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बुधवार, 10 मई 2017

मृत्युार्मा अमृत गमय-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-09

मृत्युार्मा अमृत गमय-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो

दिनांक 09 अगस्त सन् 1979
प्रवचन-नौवां   

* नये मनुष्य का आगमन
* धर्म के व्यापारी
* समर्पण की मस्ती
* विवाह का फंदा
* सत्य और सूली

प्रश्न-सार

*आप कहते हैं कि भावी मनुष्य, नया मनुष्य--जिसके निर्माण में आप संलग्न हैं--एक साथ विज्ञानी, कवि और संत तीनों होगा। इस दृष्टि को विस्तार से समझाने की अनुकंपा करें।
*धर्म के लिए सबसे बड़ा खतरा किससे हैं?
*अस्सलाम आलेकुम! सलाम तो बचपन से किया, लेकिन यहां जब संगीत-ध्यान में इसे गाया, तो एक सरूर सा आया। रोना भी आया और हंसना भी। खिल गए मेरे प्राण। दिल किया कि आपके पैरों को चूमूं। झुकूं--झुकूं--और झुकता ही रहूं। शुक्रिया आपका!
*शादी घरवालों की मर्जी से करें या स्वयं के चुनाव से?
*आप आनंद बांटते ही चले जाते हैं। और लोग हैं कि अमृत के उत्तर में आपको विष देते हैं। उनके संबंध में आपका क्या वक्तव्य है?


*पहला प्रश्न: भगवान! आप कहते हैं कि भावी मनुष्य, नया मनुष्य--जिसके निर्माण में आप संलग्न हैं--एक साथ विज्ञानी, कवि और संत तीनों होगा। इस दृष्टि को विस्तार से समझाने की अनुकंपा करें।

आनंद मैत्रेय! मैं अखंड मनुष्य को स्वीकार करता हूं। खंडित मनुष्य सुविधापूर्ण हो सकता है, लेकिन न तो शांत होगा, न आनंदित होगा। खंडित मनुष्य उपयोगी हो सकता है, लेकिन उल्लासपूर्ण नहीं। और अतीत में मनुष्य के खंडों को ही स्वीकार किया गया है।
मनुष्य बहु-आयामी है। हम उसके एक आयाम को स्वीकार कर सकते हैं और दूसरे आयामों को इनकार कर सकते हैं। सच तो यह है कि यह तर्क के अनुकूल पड़ता है, क्योंकि उसके खंड एक-दूसरे के विपरीत मालूम होते हैं। जैसे मस्तिष्क है, वह तर्क से जीता है; और हृदय है, वह भाव से। जिन्होंने मस्तिष्क को स्वीकार किया उन्हें अनिवार्यरूपेण, उनके ही तर्क की निष्पत्ति के अनुसार, भाव को अस्वीकार कर देना पड़ा।
लेकिन मनुष्य अगर मस्तिष्क ही रह जाए, जिसमें भाव के फूल न खिलते हों, केवल गणित और तर्क और हिसाब ही लगता हो, तो वैसा मनुष्य यंत्रवत होगा। वैसे मनुष्य के जीवन में नृत्य नहीं हो सकता, काव्य नहीं हो सकता, संगीत नहीं हो सकता। वैसा मनुष्य धन कमाएगा, पद-प्रतिष्ठा कमाएगा, बहुत कुशल होगा; क्योंकि भाव से उसकी कुशलता में जो बाधा पड़ सकती थी, वह बाधा भी नहीं पड़ेगी। लेकिन उसकी आंखें सूखी होंगी; उसकी आंखों में कभी आह्लाद का या विषाद का कोई आर्द्र भाव प्रकट नहीं होगा। और उसका हृदय एक मरुस्थल होगा, जिसमें हरियाली नहीं होगी और जिसमें पक्षी गीत नहीं गाएंगे।
और ऐसे व्यक्ति की दृष्टि बड़ी संकुचित, बड़ी संकीर्ण होगी। वह पदार्थ के अतिरिक्त और कुछ स्वीकार न कर सकेगा, क्योंकि पदार्थ ही उसकी पकड़ में आएगा। मस्तिष्क के तराजू पर जो तौला जा सकता है, उसका नाम ही पदार्थ है। वह बाह्य को तो देख लेगा, लेकिन अंदर झांकने की क्षमता खो देगा। और सब जान लेगा, अपने को जानने की बात ही भूल जाएगा। उसकी गति वैसी होगी, जैसे प्राचीन पंचतंत्र की कथा में है।
दस अंधों ने नदी पार की। नदी पूर पर थी। सोचा गिनती कर लें, कोई नदी में बह न गया हो। और उन्होंने गिनती की, और फिर वे दसों ही रोने लगे, क्योंकि गिनती नौ तक जाती और खत्म हो जाती। प्रत्येक गिनने वाला अपने को छोड़ देता।
पास से कोई राहगीर गुजरता था, उसने पूछा कि क्यों रोते हो, क्या हुआ? कारण जान कर उसे हंसी आई। एक नजर डाली, देखा कि दस हैं। कहा कि जरा मेरे सामने गिनो। गिनती भी देखी, तो भूल भी समझ में आ गई कि प्रत्येक दूसरों को गिन लेता है, अपने को छोड़ जाता है।
तो उस राहगीर ने कहा, ऐसा करो...मैं तुम्हें गिनती का ठीक ढंग सिखाता हूं। मैं प्रत्येक व्यक्ति को एक चांटा मारूंगा। जिसको चांटा पड़े, वह बोले--एक! फिर जिसको दूसरा चांटा पड़े, वह बोले--दो! ऐसे मैं मारता चलूंगा, और तुम संख्या बोलते चलना।
स्वभावतः जब दसवें आदमी को चोट पड़ी, उसने कहा, दस! उस राहगीर ने कहा, मिल गया न व्यक्ति, जिसको तुम सोचते थे खो दिया! जिसको खोने के कारण तुम रोते थे, मातम मना रहे थे जिसकी मृत्यु पर, वह कहीं खोया नहीं था, सिर्फ तुम्हारे हिसाब लगाने में थोड़ी सी भूल थी। गिनने वाला अपने को गिनना भूल जाता था।
मस्तिष्क की वही भूल है; सब को गिन लेता है, अपने को भूल जाता है। जैसे चश्मा सब को देख लेता है, अपने को नहीं देख पाता। आंख जैसे सब को देख लेती है, अपने को नहीं देख पाती। आंख के लिए दर्पण चाहिए, तो अपने को देखे। उसी दर्पण का नाम काव्य है।
काव्य तुम्हें अपनी झलक दिखाता है। काव्य तुम्हें अपनी सुगंध देता है। काव्य तुम्हारे भीतर भाव का उद्रेक है, भाव की तरंग है। काव्य तुम्हारी अपने से पहली प्रतीति, पहला साक्षात्कार है। काव्य से रहित व्यक्ति ठीक अर्थों में मनुष्य नहीं है। उसकी मनुष्य होने की संभावना थी, लेकिन वह चूक गया।
और आज यह दुर्भाग्य बहुत गहन हो गया है। क्योंकि हम विज्ञान की तो शिक्षा देते हैं। हम प्रत्येक व्यक्ति को संदेह में कुशल बनाते हैं; सोच और विचार में निष्णात करते हैं। स्कूल से लेकर विश्वविद्यालय तक पच्चीस वर्ष, जीवन का एक तिहाई हिस्सा, हम गणित और तर्क के शिक्षण में व्यतीत करवाते हैं। स्वभावतः फिर अगर पदार्थ के अतिरिक्त कुछ भी न दिखाई पड़ता हो, तो आश्चर्य नहीं है। फिर देह ही दिखाई पड़ती है, आत्मा का कोई दर्शन नहीं होता। संसार दिखाई पड़ता है, और परमात्मा की कोई प्रतीति नहीं मालूम होती। फिर लगता है कि परमात्मा पागलों की बात है, या छोटे बच्चों की कल्पना है, या कि सपना है, लेकिन सत्य नहीं।
काव्य के बिना तुम्हारे जीवन में, वह जो दृश्य और अदृश्य के बीच का सेतु है, निर्मित नहीं होगा। काव्य से मेरा अर्थ है: दृश्य और अदृश्य के बीच एक सेतु। एक इंद्रधनुष, जो पृथ्वी को आकाश से जोड़ देता है; जो द्वंद्व को मिटा देता है, जो दो किनारों को दो नहीं रहने देता, एक कर देता है।
काव्य से मेरा इतना ही अर्थ नहीं है, जितना साधारणतः समझा जाता है। काव्य में वह सब सम्मिलित है, जो तर्क से नहीं जन्मता--फिर चाहे संगीत हो, फिर चाहे नृत्य हो, चाहे मूर्तिकला हो, चाहे स्थापत्य हो। जो भी सिर्फ तर्क के अनुसार नहीं पैदा होता है, जिसमें तर्क से कुछ ज्यादा है, वही काव्य है। और जब तक काव्य नहीं है, तब तक धर्म की कोई संभावना नहीं है।
यह आकस्मिक नहीं है कि संसार के सारे धर्मग्रंथ काव्य के अनूठे उदाहरण हैं--फिर वह कुरान हो या गीता या उपनिषद। ऐसे धर्मग्रंथ भी जो पद्य में नहीं लिखे गए हैं वे भी गद्य मात्र नहीं हैं। जैसे जीसस के वचन काव्य में नहीं लिखे गए हैं। लेकिन उनमें महत काव्य है; उनके पोर-पोर में काव्य है; एक-एक वचन रससिक्त है! शायद इतने काव्यपूर्ण उदगार न कभी पहले बोले गए, न कभी बाद में बोले गए। कविता नहीं है, लेकिन तर्क के जो ऊपर है, उसकी स्पष्ट झलक है। फिर बुद्ध बोलें कि महावीर, उनके वचन चाहे गद्य हों चाहे पद्य, गहराई में काव्य झलकें मारता हुआ मिलेगा।
इसलिए काव्य को मैं विज्ञान के ऊपर की सीढ़ी मानता हूं। विज्ञान निम्नतम है; अधिकतम उपयोगी है इसीलिए। और विज्ञान सभी की समझ में आ जाता है, क्योंकि निम्नतम है। विज्ञान से कोई इनकार नहीं करता, कर भी नहीं सकता, क्योंकि विज्ञान पत्थर की तरह है। काव्य तो फूल है, चाहो तो इनकार कर सकते हो। सौंदर्य है; अस्वीकार करने में कठिनाई नहीं है। और अगर जिद्द बांध कर बैठ जाओ, तो कोई भी सौंदर्य को सिद्ध नहीं कर सकता।
यह छप्पर पर हो रही वर्षा, यह बूंदाबांदी; जो सुन सकता है, उसे इसमें ओंकार का नाद सुनाई पड़ेगा; जो सुन सकता है, उसे अनाहत की झलक मिलेगी। अन्यथा सिर्फ शोरगुल है। अन्यथा सिर्फ आवाज है। शायद विघ्न भी पड़े। शायद तुम्हारे सोच-विचार में व्यवधान भी आए। शायद तुम चाहो कि यह उपद्रव, यह उत्पात न होता तो अच्छा था।
वृक्षों से गुजरती हवाएं सिर्फ अंधड़ हो सकती हैं। लेकिन जिसके पास देखने की क्षमता है, उसके लिए वृक्षों से गुजरती हवाओं में महासंगीत छिपा है। जिसके पास भाव की आंख है, उसके लिए फूल सिर्फ फूल नहीं है; फूल पर कुछ उतरा है--पार से, दूर आकाश से! फूल उसके लिए परमात्मा का मंदिर है, क्योंकि फूल की सुकुमारता में इस अस्तित्व की सुकुमारता प्रकट हुई है। और फूल के रंगों में इस अस्तित्व का आह्लाद प्रगाढ़ होकर प्रकट हुआ है। और फूल की गंध में इस अस्तित्व की अर्थवत्ता, गरिमा, गौरव--उसकी पगध्वनियां उसे सुनाई पड़ेंगी।
काव्य के लिए हृदय को नाचने की कला आनी चाहिए। काव्य के लिए मस्तिष्क को कभी-कभी दूर हटा कर रख देने की क्षमता आनी चाहिए। मस्तिष्क उपयोगी यंत्र है, लेकिन चौबीस घंटे उसे पकड़ कर बैठे रहना मूढ़ता है। तुम मस्तिष्क के मालिक हो। तुम्हें मस्तिष्क को कारागार बनाने की आवश्यकता नहीं है। तुम मस्तिष्क से अपने को कभी-कभी मुक्त भी करो।
कभी जब आकाश में बादल घिर जाएं और मोर नाचने लगें, तो तुम भी उस नृत्य में सम्मिलित हो जाओ। और जब कभी दूर से रात के अंधेरे में कोयल की आवाज आए, तो अपने हृदय को खोलना, अपने हृदय के भीतर उसे आमंत्रित करना। और जब पपीहा पुकारे--पी कहां! तो तुम्हारे भीतर भी उसकी पुकार को गूंजने देना, तुम्हारे रोएं-रोएं को भी पुलकित होने देना। और जब सूरज उगे या सूरज डूबे, तो ऐसे ही मत बीत जाने देना ये अदभुत क्षण; तुम्हारे भीतर भी कुछ उगे, तुम्हारे भीतर भी कुछ डूबे! और जब आकाश तारों से भर जाए, तो तुम खाली मत बैठे रहना; भीतर के आकाश में भी तारों को प्रतिबिंबित होने देना। एक झील बन जाना चैतन्य की, कि तुम्हारे भीतर सारा आकाश उतर आए। तब धीरे-धीरे तुम्हें काव्य का स्वाद लगेगा।
जो व्यक्ति नाच नहीं सकता, गा नहीं सकता, बांसुरी नहीं बजा सकता, इकतारा नहीं छेड़ सकता, अलगोजे से जिसका कोई संबंध नहीं रहा है--उस व्यक्ति ने अपने को अपने से ही तोड़ लिया। उस व्यक्ति ने अपने को अपने से ही अजनबी कर लिया। वह खुद से ही अपरिचित हो गया है। उसे पता नहीं वह कौन है। उसे पता हो भी नहीं सकता।
काव्य को मैं दूसरी सीढ़ी मानता हूं--विज्ञान से ऊपर, विज्ञान से श्रेष्ठतर। उपयोगी कम, सार्थक ज्यादा। विज्ञान उपयोगी है। बीमार होओगे, तो विज्ञान के पास जाना पड़ेगा। कारखाना चलाओगे, तो विज्ञान से पूछताछ करनी होगी। कार खराब हो जाएगी, तो वैज्ञानिक को निमंत्रण देना होगा। विज्ञान की उपयोगिता है, उपादेयता है। इसलिए मैं विज्ञान का विरोधी नहीं हूं। लेकिन यह तुम्हें याद दिलाना चाहता हूं--उसकी उपयोगिता चरम मूल्य नहीं है। उसकी उपयोगिता किसके लिए है? तुम्हारे लिए है। तुमसे ऊपर नहीं है। तुम उसके ऊपर हो।
और विज्ञान की उपयोगिता इसीलिए है कि तुम काव्य के जगत में प्रवेश कर सको। काश हम यह समझ सकें, तो विज्ञान वरदान है। अब तक तो अभिशाप सिद्ध हुआ। विज्ञान तुम्हें ज्यादा समय देगा, क्योंकि जिस काम में घंटों लगते थे, क्षणों में कर देगा। विज्ञान तुम्हारे जीवन को लंबा देगा। विज्ञान तुम्हारे पास इतनी क्षमता जुटा देगा कि तुम चाहो तो नाचो, चाहो तो गाओ, चाहो तो विश्राम करो, ध्यान करो। विज्ञान समृद्धि देगा, लेकिन समृद्धि की एक ही महत्ता हो सकती है कि अंतर्यात्रा शुरू हो सके।
इसलिए विज्ञान का मैं विरोधी नहीं हूं। चाहता हूं विज्ञान आत्मसात हो। मगर विज्ञान पर मत रुक जाना। विज्ञान के ऊपर मैं काव्य का रंग देना चाहता हूं। विज्ञान अगर मंदिर बना सके, तो अच्छा। लेकिन इस मंदिर का जो अंतरगर्भ होगा, जो गर्भगृह होगा, वह तो काव्य का ही हो सकता है। अगर यह मंदिर ही मंदिर हो और इसमें कोई गर्भगृह न हो--जहां परम अतिथि को आमंत्रित किया जा सके, जहां परम देवता को विराजमान किया जा सके--तो यह मंदिर खाली है; यह मंदिर अर्थहीन है। इस मंदिर का कोई प्रयोजन नहीं। इसे बनाना व्यर्थ है। काव्य में इसकी सार्थकता होगी।
लेकिन काव्य पर ही नहीं रुक जाना है। कुछ लोग काव्य पर रुक जाते हैं।
मस्तिष्क बाह्य यात्रा का साधन है; भाव अंतर्यात्रा का साधन है। दोनों का उपयोग करो; लेकिन तुम दोनों के पार हो, यह कभी न भूले, एक क्षण को विस्मरण न हो।
न तो तुम मस्तिष्क हो, न तुम हृदय हो। जब तुम मस्तिष्क के पीछे खड़े हो जाते हो, तो तर्क निर्मित होता है, विज्ञान का जन्म होता है, गणित बनता है। और जब तुम भाव के पीछे खड़े हो जाते हो, तो काव्य की तरंगें उठती हैं, संगीत जन्मता है। और जब तुम दोनों से मुक्त होकर स्वयं को जानते हो, तो धर्म का जन्म होता है। तब तुम्हारे भीतर सत्य की प्रतीति होती है।
सत्य की प्रतीति ही तुम्हें संत बनाती है। नियम, व्रत, उपवास से कोई संत नहीं होता। सत्य को जो जान लेता है अपने भीतर विराजमान, पहचान लेता है अपने भीतर के देवता को, अंतर-देवता से जिसका परिचय हो जाता है--वही संत है।
संतत्व जीवन में बहुत से रूपांतरण लाता है। तुम्हारा आचरण बदलेगा, तुम्हारा व्यवहार बदलेगा, तुम्हारी दृष्टि बदलेगी। लेकिन वे सब पीछे आएंगे; संतत्व पहले घटित होगा।
लेकिन इन तीनों सीढ़ियों में एक क्रमिकता है। जो वैज्ञानिक भी नहीं हो सकता, वह कवि नहीं हो सकेगा। जो विज्ञान को भी समझने में असमर्थ है, वह काव्य की ऊंचाइयां कैसे भरेगा? और जो काव्य को नहीं समझ सकता, वह रहस्यवाद, संतत्व को कैसे समझेगा?
संतत्व तो है साक्षी का अनुभव। न मैं मन हूं; न मैं हृदय हूं; न मैं देह हूं। न मैं बाहर हूं, न मैं भीतर हूं। मैं सारे द्वंद्व और द्वैत के अतीत हूं! जहां दोनों का अतिक्रमण हो गया है। जहां तुमने सिर्फ शुद्ध चैतन्य को जाना है। जिस पर कोई बंधन नहीं हैं--न विचार के, न भाव के। जहां गणित भी खो गया, और जहां काव्य भी सो गया। जहां सब परम शांत है। जहां परम मौन घटित हुआ है; उस परम मौन के कारण ही हमने संतों को मुनि कहा है। जहां सत्य की प्रतीति हुई है; सत्य की प्रतीति के कारण उन्हें संत कहा है। और जहां जीवन के रहस्य ने अपने द्वार खोल दिए हैं। जहां जीवन तुमसे कुछ भी छिपाता नहीं है। क्योंकि तुम इतने पात्र हुए हो कि तुम्हारे पात्र में अमृत बरसे। तुम इस योग्य हुए हो कि तुम्हारे भीतर दीया जले ज्योति का। तुम्हारे भीतर उपनिषद के ऋषि की प्रार्थना पूरी हो गई--तमसो मा ज्योतिर्गमय! असतो मा सदगमय! मृत्योर्मा अमृतं गमय! तुम आ गए घर। जिसकी तलाश थी, वह मिल गया। अब और पाने को इसके आगे कुछ भी नहीं है।
यह मनुष्य की त्रिमूर्ति है--विज्ञान, काव्य, धर्म। ये मनुष्य के तीन चेहरे हैं। इन किसी एक चेहरे से मत बंध जाना। इन तीनों को जानना; और तीनों से मुक्त भी अपने को जानना। इन तीनों को जानना; और जानने वाला सदा ही अतिक्रमण कर जाता है, जानने वाला कभी भी दृश्य नहीं बनता, द्रष्टा ही रहता है, उसे दृश्य बनाने का कोई उपाय नहीं है--ऐसा भी जानना। तब तुम्हारी मंजिल पूरी हुई। तब यह जीवन की यात्रा अपने अंतिम पड़ाव पर आ गई। अब तुम रुक सकते हो। अब कहीं और जाने को नहीं, कहीं कुछ और पाने को नहीं। पाने योग्य पा लिया गया, जानने योग्य जान लिया गया। तब गहन परितोष पैदा होता है।
और उसी परितोष में परमात्मा के प्रति धन्यवाद उठता है। जैसे फूलों से गंध उठे! जैसे धूप जले और धुआं, सुगंधित धुआं आकाश की तरफ उठे! कि दीये की ज्योति आकाश की तरफ उठे! ऐसे ही तुम्हारे भीतर एक अनिर्वचनीय रूप में, कही न जा सके, शब्द में न बांधी जा सके, ऐसी अभिव्यंजना होती है धन्यवाद की। शब्द भी नहीं बनते; बस कृतज्ञता में सिर झुक जाता है!
मैं इसे मनुष्य का अखंड रूप मानता हूं। मेरी दृष्टि में यह भविष्य का मनुष्य है, जिसके आगमन की जोर से प्रतीक्षा की जा रही है। क्योंकि अगर वह नहीं आया, तो पुराना मनुष्य तो सड़ गया है। पुराना मनुष्य खंडित मनुष्य है। एक-एक हिस्से को लोगों ने पकड़ लिया है। पश्चिम ने पकड़ लिया विज्ञान को, पूरब ने पकड़ लिया धर्म को; दोनों अधमुर्दा हालत में हैं, अर्धजीवित। पश्चिम मर रहा है, क्योंकि शरीर तो है, धन है, पद है, लेकिन आत्मा नहीं है। और पूरब मर रहा है, क्योंकि आत्मा की बातचीत तो है, लेकिन देह खो गई है। दीनता है, दरिद्रता है, भुखमरी है। पेट भूखा है; आत्मा की बात भी करो, तो कब तक करो! और कितनी ही समृद्धि तुम्हारे पास हो, अगर आत्मा ही नहीं है, तुम ही नहीं हो, तो तुम्हारी समृद्धि केवल तुम्हें अपनी दरिद्रता की याद दिलाएगी, और कुछ भी नहीं। पश्चिम बाहर से समृद्ध, भीतर से दरिद्र हो गया; पूरब ने भीतर की समृद्धि में बाहर की दरिद्रता मोल ले ली। यह खंड-खंड का चुनाव था। यह चुनाव अशुभ हुआ।
नास्तिकों ने मान लिया कि पदार्थ सब कुछ है, परमात्मा कुछ भी नहीं। और आस्तिकों ने मान लिया कि परमात्मा सब कुछ है, पदार्थ तो माया है, झूठ है, असत्य है। दोनों ने भूल की है। और दोनों की भूल का दुष्परिणाम सारी मनुष्य-जाति भोग रही है।
मैं नास्तिक की नास्तिकता लेता हूं, आस्तिक की आस्तिकता लेता हूं। मैं नास्तिक और आस्तिक को तुम्हारे भीतर जोड़ देना चाहता हूं। मैं पूरब को और पश्चिम को एक कर देना चाहता हूं। मैं चाहता हूं, यह पृथ्वी एक हो। और इस पृथ्वी के एक होने की संभावना तभी है, जब मनुष्य भीतर अखंड हो। मनुष्य अखंड हो सकता है; होना चाहिए; होना उसकी नियति है। और जब तक न होगा, तब तक पीड़ा है, तब तक विषाद है, तब तक दुख है।
मेरा संन्यासी संसार में रहेगा और परमात्मा में भी। और दोनों के मध्य जो सेतु है--काव्य का, सौंदर्य का, प्रेम का--उसे भी सजाएगा, उसे भी संवारेगा। निश्चित ही, यह अखंड मनुष्य किसी को भी स्वीकृत नहीं होगा। नास्तिक इसका विरोध करेंगे, आस्तिक इसका विरोध करेंगे। धार्मिक इसका विरोध करेंगे, अधार्मिक इसका विरोध करेंगे। पूरब में इसकी निंदा होगी, पश्चिम में इसकी निंदा होगी। मगर इन सारी निंदाओं के बावजूद भी इस अखंड मनुष्य के आने का क्षण आ गया है, इसे अब रोका नहीं जा सकता।
पुराना मनुष्य सड़ गया है। उसके दिन लद गए। पुराने धर्म, पुराने सिद्धांत, पुराने शास्त्र, पुरानी परंपराओं और लीकों पर अब और आगे नहीं चला जा सकता। हमने अपने को बहुत घसीट लिया और हमने अपने हाथ अपने लिए बहुत नर्क निर्मित कर लिया। मैं पुकार देता हूं: अब उस अतीत के बाहर आ जाओ! जैसे सांप अपनी पुरानी चमड़ी को छोड़ कर सरक जाता है और पीछे लौट कर भी नहीं देखता, ऐसे ही तुम भी पुराने को छोड़ कर सरक आओ।
नई सुबह हो रही है! नया दिन आ रहा है! नये मनुष्य का दिन आ रहा है! मैं नये मनुष्य की घोषणा करता हूं! और तुम्हें बनना है वह नया मनुष्य। तुम्हें होना है उस नये मनुष्य की पहली किरण। तुम्हें उस नये मनुष्य को रूप देना है, आकृति देनी है, यथार्थ देना है।
इसलिए मेरे संन्यासी के ऊपर बड़ा दायित्व है। पुराना संन्यासी भगोड़ा था, सारे दायित्व छोड़ कर भाग जाता था। मेरे संन्यासी के ऊपर परम दायित्व है। इससे बड़ा और दायित्व क्या हो सकता है कि तुम्हें गर्भ बनना है कि तुम्हारे भीतर से एक नये अभिनव मनुष्य का जन्म हो सके! एक अभिनव संसार, एक नई दुनिया हम बना सकें! यह पृथ्वी स्वर्ग हो सकती है, यदि मनुष्य अखंड हो। और मनुष्य अखंड हो सकता है। तुम्हारे भीतर तीनों मौजूद हैं, तीनों को जरा जोड़ना है।
सूफी कहानी है कि घर में आटा है, चावल है, दाल है, लकड़ी है, चूल्हा है, आग है--और तुम भूखे बैठे हो! आग को जलाओ। चूल्हे पर बर्तन चढ़ाओ। चावल पकाओ। आटे पर पानी मिलाओ, घी मिलाओ, नमक डालो; गूंथो; रोटी बनाओ; रोटी को पकाओ। तुम्हारे भूखे होने का कोई कारण नहीं है। सब मौजूद है, मगर तुम बैठे हो! न तुम चूल्हा जलाते, न तुम चावल चढ़ाते, न तुम आटा गूंथते; बस तुम बैठे हो और रो रहे हो! तुम बैठे हो और कोस रहे हो संसार को। तुम बैठे हो और परमात्मा की शिकायत कर रहे हो। तुम बैठे हो और अपने कर्मों के लिए जिम्मेवार ठहरा रहे हो।
बहुत हो चुकी यह बकवास। न तुम्हारे कर्मों की कोई जिम्मेवारी है, न कोई परमात्मा तुम्हें परेशान कर रहा है, न तुम्हारे भाग्य में दुख लिखा है, न विधाता ने तुम्हारा भविष्य सुनिश्चित किया है। उठो! आंख खोलो! सब तुम्हें दिया गया है।
लेकिन थोड़ा संयोजन करना होगा। वीणा के तार ढीले हों, तो थोड़े कसो; ज्यादा कस गए हों, तो थोड़े ढीले करो। उन्हें मध्य में लाओ--न कसे हों, न ढीले हों--संगीत पैदा हो सकता है।
तुम्हारे इन तीनों रूपों को एक साथ जगाने की चेष्टा करो।
जब पदार्थ के संबंध में सोचो, तो वैज्ञानिक हो जाओ। इसलिए मैं बाइबिल की इस बात से राजी नहीं हूं कि पृथ्वी चपटी है। क्योंकि जब पदार्थ के संबंध में सोचना हो, तो हमें बाइबिल में देखना ही नहीं चाहिए। बाइबिल को कोई हक ही नहीं है। वैज्ञानिक से पूछना चाहिए। वहां क्राइस्ट के पास मत जाओ; गैलीलियो से पूछो।
लेकिन जिन लोगों ने खोजा कि पृथ्वी गोल है, इससे यह सिद्ध नहीं होता कि उनको पता चल गया कि वे कौन हैं। गैलीलियो से मत पूछना कि आत्मा है या नहीं। पृथ्वी की गोलाई जान लेने से आत्मा के जानने का क्या संबंध है? वह तो जीसस से ही पूछो। उसका पता तो जीसस को ही है।
और जीसस और गैलीलियो के बीच में भी लोग हैं--कालिदास है, भवभूति है, खलील जिब्रान है, रवींद्रनाथ हैं। जब इन दोनों के मध्य लोक के संबंध में कुछ जानना हो--न दिन, न रात, जब संध्या के संबंध में कुछ जानना हो, जब गोधूलि की बेला के संबंध में कुछ जानना हो--तो फिर रवींद्रनाथ से पूछो, खलील जिब्रान से पूछो, माइखेल नेमी से पूछो। फिर उनसे पूछो, काव्य जिनका लोक है।
और ये तीनों तुम्हारे भीतर मौजूद हैं। धीरे-धीरे पूछते-पूछते अपने भीतर पहचानो कि गैलीलियो कहां है, रवींद्रनाथ कहां हैं, जीसस कहां हैं! और तुम तीनों को अपने भीतर पाओगे। और जिस दिन ये तीनों हाथ में हाथ डाल कर आलिंगनबद्ध हो जाएंगे, तुम्हारे भीतर अभिनव मनुष्य का आविर्भाव होगा, तुम पहली दफा अपनी परिपूर्णता से परिचित होओगे। और पूर्ण को जानना ही परमात्मा को जानना है।


*दूसरा प्रश्न: भगवान! धर्म के लिए सबसे बड़ा खतरा किससे है?

निरंजन! नास्तिक से खतरा है, ऐसा लोग सोचते रहे हैं। लेकिन मैं तुमसे कहता हूं, नास्तिक से धर्म के लिए कोई खतरा नहीं है। नास्तिक तो वस्तुतः धर्म की तलाश में लगा है। नास्तिक तो इतना ही कह रहा है कि अभी मैंने देखा नहीं, जाना नहीं, तो मानूं कैसे? नास्तिक तो सिर्फ अपनी ईमानदारी जाहिर कर रहा है। इसलिए सदियों-सदियों में जो तुमसे कहा गया है कि नास्तिक से धर्म को खतरा है, वह गलत बात है।
खतरा झूठे आस्तिक से है। सच्चा नास्तिक तो आज नहीं कल सच्चा आस्तिक हो जाएगा, क्योंकि सचाई हमेशा सचाई में ले जाती है। एक सत्य दूसरे सत्य के लिए साधन बन जाता है, उपकरण बन जाता है। अगर तुम्हारी "नहीं' सच्ची है, ईमान से भरी है, तो आज नहीं कल तुम्हारी "हां' भी आएगी--और इतने ही ईमान से भरी हुई "हां' आएगी।
लेकिन एक दुर्घटना घट गई है, लोग झूठे आस्तिक हो गए हैं। उन्होंने नहीं तो कही ही नहीं, और हां कह दिया है। उनकी हां नपुंसक है। उनकी हां में कोई बल नहीं है। उनकी हां में किसी प्रकार का सत्य नहीं है। भय है--सत्य नहीं। समाज ने उन्हें डरवा दिया है। नर्क से वे कंप रहे हैं। स्वर्ग का लोभ है। भय है, लोभ है; लेकिन खोज नहीं है। उनकी आस्तिकता केवल संस्कार मात्र है। चूंकि मां-बाप, पंडित-पुरोहित, समाज-परिवार एक खास तरह की धारणा में आबद्ध थे, वही धारणा उनके ऊपर भी आरोपित कर दी गई है।
किसी को बचपन से मंदिर ले जाओगे...। छोटे बच्चे पहले मंदिर की मूर्तियों के सामने झुकने से इनकार करते हैं। लेकिन तुम झुकाए ही चले जाते हो। तुम कहते हो, यह धार्मिक शिक्षण है। तुम उन्हें प्रार्थना सिखाए चले जाते हो। जैसे तोतों को कोई राम-राम सिखा दे, ऐसे तुम इन बच्चों को तोते बना देते हो। फिर ये भूल ही जाएंगे कि इन्होंने जो राम-राम कहना सीखा था, वह सिर्फ तोता-रटंत था। पचास साल बाद इन्हें याद भी न आएगा। आदमी की स्मृति बड़ी कमजोर है। पचास साल बाद ये राम-राम ऐसे जपेंगे, जैसे इन्हें राम का पता हो। और इन्हें पता बिलकुल नहीं है। इनके आधार में ही पता नहीं है। बच्चों को तुम जबरदस्ती मंदिर की मूर्ति के सामने झुका देते हो, बाद में झुकना उनकी आदत हो जाएगी।
रूस के एक बहुत बड़े मनोवैज्ञानिक, पावलोव ने एक सिद्धांत का आविष्कार किया, जिसको वह कंडीशंड रिफ्लेक्स कहता है--संस्कार के द्वारा क्रियमान होना। वह एक छोटा सा प्रयोग करता था, जिसने उसको इस सिद्धांत की सूझ दी। वह अपने कुत्ते को एक दिन रोटी खिला रहा था। दुनिया के बहुत से आविष्कार आकस्मिक रूप से होते हैं, यह भी आकस्मिक रूप से हुआ। रोटी उसने कुत्ते के सामने रखी कि कुत्ते की जीभ लटकी और जीभ से लार टपकने लगी। अचानक एक खयाल कौंध गया पावलोव के मन में कि रोटी को देख कर लार का टपकना तो ठीक है, लेकिन क्या किसी ऐसी चीज से भी लार टपकाई जा सकती है, जिससे लार का कोई संबंध न हो?
उसने एक उपाय किया। वह जब भी रोटी कुत्ते को देता, घंटी बजाता। वह घंटी बजाता रहता; कुत्ते की लार टपकती रहती। कुत्ता रोटी खाता, वह घंटी बजाता। पंद्रह दिन नियम से उसने यह किया। सोलहवें दिन रोटी नहीं दी, सिर्फ लाकर घंटी बजाई, और लार टपकने लगी।
अब घंटी से लार के टपकने का कोई भी संबंध नहीं है। रोटी देख कर लार टपकती है, यह तो समझ में आता है। भूखा होगा कुत्ता, रोटी की वास उसके नासापुटों में भर रही होगी। रोटी इतने पास है; अब मिली, अब मिली--इस आतुरता में लार टपक आती होगी। तुम भी नीबू के संबंध में विचार करो, तो मुंह में लार सरकने लगती है। नीबू शब्द लार ले आता है। अब नीबू शब्द में तो कोई लार लाने की क्षमता नहीं है। लेकिन बस घंटी बजी!
पावलोव ने घंटी बजाई, कुत्ते ने लार टपकाई। इस प्रयोग को उसने बहुत तरह से दोहराया और अंततः इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि हम किन्हीं भी चीजों को जोड़ दे सकते हैं।
अगर एक बच्चे को रोज मंदिर ले जाओ और मंदिर की प्रतिमा के सामने झुकाओ; आज झुकने में इनकार करेगा, कल थोड़ा झुकेगा, परसों थोड़ा और झुकेगा, पिता को भी झुकते देखेगा, गांव के गणमान्य लोगों को भी झुकते देखेगा; भाव से झुकते देखेगा; खुद भी अनुकरण करने लगेगा, खुद भी झुकने लगेगा।
लोग मानते हैं ईश्वर में, इसलिए बच्चे भी मान लेंगे। इसलिए मुसलमान का बच्चा मुसलमान हो जाएगा। मस्जिद के सामने जाकर उसको सम्मान पैदा होगा; मंदिर के सामने नहीं। यह पावलोव का सिद्धांत ही है। हिंदू के बच्चे को हिंदू मंदिर के सामने बड़ा समादर पैदा होता है। यह समादर झूठा है। जैन को महावीर की प्रतिमा देख कर एकदम झुकने का भाव पैदा होता है। यह भाव बिलकुल झूठा है।
निरंजन, इन झूठे आस्तिकों से धर्म को खतरा है। इन्हीं झूठे आस्तिकों ने धर्म को बरबाद किया है। और यही झूठे आस्तिक धर्म को बरबाद करने में संलग्न हैं। ये ही चर्च में हैं, ये ही मंदिर में, ये ही गुरुद्वारा में, ये ही गिरजे में--सब जगह तुम इनको पाओगे। सारी पृथ्वी इनसे भरी है।
सच्चा आस्तिक बड़ी मुश्किल बात है। सच्चा नास्तिक ही मुश्किल है, तो सच्चा आस्तिक तो और मुश्किल है। अब तो झूठे नास्तिक भी पैदा हो गए हैं--रूस और चीन में। कम से कम पुराने दिनों में असली आस्तिक न भी होते थे तो असली नास्तिक होते थे। अब असली नास्तिक भी नहीं होता! रूस और चीन में तो नास्तिकता भी पावलोव के सिद्धांत से ही समझाई जाती है। बचपन से पढ़ाया जाता है--ईश्वर नहीं है, न कभी था; झूठी धारणा है। बच्चे वही दोहराने लगते हैं।
बच्चे वही दोहराते हैं, जो मां-बाप दोहराते हैं। जैसे बच्चे वही भाषा सीख लेते हैं, जो मां-बाप बोलते हैं। अगर मां-बाप दो भाषाएं बोलते हैं, तो बच्चे दो भाषाएं सीख लेते हैं। अगर मां-बाप तीन भाषाएं बोलते हैं, तो बच्चे तीन भाषाएं सीख लेते हैं। बच्चों का आचरण मां-बाप का प्रतिफलन होता है। और मां-बाप ने अपने मां-बाप से सीखा था! और उन्होंने उनके मां-बाप से सीखा था। ऐसे सदियां एक-दूसरे को सिखाए चली जाती हैं। झूठ परंपरागत हो जाते हैं।
धर्म को बचाना हो, तो दुनिया में सच्चे नास्तिक चाहिए--पहली बात। फिर सच्चे नास्तिकों में से सच्ची आस्तिकता पैदा होती है। तुम थोड़ा चौंकोगे मेरी बात सुन कर, क्योंकि तुम्हें इतनी बार यह कहा गया है कि नास्तिक-आस्तिक दुश्मन हैं, कि तुमने इस बात को सोचना ही बंद कर दिया; यह तुम्हारे लिए सहज स्वीकार हो गई।
मैं तुमसे कहना चाहता हूं कि आस्तिक-नास्तिक दुश्मन नहीं हैं, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। और जो कभी सच्चे अर्थों में नास्तिक नहीं हुआ, सच्चे अर्थों में आस्तिक भी नहीं हो सकता।
पहले नहीं कहने की क्षमता आनी चाहिए। नहीं में विद्रोह है, बगावत है, क्रांति है। नहीं में अपने व्यक्तित्व की घोषणा है, अपने स्वातंत्र्य का उदघोष है। पहले नहीं कहना आना चाहिए। नहीं के द्वारा हम समाज के द्वारा डाले गए संस्कारों को नष्ट कर देते हैं। नहीं के द्वारा हम पावलोव के सिद्धांत से मुक्त हो जाते हैं। जैसे कि पावलोव घंटी बजाए और कुत्ता कह दे--नहीं! लार नहीं टपकेगी! तुमने मुझे समझा क्या है? बजाने लगे घंटी और समझा कि मैं लार टपकाता रहूंगा! हो चुका बहुत। बजाते रहो घंटी, लार नहीं टपकेगी!
अगर पावलोव का कुत्ता इतना कह दे कि लार नहीं टपकेगी, बजाते रहो घंटी, तो समझना कि कुत्ते के भीतर चैतन्य का जन्म हुआ। समझना कि कुत्ता मनुष्य होने लगा। समझना कि कुत्ते ने ऊंचाइयां लेनी शुरू कीं; कि कुत्ते को पंख लगे, कि कुत्ता अब उड़ सकता है। पावलोव भी बहुत चौंकेगा, अगर कुत्ता कह दे कि नहीं, बहुत हो गया। घंटी बजा-बजा कर मेरी लार टपकवाना, अब नहीं होगा। अब तुम मुझे धोखा न दे सकोगे!
पहला सत्य है: नहीं। क्योंकि नहीं से हम मुक्त होते हैं व्यर्थता से। नहीं से हम कूड़ा-करकट काटते हैं। नहीं तलवार है, जिससे हम सारे बंधन काट देते हैं। जो हमारे चारों तरफ रचा गया है सिद्धांतों का जाल, नहीं से हम उस सबको खंडित कर देते हैं।
इसलिए मैं अपने संन्यासी को कहता हूं, पहले नहीं की गरिमा सीखो, पहले नकार का आनंद सीखो। डरो मत। घबड़ाओ मत। क्योंकि जो नहीं कह सकता है, आज नहीं कल हां भी कहेगा। नहीं के पीछे हां भी आती है। और तब उसका सौंदर्य और, तब उसकी प्राणवत्ता और, तब उसकी महिमा और। जब नहीं कहने वाला हां कहता है, तो उसकी हां में आत्मा होती है, उसकी हां में निष्ठा होती है, आस्था होती है। उसकी हां में ही धर्म के लिए बचाव है।
मैं चाहूंगा कि दुनिया को नास्तिकता--रूस और चीन वाली नास्तिकता नहीं, सिखाई गई नास्तिकता नहीं--अनसीखी नास्तिकता का मौका मिलना चाहिए। किसी बच्चे को कोई बात जबरदस्ती सिखाने की आवश्यकता नहीं है। भरोसा रखो। बच्चे में आत्मा है, जिज्ञासा है, प्रतिभा है; वह खोजेगा। खोज दो; सिद्धांत मत दो। जिज्ञासा को जगाओ; शास्त्र मत दो। झकझोरो उसे, प्रश्नचिह्न उठाओ, लेकिन उत्तर मत दो। उससे कहो कि पूछना, खूब पूछना। जीवन भर खोजना। अपने सारे जीवन को दांव पर लगा देना खोजने में। तो भी कभी संभव है कि तुम धन्यभागी होओ और सत्य का साक्षात्कार हो सके।
इस पृथ्वी को एक सहज नास्तिकता की आवश्यकता है। बच्चों को धर्म नहीं दिया जाना चाहिए। मैं धर्म की शिक्षा के बिलकुल खिलाफ हूं। बच्चों को मंदिरों में मत ले जाओ, मस्जिदों में मत ले जाओ। और अगर ले जाने का ही बहुत रस है, तो फिर मंदिरों में भी ले जाओ, मस्जिदों में भी ले जाओ, गिरजाघरों में भी, गुरुद्वारों में भी। ताकि बच्चा किसी एक धारणा से न बंधे। उसे सब जगह ले जाओ। और कहना, इतने-इतने तरह के लोग हैं; इतने-इतने तरह की प्रार्थनाएं हैं; इतने-इतने तरह के मंदिर हैं; इतनी-इतनी अर्चनाएं हैं। तू सब देख; सब से परिचित हो। और अभी जल्दी नहीं है चुन लेने की।
आदमी बाजार में दो पैसे का घड़ा खरीदने जाता है, तो भी ठोंक-पीट कर लेता है। और तुमने परमात्मा भी बिना ठोंके-पीटे ले लिया है! तुमने जीवन के परम सिद्धांत भी बिना सोचे, बिना परखे ले लिए हैं। जैसे सुनार सोने को कसता है कसौटी पर, ऐसे एक-एक चीज कसौटी पर कसी जानी चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति के पास कसौटी होनी चाहिए। सोचे-विचारे, भाव करे, ध्यान करे, निरीक्षण करे। जल्दी क्या है! जल्दी किसी सिद्धांत को पकड़ लेना, फिर तुम्हारे हाथ कूड़ा-करकट लगेगा।
इसलिए निरंजन, नास्तिक से खतरा नहीं है, खतरा है झूठे आस्तिक से। और खतरा है अब झूठे नास्तिक से भी। खतरा झूठ से है; वह आस्तिक का हो कि नास्तिक का, इससे क्या फर्क पड़ता है! और बचाव धर्म का सत्य में है। और सत्य--जिज्ञासा, खोज, अन्वेषण से मिलता है, अभियान से मिलता है।
मैं तुम्हें यहां कोई सिद्धांत नहीं देता, न कोई शास्त्र देता हूं। सिर्फ तुम्हारी जिज्ञासा को प्रज्वलित कर रहा हूं। तुम्हारे भीतर एक आग धधका रहा हूं। तुम्हारी आग में ईंधन डाल रहा हूं। जो भी तुमसे बोल रहा हूं, बस ईंधन है--कि तुम्हारे भीतर आग और भभके, ऐसी भभके कि धुआं न रह जाए, आग ही आग हो, अंगारे ही अंगारे हों! उन्हीं अंगारों को एक दिन फूलों में बदलते हुए पाओगे, वे ही अंगारे--जगमगाते अंगारे--एक दिन जगमगाते फूल हो जाते हैं। जिसके भीतर प्रगाढ़ जिज्ञासा है और जो अपनी जिज्ञासा पर सब कुछ समर्पित कर देने को राजी है, अर्थात जिसकी जिज्ञासा मुमुक्षा बन गई है--धर्म उसकी ही आभा है, धर्म उसकी ही अनुभूति है।
धर्म के लिए खतरा झूठे आस्तिकों से है, झूठे नास्तिकों से है। और यहां झूठे नास्तिक नहीं हैं इस देश में, इसलिए मैं कहता हूं झूठे आस्तिकों से। रूस और चीन में बोलूं--जहां कि बोलना असंभव; जहां कि मुझे प्रवेश नहीं मिल सकता; जहां मेरी किताबें भी चोरी से जा रही हैं। किताबें चल पड़ी हैं! लोग रूस में किताबें पढ़ रहे हैं; लेकिन चोरी से। शायद कार्ल माक्र्स और लेनिन की किताब के भीतर छिपा कर पढ़ते हों! पत्र मेरे पास आते हैं, लोग आने को उत्सुक हैं।
एक महिला ने तो मुझे लिखा है कि मैं किसी भी भारतीय से विवाह करने को राजी हूं, अगर मुझे आश्रम में रहने का मौका मिल सके और मैं किसी तरह रूस से छुटकारा पा सकूं।
ये पत्र भी वे सीधे नहीं भेज सकते, क्योंकि पत्रों की रूस में छानबीन होती है। और रूस में होती है वह तो ठीक ही ठीक है, मेरे नाम जो पत्र आते हैं उनकी छानबीन भारत में भी होती है। दिल्ली से कोई पत्र आता है, पूना तक उसको पहुंचने में तीस दिन लग जाते हैं, पैंतीस दिन लग जाते हैं। क्योंकि कई दफ्तरों में उसकी छानबीन चलती है! पोस्ट आफिस के अधिकारियों ने यह स्वीकार भी किया है कि हां, यह बात सच है कि पत्र खोले जाते हैं, पढ़े जाते हैं। फिर सारे पत्र यहां पहुंचते भी हैं, यह भी संदिग्ध है। क्योंकि बहुत से लोगों के पत्र आते हैं कि हमने पत्र लिखे थे, उनका क्या हुआ? उनके पत्र कभी पहुंचे नहीं।
और रूस से तो पत्रों का आना बहुत मुश्किल मामला है। लेकिन फिर भी लोग रास्ता खोज लेते हैं। रूस से जिनको पत्र लिखने हैं, वे उन यात्रियों को पत्र देते हैं, जो लंदन जा रहे हैं या न्यूयार्क जा रहे हैं, ताकि वहां से पत्र डाल दिए जाएं। तो मेरे पास तो पत्र आ जाते हैं, लेकिन यहां से उनको पत्र वापस पहुंचाने का कोई उपाय समझ में नहीं आता, कि उनको कैसे खबर पहुंचाई जाए।
रूस और चीन में अगर मुझे बोलना हो, तो कहूंगा--झूठी नास्तिकता। लेकिन भारत में बोल रहा हूं और उन देशों के लोगों के सामने बोल रहा हूं जहां सभी जगह झूठी आस्तिकता फैली हुई है, इसलिए तुमसे कहता हूं--झूठी आस्तिकता सबसे बड़ी बाधा है। और झूठी आस्तिकता को फैलाने वाले पंडित-पुरोहित, पुजारी, तुम्हारे तथाकथित थोथे संत, वे सब धर्म के दुश्मन हैं।
जब तुम्हें मैंने पहले-पहल देखा
तो भक्ति से झुक कर मैंने तुम्हारे चरणों पर
अपना भविष्य चढ़ा दिया।
तुमने मुझे आशीर्वाद दिया
और मेरा भविष्य रख लिया।
फिर तुम्हें मैंने अपनी प्रतिभा दी।
तुमने मुझे वरदान दिया
और मेरी प्रतिभा ले ली।
फिर तुम्हें मैंने अपनी शक्ति सौंपी।
तुम चुप रहे
पर मेरी शक्ति तुमने स्वीकार की।
सिद्धि की प्रतीक्षा में
जब आंखें मूंदे मुझे एक युग बीत गया
तब मैंने तुम्हें फिर देखा:
तुम अचल थे, मूर्तिवत,
नहीं,
तुम मूर्ति ही थे!
फिर मुझे आशीष और वरदान किसने दिए?
और तब मैंने पहली बार
तुम्हारे पुजारियों पर नजर डाली
जो तुम्हारी ओट में,
मेरा भविष्य, मेरी प्रतिभा, मेरी शक्ति
भोग रहे थे!
मैं तो अब मुक्त हूं
क्योंकि अपनी स्थिति का ज्ञान ही मुक्ति है,
पर देवता!
यदि तुम निरे पत्थर ही नहीं हो
तो अपने इन पुजारियों से अपनी रक्षा करो!
मंदिर-मस्जिद, गुरुद्वारे, गिरजे--ये अड्डे बन गए हैं पंडे-पुजारियों के, पादरियों-पोपों के। ये सबसे बड़ा खतरा हैं, क्योंकि ये जहर फैलाते हैं! ये न केवल झूठी धारणाएं फैलाते हैं, ये न केवल लोगों को जबरदस्ती मिथ्या धार्मिक बनने के लिए प्रचार करते हैं--वरन साथ ही साथ ये लोगों को लड़ाते भी हैं, वैमनस्य भी फैलाते हैं, द्वेष-दंगा-फसाद भी फैलाते हैं। मंदिर-मस्जिद एक-दूसरे को लड़वाते हैं। इनसे धर्म को बचाना जरूरी है।
धर्म इस पृथ्वी पर अपूर्व निर्माण कर सकता है। सृजन की बड़ी क्षमता धर्म में है। क्योंकि धर्म है तुम्हारा स्वभाव। धर्म है इस जगत को चलाने वाला नियम। धर्म कोई व्यक्ति नहीं है, और धर्म कोई परमात्मा से बंधा नहीं है। परमात्मा को मानो, न मानो--चलेगा। क्योंकि परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं; अनुस्यूत जीवन की इस माला के भीतर छिपा हुआ धागा है--जो चांदत्तारों को बांधे है, जो घास की पत्ती में हरा है और गुलाब के फूल में सुर्ख है, और सुबह के सूरज में उगता है और रात के चांद में चांदी बरसाता है। वह जीवन का परम नियम! एस धम्मो सनंतनो! वह सनातन धर्म बच सकता है। उससे हमारे संबंध हो सकते हैं। उसके साथ हम जुड़ जाएं, तो हमारा जीवन अपूर्व आनंद से भर जाए, ज्योतिर्मय हो उठे। अंधकार कटे, दुख कटे, पीड़ा कटे, मृत्यु मिटे, चिंता जाए, संताप गले।
लेकिन पंडे-पुजारियों की बड़ी जमात, उसके और हमारे बीच खड़ी है। उनका हित इसमें ही है कि लोग धार्मिक न हो पाएं।
तुम चौंकोगे मेरी बात सुन कर, क्योंकि तुम सोचते हो कि वे बेचारे लोगों को धार्मिक बनाने की ही तो कोशिश कर रहे हैं। और मैं तुमसे कहता हूं फिर-फिर: वे नहीं चाहते कि तुम धार्मिक हो जाओ। तुम्हारा धार्मिक होना उनके सारे व्यवसाय का नष्ट हो जाना है। उनका व्यवसाय तभी तक है, जब तक तुम धार्मिक नहीं हो। उनका व्यवसाय बड़ा खतरनाक व्यवसाय है। तुम्हारी अधार्मिकता पर जिनका व्यवसाय चलता हो, निश्चित ही वे बड़े घातक लोग हैं।
मैंने सुना है, एक मधुशाला में एक रात कुछ लोग आए। उन्होंने खूब पी, डट कर पी, नाचे-कूदे, गीत गाए। जब आधी रात वे जाने लगे तो मधुशाला के मालिक ने अपनी पत्नी से कहा, ऐसे ग्राहक अगर रोज आएं, तो हमारे भाग्य खुल जाएं! कैसे दिलफेंक लोग थे! कैसा दिल खोल कर खर्च किया! ऐसे ग्राहक पहली दफा देखे! जिसने पैसे चुकाए थे, उससे भी उस मधुशाला के मालिक ने कहा, भाई, कभी-कभी आया करो।
उसने कहा, दुआ करो परमात्मा से हमारे लिए, प्रार्थना करो कि हमारा धंधा ठीक चलता रहे, तो हम तो रोज आएं! कभी-कभी क्या, अरे हम तो सुबह भी आएं और शाम भी आएं। मगर हमारा धंधा ठीक चलता रहे। प्रार्थना करना।
उस मधुशाला के मालिक ने कहा, जरूर करेंगे प्रार्थना। तभी उसे खयाल आया कि पूछ तो लूं कि तुम्हारा धंधा क्या है। उसने पूछा, प्रार्थना तो हम करेंगे ही, मगर तुम्हारा धंधा क्या है?
उस आदमी ने कहा, वह तुम न पूछो तो अच्छा। क्योंकि मैं मरघट पर लकड़ियां बेचने का धंधा करता हूं। लोग मरते रहें, तो हमारा धंधा चलता है। जितने ज्यादा लोग मरें, उतना हमारा धंधा चलता है। अभी सीजन चल रहा है! गांव भर में तरहत्तरह की बीमारियां फैली हैं, लोग रोज मर रहे हैं। लोग मरते रहें, लकड़ी बिकती रहे, चिताएं जलती रहें, हम तो रोज आएं--सुबह भी आएं, सांझ भी आएं!
अब कुछ लोगों का धंधा है, जो लोगों के मरने से चलता है! उनका धंधा खतरनाक धंधा है। पंडित-पुजारियों का धंधा है, जो तुम्हारे अधार्मिक होने से चलता है। क्योंकि तुम धार्मिक हो जाओ तो तुम मंदिर जाओ क्यों!
सूफी फकीर बायजीद जिंदगी भर मस्जिद जाता रहा। एक दिन भी नहीं चूका। बुखार हो कि बीमारी हो, मगर वह जाए ही जाए। पांचों नमाज पूरी पढ़े। गांव तो आदी हो गया था उसका। एक दिन जब वह मस्जिद नहीं आया तो मस्जिद में आए लोगों ने सोचा कि जरूर रात मर गया होगा। बूढ़ा भी हो गया था। एक ही बात सोच सके कि मर गया होगा, क्योंकि और तो हर हालत में वह आता ही। सांस चलती रहती, तो आता ही। तो मस्जिद से जल्दी से नमाज पूरी करके वे सारे लोग बायजीद के झोपड़े की तरफ गए। वह गांव के बाहर एक वृक्ष के नीचे झोपड़ा बना कर रहता था। वह वृक्ष के नीचे बैठा था, अपना इकतारा बजा रहा था। बड़ा मस्त था!
गांव के लोगों ने कहा, बायजीद, दिमाग खराब हो गया या कि बुढ़ापे में नास्तिक हो गए? अब काफिर हो रहे हो--जिंदगी भर की प्रार्थनाओं के बाद? आज मस्जिद क्यों नहीं आए? हम तो समझे कि तुम मर ही गए।
बायजीद ने कहा, मैं मस्जिद आता था, क्योंकि मुझे परमात्मा का कोई पता नहीं था। अब मुझे उसका पता मिल गया है। अब मैं क्यों मस्जिद आऊं? अब तो मैं जहां हूं, वहीं परमात्मा है। अब मैं क्यों नमाज पढूं? यह मेरा इकतारा बज रहा है, यह मेरी नमाज है। और ये पक्षी गीत गा रहे हैं वृक्ष पर, यह मेरी नमाज है। और देखते हो यह हवा सुबह की ताजीत्ताजी और ये नई-नई किरणें सूरज की, यह मेरी नमाज है। अब मैं नहीं आऊंगा। अब रखो तुम अपनी मस्जिद। पांच बार पढ़ता था नमाज, क्योंकि मुझे पता नहीं था कि चौबीस घंटे नमाज में हुआ जा सकता है। अब मुझे पता हो गया है। अब मेरी आंख खुल गई है।
सत्यनारायण की कथा कौन करवाएगा? अगर तुम्हारे जीवन में सत्य हो, तो तुम सत्यनारायण की कथा करवाओगे? जिसमें न सत्य है, न नारायण; कुछ भी नहीं! तुम्हारे जीवन में सत्य हो, तो तुम सत्यनारायण हो। तुम्हारे भीतर राम का अनुभव हो, तो तुम रामलीला देखने जाओगे? ये बचकाने खेल! राम की बारात में सम्मिलित होओगे? खेल-खिलौनों में उलझोगे? पत्थर की मूर्ति पर फूल चढ़ाओगे? पत्थर की मूर्ति, जो तुम्हीं ने बना ली है या बनवा ली है, उसके सामने हाथ जोड़ कर झुकोगे?
नहीं, यह सब असंभव हो जाएगा। पंडित-पुरोहित का धंधा चल सकता है तभी तक, जब तक पृथ्वी अधार्मिक है। यह उनके हित में है, यह उनका न्यस्त स्वार्थ है।
निरंजन, सबसे बड़ा खतरा धर्म के लिए हैं पुरोहित। पुरोहित नहीं चाहिए, पंडित नहीं चाहिए। चाहिए जिज्ञासु, खोजी, अन्वेषक। चाहिए प्रेमी। चाहिए जीवन को अनुभव करने की क्षमता रखने वाले साहसी लोग। चाहिए ऐसे लोग जो किसी काल्पनिक सिद्धांत में न उलझ जाएं, बल्कि जीवन के यथार्थ में परमात्मा को तलाशें।
खोदोगे जीवन के यथार्थ को, तो जैसे कुआं कोई खोदता है, जल मिल जाता है देर-अबेर, ऐसे ही जीवन के यथार्थ को खोजोगे तो परमात्मा भी मिल जाता है देर-अबेर। तुम्हारी खोज में जितनी त्वरा होती है, तीव्रता होती है, समग्रता होती है, उतने ही जल्दी परमात्मा मिल जाता है। और जब परमात्मा मिलता है, तो तुम बहुत हंसोगे, क्योंकि तुम चकित होओगे--जिसे तुम दूर खोजते थे, वह पास था! और जिसे तुम बाहर खोजते थे, वह सदा से तुम्हारे भीतर विराजमान है!


*तीसरा प्रश्न: भगवान! अस्सलाम आलेकुम! सलाम तो बचपन से किया, लेकिन यहां जब संगीत-ध्यान में इसे गाया, तो एक सरूर सा आया। रोना भी आया और हंसना भी। खिल गए मेरे प्राण! दिल किया कि आपके पैरों को चूमूं; झुकूं--झुकूं--और झुकता ही रहूं। शुक्रिया आपका!

प्रेमानंद! यही तो मैं कह रहा हूं--एक सलाम है जो सिखावट से आती है, और एक सलाम है जो अनुभव से निर्मित होती है। तुमने बचपन से किया होगा सलाम, नमस्कार--परमात्मा को; मगर वह औपचारिक था, शिष्टाचार था। और लोग कर रहे थे, इसलिए तुम भी कर रहे थे। उसमें तुम्हारे प्राणों की ध्वनि नहीं थी। उसमें तुम्हारे हृदय की धड़कन नहीं थी। वह मुर्दा थी।
संन्यस्त होकर अब तुम चौंके हो। वही सलाम--लेकिन वही सलाम नहीं है। शब्द वही है, लेकिन तुम बदल गए। तुम बदले कि शब्द बदल गए। अब तुम्हारी सलाम में एक रस है।
तुम कहते: एक सरूर! हां, अब तुम्हारी सलाम एक शराब है। अब तुम्हारी सलाम एक रसधार है। अब तुम्हारी सलाम में वही सत्य है, जो मोहम्मद की सलाम में रहा होगा, जो मंसूर की सलाम में रहा होगा, जो बहाउद्दीन, जलालुद्दीन की सलाम में रहा होगा। वही सरूर, वही शराब, वही खुमार, वही मस्ती! अब तुम पहली बार मस्जिद में आए हो। वे मस्जिदें जिनमें तुम गए थे, पंडित-पुरोहितों के द्वारा निर्मित थीं। अब तुम पहली बार तीर्थ पर आए हो--एक जीवंत तीर्थ!
काबा अब तो पत्थर है। मुहम्मद थे, तो उस पत्थर में भी प्राण थे। मुहम्मद की मौजूदगी ने उस पत्थर को भी प्राण दे दिए थे। वह मुहम्मद की मौजूदगी थी कि पत्थर भी जीवंत हो उठा था। यहां अभी जो काबा है, जीवंत है। सरूर आएगा, और खूब आएगा! बाढ़ आएगी! अभी तो शुरुआत है।
तुम कहते हो: सलाम तो बचपन से किया, लेकिन जब यहां किया, तो एक सरूर सा आया। रोना भी आया और हंसना भी!
वह बात महत्वपूर्ण है। अगर रोना ही आए, तो दुख से आता है। अगर हंसना ही आए, तो सुख से आता है। लेकिन रोना और हंसना जब दोनों साथ-साथ आते हैं, तो साक्षी-भाव का जन्म होता है। क्योंकि फिर न तो तुम कह सकते कि मैं रो रहा, और न कह सकते कि मैं हंस रहा। तब तो तुम दोनों को देखते हो; तुम किसी एक से तादात्म्य नहीं कर सकते।
यह तो ध्यान की गहराइयों में घटता है, जब रोना और हंसना साथ-साथ आता है। और क्यों साथ-साथ आता है? इसलिए साथ-साथ आता है कि रोना इस बात का कि अब तक भटके रहे; और हंसना इस बात का कि जिससे भटके रहे, उससे भटकने की एक क्षण भी कोई जरूरत न थी। रोना इस बात का कि इतने दिन जिसको तलाशते थे, वह मिला नहीं; और हंसना इस बात का कि बिना तलाशे मिला हुआ है। मिला ही था, पहले से ही मिला था; भीतर ही बैठा है।
और रोना और हंसना जब साथ-साथ आता है, तो एक साक्षी-भाव अपने आप पैदा होता है। इसीलिए तो लोग परमहंसों को पागल कहते हैं। क्योंकि पागल और परमहंस दो ही तरह के व्यक्ति हैं जो एक साथ हंसते और रोते हैं। पागल हंसता है, रोता है साथ-साथ, या परमहंस।
पागल मन से नीचे गिर गया; अब उसे कुछ हिसाब-किताब नहीं रहा कि वह क्या कर रहा है। सब अस्तव्यस्त हो गया। हंस रहा है तो रोना नहीं चाहिए, इतनी तर्क-बुद्धि नहीं रही। रो रहा है तो हंसना नहीं चाहिए, इतना हिसाब नहीं रहा। सब गड्ड-मड्ड हो गया। सब एक-दूसरे में मिल-जुल गया। चीजें बिखर गईं, एक-दूसरे पर फैल गईं। भेद न रहे, क्योंकि भेद करने वाली बुद्धि से नीचे गिर गया। और परमहंस भी हंसता है और रोता है।
प्रेमानंद, परमहंस में कुछ-कुछ पागल जैसा होता है। कुछ-कुछ! एक बात में समानता होती है कि दोनों बुद्धि से मुक्त हो गए होते हैं। परमहंस ऊपर उठ गया होता है बुद्धि के और पागल नीचे गिर गया होता है। पागल के पास इतनी बुद्धि नहीं बची कि अब फर्क कर सके कि कब रोऊं और कब हंसूं! कि हंसने-रोने में विरोधाभास है, एक साथ नहीं करना चाहिए--इतना होश नहीं रहा। और परमहंस में इतना होश आ गया है कि उसका तादात्म्य टूट गया; न हंसने के साथ अपने को एक कर पाता है, न रोने के साथ; दोनों को देखता है; दोनों का साक्षी मात्र है।
प्रेमानंद, शुभ हुआ। इसे होने देना। रोकना मत। इस तरह का सरूर जब आता है, तो घबड़ाहट भी होने लगती है कि कोई क्या कहेगा! डर भी लगता है कि कोई देख लेगा रोतेऱ्हंसते एक साथ, तो पागल समझेगा!
नहीं, चिंता छोड़ो! यह तो पागलों की ही जमात है। यहां कोई किसी की चिंता नहीं ले रहा है। यहां प्रत्येक अपने में डूब रहा है। इसलिए कभी-कभी कुछ संन्यासी मुझे आकर कहते हैं कि हमें एक बात बहुत अजीब सी लगती है इस आश्रम में कि लोग अपने-अपने में मस्त हैं! जैसे किसी को किसी दूसरे की पड़ी ही नहीं! ऐसा तो नहीं होना चाहिए।
उन्हें अभी पता नहीं है। मैं उनसे कहता हूं, थोड़ी देर रुको, तुम्हें भी यही हो जाएगा। यह रोग तुम्हें भी लगेगा।
अपने-अपने में मस्त होना पर्याप्त है। लोग एक-दूसरे में जो रस लेते हैं, वह वस्तुतः एक-दूसरे में हस्तक्षेप करने के लिए रस लेते हैं। कौन हंस रहा है, कौन रो रहा है, कौन क्या कर रहा है--लोग बड़े आतुर होकर इसमें लगे रहते हैं! खुद की खबर नहीं, सारी दुनिया की खबर करते फिरते हैं।
तुम चिंता न लेना। सरूर को बढ़ने दो। खुमार को गहराने दो। शराब को गहरा उतरने दो। रोओ भी, हंसो भी। नाचो भी, मौन भी बैठो। ध्यान और प्रेम, दोनों साथ-साथ घटते रहें।
तुमने लिखा: "खिल गए मेरे प्राण!'
खिलेंगे ही। यही तो ढंग है प्राण के फूल के खिलने का।
"दिल किया कि आपके पैरों को चूमूं; झुकूं--झुकूं--और झुकता ही रहूं।'
प्रेमानंद, मैं देख ही रहा हूं, वह झुकना चल रहा है। तुम रोज झुकते जा रहे हो। तुम रोज मिटते जा रहे हो। अभी थोड़े ही दिन पहले आए थे। लेकिन अब वही आदमी नहीं है तुम्हारे भीतर, जो आया था। नये का आविर्भाव शुरू हो गया है। नई कोंपलें निकलती देख रहा हूं। तुम्हारे जीवन में वसंत आ गया है।
कहते हो: "शुक्रिया आपका!'
शुक्रिया जब भी करो, परमात्मा का करना। सब शुक्रिया उसका। अगर मेरी सन्निधि में, मेरे सान्निध्य में, मेरे सामीप्य में कुछ घटे, तो स्मरण रखना सदा--मैं केवल उपकरण हूं, वाहन मात्र हूं। डाकिया मात्र हूं। तुम्हारी चिट्ठी उस तक पहुंचा देता हूं, उसकी चिट्ठी तुम तक पहुंचा देता हूं। शुक्रिया उसका! लेकिन तुम्हारे भाव को मैं समझा। आखिर तुम शुक्रिया भी उसको पहुंचाओगे, तो मेरे ही द्वारा पहुंचाओगे न! प्रेमानंद, पहुंचा दूंगा।


*चौथा प्रश्न: भगवान! शादी घरवालों की मर्जी से करें या स्वयं के चुनाव से?

ज्ञान रंजन! शादी जैसी खतरनाक चीज हमेशा दूसरों की मर्जी से करनी चाहिए। उसमें एक लाभ है कि कल तुम कम से कम दोष तो सदा दूसरों को दे सकोगे! जो खुद की मर्जी से करता है, बड़ी मुश्किल में पड़ जाता है; दोष देने को भी कोई नहीं मिलता!
इसीलिए तो समझदार लोगों ने तय किया था कि मां-बाप विवाह कर दें। क्योंकि दोष तो आखिर देना ही पड़ेगा। एक तो शादी की मुसीबत, और जिम्मा भी अपना! भार बहुत हो जाएगा। मां-बाप भार को बांट लेते हैं। वे कहते हैं, गाली तुम हमको दे देना। जब क्रोध आए और जब जीवन बहुत बोझिल होने लगे, तो कम से कम इतनी तो राहत होगी कि खुद इस झंझट में हम नहीं पड़े थे; ये मां-बाप बांध गए पीछे।
शादी है तो उपद्रव!
मुल्ला नसरुद्दीन को तार मिला। उसकी पत्नी हजऱ्यात्रा पर गई थी। रास्ते में ही मर गई, तो वहां से तार आया कि नसरुद्दीन, क्या करना है? पत्नी को मुसलमानी ढंग और रिवाज से गड़ा दें? लेकिन हमने सुना है कि तुमने गैरिक वस्त्र पहन लिए हैं और तुम संन्यासी हो गए हो, तो ऐसा तो नहीं कि तुम चाहते हो कि पत्नी को अग्नि में जलाया जाए? या कुछ हिंदू नदियों में भी बहा देते हैं लाशों को। तो तुम क्या चाहते हो--पत्नी गड़ाई जाए, जलाई जाए, कि बहाई जाए?
मुल्ला नसरुद्दीन ने तार दिया: डू आल दि थ्री। डोंट टेक एनी चांस! तीनों करो, क्योंकि कोई भी अवसर बचने का देना ठीक नहीं!
ज्ञान रंजन, ऐसे खतरे में उतर रहे हो, समझदारों की सलाह से उतरना अच्छा। खतरा तो सुनिश्चित है।
ढब्बूजी चंदूलाल से बोले, मुबारक हो चंदूलाल, आज तुम्हारी जिंदगी का सबसे खुशकिस्मत दिन है।
मगर मेरी शादी तो कल होने वाली है, चंदूलाल ने कहा।
इसीलिए तो आज कहा न, ढब्बूजी बोले। बस आज तुम्हारे जीवन का सबसे खुशकिस्मत दिन है! फिर तड़फोगे, फिर रोओगे, फिर याद करोगे!
चंदूलाल की पत्नी बीमार थी, चंदूलाल भी बीमार था। दोनों ठीक होते नजर न आते थे। डाक्टर चंदूलाल को देखने आया था। डाक्टर ने चंदूलाल की जांच-पड़ताल के बाद कहा, चंदूलाल, तुम्हारे पीछे कोई पुरानी बीमारी पड़ी हुई है, जो तुम्हारे स्वास्थ्य व मानसिक शांति को नष्ट किए दे रही है!
चंदूलाल ने कहा, डाक्टर साहब, जरा धीरे! क्योंकि जिसकी आप बात कर रहे हैं, वह बगल के कमरे में बिस्तर पर सो रही है!
शादी करनी ही क्यों? विवाह भी एक जराजीर्ण धारणा है। ज्ञान रंजन, प्रेम हो किसी से, उसके साथ जीओ। अगर प्रेम न हो किसी से, तो अकेले जीओ। प्रतीक्षा करो।
अकेले लोग जी नहीं सकते; और किसी के साथ भी नहीं जी सकते! अकेले में अकेलापन काटता है। किसी के साथ दूसरे की मौजूदगी झंझट बन जाती है। जो विवाहित हैं, वे सोचते हैं कि धन्य हैं अविवाहित! और जो अविवाहित हैं, वे सोचते हैं, धन्य हैं विवाहित!
यह दुनिया बड़ी अदभुत है। यहां जिसके पास जो है, उसी से दुखी है! और जो नहीं है, जो किसी और के पास है, उससे उसकी आशा अटकी है।
तुम्हारे मन में शादी का सवाल उठा, यह सवाल ही अर्थहीन है। प्रेम करो! और प्रेम ही अगर विवाह बन जाए, तो ठीक। अगर प्रेम ही तुम्हें ऐसी प्रतीति दे कि किसी के साथ जीवन भर रहना सुखद होगा, तो जीवन भर किसी के साथ रहो।
विवाह का तो अर्थ होता है: प्रेम नहीं है; तो किसकी मर्जी से शादी करें? स्वयं के चुनाव से या घरवालों की इच्छा से? चुनाव का तो मतलब ही यह हुआ कि तुमने शादी को भी कोई नुमाइश समझ रखा है। और करीब-करीब इस देश में ऐसी ही हालत हो गई है। लड़कियों की नुमाइश होती है! क्या चुनाव करोगे? किसी लड़की को जाकर देख लिया; उसने खाना परोस दिया। और अगर बहुत सुशिक्षित हुए तो दो क्षण बैठ कर बात कर ली। इससे क्या पहचान लोगे? हो सकता है नाक-नक्श देख लो; हो सकता है शरीर का थोड़ा अनुपात देख लो, रंग-रूप देख लो। मगर जीवन में इन बातों से कुछ भी तय नहीं होता। रंग-रूप, नाक-नक्श, सब दो दिन में पुराने पड़ जाते हैं। जिंदगी तय होती है, वह जो भीतर छिपा हुआ व्यक्तित्व है, उससे। और कभी-कभी साधारण चेहरों के भीतर बड़ी असाधारण आत्माएं छिपी होती हैं। और बड़े सुंदर चेहरों के भीतर कभी-कभी बड़ी कुरूप आत्माएं छिपी होती हैं। चुनाव कैसे करोगे? चुनाव नहीं किया जा सकता। विवाह के पूर्व परिचय चाहिए, चुनाव नहीं। गहरा परिचय चाहिए! अगर तुम्हारा वर्ष, दो वर्ष, चार वर्ष का परिचय तुम्हें इस जगह ले आए कि लगे कि हां, किसी के साथ जीवन भर रहना सुखद होगा, आनंदपूर्ण होगा, तो न तो यह चुनाव है और न घरवालों की मर्जी का सवाल है। फिर विवाह केवल एक औपचारिकता है जो निभा लेनी है, क्योंकि समाज में जीना है, औरों के साथ रहना है।
अगर मेरे कम्यून में रहना हो, तब तो विवाह की औपचारिकता भी निभानी आवश्यक नहीं है। क्योंकि विवाह की औपचारिकता निभाई ही इसलिए जाती है, ताकि कल पति छोड़ कर न भाग जाए। कानून को बीच में रखना पड़ता है; पुलिसवाले, मजिस्ट्रेट, अदालत को बीच में लाना पड़ता है। ताकि आज तो ठीक है, लेकिन कल अगर भाग गए, तो फिर क्या होगा! फिर बच्चों का क्या होगा!
अगर मेरे कम्यून के हिस्से होते हो ज्ञान रंजन, तब कोई चिंता न करो। क्योंकि मैं दुनिया को जिस ढंग से देखता हूं, भविष्य को जिस ढंग से देखता हूं, उसमें मुझे कम्यूनों का बहुत भविष्य दिखाई पड़ता है। परिवार भी सड़ गया है पुराना। अब नये ढंग के परिवार चाहिए--कम्यून। बच्चों की जिम्मेवारी कम्यून की होगी। बच्चे कम्यून के होंगे, व्यक्तियों के नहीं। अगर पति-पत्नी अलग हो जाते हैं, तो कोई बहुत चिंता की बात नहीं है। बच्चे पति के पास रह सकते हैं या पत्नी के पास रह सकते हैं, जिम्मेवारी कम्यून की होगी।
और बच्चे तब तक पैदा करने भी नहीं चाहिए, जब तक यह निर्णीत न हो जाए कि तुम आत्यंतिक रूप से एक-दूसरे के साथ रहने के लिए आबद्ध हो गए हो। तब तक बच्चे पैदा करना उत्तरदायित्वहीनता का कृत्य है। जिसके साथ तुम जीवन भर रहने को राजी नहीं हो, उसके साथ जुड़ कर एक बच्चे को पैदा करना अशोभन है, क्योंकि जिससे तुम जुड़ नहीं सकते जीवन भर...। बच्चा बनेगा तुमसे और तुम्हारी पत्नी से मिल कर। और अगर तुम जुड़ कर नहीं रह सकते साथ-साथ, तो बच्चे की हालत क्या होगी, यह तो सोचो! उसके भीतर पत्नी का आधा हिस्सा होगा, आधा तुम्हारा; वे दोनों आधे हिस्से लड़ते रहेंगे, कशमकश करते रहेंगे, रस्साकशी होती रहेगी।
इसीलिए तो दुनिया में लोगों के भीतर इतनी रस्साकशी चलती है, इतना द्वंद्व चलता है--यह करूं कि वह करूं! भीतर एक स्वर कहता है, यह कर लो! दूसरा स्वर कहता है, भूल कर मत करना! ये दो स्वर आते कहां से हैं?
कार्ल गुस्ताव जुंग ने, पश्चिम के बड़े मनोवैज्ञानिक ने, एक बहुत प्राचीन सिद्धांत को पुनः आविष्कार किया कि प्रत्येक पुरुष के भीतर स्त्री है और प्रत्येक स्त्री के भीतर पुरुष है, क्योंकि प्रत्येक स्त्री और पुरुष, स्त्री और पुरुष के जोड़ से पैदा हुए हैं। तुम्हारी मां तुम्हारे भीतर है, तुम्हारे पिता तुम्हारे भीतर हैं। और अगर उन दोनों में नहीं बनी, तो तुम्हारे भीतर उन दोनों के जोड़ से जो व्यक्तित्व बना है, वह व्यक्तित्व भी हमेशा खंड-खंड रहेगा, दुविधाग्रस्त रहेगा, अड़चन से भरा रहेगा।
अगर हम दुनिया में ऐसे बच्चे चाहते हैं जिनके भीतर एक लयबद्धता हो, तो उस लयबद्धता के पूर्व मां-बाप को लयबद्ध हो जाना चाहिए। इसलिए मैं साधारणतः अपने संन्यासियों को नहीं कहता कि बच्चे पैदा करो। उनको मैं कहता हूं, पहले तुम ध्यान की गहराइयों में उतरो, प्रेम की ऊंचाइयों में चढ़ो। जब तुम्हारे जीवन में ध्यान और प्रेम, दोनों का अनुभव परिपक्व हो जाए, तब बच्चों को जन्म देना। वे बच्चे अनूठे होंगे। वे स्वर्गीय होंगे।
अभी तुम रोते हो अपने बच्चों के लिए। और जिम्मेवार तुम खुद ही हो। हरेक मां-बाप शिकायत करते हुए मिलते हैं बच्चों के बाबत। और जिम्मेवार कौन है? फलों से वृक्ष पहचाने जाते हैं। तुम्हारे बच्चों से तुम पहचाने जाओगे।
अगर बच्चों को पैदा करने की जल्दी न हो, तो विवाह के बिना काफी देर गुजारा जा सकता है। और जितनी देर गुजर जाए, उतना अच्छा। जब तालमेल बिलकुल बैठ जाए; तेल-पानी सा मिलन न हो, दूध-पानी सा जब मिलन हो जाए कि अलग करना ही मुश्किल हो जाए, तभी बच्चों को जन्म देना। फिर तुम्हारे अलग होने का कारण भी नहीं आएगा। और अगर कभी संयोगवशात कारण आए भी, तो अब धीरे-धीरे कम्यून बनाओ और कम्यूनों में रहो।
यह जो हमारा कम्यून है, यह तो पहला प्रयोग है; फिर इस तरह के कम्यून हम सारी दुनिया के कोने-कोने में फैला देंगे। जगह-जगह सौ, दो सौ, चार सौ, पांच सौ, हजार, पांच हजार संन्यासी इकट्ठे रहें। इकट्ठा सामूहिक जीवन! न व्यक्तिगत संपदा हो, न व्यक्तिगत बच्चों के ऊपर दावेदारी, कि ये मेरे हैं। असली कम्युनिज्म कम्यूनों के विस्तार से आएगा दुनिया में, कम्युनिस्ट पार्टियों के द्वारा नहीं। कम्युनिस्ट पार्टियों के द्वारा तो सिर्फ तानाशाही आ सकती है--भद्दी तानाशाही, जिसमें लोकतंत्र की हत्या हो, लोगों की आत्मा का विनाश हो।
कम्यून फैलने चाहिए। कम्युनिज्म शब्द कम्यून से बना है। कम्यून फैलने चाहिए। धीरे-धीरे पृथ्वी पर कम्यून बढ़ते जाएं। जगह-जगह पहाड़ों में, जंगलों में, छोटे-छोटे कम्यून बड़े होते जाएं। कम्यूनों का आनंद ऐसा हो कि और लोग भी कम्यूनों में आकर सम्मिलित होते जाएं।
कम्यून में सम्मिलित होने का अर्थ है: तुम अपनी सब पुरानी व्यक्तिगत धारणाएं छोड़ते हो, अहंकार छोड़ते हो।
ज्ञान रंजन, अगर आ सकते हो यहां, तब तो कोई चुनाव की जरूरत नहीं, न घरवालों की मर्जी का कोई सवाल है। लेकिन अगर यहां नहीं आ सकते, तो घरवालों की मर्जी से ही विवाह कर लो। लाभ रहेगा जिंदगी भर, कि गाली अपने मां-बाप को दे लोगे। और मन को संतोष मिलेगा, तृप्ति मिलेगी, कि खूब फंसा गए! खुद तो गए, और हमें खूब फंसा गए! और उनसे बदला लेना हो, तो तुम अपने बच्चों को फंसा जाना।


*आखिरी प्रश्न: भगवान! आप आनंद बांटते ही चले जाते हैं। क्या आपके आनंद बांटने का कभी अंत होगा? और लोग हैं कि अमृत के उत्तर में आपको विष देते हैं। उनके संबंध में आपका क्या वक्तव्य है?
सहजानंद! जो उनके पास है, वही वे देते हैं; जो मेरे पास है, वही मैं देता हूं। हम दोनों एक ही जैसा काम कर रहे हैं। मेरी मजबूरी है--विष नहीं दे सकता। उनकी मजबूरी है--अमृत नहीं दे सकते। हम दोनों मजबूर। हम दोनों को तुम क्षमा करो।
मैं उन पर नाराज नहीं हूं। वे विष देते हैं, यह देख कर मेरे हृदय में उनके प्रति करुणा उपजती है, कि उनके पास विष के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं! कैसे नर्क में न जी रहे होंगे, कि उनसे जब भी उठती हैं, गालियां ही उठती हैं! कि उनमें जब भी निकलते हैं, कांटे ही निकलते हैं! कैसा नहीं होगा उनका अंतरव्यथा का जगत! कैसा नहीं होगा उनके भीतर संताप, चिंता, बेचैनी, तनाव! कितनी मुसीबत में न होंगे! अन्यथा कहीं गालियां ऐसे ही आती हैं? जो भी तुम्हारे ऊपर प्रकट होता है, वह तुम्हारे अंतरतम से आता है।
रही मेरे अमृत बांटने की बात; फिर याद दिला दूं, वह मेरा नहीं है। मेरा अब कुछ भी नहीं है। है तो परमात्मा का है। और परमात्मा का जो भी है, वह अनंत है, उसका कोई अंत नहीं आता। जितना बांटो, उतना ही बढ़ता है। मैं तो सिर्फ गुनगुना रहा हूं, गीत उसका है।
किसी के गीत का लेकर सहारा,
तुम्हें अब गुनगुनाना आ गया है।

तुम्हारे साथ निर्झर गा रहे हैं
तुम्हारी कीर्ति के घन छा रहे हैं
कहीं तो प्रार्थना पर भी नियंत्रण
कहीं तन-मन लुटाए जा रहे हैं
उचटती नींद की निधि मत बिखेरो
तुम्हें सपने सजाना आ गया है।

हर एक बरसात थम पाती नहीं है
शिलाओं में नमी आती नहीं है
गगन दिन-रात उल्कापात करता
सितारों में कमी आती नहीं है
तिमिर से ऊब कर आंखें न मीचो
तुम्हें दीपक जलाना आ गया है।

सपन किस नयन के टूटे नहीं हैं
किसी के मीत कब छूटे नहीं हैं
अमृत के नाम पर विष पी गया हूं
अधर मेरे हुए जूठे नहीं हैं
न अपने मौन का आशय बताओ
तुम्हें बातें बनाना आ गया है।
यहां सब लोग तुमको जानते हैं
अपरिचित हैं मगर पहचानते हैं
कली को गंध की गंगा कहूं तो
कुटिल कांटे बुराई मानते हैं
उदासी को न पलकों बीच बांधो
तुम्हें अब मुस्कुराना आ गया है।

हमारी क्या, कभी सरसे न सरसे
तुम्हारी क्या, कभी तरसे न तरसे
पपीहे ने उठा ली रात सिर पर
पराए मेघ थे, बरसे न बरसे
अधूरे नीड़ के तिनके गिनो मत
तुम्हें बिजली गिराना आ गया है।
मैं गुनगुना रहा हूं, गीत मेरा नहीं। और अब तुम्हें भी गुनगुनाना आ गया है सहजानंद। गुनगुनाओ! मगर भूल कर भी कभी मत सोचना कि गीत तुम्हारा है। जैसे ही सोचा कि गीत तुम्हारा है कि द्वार बंद हो जाते हैं। जैसे ही सोचा, गीत मेरा है, बांसुरी अवरुद्ध हो जाती है।
गगन दिन-रात उल्कापात करता
सितारों   में   कमी   आती   नहीं   है
गिरते ही रहते उल्कापात, लेकिन सितारों में कोई कमी नहीं आती। परमात्मा बरसता ही रहा है--बुद्ध से, महावीर से, कृष्ण से, कबीर से, जीसस से, मुहम्मद से। कुछ कमी नहीं आई। सदियों में बरसा है, सदियों तक बरसता रहेगा।
तुम पीओ! इसकी चिंता में तुम क्यों पड़ो कि मैं जो आनंद बांट रहा हूं, जो अमृत बांट रहा हूं, वह कभी चुक तो न जाएगा! तुम्हें डर लग रहा होगा कि कभी चुक न जाए। तुम पीओ! तुम पीने में कंजूसी न करो! उस देने वाले के हाथ हजार हैं। तुम भी हजार हाथों से अपनी झोली फैलाओ।
तिमिर से ऊब कर आंखें न मीचो
तुम्हें  दीपक  जलाना  आ  गया  है।
और सहजानंद, अब घड़ी आ गई कि तुम भी दीया जलाओ। और तुम भी गाओ, तुम भी खंजड़ी बजाओ। जो मैं तुम्हें दे रहा हूं, वह मेरा नहीं है। जो मैं तुम्हें दे रहा हूं, उसे तुम भी देना सीखो। क्योंकि जितना तुम बांटोगे, तुम चकित हो जाओगे--बांटते हो, बढ़ता है; रोकते हो, घटता है।
सपन किस नयन के टूटे नहीं हैं
किसी के मीत कब छूटे नहीं हैं
अमृत के नाम पर विष पी गया हूं
अधर   मेरे   हुए   जूठे   नहीं   हैं।
और चिंता न लो। मुझे गालियां पड़ें, लोग जहर देते रहें, कुछ फर्क नहीं पड़ता। मेरे ओंठ भी उससे जूठे नहीं होते हैं। विष को भी अगर तुम आनंद-भाव से पी लो, तो अमृत हो जाता है। और गालियों को भी प्रेम से स्वीकार कर लो, तो गीत बन जाती हैं। कांटों को भी अंगीकार करने का ढंग है, कला है। और तब कांटे भी बदल जाते हैं, फूल हो जाते हैं। ऐसे भी लोग हैं जो फूलों को कांटे बना लेते हैं; और ऐसे भी लोग हैं जो कांटों को फूल बना लेते हैं। सब तुम पर निर्भर है।
जीवन को एक कला समझो। और कला की कुंजी यही है: रातों को दिन बनाओ; अंधेरों में दीये जलाओ; शोरगुल में भी संगीत खोजो। और तब तुम मिट्टी भी छुओगे, तो सोना हो जाएगी। और जहर तुम्हारे पास जैसे-जैसे आएगा, वैसे-वैसे अमृत होने लगेगा। तुम्हारे भीतर पहुंचते-पहुंचते अमृत हो जाएगा।
इस परम कीमिया को ही मैं समाधि कहता हूं। और इस परम कीमिया को सीखने के लिए ही तुम यहां इकट्ठे हुए हो। बिना सीखे विदा नहीं हो जाना।

आज इतना ही।



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