दसघरा की दस कहानियां
पीपल का वो विशाल वृक्ष जो आज आबादी के घेरे में आ गया था। सालों पहले तालाब की शान और गांव का गौरव हुआ करता था। कैसे
अपने ही नन्हे सुकोमल
महरून नए निकले पत्तों की छवि
तालाब के स्फटिक
जल में देख कर वह आनन्द विभोर हो जाता था। जरा सी हवा के चलने भर से पत्ते कैसे
इठलाने झूमने लग जाते थे। उस समय आप उसके एक-एक पत्ते पर जीवंतता फैली हुई देख
सकते थे। उसके पत्तों और टहनियों पर लदे तोते अपने मुंह से बरबंटी कुचल-कुचल कर
ऐसे फेंक रहे होते मानो वो बरबंटी न खा रहें हो गोया मुंहों की सफाई कर रहे हो।
ऊपर की फुनगियों पर चील का चाल चौकस बैठना, मानो कोई रक्षक दूर दराज के आगंतुकों से सावधान कर रहा है। कभी-कभी
उसकी पुकार
सतर्कता के साथ-साथ चील के सुरों की कैसे मींड, मुरकी
लगाती है, जिसमें सुरों की माला
पिरोने जैसी चमत्कारी आभास होता
था। ये चील के सुर की मींड बड़े-बड़े संगीत कार को कानों को हाथ लगाने के साथ
आश्चर्य चकित भी कर देती है। श्याम के धुँधलके से पहले चिड़ियों का बेमतलब लड़ना,
फुदकना, एक दूसरे को अपने स्थान से भगाते हुए शोर मचाना, वातावरण में कैसी सजीवता
भर रहा था। पक्षियों की ये अठखेलियाँ पीपल के उस वृक्ष को अन्दर तक गुदगुदा देती
थी। वह आपने भाग्य पर इठलाता और उस मां की तरह गद्द-गद्द हो जाता था। जिस उसकी
गोद में पोते-पोतियाँ उछल कूद कर उसे सता रहे हो। ओर वह लोट-पोट हो अपने बाल पन
में पहुंच कर गई हो। उनके साथ होने मात्र से शायद उसका का भी बालपन अंदर से निकल
आया था। तब एक तरलता एक समानता वातावरण को कैसे गोरवंतित कर देती है।
परंतु अचानक जीवन में आए बदलाव गांव अब गांव न रह कर शहरी करण के लपेटे में आ गए थे। गांव की गरिमा उनका गौरव उनकी महीन अब खत्म होती जा रही थी। वह भी सुविधा का लबादा ओढ़ कर। जहां पहले हमारे गांव की जनसंख्या केवल 500 हुआ करती थी। अब वह 50,000 के पार हो गई थी। चारों और जहां देखों रेला-मेला लगा रहा था। न अब वो हवा थी न अब वे लोग। इस बदलते वातावरण के कारण पीपल धीरे-धीरे बूढ़ा और उदास दिखाई देने लगा था। ये बदलता वातावरण लगता था उसका लड़कपन उससे चुरा कर कहीं छुप गया था। और उसके चेहरे पर उदासी के साथ बूढ़े पन का अहसास दिखाई देने लगा था। अब उसके पत्तों और टहनियों में वो खड़-खड़ाहट नहीं रह गई थी। जो एक समय जवानी के जोश से भरी दिखती थी। उसके हिलते पत्तों में अब कोई चपलता नहीं दिखाई देती थी। अब तो वह जब डोलता था तो एक बूढ़े कि हिलते किसी मनुष्य गर्दन की तरह से दिखाई देने लगा था। उसका तना रूखा और बेजान सा, उसकी टहनियां, उसकी फुलंगियां अपनी लोच खो चूकी थी।
गाड़ियों के धुआँ के कारण चारों और इस दम घोटूँ वातावरण ने, उसे वक्त से पहले बूढ़ा कर गया था। और फिर कुछ भगत लोगों ने उसे चारों और से घेर कर, उसके आस पास एक उद्यान बना दिया था। उसे आदर सत्कार देने के नाम पर एक पक्का चबूतरा बनाकर उस पर सुन्दर मार्बल लगवा दिया था। जो देखने में सुंदर जरूर लग रहा था पर शायद यह उसकी जीवित कब्र थी। हम आज के आस्थावान लोग, जीवित को पूज ही नहीं सकते और उसकी जीते जी की कब्र बना मनुष्य फूला नहीं समा रहा था। मानो उसने कितना पुण्य का कार्य किया है। उसे जल चाहिए। मिट्टी चहिए। साफ वातावरण चाहिए। लेकिन जैसे वह खुद सिमेंट के घरों में कैद हो कर रह गया है। वह सोचता है सब को इसी तरह रहने में प्रसन्न और सुविधा होगी। परंतु मनुष्य अपने अंदर झांक कर देखे क्या इन सिमेंट के जंगल में वह प्रसन्न है आनंदित है। हां एक बात जरूर है उसे सुविधा जरूर मिली है। उस बेचारे पीपल को भी जीवित वस्तु का दर्जा मिल गया था। किसी नये भगत ने उस चबूतरे को और भी चार चांद लगा दिये थे। जब उस पर शिव, हनुमान की मूर्ति विराजमान कर दी। अब तो उसे भगवान का संग साथ मिल भी गया था, तो वह और भी पूज्य हो गया था। आते-जाते लोग चबूतरे को कैसे मन्दिर का सा सम्मान देने लगे थे। पीपल अपने गुण-गौरव की पुजा के बदलाव को बड़े अचरज के भाव से खड़ा सब देखता रहता था। और आज के आदमी की मूढ़ता पर शायद हंसता भी होगा। मार्बल का ये चबूतरा उसकी जीवित की मौत थी। आस पास से एक पानी की बूंद उसकी जड़ो को नहीं मिलती थी। एक तो आज कल बरसात नाम मात्र को होती है। वह चौमासे शब्द का जमना तो कब का चला गया। वह शब्द आज शब्दकोश में ही समा कर रह गया था। वो चार बूंद उसके पत्तों को ही सिंचती थी। भला उससे भी कोई जीवन मिल सकता है। जमीन के नीचे भी अब पानी आकाल पड़ गया था। दो सौ तीन सो हाथ तक पानी नहीं था। क्योंकि पानी को नीचे जाने ही नहीं दिया जा रहा था। पक्के सिमेंट के रोड बना दिये गये थे। जो पानी को बहा कर यमुना में के बाढ़ ला देते थे बरसात के दिनों में। मनुष्य न तो ये मुक्त हो कर खुद जी रहा था। और न किसी दूसरे प्राणी को मुक्त जीते देखना ही चाहता था अपने लोभ और स्वार्थ के कारण। उसके आस पास की सारी प्रकृति मृत होती जा रही थी। सब को संरक्षण या शोषण के नाम पर कैद किए जा रहा है।
श्याम होते ही पीपल का वो चबूतरा दीपकों के प्रकाश में जगमगा उठता था। ‘हरि वंश राय बच्चन’ साहब देखते तो मन मसोस कर रहे जाते, उनकी ‘’मधुशाला’’ की रोज दीपावली तो यहां, पीपल के चबूतरे पर सजती हैं, होली की वो जाने उनका राम। धूप दीप की सुगंध भी आस-पास के माहौल को अध्यात्मिक और आलोकित बना देती थी। आते जाते लोग सर झुका कर कैसे मूर्ति वत खड़े हो जाते थे। परन्तु न जाने क्यों आज कल के नौजवान दोनों कानों के हाथ लगा पश्चाताप की ही मुद्रा में नमन करते थे। मानो पुराने पाप की गठरी उतार अब नये के लिए रास्ता खोल रहे हो। समय के साथ मनुष्य धर्म का विधान भी बदल लेता है और तौर तरीके भी बदलते रहते है। अपनी स्थिति प्रस्थिति के अनुरूप। समय धर्म को ही नहीं बदलता उसके पूरे ढांचे को नया रूप दे देता है। जिसे हम धर्म समझकर चलते है वहीं पल-पल अपने बदलाव करता चला जाता है। हर युग में, हर सदी में उसके सिद्धांत अलग ही होते चले जाते है। जब हमारा धर्म ही शाश्वत नहीं है। तो परमात्मा को अरूप शाश्वत कहा है तब हम कैसे शाश्वत को पा सकते है। ये तथाकथित धर्म की दुकानें आज कल हर गली चौराहों पर खूब सजी-धजी खड़ी मिल जायेगी आपको। और धर्म के कई ठेकेदार आप गद्दीयों पर बढ़ कर ज्ञान और मुक्ति बांटते मिल जायेंगे। असल में जितना शोषण धर्म के नाम पर मनुष्य का किया जाता है और की बात पर नहीं। धन से मन से तन से सभी आयामों में मनुष्य की उर्जा को चूसा जा रहा है। ये दुनियां का सबसे बड़ा पापा है। परंतु करने वाला तो ये समझ रहा है। जरा सा पैसे के लालच में किसी से क्या छिन रहा है। उसकी उठती उर्जा जो अध्यात्म के आयाम में जाना चाहती है। ये मंदिर, मस्जिद, ये गुरुद्वारे और ये चर्चा को धर्म के नाम पर उस उर्जा को अपने में सोख लेते है। तब मनुष्य एक प्राण ही सा आपने धन के साथ उस नव अंकुरित उर्जा को भी खो देता है। और वह मनुष्य ठगा सा लुटा पीटा सा बस सर रगड़ता रह जाता है। इन धर्म के ठेकेदारों के द्वारा पर। धर्म के उन ठेकेदारों को इन सब से क्या लेना देना है। वह तो अपनी मोटी तोंद बढ़ा कर अकड़ से चलते रहते है।
अभी सूर्य निकला नहीं था, परन्तु उसकी लाली आसमान पर अपने पद चाप छापने लगी थी। पक्षियों ने स्वागतम में अपने मधुर गान गाने शुरू कर दिये थे। सुबह की बेला में कैसी शालीनता और कुंवारापन वातावरण में फैला रहता है। एक गीला-गीला सा रसीला पन, अपने में एक मधुरता समेटे हुए। और शरद ऋतु कि सुबह तो वैसे भी मधुरता के साथ अलसाया पन भी अपने अंदर लिए हुए होती है। जैसे सभी पेड़ पौधे, पशु-पक्षी उस ठंडी हवा के कारण मानो कुछ अलसाए से उठने में आना कानी कर रहे हो। दूर तक ऐसी नीरव शांति फैली रहती है कि अगर सूर्य की किरणें अपनी तपीस ले कर न आये तो आज उनका अलसाया पन खुलने से रहा। आपने देखा पक्षियों का कलरव आपको शोर नहीं लगता, आपके ध्यान में या काम में कोई विधन नहीं डालता। लेकिन इस का क्या कारण हो सकता है। मनुष्य की भाषा उसका बोली हमें शोर ही नहीं लगाती एक तनाव और बेचैनी भी दे जाती है। क्या मनुष्य की भी कोई प्राकृतिक वाणी है? शायद इस शब्दों के पीछे सुदूर में कहीं दूर छूट गई हो। नहीं तो क्यों शोर गुल आपको बैचेन करें, शायद कुछ अप्राकृतिक जरूर रहो गया है। वरना तो पक्षियों का कर्कश से कर्कश शोर भी आपके तनाव को हर लेगा, उसे बढ़ाने की बजाय। शायद मनुष्य का गायन ही कुछ प्राकृतिक के नजदीक सा महसूस होता है। इसलिए जब आप गायन को सुनते हो तो आपका मन ही नहीं तन भी कैसी निर्भरता को महसूस कर रहा होता है। क्योंकि कंठ से निकले सूर जो शब्द रहित हो या शब्द हो वह भी आपको कैसे शांति और आनंद दे जाते है। आसमान पर भोर का तार घर जाने से पहले अपने यौवन पर आ अपनी पूर्ण तीव्रता से चमका रहा था। मानो जाने से पहले अपना प्रकाश लुटा रहा है, बाट रहा है। चाँद आसमान पर नहीं था, शायद अमावस नजदीक आ रही थी। फिर भी चाँद रहित आसमान को तारों ने प्रकाश से भर दिया था। कम रोशनी में भी दूर से ही पीपल के पेड़ का चबूतरा साफ दिखाई दे रहा था।
आज जब मैं दुकान खोल रहा था, तो न जाने क्यों मेरा ध्यान बार-बार उस चबूतरे की ओ खिंच रहा था। मैंने अंधेरे में गौर से देखा कोई काला सा साया चबूतरे पर लेटा हुआ है। क्या ये कोई मनुष्य लेटा सो रहा है। इस शरद रात में भी पूरी रात खुले में यहां सोता रहा? मेरा मन कुछ बेचैनी सी महसूस करने लगा, और में चबूतरे की और खींचा चल दिया लाचार और परबस सा एक अंजान ताकत या डोर के सहारे। सच ही वहां पर कोई सो रहा था। एक पुराना सा कंबल ओढ़े हुए, उसने आपने पूरा मुख कंबल में ढक रखा था। सर के नीचे कपड़ों की एक छोटी सी पोटलियां का तकिया बना रखा था। पास एक छोटी सी डंडी, शायद कोई स्त्री थी। मैंने जैसे ही झुक कर देखने के लिए सोच ही रहा था कि उसने अपना मुख उघाड़, उसकी आँखों मेरी आंखों से मिली और मेरे अंदर कुछ सीतलता सी उतरती तेज धार की तरह चीरती चली गई। उसकी आँखों में तेज था। और उस अंधेरे में भी उसका चेहरा चमक रहा था। एक रूप, एक सौन्दर्य, एक आभा सी उसे घेरे हुए थी। वह मुझे कोई साधारण भिखारिन नहीं लग कर कोई तेजस्वी तपस्विनी लग रही थी। वह मुझे देख कर केवल मुस्करा दी हलकी-हलकी मुस्कुराहट उसके होंठों पर कैसे खिले कमल की पंखुडियों सी लग रही थी।
मैं वापस दुकान पर आ गया। इतनी देर में अदविता चाय ले कर आ गई, काम करने वाला लड़का झाडू वगैरह लगाने लग गया। मैंने अदविता को कहा, वहां कोई स्त्री है। पर मुझे वह पागल नहीं लग रही। तू उसे चाय और बिस्कुट दे आ। अदविता काफी रहम दिल और प्रेम पूर्ण स्त्री है। खिलने पिलाने और लेने देने में मन से बहुत प्रसन्न होती है। मानो वह तो तैयार ही थी उसने पल की देर नहीं लगायी। मानो उसकी मन चाही मुराद मिल गई, नाचती खुशी से झूमती वह उसके लिए गिलास में चाय ढालने लगी। हम लोगों को चीनी मिट्टी के कप में हम चाय नहीं भाती, हमें तो बस गिलास में ही आनंद आता है। असल में बीमारी का वो समय वो पीड़ा और दुख अदविता ने अपने ऊपर से गुजरते हुए देखे है। उन क्षणों को भोगा है, उन्हें जिया है। उस भोग के दर्द को झेला है, उसमें पल-पल तिल-तिल मरी है। यह बात शादी के बाद उसके बीमार होने के सालों की है। उन दो साल में उसकी अवस्था लगभग पागल के जैसी हो गई थी वह सब भूल गई थी। और तो और वह मुझे भी भूल गई थी। या पागल ही हो गई थी कहने में भी कोई बुराई नहीं है। उन दो सालों में न वह किसी को पहचानती भीा नहीं थी। और न ही किसी से बात करती थी। बस डरती रहती थी। अब कभी जब उन दिनों की बातें होती है। तब वह बतलाती है कि उसे कैसा महसूस होता था। ‘’पागल के अंदर की बेचैनी में समझ सकती हूं। वो अंदर से कितना भोगता है। कितनी अशान्ति उसे घेर होती है। और उसके सपनों का संसार जो छीना है या आने वाला है वह यथार्थ हो जाता है। और में आपके साथ रह कर भी आपको ही ढूंढती रहती थी। एक खास रूप या परिधान में शायद ये बात वो कह देती तो या वो घटना उसके सामने आ जाये तो उसके चेतन अचेत का जो झीना सा विभाजन है वह जुड़ जाता। फिर शायद मन उस भेद को पहचान लेता और मिट जाती वह पतली सी परत चेतन ओर अचेतन की। जो मनुष्य के मस्तिष्क को विभाजित कर देती है। परंतु ऐसा काम कभी भाग्य या इत्तफाक से ही हो सकता है। क्योंकि पागल आदमी वो सब बता नहीं पाता जिस आयाम में वह पहुंच गया है। यही व्यथा, क्लेश, संताप, दुख है पागल के साथ। वह सपनों में और विचारों की सच्चाई का विभाजित नहीं कर पाता। तब उसे वो सब याद करना होता था तो वो उसी आयाम में चली जाती थी। अनायास ही उसकी आंखें छलछला आती थी। वह चाय और बिस्कुट लेकर बड़े प्यार से उसे प्रणाम कर उसे देकर आ गई। देकर आने के बाद उसने मुझे कहा की आपने कुछ देखा, उसकी आंखें कैसे पारदर्शी स्फटिक है। जैसे किसी बुद्ध की हो। ये औरत पागल नहीं हो सकती। तुमने मेरी आंखें नहीं देखी थी जब में पागल हो गई थी। कैसे मेरी आँखों में धुंधला पन, एक कोहरा एक जाला सा फैल गया था। मानो किसी ने मकड़ा का जाला बुन दिया हो। आंखें हमारे अंतस का आईना होती है।
दुकान पर भीड़-भाड़ की वजह से मेरा ध्यान उधर से हट गया। इस बीच आठ बज गये, आज 11 दिसम्बर का दिन था। सो आज हमारे गुरु का जन्म दिन भी था। उस दिन आस पास के 10-15 मित्र और भी ध्यान करने के लिए आ जाते थे। और हम सब मिल कर सारा दिन ध्यान करते है। भोजन भी सब ओशोबा हाऊस में करते थे। इसलिए दुकान का काम खत्म कर अदविता घर जल्दी चली गई। दुकान का काम खत्म करते-करते मुझे भी काफी देर हो गई। करीब दस बज गए थे। मैंने पीपल के पास जा उस महिला से कहां आप घर चलो। उसने एक बार मेरी और देखा और खड़ी हो गई। गली के सब लोग मुझे अचरज से देख रहे थे। कि कौन जा रही है इसके साथ। मुझे भी वैसे तो गांव के लोग पागल ही समझते थे। परंतु थोड़ा नीम पागल। क्योंकि एक काम जो हम कर रहे थे वो था पैसा कमाना जो उनके पागल के ढांचे में फिट नहीं बैठ पा रहा था। ओशो का सन्यास अति जटिल और चमत्कारी है। जितना सरल दिखता है उतना सरल है नहीं। दोनों किनारों के बीच में बने रहने देना कोई इतना आसान नहीं है। न भागना, न संसार के सपनों में सोना। ओशो ने संन्यास को एक नई महिमा दी है। उसे फिर से जीवित किया है। बुद्ध, महावीर और शंकराचार्य के सन्यास से समाज का एक हिस्सा बहुत डर गया था। क्योंकि किसी का भाई किसी का पति किसी का बेटा छिन लिया जाता था। परंतु ओशो ने कहां वहीं रहो, उस समाज में जहां तुम्हें परमात्मा ने पैदा किया है। भागों मत जागो। एक होश दोनों के बीच हमें नदी के प्रवाह की तरह से बना रहे। हम जब दोनों घर पहुंचे तब तक और भी वहां काफी मित्र मंडली आई हुई थी। वह महिला ओशोबा हाऊस में प्रवेश किया उसने आँगन की दहलीज पर अपना सर टेक दिया। मानो वह किसी देवालय में प्रवेश कर रही है। और ओशोबा हाऊस के एक-एक कोने कातर को बड़े प्रेम से देख रही थी। कुछ चोगा धारी मित्र उसे अजीब सी नजरों से देख रहे थे। फिर हम सब ने मिल कर ध्यान किया। ध्यान का तल तो उस दिन ओशो के जन्म दिन के कारण था या अधिक लोगों आने के कारण परंतु उसमें एक भिन्नता थी। एक गहराई थी। पोनी हमारा कुत्ता तो उन महिला का दीवाना हो गया था। वह तो ध्यान में भी उनसे सट कर बैठा गया था परंतु एक बात बहुत ही सुंदर थी की वह महिला पोनी से जरा भी नहीं डर रही थी। उसे प्यार कर रही थी। वह भी आँख बंद कर उसकी गोद में सर रख कर ऐसे लगता था। मानो बरसो से उनकी जान पहचान है। जैसे जन्मों के बिछड़े मिल रहे है। न ही उन महिला ने पोनी को दुत्कारा। नहीं तो पागल आदमी के साथ कुत्ता कभी दोस्ती नहीं करेगा। परंतु सच बुद्ध और पागल में धरातल पर समानता तो होती है। जिसे मनुष्य तो नहीं पहचान सकता परंतु कुत्ता उसे पल में जान जाता है।
ध्यान करने की गहमागहमी के बाद सब लोगों ने खाना खाया परंतु अदविता उन्हें अपने कमरे में बुला कर ले गई। तब अदविता ने और उस महिला ने एक साथ खाना खाया। वह अदविता के साथ भोजन बड़े ही प्रेम से कर रही थी। बेटी बोधी उन्मनी और एक महिला संन्यासी सब को खाना परोस रही थी। एक दो मित्र गण भी उनकी मदद कर रहे थे। वहां और भी संन्यासी मित्र थे। पर मैं यह देख कर अचरज कर रहा था वे या तो वे उसे पसंद न ही नहीं कर रहे थे। या अपने को उससे बचाने की कोशिश कर रहे थे। पर आम आदमी और ध्यान करने वाले में होश का तो कुछ गुणात्मक भेद जरूर होता है। और अगर आपके पास होश है या आप होश पर काम कर रहे है तो आपको इस सब का विभेद मन से नहीं करना चाहिए। अपने जागरण से अपने होश से करना चाहिए। पर अदविता ने उसे खाने की टेबल पर ही खाना परोसा, वह एक शब्द भी नहीं बोली। उसने खाना बड़े होश से और सरसता से बड़े प्रेम पूर्ण तरीके से भोजन को खाया। उसके खाने में कोई जल्द बाजी नहीं थी। जब हम प्रेम और होश से भोजन करते है। रस स्वाद ले कर तो हम ज्यादा तृप्ति मिलती है। और उस हालत है हम बहुत कम भोजन खाते है। सो उसने भी बहुत कम भोजन खाया। क्योंकि भोजन में प्रेम भी भाव भी शामिल हो गए थे।
शायद आम आदमी से चौथाई खाना उसने खाया। ना-ना करते अदिवता ने उसे प्यार से जो खिलाया जिसे वह मना न कर सकी। परंतु श्याद प्रेम के कारण अदविता बह रही थी। अपना सर्व सब उड़ेल रही थी। की भागवान ही हमारे आँगन आये है। खाना खोने के बाद वह जाने लगी तब अदविता ने उसे एक चोगा, एक जोड़ा चप्पल, और महरून शाल जो लोई के जैसी गर्म और बड़ी थी। उसने ने भी उसे बड़े आदर भाव से ग्रहण किया। उसने उसे लेकर अपने माथे से पूजा भाव की तरह से लगाया। तब हम सब की और साथ उसकी भी आँख से प्रेम छलक रहा था। न जाने अचानक अदविता को क्या हुआ वह फफक कर रोने लगी। उसकी आँखों से तार-तार आंसू बह रहे थे। शायद संन्यास के समय भी उसके साथ ऐसा हुआ था। और उसने उसके गंदे पैरो में उसने अपना सर रख दिया। उसने उसे उठा कर अपने सीने से लगा लिया। मुझसे भी नहीं रहा गया। मैं भी उसके चरणों में सर रखने ही वाला था तो उसने मेरे सर पर हाथ रख दिया। और मुझे उठा कर अपने सीने से लगा लिया। कुछ क्षण के लिए मेरी ह्रदय गति बंद हो गई ना मेरी श्वास आ रही थी न जा रही थी। और में किसी गहरे लोक में खो गया था। और एक मजेदार बात ये हुई, क्योंकि ध्यान करने के एक साल बाद से ही हमें मनुष्य के शरीर से ही नहीं आपने खुद के शरीर से भी बहुत दुर्गंध आने लगी थी। आपने खान पान की भी दुर्गंध अब सहन नहीं होती थी। और उसी सब के कारण हमने प्याज-लहसुन खाना बंद कर दिया। पर वह स्त्री देखने में इतनी गंदी थी, मैंने सोचा की उसके सीने से लगने पर दम घुट जायेगा कितने दिन हो गए होंगे उसे नहाए हुए। और ऐसा आश्रम में कितनी बार होता था, जब कोई अंजान संन्यासी गले लग जाता था तो उसकी गंध से दम घुट जाता था। लेकिन एक चमत्कार हमने स्वामी नरेंद्र बौधिस्तव जी के संग भी महसूस किया था। उन्हें चटपटा खाने का बहुत शोक था और वह लहसुन का पेस्ट चटनी आदि बहुत चाव से खोते थे। किंतु उनके शरीर से जरा भी गंध नहीं आती थी। गंध हमारे अंदर की बेहोशी के कारण आती है। क्योंकि शायद जितना शरीर बेहोश होगा, उतना ही शरीर अधिक मुर्दा होगा। आपने देखा जब आदमी बूढा होता चलात जाता है उसके पास से एक भिन्न सी गंध आनी शरू हो जाती है। क्योंकि उसका शरीर अब प्राण ही होता जात रहा है। और जितना होश उतना ही सजग और जागा हुआ जीवित होगा। जिसे से मुर्दे के शरीर से गंध आती है उसी तरह कम मृत से भी गंध आती है। इसीलिए तो बुद्धत्व की एक गंध होती है। भगवान बुद्ध की तो कुटिया का नाम ही गंध कूटी रख दिया था। क्योंकि आप वहाँ से जब गुजरेंगे आप एक बुद्धत्व की गंध से सरा बोर हो जायेंगे। उसे हाथी, कुत्ता और सांप बहुत सरलता चिंहित कर लेते है।
परंतु सच इन महिला के पास से मन मोहक एक भीनी-भीनी गंध आ रही थी। एक बुद्धत्व की गंध जब कोई उसे गंध को एक बार जाने लेता है। तो कस्तूरी मृग की तरह पागल हो जाता है। लोग समझते है गुरु ने उसे सम्मोहित कर दिया है। सही बात तो यह है कि वह गंध बुद्धत्व की होती है। जब तक कोई बुद्धत्व तक नहीं पहुंच जाता वह उसे अपनी और खींचे रहती है। ये साधक की एक खास अवस्था में महसूस होता है। जब साधक की उर्जा तीसरे चक्र मणिपुर चक्र पर कर जाता है। तब उर्जा ह्रदय चक्र को जाकर सराबोर कर देती है। ऐसी ही अवस्था उस दिन उस महिला के संग साथ के बाद हुई मैं और अदविता एकांत पिरामिंड में प्रवचन लगा कर लोट गए। उसके बाद ऐसी शांति ऐसी गहराई छा गई कि में कई घंटे तक बोल नहीं सका। कुछ मित्र जो आये हुए थे और अभी ओशो और ध्यान को समझने की कोशिश कर रह थे। जब उन्होंने एक पागल के पैरों में मुझे झुकते हुए देखा तो उनकी समझ में कुछ नहीं आया की ये सब क्या हो रहा है।
भारत में एक परंपरा है, जब साधना के जगत में साधक प्रवेश करता है तो गुरु उसे तीन बुद्ध पुरुषों को पहचाने के लिए कहता है। ये धारण है कितनी विज्ञान है ये मैं नहीं कह सकता परंतु इस में तथ्य है। जब आप एक व्यक्ति के बुद्धत्व को देखते हो, पहचानते हो तो तुम्हारे अंदर एक अति अहं की ज्योति जलती है। दुसरा हम समत्व को ही पहचान सकते है। भेद तेरा कोई क्या पहचाने जो तुझ सा हो वो तुझे जाने। हमारी चेताना के भी कितने ही तल और आयाम है शायद हजारों करोड़ों हम सब एक जगह रहकर भी कितने अलग-अलग आयाम में और संसारों में ही रहते है।
रात जैसी गहरी शांत नींद हम दोनों को आई ऐसी सालों पहले कभी पूना में अनुभव हुई थी। जब हम संन्यास लेने दोनों 1994 में गये थे। न कोई स्वप्न, और धुँधला होश का संग कोहरे को कैसे चिरता सा लगता था। तब आपका शरीर कैसे पंख हीन निर्भर सा हो जाता है। लगता है कि अब उड़ा की जब उड़ा और हाथ पैरो में कैसा होश भर गया था। कितना सुखद आनंद दाई क्षण था। हमने अपने गुरु का संग नहीं किया पर कुछ बुद्धो का संग किया था। उन्हें नजदिक से देखा था उन्हें पिया था ये हमारा सोभाग्य था। उसके होश में श्वास ली है, कुछ रातें उसकी सेवा करते गुजारी थी। और ठीक वैसा ही संग साथ सन्यास की अवस्था के समय हुआ था। वही अनुभव कल दिन में जब हमने उस महिला के संग साथ किया। कितने भाग्य शाली लोग होते हो जो जीवित बुद्ध के चरणों में बैठ जाते है। पर शायद अभागे भी। क्यों वो बिना पंखों के उड़ने का आनंद ले चुके है। उनकी हवा में फले-फूले है, मदमस्त हुए है, अल्हादित हुए है। डोले हे, नाचे है, झूमें है। परंतु एक खतरा है जब वह बुद्ध चले जाते है, तब वह नाचना तो दूर वह डोल भी नहीं सकते। क्योंकि उन्हें अपने पंख खेल लेने चाहिए थे। बुद्धत्व का संग साथ मिला अब आप अपने पैरों में ताकत लाइये। उड़न भरिये। परंतु कम ही साधक ऐसा कर पाते है। बाद में जब गुरु चला जाता है। तब अंतस एक दम से खली अब न वो उड़न है। न वो मस्ती है, न आनंद है। फिर वह भ्रम का दिखावा करते रहते है। अब क्या हो सकता है। अब ये भी नहीं कह सकते की हमने तो इस जल में जीवन गुजारा है परंतु तैरना तो सिखा ही नहीं। अब उस साधक की गति धोबी के गधे के समान हो जाती है। उड़ने की तो वे कल्पना भी नहीं करते। क्योंकि उन्होंने अपने पंख नहीं फैलाये है, उड़ने की कोशिश नहीं की है, स्वयं के दम से। मैंने देखा है ऐसे अनेक संन्यासियों को जो कभी ओशो के संग साथ कैसे आसमान में उड़ते थे। लेकिन अब पड़े है अनजान अंधेरी गलियों में ‘’बहुत कठिन है डगर पनघट की....कैसे मैं भर लाऊं जमना से मटकी।
अगले दिन जब हम सुबह दुकान खोलने के लिए गये। तब मैंने पीपल के चबूतरे की और देखा तो वह एक दम से खाली था। एक वीरान मानो वहाँ से एक हंस उड़ गया ओर सूना ताल आसमान की और निहार रहा है। एक दिन पहले जो मुझे अपनी और अनायास खिंच रहा था वह अब सुना पड़ा और शांत लग रहा था। हम इतनी जल्दी की कल्पना नहीं करते है। मेरा दिल भी धक से रह गया। सोचा उस महिला को घर ले जायेगे एक दो दिन संग साथ करेंगे। कुछ खिलायेंगे पिलायेंगे। क्योंकि कल तो बहुत से साधकों की भीड़ थी। परंतु वहाँ तो एकदम से खाली मैदान था। मन की साध मन में ही रह गई।
दुकान खोली तो अंदर एक कागज का पुर्जा पड़ा हुआ था। मैंने उसे खोल कर देखा.....उस कागज के टुकड़े पर शब्द नहीं लगता था किसी ने मोती पीरो दिये थे। सच बुद्ध पुरूष के बोले हुए शब्द ही कीमती नहीं होते। उसके कागज पर लिखे शब्द भी जीवंत होते हे। उन शब्दों में होश भरा होता है। इसलिए तो आपने देखा भारत के सभी धर्मग्रंथ या शायद दुनियां के सभी धर्मों के ग्रंथों को हाथों से ही लिखा जाता था। जब से मुद्रा मशीनों से इनकी छपाई शुरू हुई प्रचार तो बहुत हुआ है। परंतु सजगता खो गई। जीवंतता खो गई।
जब भी आपने किसी महान चित्रकार या मूर्तिकार की किसी कृति को हम देखते है, तब उन रंगों, या छैनी के साथ कुछ और भी होता है। उस का होश जो उस के सौन्दर्य को चार चाँद लगाये रहा है। पल-पल दिनों महीनों जो मेहनत उस साधक ने रंग या छेनी के उपयोग के लिए उस मूर्ति या चित्र पर की है वह सजीव हो उठता है। आप उसके पास गए नहीं की वह आप को अपनी उर्जा क्षेत्र में घेर लेता है।
प्रिय स्वामी जी,
नमन, आपके दर्शन हुए, आँखों से आंख मिली, दिल से दिल मिला, उन आँखों में झाँका, उस ह्रदय की धड़कन को पिया। आप दोनों ने मुझे पहचान लिए, ह्रदय गद्द-गद्द हो गया। ऐसा निर्भार, निर्झरा मन हो गया मानो किसी सूखी प्यारी धरा पर सावन का पहला दोंगड़े की बुंद बन कर गिरी हो। जैसे की सुखा ठुंठ, परंतु पत्ते रहती पर उसका भी अपना सौन्दर्य होता है। मेरा काम पूरा हो गया। गुरु का जो भार था, जो कार्य था मेरे अचेतन में वह हो गया। अब उससे में मुक्त हो गई, अब मैं हिमालय पर जा रही हूं। आप दुःख महसूस मत महसूस करना। मैं आपके साथ ज्यादा समय नहीं गुजार पाई। इतना ही मिलना हमारा लिखा हुआ था। मैं आपकी आंखों में देख रही थी। वह प्यासी थी मेरा संग साथ चाहती थी। परंतु गुरु ये सब मुझसे नहीं चाहता था। इस लिए वो सौभाग्य नहीं बन सका। आप इस ह्रदय से मत लगना। बस आप दोनों को देख कर लगा की ओशो के हंस के जोड़े आज भी है। इतना क्या कम है एक बीज और जमीन में रोप दिया अब तो उगने कि अधिक संभावना है। इति...
धम्म शरणम् गच्छामी......
आपकी मित्र
मां अमृत साक्षी
खुशी और पीड़ा की लहर हम दोनों के चेहरे पर फैल गई। हमारी आंखों से अमृत बन आंसू बहने लगे। आंखें इतने प्रेम की बाढ़ को रोकने में असमर्थ महसूस कर रही थी। अदविता ने पत्र पढ़ा और फफक पड़ी जैसे कोई कच्ची मिट्टी बस बहाना ही ढूँढ रही थी। की कब लहर आये और उसके तटबंध तोड़ दे। जो उस पानी को बांधे हुए थे। दूर प्रकाश की किरण पीपल की उत्तुंग फुनगियों को छू रही थी। पक्षियों की ध्वनि नहीं एक विरह नाद गान गाते हुए लग रहे थे।
अचानक देखते ही देखते पीपल मौन और शांत हो गया। उसकी आभा ही बदल गई उसके पत्तों की चमक जो कल तक उदास और मायूस दिखाई दे रही थी। अब अचानक आलोकित हो गई। उसके कोमल पत्ते पर स्वर्णिम प्रकाश टूट कर बिखर रहा था। आज पीपल इतना प्रसन्न, उन्मुक्त, अल्हादित दिखाई दे रहा था। मानो उसने भी ध्यान और संग का स्नान कर लिया हो। सूर्य की पड़ती किरणें कैसे उसके पत्तों को छू-छू कैसे नाचती गाती से प्रतीत हो रही थी। सालों उसकी पूजा हुई उसे भगवान माना परंतु उसकी उदासी और मायूस को कोई तोड़ क्या हिला नहीं पाया। सालो क्या जन्मों की उसी प्यासी अंतस आत्म तक जैसे तृप्त हो गई। धरा पर ये ही सबसे बड़ा चमत्कार है। जिसे हमने अपनी आंखें के सामने घटते हुए देखा है। उसके संग एक रात किसी बुद्धत्व को प्राप्त आदमी ने गुजारी तो वह उसका बुद्धत्व को अपने प्राणों में समेट लिया। आज आप उसे देखो तो आप दंग रह जाओगे आनंद विभोर हो नाचता सा प्रतीत हो रहा है।
मैं और अदविता इस चमत्कार को देख कर आश्चर्य चकित रह गए थे। जिसे हम मनुष्य कहते है जो सृष्टि की महानतम रचना है। वह उसे पहचान नहीं पाया और एक निर्जीव से दिखने वाला वृक्ष कितना प्रज्ञावान निकला। क्यों हम चुक रहे है जीवन से? और हम खो गये है कहीं भूल भुलैया की चकाचौंध गलियों में। और मृत और अर्थ हीन के लिए चुकते जा रहा है, जीवन के प्रत्येक उस सुंदर को सजीव को हम प्राण वान और जीवंत बनता है। उस दिन के बाद से हमने उस पीपल कभी उदास नहीं दिखाई देखा। आस पास कुछ भी नहीं बदला, वहीं गाड़ियों का धुआं। वहीं दम घोटूँ वातावरण। परंतु पीपल पर अब इन बातों का कोई प्रभाव नहीं पड रहा था। वह फिर जीवंत हो गया। वह पहले की तरह बाल वत हो हंसता खिलखिलाता, लहलहाता, नाचता, अठखेलिया, करता एक उदंड शैतान बालक सा ही दिखाई देने लगा। ये विशाल निस्तब्धता अंधेरे से अंधेरे में भी एक प्रकाश पुंज बन उसे घेरे रहती थी।
परंतु शायद कोई धूप दीप जलाने वाला उसके इस रूप को देख नहीं पाया। न ही पीपल शायद ही इन लोगों से बात की इस की आस या कामना करता हो। अब देखों उसके उत्सव को उसकी जीवंतता को। न जाने कहां छूट गई उसी पीड़ा वह दर्द एक ही राम में सब बदल गया। कितना सूखद एहसास था, एक विश्वास की आप जिस मार्ग पर चल रहे हो सक सही है। गुरु अपने शिष्य पर कितनी करूणा करता है। किसी-किस रूप में किस-किसी घटना में हमारे पास अगर होश है। तो उसे महसूस कर सकते है। हमने भी देखी है उस पीपल की प्रज्ञा को। सच वह बुद्धत्व को पीता ही नहीं उसे पहचानता भी है।
आज इतना ही। नमन
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