नहीं राम बिन ठांव-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो
प्रवचन-छट्ठवां
दिनांक 30 मई सन् 1974
ओशो आश्रम, पूना।
राम: शून्यता की खोज
प्रेम से कभी ऊब पैदा नहीं होती, काम से ऊब पैदा होती है। क्योंकि प्रेम है हृदय का और
काम है इंद्रियों का।
प्रश्न:
अलग-अलग धर्मों ने अलग-अलग महामंत्र पाए हैं,
जैसे ॐ नमो शिवाय, नमो अरिहंताणं, अल्लाहो अकबर, ॐ
मणि पद्मे हुम्।
तो ऐसे महामंत्र कौन सी अवस्था में उतरे हैं और
इनका भीतर के कौन-कौन से केंद्रों से कैसा संबंध है?
और साधक इनमें से अपने लिए योग्य महामंत्र कैसे
चुने?
साधक दो प्रकार की यात्राएं कर सकता है। एक यात्रा है शक्ति की और
दूसरी यात्रा है शांति की। शक्ति की यात्रा सत्य की यात्रा नहीं है, शक्ति की यात्रा तो अहंकार की ही यात्रा है। फिर शक्ति धन से मिलती हो,
पद से मिलती हो या मंत्र से। तुम शक्ति चाहते हो, तो सत्य नहीं चाहते हो। तुम्हारे द्वारा अर्जित की गई शक्ति शरीर की हो,
मन की हो, या तथाकथित अध्यात्म की हो, तुम्हें मजबूत करेगी।
तुम जितने मजबूत हो, परमात्मा से उतने ही दूर हो।
तुम्हारी शक्ति परमात्मा के समक्ष तुम्हारे अहंकार की घोषणा है। तुम्हारी शक्ति ही
तुम्हारे लिए बाधा बनेगी। तुम्हारी शक्ति ही, वास्तविक
अर्थों में, परमात्मा के समक्ष तुम्हारी निर्बलता है। तो
जितने तुम शक्तिशाली बनोगे अपनी आंखों में, उतने ही परमात्मा
के द्वार पर निर्बल होते जाओगे। इसलिए शक्ति की खोज वास्तविक साधक की खोज नहीं।
लेकिन साधक उस दिशा में जाता है। क्योंकि हम जो संसार में खोजते हैं, वही हम परमात्मा में भी खोजते हैं। जो हमें यहां नहीं मिला, उसे ही हम वहां पा लेना चाहते हैं। तो हमारे संसार और हमारे मोक्ष में एक
सातत्य है, एक कंटिन्युटी है। बाजार में खोजा जिसे, वह नहीं मिला, उसे हम मंदिर में खोजते हैं। लेकिन
खोज वही है। धन में जिसे खोजा, नहीं पाया, उसे हम धर्म में खोजते हैं। लेकिन खोज वही है। खोज करने वाला जरा भी बदला
नहीं है। एक जगह असफल हुए, तो दूसरी जगह सफलता की आकांक्षा
जमा लेते हैं।
लेकिन तुम शक्तिशाली होना क्यों चाहते हो? तुम होना चाहते हो, यही तुम्हारा दुख है। तुम मिटोगे
तो आनंद घटेगा, तुम्हारी अनुपस्थिति में वर्षा होगी अमृत की,
तुम्हारे रहते यह होने वाला नहीं है।
मंत्र शक्तिदायी है। तो मंत्र से शक्ति मिलती है, निश्चित मिलती है।
इसे समझ लें। मंत्र करता क्या है? मंत्र मन को एकाग्र
करता है। तुम्हारी सारी बिखरी हुई मन की किरणें इकट्ठी हो जाती हैं। फिर वह मंत्र
कोई भी हो--राम का नाम हो, नमोकार हो, ॐ
मणि पद्मे हुम् हो, अल्लाहो अकबर हो--इससे कोई फर्क नहीं
पड़ता है। तुम अपना खुद का मंत्र भी बना ले सकते हो। मंत्र में आए शब्दों का भी कोई
अर्थ नहीं है। मंत्र का प्रयोजन न शब्दों से है, न अर्थ से।
मंत्र का प्रयोजन मन को एकाग्र करने से है। इसलिए कुछ भी अनर्गल, अर्थहीन शब्द भी मंत्र का काम दे देंगे।
जब तुम मंत्र की रटन करते हो, तब तुम्हारे सारे
विचारों की शक्ति विचारों से हटकर मंत्र में प्रवाहित होने लगती है। चित्त में
मंत्र ही रह जाता है। और भीतर तुम्हारे जितने ऊर्जा के द्वार हैं, उनके बहाव की और कोई दिशा नहीं बचती। जब तुम विचार करते हो, तो तुम्हारी शक्ति अनंत-अनंत धाराओं में बह रही है। एक विचार पश्चिम जा
रहा है, एक पूरब जा रहा है, एक दक्षिण
जा रहा है, एक उत्तर जा रहा है। तुम बहुत तरफ बह रहे हो,
जब तुम विचार कर रहे हो। इकट्ठे नहीं हो, बंटे
हो, विभाजित हो। जब तुम मंत्र का जाप कर रहे हो, तब सारी ऊर्जा एक दिशा में प्रवाहित होने लगती है।
जैसे हम सूरज की किरणों को एक कांच के लेंस से इकट्ठा कर लें, तो आग पैदा हो जाती है। सूरज की किरणों में आग तो छिपी है, लेकिन पृथक-पृथक ज्यादा से ज्यादा गर्मी पैदा होगी। इकट्ठी हो जाएं,
तो आग पैदा हो जाती है। ऐसे ही तुम्हारे मन में भी बड़ी आग छिपी है,
अलग-अलग सिर्फ उष्णता रहती है। मंत्र उन्हें इकट्ठा करने का उपाय
है। इकट्ठे होते से ही बड़ी गर्मी, बड़ी ऊर्जा पैदा होती है।
और अगर तुम सतत मंत्र का प्रयोग करते रहो, तो तुम्हारे जीवन में अनेक शक्ति की घटनाएं घटनी शुरू हो जाएंगी, जो तुम्हारे अहंकार को बड़ा रस देंगी। तुम जो कहोगे, वह
सच होने लगेगा; तुम जो बोल दोगे, वैसा
हो जाएगा; तुम अभिशाप दे दोगे, तो फलित
हो जाएगा; तुम वरदान दे दोगे, तो पूरा
हो जाएगा। क्योंकि तुम्हारी ऊर्जा इतनी इकट्ठी हो गई है कि तुम्हारे शब्द अब
सार्थक होने लगेंगे।
उनकी सार्थकता का कारण यही है कि जब कोई व्यक्ति इकट्ठी ऊर्जा से कुछ
कहता है, तो वह दूसरे के अचेतन तक प्रवेश कर जाता है, उसका तीर सीधा दूसरे के हृदय में चला जाता है। और दूसरे के हृदय में कोई
भी बात पहुंच जाए, तो उसके परिणाम शुरू हो जाते हैं।
अगर तुमने किसी व्यक्ति को कह दिया कि कल सुबह तुम बीमार पड़ जाओगे, अगर इस कहते क्षण में, यह तुमने जो कहा है, मंत्र की तरह तुम्हारे भीतर रहा हो, और कुछ भी नहीं,
कोई दूसरा विचार विघ्न-बाधा डालने को नहीं, बस
यही तुम्हारा नमोकार मंत्र रहा हो कि कल सुबह तुम बीमार पड़ जाओगे और तुम्हारा पूरा
चित्त इसमें प्रवाहित हुआ हो, तत्क्षण तुमने दूसरे के हृदय
को घाव से भर दिया।
अब यह आदमी रातभर सो न सकेगा। इसने तुम्हारी आंखें देखीं, तुम्हारा वक्तव्य सुना, तुम्हारा ढंग देखा और इसके
मन पर यह गहरी छाप पड़ गई कि तुमने जो कहा है, उससे बचना
मुश्किल है। इसका मन भी अब इसी मंत्र के आस-पास घूमेगा। यह रात सपने में भी
तुम्हें देखेगा, रात सपने में भी इसे यही वचन सुनाई पड़ेगा।
यह कई बार मन में कहेगा, इससे कुछ होने वाला नहीं, डरो मत, भय मत करो। लेकिन भीतर से कोई इसे फिर भी
भयभीत किए जाएगा। चाहे यह कहे कि डरो मत, चाहे यह डरे,
दोनों हालत में यह मंत्र को दोहरा रहा है--तुम्हारे मंत्र को। सुबह
होतेऱ्होते यह बीमार पड़ जाएगा।
यह बीमारी तुमने पैदा की आधी, आधी इसने पैदा की। और
ठीक ऐसा ही तुम जीवन के बहुत अंगों में कर सकते हो। और एक बार तुम्हारा वचन सार्थक
होने लगे, तो तुम्हारा आत्मविश्वास बढ़ेगा, तुम और बलशाली होने लगोगे। जितना तुम्हारे वचन सही होंगे, उतना ही तुम्हें लगेगा कि मैं कुछ दिव्य शक्ति, कोई
सिद्धि से भरा हुआ हूं। यह भरोसा तुम्हारे मंत्र को मजबूत करेगा। हर मंत्र
तुम्हारे भरोसे को मजबूत करेगा। तुम धीरे-धीरे अनेक शक्तियों का अनुभव करने लगोगे।
यह जो शक्तियों का अनुभव है, इन्हें योग ने
सिद्धियां कहा है। ये सिद्धियां परमात्मा के मार्ग पर सबसे बड़ी बाधाएं हैं। पतंजलि
ने योग-सूत्रों में इनका उल्लेख किया है, ताकि तुम इनसे
सावधान रहो। इनकी तरफ जाना नहीं। जा चुके हो, तो वापस लौट
आना है। जितना जल्दी लौट आओ, उतना अच्छा है। क्योंकि जितना
समय इसमें खोया, वह बिलकुल व्यर्थ ही जाता है। और हर बार
जितने आगे तुम इन दिशाओं में जाते हो, उतना लौटना मुश्किल
होने लगता है।
अगर कोई मुझसे पूछे, तो मैं कहूंगा, संसार शक्ति की खोज है, सिद्धि की खोज है। परमात्मा
शांति की, शून्यता की खोज है। वहां तुम मिटते हो, वहां तुम धीरे-धीरे लीन होते हो। सिद्धि की खोज में आखिर में तुम बचोगे,
परमात्मा बिलकुल नहीं। शांति की खोज में तुम न बचोगे, अंत में सिर्फ परमात्मा बचेगा। और इन दो में से एक का मिटना जरूरी है। ये
दोनों साथ-साथ नहीं हो सकते। परमात्मा और तुम साथ-साथ नहीं हो सकते, तुम्हारा को-एक्झिस्टेंस, तुम्हारा सह-अस्तित्व
असंभव है। जब तक तुम हो, तब तक परमात्मा नहीं; जब परमात्मा है, तब तुम नहीं।
तो सिद्धि और शक्ति तो तुम्हें मजबूत करेगी। इसलिए मंत्रों के साधक
परम अहंकार से भरे हुए दिखाई पड़ते हैं। धनी का अहंकार उनके सामने कुछ भी नहीं, पद पर बैठे राजनीतिक का अहंकार उनके सामने कुछ भी नहीं। उनका अहंकार बड़ा
सूक्ष्म और भीतरी है। और उसका कारण भी है। क्योंकि धन छीना जा सकता है, चोरी जा सकता है, धन का मूल्य ही क्या है? पद आज है, कल न हो, राजनीति का
भरोसा कितना? लेकिन मंत्र का भरोसा ज्यादा प्रबल है। चोर छीन
नहीं सकते, जनता का लोकमत बदल नहीं सकता। और मंत्र तुम्हारे
मन पर ही निर्भर है, किसी और पर नहीं। इसलिए तुम ज्यादा सबल,
आत्मनिर्भर, अपने पैरों पर खड़े मालूम पड़ते हो।
साधक अगर सिद्धि की दिशा में चला जाए, तो भटक गया। रस बहुत
आएगा, क्योंकि अहंकार को रस आता ही इस तरह की चीजों से है।
अगर एक चींटी इस तरफ आ रही है और तुम सिर्फ अपने मनोबल से उसका रास्ता बदल दो,
हालांकि इस कृत्य में कोई सार नहीं है, पर फिर
भी तुम्हें रस आएगा।
रूस में एक महिला है, जिस पर बड़े वैज्ञानिक प्रयोग किए
जा रहे हैं। वह किसी भी वस्तु को अपने मन से चालित कर देती है। टेबिल रखी है,
छह फीट दूर वह खड़ी हो जाए, पंद्रह मिनिट मन को
एकाग्र करे, तो वह टेबिल को हिलाना शुरू कर देती है। टेबिल
उसकी तरफ सरक सकती है, दूर जा सकती है। और सब तरह की
जांच-पड़ताल, वैज्ञानिक व्यवस्था से सब समझा गया है, कोई धोखाधड़ी नहीं है।
उस महिला को मिलता क्या है? दो पौंड वजन खो जाता
है पंद्रह मिनिट के प्रयोग में। और एक सप्ताह के लिए वह निर्बल हो जाती है। एक
सप्ताह बिस्तर से नहीं उठ सकती। दो पौंड वजन शरीर से तत्क्षण कम हो जाता है।
क्योंकि जब तुम मन को एकाग्र करके अपनी शक्ति को बाहर फेंकते हो, तब तुम्हारे शरीर की ऊर्जा भी उसमें क्षीण होती है।
लेकिन फिर भी वह महिला बड़ा आनंद ले रही है। उसका सारा जीवन अस्तव्यस्त
हो गया है इस उपद्रव में। परिवार डांवाडोल हो गया, बच्चे की चिंता करनी
मुश्किल, पति की फिक्र करनी मुश्किल। घर तो अस्तव्यस्त हो
गया है। और यह एक खेल बन गया है। लेकिन अहंकार को बड़ी तृप्ति मिल रही है। अखबारों
में फोटो छप गए हैं, वैज्ञानिक अध्ययन करने आ रहे हैं,
और कोई चमत्कार घटित हो रहा है।
लेकिन चमत्कार का अर्थ क्या है? इससे हल भी क्या है?
टेबिल तुम हाथ से हटा सकते थे, जिसमें कि
रत्तीभर ताकत लगती है। उसे तुमने मन से हटाया और दो पौंड शरीर की ऊर्जा क्षीण की
और सात दिन तक अस्वस्थ रहे!
रामकृष्ण के पास किसी ने आकर एक दिन कहा कि लोग कहते हैं, आप परमहंस हो, लेकिन कोई ऐसी सिद्धि तो दिखाई नहीं
पड़ती। मेरे गुरु हैं, वे पानी पर चलते हैं। रामकृष्ण कहने
लगे, मैं दो पैसा देकर नदी पार हो जाता हूं। तो जो काम दो
पैसा देने से हो जाता हो, तुम्हारे गुरु ने कितने वर्षों में
यह कला सीखी? शिष्य ने कहा, कम से कम
बीस वर्ष उनको मंत्र की साधना में लगे। तो रामकृष्ण ने कहा कि बड़ी मूढ़ता है कि जो
काम दो पैसे में होता हो, उसे बीस वर्ष का जीवन नष्ट करके
किया! आखिर पानी ही पार होते हैं, तो पानी पार होने में ऐसी
बात क्या है? नाव हो, दो पैसे लेती है,
न हो तो आदमी तैरकर पार हो जाए।
पर नदी पर चलकर जो आदमी पार होता है, वह बीस वर्ष मेहनत कर
सकता है। आप भी कर सकते हैं। नदी पार होना प्रयोजन ही नहीं है। वह पैर से पार होना,
पानी पर खड़े होकर पार होना, उससे आपका अहंकार
खड़ा हो रहा है। नाव में बैठकर अहंकार खड़ा नहीं हो सकता, तैरने
से अहंकार खड़ा नहीं हो सकता। दो पैसे तो खर्च होते हैं। नदी ही पार होती है। यह जो
आदमी चलकर नदी पार कर रहा है, पानी की सतह पर चलकर, इसका नदी पार करना तो प्रयोजन ही नहीं है, यह अहंकार
को मजबूत कर रहा है।
मंत्र शक्ति के स्रोत हैं। और सभी धर्मों ने मंत्र खोज लिए हैं, क्योंकि सभी धर्म शांति की तलाश से शक्ति की तलाश में पतित हो जाते हैं।
महावीर तो शांति खोजते हैं, लेकिन जैन को शांति से क्या
लेना-देना? बुद्ध तो शून्यता खोजते हैं, अपने को मिटाते हैं, लेकिन बौद्धों को अपने को
मिटाना नहीं, बनाना है, बचाना है,
सुरक्षित करना है। जिन व्यक्तियों के आसपास धर्म का जन्म होता है,
वे तो शून्य हो गए होते हैं। लेकिन जो लोग आसपास इकट्ठे होते हैं,
वे शून्य होने के लिए इकट्ठे नहीं होते। उनका रस कुछ और है, विपरीत है। इसलिए धर्म जिनसे जन्म पाता है और जिनके हाथों में पड़ता है,
वे हमेशा शत्रु हैं। उन दोनों की आकांक्षाएं बिलकुल भिन्न हैं।
इसलिए सभी धर्म पतित हो जाते हैं।
शक्ति की खोज धर्म को संसार का हिस्सा बना देती है। जैन हो, हिंदू हो, बौद्ध हो, इस्लाम हो,
कोई भी हो, इससे फर्क नहीं पड़ता। तुम्हें बड़ा
रस आता है चमत्कार में। और जब तक तुम्हें चमत्कार में रस आता है, तब तक तुम जानना कि अभी तुम्हारी धर्म की जिज्ञासा पैदा नहीं हुई। कोई
साधु, कोई संन्यासी, कोई बाबा अगर हाथ
से राख ही पैदा कर दे, तो भी तुम आंदोलित हो जाते हो।
राख का करोगे भी क्या? राख ऐसे ही सड़कों पर
ढेर लगी पड़ी है। राख तो तुम घर में ही आग जलाकर पैदा कर लेते, दो पैसे भी खर्च नहीं होते। लेकिन किसी आदमी ने हाथ से पैदा कर दी,
तो तुम बहुत आंदोलित हो, तो तुम बड़े प्रसन्न
हो, तो तुम इस आदमी के पीछे चल रहे हो, तो तुम पागल हो।
क्या होगा रस, इसको समझना जरूरी है। यह तो तुम भी समझते हो कि राख
पैदा करने से क्या होने वाला है? लेकिन तुम कुछ और देख रहे
हो इस राख में। तुम्हें यह आशा बंधी है कि जो आदमी हाथ से राख पैदा कर सकता है,
वह हीरे क्यों नहीं पैदा कर सकता? उसने राख
पैदा करके तुम्हारी वासना को प्रज्वलित कर दिया है। और जो आदमी राख पैदा कर सकता
है, वह तुम्हारी बीमारी दूर क्यों नहीं कर सकता? जो आदमी राख पैदा कर सकता है, वह तुम्हें चुनाव में
जिता क्यों नहीं सकता?
इसलिए दिल्ली में हर राजनीतिज्ञ का गुरु है। कोई महात्मा, कोई बाबा, जो राख पैदा कर रहा है, जो ताबीज दे रहा है। चाहे राष्ट्रपति हों, चाहे
प्रधानमंत्री हों, बाबा पर निर्भर रहना पड़ता है। जिनकी भी
वासना है, वे चमत्कार पर निर्भर रहेंगे। मुल्क में करोड़पति
हैं, लेकिन हर करोड़पति किसी न किसी बाबा के चरणों में सिर
रखता है। करोड़ भला हों उसके पास, लेकिन अभी अरबों की
आकांक्षा है।
तुम चमत्कार को नमस्कार करते हो, क्योंकि तुम्हारी
वासना है, कुछ तुम पाना चाहते हो। चमत्कारी से भरोसा मिलता
है, कि कुछ आशा बंधती है, इससे कुछ
होगा। बीमारी है, नौकरी नहीं, व्यवसाय
ठीक नहीं चलता है, अदालत में मुकदमा है, हजार उपद्रव हैं आदमी के पास, मुश्किलें हैं,
कठिनाइयां हैं, आदमी दुखी है। राख हाथ से
गिरती देखकर उसे आशा बंधती है कि अगर बाबा प्रसन्न हों, तो
मेरे दुख भी विसर्जित हो सकते हैं। और जैसे राख पैदा हो रही है, ऐसे ही सुख की भी वर्षा हो सकती है।
आज तक किसी दूसरे की कृपा से सुख की कोई वर्षा नहीं हुई। आज तक कभी
किसी दूसरे के द्वारा आनंद का कोई जन्म नहीं हुआ। सदियों का इतिहास इस बात का सबूत
है कि तुम्हारे अतिरिक्त तुम्हें कोई भी आनंद न दे सकेगा। लेकिन मन की भ्रांतियां
हैं। मन सस्ते और सरल रास्ते खोजता है।
यह चमत्कार है कि तुम मेरे पास सुनने आए हो। मैं इसे चमत्कार कहता हूं।
क्योंकि न यहां राख गिरेगी, न ताबीज बांटे जाएंगे, न
तुम्हारी बीमारी को दूर करने का कोई भरोसा है, न तुम पद
जीतोगे न धन, तुम्हारी कोई महत्वाकांक्षा पूरी नहीं होगी।
फिर भी तुम आए हो, इसे मैं चमत्कार कहता हूं। कोई भी कारण
नहीं है तुम्हारे आने का मेरे पास। क्योंकि तुम जो भी चाहते हो, उसमें से कुछ भी मैं तुम्हें देने वाला नहीं। विपरीत, तुम्हारे पास जो हो, शायद वह भी मेरे पास आने से छिन
जाए और अंततः तुम भी मिट जाओ।
फिर भी तुम आए हो, तो मैं मानता हूं कि तुम्हारी
कोई धार्मिक जिज्ञासा है। तुम राख की तलाश में नहीं हो, न
नदियों पर पैदल चलने की तुम्हें कोई विक्षिप्तता है। तुम वस्तुतः ही ऊब गए हो
संसार से। तुम्हारी ऊब वास्तविक है। तुम्हारे संताप ने उस सीमा को छू लिया है,
जहां तुम एक दूसरे ही अध्यात्म लोक में प्रवेश करना चाहते हो। तुम
इस सातत्य को तोड़ना चाहते हो, जो अब तक चलता रहा है। तुम
इससे छलांग लेना चाहते हो। तुम इसी का सिलसिला आगे जारी रखने को उत्सुक नहीं हो।
इसलिए मैं तुम्हें कोई मंत्र नहीं देता। कोई मंत्र मेरे पास तुम्हें
देने को है भी नहीं। क्योंकि मंत्र दिया जाता है वहां, जहां तुम्हारी खोज किसी ऋद्धि की, किसी सिद्धि की
है। मैं तुम्हारे मन को मजबूत न करूंगा। मैं तुम्हारे मन को मिटाऊंगा, काटूंगा। और उस घड़ी की प्रतीक्षा करूंगा कि तुम मन को, जैसे कोई प्याज को छीलता हो, छीलते जाओगे एक-एक पर्त
प्याज की, तुम्हारे विचार की एक-एक पर्त गिरती जाएगी। और एक
दिन आएगा कि प्याज की सारी पर्तें अलग हो जाएंगी और कुछ भी हाथ में न बचेगा,
शून्य बचेगा।
बुद्ध ने कहा है, मन प्याज की गांठ की भांति है।
बस, पर्त विचारों की उघाड़ते जाओ, आखिर
में मन भी नहीं बचता, जैसे प्याज नहीं बचती। और जब मन बिलकुल
नहीं बचता, तब तुम अपने परिपूर्ण स्वरूप में प्रगट होते हो।
तुम कैसे मिटो, यही महामंत्र है। एकाग्रता से तुम सघन होओगे, ध्यान से तुम मिटोगे। एकाग्रता तुम्हारी शक्तियों को एक जगह लगाती है,
ध्यान तुम्हारी शक्तियों को परमात्मा में समर्पित करवाता है। तो
परमात्मा को एकाग्रता का बिंदु नहीं बनाना है, परमात्मा में
समर्पित होना है। मन को एकाग्र नहीं करना है, परमात्मा में
मन को खोना है।
ये बड़ी भिन्न बातें हैं। विलीन होना है, तल्लीन होना है,
खो जाना है। ऐसी घड़ी आ जाए, जब तुम्हें
तुम्हारा पता न चले। ऐसी घड़ी आ जाए, जब तुम खोजो भी तो अपने
को न पा सको। तुम भीतर जाओ तो पाओ कि घर खाली है। तुम दर्पण के सामने खड़े होओ,
अपनी आंखों में झांको, तो पता चले कि भीतर कोई
भी नहीं है। जहां तुम विसर्जित हो गए, वहीं निर्वाण है।
इसलिए वस्तुतः धर्म ने कोई मंत्र नहीं दिए हैं, पुरोहितों ने मंत्र दिए हैं। तीर्थंकर मंत्र नहीं देते, न अवतार मंत्र देते हैं, पुरोहित मंत्र देते हैं। और
पुरोहित से धर्म का कोई संबंध नहीं। पुरोहित ही धर्म को नष्ट करता है, क्योंकि पुरोहित धर्म को व्यवसाय के जगत का हिस्सा बना देता है। वह
तुम्हारी आकांक्षाओं का सेवक है। तुम जो चाहते हो, वह कहता
है, हो सकता है। वह तुम्हें आश्वासन देता है, तुम्हारी आशा को जगाए रखता है।
और धर्म तो तभी शुरू होगा, जब तुम्हारी सारी आशा
गिर जाएगी। जब तुम्हारी निराशा परम होगी। जब एक किरण भी न बचेगी आशा की। क्योंकि
एक भी किरण बची, तो तुम संसार में चलते ही रहोगे। अगर जरा सा
भी तुम्हें लगा कि कल कुछ हो सकता है, तो तुम कल की
प्रतीक्षा करोगे। तुम्हारा विषाद इतना सघन हो जाए कि कल पर से तुम्हारा भरोसा हट
जाए। तुम्हारा संताप इतना गहरा हो कि कोई आशा पैदा न हो।
जहां आशा नहीं, कल नहीं, वहां वासना के खड़े
होने की जगह नहीं। क्योंकि वासना खड़ी होती है आशा से, और
वासना खड़ी होती है कल में, आज तो जगह भी नहीं है। कल,
और आने वाला कल, आने वाला जन्म, वहां आशा, वासना खड़ी होती है। समय का विस्तार वासना
को खड़ा करने के लिए जगह बनाता है।
इसलिए तुम कल में जीते हो, आज नहीं। फिर चाहे
तुम मंत्रों का पाठ करो, चाहे मंदिरों-मस्जिदों में पूजा करो,
प्रार्थना करो। लेकिन तुम्हारी सारी प्रार्थनाएं तुम्हारी वासनाओं
की संततियां हैं। इसलिए सब झूठी हैं।
जो प्रार्थना वासना का अनुषंग है, वह झूठी है। तुम कुछ
मांगते हो, इसलिए प्रार्थना करते हो। यह प्रार्थना शब्द ही
मांगने से बना है। तुम जाते हो मंदिर में, लेकिन मांगते
संसार हो। तुम्हारी मांग जब तक बनी है, तुम कैसे प्रार्थना
करोगे? जब तक तुम परमात्मा से कुछ मांग रहे हो, तब तक एक बात पक्की है कि तुम परमात्मा को नहीं मांग रहे हो। तब तक
परमात्मा से बड़ी कोई चीज है।
यह बड़े आश्चर्य की बात है कि परमात्मा के सामने भी खड़े होकर तुम
क्षुद्र चीजें मांग पाते हो। इसका अर्थ है कि परमात्मा से बड़ी हैं वे क्षुद्र
चीजें।
ऐसा हुआ कि रामकृष्ण के पास जब विवेकानंद आए, तो उनका घर बड़ी दीन अवस्था में था। पिता चल बसे थे। और पिता संसारी मनमौजी
आदमी थे, तो बड़ा कर्ज छोड़ गए थे। घर में रोटी का भी इंतजाम न
था। किसी तरह रोटी जुटती थी, तो मां और बेटे दोनों के लिए
काफी नहीं होती थी। तो विवेकानंद मां को कहते कि मुझे किसी मित्र ने निमंत्रण दिया
है आज, ताकि मां रोटी खा ले, अन्यथा
विवेकानंद को खिला देती और खुद भूखी रह जाती। तो ऐसा कहकर आस-पास की गलियों में
चक्कर लगाकर वहां से बड़े प्रसन्न और डकार लेते लौटते थे। न किसी मित्र ने निमंत्रण
दिया है, लेकिन मां को दिखाने को कि भोजन कर आया हूं,
बड़ा प्रसन्न हूं, बड़ा अच्छा भोजन था, ताकि मां भी निश्चिंतता से भोजन कर ले।
रामकृष्ण को पता लगा तो रामकृष्ण ने कहा, तू भी बड़ा मूर्ख है। यहां रोज काली के दरबार में उपस्थित होता है तो मांग
क्यों नहीं लेता? इतनी छोटी सी बात, इसके
लिए व्यर्थ कष्ट क्यों उठा रहा है? जब रामकृष्ण ने कहा तो
विवेकानंद ने कहा, आप कहते हैं तो मांग लूंगा।
रामकृष्ण बाहर बैठे हैं मंदिर के, विवेकानंद भीतर गए।
बड़ी देर बाद वापस लौटे तो रामकृष्ण ने कहा कि पूछा? मां को
कहा? तकलीफ बताई? विवेकानंद ने कहा,
मैं भूल गया। रामकृष्ण ने कहा, यह भी कोई
भूलने की बात है? भूखा है तू, मां तेरी
भूखी, घर मुसीबत में, पैसा चुकता नहीं।
जरा कह दे, इशारे की बात है, सब हो
जाएगा। तू जा वापस। फिर घड़ी भर बाद विवेकानंद आए, आंख से
आंसू बह रहे हैं आनंद के। रामकृष्ण ने कहा, निश्चित तूने
मांग लिया होगा, इसलिए प्रसन्न है। विवेकानंद ने कहा,
मैं फिर भूल गया।
ऐसा तीन बार हुआ। फिर विवेकानंद ने कहा कि नहीं, यह हो ही नहीं सकेगा। क्योंकि जब मैं मां के सामने जाता हूं, तो मां ही दिखाई पड़ती है और सब भूल जाता हूं। मैं खुद को ही भूल जाता हूं
तो मेरी तकलीफें, मेरी मुसीबतें कहां टिकें? उनकी स्मृति कैसे रहे? और यह असंभव मालूम पड़ता है।
रामकृष्ण ने कहा कि इसीलिए तुझे बार-बार भेजा, यह तेरी परीक्षा
थी। क्योंकि मां के सामने अगर तू कुछ मांगने को राजी हो जाए, तो उसका अर्थ है कि अभी प्रार्थना का कोई उपाय नहीं। फिर प्रार्थना ही
नहीं हो सकती।
मांगने वाला चित्त भिखारी का चित्त है, वह प्रार्थना क्या
करेगा? और परमात्मा से बड़ी चीजें उसके सामने हैं, जिनको वह मांग रहा है। जिसको परमात्मा ही चाहिए, वह
उसके सामने कुछ भी नहीं मांग सकता। वह परमात्मा को भी नहीं मांग सकता।
इसे थोड़ा समझें। क्योंकि अक्सर इसका दूसरा दृष्टिकोण खयाल में आ जाता
है कि हम कुछ चीजें न मांगेंगे, हम परमात्मा को ही मांगेंगे।
लेकिन तुम तो उसमें भी मौजूद रहोगे। और परमात्मा तुमसे छोटा और तुम बड़े। क्योंकि
तुम उसे पा लोगे, वह भी तुम्हारी संपदा बन जाएगा, उसे भी तुम अपनी मुट्ठी में ले लोगे, वह भी तुम्हारे
परिग्रह का विस्तार होगा। तुमने जो राज्य बनाया है, उसमें
तुम उसे भी एक जगह बिठा दोगे, लेकिन तुम मालिक रहोगे।
तो ध्यान रहे, वस्तुएं तो कोई मांग ही नहीं सकता, संसार तो कोई मांग ही नहीं सकता परमात्मा के सामने--मांगता हो, तो वह परमात्मा के सामने ही नहीं खड़ा है; उसे
क्षुद्र अभी विराट से बड़ा है, व्यर्थ अभी उसे सार्थक है,
प्रार्थना उसकी झूठी है--लेकिन परमात्मा को भी कोई नहीं मांग सकता।
परमात्मा के सामने खड़े होकर मांग ही बंद हो जाती है, मांगना
ही व्यर्थ हो जाता है, मांगने वाला ही मौजूद नहीं रह जाता।
इसलिए प्रार्थना कोई कृत्य नहीं है। आप प्रार्थना कर नहीं सकते, करने वाला नहीं रह जाता। प्रार्थना एक भावदशा है, विलीनता
की एक अवस्था है, जहां करने वाला खो जाता है। वह जो आप सदा
हैं, नहीं होते। वही प्रार्थना है।
तो मैं तो कोई मंत्र आपको दूंगा नहीं। और जब तक मैं मंत्र न दूं, तब तक कोई धर्म मेरे आस-पास खड़ा नहीं हो सकता। अगर मंत्र दूं, तो धर्म खड़ा हो सकता है। मंत्र आया, तो पीछे से
मंदिर आता है। मंदिर आया तो पुजारी, पुरोहित आता है। तब सारा
जाल फैल जाता है। और सबके बीज में मंत्र है। मंत्र दिया कि मैंने तुम्हें स्वीकार
कर लिया कि तुम्हारी खोज जायज है, तुम शक्ति को खोजो। मैं
तुम्हें कोई मंत्र न दूंगा, न नमोकार, न
ओंकार, न मणि पद्मे हुम्। क्योंकि तुम खतरनाक हो और सभी
मंत्रों से तुमने केवल अपने अहंकार को सिद्ध किया है।
मेरे पास तुम आए हो, अगर तुम्हारे पास कोई मंत्र हो,
तो उसे तुम छोड़ जाना। मंत्र से अपने को मत भरना, क्योंकि मंत्र तुम्हारे मन का ही खेल है। सोचो, मन
के बिना तुम कैसे मंत्र का पाठ करोगे? मन न होगा, तो कौन नमोकार पढ़ेगा? तो नमोकार विचार की ही एक
प्रक्रिया हुई। कोई आदमी फिल्म का गीत गा रहा है, क्योंकि
उसकी वासना स्त्रियों में उलझी है, काम में उलझी है। वह जिस
ऊर्जा से, जिस मन से फिल्म का गीत गा रहा है, उसी ऊर्जा से मंत्र भी पढ़ सकता है, अगर उसकी वासना
धर्म में उलझ जाए।
तो मंत्र हो कि गीत हो, दोनों ही विचार के
रूप हैं। और मेरे लिए इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कौन शुद्ध है, कौन अशुद्ध है। सभी विचार अशुद्ध हैं, विचार मात्र
अशुद्धि है। शुद्ध विचार होता ही नहीं। शुद्ध विचार हो ही नहीं सकता। वैसे ही जैसे
स्वस्थ बीमारी नहीं हो सकती। बीमारी ही अस्वास्थ्य का नाम है, तो स्वस्थ बीमारी कैसे होगी? शुद्ध गंदगी कैसे होगी?
या कि आप सोचते हैं हो सकती है? विचार ही
अशुद्धि है, विचार की तरंग का होना ही चेतना को अशुद्ध करता
है। फिर वह विचार कामवासना का है कि प्रार्थना का है, मंत्र
है कि दुकानदारी है, इससे कोई बुनियादी फर्क नहीं पड़ता।
चेतना में विचार का होना अशुद्धि है। शुद्ध विचार जैसी कोई चीज नहीं होती। क्योंकि
शुद्धि का अर्थ निर्विचारता है, शुद्धि का अर्थ ही विचार का
अभाव है।
आप ऐसा समझें कि आप दूध में पानी मिला देते हैं। बिलकुल शुद्ध पानी
मिलाते हैं और शुद्ध ही दूध है और शुद्ध ही पानी है, तो दोनों मिलकर दोहरी
शुद्धि हो जानी चाहिए। लेकिन दूध शुद्ध नहीं होता पानी मिलाने से, अशुद्ध हो जाता है। क्योंकि पानी का स्वभाव अलग, दूध
का स्वभाव अलग। पानी कितना ही शुद्ध हो, शुद्ध होने से कोई
फर्क नहीं पड़ता, दूध में मिलने से अशुद्ध होगा। और आप यह मत
सोचना कि दूध ही अशुद्ध हुआ, पानी भी अशुद्ध हो गया। वह तो
आपकी नजर दूध पर है इसलिए दूध अशुद्ध लग रहा है, अन्यथा पानी
ने भी अपनी शुद्धि खो दी और दूध ने भी अपनी शुद्धि खो दी। दो शुद्ध चीजें मिलीं और
दोनों अशुद्ध हो गईं।
विचार का अपना स्वभाव है। चेतना का अपना स्वभाव है। दोनों के स्वभाव
अलग-अलग हैं, दोनों के मिलन से अशुद्धि होती है। विचार अपने में
शुद्ध है, चेतना अपने में शुद्ध है। अपने में होना शुद्धि है,
स्वभाव में होना शुद्धि है, विभाव अशुद्धि है।
इसलिए कोई शुद्ध विचार चेतना को शुद्ध नहीं कर सकते। कोई शुद्ध पानी
दूध को शुद्ध नहीं कर सकता। निर्विचार जब भीतर का आकाश होता है, जहां कोई बादल नहीं, मंत्र के बादल भी नहीं, तब परमात्मा प्रत्यक्ष है। तब आप उस निराकार के साथ एक हैं।
प्रश्न:
भगवान, आपके वचनों से ऐसा
लगता है कि आध्यात्मिक साधना चाहे इस पार हो या उस पार की बात है।
या तो हम अधर्म में हैं या धर्म में, बंधन में या मोक्ष में, रावण में या राम में।
शायद बीच की कोई स्थिति नहीं है।
यदि ऐसा है, तो साधना और समर्पण
में संबंध क्या है?
निश्चय ही बीच की कोई स्थिति नहीं है, हो भी नहीं सकती। इसे
थोड़ा समझें, क्योंकि कठिन है। और मन को इससे बड़ी निराशा पैदा
होती है कि बीच की कोई स्थिति नहीं है। मन बीच की स्थिति पैदा करता है। उससे भरोसा
आता है कि हम राम भला न हों, लेकिन रावण भी नहीं हैं। आधे तक
पहुंच गए हैं, काफी यात्रा कर ली है। मोक्ष न मिला हो,
लेकिन संसार से हम छूट गए हैं। परम ज्ञान न हुआ हो, लेकिन काफी ज्ञान हुआ है, बस थोड़ी ही यात्रा और है।
लेकिन क्या ज्ञान बंट सकता है? क्या ऐसा हो सकता है
कि आपको आधा ज्ञान हुआ हो? क्या आधा बुद्धत्व संभव है?
और जो आदमी आधा बुद्ध हो गया हो, वह बाकी आधी
निर्बुद्धि को क्यों ढोएगा? जिसके भीतर आधे में प्रकाश हो
गया हो, क्या इस आधे प्रकाश में इतनी भी सामर्थ्य नहीं कि वह
आधे अंधकार को मिटा दे? जिसकी वासना आधी चली गई हो, वह शेष आधी को कैसे बचाएगा?
मगर मन की गहरी तरकीबों में एक तरकीब है कि वह आपको बताता है कि विकास
हो रहा है। इससे आशा बनी रहती है। तो मन कहता है, एक-एक सीढ़ी हम चढ़ रहे
हैं, थोड़ी सीढ़ियां बाकी रही हैं। जल्दी कुछ है नहीं, घबड़ाने की कोई बात नहीं, चिंता बनाओ मत। इतनी
सीढ़ियां देखो चढ़ चुके हो, थोड़ी सीढ़ियां और, वे भी पार हो जाएंगी। मन सीढ़ियां पैदा करता है, जहां
सीढ़ियां हैं ही नहीं। मन डिग्रीज बनाता है, जहां कोई डिग्री
नहीं है, जहां डिग्री हो नहीं सकती।
या तो कोई आदमी ज्ञान में है, तब अज्ञान टिक नहीं
सकता। रत्तीभर नहीं टिक सकता, आधे की तो बात अलग है। क्योंकि
ज्ञान की मौजूदगी में अज्ञान टिकेगा कैसे? और या कोई आदमी
अज्ञान में है। और तब वह यह नहीं कह सकता कि रत्तीभर ज्ञान मुझे हुआ है, क्योंकि रत्तीभर ज्ञान अज्ञान को नष्ट कर देगा।
आपका पूरा घर अंधेरे से भरा हो, छोटा सा दीया जल जाए
और अंधेरा समाप्त है। कोई पूरे घर को आग थोड़े ही लगानी पड़ेगी, जब प्रकाश होगा! कि पूरे घर को आग लगाएंगे, तब
प्रकाश होगा? एक छोटा सा दीया जला कि प्रकाश हो गया, कि अंधकार गया। प्रकाश की मौजूदगी अंधकार का अंत है।
और अगर पूरे घर में अंधकार भरा है और सिर्फ थोड़ी सी जगह प्रकाश जल रहा
है और दीया थोड़ा सा प्रकाश करता है, तो आप समझना कि यह
दीया कल्पित है। आप सोच रहे हैं कि यह है, यह है नहीं। आप
कोई सपना देख रहे हैं। या यह दीया नहीं होगा, दीए की पेंटिंग
होगी। और चित्रकार दीए को पेंट कर सकता है कि देखने पर लगे कि दीया रखा है,
और देखने पर लगे कि ज्योति भी जली है, और
ज्योति के चारों तरफ प्रकाश भी पेंट किया जा सकता है। लेकिन उससे अंधेरा नहीं
मिटेगा। यह दीया झूठा है।
हमारा ज्ञान इस चित्रित दीए की भांति है, उसे हमने शास्त्रों से इकट्ठा किया है, वे चित्र
हैं। उसे हमने संजो लिया है मन के एक कोने में। अंधेरा अपनी जगह है, ज्ञान उसके बीच में बैठा हुआ है। जो ज्ञान अंधेरे को आमूल न मिटा देता हो,
समझना कि वह उधार है। वह कहीं न कहीं मिथ्या और झूठा है।
या तो रावण हो सकते हैं या राम, मध्य में होने का कोई
उपाय नहीं। हमारे मन की तकलीफ यह है कि यह तो हम भी समझते हैं कि राम हम नहीं हैं,
मगर यह अहंकार को चोट होती है कि तो फिर रावण ही बचते हैं, वह मानने को मन राजी नहीं होता। मन कहता है, माना कि
राम नहीं हैं, क्योंकि इतनी घोषणा करनी भी जरा मुश्किल मालूम
पड़ती है। और चारों तरफ लोग जानते हैं कि राम हम नहीं हैं, किसके
सामने घोषणा करें? लोग सिर्फ हंसेंगे। तो राम तो हम अपने को
नहीं कह पाते। कहना तो चाहते हैं, कह नहीं पाते, वास्तविक कठिनाइयां हैं, लेकिन रावण मानने का भी मन
नहीं होता। तो बीच का हम मार्ग खोज लेते हैं। हम कहते हैं, न
हम राम हैं अभी न रावण हैं, मध्य में हैं, अभी हम बीच में हैं। अभी परम ज्ञान नहीं हुआ, बुद्धत्व
उपलब्ध नहीं हुआ, लेकिन हम कोई मूढ़ और अज्ञानी भी नहीं हैं।
यह जो बीच का खयाल है, यह बहुत खतरनाक है,
क्योंकि यह तुम्हें तुम्हारी स्थिति से परिचित ही न होने देगा।
अच्छा है कि तुम समझ लो कि तुम रावण हो। और रावण में खराबी क्या है, जिसकी वजह से तुम डरते हो? अगर रावण के व्यक्तित्व
को समझो, तो तुम पाओगे कि तुम मध्य में तो हो ही नहीं सकते,
छोटे या बड़े रावण हो सकते हो। यह हो सकता है कि तुम छोटे रावण हो।
पर तुम्हारा ढंग और तुम्हारी चेतना का गुण, एक बूंद हो कि सागर, इससे क्या फर्क पड़ता है?
सागर की एक बूंद भी खारी है, पूरा सागर भी
खारा है। बुद्ध कहते थे, सागर की एक बूंद चख लो, तुमने पूरा सारा सागर चख लिया। वैज्ञानिक कहते हैं, सागर
की एक बूंद का विश्लेषण कर लो, तुमने पूरे सागर का विश्लेषण
कर लिया। जो एक बूंद में है, वही पूरे सागर में है; सागर मैग्नीफाइड है, बस उसका ही विस्तार है। और बूंद
संकुचित है, बस उसी का संकोच है। तो यह हो सकता है कि तुम
सागर न हो, बूंद हो, पर तुम्हारा मूल
गुणधर्म वही है।
रावण की क्या कठिनाई है? रावण में क्या है,
जो तुम पाते हो, तुममें नहीं है। इसे थोड़ा हम
समझें। रावण धन का दीवाना है, साम्राज्य के विस्तार की
आकांक्षा है। स्त्रियों के लिए लोलुप है। वे चाहे स्त्रियां पराई, दूसरों की स्त्रियां ही क्यों न हों, अगर उसे पसंद
पड़ जाएं, तो उन्हें उसके राजमहल में ही होना चाहिए। पंडित है
बड़ा, शास्त्र का ज्ञाता है।
रावण में ये जो गुणधर्म हैं, इनमें कौन सा है,
जो हम कोशिश करें तो अपने में न पाएं, खोजें
तो न पाएं! स्त्री आकर्षित करती है। और सच तो यह है कि अपनी स्त्री कम आकर्षित
करती है, दूसरे की ही सदा आकर्षित करती है। क्योंकि अपनी से
तो हम धीरे-धीरे आदी हो जाते हैं। और मन अपने से तो ऊब जाता है। खुद की पत्नी में
कभी कोई आकर्षण होता है? खुद की पत्नी में कोई आकर्षण नहीं
रह जाता। असल में जो चीज हमें उपलब्ध हो, उसमें आकर्षण रह ही
नहीं जाता। आकर्षण तो उसमें होता है, जो उपलब्ध नहीं है। और
जितना कठिन हो पाना, उतना ही आकर्षण बढ़ता है।
राम की स्त्री में रावण का रस कठिनाई के कारण है। कठिनाई निश्चित बड़ी
थी और कठिनाई बड़ी गहरी थी। कठिनाई क्या थी? राम की स्त्री को
चुराना बहुत कठिन नहीं था, वह तो रावण ने किया ही। राम की
स्त्री को झुकाना कठिन था, जो रावण नहीं कर पाया। वही कठिनाई
थी, वही चुनौती थी। सीता का लगाव राम की तरफ ऐसा परिपूर्ण था
कि सीता के हृदय में जरा सी भी रंध्र न थी, जिसमें से रावण
भीतर प्रवेश कर जाए--यह चुनौती थी।
वेश्या में थोड़े ही आकर्षण होता है! सती में आकर्षण होता है। वेश्या
में क्या आकर्षण है? थोड़ा आपका खीसा हल्का होगा और वेश्या उपलब्ध हो
जाएगी। वेश्या खरीदी जा सकती है। उसमें क्या रस हो सकता है? रस
था सीता में, उसे खरीदना असंभव था। कोई उपाय न था, जिससे उसे खरीदा जा सके। और कोई उपाय न था कि उसके हृदय में प्रवेश किया
जा सके।
इसलिए पूरब की स्त्रियों में जो आकर्षण है, वह पश्चिम की स्त्री में नहीं है। पश्चिम के लोग भी अनुभव करते हैं कि
पूरब की स्त्री में जो आकर्षण है, वह पश्चिम की स्त्री में
नहीं है। पश्चिम की स्त्री ज्यादा सुंदर हो सकती है, उसके
शरीर का अनुपात ज्यादा ढंग का हो सकता है, लेकिन फिर भी
उसमें वह आकर्षण नहीं जो पूरब की साधारण स्त्री में होगा। क्योंकि पूरब की स्त्री
के हृदय में प्रवेश असंभव है। चुनौती बड़ी है।
रावण के पास सुंदर स्त्रियों की कमी न थी, सीता से शायद ज्यादा सुंदर रही हों। लेकिन सीता की जो अनन्य भक्ति है राम
के प्रति, वह चुनौती बन गई रावण को।
तुम्हारे लिए भी सदा वही चुनौती है। दूसरे की स्त्री में रस है। वह
रावण की चेतना का गुणधर्म है। जो दूसरे के पास है उसमें रस है, जो अपने पास है उसमें रस नहीं है।
राम को किसी दूसरी स्त्री में कोई रस नहीं, जैसे सीता में सारा संसार पूरा हो गया। यह राम की चेतना का हिस्सा है कि
जो अपने पास है, वह सब है; जो अपने पास
है, वह पूरा है; जो अपने पास है,
उसमें संतोष है, उसमें संतुष्टि गहन है,
उससे ज्यादा की कोई मांग नहीं है। उससे ज्यादा दिखाई ही नहीं पड़ता,
सब उसमें समाया हुआ है। जैसे सारी दुनिया की स्त्री का स्त्रीत्व
सीता में समा गया है। सीता मिल गई, तो सब स्त्रियां मिल गईं।
रावण की चेतना, जब तक सारी स्त्रियां न मिल जाएं, तब तक तृप्ति नहीं होती। और तब भी तृप्ति होगी, कहना
कठिन है। व्यक्ति का मूल्य रावण को नहीं है, खुद के स्वार्थ
और खुद की संवेदना का मूल्य है।
जिसके पास हम रहते हैं, उसके प्रति हमारी
संवेदना बोथली हो जाती है। रोज उसे देखते हैं, फिर देखने
योग्य कुछ नहीं बचता; रोज उसे खोजते हैं, फिर खोजने योग्य कुछ नहीं बचता। फिर उसके पूरे व्यक्तित्व से हम परिचित हो
जाते हैं, तो सब बासा हो जाता है। यही सभी इंद्रियों का ढंग
है। आज भोजन मिला, वही कल भी मिला। आज कहा, बहुत अच्छा है; लेकिन कल उतना अच्छा नहीं कह सकेंगे,
वही भोजन। फिर तीसरे दिन भी वही भोजन फिर मिला, तो ऊब पैदा हो गई। चौथे दिन थाली सरका देंगे। वही है, जो पहले दिन बहुत अच्छा कहा था, लेकिन चार दिन में
ऊब गए।
इंद्रियां पुराने से ऊबती हैं। इंद्रियों का ढंग है, रोज नए की तलाश। क्योंकि इंद्रियों को उत्तेजना चाहिए। उत्तेजना नए से
मिलती है। इसलिए जितने एंद्रिक समाज होंगे, नए की खोज उनका
सूत्र होगा। जितने आध्यात्मिक समाज होंगे, पुराने के साथ
तृप्ति उनका स्वभाव होगा। चेतना तो सनातन की खोज करती है, इंद्रियां
नवीन की।
तो राम ने तो सीता में सनातन को खोज लिया। वह जो शाश्वत है, जो कभी पुराना नहीं पड़ता और जिसे नया करने की कोई जरूरत नहीं, जिससे ऊब कभी पैदा ही नहीं होती।
प्रेम से कभी ऊब पैदा नहीं होती, काम से ऊब पैदा होती
है। क्योंकि प्रेम है हृदय का और काम है इंद्रियों का। इसलिए अगर कामवासना आपका
केंद्र है, तो रोज आपको नई स्त्री चाहिए, नया पुरुष चाहिए, नया भोजन चाहिए, रोज! क्योंकि शरीर तो प्रतिपल नए में जी सकता है, उससे
उत्तेजना मिलती है, चुनौती मिलती है। लेकिन चेतना तो सनातन
में जीती है, शाश्वत में जीती है। इसलिए प्रेम शाश्वत हो
सकता है।
राम और सीता के बीच तो प्रेम घटा है, रावण और उसकी
पत्नियों के बीच कामवासना के संबंध हैं। सीता में रावण की उत्सुकता इस बात की खबर
है कि उसकी अपनी पत्नियों में उत्सुकता नहीं रही है।
यही तो हमारी दशा है, चेतना हमारी भी इसी तरह बह रही
है। जो हमारे पास है, वह बेकार; और जो
दूसरों के पास है, वहां स्वर्ग; और जब
तक मैं उसे न पा लूं, तब तक बेचैनी; और
पाते ही से वह बेकार हो जाता है। क्योंकि जैसे ही पा लिया, वह
मेरा हो गया, फिर नजर और पर जाने लगी। यह जो दूसरे पर जाती
नजर है, सदा दुख लाती है। और संतुष्टि का तो कोई आयाम इससे
खुल नहीं सकता।
रावण धन के लिए दीवाना है, इसलिए कथा है कि उसकी
नगरी स्वर्ण की नगरी है। उसकी लंका सोने की बनी है। लेकिन फिर भी दूसरे का धन,
दूसरे का राज्य आकर्षित करता है। रावण की लंका तो सोने की है,
राम की अयोध्या सोने की नहीं है। फिर भी राम को कोई रस दूसरे के
राज्य में नहीं है।
सोने का भी राज्य आपको मिल जाए, तो भी जो दूसरे का है,
उसमें आपको रस रहेगा। महल भी आपके पास हो, तो
भी दूसरे का झोपड़ा आपको आकर्षित करेगा।
राम जैसी चेतना का व्यक्ति झोपड़े में रहे, तो भी महल आकर्षित नहीं करता। राम जैसा व्यक्ति जहां भी रहे, वहीं महल है। रावण जैसा व्यक्ति जहां भी रहे, वहीं
दुख है, वहां महल नहीं है। महल कहीं और, किसी और के पास, जिसको जीतना है।
रावण के दस सिर हमने कहे हैं। अगर मनोवैज्ञानिकों से हम पूछें, तो वे कहते हैं, हर आदमी के दस सिर हैं। क्योंकि
आपको कई चेहरे तैयार रखने पड़ते हैं, सुबह से शाम तक कई दफे
बदलने पड़ते हैं। आपको खयाल में नहीं है, क्योंकि आपको अपने
मन का ठीक विश्लेषण ही नहीं है। जब आप अपने नौकर के सामने खड़े होते हैं, तो आप दूसरे चेहरे का उपयोग करते हैं। जब आप अपने मालिक के सामने खड़े होते
हैं, तो दूसरे चेहरे का उपयोग करते हैं।
इसे थोड़ा खयाल करना, तो आप पाएंगे, तत्क्षण आप चेहरा बदलते हैं। जैसे कई चेहरे स्पेअर तैयार हैं, जिनको आप तत्क्षण बदल लेते हैं। अगर किसी आदमी से काम लेना हो, तो आप और चेहरे का उपयोग करते हैं। और अगर कोई आदमी आपसे काम लेने आया हो,
तो तब आपका चेहरा देखिए। जब आपको किसी से रुपए उधार लेने हैं,
तब आप अपना चेहरा आईने में देखिए। और जब कोई आपसे रुपए उधार लेने
आया है, तब अपने चेहरे को आईने में देखिए। आप पाएंगे कि अलग
आदमियों के चेहरे हैं, यह एक ही आदमी का चेहरा नहीं है। दस
का मतलब आप दस मत समझ लेना, दस तो आखिरी संख्या है, इसलिए दस। चेहरे तो हजार हैं, दस आखिरी संख्या है,
बाकी संख्या तो फिर पुनरुक्ति है।
इसलिए सभी संख्याओं में, दुनियाभर की संख्याओं
में, दस पर संख्या का अंत हो जाता है। ग्यारह का मतलब है फिर
एक के ऊपर एक, फिर पुरानी संख्या दुहरने लगी। बारह का मतलब
एक के ऊपर दो, लेकिन दस पर काम पूरा हो गया। और दस पर काम
पूरा हो गया, क्योंकि आदमी की दस अंगुलियां हैं। आदमी ने
पहले अंगुलियों पर गिनना शुरू किया, दस पर संख्या पूरी हो
गई। फिर वह दस को ही बढ़ाता रहा है।
तो वे जो रावण के दस चेहरे हैं, वे तो सिर्फ संख्या
का अंत बताने के लिए हैं, चेहरों का कोई अंत नहीं है। सुबह
से शाम तक हजारों चेहरे आप बदल रहे हैं।
राम का एक ही चेहरा है, चाहे सुख में मिलें,
चाहे दुख में, चाहे उनको आप राजमहल में मिलते
और चाहे जंगल में। उनके चेहरे में भेद नहीं है।
और जिस आदमी ने एक चेहरा पा लिया, वह राम हो गया। इसका
अर्थ है, जिसका चेहरा आथेंटिक हो गया, प्रामाणिक
हो गया। जिसका चेहरा भीतरी हो गया। जो बाहर को देखकर अब चेहरे को नहीं बदलता।
परिस्थिति जिस पर अब प्रभावी नहीं है। जिसका चेहरा अब एक आंतरिक दशा और स्थिति है।
आप उसे गाली दें तो भी उसका चेहरा वही है, प्रशंसा करें तो
भी उसका चेहरा वही है। अब कोई परिस्थिति उसके चेहरे को डांवाडोल नहीं करती। उसका
होना थिर हो गया है। राम इस थिरता का नाम है।
रावण को मारना मुश्किल हुआ युद्ध में, क्योंकि एक गर्दन
काटो, इससे क्या फर्क पड़ता है? असली
गर्दन का तो कोई पता ही नहीं है, जिसके कटने से रावण मरेगा।
और झूठा चेहरा एक गिरा कि दूसरा उग आता है। झूठे चेहरे काटने से कुछ हल नहीं है,
क्योंकि वह कोई चेहरा ही नहीं है। इसलिए रावण के सिर गिरते जाते हैं
और नए उगते आते हैं।
आपके झूठे चेहरे को कोई काट भी दे, क्या फर्क पड़ता है! न
वहां रक्त है, न मांस है, न कुछ है;
वह तो सिर्फ एक खयाल था, एक भाव था, वह काट दिया, आप दूसरा तत्क्षण पैदा कर देंगे।
रावण को मारने की भी कठिनाई यही थी कि उसके असली चेहरे का पता लगाना
ही सूत्र था कि असली चेहरा कौन सा है। और आप भी अपने को न मिटा पाएंगे परमात्मा के
सामने। राम के सामने रावण ऐसे ही खड़ा था, जैसे आप भी परमात्मा
के सामने खड़े हैं। आपको तक पता नहीं कि आपका असली चेहरा कौन सा है, जिसको काटने से आप मिट जाएंगे। कई बार आप झूठे चेहरे काटकर चढ़ा आते हैं
मंदिर में और घर लौट आते हैं। वे झूठे चेहरे हैं, उनके काटने
से कुछ हल नहीं होता।
देखें मंदिर में, एक आदमी जाता है, सिर झुकाकर चरणों में रख देता है परमात्मा के। लेकिन अगर आप गौर से देखें,
तो उसकी अकड़ तो वहां वैसी की वैसी खड़ी है। असली चेहरा तो खड़ा ही हुआ
है, नकली चेहरा झुका हुआ है। और असली चेहरा चारों तरफ देख
रहा है कि देख लो, मेरे जैसा भक्त इस गांव में कोई भी नहीं!
मैंने सुना है, एक सम्राट सुबह-सुबह चर्च में प्रार्थना कर रहा था।
और सम्राट था और पर्व का दिन था, इसलिए पहला हक उसी का था।
जैसा हरिद्वार में या गंगा पर स्नान के वक्त पहला हक कि कौन स्नान करेगा?
धर्म के जगत में भी पहले का हक करने वाले लोग हैं! ये अहंकारी हैं।
दंगा-फसाद हो जाता है कुंभ के मेले में। क्योंकि जिनका हक था, उनके पहले किसी ने स्नान कर लिया, तो वहीं मार-पीट
शुरू हो जाएगी। भगवान के दरवाजे पर भी आप इतनी आसानी से न घुस पाओगे, वहां लट्ठ लिए लोग खड़े होंगे कि हमारा हक पहले, तुम
पहले कैसे जा रहे हो?
वह सम्राट था, चर्च में पहला उसका हक था पर्व के दिन, तो अंधेरे में सुबह पांच बजे प्रार्थना करता था, क्योंकि
फिर लोग आना शुरू हो जाते, भगवान से पहली मुलाकात उसकी होनी
चाहिए। तो वह प्रार्थना कर रहा था और अंधेरे में कह रहा था, हे
परमपिता! मैं ना-कुछ हूं, मैं दीन-दरिद्र हूं, पापी हूं, मुझे अपने चरणों में समा ले। तभी उसे लगा
कि कोई और अंधेरे में मौजूद है। अंधेरे में दिखाई तो ठीक से नहीं पड़ता था, तो उसने कान सजग किए। पास में ही कोई आदमी वेदी के पास झुका था और यही
शब्द दोहरा रहा था कि हे परमात्मा, मैं ना-कुछ हूं, दीन-दरिद्र, तेरे पैरों की धूल, मुझे अपने चरणों में समा ले।
सम्राट ने कहा, यह कौन आदमी मेरे सामने कहने का दावा कर रहा है कि
मैं ना-कुछ हूं? मुझसे ज्यादा ना-कुछ दूसरा कोई भी नहीं हो
सकता। यह कौन है जो कह रहा है कि मैं दीन-दरिद्र हूं? जब मैं
कह चुका, तो मुझसे ज्यादा दीन-दरिद्र कोई भी नहीं हो सकता।
अपने शब्द वापस ले ले!
अगर सम्राट कह रहा हो कि मैं निरअहंकारी हूं, तो आप यह नहीं कह सकते कि आप भी निरअहंकारी हैं। क्योंकि सम्राट का अहंकार
खड़ा हुआ, वह कहेगा, मुझसे ज्यादा होने
का दावा? वह चाहे धन का हो, चाहे
निरअहंकारिता का, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन मुझसे ज्यादा तुम नहीं हो सकते। दीन-दरिद्र तो मैं प्रथम, ना-कुछ तो मैं प्रथम, लेकिन मेरा प्रथमपन जारी
रहेगा।
तो तुम झुक जाते हो मंदिर में, लेकिन तुम्हारा
अहंकार तो खड़ा रहता है। तुम्हारा सिर झुकता है, जो झूठा है,
जिसका कोई मूल्य नहीं।
रावण के मन को अगर समझें, तो आप अपने भीतर रावण
को पूरी तरह प्रतिष्ठित पाएंगे। और वही रावण आपको समझा रहा है कि राम तुम भला न हो,
लेकिन रावण नहीं हो।
उसकी बिलकुल मत सुनें। उसकी काफी सुन चुके हैं। उसकी सुनने के कारण यह
दुर्दशा है। अगर आपको लगता है कि राम मैं नहीं हूं, तो पक्का जानें कि आप
रावण हैं। यह पक्का जानना राम की तरफ जाने का पहला कदम होगा। अपने को बुरा जानना
शुभ होने की पहली क्रांतिकारी घटना है। मैं अंधेरे में हूं, ऐसी
गहन प्रतीति प्रकाश की खोज बनती है। मैं अज्ञानी हूं, तो
ज्ञान की जिज्ञासा शुरू होती है।
मध्य और आधे की बात मत सोचें। या इस पार या उस पार। और जो इस पार से
छूटता है, वह तत्क्षण उस पार पहुंच जाता है। क्योंकि दोनों के
बीच में जरा भी जगह नहीं है, जहां आप खड़े हो सकें। ज्ञान और
अज्ञान के बीच जरा सी भी जगह नहीं है, जहां आप खड़े हो सकें।
यहां अज्ञान गया कि ज्ञान आया, यह घटना युगपत है। जैसे सौ
डिग्री पानी गरम हुआ, फिर भाप और पानी के बीच में जरा सी भी
जगह नहीं है कि पानी का कुछ हिस्सा बीच में रुक जाए और कहे, हम
पानी तो न रहे, लेकिन अभी भाप नहीं हैं, बीच में हैं। न, या तो पानी या भाप, इन दोनों के बीच कोई भी जगह नहीं है।
वह जो दूसरा किनारा है और यह किनारा है, इन दोनों के बीच में
कोई नदी नहीं बह रही, जिसमें आप मध्य में अपनी नाव टेक दें।
नदी वहां है ही नहीं, बस दो किनारे हैं। यह किनारा छूटा कि
दूसरा किनारा मिला। और जब तक दूसरा न मिला हो, तब तक आप इस
किनारे पर हैं, इसे बहुत गहनरूप से अनुभव करना। मन के धोखे
में मत पड़ना। या तो अंधकार या प्रकाश, या तो जीवन या मृत्यु।
अधमरा आदमी भी अधमरा नहीं होता, हम कहते ही हैं। जिंदा होता
है, पूरा जिंदा होता है। अधमरा कैसे कोई हो सकता है? यह भाषा की भूल है। आधा जिंदा कोई कैसे हो सकता है? एक
आदमी बिलकुल बेहोश भी पड़ा हो, तो भी जिंदा है, पूरा जिंदा है, सौ प्रतिशत जिंदा है। आधा मर गया है,
ऐसा नहीं कह सकते। और एक आदमी मर गया, तो आप
यह नहीं कह सकते कि आधा जिंदा है। मर गया तो मर गया, जिंदा
है तो जिंदा है। इन दो किनारों के बीच कोई भी जगह नहीं है, कोई
स्पेस, कोई रिक्तता नहीं है।
ठीक से अपना विचार करें, और रावण को आप छिपा
हुआ पाएंगे। और ठीक-ठीक आप अनुभव कर लें कि मैं रावण हूं। वही रावण की भूल थी।
क्योंकि रावण अपने को रावण नहीं समझता था, समझता था महापंडित,
ज्ञानी। और शायद शास्त्रार्थ करता तो राम को हरा देता, शास्त्र उसे कंठस्थ थे। शक्तिशाली भी कम नहीं था, क्योंकि
अज्ञानी सदा शक्ति की तलाश करता है। बड़ी सिद्धियां उसने इकट्ठी कर रखी थीं। और
सिद्धियां इकट्ठा करने के लिए अज्ञानी कुछ भी करने को राजी होता है।
इसलिए कथा है कि वह अपनी गर्दन को काटकर शिव के सामने चढ़ा देता था। इस
सीमा तक जा सकता है अज्ञानी। सब कुछ छोड़ने को राजी है, अहंकार भर उसका मजबूत होता चला जाए। मरने तक को राजी है, अहंकार अगर बचता हो। तो सिद्धि की तलाश थी उसकी, मंत्रों
की साधना थी उसकी, बड़ा साधक था।
राम के जीवन में कोई साधना की खबर ही हमें नहीं है कि राम ने कहां
साधना की, कौन सी सिद्धियां पाईं, रावण के
जीवन में हमें खबर है, उसने बड़ी साधना की, बड़ी सिद्धियां पाईं। आखिर शिव को उसने प्रसन्न कर लिया और वह परम शक्ति का
मालिक हो गया। ज्ञान भी उसके पास था, पांडित्य उसके पास था,
सब कुछ उसके पास था। इसलिए स्वाभाविक है कि वह सोचता हो कि राम मैं
हूं।
अगर शक्ति से ही तौला जाए, साम्राज्य से तौला
जाए, स्वर्ण से तौला जाए, ज्ञान से
तौला जाए, तो राम बिलकुल निरीह हैं। राम का वह चित्र,
जहां वह जंगल जा रहे हैं, बिलकुल निरीह है। जो
था, वह भी छिन गया है। कुछ भी नहीं है पास। एक ना-कुछ
व्यक्ति की तरह जंगल में निरीह खड़े हैं। रावण के पास सब कुछ है। उसको खयाल रहा
होगा कि राम मैं हूं।
तो अगर शक्ति से ही हम सोचें, तो यह तर्क स्वाभाविक
है।
जब तक आपको खयाल न आ जाए ठीक से कि रावण हैं आप, तब तक आपकी वास्तविक जीवन-क्रांति का कदम नहीं उठता। और जैसे ही यह खयाल आ
जाए कि रावण मैं हूं, महल रावण का गिरना शुरू हो गया।
क्योंकि कोई भी व्यक्ति सचेतन होकर रावण नहीं हो सकता। जानते हुए कि रावण मैं हूं,
कोई रावण नहीं हो सकता। जानते हुए कि बुरा मैं हूं, बुराई नहीं टिक सकती। क्योंकि यह जानना एक आग है, जिसमें
बुराई जल जाती है, राख हो जाती है।
अगर बुराई को बचाना हो, तो यह जानना जरूरी है
कि मैं बुरा नहीं हूं। भला कहना मुश्किल हो, तो भी इतना तो
कहूं कि और लोगों से कम बुरा हूं, भलाई की तरफ चल रहा हूं।
एक आदमी मरा। उस गांव का रिवाज था कि जब कोई मर जाए, तो उसकी प्रशंसा में कुछ कहा जाए। और जब तक उसकी प्रशंसा में कुछ न कहा
जाए, तब तक उसका अग्नि-संस्कार नहीं किया जा सकता। और वह
आदमी इतना बुरा था कि गांव भर के लोगों ने बहुत सोचा, लेकिन
कुछ भी न खोज पाए कि प्रशंसा में क्या कहें!
उस जैसा दुष्ट खोजना मुश्किल था। उपद्रवी ऐसा था कि बिना कारण उपद्रव
खड़ा करे। पूरा गांव उससे त्रस्त था और सभी प्रसन्न थे उसकी मृत्यु से। न केवल गांव
के लोग, उसके घर-परिवार के लोग भी बड़े आनंदित और आह्लादित थे
कि झंझट मिटी। क्योंकि वह आदमी झंझटी था और सुबह से सांझ तक किसी न किसी को,
किसी न किसी झंझट में डाले रखता था। पूरे गांव को उसने अदालत के
चक्कर लगवा दिए थे। और उससे रास्ते पर नमस्कार करना भी खतरनाक था। उससे कोई भी
संबंध बनाना उपद्रव की बात थी, क्योंकि उतने में ही वह कुछ
जाल खड़ा कर दे।
मरघट पर उसकी लाश रखे बैठे हैं और कोई उठकर खड़ा नहीं होता जो प्रशंसा
में कुछ कहे। गांव का पुराना रिवाज कि जब तक प्रशंसा में कोई कुछ न कहे, तब तक आग न दी जाए। फिर सांझ होने लगी, गांव परेशान
है। आखिर लोगों को लगा कि मरकर भी सता रहा है, अब इसको कैसे
जलाएं! और जब तक जलाओ न, तो गांव कैसे जाएं? और रात उतरने के करीब है, अब करना क्या?
फिर एक आदमी खड़ा हुआ और उसने कहा कि यह आदमी अपने चार भाइयों की तुलना
में देवता था। इसके चार भाई और हैं गांव में, वे इससे भी ज्यादा
उपद्रवी हैं और दुष्ट हैं। अपने चार भाइयों की तुलना में यह आदमी देवता था!
अग्नि-संस्कार करके लोग घर लौट आए।
आप भी अपने को समझाए रखते हैं कि औरों की तुलना में मैं देवता हूं!
इतने बुरे लोग हैं संसार में, मैं इतना बुरा नहीं। बुद्ध जैसा
भला नहीं, राम जैसा भला नहीं, रावण
जैसा बुरा भी नहीं हूं। और पृथ्वी रावणों से भरी है, मैं
मध्य में हूं।
मध्य में कोई भी नहीं है, कोई भी हो नहीं सकता।
मध्य की भ्रांति को छोड़ दें, तो क्रांति शुरू हो सकती है।
आज इतना ही।
thank you guruji
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