लगन महुरत झूठ सब-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो
आठवां प्रवचन-(सवाल अहिंसा का नहीं,कोमलता का)
पहला प्रश्न: भगवान,
आहारशुद्धौ सत्वशुद्धिः। सत्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः।
स्मृतिलाभै सर्वग्रंथीनां विप्रमोक्षः।।
आहार की शुद्धि होने पर सत्व की शुद्धि होती है, सत्व की
शुद्धि होने पर ध्रुव स्मृति की प्राप्ति होती है। और स्मृति की प्राप्ति से समस्त
ग्रंथियां खुल जाती हैं।
भगवान, छांदोग्य उपनिषद के इस सूत्र की व्याख्या करने
की अनुकंपा करें।
सत्यानंद, आहार की शुद्धि होने पर सत्व की
शुद्धि होती है। आहार का अर्थ है: जो भी बाहर से भीतर लिया जाए। जो भीतर है,
वह सत्व। जो स्वरूप है, वह सत्व। और जो उस पर
आच्छादित होता है, वह आहार। इसलिए आहार से भोजन मात्र न
समझना। भोजन तो आहार का एक छोटा-सा अंग है--और वह बहुत महत्वपूर्ण भी नहीं,
बहुत गौण अंग है।
जो
भी हम बाहर से भीतर लेते हैं--कान से ध्वनि, शब्द, आंख से
रूप, नाक से गंध, हाथ से स्पर्श--हमारी
पांचों इंद्रियां पांच द्वार हैं, जिनसे हम बाहर के जगत को
भीतर आमंत्रित करते हैं। प्रत्येक इंद्रिय का आहार है। अस्सी प्रतिशत आहार तो हम
आंख से लेते हैं, बीस प्रतिशत शेष चार इंद्रियों से। इसमें
जो हम जिह्वा से लेते हैं--भोजन, स्वाद--वह तो अति गौण है।
मगर नासमझों के कारण गौण प्रमुख हो गया है। कुछ पागल अपना पूरा जीवन इसी चिंता में
व्यतीत करते हैं--क्या खाएं, क्या न खाएं; क्या पीएं, क्या न पीएं; कितनी
देर रखा हुआ दूध पी सकते हैं या नहीं; कितनी देर का घी ले
सकते हैं या नहीं।
कल
मुझे पत्र मिला है,
ऊंझा फार्मेसी के मालिक का। जैन हैं वे। और दो जैन मुनियों ने
उन्हें कहा कि तुम कुछ ऐसी औषधियां तैयार करते हो जिनमें थोड़े न थोड़े अंश में
अल्कोहल होती है और यह तो जैन शास्त्रों के बहुत विपरीत बात है। तुम शराब ही बेच
रहे हो। पांच प्रतिशत ही सही, मगर है तो शराब। तो बंद करो इस
तरह की औषधियों का निर्माण।
ऊंझा
फार्मेसी के मालिक चिंता में पड़ गए होंगे कि अब क्या करना। अगर उन औषधियों का
उत्पादन बंद कर दें तो सारा धंधा जाए। और मुनि जो कहते हैं सो बात भी सच है, शास्त्र
की है, जंचती है। मुझे कभी उन्होंने पत्र लिखा न था। ऐसे समय
में उन्हें मेरी याद आई कि अगर कोई बचा सकता है...। तो मुझे लिखा है, अब आप जैसा आदेश करें। क्या मैं इन औषधियों को बंद कर दूं क्योंकि इनमें
पांच प्रतिशत या तीन प्रतिशत शराब होती है? या इनका उत्पादन
जारी रखूं? आप जैसा कहें।
उन्होंने
भी ठीक आदमी से पूछा! भरोसे से पूछा है कि मैं तो कहूंगा नहीं कि बंद करो। क्योंकि
शराब पांच प्रतिशत क्या सौ प्रतिशत भी शुद्ध शाकाहार है। इसमें इतनी चिंता की क्या
बात है? और औषधि में जा रही है, लोगों की चिकित्सा के काम आ
रही है, यह तो सेवा ही हो गई। तुम्हारे लिए धंधा हुआ,
पर साथ-साथ सेवा भी हो गई। मगर जैन मुनियों की न पूछो। उनकी चिंता
बस यही। उनका मन ही यहां अटका हुआ है।
ऐसे-ऐसे
पागल हैं जिनका हिसाब लगाना मुश्किल है।
मैं
एक महात्मा के साथ यात्रा कर रहा था। हिंदू हैं। सिर्फ गऊ का दूध ही पीते हैं। और
सब चीजों को अशुद्ध मानते हैं; दुग्ध-आहार ही केवल शुद्ध है। मैंने उनसे पूछा
कि तुम यह भी तो सोचो कि गऊ तो घास खाती है, और भी न मालूम
क्या-क्या खाती है, और उसी से यह दूध बनता है। तो अंततः तो
यह घास-पात से ही बन रहा है। दूध शुद्ध हो गया, और घास-पात?
मैंने कहा, अगर तुम समझदार हो तो गऊ को कष्ट
क्यों देना, घास-पात खाओ! सीधा दूध पैदा करो। इतना लंबा
रास्ता क्यों लेना? और गऊ को कष्ट दे रहे हो, उससे काम ले रहे हो और उसको गऊमाता भी कहते हो।
जब
उनके साथ यात्रा की तब तो मैं और भी मुश्किल में पड़ा। क्योंकि वे केवल सफेद गऊ का
ही दूध पीएं! मैंने उनसे पूछा, भलेमानस, कोई काली गाय का
दूध क्या काला हो जाता है? दूध तो सफेद ही होगा। तुम सफेद
दूध पीओ, यह समझ में आता है, मगर काली
और सफेद गाय का क्या हिसाब रखना?
वे
कहने लगे, रंग का बड़ा महत्व है। सफेद रंग--दैवीय! और काला रंग--आसुरी!
मैंने
कहा, होगा गऊ का काला रंग आसुरी, मगर तुमसे कह कौन रहा है
कि तुम काला रंग पीओ? दूध में तो रंग आता नहीं, चमड़ी पर रंग है, चमड़ी से तुम्हें क्या लेना-देना।
फिर
तो जब मैंने पूरी जानकारी की कि उनका हिसाब-किताब तो बहुत जालसाजी का था।
हिसाब-किताब यूं था कि कोई स्त्री नहाए और गीले वस्त्र पहने ही गऊ का दूध लगाए, तब वे दूध
पीते थे। शुद्ध! सर्दी के दिन, ठिठुरती स्त्रियां, गीले वस्त्र पहने हुए उनके लिए दूध लगाएं। मैंने कहा, तुम नरक के भागी होओगे। पी लो दूध तुम सोच कर कि शुद्ध है, मगर तुम यह जो करवा रहे हो कार्य, यह तो सीधा सताना
है।
लेकिन
करीब-करीब भारत का सारा धर्म आहार पर ठहर गया है। बस भोजन ही हमारी चिंतना का कारण
बन गया है। हमारी चिंतना,
हमारी साधना, हमारी सत्व-शुद्धि, सब भोजन पर अटक गई है। और इस सूत्र के कारण ही यह उपद्रव हुआ है। सूत्र
नासमझों के हाथ में पड़ जाएं तो यही परिणाम होने वाला है।
मैंने
सुना है कि अहमदाबाद में डोंगरे महाराज का भागवत-सप्ताह चल रहा था। संयोजक के यहां
डोंगरे महाराज अन्य पंडित-पुरोहितों के साथ भोजन कर रहे थे। एक कटोरी में बैंगन की
सब्जी परोसी गई,
तो डोंगरे महाराज ने उस कटोरी को उठा कर भोजन की थाली में से अलग कर
दिया। पास ही बैठे पंडित पोपटलाल ने पूछा, क्यों महाराज जी,
बैंगन की सब्जी आपने भोजन की थाली से निकाल कर अलग क्यों रख दी?
डोंगरे
महाराज ने धीर-गंभीर मुद्रा में उत्तर दिया, कमाल है, पंडित
जी, आपको इतना भी पता नहीं है कि सावन में बैंगन खाने से
अगले जन्म में मनुष्य मूर्खों जैसी बातें करता है!
पंडित
पोपटलाल ने डोंगरे महाराज को थोड़ी देर गौर से घूर कर देखा और कहा, महाराज,
यह बात आपको पिछले जन्म में पता नहीं थी?
पिछले
जन्म में खाए बैंगन,
तभी ऐसी बातें सूझ रही हैं! गरीब बैंगन, सावन
का प्यारा महीना, क्या उपद्रव मचाया हुआ है! लेकिन अच्छे से
अच्छे, सुंदर से सुंदर स्वर्ण-सूत्र भी बुद्धुओं के हाथ में
पड़ जाएं तो उनकी दुर्गति हो जाती है। सोने को छू दें, मिट्टी
हो जाए।
चिलम
फूंकते हुए उस्ताद ने शागिर्द से कहा, जब भी किसी से बात करो, निहायत साफ-सुथरी एवं विद्वतापूर्ण भाषा में ही, ताकि
उसे आभास हो जाए कि तुम किसी अच्छे उस्ताद के शागिर्द हो।
संयोग
से एक चिंगारी चिलम से निकल कर उस्ताद के साफे पर पड़ गई। शागिर्द मन ही मन पांच
मिनट तक शब्दों का संयोजन करते हुए बोला, हुजूर, फैजगंजूर,
मौलाना ओ मुख्तदाना, किब्लाओं कवाम, हुजूर के दस्तारे अजमत असार पर अर्थात साफे पर, एक
अखगेर नाहंजार शररबार आतिशकदे चिलम से परवाज करके शोला अफगन है। अर्थात एक चिंगारी
आपके साफे पर बैठी हुई है। लेकिन तब तक साफे के साथ-साथ उस्ताद की चांद भी लौ देने
लगी थी।
यह
सूत्र तो प्यारा है: आहारशुद्धौ सत्वशुद्धिः।
लेकिन
आहार का बड़ा व्यापक अर्थ है। साफ है आहार का अर्थ, जिसे बाहर से भीतर लिया
जाए--आहार। निश्चित ही, तुम जो बाहर से भीतर ले जाओगे,
वह तुम्हारे स्वरूप पर आच्छादित होगा। भीतर जो है वह तुम्हारा स्वरूप
है। धूल ले जाओगे तो धूल आच्छादित हो जाएगी। स्वर्ण ले जाओगे तो स्वर्ण आच्छादित
हो जाएगा। जो भी तुम बाहर से भीतर ले जाओगे वही तुम्हारे चित्त के दर्पण पर जमेगा
और उससे ही तुम्हारा जीवन निर्धारित होगा।
कैसे
इसकी शुद्धि हो?
आहार तो करना ही होगा। आंखें देखेंगी ही; कम
देखें ज्यादा देखें, लेकिन देखेंगी ही। तो वही देखना जो
देखने योग्य है, सुंदर है, प्रीतिकर है,
आल्हादित करता है।
लेकिन
लोग गलत चीजें देखते हैं। अगर रास्ते पर दो व्यक्ति कुश्तम-कुश्ती कर रहे हों, दंगा-फसाद
कर रहे हों, वाह गुरु जी की फतह बोल रहे हों, तो देखो भीड़ इकट्ठी हो जाती है। मुफ्त तमाशा कौन न देखे! सर्कस हो रहा है।
लाख काम छोड़ कर लोग वहीं खड़े हो जाते हैं। पहले यह मजा देख लें, फिर काम कर लेंगे। कोई यह नहीं सोचता कि जब तुम दो आदमियों को लड़ते हुए
देखोगे तो तुम हिंसा का आहार कर रहे हो। तुम अपने भीतर गाली-गलौज ले जा रहे हो। वे
दोनों आदमी गालियां बक रहे हैं, अभद्र व्यवहार कर रहे हैं,
अशोभन शब्द बोल रहे हैं।
और
जब भी दो पुरुष लड़ते हैं तो हैरानी की बात है, लड़ते पुरुष हैं मगर गालियां
स्त्रियों को देते हैं। वह उसकी मां को ठीक कर रहा है, वह
उसकी बहन को ठीक कर रहा है, वह उसकी बेटी को ठीक कर रहा है।
यह भी थोड़ी सोचने जैसी बात है कि यह समाज बातें तो करता है स्त्री-समादर की,
मगर यह समादर है! बातें तो यूं की जाती हैं कि जहां-जहां नारी की
पूजा होती है वहां-वहां देवता रमण करते हैं। और स्त्री की पूजा के नाम पर हो क्या
रहा है? सदियों से क्या हो रहा है? सिवाय
अपमान और अनादर के कुछ भी नहीं।
अगर
दो आदमी लड़ रहे हैं तो एक-दूसरे से निपटो, इसमें स्त्रियों को बीच में लाने
की क्या जरूरत है? इसमें किसी की मां ने तुम्हारा क्या
बिगाड़ा? किसी की पत्नी ने, किसी की
बेटी ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा? लेकिन गाली तो स्त्रियों को
ही दी जाएगी, लड़े कोई। अपमान तो स्त्री का ही होगा, लड़े कोई। और तुम खड़े होकर यूं पीते हो, जैसे अमृत
मिल गया हो!
जहां
झगड़ा हो रहा हो वहां क्या तुम सोचते हो कोई आदमी झपकी ले ले, नींद में
चला जाए? कभी नहीं। धर्म-सभा में लोग नींद में जाते हैं।
शास्त्र सुनते हैं तो नींद आती है। माला फेरते हैं तो झपकी खाते हैं। लेकिन दो
आदमी गालियां दे रहे हों, तो सोए हुओं की तो बात छोड़ दो,
मुर्दों को भी अगर पता चल जाए तो उठ कर खड़े हो जाएं! कि जरा देख लें
फिर सो जाएंगे कब्र में, ऐसी जल्दी क्या है? यह मजा तो और देख लें जाते-जाते!
लेकिन
तुम आहार कर रहे हो और वे गालियां तुम्हारे दर्पण पर आच्छादित हो रही हैं।
तुम
सुनते क्या हो?
लोग फिल्मी गाने सुन रहे हैं, व्यर्थ की बातें
सुन रहे हैं। एक-दूसरे की निंदा सुन रहे हैं--झूठी। और कोई संदेह नहीं उठाता। ऐसा
आदमी खोजना मुश्किल है जिससे तुम किसी की निंदा करो और वह संदेह उठाए।
हां, प्रशंसा
करो तो हर एक संदेह उठाएगा। कहो किसी से कि फलां व्यक्ति बड़ा साधु-चरित्र। और
दूसरा आदमी तत्क्षण बोलेगा, छोड़ो भी, किन
बातों में पड़े हो! अरे, यह कलियुग है! हो गए साधु सतयुग में,
अब नहीं होते! सब पाखंडी हैं! सब धोखेबाज हैं। सब लूट-खसोट में लगे
हैं। अरे, हर ढोल में पोल है। हजार बातें कहेगा वह आदमी।
तुमने सिर्फ इतना ही कहने की भूल की थी कि फलां आदमी साधु है। एक से एक बातें वह
निकालेगा, बात में से बातें निकालता जाएगा।
और
अगर तुम किसी आदमी की निंदा करो तो कोई इनकार न करेगा। यूं पी जाएगा जैसे प्यासा
आदमी धूप से थका-मांदा ठंडा जल पी जाए, यूं पी जाएगा। इनकार ही न करेगा।
कभी न कहेगा कि भाई, ऐसी निंदा पर मुझे भरोसा नहीं आता,
वह आदमी इतना बुरा नहीं हो सकता। किसी की प्रशंसा करो, और तुम तत्क्षण पाओगे कि कोई तुम्हारी बात को मानने को राजी नहीं है। लोग
प्रमाण मांगेंगे। और किसी की निंदा करो, और तत्क्षण लोग
अंगीकार करने को राजी हैं: न प्रमाण कोई मांगता, न इनकार कोई
करता।
ये
हमारे आहार के ढंग हैं। अशुद्ध को तो हम आहार कर लेते हैं और शुद्ध को हम इनकार
करते हैं। सदियों-सदियों तक संदेह जारी रहते हैं।
आज
भी लोगों को भरोसा नहीं है कि महावीर या बुद्ध जैसे लोग सच में हुए। इतिहासज्ञ खोज
में लगे रहते हैं,
सिद्ध करने में लगे रहते हैं कि ऐसे आदमी हो कैसे सकते हैं? कल्पनाएं हैं, पुराणकथाएं हैं, किंवदंतियां हैं। लेकिन कोई शक नहीं करता सिकंदर पर, कोई शक नहीं करता नादिरशाह पर, चंगेजखान पर, तैमूरलंग पर। हत्यारों पर कोई शक नहीं। जीसस पर शक है, जुदास पर कोई शक नहीं। राम पर तुम्हें शायद शक हो, लेकिन
रावण पर कोई शक नहीं। यह तो रावण को मानने के लिए तुम्हें राम को मानना पड़ता है,
मानते तो तुम रावण को ही हो। लेकिन रावण को अकेला कैसे मानें?
बिना राम की पृष्ठभूमि के रावण को मानना मुश्किल होगा। इसलिए
निमित्त मात्र राम को भी स्वीकार कर लेते हो।
अच्छे
पर हमें संदेह है। फूलों पर हमें भरोसा नहीं, कांटों पर हमारी श्रद्धा है। नकार
हमारी जीवन-दृष्टि है, विधेय नहीं। हम ऐसे ही हैं, जिनको नरक पर कभी भी कोई संदेह नहीं उठता। मैंने आज तक ऐसी किताब नहीं
देखी जिसने नरक पर संदेह उठाया हो कि नरक नहीं है। लेकिन स्वर्ग पर संदेह उठाने
वाली बहुत किताबें हैं। शैतान के खिलाफ लिखी मैंने एक किताब नहीं देखी, ईश्वर के खिलाफ लिखी हजारों किताबें देखी हैं। यह कैसा आदमी है! हम क्या
कर रहे हैं?
और
ध्यान रहे, अगर कांटे चुनोगे तो कांटे ही तुम पर इकट्ठे हो जाएंगे। फिर चुभेंगे भी।
इतने चुभेंगे, इतनी पीड़ा देंगे, इतने
घाव से भर देंगे, इतनी मवाद फैल जाएगी, इतने नासूर हो जाएंगे कि फिर फूल मिल भी जाएं तो भरोसा न आएगा। फूलों पर
भरोसा करो। फूलों को भीतर ले जाओ। फूलों से अपने प्राणों को आच्छादित करो--इतना कि
अगर कांटे मिल भी जाएं तो भी फूलों से आच्छादित आत्मा उनसे अप्रभावित रहे।
लेकिन
लोग अजीब हैं! मैं मुल्ला नसरुद्दीन के घर बैठा हुआ था। उसका बेटा फजलू आया, और मुल्ला
ने आव देखा न ताव और लगा उसकी पिटाई करने। चार-छह झपाटे जोर से लगा दिए। वह बेचारा
बच्चा रोने लगा! मैंने पूछा कि मैं देख रहा हूं, उसने कोई
कसूर किया नहीं, एक शब्द बोला नहीं, तुम
उसे मार क्यों रहे हो? मुल्ला नसरुद्दीन कहने लगा, इसके कसूर के लिए मार ही कौन रहा है! अरे, दो दिन
बाद इसका परीक्षा-फल निकलने वाला है और मैं आज ही बाहर जा रहा हूं।
अभी
से इंतजाम किए दे रहा है वह। अजीब लोग हैं! मगर ऐसे ही लोगों से यह दुनिया भरी है।
तुम भी अपने भीतर अगर खोजोगे तो ऐसे ही आदमी को पाओगे। छिपा हुआ। क्योंकि
सीधा-सीधा देख लोगे तब तो फिर उसका जीना मुश्किल हो जाएगा।
आहार-शुद्धि
का अर्थ है: अपने भीतर वही ले जाना, जो प्रीतिकर हो, स्वादिष्ट हो, सुमधुर हो, सुंदर
हो, सत्य हो। ताकि तुम्हारे भीतर के स्वरूप पर शृंगार आए,
जवानी आए; ताकि तुम्हारे भीतर स्वरूप निखरे,
प्रकट हो; उस पर उभार आए, गर्द-गुबार न जम जाए।
आहारशुद्धौ
सत्वशुद्धिः।
और
उसी आहार में एक छोटा-सा हिस्सा भोजन है। जरूर उसका भी विचार करना, लेकिन वही
सब कुछ नहीं है। इतना ही काफी विचार है कि अपने भोजन के लिए किसी को कष्ट मत देना,
दुख मत देना। इतना ही विचार काफी है। जब भोजन बिना किसी को दुख दिए
हो सकता हो तो पशुओं को काटना और मारना अनुचित है। जब फल और सब्जियां और अनाज
तुम्हारे लिए परिपूर्ण पौष्टिक हो जाते हों, तो क्या जरूरत
है कि पशुओं को मारो? क्या जरूरत है इतना दुख देने की?
और
अगर इतना दुख तुम दोगे तो स्वभावतः तुम कठोर होते चले जाओगे। मांसाहारी कठोर होगा
ही, नहीं तो मांसाहार कैसे करेगा? और जब कठोर होगा तो
मनुष्यों के साथ भी कठोर होगा। अब कठोरता कोई नियम थोड़े ही मानती है कि इसके साथ
कठोर होंगे, उसके साथ कठोर नहीं होंगे। और जब कठोर होगा तो
अपनों के साथ भी कठोर होगा, परायों के साथ ही थोड़े कठोर
होगा। और जब कठोर होगा तो अपनों के ही साथ नहीं, अपने साथ भी
कठोर होगा। कठोरता तो एक भीतर बैठ गई चट्टान की तरह है। सबसे पहले तो खुद के प्रति
कठोर हो जाएगा, दुष्ट हो जाएगा।
इसी
मुल्ला नसरुद्दीन को मैंने एक दिन देखा साइकिल पर बैठा चला जा रहा है, फजलू को
आगे बिठाए। बीच-बीच में उसको चपतें लगा रहा है। मैंने रोका। मैंने कहा कि
नसरुद्दीन, खैर उस दिन तुम बोले थे कि इसका दो दिन बाद
परीक्षा-फल निकलने वाला है, अब कौन-सी मुसीबत आ गई है?
और तुम रह-रह कर इसे मार रहे हो। नसरुद्दीन ने कहा, क्या करूं, साइकिल में घंटी ही नहीं है।
बेटे
से घंटी का काम ले रहे हैं। सो बेटा रो रहा है, वे उसको चपतें लगा रहे हैं। जैसे
ही उनको भीड़ हटानी होती है, चपत लगा देते हैं एक, बेटा रोने लगता है।
तुम
कठोर होओगे ही। तुम क्या भोजन कर रहे हो उसमें इतना ही विचार पर्याप्त है कि हिंसा
न हो, अकारण हिंसा न हो। कम से कम हिंसा हो, न्यूनतम हिंसा
हो। जितना हिंसा से बचा जा सके, शुभ है, ताकि तुम्हारी कोमलता नष्ट न हो जाए। सवाल अहिंसा का नहीं है, सवाल तुम्हारी कोमलता का है।
इसको
भी खयाल रखना। नहीं तो कुछ बुद्धू इसी फिक्र में लगे रहते हैं कि कहीं चींटी न दब
जाए, कहीं मच्छर न मर जाए। मगर उनको असली बात भूल गई, दृष्टि
गलत चीज पर टिक गई। असली बात इतनी है कि तुम्हारी कोमलता न मर जाए। क्योंकि
तुम्हारी कोमलता के द्वार से ही सत्य का पदार्पण होगा। तुम जितने कोमल होओगे उतनी
ही संभावना है कि तुम्हारे भीतर आनंद का गीत उठे, उत्सव जगे,
परमात्मा तुम्हारे भीतर बांसुरी बजाए। उसके लिए तुम्हारी कोमलता
जरूरी है। यह कोई मच्छर-मक्खी मारने का सवाल नहीं है, सवाल
तुम्हारी कोमलता का है। और तुम अगर मच्छर, मक्खी, चींटियां मारने से बच भी गए, लेकिन इस बचने में ही
कठोर हो गए, तो सब व्यर्थ हो गया, किया-कराया
सब व्यर्थ हो गया। क्योंकि असली बात थी कि भीतर की कोमलता...!
और
ऐसा हुआ। जैनों में आचार्य तुलसी का पंथ है--तेरापंथ। महावीर ने तो अहिंसा की बात
कही थी कि तुम्हारी कोमलता प्रगाढ़ हो। लेकिन महावीर की ही परंपरा में पैदा हुआ
तेरापंथ कहता है,
अगर तुम रास्ते से जा रहे हो और कोई प्यासा मर रहा हो तो उसे पानी
मत पिलाना। क्योंकि तुमने अगर उसे पानी पिलाया तो तुम उसके कर्म में बाधा डाल रहे
हो। कर्म-फल भोग रहा है वह। पिछले जन्मों में, सावन के महीने
में बैंगन खाई होगी! वह अपना कर्म-फल भोग रहा है; न खाता
बैंगन, न इस तरह के फल भोगता! वह अपना कर्म-फल भोग रहा है और
तुम बाधा डाल रहे हो--पानी पिलाकर! तो तुम उसके कर्म-फल को आगे सरका रहे हो। फिर
कल भोगेगा, फिर परसों भोगेगा। तुम उसके जीवन में उलझन खड़ी कर
रहे हो। तुम कोई अच्छा काम नहीं कर रहे हो। यह मत सोचना कि तुम सेवा कर रहे हो। यह
तो भूल कर मत सोचना। तेरापंथ में सेवा का निषेध है। क्योंकि सेवा का अर्थ है,
हिंसा। तुमने बाधा डाल दी, यह हिंसा हो गई।
और
फिर और भी झंझटें हैं। हिसाब-किताब लगाने वाले लोग कैसे-कैसे हिसाब- किताब लगा
लिए! कहां से कहां निकल गए! कितनी दूर निकल गए! अगर तुमने इस आदमी को पानी पिला
दिया और यह बच गया,
अभी मर रहा था, और बच कर अगर समझो कि कल इसने
चोरी की--कल का क्या भरोसा? चोरी करे, किसी
की स्त्री ले भागे, जुआ खेले, किसी की
हत्या कर दे--फिर उस सब पाप के भागीदार तुम भी होओगे। क्योंकि न तुम इसे बचाते,
न किसी की स्त्री यह भगाता। न तुम इसे बचाते, न
यह चोरी करता। न तुम इसे बचाते, न यह हत्या करता। तुम्हारे
बचाने ने ही तो सारी चीज के लिए शुरुआत करवा दी, बीज बो दिए।
तुम ही बीज बोने वाले हो। फसल में तुमको भी हिस्सा बांटना पड़ेगा। इसलिए सावधान!
तेरापंथ कहता है कि चुपचाप अपने रास्ते पर चलते चले जाना। वह लाख चिल्लाए:
पानी-पानी; तुम सुनना ही मत। ऐसी झंझट में पड़ना मत। उसको भी
कोई लाभ नहीं है तुम्हारे पानी पिलाने से--उसको प्यासा मरना ही पड़ेगा। जितना कर्म
किया है बुरा उतना फल भोगना ही पड़ेगा। और तुम नाहक अपने जीवन को बिगाड़ लोगे आगे के
लिए। पता नहीं अब यह क्या करे बच जाने के बाद, क्या न करे!
इसलिए चुपचाप अपनी राह पर चले जाना।
कल्पना
भी महावीर ने न की होगी कभी कि मेरी अहिंसा की दृष्टि का ऐसा अर्थ भी हो सकता है!
अर्थ नहीं कहेंगे इसे,
अनर्थ कहेंगे। मगर उधार जिनके जीवन हैं, उधार
जिनकी जीवन-दृष्टि है, उनसे अनर्थ ही हो सकता है।
चंदूलाल
ढब्बू जी से कह रहे थे: "ढब्बू जी, कल जो तुम मुझसे छाता ले गए थे वह
वापस दे दो, भाई।'
ढब्बू
जी ने कहा: "क्या तुम्हें वह अभी चाहिए, बिलकुल अभी चाहिए? उसे तो मेरा मित्र मुल्ला नसरुद्दीन ले गया है।'
चंदूलाल
ने कहा: "छाता मुझे तो नहीं चाहिए ढब्बू जी, पर जिससे मैं लाया था,
वह कह रहा है कि उसने जिससे छाता लिया था वह लेने के लिए उसके घर पर
आकर खड़ा हुआ है।'
यूं
उधारी चल रही है। महावीर कुछ कहते हैं, लेकिन उधार-उधार होतेऱ्होते,
आचार्य तुलसी तक पहुंचते-पहुंचते कैसी दुर्गति हो जाती है! और यही
आचार्य तुलसी जैसे लोग महावीर की परंपरा को बचाने वाले लोग हैं! यही, जो वस्तुतः नष्ट करने वाले लोग हैं, बचाने वाले बन
बैठे हैं। भक्षक रक्षक बने बैठे हैं।
आहार
की जरूर विचारणा होनी चाहिए, क्योंकि तुम मनुष्य हो, तुम
चुनाव कर सकते हो--क्या खाना, क्या नहीं खाना; क्या पीना, क्या नहीं पीना। बस, इतना ही सूत्र ध्यान रहे कि किसी को अकारण कष्ट न हो। क्योंकि कष्ट दोगे
तो कठोर हो जाओगे। कठोर हो जाओगे तो बंद हो जाओगे। बंद हो जाओगे तो परमात्मा को
पाना असंभव है। फूल जैसी कोमलता चाहिए, ताकि परमात्मा तुम पर
यूं उतरे जैसे शबनम की बूंदें सुबह फूल पर जम जाती हैं; जैसे
ओस के मोती फूल की कोमल पंखुड़ियों पर चमकते हैं! ऐसा तुम पर, वह जो दिव्य अवतरण है, संभव हो सके! मगर फूल की
पंखुड़ी चाहिए। फूल जैसे रहना!
और
भोजन को ही सब मत समझ लेना। आहार बड़ी चीज है, बहुत बड़ी चीज है!
बुद्ध
ने अपने भिक्षुओं से कहा: आंखों को नीची करके चलो। चार फीट देखो, बस इतना
काफी है। चलने के लिए इतना काफी है। चार फीट आगे देख रहे हो, इतना बहुत है। लेकिन तुम तो सारे पोस्टर पढ़ रहे हो सड़क के किनारे लगे।
उन्हीं पोस्टरों को रोज पढ़ रहे हो, क्योंकि उसी रास्ते से
रोज निकलते हो। वही हमाम साबुन है। वही पहलवान छाप बीड़ी है। वही चारमीनार सिगरेट
है। कितनी बार नहीं पढ़ चुके हो! क्या सार है आंखें खराब करने से? लेकिन पढ़ोगे उसी को तुम!
अखबारों
में लोग वही पढ़ रहे हैं,
फिल्मों में लोग वही देख रहे हैं। वही फिल्म तुम देख रहे हो
जन्मों-जन्मों से, वही त्रिकोण--दो आदमी, एक औरत। फिर चाहे वे दो आदमी राम और रावण हों और औरत सीता हो; या कोई हों, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता, वही कहानी है--दो आदमी, एक औरत। या दो औरतें,
एक आदमी। त्रिकोण होना चाहिए, कहानी बनने लगी।
और कहानी में होगा क्या? तुम्हें भलीभांति पता है क्या होना
है। तुम खुद ही लिख सकते हो कहानी। इतनी फिल्में देख चुके हो। दो फिल्में देखो,
तीसरी कहानी लिख दो। पांच उपन्यास पढ़ो, छठवां
लिख डालो। यूं ही तो किताबें लिखी जाती हैं, यूं ही फिल्में
बनती हैं।
वही
गीत तुम सुन चुके हो बहुत बार--वही लारे-लप्पा! कब तक लारे-लप्पा करते रहोगे? जरा कानों
को कुछ सम्हालो। आंखों को जरा संयम दो। क्या बोलते हो, क्या
सुनते हो, क्या गुनते हो--इसके पीछे विवेक तो होना ही चाहिए।
महावीर
ने कहा: विवेक से उठे,
विवेक से बैठे, विवेक से चले, विवेक से देखे, विवेक से सुने, क्योंकि मनुष्य को पशुओं से अलग करने वाला तत्व विवेक है।
आहारशुद्धौ
सत्वशुद्धिः।
और
तुम जो भीतर ले जा रहे हो,
अगर यह शुद्ध है तो तुम्हारे भीतर जो छिपा हुआ स्वरूप है, वह ढकेगा नहीं; उघड़ेगा, निखरेगा,
ताजा होगा, नहाएगा--सद्यःस्नात!
सत्वशुद्धौ
ध्रुवा स्मृतिः।
और
जिसने अपने भीतर के सत्व को शुद्धता में जान लिया है, उसकी
स्मृति ध्रुव हो जाती है।
स्मृति
शब्द को खयाल रखना। स्मृति उस अर्थों में प्रयोग नहीं हो रही, जिस
अर्थों में तुम करते हो--याददाश्त के अर्थों में नहीं, मेमोरी
के अर्थों में नहीं। क्योंकि वैसी स्मृति तो कंप्यूटर में भी होती है, उसके लिए आदमी होना जरूरी नहीं है। कंप्यूटर तुमसे ज्यादा याददाश्त वाला
होता है। और उसकी याददाश्त में कम भूलें होती हैं, तुमसे तो
भूलें हो सकती हैं। अब तो मशीनें बन गई हैं जो सब याद रख लें। अब तो तुम्हें कुछ
याद रखने की जरूरत नहीं है। जो काम मशीन कर देती है, उस काम
में कोई गुणवत्ता नहीं है।
फिर
स्मृति से क्या अर्थ है?
ध्रुवा स्मृतिः! उसे ऐसी स्मृति उपलब्ध हो जाती है--अडिग, अचल, चंचलता से शून्य, थिर।
यह
बड़ा अलग अर्थ है स्मृति का। बुद्ध ने इसके लिए उपयोग किया है: सम्मासती। महावीर ने
इसको कहा है: सम्यक स्मृति। दोनों का एक ही अर्थ है; सम्मासती पाली है, सम्यक स्मृति संस्कृत। ठीक-ठीक बोध। स्मृति से याददाश्त का सवाल नहीं है,
स्मरण का सवाल है--अपना स्मरण, आत्म-स्मरण। तुम
भूल गए हो कि तुम कौन हो। तुम्हें याद ही न रही कि तुम कौन हो, किसलिए हो, कहां से आए हो, कहां
जा रहे हो! तुम्हें कुछ भी पता नहीं।
मैंने
सुना है, एडीसन, अमरीका का एक बहुत बड़ा वैज्ञानिक, या चाहो तो कहो कि दुनिया का एक बहुत बड़ा वैज्ञानिक, क्योंकि उसने एक हजार आविष्कार किए। एक आदमी ने इतने आविष्कार कभी नहीं
किए। मगर बहुत भुलक्कड़, अतिशय भुलक्कड़। एक बार खुद अपना नाम
ही भूल गया।
औरों
का नाम भूल जाना तो तुमने सुना होगा, अपना नाम भूल जाना बड़ी कठिन बात है,
बड़ी मुश्किल बात है। लोग नींद में भी नहीं भूलते। तुम सब यहां सो
जाओ...। जैसे मैं छांदोग्य उपनिषद पर बोलता ही रहूं, बोलता
ही रहूं, बोलता ही रहूं, तो फिर तुम
क्या करोगे? तुमको सोना ही पड़ेगा। आखिर बचने के लिए आदमी को
कुछ तो ढाल चाहिए। छांदोग्य उपनिषद पर बोलते-बोलते तुम देखोगे यह तो खतरा हुआ जा
रहा है। जल्दी से तुम अपनी ढाल सम्हाल लोगे और सो जाओगे।...तुम सब सो जाओ और मैं
पुकार दूं: सत्यानंद! तो कोई नहीं सुनेगा, लेकिन सत्यानंद
कहेगा कि भई, कौन नींद खराब करने आ गया! क्यों परेशान कर रहे
हो!
नींद
में भी अपना नाम नहीं भूलता। गहरी नींद में भी, अतिशय गहरी नींद में, सुषुप्ति में भी अपना नाम याद रहता है। लेकिन एडीसन को एक बार अपना नाम
भूल गया। पहले महायुद्ध में राशन शुरू हुआ अमरीका में, वह
कतार में खड़ा था; और जब उसकी पुकार आई--थामस अल्वा एडीसन--तो
वह इधर-उधर देखने लगा। जो आदमी पुकार रहा था, उसको भी पता था
कि यही आदमी एडीसन है, क्योंकि इसके अखबारों में फोटो देखे
थे, जाना-माना आदमी था, जग-जाहिर था।
उसने फिर बुलाया: थामस अल्वा एडीसन! और एडीसन इधर-उधर देखने लगा। उसने कहा,
मामला क्या है! और एडीसन के पीछे जो खड़ा था, उस
आदमी ने भी कहा कि बात क्या है! वह आपको बुला रहा है, आप सुन
नहीं रहे! एडीसन ने कहा, ठीक याद दिलाया। वही मैं सोच रहा था
कि नाम कुछ पहचाना-सा मालूम पड़ता है। कहीं न कहीं सुना है। धन्यवाद! तुमने अच्छी
याद दिला दी।
एक
दिन सुबह-सुबह एडीसन बैठा था। उसकी पत्नी आई--उसने कह रखा था कि जब मैं सोच-विचार
में होऊं तो मुझे कभी बाधा मत डालना--नाश्ता लेकर आई थी, तो नाश्ता
उसने बगल में रख दिया और चुपचाप चली गई कि जब वह सोच-विचार पूरा कर लेंगे तो
नाश्ता कर लेंगे।
तभी
एक मित्र आ गया। उसने नाश्ता देखा रखा हुआ बगल में, एडीसन को विचार-मग्न देखा,
उसने सोचा इनको विचार करने दो, तब तक मैं
नाश्ता कर लूं। उसने नाश्ता कर लिया। खाली प्लेटें सरका कर एक तरफ रख दीं। तब तक
एडीसन अपने सोच-विचार के जगत से वापस लौटे। खाली प्लेटें देखीं, मित्र को देखा, कहा: "भाई, जरा तुम देर से आए। मैं नाश्ता कर चुका। जरा ही पहले आ गए होते तो साथ-साथ
नाश्ता कर लेते।'
मित्र
ने कहा: "कोई चिंता न करें।' मित्र बहुत हैरान हुआ। उसे भरोसा ही नहीं आया,
कि हद हो गई, नाश्ता मैं कर गया हूं और यह
आदमी खाली प्लेटें देख कर कह रहा है कि मैं नाश्ता कर चुका!
एक
बार एडीसन ट्रेन में सफर कर रहा था। टिकट कलेक्टर आया, उसने टिकट
पूछी। एडीसन ने इस खीसे में देखा, उस खीसे में देखा, सब खीसे टटोल डाले, सूटकेस खोल कर सब सामान फैला
दिया, जब बिस्तर खोलने लगा तो टिकट कलेक्टर ने कहा कि आप
चिंता न करें, मैं आपका विद्यार्थी रह चुका हूं और मैं आपको
जानता हूं कि आप बिना टिकट नहीं चलेंगे, टिकट होगा, जरूर होगा। एडीसन ने कहा कि चुप, टिकट की कौन चिंता
कर रहा है! अरे, सवाल यह है कि मुझे जाना कहां है? बिना टिकट के यह पता कैसे चलेगा? तू बताएगा! कौन
बताएगा अब मुझे? अब मैं झंझट में पड़ा। तू भी खोज। मेरे
बिस्तर में देख, मेरे सूटकेस में देख। विद्यार्थी रहा है,
चल साथ दे! बिना टिकट के पता कैसे चलेगा कि मुझे जाना कहां है,
मैं निकला कहां के लिए था?
हमारी
हालत यूं ही है। तुम्हें भी पक्का पता नहीं है कि तुम कौन हो। और जो नाम तुम सोचते
हो तुम्हारा है,
वह तो तुम्हारा है नहीं, वह तो दे दिया है। वह
तो लेबिल लगा दिया औरों ने। वे कुछ और लगा देते। सत्यानंद न कह कर मैं इनको
नित्यानंद नाम दे देता, फिर? यह
नित्यानंद ही हो जाते। अखंडानंद हो जाते, मुक्तानंद हो जाते,
कुछ भी...। इनके भाग्य में कुछ न कुछ होना बदा था! कोई न कोई नाम
जरूरी है, मगर नाम तुम्हारा अस्तित्व तो नहीं है।
स्मृति
का अर्थ है उसकी स्मृति,
जो मैं हूं, जो मैं लेकर आया हूं इस जगत में,
जो मेरे भीतर चैतन्य का स्रोत है। वह क्या है? कहां से मैं आ रहा हूं और किस दिशा में मेरी गति हो रही है? मैं क्या कर रहा हूं इस क्षण? उससे कोई संबंध है
मेरे आने-जाने का या नहीं? या व्यर्थ की बातों में उलझ गया हूं?
जाना कहीं और था, चल पड़ा हूं कहीं और! पहुंचना
कहीं और है, दिशा पकड़ ली है कोई और!
यही
तो दुख है हमारा। सारी पृथ्वी दुखी लोगों से भरी है। क्या है दुख? इतना ही
दुख है कि हम वह कर रहे हैं जिसका हमारे स्वरूप से कोई तालमेल नहीं है। सुख का
अर्थ होता है: जीवन की ऐसी चर्या, जिससे हमारे स्वरूप का
तालमेल हो। और दुख का अर्थ होता है: ऐसी चर्या, जिससे हमारे
स्वरूप का कोई तालमेल न हो। और आनंद का अर्थ होता है: ऐसा जीवन, जो हमारे भीतर के छंद के साथ बिलकुल एकरूप हो; तालमेल
ही न हो, एक ही हो जाए। जिस क्षण हम इस जगत के धर्म को अपने
भीतर के धर्म के साथ निमज्जित कर लेते हैं, इसमें डूब जाते
हैं और इसे अपने में डुबा लेते हैं, जिस दिन बूंद सागर में
डूब जाती है और सागर बूंद हो जाता है, उस दिन जीवन में आनंद;
उस दिन जीवन में छंद। वही छांदोग्य उपनिषद का सार है। उस दिन जीवन
में गीत, बांसुरी। उस दिन पायल बजती है, घूंघर बजते हैं। उस दिन ढोल पर थाप पड़ती है। उस दिन जीवन में पहली बार पता
चलता है कि कितना बड़ा अहोभाग्य है--एक श्वास लेना भी!
सत्वशुद्धौ
ध्रुवा स्मृतिः।
आत्म-स्मरण
का नाम स्मृति है। इसी सम्मासती, सम्यक स्मृति को मध्यऱ्युग के संतों ने--कबीर
ने, नानक ने, दादू ने, रैदास ने, फरीद ने--सुरति कहा है। सुरति सम्मासती का
ही रूप है लोकभाषा में--और भी प्यारा हो गया! सम्यक स्मृति थोड़ा कठिन, सुरति सीधा-साफ हो गया।
लेकिन
सुरति के नाम से बड़ा धोखा चल रहा है। खास कर पंजाब में। क्योंकि पंजाब में नानक ने
सुरति की दुंदुभी बजा दी,
और नानक के पास जो आए वे भीग कर लौटे, अमृत से
भीग कर लौटे। लेकिन सदा होना है यह। नानक ने लोगों को सुरति दी अर्थात स्मृति दी
अपनी, उन्हें याद दिलाई खुद की; और अब
पंजाब में क्या चल रहा है? सुरति-शब्दऱ्योग! उसका उससे कोई
नाता नहीं। शब्दऱ्योग! वह केवल मंत्रोच्चार का ही दूसरा नाम है। बैठे-बैठे राम-राम,
राम-राम, राम-राम कर रहे हैं तोते की तरह;
या जो भी तुम्हें प्यारा शब्द हो वही--ओंकार का नाद करो, कि नमोकार मंत्र पढ़ो, कि जपुजी पढ़ो।
लेकिन
शब्दों को दोहराने से,
मंत्रों को दोहराने से केवल आत्म-सम्मोहन पैदा होता है, सुरति पैदा नहीं होती। वस्तुतः उलटी ही बात होती है, विस्मृति पैदा होती है, सुरति पैदा नहीं होती। अपना
स्मरण क्या खाक आएगा शब्दों से! अपना स्मरण तो निःशब्द में आता है।
सुरति-निःशब्दऱ्योग कहो तो समझ में आए। सुरति-शब्दऱ्योग! शब्द तो ढांक लेता है।
शब्द ही तो उपद्रव है। शब्द ही तो हमारा मन है। सारे शब्दों से मुक्त होना है,
ताकि निस्तब्धता छा जाए, ताकि मौन उतर आए,
ताकि भीतर सन्नाटा हो। उसी सन्नाटे में अपनी स्मृति आएगी। जब कुछ भी
न बचेगा याद करने को, तभी अपनी याद आएगी। जब तक कुछ और बचेगा,
तब तक याद उसी में उलझी रहेगी।
आहारशुद्धौ
सत्वशुद्धिः। सत्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः।
स्मृतिलाभै
सर्वग्रंथीनां विप्रमोक्षः।।
और
जिसको अपनी सुरति आ गई,
जिसको अपना स्मरण आ गया, उसकी सारी ग्रंथियां
टूट जाती हैं। यह शब्द बड़ा प्यारा है। ये सूत्र छोटे-छोटे शब्दों पर खड़े हैं।
सूत्र का अर्थ ही होता है: बीज। इनमें विस्तार नहीं होता है। इनमें बात थोड़े में
कही जाती है। सूत्र का अर्थ होता है: टेलीग्राम।
और
ध्यान रखना, टेलीग्राम का ज्यादा परिणाम होता है। तुम पूरा का पूरा शास्त्र लिख भेजो
किसी को--कि जोग लिखा महा शुभस्थाने और सब जने राजी खुशी हैं, और आगे हाल यह है--और चलते जाओ तो भी उसका वह परिणाम नहीं होता। और इसलिए
जो समझदार हैं, वे लंबी चिट्ठी लिखने के बाद क्या लिखते
हैं--थोड़ा लिखा और ज्यादा समझना! अरे, चिट्ठी लिखी है और तार
समझना! गजब कर दिया, तो तार ही भेज देते न! चिट्ठी लिखी और
तार समझना! मगर लिखने में राज है। तार समझने का मतलब है कि जब तार आ जाता है तो
ज्यादा अर्थ लाता है; शब्द कम होते हैं, अर्थ ज्यादा होता है। चिट्ठी में शब्द ज्यादा होते हैं, अर्थ कम होता है। इसलिए कहते हैं कि चिट्ठी लिखी और तार समझना।
ये
तार हैं। सूत्र का अर्थ होता है: संक्षिप्त, बिलकुल सार। जरा भी असार को नहीं
रखा है, सब हटा दिया है। सिर्फ सार को ही बचाया है। इनमें
एक-एक शब्द महत्वपूर्ण है।
"सर्वग्रंथीनां--सारी ग्रंथियां।'
ग्रंथि
का अर्थ होता है: गांठ। और हममें गांठें ही गांठें हैं। उन्हीं गांठों के कारण तो
हम सब अष्टावक्र हो गए हैं,
जगह-जगह से टेढ़े हो गए हैं। आदमी तो कहां मिलते हैं--ऊंट। चले जा
रहे हैं ऊंट, कतारबद्ध ऊंट! जगह-जगह गांठें हैं--ऊंट की खूबी
यही है। सब जगह से तिरछा है।
यहूदियों
में कथा है कि जब भगवान सबको बना चुका तब उसने ऊंट बनाया, बचा-खुचा
जो सामान था। मतलब कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा, भानुमति ने
कुनबा जोड़ा! ऊंट को उसने बनाने का इरादा नहीं रखा था। बना चुका हाथी, घोड़े, गधे--सब बना चुका--आदमी, औरतें, पशु-पक्षी। बच रहा होगा सामान। हमेशा जब तुम
मकान बनाते हो, तो कुछ सीमेंट बच गई, कुछ
चूना बच गया, कुछ ईंट बच गईं, कोई
लक्कड़-पत्थर बच गए, अब इन सबको मिला कर कुछ बना दिया। ऐसे
ऊंट बना। इसलिए ऊंट दिखता भी है अजीब। क्या उनकी चाल, क्या
उनके पैर, क्या उनकी देह की संरचना!
यहूदियों
में दूसरी कहानी है कि ऊंट को भगवान ने आखिरी समय में बनाया, जब वह
बिलकुल थक चुका था और झपकी खाने लगा था। ऐसा थोप-थाप कर किसी तरह खतम किया। आखिरी
मामला था, निपटें, सुलझें, झंझट मिटाएं। छठवें दिन आखिरी चीज ऊंट बनाई। और फिर जो सोया सो तब से सोया
ही है। क्योंकि यहूदियों में तो छह दिन में सृष्टि बन गई और सातवें दिन के बाद
फुरसत। सातवां दिन इसीलिए, रविवार, छुट्टी
का दिन है। मगर तुम्हारा तो सोमवार होता है, परमात्मा का फिर
सोमवार नहीं हुआ। फिर दफ्तर नहीं गए वे। फिर तो जो उन्होंने टांग पसारी! अरे,
घोड़े क्या ऊंट भी बेच कर सो गए!
ग्रंथि
का अर्थ होता है: गांठ। और जितनी ग्रंथियां होती हैं उतना ही आदमी इरछा-तिरछा होता
है। कहेगा कुछ,
मतलब उसका कुछ और होगा। करना कुछ और चाहेगा, करेगा
कुछ और। जाएगा उत्तर और जाना चाहेगा दक्षिण। उसकी बात का भरोसा करना मुश्किल होता
है। तुम्हें सोचना पड़ता है कि इसका मतलब क्या, इसके इशारे का
मतलब क्या।
मैंने
सुना है, दो व्यापारी...। फलीभाई पहचानते होंगे उनको! वहीं शेयर बाजार बंबई के आदमी
थे दोनों, बोरीबंदर पर मिले। एक ने दूसरे से पूछा कि भाई,
कहां जा रहे हो? उसने कहा, कहीं नहीं, यहीं दादर तक जा रहा हूं। दूसरे ने कहा,
अरे, तू किसी और को बुद्धू बनाना, मुझे पक्का पता है कि तू दादर ही जा रहा है!
देखते
हो मजा! उसने कहा,
मुझे पक्का पता है कि तू दादर ही जा रहा है! तू किसी और को बुद्धू
बनाना! क्योंकि जाएगा कहीं और बताएगा कहीं, वह मुझे मालूम
है। तू सोचता होगा कि दादर की बताएगा तो मैं समझूंगा थाना जा रहा है। मगर मैं
पक्का पता लगा कर आया हूं कि तू दादर ही जा रहा है।
अब
बेचारा सच बोल रहा है कि दादर ही जा रहा हूं, मगर माने कौन!
इस
जगत में इतने तिरछे लोग हैं। यहां सभी राजनीति में पड़ गए हैं। छोटे-छोटे बच्चे तक
राजनीति में पड़ जाते हैं। पड़ना ही पड़ता है। क्योंकि मां कहती है कि हंसो, अरे मैं
तुम्हारी मां हूं! मुस्कुराओ, क्या पड़े हो! छोटा-सा बच्चा!
मनोवैज्ञानिकों ने खोज की है कि छह सप्ताह का बच्चा राजनीति सीखना शुरू कर देता
है। जैसे ही माताराम को आते देखता है, मुस्कुराने लगता है।
कोई मतलब नहीं है उनको मुस्कुराने का। इन माताराम को देख कर उसे कोई बड़ी प्रसन्नता
नहीं हो रही है। मगर झंझट से बचना है तो मुस्कुराना ठीक है। पोपला मुंह खोल देता
है। न कुछ दांत हैं न कुछ, न हृदय में कोई मुस्कुराहट का अभी
सवाल है, मगर ओंठ फाड़ देता है। माताराम प्रसन्न हो जाती हैं।
स्वागत हो गया। बाप आते हैं, वे भी झूले पर खड़े होकर बेटे को
देखते हैं। बेटे को मुस्कुराना पड़ता है।
मुल्ला
नसरुद्दीन अपनी पत्नी,
बेटा फजलू और छोटे बच्चे को लेकर--अभी नया-नया दो ही साल का
बच्चा--किसी के घर निमंत्रित थे, भोजन करने गए थे। सबने छोटे
बच्चे को अभी पहली दफा देखा था, इसलिए सभी छोटे बच्चे की बात
कर रहे थे। गृहपति ने कहा कि बाल तो बिलकुल नसरुद्दीन, तुमसे
मिलते हैं। अरे, तुम्हारे बाल देख लो कि इसके बाल देख लो।
गृह-पत्नी ने कहा नसरुद्दीन की पत्नी से कि गुलजान, आंखें तो
बस बिलकुल तुमसे मिलती हैं। ऐसा लगता है बिलकुल तुम्हारी आंखों की ही प्रतिछबि।
फजलू
चुपचाप खड़ा रहा कि मेरे बाबत भी कुछ बोला जाता है कि नहीं। जब देखा कि कुछ कोई
नहीं बोल रहा और उसने कहा: "पाजामा मेरा है! मिलता ही नहीं, बिलकुल
मेरा है!'
क्या
करोगे! जहां सब अपनी-अपनी चला रहे हैं, अपनी-अपनी धाक रहे हैं--कोई के बाल,
किसी की आंखें! आखिर लड़का यह भी तो सोचे कि आखिर मेरी भी कोई इज्जत
है, मेरी भी कोई प्रतिष्ठा है! इनके मिलते होंगे, मगर मेरा पाजामा बिलकुल मेरा है! कसम खाकर कहता हूं। मुहल्ले-पड़ोस के
लड़कों को लाकर गवाही में खड़ा कर सकता हूं। सालों मैंने पहना है और अब यह पहन रहा
है।
छोटे-छोटे
बच्चों को भी अहंकार पकड़ना शुरू होता है। और वहीं से गांठ पड़नी शुरू होती है। और
मां-बाप भी अहंकार को पकड़ाते हैं, जहर पिलाते हैं। कुछ करके दिखाना! अरे, दुनिया में आए हो तो कुछ करके दिखाओ! कुछ नाम ही कर जाओ! जैसे जो नाम कर
गए पहले, कुछ बहुत कर गए! क्या हो गया उनके नाम के कर जाने
से? मगर हर बच्चे को हम कहते हैं: कुछ होकर दिखाओ, कुछ करके दिखाओ, कुछ बन कर दिखाओ। यह बन जाओ,
वह बन जाओ। स्कूल भेजते हैं, स्कूल में भी वही
दौड़ महत्वाकांक्षा की--प्रथम आओ! स्वर्णपदक जीतो! कुछ न कुछ दुनिया के सामने अपने
अहंकार को घोषणा देनी है।
इससे
ग्रंथियां पैदा होती हैं,
गांठें पैदा होती हैं। महत्वाकांक्षा ग्रंथियां लाती है। और
महत्वाकांक्षा हीनता पैदा करवाती है कि अभी मैं कुछ भी नहीं। न सिकंदर बन पाया,
न अशोक बन पाया, न अकबर बन पाया, न बुद्ध बन पाया, न महावीर बन पाया, कुछ भी नहीं। जिंदगी यूं ही चली जा रही है! अभी तक अपनी कोई छाप नहीं छोड़
पाया दुनिया पर। हस्ताक्षर नहीं कर पाया। तो हीनता पैदा होती है। महत्वाकांक्षा का
जहर हीनता को पैदा कर देता है।
और
हीनता बड़ी गांठ है। फिर आदमी धन से, पद से, प्रतिष्ठा
से, किसी भी तरह से, अगर अच्छी तरह से
न मिले तो गलत तरह से--चोरी से, बेईमानी से, गुंडागर्दी से--अगर यूं प्रसिद्धि न मिले तो फिर आदमी कुछ भी साधन
अख्तियार कर लेता है। फिर साध्यों की फिक्र नहीं रह जाती कि वे शुभ साधन से ही
मिलने चाहिए। मिलने चाहिए! साधन फिर शुभ हों कि अशुभ।
केलिफोर्निया
में दो वर्ष पहले एक आदमी ने सात हत्याएं कीं--दो घंटे के भीतर। जो मिला, उसको शूट
कर दिया। यह भी नहीं देखा, किसको शूट कर रहा है। पीछे से भी
मार दी गोली लोगों को। उनका चेहरा भी नहीं देखा था पहले कभी।
उस
पर जब अदालत में मुकदमा चला तो मजिस्ट्रेट भी हैरान था। उसने पूछा कि तुमने यह
किया क्यों? अरे, लोगों की कोई दुश्मनी होती है तो कोई किसी को
मारता है, समझ में आता है, कोई तर्क
है। तुमने तो ऐसे आदमियों को मारा, जिनको तुमने जिंदगी में
पहले देखा भी नहीं था। इसमें एक आदमी तो पहली दफे ही केलिफोर्निया आया था। और उसका
तुमने चेहरा भी नहीं देखा था, पीछे से गोली मार दी!
उस
आदमी ने कहा,
मुझे इसकी कोई फिक्र नहीं। मैं अपनी तस्वीर अखबारों में देखना चाहता
हूं। अरे, जिंदगी यूं ही चली जा रही है! कोई चर्चा ही नहीं!
आज हर जबान पर मेरा नाम है। गांव की चर्चा मैं हूं। जो देखो मेरी बात कर रहा है।
जिंदगी सफल हो गई। अब फांसी लगे, कोई फिक्र नहीं। उसकी भी
चर्चा होगी। मर जाऊंगा, मगर याद छोड़ जाऊंगा।
जार्ज
बर्नार्ड शा को जब नोबल प्राइज मिली तो उसने इनकार कर दिया लेने से। वह पहला आदमी
था इनकार करने वाला। एक तो नोबल प्राइज का मिलना, सारी दुनिया में चर्चा हुई।
प्रथम, अखबारों की सुर्ख सुर्खियों में नाम आया। और दूसरे
दिन उसने इनकार कर दिया लेने से। फिर अखबार में खबर छपी। यह पहला मौका था कि कोई
नोबल प्राइज लेने से इनकार कर दे। नोबल प्राइज के लिए तो लोग मरे जाते हैं। हजार
कोशिश करते हैं, सिफारिशें करवाते हैं, चेष्टाएं करते हैं, क्या नहीं करते आदमी! और इसने
नोबल प्राइज को इनकार कर दिया! मिलने से भी बड़ी खबरें छपीं कि यह इतिहास की पहली
घटना है! इतना बड़ा पुरस्कार--कोई बीस लाख रुपए मिलते हैं--और सारे जगत में सम्मान,
ऐसा कोई पुरस्कार नहीं। और बर्नार्ड शा ने इनकार कर दिया! बहुत
चर्चा हुई, बहुत शोरगुल मचा।
दोत्तीन
दिन बर्नार्ड शा को बहुत खोजा गया, उसका पता ही न चले कि वह कहां है।
तीन दिन बाद पता चला। वह अपने गांव चला गया था। उस पर बड़ा दबाव डाला गया। इंग्लैंड
की सरकार ने दबाव डाला, दुनिया के बड़े-बड़े प्रसिद्ध लोगों ने
पत्र लिखे, तार किए कि भई, ऐसा मत करो,
इसमें अपमान है नोबल प्राइज बांटने वाली कमेटी का। तुम स्वीकार कर
लो, फिर चाहे तुम इस हाथ से स्वीकार करना और उस हाथ से दान
कर देना, मगर स्वीकार कर लो।
मगर
वह भी टिका रहा,
सात दिन तक अखबारों में रोज चर्चा चलती रही कि आज इस महाराजा ने
प्रार्थना की, आज उस राजा ने प्रार्थना की, आज इस लेखक ने, कल उस कवि ने। सात दिन तक उसने
धूम-धड़ाका मचा दिया। सारी दुनिया की सब खबरें गौण हो गईं। सातवें दिन उसने घोषणा
की कि जब इतने लोग आग्रह कर रहे हैं तो मैं कैसे इनकार कर सकता हूं, मैं स्वीकार करता हूं। उसने नोबल प्राइज स्वीकार की। फिर अखबार में खबर
छपी।
और
उसने एक हाथ से दस्तखत किए स्वीकार करने के और दूसरे हाथ से उसको दान कर दिया एक
संस्था को--फेबियन सोसायटी को दान कर दिया। फिर अखबारों में खबर छपी कि उसने
स्वीकार किया,
मगर अदभुत दानी कि बीस लाख रुपए यूं दान कर दिए! कि दो पैसे भी आदमी
देने में सोचता है, बीस लाख रुपए देने में!
और
आज के बीस लाख नहीं,
उस दिन के बीस लाख बहुत थे। आज का तो एक करोड़ रुपया भी उनसे कम है,
उस दिन के बीस लाख रुपए आज के करोड़ों रुपए से भी ज्यादा थे। कुछ
चीजों के दाम तो सात सौ गुने ज्यादा हो गए हैं उस दिन से अब तक। रुपए की तो कीमत
ही गिरती चली गई है। रुपए का तो कोई मूल्य ही नहीं रहा। भिखमंगे को भी तुम रुपया
दो तो वह धन्यवाद नहीं देता; उलटे उसको देखता है कि असली है
कि नकली। मतलब तुम पर एहसान कर रहा है स्वीकार करके।
अखबार
में खबरें छपीं,
बहुत खबरें छपीं। और फिर पता चला कि वह फेबियन सोसायटी जो थी वह
जार्ज बर्नार्ड शा की ही बनाई हुई एक छोटी-सी समिति थी, जिसके
वही अध्यक्ष थे और वही सदस्य थे एकमात्र--और कोई भी नहीं। फिर तो बहुत शोरगुल मचा,
कि यह तो हद हो गई, यह तो बेईमानी हो गई।
यूं
पंद्रह दिन तक उस आदमी ने सारी दुनिया को उलझाए रखा। और सोलहवें दिन उसने घोषणा कर
दी कि इसमें क्या संकोच की बात है! सच बात तो यह है कि मैंने जान कर यह सब किया, क्योंकि
नोबल प्राइज मिली, एक दिन छप गई खबर, खत्म
हो गई बात, यह भी कोई बात है! अरे, नोबल
प्राइज मिली तो इसको जितना खींचा जा सके लंबा, जितने दिन तक
अखबारों में टिका जा सके टिकना चाहिए। इसलिए तो मैंने इतना पूरा नाटक किया।
फिर
खबर छपी कि यह नाटक था पूरा का पूरा। यह नाटककार नाटक ही कर रहा था। यह इसने किसी
को दान वगैरह किए नहीं,
इस हाथ से अपने को ही दान कर लिए वापस। यह सब धोखाधड़ी थी। यह आदमी
बेईमान है। जगह-जगह गालियां और जगह-जगह असम्मान और व्यंग्य-चित्र छपे।
मगर
उसने कहा कि इसमें क्या बात है! मैंने पूरा लाभ लेना चाहा जितना लाभ लिया जा सकता
है। क्या यूं ही नोबल प्राइज मिली और बस ले ली, किसी को पता भी न चला, कानों-कान खबर न हुई! एक-एक बच्चे को पता चल गया।
ऐसी
ग्रंथियां मन में पैदा हो जाती हैं--अहंकार की, विशिष्टता की, खास होने की।
स्मृतिलाभै...।
लेकिन
जिसको अपना स्मरण आ गया,
उसकी ये सारी ग्रंथियां मिट जाती हैं। फिर उससे ऊपर कुछ भी नहीं है--न
धन है, न पद है, न प्रतिष्ठा है। जिसको
अपना स्मरण आ गया, उसे तो परम पद मिल गया, परम धन मिल गया। उस परम पद और परम धन का नाम ही मोक्ष है।
स्मृतिलाभै
सर्वग्रंथीनां विप्रमोक्षः।
उसका
सभी ग्रंथियों से मोक्ष हो जाता है, मुक्ति हो जाती है। सारी ग्रंथियां
टूट कर गिर जाती हैं, जैसे जंजीरें टूट कर गिर गई हों किसी
कैदी की।
इस
सूत्र को बहुत सावधानी पूर्वक समझना। आहार अर्थात जो बाहर से भीतर आता है। स्मृति
अर्थात आत्म-स्मृति। ग्रंथियां अर्थात वे सब आकांक्षाएं जो तुम्हें बांधे हुए हैं; वासनाएं
जो तुम्हें बांधे हुए हैं; गांठें जिनमें तुम उलझ गए हो।
जैसे मछली जाल में फंसी हो और तड़फती हो। जिसकी सारी ग्रंथियां टूट जाती हैं,
उसका मोक्ष है, उसका ही मोक्ष है।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, आपने सुझाव दिया था, इसलिए
डोंगरे का बालामृत तो पी लिया परंतु उसमें भी झंझट हो गई। अब डोंगरे महाराज से
पीछा नहीं छूट रहा। शिष्य तो आपका हूं और वचन उनके चोट कर जाते हैं। अभी हाल ही
में उन्होंने कुछ क्रांतिकारी वचन कहे, जैसे--
पहला: किसी मनुष्य का भरोसा न करो। ईश्वर का भरोसा मत छोड़ो।
दूसरा: गरीबी पाप नहीं है। गरीबों के साथ सम्मानपूर्वक व्यवहार
करो।
तीसरा: जब जन्म होता है तब मृत्यु का स्थान, कारण तथा
समय तय हो जाता है। परंतु यदि अतिशय भक्ति हो जाए तो उसमें थोड़ा-बहुत परिवर्तन हो
सकता है।
चौथा: जगत के साथ बैर न करो, परंतु जगत
बहुत प्रेम करने योग्य भी नहीं है।
भगवान, क्या अब भी डोंगरे का बालामृत पीना जारी रखूं?
क्योंकि डर है कि उसे पीते-पीते शक्ति और भक्ति मिलना तो दूर,
कहीं मति ही तिरोहित न हो जाए। संकट में हूं, भगवान,
कृपया मार्गदर्शन दें।
सत्य वेदांत, डोंगरे का बालामृत पीने का इसीलिए तो सुझाव दिया था
कि थोड़ी झंझट हो। झंझट हो तो झंझट से छूटने का उपाय खोजा जा सकता है। झंझट तो है, प्रकट
नहीं होती; डोंगरे के बालामृत ने प्रकट कर दी। बीमारी तो थी,
डोंगरे के बालामृत ने छिपी बीमारी को अभिव्यक्त कर दिया।
अच्छा
हुआ, झंझट साफ हुई। साफ हुई तो अब तोड़ी भी जा सकती है।
बाजार
का ये हाल है
कि
ग्राहक पीला
और
दुकानदार लाल है
दूध
वाला कहता है--
दूध
में पानी क्यों है
गाय
से पूछो
गाय
कहेगी--
पानी
पी रही हूं
तो
पानी ही तो दूंगी
दूध
वाला मेरे प्राण ले रहा है
मैं
तुम्हारे लूंगी।
कोयले
वाला कहता है--
कोयले
की दलाली में
हाथ
काले कर रहे हैं
बर्तन
खाली ही सही
हमारी
बदौलत
चूल्हे
तो जल रहे हैं।
कपड़े
वाला कहता है--
जिस
भाव में आया है
उस
भाव में कैसे दें
आपको
हंड्रेड परसेंट आदमी बनाने का
आपसे
फिफ्टी परसेंट भी न लें?
धोबी
कहता है--
राम
ने धोबी के कहने पर
सीता
को छोड़ दिया
आप
एक कमीज भी नहीं छोड़ सकते
सौ
रुपल्ली की कमीज भट्ठी खा गई
तो
आप तिलमिला रहे हैं
इस
देश में लोग ईमान को
भट्ठी
में झोंक कर
सारे
देश को खा रहे हैं।
दर्जी
कहता है--
क्या
कहा, पेट पर टाइट है?
आंखें
मत निकालिए
दर्जी
का दोष देखने की बजाय
पेट
को संभालिए
जैसा
बना है, ले जाइए
कुरते
को पेट के लायक नहीं
पेट
को कुरते के लायक बनाइए।
डाक्टर
कहता है--
आपके
पास जैसा भी है
ब्रेन
तो है
इस
देश में लोग
बिना
ब्रेन के कमाल कर रहे हैं
कुर्सी
को खाट की तरह
इस्तेमाल
कर रहे हैं।
पान
वाला कहता है--
हमारी
दुकान के पान की पीक
जनपथ
की छाती से लेकर
राजपथ
की पीठ पर मिल जाएगी
पान
खाकर तो देखिए,
आत्मा
खिल जाएगी।
अनाज
वाला कहता है--
आप
खरीदते हैं
और
हम बेचते हैं
एक-दूसरे
को रोज देखते हैं
एक
तीसरा और है
बड़े
बाप का बेटा
जो
दिखाई नहीं देता
मगर
संसार को तार रहा है
हम
तो केवल डंडी मारते हैं
वो
डंडा मार रहा है।
बुकसेलर
कहता है--
क्या
मांगा, प्रेमचंद का गोदान
ये
नाम तो पहली बार सुना है
आपने
भी कौन-सा उपन्यास चुना है
हम
तो प्रेम-कथाएं बेच-बेच कर
बूढ़ों
को जवान कर रहे हैं
मामूली
दुकानदार हैं
मगर
राष्ट्रीय चरित्र का
निर्माण
कर रहे हैं।
चोर
कहता है--
मुनाफाखोर
मुनाफा खा रहे हैं
और
हम उनकी तिजोड़ी तोड़ कर
अधिकार
और कर्तव्य को
एक
साथ निभा रहे हैं
किसी
तिजोरी में झांक कर देखिए,
आत्मा
हिल जाएगी
किसी
न किसी कोने में पड़ी
लोकतंत्र
की लाश मिल जाएगी।
भिखारी
कहता है--
दाता!
पांच
पैसे में तो जहर भी नहीं आता
जो
आपका नाम लेकर खा लें
और
ऐसे समाजवाद से छुट्टी पा लें
इस
सरकार ने तीस बरस में
इतने
भिखारी पैदा किए हैं
कि
स्वयं सरकार को गिनने में
चालीस
बरस लग जाएंगे।
सत्य
वेदांत, उलझनें तो बहुत हैं। डोंगरे का बालामृत पीओगे तो ये सब प्रकट होकर सामने
आएंगी। ये सब प्रकट होनी शुरू हो गई होंगी। तभी तो डोंगरे महाराज से पीछा नहीं छूट
रहा है। और उनके वचन चोट करेंगे। वचन ही कीमती हैं! क्या गजब की बातें कही हैं!
पहला:
"किसी मनुष्य का भरोसा न करो।'
और
डोंगरे महाराज कौन हैं?
पशु हैं, पक्षी हैं? गधे
हैं, घोड़े हैं, ऊंट हैं, हाथी हैं, क्या हैं? किसी
मनुष्य का भरोसा न करो! यहीं तो बात गड़बड़ हो गई। अब आगे बढ़ने की जगह ही कहां रही।
और वे समझा रहे हैं कि ईश्वर का भरोसा मत छोड़ो। आदमी समझा रहा है कि ईश्वर का
भरोसा मत छोड़ो और आदमी का भरोसा करना मत! अब देखा कैसी गांठ लगाई! लाख खोलो तो न
खुले। जितनी खोलो उतनी और मजबूत होती चली जाए। इधर से खोलो तो उधर से गड़बड़ हो। उधर
से खोलो, इधर से गड़बड़ हो जाए। अगर उनका भरोसा करो तो आदमी पर
भरोसा हो गया। वचन भंग हुआ। अगर उनका भरोसा न करो तो ईश्वर पर भरोसा नहीं हो सकता,
क्योंकि ईश्वर की बातें आदमी ही तो कर रहे हैं।
"किसी मनुष्य का भरोसा न करो!'
और
यही लोग कहते हैं कि कण-कण में परमात्मा विराजमान है। और मनुष्य में कौन विराजमान
है? कण-कण में विराजमान है--सिर्फ मनुष्य को छोड़ कर।
मैं
तुमसे कहता हूं: सवाल इसका नहीं कि तुम किस पर भरोसा करते हो, सवाल
भरोसा करने का है। मैं तो कहता हूं, बेईमान से बेईमान का भी
भरोसा करो, धोखेबाज से धोखेबाज का भी भरोसा करो। अरे,
क्या ले जाएगा! समझो जेब ही काट लेगा, कि कुछ
पैसा चुरा लेगा, तो क्या खो जाएगा तुम्हारा! उसका ही कुछ
खोएगा। चार पैसे में वह अपनी आत्मा खो देगा और तुम्हारा क्या जाएगा! हां, तुमने भरोसा खोया तो तुम्हारी आत्मा भी गई। चार पैसे के लिए भरोसा मत
खोना। चार पैसे खो जाएं तो खो जाएं, भरोसा मत खोना।
मैं
इंदौर से खंडवा आया। और आगे मुझे जाना था। खंडवा स्टेशन पर गाड़ी कोई घंटे भर रुकती
है। एक भिखमंगा आया। फर्स्ट क्लास के डिब्बे में मैं अकेला था, खिड़की के
पास बैठा था। उसने कहा, कुछ मिल जाए। मैंने उसे एक रुपया
दिया। सोचा होगा उसने कि यह आदमी बड़ा भोला-भाला है! और गाड़ी घंटे भर रुकनी है। सो
वह अपने पर संवरण न रख पाया होगा। थोड़ी देर बाद...
(इतने में ही थोड़ी देर के लिए बिजली गुल हो गई।)
किसी
मनुष्य का भरोसा न करो। तो माइक्रोफोन का क्या भरोसा करें? बिजली भी
धोखा दे गई! सामने बिजली का बल्ब है, वह जले तब मेरे
इंजीनियर कहते हैं कि तब बोलना शुरू करना। वह जला ही नहीं, अभी
तक नहीं जला। सत्य वेदांत, डोंगरे महाराज ठीक ही कहते हैं!
अरे, क्या खाक भरोसा करो! अगर मैं भरोसा करूं तो बस बैठा ही
रहूं!...
वह
आदमी थोड़ी देर बाद फिर आया। अब की बार टोपी लगा कर आया। उसने फिर मुझसे मांगा, मैंने फिर
उसे एक रुपया दिया। उसने मुझे बड़े गौर से देखा कि हद हो गई! क्या मेरी टोपी धोखा
दे गई! दूसरी दफे कोट पहन कर आया, फिर मुझसे मांगा, फिर मैंने उसे एक रुपया दिया। अब तो वह थोड़ी देर खड़ा रहा, विचार करता रहा कि आदमी पागल तो नहीं है! टोपी और कोट क्या इतना धोखा दे
जाएंगे? तीसरी बार फिर आया। अब की बार हाथ में सिर्फ एक छड़ी
लेकर आया। उसने फिर मांगा, मैंने फिर उसे एक रुपया दिया।
उसने
मुझसे कहा कि भाई साहब,
क्या आप से एक बात पूछूं? मैंने कहा, पूछो। उसने कहा, मुझे यह पूछना है कि क्या आप चार
दफे में भी नहीं पहचान पाए कि मैं वही हूं? मैंने कहा,
यही मैं सोच रहा हूं कि तू भी चार दफे में नहीं पहचान पाया कि मैं
भी वही हूं। और न तो मैंने टोपी पहनी, न कोट बदला, न छड़ी उठाई। मैं भी चकित था। यही मैं सोच रहा था कि मुझी से मांगता है आकर,
यह पहचान नहीं पा रहा बेचारा! यह सोचता है फिर कोई दूसरा आदमी,
फिर कोई दूसरा आदमी।
वह
मेरी बात से खुश हुआ। मैंने कहा, आ, भीतर आ, बैठ! घंटे भर गाड़ी रुकनी है, तू बार-बार आए-जाए,
क्या तकलीफ? हर पांच-दस मिनट में मैं एक रुपया
तुझे देता जाऊंगा, तू यहीं बैठ।
वह
थोड़ा डरा। अरे,
मैंने कहा, तू आ जा भीतर, डर मत!
उसने
कहा कि नहीं-नहीं,
मैं बाहर ही ठीक हूं।
मैंने
कहा, तू बिलकुल भय मत कर। तू भीतर आ जा, शांति से बैठ।
मगर
वह भीतर न आए। मैंने कहा,
मैं तुझे एक-एक रुपया दूंगा धीरे-धीरे, बैठ तो
तू। मुझे भी कोई आंख के अंधे गांठ के पूरे दे गए हैं, तो तू
भी ले जा, क्या फर्क पड़ता है! न मैं कुछ लेकर आया, न तू कुछ लेकर आया, न अपना कुछ है, न तेरा कुछ है। खेल है! इधर से उधर। और रुपए का तो काम ही है चलन। इसलिए
अंग्रेजी में उसे करेंसी कहते हैं। करेंसी मतलब जो चलती रहे। तेरा बहुत मन भर जाए
तो लौटा देना। जैसी तेरी मर्जी।
इतना
मैंने कहा कि लौटा देना कि वह तो चल ही दिया वहां से। अरे, मैंने कहा,
जाता कहां है, कम से कम एक रुपया तो लेता जा!
उसने कहा, मुझे नहीं लेना, जी! आप आदमी
हैं कि पागल हैं, क्या बात है? उलटी-सीधी
बातें कर रहे हैं।
फिर
नहीं आया। फिर तो मुझे उतर कर उसे खोजने जाना पड़ा। गया मैं उतर कर। बैठा था एक
दीवार के पास। मुझे देख कर ही एकदम से खड़ा हो गया और कहा कि मुझे नहीं चाहिए। मुझे
बिलकुल लेना ही नहीं है। बहुत हो गया। आज के लिए काफी है।
मैंने
कहा, मैं तो यूं ही बातचीत करने चला आया और तेरा मन होगा तो दे देंगे एकाध
रुपया और।
कि
नहीं बाबा, आप मुझे माफ करो! आप क्यों मेरे पीछे पड़े हो? वह
मुझसे कहने लगा कि मैं क्यों उसके पीछे पड़ा हूं!
सत्य
वेदांत, क्या गजब की बात डोंगरे महाराज ने कही: "किसी मनुष्य का भरोसा न करो!'
असल
में भरोसा मूल्यवान है। न तो भरोसा मनुष्य का होता है न ईश्वर का होता है। अगर तुम
मुझसे पूछो तो आस्तिक मैं उसको नहीं कहता जो ईश्वर का भरोसा करता है; आस्तिक
मैं उसको कहता हूं जो भरोसा करता है। ईश्वर से क्या लेना-देना? भरोसे में आस्तिकता है। और अगर आदमी पर ही भरोसा न किया तो फिर भरोसे का
पाठ कहां सीखोगे? आदमी पर भरोसा करोगे तो ही ईश्वर पर किसी
दिन भरोसा कर पाओगे। आदमी पर भरोसा करने में अड़चन है, यह बात
जरूर सच है, क्योंकि जिस पर भरोसा करोगे वह धोखा देगा।
मुल्ला
नसरुद्दीन पर मुकदमा चला। उसने गांव के एक सीधे-सादे आदमी के भरोसे का दुरुपयोग
किया था। मजिस्ट्रेट ने कहा कि नसरुद्दीन, यह सीधा-सादा आदमी, भोला-भाला आदमी; गांव भर इसको जानता है। तुम्हें
धोखा देने को यही आदमी मिला? तुम्हें शर्म न आई?
नसरुद्दीन
ने कहा: "मालिक,
अब मैं और किसको धोखा दूं? यही एक आदमी है जो
धोखा खा सकता है। और तो गांव में बड़े पहुंचे हुए लफंगे हैं, वे
तो मुझी को धोखा दे रहे हैं। यही एक है बेचारा, भोला-भाला,
जिसको मैं भी धोखा दे सकता हूं। और जो जिसको दे सकता है मालिक,
उसी को तो देगा। अब जिसको दे ही नहीं सकते उसको देकर क्या झंझट में
पड़ना है!'
बात
तो उसने पते की कही कि जो जिसको दे सकता है उसी को देगा।
आदमी
पर भरोसा करने में खतरा तो है। क्योंकि भरोसा करोगे तो कोई लूटेगा, कोई
झपटेगा, कोई छीनेगा। मगर वही तो मौका है। वही चुनौती है। अगर
फिर भी तुमने भरोसा किया...फिर भी शब्द पर खयाल रखना। क्योंकि अगर कोई आदमी तुम्हारे
अनुकूल हो, और तुम भरोसा करो, तो उस
भरोसे की क्या कीमत, दो कौड़ी का है! कोई आदमी तुम्हें धोखा
दिए जाए, फिर भी तुम भरोसा करो, तो
भरोसे में कुछ बल है, आत्मा है। कितना ही धोखा दे और
तुम्हारा भरोसा न टूटे, तो तुम्हारा भरोसा अडिग है। तब तुमने
एक ऐसे भरोसे को पा लिया, जिसे कोई भी हिला न सकेगा। ऐसा
भरोसा ही ईश्वर को जान पाता है।
डोंगरे
महाराज को कुछ भी पता नहीं है। न आदमी से कोई पहचान है, न ईश्वर
से कोई पहचान है। और दूसरी बात उन्होंने कही: "गरीबी पाप नहीं है। गरीबों के
साथ सम्मानपूर्वक व्यवहार करो।'
मैं
इस बात से राजी हूं,
लेकिन किसी और अर्थ में। सदियों से यह कहा गया है कि गरीबी पाप का
फल है। तुमने पिछले जन्मों में जो पाप किए थे उसका फल भोग रहे हो; वही तुम्हारी गरीबी है। गरीबी पाप नहीं है, गरीबी
पाप का फल है। और अगर इस गरीबी को तुम आनंदपूर्वक निभा लोगे, संतोषपूर्वक निभा लोगे, तो अगले जन्म में अमीर हो
जाओगे। इसलिए गरीबी को मिटाना नहीं है। और उसका स्वाभाविक परिणाम होता है कि
गरीबों का सम्मानपूर्वक व्यवहार करो।
यह
हम कर रहे हैं सदियों से। और इसीलिए जितना देश हमारा गरीब है, दुनिया
में कोई इतना गरीब नहीं। गरीबों का सम्मान कर रहे हैं, गरीबी
को साधना मान रहे हैं।
मैं
तुमसे कहता हूं: गरीबी व्यक्ति का पाप नहीं है, कोई कसूर नहीं है व्यक्ति का। और
मैं तुमसे यह भी कहना चाहता हूं कि यह सिद्धांत, कि गरीबी
पिछले जन्मों के पाप का फल है, एकदम गलत है। पिछले जन्मों से
इसका कुछ लेना-देना नहीं है। हिसाब-किताब तत्काल हो जाते हैं, जन्मों तक नहीं ठहरते। अभी आग में हाथ डालोगे तो अभी जलोगे, अगले जन्म में नहीं जलोगे। जगत में नियम नगद हैं, उधार
नहीं हैं। लेकिन यह तरकीब तुम्हें समझाई गई है। और इस तरकीब के कारण एक सांत्वना
पैदा हो गई है।
चंद
रोज और मेरी जान फकत चंद ही रोज
जुल्म
की छांव में दम लेने पै मजबूर हैं हम
और
कुछ देर सितम सह लें,
तड़फ लें, रो लें
अपने
अजदाद की मीराज से माजूर हैं हम
जिस्म
पर कैद है, जज्बात पै जंजीरें हैं
फिक्र
महबूस पै गुफ्तार पै ताबीरें हैं
पर
अपनी हिम्मत है कि हम फिर भी जिए जाते हैं
और
जिंदगी क्या किसी मुफलिस की कबा है
जिसमें
हर घड़ी दर्द के पैबंद लगे जाते हैं
लेकिन
अब जुल्म की मीयाद के दिन थोड़े हैं
इक
जरा सब्र कि फरियाद के दिन थोड़े हैं
अर्साए-दहर
की झुलसी हुई वीरानी में,
हमको
रहना है तो यूं ही तो नहीं रहना है
अजनबी
हाथों का बेनाम गरांबार सितम
आज
सहना है, हमेशा तो नहीं सहना है
ये
तेरे हुस्न से लिपटी हुई आलाम की गर्द
अपनी
दोरोजा जवानी की शिकस्तों का शुमार
चांदनी
रातों का बेकार दहकता हुआ दर्द
दिल
की बेसूद तड़फ,
जिस्म की मासूम पुकार
चंद
रोज और मेरी जान फकत चंद ही रोज
हम
ऐसा अपने को समझाते रहे हैं: थोड़े दिन की बात है। और थोड़े दिन की। एक जन्म और, फिर सब
ठीक हो जाएगा। ये धोखे तोड़ देने के हैं। अब समय है कि हम इन्हें तोड़ दें।
और
उन्होंने कहा कि "जन्म के साथ सब तय हो जाता है।'
बिलकुल
व्यर्थ बकवास है।
और
उन्होंने कहा: "जगत के साथ बैर न करो, परंतु जगत प्रेम के योग्य स्थान भी
नहीं है।'
दोनों
बातें एक साथ कैसे हो सकेंगी? एक ही बात हो सकती है। अगर प्रेम का स्थान नहीं
तो बैर हो गया। अगर प्रेम का स्थान है तो बैर नहीं हो सकता है।
आज इतना ही।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें