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गुरुवार, 11 मई 2017

नहीं राम बिन ठांव-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-05

नहीं राम बिन ठांव-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो

प्रवचन-पांचवां    
दिनांक 29 मई सन् 1974
ओशो आश्रम, पूना।
राम नाम की चदरिया
मैं तुम्हें आनंद के जगत में ले जाना चाहता हूं।
नाचती हुई शांति का नाम आनंद है। उत्सव से भरी, उमंग से भरी शांति का नाम आनंद है।

प्रश्न:
भगवान, जब से आपसे दीक्षित हुआ हूं, तब से आपसे डरने भी लगा हूं।
उसके पहले यह डर नहीं था मुझमें; यद्यपि मैं आजीवन भयभीत रहा हूं।
मुझे यह भी पता है कि जो प्रेम और स्वतंत्रता मुझे आपके सान्निध्य में मिली है,
वह मां-बाप के गिर्द भी कभी नहीं मिली।
और यदि आप जैसे आत्यंतिक प्रेम-पूर्ण गुरु की छाया में भी मैं भयमुक्त न हुआ,
तो और कहां हो पाऊंगा? यह भयमुक्ति कैसे संभव है?


बहुत सी बातें समझनी पड़ेंगी।
भयमुक्ति का कोई भी संबंध दूसरे से नहीं। गुरु शिष्य को भयमुक्त न कर सकेगा। क्योंकि भय भीतर है और गुरु बाहर है। गुरु ज्यादा से ज्यादा इतना कर सकता है कि अभय की एक भ्रांति पैदा कर दे--लेकिन तब वह गुरु सदगुरु नहीं--ऐसा भरोसा दिला दे, विश्वास दिला दे, और ऐसा लगने लगे कि भय मिट गया। बहादुरी पैदा की जा सकती है बाहर से, निर्भयता पैदा की जा सकती है बाहर से, अभय नहीं।
अभय का अर्थ है, भीतर भय का कोई कारण न रहा। और निर्भय का अर्थ है, भीतर तो कारण मौजूद है, लेकिन बाहर से हमने अपने को सम्हाल लिया, मजबूत कर लिया।
कायर और निर्भय व्यक्ति में बहुत भेद नहीं होता। कायर अपने भय को छिपा नहीं पाता, निर्भय अपने भय को छिपा लेता है, बस इतना ही फर्क होता है। निर्भय जिसे हम कहते हैं, वह भी भीतर कायर होता है। और जिसे हम कायर कहते हैं, वह भी थोड़ा उपाय करे, तो निर्भय बन सकता है।
तो गुरु निर्भय बना सकता है। लेकिन अभय की उपलब्धि तो भीतर से होगी।
अभय ऊपर से नहीं थोपा जा सकता। वह कोई रंग-रोगन नहीं है। वह कोई ऊपरी सजावट नहीं है, शृंगार नहीं है। वह भीतरी अनुभव है।
भीतरी अनुभव से मेरा प्रयोजन है, जब तक आत्मा की प्रतीति न हो, तब तक अभय का जन्म न होगा। क्योंकि भय इसलिए है कि हम मानते हैं कि हम शरीर हैं। न सिर्फ मानते हैं, बल्कि जानते यही हैं कि हम शरीर हैं। और शरीर तो मरेगा, शरीर की तो मृत्यु होगी। शरीर का विनाश तो सुनिश्चित है। जब हमारा विनाश सुनिश्चित है और मृत्यु होने ही वाली है, अभय कैसे हो सकता है?
मिटना हमें कंपाता है। दूर लगती हो मृत्यु, फिर भी पास है। सत्तर साल बाद हो या सात दिन बाद, क्या फर्क पड़ता है? मृत्यु सदा आपके निकट खड़ी है। मृत्यु से ज्यादा पड़ोस में और कोई भी नहीं। उस मृत्यु की प्रतीति कंपाती है।
तो गुरु भुला दे सकता है। गुरु समझा दे कि आत्मा अमर है, तुम कभी भी न मरोगे, कभी कोई मरता नहीं। और इस सिद्धांत को तुम समझ लो और मान लो, स्वीकार कर लो, तो भी निर्भयता पैदा होगी, अभय पैदा नहीं होगा। क्योंकि यह सिद्धांत किसी और ने दिया है, यह तुम्हारा स्वानुभव नहीं है, किसी और ने कहा है। इस पर तुम भरोसा कितना ही करो, भरोसा पूरा नहीं हो सकता। पूरा भरोसा स्वयं के अनुभव के बाद ही हो सकता है।
तो जब तक तुम जान न लो कि आत्मा अमृत है, जब तक तुम न जान लो, तब तक अभय नहीं होगा। झूठे गुरु के पास निर्भयता पैदा होगी और सच्चे गुरु के पास पहली दफे भय वास्तविक रूप में पैदा होगा।
इसलिए हो सकता है कि मेरे पास आकर भयभीत अवस्था बन गई हो, भय ज्यादा प्रगाढ़ मालूम पड़ने लगा हो। पड़ेगा, पड़ना चाहिए। क्योंकि तुम्हारे भीतर जो हो, उसे उघाड़ना होगा। जो भी तुमने छिपाया है और दबाया है, उसका रेचन करना होगा। जहां-जहां तुमने अपने को धोखा दिया है, वहां-वहां धोखे की सब दीवालें गिरा देनी होंगी। तुम्हारी नग्नता में तुम्हें प्रगट करना जरूरी है। उसके बाद ही आगे की यात्रा हो सकती है। सत्य की खोज में जो निकला है, उसे पहले असत्य को पहचानना शुरू करना होगा। और जो वास्तविक की दिशा में जा रहा है, उसे पहले झूठे को तोड़ना होगा।
तो तुमने जो-जो सांत्वनाएं, कन्सोलेशंस इकट्ठे कर लिए हैं, झूठी शांतियां जो-जो तुमने निर्मित कर ली हैं, फूल जो तुमने ऊपर से चिपका लिए हैं और भीतर से नहीं आए, वे सब मेरे पास गिरेंगे। और गिरेंगे, तो भय बढ़ेगा। मैं तुम्हें नहीं समझाऊंगा कि आत्मा अमर है। पहले तो तुम्हें यही बताना होगा कि शरीर मरणधर्मा है, तुम मरोगे। तुम जो भी अपने को समझ रहे हो, तुम्हारे बचने का कोई भी उपाय नहीं। जो बचेगा, उसका तुम्हें पता नहीं। तुम तो मरोगे, पूरी तरह मरोगे। तुम्हें कोई भी नहीं बचा सकता, न आत्मा की अमरता का सिद्धांत, न कोई गुरु। कोई तुम्हें नहीं बचा सकता, तुम मरणधर्मा हो।
तो पहले तो तुम्हारी मृत्यु की प्रतीति गहरी करनी पड़ेगी। तब तुम्हारा कंपन बढ़ता जाएगा। एक घड़ी आएगी, जब तुम सिवाय भय के और कुछ भी न रह जाओगे, जब तुम्हारा रोआं-रोआं रुदन से भरा होगा। और जब तुम्हारे रोएं-रोएं में आग मृत्यु की जलती हुई दिखाई पड़ेगी, जब तुम बिलकुल चिता पर खड़े हो जाओगे, उसी क्षण में छलांग लगेगी। उसी क्षण में तुम शरीर को छोड़ोगे, उसी क्षण में तुम्हारा तादात्म्य शरीर से टूटेगा, उसी क्षण में तुम्हारी आंखें उसकी तरफ मुड़ेंगी जो अमृत है। भय की परिपूर्णता का अनुभव ही तुम्हें अभय में ले जाएगा।
जीवन बड़ा जटिल है। यह बात उलटी लगेगी कि पहले मैं तुम्हें भय में ले जाऊं और तभी तुम अभय में जा सकोगे। सीधा तो यही लगेगा कि तुम्हें निर्भय बनाऊं, तुम्हारे भय को ढांकूं, छिपाऊं। सुंदर वस्त्रों में, सुंदर रंगों में तुम्हारी मृत्यु को पोतूं। तुमसे कहूं, मृत्यु मित्र है। तुमसे कहूं, मृत्यु परमात्मा का द्वार है। तुमसे कहूं, घबड़ाते क्यों हो, तुम कभी मरोगे नहीं, तुम कभी मरे नहीं।
ये सब बातें सुनने में अच्छी लगेंगी और तुम्हारा भय कम होता मालूम पड़ेगा, तुम्हारा कंपन क्षीण हो जाएगा। लेकिन तब तुम इस शरीर से ही चिपके रह जाओगे। क्योंकि तुम्हें अभी पता ही नहीं कि तुम कौन हो। तो जब भी मैं कहूंगा तुम अमर हो, तुम उसी भ्रांत इकाई को समझोगे, जो तुम अपने को समझ रहे हो। तुम अपने अहंकार को ही अमर समझोगे। और वह अमर नहीं है, उससे ज्यादा मरणधर्मा कोई वस्तु इस जगत में नहीं है। अहंकार से ज्यादा असत्य कुछ भी नहीं है। अहंकार मरा ही हुआ है।
तो पहले तो मैं तुम्हें पूरा भयभीत करूंगा। भय ही तुम्हारी आत्मा मालूम पड़ेगी, संताप सघन हो जाएगा, तुम सो भी न सकोगे शांति से। तुम उठोगे, बैठोगे, लेकिन कंपते रहोगे। चारों तरफ तुम्हें मृत्यु दिखाई पड़ने लगेगी। यह सारा संसार तुम्हें मारने को तत्पर, मिटाने को तत्पर मालूम होगा। जैसे तुम्हें एक सागर में फेंक दिया, जहां विराट गर्जन करती हुई लहरें उठती हैं और हर लहर तुम्हें पी जाने को तत्पर है। कोई किनारा नहीं दिखाई पड़ता, कोई नौका, कोई सहारा नहीं, कितना ही तुम चिल्लाते हो, लेकिन कोई सुनने वाला नहीं। चारों ओर सागर के अनंत गर्जन करती लहरें और तुम हो और तुम्हारी मौत है।
इस मौत की गहन प्रतीति में वह रूपांतरण घटित होता है, जब तुम शरीर से छलांग लगाते हो और आत्मा का तुम्हें पहली दफे झलक और अनुभव होता है।
सदगुरु के पास पहले मिलेगी पीड़ा, पहले मिलेगा विरह, पहले मिलेगा सब तरह का संताप। और तभी उस संतुष्टि का जन्म होगा, उस अमृत-बोध का, जहां से अभय विकसित हो सकता है।
यहां यह बात भी समझ लेनी जरूरी है कि अक्सर हम धर्म की तलाश में भय के कारण ही जाते हैं। इसलिए हमारी स्वाभाविक आकांक्षा यह होती है कि कोई हमारे भय को कम कर दे। भय को कम करने का सवाल नहीं है, भय को जड़-मूल से उखाड़ने का सवाल है। भय को और तुम्हें समायोजित, एडजस्ट करने का सवाल नहीं है। भय को पूरी तरह जला डालने का सवाल है।
और इस जगत में हम उसी को छोड़ पाते हैं, जिसकी पीड़ा इतनी गहन हो जाए कि उसे सम्हालना और संभव न रहे। अभी तुम्हारा जो शरीर से तादात्म्य है, उसकी पीड़ा इतनी गहन नहीं है। तो कितना ही संत समझाते हों, कितना ही तीर्थंकर कहते हों कि छोड़ो इस शरीर को, तुम शरीर नहीं हो। तुम सुन लेते हो, लेकिन तुम भीतर तो शरीर को पकड़े ही रहते हो। चाहे तुम रोज सुबह उठकर यह पाठ भी करने लगो कि मैं शरीर नहीं हूं, चाहे तुम इसे हजार बार दोहराओ भी कि मैं शरीर नहीं हूं, लेकिन तुम जानते हो कि तुम शरीर हो।
शरीर को लगी चोट तुम्हें लगती है। शरीर बीमार होता है तो तुम बीमार होते हो। शरीर सुंदर दिखता है तो तुम सुंदर दिखते हो। शरीर कुरूप हो जाता है तो तुम कुरूप हो जाते हो। शरीर बूढ़ा होता है तो तुम बूढ़े होते हो। तो फिर जब शरीर मरेगा तो तुम मरोगे। कितना ही कोई कहे, कहने से हम एक झूठा वातावरण बना सकते हैं। अनुभव के बिना, सत्य का कोई उदय नहीं है।
इसलिए तुम आए हो किसी भय को ही मिटाने। लेकिन मैं तुम्हारा भय बढ़ाऊंगा, क्योंकि वही मिटाने का उपाय है।
जीवन की जटिलता का एक सूत्र बहुत आधारभूत है। और वह यह है कि शिष्य जब गुरु के पास जाता है, तो शिष्य की आकांक्षा कुछ और, और गुरु की आकांक्षा कुछ और होती है। होनी ही चाहिए। क्योंकि शिष्य अंधेरे में खड़ा है, उसे अभी अपने हित का भी कोई पता नहीं। वह सोचता है। गुरु रोशनी में खड़ा है, उसे हित का पता है। इसलिए अक्सर तुम किसी और कारण से गुरु के पास जाते हो और गुरु तुम्हारे साथ कुछ और करना शुरू करता है।
इसे तुम कसौटी समझ लेना कि तुम जिस कारण से गुरु के पास गए, अगर गुरु भी उसी को तुम्हारा कारण आने का मानता हो और उसी पर काम करता हो, तो वह गुरु भी अंधेरे में खड़ा है।
तुम भय के कारण मेरे पास आए हो, उसे मैं जानता हूं। लेकिन तुम्हारे भय को कम करना मेरा कृत्य नहीं, अभय को जगाना है। अभय के लिए तुम आए भी नहीं थे। निर्भयता के लिए आए हो, बहादुरी आ जाए, लड़ सको, उतना; तुम तृप्त हो उतने से। तुम बहुत थोड़े से तृप्त हो जाते हो, तुम्हारी अतृप्ति बहुत गहरी नहीं है। डूबते को तिनके का सहारा हो जाता है। तुम तिनके का सहारा खोज रहे हो और मैं जानता हूं कि तिनके से कोई बच नहीं सकता। शायद तिनके के कारण ही तुम डूब जाओ। क्योंकि जिसने तिनके को नाव समझ लिया, वह फिर नाव की खोज बंद कर देगा। और जिसने झूठे किनारे को देख लिया, उसका असली किनारा फिर बहुत दूर है। तुम भला किसी भी कारण से आए हो, उससे मुझे प्रयोजन नहीं। मैं वही करूंगा, जो करना उचित है।
पश्चिम में अभी-अभी कुछ विश्वविद्यालयों में उपवास के ऊपर कुछ अध्ययन किए गए हैं, मनोवैज्ञानिक अध्ययन किए गए हैं। और बड़ी हैरानी का तथ्य सामने आया है, जो कि तुम कभी सोच भी नहीं सकते। क्योंकि आदमी इतना जटिल है, तुम जो सोचते हो, वह काम में नहीं आता। यह तथ्य सामने आया कि जो लोग उपवास में सफल होते हैं और जो लोग उपवास में सफल नहीं हो पाते...।
हमारी हजारों साल की धारणा यही है कि उपवास में जो सफल होता है, वह आदमी बड़ा अंतर्मुखी है। जो भोजन को भूल जाता है, भूख को भूल जाता है, वह बड़ा ध्यानी है, उसकी लगन राम में गहरी है, उसकी लगन धर्म में गहरी है, उसकी प्रार्थना पूर्ण है। और जो व्यक्ति उपवास नहीं कर पाता और उपवास में उसे भूख सताती है और उपवास टूट जाता है, हम जानते हैं कि वह आदमी बहिर्मुखी है, परमात्मा में उसकी लगन नहीं, भरोसा नहीं, धार्मिक नहीं। इसलिए सभी धर्म दुनिया में उपवास का व्यक्ति को धार्मिक बनाने के लिए उपयोग करते हैं।
लेकिन जो अध्ययन हुआ मनोवैज्ञानिकों का, वह बड़ा उलटा है। वे कहते हैं, बहिर्मुखी सफल होता है उपवास में, अंतर्मुखी नहीं। एक्सट्रोवर्ट, जिसकी आंखें बाहर लगी हैं, वह उपवास में सफल हो जाता है। और इन्ट्रोवर्ट, जिसकी आंखें भीतर लगी हैं, वह सफल नहीं होता, असफल हो जाता है।
इसे थोड़ा समझें। वही बात और सब जीवन के पहलुओं पर भी लागू है। बहिर्मुखी व्यक्ति बाहर से जीता है। अगर एक सुंदर स्त्री निकलती है, तो देखकर उसकी कामवासना जगती है। अगर उसे सुंदर स्त्री दिखाई न पड़े, तो उसकी कामवासना नहीं जगती है। ऐसा आदमी जंगल में जाकर बैठ जाए, तो उसे लगेगा कि कामवासना मिट गई। वह बहिर्मुखी है, उसकी वासना का कारण बाहर है।
बहिर्मुखी को होटल दिखाई पड़ जाए, जहां से भोजन की गंध आती हो, तो उसकी भूख जगती है। अगर यह आदमी मंदिर में बैठ जाए, जहां न भोजन की गंध आती है, न भोजन की चर्चा होती है, न भोजन दिखाई पड़ता है, तो इसका उपवास यह कर लेगा।
अंतर्मुखी व्यक्ति भीतर से जीता है। उसे भूख लगती है, तो वह भोजन की तलाश करता है। बहिर्मुखी व्यक्ति को भोजन दिखाई पड़ता है, तो भूखा हो जाता है। अंतर्मुखी व्यक्ति की कामवासना जगती है, तो स्त्री में उसे रस आता है, तो वह स्त्री की खोज करता है। बहिर्मुखी को स्त्री दिख जाए, तो कामवासना मालूम होने लगती है। बहिर्मुखी का कारण बाहर और बाहर के कारण से भीतर की वृत्ति जगती है। अंतर्मुखी का कारण भीतर और भीतर के ही कारण उसका व्यवहार संचालित होता है।
इसका मतलब यह हुआ कि जिस दिन आप उपवास करें, अगर बहिर्मुखी हैं, तो मंदिर में बैठ जाएं, उपवास सफल हो जाएगा; अंतर्मुखी हैं, कोई फर्क न पड़ेगा, मंदिर में बैठकर भी भूख लगेगी। भूख तो भूख है, मंदिर में बैठने से क्या फर्क पड़ेगा?
यहूदियों का एक त्यौहार है योम-किप्पूर, उस दिन वे उपवास करते हैं। तो योम-किप्पूर के दिन बहुत उपवास करने वालों की वैज्ञानिक परीक्षा ली गई। योम-किप्पूर के दिन लोग सिनागाग में चले जाते हैं और दिनभर वहीं बिताते हैं। पाया गया कि उसमें जो-जो बहिर्मुखी थे, वे भोजन को भूल जाते हैं; जो-जो अंतर्मुखी हैं, वे भोजन को नहीं भूल पाते, क्योंकि उनकी भूख भीतर से उन्हें अनुभव होती है।
जैन इस मुल्क में ठीक यही करते हैं। उनके पर्यूषण के दिनों में, उपवास के दिनों में वे जाकर स्थानक में या मंदिर में बैठ जाते हैं। वहां धर्मशास्त्र की चर्चा चलती है, भोजन की कोई बात नहीं होती, भोजन दिखाई नहीं पड़ता, भोजन की गंध नहीं मालूम पड़ती, वे भूल जाते हैं। उनका कारण बाहर है। लेकिन जो अंतर्मुखी है, उसे कोई फर्क न पड़ेगा। जब उसे भूख लगेगी तो लगेगी ही, चाहे शास्त्र कितने ही जोर से पढ़ा जाता हो।
यह बड़ा उलटा मामला हो गया। इसका मतलब यह हुआ कि जो लोग जंगल में जाकर ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हो जाते हैं, वे बहिर्मुखी हैं। अंतर्मुखी वहां जाकर ब्रह्मचर्य को उपलब्ध नहीं होगा। और बहिर्मुखी धार्मिक नहीं हो सकता, अंतर्मुखी ही धार्मिक हो सकता है। क्योंकि जिसे अभी इतनी भी अंतर्मुखता नहीं कि अपने भीतर की भूख और प्यास को अनुभव कर सके, वह अपनी आत्मा को कैसे अनुभव करेगा? क्योंकि आत्मा तो और भी भीतर है। जिसकी भूख-प्यास बाहर से प्रभावित होती है, जो अपनी भूख-प्यास से भी संबंधित नहीं है, वह कैसे भीतर जा सकेगा?
तो बहिर्मुखी धार्मिक नहीं हो सकता। लेकिन बहिर्मुखी व्यक्ति तथाकथित धार्मिक जगत में सफल होता है। अंतर्मुखी धार्मिक हो सकता है, लेकिन वह तथाकथित धार्मिक जगत में असफल हो जाता है। यह बड़ी हैरानी की बात है। इसका अर्थ यह हुआ कि धर्म के नाम पर जो जमात इकट्ठी होती है, वह बहिर्मुखियों की होती है।
और जैन-धर्म का विकास नहीं हो सका, उसका एक बुनियादी कारण यह है। वह जमात बहिर्मुखियों की है, उपवास पर बड़ा जोर है। उसमें अंतर्मुखी सफल नहीं हो पाता, बहिर्मुखी सफल हो जाता है। जैन-साधु, मुनि, संन्यासी को गौर से देखें, तो उसे बहिर्मुखी पाएंगे।
इसलिए जैन-धर्म में रहस्यवाद, मिस्टीसिज्म का कोई जन्म नहीं हो पाया। क्योंकि रहस्यवादी तो अंतर्मुखी व्यक्ति होता है। इसलिए जैन-धर्म एक रूखा गणित होकर रह गया। जैन-धर्म की धार्मिक प्रक्रिया भी व्यवसायिक की हो गई। उसका ऊपरी गणित है, कितना ब्रह्मचर्य साधा, कितने उपवास किए, कितना कम भोजन किया, क्या खाया, क्या नहीं खाया, कब सोए, कब उठे, ऊपर का गणित हो गया। इसमें जो लोग सफल हुए, वे बहिर्मुखी हैं। इनके भीतर अंतर-नाद पैदा नहीं होता।
जीवन बड़ा उलटा और जटिल है। यहां जो व्यक्ति अपने भय को दबाकर निर्भय को साध लेता है, वह अभय मालूम पड़ता है। और वह कभी अभय को उपलब्ध नहीं हो सकता। अभय को तो वही व्यक्ति उपलब्ध हो सकता है, जो पूरी तरह अपने भीतर के भय को पहले अनुभव कर ले, जी ले, उससे गुजर जाए, उसके पार हो जाए। तब अभय का जन्म होगा।
अभय भय के विपरीत नहीं है, अभय भय का अभाव है। निर्भयता भय के विपरीत है, निर्भयता भय का ही दूसरा अतिछोर है। अभय भय का संपूर्ण तिरोहित हो जाना है, अभाव है, एबसेंस है।
निर्भयता तो बड़ी आसानी से साधी जा सकती है, थोड़े अनुशासन की जरूरत है। भयभीत से भयभीत आदमी को सैनिक बनाया जा सकता है, थोड़े से अनुशासन की जरूरत है, थोड़ी व्यवस्था जुटाने की जरूरत है, थोड़ी हिम्मत बढ़ाने की जरूरत है, भय भीतर दब जाता है, अचेतन में सरक जाता है। लेकिन अभय बनाना बड़ा दुरूह है, अभय बनना बड़ा दुरूह है, क्योंकि भय को जड़-मूल से नष्ट करना होगा।
तो ध्यान रखो, अगर तुम्हारा भय मेरे पास आने से बढ़ता हो, शुभ लक्षण है। निर्भय बनने की तुम कोशिश ही मत करो। वही कोशिश करके जन्म-जन्म से तुम भय को ढो रहे हो। तुम भयभीत हो जाओ। तुम ऐसे भयभीत हो जाओ, जैसे एक वृक्ष का पत्ता तूफान में कंपता हो। तुम रोको ही मत अपने को। और भय से लड़ो मत, क्योंकि तुम लड़ोगे तो तुम दबाओगे; दबाओगे तो वह बना रहेगा। तुम भय के साथ एकात्म हो जाओ। तुम समझ लो कि भय ही मेरी नियति है। तुम कंपो, डरो, और जरा भी सम्हालने की मत कोशिश करो। अनुशासन मत बांधो, अपने को दबाओ मत, आने दो भय को, तुम पूरे आंदोलित हो जाओ भय से, तुम भय ही हो जाओ।
जल्दी ही तुम पाओगे, एक दिन अचानक कंपन समाप्त हो गया, तुम्हारे बिना कुछ किए ही। तुम्हारे बिना किसी अनुशासन के, भय शून्य हो गया। और जिस दिन तुम पाओगे कि कंपन नहीं है और जिस दिन तुम पाओगे कि एक रोआं भी भय से प्रभावित नहीं है, तत्क्षण तुम पाओगे, तुम्हारे और शरीर के बीच एक फासला हो गया, एक खाई हो गई, जिस पर कोई सेतु नहीं है।
कौन कंपता है? शरीर तो कंप नहीं सकता, क्योंकि शरीर पदार्थ है। आत्मा कंप नहीं सकती, क्योंकि आत्मा अमृत है। फिर कौन कंपता है? यह शरीर और आत्मा के बीच में वह जो तादात्म्य का सेतु है, वह जो ब्रिज है, वह कंपता है। सारा कंपन उसका है, सारा भय उसका है। वह जो तादात्म्य है, मैं शरीर हूं, यह जो रेखा है, यह कंपती है। यह कंपेगी ही, क्योंकि एक तरफ मरा हुआ शरीर है और एक तरफ अमृत आत्मा है, इन दोनों का तल इतना ऊबड़-खाबड़ है, इतना भिन्न है कि इनके ऊपर सेतु बनाने का अर्थ है, कंपेगा, कंपता ही रहेगा।
न तो तुम कंपते हो, न तुम्हारा शरीर कंपता है। न तो तुम मरते हो, न तुम्हारा शरीर मरता है। क्योंकि शरीर मरा हुआ है, मरा हुआ और क्या मरेगा? तुम अमृत हो, तुम्हारे मरने का कोई उपाय नहीं है। फिर कौन मरता है? वह जो दोनों के बीच का सेतु है, वह टूटता है, वही मरता है।
उस सेतु को हम अहंकार कहते हैं, अस्मिता कहते हैं, मैं-भाव कहते हैं।
जब एक आदमी मरता है, तो क्या घटना घट रही है? शरीर वैसा का वैसा है, जैसा मरने के पहले था। रत्तीभर कोई फर्क नहीं पड़ा है। सब परमाणु हैं, सब तत्व हैं, सब मौजूद है। आत्मा वैसी की वैसी है, उसमें कोई फर्क कभी पड़ता नहीं, वह नित्य है। फिर यह मृत्यु कैसे घटी?
यह मृत्यु दोनों के जोड़ का टूट जाना है। वह जो नित्य, अनित्य से जुड़ा था, वह अलग हो गया। मृत्यु एक विसंयोग है। मृत्यु दोनों का अलग हो जाना है। खाई बीच में आ गई, सेतु खो गया, वह जो बीच का पुल था जो जोड़ता था, वह नष्ट हो गया। सदा सेतु की ही मृत्यु होती है। और जब तक तुम सेतु अपने को समझे हो, तब तक तुम कंपोगे, डरोगे, भयभीत रहोगे। मेरा प्रेम उसे नहीं मिटा पाएगा। कोई प्रेम उसे नहीं मिटा पाएगा।
लेकिन जिस दिन तुम्हारा भय चला जाएगा, उस दिन तुम में प्रेम का जन्म जरूर होगा। उस दिन तुम्हारे भीतर से प्रेम की धारा फूटेगी। भयभीत व्यक्ति के जीवन में प्रेम के फूल नहीं लग सकते। भयभीत व्यक्ति के जीवन में जाने-अनजाने शत्रुता बनी रहती है, घृणा बनी रहती है। क्योंकि जो भयभीत है, वह कैसे प्रेम करेगा? जो खुद भयभीत है, जो खुद कंप रहा है, वह कैसे प्रेम को जन्म देगा? जो भयभीत है, वह चारों तरफ शत्रु को देख रहा है, शत्रु को कैसे वह प्रेम करेगा? जिसका विनाश सब तरफ से आ रहा है, उसके पास प्रेम का क्षण कहां? जब भीतर का भय चला जाता है, तब प्रेम का उदय होता है।
और वह प्रेम बेशर्त है। और उस प्रेम का किसी व्यक्ति से कोई संबंध नहीं है। वह प्रेम फिर तुम्हारी अवस्था है, जैसे भय अभी तुम्हारी अवस्था है। तुम किसी के कारण भयभीत नहीं हो, कोई तुम्हें डरा नहीं रहा है, तुम डरे हुए हो, डर तुम्हारी अवस्था है। जब यह अवस्था बदलेगी, कंपन जाएगा, तुम थिर हो जाओगे, थिर होने से प्रेम की अवस्था पैदा होती है। कंपित होने से भय, थिर होने से प्रेम है।
प्रेम एक अनंत थिरता है, ठहरना है। प्रेम एक स्थिति-भाव है, जिसको कृष्ण ने स्थितप्रज्ञ कहा है। उसको ही प्रेम पैदा होगा, जिसकी प्रज्ञा ठहर गई, कंपती नहीं। दीए की लौ जैसे कंपती है तूफान में, ऐसे तुम भय में कंपते हो। और दीए की लौ जैसे एक बंद गृह में, जहां कोई हवा का झोंका न आता हो, अकंप हो जाती है, ऐसा तुम्हारा प्रेम का स्वभाव है। जब तुम अकंप हो, तब प्रेम उठता है। और इस प्रेम का फिर व्यक्ति से संबंध नहीं। किसको प्रेम करो, यह सवाल नहीं है, बस तुम प्रेमपूर्ण हो जाते हो। तुम पत्थर भी हाथ में उठाते हो, तो उस पत्थर की तरफ तुम्हारा प्रेम बहता है। तुम वृक्ष की तरफ आंखें उठाते हो, तो उस वृक्ष की तरफ तुम्हारा प्रेम बहता है। तुम आकाश को देखो, कि सागर को, कि सरिता को, कि जो भी तुम्हारे पास आए या कोई भी तुम्हारे पास न आए, तुम अकेले बैठे हो, तो भी तुम्हारे चारों तरफ प्रेम झरता है। जैसे एक दीया अकेले में जलता हो, तो भी किरणें बरसती रहती हैं। प्रेम तब तुम्हारा स्वभाव है।
दो स्थितियां हैं जीवन की, एक भय और एक प्रेम। भय के अनुषांगिक हिस्से हैं--क्रोध, घृणा,र् ईष्या, प्रतिस्पर्धा, जलन। जिन सबको हमने पाप कहा है, वे भय के अनुषंग हैं। प्रेम के अनुषंग हैं--करुणा, अहिंसा, दया। वे सब जिनको हमने पुण्य कहा है, प्रेम के अनुषंग हैं। और दो ही अवस्थाएं हैं व्यक्ति की: एक भय; भय का अर्थ हुआ, तुमने अपने को शरीर समझा है; दूसरा प्रेम, प्रेम का अर्थ हुआ कि तुमने अपने को आत्मा पहचाना है।
इसलिए मैं उस प्रेम की बात नहीं कर रहा हूं जो पति पत्नियों को कर रहे हैं, पत्नियां पति को कर रही हैं, बाप बेटे को कर रहा है, बच्चे बाप को कर रहे हैं। मैं उस प्रेम की बात नहीं कर रहा हूं; वह तो भय का ही जाल है। पति भयभीत है, पत्नी भयभीत है, दोनों भयभीत हैं। दोनों भयभीत भय के कारण साथ खड़े हो गए हैं। दूसरा साथ खड़ा हो तो आपको भरोसा आता है, कि लगता है अकेले नहीं हैं। चाहे दूसरा भी भयभीत क्यों न हो, उसकी मौजूदगी से भय कम होता हुआ मालूम पड़ता है।
यह तो दूसरा मौजूद है। रात आप अकेले गली से गुजरते हैं, जहां अंधेरा हो, तो सीटी बजाते हैं। खुद की सीटी सुनकर भी भरोसा आता है, लगता है, कोई डर की बात नहीं। गीत गुनगुनाते हैं, खुद की आवाज सुनकर ऐसा लगता है, कोई साथ है। या कम से कम इतना हो जाता है कि गीत की गुनगुनाहट में भूल जाते हैं कि अंधेरा है, गीत की गुनगुनाहट में भूल जाते हैं कि गली सूनी है, कोई भी नहीं है। गीत में डूब जाते हैं, तो गली भूल जाती है।
पति पत्नी में डूबकर भूल रहा है, पत्नी पति में डूबकर भूल रही है, मां बच्चों में भूल रही है, मित्र मित्रों में भूल रहे हैं। हम कहीं अपने को भुला रहे हैं। भुलाने में कम से कम जितना समय बीत जाता है, उतनी देर कंपन का पता नहीं चलता कि मृत्यु है, भय छिपा रह जाता है।
नहीं, उस प्रेम की मैं बात नहीं कर रहा हूं। मैं उस प्रेम की बात कर रहा हूं, जिसका किसी से कोई भी संबंध नहीं, जो असंग है। इसका यह अर्थ नहीं कि वह प्रेम जन्मेगा, तो तुम पत्नी को छोड़कर भाग जाओगे, कि बच्चों से हट जाओगे। वह प्र्रेम जन्मेगा, तो पत्नी-भाव विसर्जित हो जाएगा। तुम्हारा बच्चा तुम्हारा है, यह भाव चला जाएगा। परमात्मा का है, यह भाव रह जाएगा, तुम निमित्त मात्र हो। और तुम्हारा प्रेम अहर्निश बरसता रहेगा। कौन पात्र, कौन अपात्र, यह सवाल न रहेगा। तुम नदी की तरह बहोगे और जिसको भी प्यास हो, वह अपने पात्र में तुम्हें भर ले और ले जाए। तुम्हारा दान निर्बाध हो जाएगा।
मेरे प्रेम से तुम्हारा भय न मिटेगा, मेरे प्रेम में डूबकर तुम्हारा भय भूल सकता है। और अगर भूल जाए, तो मेरा प्रेम एक नशा हुआ, एक नशे की भांति हुआ, जिसने तुम्हें नुकसान पहुंचाया। तो मैं सदा सजग हूं कि मेरे प्रेम में तुम्हारा भय छिपे न। मेरा प्रेम तभी प्रेम है, जब तुम्हारा भय उघड़े। मैं तुम्हारे घाव की मलहम-पट्टी करने को उत्सुक नहीं हूं। तुम्हारा घाव मिट जाए जड़-मूल से, मेरी उत्सुकता वहां है। चाहे कितना ही समय लगे और कितना ही श्रम हो, लेकिन तुम घाव-मुक्त हो जाओ।
और जल्दी कुछ है भी नहीं। ऐसे भी तुमने बहुत-बहुत जन्म गंवाए हैं, जल्दी कुछ है भी नहीं। जल्दी में कहीं तुम घाव को छिपाने की कोशिश न करने लगो। छिपाना सदा आसान है, मलहम-पट्टी कर लेने से सुविधा है। या ऐसी दवाएं तुम्हें दी जा सकती हैं कि तुम्हें दर्द का पता न चले।
सिद्धांत और शास्त्र ऐसी ही दवाएं हैं, जिनसे तुम्हें दर्द का पता नहीं चलता। तो दर्द है, घाव है। और धर्म की उत्सुकता न तो तुम्हारे दर्द को भुलाने में है, न तुम्हारे दर्द को छिपाने में है। धर्म की उत्सुकता तो तुम्हारे जीवन से सारी मवाद, सारा दर्द, सारी पीड़ा, जड़-मूल से अलग हो जाए, तुम पूर्ण मुक्त हो जाओ, इसमें है।


प्रश्न:
भगवान श्री, जब आप चुप बैठते हैं, तो वह मौन पकड़ में नहीं आता।
लेकिन जब आप बोलने लगते हैं, तो दो वाक्यों के, दो शब्दों के बीच कुछ मौन की झलक मिलती है।
लेकिन आपकी वाणी का अर्थ समझने में इतना मोह होता है कि वह मौन छूटता-छूटता जाता है।
तो कृपया समझाएं कि जब हम सुनते हैं, तो आपको कैसे सुनें?

ऐसा होगा, स्वाभाविक है। जब मैं बिलकुल चुप बैठा हूं, तब तुम चुप नहीं बैठ पाते, तब तुम्हारे भीतर विचारों की धारा चलती है, अंतर-धारा बहती है, तब तुम अपने से बात करते हो। बात करने की आदत इतनी गहन हो गई है, इतनी पत्थर की लकीर की तरह हो गई है कि एक क्षण को भी भीतर तुम विश्राम को उपलब्ध नहीं होते। अगर मैं बिलकुल चुप बैठा हूं, तो तुम मुझे भूल ही जाओगे। तुम्हारे भीतर की धारा सक्रिय हो जाएगी, तुम्हारी पुरानी आदत तुम्हें पकड़ लेगी, तुम अंतर-वार्ता में लीन हो जाओगे। मोनोलॉग है, अकेले ही बोलते हो, लेकिन बोलते हो। फिर मेरा मौन भी तुम्हें दिखाई पड़ना मुश्किल है, क्योंकि वही हमें दिखाई पड़ता है, जिसकी पृष्ठभूमि में विपरीत मौजूद हो।
एक मनोवैज्ञानिक एक विश्वविद्यालय में एक प्रयोग कर रहा था। उसने एक काले बड़े ब्लैकबोर्ड पर एक छोटा-सा सफेद चिह्न बना दिया और विद्यार्थियों से पूछा कि तुम्हें क्या दिखाई पड़ता है? उनमें से एक को भी बड़ा ब्लैकबोर्ड दिखाई नहीं पड़ा, सभी ने कहा कि एक छोटा सफेद चिह्न दिखाई पड़ता है। वह छोटा जो सफेद चिह्न है, उसकी पृष्ठभूमि में काली पर्त है, ब्लैकबोर्ड है। वह उभरकर दिखाई पड़ता है।
अगर मैं बिलकुल चुप बैठा हूं, तो एकरस है मौन, उसके विपरीत कुछ भी नहीं है। जैसे किसी ने सफेद दीवाल पर सफेद चिह्न बना दिया, वह दिखाई नहीं पड़ेगा, वह कैसे दिखाई पड़ेगा? उसको दिखाने के लिए विपरीत चाहिए। अगर मैं चुप बैठा हूं, तो सफेद दीवाल पर सफेद चिह्न है, उसे तुम चूक जाओगे।
अगर मैं बोल रहा हूं, तो मेरे हर दो शब्दों के बीच में मौन है। शब्द तो तुम्हारे लिए बोल रहा हूं, अपने लिए तो मैं मौन ही हूं। शब्द तो ऊपर-ऊपर हैं, भीतर तो मैं मौन ही हूं। मेरे भीतर कोई अंतर-वार्ता नहीं है। जब मैं अकेला बैठा हूं तो मैं भीतर कोई बात नहीं कर रहा हूं। बोलना तुम्हारे लिए है, चुप होना मेरा स्वभाव है। तो हर दो शब्द के बीच में मैं मौजूद हूं। और जब एक शब्द समाप्त हुआ और दूसरा शुरू नहीं हुआ, तो बीच में मेरा मौन है। दो तरफ काली रेखा है, बीच में शुभ्र रेखा है। इन दो काली रेखाओं के कारण तुम्हें मेरा मौन बोलते समय ज्यादा प्रगट मालूम होगा, चुप रहते समय ज्यादा प्रगट नहीं मालूम होगा। क्योंकि हमें वे ही चीजें दिखाई पड़ती हैं जो विपरीत की पृष्ठभूमि में हैं।
अगर जगत में कुरूप लोग खो जाएं, तो कौन सुंदर होगा? और जगत में अगर शोरगुल न हो, तो तुम्हें शांति का पता कैसे चलेगा? और अंधेरी रात है, इसलिए दीए का प्रकाश मालूम होता है। मृत्यु है, इसलिए जीवन में रस मालूम होता है। घृणा है, इसलिए प्रेम का एक उन्माद है। और कांटे चुभते हैं, इसलिए प्यार फूलों पर आता है। विपरीत के कारण तुम्हें दिखाई पड़ता है, अनुभव होता है।
तो जब मैं बोल रहा हूं, दो शब्दों के झंकार के बीच शून्य है, खाली जगह है, वह खाली जगह तुम्हें प्रगाढ़ होकर दिखाई पड़ेगी। लेकिन तब तुम्हारी अड़चन भी मैं समझता हूं, तब तुम क्या करो? तुम शब्द का अर्थ समझो या मौन का? क्योंकि अगर तुम शब्द का अर्थ समझो तो मौन खो जाता है। क्षणभर को मौन झलकता है, अगर तुम पहले शब्द की स्मृति से भरे हो, तो चूक जाओगे। अगर तुम दूसरे शब्द की प्रतीक्षा कर रहे हो, तो चूक जाओगे। यह बारीक जो लकीर मौन की है, दोनों तरफ किनारे शब्द के हैं, अगर उन पर तुम्हारा ध्यान है, तो तुम यह लकीर चूक जाओगे। और अगर तुमने इस मौन पर ध्यान दिया, तो वे शब्द तुम्हारे भीतर प्रवेश न कर पाएंगे। तुम क्या करो?
अगर तुम अपनी मानोगे, तो तुम शब्दों पर ध्यान दोगे। अगर तुम मेरी मानो, तो तुम शब्दों की फिक्र छोड़ो, तुम मौन पर ध्यान दो। क्योंकि जो मैं कह रहा हूं, उसका अर्थ शब्दों में नहीं, मौन में है। जो मैं तुम्हें जतलाना चाहता हूं, वह पंक्तियों में नहीं, पंक्तियों के बीच में है, जहां खाली जगह है। और अगर मैं यह शब्दों का प्रयोग कर रहा हूं, तो बस ब्लैकबोर्ड की तरह, ताकि तुम्हें सफेद बिंदु दिखाई पड़ जाए। सफेद बिंदु दिखाने के लिए ब्लैकबोर्ड है, ब्लैकबोर्ड का अपना कोई भी अर्थ नहीं है।
तो जब तुम मुझे सुन रहे हो, तुम अर्थ की फिक्र छोड़ो। अर्थ शून्य से प्रगट होगा, अर्थ मौन से तुम्हें मिलेगा। तुम शब्द को सुनो, लेकिन पकड़ो मौन को, तुम्हारा ध्यान मौन पर हो। जब एक शब्द खो जाए और दूसरा उठे न, तभी तुम मुझसे जुड़ोगे, उसी जगह संधि है, उसी जगह द्वार खुला है। इसलिए तुम इसकी बहुत चिंता मत करो कि मैं क्या कह रहा हूं, तुम इसकी ही चिंता करो कि कहने के बीच में मैं क्या नहीं कह रहा हूं, कहां-कहां रिक्तता है। तुम रिक्तता से ही मेरे भीतर प्रवेश करोगे और मैं भी रिक्तता से ही तुम्हारे भीतर प्रवेश कर सकता हूं।
अगर मैं न बोलूं, तो तुम भीतर बोलते रहते हो, इसलिए फिर मेरे मौन को नहीं पकड़ पाते। मैं बोलता हूं, तो तुम्हारा बोलना रुक जाता है। तुम व्यस्त हो जाते हो, इसलिए भीतर की धारा छिन्न-छिन्न हो जाती है। तुम उत्सुक हो जाते हो सुनने में, तो तुम्हारे भीतर की वार्ता टूट जाती है। तो बोलने का एक फायदा है, वह यह नहीं कि जो मैं कहना चाहता हूं वह तुमसे कह सकूंगा, बोलने का एक फायदा है कि तुम्हारे भीतर बोलने की जो धारा है, वह छिन्न-भिन्न हो जाएगी।
बोलता हूं ताकि तुम न बोलो। बस इतना अर्थ है।
लेकिन जो मैं तुमसे कहना चाहता हूं, वह शब्दों के बीच-बीच में है, निःशब्द में है। तुम चिंता मत करो कि मैं क्या बोल रहा हूं, तुम्हारा ध्यान बीच के शून्य में उतरे। और परम-आनंद की तुम्हें प्रतीति होगी। उस क्षण में न तो मैं बचूंगा, न तुम बचोगे। उस क्षण में न बोलने वाला होगा, न सुनने वाला होगा। उस क्षण में दोनों के भीतर जो छिपा है वह एक हो जाएगा, मिल जाएगा। उस क्षण में एक गहन आलिंगन है, उस क्षण में दो नदियों का संगम है, उस क्षण में दो चेतनाएं अपनी सीमाएं छोड़ देती हैं, असीम हो जाती हैं।
तुम्हारा मन तो कहेगा कि सुनो मैं क्या कह रहा हूं। लेकिन कुछ भी जो महत्वपूर्ण है, कहा नहीं जा सकता। शब्द सभी थोथे हैं, शब्दों का कोई भी मूल्य नहीं है। शब्द तो सतह पर उठी हुई झाग है। सागर की लहरों पर झाग दूर से देखने पर बड़ी प्यारी मालूम पड़ती है। लगता है, जैसे कोई रजतमुकुट पहनकर आती हो सागर की लहर; ऐसा लगता है, जैसे फूल खिले हैं सागर की लहर पर, शुभ्र, अनंत फूल--पर दूर से। पास जाकर अगर तुम झाग को हाथ में लो, तो पानी के बुलबुले हैं, सब बिखर जाएंगे।
शब्द चेतना के सागर पर उठे झाग से ज्यादा नहीं हैं। और अगर चेतना गहरी हो, तो सुंदर झाग उठती है। और अगर चेतना भीतर संगीतपूर्ण हो, तो झाग में भी एक संगीत होता है। भीतर जीवन शांत हुआ हो, तो झाग में एक तरह के काव्य का जन्म होता है।
मैं जो बोल रहा हूं, वह झाग है। उसमें अगर तुम्हें एक काव्य की प्रतीति हो, सौंदर्य का अनुभव हो, तो उसे तुम सिर्फ इशारा समझना। उस झाग को मुट्ठियों में बांधकर तिजोरी में बंद करने से कुछ भी न होगा। वह झाग जहां से आती हो, वह जिस शून्य से उठती हो, जिस गहन से उसका जन्म होता हो, उसकी चिंता करना। शब्द झाग हैं, शून्य में सागर है। तो जब दो शब्दों के बीच मैं मौन हूं, तभी द्वार खुले हैं मंदिर के, तभी तुम प्रवेश कर जाना।
तो पूरा गेस्टाल्ट बदलना होगा। यह गेस्टाल्ट शब्द समझने जैसा है, जर्मन शब्द है। और जर्मनी में एक मनोवैज्ञानिकों का संप्रदाय है, गेस्टाल्ट साइकोलॉजी।
कभी तुमने बच्चों की पत्रिकाओं में देखा होगा, एक चित्र बना होता है, एक बूढ़ी स्त्री का। लेकिन उस बूढ़ी स्त्री में एक जवान स्त्री भी छिपी होती है, उस चित्र में। अगर तुम गौर से देखो, तो तुम्हें जवान स्त्री दिखाई पड़ने लगती है। अगर तुम गौर से देखते ही रहो, तो फिर जवान स्त्री बदल जाती है और बूढ़ी स्त्री दिखाई पड़ने लगती है। उन्हीं रेखाओं में दोनों बनी हैं।
एक मजे की बात है कि दोनों एक साथ नहीं देखी जा सकतीं। तुम दोनों देख सकते हो, पहले तुमने बूढ़ी स्त्री देख ली, फिर तुमने जवान भी खोज ली, अब तुम दोनों से परिचित हो। लेकिन जब भी तुम देखोगे, तो एक को ही देख पाओगे। और तुम्हें पता है कि दूसरी मौजूद है, इसलिए अब कोई ना-पता का सवाल नहीं है, अज्ञान का कोई सवाल नहीं है। लेकिन जब तुम जवान को देखोगे, तब बूढ़ी स्त्री को तुम न देख पाओगे। जब तुम बूढ़ी को देखोगे, तो जवान खो जाएगी। और तुम्हें पता है इस चित्र में दोनों हैं अब, लेकिन दोनों को साथ नहीं देखा जा सकता। इसको जर्मन भाषा में वे कहते हैं, गेस्टाल्ट, एक ढांचा।
तो जब तुम मेरे शब्द सुनोगे, तो मौन को न सुन पाओगे, गेस्टाल्ट बदल गया। तब तुम्हारी पूरी चेतना शब्द को पकड़ने में लगी है, तब शून्य से तुम वंचित रह जाओगे। और जब तुम मेरे शून्य को पकड़ोगे, तब तुम शब्द को न पकड़ पाओगे। जब जवान स्त्री दिखाई पड़ेगी, तो बूढ़ी दिखाई न पड़ेगी; बूढ़ी दिखाई पड़ेगी, तो जवान न दिखाई पड़ेगी। दोनों मौजूद हैं, एक को ही तुम पकड़ पाओगे।
तुम्हारा मन कहेगा, शब्द को पकड़ो। क्योंकि मन सदा शब्द पर ही जीता है। शब्द उसका भोजन है। मन शब्द से बड़ा होता है, मन शब्द से संपदाशाली होता है, मन की सारी संपदा शब्द है। जहां शब्द गए, मन गया। शब्द न बचे, मन न बचा। तो मन तो कहेगा, पकड़ो शब्द को, मूल्यवान है, एक-एक शब्द को कंठस्थ कर लो, इन्हीं में सब सार छिपा है, सब सत्य इन्हीं में है, एक भी शब्द चूक न जाए, पी जाओ। मन तुमसे यही कहेगा। मन तुमसे यही सदा कहता रहा है।
फिर तुमने कितने शास्त्र कंठस्थ किए हैं! कितनी गीता, कुरान, बाइबिल तुम पी चुके हो! फिर भी सत्य की कोई झलक नहीं है। मेरे शब्द भी तुम्हारे भीतर चले जाएं, इकट्ठे हो जाएं, तो भी सत्य की कोई झलक नहीं हो पाएगी। जहां गीता हार जाती है, कुरान हार जाते हैं, वहां मैं भी जीत न पाऊंगा। कोई शब्द कभी नहीं जीत पाएगा। तुम्हारा मन शब्द को तो पी लेगा और मजबूत हो जाएगा। मन की मत सुनना।
अगर मेरी सुनो, तो शून्य को, मौन को पकड़ना और पीना। इसकी चिंता ही मत करो कि मैं क्या कह रहा हूं। मैं चिंता नहीं कर रहा हूं कि मैं क्या कह रहा हूं! कल मैंने कहा, क्या कहा, उसकी मुझे आज चिंता नहीं है। आज क्या कह रहा हूं, कल उसकी चिंता न होगी।
इसलिए बहुत मित्र बड़े कष्ट में पड़ते हैं। वे कहते हैं, कल आपने कुछ कहा, आज आप कुछ कहते हैं! हम किस बात को मानें?
उनकी तकलीफ मेरे समझ में आती है, क्योंकि वे शब्दों को पकड़ रहे हैं। कहना मेरे लिए मूल्यवान ही नहीं है, मैं तो कहने के बीच में जो जगह खाली है, वही मूल्यवान है। कल मैंने दूसरे ब्लैकबोर्ड का उपयोग किया था, आज दूसरे का कर रहा हूं। ब्लैकबोर्ड निष्प्रयोजन है, वह जो सफेद बिंदु वहां है, वही प्रयोजन है। कल दो दूसरे शब्दों के बीच मैंने अपना द्वार शून्य का तुम्हारे लिए खोला था, आज दूसरे दो शब्दों के बीच खोलता हूं। मेरे लिए संगत उस बीच के शून्य की है। वे दरवाजे लकड़ी के बने हैं, कि चांदी के कि सोने के, कि उन पर फूल खुदे हैं कि पत्ते, कि सादे हैं कि बड़े अलंकृत--व्यर्थ है बात। वह जो दरवाजा खुला है, वह जो खाली जगह है, जहां से तुम मेरे भीतर आ सकते हो और मैं तुम्हारे भीतर जा सकता हूं, उससे प्रयोजन है।
शब्दों को जो सुनेगा, वह पाएगा कि मेरे शब्दों में बड़ी असंगतियां हैं। कभी मैं कुछ कहता हूं, कभी कुछ कहता हूं। निश्चित ही वे ठीक कहते हैं, असंगतियां हैं, लेकिन उससे प्रयोजन ही नहीं है। शब्द मेरे लिए केवल निमित्त है शून्य को खोलने के लिए। और जो शून्य को देखेगा, वह पाएगा कि मैं बिलकुल संगत हूं। क्योंकि कल भी वही शून्य खोला था, आज भी वही शून्य खोला है, आगे भी वही शून्य खोलता रहूंगा। द्वार बदलते जाएंगे। द्वार बदलने ही चाहिए। उसका उपयोग है, द्वार के बदल जाने का। अगर मैंने जो शब्द कल कहे थे, वही मैं आज कहूं, वही परसों भी कहे थे, वही परसों भी कहूंगा--तुम सो जाओगे। तुम्हारे भीतर की वार्ता शुरू हो जाएगी।
इसीलिए मंदिरों में लोग कथा सुनते समय सोते हैं। उसका कारण है। उसका कारण है, वह कथा परिचित है, सुनने योग्य कुछ भी नहीं है, तो सजग कैसे रहें? उन्हें पता है कि राम की सीता खो जाती है और उन्हें पता है कि रावण चुराकर ले जाता है और उन्हें कथा का अंत भी मालूम है कि सीता वापस लौट आएगी, युद्ध होगा और राम जीतेंगे। सब पता है। इतनी बार पता है कि अब इसमें कुछ सुनने को नहीं बचा। और जब सुनने को नया न हो, तो नींद पकड़ लेती है। पुराने की पुनरुक्ति नींद लाती है। माताएं जानती हैं और आप नहीं जानते। वे बच्चे को कहती हैं, सो जा राजा बेटा, सो जा राजा बेटा, इसको वे गीत बना लेती हैं, लोरी। एक ही लकीर दोहराए चली जाती हैं, सो जा राजा बेटा, सो जा...। थोड़ी देर बच्चा सुनता है फिर ऊब जाता है। वही बात, वही बात, वही बात, सो जाता है।
तुम्हारे मंत्र लोरियों का काम करते हैं, तुम बैठे हो और कह रहे हो, राम, राम, राम, राम...नींद लग जाती है, तंद्रा पकड़ लेती है। क्योंकि राम-राम को कब तक सुनोगे? वही, वही। ऊब पैदा होती है, ऊब से तंद्रा आती है, तंद्रा नींद में ले जाती है।
अगर मैं रोज तुमसे वही कहूंगा, वे ही शब्द कहूंगा, तुम सोने लगोगे। और यहां मैं तुम्हें जगाने की चेष्टा कर रहा हूं, सुलाने की नहीं। इसलिए शब्द मैं रोज बदलता रहूंगा, शब्द मेरे लिए अर्थहीन हैं। उनमें कोई भी संगति-असंगति का सवाल नहीं है। मैं क्या कहता हूं, उसमें मुझे रस ही नहीं है। कहने के बीच-बीच में मैं जो जगह छोड़ देता हूं, उसमें ही मेरा रस है, वही मेरा निमंत्रण है। उसे तुम चूके, तो सब तुम चूक गए।
तुम मेरे सब शब्द कंठस्थ कर लो, उससे कुछ सार नहीं, और तुम्हारा बोझ बढ़ जाएगा। वैसे ही बोझ काफी है। वैसे ही तुम जरूरत से ज्यादा जानते हो। वैसे ही तुम्हारा ज्ञान तुम्हारी जान ले रहा है। ये शब्द और तुम्हारे ज्ञान को बढ़ा देंगे, तुम और बड़े जानकार हो जाओगे। तुम कुशल तर्क कर सकोगे, तुम समझा सकोगे, तुम दूसरे को बदल सकोगे, उसकी बुद्धि को क्षत-विक्षत कर सकोगे। तुम्हें हराना मुश्किल होगा। पर तुम तुम ही रहोगे, बीमार, रुग्ण, कहीं पहुंचे हुए नहीं। जहां-जहां तुम पाओ कि तुम्हारा मन हट गया है, जहां-जहां तुम पाओ कि शब्दों के बीच का मौन तुम्हें सुनाई पड़ा है, वहां तुम डुबकी लगा देना। वही घाट है, जहां से पार हुआ जाता है। वही तीर्थ है, जहां से नाव उस किनारे की तरफ जाती है।
कुछ और?


प्रश्न:
भगवान श्री, जब हम प्रश्न पूछने लगते हैं तो हमें अनंत दूरी महसूस होती है,
और जब आप बोलने लगते हैं, तो न जाने हम कहां पहुंच जाते हैं आपकी विधि से।
सुनते हुए कभी खुशी फूट पड़ती है, कभी आंसू उमड़ आते हैं।
कभी कुछ होता है, कभी कुछ।
कभी आप तूफान बनकर झकझोर देते हैं हमें, कभी बादल बनकर बरस जाते हैं।
क्या है यह?

हूं! जब भी प्रश्न पूछोगे, तो दूरी मालूम होगी। क्योंकि प्रश्न पूछते समय तुम्हारे मन को तत्पर होना पड़ता है, तुम्हें सोचना पड़ता है, तुम्हें विचारना पड़ता है। जब तुम विचारते हो, सोचते हो, तब दूरी पैदा हो जाएगी। तब तुम्हारा मन सक्रिय है। मन की सक्रियता में ही तो ध्यान खो गया। और जब तुम सुनते हो, तब तुम्हारा मन निष्क्रिय है, उसको करने को कुछ भी न बचा, तब तुम एक पैसीविटी, एक निष्क्रियता की भांति सुनते हो।
जब तुम पूछते हो, तब एक आक्रमण है। प्रश्न आक्रमक है, उसमें एक हमला है, एक कुतूहल है, चिंता है, कुछ जानने का तनाव है। प्रश्न एक भीतरी उथल-पुथल है, इसलिए दूरी बढ़ जाती है। जैसे ही तुम पूछ चुके, मन विश्राम को उपलब्ध हुआ। अब तुम्हें कुछ करना नहीं, सिर्फ सुनना है। सुनना कोई क्रिया नहीं है, सुनने के लिए तुम्हें कुछ भी नहीं करना है। तुम्हें सिर्फ यहां होना है। सुनने के लिए तुम्हें कुछ भी प्रयत्न और प्रयास अपेक्षित नहीं है। तुम बस खाली बैठे रहो और तुम सुन लोगे। जैसे ही तुम सुनते हो, खाली बैठ जाते हो, कुछ करते नहीं, निष्क्रिय हो जाते हो, ध्यान का सुर बंध जाता है।
फिर मैं जो बोल रहा हूं, उस बोलने में अगर तुम्हारा मन पूरी तरह लीन हो गया, अगर तुम भूल ही गए कि तुम यहां हो, तुम मिट ही गए, तो जरूर लगेगा कि तुम किसी और लोक में प्रवेश कर गए। इसी लोक में तुम कभी भी प्रवेश कर सकते हो--मेरे बिना भी--सिर्फ सूत्र पकड़ लेने की जरूरत है।
सूत्र यह है कि जब तुम्हारा मन कुछ भी नहीं कर रहा है, तब तुम दूसरे लोक में प्रवेश कर जाते हो। तब एक नया आयाम खुल गया, जो अपरिचित था। अज्ञात निकट आ गया, ज्ञात छूट गया। अगर मुझे सुनते वक्त तुम्हें लगता है, किसी और लोक में पहुंच गए, तो इसे तुम मुझसे मत जोड़ लेना, अन्यथा एक निर्भरता, एक डिपेंडेन्स पैदा हो जाएगी। तब तुम मेरे गुलाम हो जाओगे, जो कि अध्यात्म की तरफ जाने में सबसे बड़ी बाधा है। तब तुम परतंत्र हो जाओगे, तब तुम्हें लगेगा कि तुम्हारा दूसरे लोक में प्रवेश मेरे द्वारा होता है, जो कि गलत है। मैं केवल निमित्त हूं, तुम ही जाते हो, तुम ही उतर आते हो। लेकिन तुम्हारी आंख चूंकि मुझ पर लगी है, इसलिए भ्रांति पैदा हो सकती है।
तो इस प्रयोग को तुम घर पर भी करना, एकांत में भी करना। कभी पक्षियों के साथ करना, कभी बहते हुए झरने के साथ करना, कभी हवाएं गुजरती हों वृक्षों के पत्तों को झकझोरती हुई, उस आवाज को सुनते हुए करना। तुम चुप हो जाना। जैसे तुम चुप मेरे पास हो जाते हो, वैसे ही तुम सरिता के पास चुप हो जाना। सरिता तो तुम्हारी गुरु नहीं है, सरिता को पता भी नहीं कि तुम वहां किनारे बैठे हो। हवाओं का तुमसे कुछ लेना-देना नहीं है, वृक्षों में आवाज गूंजती है, वह तुम्हारे लिए नहीं गूंजती, वृक्ष के पास बैठकर उस आवाज को सुनना, तत्क्षण तुम दूसरे लोक में प्रवेश कर जाओगे। और तब तुम्हें ज्ञात होगा कि गुरु पर निर्भर हो जाना भी एक नए संसार का निर्माण है, वह एक नया बंधन है। तुम गुरु बदल लेते हो, वह सिर्फ बंधन को बदलना है। एक कारागृह से दूसरे कारागृह में प्रवेश कर जाते हो। एक कारागृह छूट भी नहीं पाता कि तुम दूसरे का आयोजन कर लेते हो।
मुझ पर अगर तुम निर्भर हुए तो यह सत्संग घातक हो गया। अगर मैं तुम्हारा एकमात्र द्वार बन गया दूसरे लोक में प्रवेश का, तो यह द्वार भी कारागृह में ही ले जाएगा। तब मेरे बिना तुम पीड़ित होने लगोगे। तब मैं एक व्यसन हूं। अगर गुरु व्यसन बन जाए, तो सारी घटना ही व्यर्थ हो गई।
इसलिए जो तुम्हें दूसरे लोक की थोड़ी-सी झलक शांत चुप बैठकर, श्रवण करते हुए...महावीर ने ऐसे व्यक्ति को ही श्रावक कहा है। सुनते हुए जिसे दूसरे लोक का अनुभव हुआ वह श्रावक। महावीर कहते हैं कि चार तरह के घाट हैं, चार तीर्थ हैं, जहां से यात्रा होती है दूसरी तरफ, दूसरे लोक की तरफ। एक साधु, एक साध्वी, एक श्रावक, एक श्राविका। महावीर ने कहा, कुछ लोग तप करके वहां पहुंचते हैं, कुछ लोग सिर्फ सुनकर पहुंच जाते हैं। साधु और साध्वी तो बड़ी मेहनत करते हैं, तब उस तरफ का किनारा दिखाई पड़ता है, लेकिन सद श्रावक-श्राविका सिर्फ सुनकर उस दूसरे लोक में प्रवेश कर जाते हैं।
कृष्णमूर्ति निरंतर राइट लिसनिंग पर जोर देते रहते हैं, ठीक सुनो। सम्यक श्रवण। मगर सम्यक श्रवण भी खतरनाक हो सकता है। उसका उपयोग है, क्योंकि पहली झलकें वहां से मिल जाती हैं। फिर उन झलकों को तुम जीवन का आधार मत बना लेना। फिर उन झलकों को तुम विभिन्न स्थितियों में पाने की कोशिश करना, ताकि गुरु से मुक्ति हो सके। तो कभी वृक्ष के पास, कभी नदी के पास, कभी बीच बाजार में खड़े होकर सुनना आवाजों को और चुप हो जाना। वहां भी तुम्हें वही दूसरा लोक तत्क्षण खुल जाएगा।
जब तुम पूछते हो, पूछना चाहते हो, तब तुम भीतर बेचैन होते हो। प्रश्न तुम्हें उद्विग्न करते हैं और प्रश्न चित्त को आक्रामक बनाते हैं। प्रश्न भी एक तरह की गहरी हिंसा है। लेकिन जब तुम सुनते हो, तो चित्त शांत हो जाता है, तनाव बैठ जाता है, लहरें खो जाती हैं। उस सुनने में दूसरे लोक की झलक मिलती है।
निश्चित ही कभी मैं एक तूफान की तरह तुम्हें हिलाता हूं और कभी एक वृक्ष की घनी छाया की तरह तुम्हें विश्राम देता हूं। बहुत बार तुम्हें जरूरत है कि तुम हिलाए जाओ, ताकि तुममें बहुत कुछ, जो कचरे की भांति चिपका है, वह गिर जाए। और बहुत बार जरूरत है कि तुम्हें विश्राम दिया जाए, ताकि तुम्हारे भीतर जो नया पैदा हो रहा है, वह ठीक से जम जाए।
माली कभी पौधे को काटता है, कभी पानी देता है। कभी पौधे को झकझोरकर उसके पुराने पत्तों को गिराता है, कभी लकड़ी का सहारा देकर उसको आराम देता है। कभी पौधे को धूप में रखता है और कभी छाया में हटा लेता है।
तुम एक नए पैदा होते पौधे की भांति हो और तुम्हें बहुत चीजों की जरूरत है। अगर तुम्हें छाया ही छाया मिले, तो तुम धीरे-धीरे निर्वीर्य हो जाओगे। अगर तुम पर शांति ही शांति बरसाई जाए तो तुम मुर्दे की भांति हो जाओगे। तुम्हारी जीवंतता खो जाएगी, तुम्हारा उत्साह क्षीण हो जाएगा, तुम्हारा उत्सव धीरे-धीरे शांत हो जाएगा। तुम्हारे जीवन में शांति तो होगी, लेकिन आनंद नहीं होगा। और अगर आनंद न हो तो अकेली शांति निर्जीव है, वह मुर्दे की है, मरघट की है।
तो कभी तुम्हें तूफान की तरह जीवित करना जरूरी है, कभी तुम्हें चुनौती देनी जरूरी है और तुम्हें दूर का निमंत्रण देना जरूरी है। ताकि तुम्हारी उमंग उठे और तुम अनंत की यात्रा पर जाने के लिए दौड़ पड़ो। ताकि तुम जीवित भी रहो और तुम्हारी शांति मौत न बन जाए।
अन्यथा तुम पाओगे बहुत से साधु-संन्यासियों को, शांति की तलाश में वे करीब-करीब मर चुके हैं। वे पत्थर की मूर्तियों की भांति हैं। उनके भीतर हृदय धड़कता नहीं, क्योंकि हृदय की धड़कन से तो उन्हें डर लगता है कि कहीं अशांति न हो जाए। वे डरे-डरे श्वास लेते हैं, क्योंकि हर श्वास उत्पात पैदा कर सकती है। वे जीते हैं भयभीत, सम्हलकर, कि कुछ गड़बड़ न हो जाए। उनकी शांति बड़ी कमजोर है, बड़ी डरी हुई है, कोई भी चीज उसे नष्ट कर सकती है। वे उन पौधों की तरह हैं, जो छाया में ही रखे गए। अब उन्हें धूप में लाना मुश्किल है, धूप में वे कुम्हलाएंगे और मर जाएंगे।
लेकिन अकेली छाया का कहीं कोई जीवन है? धूप और छाया दोनों चाहिए, क्योंकि धूप जीवन देती है। लेकिन जीवन भी अति हो जाए, तो विक्षिप्तता पैदा हो जाती है। ऊर्जा इतनी हो जाए, जो तुम सम्हाल न सको, तो तुम पागल हो जाओगे।
तो दोनों करना होगा, और दोनों के बीच एक संगीत पैदा करना होगा। तुम्हें झकझोरना भी होगा, तुम्हें विश्राम भी देना होगा। तुम्हें धूप में भी छोड़ना होगा, तुम्हें छाया में भी ले आना होगा। क्योंकि मैं तुम्हें सिर्फ शांति के जगत में नहीं ले जाना चाहता, मैं तुम्हें आनंद के जगत में ले जाना चाहता हूं।
नाचती हुई शांति का नाम आनंद है। उत्सव से भरी, उमंग से भरी शांति का नाम आनंद है। आनंद एक ऐसी सक्रियता है, जिसमें केंद्र पर निष्क्रियता बनी रहती है। आनंद एक ऐसा नृत्य है, जिसमें नृत्यकार खो जाता है। नृत्यकार बिलकुल शांत होता है और नृत्य चलता है। आनंद ऐसी छलांग है, जहां हम ऊंची से ऊंची ऊंचाई को छूते हैं और फिर भी जमीन को कभी छोड़ते नहीं।
अधूरे को साधना सरल है, पूर्ण को साधना कठिन है। सांसारिक लोग जीवन को साधते हैं, तथाकथित साधु-संन्यासी मृत्यु को साधते हैं। मैं तुम्हें दोनों को एक साथ सधवाना चाहता हूं। तुम्हारा अहंकार तो बिलकुल मृत हो जाए और तुम्हारा परमात्मा पूर्ण जीवित हो। मृत्यु तुम्हारा बायां हाथ हो, तो जीवन तुम्हारा दायां हाथ हो। एक श्वास तुम्हारी मृत्यु हो, तो दूसरी श्वास तुम्हारी जीवन हो। तुम तूफान की तरह नाचते हुए युवा, ऊर्जा से भरे, ऊर्जा की एक बाढ़, और तुम मौन भी, शून्य भी, शांत भी। कृष्ण की तरह तुम्हारे ओंठ पर बांसुरी भी हो और बुद्ध की तरह तुम बोधि-वृक्ष के नीचे मौन भी बैठे रहो। बांसुरी तुम्हें व्यथित न करे और मौन तुम्हारा बांसुरी का दुश्मन न हो जाए।
जिस दिन शून्य ओंठों पर बांसुरी रख दी जाती है, जिस दिन मौन से संगीत पैदा होने लगता है, उस दिन तुमने जानी जीवन की चरम सार्थकता, उस दिन निष्पत्ति है, उसके पार फिर कुछ भी नहीं है।
इसलिए कभी तुम्हें हिलाता हूं, ताकि बांसुरी हाथ से न छूट जाए। कभी तुम्हें विश्राम में रखता हूं, ताकि बांसुरी से बहने वाला शून्य जन्म पा सके। शून्य का स्वर, मौन का संगीत, नृत्य करता हुआ आनंद--यही लक्ष्य है।

आज इतना ही।




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