थता जाहिर की। पति के इतना कहते ही पत्नी ने गुस्से में बड़बड़ाना शुरू कर दिया: "आप हमेशा ससुराल जाने का नाम आने पर आनाकानी करते हैं। ससुराल से तो ऐसे दूर भागते हैं मानो सब आपको खा ही जाएंगे। इतना ही चिढ़ते थे तो शादी करा कर विदा कराने कैसे चले आए थे?' "उस समय तो चालीस बाराती साथ थे,' पति ने कहा, "कोई अकेला था!'
इस घटना को पढ़ कर ही मैंने जाना कि क्यों आखिर बरातियों को साथ ले जाना पड़ता है। और क्यों दूल्हे को घोड़े पर बिठाते हैं और छुरी भी दे देते हैं। कि घबड़ा मत! अरे, निपट लेंगे! बैंड-बाजा बजाते हुए...!
अब तुम पूछ रहे हो कि आदर्श जोड़ी की आपने बात की; क्या इसे विस्तार से समझाएंगे?

मेरे पड़ोस में
एक आदर्श जोड़ी है,
जिसने मुहब्बत की तमाम
पिछली रिकार्ड तोड़ी है।
एक दिन मैंने
अपने एक दूसरे पड़ोसी से पूछा--
भैया,
किस बलबूते पर इनकी मुहब्बत
इतनी गहरी है?
उसने कहा--
आश्चर्य है,
तुम्हें मालूम नहीं!
पति कवि है, पत्नी बहरी है।

आज इतना ही।



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