दिनांक 24 सितंबर, 1980;
श्री रजनीश आश्रम, पूना
पहला प्रश्न:भगवान,
यह एक प्रचलित श्लोक है:
अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम्।
परोपकार: पुण्याय पापाय परपीड़न।।
अठारह पुराणों में व्यास के दो वचन ही मुख्य
हैं--परोपकार से पुण्य होता है और परपीड़न से पाप।
भगवान, इस पर कुछ कहने की
कृपा करें।
शरणानंद,
यह सूत्र निश्चित ही बहुत विचारणीय है, क्योंकि इस देश का
सारा आधार इसी सूत्र पर निर्भर है। यह बुनियाद है तथाकथित धार्मिक व्यक्तित्व पैदा
होता है, वह पाखंड का ही होता है। यह सूत्र ऐसा है कि
तत्क्षण इसमें भ्रांति दिखाई पड़नी असंभव है। सोचोगे तो भी नहीं समझ पाओगे कि इसमें
कुछ भूल हो सकती है। बात इतनी साफ मालूम पड़ती है--दो और दो जैसे चार होते हैं ऐसी।
कौन इसका विरोध करेगा?--"परोपकार से पुण्य होता है और
परपीड़न से पाप।'
लेकिन मैं इसका विरोध करता हूं। मेरे देखे बात इससे बिलकुल उलटी है।
पुण्य से परोपकार होता है, पाप से परपीड़न। तब सवाल उठेगा कि पुण्य कैसे होता है।
पुण्य है ध्यान की सुगंध और पाप है ध्यान के अभाव से उठती दुर्गंध। ध्यान हो तो
जीवन में पुण्य की आभा होती है। जैसे फूल खिले, गंध उड़े;
जैसे धूप जले और वायुमंडल सुवासित हो उठे--वैसे ही ध्यान है वहां
पुण्य छाया की तरह आता है। और जहां पुण्य है वहां परोपकार है।
परोपकार बिना पुण्य के असंभव है। बांटोगे क्या जब देने को तुम्हारे
पास ही कुछ नहीं? पुण्य यानी संपदा--आंतरिक संपदा। होगा कुछ तुम्हारे
पास तो दे सकोगे, नहीं होगा तो देने का दिखावा करोगे,
या वही दोगे जो है--अर्थात बाहर का। बाहर से पुण्य का कोई नाता नहीं
है। धन दोगे, धन देने से पुण्य का कोई संबंध नहीं है।
क्योंकि धन पाने के लिए पहले परपीड़न करना होगा।
गणित को समझने की कोशिश करो। धन पाओगे कहां से? एक हाथ से शोषण करोगे तो धन इकट्ठा होगा। दस रुपये चूसोगे तो एक रुपया दान
करोगे। दान करोगे कैसे? धन आएगा कहां से? जिनका शोषण करोगे उनको ही फिर दान करोगे।गरीबी क्यों है? फिर गरीब की सेवा करते हो, फिर कहते हो गरीब
दरिद्रनारायण है! पहले उसे दरिद्रनारायण बनाते हो। बनाना ही पड़ेगा--सेवा तो करनी
है! पहले उसे चूसो, ताकि वह दरिद्र हो जाए; फिर पुण्य करो, परोपकार करो। फिर उसे कुछ दे दो दो
टुकड़े रोटी के, उसके लिए एक झोपड़ा बनवा दो, धर्मशाला खुलवा दो, अनाथालय बनवा लो; विधवा आश्रम बनवा दो, पहले विधवाएं खड़ी करो। विधवा
को विवाह मत करने देना, नहीं तो विधवा आश्रम कैसे बनाओगे?
फिर परोपकार कैसे होगा? पहले दीन करो, दरिद्र करो। और करना ही होगा, नहीं तो धन कहां से
लाओगे? पुण्य कैसे करोगे?
बाहर से अगर परोपकार होता होता, तब तो फिर परोपकार का
आधार ही परपीड़न होगा। और जिस परोपकार के आधार में परपीड़न है उसे किस मुंह से
परोपकार कहते हो? जिनको तुम कहते हो --दानी दाता, महादानी--वे लाते कहां से हैं? बिड़ला ने इतने मंदिर
बनवाए, स्वभावतः महादानी! मगर यह धन आता कहां से है, बिड़ला ने जितना शोषण किया है इस देश का, किसी और ने
किया? और यह भी मत सोचना जितना शोषण किया, उतना दान कर दिया। व्याज भी दान नहीं किया है। यह तो बड़े मजे की बात हुई,
यह दुनिया भी हाथ से न गयी और जन्नत भी बचा ली। यहां भी लूटा और
वहां भी लूटेंगे। वहां भी...स्वभावतः इतने मंदिर बनाए तो बिड़ला के लिए तो परमात्मा
के ठीक बगल में जगह बनानी होगी।किसने बनाए इतने मंदिर, बनाए
कभी किसी ने? है कोई ऐसा महादानी? यहां
भी चूसा, वहां भी चूसोगे।
जुगल किशोर बिड़ला से मेरा मिलना हुआ था। उनसे मैंने कहा कि ये सब
मंदिर, ये धर्मशालाएं, ये दान--धोखा
है। तिलमिला गये। कहने लगे,"आप भी अजीब आदमी हो! सो
किसी साधु-संत ने मुझसे नहीं कहा।'
मैंने कहा, "मैं कोई साधु नहीं, कोई संत
नहीं। अजीब आदमी हूं! मैं तो जो सच है वही करूंगा। साधु संत कैसे कहेंगे? साधु-संत तुम्हारे ही मंदिरों में तो अड्डा जमाए बैठे हैं। साधु संत और
तुम्हारे बीच तो सांठ-गांठ है। तुम्हारे तथाकथित ऋषि मुनि, तुम्हारे
महात्मा, तुम्हारी कौड़ियों पर जी रहे हैं। वे तो तुम्हारी
प्रशंसा के गीत गाएंगे, स्तुतियां गाएंगे। वे तुमसे क्यों
कहेंगे?'
वे मुझसे कहने लगे, "महात्मा गांधी ने भी मुझसे
कभी ऐसी बात नहीं की।'
मैंने कहा, वे भी कैसे कहेंगे! तुमने उनको दस्तखत करके चैक दिए
हुए थे कि जितना पैसा लिखना हो तुम लिख लो।'
महात्मा गांधी ने फेहरिश्त दे रखी थी बिड़ला को उन लोगों की, जिनको प्रतिमाह बिड़ला की तरफ से पैसा मिलता रहना चाहिए। उसमें जयप्रकाश
नारायण का भी नाम था। जयप्रकाश नारायण जीवन भर बिड़ला की तरफ से धन पाते रहे! अजीब
साजिश है! और अकेले जयप्रकाश नहीं थे, भारत का ऐसा कोई नेता
नहीं था जो बिड़ला से पैसे न पाता हो। बातें दरिद्रनारायण की! और फिर बिड़ला की तो
प्रशंसा करनी ही होगी, स्तुति करनी ही होगी।
मैंने कहा कि मुझे आप से कुछ चाहिए नहीं। मुझे उनके पास ले गए थे सेठ
गोविंददास; वे भारत के सबसे पुराने संसद-सदस्य थे, पचास साल, अंग्रेजों के जमाने से संसद के सदस्य थे,
मरते दम तक संसद सदस्य रहे। कहते हैं कि विंस्टन चर्चिल के
अतिरिक्त्त दुनिया में कोई आदमी इतने लंबे समय तक संसद का सदस्य नहीं रहा। वे मुझे
ले गये थे और ले इसलिए गये थे कि बिड़ला मेरे काम में कुछ सहयोगी होंगे। तो
स्वभावतः वे बिचारे बड़ी पेशोपेश में पड़ गये। वे मेरा कुरता खींचने लगे। मैंने उनसे
कहा कि आप कुरता न खींचे। मुझे तो जो कहना है मैं कहूंगा।
पर उन्होंने कहा, "आपको याद दिला दूं,
हम आए ही इसलिए हैं कि उससे कुछ सहायता लेनी है।'
मैंने कहा कि मुझे सहायता नहीं लेनी है और सहायता किसी शर्त पर तो मैं
ले ही नहीं सकता। अगर मेरी बात उन्हें ठीक लगे और फिर मेरे काम में आ सकते हों तो
गलती में हैं। खरीद लिया होगा महात्मा गांधी को और जयप्रकाश नारायण को, मुझे कुछ लेना देना नहीं! मैं बिकने को नहीं हूं।
परोपकार कैसे करोगे? धन से? धन
आएगा कहां से? तो तुम्हारे सारे इतिहास के बड़े-बड़े दानी
बड़े-बड़े से बड़े शोषक थे। मैं बाहर की चीजें लेने-देने में दान नहीं मानता, न पुण्य मानता हूं। पुण्य तो आनंद बांटने का नाम है, प्रेम बांटने का नाम है। वह आंतरिक संपदा है। और भेद बड़ा है। बाहर की
संपदा दूसरों से छीननी पड़ती है, तब मिलती है। और भीतर की
संपदा किसी से छीननी नहीं पड़ती, तुम उसे ले कर आए हो--सिर्फ
आविष्कृत करनी है, सिर्फ खोजनी है, तुम्हारे
भीतर पड़ी है। आनंद है, प्रेम है, गीत
हैं, संगीत है, नृत्य है--तुम्हारे
भीतर सब पड़ा है। तुम्हारे भीतर महोत्सव की क्षमता है, लेकिन
उसकी तलाश करनी होगी; उसकी तलाश की प्रक्रिया ध्यान है।
इसलिए मैं कहता हूं: ध्यान से पुण्य, पुण्य से परोपकार।
मगर ध्यान मूलतः स्वार्थ है। तब और अड़चन खड़ी होती है, क्योंकि
तुम्हारी बंधी धारणाएं हो जाती हैं उनके जीवन में सोचने की तो मृत्यु हो जाती है,
विचार की तो लाश निकल जाती है। विचार की तो कभी की अरथी उठ चुकी
होती है। विवेक तो खो ही जाता है।
ध्यान तो स्वार्थ है, क्योंकि स्वयं के अर्थ की खोज ही स्वार्थ है। स्वयं की अर्थवत्ता को जान
लेना ही स्वार्थ है। मैं "स्वार्थ' को बुरा शब्द नहीं
मानता, बड़ा प्यारा शब्द है। जरा उस शब्द की व्युत्पत्ति
देखो--स्वयं का अर्थ! ध्यान का वही तो प्रयोजन है, वही
लक्ष्य है। और जिसने स्वयं का अर्थ जान लिया, वही तो दूसरे
के किसी काम आ सकता है। क्यों? क्योंकि जिसने स्वयं का अर्थ
जान लिया, वही तो दूसरे के किसी काम आ सकता है। क्यों?
क्योंकि जिसने स्वयं को जाना उसने यह भी जाना कि कोई दूसरा नहीं
है--एक का ही विस्तार है। यह हाथ भी मेरा है और यह हाथ भी मेरा है। हालांकि दो
दिखाई पड़ते हैं, मगर दो नहीं हैं, क्योंकि
दोनों मुझमें जुड़े हैं।
जिस व्यक्ति ने अपने आंतरिकतम केंद्र का आविष्कार कर लिया उसे तत्क्षण
दिखाई पड़ जाता है: परिधि पर हम भिन्न हैं, केंद्र पर हम एक हैं।
फिर परोपकार भी उपकार नहीं है; वह भी अपना ही आनंद है। इसलिए
उस परोपकार से अहंकार निर्मित नहीं होता, अकड़ पैदा नहीं होती
कि मैंने इतना दान किया, इतना पुण्य किया, इतनी धर्मशालाएं, इतने मंदिर बनवाए, इतनी मस्जिदें खड़ी करवायीं, इतने प्याऊएं खुलवा दीं,
इतने वृक्ष लगवा दिए। उससे फिर अहंकार पैदा नहीं होता। बात करने की
है ही नहीं। मेरा आनंद था। किसी से कुछ इसका प्रत्युत्तर नहीं पाना है।
और दूसरा है कौन? एक ही जी रहा है। एक ही हरेक
हृदय में धड़क रहा है। मगर स्वयं को जानने वाला ही इस सत्य के प्रति जागरूक हो पाता
है, इस अद्वैत के प्रति बोध से भरता है। व्यास के इस सूत्र
में तो द्वैत स्वीकार ही कर लिया गया: परोपकार से पुण्य होता है। पर को तो मान ही
लिया कि दूसरा दूसरा है और तुम्हें उसकी सेवा करनी है।
पुण्य है, दूसरे की सेवा पुण्य है। परमात्मा ने तुम्हें इसलिए
बनाया है कि दूसरों की सेवा करो।
छोटे बच्चों के पास तो बड़ी निष्कलुष दृष्टि होती है, सड़ी गली दृष्टि नहीं; न हिंदु की होती है, न मुसलमान की, न जैन की, न
बौद्ध की। स्पष्ट दृष्टि होती है। उस बच्चे ने कहा, "यह
तो मेरी समझ में आ गया। तुम कई बार मुझे कह चुकी हो कि मुझे परमात्मा ने इसलिए
बनाया कि मैं दूसरों की सेवा करूं। सवाल यह उठता है, दूसरों
को किसलिए बनाया? इसीलिए कि मैं उनकी सेवा करूं? दसरों को भी इसीलिए बनाया? दूसरे क्या करेंगे?
उनको किसलिए बनाया? अगर तुम कहो कि दूसरों को
मेरी सेवा करने के लिए बनाया और मुझको उनकी सेवा करने के लिए बनाया, तो परमात्मा भी गणित में बड़ी गलतियां कर रहा है।'
उस बच्चे ने कहा, "मैं अपनी सेवा कर लूं,
वे अपनी सेवा कर लें, बात खतम। मैं उनकी सेवा
करूं, वे मेरी करें--इतना जाल क्यों फैलाना? जब वे मेरी कर सकते हैं तो अपनी कर सकते हैं। जब मैं उनकी कर सकता हूं तो
अपनी कर सकता हूं।'
यह परोपकार की धारणा ही परपीड़न को छिपाने की व्यवस्था है। जब तुम
दूसरों को सताते हो...बिना दूसरों को सताए न तो धन है और न पद है, न प्रतिष्ठा है। दूसरों को सताओगे तो ही सब कुछ है। फिर दूसरों को सताने
से अपराध-भाव पैदा होता है। भीतर लगता है, यह मैं क्या कर
रहा हूं! उस अपराध-भाव को छिपाने के लिए कुछ करना पड़ता है। उसका नाम परोपकार है।
उस अपराध-भाव की लीपापोती करनी पड़ती है। उसके ऊपर सुंदर-सुंदर पर्दे लटकाने होते
हैं। घाव पर दो फूल रख कर छिपा देते हैं। घाव भूल जाता है,फूल
दिखाई पड़ने लगते हैं।
परपीड़न चल रहा है। उसको छिपाने के लिए परोपकार चल रहा है। और कितनी
सदियों से तुम परोपकार कर रहे हो व्यास की मान कर, अब तक हो नहीं पाया।
कब होगा? कम से कम दस हजार साल से तो तुम परोपकार कर ही रहे
हो। न भिखारी मिटता है, न गरीब मिटता है, न दीन हीन मिटता है। बढ़ते जाते हैं दीन हीन, गरीबी
बढ़ती जाती है, भिखारी बढ़ते जाते हैं। परोपकार भी हो रहा है।
परिणाम कहां है? हाथ में क्या लगता है? हाथ लाई कुछ भी नहीं। गणित का विस्तार बड़ा है।
महात्मा समझा रहे हैं परोपकार करो और परोपकार करने वाले परोपकार कर
रहे हैं। हो कुछ भी नहीं रहा है। महात्मा समझा-समझा कर कि सेवा, परोपकार बड़ा पुण्य है, अपनी सेवा करवा रहे हैं। और
जो सेवा कर रहे हैं वे अपना अपराध छिपा रहे हैं। फेंक देते हैं दो टुकड़े--उन्हीं
को, जिनके लहू को चूस कर बैठे हैं। लेकिन हाथ में खून लग गया,
उसको धोना भी जरूरी है, तो गंगा-जल में धो
लेते हैं। परोपकार यानी गंगा जल। परपीड़न को छिपाने के ये उपाय हैं। इससे मिटा नहीं
परपीड़न। मिटेगा भी नहीं कभी, क्योंकि हम मसले को हल नहीं
करना चाहते, सिर्फ गुप्त करना चाहते हैं। आड़ बना लेना चाहते
है कि किसी को दिखाई भी न पड़े, मुखौटा ओढ़ लेना चाहते हैं।
इसलिए मैंने कहा कि यह सब पाखंड को पैदा करने वाला सूत्र है।
मेरा जोर ध्यान पर है। ध्यान का अर्थ है: स्वार्थ, परम स्वार्थ, आत्यांतिक स्वार्थ! क्योंकि ध्यान से
ज्यादा निजी कोई बात नहीं है इस जगत में। ध्यान का कोई सामाजिक संदर्भ नहीं। ध्यान
का अर्थ है अपने एकांत में उतर जाना, अकेले हो जाना, मौन, शून्य, निर्विचार,
निर्विकल्प। लेकिन उस निर्विचार में, उस
निर्विकल्प में जहां आकाश बादलों से आच्छादित नहीं होता--अंतर आकाश--भीतर का सूरज
प्रगट होता है। सब जगमग हो जाता है। सब रोशन हो जाता है। फिर तुम्हारे भीतर प्रेम
के फूल खिलते हैं, आनंद के झरने फूटते हैं, रस की धाराएं बहती हैं। फिर उलीचो, फिर बांटो।
बांटना ही पड़ेगा। और उस बांटने को मैं
परोपकार कहता हूं।
और जिसकी जीवन में ध्यान नहीं है, वह तो दूसरे को
सताएगा। सताएगा ही! अपरिहार्यरुपेण सताएगा। क्यों। क्योंकि जो खुद दुखी है वह दुख
ही बांट सकता है। और गैर ध्यानी दुखी होगा ही, नहीं तो कोई
ध्यान तलाशे क्यों? अगर बिना ध्यान के जीवन में सुख हो सकता
होता, तो सुख कभी का हो गया होता। बिना ध्यान के जीवन में सुख
होता नहीं। ध्यान के बिना सुख का बीज टूटता ही नहीं, अंकुरण
ही नहीं होता। फूल तो लगेंगे कैसे? फल तो आएंगे कैसे?
ध्यान तो सुख के बीजों को बोना है।
बुद्ध एक खेत के पास से गुजरते थे। उस खेत के किसान ने उन्हें रोका और
कहा, "भंते, एक प्रश्न है मेरे
मन में। मैं तो किसान हूं। मुझे कुछ ऐसी भाषा में समझाएं, जो
मेरी समझ में आ सके। मैं कुछ बड़े शास्त्र नहीं समझ सकता।'
बुद्ध ने कहा, "बड़े शास्त्र की मैं बात ही नहीं करता। मैं भी
किसान हूं।'
किसान थोड़ा चौंका। उसने कहा, "आप और किसान! न
तो आप पहले किसान थे। मुझे पता है कि आप राजपुत्र हैं और न आप अब किसान हैं। अब
प्रबुद्ध हो गये। आपको मैंने कभी खेतीबाड़ी करते नहीं देखा। कहां है खेत, कहां है फसल? और अगर खेतीबाड़ी करते हैं आप तो यह कोई
समय है यहां-वहां घूमने का? यही तो मौसम है। आप जा कहां रहे
हैं?'
बुद्ध ने कहा, "मैं भीतर की खेती करता, तुम
बाहर की खेती करते। मैं भीतर बीज बोता, मैं भीतर की फसल
काटता। तुम बाहर बीज बोते, बाहर की फसल काटते। मैं तुम्हारी
भाषा में बोल रहा हूं। तुम्हीं ने तो कहा कि तुम्हारी भाषा में बोलूं। तो तुम्हारी
भाषा में बोल रहा हूं।'
ध्यान भीतर की खेती है, भीतर की बागवानी है।
और जब भीतर फूल होते हैं और फसल ऊगती है, और फसल लहलहाती है
और जब तुम्हारे भीतर आनंद की तरंगे उठती है, तो क्या करोगे?
इस आनंद को बांटना ही पड़ेगा। जब बादल जल से भरे होते हैं तो बरसना
पड?ता है। और जब दीये में रोशनी होती है तो किरणें फैलती
हैं। और जब फूल में सुगंध उड़ती है, चांदत्तारों को छूने की
अभीप्सा रखती है।
जिसके भीतर आनंद है वह बांटेगा। और आनंद ही सच्चा धन है। क्योंकि इसे
किसी से छीनना नहीं होता, इसे किसी और से लेना नहीं होता। यह अपना है। और अपना
है, वही दो, तो पुण्य है। जो अपना है
ही नहीं, उसकी दे कर पुण्य मना रहे हो!
बिड़ला के पास यह धन आया कहां से? जन्म के साथ तो कोई
लेकर आता नहीं।
लोग कहते हैं--जैन कहते हैं--अपने शास्त्रों में कि महावीर ने धन का
त्याग किया, बहुत बड़ा त्याग किया। मैं उनसे पूछता हूं, महावीर लेकर आए थे? खाली हाथ आए थे। तो यह धन महावीर
का हो नहीं सकता। यह धन तो उन्हीं का था जिनको वे दान कर रहे हैं। और जिसका था उसी
को दे दिया, इसमें दान क्या है? यह धन
अपना तो हो ही नहीं सकता। हर बच्चा खाली हाथ आता है और हर मुर्दा खाली हाथ जाता
है। बस यहां चार दिन की चांदनी है, फिर अंधेरी रात। चार दिन
की चांदनी को तुम अपनी मान लेते हो। यह अपनी नहीं है, जरा भी
अपनी नहीं है।
चार दिन की फकत चांदनी है
चांदनी का भरोसा नहीं है
इसलिए हूं अंधेरे का सौदा
रोशनी का भरोसा नहीं है
कितने घर के दीयों को बुझाकर
तू मनाता है नादां दिवाली
जिंदगी पर अरे मरने वाले
जिंदगी का भरोसा नहीं है
चार दिन की फकत चांदनी है
चांदनी का भरोसा नहीं है
पहले खुद्दारियों मेरी देखो
फिर मुझे शौक से गालियां दो
दुश्मनी का भरोसा नहीं है
चार दिन की फकत चांदनी है
चांदनी का भरोसा नहीं है
बिजली चमके तो जग सारा देखे
और गिरती है यह कहीं पर
जिस कली से चमन में है रौनक
उस कली का भरोसा नहीं है
चार दिन की फकत चांदनी है
चांदनी का भरोसा नहीं है
जब भी मिलते हैं साकिर से वाइज
जिक्र हूरों का करते हैं वाइज
आपकी तो मुझे शेख साहब
बंदगी का भरोसा नहीं है
चार दिन की फकत चांदनी है
चांदनी का भरोसा नहीं है
इस जगत में हम आते हैं खाली हाथ, जाते हैं खाली हाथ।
तो बीच में जो हम अपना मान लेते हैं, वह अपनी है ही नहीं। और
जो अपना नहीं है उसका त्याग कैसा? जो अपना नहीं है उसको देने
की बात कैसी? बात ही बेहूदी है। जो अपना है उसे ही दिया जा
सकता है। उसे ही देने का मजा भी है। लेकिन अपने की पहले तलाश करनी होती है।
इसलिए मैं व्यास के सूत्र से राजी हूं। मैं तो कहता हूं: पहले ध्यान।
ध्यान से पुण्य। पुण्य यानी धन--भीतर का धन--उसका नाम है पुण्य। और जहां पुण्य है, जहां भीतर का धन है, जहां भीतर की गरिमा है, भीतर का साम्राज्य --वहां बांटना शुरू हो जाता है।
उस बांटने के पीछे एक राज और। बाहर का धन बांटो तो कम होता है, भीतर का धन बांटो तो बढ़ता है। प्रेम जितना दो उतना ही तुम प्रेमल होते
जाते हो। आनंद जितना बांटो उतना ही तुम आनंदित होते जाते हो। रोशनी में जितने लोग
तुम्हारे भागीदार हो जाएं, तुम्हारी रोशनी उतनी ही
प्रज्जवलित, उतनी ही ताजी, उतनी ही नयी,
उतनी ही विराट होती चली जाती है।
बाहर के अर्थशास्त्र में और भीतर के अर्थशास्त्र में बुनियादी विरोध
है। बाहर का अर्थशास्त्र कहता है: "बचाओ, पकड़ो, रोको, देना मत, छीनो। अगर यूं
बांटा तो खुद ही भिखमंगे हो जाओगे। लूटो।' बाहर का
अर्थशास्त्र लूटने का है। भीतर का अर्थशास्त्र बिलकुल उलटा है--लुटाओ। दोनों हाथ
उलीचिये! कबीर कहते हैं: यूं उलीचना चाहिए भीतर का आनंद, जैसे
किसी की नाव में पानी भर जाए तो वह क्या करता है, दोनों हाथ
उलीचता है। एकदम उलीचने में लग जाता है। ऐसे ही जब भीतर का आनंद आए तो दोनों हाथ
उलीचिए। जितना उलीचोगे उतना ही पाओगे नये-नये स्रोत खुलते जाते हैं, झरनों पर झरने फूटने लगते हैं। सारे परमात्मा का साम्राज्य तुम्हारा हो
जाता है। वह देने वाले का है।
और भीतर जो दुखी है वह कैसे परपीड़न से बचेगा? दुखी व्यक्ति दुख ही देगा। कहे कुछ बेचारा, चाहे
कुछ। मैं दुखी आदमी की मनोभावनाओं पर संदेह नहीं कर रहा हूं। अक्सर यूं होता है,
रोज तो तुम देखते हो, हर जगह तो तुम देखते
हो--दुखी आदमी भी चाहता है कि सुख दे। कौन मां-बाप नहीं चाहते कि अपने बच्चों को
सुख दें। लेकिन क्या दे पाते हैं, सवाल यह है? बच्चों से पूछो। बच्चे तो सिर्फ पीड़ा अनुभव करते हैं। बच्चे तो अपने
मां-बाप को कभी क्षमा नहीं कर पाते।
इसलिए दुनिया की सारी पाखंडी संस्कृतियां अब तक आदमी को यह समझाती
रहीं कि मां-बाप का आदर करो। क्यों? क्योंकि आदर स्वभावतः
उठता नहीं, सिखाना पड़ता है, थोपना पड़ता
है, जबरदस्ती थोपना पड़ता है। सारी दुनिया की संस्कृतियां,
सभ्यताएं इस बात पर राजी हैं कि मां-बाप का आदर करो। हर बच्चे को
सिखाया जाता है बचपन से ही कि मां-बाप का आदर करो। क्यों? इतनी
सिखावन की जरूरत क्या है? किसी मां को हम नहीं सिखाते कि
बच्चे को प्रेम करो। कोई शास्त्र नहीं समझाता मां को कि बच्चे को प्रेम करो,
क्योंकि बच्चे के प्रति मां का प्रेम स्वाभाविक है, नैसर्गिक है, इसे सिखाने की कोई जरूरत नहीं। युवकों
को हम नहीं समझाते कि प्रेम में गिरो। रोकते हैं वरन् कि देखो प्रेम से सावधान,
किसी के प्रेम में मत पड़ जाना। गिराने की तो बात अलग, गिरने की समझाने की तो बात अलग--रोकते हैं, अड़चनें
डालते हैं। युवक और युवतियों को मिलने नहीं देते, कक्षाओं
में साथ नहीं बैठने देते, छात्रालयों में साथ नहीं रहने
देते। दूर-दूर रहो! युवक-युवतियों की तो बात छोड़ दो, साधु-संन्यासी
भी स्त्रियों से भयभीत रहते हैं। साधु और साध्वियां भी साथ नहीं बैठतीं। दूर-दूर,
अलग-अलग! साध्वियां अलग चलती हैं, साधु अलग
चलते हैं, उनका झंड इकट्ठा नहीं चलता। क्योंकि जो स्वाभाविक
है उससे डर है; वह तुम्हारी सब साधुता, तुम्हारे सब पाखंड को तोड़ कर प्रगट हो सकता है। वह भीतर मौजूद है। दबाया
हुआ है। वह कभी भी मौका पाकर, अवसर पाकर प्रगट हो सकता है।
लेकिन बच्चों को हम सिखाते हैं सारी दुनिया में: "अपने मां-बाप
को आदर दो।' क्यों? सिर्फ इसलिए कि अगर
बच्चों को हम यह न सिखाएं तो आदर तो देना दूर, बच्चे मां-बाप
को अपना दुश्मन समझेंगे, अनादर देंगे। हालांकि हमारे सिखाने
पर भी अनादर देते हैं, सिखाने के बावजूद भी अनादर करते हैं।
इसलिए तो बुढ़ापे में मां-बाप को यह तकलीफ होती है कि बच्चे हमारा आदर क्यों नहीं
करते, अनादर क्यों करते हैं? हमने इतना
किया इनके लिए, कितने दुख हमने नहीं झेले इनके लिए और आज
हमारी कोई चिंता नहीं है। कैसा कलियुग आ गया!
इससे कलियुग का कोई संबंध नहीं। असल में मां-बाप दुखी हैं। चाहते हैं, उनकी मंशा अच्छी है कि बच्चों को सुखी बनाएं। लेकिन दुखी आदमी लाख कोशिश
करे किसी को सुखी करने की, असंभव, सुखी
नहीं कर सकता, दुखी ही करेगा। और बच्चे फिर बदला लेंगे। तो
सारी शिक्षाएं एक तरफ पड़ी रह जाती हैं, हर बच्चा बदला लेता
है। लेना ही पड़ेगा बदला। प्रतिशोध पैदा होता है उसके भीतर।
हर पति अपनी पत्नी को सुखी करना चाहता है। हर पत्नी अपने पति को सुखी
करना चाहती हैं। पत्नियां तो सुखी करने के लिए दीवानी रहती हैं। और उनकी मंशा पर
मैं जरा भी संदेह नहीं करता। मगर क्या कर पाती हैं, सवाल यह है। सिर्फ
दुखी कर पाती हैं। पति पत्नियों को दुखी किये बैठे हैं, पत्नियां
पतियों को दुखी किए बैठी हैं। और दोनों चाहते थे कि सुखी करें। इस दुनिया में हर
आदमी चाह रहा है कि दूसरे को सुखी करें और कोई किसी को सुखी नहीं कर पाता, सब एक दूसरे को दुखी कर रहे हैं। तो जरूर कहीं बुनियादी भूल हो रही है।
व्यास के सूत्र में वह भूल है। भूल यह है कि हम सुखी तभी कर सकते हैं
किसी को, जब हम सुखी हों। और हम दुखी हैं तो लाख हम चाहें,
कोई उपाय नहीं, हम दुखी ही करेंगे। हम सुखी
करने जाएंगे और दुखी ही करेंगे। हम नेकी करने जाएंगे और बदी हो जाएगी।
अंग्रेजी में बड़ी प्यारी कहावत है, बड़ी सार्थक कहावत
है--व्यास के सूत्र से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण--कि नर्क का रास्ता शुभ आकांक्षाओं
से पटा पड़ा है। नर्क का रास्ता शुभ आकांक्षाओं से पटा पड़ा है। आकांक्षाएं तो सबकी
शुभ थीं, लेकिन ढकेल दिया है नर्क में लोगों को। पहुंच गये
हैं नर्क। पत्नियों ने पतियों को पहुंचा दिया है नर्क में और पतियों ने पत्नियों
को पहुंचा दिया है नर्क में। बच्चों ने मां-बाप को नर्क में पहुंचा दिया है,
मां-बाप ने बच्चों को नर्क में पहुंचा दिया है। सारी पृथ्वी नर्क हो
गयी है।
इसलिए मैं इस सूत्र का विरोध करता हूं। मैं इस सूत्र को उलटा कर देना
चाहता हूं। इस सूत्र के अनुसार जी लिए तुम दस हजार साल और परिणाम तुम्हारे सामने
है--एक दुखी मनुष्यता, सड़ती-गलती मनुष्यता।
मेरी बात पर भी प्रयोग करके देखो। मैं कहता हूं: ध्यान से पुण्य, पुण्य से परोपकार। अपरिहार्यरूपेण होता है, तुम्हें
करना भी नहीं पड़ता। और ध्यान के अभाव से पाप और पाप से परपीड़न।
व्यास का सूत्र है: परोपकार से पुण्य, परपीड़न से पाप।'
मेरा सूत्र ठीक उलटा है: "पुण्य से परोपकार, पाप से परपीड़न।'
लेकिन पुण्य और पाप के बीच क्या करोगे? कैसे पापको पुण्य में
बदलोगे? ध्यान के अतिरिक्त कोई कीमिया नहीं है; कोई विज्ञान नहीं है ध्यान के अतिरिक्त।
इसलिए मेरा सारा जोर ध्यान पर है। में तुम से नहीं कहता कि तुम अपने
आचरण को ठीक करो; वह तो तुम से बहुत कहा गया और आचरण ठीक नहीं हुआ।
काफी यह बकवास हो चुकी। मैं तुमसे कहता हूं: ध्यान सम्हालो। आचरण को अभी भूलो,
अभी ध्यान सम्हालो। अभी आचरण पर ध्यान ही मत दो, अभी ध्यान पर ही ध्यान दो। और एक बार ध्यान की ज्योति भीतर जगमगा उठे,
तुम चकित होकर पाओगे कि जादू हो गया, तुम्हारा
आचरण अपने-आप आ जाता है--शुभ आचरण।
मैं नीति नहीं सिखाता, धर्म सिखाता हूं। और
तुम्हें अब तक नीति सिखायी गयी। नीति तो तुम सीख गये, धर्म
से वंचित रह गये। और स्वभावतः तुम्हारी नीति फिर थोथी होगी। जिस नीति की जड़ें धर्म
में नहीं हैं, उसकी कोई जड़ें नहीं हैं। वह नीति प्लास्टिक के
फूलों जैसी है। ऊपर से चिपका लो। दूसरों को धोखा हो जाएगा, शायद
खुद को भी धोखा हो जाए। मगर कुछ भी कहीं बदला नहीं है, सब
वैसा का वैसा गंदा है।
दूसरा प्रश्न: भगवान,
आप पश्चिमी सभ्यता का इतना ज्यादा समर्थन और भारतीय संस्कृति का इतना
विरोध क्यों करते हैं? क्या आप हमारे महान नैतिक मूल्यों की गरिमा को भूल
गये हैं? पश्चिमी फिरंगियों ने तो सैकड़ों वर्षों तक हमें
लूटा, हमारा रक्त चूसा और हमारी पवित्र मानसिकता में अपनी
भोगलिप्सा से भरी दूषित संस्कृति के कीटाणु छोड़ गये। और आज हमारे युवक अपनी
स्वर्णिम संस्कृति को भूल कर उनका अंधानुकरण कर रहे हैं। क्या समय रहते अपनी
संस्कृति को बचा लेना जरूरी नहीं है? क्या आपका भारत के
प्रति कोई कर्तव्य नहीं है?
विद्याधर वाचस्पति,
मैं अपना कर्तव्य निभा रहा हूं। यही मेरा कर्तव्य है! कर्तव्य का अर्थ
होता है: करने योग्य। आज जो करने योग्य है वही कर रहा हूं।
लेकिन तुम्हारा प्रश्न महत्वपूर्ण है। इसके एक-एक टुकड़े पर विचार कर
लेना जरूरी है। पहली बात--तुम कहते हो, "आप पश्चिमी
सभ्यता का इतना ज्यादा समर्थन और भारतीय संस्कृति का इतना विरोध क्यों करते हैं?'
इसलिए कि पश्चिमी सभ्यता ऐसी है जैसे बुनियाद तो डाल दी गयी हो
मंदिर की और मंदिर न उठाया गया हो। और पूर्वीय सभ्यता ऐसी है कि बुनियाद तो कभी
डाली नहीं गयी, मंदिर का सपना देखा जा रहा है। पश्चिमी
सभ्यता यानी विज्ञान और पूर्वीय सभ्यता यानी अध्यात्म। लेकिन बिना विज्ञान के
अध्यात्म नपुंसक होगा, उसकी बुनियाद के पत्थर जुटाने होंगे।
और वे पत्थर विज्ञान ही जुटा सकता है। उन पत्थरों को जुटाने का अध्यात्म के पास
कोई उपाय नहीं। हां, अध्यात्म तो मंदिर बना सकता है।
अध्यात्म तो मंदिर का शिखर होगा। स्वर्ण-शिखर! मगर स्वर्ण-शिखर अकेला रहे तो मंदिर
नहीं बनता। रखे बैठे रहो स्वर्ण-शिखर को, किसी काम का नहीं
है, थोथा है।
विज्ञान पहली चीज है, क्योंकि शरीर मनुष्य का आधार
है--और आत्मा मनुष्य आत्यांतिक आविष्कार। वह अंतिम बात है। पहले विज्ञान, फिर धर्म।
भारत एक बुनियादी भूल में पड़ा है। इसने विज्ञान का तिरस्कार किया, उसका फल भोग रहा है। विज्ञान के तिरस्कार के कारण तुम दो हजार साल गुलाम
रहे हो, किसी और कारण से नहीं। और अभी भी विज्ञान का
तिरस्कार किया तो तुम भ्रांति में ही हो कि तुम स्वतंत्र हो, तुम्हारी स्वतंत्रता दो मिनट में मिटाई जा सकती है। क्या करोगे तुम अणुबम
के मुकाबले? क्या करोगे तुम हाइड्रोजन बम के मुकाबले?
तुम्हारी स्वतंत्रता दूसरों की कृपा पर निर्भर है, खयाल रखना। तुम्हारी स्वतंत्रता दो क्षण में मिटाई जा सकती है।
और हमें शर्म भी नहीं आती यह कहते हुए कि फिरंगियों ने हमें गुलाम
किया। तो तुम गुलाम हुए क्यों? इतना बड़ा देश, चालीस करोड़ का देश, कुल तीन करोड़ संख्या वाले देश का
गुलाम हो गया। चुल्लू भर पानी में डूब मरो, इसके पहले कि इस
तरह के प्रश्न पूछो! शर्म भी नहीं आती! चालीस आदमियों को तीन आदमी गुलाम बना लें
और फिर भी गाली दें कि इन दुष्टों ने हमें गुलाम बना लिया! तो तुम करते क्या रहे?
तुम भाड़ झोंकते रहे? तुमसे कुछ भी न हो सका?
इतना तो कर सकते थे, कम से कम आत्महत्या करके
मर ही जाते। वह भी तुमसे न हो सका। और तुम तो आत्मा की अमरता में विश्वास करने वाले
लोग, तुम्हें कम से कम मर तो जाना ही था। कुछ और न कर सकते
थे तो मर तो सकते थे। तो लाशें पड़ी रह जातीं। फिर जिनको लाशों पर मालकियत करनी
होती वे कर लेते, वे खुद ही भाग गये होते। लाशों की सड़ांध
ऐसी उठती--चालीस करोड़ लाशें--जरा सोचो तो, पूरा मुल्क
कब्रिस्तान हो जाता! अंग्रेज तो भाग गये होते।
लेकिन तुम गुलाम इतने जल्दी हो गये। तुम अंग्रेजों के कारण गुलाम नहीं
हुए, तुम्हारे तथाकथित ऋषि-मुनियों के कारण तुम गुलाम हुए
हो। और जब तक तुम यह सत्य नहीं समझोगे, तुम फिर-फिर गुलाम
होओगे। तुम्हारे भाग्य में गुलामी है फिर। यह तुम्हारे तथाकथित ऋषि-मुनियों की
कृपा है कि उन्होंने तुम्हें उल्टी बातें सिखायीं। उन्होंने जीवन की बुनियाद तो
तुम्हें दी नहीं और जीवन के शिखर की बकवास शुरू कर दी। क ख ग सिखाया नहीं और
तुम्हारे हाथ में कालिदास के शास्त्र पकड़ा दिये बड़े-बड़े। छोटे बच्चे के हाथ में
जैसे कोई तलवार थमा दे, तो या तो वह खुद को नुकसान पहुंचाएगा
या किसी और को नुकसान पहुंचाएगा।
तुम दुनिया की सबसे पुरानी सभ्यता हो। तुम्हारे पास तो विज्ञान परम
शिखर पर होना चाहिए था। लेकिन तुम्हारे तथाकथित धर्मगुरु तुम्हें भगोड़ा बनाते रहे, पलायनवादी बनाते रहे। कहते रहे--"संसार तो माया है। और जो होना है वह
तो परमात्मा की कृपा है। उसके बिना तो पत्ता भी नहीं हिलता।' तो फिरंगियों ने तुम पर कब्जा कैसे कर लिया? फिरंगी
तो तुम्हारे परमात्मा से भी ताकतवर मालूम होते हैं!
तुम कहते हो कि पश्चिमी फिरंगियों ने तो सैकड़ों वर्षों तक हमें लूटा।
तुम लुटे क्यों? तुमसे कुछ करते न बना? तुम इतने
नपुंसक? क्यों तुम इतने नपुंसक? तुम्हारे
पास वैज्ञानिक साधन न थे। तुम मूढ़ताओं से भरे हुए लोग हो। और तुम अपनी मूढ़ता को
अभी भी बचाना चाहते हो और मुझसे कहते हो कि मैं भी अपना कर्तव्य पूरा करूं--तुम्हारी
मूढ़ता बचाने के लिए! जिस मूढ़ता के कारण तुम परेशान रहे हो उसको में मिटा कर अपना कर्तव्य पूरा कर रहा
हूं। और किस तरह कर्तव्य पूरा किया जा सकता है?
जरूर मेरी बात जहर की तरह लगेगी, लेकिन मेरी मजबूरी
है। किसी को कैंसर हो तो ऑपरेशन तो करना ही होगा। और तुम जिसको संस्कृति कह रहे हो,
वह तुम्हारा कैंसर है। उसका आधार ही नहीं है कोई। धर्म की बकवास है
तुम्हारे पास। और तुम्हारी बकवास कुछ काम न आयी। तुम हमेशा गलत चीजों की वजह से
हारे। इसमें किसी का दोष नहीं है। जब सिकंदर ने भारत पर हमला किया और पोरस हारा,
तो हारने का कारण क्या था? हारने का कारण यह
था कि पोरस हाथियों को लेकर लड़ने गया और सिकंदर घोड़ों को लेकर लड़ने आया था। उस
जमाने में घोड़े विकसित साधन थे हाथियों के मुकाबले। हाथी कोई बारात वगैरह निकालनी
हो तो ठीक, कि किसी संत-महात्मा का अखाड़ा निकालना हो तो ठीक।
युद्ध के लिए हाथी ठीक नहीं हैं। जगह भी ज्यादा घेरते हैं, दौड़
भी सकते, घोड़े के मुकाबले उनकी क्षमता भी नहीं होती। उनके
चलने-फिरने के लिए भी जगह काफी चाहिए। घोड़े छोटी जगह में से निकल जाएं। घोड़े में
गति भी होती है तीव्रता भी होती है,
त्वरा भी होती है। हाथी को तो मोड़ना ही हो तो आधा घंटा लग जाए। पोरस
हारा हाथियों की वजह से। पोरस हारा अविकसित साधनों की वजह से।
दो हजार साल में किन-किन ने तुम्हें गुलाम बनाया, जरा सोचो तो! जो आया उसी ने तुम्हें गुलाम बनाया। हूण आए, बर्बर आए, तुर्क आए, मुगल
आए--जो भी आया: तुम जैसे गुलाम बनने को तैयार ही बैठे थे! तुम एक भी नहीं जूझ सके।
और फिर भी तुम अकड़ से कह पाते हो कि इन्होंने हमें गुलाम बनाया!
तुम गुलाम बने! तुम गुलाम बनने के लिए बैठे थे। तुम तो झोली पसारे
बैठे थे कि आओ, हमें गुलाम बनाओ। तुम्हारे पास हमेशा अविकसित साधन
थे। जो भी आया उसके पास विकसित साधन थे। और आज भी तुम्हारी स्वतंत्रता का क्या
मूल्य है! कमजोर की स्वतंत्रता का क्या मूल्य हो सकता है? चीन
ने तुम्हारी जमीन पर कब्जा कर लिया, तुमने क्या कर लिया?
अब तो तुम स्वतंत्र हो, कुछ तो करके दिखा
देते! लेकिन पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कहा, "उस जमीन का
क्या करेंगे? उस पर तो घास भी पैदा नहीं होता।' तो फिर लड़े ही काहे को? ऐसी भी तुम्हारे देश में
पैदा ही क्या होता है? कम से कम मिलिट्रिरी को ही विदा करो,
यह झंझट छोड़ो। सत्तर प्रतिशत देश का धन सेना पर खर्च होता है। काहे
के लिए खर्च कर रहे हो? इसको ही बचा लो कम से कम। कुछ गरीबों
के पेट भरेंगे, दरिद्रनारायण की कुछ सेवा होगी, कुछ मंदिर बना लो, कुछ धर्मशालाएं बना लो। काहे
को...और ऐसे भी क्या पैदा होता है? जो भी आएगा सो खुद ही
परेशान हो कर लौट जाएगा।
क्या क्या सांत्वनाएं खोजते हो! दो हजार साल से निरपवाद रूप से जो भी
आया...वे कैसे कैसे छोटे-छोटे लोग आए! हूणों की कोई संख्या नहीं थी। मगर जो आया, तुम उसके ही पैर चूमने को राजी हो गये।
और मैं तुमसे यह कह देना चाहता हूं, तुम अपने कारण आजाद
नहीं हुए हो। इस भ्रांति को छोड़ दो। तुम्हारे राजनेता लाख तुम्हें समझाएं, तुम अपने कारण आजाद नहीं हुए हो। क्योंकि तुमने क्रांति तो उन्नीस सौ बयालीस में की थी, आजाद सैंतालीस में हुए! यह तो खूब
मजा हुआ। दुनिया में कभी कोई ऐसी क्रांति देखी? उन्नीस सौ
सत्रह में रूस में क्रांति हुई तो उन्नीस सौ सत्रह में क्रांति हुई कि उन्नीस सौ बाइस
में जा कर सफलता मिली? उन्नीस सौ बयालीस में तुमने क्रांति
की और उन्नीस सौ सैंतालीस में जाकर तुम आजाद हुए! इस आजादी में तुम्हारा कुछ भी
नहीं है। इस आजादी में तुम भ्रांति में मत पड़ना कि तुम्हारा कोई बहुत बड़ा दान है,
योगदान है। इस आजादी में भी तुम पर पश्चिम की कृपा है। गुलामी भी
उन्होंने दी थी तुम्हें, आजादी भी दे दी उन्होंने तुम्हें।
और आज तुम्हारी आजादी छीनी जा सकती है। अभी चीन तुम पर कभी भी सवार हो सकता है।
अगर नहीं सवार होता तो रूस के कारण, तुम्हारे कारण नहीं। और
चीन सवार नहीं होगा तो रूस सवार होगा। तुम तो खच्चर हो, तुम
पर कोई न कोई सवार होगा। तुम किसी न किसी को ढोओगे।
इसलिए मैं कहता हूं, पहले विज्ञान। यह भूल बहुत हो
चुकी, दस हजार साल में यह भूल बहुत हो चुकी। अब विज्ञान और
विज्ञान की तकनीक...! मगर तुम्हारे मूढ़ महात्मा तुमको समझाते हैं चरखा कातो। अगर
में उनका विरोध करता हूं तो तुमको लगता है कि मैं तुम्हारी दुश्मनी कर रहा हूं।
कातो चरखा! चरखा कातने से कोई अणु-बम का मुकाबला नहीं हो सकेगा। तुम कातते रहना
चरखा! तुम फिर गुलाम होओगे। कोई तुम्हें समझा रहा है खादी पहनो। कोई तुम्हें समझा
रहा है तीन ही वस्त्र अपने पास रखो। कोई तुम्हें समझा रहा है ब्रह्मचर्य साधो। कोई
तुम्हें समझा रहा है उपवास करो, कोई तुम्हें समझा रहा है कि
सिर के बल खड़े होओ, योगासन करो। कोई कह रहा है पद्मासन लगाओ, सिद्धासन
लगाओ। यह तुम लगाते ही रहे दस हजार साल से और तुमने किया ही क्या?
मैं तुमसे कहता हूं, विज्ञान को जन्मा लो, समय रहते ही जन्मा लो। हमने बड़ी
से बड़ी भूल जो की है अतीत में, वह थी--विज्ञान को नहीं
जनमाया। और हम जनमा सकते थे, क्योंकि हमारे पास कोई विचारकों की कोई कमी न थी, चिन्तकों की कोई कमी न थी। मगर हमने चिन्तकों और विचारों को गलत मोड़ दिया।
हमने उनको भगोड़ा बना दिया, पलायनवादी बना दिया। हमारे सारे विचारक और चिन्तक पहाड़ों में चले गये,
गुफाओं में चले गये। अगर अल्बर्ट आइंस्टीन यहां पैदा होता तो बैठे
होते किसी हिमालय की गुफा में और जप रहे होते राम राम या हनुमान चालीसा पढ़ रहे
होते। वह तो सौभाग्यशाली है कि यहां पैदा नहीं हुआ, नहीं तो
तुमने बर्बाद कर दिया होता।
अब हनुमान चालीसा पढ़ोगे तो ठीक है, हनुमान जैसी बुद्धि
हो जाएगी तुम्हारी भी। इससे ज्यादा आशा भी क्या कर सकते हो? कोई
झाड़ों को पूज रहा है। संस्कृति को तुम मुझसे बचाने को कह रहे हो? इसमें बचाने योग्य क्या है? इस कूड़ा करकट को बचाने
की बात कर रहे हो?
और तुम कहते हो कि आप पश्चिमी सभ्यता का इतना ज्यादा समर्थन और भारतीय
संस्कृति का इतना विरोध क्यों करते हैं? इसलिए कि भारत से
मुझे प्रेम है। मैं चाहता हूं कि यह भी दुनिया में अपना स्थान पाए, सम्मानपूर्वक
अपना स्थान पाए। और यह विज्ञान के बिना नहीं हो सकता है। भारत को विज्ञान सीखना
होगा, पश्चिम को अध्यात्म सीखना होगा। तब यह सारी मनुष्यता
एक संतुलन पर आएगी।
तो पश्चिम के आदमी से मैं कहता हूं अध्यात्म सीखो और पूरब के आदमी से
कहता हूं विज्ञान सीखो। पश्चिम ने खुद बुनियाद रख ली है, मंदिर नहीं बन पाया। हमने मंदिर की कल्पना कर ली है, लेकिन बुनियाद ही नहीं है। अगर दोनों में से चुनना हो तो पश्चिम को
चुनूंगा, क्योंकि पश्चिम ने कम से कम बुनियाद रख ली है। बुनियाद ही न हो तो मंदिर कैसे बनेगा?
लाख कल्पनाएं करते रहो, सपने संजोते रहो,
कुछ भी न होगा।
इस देश में नहीं बन सका मंदिर। कल्पना ही रही हमारी। क्या बन पाया है? कोई एक बुद्ध पैदा हो जाए, एक महावीर पैदा हो जाए
करोड़ों-करोड़ों लोगों में, इसको तुम कुछ बनाव कहते हो?
इसको तुम धार्मिक संस्कृति कहते हो? आदमी मर
रहा है,सड़ रहा है, दुर्बल है, बीमार है, रुग्ण है। दुनिया में सबसे कम हमारी औसत
आयु है, सबसे कम हमारी औसत बुद्धि है। सबसे ज्यादा काहिल और
सुस्त हम हैं। कामचोर हैं। इस संस्कृति को तुम बचाने की बात कर रहे हो?
और तुम कहते हो कि "हमारे महान नैतिक मूल्यों की गरिमा क्या आप भूल
गये हैं?' कौन से महान नैतिक मूल्यों की बात कर रहे हो? महात्मा गांधी
रामराज्य की बहुत प्रशंसा करते थे, लेकिन किसी ने भी उनसे यह
नहीं पूछा कि रामराज्य में गुलाम बिकते थे बाजारों में। और मजा यह है कि स्त्रियां
राजे-महाराजे ही खरीदते थे सो नहीं,ऋषि मुनि भी खरीदते थे।
नीलाम में! एक तो स्त्रियों की नीलामी,पुरुषों की नीलामी--और
नीलामी में खरीदारों में ऋषि मुनि भी
मौजूद होते थे।
उपनिषदों में कथा है "गाड़ी वाले रैक्व की। वे एक ऋषि थे, जो गाड़ी में चलते थे, बैलगाड़ी में चलते थे। तो उनका
नाम ही "गाड़ी वाले रैक्व' हो गया। विनोबा कई जगह उनका
उल्लेख किये हैं, लेकिन
अधूरा और बेईमानी भरा। उल्लेख किया है उन्होंने कि उस समय का सम्राट अपने अंतिम
जीवन के क्षणों में, रैक्व ऋषि के पास उनके चरणों में बहुत
धन लेकर आया। रथों में धन भर कर लाया।
अशर्फियां, हीरे-जवाहरात, ढेर लगा दिये
उसने रैक्व के चरणों में। चरण छू कर उसने कहा कि प्रभु, मुझे
ब्रह्मज्ञान दें! रैक्व ने कहा,
"अरे शूद्र! तू सोचता है कि धन से तू मुझे खरीद लेगा? ले जा अपना धन!'
विनोबा इसकी बड़ी प्रशंसा करते हैं कि यह बड़ी अद्भुत बात है। इतने धन
को हमारे महर्षि ने कह दिया--"ले जा यह धन, यह मिट्टी से तू
सोचता है मुझे खरीद लेगा? इस मिट्टी से बह्मज्ञान पाना चाहता है? अरे
शूद्र!' विनोबा का अर्थ यह है कि शूद्र उन्होंने इसलिए कहा
कि धन पर तेरी इतनी आस्था है, तो तू शूद्र ही है, अभी तुझे कुछ समझ में नहीं आया। ले जा अपना यह सब धन। ऐसे ब्रह्मज्ञान
नहीं मिलता।
लेकिन यह कहानी अधूरी है। कहानी जब तक पूरी न हो जाए, बेईमानी है। कहानी पूरी यह है कि ऋषि रैक्व और यह सम्राट दोनों ही,
जब जवान थे, तो एक नीलामी में जहां स्त्रियां,
सुंदर स्त्रियां नीलाम हो रही थीं, खरीदने गये
थे। स्वभावतः रैक्व ने एक सुंदर स्त्री पर दाम लगाए, बहुत
दाम लगाए। मगर सम्राट भी उसी को खरीदना चाहता था। अब सम्राट के मुकाबले ऋषि न टिक
पाए, क्योंकि धन इतना नहीं था। ऐसे काफी था, लेकिन इतना नहीं था। तो मजबूरी में वह स्त्री को छोड़ना पड़ा। सम्राट उस
स्त्री को खरीदकर ले गया। तब से रैक्व के
मन में दुश्मनी थी सम्राट के
प्रति। फिर वृद्धावस्था में वह सम्राट...वृद्धावस्था में जब मौत करीब आती है तो
ब्रह्म की स्मृति किसी को भी आने लगती है। मौत सभी को डरा देती है। वह सम्राट भी
घबड़ाया। उसने पूछा कि मैं किससे ज्ञान लेने जाऊं? रैक्व का
बड़ा नाम था, तो वह रैक्व के पास ज्ञान लेने गया। तो रैक्व ने
कहा,"अरे शूद्र!' हटा, ले जा अपने धन को। तू चाहता है इस तरह ब्रह्मज्ञान मिल जाएगा?'
सम्राट ने वजीरों से पूछा, "मैं क्या करूं?'
वजीरों ने कहा, "शायद आप भूल गये। वह जो स्त्री आपने खरीदी थी,
आप उसी स्त्री को ले जाएं। इसलिए वे नाराज हैं।' सम्राट फिर स्त्री को ले कर गया, तब रैक्व बहुत
प्रसन्न हुए और उन्होंने कहा, "वत्स, बैठ, अब बह्मज्ञान ले।'
यह पूरी कहानी है। विनोबा की बेईमानी देखते हो, कहानी का इतना छोटा टुकड़ा चुन लिया कि उसका अर्थ ही बदल जाए। यह पूरी
कहानी है। कौन से नैतिक मूल्य? किसको तुम नैतिक मूल्य कहते
हो? ऋषियों की पत्नियां होती थीं--एक नहीं अनेक। और यह
ऋषियों की बात, साधारण आदमी की बात तो छोड़ दो। और पत्नियों
के साथ-साथ वधुएं होती थीं। अब तो वधुओं का अर्थ
बदल गया है। वह वैदिक अर्थ नहीं है। अब तो हम वधु कहते हैं पत्नी को। वर और
वधु। मगर पुराना अर्थ, वैदिक अर्थ बड़ा और था। वधु नम्बर दो
की पत्नी का नाम था। और वधु कहते थे उसको
जिसको खरीदा था। उससे तुम पत्नी का संबंध रख सकते थे। लेकिन वह जायज पत्नी नहीं
थी। उसके बेटों को तुम्हारी संपत्ति पर कोई अधिकार नहीं होता, कानूनी अधिकार नहीं होता। वह रखैल थी। उसको वधु कहते थे। तो ऋषियों के पास
अनेक पत्नियां होती थीं और उससे भी ज्यादा रखैलें, वधुएं
होती थीं। और तुम नैतिक मूल्यों की बात कर रहे हो!
कृष्ण के पास सोलह हजार स्त्रियां थीं और तुम नैतिक मूल्यों की बात कर
रहे हो! और ये स्त्रियां सब उनकी विवाहित नहीं थीं, चुरायी गयी थीं।
इनमें बहुत तो दूसरों की स्त्रियां थीं। उनको भगा कर ले जाया गया था। उनको
जबरदस्ती छीन लिया गया था। तुम किन नैतिक मूल्यों की बात करते हो?
तुम्हारे पांडव, एक स्त्री को पांचों ने बांट
लिया था। एक स्त्री के पांच पति बन बैठे थे। उस स्त्री को वेश्या बना दिया। और फिर
इन पांचों पांडवों में, जिनमें प्रमुख युधिष्ठिर थे, जिनको कि तुम "धर्मराज' कहते हो--धर्मराज कहते
हो तो निश्चित ही बड़े नैतिक व्यक्ति को धर्मराज कहते हो, तभी
तो, नहीं तो धर्मराज कहने का क्या कारण? महान नैतिकता रही होगी। और नैतिकता देखते हो! जुआरी...और जुआरी भी ऐसे कि
सब धन हार गये और पत्नी को भी दांव पर लगा दिया। आज कोई पत्नी को दांव पर लगा कर तो देखे, जेलखाने
में सड़ेगा। और फिर भी धर्मराज, धर्मराज ही रहे। और वहां महान
गुरु द्रोण उपस्थित थे और महान आध्यात्मिक पुरुष, बड़े ज्ञानी
भीष्म उपस्थित थे। वे भी चुपचाप बैठे रहे। और इसकी बहुत चर्चा की जाती है।
अभी मुझे एक पत्र लिखा गया। किसी ने पत्र लिखा है कि माया त्यागी को
नग्न करके रास्तों पर घुमाया गया। आप भगवान हैं। तो आपने उसकी रक्षा क्यों नहीं की? कृष्ण ने तो, जब द्रोपदी को नंगा किया गया था,
तो उसकी रक्षा की थी।
बात तो बिलकुल ठीक है। लेकिन फिर मुझे कृष्ण के दूसरे अधिकार भी
चाहिए। एक माया त्यागी को बचाऊंगा, लेकिन अनेक स्त्रियां
के कपड़े छीन कर कृष्ण झाड़ पर चढ़ बैठे थे, वह भी मुझे हक
चाहिए। और जिसके कपड़े बचाए थे, वह उनकी बहन थी और जिनके
कपड़े छीने थे, वह भी
हक मुझे चाहिए। तो मैं भी शर्त पूरी करने को राजी हूं।
लेकिन तुम किन नैतिक मूल्यों की बात कर रहे हो? कौन सी नैतिकता थी तुम्हारे देश में? नाहक शोरगुल
मचाए हुए हो? और तुम
बुद्धू बना लेते हो पश्चिम के लोगों को, क्योंकि उनको
तुम्हारे इतिहास का कोई पता नहीं है। इसलिए तुम्हारे महात्मागण जा कर पश्चिम में
प्रचार करते फिरते हैं कि भारत की महान
नैतिकता...। इससे ज्यादा अनैतिक कोई देश दुनिया में कभी नहीं रहा है।
तुमने बौद्ध भिक्षुओं के साथ क्या किया, क्या र्दुव्यवहार किया?
कैसे बौद्ध धर्म एकदम भारत से विलुप्त हो गया? कड़ाहों में जलाया है तुमने। भारत से बौद्धों को बिलकुल उखाड़ फेंका। किस
नैतिकता की तुम बातें कर रहे हो? कौन से नैतिक मूल्य हैं
तुम्हारे, जिनका मैं सम्मान करूं?
शूद्रों के साथ तुमने क्या किया है दस हजार वर्षों में? और तुमने ही नहीं, तुम्हारे राम ने क्या किया? तुम्हारे
राम ने एक शूद्र के कानों में सीसा पिघलवा कर भरवा दिया और अब भी तुम उनको मर्यादा
पुरुषोत्तम कहे चले जाते हो। तुम्हें शर्म भी नहीं लगती, संकोच भी नहीं लगता। और मजा तो यह है कि शूद्र भी राम
के मंदिर में प्रवेश करने को लालायित हैं। और महात्मा गांधी और विनोबा जैसे लोग
आंदोलन चलाते हैं कि शूद्रों को प्रवेश मिलना चाहिए। किसके मंदिर में? यही राम का मंदिर, जिसने कि शूद्र के कान में इसलिए
सीसा पिघलवा दिया कि इसने चोरी से वेद-वचन सुन लिए थे। कौन-सा गुनाह किया था?
वेद पर किसी की बपौती है? शूद्र को हक नहीं है
परमात्मा कि स्मरण करने का, परमात्मा को पाने का?
स्त्रियों के साथ तुमने क्या किया है, जरा सोचो तो!
स्त्रियों को बिलकुल मिटा ही डाला। उनका सारा व्यक्तित्व नष्ट कर दिया, उनकी आत्मा नष्ट कर दी। जैन धर्म में हिसाब है कि स्त्री पर्याय से मोक्ष
नहीं हो सकता। स्त्रियों को जैन शास्त्रों को जला देना चाहिए। मगर वही स्त्रियां
मूढों की तरह जैन मुनियों के चरणों में बैठी हैं, सेवा कर
रही हैं।
गौतम बुद्ध ने वर्षों तक स्त्रियों को दीक्षा नहीं दी। जब भी दीक्षा
के लिए कहा गया, उन्होंने इनकार कर दिया। सिर्फ पुरुषों को दीक्षा,
स्त्रियों को दीक्षा नहीं। क्यों? क्या
स्त्रियों से ऐसा डर है? क्या ऐसी घबड़ाहट है? और अगर इतनी घबड़ाहट है तो क्या खाक तुम्हारे भिक्षु संन्यास को उपलब्ध
हुए हैं? क्या उनको ध्यान उपलब्ध हुआ है, जो स्त्रियों से ऐसे डरे हुए हैं? और मजबूरी में,
चूंकि बुद्ध की सौतेली मां ने जब मांगा, उसको इनकार न कर सके।
तुम बातें तो करते हो अपने-पराए की, कौन अपना कौन पराया!
मगर बुद्ध को भी, औरों की स्त्रियां आयीं, ओरों की माताएं आयीं, उनको इनकार कर दिया। खुद की
सौतेली मां आयी दीक्षा लेने तो उसको इनकार न कर सके। और चूंकि अपनी सौतेली मां को
दिया तो फिर और स्त्रियों के लिए दरवाजा खुल गया। जिस दिन उन्होंने स्त्रियों को
दीक्षा दी, उस दिन बुद्ध ने क्या कहा, याद
करना। बुद्ध ने कहा कि अगर मैं स्त्रियों को दीक्षा न देता तो मेरा धर्म पांच हजार
साल चलता, अब मुश्किल से पांच सौ वर्ष चलेगा।
स्त्रियों का अपमान तुम सोचते हो? किस-किस तरह से अपमान
किया जा रहा है! राम सीता को बचा कर लौटते हैं लंका से, तो
वाल्मीकि की रामायण में जो वचन हैं, बड़े अभद्र हैं। राम को
शोभा नहीं देते--कम से कम मर्यादा पुरुषोत्तम जिसको कहते हो, उसके तो शोभा नहीं देते! राम ने क्या कहा? राम ने
कहा, "ए स्त्री, तू यह मत समझना
कि मैंने तेरे लिए युद्ध किया है।' ठीक ही कहते हैं, स्त्री के लिए कौन युद्ध करता है--पैर की जूती! फिर युद्ध किस लिए किया है?
युद्ध इसलिए किया--कुल-मर्यादा के लिए, कुल की
प्रतिष्ठा के लिए। यह कुल का अहंकार--रघुकुल! उसकी प्रतिष्ठा के लिए युद्ध किया है। सीता को बचाने के लिए नहीं।
और फिर सीता से कहा कि अग्नि-परीक्षा दो। तो चलो मान लें कि भय है कि
सीता अकेली थी रावण के हाथ में, पता नहीं रावण के साथ कुछ अनैतिक
संबंध बन गया हो! चलो ठीक--अग्नि परीक्षा हो ले। लेकिन राम भी तो इतने दिन अकेले
रहे थे, अगर परीक्षा ही देनी थी तो दोनों को साथ-साथ देनी थी,
ताकि सीता को भी भरोसा आ जाए कि इतनी देर पतिदेव अलग रहे, क्या किया क्या नहीं किया, क्या पता! लेकिन स्त्री
को पूछने का कोई हक ही नहीं, सवाल ही नहीं उठता। पुरुष पुरुष
है। पुरुष बच्चा! उसकी बात ही और। स्त्री की परीक्षा ले ली। और खुद? खुद का क्या भरोसा है?
लेकिन हमने स्त्रियों को इस तरह दबाया है, उनकी जबान काट दी है कि सीता को यह भी न सूझा कि कहती कि आओ तुम भी साथ,
जैसे भांवर साथ-साथ डाली थी ऐसे हम दोनों ही अलग रहे इतने दिन,
तुम भी न मालूम अंदरों-बंदरों के साथ किन-किन के साथ रहे, क्या किया क्या नहीं किया, क्या पता, तो दोनों ही साथ गुजर जाएं। परीक्षा ही है तो पूरी हो जाए।
तो सीता की परीक्षा हुई, राम की परीक्षा न
हुई। यह पुरुष से, पुरुष के अहंकार से पीड़ित देश है। इसमें
स्त्री के साथ जैसा अनाचार हुआ है, उसको देख कर इसे नैतिक
नहीं कहा जा सकता। और फिर एक धुब्बड़ ने कह दिया अपनी पत्नी को कि "तू रात भर
कहां रही? मैं कोई राम नहीं हूं कि तुझे घर में रख लूं! निकल
जा!'
बस इतनी सी बात से राम ने अग्नि परीक्षा लेने के बाद भी सीता को जंगल
में फिंकवा दिया। और तुम नैतिक मूल्यों की बात करते हो! अगर जाना था तो फिर दोनों
ही चले जाते जंगल। लेकिन राज्य को नहीं
छोड़ा, स्त्री को छोड़ दिया। यह अहंकार को बचाव है और कुछ भी
नहीं। यह अहंकार पर जरा भी आंच आये, कोई यह न कह सके कि राम
ने स्त्री को घर में रख लिया। और अग्नि परीक्षा का क्या हुआ? अग्नि परीक्षा सीता ने भी दी थी, इन सज्जन ने दी भी
नहीं थी। और उसी को घर से फिंकवा दिया! और अहंकार को बचाने के लिए कि कोई एतराज न
कर सके, कोई संदेह खड़ा न कर सके, कोई
शंका न उठा सके। गर्भणी स्त्री को! जरा भी ख्याल नहीं। और नैतिक मूल्यों की बात
करते हो तुम!
मुझे तो कोई नैतिक मूल्य नहीं दिखाई पड़ते। शूद्रों के साथ ब्राह्मणों
ने जो व्यवहार किया है, इससे बड़ी अनीति कहीं भी नहीं हुई। हां, अच्छी-अच्छी बातें तुम्हारे शास्त्रों में लिखी हैं। मगर अच्छी-अच्छी
बातें लिखने से कोई नैतिक नहीं होता। अच्छी-अच्छी बातें दुनिया के सब शास्त्रों
में लिखी हैं। इससे क्या फर्क पड़ता है? इस्लाम शब्द का अर्थ
होता है: शांति का धर्म। लेकिन मुसलमानों ने दुनिया की शांति नष्ट की। नाम से क्या
होता है? जीसस ने कहा है प्रेम परमात्मा है और ईसाइयों ने
जितने कत्लेआम किये दुनिया में, और जितने जिहाद लड़े और जितनी
हत्याएं कीं, किसी
ने भी नहीं कीं। शास्त्रों से क्या होता
है? शास्त्र तो बड़े-बड़े प्यारे वचन लिख देते हैं। अरे प्यारे
वचन लिखने में क्या हर्ज लगता है? कोई दाम लगते, कोई अड़चन आती? सुंदर-सुंदर कविताएं रचने में कौन-सी
मुश्किल है? मगर जीवन क्या सबूत देता है? जीवन तो कुछ और सबूत दे रहा है?
मैं जीवन को देखता हूं। मैं
तुम्हारे शास्त्रों को नहीं देखता। और मैं तुम्हारे शास्त्रों और तुम्हारे जीवन
में बुनियादी विरोध पाता हूं। और तुम असली चीज हो, शास्त्र का क्या है?
तुम पूछते हो, "पश्चिमी फिरंगियों ने तो सैकड़ों वर्षों तक हमें
लूटा, हमारा रक्त चूसा और हमारी पवित्र मानसिकता में अपनी
भोग-लिप्सा से भरी दूषित संस्कृति के
कीटाणु छोड़ गये।'
क्या तुम सोचते हो खुजराहो, कोणार्क और पुरी के मंदिर
फिरंगियों ने बनवाए? क्या तुम सोचते हो कोकशास्त्र फिरंगियों
ने लिखा? क्या तुम सोचते हो वात्स्यायन का कामसूत्र फिरंगियों ने लिखा? ऋषि वात्स्यायन कोई अंग्रेज थे?
और यह पंडित कोक, जिनके नाम से संभवतः कोकाकोला चलता है, ये
कश्मीरी ब्राह्मण थे, जिनने कोकशास्त्र रचा। तुम किसकी बातें
कर रहे हो? दुनिया को पता
भी नहीं था कोकशास्त्र का, वात्स्यायन के कामसूत्र
का। पश्चिम में तो कामवासना की चर्चा बड़ी आधुनिक है। सच पूछो तो पहली दफा इस सदी के प्रारंभ में
सिगमंड ्रफ्रायड ने और हेवलक ऐलिस ने , दो आदमियों ने पश्चिम
में कामशास्त्र की चर्चा शुरू की। और तुम्हारे वात्स्यायन के सूत्र तीन हजार साल
पुराने हैं। और तुम्हारा कोकशास्त्र पंद्रह सौ साल पुराना है। जो पश्चिम में अभी
इन अस्सी वर्षों में हुआ है, वह तुम तीन हजार साल से कर रहे
हो। और तुम कहते हो तुम्हारी पवित्र मानसिकता!
आदमी थोड़ा सोचता भी है! मगर हम अपने शब्दों के जाल में ऐसे खो गये हैं
कि हम भूल ही गये कि हमने क्या किया है। तुम जरा अपने शास्त्रों को उठा कर देखो, अपने पुराणों को उठा कर देखो, तब तुम्हें पता चलेगा। तुम्हारे पुराण जितनी
गंदगियों से भरे हैं उतनी गंदी फिल्म बनी नहीं अब तक दुनिया में। तुम्हारे देवता
जिस तरह की गंदगी से भरे हुए हैं, जिस तरह की भोग-लिप्सा से
भरे हुए हैं, उस तरह की भोग-लिप्सा गुंडों में भी नहीं पायी
जाती। तुम अपने पुराण उठा लो। देवता उतर आते हैं छिप कर, ऋषि
मुनि बेचारे गये हैं स्नान करने ब्रह्ममुहूर्त में...शायद इनको इसीलिए समझाया गया
कि ब्रह्ममुहूर्त में स्नान करने जाओ...यह तो ब्रह्ममुहूर्त में स्नान करने चले
गये हैं, देवता आ जाते हैं छिप कर,पति
बन कर। और पत्नियां सो रही हैं बिस्तर में, उन्हीं धोखा दे
जाते हैं, उनके साथ भोग कर जाते हैं; इसके
पहले कि मुनि आएं, वे भी नदारद भी हो जाते हैं। ये तुम्हारे देवता हैं! तो आदमी की क्या हालत
रही होगी, जरा यह तो सोचो।
जब देवताओं की यह हालत है तो आदमियों की क्या हालत रही होगी?
तुम शंकर की पिंडी में किस चीज को पूज रहे हो? वह जननेंद्रिय का प्रतीक है। और फिर भी तुम्हें शर्म नहीं आती! और प्रश्न
पूछते हुए विद्याधर वाचस्पति, तुम तो शास्त्रों के ज्ञाता
होओगे, वाचस्पति हो, विद्याधर हो,
तुम्हें तो सब पता होगा। फिर भी तुमने यह प्रश्न पूछ लिया कि
"हमारी पवित्र मानसिकता में अपनी भोगलिप्सा से भरी दूषित संस्कृति के कीटाणु
छोड़ गये'! जरा भी नहीं।
तुमसे ज्यादा भोगी, तुमसे ज्यादा कामलोलुप कोई जाति
कभी रही नहीं। तुम्हारी पवित्रता को कोई नष्ट नहीं कर सकता, हो
तो नष्ट करे! तुममें क्या कीटाणु छोड़ेगा? तुम्हारे भीतर तो
कीड़े-मकोड़े बैठे हुए हैं, कीटाणु वगैरह तो वे ही चाट जाएंगे,
साफ कर जाएंगे।
और तुम कहते हो: "आज हमारे युवक अपनी स्वर्णिम संस्कृति को भूल
कर...।'कहां की स्वर्णिम संस्कृति?..."पश्चिम का अंधानुकरण कर रहे हैं!' करें न तो क्या
करें? मजबूरी है। तुम्हारे पास कुछ नहीं है जिसका अनुसरण
करें। तुम्हारे पास जो कुछ भी है वह सब पश्चिम का अंधानुकरण है। तुम्हारे पास अगर
रेलगाड़ी है तो पश्चिम से तुमने सीखी; हवाई जहाज है तो पश्चिम
से सीखा; फाउन्टेन पेन है तो पश्चिम से सीखा; साइकिल है तो पश्चिम से सीख; बिजली है तो पश्चिम
से सीखी; टेलीग्राफ,
पोस्ट आफिस...। क्या है तुम्हारे पास जो तुमने पश्चिम से नहीं सीखा?
विद्याधर वाचस्पति, बीमार पड़ोगे तो फौरन अस्पताल में
भरती होओगे--जो पश्चिम है। फौरन डॉक्टर को
नब्ज दिखाओगे। मैं वैद्यों को जानता हूं कि जब वे बीमार होते हैं तो डाक्टरों के
पास जाते हैं। यूं आयुर्वेद की बड़ी चर्चा करते हैं, लेकिन जब
मुसीबत आ जाती है तो भागे हुए तब भागे हुए एलोपैथी की शरण में पहुंच जाते हैं।
तुम जो भी सीखे हो, पश्चिम से सीखे हो। सच तो यह है,
तुमने लोकतंत्र की धारणा पश्चिम से सीखी है। तुमने स्वतंत्रता की
धारणा पश्चिम से सीखी है। तुम्हारे सारे नेता पश्चिम में शिक्षित हुए थे, इसलिए स्वतंत्रता और लोकतंत्रता की बात उठी, नहीं तो
तुम्हारे मन में तो उठ नहीं सकती थी कभी। तुम कभी स्वतंत्र रहे नहीं, जमाने हो गये तुम कभी स्वतंत्र
नहीं रहे। या तो तुम दूसरों के गुलाम रहे या अपने ही राजा-महाराजाओं के गुलाम रहे
और तुम्हारे राजा-महाराजाओं ने तुम्हें जिस तरह चूसा उस तरह किसी ने नहीं चूसा।
तुम्हारे देश में तुमने सदियों से सिवाय गुलामी के कुछ नहीं देखा। इसलिए तो तुम्हें
अड़चन न हुई! तुम्हारे राजा-महाराजा चूसते थे, बुरी तरह चूसते थे,
तुमने सोचा: क्या फर्क पड़ता है कि राजा महाराजा हिंन्दु हैं कि
मुसलमान हैं कि ईसाई हैं? कोई नृप होय हमें का हानि! हमें फर्क ही क्या पड़ता है? हमको चुसना है। अब मच्छर भारतीय
हैं कि अभारतीय हैं, क्या फर्क पड़ता है, खून तो पीएंगे! गोरे हैं कि काले, क्या फर्क पड़ता है?
खटमल तो खटमल हैं, कहीं ले जाओ, वे तो खून पीएंगे।'
तुम हजारों साल से गुलाम हो। तुमने कभी लोकतंत्र नहीं जाना। तुमने कभी स्वतंत्रता नहीं
जानी। और अचानक तुम्हें फिक्र पड़ गयी है कि अंधानुकरण न हो पश्चिम का। होगा ही, क्योंकि तुम्हारे पास कोई मूल्य नहीं है जिनको पढ़ा-लिखा हुआ सुशिक्षित
युवक स्वीकार करने को राजी हो सके। या तो मूल्य पैदा करो। मैं मूल्य पैदा कर रहा
हूं। और तुम देख सकते है उन मूल्यों के कारण पश्चिम के युवक आ रहे हैं। मूल्य हों
तो युवक कहीं से भी आएंगे। युवकों के
पास दृष्टि होती है, सूझ होती है, हिम्मत होती है, साहस
होता है। यह सवाल इसका नहीं है कि पश्चिम
का अंधानुकरण क्यों कर रहे हैं; तुम्हारे पास कुछ भी नहीं है,
जिसको पकड़ कर बैठें। पकड़ने
योग्य कुछ नहीं है, तो मजबूरी है।
मूल्य पैदा करो। आइंस्टीन पैदा करो। रदरफोर्ड पैदा करो। तुम यहां पैदा
करो लोग। विटगिंसटीन पैदा करो। बर्ट्रेंड रसेल पैदा करो। मैं उसी कोशिश में लगा
हूं कि यहां मूल्य पैदा करें, यहां मनुष्य पैदा करें। आज मेरे
संन्यासियों में पश्चिम से जो आए हुए लोग हैं, तुम जान कर
हैरान होओगे, सैकड़ों पीएच.डी. हैं, हजारों
एम.ए.हैं, कोई इंजीनियर है, कोई डॉक्टर
है, कोई सर्जन है, कोई प्रसिद्ध
चित्रकार है, कोई अभिनेता है, कोई कवि
है, कोई मूर्तिकार है। भारत को हमेशा शिकायत रही है कि हमारी
प्रतिभाएं पश्चिम चूस लेता है। मैं शिकायत मिटाए देता हूं। हम पश्चिम की सारी
प्रतिभाओं को यहां ला सकते हैं। मगर तुम्हारे इस देश के गधों के कारण मुसीबत है।
उनके कारण अड़चन है।
मैं मूल्य भी पैदा कर रहा हूं और मूल्यों का आकर्षण भी दे रहा हूं।
मूल्यों का निमंत्रण भी पहुंचना शुरू हो गया है। तुम इसमें पड़े हो कि पश्चिम का
अंधानुकरण न करें युवक । यह तो नकारात्मक बात है। मैं तो यह कह रहा हूं कि मूल्य
पैदा करो, पश्चिम तुम्हारा अनुकरण करेगा। क्यों तुम इस चिंता में पड़े हो? यह
तो हमेशा कमजोरों की बात है कि दूसरों के पीछे न जाओ। ताकतवर कहता है मेरे पीछे आओ,
क्या बात करनी दूसरों के पीछे नहीं जाने की! और क्या तुम बचा सकोगे?
तुम्हारे पास चुनाव क्या है? तुम सामने विकल्प
क्या देते हो? तुम कुछ विकल्प तो बताओ अपने युवक को कि यह
विकल्प है। विकल्प कुछ भी नहीं है। उससे कहते हो: "रामायण पढ़ो बाबा तुलसीदास
की!' वह क्या खाका रामायण
पढ़े बाबा तुलसीदास की, जो बिलकुल अमानवीय है! ढोल गंवार शूद्र पशु नारी, ये
सब ताड़न के अधिकारी! कैसे युवक राजी हों?
स्त्रियों को तुम ढोल के साथ गिनती कर रहे हो, गंवारों के साथ गिनती कर रहे हो, पशुओं के साथ गिनती
कर रहे हो!और स्त्रियों से तुम पैदा हुए ।
पशुओं से ऋषि कैसे पैदा है रहे हैं, यह भी बड़ी हैरानी की बात
है! पशुओं से एकदम परमात्मा पैदा हो रहे हैं! ढोरों से, गंवारों से ऋषि-मुनि चले आ रहे हैं! ढोरों में से निकल
रहे हैं! ये बाबा तुलसीदास कहां से पैदा हुए? लेकिन बाबा
तुलसीदास स्त्री से नाराज हैं। और नाराजगी का कुल कारण इतना है कि इनकी स्त्री ने ही इनको बोध दिया। ये
बर्दाश्त नहीं कर सके। ये क्षमा नहीं कर पाये उसको। ये अंधे, लोलुप , कामी आदमी थे। स्त्री मायके गयी थी। ये कुछ
दिन चैन से न बैठ सके। राम राम जपते रहते, माला फेरते,
कुछ भी करते। कई तरह की बेवकूफियां हमें आती हैं, कुछ भी करते रहते। मगर नहीं, बरसात की अंधेरी रात,
ये पहुंच गये। नदी पूर पर थी। नाव मिली नहीं। सोचा एक लक्कड़ बहा जा रहा है--लक्कड़ नहीं था,
लाश थी आदती की--उसका ही सहारा ले कर उस पार पहुंच गये। सामने के
दरवाजे से तो घुसने की हिम्मत नहीं थी, क्योंकि लोग
पूछते--ऐसी आधी रात आप अचानक आ गये! पर कामवासना इतनी तेजी से उठी होगी कि आधी रात
भी हो तो क्या करें! रोक नहीं सके अपने को। तो मकान के पीछे से चढ़ने की कोशिश की,
समझे की रस्सी है। अंधी रही होगी कामवासना, बिलकुल
अंधी रही होगी। सांप लटका था। सांप को पकड़ कर ऊपर चढ़ गये।
पत्नी को बहुत हैरानी हुई। पत्नी ने कहा कि आप मेरे प्रेम में अंधे हो
रहे हैं, काश परमात्मा के प्रेम में अंधे होते, इतने अंधे परमात्मा के प्रेम में होते तो जीवन का परम आनंद आपका था,
सत्य आपका था, मुक्ति आपकी थी! चोट खा कर लौटे,
इस स्त्री को माफ नहीं कर पाए। इसी स्त्री को लिख रहे हैं--ढोल
गंवार शूद्र पशु नारी! ढोल कौन था इसमें? गंवार कौन था?
शूद्र कौन था? यह स्त्री या बाबा तुलसीदास?
स्त्री नहीं आयी थी सांप पर चढ़ कर , मुर्दे का
सहारा लेकर। स्त्री में ज्यादा संयम था, इन सज्जन में बिलकुल
नहीं था। वह नाराजगी भीतर बैठी हुई है।
तुम युवकों को क्या कहते हो? विटगिंसटीन के
मुकाबले या बर्ट्रेंड रसेल के मुकाबले
बाबा तुलसीदास को पढ़ें? गांव के गंवार पढ़ते रहीं ठीक;
उनके पास बेचारों के पास कुछ है भी नहीं। या तो बाबा तुलसीदास को
पढ़ें, उनकी चौपाइयों में खोए रहें और या फिर आला ऊदल। आला
ऊदल बड़े लड़ैया, जिनके हार गयी तलवार! इसको दोहराएं। और
तुम्हारे पास है क्या?
तुम मुझसे कह रहे हो कि " क्या समय रहते अपनी संस्कृति को बचा
लेना जरूरी नहीं?' समय रहते इसको नष्ट कर देना जरूरी है। समय रहते इसको
आग लगा देना जरूरी है। इससे छुटकारा पा लेना जरूरी है। समय रहते नयी संस्कृति को
पैदा कर लेना जरूरी है। ताकि तुम्हारे युवक दूसरों के पीछे न जाएं। क्यों तुम्हारे
युवक दूसरों के पीछे जाएं? लेकिन यहां सड़ रही है लाश। यहां
तुम्हारी संस्कृति मुर्दा हो गयी है, कब की मरी हुई है,
सांस चल नहीं रही उसमें सदियों से । कब तक लाश को पकड़े रहें?
दुर्गंध उठ रही है। इसको जलाओ और खाक करो। नयी संस्कृति को जन्म दो
उसी काम में मैं लगा हुआ हूं। नयी संस्कृति हो तो पश्चिम भी उसका अनुसरण करने को
राजी हो सकता है।
तुम यहां प्रत्यक्ष प्रमाण देख सकते हो। मैं कभी नकारात्मक ढंग से
सोचता नहीं। मुझे इसकी फिक्र नहीं कि तुम्हारे युवक क्यों पश्चिम का अनुसरण कर रहे
हैं। मुझे इसकी फिक्र है कि क्यों न ऐसी संस्कृति पैदा हो कि तुम्हारे युवक भी
उसका अनुसरण करें, पश्चिम भी उसका अनुसरण करे। लेकिन वह संस्कृति भिन्न
होगी--पश्चिम से भिन्न होगी, पूरब से भी भिन्न होगी। उसमें
पूरब का दकियानूसीपन नहीं होगा। उसमें पूरब का सड़ा गलापन, बुढ़ापा
नहीं होगा। उसमें पश्चिम की छिछली भौतिकता नहीं होगी, उथलापन
नहीं होगा। उसमें पश्चिम का विज्ञान होगा, पूरब का अध्यात्म
होगा। किसी तरह अल्बर्ट आइंस्टीन और गौतम बुद्ध को एक साथ खड़ा कर देना है, एक ही सिक्के के दो पहलू बना देना है। विज्ञान और धर्म जहां मिल जाएं,
भविष्य उसी सिक्के का है। उसी सिक्के का राज्य भविष्य पर चलने वाला है। उसी सिक्के का चलन
होने वाला है।
निश्चित, मैं दोनों को नाराज करूंगा। भारतीय नाराज होंगे, क्योंकि मैं
पश्चिम से विज्ञान लूंगा। और पश्चिमी पंडित-पुरोहित , वे भी
मुझसे नाराज हैं। चर्चों में--जर्मनी में, हालैंड के ,
अमरीका के--मेरे खिलाफ प्रवचन दिए जा रहे हैं, वक्तव्य दिए जा रहे हैं। घंटों विवाद हो रहा है। सारी दुनिया में तहलका
मचा हुआ है, चर्चा चल रही है कि मैं जो कह रहा हूं वह कहां
तक सच है। और उनको घबड़ाहट पैदा है गयी है, क्योंकि मैं उनके
युवकों को आकर्षित कर रहा हूं।
अभी यहां इटली से, इटली सरकार की तरफ से टेलीविजन फिल्म बनाने के लिए लोग आए हुए हैं। वे
सिर्फ इसलिए आए हुए हैं कि क्या कारण है, इटली में इतने युवक
और युवतियां क्यों पूना जा रहे हैं? वे सिर्फ इस बात का पूरा
का पूरा अध्ययन करने के लिए और इसका अध्ययन करके फिल्म बनाने कि लिए आए हुए हैं। और तुम पड़े हो इस फिक्र में कि हमारे युवक
अंधानुकरण न करें!
मुझे नकारात्मक बातों में रस नहीं है। मेरा रस इस बात में है कि हम
यहां एक ऐसा उत्तुंग शिखर पैदा करें। स्वर्णयुग लाया जा सकता है, लेकिन वह होगा समन्वय का । वह न
होगा भारत का, न होगा किसी और देश का। वह भौगोलिक नहीं होगा।
वह सारी पृथ्वी का होगा। वह पूरे मनुष्य का होगा। सारी मनुष्यता उसमें अपना दान
देगी। उसमें लाओत्सु, च्वांगत्सु, लीहत्सु,
कंफ्यूशियस का दान होगा। उसमें महावीर, बुद्ध,
रमण,कृष्णमूर्ति का दान होगा। उसमें जीसस, फ्रांसिस, इकहार्ट ,बोहमे का
दान होगा। उसमें सूफी फकीरों का दान होगा, झेन फकीरों का दान
होगा, हसीद फकीरों का दान होगा। उसमें योग का दान होगा,
तंत्र का दान होगा। जगत में जो भी श्रेष्ठतम हुआ है, उन सारे फूलों से निचोड़ कर एक इत्र मैं यहां तैयार कर रहा हूं। मुझे भारत
और गैर-भारत में कुछ लेना-देना नहीं है। लेकिन मैं भविष्य में उत्सुक हूं। अतीत
में मेरा कोई रस नहीं है।
आज इतना ही।
चौथा प्रवचन, दिनांक २४ सितंबर, १९८०; श्री
रजनीश आश्रम, पूना
क्या आप OSHO द्वारा इस ट्रांसक्रिप्ट के ऑडियो फ़ाइल को साझा कर सकते हैं ?
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