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शनिवार, 20 मई 2017

08--दसघरा गांव की दस कहानियां--(मनसा-मोहनी)

तालाब – कहानी

दसघरा की दस कहानियां  

शब्‍द को सुनने के लिए कान, पीड़ा को महसूस करने के लिए ह्रदय का स्पंदन, सौंदर्य को देखने के लिए आँखें चाहिए। प्रत्येक बुद्ध पुरुष बार-बार यही दोहराता है, ‘ कान है तो सुन लो, आँखें हैं तो देख लो।जब मैं छोटा था तब यहीं सोचता था, क्या ये सब बुद्ध पुरूष किन्‍हीं अंधे-बहरे लोगों के सामने खड़े हो कर बोल रहे थे।‘’ नहीं पर हमारे पास आंखें हो कर भी नहीं देख पाते, कान हो कर भी हम बहरे की ही तरह से जीते है। क्योंकि विचारों का एक रैला मन के समतल हमेशा चलता रहता है। फिर हम वही अर्थ और वह शब्द ग्रहण कर लेते है जो हमारे अनुकूल पड़ते हो। बाकी को न तो कान ही सुनते है, और न आँख की देखती है। एक प्रकार से हम प्रकृति के सम्मोहन में निंद्रा की तरह से जीते रहते है। एक प्रकार से चलती फिरती कोई मशीन की तरह से जी रहे है। हम विचारों की पर्त के नीचे इतना दब गये है, की हम एक जीवित लाश बन कर जी रहे है। हम पर किसी बात का किस भी विचार का कोई असर नहीं होता है। हमारा जीवन एक गहरी तंद्रा है। प्रकृति की इस लय से हम एक दम से छिन्‍न भिन्‍न हो गये। प्रकृति की अपनी एक लय है, एक समस्वरता है, उसमें पेड़, पौधे, जल, थल, चाँद, तारे, क्षितिज उसी लयबद्धता का एक अंग है। फिर क्या मनुष्य ने प्रकृति की उस लयवदिता से अपने को अलग-थलग कर लिया है। उसके जीने के अंदाज से तो यही लगता है। चारों ओर अराजकता, हिंसा तनाव, मानो हम जी नहीं रहे एक जीवन को ढो रहा है। मनुष्य का जीवन आज छिन्‍न-भिन्‍न हो गया है। उसकी बहती जीवन सरिता में कही अवरोध पैदा हो गया है। आज उसकी जीवन नदिया रूखी-सुखी नीरस और बेजान हो गई है। उसमें कोई आनंद उत्‍सव की एक किरण भी कहीं दिखाई नहीं देता। आज वो उस सब से टूट कर अलग-थलग हो गया है। प्रकृति से अपने को विच्छिन्न कर उसने आधुनिक उपकरणों को अपने जीवन में इस प्रकार रचा-बसा लिया है कि वो खुद हाड़मांस की एक मशीन बन कर रह गया है। वही शायद उसके भाव और संवेदनशीलता को निगल गयी है। शायद समय ने इस प्रश्‍न को और अति प्रश्‍न बना दिया हैं।

मुझे सुबह जल्दी उठने की आदत सी पड गई थी। सुबह की ताज़ा हवा, कैसी मदहोशी छाई बिखरी होती सारे वातावरण में। सुबह की नींद में सोई प्रकृति अपने अंदर और अधिक मादकता भरे रहती है। उसका सोया सौंदर्य आपके सोये शरीर में एक नई ताजगी भर ले आता है। नींद में अलसाई सी प्रकृति, ऊँघती सी करवट ले कर वातावरण में निभ्रर्म शांति फैली रही थी। मंद्र हवा में पत्ते का हिलना, आपको ऐसा प्रतीत होगा मानो वो पत्ता हवा को कह रहा हो अभी थोड़ा और सौ लेने दो। मैं अभी उठना नहीं चाहता, सुबह के इस वातावरण में पेड़-पौधों के साँस लेने की प्रक्रिया का बदलाव शुरू हो जाता है। रात भर जो पेड़ पौधे कार्बन डाई आक्साइड छोड़ते थे सुबह के पहले पहर में अब आक्सीजन छोड़ना शुरू कर रहे होते है। उसके इस बदलाव के कारण आस पास के माहौल में कैसा सुगबुगाहट सी आ जाती है। मानो कोई माँ की दूध भरी छातियों के दबाव में बच्चे के मुँह में ज़्यादा दूध भर गया है। और वो लम्बी-लम्बी उसांस भर सुबकियाँ ले कर गोते खा रहा है। आपको सुबह पेड़-पौधों के पास से गुजरते हुए आक्सीजन के अतिशय से कुछ ऐसा ही जरूर महसूस होगा। किसी पेड़ की टहनी आपको जरा छू भर गई नहीं की आप कैसे अन्दर तक सिहर जायेंगे। जैसे वो आपको जानती है और छू लेने से एक नव यौवना सी इठला रही है। भोर की जगती हुई प्रकृति आपके शरीर के रोंए-रोंए मैं कैसे जागरण का संचार भर देती है। उस सुबह के सौन्दर्य और उस वातावरण को जिसने नहीं देखा वो जीवन के कुछ अद्भुत क्षणों से जरूर वंचित रह जाता है।

आज गांव में जहां पर पार्क है, वहां सालों पहले कभी तालाब हुआ करता था। उसी के किनारे पर एक बहुत बड़ा बरगद का वृक्ष था। तालाब तो बंद हो गया था। परंतु वह बरगद का वृक्ष आज भी अपनी विशालता के साथ यूं ही खड़ा है। और पार्क बनने से वह तो उसकी की शोभा बन गया है। उसके चारों तरफ़ पक्का चबूतरा बनाया दिया गया है। जिससे उसे एक नया जीवन दान मिल गया है। तालाब को तो अब मिट्टी भर कर उस पर मुलायम हरी घास उगा दी गई है। हम आधुनिकता के नाम पर वह सब कर रहे है। जो प्रकृति के साथ-साथ हमारे लिए भी विध्वंसक है। दिल्ली के आस पास जितने भी गांव जो शहरी करण की लपेटे में आ गए है उन सब तालाबों के साथ यही दुर्व्यवहार हुआ है। भले मानुस ये तो समझों की तालाब पशु पक्षियों आदमी क्या प्रकृति के जीवन दायिनी होता था। उससे जमीन का जल स्तर बढ़ता ही था। साथ में गर्मीयों में जब रात को उससे छूकर हवा आती थी तो कैसे प्रकृति कूलर का काम करती थी। अब वहां पार्क बनने के बाद बैठने के लिए बैंच, सुन्दर फूलों के पेड़-पौधे, चारों तरफ़ अमल ताश, सहमल, नीम और बोगनवेलिया की झाड़ियाँ, उगा कर उसका सौन्दर्य करण कर दिया गया है। जो गांव की शोभा तो बढ़ाती थी साथ-गंदगी भी अपने में भरे रहती थी। साथ-साथ गाँव के इस दम घोटूँ वातावरण के नाम पर किए विकास में जीवन देने का कार्य कर रहा था। यही एक ऐसी जगह थी जो हरियाली के साथ-साथ एक खुले पन का अहसास दे रही है। वैसे खत्‍म होते गांव और उसके तालाब हमारी रक्त वाहिनियों की तरह से जीवन दाई थे। पर आज न वो तालाब न वो गांव रहे, धीरे-धीरे सब खत्‍म होता जा रहा है। गांव के विकास ने नाम पर वो सब दफन कर दिये गये है। पक्‍की सड़कें पक्के मकान जमीन में पानी का स्तर धीरे-धीरे घट रहा है। पर शायद आदमी अपने विकास मैं इतनी अंधा हो गया है उसके बुरे और खतरनाक होते परिणाम के बारे में जान कर अनभिज्ञ बन हुआ है। मानो बारूद के ढेर पर महल बना रहा हे।

मैं फेफड़ों से अशुद्ध हवा को नाक के द्वारा जोर-जोर बहार फेंकता था। ये प्रक्रिया आठ-दस मिनट चलती उसके बाद में पार्क के तीन-चार चक्कर लगाता था। शुद्ध हवा शरीर के रोम-रोम से प्रवेश कर उसे अधिक प्राण वान बना जाती थी। जिससे चित थोड़ा सजग हो जाता था। जो ध्‍यान में बैठने में सहयोग देता था। पतंजलि‍ का आलोम-विलोम तो, आज के तनाव पूर्ण जीवन की गति मैं, बैल गाड़ी जैसा हो गया है। मैं सुवास को थोड़ा धौंकनी की तरह से तेज और अराजक निकलता था। जिससे ज्यादा से ज्यादा कार्बन डाई ऑक्साइड शरीर से निकल कर जीवन दायिनी आक्सीजन शरीर के रोया रेशे में प्रवेश कर जाए। उसके बाद बरगद के चबूतरे पर एक दरी बिछा कर, सूर्य देव के आगमन तक यानि झर-पटा होने तक ध्यान करता था। गाँव के एक बुर्जग जिन्हें हम सब महाशय जीकह कर पुकारते थे। जब उन्होंने मुझे ध्यान करते देखा तो प्रसन्नता के साथ-साथ एक नेक सलाह भी दे डाली। महाशय जी का जरा सा परिचय दे दूँ, दयानंद सरस्वती जी के पक्के भगत थे। ता उम्र शादी ना करने का व्रत, लिया था। जिसे वो आज अंतिम समय तक निभा रहे हैं। अँग्रेज़ों के जमाने से ही दिल्ली पुलिस के नौकर थे। अभी कुछ दिन पहले ही रिटायर्ड हुए हैं। गांव के लोग उन्‍हें प्रेम और श्रद्धा और सम्‍मान से देखते थे।

उन्‍होंने कहां बेटा ध्यान में बैठने से पहले एक सफ़ेद पतली चादर ओढ़ कर बैठा करो। तुम एक पेड़ के नीचे बैठ कर ध्यान करते हो ये बहुत अच्छा करते हो। मैं तो पहाड़ी पर एक खुली जगह पर बैठ कर ध्यान करता था। एक दिन न जाने एक चील के मन में क्या आई, उसने पंजों से मेरे सर पर हमला कर दिया। सर में पंजों गढ़ गए और खून बहने लगा, उस घटना के बाद से मैं भी एक पेड़ के नीचे बैठ कर और चादर ओढ़ कर ही ध्यान करने लगा हूँ।’’

ये उनकी नेक सलाह मैंने मान ली, पतली सफ़ेद चादर ओढ़ कर जिस दिन मैं ध्‍यान करने के लिए बैठा। उस चादर से एक झीना सा मन्दिर का गुम्बद मेरे चारों तरफ़ निर्मित हो गया। ध्यान भी उस दिन बहुत गहरा गया, अचेतन की गहराई में बोलने की फुसफुसाहट ने चारों तरफ़ से मुझे घेर लिया, एक अछूती सी ध्वनि तरंग मुझे बहुत गहरे मैं सुनाई दे रही थी। जहाँ पर विचार भी दम तोड़ते हुए पीछे छूट गए थे। वो ध्‍वनि बड़ी अजीब थी उस में कोई शब्‍द नहीं थे। जैसे हम किसी पक्षी की आवाज को सुन तो लेते है, परंतु हमारे मस्‍तिष्‍क को कुछ समझ में नहीं आता है। पर प्राण कहीं उस ध्‍वनि को जानते जरूर है, परंतु मस्तिष्क मन का ही एक हिस्सा है। उस ध्वनि में क्या कहा जा रहा है उसका उसे जरा भी ज्ञान नहीं होता। हम तो शब्दों से जानते है, हम नहीं समझ सकते जब तक उसे शब्‍दों में उसे नहीं ढाल पाएँ। उस दिन ध्यान के बाद शरीर मैं ऐसी कुंवारी सी मधुरता भर गई थी। जैसे किसी नवयौवना के शरीर को जब पहली बार उसके प्रेमी ने उसे छुआ हो। एक मधुर थकान, एक अलसाया पन और इसके बीच बहती एक आनन्द और चुलबुले पन की धारा। फिर ये क्रम कई दिन लगातार उसी तरह से चला रहा। जैसे बचपन मैं गर्म बिस्तरों के अंदर हम अलसाए से कुनमुनाते हुए, नींद भरी उन आँखों को मलते, ऊँघते हुए, पंच तंत्र की कहानी सुनते बच्चों को केवल ध्वनि तो सुनाई देती, परन्तु मन उस ध्वनि को शब्दों मैं परिवर्तित नहीं कर पा रहा होता। फिर भी वो हां-हूं का हुंकारा भरते रहते है। जिससे कहानी रूक न जाए। गहरा अचेतन आज भी शब्द नहीं जानता, आपके सपनों मैं भी कोई भाषा नहीं होती, और न होते है रंग, कोई बिरला ही रंग और शब्दों से लिप्त स्वप्न देख पाता है। क्योंकि प्रत्येक पशु पक्षी की एक ध्वनि होती है। उस ध्वनि का अर्थ भी होता होगा। नहीं तो पशु-पक्षी एक दूसरे से संवाद कैसे करते। ये एक विज्ञान है जो एक शोध का विषय है। परंतु वैज्ञानिकों को विध्वंसकता से पिंड छुड़े तब तो इन पर काम करें। कहते है कि राज वीर विक्रमादित्य को कुछ पशु पक्षियों की भाषा का ज्ञान था।

तालाब-(तालाब बरगद के उस बूढ़े पेड़ से कुछ कह रहा है)- ’’सुनते हो तुम्हारे संग और सौंदर्य को महसूस करने के लिए कोई तुम्हारी गोद मैं आकर बैठा था। इतने सालों बाद तुम्हारे इतने पास अंग-संग कोई आ कर बैठा तब तुम्हें कैसा लग रहा है।’ ’तालब ने बरगद से पूछा।

बरगद--’’हाँ देखता हूँ, सालों बाद कोई इतने करीब आया हैं। शरीर के साथ मन और विचार संवेदना भी लगभग सूख गये है। अच्छा लगा कि जैसे मैं आज जीवित हूं। उसके संग साथ बैठने से में भी अपने को जीवित समझ रहा हूं। कितना अच्छा और भला लग रह दादा आपको बता नहीं सकता। मेरा मन बहुत ही प्रसन्न है। लगता है में फिर बच्चा बन जाऊ। अब तो जीवन की इच्छा भी मरती जा रही थी। परंतु आज सालों बाद बहुत ही भला लगा था।’’

तालाब--’’मैं तो जब से मिट्टी, रोड़े, पत्थरों के नीचे दब गया हूँ, एक अन्त हीन घुटन, छटपटाहट, बेचैनी सी महसूस करता हूं। न जाने कौन सी आस न जाने कौन सा वह प्रेम है जो जो सालों पहले मरे हुए को मरने भी नहीं देती। क्यों चिपका हूं इस मिट्टी के प्रेम से। इतनी सालों बाद भी नहीं निकाल पाता वह पुरानी यादें अपने अंदर से।’’

बरगद--’’ऐसा नहीं कहते दादा तुम तो धरती की गोद में कितने आराम से सो रहे हो, मुझे देखो, न जमीन के नीचे पानी है, न ऊपर से आसमान से ही गिरता है। पहले की तरह अब कहां बरसात होती है। ऊपर से दम घोट ये चबूतरा, मेरी जड़ को दीमक ने खोखला कर दिया हैं। अब साँस भी कितनी मुश्किल से ले पाता हूँ, आप देख तो रहे है। पत्ते भी गाड़ियों के धुआँ के कारण कैसे लकवा ग्रस्त से हो गए हैं। इन पर ज़मीं धुआँ की परत, पहले तो बरसात आकर कैसे मुझे नहला जाती थी। अब मुझे बारह महीने अंधा सा बन कर ही रहना पड़ रहा है। 200 वर्ष की आयु में ही आप देख रहे है मुझे कैसा बूढ़ा जर्जर सा लगता हूँ। मेरे दादा परदादा कहा करते थे, 600 वर्ष मैं तो कोई बरगद जा कर युवा होता था। अब तो भगवान से केवल यहीं प्रार्थना करता हूँ, उठा ले इस नर्क से। न आस पास किसी का संग साथ न कोई पास ही आता है।

तालाब-‘’मेरे ऊपर फैली‍‍ नर्म मुलायम घास, उस पर दौड़ते-भागते ये बच्चे, बेंच पर बैठी बूढ़ों की महफिल, औरतों का छोटे बच्चों की उँगली पकड़ उनको चलना सिखाना, कुछ क्षणों के लिए क्या वही रौनक-मेला फिर नहीं लौट आता सा दिखता हैं। सालों पुराना सा वह गुजरा जमाना...और नीचे मिट्टी में दबे तालाब के साथ उस बरगद ने भी एक गहरी उसांस ली। पर वैसी मदहोशी उल्‍लास अब आज के मनुष्‍यों में कहीं दिखाई नहीं देता है। ये सब मुर्दा चेहरे, लिपे-पुते जरूर है पर वैसी ताजगी नहीं आंखें देखो इनकी में नहीं दिखाई देती है। आप इनकी आंखें तो देखो तब आप पल भर के लिए डर जाओगे। कैसे पथराई सी बेजान दिखाई देती है। प्राण तो इनमें झाँकता दिखाई ही नहीं देता। वो सब देख कर ये सब अच्छा नहीं लगता।’’

बरगद--’’अच्छा तो बहुत लगता है, बात आपकी कितनी सही है। परन्तु अब पहले जैसी बात कहाँ रही। मुश्किल से कोई बच्चा पतंग के बहाने ही मेरे नजदीक आता है, पत्थर मारता हैं, पहले कैसे बंदरों की तरह लदते रहते थे। पक्षियों से भी ज़्यादा गुलर तो बच्चे ही तोड़-तोड़ कर कैसे बिखेरते थे। बरसात में भी घर नहीं जाते, जब तुम किनारे तक लबालब भर जाते थे। कैसे काँपते-ठिठुरते नीले होंठ लिए, मेरी टहनियों पर चढ़ कर तुम्हारे गर्म-गर्म पानी में छ-पाक से कूद जाते थे। तब तुम कैसा छिटक कर बिखर जाते थे। तब तुम्‍हें कैसा लगता था, पानी में रुनक झुनक बूँदों की बरसात, और ऊपर से मेंढकों का गुट रगूँ। मेंढ़क कैसे अपने गलूरे फूलाफूला कर टरटर...टर..टर टरटर...की अविछिन्न बहती ताने, मानो बादलों को धन्यवाद दे रही होती थी। बादल भी अपनी उस मधुर गर्ज में कैसे खुशी में मेध मल्हार गाने को मजबूर हो जाते थे। हमारे आस पास चारों और कैसा रोनक मेला छा जाता था। आज आप एक भी बच्चे को पानी में नहाते नहीं देखते। और सही बात तो ये है की पानी ही नहीं भरता कहीं पर। बरसात होती है तो इस सिमेंट के पक्के रोड के कारण बहकर यमुना में चला जाता है। नीचे की धरा प्यासी की प्यासी ही रह जाती है। क्या हो गया इस मनुष्य को।‘’

ध्यान के बाद जब तुम धीरे से आँखें खोल कर देखते हो, तो वहीं पुराने दृश्य अभूतपूर्व सौन्दर्य लिए हुए महसूस होने लगे है। ध्यान का ताज़ा-ताज़ा होश आँखों को कोरी और निर्मल बना देता हैं। पक्षियों की चह-चाहट, आती-जाती गाड़ियों का शोर, कौवों की कांव..कांव...धीरे-धीरे मेरे कानों को सुनाई देने लग जाती थी। तब कहीं काफी देर बाद मुझे अपने होने का भान होता था। कुछ क्षणों के लिए मैं केवल होता था। मुझे अपने शरीर का मुझे पता नहीं चलता था। शरीर के बिना होना भी कैसी निर्भरता से आपको पंख दे जाता है। ये जब कोई ध्यान में जाकर उसे महसूस करता है तब वह उसे समझ सकता है। चाहूं भी तो उसे आपको शब्दों में बता नहीं सकता। बता भी दूंगा तो समझा नहीं पाऊंगा। फिर सारा दिन यही विचार मेरे मस्तिष्क में इधर से उधर लुढ़कते रहे, कि मैंने वो सब क्‍या सुना था। क्‍या रहस्‍य था उस भाषा हीन भाषा का। हफ्तों बाद भी उन्‍हें एक सूत्र में उसे मैं पिरो नहीं पाया था। छोटे-छोटे टुकड़ों में एक पानी के बुलबुले कि तरह वो उठते ओ खत्‍म हो जाते थे। पर उनमें कोई चित्र या छाया अपना आकार निर्मित नहीं कर पाते थे।

दिल्ली में बढ़ता जनसंख्या का दबाव और इसी के कारण इनके बढ़ते विस्तार ने दिल्‍ली के इन गाँवों को कंकरीट का जंगल बना दिया हैं। ठुसती आबादी, चिड़ियाघर के दड़बों की तरह बने कमरे, सड़क पर जहाँ देखो तहाँ नर मुंड ही नर मुंड, बीच मैं रेंगाती गाड़ियाँ, मस्त जुगाली करती गाय और उनके बछड़े, शोर मचाते सब्जी खोंचो वालों के हाट, बीच-बीच मैं घण्टे-घड़ियाल बजाते साई और प्राचीन शिव-हनुमान मन्दिर, आपके कान के पीछे पो-पो, चोंचों करते साइकिल-स्कूटर वाले, अरे भले मानस देखते नहीं कंधे से कंधे छीलते जा रहे हैं, और तुम्हें अपने टी..ई..टी..ई की पड़ी। सब्र का घूँट तो कोई पीने को तैयार ही नहीं हैं। सब को जल्दी पड़ी हैं, जैसे इनको जरा भी देरी हुई नहीं तो लाखों काम बिगड़ जायेंगे। सब जानते हैं घर पर जाकर टी०वी० के सामने बड़ा सा मुँह खोल कर जमाईयाँ लेंगे, या बिना सर पेर के चंडू ख़ाना चटपटे समाचार, या फूहड़ धारावाहिक जो गोल-गोल कुएँ के मेंढक की तरह, सालों से चल रहे, जिनकी चाल के सामने चींटियों को भी शर्मा आ जाए।

आज जहाँ पार्क बना है, 30 साल पहले तक एक सुंदर सा तालाब हुआ करता था। उसे प्यार से गांव वाले ‘’राम तला’’ कह कर पुकारते थे। उस तालाब में गंदगी फैलाना या फेंकना मना था जिसके कारण पाप तो था ही आर्थिक दंड भी उस आदमी को देना होता था। क्योंकि वह तालाब मनुष्य, पशु, पक्षियों के लिए, उत्सव, मेले, दुख-दर्द, सभी के जीवन का एक अभिन्न अंग था। कैसे थे वो लोग जिन्हें आज हम अनपढ़ गंवार समझते हैं। जो एक तालाब का नामकरण भी ’’राम तलासरीखा रख देते थे। कैसे प्रेम छलक-छलक बहता रहा होगा उनके ह्रदय से। हमारे सूखे, नीरस और बेजान ह्रदय इसे समझने मैं भी असमर्थ हैं। एक दिन गांव के विकास का समय आया सड़कों की खुदाई कर सीवर लाईन डाल दि गई। परंतु भले मानुष ये सारा गंदा पानी जो बढ़ा रहे हो। यमुना को कितना और गंदा करेगा उसके विषय में तो सोचो। ऊपर से डी० डी० ए० ने आधुनिकरण के नाम पर उस तालाब को मिट्टी, पत्थरों से भर दिया। सालों पुरानी गांव की जो प्राचीन चौपाल थी। वह उस समय भी करीब जमीन से आठ फीट उंचाई बनी थी। जिसके बीचों बीच एक सुंदर सा नीम का वृक्ष था। कितनी नीम की निमोली खाते थे हम बचपन में। कितना ही मधुर समय का साथ था वो हमारे जीवन को उसे भी काट दिया गया। उसका एक तना चौपाल की छत के करीब तक गया था। जब हम काई डंका खेल खेलते थे वही सबसे बचने के काम आता था। एक बार ओम प्रकाश (भँवरा) उप नाम से पुकारते थे। क्योंकि उसका रंग शाह काला था। इस लिए उसे भँवरा फिर वह था भी बहुत चपल। उसे इस खेल में कम ही पकड़ा जा सकता था। बंदर की तरह यहां से वहां पल में फुदक कर छलांग लगा जाता था। परंतु हाए रे होनी का जाल एक दिन वहीं भँवरा फंस गया उसमें। उस दिन तो गजब ही हो गया। उसने चौपाल से छलांग लगाई टहनी पकड़ने के लिए परंतु आज जाने क्या हुआ भँवरा सिधा जमीन पर औंधे मूंह गिरा। आगे के सारे दाँत हिल गए। परंतु ये सब खेल का एक हिस्सा होता था। उस बेचारी चौपाल को तोड़ कर समतल कर दिया गया। और उसके मिट्टी पत्थर से इस तालब को बंद कर दिया गया। ठेकेदार की चाँदी चौपाल को तोड़ने की कमाई और उसी मलबे से तालब भरने की कमाई। दोनों हाथों में लड्डू। गांव के उस तालाब के ऊपर एक पार्क का निर्माण कर दिया गया। शादी, जन्म दिन, नेताओं के भाषण, धर्मी उत्सव, आधुनिक राम लीला की बड़ी स्टेज के लिए इन्‍हें जगह की कमी खलती थी। पुराने उत्सव मैले, आज के आधुनिकता की दौड़ मैं गँवारपन प्रतीत होने लगे थे। आज की पीढ़ी की कुछ अधिक तेजी से आधुनिकता में प्रवेश कर रही है। अब शायद ये तालाब गाँव के लिए बोझ बन गया था। जो सालों पहले कभी गांव की जीवन दायिनी हुआ करता था। सो अब बेचारे उस तालाब को शहीद कर दिया गया और उसके ऊपर एक कब्र बना दी पार्क के नाम की। ‘’दसघरा गांव का उद्यान’’ का बोर्ड लगा दिया। इसकी किसी को कोई फिक्र नहीं थी कि हम जो कर रहे इसका आने वाले समय पर क्‍या कु प्रभाव होगा आज हम इस की बात पर विचार नहीं करते। मानो हम संत हो गए है केवल आज और अभी जीना है। कल की प्रवाह कौन करें।

जब मैंने इस तालाब को देखा था तो वह इतना बड़ा था की, जैसे कोई छोटों मोटा समुद्र ही समझो। या शायद में छोटा था इसलिए मुझे वो अथाह लगता था। क्‍योंकि जो पहाड़ी के बीच में बजरी की खाने उस जमाने मुझे बहुत गहरी लगती थी। अब जाकर देखता हूं तो क्‍या समय ने उन्‍हें आट दिया है। जो पानी से इतनी भर जाती थी उन की तलहटी से मिट्टी निकलना कोई-कोई ही लड़का कर पाता था। खेर तालाब गांव की जनसंख्या को देखे तो भी बहुत बड़ा था। उसे पार करने को गौरव गांव के किसी विशेष के ही नाम लिखा होता था। उसे पार करना एक किंवदंती ही बन गया था। हमारे सामने तो गांव का कोई जानवर भी उसे पार करने का साहस नहीं कर पता था। उसके दो तरफ पहाड़ियां उसे दर्शनीय बना देती थी। चारों तरफ का बरसाती पानी बह कर उसे लबालब भर देता था। उसके चारों और फैले पेड़-पौधे उसके ऊपर गाते पक्षियों के मधुर गान, जल का ये अनंत विस्तार से उठी उँची-उँची लहरे, उसके स्वच्छ जल मैं झाँकती पेड़-पौधों की परछाई। एक किनारे से उठी लहर दूर जब दूसरे किनारे की चट्टानों से जब टकरा कर छिटकती, तो कैसे आवाज़ करती, छ...प्पा....क ... और अगर आप पास खड़े है तो आप हो गए सराबोर। जहाँ पानी है, वहाँ जीवन तो होगा ही। पीपल, बरगद, नीम, रोंझ और कीकरों का तो पूरा जंगल ही था। उस तालाब के आस पास। और उसके दो और बड़ी-बड़ी पहाड़ी चट्टानें थी। जिसके कारण वह और भी भयावह और गहरा हो जाता था। उस के किनारे पर हमारा भी बोया हुए एक नीम का वृक्ष था। उसे सब लोग डूँड़ा नीम कह कर पुकारते थे। यानि उसकी बड़ी-बड़ी साखाए ये बीच में टूट कर ठूँठ बन गई थी। आप सोच रहे होंगे कि हमारा नीम, हां गाँव का प्रत्येक व्यक्ति राम तला के पास एक पेड़ लगा कर अपने को धन्य समझता था। ये डूँड़ा नीम हमारे परदादा राम नाथ जी ने लगाया था। मैंने भी पिता जी से हठ करके एक सहमल का पेड़ तालाब के एक कोने में लगाया था। उसके चारों तरफ़ काँटों की बाड़ लगाई, ताकी जानवर आदि उसे खा न सके। मैं रोजाना उसमें पानी डालने जाता था। कितना सुखद लगता, जब उसमें कोई कोमल पत्ता निकलता था। मानो किसी जीवन ने इस धरा पर आकर अंगडाई ली हो। फिर शाखा-प्रशाखा, टहनियाँ जैसे-जैसे वो बड़ा होता, मेरे अन्दर भी कुछ बढ़ता सा प्रतीत होता था। नन्हा सा, सुकोमल पौधा देखते ही देखते एक दिन जब वो वृक्ष हो गया, जब उसमें पहली बार दो चार फूल खीलें तो मेरे मन कैसे रचयिता होने का भाव जगा था। सहमल कैसे चारों तरफ़ लम्बे-लम्बे घाघरे की तरह टहनियाँ घुमाता हुआ बढ़ता है। आप उसे दूर से जब देखेंगे तो आपको ऐसा लगेगा कि जैसे अभी वह सहमल नृत्य करने वाला है। बसंत में पत्ते विहीन फूलों से लदी टहनियाँ आपकी नजरों को ना चाहते हुए भी बरबस अपनी और खींच लेगी। वह सेमल का वृक्ष आज भी जीवित है। आज तालाब विहीन वो उदास दिखता है, न फूलों में वो चमक है, न पत्तों में इठलाना, वह उदास, मायूस ऐसे नितांत खड़ा दूखी दिखाई देता है। जैसे एक रोते बच्चे का काजल फैल कर सारे मुंह को रंग गया हो। अब वो दीवार से मुंह सटाए उदास रूठा खड़े है, और माँ उसे हँसाने के लिए आईने का सहारा ले रही हो। मुझे भी ऐसा लगता है, काश मैं तालाब में उसका गंदा कुरूप चेहरा उसे दिखा पाता। तो शायद वह जरूर उस नन्हे बच्चे की तरह किलकारी मार कर हँस पड़ता। मैं लाचार बेबस उसे देखता हूँ, कहाँ से लाऊं उसके लिए ''रामतला''। शायद वो मेरी बेबसी समझ गया, और अब उसने तो इंतजार करना भी छोड़ दिया था।

जेष्ठ की भीषण तपिश से पहाड़-मैदान जब झुलस रहे होते थे, तब भी राम तला हजारों पशु, पक्षियों और मनुष्यों के शरीर की जलन को कम करता था। श्याम होते तक आग उगलती हवा भी तालाब के सम्पर्क मैं आते ही दूर तक कैसी शीतलता भर देती थी। जेष्ठ में दादा बूढ़े की दूज आते तक, राम तला के चेहरे पर बुर्जगी की बड़ी-बड़ी तरेड़े फैल जाती थी। तब पूरा गाँव उमड़ कर कैसे उसमें भरी कीचड़ के ढेलों को निकाल-निकाल कर उसके किनारे मजबूत करने के लिए पाल बाँधते थे। सूखे ढेलों के नीचे जब कोई मेढक या कछुआ दिखाई दे जाता तो नई नवेली दुल्हन या बच्चा कैसे अचानक किलकारी मारता हुए सबका ध्यान अपनी और खिंच लेते थे। तब सब पल भर के लिए हाथ का काम रोक कर आश्चर्य से उधर देखते की क्या हुआ। पल भर में समझ जाते की क्या हुआ तब सारा रामतला ठहको सक गूंज उठता था। काम करते लोगों की शान्त और थकान भरे वातावरण में कैसे हँसी की फुहार फैल जाती थी। दिन भर गुड़ और मालपुओं की दावत चलती थी। साल भर की धूल धामस, कीचड़ से मुक्ति पा राम तला आने वाली बरसात के लिए फिर जवान हो जाता था। आज भी गांव में दादा बूढ़े का दिन आता है उसकी लकीर पिटी जाती है। परम्परा की न उसकी ज़रूरत है न उसमें कोई उत्सव है। दादा बूढ़े की मिट्टी निकालने की परम्परा देहात के हजारों गांव में मनाई जाती है। क्‍यों ओर किस लिए ये सब बातें आज पढ़ा लिखा तबक़ा कुछ जानना नहीं चाहता। आंखों पर पट्टी बांधे कर केवल एक भेड़ चाल चल रहा है। उनसे जरा आप पूछ लो भाई ये सब पार्क को खोद कर कहे गढ़ा तैयार कर रहे हो। वह आपको ऐसे देखेंगे की आप किसी दूसरे लोक से आकर उनसे सवाल कर रहे है।

सावन की बौछारें पूरी प्रकृति के अन्दर शीतलता के साथ नए जीवन का संचार भी भर देती हैं। महरून कोमल तीज घास की नव पल्लव कोपलों पर ही नहीं रास्ते पर भी आपको पेर सम्हाल कर रखने को मजबूर कर देगी। तीज की कोमल त्वचा को जरा सा छुआ नहीं की कैसे नई नवेली दुल्हन की तरह सिकुड़ कर बैठ जाएगी। सावन के इस मौसम में कुंवारी लड़कियां ही नहीं बढ़ी बुजुर्ग औरतें भी अल्हड़-नटखट हो रात भर झूला झूलती रहती थी। शायद रात का अँधेरा उनके बूढ़े पन को अपने में आविष्ट कर लेता था। ताकि उस शरीर पर आये बुढ़ापे कोई देखे न, उस छद्म के माहौल में उनका शरीर इसका फायदा उठा कर अपने बचपन को बाहर निकाल लाता था। झूला-झूलते हुए उनके कंठ से निकलते मधुर गीत सर्व-सब‍ में उल्लास भर देते थे। गीतों की मधुर आवाज़ पक्षियों में भोर होने का भ्रम पैदा कर देता थी। मानो अभी पक्षियों के गीत चल रहे है। भ्रमित हो वो भी उनके कंठों से कंठ मिला चहकने लगते थे। उस समय तालाब शान्त हो कर, कैसे इन गीतों की मधुर लोरी में डूब जाता था। उस समय तालाब का वो सोता अलसाया पन कैसे देव तुल्य प्रतीत होता था। मैं उसके किनारे बैठ जाता और उसमें तारों की परछाई को निहारता रहता था। सच ही जिसने वृक्ष को या जल को सोते नहीं देखा वह एक अपूर्व सौंदर्य से वंचित रह गया इस धरा पर।

दशहरे-दीपावली के दिनों में उसके आस पास जलते दीपक ऐसे प्रतीत होते मानो उसने सोने का ताज पहन लिया हो। घर-घर बनी मिट्टी गोबर की साँझी, दशहरे वाले दिन खड़िया, गेरू से पुतते मिट्टी के गोल-गोल सितारे, तालाब के सीने पर जब बच्चे फेंक कर तैराते थे। तो उस समय लहरो से उठी तरंग उसके होंठ की तरह गोल-गोल बन हंसता सा लगता था। अनायास उसके चेहरे पर फैली हँसी देख कर समझ जायेंगे, कि जैसे उसे गुदगुदी हो रही है। जिसके कारण नन्हे बच्चे की तरह किलकारी मार कर हँस रहा हैं। रात को गीत गाती कुंवारी लड़कियों के सर पर रखे मटके के छेद से निकलता दीपक का प्रकाश कैसा भला प्रतीत होता था। दूर से देखने पर ऐसा लगता कि जैसे कोई आसमान से हजारों तारों को तोड़ कर लिए चला आ रहा हैं। किनारों पर मेंढक और झींगुरों की ताने मानो बेंड बाजा कर उनका स्वागत का भी काम कर रहे थे। पास खड़े गाँव के जवान लड़के किनारे पर पत्थरों और कंकरों का ढेर लगाए हुए तैयार बैठे रहते थे। लड़के उन मटकों को ले जाकर तालाब मैं बहुत गहरे तक छोड़ कर आते थे। क्‍योंकि उसके बाद उन्‍हें फोड़ना है। फिर किनारे पर ही फोड़ने में कोर्इ बहादुरी नहीं थी। सो उन्‍हें गहरे से गहरे पानी में जाने दिया जाता था। पानी पर तैरते मटकों से निकलता प्रकाश, टिमटिमाते तारों के अक्ष की तरह प्रतीत होता था। उठती हुई लहरे उसको करोड़ों टुकडों मैं तोड़ कर बिखेर देती थी। लगता जैसे अनंत बाजरे किसी विशाल नदी पर तैर रहे हो। एक विशालता, एक गौरव, गरिमा लिए तालाब कितना गर्व से फूला नहीं समाता था। मटके जब तालाब के बीचों-बीच पहुँच जाते तब लड़के अपनी बहादुरी दिखाते हुए उन्हें पत्थर मार कर तोड़ने लग जाते थे। लड़कियां बेबस लाचार सी केवल दर्शक बनी देखती रहती थी। तर्क ये की मटका दूसरे किनारे पहुँच गया तो गाँव कि लड़की किसी के साथ भाग जाएगी। अब गांव के नवजवान अपने गांव की इज्जत को यूं लूटने दे सकते थे। कई-कई लड़कियां मटका फूटता देख रोने लग जाती थी। न जाने वह उसे दूख हो रहा हो की उसकी भाग जाने का इस साल का सुनहरा मोका भी हाथ से चला गया। अब ये कोन जाने मटके का दुख या न भाग पाने का गम। शायद इस बे-बुझते प्रश्‍न का उत्तर न तब तालाब के पास तब था और न शायद आज है।

कार्तिक की ठिठुरती रातों में जब गाँव की कुंवारी लड़कियां भोर चार बजे रात को उठ कर राम तला में सवा महीने स्नान करती, तब उनके गीतों में ठिठुरती ठंड से काँपते होंठों प्रकृति का कैसा मधुर राग फैल जाता था। उन मधुर ताने में सोये हुए पेड़ पौधे भी अपनी नींद तोड़ कर अपने अलसाया पन को छोड़ कर झूम उठते थे। तालाब में उठती लहरे कैसे उन कवांरे गीतों को मधुर ताल देती थी। पत्तों का कम्पन साफ़ दिखाई देता था। तालाब भी मानो उस ठंडे पन मैं सुबकियां ले कर आनंद विभोर हो रहा है। और आखिर आती है शरद पूर्णिमा की वो रात जब उस सवा महीने स्‍नान का फल उन कुंवारी लड़कियों को यमुना स्‍नान के रूप में मौका मिलता था। सारे गांव वाले अपनी-अपनी बैल गाड़ियों के ऊपर उलटी चारपाइयों को बांध कर। उन्हें हिंडोलों की तरह दुल्हन बनाते थे। बेलों के गले में चौरासी बाँध कर उसकी चाल को और मद मस्‍त कर दि जाती थी। सब गांव की बहु-बेटियाँ रंग बिरंगे कपड़े पहन कर अपनी अपनी-अपनी बेल गाड़ियों में बैठ कर गीत गाती हुई चलती थी। बेल गाड़ियों का काफिला उस पूर्णिमा के चमकते चाँद की रोशनी में रेंगता हुआ कैसा भला लगता था। उसे देख तालाब मन ही मन उदास हो जाता था। उस दिन तालाब के सुने पन का साथी केवल उसकी खामोश लहरे ही होती थी। मानो चाँद की परछाई टूट-टूट कर तालाब के संग आंसू बहा रही हो। महीनों का संग साथ छोड़ गाँव की लड़कियां उससे दूर जा रही थी। तालाब सोचता था क्‍या यमुना का जल मुझे भी अधिक पवित्र है। क्योंकि मैं थिर हूँ, और वो चलायमान अविरल है? क्‍या गति में ही जीवन है, या पवित्रता है। लेकिन उसकी उदासी ज्‍यादा देर नहीं टिकती जैसे ही सूर्य की किरणें उस के ऊपर की फुलंगियों को छूती। पक्षियों ने अपने पंख खोल कर उसकी नाजुक टहनियों पर फुदकना शुरू कर दिया था। अपनी चह-चाहट के साथ चहकना ओर गाना शुरू किया। पीपल के पत्तों का मंद्र समीर में झूमना। आस पास में नया जीवन भर देता था। शांत तालाब में बरबंटियों को छपाक से गिरना। तालाब को गुदगुदा जाता था। और वह भूल जाता था अपने दुख को। और खो जाता था पक्षियों की अठखेलियों के पतिबिम्ब में।

होली का हुड़दंग हो, या बिखरता रंग गुलाल, गाँव की प्रत्येक खुशी-गम में राम तला शामिल रहता था। होली के दिन गांव में पानी कम पड़ जाता, या रंग कम पड़ सकता था। पर रामतला का पानी और मिट्टी अपने अंदर आनंद और उत्‍सव का रंग और गुण गौरव उसे कभी कम नहीं होने देती थी। धीरे-धीर श्‍याम होते तक होली का हुड़दंग घर-गली से चल कर राम तला पर आ जा या करता था। इसके बिना तो होली अधूरी ही समझो।

या गाँव की बारात जब शादी करने के लिए जाती। घुड़चड़ी कर के इसी तालाब के किनारे, डूंडे नीम की छाव में सारी बारात इकट्ठी होती थी। गर्मी की जलती दोपहरी में सब कैसे अपने शरीर की जलन को शांत करने के लिए उस की शरण में आ चेन की श्वास लेते थे। अपने माथे का पसीना पोंछ गहरी मीठी साँस लेते। और दूर सफर पर आगे चलने के लिए अपने को तरोताजा कर तैयारी करते थे। उस समय लड़के की माँ यही भरी पंचायत में सब के सामने दूल्हे को कैसे अपनी सुखी छातियों से दूध पिलाती थी। और दूल्हा किसे शान और लाज से माँ का दूध पीने में गर्व महसूस करता था। और उस समय बेटे और मां का मुंह शर्म के कारण लाल हो जाता था। तब भी यही रामतला दूल्हे को दूध का वास्ता देने का साक्षी बनता था। मानो कह रहा हो विवाहा कर के लाने का संकल्प उसे याद दिलाता था।

शादी के बाद नई नवेली दुल्हन इसी तालाब के किनारे, नीम की डंडियों से आपस में मार-मार कर पति-पत्नी, देवर ननद, जेठानी....कैसे प्यार से सौटका-सौटकी खेलते थे। तब यहीं तालाब उनके आमोद प्रमोद में अपने को शरीक हुआ पाता था। और किस तरह से नई दुल्हन घूँघट की ओट से झाँकती हँसी ठिठोली करती हुई तालाब के किनारे चार लड्डू रख कर उस तालाब को प्रणाम करती थी। की दादा मेरी गोद जल्दी से भरना। कैसी सरलता थी। उस युग में, तब तालाब भी उसे उत्साह और आनंद से भर का उसे आशीष दे रहा होता था। मानों वह भी आपके परिवार का ही कोई अंग हो। जैसे उनके इस नए प्यार को रामतला का जल सींच सकता है। उसके संग-साथ अंकुरित और विकसित कर सकता है। उसमें प्रेम और विश्वास आशीर्वाद भर सकता है। उनकी जीवन रूपी बेल को सिंच कर पल्लवित कर सकता है। और उसी दुल्हन की गोद में जब किलकारी मारता एक नन्हा जीवन आ जाता था। तब सवा महीने बाद कुआँ पूजन का साक्षी भी यही तालाब बनता था।

आज इस तालाब और बरगद की उदासी ओर पीड़ा अब मेरी समझ में आ रही थी। उस डूंड़े नीम की जड़ के पास से लोगों ने अतिशय मिट्टी खोदनी शुरू कर दी थी। जिसके कारण उसकी जड़ें कमजोर हो गई थी। और जिस बात का डर था वहीं हुआ एक दिन भयंकर तूफ़ान में वो नीम धराशायी हो कर गिर गया। जिसे राम तला ने उसे पोषण दिया आज वह उसकी की गोद में चिर निद्रा में समा गया। उसके हरे कोमल पत्‍ते पानी में डूब गये। उन कौओं की कांव-कांव उस नीम की पीड़ा की एक मात्रा पुकार बन गई थी। जिन का घोसला पानी में बह गया। बाकी लोगों की जीवन कि लकीर पर इस घटना का कोई विशेष असर नहीं दिखाई दिया। कोई खुश था चलो अच्छा हुआ रास्‍ते की अड़चन खत्‍म हुई। या कुछ सोच रहे थे। दो चार दिन दातुन के लिए मारा मारी नहीं करनी होगी। कौवों का घर उजड़ने के कारण कुछ कौवों के इस उत्पात से कुछ लोग दुखी थे। क्योंकि वह बेचारे आते जाते लोगों के सर पर टोला मारते थे। पर वो लड़कियां जो इस पर पींग बढ़ती थी वो आज यहां गांव में नहीं थी। अपनी-अपनी ससुराल में मगन हो गई थी। शायद जब गांव में आयेगी तो उसे वो खाली जगह जरूर उदासी को महसूस करेगी। दूख और अफसोस के साथ वो मधुर यादें उसको बाल पन में लोटा ले जायेगी। समय के साथ आदमी की जीवन शैली भी बदल गई है। आज की आधुनिक पीढ़ा को ये सब गँवायी पन नहीं जँचता। धीरे-धीरे गांव की जरूरत ने नया रंग लिया और उस रामतला को भी मिटी से भर दिया। क्‍योंकि अब गांव को तालाब की जरूरत नहीं थी। एक पार्क की जरूरत थी। फिर रामतला के खत्म होने के साथ-साथ छोटे-मोटे पेड़ पौधे भी दम तोड़ गए थे। जैसे वो उसके वियोग में संथारा कर अपने प्राण त्याग गये हो। बरगद, पीपल, सहमल गिनती के ही साहसी बुर्जग पेड़ अपने को किसी तरह से बचाए हुए थे।

मैं कई दिनों तक इसे अपने मन का बहम मानता रहा। परंतु ध्यान में वह मंद्र तरंगें मुझे लगाता कुछ कहना चाह रही थी। जिसे ध्वनि या शब्द तो नहीं कहा जा सकता परंतु इसके अलावा हमारे पास बात करने का दूसरा मध्यम नहीं है। तालाब की मंद-मंद फूस-फूसाहट आज भी मानो कुछ कह रही थी। ’’सात सौ साल पहले जब ये गाँव बसा, तब मेरे सौन्दर्य और स्वच्छ: निर्मल जल ने ही उन्हें आकर्षित कर यहाँ रुकने को मजबूर किया था। दूर जहाँ तक भी आँखें देख पाती वहाँ तक जल ही जल का विस्‍तार था। मानो जाते हुए बादल भी शान्त-एकाग्र जल में अपनी छवि देखने लिए कुछ क्षण रुकने को मजबूर हो जाता थे। हवा बार-बार धक्के मार कर उन्हें याद दिलाती, महाराज चलो आसन से डोलो बहुत लम्बा सफ़र तय करना है। कहां प्रशांत महा सागर है जहां हमें जाना है पर तुम हो की कहीं भी डेरा डाल कर रूक जाते हो। ऐसे तो पहुंच लिए हम अपनी मंजिल तक।...पर बादल है कि मेरे निर्मल जल में अपनी छवि देख कर जाने को तैयार ही नहीं होते थे। पर बेचारों को आखिर जाना ही पड़ता था। पर जाते-जाते अपनी निर्मल आँखों से आंसू की चंद बूँदे मुझ में जरूरी गिरा जाता थे। किनारे-किनारे खड़े पेड़-पौधे तब बहुत जोर से हंस कर तालाब से कहते दादा तुम महान हो ये हमारी तो पुकार सुनते ही नहीं। और आप पर इस तरह से मुग्ध हो उठते है। न जाने आपके पास कौन सा मोहनी मंत्र का जाल जिसमें सब फँस जाते है। कुछ राज हमें भी कह दो। वरना तो अगर तुम नहीं होगे तो हमारी क्‍या गत होगी। कौन सुनेगा हमारी पुकार। तब तालाब उनकी परछाई को देखे कर कितनी निरापद हंसी हंसता हुआ सा प्रतीत होते थे।’’वो दिन कितने सुनहरे थे। आज जब याद करता हूं तो खो जाता हूं उन यादों में। कैसा मंत्र मुग्ध कर जाती है वो यादें भी। मेरी ये बात सुन रह हो न बरगद तुम। शायद तुम्हें ये बात कुछ अजीब जरूर लगेंगी। और हो सकता है तुम्हें इन बातों पर शायद तुम्‍हें भी यकीन नहीं हो।

बरगद--’’ नहीं दादा ऐसी बात नहीं है। वो सब तो मैंने नहीं देखा पर मैंने तो जब से होश सम्हाला था, चारों तरफ़ तुम्हारा ही विस्तार फैला पाया था। एक किनारे पर खड़ा हो जब मैं दूसरे किनारे की और देखता तो तुम्‍हारी विशालता से मुझे भय ही लगता था।‘’

तालाब--’’तुम जब इतने छोटे थे, कैसे मेरी लहरों को आता देख थर-थर कांपने लग जाते थे। ये तो उस ऊँचे मिट्टी के टीले की मेहरबानी ही समझो, जिसे मैं तोड़ नहीं पाया वर्ना तो .... ...। (ये कहते-कहते तालाब मानो उदास हो गया) मैं तो तुम्हें मिटाना नहीं चाहता था। भला मैं ऐसा कर सकता हूं। परंतु ये प्रकृति कमजोर की उत्पति को पसंद नहीं

करती है।

बरगद--’’हाँ दादा ये कैसा खेल हैं तुम्हीं से जीवन, तुम्हीं से विलय। याद है एक रात जब बहुत तेज़ तूफ़ान आया था, कैसे जड़ तक प्राण काँप गये थे मेरे। तुम्हारी लहरे भी कितना विकराल रूप ले किनारों से टकरा कर कैसा भयंकर शोर मचा रही थी। मानो दर्द से छटपटा कर कराह रही हो। उस भयंकर तूफ़ान ने मेरी भी एक बहुत बड़ी शाका को तोड़ दिया था। और दादा वह बेचारा डूँड़ा नीम तो उस दिन गिर कर आपकी गोद मैं धराशायी हो गया था। गिरे हुए के पत्तों पर कैसी निर्भ्रम शांति छाई थी। मानो गिरा नहीं सालों खड़े-खड़े थक कर सो गया है। उसके गौरव और सम्मान में प्रत्येक गाँव वालों ने उसे आखिरी बिदाई से उसे घेर लिया था। उनके चेहरों पर उदासी फैली थी। किसी अपने के खोने की पीड़ा थी। इतने बड़े शोक के सामने अपने एक अंग को खोने की पीड़ा का तो मुझे भान ही नहीं रहा था। महीनों तक मेरी उस टूटी टहनी को नाव बना कर बच्चे किलकारियां मारते हुए उस पर चढ़ कर तैरते रहते इधर से उधर जाते थे। तुम्हारे सीने पर कैसे वो टूटा हुआ टहना इधर से उधर तैरता फिरता रहता था। कभी बच्चे उसे उस पार ले जाने की कोशिश करते परंतु बीच से घबरा कर इस पार ले आते थे। मैं उनके इस करतबों को देख कर मन ही मन हँसता था। मुझ जीवित के पास आने से तो कैसे डर के मारे मुँह पीला पड़ जाता था, और मुर्दा तने पर सवारी, हाय ये कैसी विडम्बना.....।'' ( कहते-कहते बरगद ने एक गहरी साँस ली हो)

तालाब--’’हाँ वो कितने स्वर्णिम और सुहाने दिन थे, अब ना वो दिन रहे न रहे वो बच्चे और न रहे वो खेल। समय की गति तेज तो नहीं परंतु बदलाहट बहुत तेजी से हो रहा है।’’

बरगद और दफ़न तालाब अपनी यादों के ऊपर गिरी धूल मिट्टी को झाड़ कर उन मीठी यादों में डूब जाना चाहते थे। आज दोनों उन्हें याद कर अपनी दूरियों को कम कर रहे थे। हमने प्रकृति का कितना संग-साथ खो दिया है। आज बच्चे पेड़ पौधों को उन्‍हें अपना संगी साथी मानना तो दूर उनमें भी जीवन है, ये भी भूल गये है। देखो आज पेड़ पौधे कैसे सीमेंट-कंकरीट में जीवित दफ़न खड़े दिख रहे है, जैसे कैसे कण-कण मर रहे हो। कैसे लाचार, बेबस, असहाय और उदास नज़र आते है। शायद ये दर्द, ये आहें आने वाले तूफ़ान की चेतावनी तो नहीं है। न बुर्जग की कोई सुनता है और न प्रकृति के दर्द को कोई महसूस करने की कोशिश करता है। दोनों अनदेखे और त्याज्य अनादर की वस्तु बन कर रह गए है।

ये बात कितनी ही बार मेरे ध्यान के गहरे जाने के बाद मैंने सूनी है। बिना कान के बिना किसी ध्वनि के। मैं खुद इस बात का साक्षी हूं।

फिर उसके बाद मैं सालों उस बरगद के नीचे बैठ कर ध्यान करता रहा। उसको छूता, उसे बाँहों में भरता, उसके कानों में हलके से फुसफुसा कर कुछ कहा अनकहा सा कहने की कोशिश करता रहा। कभी उसे पुरानी बातों को याद दिलाने के लिए उकसाता। लेकिन वो ध्वनि, वो शब्द फिर न जाने कहाँ खो गए। दूर खड़े हो कर जब में उस विशाल बरगद को देखता, तो लगता मुझे इशारा कर अपने पास बुला रहा है। सर्दी की ठिठुरन, गर्मियों की तपिश, काले कजरारे बादलों की गड़गड़ाहट, न रिमझिम बरसती बरखा उसे हँसा पाई। वो निर्जीव सा पथराई आँखों से खाली शून्य में ताकता रहा था। अपनी विशालता को अपने में समेटे, उसकी सूनी टहनियों में, उदास पत्ते में, हवा की छुअन में, उन्हें धीरे से हिलती तब उनमें खड़-खड़ा हट जरूर होती थी। परन्तु उसकी वो खड़-खड़ाहट कुछ कहना चाह कर भी नहीं कह पाती थी। शायद ना वहाँ अब शब्दों की पहुँच थी, न ही ध्वनि की.... बस एक नीरवता, एक सूनापन, एक सन्‍नाटा छाया रहता उसके ऊपर। वह मौन चारों तरफ फैली उस नि:शब्दता को और अधिक गहरा कर रहा था। उसका आभा मंडल भी धीरे-धीरे निस्‍तेज होती जा रही थी। उसके पत्‍ते दिखने में जीवित नहीं लग रहे थे। उसके फलों में भी अब वो ताजगी वो रस वो स्वाद नहीं रह गया था। शायद मुझे लगा वो मर रह है। तिल-तिल कर और में चाह कर भी उसकी मदद नहीं कर पा रहा हूं। ये कैसी विडम्बना और लाचारी है। जो केवल सिसक सकती है रो नहीं सकती।

परंतु एक प्रश्न सदा प्रश्‍न ही बना रहा। वो उस दिन क्‍यों बोला। क्‍या मेरी चेतना का टुयुनिंग या लयवदिता उस दिन उसकी समस्‍वरता से एक हो गई थी। या मेरा चित उस दिन उसी आदम युग में चला गया था। अपने केंद्र के सफर पर जब हम निःशब्द को भी शब्दों से अधिक समझ लेते हे। इसी अलहान से पूरे धर्म ग्रंथ उतरे है। एक मौन के केन्द्र पर शब्‍द। इसलिए धर्म ग्रंथ चाहे वो कुरान हो बाइबिल हो, उपनिषाद हो, पुराण हो। वह उतरे है किसी और लोक से। उन का कोई रचयिता नहीं है। पर इस पहेली को में कभी समझ या सुलझा नहीं पाया था। उस दिन ही वो शब्द वो निनाद मुझे क्यों सुनाई दिये या जिन्हें में पी सका उसके बाद नहीं। उन की आहट तो ध्यान मुझे कई दिनों से आ रही थी। परंतु मन एक और बहुत उदास था। कि मैंने क्यों सूनी वो पीड़ा वो दर्द। मैं जब भी उसे देखता, और सोचता, उस दिन वो बरगद का वृक्ष मुझसे क्यों बोला? या ये सब केवल मेरे मन का भ्रम मात्र था। शायद इसे मैं कभी न जान सकूँगा। या ऐसा भी हो कि मैं खुद उसे जानना नहीं चाहता और न ही एक सुखद क्षणों को तोड़ना चाहता हूं। ये भ्रम भरी यादें मेरे जीवन की अनमोल यादों में से एक है। जो मुझे एक नई उर्जा का संचार देती है। और मेरे थके जीवन को फिर एक नई ताजगी देती है।

और उठ कर किसी नई आस से फिर किसी दूसरे वृक्ष की और बढ़ जाता हूं कि शायद ये भी एक दिन बोलेगा......ये भ्रम मीठा है और में जीना चाहता हूँ, इसी में रहना चाहता हूं। क्या सत्य है और क्या भ्रम ये केवल मन और बुद्धि के एक खेल है। इसे में गहरे से जानता हूं। भले वह भ्रम हो परंतु मुझे एक नई संवेदना दे गया। मेरे अचेतन को सजग कर गया। मैं अंतस से ऋणी हूं उस तालाब का उस बरगद का जिसने कुछ क्षण के लिए आपना साक्षी साथी हमसफर मुझे चुना। जो आनंद और मधुरता का रस था उस पल का मिट कर भी नहीं मिटा। आज भी जैसे में आँख बंद कर उसे याद करता हूं....मेरे अंदर के मुख में मधुरता फैल जाती है।

आज इतना ही

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