पापा और मम्मी जी को इतनी मेहनत करते देखता तो मुझे लगता की ये इंसान इतनी मेहनत कैसे कर सकता है। आप को ये सब कुछ जान कर अजीब लगा होगा, कि मैं मनुष्य की तरह पापा मम्मी बोलता हूं। अब मैं भी क्या करू जब सब बच्चे उन्हें इसी तरह से बुलाते है तब मैं कैसे उन्हें किस नाम से पुकार सकता हूं। मम्मी पापा जी ने कभी मुझे अपने बच्चों से अलग नहीं समझा। और सच कहुं तो मुझे मेरी मां की याद तो कही अंधेरे कोने में दबी हुई दिखाई देती है। परंतु प्रकृति का लगाव जो मुझे इस शरीर से मिला है, उसे मना नहीं कर सकता हूं। हाँ तो मैं कह रहा था कि मानव कितना मेहनती है ताकतवर है।
आदमी सुबह से उठ कर सार दिन काम करता ही रहता है। ये सब बातें में पूरी मनुष्य जाति के लिए नहीं कहा रहा हूं। केवल जिन लोगों के संग—साथ मैं रहा हूं या जिन्हें मैंने जाना था। दिन भर हमारा तो सो लेना ही पूरा नहीं होता था। जब देखो तब सोना जहां जाओगे आपको आस पास बस यहीं तो देखोगे। मानो हमारी जाति को कोई सोने की बीमारी है।
दिन—रात केवल सोना। दुकान पर दुध लाने से लेकर बेचना, फिर घर पर आकर कौन सा आराम कर लेते थे। पहले नहाते, मम्मी इतनी देर में खाना बना लेती थी। शायद आधे घंटे में फिर मम्मी जी नहाती। और दोनों ध्यान के कमरे में चले जाते। ये उनका रोज का नियम था। जो मेरे अचेतन में बस गया था। मैं आँख बंद कर भी आपको बता सकता था कि मम्मी पापा अब क्या कर रहे होगें।कभी—कभी मैं भी पापा जी के साथ उस कमरे में चला जाता था। क्योंकि वैसे तो वह ध्यान का कमरा सारा दिन बंद रहता था। उस उपर वाले कमरे में केवल ध्यान ही होता था। या रात को पापा जी उस में जाकर सोते थे। हम सब तो नीचे साल (बड़ा कमरा) में सोते थे। पर पापा जी कभी हमारे साथ नहीं सोते थे। और जिस दिन बच्चों की छुटटी होती तो वो भी ध्यान करते थे। इसलिए मुझे भी वहां जाना बहुत अच्छा लगता था। अब ध्यान के बारे में तो मैं अधिक नहीं जानता था। हमारा तो सोना ही ध्यान था। परन्तु एक बात तो तय है कि उस कमरे की शांति देखते ही बनती थी। आप उस में गए नहीं की आप एक नई उर्जा से सराबोर हो जाओगे। मानो आप कुछ नये हो गये आप के शरीर को पंख लग गये आप का शरीर निर्भार सा हो गया। ध्यान के उन पलों में आपका होना कितना हल्का हो जाता है। जब शरीर एक आनंद में होता है और हम एक तरंग पर सवार होते है।
पर पापा जी को तो इसके बाद भी बहुत काम होते थे। वरूण भैया को स्कूल से जाकर लाना होता था। करीब दस मील तो स्कूल होगा ही। क्योंकि उनके आने जाने में दो घंटे तो लग ही जाते थे। फिर आते ही दुकान पर चले जाते थे। इसके अलावा खाली समय निकाल कर पेड़ पौधों में पानी आदि देते, हमें घूमाने भी ले जाते थे। मेरा तो सर चकरा रहा ये सब सोच कर ही। आदमी ने भी अपनी जान के लिए कितनी आफत पाल रखी थी। हम तीन प्राणी ही ऐसे थे जो कोई काम नहीं करते थे। मैं टोनी और दादा जी। दादी जी का थोड़ा परिचय दे दूँ, दादा जी अंग्रेजों के जमाने के पुलिस में सिपाही थे। अब तो वहां से रिटायर्ड हो गये थे। अब भला सरकार के ही किसी काम के नहीं रहे तो घर में क्या काम कर सकते थे। सो हम तीनों इस काम के तराजू पर बेकार ही थे। नहीं बेकाम तो नहीं थे। भला इस समाज में बेकाम कोई रहने देता है। हमारा काम घर की रखवाली करना। सब को प्यार से आदर सम्मान देना। और दादा का काम पापा-मम्मी के काम की निगरानी करना।
मम्मी—पापा इतनी मेहनत—मशक्कत करने के बाद भी कैसे तरो—ताजा रहते थे। उनके जीवन में कोई तनाव नहीं दिखता था। कोई थकावट नहीं। शायद इस का राज कहीं—न—कहीं इस ध्यान में ही जरूर छुपा होगा। वरना तो में पड़ोस के लोगों का जीवन उनकी ऊंची आवाज में रात शराब पी शोर मचाना, अपने पड़ोसियों को गालियां बकना या अपनी बीबी बच्चों को मारना। ये सब जब मैं सुनता तो मुझे बहुत गुस्सा आता था। और फिर बहुत जोर-जोर से भोंकने लग जाता था। मुझे लगता ये कितने खराब आदमी है। उनकी इन हरकतों को देख कर भौंकने पर पापा जी खूब हंसते और मुझे प्यार से डाँटते भी कि तुम्हारी वकालत से क्या वो मान जाएगा। पर हमारी आदत हम रह नहीं सकते....किसी को गली में शोर करते हुए, या हाथा पाई करते हुए या कंधे पर कोई थैला लटका कर जाते हुए देखकर। अचानक मन में एक शक भर जाता और जो भी अजीब लगता वो हमारी जाति को जरा भी पसंद नहीं आता था।
हमें लगता कि ये जरूर कोई चोर या डाकू होगा। यही शायद हमारी खराब से खराब आदतों में से ही यह एक थी। कि हम प्रत्येक व्यक्ति पर शक करते थे। पर अब तो ये हमारी लाचारी बन गई थी। एक बात और जब कोई साधु महात्मा आ जाता तो लगता ये तो हमारे घर से सब ले जाएगा फिर हमें खाने को क्या मिलेगा। इसलिए मेरा जहां तक सवाल है मैं पुलिस के सिपाही, चौकीदार, या साधु या यूं कह लीजिए कि जो भी एक सी पोशाक में हो। हम जब उन्हें कहीं पर भी देखेंगे तो हम बिना भौके रह ही नहीं सकते। इसका क्या कारण हो सकता है? ये गहरा मनोविज्ञान का विषय है, जो शायद मनुष्य की समझ में कभी आ सकेगा। परंतु हमें तो भैया ये हमारे पूर्वजों ने हम दिया है यही तो हमारी एक मात्र पूंजी है।
कही ये हमारे अचेतन से आया भय तो नहीं? कभी किसी जमाने में जब फौज हमला करती, मार काट करती, या खून खराबा करती थी। शायद ये हमारे पूर्वजों ने वो सब देखा और जिया होगा, जो हमारे अचेतन में समा कर पीढ़ी दर पीढ़ी हमें विरासत में हमें सब मिल था। आज जो हम जानते है उसमे से 90%बातें तो हमें बिना किसी कारण के ही पता चल जाती है। हम हर एक वस्तु के विषय में मनुष्य कि तरह समझाया नहीं जाता है, हम उसे अपने अचेतन से ही जान जाते है।
फिर एक बात और है भला हमें समझायेगा भी कौन, ये फौजी—सिपाही तक तो बात ठीक थी, पर साधु संन्यासियों के विषय में तर्क दूँ ये मेरी समझ के बहार की बात थी। पर शायद मैं अपने अंदाज से या समझ से कहूं तो आप हंसना मत, लगता है, वो हमारे हिस्से का खाना मांग कर ले जायेगे। हम उन्हें अपना प्रतिद्वंद्वी समझते है। इसीलिए हम उन्हें भौंक—भौंक कर भगाना चाहते है। एक म्यान में भला दो तलवारें कभी रह सकती है कभी?
फिर एक दिन एक राजस्थानी पग पहने बड़ी-बड़ी मूँछों वाला व्यक्ति जिसका कि नाम राम रतन मिस्त्री अपने साथ में एक बाबा (मजदूर) को लिए हुए सुबह ही सुबह घर आ गया। उसके साथ जो बाबा थे उनके सर पर एक तसला फावड़ा और हाथ में एक लोहै की जाली थी। वे लोग अमरूद की क्यारी के पास आ कर खड़े हो इशारा कर कुछ बात चित करने लगे। इतनी देर में पापा जी भी आ कर उन्हें कुछ समझाने लगे। मैं और टोनी दोनों खेल रहे थे। इतने अंगतुक अचानक घर पर आ जाये तो हम अपना खेल तो भूल गये और अपना पुश्तैनी कार्य करने के लिए तैयार हो गये। वो था चौकीदारा सुरक्षा. आदि-आदि, मैं और टोनी जौर-जौर एक साथ भोंकते हुए उनकी और भागे।
परंतु हमें यह देख कर कुछ बुरा जरूर लगा की हमारा भोंकना उतना असर नहीं दिखा रहा था। वो तो हमारे भौंकने से जरा भी नहीं डरे। और एक टोनी की इस आदत से मैं बहुत दुःखी था, वह तो किसी बात को कुछ समझने की कोशिश ही नहीं करता था। मैं तो उसे मोटे दिमाग का ही कहता था। वह एक या दो बार ही भोंकता था फिर उसके बाद वह तो पूछ हिलाता हुआ लोगों के इतना पास चला जाता था। और तो और वह उन पर अपने दोनों पंजों के बल से सीधा खड़ हो कर उनकी चम्मचागिरी करने लग जाता था। उसके बाद उन्हें पूछ हिला—हिला कर चाटनें लग जाता था। भले आदमी ऐसे कभी घर की रखवाली तो कर चूके आप। देखना मैं कहे देता हूं जरूर एक दिन तुम इस घर निकाल दिये जाओगे। आप उन्हें जानते नहीं पहचाने नहीं फिर आप उनसे ऐसे मिल रहे हो कि साल बाद किसी मेहमान से मिल रहा थे। भला ये भी कोई तरीका हुआ। मैं हमेशा अंजान आदमी से थोड़ी दूरी बनाये ही रखना पसंद करता था। पर इससे एक बात सच थी कि की वो सही था, और मेरे से टोनी बाजी मार ही जाता था।
घर के आँगन में जो पेड़—पौधों की क्यारी थी, अमरूद और आडू के पेड़ो के ठीक बीच में जो खाली जगह थी। वहीं पर उन लोगों ने सारा दिन मेहनत करके एक सुंदर सा घर बनाया, उस में सामने एक बड़ी सी जाली लगा दी थी। जिससे अंदर तक सब देखा जा सकता था और उसमें हवा और धूप भी प्रवेश कर सके। इसके अलावा उसके एक कोने में एक छोटा सा गेट भी लगा दिया था। मैं और टोना सारा दिन उसे कुतूहल से देखते रहे और मन ही मन खुश हो रहे थे कि शायद हमारे लिए नया घर बन रहा हो। परंतु किस का ‘’टोना’’ का या मेरा या उस ‘’निकू’’ का। क्योंकि हम तीनों तो एक साथ उस में आ नहीं सकते थे। और हम यही समझ रहे थे कि ये हमारा घर बन रहा था। हम कितने बुद्धू थे।
क्योंकि हर प्राणी अपने को ही महान और समझदार ही समझता है। पर उसमें मुझे एक बात अजीब सी लग रहा थी। क्या जरूरी है हमें इस कैद खाने में रहने की जब सारा घर ही हमारा था। मैं समझ गया कि ये टोनी मुझे मूर्ख बना रहा था। इसे भी थोड़ी सी अक्ल मेरे साथ रहकर जरूर आ गई थी। हमारी बिल्ली हमें ही म्याऊँ वाह टोनी तेरा भी जवाब नहीं। श्याम को मैंने और टोनी न उस में घुस कर भी देखा। अंदर से वो कच्चा था। लेकिन मिटटी थोड़ी मुलायम थी। परंतु उस के अंदर उमस बहुत थी। हम ज्यादा देर नहीं रह सके जल्दी ही अंदर गए और बहार निकल आये।
परन्तु अगले दिन श्याम होते न होते हमारे मुंगेरी लाल के सपने धरे के धरे ही रह गये। पाप जी अपने साथ एक गत्ते की डिब्बा में चार खरगोश ले कर आये। दो तो एक दम झक्क सफेद थे, एक काला और एक बदामी। वो देखने में बड़े सुंदर लग रहे। उन के चमक दार बाल, उनकी लाल—लाल माणिक की तरह आंखें, लम्बे लटकते कान। छोटी सी पूछ, वह अपने पिछले पैरों पर उछल—उछल कर दौड़ लगा रहे थे। उनके आगे के दो दाँत कैसे उनके भोलेपन को दिखला रहे थे। सच उन दांतों को देख कर मुझे हंसी भी आती थी। पर अचानक मेरे मन में न जाने क्या आया मैं उन्हें देख कर उन पर झपट पड़ा। पर पास ही वरूण भैया थे।
उन्होंने मुझे पकड़ लिया नहीं तो मैं उस सफेद खरगोश की गरदन पकड़ लेता, मैंने वरूण भैया को भी काटना चाहा की मुझे छोड़ दो वरना मैं तुम्हें भी काट लूंगा। पर इतनी देर में पापा जी ने मुझे जोर से डाटा ‘’पोनी’’ और मैं डर गया। और डर कर कान बोच लिए और पूछ हिलाने लगा। पर शायद मेरे विकराल रूप को पाप जी देख कर समझ गये में नालायक जरूर कभी भी कुछ कर सकता हैं। इसलिए सारे खरगोश बाड़े के अंदर बंध कर दरवाजा लगा दिया। जब मुझे पता चला कि ये घर किसका है। और इस घर में दरवाजा क्यों लगाया जा रहा है। हमसे बचाने के लिए।
मैं उन खरगोश की हर हरकत को गौर से देखता था। उसका चलने का ढंग बैठने का ढंग। ये सब बातें देख कर पापा जी नोट कर रहे थे। शायद उन्हें अच्छा भी लगता था। और कहते भी थे कि देखो पौनी हर चीज को समझने—बुझने की कोशिश करता है। इतना सम्मान पा कर मैं फूला नहीं समता था और अपने चारों और नजर घूमा कर देखता था की कौन—कौन सून रहे है ये बातें। पर अंदर मुझे दूःख भी होता था की मैं तो केवल इशारे मात्र का अंदाजा लगा लेता हूं ये बातें मेरी समझ में कुछ नहीं आती थी। फिर भला मेरी तारीफ क्यों हो रही थी।
कितना मुश्किल था हमारी जाती के लिए इस मनुष्य के संग रहने का तौर तरीका को सिखना। लोग तो सोचते है हम मजे उड़ाते है, गाड़ियों में घूमते है, वातानुकूलित कमरे में सोते है। पर आप समझे हम उस जाति के बीच रह रहे थे। जो पृथ्वी पर श्रेष्ठ थी, आप ऐसा समझे की मनुष्य किसी ऐसे लोक में चला जाये जो बहुत विकसित हो, मानव से श्रेष्ठ हो, जिसकी भाषा मनुष्य की समझ के परे हो। दोनों के तलों में दिन—रात का अंतर हो। आप अंदाजा लगा सकते है उस मानव की हालत होगी। वहां सुख सुविधा तो सब मिलेगी पर उसकी समझ बुझ उनके सामने जीरो होगी, तब उस मनुष्य को कैसा लगेगा तब यह हमारी मजबूरी हमारी पीड़ा को शायद जान पायेगा।
हम मनुष्य के साथ तो रहते है, पर हमारा मस्तिष्क तो मनुष्य की तरह काम नहीं करता। फिर भी कोई हमें रहते देख कर ऐसा महसूस नहीं कर सकता कि हम यहां किसी कैद में जी रहे थे। आप खुद ही सोचिए हम शेर, चीते, भेड़िये की जाते के प्राणी होने पर भी हमारी खूंखारियत कहां चली गई। क्यों मनुष्य के संग-साथ इतना धूल मिल गए। या यूं कह लिए कि किस जतन और त्याग से हमने इस मनुष्य का विश्वास प्राप्त किया। हमने इसे प्रेम किया, इससे दया और प्रेम प्राप्त किया। और आज देखों ये हमें अपने संग साथ रखे हुए है। हमारे अंदर कोई तो ऐसा गुण गौरव होना चाहिए जिससे हमने इसका दिल जीत लिया। एक तो हममें अपनी दूसरी जाति के प्राणियों के अपेक्षा, हिंसा कम है, दूसरा हम मांसाहारी और शाकाहारी के बीच में खड़ हो गये। जिस भी हालात में जीना पड़े हम जी सकते थे। ये काम भेड़िया, शेर या तेंदुआ थोड़ी कर सकता था। और दूसरी सबसे बड़ी बात है, विश्वास, हमने मनुष्य पर भरोसा किया, उसकी हर बात को सर माथे पर स्वीकार किया। और सही मायने में हमने मनुष्य को अपने ह्रदय कि गहराई से श्रेष्ठ माना। शायद दूसरे प्राणी खास कर मांसाहारी ऐसा नहीं कर पाये। वो कही अपने को असुरक्षित मानते रहे होंगे। उनका खान पान मनुष्य के लिए खतरनाक हो सकता है। तो आज का मानव जिस तरह से मांसाहार कर रहा है तो इससे अपनी जाति के लोगों को खतरा नहीं है क्या? क्या एक दिन यह अपनी ही जाति को खा नहीं जायेगा। जब हम गिरते है तो उस अंतत तक चले जाते है, जिसे नर्क कहा है।
मनुष्य के संग रहने के कारण हमारे जीवन में कुछ अमूल परिवर्तन हुए है। पर मैंने जहां तक जाना है या समझा है शाकाहारी प्राणी कहीं ज्यादा भरोसा या प्रेम कर सकता है। मांसाहारी प्राणियों की बजाए इस खानपान का विभेद हमने थोड़ा किया है ये तो प्रकृति ने ही तो किया था। और आप देखिए मनुष्य के आस पास ज्यादातर वही प्राणी रहते है, जो शाकाहारी है। इनमें शायद हमारी जाति एक विरोधाभास थी। परंतु आप इस बात को देख कर अचरज से भर जायेंगे। इतना करीब शायद आज मनुष्य के कोई जाति है तो वह केवल हमारी जाती है। कहां नहीं उसने अपना स्थान बनाया बेडरूम से ले कर किचन तक। हमारे लिए कोई बंधन नहीं। जहां मनुष्य जाता है, जो हम सब कर सकते है, जो वो खाता है, हम भी उसके साथ वहीं खाते है। हमारी जाति ने केवल उसके घर में प्रवेश नहीं किया उसके ह्रदय में भी अपना स्थान पक्का कर लिया है। घर ही नहीं समाज ने भी हमें अपने संग साथ रहने दिया। कहीं भी किसी भी स्थान पर हम विचरण कर सकते थे। शायद इस समय पूरी पशु जाति में हमारी जाति के अलावा और कोई भी मनुष्य के इतने संग साथ रहने का सौभाग्य प्राप्त नहीं कर पाया था। हाँ कुछ शाकाहारी पशु है, जैसे गाय बकरी, भैंस, ऊंट आदि वह मनुष्य के संग साथ रहे जरूर है। उसके ह्रदय में भी उन्होंने जरूर प्रवेश किया है। परंतु आपने देखा वह केवल अंगन तक ही सीमित रह गए है। वह घर के भीतर प्रवेश नहीं कर पाए। इस कार्य के लिए हमारी जाति ने कितना त्याग तपस्या की होगी हेम उस उपकार को कभी नहीं भूल सकते। आज हम जो जीवन का सुख भोग रहे है उस के पीछे हमारी हजारों अंजान पीढ़ियों का त्याग और बलिदान हमारे साथ था। ये सब घमंड की बातें नहीं है आपसे ये ह्रदय से निकली एक सच्चाई है।
ये सब एक कड़वी सच्चाई है जिसे आप सब को मानना ही होगा। मनुष्य के इतना करीब आने के लिए हमारे पूर्वजों का साहस और विश्वास भी हमारे साथ खड़ा है। कोई अचानक किसी के इतना करीब नहीं आ सकता। आप इस बात को भली भाति जानते हो। सालों जन्मों की यात्रा है ये, कभी हजारों-लाखों साल पहले किसी कबीले के नजदीक आये होंगे, कुछ हमारे पूर्वज मारे भी गये होंगे। धीरे—धीरे लाखों सालों में हम मनुष्य की नज़रों के पास, काम करते उसके अंग संग जब उसे विश्वास हुआ की हमसे कोई खतरा नहीं है। तब उसके मन में हमारे लिए कहीं विश्वास प्रेम घटा होगा। आपने देखा आज भी उस भय के कारण हमारी जाति इतनी भयभीत है। कि वह आपने ही साथी को अपने इलाक़े में पसंद नहीं करती। खैर आप कहेंगे मैं अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बन रहा हूं। जब पापा जी मुझे बैठ कर देखते तो में अंदर से कितना खुला महसूस करता था। और जब वह प्यार से मेरे सर पर हाथ फेरते तो मेरी अनायास ही आंखें बंद हो जाती थी। प्यार का एक ऐसा तूफान आता उन हाथों से होकर की मैं उस में बह जाना चाहता था। तब मैं अपने को छोड़ देता था, किसी अंजान शक्ति किसी आस्तित्व के सहारे। वो क्षण कितने आनंद से भरे और गहरे होते थे।
खरगोश के घर की जमीन नीचे से कच्ची छोड़ रखी थी। क्योंकि वह तो पेड़ों की क्यारी के बीच बनाया गया था। ताकि खरगोश अपने घर आदि खोद कर स्वाभाविक तोर पर रह सके। खरगोशों ने तो उस घर के अंदर भी अपना नया घर बनाना शुरू कर दिया। अब उनके घर के अंदर जहां भी देखो वहीं मिटटी के पहाड़ लगे थे। उनके घर के बीच में ही पानी के लिए एक मिट्टी का बरतन भी रखा दिया था। जिस में वह अपनी लाल मुलायम मुंह से चूस कर कैसे पानी पीते थे। पानी पीने के लिए जरा भी जीभ का इस्तेमाल नहीं करते थे। नहीं दौड़ते भागते हुए ही हमारी तरह से जीभ को बहार निकाल कर सांस लेने की कोशिश करते थे।
वह केवल नाक से ही या खुले मुंह से सांस ले कर जीते थे। कितनी अजीब बात है। उस घर के आस पास कुछ घास के पेड़ और कुछ और पौधे भी लगा दिये थे। ताकि शायद देखने में उन्हें कुदरती माहौल लगे। सच में ही वो कितना सुंदर घर था। कैसे मनुष्य ये सब जान लेता है की किस प्राणी को कैसे रखा जाये। तोता, चिड़िया, खरगोश, और हम भिन्न—भिन्न तरह के प्राणी थे, पर मनुष्य को हमें समझने में कोई तकलीफ नहीं हुई थी।
कुछ ही महीनों में उनके उस घर के अंदर से दो नन्हें—नन्हें बच्चे भी बाहर गर्दन निकाल कर देखने लगे। धीरे—धीरे वह भी बाहर आ कर धूप में खेलने लगे। उनका घर ज्यादा बड़ा नहीं होने पर इतना बड़ा था की वे खूब उसमें भाग दौड़ कर सकते थे। टोनी एक दम से पेटू था वह खाना बहुत खाता था। इसलिए वह बहुत मोटा हो गया था। इस सब के कारण उसका यूं भाग-दौड़ करना भी कम हो गया था। वह मेरे साथ खेलते हुए भी बहुत जल्दी थक था। हिमांशु भैया से तो अब वह उठता भी नहीं था। सब उसे मोटू-तोंदल कह कर पुकारते थे। सच वह बहुत सुस्त हो गया था। अब मैं उसकी गर्दन पकड़ता तो वह झट से झटका मार कर छुड़वा लेता था।
सही बात कहूं तो मुझे अंदर से उससे डर लगने लगा था, क्योंकि मैं देख रहा था वह दिन ब दिन मोटा होने के साथ-साथ ताकतवर होता जा रहा था। उसका मुंह बहुत बड़ा हो गया था। जो कपड़े धोने की थपकी थी, या वरूण भैया का क्रिकेट खेलने के बल्ले को मुंह में दबा कर दौड़ पड़ता था। पर इतना मोटा तगड़ा होने पर भी वह गुस्सैल नहीं था। मैं सोचता था इतनी ताकत मुझ में आ जाये तो में किसी भी प्राणी से नहीं डरूंगा, शायद पापा जी से भी नहीं। पर वह कभी क्रोध नहीं करता था। अगर उसे संत स्वभाव का कुत्ता कहूं तो इस में अतिशयोक्ति नहीं होगी। उसकी सहन शीलता को देख कर मुझे भी उसके वे गुण प्रभावित करने लगे थे।
फिर अचानक एक दिन एक खरगोश मर गया। पता नहीं उसे कोई बीमारी थी या शायद खरगोश की आयु ही इतनी होती है। अभी तो उसे आये तीन महीने भी नहीं हुए थे। पापा जी ने बस यहीं एक गलती कर दी की उसे गड्ढा खोद कर वहीं पास ही दबा दिया। अपनी तरफ से तो उन्होंने काफी सुरक्षित कर के दबाया था। दबाने के बाद उस पर दो बड़े—बड़े पत्थर रख दिये थे। शायद वे हमारे स्वभाव को जानते होगे। ये सब होते हुए हम सब बैठे देख रहे थे। दिन गुजरा रात आई, रात के समय हम निशाचर प्राणियों में एक विशेष प्रकार को उत्साह आ जाता है। दिन के समय हम उतने चपल नहीं रहते थोड़े सुस्त हो जाते है।
आधी रात गुजर जाने के बाद जब सब सो गये तब मैं उठा और पास सोते टोनी को भी उठाया। पर वह तो हील ही नहीं रहा था। हम जंगली और इस शहरी कुत्तों की जीवन शेली में दिन रात को फर्क था। ये केवल चौकीदार बन कर भौके सकते थे। इन्हें पेट भरने की ज्यादा चिंता नहीं होती थी। और आदमी के संग रह कर इन्हें जो भी मिल जाये वह सब खाने की आदत सी हो गई थी। पर हमारे पूर्वज आज भी स्वयं ही मेहनत कर के जीवित थे, शिकार करने की परवर्ती आज भी हम में विद्यमान थी। जब टोनी नहीं उठा तो में खुद ही कमरे से बहार चला गया। जहां खरगोश को दिन में दबाया जा रहा था।
वहां कितना नीचे मिट्टी में दबा दिया हो फिर भी उतनी ठोस नहीं हो सकती। मैंने इधर उधर देख और लगा खोदने, जहां पर पत्थर रखें थे मैं उस से थोड़ा पीछे से ही खोदने लगा। ताकी पत्थर मेरे उपर न आ जाये। मेरे नये निकलते नाखुन छोटे थे पार वह पैने खूब थे। थोड़ी ही देर में मैंने उस गड्ढे को इतना खोद लिया कि मैं आधा उस में बैठ सकता था। तब कहीं टोनी आ कर मुझे देखने लगा। वह मुझे कुछ अचरज भरी निगाह से देख रहा था की मैं क्या कर रहा हूं।
इस तरह से उसे अपनी और देखते हुए मुझे उसके बुद्धूपन पर बड़ा अचरज आ रहा था। मनुष्य के संग रह कर ये कितना सुस्त हो काम चोर हो गया था। अगर ये जंगल मैं होता तो कैसे शिकार करता। इसका मोटा होता शरीर कैसे इतनी तेज दौड़ पाता। प्रकृति तो इसे बिलकुल ही पसंद नहीं करती और शायद इसे जीने भी नही देती। जब मैं थक गया तो थोड़ा सुस्ताने के लिहाज से बहार मुंह को निकाल कर गहरी सांस लेने लगा। टोनी बड़े मस्त अंदाज से बैठा ये सब देखता रहा। उसे अन्दर मेरे बिना अच्छा नहीं लगा होगा। इसलिए मात्र एक जिज्ञासा के वह बाहर आकर लेट गया।
इसलिए वह मेरे पास आया भी नहीं दूर आंगन में ही लेटा रहा। पर मेरे काम में उसे कोई रस नहीं था। वैसे तो मेरा भी टोनी के बिना मन नहीं लगता था। अगर मुझे यहां पर टोनी नहीं मिला होता तब शायद इतना अच्छा बचपन कभी नहीं गुजरता। कुछ खाली पन अवश्य ही उसमें रह जाता। भैया हर के साथ खेलता, दौड़ता, कुछ और ही बात होती थी। परंतु अपनी जाति प्रेम या संग साथ और महत्व अपने में कुछ और ही रस समेटे हुए रहता था। जरूर मनुष्य में कुछ ऐसी ख़ूबियाँ थी जो हमारी कल्पना के बहार की बातें थी। हम पैरो का इस्तेमाल केवल दौड़ने या ज्यादा से ज्यादा पंजा मारने के लिए इस्तेमाल कर सकते है। पर मनुष्य को तो देखिये पहले तो अपने पैरो पर सीधा खड़ा होना। वह भी पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण के एक दम विपरीत। कितना कठिन कार्य है यह, इसकी कल्पना करना भी मुश्किल था हमारे लिए। फिर हाथ की उंगलियां के साथ अंगूठे का भिन्न तरह से इस्तेमाल करना।
मनुष्य कि सबसे मौलिक और क्रांतिकारी आविष्कार था उसके हाथ का अंगूठा। क्योंकि मनुष्य के हाथ का अंगूठा उसके जीवन को विविधता देने में महत्व पूर्ण रंग लाया था। कुछ लोग मनुष्य को बुद्धि जीवी कहते है। परन्तु मेरा मानना उनसे थोड़ा भिन्न है। एक ही अंगूठा कितने भिन्न—भिन्न तरह से कार्य कर सकता है। क्या कोई और प्राणी है पृथ्वी पर ऐसा है जो ऐसा कर सके। गाड़ी चलना, खेलना, लिखना, तीर चलना खेती करना क्या इन्ही उंगलियों और अंगूठे के मिलन से घटी घटना नहीं थी क्या ये सब।
खोदते—खोदते रात काफी गुजर गई। शायद मम्मी पाप के उठने का भी टाईम हो रहा था। देखिए जरा मैंने इतना गहरा गढ़ा खोद दिया फिर भी अभी तक वह खरगोश दिखाई नहीं दे रहा था। इतनी देर में टोनी भी कुछ हरकत में आया। सही में मैं थक गया था। टोनी मोटा जरूर था पर उसके पंजे मुझ से दो गुणा मोटे थे। उसके नाखुन भी मुझ से बड़े थे। उसने तो बस पाँच मिनट में ही मिटटी को ढेर लगया दिया। शायद अंदर और नरम मिटटी आ गई थी। मैंने देखा अब खरगोश की टाँग नजर आई। ये सब देख कर मैं तो सारी थकावट भूल गया। और टोनी को बहार निकाल कर खुद अंदर घूस गया। क्योंकि मेरा शरीर पतला था। मैंने थोड़ा और खोद कर मिट्टी को हटाया और उस खरगोश की टाँग पकड़ कर धीरे से खींचा।
वह अपनी जगह से सरक गया। फिर एक और झटका मारा तब उस की टाँग को मुंह में पकड़ बहार आ गया। टोनी ने ये सब देखा तो उसे भी कुछ उम्मीद की किरण दिखाई दी और पंजों से खोद कर मिटटी हटा कर मेरा सहयोग किया और खरगोश की दुसरी टांग पकड़ कर खींचने लगा। अब हम दो थे। कहते है दो तो चून (आटे) के भी बुरे होते है। बस फिर क्या था पल में ही खरगोश को हमने बहार निकल लिया। अब हमने लगभग अपना किला जीत लिया था। मैं उसे खींच कर एक कोने में ले गया। हमारा भाग्य ही समझे की जो पत्थर खरगोश के उपर रखे थे वह टस से मस नहीं हुए। वरना तो खरगोश के साथ हमारी भी वही कब्र बन जाती।
मैं अपने अन्दर एक परिवर्तन देख रहा था। अभी तो मैंने खरगोश को खाया भी नहीं था। केवल मुंह से पकड़ा भर था। पर मेरी हिंसक प्रवृति एक दम से जाग गई थी। मेरे अंदर का शिकारी पन खड़ा हो गया था। मैं अपने आप को बहुत हिंसक महसूस कर रहा था। क्योंकि टोनी जब मेरे नजदीक आया तो वह मेरे गुर्राने के ढंग का देख कर डर गया था। मैंने लाल आंखें कर के बड़े—बड़े दाँत निकाल कर जब उसे घूरा तो कांपने लगा था। शायद ऐसा गुर्राना उसने इससे पहले मेरा नहीं देखा था। टोनी तो डर कर दूर जा कर बैठ गया। पर हमारे घर में एक बूढ़ा कुत्ता भी था जिसका नाम निकू था। हम इतना सर्कस करते रहे तब तक तो वह बड़े मजे से सोता रहा। जब हमनें मेहनत मशक्कत कर के खरगोश को निकाल लिया तब वह भी आया खरगोश पर अपना हक जमाने।
बह अपनी ताकत और बड़े होने के कारण शायद यह समझ गया की मैं तो जब चाहूं खरगोश को छिन सकता हूं। जब वह पास आया तब मेरे अंदर इतना क्रोध भर गया कि बस आपको क्या बताऊ, मैंने अपने सर से लेकर पूछ तक के बाल मारे क्रोध के खड़े कर लिये और इस अंदाज में अकड़ कर खड़ा हो गया की अगर उसने एक कदम भी आगे बढ़ाया तो मैं उसकी गर्दन पर चिपट जाऊँगा। मेरे तन—मन में उस समय किसी का भय नहीं रह गया था। जब आप अंदर से पूर्ण रूप से निर्भय होते है, आपके अंदर जरा सा भय का कतरा भी नहीं होता। तब आप एक पूर्णता महसूस करते है। तब आप पर कोई विजय प्राप्त नहीं कर सकता। हम हारते तो अपने भय के कारण है, जो हमारी पूर्णता में छेद कर देता है। अचानक मेरा ऐसा व्यवहार देख कर वह घबरा गया। शायद इस घटना की उसने कल्पना भी नहीं की थी। डर कर वह दो कदम पीछे हो गया। और हमसे दूर जाकर बैठ गया।
मैं खुद अपने अंदर के इस जंगली पन को देख कर डर गया। काश वो अपना रूप मैंने न देखा होता तो कितना ही अच्छा होता। मैं अब तक आपने को बड़ा आदर्श कुत्ता समझता था। मैंने दांतों से उसे पकड़ कर अपने पैरो के बीच में रख लिया। और इसके बाद अपनी विजय और सतर्कता के लिया फिर एक बार चारों और देखा। और फिर बड़े चाव से मैं उस खरगोश को खाने लगा। उसका स्वाद कैसा था, इसकी तुलना का पैमाना भी मेरे पास नहीं था।
क्योंकि इससे पहले तो मैंने कभी मांस को छुआ भी नहीं था। पर कोई चीज अंदर से ही मुझे उसे खाने के लिए प्रेरित कर रही थी। पर उसका स्वाद मुझे कुछ रुचिकर नहीं लग रहा था। मैंने सोचा पहली बार खाने की वजह से ऐसा लग रहा होगा। पर मैं ज्यादा नहीं खा सका, अगर एक ग्रास और खा लेता तो मेरे भीतर का सब बहार आ जाता। मेरे बाद टोनी तो उसके पास तक भी नहीं गया। ये सब देख कर मुझे कुछ अजीब अवश्य लगा कि कैसे स्वभाव का है ये टोनी। ये तो संत है, परंतु निकू इसके विपरीत था, उसने उस बचे हुए सारे खरगोश को खा लिया। शायद बड़ा होने के कारण या इससे पहले मांस का सेवन किया होगा। क्योंकि उस पर कोई बंधन नहीं था। वह कब आता है, कब जाता है उस की अपनी मर्जी थी। फिर बाहर क्या खाता है क्या करता इस को कैसे रोका या देखा जा सकता था।
मुझे ये कुछ ठीक नहीं लग रहा था मेरा अंदर से जी मिचला रहा था। लगता रहा था अंदर से सब बहार निकलने वाला है। शायद ये इस जन्म में मेरा पहला और अंतिम मांसाहार था। मेरे मन में उसके खाने से एक विचित्र तरह की घिन्न सी भर गई थी। उस की कल्पना मात्र से में अंदर तक सिहर गया था। इतने घण्टे मेहनत करने के बाद ये बे स्वाद सी चीज खाने को मिली जो और किसे पता था बाद में यह मेरे शरीर में केवल एक बीमारी भर जायेगी। मुझे लगा उस के खाने में क्या सार और इस घर में खाने पीने की कोई कमी नहीं जो मैं उस बकवास चीज को खाऊ। खाना है तो पनीर, जलेबी, दूध, पलाव, नूडल्स.....और ने जाने क्या—क्या इनायत यहां खाने को मिलती थी। मैं कुछ देर के लिए वहीं पर लेट गया परंतु निकू को देख रहा था वह तो छत पर चढ़ कर न जाने कहां गायब हो गया। परंतु में एक बेचैनी महसूस कर रहा था। कुछ ही देर में सब जो खाया था वह उलटी के नाम से बहार निकल गया। तब जाकर मैंने थोड़ा पानी पाया और लेट गया परंतु अंदर एक मितली सी महसूस कर रहा था।
सो मैंने मन में धारणा कर ली आज के बाद ये सब नहीं खाऊंगा। आदमी का बनाया भोजन कितना सुस्वाद होता है। क्या चटपटी, लजीज सब्जी बनता है। और मीठे का तो क्या कहना। खाने से पहले ही मुँह से लार टपकने लग जाता था। और कितने प्रकार के व्यंजन आदमी ने इस पृथ्वी पर बनाये है उन सब का क्या कहना, ये कोई चमत्कार से कम तो नहीं था। हर उस वस्तु को खाने के लिए एक खास विधिविधान के साथ बनाना किसी कला से कम नहीं था। रोटी से ले कर चावल न जाने मैं तो सब के नाम भी नहीं जानता। उसने अनेक प्रकार के सुस्वाद व्यंजन बना लिये कैसे खोजा होगा इस विज्ञान को। यहीं तो है इस इंसान की महानता और गौरव भी।
भू.....भू......भू.....
आज के लिए बस।
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