मृत्युार्मा अमृत गमय-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो
दिनांक 04 अगस्त सन् 1979
प्रवचन-चौथा
*01 धर्म है प्रेम की पराकाष्ठा
*02- अहंकार और समर्पण
प्रश्न-सार
*धर्म क्या है?
*शिष्यत्व और समर्पण में क्या दासता का कुछ अंश है? और
आज के मनुष्य के लिए समर्पण कठिन क्यों हो गया है?
*पहला प्रश्न: भगवान! धर्म क्या है?
रामनारायण! धर्म प्रेम की अंतिम पराकाष्ठा है। प्रेम जैसे फूल
है, धर्म प्रेम के फूल की सुवास है। काम है बीज; प्रेम
है फूल; धर्म है फूल से उड़ गई सुगंध। इसलिए धर्म अदृश्य है।
दृश्य
तो होते हैं बुद्ध,
कृष्ण, कबीर, नानक। ये
फूल हैं।
इनके आस-पास सुगंध की तरह जो व्याप्त होता है, वह
धर्म है। जो बुद्धि से सोचने चलते हैं, उन्हें वह दिखाई नहीं
पड़ता। वह दिखाई पड़ने वाली बात नहीं, मुट्ठी में आ जाए ऐसा
तथ्य नहीं, शब्दों में समा जाए ऐसा अनुभव नहीं। लेकिन जो
हृदय को खोल देते हैं--किसी सदगुरु के समक्ष, किसी सत्संग
में--जो पीने को राजी हो जाते हैं; जो डुबकी मारने को,
गोता लगाने को राजी हो जाते हैं; बुद्धि के
हिसाब-किताब को तट पर रख कर जो निकल पड़ते हैं तूफानों में, अनंत
की यात्रा पर--वे जान पाते हैं कि धर्म क्या है।
और
हमारे नासापुट खराब हो गए हैं। हमें आदत दुर्गंध की पड़ गई है। हम दुर्गंध को ही
सुगंध समझने लगे हैं। इसलिए सुगंध जब पहली दफा हमारे नासापुटों को छूती है, तो या तो
हमें उसका अनुभव ही नहीं होता; उसकी उपस्थिति भी प्रतीत नहीं
होती; या और भी बड़ा दुर्भाग्य कि हमें लगता है वह दुर्गंध
है!
एक
मछलियां बेचने वाला मछलियां बेच कर लौटता है। और बीच सड़क पर--भयंकर लू चल रही है, गर्मी के
उत्तप्त दिन हैं, आकाश से आग बरस रही है--वह गश खाकर गिर
पड़ता है। भूखा; गर्मी; लंबी यात्रा।
जिस रास्ते पर गिर पड़ता है, वह गंधियों का रास्ता है,
जिनका धंधा ही सुगंध बेचना है। पास की ही दुकान का जो गंधी है,
वह अपनी श्रेष्ठतम गंध को लेकर आता है। क्योंकि ऐसा माना जाता है कि
अगर श्रेष्ठ गंध बेहोश आदमी को सुंघाई जाए, तो वह होश में आ
जाता है।
पता
नहीं यह बात कहां तक सच है गंध के और साधारण बेहोशी के संबंध में, मगर धर्म
नाम की गंध के संबंध में तो बिलकुल सच है। कितने ही बेहोश आदमी को सुंघाया जाए,
अगर उसके हृदय तक गंध पहुंच जाए, तो सोए प्राण
तत्क्षण जाग उठते हैं। मगर हृदय तक पहुंचने में बड़ी बाधाएं हैं। और वैसी ही बाधा
वहां खड़ी हो गई।
गंधी
ने तो अपनी सुगंध की बोतल खोल दी--बहुमूल्य--जिसको सम्राट भी खरीदने में दो क्षण
झिझकते, इतनी उसकी कीमत थी। लेकिन यह आदमी मर रहा है, इसको
बचाने को गंधी ने जो भी वह कर सकता था, करने की कोशिश की।
मगर वह मरता आदमी अब तक तो बेहोश था सिर्फ, अब हाथ तड़फड़ाने
लगा, सिर पटकने लगा। बेहोशी में ऐसे तड़फने लगा, जैसे मछली को किसी ने किनारे पर फेंक दिया हो।
भीड़
लग गई। एक आदमी ने उस गंधी को कहा कि रुको मेरे भाई! तुम दयावश जो कर रहे हो, वह उसके
प्राण ले लेगा। मैं भी मछलियां बेचने वाला हूं। तुम हटो। यह अपनी बोतल बंद करो।
तुम्हें पता नहीं कि मछलियां बेचने वाले केवल एक ही सुगंध को पहचानते हैं--मछलियों
की सुगंध! और तो सब दुर्गंध है। उसने जल्दी से अपनी पोटली खोली, जिन कपड़ों में मछलियां बांध कर वह भी बाजार बेचने आया था। मछलियां तो बेच
आया था; कपड़े थे। लेकिन उन्हीं कपड़ों में रोज मछलियां बेचने
लाता था। मछलियों की गंध को पी गए थे वे कपड़े। उसने उन पर जल्दी से पानी छिड़का और
उस आदमी के चेहरे पर वे कपड़े ओढ़ा दिए।
क्षण
भर की भी देर न लगी,
उस आदमी ने आंखें खोल दीं! और उसने कहा, किसने
यह सुगंध मुझे सुंघाई! और तूने मुझे बचा लिया। यह आदमी तो मुझे मार डालता। यद्यपि
मैं बेहोश था, लेकिन जब इसने दुर्गंध मेरी नाक के पास लाया;
कैसी दुर्गंध इसकी शीशी में भरी है कि मैं तड़फने लगा! मुझे भीतर समझ
में आने लगा कि मेरी जान अब गई। अब ज्यादा देर बचने का नहीं हूं। अगर किसी ने इस
आदमी को न हटाया, तो मेरी मौत निश्चित है। तू ठीक समय पर आ
गया।
मछली
की सुगंध का जो आदी हो जाए,
उसे फिर जगत की सारी सुगंधें दुर्गंध हो जाती हैं।
बुद्धि
के हम आदी हो गए हैं,
इसलिए प्रेम से परिचय बनाना मुश्किल। बुद्धि ज्यादा से ज्यादा काम
से संबंध बना पाती है। क्योंकि काम का शोषण किया जा सकता है। काम एक शारीरिक जरूरत
है। प्रेम तो कोई जरूरत नहीं। प्रेम तो काव्य जैसा है; उसके
बिना जिंदगी बड़े मजे से चल सकती है। काम रोटी जैसा है; उसके
बिना जिंदगी नहीं चल सकती है। काम बहुत स्थूल है; स्थूल देह
को उस पोषण की जरूरत है। लेकिन प्रेम बहुत सूक्ष्म है। और अभी तुम्हारी सूक्ष्म
आत्मा जगी ही नहीं कि उसे भोजन की जरूरत हो। और धर्म तो आत्यंतिक है। जब तुम्हारे
भीतर परमात्मा जगता है, तो तुम्हारे आस-पास जो आभा विकीर्णित
होती है, उसका नाम धर्म है।
धर्म
का अर्थ हिंदू नहीं,
मुसलमान नहीं, ईसाई नहीं, जैन नहीं, सिक्ख नहीं। नानक के पास जो गंध थी,
उसका नाम धर्म है। सिक्ख--धर्म नहीं है। वह तो सिर्फ उस गंध के
संबंध में है। बातचीत रह गई। गंध तो कब की खो गई। फूल ही खो गया, तो गंध आकाश में तिरोहित हो गई।
महावीर
के पास जो गंध अनुभव की गई थी, वह धर्म थी। जैन धर्म धर्म नहीं है। महावीर के
पास जो गंध थी, वह जिनत्व की थी। जैन धर्म तो पंडितों द्वारा
निर्धारित सिद्धांत, शास्त्र में आबद्ध व्याख्या है।
जैसे
तुमने फूल सूंघा गुलाब का और फिर किसी को तुम बताने लगे कि कैसी गंध थी। क्या
बताओगे? क्या खाक बताओगे? फूल की गंध को किन शब्दों में
वर्णन करोगे? कि तुम गए समुद्र पर; और
तुमने उत्ताल तरंगें देखीं, और हवाओं में नमकीनपन देखा,
और सुबह का उगता सूरज सारे समुद्र को लाल करता हुआ मालूम
पड़ा--गैरिक--जैसे संन्यास दे दिया हो सारे सागर को! उसे किस तरह से वर्णन करोगे?
कोई तुमसे पूछने लगेगा, तो क्या करोगे?
जो भी कहोगे, छोटा पड़ेगा। जैसे भी कहोगे,
ओछा पड़ेगा।
मैंने
सुना है, एक कवि समुद्र के तट पर टहलता था। सुबह का सूरज, पक्षियों
के गीत, हवा की ताजगी, समुद्र की
लहरें। बहुत आंदोलित हो उठा! कवि था। हृदय में लहरें ही लहरें हो गईं। सागर भीतर
तक चला गया। हवाओं ने प्राणों को जगा दिया और झकझोर दिया। उसकी प्रेयसी अस्पताल
में बंद थी। सोचा: काश, वह भी आज यहां होती! यह सुबह फिर
आए--न आए। यह सुबह फिर दोहरे--न दोहरे! कैसे आज अपनी प्रेयसी को इस सुबह का दर्शन
कराऊं! उसे तो लाया नहीं जा सकता। बहुत रुग्ण है; मरणशय्या
पर है।
तो
वह एक सुंदर मंजूषा लाया,
एक पेटी लाया। उसमें उसने सागर की धूप भरी, सागर
की हवा भरी। ताला बंद किया। पेटी को लेकर अस्पताल पहुंचा। अपनी प्रेयसी से कहा कि
तू चकित होगी जान कर कि क्या तेरे लिए लाया हूं! शायद ऐसी भेंट कभी कोई नहीं लाया
था! सूरज लाया हूं। सूरज की ताजीत्ताजी किरणें लाया हूं। सुबह की मदमस्त हवा लाया
हूं। पक्षियों के गीत लाया हूं। सागर की तरंगों का नाद लाया हूं।
खोली
पेटी उसने। पर पेटी में क्या था? कुछ भी न था! न सागर का नाद था। न हवाओं की
ताजगी थी। न सूरज की किरणें थीं। न पक्षियों के गीत थे। पेटियों में कहीं ये चीजें
बंद होती हैं! और शब्द पेटियों से ज्यादा नहीं हैं।
नानक
के पास गंध ली लोगों ने;
शब्दों की पेटियों में भर ली--वसीयत रहेगी। आने वालों के लिए कुछ
संपदा छोड़ जाएंगे।
बुद्ध
के पास गंध पी लोगों ने;
सुरा पी लोगों ने; शराब पी लोगों ने। और फिर
उस याददाश्त को शब्दों में आबद्ध किया; शास्त्र बनाए;
आने वाली पीढ़ियों के ऊपर उपकार किया। मगर उन शास्त्रों में कागजों
की गंध आती है, बुद्धों की नहीं। उन शास्त्रों में स्याही की
गंध आती है, महावीरों की नहीं। कैसे महावीर की गंध को पकड़ोगे
किताब में?
इसलिए
धर्म--हिंदू,
ईसाई, जैन--इनको मैं नहीं कहता। धर्म तो कभी-कभी
अवतरित होता है--जिसने सत्य को जाना हो, उसके सान्निध्य में;
जिसने सत्य को अनुभव किया हो, उसके पास बैठ
जाने में, उसकी निकटता में; उसके साथ
नाचने में, उसके साथ गाने में, उससे
आंखें चार करने में। जहां खोजी की दो आंखें उन आंखों से मिल जाती हैं जिसने खोज लिया,
उन चार आंखों के मिलन में कुछ होता है--रहस्यपूर्ण, जादू भरा, इस जगत का सबसे बड़ा चमत्कार! उन चार आंखों
के बीच कुछ घटता है, जिसे पकड़ा नहीं जा सकता, छुआ नहीं जा सकता, देखा नहीं जा सकता; फिर भी अनुभव किया जा सकता है। वह जो घटता है उन आंखों के बीच, उसका नाम धर्म है।
धर्म
एक काव्य है--महाकाव्य--जो दो हृदयों की धड़कन के बीच जब जुगलबंदी हो जाती है, तब घटता
है। जब दो व्यक्ति--एक जागा हुआ और एक सोया हुआ--एक लय में आबद्ध हो जाते हैं,
उस लय में, उस सुरत्ताल में, उस सरगम में धर्म छिपा है।
धर्म
सत्संग की अनुभूति है।
चांद-सूरज
दिए दो घड़ी के लिए
रोज
आते रहे और जाते रहे
दो
तुम्हारे नयन,
दो हमारे नयन,
चार
दीपक सदा जगमगाते रहे।
मुख
तुम्हारा अंधेरी डगर की शमा
रात
बढ़ती गई तो हुआ चंद्रमा
याद
तुमको किया, रोज हमने जहां
आंधियों
में वहीं छा गई पूर्णिमा
बादलों
की झड़ी में जली फुलझड़ी,
बिजलियों
में कमल मुस्कुराते रहे।
दो
तुम्हारे नयन,
दो हमारे नयन,
चार
दीपक सदा जगमगाते रहे।
बीन
तुम प्रीति की झनझनाती हुई
तुम
हवा मेघ की सनसनाती हुई
हम
हवा की लहर प्यार की राह पर
दर्द
की रागिनी गुनगुनाती हुई
दूर
तुमने किया, दर्द इतना दिया,
हम
जहां भी रहे गुनगुनाते रहे।
दो
तुम्हारे नयन,
दो हमारे नयन,
चार
दीपक सदा जगमगाते रहे।
तुम
अछूती जवानी,
अमर प्यार हम
तुम
बिना राख की आग,
अंगार हम
साथ
रहते हुए हम अलग हो गए
तुम
पहुंच से परे और संसार हम
तुम
गगन से दीये जगमगाते रहे,
हम
धरा से दीये झिलमिलाते रहे।
दो
तुम्हारे नयन,
दो हमारे नयन,
चार
दीपक सदा जगमगाते रहे।
व्योम
के तीर उस पार तुम रह गए
सिंधु
के तीर इस पार हम रह गए
बीच
में बस गई एक दुनिया नई
सृष्टि
बहने लगी और हम बह गए
तुम
खड़े तीर पर तोड़ते हो लहर,
हम
लहर पर लहर झनझनाते रहे।
दो
तुम्हारे नयन,
दो हमारे नयन,
चार
दीपक सदा जगमगाते रहे।
इस
तुम्हारे-हमारे विरह ने,
पिया
मजहबों
के चलन को जनम दे दिया
मस्जिदें
रास्ते पर खड़ी हो गईं
मंदिरों
ने हमारा धरम ले लिया
मूर्तियों
को दीये हम दिखाते रहे,
और
धूनी तुम्हारी रमाते रहे।
दो
तुम्हारे नयन,
दो हमारे नयन,
चार
दीपक सदा जगमगाते रहे।
फिर
तुम्हें ढूंढने चित्रकारी चली
ज्ञान, भाषा,
कला की सवारी चली
पर
तुम्हारा पता आज तक न चला
तो
धरम लड़ गए, चांदमारी चली
जो
दया-धर्म सब को सिखाते रहे,
दूसरों
पर वही तिलमिलाते रहे।
दो
हमारे नयन, दो तुम्हारे नयन,
चार दीपक
सदा जगमगाते रहे।
धर्म
प्रेम की पराकाष्ठा है,
प्रेम का आत्यंतिक अनुभव। जैसे दो प्रेमी मिलते हैं, और तत्क्षण उनकी आंखों में दीये जल जाते हैं! बुझी-बुझी थीं आंखें अभी-अभी;
राख-राख जमी थी अंगारों पर। झड़ गई राख, आंखों
में दीये जल गए।
जैसे
दो प्रेमी मिलते हैं। तार अभी छिड़े न थे वीणा के। पास आते ही तार छिड़ गए। एक गीत
जग गया। जैसे दो प्रेमी मिलते हैं--हाथ में हाथ--और नृत्य शुरू हो गया! वैसा ही
नृत्य एक बहुत अपूर्व जगत में घटता है--जहां शिष्य और सदगुरु का मिलन होता है।
प्रेमियों का नृत्य उसके सामने बिलकुल फीका है। प्रेमियों की आंखों में दीये जले, तो अभी
जले, अभी बुझे। क्षणभंगुर हैं। सदगुरु की आंखों में देख कर
शिष्य के भीतर जो दीये जलते हैं, फिर बुझते नहीं।
तुम
गगन से दीये जगमगाते रहे,
हम
धरा से दीये झिलमिलाते रहे।
दो
हमारे नयन, दो तुम्हारे नयन,
चार दीपक
सदा जगमगाते रहे।
सदगुरु
की आंखें तो दूर आकाश में हैं। सदगुरु तो आकाश है; शिष्य पृथ्वी है। शिष्य अभी
देह से बंधा है; सदगुरु देह से मुक्त है। शिष्य अभी मन से
दबा है; सदगुरु मन का अतिक्रमण कर गया है। दूरी बहुत है;
लेकिन प्रेमी सब दूरियों को पार कर लेते हैं। दूरी बहुत है; लेकिन प्रेम दूरी जानता ही नहीं, मानता ही नहीं।
सदगुरु
के प्रेम में जो स्वाद आता है, उसका नाम धर्म है।
रामनारायण, तुमने
सोचा होगा: धर्म की मैं कोई परिभाषा दूंगा। मैं परिभाषा नहीं दे रहा, इशारे दे रहा हूं, इंगित दे रहा हूं।
इस
तुम्हारे-हमारे विरह ने,
पिया
मजहबों
के चलन को जनम दे दिया
मस्जिदें
रास्ते पर खड़ी हो गईं
मंदिरों ने
हमारा धरम ले
लिया
यह
सदगुरुओं और शिष्यों के बीच जो घटा है, यह तो जीवंत होता है। लेकिन सदगुरु
सदा नहीं होते। आज नहीं कल देह का पिंजड़ा पड़ा रह जाता है, और
हंस उड़ जाता है। फिर तो याददाश्त रह जाती है। याददाश्त यानी स्मृति की रेत पर
खींची गई लकीरें। फिर उन लकीरों में तो सिर्फ पदचिह्न हैं; पद
नहीं हैं। फिर उन पदचिह्नों की पूजा चलती है, मंदिर-मस्जिद
उठते हैं। कितने मंदिर, कितनी मस्जिद, कितने
गिरजे, कितने गुरुद्वारे! और फिर उन मंदिर-मस्जिदों में पूजा
और पाठ, पंडित और पुरोहित! फिर एक बड़ा जाल खड़ा होता है,
क्रियाकांड खड़ा होता है।
मगर
धर्म का जन्म जहां होता है,
वह बात और! जिस क्षण बुद्ध के पास सारिपुत्र झुका, वहां था धर्म। जिस क्षण मोहम्मद के पास अली बैठा, वहां
था धर्म। जिस क्षण जुन्नैद के चरणों में मंसूर ने सिर रखा, वहां
था धर्म।
जिस
क्षण जीसस ने एक सुबह झील पर मछली मारते हुए एक युवक के कंधे पर हाथ रखा, युवक ने
लौट कर देखा, और जीसस ने कहा, कब तक
मछलियां मारते रहोगे? मैं आ चुका हूं। मेरे पीछे आओ! कब तक
मछलियों पर जाल फेंकते रहोगे? मैं तुम्हें लोगों की आत्माओं
को फंसाना सिखाऊं। और उस युवक ने जाल फेंक दिया, और वह जीसस
के पीछे हो लिया। उस घड़ी दो आंखें आकाश की और दो आंखें जमीन की मिलीं। उस घड़ी था
धर्म! चर्चों में नहीं। वेटिकन में नहीं। पोपों-पादरियों में नहीं।
वे
नगर के बाहर पहुंचे ही थे कि एक आदमी ने भाग कर खबर दी उस युवक को कि तू कहां जा
रहा है? तेरे पिता की मृत्यु हो गई! घर वापस चल!
उस
युवक ने जीसस से कहा,
क्षमा करें। मुझे तीन दिन की आज्ञा दे दें, मैं
जाकर पिता का अंतिम संस्कार कर आऊं।
जीसस
ने कहा, तू फिक्र छोड़। गांव में मुर्दे बहुत हैं, वे मुर्दे
की फिक्र कर लेंगे। तू मेरे पीछे आ। इस रास्ते पर जो चलता है वह पीछे नहीं लौटता
है।
और
अदभुत रहा होगा वह युवक! ऐसी अदभुतता का नाम ही शिष्यत्व है। उसने उस आदमी से कहा, क्षमा
करना। घर के लोगों को कहना--माफ कर देना। मैं एक नये जादू में बंध गया, एक नये तिलिस्म में। मैं तो जाता हूं। और पिता तो जा ही चुके हैं, देह पड़ी रह गई है; गांव के लोग ही ठिकाने लगा देंगे।
इसके पहले कि मेरी देह भी जाए, मुझे उसे खोज लेने दो,
जो देह में बसा है और अपरिचित है।
वह
जीसस के पीछे ही हो लिया। जॉन उसका नाम था। उसका यह अदभुत प्रेम जीसस के प्रति--और
क्षण में घटा,
अनायास घटा, आकस्मिक! बिना किसी पूर्व-आयोजन
के! जीसस ने उसके कंधे पर हाथ रखा और कुछ बात हो गई। वह कंधे पर हाथ रखना और कुछ
बात हो गई। बात की बात हो गई। असली बात हो गई। संस्पर्श हो गया। रोमांचित हो गया
होगा जॉन!
फिर
तो जॉन शब्द का अर्थ ही हिब्रू भाषा में हो गया--वह जिस पर प्रभु का प्रसाद है।
नहीं तो कहां सदगुरु किसी के कंधे पर हाथ रखने आता! परमात्मा ने पुकारा होगा, इसलिए यह
हो सका।
और
जॉन का दूसरा प्रतीकात्मक अर्थ हो गया--प्यारा शिष्य। शिष्य थे बहुत जीसस के, उनमें
बारह खास थे। उन बारह में भी जॉन सबसे ज्यादा प्यारा था।
तुम
जान कर हैरान होओगे,
दुनिया की भाषाओं में जॉन शब्द के जितने रूप प्रचलित हैं, उतने किसी दूसरे नाम के नहीं। हजारों लोगों को मैंने संन्यास दिया है।
हजारों नामों से मैं परिचित हुआ हूं। जान कर मैं हैरान हुआ कि जितने जॉनों को
मैंने संन्यास दिया है, उतना किन्हीं औरों को नहीं। अलग-अलग
भाषाओं में--डच में उसका कोई रूप है; जर्मनी में कोई रूप है;
फ्रेंच में कोई रूप है; इटैलियन में कोई रूप
है--सैकड़ों रूप हैं, लेकिन सबके मूल में धातु जॉन है! जॉन
शब्द प्यारा हो गया। उस मछुए का शब्द, उसका नाम सार्वलौकिक
हो गया।
शिष्यत्व
घटता है तो कंकड़-पत्थर हीरे हो जाते हैं।
मूर्तियों
को दीये हम दिखाते रहे,
और
धूनी तुम्हारी रमाते रहे।
दो
तुम्हारे नयन,
दो हमारे नयन,
चार
दीपक सदा जगमगाते रहे।
फिर
तुम्हें ढूंढने चित्रकारी चली
ज्ञान, भाषा,
कला की सवारी चली
पर
तुम्हारा पता आज तक न चला
तो धरम
लड़ गए, चांदमारी चली
यह
कोई ढूंढने का रास्ता नहीं है। न तो भाषा उसे ढूंढ सकती है, न विज्ञान,
न दर्शन। उसे खोजने का रास्ता तो प्रेम है।
हां, कभी-कभी
संगीत में उसकी झलक आ आती है, क्योंकि संगीत में प्रेम की
थोड़ी गंध उठ सकती है। और कभी-कभी काव्य में उसकी भनक पड़ती है, क्योंकि काव्य उसके प्रतिफलन को पकड़ लेता है। और कभी-कभी दो प्रेमियों के
पास भी उसकी एकाध किरण उतर आती है, क्योंकि दो प्रेमी भी डूब
जाते हैं, एक-दूसरे में लीन हो जाते हैं।
हां, कभी-कभी
प्रकृति के सौंदर्य को देख कर तुम्हें परमात्मा की उपस्थिति का अनुभव होता है। न
होता हो बहुत सचेतन रूप से--आभास होता हो, बहुत फीका-फीका,
धुंध से भरा। मगर वह मनुष्य अभागा है, जिसने
सुबह सूरज को उगते देखा, और जिसके भीतर कुछ भी न उगा! वह
मनुष्य अंधा है, जिसने पूर्णिमा का चांद देखा, और पूर्णिमा के चांद में उसे अपने पूर्ण होने की संभावना का कोई दर्शन न
हुआ! वह मनुष्य निश्चित ही बदकिस्मत है, जिसने फूल खिलते
देखे और जिसे याद न आया कि मेरा फूल कब खिलेगा!
धर्म
इन सबकी याददाश्त है। इन सारे स्मरणों का नाम है। धर्म सुरति है, स्मृति है,
पुनः-स्मृति है। इस बात का बोध कि मैं कौन हूं! इस बात का बोध कि यह
अस्तित्व क्या है!
*दूसरा प्रश्न: भगवान! एक पुस्तक में आपका चित्र देखते हुए, जिसमें संन्यास-दीक्षा के समय झुके हुए एक शिष्य के गले में आप माला डाल
रहे हैं, पास बैठे एक गुरु-भाई ने मजाक में कहा कि ऐसा लगता
है जैसे कोई रस्सी से बंधा पालतू पशु!
उनके ऐसा कहने पर कबीर का एक वचन स्मरण आया, जिसमें
उन्होंने स्वयं को राम का कुत्ता कहा है, जिसकी जंजीर
परमात्मा के हाथ में है।
प्रायः सभी संतों ने स्वयं के परमात्मा के प्रति समर्पण को दास
शब्द से प्रतीक के रूप में अभिव्यक्त किया है, जो कि
उनके लिए समर्पण की पराकाष्ठा है। परंतु आज के मनुष्य के लिए एक निंदनीय शब्द है
यह। यह आधुनिक मनुष्य के विकास का द्योतक है या उसके बढ़ते हुए अहंकार का? स्वयं को दास कहने या निंदा करने में भी क्या सूक्ष्म अहंकार नहीं है?
आप अपने शिष्यों को भी मित्र कहते रहे हैं।
आज के मनुष्य के लिए समर्पण कठिन क्यों हो गया है? कुछ कहने
की कृपा करें।
अरुण सत्यार्थी! पहली तो बात, मनुष्य जब तक शिष्य न बने,
तब तक पशु है; पशु अर्थात पाश में बंधा वासना
के। पशु अर्थात कामना की जंजीरों में बंधा; वासना की जंजीरों
में बंधा। पशु अर्थात मन की बेड़ियों में जकड़ा। शिष्यत्व इन जंजीरों को तोड़ने की
प्रक्रिया है। और ये जंजीरें वही तोड़ सकता है, जिसकी जंजीरें
टूट गई हों।
तुम
कहते हो कि मेरे पास बैठे एक गुरु-भाई ने मजाक में कहा...।
मजाक
भी मजाक नहीं होता। मजाक के भी अपने गहरे अर्थ होते हैं। मजाक भी अकारण नहीं होता।
वे गुरु-भाई अभी नाममात्र के ही गुरु-भाई होंगे। अभी शिष्यत्व उन्हें घटा नहीं है।
शायद उनके गले में पड़ी हुई माला उनके लिए बंधन मालूम हो रही होगी। वही बात
प्रकारांतर से वे दूसरे के संबंध में कह गए हैं। उनका अचेतन ही बोला है। शायद
उन्हें प्रीतिकर नहीं लग रहा है।
संन्यासी
होने में अड़चन तो है। क्योंकि संन्यास स्वतंत्रता की घोषणा है--समाज से, संस्कार
से, संप्रदाय से, शास्त्र से, सिद्धांत से, सबसे स्वतंत्रता की घोषणा है।
पूर्व-पक्षपातों से, पूर्व-धारणाओं से, बचपन से अब तक जो तुम्हें सिखाया गया है उस सबसे बगावत है, विद्रोह है। और जिनके बीच तुम रहते हो, वे ऐसी बगावत
पसंद नहीं करते। तुम्हारी बगावत उन्हें उनकी दीनता का स्मरण दिलाती है। और उनकी
भीड़ है। उनकी भीड़ तुम्हें परेशानी में डालेगी। उनकी भीड़ तुम्हारा मजाक उड़ाएगी।
उनकी भीड़ तुमसे कहेगी कि तुम गुलाम हो गए।
एच.जी.वेल्स
ने एक कहानी लिखी है। मेक्सिको के एक पहाड़ की तराई में अंधे लोगों की एक बस्ती है।
और कहानी ही नहीं है,
तथ्य भी है। अब भी वह बस्ती है। कोई पांच-सात सौ लोगों का एक छोटा
सा कबीला है, जो बिलकुल अंधा है। उस पहाड़ी के पास एक मक्खी
पाई जाती है, जिसके काटते ही से बच्चे अंधे हो जाते हैं। सब
बच्चे आंख वाले पैदा होते हैं, जैसे सारी दुनिया में आंख
वाले पैदा होते हैं। लेकिन तीन-चार महीने के भीतर ही बच्चा अंधा हो जाता है।
क्योंकि वह मक्खी इतनी तादाद में है कि उससे बचना मुश्किल है। और बचाए भी कौन! सब
बड़े भी अंधे हैं। आज नहीं कल, कल नहीं परसों, महीने दो महीने बच्चा बच जाए, यह आकस्मिक है। अंततः
तो उसे मक्खी काट लेगी और वह अंधा हो जाएगा।
एच.जी.वेल्स
ने कहानी लिखी है इस घाटी के संबंध में कि एक यात्री, एक खोजी,
एक पर्यटक उस घाटी में पहुंच गया। मक्खी का असर केवल छह महीने तक के
बच्चों पर हो सकता है। उसके बाद मक्खी के काटने से आदमी अंधा नहीं होता। आंखें तब
तक इतनी सबल हो जाती हैं।
यह
आदमी उस घाटी में पहुंच गया। यह पहला आदमी है, जो बाहर की दुनिया से आया अंधों की
दुनिया में। इसे तो भरोसा ही न हुआ कि सात सौ आदमी बिलकुल अंधे! बच्चों से लेकर
बूढ़ों तक सब अंधे! यह रुक गया उस घाटी में। यह सेवा में लग गया उन अंधों की। इससे
बड़ा और सेवा का अवसर मिलेगा भी कहां! इन लोगों की पीड़ा देखो। इनकी परेशानी देखो।
किस तरह जी रहे हैं! किसी तरह खेती-बाड़ी भी करते हैं। अंधे हैं! किसी तरह फल भी
तोड़ते हैं, लकड़ी भी काटते हैं, पानी भी
भर कर लाते हैं। बड़ी मुश्किल से जीना है। बड़ा कठिन जीना है। मगर जी रहे हैं।
वह
उनकी सेवा में लग गया। लेकिन एक बड? मजे की बात कि वे अंधे यह मानने को
राजी नहीं थे कि वह आंख वाला है। उनकी सात सौ की संख्या थी। लोकमत के आधार से भी
वे बहुमत में थे। अगर हाथ भी उठवाए जाते, तो सात सौ कहते कि
यह भी अंधा है। अंधे ही होते हैं। उन्होंने कभी आंख वाला आदमी न देखा था।
मगर
यह आंख वाला भी जिद्दी था। आंख वाले अक्सर जिद्दी होते हैं। असली आंख वाले भी
जिद्दी होते हैं। तुम चाहे जीसस को सूली पर लटका दो, कोई फिक्र नहीं; मगर वे अंधों को जगाने का काम करते रहते हैं। बुद्ध को तुम पत्थर मारो,
गालियां दो, कोई फिक्र नहीं; वे अपने काम में संलग्न रहते हैं। सुकरात को तुम जहर पिला दो...।
जहर
पिलाने के पहले सुकरात से कहा गया था कि अगर तू सत्य बोलना बंद कर दे, तो माफ
किया जा सकता है। उसने कहा, सत्य बोलना मेरा धंधा है। मैं
जिंदा रहूं तो सत्य बोलूंगा। अगर सत्य बोलना रुकवाना है तो मृत्यु के अतिरिक्त और
कोई उपाय नहीं। आखिरी सांस तक सत्य बोलूंगा। इसलिए मुझे मरना स्वीकार है, लेकिन यह सत्य बोलने का धंधा मैं नहीं छोड़ सकता। यह तो मेरा प्राण है,
यह तो मेरी आत्मा है। मार कर तो तुम मेरी देह, मेरा शरीर छीन लोगे। लेकिन सत्य बोलना बंद करके तो तुम मेरी आत्मा को मार
डालोगे। वह महंगा सौदा है। वह मैं नहीं कर सकता हूं। उतना मैं अंधा नहीं हूं।
आंख
वाले जिद्दी होते हैं। एच.जी.वेल्स की इस कहानी में भी वह आंख वाला जिद्दी है। वह
मानता ही नहीं। वह उनकी सेवा में लगा ही रहा, लगा ही रहा। आखिर कुछ लोग
धीरे-धीरे विश्वास करने लगे कि कुछ तो बात है जो इसमें अलग है। उसका चलना, उठना, बैठना, काम करना,
उसकी गति, उसका दौड़ना! जो काम उनसे न हो सकें,
वह मिनटों में कर लाए। जिन कुओं से पानी भरने में उनको घंटों लग
जाएं, वह मिनटों में भर लाए। जिन जानवरों को ढूंढने में उनको
दिन भर लग जाए, वह घड़ी भर में ले आए। उसके पास कुछ तो है। अब
उसको आंख कहो या कुछ कहो, मगर यह आदमी हमसे भिन्न है,
यह धीरे-धीरे स्वीकृति उन अंधों को भी हो गई।
उनके
पास रहते-रहते वह युवक एक अंधी युवती के प्रेम में पड़ गया। उस कबीले की एक युवती
के प्रेम में पड़ गया। वह चाहता था कि उससे प्रेम है तो विवाह भी हो जाए। वह उस
कबीले का हिस्सा ही हो जाना चाहता था, अंतरंग अंग बन जाना चाहता था।
लेकिन गांव की पंचायत बैठी और उसने कहा, हम एक ही शर्त पर
विवाह की आज्ञा दे सकते हैं। क्योंकि हमारे कबीले में कभी भी किसी युवती ने किसी
आंख वाले से शादी नहीं की। यह हम न होने देंगे।
जैसे
कोई हिंदू मुसलमान से शादी न होने दे। कि जैसे कोई मुसलमान हिंदू से शादी न होने
दे। जैसे कोई ब्राह्मण किसी शूद्र से शादी न होने दे। कि यह हमारी कुल-परंपरा में
कभी नहीं हुआ। यह कैसे हो सकता है कि ब्राह्मण का बेटा और शूद्र की लड़की से शादी
करे! असंभव! इससे तो मर जाना अच्छा। चुल्लू भर पानी में डूब मरो।
गांव
के लोगों ने कहा,
यह हम कभी नहीं कर सकते। यह तो हमारी बड़ी अवमानना हो जाएगी। जो कभी
नहीं हुआ, वह कैसे हो सकता है! आंख वाले युवक से हम अपनी
युवती की शादी नहीं कर सकते। एक ही उपाय है कि तुम अपनी आंखें फोड़ने को राजी हो
जाओ, तो हम आज्ञा देंगे, जरूर आज्ञा
देंगे। हमें तुमसे प्रेम है। तुमने हमारी सेवा की है। और तुमने हमारा हृदय जीत
लिया है। और तुमने धीरे-धीरे हमें यह भरोसा दिला दिया है कि कुछ तुम्हारे पास है
जो हमारे पास नहीं है। लेकिन उसी भरोसे के कारण अब हम यह निश्चित कर लेना चाहते
हैं कि तुम ठीक हम जैसे हो--हमारी जाति के हो, हमारे वर्ण के
हो। हम जैसे हो, तो ही विवाह हो सकता है।
तुम
सोच सकते हो उस युवक की मुसीबत! वह रात ही भाग गया। उसने वह बस्ती छोड़ दी। उसने
कहा, यह महंगा सौदा है। और यहां रुकना खतरे से खाली नहीं है। क्योंकि वह युवती
रोएगी, गाएगी। कौन जाने किसी कमजोर क्षण में मैं राजी ही हो
जाऊं कि चलो ठीक, मेरी भी आंखें फोड़ दो। या मैं राजी न भी
होऊं, ये गांव के लोग ही इकट्ठे होकर मेरी आंखें फोड़ दें।
आंख
वालों के ये पुराने अनुभव हैं। अंधों ने उनकी आंखें फोड़ दी हैं!
अरुण
सत्यार्थी, तुम जिन गुरु-भाई की बात कर रहे हो, उनको अड़चन मिल
रही होगी। समाज से असुविधा मिल रही होगी। माला से उनको आनंद कम, कष्ट ज्यादा हो रहा होगा। मजाक सिर्फ मजाक नहीं। सिग्मंड फ्रायड ने मजाक
पर बहुत काम किया है--कि मजाक के पीछे भी सत्य छिपे होते हैं। मजाक भी सत्यों को
कहने का एक ढंग है, खूबसूरत ढंग। उन्होंने जो दूसरे के संबंध
में कहा है, वह खुद के संबंध में कहा है, उन्हें याद दिला देना। लौट कर जाओ तो उनसे कह देना कि माला अभी तुम्हारे
गले का हार नहीं है। और जब तक माला तुम्हारे गले का हार नहीं है, तब तक कैसा शिष्यत्व? कैसा संन्यास?
अगर
उन्हें देख कर ऐसा लगा कि यह तो ऐसा लगता है, जैसे कोई रस्सी से बंधा पालतू पशु,
तो शायद उनको अपना संन्यास एक बंधन मालूम हो रहा है--एक असुविधा,
एक खतरा। शायद वे पछता रहे हैं संन्यास लेकर। कहीं अचेतन में भाव
छिपा है: अच्छा था कि संन्यास न लिया होता।
सबके
जैसे होते, तो गुलाम होते तो भी गुलामी का पता न चलता। सबके जैसे नहीं हैं, स्वतंत्र हैं, तो भी अब अड़चन होगी। और दूसरे लोग
मानने को राजी नहीं होंगे कि तुम स्वतंत्र हो। दूसरे तो कहेंगे: गुलाम हो गए। ये
क्या गैरिक वस्त्र पहन लिए! यह क्या माला डाल ली! यह क्या नाम बदल लिया! तुम तो
गुलाम हो गए। तुम किसी के वशीभूत हो गए। तुम पर किसी का वशीकरण चल गया। तुम किसी
से सम्मोहित हो गए। ये सारी बातें उनसे कही गई होंगी। ये सारी बातें उनके व्यंग्य
में निकल आई हैं। यह व्यंग्य निर्दोष नहीं है।
अन्यथा
संन्यासी ऐसा कह ही नहीं सकता। असंभव! क्योंकि संन्यासी का आंतरिक अनुभव तो परम स्वतंत्रता
का है। न हिंदू रहा,
न मुसलमान रहा, न जैन रहा, न बौद्ध रहा, न ब्राह्मण रहा, न
शूद्र रहा। न भारतीय रहा, न चीनी रहा, न
जर्मन रहा, न जापानी रहा। राष्ट्र, वर्ण,
धर्म, संप्रदाय, मंदिर-मस्जिद,
सब बहुत पीछे छूट गए। सारा आकाश अपना है अब। कुरान भी अपनी, बाइबिल भी अपनी, उपनिषद भी अपने, धम्मपद भी अपना। बुद्ध अपने, नानक अपने, कृष्ण अपने, क्राइस्ट अपने। सारा आकाश अपना। आंगन
छूट गया, आकाश अपना हो गया। एक छोटी सी बगिया छूट गई और सारी
पृथ्वी की हरियाली अपनी हो गई।
अपने
गुरु-भाई को चेताना। कहना जाकर: जाग मछंदर, गोरख आया!
मछंदरनाथ
सो गए मालूम होता है। कोई जगाने वाली आवाज चाहिए।
और
फिर तुम कहते हो: "उनके ऐसा कहने पर कबीर का एक वचन स्मरण आया, जिसमें
उन्होंने स्वयं को राम का कुत्ता कहा है।'
उन
दोनों की तुलना नहीं हो सकती। कहां कबीर! जब कभी दो व्यक्तियों के वचन तौलो तो
पहले व्यक्तियों को तौल लिया करो। क्योंकि असली बात वचन नहीं होते, असली बात
व्यक्ति होते हैं। तुम भी ठीक वही वचन बोल सकते हो जो कबीर ने कहा। तुम भी कह सकते
हो, मैं राम का कुत्ता। लेकिन उसमें वही अर्थ नहीं हो सकता
जो कबीर का था। वह अर्थ तुम कहां से लाओगे! उस अर्थ को लाने के लिए कबीर होना
होगा। कबीर ने किस मस्ती से कहा है! किस आनंद से कहा है!
कुत्ते
की कुछ खूबियां हैं। कुत्ते से ज्यादा स्वामिभक्त कोई प्राणी नहीं जगत में। आदमी
धोखा दे जाएं,
कुत्ता धोखा नहीं देता।
तुमने
कहानी पढ़ी न महाभारत में! स्वर्गारोहण हुआ पांडवों का। सब गल गए। मित्र, भाई,
पति, पत्नी--सब गल गए! अर्जुन भी गल गया!
देखते हो, कृष्ण की गीता काम नहीं आई। अर्जुन भी स्वर्ग के
रास्ते पर गल गया, स्वर्ग के द्वार तक नहीं पहुंच पाया।
कृष्ण की गीता भी इसने ऐसे ऊपर-ऊपर से सुन ली होगी। यह भी इसके प्राणों में
रची-पची नहीं। इसने कह तो दिया कि मेरे संदेह दूर हो गए--हुए नहीं होंगे। सिर्फ
झंझट छुड़ा ली, कि अब ठीक है, अब ज्यादा
बकवास भी कौन करे! अब तुम मानते ही नहीं हो, तो चलो, ठीक है। बेबसी में, असहाय अवस्था में, कृष्ण के तर्कों की प्रखर धार में और चोट में झुक गया होगा।
मगर
अंतिम कथा कहती है कि स्वर्गारोहण के समय सब गलने लगे एक के बाद एक। और जब
युधिष्ठिर--अकेले युधिष्ठिर--स्वर्ग के द्वार पर पहुंचे, पीछे लौट
कर देखा, तो सिर्फ उनका कुत्ता साथ था! अर्जुन भी गल गया! तो
अर्जुन की श्रद्धा भी ऐसी न थी, जैसी कुत्ते की थी। नकुल,
सहदेव, भीम--सब गल गए। उनकी भी प्रीति ऐसी न
थी, जैसी इस कुत्ते की थी। और युधिष्ठिर ने इस कुत्ते का ठीक
सम्मान किया। द्वार पर दस्तक दी। द्वार खुले। स्वागत में वंदनवार बंधे थे।
बैंड-बाजे बजते थे। द्वारपाल ने कहा, प्रवेश करें। भीतर आएं
धर्मराज!
लेकिन
युधिष्ठिर ने कहा,
जब तक मेरा कुत्ता पहले प्रवेश न करे, मैं
प्रवेश न कर सकूंगा। मेरे भाई भी रास्ते में गल गए। वे भी इतने दूर मेरा साथ न दे
सके। उनका संग-साथ भी थोड़ी दूर तक ही साबित हुआ। यह अकेला कुत्ता है, जो अंत तक मेरे साथ आया है। यह मेरा बंधु; यह मेरा
बांधव; यह मेरा मित्र; यह मेरा सगा;
यह मेरा प्यारा। और जब इसने इतने दूर तक साथ दिया है, तो पहले इसका प्रवेश, पीछे मैं।
द्वारपाल
मुश्किल में पड़े। उन्होंने कहा, किसी कुत्ते को यहां कभी प्रवेश नहीं मिला!
तो
युधिष्ठिर ने कहा,
द्वार बंद कर लो। मैं और मेरा कुत्ता द्वार के बाहर ही भले। ऐसे
स्वर्ग को लेकर क्या करेंगे, जहां प्रेम की यह अंतिम कड़ी टूट
जाए! ऐसे स्वर्ग को लेकर क्या करेंगे, इतनी कीमत पर! नहीं,
युधिष्ठिर नहीं प्रविष्ट हुए, जब तक कुत्ता भी
प्रवेश न पा सका।
जब
कबीर ने कहा कि मैं राम का कुत्ता, तो ऐसे अर्थों में कहा है, जैसे युधिष्ठिर का कुत्ता। सब छूट जाए, मगर राम नहीं
छूटेंगे।
स्वीडन
में एक स्टेशन पर एक कुत्ते की प्रतिमा बनी है। शायद दुनिया में अकेली प्रतिमा है।
पहले महायुद्ध के समय की घटना है। एक आदमी रोज अपने गांव से ट्रेन पर सवार होकर
पास के नगर में काम करने जाता था। उसका कुत्ता उसे रोज स्टेशन पहुंचा जाता। और जब
तक ट्रेन दिखाई पड़ती रहती,
तब तक वह आदमी भी हाथ हिलाता रहता और वह कुत्ता भी पूंछ हिलाता
रहता। जब ट्रेन बिलकुल आंखों से ओझल हो जाती, तब उस कुत्ते
की आंखों से लोगों ने आंसू गिरते देखे थे। वह वापस लौट जाता। और ठीक पांच बजे,
जब मालिक की ट्रेन आने का वक्त होता, हमेशा,
पहले आकर प्लेटफार्म पर खड़ा हो जाता। यह बात इतनी नियमित हो गई थी
कि सारे स्टेशन के कर्मचारी इससे अवगत थे। कोई उस कुत्ते को भगाता नहीं था। सबका
सम्मान था उसके प्रति।
लेकिन
एक दिन ऐसा हुआ कि मालिक गया और फिर वापस नहीं आया। शहर में ही हृदय का दौरा पड़ा
और वह मर गया। कुत्ता पांच बजे आकर प्लेटफार्म पर खड़ा हो गया। ट्रेन तो आई। उसने
एक-एक कमरे में जाकर झांका;
आवाज दी। मालिक का कोई पता नहीं।
फिर
कुत्ता वहां से नहीं हटा। फिर लाख उसे भगाने की कोशिश की गई। रोए; हर गाड़ी
में झांके। जो गाड़ी आए--झांके! न खाए, न पीए। सातवें दिन मर
गया--वहीं--प्लेटफार्म पर ही! उन सात दिनों में जितनी गाड़ियां आईं, सबमें झांका; सबमें पुकारा; सबमें
आवाज दी।
सारा
गांव उस कुत्ते से आंदोलित हो गया। न भोजन लिया, न पानी पीया। मालिक ही न रहा,
तो अब रहने का उसका कुछ अर्थ न रहा। और उस नासमझ, गरीब कुत्ते की प्रीति को तुम देखते हो! उसके समर्पण को देखते हो! उसकी
समग्रता को देखते हो! उसकी आहुति देखते हो! उसकी पूजा का भाव देखते हो! और क्या
होगी प्रार्थना? और क्या होगी भक्ति? मर
गया वहीं बैठा-बैठा, जहां उसका मालिक उसे आकर मिलता था। तो
गांव के लोगों ने चंदा इकट्ठा किया और उसकी प्रतिमा वहां बनाई। वह प्रतिमा अब भी
है। वह अकेली प्रतिमा है किसी कुत्ते के लिए समर्पित। आज भी उस गांव के लोग उस
प्रतिमा पर फूल चढ़ा जाते हैं।
जब
कबीर ने कहा,
मैं राम का कुत्ता, तो ऐसे किसी अर्थ में कहा
है। बड़े आनंद भाव में कहा है। कहा है कि मेरे भीतर वैसी ही भक्ति हो, जैसे एक कुत्ते की अपने मालिक के प्रति होती है। मिटती ही नहीं। मिटाई ही
नहीं जा सकती। वर्षों बाद भी कुत्ते अपने मालिक को पहचान लेते हैं। वर्षों की दूरी
भी क्षण भर में मिट जाती है। और कुत्ते अपने मालिक को सच में कभी भूल नहीं पाते।
उस अर्थ में कहा है।
और
कहा कि जिसकी जंजीर परमात्मा के हाथ में है।
जंजीर
शब्द से मत भ्रांति में पड़ जाना। ऐसे तो प्रेम भी जंजीर है। लेकिन जंजीर कहना ठीक
नहीं, फूलों की माला कहो। और ऐसे तो सोने के तुमने जो आभूषण पहन रखे हैं,
वे भी जंजीरें हैं। लोहे के नहीं हैं, सोने के
हैं; लेकिन जंजीरें हैं। और कभी प्रीति में लोहे की जंजीर भी
आभूषण हो जाती है। प्रेम कीमिया है। प्रेम जिस पत्थर को छू देता है, उसे सोना बना देता है।
कबीर
का वचन तुम अपने गुरु-भाई के वचन से मत तौलना। उससे तुम्हें याद आ गई, संयोगवशात,
साहचर्य से। मगर कहां कबीर! कहां तुम्हारे गुरु-भाई! कबीर तो
आनंदोल्लास में यह कह रहे हैं। कबीर तो धन्यभागी हैं यह कह कर। तुम्हारे गुरु-भाई
यह कह कर धन्यभागी न हो सकेंगे। यह कहने में ही संकोच होगा कि मैं, और किसी का कुत्ता? वह परमात्मा ही क्यों न हो! राम
ही क्यों न हों! मेरे गले में, और किसी की जंजीर? अहंकार बाधा बन जाएगा।
कबीर
की उदघोषणा निरहंकारिता की उदघोषणा है। और कबीर ने बहुत रूपों में यह उदघोषणा की
है। कबीर कहीं कहते हैं: मैं तो राम की दुल्हनिया!
पति
में तो थोड़ी अकड़ होती है,
पुरुष का भाव होता है। अब कबीर हैं तो पुरुष, लेकिन
कहते हैं--दुल्हनिया। क्योंकि वह जो पुरुष की कठोरता है, परुषता
है, वह बाधा है, वह चट्टान है, वह पिघलने नहीं देती तुम्हें। भक्त के पास, शिष्य के
पास स्त्रैण हृदय चाहिए। शरीर चाहे पुरुष का हो कि स्त्री का, भेद नहीं पड़ता। स्त्रैण हृदय तो चाहिए ही चाहिए। स्त्रैण हृदय में ही
शिष्यत्व संभव है। उसी परिप्रेक्ष्य में, उसी आकाश में
शिष्यत्व के बादल घिर सकते हैं, बरसा हो सकती है। तो अपने को
दुल्हनिया कहा है।
लेकिन
अगर फ्रायड और फ्रायड के मानने वालों के हाथ में यह वचन पड़ जाए, तो वे
इसकी दुर्गति कर देंगे। राम की दुल्हनिया! तत्क्षण फ्रायड इस निष्कर्ष पर पहुंच
जाएंगे कि इसमें कुछ गड़बड़ है। सेक्सुअल परवर्शन! इसमें कुछ काम-विकृति है। कबीर
में किसी न किसी अर्थ में होमो-सेक्सुअलिटी दिखाई पड़ जाएगी फ्रायड को।
वह
फ्रायड की ही अपनी प्रतीति है। वह फ्रायड का ही प्रक्षेपण है। फ्रायड हमेशा डरा
रहा जिंदगी भर होमो-सेक्सुअलिटी से। और उसने अपनी युवावस्था में अपने एक मित्र को
जो पत्र लिखे हैं,
वे पत्र खबर देते हैं कि वे पत्र जैसे किसी मित्र को नहीं लिखे गए,
किसी प्रेयसी को लिखे गए हैं। उन पत्रों से जाहिर होता है कि
समलैंगिकता उसमें गहरी रही होगी। और वह जिंदगी भर डरा रहा, भयभीत
रहा। उसके भीतर कहीं न कहीं समलैंगिकता का कुछ न कुछ बीज है, हर कहीं वह यही देख लेता है। हम वही देखते हैं, जो
हमारी आंखों में छिपा होता है।
वह
तो कबीर बच गए,
क्योंकि फ्रायड को पता नहीं कबीर का। मीरा बच गई, फ्रायड को पता नहीं मीरा का। नहीं तो फ्रायड ने मीरा में सब तरह की
कामवासना खोज ली होती। क्योंकि वह कहती है कि मैंने सेज बिछाई है। प्यारे तुम कब
आओगे? मैंने फूलों से सेज बिछा रखी है। टकटकी लगाए तुम्हारी
तरफ देख रही हूं। हे प्रियतम, तुम कब आओगे? फ्रायड तो तत्क्षण निष्कर्ष ले लेता, कि यह कामवासना
का उदात्तीकरण है, सब्लिमेशन है। चूंकि यह अपने पति से तृप्त
नहीं हो सकी, राणा से तृप्त नहीं हो सकी, वही अतृप्ति अब इसकी काल्पनिक बनी जा रही है! अब यह कल्पना के कृष्ण को
अपना पति बना रही है!
व्यक्ति
वही देख सकता है जो वह है। जब तुम किसी के संबंध में कुछ कहते हो, तो याद
रखना, वह उसके संबंध में कम, तुम्हारे
संबंध में ज्यादा सूचक होता है।
लेकिन
फ्रायड के विश्लेषण से पश्चिम के संत नहीं बच सके। जैसे थेरेसा नहीं बच सकी।
थेरेसा वैसी ही है,
जैसे मीरा। मीरा कृष्ण की बात करती है, थेरेसा
क्राइस्ट की। थेरेसा कहती है कि तुम रात आते हो; मेरे साथ
शय्या पर सोते हो! बस फ्रायड के लिए काफी है। और क्या सामग्री चाहिए खोज-बीन के
लिए! तुम रात आते हो; मेरी शय्या पर सोते हो--हो गया मामला
खतम!
फ्रायड
के चित्त में जो भरा है रुग्ण कामवासना का ज्वर, वह आरोपित हो गया। थेरेसा
मानसिक रूप से विकार-ग्रस्त हो गई। सच्चाई उलटी है। थेरेसा स्वस्थ है, फ्रायड मानसिक रूप से विकार-ग्रस्त है। लेकिन यह फ्रायड के संबंध में ही
हो, ऐसा नहीं। हम सबके संबंध में है।
कबीर
को समझने के लिए कबीर जैसी दृष्टि चाहिए।
तुम
पूछते हो: "प्रायः संतों ने स्वयं के परमात्मा के प्रति समर्पण को दास शब्द
से अभिव्यक्त किया है।'
आज
निश्चित ही यह शब्द बहुत निंदित हो गया। एक पश्चिमी मित्र को मैंने नाम दिया:
कृष्णदास। उसने दूसरे दिन ही पत्र लिखा कि कृष्ण तो ठीक है, मगर यह
दास मुझे रात भर सोने न दिया। और दास का अर्थ आपने किया--स्लेव, गुलाम। मैंने लोगों से पूछताछ की, तो किसी ने मुझे
कहा कि दास का अर्थ सेवक भी हो सकता है, नौकर भी हो सकता है।
तो कृष्णदास ने मुझे लिखा कि अगर मैं इसका अर्थ सेवक या नौकर करूं तो आपको कोई
एतराज तो नहीं? गुलाम मैं नहीं कर सकता इसका अर्थ। बहुत पीड़ा
होती है। मैं किसी का गुलाम!
मैं
है, तो पीड़ा होगी। जहां मैं नहीं है, वहां कैसी पीड़ा?
ये
संत अपने को दास कह सके,
इसलिए नहीं कि ये दास हैं, बल्कि इसलिए कि अब
ये हैं ही नहीं। इनका दास कहना तो सिर्फ अपने न होने की सूचना है, अपने न होने की खबर है। ये मिट गए हैं। अब इनका कुछ होना नहीं है। अब तो
ये केवल उसके ही वाहन हो गए हैं। जैसे कोई बांसुरी बजाए, तो
बांसुरी का क्या है! बांसुरी तो केवल वाहन मात्र है, वाहक
है। गीत तो किसी और का है। अगर बांसुरी से तुम पूछो तो वह क्या कहेगी? वह यही कहेगी कि मैं तो बजाने वाले की दास हूं। मेरा अपना क्या! न गीत
मेरे, न स्वर मेरे--सब उसके हैं। मैं तो पोली बांस की पोंगरी
मात्र हूं। मेरा तो इतना ही सौभाग्य बहुत है कि उसने मुझे चुना; कि उसने मुझे अपने ओंठों से लगाया; कि उसने मुझे
प्राणों से भरा; कि उसने मुझे संजीवनी दी, मुझे संगीत दिया। मुझमें तो कुछ भी न था, सिर्फ पोली
थी। उसने मुझे अपूर्व आनंद से भर दिया। यह बांसुरी क्या कहे अगर न कहे कि मैं दास
हूं, कि मैं गुलाम हूं!
मगर
हमारे पास गुलाम और दास के लिए जो अर्थ हैं, वे राजनैतिक हैं--धार्मिक नहीं
हैं। धार्मिक अर्थ खो गए। हमारे पास जो अर्थ हैं, वे राजनीति
ने दिए हैं--दासता, गुलामी। खासकर पश्चिम में तो और भी। और
अब तो पश्चिम की शिक्षा सब तरफ फैल गई। अब तो पश्चिम ही है; पूरब
कहां! अब तो पूरब केवल एक भौगोलिक बात रह गई। इधर कोशिश कर रहा हूं पूरब को फिर से
पुनर्जीवित करने की, तो पूरब के लोग ही नहीं होने दे रहे!
यहां पूरब तो सिर्फ भूगोल रह गई। पूरब एक अध्यात्म है; एक
जीवन की शैली है--भूगोल नहीं, इतिहास नहीं। पूरब तो एक
जीवन-प्रणाली है, एक जीवन-दर्शन है--मिट कर जीने का दर्शन,
ना-कुछ होने का दर्शन, शून्य होकर पूर्ण होने
का दर्शन, मर कर जीने का दर्शन।
भक्तों
ने अपने को दास बड़े आनंद में कहा है।
लेकिन
यह शब्द आज निंदित हो गया है। शब्दों के भी अच्छे दिन होते, बुरे दिन
होते। शब्दों की भी बड़ी यात्राएं होती हैं। कभी जो अच्छे शब्द होते हैं, बुरे हो जाते हैं। समय बदल जाते हैं। घूरों के भी दिन फिरते हैं! कभी जो
बुरे शब्द थे, अच्छे हो जाते हैं।
एक
सज्जन को मैं जानता था। उनका सरनेम था--वर्मा। एक दिन अचानक मुझसे मिलने आए।
उन्होंने कहा,
मैंने बदल दिया। वर्मा जमता नहीं। लोग कायस्थों को शूद्र समझते हैं।
ऐसे कायस्थ शब्द का अर्थ होना चाहिए शूद्र ही--काया में जो स्थित। इससे ज्यादा और
शूद्रता क्या होगी! अगर कायस्थ का ठीक-ठीक अर्थ करो, तो सभी
कायस्थ हैं। क्योंकि सभी काया में स्थित हैं। स्वस्थ तो बहुत कम लोग हैं। कायस्थ
सभी हैं। स्वस्थ तो वह है, जो स्वयं में स्थित हो।
तो
मैंने उनसे कहा कि बात तो ठीक ही है। कायस्थ का मतलब ही शूद्र होता है। तो
उन्होंने कहा,
मैंने तो बदल दिया। मैंने वर्मा से शर्मा कर दिया! मैंने कहा,
यह और बुरा किया। उन्होंने कहा, क्यों?
शर्मा यानी ब्राह्मण! मैंने कहा, अब इसका यह
अर्थ होता है। घूरे के दिन फिर गए। लेकिन शर्मा का पहले अर्थ होता था--महाब्राह्मण।
वे बोले, महाब्राह्मण? महाब्राह्मण से
आपका क्या मतलब? मैंने कहा, वह एक गाली
है। महाब्राह्मण उसको कहते थे जो ब्राह्मणों में सबसे पतित! यह देश तो बहुत अदभुत
है! महाब्राह्मण उसको कहते थे जो कोई ब्राह्मण काम करने को राजी न हो, वह करने को राजी हो जाए। उसको महाब्राह्मण! जैसे कोई मर जाता है, तो उसकी यात्रा को कहते हैं महायात्रा! अच्छे-अच्छे शब्द गढ़ने में हम कुशल
हैं। वह बेचारा मर गया। यात्रा भी नहीं है अब। उसको कहते हैं--महायात्रा पर निकल
गया!
शर्मा
बनता है शर्मन से। शर्मन का अर्थ होता है काटना। जो लोग यज्ञ में पशुओं को काटते
थे; सभी ब्राह्मण यह काम नहीं कर सकते थे; महाब्राह्मण
करते थे यह काम। पशुओं को काटे कौन? जो ब्राह्मण इसके लिए भी
राजी हो जाते थे, उनको कहा जाता था--शर्मन। काटने वाले।
हत्यारे। बूचर। शर्मा का ठीक-ठीक अर्थ होगा--बूचर। सो मैंने उनसे कहा, तुमने भी गजब किया! वर्मा ही भले थे। और नीचे गिर गए! महाब्राह्मण हो गए
अब तुम! अब तुम बूचर! उन्होंने कहा, और तुमने मुसीबत कर दी!
मैं बड़ा प्रसन्न हो रहा था। मैंने कार्ड तक छपवा लिए हैं। और अदालत से नाम भी
बदलवा लिया है! मैंने कहा, तुम कुछ अब और खोजो! शर्मा तुमने
कुछ अच्छा नाम नहीं खोजा। उसके दिन बदल गए। कभी बुरे दिन थे, अब अच्छे दिन आ गए। धीरे-धीरे घिसते-पिसते, घिसते-पिसते,
न अब यज्ञ होते हैं, न यज्ञों में कोई पशु
कटते हैं, तो शर्मन की भी पुरानी याददाश्त भूल गई। पांच हजार
साल लंबा समय। कहां तक याद रखो!
क्या
तुम जानते हो,
"नंगे-लुच्चे' सबसे पहले महावीर के लिए
प्रयोग किया गया था। क्योंकि वे नग्न रहते थे, सो नंगे। और
बालों को लोंच लेते थे, सो लुच्चे। बड़ा प्यारा शब्द रहा होगा;
जब पहली दफा उपयोग किया, तो महावीर जैसे
व्यक्ति के लिए उपयोग हुआ था--नंगे-लुच्चे! और अब? अब किसको
तुम नंगे-लुच्चे कहते हो? अगर किसी जैन मुनि को कह दो,
तो भूल जाएगा मुनित्व वगैरह। वहीं गर्दन पकड़ लेगा! वहीं
नंगा-लुच्चापन दिखा देगा! यह तो सोच भी नहीं सकेगा "नंगे-लुच्चे' पहले महावीर के लिए उपयोग हुआ था।
बुद्धू
पहले बुद्ध के लिए उपयोग हुआ था। ठीक ही लोगों ने कहा था, क्योंकि
जब बुद्ध छोड़ कर घर चले गए, तो उन्होंने एक ऐसी हवा की,
एक ऐसी हवा पैदा की कि न मालूम कितने लोगों ने घर छोड़ दिया। बुद्ध
तो अभिजात कुल से आते थे, राजकुल से, तो
उनके मित्र भी अभिजात थे, धनी थे, राजे
थे। बुद्ध को घर छोड़ते देख कर, बुद्ध की महिमा और गरिमा देख
कर बहुत से राजपुत्रों ने घर छोड़ दिए। लोग झाड़ों के नीचे आंख बंद करके, पालथी मार कर बैठ गए।
उन्होंने
कहा, ये देखो! ये बुद्धू देखो! वह एक क्या हो गया, जो
देखो वही बुद्धू हो रहा है! घर था भला। परिवार था। पत्नी-बच्चे थे। धन-दौलत थी।
मजा करते। बुद्धू होकर झाड़ के नीचे बैठे हो! अब भगाते रहो मच्छड़ जिंदगी भर। उड़ाते
रहो मक्खी।
पहली
दफा बुद्ध के ही संदर्भ में बुद्धू शब्द पैदा हुआ था। फिर धीरे-धीरे गाली बनता चला
गया। अब तो किसी को बुद्धू कहो, तो वह सोच भी नहीं सकता कि इसका बुद्ध से कोई
दूर का भी संबंध हो सकता है! सोच ही नहीं सकता कि इसमें बुद्ध से सिर्फ एक मात्रा
ज्यादा है! जरा बुद्ध से आगे ही समझो--एक मात्रा ज्यादा! थोड़े और पहुंच गए!
शब्द
भी यात्रा करते हैं;
लंबी उनकी यात्रा है। कहां से कहां पहुंच जाते हैं, कहना बहुत मुश्किल है! अच्छे शब्द कभी-कभी दुर्दिन देखते हैं; कभी बुरे शब्द सुदिन देख लेते हैं। सब के दिन फिरते हैं। ऐसे ही दास शब्द
का दिन फिर गया। कभी वह बड़ा प्यारा शब्द था। भक्तों के लिए बड़ा प्यारा शब्द था।
भक्ति की जितनी विधाएं थीं, उसमें एक विधा का नाम था--दास्य।
भक्ति के जितने द्वार थे परमात्मा तक पहुंचने के, उनमें एक
द्वार था दास्य का। अपने को उसका दास मान लेना। अपने को बिलकुल मिटा
देना--शून्यवत। बस उसका इशारा काफी। उसकी मर्जी सब कुछ।
पूछते
हो तुम, अरुण सत्यार्थी, कि "यह आधुनिक मनुष्य के विकास
का द्योतक है या उसके बढ़ते हुए अहंकार का?'
आधुनिक
मनुष्य यानी कौन?
मैं भी आधुनिक हूं; तुम भी आधुनिक हो। और
आधुनिक मनुष्य को खोजने चलोगे, तो कहीं पाओगे नहीं। इसलिए
ऐसा कोई वक्तव्य नहीं दिया जा सकता है कि आधुनिक मनुष्य विकसित हो गया है या पतित।
बुद्ध
के समय भी सारे लोग विकसित नहीं थे। अगर सारे लोग विकसित होते, तो तुम
बुद्ध का नाम कभी का भूल गए होते। उनका नाम क्यों याद है? अनूठे
रहे होंगे। अद्वितीय रहे होंगे। अतुलनीय रहे होंगे। बेजोड़ रहे होंगे। अगर दस-पचास
बुद्ध भी होते, तो बात खतम हो जाती।
और
बुद्ध लोगों को क्या समझाते रहे जिंदगी भर बयालीस साल निरंतर? चोरी मत
करो। हत्या मत करो। बेईमानी मत करो। धोखा मत दो। लोभ मत करो। पैसे पर मत मरे जाओ।
यह सब पड़ा रह जाएगा। परस्त्री-गमन न करो। वेश्यागामी न बनो।
यह
किनको समझा रहे थे बुद्ध?
अच्छे-भले सज्जन लोगों को, धार्मिक लोगों को!
ये बातें सतयुग में समझाने योग्य मालूम होती हैं? तुम्हारे
जैसे ही लोग रहे होंगे जिनको समझा रहे थे। शायद तुमसे भी बदतर लोग रहे होंगे।
क्योंकि मैं भी बोलता हूं, तुम्हें रोज नहीं समझाता कि चोरी
मत करो। सच तो पूछो, तो मैंने तुमसे कभी नहीं कहा कि चोरी मत
करो! बुद्ध रोज कहते हैं: चोरी मत करो। चोरों की जमात रही होगी! या बुद्ध पागल--कि
अचोर बैठे हैं, और बुद्ध समझा रहे हैं चोरी मत करो।
मैं
तुम्हें नहीं कहता--हिंसा मत करो। हत्या मत करो। और बुद्ध रोज कहते हैं: हिंसा मत
करो। हत्या मत करो। महावीर रोज कहते हैं: हिंसा मत करो। हत्या मत करो। जरूर जिन
लोगों से कह रहे हैं,
हत्या उनका धंधा रहा होगा। हिंसा उनके लिए रोजमर्रा का काम रही
होगी!
आदमी
तुमसे अच्छा था,
ऐसा मैं मानने को राजी नहीं हूं। आदमी के संबंध में कुछ सीधे-सीधे
वक्तव्य नहीं दिए जा सकते। कुछ आदमी तब भी अच्छे थे, कुछ
आदमी अब भी अच्छे हैं। कुछ आदमी तब भी ऊंचाइयों पर पहुंचे थे; अतिक्रमण किया था; परम बुद्धता को पाया था। कुछ
व्यक्ति आज भी परम बुद्धता को पाते हैं।
फिर
भी अगर तुम पूछते हो कि कोई सामान्य बात तो कही जा सकती है थोड़ी-बहुत मात्रा में, तो मैं
कहूंगा: आज का मनुष्य पहले के मनुष्य से ज्यादा बेहतर हालत में है।
ऐसा
कोई पुराना शास्त्र नहीं है, जिसमें युद्धों की निंदा की गई हो। युद्धों को
धर्मयुद्ध कहा गया है! आज दुनिया में कोई ऐसा आदमी नहीं मिल सकता, जिसमें थोड़ा सोच-विचार हो, जो युद्ध को धर्मयुद्ध कह
सके। आज युद्ध गर्हित है, घृणित है।
राम
और रावण का युद्ध धर्मयुद्ध था। अब यह तय करना मुश्किल है। क्योंकि तय कौन करे? जो जीत
जाता है, इतिहासज्ञ उसकी प्रशंसा में गीत लिखते हैं। अगर
रावण जीत गया होता, तो क्या तुम सोचते हो, तुम्हारे पास रामायण होती तुलसीदास और वाल्मीकि की? भूल
जाओ। अगर रावण जीता होता, तो रामायण तुम्हारे पास नहीं हो
सकती थी। और अगर रावण जीता होता, तो तुम्हारे
पंडित-पुरोहित-कवि, इन सबने उसकी स्तुति में उसके गीत गाए
होते। और तुम्हारे मंदिरों में राम की जगह रावण की प्रतिमा होती। और दशहरे के दिन
तुम रावण को नहीं, राम को जलाते।
तुम्हें
मेरी बात बहुत चौंकाने वाली लगेगी। लेकिन मेरी भी मजबूरी है। सत्य ऐसा ही है। जो
जीत जाता है,
उसकी स्तुति करने वाले लोग खड़े हो जाते हैं। जो जीत जाए!
हमारे
पास एक बहुमूल्य कहावत है: सत्यमेव जयते। भारत ने तो उसको अपना राष्ट्रीय प्रतीक
बना लिया है--सत्यमेव जयते। सत्य की सदा विजय होती है। ऐसा होना चाहिए। मेरा भी मन
ऐसा ही चाहता है कि ऐसा हो कि सत्य की सदा विजय हो। यह हमारी अभीप्सा है, आकांक्षा
है। मगर ऐसा होता नहीं। यह तथ्य नहीं है, यह परिकल्पना है।
यह उटोपिया है, आदर्श है, तथ्य नहीं।
तथ्य तो ठीक उलटा है। तथ्य तो यह है--जिसकी जीत होती है, उसको
लोग सत्य कहते हैं।
चिकमगलूर
में चुनाव के पहले इंदिरा गांधी और उनके विपरीत जो उम्मीदवार खड़ा था वह, सभी
शंकराचार्य के दर्शन करने गए। इंदिरा गांधी को भी उन्होंने आशीर्वाद दिया और उनके
विरोधी उम्मीदवार को भी आशीर्वाद दिया। किसी पत्रकार ने शंकराचार्य को पूछा कि
आपने दोनों को आशीर्वाद दे दिया, यह कैसे हो सकता है?
अब जीतेगा कौन? तो उन्होंने कहा, सत्यमेव जयते। जो सत्य है वह जीतेगा।
इतना
आसान नहीं मामला। यहां तो जो जीत जाता है, वही सत्य हो जाता है। जो हार गया,
वह असत्य हो जाता है। यहां हारना पाप है; यहां
जीतना पुण्य है।
अगर
रावण जीता होता,
तो तुम्हारे पास कहानियां ही बिलकुल भिन्न होतीं। उनमें राम की
निंदा होती और रावण की प्रशंसा होती। और तुम उन्हीं कहानियों को दोहराते, उन्हीं को सुनते बचपन से। अभी तुम राम की प्रशंसा सुनते हो, रावण की निंदा। उसी को तुम दोहराए चले जाते हो।
अडोल्फ
हिटलर अगर जीत जाता,
तो क्या तुम सोचते हो, इतिहास ऐसा ही लिखा
जाता जैसा लिखा गया? तब अडोल्फ हिटलर इतिहास लिखवाता। तब
उसमें दुनिया के सबसे बड़े शत्रु होते चर्चिल, रूजवेल्ट,
स्टैलिन। तब अडोल्फ हिटलर दुनिया का बचावनहारा होता--सारी दुनिया का
रक्षक; आर्य-धर्म का स्थापक। और उसको प्रशंसा करने वाले लोग
सारी दुनिया में मिल जाते। उसकी प्रशंसा करने वाले लोग थे, जब
वह जीत रहा था। सुभाष बोस जैसा व्यक्ति भी उससे बहुत प्रभावित था, जब वह जीत रहा था। कौन प्रभावित नहीं था! विजय से लोग प्रभावित होते हैं।
और जब वह हार गया, तो सारी कहानी बदल गई। हार गया तो मुकदमे
चले--जो लोग बच गए थे, उसके सिपाही, उसके
सेनापति। अगर जीत जाता, तो चर्चिल पर मुकदमा चलता, रूजवेल्ट पर मुकदमा चलता, स्टैलिन पर मुकदमा चलता।
और मुकदमे तो आदमी के हाथ के खेल हैं; तुम जो चाहो वह सिद्ध
करो।
बुद्ध, महावीर,
कृष्ण, ये थोड़े से लोग हैं। लेकिन और करोड़ों
लोगों का क्या हुआ जिनसे समाज बना था? वे तो कहीं खो गए। वे
तो तुम जैसे ही थे। मेरे हिसाब में तुमसे भी गए-बीते थे।
आधुनिक
मनुष्य ज्यादा चैतन्य है। आज कोई धर्मयुद्ध नहीं कह सकता किसी युद्ध को। इस बात की
कल्पना भी नहीं की जा सकती थी कभी। और पिछड़े देशों में अभी भी नहीं की जा सकती।
वियतनाम
में युद्ध हुआ,
और अमरीका में अमरीकी युवकों ने अमरीकी सरकार का विरोध किया! जेल
गए। आंदोलन किए। जुलूस निकाले। पुलिस की मार खाई। सजाएं भुगतीं। और आखिर मजबूर कर
दिया अपनी सरकार को युद्ध वापस खींच लेने के लिए।
तुम
सोच सकते हो ऐसी कोई घटना अतीत में? अतीत की तो छोड़ दो, भारत जैसे पिछड़े देश में आज भी अगर ऐसा हो तो मुश्किल खड़ी हो जाएगी। समझ
लो कि आज भारत और पाकिस्तान का युद्ध हो, तो भारत में जो
व्यक्ति भी कहेगा कि यह युद्ध खतरनाक है, बुरा है, वह गद्दार समझा जाएगा। लेकिन अमरीका में जिन युवकों ने कहा वियतनाम का
युद्ध अमानुषिक है, पाशविक है, उनको
किसी ने गद्दार नहीं कहा। मुकदमे चले उन पर। उनको सजाएं भी दी गईं कानून से। लेकिन
सजाएं देने वालों के मन में भी उनके प्रति सम्मान था कि वे बात तो ठीक ही कह रहे
हैं, सच ही कह रहे हैं। कानून है, इसलिए
सजा देनी पड़ रही है, मगर बात उनकी सच है। कानून पिछड़ गया है;
उनकी बात आगे चली गई है।
आज
दुनिया में शांति के लिए जितना प्रेम है, उतना पहले युद्ध के लिए था। दुनिया
बेहतर हुई है। पुरानी दुनिया खंडों में विभाजित थी। तुम कल्पना कर सकते हो पुरानी
दुनिया में किसी एक सदगुरु के पास सारे धर्मों के लोगों की? असंभव!
आज मेरे पास यहूदी हैं, हिंदू हैं, मुसलमान
हैं, ईसाई हैं, जैन हैं, बौद्ध हैं, पारसी हैं, सिक्ख
हैं। दुनिया का ऐसा कोई धर्म नहीं, जिसका प्रतिनिधि मौजूद न
हो। यह तुम कल्पना कर सकते हो पुरानी दुनिया में? असंभव! लोग
अपने-अपने कुओं में घिरे थे। कोई अपने कुएं के बाहर नहीं आ सकता था। और अभी भी जो
पुराने ढंग से जी रहे हैं, जो इस सदी के हिस्से नहीं हैं,
वहां यही हालत है।
एक
जैन महिला यहां कुछ दिन पहले आई। बड़ी मुश्किल में पड़ गई। क्योंकि उसने मुझसे पूछा
कि ये भोजन बनाने वाले लोग किस-किस जाति के हैं?
मैंने
कहा, इनकी कोई जाति नहीं। ये मेरी जाति के हैं। उसने पूछा, आपकी जाति? कोई जाति नहीं। ये सब अजात हैं। कहते हैं
उपनिषद कि आत्मा अजात है, उसका कभी जन्म ही नहीं हुआ,
तो जाति क्या! ये सब अजात हैं। उसने कहा, जब
तक मुझे पक्का न हो जाए कि कौन भोजन बना रहा है...। मैं तो एक नाम ही सुन कर चौंक
गई। उसने कहा, मैं गई थी वृंदावन में। और एक महिला का नाम
राधा मोहम्मद! तो यह राधा है कि मोहम्मद? यानी है कौन यह?
हिंदू है कि मुसलमान? तो मैं तो वहां से हट
आई।
वह
बेचारी तीन दिन यहां रही,
बड़ी मुश्किल में रही। खुद ही अपना भोजन पकाना पड़ा उसको। किसी तरह
कच्चा-पक्का पका कर खा-पीकर वह तीन दिन में ही यहां से भाग गई। आई थी तीन महीने
रुकने। क्योंकि उसे छोटी-छोटी चीज की चिंता, कि कहीं पानी
कोई...कौन भर कर लाया पानी? किसका छुआ है पानी? जिसने छुआ है, वह नहाया-धोया है या नहीं है?
यह
कोई पांच सौ साल पहले की बुद्धि। भारत अभी भी आधुनिक नहीं है। अभी भी यह कई सदियों
पुराना है।
आधुनिक
मनुष्य--अगर कोई सामान्य वक्तव्य देना ही हो, तो मैं कहूंगा--पुराने मनुष्य से
बहुत विकसित हुआ है। लेकिन दूसरी बात भी याद दिला दूं: यह विकास एकांगी नहीं है।
इस विकास में लाभ ही लाभ नहीं हैं, कुछ हानियां भी हुई हैं।
अक्सर लोग ऐसा सोचते हैं कि जब विकास होता है, तो लाभ ही लाभ
होते हैं। दुनिया में ऐसी कोई चीज नहीं होती, जिसमें लाभ ही
लाभ होते हों। लाभ के साथ कुछ हानियां होती हैं। हानियों के साथ कुछ लाभ होते हैं।
तुलना जब भी करनी होती है, तो तौलना पड़ता है।
एक
हानि जरूर हुई है। जितना मनुष्य चैतन्य हुआ है, जितना मनुष्य ज्यादा बुद्धिमान हुआ
है, जितना मनुष्य ज्यादा होश से भरा है, उतना अहंकार भी बढ़ गया है। वह हानि हुई है। वह निश्चित हानि हुई है।
अहंकार मजबूत हो गया है। प्रत्येक व्यक्ति अपने को कुछ समझता है। अकड़ बढ़ी है। यह
स्वाभाविक परिणाम है विकास का। इस परिणाम से बचा नहीं जा सकता। लेकिन डरने की कोई
जरूरत नहीं है। इस अहंकार को गलाया जा सकता है।
और
फिर मेरे देखे तो अहंकार का न होना शुरू से, कोई बहुत अच्छा लक्षण नहीं है। वह
बचकानापन है। अहंकार आना चाहिए, और फिर जाना चाहिए, तब पूरा मजा है। अहंकार होना चाहिए, और फिर गलना
चाहिए, तब रस है। जिनके पास अहंकार ही नहीं है, वे समर्पण क्या करेंगे? वे राम के कुत्ते नहीं हैं;
सिर्फ कुत्ते हैं। जिनके पास अहंकार ही नहीं है, वे समर्पण क्या खाक करेंगे! समर्पण करने के पहले संकल्प करने की क्षमता
चाहिए। जिनके पास सिर ही नहीं हैं झुकाने को, वे झुकाएंगे
क्या? झुकाने के पहले सिर चाहिए। और जितना ऊंचा उठा हुआ सिर
हो, उतनी ही गहरी झुकान होगी। इसलिए मैं अहंकार को मानता हूं
कि एक खतरे की तरह बढ़ गया। लेकिन उस खतरे को हम सीढ़ी बना ले सकते हैं। और हर खतरे
को सीढ़ी बनाने की कला आनी चाहिए।
जैसे
गरीब आदमी छोड़ेगा,
तो क्या छोड़ेगा! इसलिए मैं कहता हूं, धनी होओ।
बेफिक्री से धनी होओ। जिस दिन धन हो, उस दिन छोड़ने का मजा ले
सकोगे। बुद्ध ने लिया मजा छोड़ने का। था, तो लिया मजा। महावीर
ने लिया मजा छोड़ने का। था, तो लिया मजा। भिखमंगे छोड़ेंगे तो
क्या छोड़ेंगे! उनके पास छोड़ने को क्या है?
ऐसा
ही अहंकार है। शिक्षा,
समाज--ऐसा होना चाहिए, जो तुम्हें अहंकार को
परिष्कार दे। मगर ऐसा भी होना चाहिए कि परिष्कार के साथ-साथ तुम्हें उसे छोड़ने की
क्षमता भी दे। अहंकार पर धार धरना भी आना चाहिए कि तुम्हारे हाथ में तलवार की तरह
अहंकार हो। और फिर एक दिन इतनी क्षमता भी होनी चाहिए कि तुम इस तलवार को छोड़ भी
सको। तो विनम्रता की रसधार तुम्हें अनुभव होगी।
एक
निरहंकार भाव है,
जिसमें अहंकार अभी पैदा ही नहीं हुआ। वह भोलापन है, ग्रामीणपन है। उसमें खतरा मौजूद है। उसमें अहंकार कभी भी पैदा हो सकता है।
उसमें अहंकार पैदा होगा ही--आज नहीं कल; देर नहीं अबेर;
इस जन्म में नहीं अगले जन्म में।
लेकिन
एक और निरहंकार की अवस्था है--अहंकार के पार। अहंकार पैदा भी हो गया। तुमने उसकी
पीड़ा भी देख ली। उसके सुख भी जान लिए। सुख-दुख दोनों को तौल भी लिया। तौल कर पाया
कि दुख ही ज्यादा हैं,
सुख ना-कुछ हैं। सुख सिर्फ आशा है, दुख अनुभव
है। दिलासा तो स्वर्ग का है, मिलता है नर्क। ऐसे अनुभव के
बाद, ऐसे परिपक्व अनुभव के बाद तुमने अहंकार को गिरा
दिया--बोधपूर्वक, सजगता से, ध्यान से,
प्रेम से, भक्ति में, भाव
में--तब तुम्हारे भीतर एक निरहंकारिता होगी, जो अपूर्व होगी।
तब तुम राम के कुत्ते हो पाओगे--कबीर की तरह। कुत्ता होना तो बहुत आसान है। लेकिन
सभी कुत्ते कबीर के कुत्ते थोड़े ही हैं।
कबीर
जब कहते हैं कि मैं तो राम का कुत्ता...!
कबीर
के पास छोड़ने के लिए था अहंकार। कबीर धार वाले आदमी थे। वह धार उनकी कभी नहीं गई।
वह धार सदा रही। जब मरने के दिन करीब आए, तो कबीर खाट से उठ कर बैठ गए और
कहा कि मुझे मगहर ले चलो।
मगहर!
काशी के पास एक छोटा सा गांव। मगहर के संबंध में यह कहानी प्रचलित है। जैसे काशी
के संबंध में,
कि काशी में जो करवट लेकर मरता है वह स्वर्ग जाता है। इसलिए लोग
काशी-करवट लेने जाते हैं। काशी में तुम्हें तीन ही तरह के लोग मिलेंगे: रांड,
भांड और सांड। और काशी जाता ही कौन है! कुछ लोग आए हैं, जो करवट लेने आए हैं। तो सब रांडें इकट्ठी हो गईं। उनको करवट लेना है। कुछ
रंडुए भी। और सांड! क्योंकि शिव जी की नगरी। तो सांड को तुम छेड़ नहीं सकते। काशी
में जो मजा सांड को है, दुनिया में किसी को नहीं। बीच सड़क पर
बैठे हैं! तुम कार का हार्न बजाए जाओ; नहीं हटते। शंकर जी के
सांड हैं, कोई साधारण सांड तो नहीं! सांड को तुम मार नहीं
सकते काशी में।
मैं
एक सभा में बोलने जा रहा था काशी विश्वविद्यालय में। और दो सांड बीच में बैठे, और वह
गाड़ी चले न वहां से। और मैंने कहा ड्राइवर को कि तू उतर कर इनको भगा। उसने कहा,
यह नहीं हो सकता। अगर ये हार्न बजाने से चले जाएं, तो ठीक। नहीं तो झगड़ा खड़ा हो जाएगा। मुहल्ले के लोग आ जाएंगे अभी। सांड
काशी में कोई साधारण प्राणी नहीं है! शिव जी का भक्त!
और
भांड इकट्ठे हैं। भांड यानी जो किसी की भी प्रशंसा करने में, स्तुति
करने में कुशल हैं। जिनको तुम पंडित कहते हो, पुरोहित कहते
हो, वे सब भांड।
मगहर
के संबंध में उलटी कहानी है कि मगहर में जो मरे, वह मरने के बाद नरक में गधा
होता है। एक तो गधा, फिर नरक में!
और
कबीर की धार देखते हो! कबीर की तलवार देखते हो! मरते वक्त बूढ़ा कबीर...। जिंदगी भर
काशी रहे। लोग जिंदगी भर मगहर रहते हैं; मरते वक्त काशी पहुंच जाते हैं।
सांस निकल रही है और लोग...। तुम अगर काशी गए हो, या काशी के
आस-पास देखा हो, तुम रोज पाओगे, रिक्शों
पर या डोलियों में बिठा कर या इक्कों पर, जिन पर बैठ कर
जिंदा आदमी भी थोड़ी देर में मर जाए, उन पर मुर्दों को या
करीब-करीब जो मुर्दे हैं, आखिरी सांस चल रही, उनको लोग लिए जा रहे हैं काशी कि आखिरी करवट वहां हो जाए! किसी तरह पहुंच
जाएं स्वर्ग तो अच्छा!
कबीर
उठ कर बैठ गए। और कहा कि मगहर ले चलो। जल्दी करो! मगहर में मरूंगा। शिष्यों ने कहा, आप होश
में हैं या सन्निपात में हैं? मगहर से मरने लोग काशी आते
हैं। जिंदगी भर काशी रहे, मरने मगहर जाओगे! मगहर में जो मरता
है, नरक में गधा होता है। कबीर ने कहा, वह मुझे बरदाश्त है। मगहर में मरूंगा। नरक में गधा होना है तो गधा हो
जाऊंगा। काशी में मरे और स्वर्ग गए, काशी का इतना उपकार मैं
नहीं ले सकता हूं!
बड़ी
धार का आदमी है! कहता है,
मगहर में मर कर गधा हो जाएंगे नर्क में, वह
चलेगा। किसी का अनुग्रह तो न लिया। किसी का आभार तो न लिया। अगर स्वर्ग जाऊंगा तो
अपने कारण; काशी के कारण नहीं। नर्क के लिए राजी हूं;
मगर उधार स्वर्ग के लिए राजी नहीं हूं।
नहीं
माने। शिष्यों ने लाख समझाया, मगर वे आदमी मानने वाले तो थे नहीं। वे तो अपनी
लकड़ी लेकर खड़े हो गए। पुरानी लकड़ी, जिसके बाबत वे अपने पदों
में कई जगह चर्चा करते हैं: कबिरा खड़ा बाजार में, लिए लुकाठी
हाथ। लट्ठ तो हाथ में ही रखते थे। घर जो बारे आपना, चले
हमारे साथ। अपनी लकड़ी लेकर खड़े हो गए। शिष्य नहीं माने, तो
वे चल ही पड़े। फिर बिठाना पड़ा उनको डोली में। और किसी तरह उनको ले जाना पड़ा। मगहर
में ही मरे।
जानदार
आदमी थे। शानदार आदमी थे। तलवार पर धार थी। तो फिर विनम्रता का मजा है। विनम्रता
कोई बोथली तलवार का नाम नहीं है--कि जंग खा गई तलवार, आप बड़े
विनम्र हैं। कि इतने जूते खाए कि खोपड़ी झुक गई कि अब उठाने की हिम्मत भी न रही,
कि कहने लगे कि बड़े विनम्र हैं।
आज
के मनुष्य ने पिछले मनुष्य से बहुत गति की है। लेकिन अनेक दिशाओं में गति की है, उसमें कुछ
खतरनाक दिशाएं भी हैं। उसकी चेतना भी बढ़ी है। उसका शांति-प्रेम भी बढ़ा है। उसका
बंधु-भाव भी बढ़ा है। पृथ्वी एक है, एक परिवार है--ऐसा सदभाव
भी पैदा हुआ है। लेकिन साथ ही अहंकार भी बढ़ा है। लेकिन यह अहंकार घबड़ाने की बात
नहीं।
इधर
मेरा अपना अनुभव यह है कि भारतीय मित्र आते हैं, वे समर्पण करने को एकदम
तैयार ही हैं। उनको समर्पण करने में देर नहीं लगती। मगर उनका समर्पण लचर; उनका समर्पण पोच। क्योंकि संकल्प का बल नहीं है। उनका समर्पण औपचारिक। वे
तो किसी के भी पैर छूकर झुकते रहे हैं। वे तो, कोई भी मिल
जाए, वहीं पांव छूने को राजी हैं। उनको पांव छूने में कोई
अड़चन ही नहीं है। यह तो उनकी जन्मजात प्रक्रिया है, अभ्यास
है।
मेरे
पास लोग छोटे-छोटे बच्चों को ले आते हैं। वे बच्चे अकड़ रहे हैं और उनकी मां उनको
दबा रही है मेरे पैरों में,
कि पैर छुओ! मैं कहता हूं कि वह बच्चे को जब आएगा होश, तो छूना हो तो छुए, न छूना हो तो न छुए। यह जबरदस्ती
क्या! लेकिन मां कह रही है कि अभ्यास नहीं करवाएंगे तो वह छुएगा ही नहीं कभी।
अभ्यास करवा रही है वह। वह नहीं मानती। वह तो झुका ही देती है सिर। अब यह जबरदस्ती
झुकाया गया सिर धीरे-धीरे अभ्यस्त हो जाएगा। झुकना इसकी आदत हो जाएगी। यह कोई
विनम्रता न हुई।
जब
पश्चिम से कोई आकर झुकता है, जिसको झुकने की आदत ही नहीं है; ठीक उलटी आदत है। जिसको कहा गया है--झुकना मत। पश्चिम का मनोविज्ञान,
पश्चिम का शिक्षा-शास्त्र सिखाता है: अहंकार को परिपुष्ट करो;
अहंकार को बल दो; अहंकार को स्वतंत्रता दो;
मत झुकना, टूट जाना। पश्चिम से जब कोई आकर
झुकता है, तो उसके झुकने में कीमत होती है। और यह तुम फर्क
यहां देख सकते हो। पश्चिम से जो आकर झुका है, वह सच में ही
झुक गया है।
जो
भारतीय मित्र सिर्फ औपचारिकता से झुक गए हैं, जो कहीं भी झुकते रहे थे--कोई
मुक्तानंद, कोई चुकतानंद--जो कहीं भी झुकते रहे थे! जहां कोई
घुटमुंडा आदमी दिखाई पड़ा, गेरुआ वस्त्र दिखाई पड़ा, वे झुके। उनसे झुके बिना रहा ही नहीं जाता। कोई मंदिर, कोई मूर्ति...जो गणेश जी तक के सामने झुक गए! जिन्होंने यह भी न सोचा कि
यह हाथी की सूंड़! यह कौन ढंग है? जो कहीं भी झुकते रहे हैं,
झुकना जिनके लिए एक आदत हो गई है यंत्रवत--वे अगर आकर मेरे सामने भी
झुक जाते हैं, तो मैं इसे कुछ मूल्य नहीं देता।
मुझे
कठिनाई होती है भारतीय संन्यासी को झुकना सिखाने में--तुम जान कर हैरान होओगे।
मुझे कठिनाई नहीं होती पाश्चात्य संन्यासी को झुकना सिखाने में। क्योंकि वह आसान
नहीं है उसका झुकना,
लेकिन जब वह झुकता है तो जरूर झुकता है। देर लगती है। समय लगता है।
लेकिन जिस दिन झुकता है, उसके झुकने में एक गरिमा होती है।
ऐसी
ही आधुनिक मनुष्य की स्थिति है। मैं निराश नहीं हूं। आधुनिक मनुष्य से मुझे बड़ी
आशा है। इतनी आशा बुद्ध को अपने समकालीन लोगों से नहीं थी। इतनी आशा महावीर को
अपने समकालीन लोगों से नहीं थी। न मोहम्मद को थी, न जीसस को थी। उन सबने
भविष्य का दृश्य बहुत अंधकारपूर्ण खींचा है। जीसस तो रोज ही कहते रहते थे: सावधान!
आखिरी दिन करीब है। कयामत की रात आने को है। तुम अपनी जिंदगी में इस पृथ्वी को
नष्ट होते देखोगे।
जीसस
यह लोगों को रोज कहते थे। बड़े उदास रहे होंगे। बड़े हताश रहे होंगे लोगों को देख
कर। कयामत इतने करीब जब मालूम होती थी, तो उसका मतलब साफ था कि लोगों के
चेहरे उनको कह रहे थे कि अब पाप और ज्यादा नहीं सह सकती यह पृथ्वी। बहुत झेल लिया।
और
तुम्हारे सारे बुद्धपुरुष कहते रहे हैं: कलियुग आ रहा है! कलियुग आ रहा है! कलियुग
आ रहा है! जहां सब धर्म नष्ट हो जाएगा।
मैं
तुमसे कुछ और कहना चाहता हूं। मैं कहता हूं: सतयुग आ रहा है। कलियुग जाने के करीब
है। कलियुग था अतीत में;
भविष्य है सतयुग। मैं बहुत आशा से भरा हूं, क्योंकि
मनुष्य में मुझे बड़ी चमक दिखाई पड़ती है। उसकी आंखों में बड़ा गौरव दिखाई पड़ता है।
माना, उसके साथ-साथ अहंकार खड़ा हुआ है। लेकिन अहंकार तो एक
झूठ है, उसे तो कभी भी गिरा सकते हैं। अहंकार कोई सत्य नहीं
है, मिथ्या है; उसे तो कभी भी मिटा
सकते हैं। इसलिए अरुण सत्यार्थी, उसकी मुझे चिंता नहीं है।
तुमने
पूछा: "स्वयं को दास कहने या निंदा करने में भी क्या सूक्ष्म अहंकार नहीं है?'
हो
भी सकता है। न भी हो। निर्भर करता है। जब कबीर अपने को दास कहते हैं, कहते हैं:
दास कबीरा, तो वहां कोई अहंकार नहीं है। हालांकि बड़ी हिम्मत
से कहते हैं वे। उनका दास कबीरा ऐसा नहीं लगता, जैसे कोई पोच,
कमर टूटी, झुका हुआ आदमी कह रहा हो। दास
कबीरा--वे घोषणा से कहते हैं। डंके की चोट पर कहते हैं। लेकिन अहंकार जरा भी नहीं
है। हो ही नहीं सकता। नहीं तो कबीर से जो गंगा बही, वह नहीं
बह सकती। कबीर से जो सुगंध उड़ी, वह नहीं उड़ सकती। इसलिए एक
तरफ दास भी कहते हैं, मगर घोषणापूर्वक कहते हैं। हिमालय के
शिखर पर चढ़ कर चिल्लाते हैं--दास कबीरा!
लेकिन
सभी कबीर नहीं हैं। गांव-गांव दास फैले हैं! एक सज्जन तो यहां आते थे, उनका नाम
ही दास जी!
मैंने
पूछा, जी कैसे जोड़ा? जब दास ही हो, तब
इसमें जी और क्या?
नहीं, उन्होंने
कहा, मैंने नहीं जोड़ा। दूसरों ने जोड़ दिया।
मैंने
कहा, चलो ठीक है। छुड़ा देंगे। संन्यासी हो जाओ। मैं यह जी काट दूंगा। और
तुम्हारा नाम रखूंगा--दासानुदास। दासों के भी दास!
वे
जो भागे, सो फिर नहीं आए। क्योंकि उनके भी दो-चार भक्त हैं, जो
उनको दास जी कहते हैं! फिर उनके एक भक्त ने मुझे खबर दी कि वे नहीं आएंगे। आपकी
बात उन्हें बड़ी चोट कर गई। वे तो सोचते थे कि आप उन्हें सम्मान देंगे, स्वीकार करेंगे कि वे भी ज्ञान को उपलब्ध हो गए हैं। लेकिन आपने कह दिया
कि यह जी कैसे लगाया! इससे उन्हें बहुत चोट लगी। और फिर आपने कहा कि तुम्हारा राम
रखेंगे दासानुदास। इससे तो उन्हें बहुत आघात पहुंचा।
तो
ऐसे दास भी हैं,
जिनके लिए दास होना भी एक अहंकार ही है, जिनके
लिए विनम्रता भी अहंकार का एक नया परिधान है।
मगर
यह भिन्न-भिन्न लोगों की बात है। यह तुम्हें एक-एक व्यक्ति को देख कर निर्णय करना
होगा। इसके संबंध में कोई सार्वजनीन वक्तव्य नहीं दिया जा सकता।
और
तुमने कहा: "आप अपने शिष्यों को भी मित्र कहते रहे हैं।'
जरूर
मैं अपने शिष्यों को मित्र कहता हूं। लेकिन अगर शिष्य मुझे अपना मित्र समझ ले, तो चूक हो
जाएगी। मैंने कल तुम्हें याद दिलाया था। बुद्ध शिष्यों से कहते हैं कि तुम मेरे ही
जैसे हो। इनमें जो समझदार हैं, उनको छोड़ दो। जो नासमझ हैं,
जिनकी संख्या ज्यादा है, वे कहेंगे, अरे! हम तो पहले ही मानते थे कि बुद्ध भी हम जैसे ही हैं। मगर चूक हो गई।
बात बिलकुल बदल गई।
मैं
तो जरूर कहता हूं कि तुम मेरे मित्र हो। लेकिन जो समझदार हैं, वे इस बात
को सुनेंगे, समझेंगे, गुनेंगे, लेकिन यह मान नहीं लेंगे। वे कहेंगे, इसमें भविष्य
की तरफ इंगित है, लेकिन अभी यह हमारा तथ्य नहीं।
मैं
तुम्हें वैसा देखता हूं,
जैसे तुम हो--अपनी परिपूर्णता में। मैं तुम्हें वैसा देखता हूं,
जैसे तुम हो--अपने स्वभाव में। मैं तुम्हें देखता हूं वैसा, जैसे तुम होने चाहिए। मैं तुम्हें बीज की तरह नहीं देखता, उस फूल की तरह देखता हूं जो कभी वसंत में खिलेगा। मेरे लिए तुम खिल ही गए
हो। मेरे लिए तुम्हारा भविष्य वर्तमान है। इसलिए कहता हूं--मेरे मित्र!
लेकिन
अगर तुमने मुझे अपना मित्र समझा, तो तुम चूकोगे। तो तुम भटक जाओगे; तो मेरा वक्तव्य तुम्हारे काम नहीं आया। तो मैंने तुम्हें अमृत दिया,
तुमने जहर पीया। लेकिन कसूर मेरा नहीं है, क्योंकि
मैं रोज चेताए चलता हूं।
घबड़ाओ
मत। यह जो गले में तुम्हारे माला डाल दी है, यह प्रीति का बंधन है, यह मुक्तिदायी है।
बांधो
मेरे इन प्राणों को,
रेशम
की कड़ियों से बांधो।
जीवन
अब पथ का आकर्षण,
यौवन
ज्वाला का आलिंगन,
सुधि
की पुरवाई में बरबस
पर
रुके तुम्हारे द्वार चरण,
पथ
का हारा मन मांग रहा
गतिमय मुस्कानों
के बंधन,
मत
इस मंगलमय शोभा को,
आंसू
की लड़ियों से बांधो।
रिमझिम
से भीग उठा जीवन,
घन
के चित्रों से भरे नयन,
रस
की प्यासी धरती जलती--
भी
जाग उठी ले नव-जीवन,
अंगारों
पर चलने वाला--
परदेशी क्षण
भर आज रुका,
बांधो
इस जलते जीवन को,
मधुमय
फुलझड़ियों से बांधो।
छूटा
मुझसे मधु का सागर,
छूटे
पीछे कुंजों के स्वर,
क्षण
भर को पर मरु के मग में
लहराए
घन, गूंजा अंबर,
मेरे
पथ का संगीत बने
जिसकी
सुधि प्राणों में घिर-घिर,
बांधो
मेरे सूनेपन को,
गुंजन
की घड़ियों से बांधो।
मरु
दिशाहीन, पथहीन विजन,
जिसमें
रुक-रुक बहता जीवन,
मन
की सुनसान दिशाओं के,
बंदी
बन जाते शिथिल चरण,
दुर्गम
पथ पर चरणों की गति,
बन जाए
पद पावन बंधन,
बांधो
मेरे बिखरे मन को,
कर-कमल
पंखुरियों से बांधो।
बांधो
मेरे इन प्राणों को,
रेशम की
कड़ियों से बांधो।
आज इतना ही।
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