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बुधवार, 17 मई 2017

पीवत राम रस लगी खुमारी-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-07

पीवत राम रस लगी खुमारी-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो

दिनांक: 17 जनवरी, सन् 1981
ओशो आश्रम पूना।
प्रवचन-सातवां-(प्रार्थना नहीं—ध्यान)

पहला प्रश्न: भगवान,
महाकवि रवींद्रनाथ ने अपने अंतिम दिनों में एक प्रश्नवाचक कविता लिखी जो इस प्रकार है:
भगवान तुमि युगे युगे
दूत पठायेछ बारे बारे
दयाहीन संसारे
तारा बले गेल, क्षमा करो सबे,
बले गेल, भालोबासो, अंतर हते
विद्वेषविष नाशो।
वरणीया तारा स्मरणीया तारा,
तबुओ बाहिर-द्वारे
आजि दुर्दिने फिरानु तादेर
व्यर्थ नमस्कारे।
आमि ये देखेछि, गोपनहिंसा कपट रात्रि-छाये हनेछे निःसहाए
आमि ये देखेछि, प्रतिकारहीन शक्तेर अपराधे विचारेर वाणी नीरवे निभृते कांदे
आमि ये देखेनु, तरुण बालक उन्माद हये छूटे
की यंत्रणाय मरेछे पाथरे निष्फल माथाकूटे।।
कंठ आमार रुद्ध आजिके, वांशि संगीतहारा अमावश्यार कारा
लुप्त करेछे आमार भुवन दुःस्वप्नेर तले; ताइ तो तोमाय शुधाइ अश्रुजले--
याहारा तोमार बिषाइछे वायु, निभाइछे तब आलो,
तामि कि तादेर क्षमा करियाछ, तुमि कि बेसेछ भालो?
"भगवान, इस दयाहीन संसार में तुमने युगऱ्युग में बार-बार दूत भेजे हैं। वे कह गए, सबको क्षमा करो; वे बोल गए, सबको प्रेम करो--अंतस से विद्वेष के विष का नाश करो। वे पूजनीय हैं, वे स्मरणीय हैं; तो भी आज इस अशुभ समय में बाहर के दरवाजे से एक निरर्थक नमस्कार कर उन्हें लौटा दिया है।
मैंने देखा है, हिंसा और कपट ने रात्रि की छाया में छिपकर असहायों को मारा है। मैंने देखा है, शक्तिशाली के अपराध से, जिसका प्रतिकार न किया जा सके, न्याय की वाणी निभृत एकांत में रोती है। मैंने देखा है, तरुण बालक को पागलों की तरह भागते हुए; वह पत्थर पर व्यर्थ माथा पटककर कितनी यंत्रणा सहकर मरा है।
आज मेरा कंठ बंद है, बांसुरी का संगीत सोया हुआ है; अमावस्या के कारागृह ने मेरे भुवन को दुखस्वप्न में लुप्त कर दिया है। इसलिए तो आंखों में आंसू भरकर तुमसे पूछता हूं कि ये जो लोग तुम्हारी वायु को विषाक्त कर रहे हैं, तुम्हारे प्रकाश को बुझा रहे हैं, तुमने क्या उन्हें क्षमा किया है, तुमने क्या उन्हें प्यार किया है?'
भगवान, आपका महाकवि को क्या उत्तर है?

आनंद मैत्रेय,

महाकवि रवींद्रनाथ ईश्वर की व्यक्तिवाची सड़ी-गली धारणा से कभी मुक्त न हो सके। उस धारणा में ही मनुष्य का सारा दुर्भाग्य छिपा हुआ है। रवींद्रनाथ के कानों तक जैसे फ्रेड्रिक नीत्शे का उदघोष नहीं पहुंचा कि ईश्वर मर चुका है, बहुत देर हुई तब का मर चुका है, और मनुष्य अब स्वतंत्र है।
नीत्शे स्वयं भी उस कोटि का ही कवि है जिस कोटि के कवि रवींद्रनाथ हैं। नीत्शे स्वयं भी जीवन की गहन समस्याओं से जूझ रहा है जैसे रवींद्रनाथ। पर दोनों की संघर्ष-विधि में भेद है। रवींद्रनाथ पुरानी लकीर के फकीर हैं। नीत्शे चट्टानों में नया मार्ग तोड़ रहा है। और स्वभावतः उसका घातक परिणाम भी उसे भोगना पड़ा। पिटी हुई लकीरों पर जो चलते हैं, उनके लिए कोई खतरा नहीं है। लेकिन जो नए मार्ग तोड़ते हैं, उनके लिए सब तरह के खतरे हैं।
रवींद्रनाथ के मन में सदियों की जराजीर्ण धारणा कि ईश्वर व्यक्ति है, नियंता है, जिसकी मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता, जिसके चलाए सब चलता है, जिसके रुकाए सब रुकता है, जिसने सृष्टि को बनाया और जो एक दिन सृष्टि को मिटाएगा, इस धारणा से रवींद्रनाथ का मन कभी मुक्त न हो सका। इस कारण ही उनके भीतर से प्रार्थनाएं तो उठीं मगर क्रांति की लपट न उठ सकी। और प्रार्थनाएं ऐसी जैसे अंगारा बुझ गया हो और सिर्फ ठंडी राख रह गई हो। अंगारा बुझ गया, यह कहना भी ठीक नहीं; अंगारा कभी था ही नहीं, राख ही राख है। फिर चाहो तुम उस राख को विभूति ही क्यों न कहो। कुछ भेद नहीं पड़ता।
रवींद्रनाथ की प्रार्थनाएं नपुंसक हैं। क्योंकि जिस परमात्मा के लिए की जा रही हैं वैसा कोई परमात्मा कहीं भी नहीं है।
इसलिए पहला तो उत्तर मैं यह देना चाहूंगा कि किस परमात्मा से प्रार्थना कर रहे हो? खाली आकाश है। कहीं कोई परमात्मा नहीं है जो तुम्हारी प्रार्थनाओं को सुने और उन्हें पूरा करे। किससे बात कर रहे हो? अपने से ही बात कर रहे हो; यह विक्षिप्तता है, और कुछ भी नहीं। ध्यान की तो सार्थकता है, प्रार्थना की कोई सार्थकता नहीं है। ध्यान का अर्थ है: भगवत्ता का अनुभव। और प्रार्थना शुरू ही होती है भगवान की मान्यता से। भगवत्ता है। जीवन भगवत्ता से भरपूर है। फूल-फूल में, पत्ते-पत्ते में, सागर की लहर-लहर में, हवा के झोंके-झोंके में भगवत्ता है।
लेकिन भेद समझ लेना।
भगवत्ता एक गुण है और भगवान एक व्यक्ति। यह उचित है कि जिसने भगवत्ता को जान लिया उसे तुम भगवान कहो, भगवत्ता का जिसने अनुभव किया उसे तुम भगवान कहो, लेकिन कोई स्रष्टा नहीं है। किसी ने न कभी इस जगत को बनाया है और न कभी कोई इस जगत को मिटाएगा और न ही कोई इस जगत का नियंता है। यह सृष्टि शाश्वत है।
सृष्टि शब्द ही ठीक नहीं। क्योंकि सृष्टि शब्द में ही स्रष्टा की भ्रांति भरी हुई है। प्रकृति शब्द ठीक है। इसलिए महावीर ने और बुद्ध ने सृष्टि शब्द का उपयोग नहीं किया, प्रकृति शब्द का उपयोग किया। सृष्टि का अर्थ है, जो बनाई गई। और बनाई गई, तो कोई बनाने वाला होगा और जब बनाने वाला होगा तो कोई सम्हालने वाला होगा और तब ये सारे सवाल उठने शुरू हो जाएंगे। तब प्रश्नों की कतारें बंध जाएंगी।
बुद्ध ने और महावीर ने प्रकृति शब्द का उपयोग किया है। प्रकृति शब्द बड़ा प्यारा है। इस शब्द को तोड़ो और समझो। प्रकृति का अर्थ होता है: कृति के पूर्व। जो कभी बनाई नहीं गई। जिसके पीछे कोई कर्ता नहीं है। जो हर कर्ता के पहले मौजूद है--प्रकृति। जो हर कृत्य के पहले मौजूद है--प्रकृति। प्रकृति है और प्रकृति सिर्फ पदार्थ नहीं है, उसमें चैतन्य भी है। सच पूछो तो पदार्थ चैतन्य की ही सोई हुई अवस्था है। और भगवत्ता चैतन्य की जाग्रत अवस्था है। इसलिए सवाल है तुम्हारे भीतर जो सोया है उसे जगाने का। किसी से प्रार्थना नहीं करनी है। किसी की पूजा नहीं करनी है। और तुम पूजा करोगे, तुम प्रार्थना करोगे तो ये सारे प्रश्न उठने शुरू हो जाएंगे। रवींद्रनाथ कहते हैं--
कंठ आमार रुद्ध आजिके...
"आज मेरा कंठ बंद है।'
...वांशि संगीतहारा अमावश्यार कारा
लुप्त करेछे आमार भुवन दुःस्वप्नेर तले; ताइ तो तोमाय शुधाइ अश्रुजले--
याहारा तोमार बिषाइछे वायु, निभाइछे तब आलो,
तामि कि तादेर क्षमा करियाछ, तुमि कि बेसेछ भालो?
"क्या तुमने सारे अन्यायियों को, सारे पापियों को, हे परमात्मा, क्षमा कर दिया है? क्या तुमने उन्हें प्यार किया है?' तब तो बहुत अन्याय हो जाएगा। "आज मेरा कंठ बंद है, बांसुरी का संगीत सोया हुआ है, अमावस्या के कारागृह ने मेरे भुवन को दुखस्वप्न में लुप्त कर दिया है। इसलिए तो आंखों में आंसू भरकर तुमसे पूछता हूं...।'
मगर फिर भी किससे पूछ रहे हो? तुमसे? वहां कोई भी नहीं है। न कोई सुनने वाला है, न कोई उत्तर देने वाला है।
"आंखों में आंसू भरकर मैं तुमसे पूछता हूं कि जो लोग तुम्हारी वायु को विषाक्त कर रहे हैं, तुम्हारे प्रकाश को बुझा रहे हैं, तुमने क्या उन्हें क्षमा किया है? तुमने क्या उन्हें प्यार किया है?'
यह प्रश्न तो सार्थक है, लेकिन जिससे तुम पूछ रहे हो, वह वहां नहीं है। वह वहां कभी नहीं था। तुम्हारी सब प्रार्थनाएं खाली आकाश में खो गई हैं। तुमने व्यर्थ ही सिर पटका है। लेकिन मानकर चलते हो कि कोई ईश्वर है। तो फिर ये प्रश्न उठने शुरू होते हैं।
"भगवान, इस दयाहीन संसार में', रवींद्रनाथ कहते हैं, "तुमने युगऱ्युग में बार-बार दूत भेजे हैं।'
न कोई भेजने वाला है, न कोई दूत कभी आए हैं। हां, जिन्होंने भगवत्ता को अनुभव किया है, उन्होंने जो कहा है, वही संदेश हो गया है। वे किसी के संदेशवाहक नहीं हैं, पैगंबर नहीं हैं, दूत नहीं हैं। उनके भीतर ही जो जागा है, उसका ही गीत उन्होंने गाया है। उनके भीतर जो उठा है, उसको ही उन्होंने ढाला है शब्दों में, संगीत में, चित्रों में। उसने उस तरफ हर तरफ से इशारा करने की कोशिश की है, जिसने भी अपने भीतर चैतन्य का साक्षात्कार किया है। लेकिन वे दूत नहीं हैं। पर हम पहली ही बात मानकर चल पड़ते हैं, तो फिर उपद्रव शुरू हो जाता है। मान लिया कि कोई भगवान है व्यक्ति की भांति।
उपस्थिति की भांति समझो भगवान को, व्यक्ति की भांति नहीं। सुगंध की भांति समझो भगवान को, फूल की भांति नहीं। फिर रवींद्रनाथ के ये सारे प्रश्न बदल जाएंगे। और ये प्रश्न रवींद्रनाथ के ही नहीं हैं, सदियों-सदियों में पूछे गए हैं। रवींद्रनाथ ने तो उन्हीं को सुंदर पंक्तियों में आबद्ध कर दिया है।
"भगवान, इस दयाहीन संसार में तुमने युगऱ्युग में बार-बार दूत भेजे हैं।'
अगर भगवान निर्माता है इस जगत का, तो क्या जरूरत है दयाहीन संसार बनाने की? प्रथमतः ही जरूरत क्या है दयाहीन संसार बनाने की? यह भी खूब पागलपन हुआ! अगर है कोई परमात्मा तो विक्षिप्त होगा। कि पहले ये दयाहीन लोग बनाओ; ये दुष्ट, हत्यारे, हिंसक, अन्यायी, पापी, दुराचारी, ये निर्मित करो और फिर दूत भेजो इनके सुधार के लिए। यह भी खूब बात हुई! पहले बीमार बनाओ, जन्म से ही उन्हें रोग दो और फिर चिकित्सक भेजो! और फिर वे चिकित्सकों की न सुनें तो उन पर नाराज होओ! फिर उनको दंड दो और नरक में डालो। और अगर वे चिकित्सकों की सुन लें और मान लें तो उन पर प्रसन्न हो जाओ और उनको स्वर्ग का पुरस्कार दो। यह सब कैसा पागलपन है!
लेकिन एक व्यक्तिवादी ईश्वर की धारणा को मान लेने के बाद ये सारी बातें सार्थक मालूम होने लगती हैं। परमात्मा है तो फिर दूत भेजता है। पहले दुनिया बनाता है और हर व्यक्ति को पाप के बीज देता है, वासना देता है, काम देता है, क्रोध देता है, घृणा देता है, वैमनस्य देता है, लोभ देता है--जन्म के साथ! तो फिर देने वाला ही जिम्मेवार है। फिर लोगों का क्या कसूर है?
तुमने पाप अपने हाथ से पैदा नहीं किया है। तुम उसके निर्माता नहीं हो। न तुमने अपना जीवन बनाया है, न जीवन में छिपी हुई वासनाएं बनाई हैं। तुम जीवन लेकर आए हो। और कौन तुम्हें दे गया है वासनाएं? और फिर आते हैं महात्मा और पैगंबर और अवतार, और वे समझाते हैं कि वासनाएं छोड़ो। परमात्मा संसार बनाता है और महात्मा समझाते हैं कि संसार का त्याग करो। यह कैसा गोरखधंधा है! अगर संसार का त्याग ही करना है तो बनाना ही क्यों? और जब महात्मा ही भेजने हैं तो परमात्मा यह संसार को बनाने का इतना आयोजन, इतना कष्ट क्यों लेता है? बनाए ही न। न होगा बांस, न बजेगी बांसुरी। बांस भी बनाओ और बांसुरी भी बनाओ और बजाने वाले भी बनाओ, फिर दूत भेजो कि देखो शोरगुल न करो! कि देखो बांसुरी न बजाओ! कि बांसुरी बजाने में बड़ा पाप है! कि नर्कों में सड़ोगे! अगर बांसुरी न बजाई तो स्वर्गों में सुख पाओगे! फिर नर्क बनाओ, फिर स्वर्ग बनाओ, फिर सुखों का और दुखों का इंतजाम करो। लेकिन यह सब किसलिए? एक परमात्मा की धारणा को मान लेने के बाद यह सारा उपद्रव खड़ा होता चला जाता है।
तो रवींद्रनाथ कहते हैं कि "भगवान, इस दयाहीन संसार में तुमने युगऱ्युग में बार-बार दूत भेजे हैं।'
मैं कहूंगा: कोई भगवान नहीं है। और न कोई दूत है।
और फिर वे कहते हैं, "वे कह गए हैं, सबको क्षमा करो; वे बोल गए, सबको प्रेम करो--अंतस से विद्वेष के विष का नाश करो।'
अब यह थोड़ा सोचने जैसा है कि ये सारे तथाकथित दूत और पैगंबर कहते हैं सबको प्रेम करो और परमात्मा खुद सबको प्रेम करता नहीं। प्रेम उसको करता है जो परमात्मा की मानकर चलता है; सबको नहीं। उसका प्रेम सशर्त है। क्षमा उसको करता है जो पुण्यात्मा है। पुण्यात्मा को क्षमा की जरूरत नहीं है। उसको क्षमा करता है जिसको क्षमा की जरूरत नहीं है। और पापी को नर्कों में डालता है; नर्कों की अग्निशिखाओं में जलाता है। तेल के कड़ाहों में भूनता है--पापियों को, जिनको कि क्षमा की जरूरत है। यह कैसा गणित? यह कैसा न्याय?
इसलिए तो बुद्ध और महावीर ने ईश्वर की धारणा को इनकार कर दिया। नीत्शे से ढाई हजार वर्ष पहले इनकार कर दिया। साफ कहा कि कोई परमात्मा नहीं है। इसलिए फिर यह सवाल न रहा कि परमात्मा क्षमा करता है, पुरस्कार देता है। फिर बात बदल गई। बात ही और हो गई। फिर तुम जो करते हो, उसका परिणाम पाते हो। शुभ करते हो तो शुभ, अशुभ करते हो तो अशुभ। कोई देने वाला नहीं है। आग में हाथ डालते हो तो हाथ जल जाता है। और फूल को छूते हो तो हाथ में फूल की सुगंध बस जाती है। बस यूं ही। एक प्राकृतिक नियम है। सम्हलकर चलोगे; गिरोगे नहीं, हाथ-पैर न टूटेंगे। नशा करके चलोगे, बेहोशी में चलोगे; गिरोगे, हाथ-पैर तोड़ लोगे।
ये महात्मा, ये दूत कह गए--सबको क्षमा करो। क्या उनको भी क्षमा कर दिया जाए जिन्होंने महत हत्याएं की हैं? क्या तैमूरलंग, चंगेजखां और नादिरशाह को क्षमा कर दिया जाए? क्या इनको भी प्रेम किया जाए? इनको क्षमा करने और प्रेम करने के कारण ही तो जिन देशों में धर्मों की, इन तथाकथित देवदूतों की बहुत प्रभावना रही है वहां लोग कायर हो गए। यह देश बाईस सौ साल से गुलाम रहा। क्योंकि जिन्होंने इसे गुलाम बनाया उनको भी इसने क्षमा कर दिया। जिन्होंने इसकी छाती पर कांटे बोए, जिन्होंने इसकी छाती को संगीनों से रौंदा, उनको भी क्षमा कर दिया। क्योंकि महात्मागण समझा रहे थे--सबको क्षमा करो, सबको प्रेम करो!
इसलिए रवींद्रनाथ ठीक पूछ रहे हैं कि "मैं तुमसे पूछता हूं कि क्या तुमने भी उन्हें क्षमा कर दिया है, क्या तुमने भी उन्हें प्यार किया है जिन्होंने तुम्हारे प्रकाश को बुझाया है और जो तुम्हारी वायु को विषाक्त कर रहे हैं?'
लेकिन इसके पहले कि रवींद्रनाथ यह पूछें कि क्या तुमने उन्हें क्षमा कर दिया है, यह पूछना चाहिए कि तुमने उन्हें बनाया क्यों?
एक चित्रकार एक गंदा चित्र बनाए, अश्लील चित्र बनाए तो जिम्मा किसका है? चित्र अश्लील है, यह चित्र का कसूर है या चित्रकार का? एक मूर्तिकार एक भद्दी और बेहूदी प्रतिमा बनाए तो कौन उत्तरदायी है? प्रतिमा? क्या तुम प्रतिमा को सजा दोगे? हथकड़ियां पहनाओगे? कारागृह में डालोगे? या कि जिम्मेवार है मूर्तिकार? अगर इस संसार में पाप है, अगर इस संसार में जीवन की ज्योति को बुझाने वाले लोग हैं, अगर इस संसार में शोषण है, उत्पीड़न है, तो कौन जिम्मेवार है? यह क्यों नहीं पूछते?
रवींद्रनाथ ने बुनियादी प्रश्न नहीं पूछा है। पूछना चाहिए रवींद्रनाथ को कि परमात्मा, तुम हो भी? इस संसार को देखकर तो पक्का सबूत मिलता है कि तुम नहीं हो। तुम्हें बहुत बार कहा गया है कि संसार को देखकर प्रमाण मिलता है कि परमात्मा है--नहीं तो कौन संसार को चलाएगा?
मैं तुमसे कहता हूं: इस संसार को देखकर पूरा प्रमाण मिलता है कि अगर कोई चलाने वाला भी होगा तो शैतान होगा, परमात्मा नहीं हो सकता। और यह संसार जिस अटपटे ढंग से चल रहा है, जिस उलटे-सीधे ढंग से चल रहा है, जगह-जगह गिरता है और टकराता है, जिस अंधेपन से चल रहा है, उससे जाहिर होता है कि इसके पीछे कोई बनाने वाला नहीं है। लोग सोए हैं और सोए-सोए चल रहे हैं, इसलिए टकरा रहे हैं। हां, लोग जाग सकते हैं।
अगर तुम मुझसे पूछो तो सोया हुआ आदमी जो भी करेगा, वह गलत होगा। और सोए हुए आदमी को क्या दंड दो! सोया था, नींद में कुछ बक गया होगा, बड़बड़ा गया होगा, उसे क्या दंड दो! और जो जाग गया है, उससे गलत होता नहीं। उससे रोशनी बुझती नहीं, उससे रोशनी बढ़ती है।
मगर रवींद्रनाथ की धारणा वही है, सड़ी-गली, एक परमात्मा की। उससे ही प्रार्थना कर रहे हैं। यद्यपि उनके मन में संदेह उठे हैं लेकिन संदेह बहुत गहरे नहीं हैं। दूतों पर तो संदेह उठ गए हैं लेकिन दूत भेजने वाले पर संदेह नहीं उठा है।
वह कहते हैं कि "वे पूजनीय हैं; माना कि तुमने जो दूत भेजे वे पूजनीय हैं, क्योंकि तुमने भेजे; वे स्मरणीय हैं, तो भी आज इस अशुभ समय में बाहर के दरवाजे से एक निरर्थक नमस्कार करके उन्हें लौटा दिया है।'
रवींद्रनाथ कहते भी हैं तो बहुत माधुर्य से कहते हैं। वे कहते हैं--
वरणीया तारा स्मरणीया तारा, तबुओ बाहिर-द्वारे
आजि दुर्दिने फिरानु तादेर व्यर्थ नमस्कारे।
"मैंने तेरे दूतों को--माना कि वे पूजनीय हैं, माना कि वे स्मरणीय हैं क्योंकि तेरे दूत हैं--मगर फिर भी इस दुर्दिन में उन्हें बाहर के ही द्वार से एक व्यर्थ के खाली अर्थहीन नमस्कार को देकर लौटा दिया है।'
वही तो तुम सबने किया है। मंदिरों में तुम जो प्रतिमाएं बनाकर बैठे हो, किसलिए? वह खाली और व्यर्थ नमस्कार करने को। तुम्हारी मस्जिदों में, तुम्हारे गुरुद्वारों में, तुम्हारे गिरजों में तुम क्या कर रहे हो? वही खाली नमस्कार। मजबूरी है, ईश्वर के दूत हैं, इनकी प्रतिमा तो बनानी होगी, दो फूल तो चढ़ाने ही होंगे। लेकिन रवींद्रनाथ के पास आंखें तो हैं। धुंधला दिखाई पड़ता है मगर आंखें हैं। उनको यह दिखाई पड़ता है--
आमि ये देखेछि, गोपनहिंसा कपट रात्रि-छाये हनेछे निःसहाए
आमि ये देखेछि, प्रतिकारहीन शक्तेर अपराधे विचारेर वाणी नीरवे निभृते कांदे
आमि ये देखेनु, तरुण बालक उन्माद हये छूटे
की यंत्रणाय मरेछे पाथरे निष्फल माथाकूटे।।
"देखता हूं बहुत अन्याय, अपनी आंखों से देखा है हिंसा और कपट ने रात्रि को अंधकार की तरह घेर लिया है, असहायों को मारा गया है; मैंने देखा है शक्तिशाली के अपराध से, जिसका प्रतिकार न किया जा सके, न्याय की वाणी निभृत एकांत में रोती है। मैंने देखा है तरुण बालक को पागलों की तरह भागते हुए। वह पत्थर पर व्यर्थ माथा पटककर कितनी यंत्रणा सहकर मरा है।'
छोटे-छोटे बच्चे मर जाते हैं। इनका तो कोई कसूर नहीं, इनका तो कोई पाप नहीं। और अगर पाप ही था इनका पिछले जन्मों का तो जन्म ही क्यों दिया? तो मरने की यह यंत्रणा क्यों दी? प्रश्न तो उठ रहे हैं मगर प्रश्न पूरे गहरे नहीं जा रहे हैं। धुंधले-धुंधले हैं।
"आज मेरा कंठ बंद है, बांसुरी का संगीत सोया हुआ है, अमावस्या के कारागृह ने मेरे भुवन को दुखस्वप्न में लुप्त कर दिया है; इसलिए तो आंखों में आंसू भरकर तुमसे पूछता हूं...।'
लेकिन फिर भी किससे पूछ रहे हो? आंखों में आंसू भरो, लाख आंसू भरो, जार-जार रोओ, किससे पूछ रहे हो? वहां कोई उत्तर देने वाला नहीं है। कोई प्रतिध्वनि भी पैदा नहीं होगी। तुम अकेले हो। यह एकालाप है। तुम्हारी सारी प्रार्थनाएं एकालाप हैं, वार्तालाप नहीं। और सदियां हो गईं ये प्रार्थनाएं करते, कब जागोगे?
संदेह ही करना हो तो परमात्मा पर करो। और मैं तुमसे कहता हूं, परमात्मा पर संदेह उठ आए पूरा-पूरा और तुम्हारी संदेह की अग्नि में तुम्हारी परमात्मा की तथाकथित धारणा भस्मीभूत हो जाए तो तुम्हारे जीवन में क्रांति घट सकती है। तब तुम बाहर हाथ न फैलाओगे। तुम बाहर हाथ न जोड़ोगे। तुम भीतर मुड़ोगे। तुम भीतर तलाशोगे। बाहर तो कोई नहीं है। आकाश में तो कोई भी नहीं है। सात आसमानों के पार तो कोई भी नहीं है। तब फिर एक ही जगह बचती है कि अपने भीतर झांक लूं और तलाश लूं, शायद वहां हो। और जिन्होंने वहां झांका है, निश्चित पाया है। तुम्हीं हो। तुम्हारे ही केंद्र पर वह दीया जल रहा है। और यह दीया प्रार्थनाओं से नहीं पाया जा सकता। क्योंकि प्रार्थना बहिर्मुखी होती है। यह दीया ध्यान से ही पाया जा सकता है। ध्यान अंतर्मुखी होता है।
रवींद्रनाथ प्रार्थनाएं ही करते रहे। जिस गीतांजलि पर उन्हें नोबल पुरस्कार मिला, वह केवल प्रार्थनाओं का ही संकलन है। काश, वे थोड़े ध्यान की तरफ मुड़ते। तो यह भी हो सकता था कि गीतांजलि पैदा न होती, यह भी हो सकता था नोबल पुरस्कार न मिलता, लेकिन जो जीवन की धन्यता है, वह उन्हें जरूर मिल जाती। वह जो जीवन की भगवत्ता है, जरूर उन्हें मिल जाती।
एक क्रांति चाहिए--एक महत क्रांति, जो तुम्हें बाहर की तलाश से भीतर की तरफ मोड़ दे और तुम्हारे सोए हुए चैतन्य को जगा दे। तब तुम पाओगे कि न कोई परमात्मा है, न कोई दूत है, न कोई उसकी किताब है। सब किताबें आदमियों की ईजादें हैं। फिर वेद हों कि बाइबिल हो कि कुरान हो। और सब शब्द आदमियों की उदघोषणाएं हैं। हां, एक शून्य है भीतर जो आदमी के पार है, जो आदमी की तंद्रा और निद्रा के पार है। एक ऐसे जागरण का लोक है भीतर जिसके सामने हजारों सूर्य भी फीके पड़ जाते हैं। और एक ऐसी सुगंधि है, जो एक बार मिल जाती है तो सदा को मिल जाती है। जो कालातीत है। जिसकी कोई मृत्यु नहीं होती। और उसके मिल जाते ही तुम्हारे जीवन की पूरी शैली बदल जाती है। तब तुम इस जगत में अन्याय से लड़ोगे, यद्यपि तुम्हारे लड़ने में तुम विचलित न होओगे। तुम्हारे भीतर सब शांत और मौन रहेगा और तुम्हारी परिधि पर क्रांति उठेगी। तुम्हारे केंद्र पर शांति और तुम्हारी परिधि पर क्रांति। तुम्हारे भीतर अखंड मौन और तुम्हारी परिधि पर अन्याय का प्रतिकार। फिर तुम गुलाम होने को राजी न होओगे। चाहे गुलामी राजनैतिक हो, चाहे आर्थिक, चाहे मानसिक, चाहे आध्यात्मिक, तुम किसी तरह की गुलामी के लिए राजी न होओगे। तुम सारी गुलामी के पर्दों को हटा दोगे। तुम्हारे भीतर अगर तुम्हें मोक्ष का स्वाद आ जाए तो तुम बाहर भी उस मोक्ष के स्वाद को बांटने में लग जाओगे।
और तब हम एक नई दुनिया का निर्माण कर सकते हैं। अभी तक तो हमने नई दुनिया का निर्माण किया नहीं। अब तक तो हम नए-नए परमात्मा ढालते रहे।
हर नई पौद ने इक ताजा सनम ढाल लिया
नित नए बुत, नए मंदिर, नए पूजा के उसूल
शंख बजते रहे, जलते रहे रंगीं फानूस
रूह घुलती रही, होता रहा इंसान मलूल
कस्रे-शाही से गिराए गए नीलम पुखराज
संगरेजों को निगलते रहे मजबूर अवाम
खुश्क कांटों में बदलते रहे खैरात के फूल
सूखे जबड़ों को जकड़ती रही जरतार लगाम
हुस्न बिकता रहा जरबफ्त के पर्दों के उधर
इश्क सुनता रहा बजते हुए फौलाद का शोर
काफिले लुटते रहे, मंजिलें बेगाना रहीं
चांद बुझते रहे, तकते रहे महबूस चकोर
हर नया दौर सद-उम्मीद-बदामां आया
जिंदगी खस्ता-ओ-दर्मांदा-ओ-मजबूर रही
इक शहनशाह उठा इक शहनशाह बढ़ा
इसी चक्कर में अजल से ये जमीं चूर रही
नागहां एक धुआं-धार दरीचा खड़का
शोख-सी शम्मअ बढ़ी, लौ की जबां थर्राई
सरसराती हुई जुल्मत के निशेबों से उठी
शफ्के-सुर्ख नई सुबह के नग्मे गाती
इक नए दौर का परतौ है उफक की लाली
इक नए हुस्न की खातिर ये हिनाबंदी है
एक ही सतह पे उतरे हैं निशेब और फराज
अब किस इंसान को दावा-ए-खुदावंदी है
इक नए दौर का परतौ है उफक की लाली
इक नए हुस्न की खातिर ये हिनाबंदी है
एक ही सतह पे उतरे हैं निशेब और फराज
अब किस इंसान को दावा-ए-खुदावंदी है
आ गया वह समय जब हम और सनम न ढालें। और नए मंदिर न खड़े करें। और नए रिवाज और नए क्रियाकांड न बुनें। उतर चुकीं बहुत किताबें, उतर चुके बहुत रसूल, बन चुके बहुत उसूल, अब समय आ गया कि यह सब बकवास बंद हो और हम भीतर उतरें। और भीतर तलाशें। बाहर की खोज हार गई, चुक गई, समाप्त हो गई। अगर कोई जगह बची है अब खोजने को तो वह मनुष्य का अंतर-आकाश है।
इसलिए मेरा जोर प्रार्थना पर नहीं, ध्यान पर है। इसलिए मेरा जोर मंदिरों पर, मस्जिदों पर नहीं; गीता पर, कुरानों पर, बाइबिलों पर नहीं; तुम्हारे भीतर के प्रगाढ़ मौन पर है। काश, तुम जान सको भीतर की शून्यता तो भगवत्ता तुम्हारी है। और तब तुम जानोगे कि कोई भगवान नहीं है, यद्यपि सारा जगत भगवत्ता से ओतप्रोत है।


दूसरा प्रश्न: भगवान,
आपने भगवान कृष्ण की सोलह हजार पत्नियों के प्रसंग में कहा कि
उनमें से अनेक दूसरों की पत्नियां थीं और कृष्ण उन्हें बलपूर्वक भगा लाए थे।
यह बात सही है।
लेकिन उसमें इतना जोड़ना जरूरी है कि ये सबकी सब अपने पतियों द्वारा प्रताड़ित-पीड़ित थीं
और उन्होंने कृष्ण से अपने उद्धार के लिए प्रार्थना की थी।
कृष्ण ने बस उद्धारक का काम किया था।
आप क्या कहते हैं?

पंचानन पाठक,
यह बात सबसे पहले जान लेनी जरूरी है कि क्या प्रमाण है तुम्हारे पास कि इन पत्नियों ने कृष्ण से उद्धार की प्रार्थना की थी? हां, कृष्ण की खुशामद में लिखी गई किताबों में यह बात लिखी है? अगर रावण जीत गया होता तो रावणलीला लिखी गई होती, रामलीला नहीं। और उसमें यह बात जरूर लिखी गई होती कि सीता ने ही प्रार्थना की थी उद्धार की।
यह सूत्र तुमने बार-बार सुना है--सत्यमेव जयते, कि सत्य की सदा विजय होती है। बात बिलकुल उलटी है। जो जीत जाता है, लोग उसको सत्य कहने लगते हैं। सत्य की विजय होती है या नहीं, यह तो पक्का नहीं, लेकिन जो विजयी हो जाता है लोग उसी को सत्य कहने लगते हैं। तुमने राम को पूजा क्योंकि राम विजयी हो गए। तुम रावण को पूजते अगर रावण विजेता हो जाता। विजय की पूजा है। कहते हैं न: लोग उगते सूरज को नमस्कार करते हैं, डूबते को कौन नमस्कार करता है!
किसने ये ग्रंथ लिखे? ये सोलह हजार स्त्रियों ने उद्धार के लिए प्रार्थना की थी। इतने बड़े देश में केवल सोलह हजार स्त्रियां ही प्रताड़ित थीं! कहते हैं महाभारत के युद्ध में कोई सवा अरब आदमी मरे। जब सवा अरब आदमी मर सकते हैं महाभारत के युद्ध में तो इस देश में कम से कम तीन-चार अरब आदमी तो रहे ही होंगे। दो अरब स्त्रियां रही होंगी। और जब सवा अरब आदमी मर गए तो इनकी सवा अरब औरतें तो कम से कम दुखी रही ही होंगी। केवल सोलह हजार स्त्रियां! क्योंकि ऐसा तो कोई उल्लेख मिलता नहीं कि महाभारत के बाद सवा अरब स्त्रियों ने अग्नि में जलकर सती होने का कोई निर्णय किया हो। सवा अरब स्त्रियां जलतीं तो अग्नि अभी तक भी बुझती नहीं। बहुत दुखी रही होंगी स्त्रियां। इन सबने प्रार्थना तो की ही होगी--और तो करने को क्या था? बिचारे रवींद्रनाथ तक प्रार्थना कर रहे हैं! तो बाकी स्त्रियां और तो करतीं ही क्या?
केवल सोलह हजार स्त्रियां और वे भी सुंदर ही सुंदर! एकाध कुरूप स्त्री ने कोई प्रार्थना नहीं की? सुंदर स्त्रियां ही पीड़ित थीं? और चलो ये भी मान लें, एकाध पति ने प्रार्थना न की? क्योंकि मेरे देखे में तो अनुभव कुछ और ही है। पत्नियों से पति कहीं ज्यादा पीड़ित हैं। अगर सोलह हजार स्त्रियों को भगाया था तो कम से कम बत्तीस हजार पतियों को भी भगाना पड़ता। तुम पतियों से पूछ लो।
मुल्ला नसरुद्दीन का बेटा उससे कह रहा था, पापा, आपने मम्मी से शादी क्यों की?
मुल्ला नसरुद्दीन ने उसे गौर से देखा और कहा, हरामजादे, तो तुझे भी आश्चर्य होने लगा?
अपनी पत्नी के हाथ में क्रिकेट का बल्ला देखकर मुल्ला नसरुद्दीन ने पूछा, क्या तुम छक्के लगा सकती हो?
पत्नी ने कहा, मैं छक्के-वक्के लगाना नहीं जानती, मैं छक्के छुड़ा सकती हूं।
चंदूलाल मुल्ला नसरुद्दीन से कह रहे थे, जादू वह जो सिर चढ़कर बोले।
मुहावरा सुनकर नसरुद्दीन ने कहा, जादू न हुआ, पत्नी हो गया।
टानिक बनाने वाली कंपनी के पास एक महिला का प्रशंसापत्र इन शब्दों में आया--आपका टानिक निस्संदेह बहुत कारगर है। पहले मैं अपने बच्चे तक को भी पीट नहीं सकती थी। टानिक खाने के बाद अब घर के सारे कामकाज निपटा लेने के अलावा अब पति को भी एक-दो हाथ जमा देती हूं।
पति-पत्नी में झगड़ा हुआ, दोनों बहुत गुस्से में थे, पति रोते हुए बोला, भगवान, हे भगवान, मुझे उठा ही लो!
पत्नी भी चिल्लाई, भगवान, मुझे भी उठा लो।
पति ने इस पर फौरन कहा, तो भगवान, मुझे वहां न ले जाना जहां इस बाई को ले जाओ। नहीं तो मरे और बेकार मरे!
एक जीवन-बीमा कंपनी का दफ्तर। बीमा कंपनी का आफीसर मुल्ला नसरुद्दीन से पूछ रहा है कि मुल्ला, आप अपने हाथ-पैरों का बीमा कराना चाहते हैं? कराइए, लेकिन यदि आपकी पत्नी आपके हाथ-पैर तोड़ देगी तो हम इसे दुर्घटना नहीं समझेंगे।
यह तो रोजमर्रा की बात है। यह कोई दुर्घटना नहीं।
शादी की सालगिरह नजदीक थी। पत्नी ने पति से पूछा, इस बार हम शादी की सालगिरह किस तरह मनाएंगे? तुम ने कुछ सोचा?
मेरे विचार से इस बार वर्षगांठ के दिन पांच मिनट अगर मौन रखें तो कैसा रहे!--पति ने अपनी योजना बताई।
कहां मौन! पांच मिनट मौन हो जाए तो बहुत!
चीनी की कीमती प्याली हाथ से गिरकर टूट जाने से पलंग के नीचे दुबके हुए मुल्ला नसरुद्दीन से पत्नी बोली, अजी, मैं कहती हूं बाहर निकलो!
मुल्ला नसरुद्दीन बोला, घर का मालिक मैं हूं, जहां मेरी मर्जी होगी वहां बैठूंगा!
और पलंग के नीचे बैठने का कारण है। क्योंकि पत्नी मोटी है और पलंग के नीचे नहीं घुस सकती, वही जगह एकमात्र सुरक्षित है।
कृष्ण को एक भी पति ने प्रार्थना न की! सोलह हजार पत्नियां, तुम कहते हो, पंचानन पाठक, कि आप अपनी बात में इतना और जोड़ दें कि ये सबकी सब अपने पतियों द्वारा प्रताड़ित-पीड़ित थीं और उन्होंने कृष्ण से अपने उद्धार के लिए प्रार्थना की थी।
बस, स्त्रियों ही स्त्रियों ने प्रार्थना की? या उनने सिर्फ स्त्रियों की ही प्रार्थना सुनी, पतियों की कोई दरखास्त स्वीकार ही नहीं की। एकाध पति का भी उद्धार करते तो मैं भी कहता कि हां, उद्धारक हैं।
स्त्रियों के कपड़े चुरा-चुराकर झाड़ों पर बैठते रहे, कभी तो पुरुषों के भी चुराते! पुरुषों का उद्धार ही नहीं करते, बस स्त्रियों ही स्त्रियों का उद्धार! द्रौपदी की साड़ी बढ़ाते गए, बढ़ाते गए, एकाध पुरुष का लंगोट भी तो बढ़ाते! कि पुरुषों की लंगोट भी छिन गई। कि जो बड़े लंगोट के पक्के थे वे भी लंगोट गंवा बैठे। एकदम बढ़ाते जाते लंगोट, कितना ही गंवाने की कोशिश करते, न गंवा पाते! ऐसा मजबूत लंगोट दे देते।...बस, स्त्रियों ही स्त्रियों की रक्षा! बड़ा गजब उद्धार किया!
और क्या इन सोलह हजार स्त्रियों का उद्धार कर लेने से स्त्रियां प्रताड़ित होना बंद हो गईं? जरूर मैं उद्धारक कहता अगर विवाह को ही समाप्त कर देते। तो पुरुषों का भी उद्धार हो जाता, स्त्रियों का भी उद्धार हो जाता। कुछ नई ईजाद करते। स्त्री और पुरुष के बीच कोई नए संबंध की शैली बताते। यह सड़ी-गली शैली, जिसके परिणाम स्त्रियां भुगत रही हैं, पुरुष भुगत रहे हैं, दोनों नर्क में जी रहे हैं! ऐसा एकाध-दो का उद्धार कर लेने से, हजार-दो हजार का उद्धार कर लेने से या सोलह हजार का उद्धार कर लेने से क्या होता है! यह तंत्र ही सड़ा-गला है। इस तंत्र की जगह कोई नया तंत्र सुझाते। तो मैं जरूर कहता कि उद्धारक थे।
इसलिए, पंचानन पाठक, मैंने तो जो बात कही उतनी ही कहूंगा, उसमें कुछ जोड़ नहीं सकता हूं।

तीसरा प्रश्न: भगवान,
यह मेरा आखिरी प्रश्न है।
इसके बाद मैं आपसे संन्यास लेकर मौन हो जाना चाहता हूं।
मेरा प्रश्न यह है कि आप बुद्धपुरुषों तथा धर्मगुरुओं के संबंध में कुछ ऐसे वक्तव्य दे देते हैं
जिससे उनके मानने वाले भड़क जाते हैं।
जैसे इन्हीं दिनों आपने हरेकृष्ण आंदोलन वालों तथा कुछ पारसियों को अपने वक्तव्यों द्वारा नाराज कर दिया।
महर्षि महेश योगी, साईं बाबा, मुक्तानंद, आचार्य तुलसी, मदर टेरेसा, पोप, शंकराचार्य
और सभी धर्मगुरु आपसे खिन्न हैं।
धीरे-धीरे आप सभी को नाराज किए जा रहे हैं।
आपके काम करने की यह कैसी बेबूझ शैली है?
भगवान, एक निवेदन और कि आप मेरा नाम भारतानंद भारती नहीं रखना।

भारत भूषण,
इस बात से मैं राजी हूं। भारतानंद भारती तुम्हारा नाम नहीं रखूंगा। और आनंदित हूं कि तुमने संन्यास का साहस जुटा लिया। और इससे भी आनंदित हूं कि यह तुम्हारा आखिरी प्रश्न है। क्योंकि जो निष्प्रश्न हुआ, वह बुद्धत्व से बहुत दूर नहीं। जिसने आखिरी प्रश्न पूछ लिया, उसके बाद फिर उत्तर ही बचता है, फिर और कुछ बचता नहीं।
रही मेरे काम करने की शैली, वह निश्चित बेबूझ है। लेकिन इतनी बेबूझ भी नहीं कि थोड़ी तलाश करो तो समझ में न आ जाए।
तुम पूछते हो कि "आप बुद्धपुरुषों तथा धर्मगुरुओं के संबंध में कुछ ऐसे वक्तव्य दे देते हैं जिनसे उनके मानने वाले भड़क जाते हैं।'
कम से कम जगते तो हैं। नहीं तो सोए हैं--घुर्राते हैं। भड़क जाते हैं, यह तो ठीक। अरे, सौ भड़केंगे तो एकाध तो मेरे पास चला आएगा। मगर सौ ही सोए रहे तो एक के भी आने की संभावना नहीं। सो मैं निन्यानबे जो भड़क गए उनकी फिक्र नहीं करता वे फिर सो जाएंगे। कितनी देर भड़के रहेंगे? कइयों को भड़काकर मैं देख चुका, थोड़े दिन बाद सो जाते हैं। फिर घुर्राने लगते हैं। मगर एकाध-दो जो उस भड़काने में आ जाते हैं वे आ जाते हैं। यह सौदा महंगा नहीं। थोड़ी-बहुत गालियां मुझे देकर वे तो फिर सो जाएंगे।
अब जैसे कि अभी पारसियों को भड़का दिया। ये तो जल्दी सो जाएंगे। पारसी ऐसे ही भले आदमी हैं, भड़केंगे भी तो क्या खाक भड़केंगे! थोड़ा उछल-कूद करेंगे और फिर कहेंगे कि अब क्या सार है! अपना चादर ओढ़कर फिर सो जाएंगे! ऐसे ही बहुत बहादुर होते तो ईरान छोड़कर काहे को भागे होते...! ईरान छोड़कर भागे, सारा ईरान गया, अब कुल बचे हैं थोड़े से। वह भी बस बंबई के भीतर और बंबई के आसपास। नब्बे प्रतिशत बंबई में और दस प्रतिशत समझ लो कि खंडाला, लोनावाला...बहुत दूर निकले तो पूना! या वे बहुत ही बहादुर हुए तो पंचगनी! बस, यहां सारा नक्शा समाप्त। सीधे-साधे भोले-भाले लोग हैं। ऐसे तो सुनते ही नहीं, ऐसे तो सोए ही रहते हैं, सो भड़काना जरूरी था। जो भड़क गए हैं, उनमें से कुछ जरूर मेरे पास आ जाएंगे। और जो समझदार हैं, वे निश्चित समझेंगे। समझदार के सोचने के ढंग अलग होते हैं।
कल ही मुझे एक पत्र मिला। पत्र है: महंत खेमदासजी साहब का। लिखा है: भगवान, महंत खेमदास का प्रेम स्वीकार करें। मैं कबीर-मंदिर, बड़ौदा में महंत हूं। आपकी किताबें और प्रवचन सुनकर महसूस होता है कि आप राम, कृष्ण, कबीर, बुद्ध, मोहम्मद आदि सब बुद्धों के निचोड़ हैं। आपके दर्शन के लिए तड़प रहा हूं! लेकिन भक्तों के बीच से छूटकर आना मुश्किल बन गया है। भीड़ में भी अकेला जीने के लिए तूफान बढ़ रहा है। मेरे पास आते हुए लोगों को देने के लिए प्रेम के अलावा कुछ भी नहीं है। हरि नहीं मिले, लेकिन हरि दर्शन के लिए जी तड़पने लगा है।
भगवान, मैं आपका आशीर्वाद चाहता हूं। जिससे दिल में उठी कोई अनजानी प्यास को बुझा सकूं। कबीर साहब पर बोलकर आपने सब काम पूरा कर दिया।
अब किसी मंदिर के महंत से ऐसी आशा तुम कर सकते हो? लेकिन जब कुछ लोग जगेंगे--भड़केंगे तो जगेंगे--जो जगेंगे, उनमें से कुछ तो जरूर खिंचे चले आएंगे। अब कोई महंत अगर यह स्वीकार करता हो कि हरि की प्यास जगी, हरिदर्शन की आकांक्षा जगी, और आने को आतुर हो रहा है, तो भड़काना महंगा सौदा नहीं है। बाकी निन्यानबे तो सोए थे, फिर सो जाएंगे। उनकी क्या चिंता लेनी!
यह मेरे काम की शैली सीधी-सीधी है, गणित की है। आखिर इतने लोग जो मेरे पास इकट्ठे हो रहे हैं, ये कैसे इकट्ठे हो रहे हैं? मैं यहां बैठा रहता हूं, अपने कमरे से निकलता नहीं--और सारी दुनिया में लोगों को भड़काए रखता हूं। चमत्कार और किसे कहते हैं? कमरे से बाहर भी नहीं निकलता!
अभी कल खबर मुझे आई--पोस्टर आया है--एमस्टर्डम के विश्वविद्यालय ने छह महीने की शृंखलाबद्ध प्रवचनमालाएं रखी हैं मेरे ऊपर, मेरे पक्ष और विपक्ष में। जिसमें छह महीने तक सतत अनेक लोग व्याख्यान देने वाले हैं। वैज्ञानिक बोलेंगे, मनोवैज्ञानिक बोलेंगे, दार्शनिक बोलेंगे, धर्मगुरु बोलेंगे, पादरी बोलेंगे, मेरे संन्यासी बोलेंगे।
हालैंड में--जिसका मुझे ठीक-ठीक नक्शा भी पता नहीं कि सच में कहां है! क्योंकि भूगोल में मैं पहले ही से कमजोर। सच पूछो तो सभी चीजों में कमजोर--इतिहास में, भूगोल में...। इस तरह की व्यर्थ बातों में मुझे कोई रस रहा नहीं। अगर मुझसे तुम एकदम पूछो कि हालैंड कहां है तो मैं ठीक-ठीक नहीं बता सकता। लेकिन मैं कहा हूं, हालैंड में हर आदमी जानता है। असली बात वही है। इसको कहते हैं भूगोल का ज्ञान।
तीन दिन पहले हालैंड के एक बहुत बड़े अखबार ने आपके भीतर कितना संतोष है, इसकी जांच के लिए प्रश्न रखे हैं। पहला प्रश्न, इसमें दस अंक मिलते हैं; दूसरा प्रश्न, इसमें चालीस; इसका हां में उत्तर दो तो पचास, न में उत्तर दो तो इतना। और दो सौ चालीस अंक जिसको मिलते हैं, उसके लिए सुझाव है संपादक का कि फिर भगवान के पास पूना जाओ। कि तुम्हारा संतोष अब जरूरत से ज्यादा हो गया। इतना संतोष रखकर यहां क्या कर रहे हो?
जर्मनी में उपद्रव है, भारी उपद्रव है। इटली में उपद्रव है, इंग्लैंड में उपद्रव है, जापान में उपद्रव बढ़ रहा है। तुम सोचते हो मेरे काम करने के ढंग में कुछ गलती है? और तो किसी तरह से काम किया जा सकता नहीं। ये सब तो मेरे बहाने हैं; मुझे क्या लेना-देना है--महेश योगी से कि साईंबाबा से कि मुक्तानंद से कि तुलसी से कि टेरेसा से कि शंकराचार्य से। जाएं सब नरक, मुझे क्या लेना-देना है। जहां जाना हो जाएं। मगर इनको मैं कुछ कह-कहकर इनके पीछे चलने वालों की जो भीड़ है उसको भड़का देता हूं। उसमें से कुछ भड़ककर इधर चले आते हैं कि देखें मामला क्या है! बस, यहां आए कि आए।
अब जैसे भारत भूषण, तुम आ गए। सोचा भी न होगा कि संन्यास लेना पड़ेगा! तुम तो यूं ही बातचीत कर रहे थे, प्रश्नों में से प्रश्न उठा रहे थे, उलझ गए, उलझते चले गए। अब बात बिगड़ने के करीब आ गई। अब डुबकी मारनी पड़ेगी। आखिर जब कपड़े उतार कर बिलकुल खड़े हो गए किनारे पर तो अब लौट भी नहीं सकते। बेफिक्र रहो! प्यारा नाम दूंगा! अब मारो डुबकी!
मेरे काम करने के अपने ढंग हैं।

आखिरी प्रश्न: भगवान,
चल बुल्लिया चल ओथे चलिए
जित्थे वसण सारे अन्ने
ना कोइ साडी जात पछाणें
ते न कोई सानूं मन्ने।।
"अर्थात बुल्लेशाह कहते हैं कि बुल्ले,
चल वहां चलें जहां सब अंधे बसते हैं और जहां न हमारी कोई जाति पहचाने और न ही हमें माने।'
भगवान, मैंने बिना अर्थ समझे इसे बहुत गाया और गुनगुनाया है।
निवेदन है कि अब आप इसका अर्थ भी समझा दें।

योग शुक्ला,
यह मुसीबत आती है। अब जैसे मैं ही हूं। अभी लोगों को भड़का रहा हूं, जगा रहा हूं। फिर ज्यादा लोग भड़क जाएं और ज्यादा लोग जग जाएं और यहां भीड़-भड़क्का इतना हो जाए कि जीना मेरा मुश्किल हो जाए, तो फिर मैं भी कहूंगा:
चल बुल्लिया चल ओथे चलिए
जित्थे वसण सारे अन्ने।
ना कोइ साडी जात पछाणें
ते न कोई सानूं मन्ने।।
फिर और क्या करूंगा? फिर कहूंगा: संत महाराज, चल बुल्लिया, चल ओथे चलिए, जित्थे वसण सारे अन्ने! एक संत ही समझेंगे इस भाषा को। ना कोई साडी जात पछाणें, ते न कोई सानूं मन्ने। जब बहुत मेला भर जाए यहां--कुंभ का मेला भर जाए--तो मैं संत को लेकर नदारद! आखिर बरदाश्त की भी एक सीमा होती है न!
ऐसी हालत बुल्लेशाह की हो गई थी। बहुत भक्त इकट्ठे हो गए। और वह जमाना और ढंग का था। मैं तो व्यवस्था से रहता हूं, मुझे भक्त कितने ही इकट्ठे हो जाएं, ऐसी नौबत आएगी नहीं। इतने पहरेदार हैं कि घुसोगे कहां? मैं तो अकेला ही रहता हूं। यहां कितनी ही भीड़ इकट्ठी हो जाए, मुझे कुछ फर्क नहीं पड़ता। ये पहरेदार तुम सोचते हो किसलिए बिठा रखे हैं! ये इसीलिए बिठा रखे हैं कि यह हालत न आए अपनी कि जो बुल्लेशाह की हो गई थी।
मैं जबलपुर में कोई दस-पंद्रह वर्ष रहा। वहां एक फकीर थे--मग्गा बाबा। बहुत प्यारे आदमी थे। कोई उनका नाम नहीं जानता था। मग्गा बाबा इसलिए कि हाथ में हमेशा एक मग्गा रखते थे। उसी में खाना, उसी में पानी पी लेते, उसी में कोई पैसा डाल जाता--बस, मग्गा ही उनका सब कुछ था, इसलिए मग्गा बाबा। कोई उनका नाम जानता नहीं था, नाम उन्होंने किसी को कभी बताया नहीं, लोग पूछते तो वे मग्गा बता देते। तो लोग कहने लगे--मग्गा बाबा। अब और क्या करो!
उनको लोग सोने ही नहीं देते थे। दिनभर उनकी सेवा होती रहे! और रात भी। क्योंकि बेचारे रहते थे एक दुकान के छप्पर में। दुकान जब बंद हो जाती तो रात वे छप्पर के बाहर सोते। और रात में रिक्शा वालों की जमात वहां इकट्ठी हो जाती। अब रिक्शा वालों को कोई काम नहीं रात में। जब ट्रेन आएगी तब वे लोग ले जाएंगे, लाएंगे, बाकी समय खाली बैठे। तो मग्गा बाबा के पास आग भी जलती थी--सर्दी की रात हो तो आग जलती--और मग्गा बाबा लेटे हैं और रिक्शा वाले उनके पैर दबा रहे हैं; कोई उनका माथा दबा रहा है, कोई उनका हाथ दबा रहा है। कभी-कभी मैं उनके पास जाता था। जहां तक मेरा खयाल है उन्होंने मेरे सिवाय शायद ही किसी से कभी कोई बात की!
कभी न होता कोई तो वे मुझसे कहते कि मुझे बचाओ! ये दुष्ट सोने ही नहीं देते। रात भी पांव दबा रहे हैं! आखिर मैं सोऊं कब? और एकाध नहीं, चार-छह आदमी इकट्ठे लगे हैं। वे अपनी सेवा कर रहे हैं। और मग्गा बाबा सीधे-सादे आदमी, वे ना भी न कहें, हां भी न कहें--न किसी से कभी उन्होंने कहा कि सेवा करो, न कभी किसी से कहा मत करो।
रिक्शे वाले उनके खास भक्त थे, क्योंकि रातभर सेवा करते थे। तो हर किसी रिक्शे में बैठकर वे चल देते थे। जहां रिक्शा जा रहा हो। क्योंकि उन्हें कहीं जाना नहीं। अब वहां पहुंच ही चुके थे जहां पहुंचना है। किसी भी रिक्शे में बैठ जाते। और रिक्शा वाला बहुत ही आनंदित हो जाता कि सौभाग्य है उसका! कि बाबा, कहां चलना है? बाबा कहते कि कहीं भी। सो रिक्शा वाला चक्कर लगाता--जहां भी! और लोग देखते कि बाबा जा रहे हैं, तो कोई उनके मग्गा में पैसा डाल जाता, कोई रुपए डाल जाता, कोई कुछ डाल जाता। और लोग उनके मग्गे में से रुपए निकाल भी लेते, तो भी कोई अड़चन नहीं थी। कोई एकाध आदमी आकर पूरा मग्गा खाली करके ले जाता, तो वे अपना मग्गा खाली कर लेने देते। कोई भर जाता तो भर लेने देते। उनकी चोरी हो गई कई दफा--कई दफा! कोई रिक्शा वाला उनको चुराकर ही ले जाता। दूसरे गांव ही ले गया। महीने-पंद्रह दिन बाद पता चलता कि मग्गा बाबा को चुराकर ले गया है कोई। फिर उनको दूसरे गांव से लाया जाता। और आखिरी बार वे जो चोरी गए सो आज तक पता नहीं है कि क्या हुआ।
जहां तक मेरा खयाल है, वे आखिरी बार चोरी नहीं गए--
चल बुल्लिया चल ओथे चलिए
जित्थे वसण सारे अन्ने।
ना कोई साडी जात पछाणें
ते न कोई सानूं मन्ने।।
घबड़ा गए होंगे बहुत! सो भाग खड़े हुए थे। कि बुल्ले, चल, वहां चलें जहां सब अंधे बसते हों और जहां न कोई हमारी जात पहचाने और न ही हमें माने।
मुझे तो ऐसी अड़चन नहीं आ सकती। क्योंकि कितनी ही भीड़ हो, मैं अकेला हूं। यहां सारी दुनिया इकट्ठी हो जाए तो मैं अकेला हूं।
लेकिन बुल्लेशाह के ढंग तो ऐसे नहीं थे। मेरा तो अपने जीवन का ढंग है। मैं कोई लकीर का फकीर नहीं हूं। मैं फकीर भी हूं तो अपने ढंग का हूं, बादशाही ढंग का फकीर हूं। मेरे कमरे में कोई आवाज नहीं पहुंचती। और नए कम्यून में तो जो कमरा बना रहा हूं वह बिलकुल साउंड-प्रूफ है। क्योंकि नए कम्यून में तो आने वाली है संख्या भारी। इत्ते जो लोग भड़का रहा हूं सारी दुनिया में! फिर इसका फल तो भोगना ही पड़ेगा! अरे, कर्म जो करता है उसको फल भोगना ही पड़ता है। इसमें तरहत्तरह के पागल, तरहत्तरह के झक्की, तरहत्तरह के लोग आएंगे। तो साउंड-प्रूफ ही होना चाहिए रूम।
और वातानुकूलित, तो मुझे कोई फिक्र नहीं पड़ती--कौन सी सर्दी है, कौन सी गर्मी है, वर्षा है, क्या हो रहा है बाहर की दुनिया में, मुझे कुछ लेना-देना नहीं है। मैं तो अपने तापमान पर ही जीता हूं। और अपने शून्य में और अपनी मस्ती में। सुबह-सांझ निकल आता हूं जरा देखने कि क्या हाल हैं! अंधे कहां तक पहुंचे? किसी ने आंखें खोलीं कि नहीं खोलीं? या कितनों की आंखें खुल गईं? जिनकी नहीं खुली हैं उनको कहता हूं: खोलो; जिनकी खुल गई हैं उनसे कहता हूं: बंद करो। क्योंकि जो लोग अभी अंधे हैं, खुली आंख आदमी को देख लें, नाराज हो जाएं, आंखें फोड़ दें। एकदम गुस्से में आ जाते हैं।
अभी यूं हुआ न कि विमलकीर्ति संबोधि को उपलब्ध हुआ। मेरे पिता की मृत्यु हुई और वे संबोधि को उपलब्ध हुए तो बहुत अड़चन नहीं हुई। क्योंकि लोगों को लगा मेरे पिता थे, होना ही चाहिए! लेकिन विमलकीर्ति संबोधि को उपलब्ध हो गया, तो कई को अड़चन हो गई। इसलिए तो मर जाने के बाद मैं घोषणा करता हूं, कि अब क्या बिगाड़ लोगे बिचारे का! अब तो गया ही। यहां और भी बहुत से लोग हैं जो जिंदा हैं और संबोधि को उपलब्ध हो गए हैं, मगर मैं उनके नाम न लूंगा। मैं चुप्पी साधे रहूंगा। कहूंगा कि बच्चू, पहले मरो, फिर बताऊंगा। क्योंकि नहीं तो दूसरे मार डालेंगे। समझ लो कि मैं कह दूं अजित सरस्वती संबोधि को उपलब्ध हो गए, अभी पिटाई हो गई! अभी धक्कम धक्की हो जाएगी। हजार तरह के लोग प्रश्न खड़े करने लगेंगे कि तुम कैसे हुए उपलब्ध? मराठी मानस और संबोधि को उपलब्ध हो गए! अरे, किसी और को चराना! किसी और को बनाना! कभी नहीं हो सकते! हजार प्रश्न खड़े करेंगे। हजार झंझटें खड़ी करेंगे। हजार परीक्षाएं लेंगे कि आदमी घबड़ाकर ही कह दे कि भइया, माफ करो, मैं नहीं हुआ!
इसलिए जब कोई मर जाता है तब मैं घोषणा करता हूं कि यह आदमी संबोधि को उपलब्ध हुआ था या नहीं। जैसे विमलकीर्ति। अब विमलकीर्ति के साथ जो लोग और काम में लगे थे--विमलकीर्ति कभी बगीचे में काम करता था, तो बगीचे में जितने माली हैं काम करने वाले, वे सब कहते हैं कि यह नहीं हो सकता। अरे, अभी हम नहीं हुए! अब विमलकीर्ति गार्ड का काम करता था। तो विमलकीर्ति की जहां समाधि बनी है वहां एक गार्ड है, वह गार्ड भी मानने को राजी नहीं कि विमलकीर्ति संबोधि को उपलब्ध हो गए। वह भी गार्ड किसी को समझा रहा था कि भगवान ने मजाक किया है। अरे, अभी मैं नहीं हुआ! मैं विमलकीर्ति से पुराना गार्ड! और किसी ने कभी सुना है कि कोई जर्मन और संबोधि को उपलब्ध हो गया हो! मजाक किया है।
लेकिन अगर विमलकीर्ति जिंदा होता तो ये लोग मुसीबत खड़ी कर देते। ये मानते ही न। ये भरोसा ही नहीं करते।
आदमी बहुत अजीब है। बुल्लेशाह जैसे लोग मुश्किल में पड़ गए हैं। और खुद पड़े अपने हाथ से! किसी ने कहा न था। मगर मुसीबतें हैं ऐसी जिनसे बचा नहीं जा सकता। जब आनंद उपलब्ध होता है तो बांटना ही पड़ता है। अनिवार्यरूपेण। जब बोध उपलब्ध होता है तो बुद्धुओं को जगाना ही पड़ता है। अनिवार्यरूपेण। एक ऐसी भीतरी बेचैनी हो जाती है। जब सब तरह से चैन आ जाता है तो एक नई बेचैनी आ जाती है कि जगाओ! जैसे बादल जल से भरा हो तो बरसे बिना नहीं रह सकता। और दीया जले तो रोशनी फैलेगी। और फूल खिले तो गंध उड़ेगी। ऐसे बुल्लेशाह मुश्किल में पड़ गए होंगे, योग शुक्ला! बहुत भीड़-भाड़ हो गई होगी।
बुल्लेशाह सचमुच शहंशाह थे। उन थोड़े से अदभुत लोगों में एक हैं जिन्होंने जाना है। तो खबर तो भेज दी। जब खबर भेजी तब तो पता नहीं था, जब पाती लिखी तब तो पता नहीं था कि कितने लोग आ जाएंगे, फिर भीड़-भाड़ आ गई। और मेरे जैसी व्यवस्था भी नहीं थी। तो लोग दबा रहे होंगे पैर। कोई फूलमाला पहना रहा होगा। एक से एक अजीब लोग हैं!
फ्रांस में ऐसा रिवाज था कि अगर कोई व्यक्ति ज्ञान को उपलब्ध हो जाए तो उसका कपड़ा फाड़ लो। कपड़े का फाड़कर ताबीज बना लो। उससे बड़ा पुण्य होता है।
तो अब तुम सोच लो! जो आदमी ज्ञान को उपलब्ध हो जाए, अगर उसे अपने कपड़े बचाने हों तो चुप ही रहे। नहीं तो कपड़े छिन जाते, आदमी नंगा घर लौटता। और कपड़े ही नहीं छिनते, छीना-झपटी ऐसी हो जाती कि खरोंचें लग जातीं, खून निकल जाता।
एक से एक धारणाएं हैं लोगों की।
एक गांव में--मैंने सुना कहानी है--कि काशी का एक पंडित आया। और काशी के ज्ञान से भरा हुआ आया था। गांव में भी एक मूर्ख था, जो पंडित के न आने तक पंडित समझा जाता था। अरे, गांव का ही मूर्ख था, मगर गांव के लोग उससे भी और पहुंचे हुए थे, और भी बड़े महामूर्ख थे। तो उनके बीच तो वह अंधों में काना राजा था। काशी के पंडित ने उसको चुनौती दी कि तू मुझे हरा, नहीं तो पंडित नहीं, मेरा शिष्य हो।
विवाद हुआ। बेचारा गांव का गरीब क्या करे! मगर मूर्ख भी साधारण न था, वह असाधारण मूर्ख था। पंडित ने बड़ी ज्ञान की बातें कीं। उससे पूछा, कितने वेद होते हैं? उसे यह भी पता नहीं था, सीधा-सादा आदमी गांव का, उसने कहा--कितने वेद! तुम्हीं बताओ कितने होते हैं? तो पंडित ने कहा, चार होते हैं। उस गांव के पंडित ने गांव के लोगों से कहा, सुन लो, क्या कह रहे हैं! चार होते हैं!...और उनकी पत्नियां कितनी?
काशी का पंडित तो बहुत घबड़ाया कि यह तो हद हो गई, वेद की और पत्नियां! मगर गांव के लोग बहुत प्रसन्न हुए कि मारा, फैसला कर दिया, खतम कर दिया! कि एक झटके में उतार दिया! और गांव के मूर्ख ने कहा, जब चार वेद हैं तो चार वेदनियां भी होंगी कि नहीं होंगी? और उनके बाल-बच्चे कितने जी?
काशी का पंडित तो चौंका ही रह गया, उसकी तो कुछ समझ में ही न आया। और गांव के मूर्ख ने एक और तरकीब निकाली कि यह आदमी बड़ा पहुंचा हुआ है, देखो कैसा चुपचाप बैठा है! इसके दाढ़ी के बाल खींच लो! जिसके हाथ में बाल पड़ जाएगा उसका मोक्ष निश्चित है।
काशी के पंडित की जो गति हुई वह तुम सोच सकते हो। दाढ़ी के ही नहीं, सिर के भी बाल नहीं बचे। सारे बाल ही खतम हो गए, जो कुटाई-पिटाई हुई। बहुत चीखा-पुकारा-चिल्लाया, मगर कौन सुने? अरे, सब अपनी में पड़े थे कि अपने को जितने मिल जाएं! और फिर अपने ही लिए थोड़े ही, बच्चों के लिए, पत्नी के लिए, मोहल्ले वालों के लिए, मेहमानों के लिए, रिश्तेदारों के लिए, खींच लो! रोता हुआ काशी का पंडित वापस लौटा।
बुल्लेशाह मुश्किल में पड़ गए होंगे। तो उन्होंने कहा कि अब तो ऐसा करें कि उस जगह चलें जहां सब अंधे हों और जहां हमारी जात कोई न पहचाने। जहां साधु को कोई पहचान न सके। जहां बुद्ध को कोई पहचान न सके। ऐसी जात। और न कोई हमें माने। जब पहचानेगा ही नहीं तो मानेगा क्या?
शुक्ला! प्रीतिकर वचन है:
चल बुल्लिया चल ओथे चलिए
जित्थे वसण सारे अन्ने।
ना कोई साडी जात पछाणें
ते न कोई सानूं मन्ने।।

आज इतना ही।



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