प्रभु मंदिर के द्वार-(अहमदाबाद-चांदा)-ओशो
दिनांक 09 जून सन् 1969
प्रवचन-दूसरा-(प्रवाह शीलता है द्वार)
विश्वास
अंधा द्वार है। अर्थात विश्वास द्वार नहीं है, केवल द्वार का मिथ्या आभास है।
मनुष्य जो नहीं जानता है उसे इस भांति मान लेता है, जैसे
जानता हो। मनुष्य के पास जो नहीं है, उसे वह इस भांति समझ
लेता है वह उसके साथ हो। और तब खोज बंद हो जाए तो कोई आश्चर्य नहीं है।
मैंने
सुना है, एक अंधेरी रात में एक जंगल से दो संन्यासी गुजरते थे। एक वृद्ध संन्यासी
है, एक युवा संन्यासी है। अंधेरी रात है। बियावान जंगल है। अपरिचित
रास्त है, गांव कितनी दूर है, कुछ पता
नहीं। वह वृद्ध संन्यासी तेजी से भागा चला जाता है। कंधे पर झोला लटकाया है,
उस जोर से हाथ से पकड़े हुए हैं। और बार-बार अपने युवा संन्यासी से
पूछता है, कोई खतरा तो नहीं, कोई भय तो
नहीं, कोई चिंता तो नहीं? युवा संन्यासी
बहुत हैरान है, क्योंकि संन्यासी को भय कैसा, खतरा कैसा? और अगर संन्यासी को भय हो, खतरा हो, तो फिर ऐसा कौन होगा जिसे भय न हो, खतरा न हो?
वह बहुत हैरान है कि आज यह वृद्ध
संन्यासी बार-बार क्यों पूछने लगा है कि भय तो नहीं है कोई, खतरा
तो नहीं है। डाकू-चोर तो इस जंगल में नहीं होते हैं, गांव कब
तक पहुंच जाएंगे, और भागते है तेजी से। फिर एक कुएं पर वे
रुक गए पानी पीने को। वृद्ध पानी जी भर कर पी रहा है। झोला उसने युवा संन्यासी को
दिया है और कहा है, सम्हाल कर रखना। युवा को खयाल हुआ,
हो न हो खतरा इस झोले के भीतर होना चाहिए। उसने हाथ डाला है,
देखा एक सोने की ईंट भीतर है। उससे भय है, उससे
खतरा है। उसने वह सोने की ईंट निकाल फेंक दी और एक पत्थर का टुकड़ा उसकी जगह रख
दिया है। फिर वृद्ध पानी पीकर कुएं से नीचे उतरा। जल्दी से झोला अपने हाथ में लेकर
कंधे पर टांगा। टटोल कर ईंट देखी। ईंट है। फिर तेजी से भागने लगा है वह। फिर
रास्ते में बार-बार पूछता है, कोई खतरा तो नहीं है? कोई भय तो नहीं है? उस युवक ने कहा, अब आप निर्भय हो जाए। खतरे को मैं दो मील पीछे कुएं के पास ही फेंक आया
हूं। वृद्ध ने घबड़ाकर झोले में हाथ डाला, वहां तो सोने की
ईंट नहीं है। सिर्फ पत्थर का टुकड़ा है। लेकिन दो मील तक उस पत्थर के टुकड़े को वह
सोने की ईंट समझे रहा, और भयभीत रहा। फिर झोला उसने वहीं पटक
दिया, फिर हंसने लगा और नाचने लगा और उसने कहा, अब गांव पहुंचने की कोई जल्दी न रही। अब कोई खतरा नहीं है। अब हम यहीं सो
जाए। अब रात यही विश्राम कर लें।
पत्थर
की ईंट भी सोने की ईंट समझी जाए तो सोने की ईंट का भय पैदा करती है। लेकिन इससे वह
सोने की ईंट नहीं हो जाती। जो हमारा ज्ञान नहीं है, उसे ज्ञान समझा जाए तो
ज्ञान का भ्रम पैदा कर देता है। लेकिन इससे वह हमारा ज्ञान नहीं हो जाता। जो हम
नहीं जानते हैं, उसे हम कितना ही मान लें तो भी जानने के
भ्रम के सिवाय उस मानने से कभी जानना पैदा नहीं होता, है।
विश्वास असत्य है। विश्वास अज्ञान है। और खतरा अज्ञान से उतना नहीं है, जितना विश्वास से है, क्योंकि अज्ञानी जानता है कि
नहीं जानता हूं।
विश्वास
ऐसा अज्ञान है,
जो नहीं जानता और जानता है कि जानता हूं! अज्ञान जब यह जान लेता है
जानता हूं, तब वह विश्वास बन जाता है। अज्ञान को अपना बोध हो,
तो अज्ञान को तोड़ने की चेष्टा चलती है और अज्ञान अबोध हो जाए तो उसे
तोड़ने का कोई कारण नहीं रह जाता।
मनुष्यता
को विश्वास ने जितने अज्ञान में रखा है, उतना किसी और बात ने नहीं। अगर
मनुष्य जाति इतने अज्ञान से भरी है, तो उसका सौ में से।
निन्यानबे प्रतिशत कारण विश्वास की हजारों-हजारों वर्ष की शिक्षा है। विश्वास
अज्ञान की सुरक्षा बन जाता है। अज्ञान को फिर वह नष्ट नहीं होने देता है। क्योंकि
यह खयाल अगर पैदा हो गया कि हम जानते हैं, बिना जाने हुए तो
फिर जानने की यात्रा, अन्वेषण बंद हो जाने ही वाला है।
कल
मैं कहा, विश्वास नहीं है, उसका द्वार। आज कहना चाहता हूं,
विचार है उसका द्वार। और विचार बिलकुल ही उल्टी चित्त-दिशा है।
विचार
के क्या-क्या तत्व है?
विचार
का पहला तत्व है संदेह,
डाउट। संदेह नहीं तो विचार नहीं। विश्वास का पहला तत्व है संदेह
नहीं। विचार का पहला तत्व है संदेह। जो संदेह कर सकता है, वही
विचार करेगा असल में जो विचार करने की हिम्मत जुटाता है, वह
संदेह करता है। जो विचार करने से डरता है, वह संदेह ही नहीं
करता। वह आंख बंद करता है और मान लेता है। संदेह--एक छोटी सी घटना से समझाऊं।
अरस्तू
तो इतना बड़ा विचारक हुआ,
लेकिन तथाकथित बड़े से बड़े विचारकों के मन में भी विश्वास के कोने
होते हैं, विश्वास के फोकस होते हैं। बड़े से बड़े विचारक कहे
जाने वाले लोगों के भी मन के बहुत से हिस्से विश्वास के ही होते हैं। ऑलिवर लाज
जैसे बुद्धिमान आदमी, वैज्ञानिक--लेकिन ताबीज बांधकर सोएगा,
भूतों से डर है! भूत-प्रेत से वह डरता है! पिकासो का नाम आप जानते
हैं--बड़ा चित्रकार, इतना बुद्धिमान, इतना
विचारशील, लेकिन न मालूम कितने गड़े ताबीज बांधता है! बहुत
डरता है--भूत-प्रेम से बहुत डरता है। कहीं कोई विश्वास का कोना भी है।
ऐसे
ही अरस्तू बहुत विचार करता है, लेकिन विश्वास के भी कोने हैं, जिनका उसे खयाल भी न हो। उसने अपनी किताब में लिखा है, स्त्रियों के दांत पुरुषों से कम होते हैं, क्योंकि
यूनान में हजारों साल से यह बात मानी जाती थी कि स्त्रियों के दांत पुरुषों से कम
होते हैं! असल में पुरुष यह मानने को राजी ही नहीं हैं कि स्त्रियों में कुछ भी
उनके बराबर हो सकता है। दांत भी कैसे बराबर हो सकते हैं! स्त्रियों के दांत,
और पुरुषों के बराबर! यह पुरुष कैसे मान सकते हैं! यह पुरुष के
अहंकार को बड़ी चोट की बात होगी। लेकिन कितना बड़ा आश्चर्य है कि किसी ने कभी स्त्री
के दांत गिनने की कोशिश नहीं की। यह बात प्रचलित थी, प्रचलित
रही और लोगों ने मान ली! अब स्त्री के दांत कितनी सुलभ बात है। घर-घर में
स्त्रियां है, पुरुषों से थोड़ी ज्यादा ही है, कम नहीं हैं, और अरस्तू महाशय की तो दो औरतें थीं,
एक भी नहीं। दो में से किसी मिसेज अरस्तू को वह कह सकते थे कि एक
क्षण बैठ जाओ और जरा मुंह खोल दो, मैं दांत गिन लूं। लेकिन
यह उन्होंने नहीं कहा! यह मान लिया। चलता था कि स्त्री के दांत कम है। और अरस्तू
जैसे बुद्धिमान आदमी ने अपनी किताब में लिख दिया कि स्त्रियों के दांत कम होते
हैं। और जब अरस्तू ने लिख दिया तो सारे लोगों को तो कहना ही क्या। अरस्तू का वाक्य
तो प्रमाण है। एक हजार साल तक अरस्तू के मरने के बाद भी यह बात चलती रही कि
स्त्रियों के दांत कम है। कल्पना नहीं होती। कि इतने लोग हैं, किसी ने संदेह न किया कि एक बार संदेह करे और दांत गिन लें।
विश्वास
की जो परंपराएं हैं वह संदेह करती ही नहीं। और जब पहली बार आदमी ने स्त्री के दांत
गिनकर कहा कि स्त्री के दांत पुरुष के बराबर है तो लोगों ने कहा, तुम्हारा
दिमाग तो ठीक है? कभी स्त्रियों के दांत पुरुषों के बराबर
हुए हैं? ऐसा कभी सुना है? अरस्तू की
किताब देखी है? अरस्तू गलत लिखेगा? अरस्तू
अज्ञानी है? तुमने कुछ गिनती में गलती कर ली होगी। या कोई
गलत अपवाद स्त्री मिल गयी होगी। दांत तो स्त्रियों के कम ही होते हैं, लिखा है किताब में। संदेह की वृत्ति न हो तो अतीत का पिछड़ा हुआ ज्ञान
भविष्य के विकसित मस्तिष्क के लिए जंजीर बन जाता है। और ध्यान रहे, कल जो हम जानते थे उससे आज हम ज्यादा जानते हैं। और आज जो हम जानते हैं,
कल हम उससे ज्यादा जानेंगे। हजार साल पहले जो हम जानते थे उससे हम
आज बहुत ज्यादा जानते हैं।
ज्ञान
के स्रोत, पीछे नहीं हैं, ज्ञान के स्रोत निरंतर भविष्य में
खुलते चले जाते हैं। लेकिन संदेह न करने वाली वृत्ति अतीत के पिछड़े हुए ज्ञान से
जकड़ जाती है। और नए द्वार बंद हो जाते है। खुलना मुश्किल हो जाता। संदेह बहुत
अदभुत गुण है। संदेह का अर्थ है, जो कहा गया है, जो सुना गया है, जो माना जाता है, उस पर फिर से समस्या खड़ी करना, उस पर प्रश्नवाचक
लगाना। कुछ भी जीवन में जो महत्वपूर्ण है उसे बिना प्रश्न के स्वीकार न कर लेना।
उस पर प्रश्न खड़ा करना पूछना, खोजना, जांचना,
पड़ताल करना। लेकिन अगर संदेह ही खड़ा न किया तो ये सब वृत्ति
हुई--कमजोर वृत्ति हुई--तो सब रुक जाता है। फिर कोई पूछता नहीं, फिर कोई मानता नहीं। हजारों सवाल हैं जिंदगी के जो वहीं ठहरे हुए हैं,
जहां हजारों साल पहले उन्हें लोग छोड़ गए क्योंकि उन पर कोई संदेह
नहीं उठा उन पर कोई विचार नहीं उठा। और फिर हम दोहराए चले जाते हैं। दोहराए चले
जाते हैं आर दोहराने का एक परिणाम होता है मनुष्य के चित्त पर दोहराने का सम्मोहक
असर होता है। कोई चीज दोहराए चले जाएं निरंतर, कि बिना फिक्र
किए, कि कोई मानता है कि नहीं मानता है। दोहराते-दोहराते वह
मानना शुरू कर देता है। वह भूल जाता है कि मैं नहीं मानता था। प्रश्न विलीन हो
जाता है। सारे विज्ञापनदाता यही कर रहे हैं।
रास्ते
पर आप जाते हैं और बड़े-बड़े बिजली के अक्षरों में लिखा है हमाम साबुन। पहले तो एक
ही तरफ के अक्षरों में लिखा रहता था, अब जलते-बुझते अक्षरों में लिखा जा
रहा है। उन मनोवैज्ञानिकों ने कहा कि अगर तुमने बिना जलने बुझने वाले अक्षरों में
लिखा तो आदमी एक ही बार पढ़ता है। और अगर अक्षर बुझे फिर जले, फिर बुझे, फिर जले तो जितनी देर आदमी उस बार्ड के
पास से निकलता है उसको उतनी ही बार पढ़ना पड़ता है जितनी बार अक्षर जलते हैं,
बुझते हैं। उसके माइंड में बार-बार रिपीट होता है, हमाम साबुन। हमाम साबुन। हमाम साबुन। उसके मस्तिष्क में घुसाया जा रहा है।
रेडियो खोले हमाम साबुन। अखबार खोले, हमाम साबुन। जहां भी
जाए हमाम साबुन। बस उससे कहो मत कुछ। सिर्फ हमाम शब्द को उसके भीतर दोहराते चले
जाओ, भीतर डालते चले जाओ। वह कल दुकान पर खरीदने जाएगा।
सैकड़ों साबुन रखे है। दुकानदार पूछता है, कौन सा साबुन आपको
पसंद है? वह कहता है, हमाम साबुन।
सिर्फ बेहोशी में बोल रहा है, उसे कुछ पता नहीं, वह क्या कह रहा है। होश में नहीं है, वह आदमी। वह
हिप्नोटाइज्ड है। वह सिर्फ बेहोश हैं। वह कह रहा है हमाम साबुन। यह हमाम साबुन,
दोहरा-दोहरा कर उसके मस्तिष्क के रंग-रंग, रेशे-रेशे
में भर दिया गया है। वह उसकी जबान से निकल रहा है। सोचता है यह मैं कह रहा हूं,
यह मैं सोचकर कह रहा हूं। यह वह सोचकर नहीं कह रहा है। यह सिर्फ
विज्ञापन की कला उसके भीतर डाल दी है। जब आप कहते हैं, मैं
हिंदू हूं तो आपने सोचकर कहा है? वही हमाम साबुन। आप कहते
हैं, मैं मुसलमान हूं। अपने कभी सोचकर कहा है? वही हमाम साबुन। इनमें कोई फर्क नहीं है। बचपन से दिमाग में डाला जा रहा
है, कि तू हिंदू है, तू मुसलमान है।
बचपन से समझाया जा रहा है। यह भगवान है। यह कृष्ण। यह राम। यह क्राइस्ट। यह
मोहम्मद है, यह पैगंबर है। यह कुरान--यह गीता--यह पवित्र
ग्रंथ हैं। इनमें सत्य भरा हुआ है। यह बचपन से दोहराया जा रहा है, दोहराया जा रहा है, दोहराया जा रहा है। इतने बचपन से
दोहराया जा रहा है, जब कि सवाल उठ ही नहीं सकता था। इतने
बचपन से यह बात दोहराई जा रही है कि प्रश्न उठाने की क्षमता भी न थी। इसीलिए सभी
धार्मिक लोग छोटे-छोटे बच्चों को धार्मिक शिक्षा देने के लिए बड़े लालायित रहते
हैं। क्योंकि जब प्रश्न उठने शुरू हो जाएंगे। अगर बीस साल के जवान से आप पहली बार
कहे कि तुम हिंदू हो तो वह पूछेगी, क्यों? क्या मतलब? क्यों हम हिंदू हैं? लेकिन दो साल के छोटे बच्चे के दिमाग में डाला जा रहा है कि तुम हिंदू हो।
उसे कुछ पता नहीं, प्रश्न पूछने की कला उसे मालूम नहीं।
संदेह अभी सजग नहीं। उसके दिमाग में भर गए हैं बचपन से। जब प्रश्न उठने शुरू होंगे
उससे बहुत गहरे में, उससे बहुत अनकांशस में तुमने भर दिया वह
सब। वह अब कभी प्रश्न नहीं कर सकेगा। और जिंदगी भर उसे मानता चला जाएगा।
हम
सार लोग उसी तरह की प्रचारित बातों के बीच बड़े हुए हैं। हमारा मस्तिष्क कंडीशंड
है। सब संस्कारित है। अब अगर सत्य की खोज पर किसी को निकलना है और प्रभु का मंदिर
खोजना है तो उसे अपने एक-एक संस्कार पर प्रश्न उठाना पड़ेगा। एक-एक संस्कार को
उखाड़कर पूछना पड़ेगा,
ऐसा है? निश्चित ही बड़ी बेचैनी पैदा हो जाएगी,
बहुत रेस्टलेसनेस पैदा हो जाएगी, बहुत अराजकता
पैदा हो जाएगी। बहुत क्योंकि, भीतर सब गड़बड़ हो जाएगा--जो
सुव्यवस्थित है। लेकिन इसके पहले कि कोई उस लंबी यात्रा पर निकले, जहां कि सब में सब सुव्यवस्थित हो जाएगा उसके पहले जो झूठी सुव्यवस्था
बनायी गयी है वह टूट जाना जरूरी है। इस अराजकता से गुजरना ही पड़ेगा। एक-एक संस्कार
को पूछना पड़ेगा कि क्या ऐसा है? क्या मैं हिंदू हूं? किस कारण हिंदू हूं? इस कारण कि किसी घर में पैदा हो
गया? किसी के घर में पैदा होने से कोई हिंदू कैसे हो सकता है?
कम्युनिस्ट के घर में पैदा होने से कोई बेटा कम्युनिस्ट होता है?
कांग्रेसी के घर में पैदा होने सक कोई बेटा कांग्रेसी होता है?
अगर यह नहीं होता है तो हिंदू के घर में पैदा होने से कोई हिंदू
कैसे होगा? झेन के घर में पैदा होने से कोई झेन कैसे होगा?
ये बीसों विचार धाराएं हैं विचारधाराओं का जन्म से क्या संबंध है?
जन्म से तो कोई भी संबंध नहीं है। खून से क्या संबंध है? विचारधारा का खून से कोई संबंध नहीं है। विचारधारा का वीर्यअणुओं से क्या
संबंध है? कोई भी संबंध नहीं है। आप किसी भी पिता से पैदा
हों इससे आपका हिंदू या मुसलमान होने को कोई भी तो संबंध नहीं है। यह तो बिलकुल ही
असंगत बात है जो भी आपके मस्तिष्क मग जोड़ी और घूसाई जा रही है। गीता के सही और गलत
होने से आपके किसी घर में खास घर में पैदा होने का क्या संबंध है? महावीर के तीर्थंकर होने से आपको किसी मां-बाप से पैदा होने का क्या संबंध
है? कोई भी तो संबंध नहीं है। लेकिन कभी इस पर प्रश्न नहीं
उठाया। इस पर कभी प्रश्नवाचक नहीं लगाया। कभी संदेह नहीं किया। इसलिए दुनिया
विभाजित है। और जिस दिन एक-एक आदमी प्रश्न खड़ा करेगा उसी दिन दुनिया अविभाजित हो
जाएगी।
आज
सारी दुनिया में युद्ध है। रूस भयभीत है अमरीका से। अमरीका भयभीत है रूस से। और
बेटे पूछ ही नहीं रहे हैं कि इस भय की क्या जरूरत है? पाकिस्तान
भयभीत है हिंदुस्तान से। हिंदुस्तान भयभीत है पाकिस्तान से। दोनों एक दूसरे से
भयभीत होकर युद्ध की तैयारी किए चले जाते हैं। कोई भी नहीं पूछता कि भयभीत होने की
क्या जरूरत है? रहने के लिए पृथ्वी पर एक दूसरे से भयभीत
होने के लिए कौन सी आवश्यकता है। लेकिन प्रश्न ही कोई नहीं उठाएगा। भय स्वीकृत कर
लिया जाएगा। झगड़े मान लिए जाएंगे और जारी रहेंगे।
जब
तक समाज का मस्तिष्क,
व्यक्ति का मस्तिष्क जीवन के एक-एक प्रश्न को वापस नहीं जगा लेता और
आस्थाओं के सारे पर्दे नहीं उखाड़ देता तब तक--तब तक नए चित्त का जन्म नहीं होगा।
और नया चित्त ही प्रभु के निकट पहुंच सकता है, पुराना चित्त
नहीं। वह जो ओल्ड माइंड है--ओल्ड माइंड का, पुराने चित्त का
मतलब बूढ़े का चित्त नहीं है--बूढ़ा चित्त--बूढ़े का चित्त नहीं। बूढ़े आदमी के भी
जाता चित्त हो सकता है, अगर वह सोचता है, खोजता है, विचार करता है। अगर उसका चित्त क्लोज्ड
नहीं हो गया है। बंद नहीं हो गया है, खुला है अगर उसके चित्त
की दीवारें, द्वार-दरवाजे खुले हैं। सूरज की रोशनी आती है।
नई, हवाएं आती हैं नई, बाहर की सुगंध
आती है, नयी, अगर उसने अपने सारे चित्त
को बंद कारागृह बना लिया तो एक बूढ़े आदमी के पास भी जवान चित्त होता है। और अगर एक
जवान का चित्त भी बंद है तो उसके पास बूढ़ा चित्त होता है। हिंदुस्तान में, इस देश में तो जवान चित्त खोजना मुश्किल है। जवान आदमी के पास ही खोजना
मुश्किल है तो बूढ़े आदमी के पास खोजने का तो कोई सवाल नहीं कर सकता। क्यों?
क्योंकि परमात्मा सदा जवान है। परमात्मा के बूढ़े होने का खयाल सुना
है कभी? परमात्मा सदा जवान है। परमात्मा सदा नया है। जीवन
सदा नया है, अस्तित्व सदा जाता है, प्रतिपल
जाता और नया है अस्तित्व। अगर हम चारों तरफ जगत को देखें तो सब नया है वहां। आदमी
के मन को भर देखें तो वहां पुराना मिलेगा। जगत में भी कहीं पुराना नहीं मिलेगा। जो
पत्ते कल थे वे आज नहीं रह गए हैं। जो सूरज कल निकला था वह आज नहीं निकला है। जो
बदलियां कल घिरी थी, वह आज नहीं घिरी हैं। जो हवाएं कल बही
थी, वे आज कहां है? जो गंगा में पानी
कल था वह कहां पहुंच गया होगा? वह कहां होगा, अब वह किन किनारों पर होगा? कुछ भी वही नहीं है जो
क्षण भर पहले था। सब तीव्रता से बदलता, भागा चला जा रहा
है--सिर्फ आदमी के चित्त को छोड़कर। आदमी का चित्त क्यों नहीं बदलता तेजी से?
इतनी ही तेजी से अगर आदमी का चित्त बदले, अगर
जीवन की गति के साथ आदमी के चित्त का तारतम्य न हो तो जीवन अलग हो जाता है,
आदमी अलग हो जाता है। आदमी अपने कैपसूल में बंद हो जाता है। और
जिंदगी भागी चली जाती है। और तब इन दोनों का मिलन असंभव हो जाता है। जीवन से मिलना
हो तो जीवन की तरह सतत प्रवाहशील होना जरूरी है। प्रश्न पूछने वाला चित्त प्रवाहित
होता है। क्योंकि प्रश्न का मतलब ही यह है कि हम पुराने को तोड़ने का उपाय करते हैं,
द्वार खोते हैं, नए की तरफ उत्सुकता जाहिर
करते हैं। लेकिन हम प्रश्न ही नहीं--हम प्रश्न पूछते ही नहीं। हमें जैसे प्रश्न
पूछना एक भय का कारण मालूम पड़ता है--पूछो ही मत। विचार जिसे करना है, उसे यह भय छोड़ देना पड़ेगा। उसे पूछना पड़ेगा। संदेह उठाना पड़ेगा। उस सब पर
भी, उन सारे सत्यों पर भी जो कहने वालों को असंदिग्ध रहे हों,
उन पर संदेह उठाना पड़ेगा। क्योंकि तभी हम भी उस जगह पर पहुंचेंगे
जहां असंदिग्ध सत्य का हम भी अनुभव कर सकें। संदेह के मार्ग से कोई असंदेह तक
पहुंचता है। विश्वास के मार्ग से आदमी संदेह में ही जीता है और मर जाता है।
विश्वास ऊपर होता है, भीतर संदेह होता है। संदेह को दबाए चले
जाओ, विश्वास को थामे चले जाओ। पूछो किसी आदमी से जो कहता है
कि ईश्वर है। खोलो थोड़ी उसकी छाती। उससे कहो कि थोड़ा भीतर खोजो--कहीं ऐसा तो नहीं
है कि भीतर शक हो, संदेह है, कि नहीं
है। वह आदमी कहेगा, नहीं, मेरा दृढ़
विश्वास है, और जितने जोर से वह कहे मेरा दृढ़ विश्वास है,
जानना कि भीतर उतना ही गहरा संदेह है। उसी गहरे संदेह को दबाने के
लिए विश्वास की जरूरत पड़ी नहीं तो दृढ़ विश्वास की जरूरत न थी।
विश्वास
किस चीज की दवा है?
विश्वास संदेह को दबाने की पद्धति है। संदेह को मिटाना है। दबाना
नहीं। इसलिए संदेह को पूरा प्रकट होने दो, ताकि वह प्रकट हो
और उड़ जाए। प्रकट हो, सत्य से टकराए, नष्ट
हो जाए। इतना ध्यान रहे कि कोई संदेह सत्य को नष्ट नहीं कर सकता है। इसलिए संदेह
से भयभीत होने की कोई भी जरूरत नहीं। संदेह टकराएगा सत्य से, सत्य बचेगा, संदेह खो जाएगा। लेकिन जो भयभीत हैं,
वे शायद संदेह को सत्य से ज्यादा से ज्यादा बड़ा मानते हैं। सभी
विश्वासी, सभी श्रद्धावान संदेह को सत्य से बड़ा मानते है,
इसलिए वह कहते हैं, संदेह मत करो, विश्वास करो। संदेह क्या सत्य से बड़ा है, कि उससे
सत्य मिट जाएगा। संदेह बच जाएगा। संदेह की क्या शक्ति है सत्य के समक्ष? लेकिन हां, संदेह विश्वास से बड़ा है। इसलिए विश्वास
घबड़ाता है। संदेह उठेगा, विश्वास टूट जाएगा। लेकिन विश्वास
की तो दो कौड़ी कीमत नहीं है। असली सवाल तो सत्य का है जिसके समक्ष सत्य गिर जाता
है, टूट जाता है, नष्ट हो जाता है। खो
जाता है। सत्य के समक्ष संदेह वैसे ही मिट जाता है जैसे दिए के समक्ष अंधकार मिट
जाता है। दिया जला और अंधकार विलीन। लेकिन दिया मत जलाओ, द्वार
दरवाजे बंद कर अंधेरे को छिपा लो। उससे अंधेरा मिटेगा नहीं। उससे अंधेरा और सघन
होगा। द्वार दरवाजों से थोड़ी बहुत रोशनी आती थी वह भी नहीं जाएगी। अंधेरा गहन
होगा। सब दरवाजे बंद कर लो। दरवाजे पर पहरा लगाकर बैठ जाओ तो भीतर अंधेरा और गहन
होगा।
विश्वासी
आदमी के भीतर संदेह बहुत गहन होता है संदेह को मिटाना हो, द्वार
दरवाजे खोलो--पूछो, डरो मत। विचार की पहली सीढ़ी है संदेह।
दूसरी सीढ़ी है तर्क, दूसरी सीढ़ी है तर्कना, दूसरी सीढ़ी है रीजनिंग। सिर्फ पूछो ही मत--ऐसा भी हो सकता है कि पूछते
सिर्फ इसलिए हो कि कोई बंधा हुआ उत्तर है, वही दे देने का
इंतजाम है। पूछ लेते हो, फिर बंधा हुआ उत्तर दे देते हो। एक
आदमी पूछता है, मैं कौन हूं? फिर बंधा
हुआ उत्तर है, कहता है, मैं? मैं ब्रह्म स्वरूप, सत-चित्त-आनंद। मैं आत्मा हूं।
यह उत्तर किताब से सीखा हुआ तैयार है। उसी किताब में उसने यह भी पढ़ा है कि पूछो
मैं कौन हूं? उसी किताब में यह भी पढ़ा है कि उत्तर हो कि मैं
ब्रह्म हूं। यह बेमानी है, यह पूछना किसी अर्थ का नहीं है।
पूछो तो, तर्क करो, तो पूछने की कोई
सार्थकता होती है। तोड़ो, बंधे हुए उत्तर मत दो। अगर बंधे हुए
उत्तर देने हैं तो पूछना बेमानी हो गया। प्रश्न बनाया और पहुंच भी लिया, वह श्रम व्यर्थ गया। प्रश्न पूछना है तो उत्तर आने दो। सीखा हुआ उत्तर
नहीं चाहिए। और जो उत्तर आए तर्क की कसौटी पर कसो। देखा कि वह ठीक मालूम पड़ता हैं
कि नहीं।
एक
फकीर एक संध्या अपने घर आया। किसी ने रास्ते में भिक्षा में उसे कुछ मांस दे दिया
है। वह मांस घर लाकर उसने रखा। पत्नी से कहा, तैयार कर, मैं
दस-पांच मित्रों को निमंत्रण दे आता हूं। पत्नी परेशान है। उसने सोचा, छिपा दो मांस को। दस-पांच मित्रों की परेशानी में मत पड़ो। पति लौटकर आया।
उसने कहा, क्यों बैठी है तू? चूल्हा
नहीं जला? उसने कहा, वह तुम्हारी जो
बिल्ली है, मांस खा गयी। उसके पति ने कहा, ऐसा क्या? उसने कहा, हां। वह
बिल्ली को पकड़ लाया, पड़ोस से एक तराजू ले आया। तीन पौंड मांस
था बिल्ली को तराजू पर रखा। बिल्ली तीन पौंड निकली। फकीर ने कहा इज इन दिस दि मिट,
व्हेयर हज दी कैट? अगर यह मांस है तो बिल्ली
कहां है? मान नहीं लिया कि बिल्ली खा गयी, तीन पौंड मांस बिल्ली खा जाएगी तो बिल्ली का वजन तो बढ़ जाएगा। संयोग की
बात, बिल्ली का खुद वजन तीन पौंड है। उस फकीर ने कहा,
तू ठीक कहती है कि बिल्ली मांस खा गयी। यह तो मांस हो गया। बिल्ली
कहां है? या अगर यह बिल्ली है तो कृपा कर द्वार दरवाजे खोल,
मांस कहां है--बाहर निकाल।
तौलने
का अर्थ है तर्क। तर्क का अर्थ है जो कहा जा रहा है उसे तोलो। उसे पहचानो। कहा जा
रहा है, मंदिर की मूर्ति सबकी रक्षा करती है। जरा मंदिर की मूर्ति के धक्का देकर
देखो, अपनी भी रक्षा कर पाती है कि नहीं कर पाती है! तो पता
चलेगा, अपनी भी रक्षा कर पाती है या नहीं कर पाती है। तो फिर
सबकी रक्षा भी कर सकेगी। सोमनाथ के मंदिर पर हमला हुआ, तो
पंडितों ने, पुजारियों ने क्या किया? आस-पास
के राजपूतों ने खबर भेजी कि हम आएं रक्षा को? तो पुजारियों
ने क्या उत्तर दिया? पुजारियों ने कहा कि जो सबका रक्षक है
उसकी रक्षा तुम करोगे? नास्तिक हो? अधार्मिक
कहो? जो सबकी रक्षा करने वाला है, उसकी
रक्षा तुम करोगे? रह गए बिचारे चुप। क्या जवाब देते? तर्क की तो क्षमता नहीं है। तर्क की क्षमता होती तो हारता यह मुल्क--ऐसी
हार छोटी-छोटी बातों में? चुप रह गए कि ठीक है, जब पुजारी कहते हैं तो ठीक कहते हैं। और जब दुश्मन गजनी ने हमला किया कि
पांच सौ पुजारी प्रार्थना कर रहे हैं भगवान से कि हमारी रक्षा करो, और वह गजनी घुस गया उनकी प्रार्थना के बीच। उसने गदा मारी और वे भगवान,
जिनके सामने पांच सौ लोग प्रार्थना करते थे, और
अरबों लोगों ने प्रार्थना की होगी, वे भगवान चारों खाने
चित्त हो गए, चार टुकड़े हो गए।
लेकिन
इतनी सी बात की जांच तो राजपूत भी आकर कर सकते थे। वे भी एक धक्का देकर देख सकते
थे कि मूर्ति रक्षा है। नहीं, पर विचारणा नहीं है। नहीं, पर सोचना नहीं है, तोलना नहीं है। जो वह दिया उसे
चुपचाप मान लेंगे। उसे अंधे की तरह मान लो। तर्क का अर्थ है, तोलो। उसके दोनों पहलू तोलो। जो दावा किया जा रहा है उसकी परीक्षा करो कि
दावा ठीक या नहीं। उसके विपरीत विकल्प खोजो और देखो कि क्या ठीक है? पच्चीस विकल्प हो सकते हैं, कौन ठीक है, इसकी बुद्धिगत कसौटी करो। लेकिन अबुद्धि पूर्वक स्वीकार चल रहा है। लेकिन
कौन करे? और धार्मिक, तथाकथित धार्मिक
समझाते हैं, तर्क मत करना। तर्क करना ही मत। तर्क आदमी को
नास्तिक बना देता है, और मैं आपसे कहता हूं कि जो तर्क करके
नास्तिक बनता है, अगर तर्क करता ही चला जाए तो बहुत देर तक,
नास्तिकता नहीं टिकेगी। नास्तिकता भी खो जाएंगी। अधूरे तर्क पर कोई
रुक जाए तो नास्तिक रह जाता है। अगर पूरे तर्क पर कोई चला जाए तो तर्क को भी पार
कर जाता है। और जो कभी नास्तिक नहीं हुआ वह कभी ठीक से आस्तिक नहीं हो सकता है।
आस्तिक होने के लिए नास्तिकता से गुजर जाना जरूरी है। नास्तिकता का कुल मतलब इतना
है कि हम तर्क करते हैं, सोचते हैं, विचार
करते हैं। जो आदमी नास्तिकता से नहीं गुजरा उसे आदमी ने न कभी सोचा, न कभी खोजा, वह आदमी डरा हुआ है और भय के कारण उसने
भगवान को पकड़ रखा है। भगवान उसकी विचारगत निष्पत्ति नहीं बनी, भगवान उसकी खोज का अंतिम निष्कर्ष नहीं बना, निष्पत्ति
नहीं बनी, पकड़ लिया है।
दूसरा
सूत्र है तर्क--सब तरफ से सोचो, खोजो, पूछो। सारे विकल्प
देखो, जल्दी से कोई एक विकल्प मत पकड़ लो। जल्दी से कोई पक्ष
मत बना लो। निष्पक्ष भाव से खोजो, कौन क्या कहता है? इस मुल्क में चार्वाक ने कुछ तर्क दिए हैं, लेकिन
कोई नहीं सुनने जाएगा। लेकिन जो चार्वाक को नहीं सुनता है वह कभी भी ठीक अर्थों
में प्रभु के द्वार में प्रविष्ट नहीं हो सकता। चार्वाक को सुनकर जो खोजने लगता है
वह शायद प्रवेश पा भी जाए, लेकिन चार्वाक की तरफ कानों में
अंगुलियां डालकर भी निकल जाता है वह बहरा आदमी है, वह अभी
आगे नहीं जा सकता है। इतना भय क्या है? चार्वाक की एक किताब
नहीं बची--तर्कपूर्ण थी। आग लगा दी होगी। चार्वाक के संबंध में जो शब्द मिलते हैं
वे उनके विरोधियों की किताबों में लिखे हुए हैं, और कुछ
सूत्र नहीं मिलते। आश्चर्यजनक है। हमने जैसे तर्क को जड़ से काटने की कोशिश की है।
कहीं भी तर्क हो, विचार हो, उसे खत्म
करो और अविचार को, विश्वास को दृढ़ करो, मजबूत करो। इसी कारण इस देश में विज्ञान का जन्म नहीं हो सका। विज्ञान
वहां पैदा होता है जहां तर्क है। विज्ञान तर्क की फल स्रृति है। विज्ञान यहां पैदा
नहीं हुआ क्योंकि तर्क ही हमने कभी हनीं किया। और आज भी हम तर्क नहीं कर रहे हैं
तो विज्ञान इस देश में पैदा नहीं होगा। और जो देश विज्ञान ही पैदा नहीं कर सकता,
वह देश धर्म कैसे पैदा करेगा? विज्ञान है
पदार्थ का सत्य, और अगर हम पदार्थ का भी सत्य जानने में
असमर्थ है तो परमात्मा का सत्य कैसे जान सकेंगे? वह तो बहुत
ऊंची बात है। वह तो बहुत गहरी बात है। पदार्थ तो बहुत बाहरी बात है, पदार्थ तो बहुत स्थूल है। तो पदार्थ वह है जो दिखायी पड़ता है। परमात्मा वह
है जो दिखायी नहीं पड़ता है। जिनकी पकड़ कभी दिखायी पड़ने वाले पर भी नहीं बैठ पाती,
वे अदृश्य को पकड़ लेंगे, यह मात्र कल्पना हो
जाती है।
विज्ञान
से गुजरना भी जरूरी है,
नास्तिकता से गुजरना भी जरूरी है, तर्क से
गुजरना भी जरूरी है। और इससे जो गुजरता है उसको एक प्रौढ़ता, एक
मेच्योरिटी, उसके मस्तिष्क को एक बल मिलता है। उसके पैर किसी
ठोस बुनियाद पर खड़े होने लगते हैं। फिर अगर वह किसी दिन ईश्वर के द्वार पर खटखटा
देता है और द्वार में प्रविष्ट हो जाता है तो उसके पीछे एक आधारशिला होती है। और
फिर वापस नहीं लौटाया जा सकता। लेकिन जो तर्क से
नहीं गुजरा और ईश्वर के पास पहुंच गया कल्पना, में
उसे तत्क्षण वापस लौटाया जा सकता है। उसके पीछे कोई आधार नहीं, कोई बुनियाद नहीं। उसके मकान की कोई नींव नहीं, उसने
मकान बना लिया है। बिना नींव का वह मकान है।
यह
एक दूसरी बात कहना चाहता हूं--एक-एक बात पर तर्कना की जरूरत है। तर्क से जो हीन है, तर्क से
जो नीचे है वह स्वीकार के योग्य नहीं है। उसे स्वीकृति नहीं दी जानी चाहिए। सोचा
ही जाना चाहिए। विश्वास सिखाता है समर्पण। विचार सिखाता है संघर्षण। विश्वास कहता
है, सब छोड़कर मेरी शरण में आ जाओ--सब छोड़ो, तुम सोचो मत, शरण में आ जाओ। विश्वास सिखाता है किसी
की शरण में आ जाओ। तर्क सिखाता है--अशरण हो जाओ। किसी की शरण मत जाना। खुद सोचना,
खुद विचार करना--संघर्ष। संघर्षण करना विचार से--यह ठीक है, वह ठीक है। यह ठीक नहीं है, वह ठीक नहीं है।
खोजना--खोजना। जरूरी नहीं है कि खोज से आज ही सत्य मिल जाएगा। लेकिन खोजने से,
भीतर जो खोजने वाली चेतना है वह ज्यादा प्रगाढ़ ज्यादा मजबूत,
ज्यादा प्रौढ़ हो जाएगी। वही असली सवाल है। वही महत्वपूर्ण सवाल है।
तीसरी
सीढ़ी है चिंतन। तर्क है रीजनिंग, चिंतन है कंटेप्टलेशन। सारा तर्क कर डालो,
सार तर्क देख डालो। आस्तिक को सुनो, नास्तिक
को सुनो, ईश्वर के पक्षपाती को सुनो; विपक्षी
को सुनो, जो भी चारों तरफ तर्क दिए गए हैं जीवन के सत्य के
लिए, द्वार खुला छोड़ दो। सब को भीतर आने दो। लेकिन फिर स्वयं
सोचो। निर्णायक बनो। चिंतन का अर्थ है, फिर सोचो, कौन ठीक है, कौन मेरी बुद्धि की कसौटी पर ठीक है,
फिर सोचो, कौन ठीक है, कौन
मेरी बुद्धि की कसौटी पर ठीक है, इसके चिंतन में उतरो। और
एक-एक चीज के सारे पहलुओं को खोजो। जल्दी नहीं है। घबड़ाहट नहीं है, जल्दी पकड़ लेने का का आग्रह नहीं है। एक-एक चीज को उल्टाओ, उसके चारों तरफ से देखो। आस्तिक कहता है, दुनिया है
तो जरूर किसी ने बनायी होगी। उस बनाने वाले का नाम भगवान है। बिना बनाए दुनिया
कैसे बन सकती है? सुनो उसकी तो। खोजो इस बात को कि यह ठीक तो
कहता है। बिना बनाए दुनिया कैसे बन सकती है। नास्तिक की बात भी सुनो, वह कहता है, अगर दुनिया बनाए बिना नहीं बन सकती तो
मैं यह पूछता हूं कि भगवान को किसने बनाया है? सुनो उसकी
बात। वह भी तो अर्थपूर्ण बात कहता है। वह कहता है, अगर
दुनिया बिना बनाने वाले के नहीं बन सकती तो भगवान को भी तो किसी ने बनाया होगा।
फिर भगवान को किसने बनाया है? और अगर कहो कि बनाया किसी ने
है तो पूछता है, उसको किसने बनाया है? और
तब पता चलता है कि यह तर्क ईश्वर के लिए बेमानी है। इससे ईश्वर न सिद्ध होता है,
न असिद्ध होता है क्या, कि ये दोनों व्यर्थ हो
जाते हैं। अगर कोई व्यक्ति ठीक से चिंतन करेगा तो वह पाएगा कि जीवन के परम सत्य के
संबंध में कोई भी तर्क कुछ नहीं सिद्ध कर पाता। तर्क दलील देता है, एक बात कहता है। लेकिन ठीक विपरीत तर्क दूसरी दलील देता है, दूसरी बात कहता है। अगर दूसरे तर्क को सुना है ही नहीं तो एक तर्क को तुम
पकड़ लोगे। लेकिन यह चिंतन न हुआ। तुम आस्तिक हो जाओगे। नास्तिक हो जाओगे। यह चिंतन
न हुआ। चिंतन का अर्थ है--एक-एक तर्क को निष्पक्ष रूप से खोजो। खोजकर पता चलेगा कि
कोई भी तर्क सत्य को सिद्ध नहीं कर पाता। कोई भी तर्क सिद्ध नहीं कर पाता। एक तर्क
जो सिद्ध करता है, दूसरा उसे असिद्ध कर जाता है। और तब एक
बहुत बड़ी प्रौढ़ता उपलब्ध होगी कि तर्क भी बुद्धि का एक खेल है। विश्वास बुद्धि के
नीचे हैं। तर्क बुद्धि के भीतर है। लेकिन तर्क भी एक खेल है, और जिस दिन यह अनुभव होता है, तर्क करने वाले
विचारशील मस्तिष्क को जब यह पता चलता है कि तर्क भी एक खेल है, तो तर्क से ऊपर उठने की संभावना का द्वार खुल जाता है।
मैंने
सुना है, एक आदमी ने अमरीका के एक बड़े नगर में यह खबर की कि मैं एक ऐसा घोड़ा लाया
हूं, जैसा घोड़ा पृथ्वी पर कभी नहीं हुआ। उस घोड़े का मुंह
वहां है जहां पूंछ होनी चाहिए और पूंछ वहां है जहां मुंह होना चाहिए। जिन्हें
देखना हो वह फलां-फलां थियेटर में सांझ पहुंच जाए, इतने-इतने
रुपए का टिकट होगा। सारा गांव टूट पड़ा। अगर आप भी रहे होंगे उस गांव में तो आप भी
जरूर गए होंगे। ऐसे घोड़े को देखने से कौन बच सकता है? लोग
चिल्लाने लगे, भीड़ भारी है, सारा हाल
भरा है। हाल के बाहर लोग भरे हैं। लोग चिल्ला रहे हैं कि जल्दी घोड़ा निकालो। वह
आदमी कहता है कि साधारण घोड़ा नहीं है, थोड़ा धैर्य रखिए। घोड़ा
आते ही आएगा। फिर धीरे-धीरे इंच-इंच जगह भर गई, श्वास लेना
मुश्किल है, और फिर उस आदमी ने पर्दा हटाया। और एक साधारण
घोड़ा खड़ा है। लोगों ने गौर से देखा, एक क्षण तो सकते में आ
गए, सांस रुक गई। यही घोड़ा है? फिर लोग
चिल्लाए, धोखा दे रहे हो। मजाक कर रहे हो? यह तो साधारण घोड़ा है। उस आदमी ने कहा, जरा गौर से
देखो, मेरे तर्क को देखो। फिर लोगों ने गौर से देखा, कुछ खास बात नहीं दिखी दी, सिर्फ एक मामला दिखायी
पड़ता है, घोड़ा साधारण है। सिर्फ जो तोबरा मुंह में बांधा
जाता है वह तोबरा उसकी पूंछ में बंधा हुआ है। उस आदमी ने कहा, देखो गौर से, इस घोड़े का मुंह वहां है जहां पूंछ
होनी चाहिए। और पूंछ वहां है, तोबरे मैं जहां मुंह होना
चाहिए। यह घोड़ा बहुत विशेष है। और लोगों से कहां--तर्क समझ गए मेरा? अबबिना शोर-गुल किए चुपचाप वापस घर चले जाओ। जो मैंने कहा था वह वायदा कर
दिया।
तर्क
तो ठीक है, लेकिन खिलवाड़ हो गया। सब तर्क खिलवाड़ है। यह भी तर्क के पहले पता नहीं चल
सकता, यह तभी तर्क से गुजर कर ही पता चलता है। लेकिन कोई
कहेगा, जब तर्क चिंतन से पता चलता है कि बेमानी है, तो हम तर्क ही क्या करें? पहले ही क्यों न रुक जाएं।
मैंने
सुना, एक स्टेशन पर बड़ा झगड़ा मचा हुआ है। कुछ लोग तीर्थ यात्रा को जा रहे हैं,
हरिद्वार जा रहे हैं। और स्टेशन पर शोर-गुल है। सारे लोग गाड़ी में
बैठ रहे हैं। सब चिल्ला रहे हैं, सामान रखो, जल्दी रखो, कोई पीछे न छूट जाए, लड़का न छूट जाए, पत्नी न छूट जाए। गाड़ी छूटने को है।
सीटी बजने लगी, घंटी हो गयी, झंडी
फहरने लगी। लेकिन एक आदमी के पास बड़ी भीड़ है: आठ-दस आदमी उसे पकड़ कर खींच रहे हैं,
और वह आदमी यह कहता है, पहले मुझे बताओ,
इस गाड़ी में चढूंगा तभी जब तुम यह वायदा कर दो कि फिर इसमें से
उतरना तो नहीं पड़ेगा। अगर उतरना ही हो तो चढ़ने की क्या जरूरत? हम चढ़े क्यों, अगर उतरना हो। अगर उतरना ही है तो हम
बिना चढ़े ही बेहतर। वे लोग कह रहे है, गाड़ी छुट जाएगी।
रास्ते में तुम्हें समझाएंगे। उतरना तो पड़ेगा, लेकिन चढ़ना
जरूरी है। लेकिन आदमी नहीं मानता है। वह कहता है, जब चढ़ना है
और फिर उतरना है तो चढ़े क्यों? उसका तर्क ठीक है। लेकिन
मित्र लोग जबरदस्ती उसे भीतर चढ़ा देते हैं। फिर हरिद्वार आ गया। अब सारे लोग उतर
रहे हैं। फिर भी झंझट शुरू हो गई। मित्र कह रहे हैं, नीचे
उतरो। वह आदमी कहता है हम चढ़कर उतरने वालों में से नहीं हैं। हम सिद्धांत के बड़े
पक्के हैं। हम चढ़ गए तो चढ़ गए। हम ऐसे नहीं है कि कल कुछ, आज
कुछ। हम पक्के आदमी हैं। हम चढ़ गए तो चढ़ गए, अब हम उतरेंगे
नहीं। हमने पहले ही कहा था कि अगर उतरना हो तो चढ़ेंगे नहीं। मित्र जबरदस्ती नीचे
उतार रहे हैं, लेकिन वह आदमी कहता है, यह
बिलकुल ठीक नहीं है कि जोर-जबरदस्ती कर रहे हो। अगर उतारना था तो चढ़ाया क्यों था?
वह आदमी ठीक कहता है। थोड़ी भूल करता है। जहां चढ़ा था वह वह हरिद्वार
नहीं था--जहां उतर रहा है वह हरिद्वार है।
विश्वास
करने वाला आदमी भी कहता है कि एक समय जाकर तर्क व्यर्थ हो जाते है। तो फिर हम तर्क
करें ही क्यों?
लेकिन विश्वास हरिद्वार नहीं है। विश्वास तर्क से पहले की अवस्था
है। और जो विश्वास पर रुक जाता है और तर्क से नहीं गुजरता वह तर्कातीत, बियांड दी रीजनिंग कभी नहीं पहुंच पाता। तर्कातीत अवस्था उसे कभी नहीं
उपलब्ध होती। वह तर्क के पहले ही रह जाता है। तर्क के बाद की अवस्था उसे कभी नहीं
उपलब्ध होती। सत्य तर्कातीत है। सत्य तर्क से नहीं मिल सकता--सत्य तर्कातीत है।
ट्रासेडेंटल है। तर्क से भी आगे है। लेकिन जो तर्क करता है, वही
आगे जा पाता है। विश्वासी कहता है, तर्क से भी तो नहीं मिलता,
हम पहले ही रुक जाते है, वह कहता है, हम तर्क में भी नहीं जाएंगे। हम तर्क के पहले रुक जाते हैं। वह तर्कहीन है,
तर्कतीत नहीं। लेकिन जो तर्क से गुजरना है, उस
प्रौढ़ता से गुजरता है, तब खोजता है, सारे
तर्कों की एक-एक बारी बात सुनता है। और आखिर में चिंतन करता है तो चिंतन से
कंटेम्पटलेशन से यह पता चलता है। कि विश्वास तो पहुंचाता नहीं। तर्क पहुंचाता
है--लेकिन द्वार पर ही रोक लेता है, भीतर नहीं जाने देता।
विश्वास तो झूठे द्वार पर खड़ा कर देता है। तर्क ठीक द्वार पर खड़ा करता है। लेकिन
द्वार पर ही खड़ा करता है, भीतर प्रवेश नहीं करने देता। तर्क
के बाद है--चिंतन, वह भी विचार की तीसरी पीढ़ी है। चिंतन का
मतलब है, सारे तर्कों का निष्पक्ष आदोलन, सारे तर्कों की निष्पक्ष समीक्षा। देखना है--क्या है ठीक, क्या है अठीक। और जब तर्क को कोई बहुत गोर से देखता है तो पाता है कि तर्क
जिस सिद्ध करता है, उसे असिद्ध भी कर देता है। उसे ही असिद्ध
कर देता है जिसे सिद्ध करता है। तर्क दोनों पहलुओं को सिद्ध कर देता है, दोनों को असिद्ध कर देता है। और तब तर्क एक खेल रह जाता है, एक जाल रह जाता है, एक पहेली रह जाती है। जिसे पहेली
का अपना सुख है, लेकिन पहले के बाहर जाने का वहां कोई मार्ग
नहीं है। लेकिन जो इस पूरी पहेली की जीएगा वह बाहर हो जाता है।
एक
गांव में एक सम्राट ने तय किया कि मैं अपने गांव में असत्य नहीं चलने दूंगा। और जो
असत्य बोलेगा उसको फांसी लगा दूंगा। गांव के एक वृद्ध संन्यासी को बुलाकर उसने
पूछा कि तुम्हारी क्या आज्ञा है--मैंने तय किया है कि असत्य नहीं चलने दूंगा, आशीर्वाद
दो। उस संन्यासी ने पूछा, करोगे क्या? तरकीब
क्या है असत्य न चलने देने की? उसने कहा, मैं एक आदमी को रोज फांसी पर लटकाऊंगा जो असत्य बोलेगा। उस संन्यासी ने
कहा, आश्चर्य! क्योंकि अभी तक यही तय नहीं हो सका है कि सत्य
क्या है और असत्य क्या है? निर्णय का रास्ता क्या है?
उस आदमी ने कहा, तर्क करेंगे, विचार करेंगे। उसने कहा, बहुत अच्छा है। लेकिन तर्क
और विचार से निर्णय होगा। तर्क और विचार से विश्वास के जो निर्णय थे वे खंडित हो
जाएंगे। तर्क और विचार निषेधात्मक प्रक्रिया है, निगेटिव है।
वह उखाड़ दोगे विश्वास को। लेकिन पाजेटिव कुछ देगा, विधायक
कुछ मिलेगा? पता चलेगा, क्या है सत्य,
क्या है असत्य? उस राजा ने कहा, हमने इसीलिए आपको पूछने के लिए बुलाया है। आप हमें बताएं, हम वैसा करें। उस फकीर ने कहा, फांसी कहां लगाओगे?
राजा ने कहा, गांव का जो नगर द्वार है,
कल सुबह नए वर्ष के शुरू दिन में एक आदमी को हम वहां लटकाएंगे जो
झूठ बोलते पकड़ा जाएगा। उस फकीर ने कहा, फिर मैं कल सुबह नगर
द्वार पर मिलूंगा। कल सुबह आप वहीं मिल जाए और अपने तर्कशास्त्रियों को लेकर वहां
आ जाएं, जो निर्णय कर सकें कि सत्य क्या है, असत्य क्या है। दूसरे दिन द्वार खुला, फकीर अपने
घोड़े पर सवार भीतर प्रविष्ट हुआ। राजा ने पूछा, घोड़े पर सवार
आप कहां जा रहे हैं? उस फकीर ने कहा, मैं
फांसी पर चढ़ने जा रहा हूं। राजा ने कहा, क्यों झूठ बोलते हैं?
आपको, और कौन फांसी पर चढ़ाएगा? उस फकीर ने कहा, अगर झूठ बोलता हूं तो फांसी पर चढ़ा
दो, लेकिन तब जो मैंने बोला वह सत्य हो जाएगा। और अगर मुझे
फांसी पर नहीं चढ़ाते तो झूठ बोलने वाले को बिना फांसी पर चढ़े, जाने दिया है। अब तुम निर्णय कर लो। ये तुम्हारे सब विचार करने वाले
निर्णय कर लें। मुझे फांसी देनी है कि नहीं देनी है? वह राजा
और उसके पंडित बहुत मुश्किल में पड़ गए। उन्होंने कहा,अगर हम
इसे जाने देते हैं तो यह आदमी झूठ बोल रहा है कि मैं फांसी पर चढ़ने जा रहा हूं। और
अगर नहीं जाने देते, और फांसी पर लटकाते हैं तो यह सत्य हो
जाता है, और हमारा फांसी देना सत्य के लिए फांसी हो जाती है।
अब हम क्या करे? उस फकीर ने कहा, जब
तुम निर्णय कर लो तो मुझे खबर कर देना, मैं फांसी पर चढ़ने आ
जाऊंगा। वह अपना घोड़ा बढ़ाकर चला गया। फिर वर्षों बीत गए, उस
फकीर को कोई खबर नहीं आयी। बार-बार उसने खबर भेजी राजा को कि निर्णय हुआ हो तो बोलो।
उस राजा ने कहा, कुछ निर्णय नहीं होता। हम तर्क कर-करके हार
गए। अब हम आपसे ही पूछते हैं कि हम सत्य को कैसे जानें? तो
उस फकीर ने कहा, तर्क करो, और जब हार
जाओ तो तर्क के ऊपर उठो। लेकिन हारे बिना कोई ऊपर नहीं उठ सकता है।
तर्क
का एक ही उपयोग है--विचार का एक ही उपयोग है--मनन का एक ही उपयोग है कि अंतिम चरण
में मनन, विचार, तर्क अपने को ही व्यर्थ कर जाते हैं। विचार
अंततः वहां पहुंचाता है जहां विचार कहता है--निर्विचार हो जाओ तो द्वार खुल सकता
है। विचार से तो एक चक्कर पैदा होता है, खुलता नहीं है।
विश्वास एक कांटा है जो लगा हो पैर में। और किसी आदमी को कांटा लगा हो और हम उससे
कहे कि दूसरा कांटा ले आए तुम्हारे कांटे को निकालने को? वह
आदमी चिल्लाए और कहे कि पागल हुए हो, एक ही कांटा मुझे काफी
तकलीफ दे रहा है और तुम दूसरा कांटा लाना चाहते हो? हम उससे
कहें, हम उस कांटे को इस कांटे को निकालने को लाते हैं।
कांटा ले आए, उसका पहला कांटा निकालकर फेंक दें, और वह आदमी दूसरे कांटे को पहले कांटे के घाव में सम्हालकर वापस रखने लगे
और कहे, इसने बड़ी कृपा की है। इसे हम सम्हालकर इसी छेद में
रख लेते हैं। हम उससे कहें तू पागल है, फिर तो बात वही हो
गयी।
मैं
विश्वास का विरोधी हूं विचार के पक्ष में। विचार के कांटे से बस विश्वास की जड़े
उखाड़कर फेंक देनी चाहिए। फेंक देने बिना कोई रास्ता नहीं है। लेकिन इससे यह मत समझ
लेना कि मैं यह कह रहा हूं कि फिर विश्वास की जगह विचार की रख लेना। जैसे ही वह
कांटा व्यर्थ हुआ,
विचार भी व्यर्थ हो जाता है। और विचार व्यर्थ होता है तभी, जब हम विचार से गुजरते हैं। विचार करते हैं। खोजते हैं और आखिर में पाते
हैं कि विचार करने से धारणाएं मिलती हैं, कंसेप्ट्रस मिलते
हैं। ट्रुथ नहीं मिलता--सत्य नहीं मिलता है। कितना ही विचार करें हमें कुछ धारणा
मिल सकती है, कि ऐसा होगा सत्य, लेकिन
ऐसा है सत्य, यह नहीं मिलता। विचार करने से, सोचने से पता चलता है कि शायद ऐसा होगा। परहेप्स--विचार कभी भी परहेप्स के
ऊपर नहीं ले जाता। वह कहता है, शायद ऐसा होगा। इसीलिए
विज्ञान परहेप्स के ऊपर, नहीं उठता। विज्ञान कहता है कि शायद
ऐसा है। कल बदल सकता है, परसों बदल सकता है। फिर आगे बदलता
रहेगा। न्यूटन कुछ और कहता है, आइंस्टीन कुछ और कहता है,
आइंस्टीन के बेटे कुछ और कहेंगे, उनके बेटे
कुछ और कहेंगे, और हमेशा परहेप्स लगा रहेगा। लगा रहेगा स्थात
है। इतना हम कह सकते हैं कि अभी तक जो हम जानते हैं उससे ऐसा लगता है। कल-कल हम और
जानेंगे और अन्यथा लग सकता है। विचार स्यात के ऊपर, प्रोवेविलिटी
के ऊपर, परहेप्स के ऊपर, भावना के ऊपर
नहीं ले जा सकता। विचार एक धारणा देता है। कंसेप्ट--एक प्रत्येक कि ऐसा हो सकता
है।
विचार
की धारणा सत्य नहीं है। सत्य तो वहां है जहां सारी धारणाएं छूट जाती हैं। लेकिन
विचार से गुजरना जरूरी है। मैं एक उदाहरण के लिए कहूं--एक आदमी गरीब है, नंगा खड़ा
है सड़क पर। फिर एक महावीर हैं। वह राजपुत्र हैं, उन्होंने
सुंदरतम वस्त्र पहने हैं, वे सुंदरतम गद्दों पर सोए हैं।
उन्होंने जीवन का सब सुख भोग पाया है। फिर वे भी सब छोड़कर रास्ते पर आकर नंगे खड़े
हो गए हैं। ये दोनों आदमी नंगे खड़े हैं। अगर इनका एक फोटोग्राफ उतारा जाए तो
फोटोग्राफ में काई फर्क नहीं मालूम पड़ेगा कि इन दोनों के नंगेपन में कोई फर्क है।
लेकिन एक नंगा आदमी, जिसने कपड़े नहीं जाने, और ही तरह से नंगा है। और एक आदमी, जिसने सब सुंदरतम
वस्त्र जाने, नंगा होकर खड़ा हो गया है, और ही तरह से नंगा है। एक का नंगापन गरीबी है। दरिद्रता है। एक का नंगापन
मजबूरी है। दूसरे का नंगापन आनंद है। मुक्ति है। स्वेच्छा है। एक के नंगेपन में
कपड़े पहनने की आकांक्षा छिपी है। दूसरे के नंगेपन में कपड़ों को ऊपर चले जाने का
द्वार खुल गया है। ये दोनों आदमी दो भांति नंगे हैं। महावीर की नग्नता का सौंदर्य
ही और है। गरीब आदमी की नग्नता एक कुरूपता है, एक अग्लीनेस
है। क्योंकि गरीब आदमी के भीतर वस्त्रों की चाह छिपी है। उस नग्नता के भीतर भांग
है, वस्त्र मिल जाए। वस्त्र नहीं मिल रहे हैं, यह पीड़ा है। महावीर वस्त्रों से ऊपर उठ गए हैं। वह भी नग्न खड़े हैं। वहां
वस्त्रों की कोई मांग नहीं है। वहां मांग खत्म हो गई है। अब वह नग्नता अत्यंत
निर्दोष है। अब उस नग्नता में अपने को छिपाने की, वस्त्रों
की मांग की कोई कल्पना नहीं है।
एक
आदमी विश्वास कर रहा है। वह गरीब आदमी की तरह नंगा है। एक आदमी विचार करके विचार
के ऊपर चला गया है। वह महावीर की तरह नग्न है। इन दोनों में जमीन-आसमान का फर्क
है। विश्वास करने वाला भी विचार नहीं करता। विचार से ऊपर उठ जाने वाला भी विचार
छोड़ देता है। लेकिन विचार न करना एक बात है, और विचार छोड़ देना बिलकुल दूसरी
बात है। ये दोनों भेद न दिखाई पड़ने से विश्वास करने वाला सोचता है, हम भी वहीं है जहां निर्विचार वाला पहुंचाता है। वहां वह कभी नहीं हो सकता
है। इस विचार की प्रक्रिया से गुजरना एक अनिवार्यता है। यह गुजरना एक अनिवार्य चरण
है। इससे गुजरे बिना कोई कभी निर्विचार को नहीं पहुंच सकता है। विचार दूसरी सीढ़ी
है। विश्वास को तोड़ दें, खंड-खंड उखाड़ दें, जड़-जड़ फेंक दें विचार की धार से। और जब विश्वास फिंक जाए और विचार की पूरी
तपश्चर्या से आप गुजर जाए और उस जगह पहुंच जाए की पूरी तपश्चर्या से आप गुजर गए और
उस जगह पहुंच जाए जहां विचार चक्कर में घुमाने लगे, और कोई
मार्ग न सूझे। धारणाएं हाथ में आ जाए। सिद्धांत हाथ में आ जाएं, लेकिन सत्य हाथ में न आए तब विचार ही रहेगा। अब मुझे छोड़ दो, अब मुझसे ऊपर चले जाओ, अब मैं किसी काम का नहीं हूं।
विचार ही कहेगा कि अब मुझे छोड़ दो, अब मेरे ऊपर चल जाओ,
अब मैं किसी काम का नहीं हूं। जो अंतिम दान है विचार का वह यह है कि
वह कह जाता है कि मैं भी व्यर्थ हूं, मुझे भी पार करो।
उस
तीसरी सीढ़ी में हम उस पर विचार करेंगे, निर्विचार पर, अर्थात ध्यान पर। पहली--विश्वास नहीं लिखा है उस द्वार पर। विश्वास नहीं।
और मैंने कहा, विचार और जब विचार से गुजरेंगे तो पाएंगे कि
लिखा नहीं है उस द्वार पर। विचार भी नहीं मिला है उस द्वार पर। परमात्मा के द्वार
पर यह भी नहीं लिखा है कि विचार करो और भीतर आ जाओ। विचार करने द्वार के बाहर तक
पहुंच जाओगे, भीतर नहीं जा सकते। तीसरी सीढ़ी में हम सोचेंगे,
खोजेंगे कि ध्यान क्या है? मेडिटेशन क्या है,
निर्विचार क्या है? क्या निर्विचार लिखा है उस
द्वार पर? कल सुबह की चर्चा में निर्विचार पर, ध्यान पर सोचेंगे। और चौथी चर्चा में हम सोचेंगे कि क्या ध्यान को भी छोड़
देना पड़ेगा। क्या वह भी भीतर अंतगृह तक नहीं पहुंच सकता? वह
भी नहीं पहुंचाता है। विश्वास छोड़ो विचार से। विचार छोड़ो विश्वास से। फिर
निर्विचार भी छोड़ दो, तब जो शेष रह जाती हैं, समाधि की दशा। वह वहां पहुंचा देती है जहां परमात्मा का आवास है। आज की
बात पर जो भी प्रश्न हों, संध्या उनके जवाब दूंगा।
मेरी
बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना उससे अनुगृहीत हूं और अंत में सबके भीतर
बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं।
मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
अहमदाबाद
९ जून १९६९ सुबह
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