ज्यूं मछली बिन नीर-(प्रश्नोत्तर)-ओशो
श्रद्धा और सत्य का मिथुन-(प्रवचन-सातवां)
सातवां प्रवचन; दिनांक २७ सितंबर, १९८०; श्री
रजनीश आश्रम, पूना
पहला प्रश्न: भगवान
ऐतरेय ब्राह्मण में यह सूत्र आता है:
श्रद्धया पत्नी सत्यं यजमानः। श्रद्धा सत्यं
तदित्युत्तमं मिथुनम।
श्रद्धा सत्येन मिथुने न स्वर्गाल्लोकान जयतीति।
अर्थात (जीवन-यज्ञ में) श्रद्धा पत्नी है और सत्य
यजमान। श्रद्धा और सत्य की उत्तम जोड़ी है। श्रद्धा और सत्य की जोड़ी से मनुष्य दिव्य लोकों को प्राप्त करता
है।
भगवान, इस सूत्र का आशय
समझाने की अनुकंपा करें।
आनंद मैत्रेय,
यह सूत्र अत्यंत अर्थगर्भित है। संदेह से सत्य नहीं पाया जा सकता।
संदेह से सत्य अकस्मात मिल भी जाए, तो भी तुम चूक जाओगे। संदेह की दृष्टि सत्य को भीतर प्रविष्ट ही न होने
देगी। सत्य द्वार भी खटखटाएगा तो भी तुम द्वार न खोलोगे संदेह कहेगाः "होगा
हवा का झोंका।' संदेह, परमात्मा भी
सामने खड़ा हो, तो उस पर भी प्रश्नचिन्ह लगा देगा।
जहां समस्या नहीं होती वहां संदेह समस्या बना लेता है, निर्मित कर लेता है। संदेह की एक ही कुशलता है: समस्या निर्माण करना।
समाधान उसके पास नहीं है। और किसी तरह खींचतान कर तुम कोई समाधान बना भी लो तो
तुम्हारा संदेह पुनः नयी समस्याएं निर्मित करता जाएगा।
संदेह में समस्याएं ऐसे ही लगती हैं, जैसे वृक्षों में
पत्ते लगते हैं। लाख काटो, फिर-फिर लग जाएगें। वृक्ष पर और
पत्ते घने हो जाएंगे।
संदेह का अर्थ होता है कि मैं स्वीकार करने को राजी नहीं हूं; मेरे भीतर स्वीकार भाव नहीं है; अस्वीकार, इनकार, निषेध। संदेह अर्थात नकार; नहीं। और जो व्यक्ति नहीं में जीता है वह बंद हो जाता है--द्वार दरवाजे
बंद, खिड़कियां बंद। इतना ही नहीं,छोटे-छोटे
रंध्र भी रह गए हों कहीं, छोटी छोटी संधियां भी रह गयी हों,
उनको भी संदेहशील व्यक्ति बंद कर लेता है। वह जीते जी कब्र में समा
जाता है। वह जीते जी मर जाता है। संदेह मृत्यु है। यूं चलोगे, उठोगे काम-धाम करोगे, लेकिन एक अदृश्य कब्र तुम्हें
घेरे रहेगी; सूरज से न जुड?ने देगी;
हवाओं से न जुड़ने देगी; फूलों से न जुड़ने देगी;
तारों से न जुड़ने देगी--जुड़ने ही न देगी। संदेह की प्रक्रिया है
तुम्हें तोड़ लेने की।
संदेह एक दीवाल है, सेतु नहीं; जोड़ता नहीं, तोड़ता है। जहां संदेह आया, तत्क्षण संबंध विछिन्न हो जाता है, टूट जाता है।
संदेह के गृह में तो सत्य अतिथि नहीं हो सकता, असंभव है।
प्रवेश ही नहीं मिलेगा। संदेह आतिथेय नहीं बन सकता, मेजबान
नहीं बन सकता। वह क्षमता तो श्रद्धा की है।
श्रद्धा का अर्थ विश्वास नहीं होता, ख्याल रखना। वह पहली
बात खयाल रखना, नहीं तो चूक हो जाएगी। विश्वास तो संदेह के
विपरीत है और श्रद्धा विश्वास और संदेह दोनों के अतीत है। श्रद्धा बात ही और है।
विश्वास तो सिर्फ संदेह को छिपाना है, ढांकना है। जैसे घाव
तो है, लेकिन सुंदर वस्त्रों से ढांक लिया है। औरों को दिखाई
नहीं पड़ेगा, मगर तुम कैसे भूलोगे? तुम
नग्न हो, तुमने वस्त्र ओढ़ लिए; औरों के
लिए नग्न न रहे, मगर अपने लिए तो नग्न ही हो। हर व्यक्ति
अपने वस्त्रों में नग्न है। कैसे तुम यह बात भुला सकते हो कि तुम वस्त्रों के भीतर
नग्न नहीं हो? यह तो असंभव है। हां, औरों
के लिए तुम नग्न नहीं हो, क्योंकि तुम्हारे और औरों के बीच
वस्त्र आ गए। मगर तुम्हारे स्वयं के लिए तो तुम नग्न ही हो। तुम्हारे लिए तो
वस्त्र बाहर हैं। तुम्हारी नग्नता ज्यादा करीब है; वस्त्र
नग्नता के बाहर हैं, दूर हैं।
विश्वास वस्त्रों जैसा है। तुम्हारा संदेह को ढांक लेगा। औरों को
लगेगा--तुम बड़े श्रद्धालु!
ये मंदिरों में घंटे बजाते हुए लोग, ये पाठ-पूजा करते हुए
लोग, ये मस्जिद में नमाजें पढ़ते हुए लोग, ये गिरजाघरों में, गरुद्वारों में जय-जयकार करते हुए
लोग--ये सब विश्वासी हैं। काश, पृथ्वी पर इतनी श्रद्धा से
भरे लोग होते तो ऐसी विक्षिप्त, ऐसी रुग्ण, ऐसी सड़ी-गली मनुष्यता पैदा होती? इतनी श्रद्धा होती
तो इतने सत्य के फूल खिलते! अनंत फूल खिलते। फूलों से ही पृथ्वी भर जाती, सुगंध ही सुगंध से भर जाती। पृथ्वी स्वर्ग हो जाती।
लेकिन देखते हो, नमाज पढ़ने आदमी मसजिद जाता है और
कहावत तो तुमने सुनी है, उसको चरितार्थ करता है--मुंह में
राम, बगल में छुरी। मुरादाबाद की इस ईदगाह में जहां अभी-अभी
हिंदू मुस्लिम दंगा हुआ और कोई डेढ़ सौ लोग मारे गए, नमाज
पढ़ने लोग गए थे ईदगाह में। छुरे और बंदूकें किसलिए ले गए थे? फिर यह नमाज कैसी जो छुरे-बंदूकों के साथ हो रही हो? यह दंगा-फसाद करने की तैयारी थी। नमाज का क्या मूल्य रह गया? ऊपर के वस्त्र बड़े झीने हैं, भीतर की असलियत बहुत
गहरी है। हिंदु लड़ते हैं, मस्जिदें जलाते हैं। मुसलमान लड़ते
हैं, मंदिर जलाते हैं, मूर्तियां तोड़ते
हैं। कुरान जलती है, गीता जलती है, बाइबिल
जलती है। सारी पृथ्वी तथाकथित धार्मिक लोगों के कारण इतनी पीड़ित है कि आश्चर्य
होता है हम कब जागेंगे, कब पुनर्विचार करेंगे?
मनुष्य के इतिहास में जितना पाप धर्मों के नाम पर हुआ है, किसी और चीज के नाम पर नहीं हुआ। राजनीति भी पिछड़ जाती है; धर्म ने वहां भी बाजी मार ली है।
निश्चित ही ये विश्वासी लोग हैं, लेकिन श्रद्धालु
नहीं! श्रद्धालु हिंदु और श्रद्धालु मुसलमान और श्रद्धालु ईसाई और श्रद्धालु जैन
में कोई भेद नहीं हो सकता। श्रद्धा का रंग एक, रूप एक,
स्वाद एक। श्रद्धा एक ही अमृत है। जिसने पीया, फिर वह कौन है कोई फर्क नहीं पड़ता। उस एक परमात्मा से जोड़ देती है। उस एक
सत्य से जोड़ देती है। विश्वास जोड़ते नहीं, तोड़ते हैं। इसलिए
विश्वास केवल संदेह को छिपाने वाले वस्त्र हैं। विश्वास धोखा है। विश्वास को
श्रद्धा मत समझ लेना।
वही भूल हो गयी है। हमने विश्वास को श्रद्धा समझ लिया है। हम हर बच्चे
को विश्वास सिखा रहे हैं। बच्चा पैदा नहीं हुआ कि बस धार्मिक संस्कार शुरू हो जाते
हैं। धार्मिक संस्कारों का क्या अर्थ है तुम्हारे? यही कि थोपो इस पर
विश्वास--बनाओ इसे हिंदु, बनाओ जैन, बनाओ
बौद्ध। इसे कुछ बना कर रहो। तुम जो हो वही इसको बना कर रहो। और कैसा आश्चर्य है,
तुमने कभी यह भी न सोचा कि तुम जिंदगी भर हिंदु थे, जैन थे, बौद्ध थे, तुमने क्या
खाक पा लिया है! तुम्हारे हाथों में क्या है? तुम्हारे
प्राणों में क्या है? नहीं कोई दीया जलता दिखाई पड़ता। नहीं
तुम्हारे जीवन में कोई उत्सव है। कम से कम इस बच्चे को तो न बिगाड़ो, इसे तो
सावधान करो। इसे तो कहो कि मैं जिंदगी भर एक विश्वासी की तरह जीया, कुछ भी पाया नहीं। तू विश्वासी की तरह मत जीना। तू श्रद्धा की तलाश कर। हम
तो न पा सके। हमने तो जिंदगी गंवायी, मगर तू मत गंवा देना।
मगर उलटा मजा है, मां-बाप थोपते हैं आपने आग्रहों
को बच्चों के ऊपर। धार्मिक शिक्षा हो जाए। मुसलमान बच्चा पैदा होता है, यहूदी बच्चा पैदा होता है--खतना करो इसका, जल्दी
खतना करो! क्योंकि कहीं जवान यह हो जाए और इनकार करने लगे। और जवान होगा तो इनकार
करेगा ही, कि अगर परमात्मा को खतना ही करके भेजना था तो उसने
खतना कर ही दिया होता। तुम्हारे हाथ में
खतना छोड़ा होता? जो भी जरूरी था शरीर के लिए, उसने करके भेजा है। जैसा उसने शरीर बनाया है, इसमें
काटपीट करने का तुम्हें क्या हक है? जवान हो जाएगा तो इनकार
करेगा। जल्दी से खतना कर दो, देर न करो। जल्दी से जनेऊ पहना
दो, यज्ञोपवीत संस्कार कर दो।
क्योंकि बड़ा हो जाएगा तो संदेह उठाने लगेगा, प्रश्न खड़े करने लगेगा। फिर सुलझाना मुश्किल होगा। अभी ठूंस दो। अभी इसको
कुछ होश नहीं है। अभी इसके सामने सवाल नहीं हैं। अभी यह असहाय है, तुम पर निर्भर है। अभी तुम जिलाओ तो जीएगा, तुम मारो
तो मर जाएगा। अभी तुम्हारी मुट्ठी में है। कहीं अपने पैरों पर खड़ा हो गया और कहने
लगे कि "क्यों बांधे यह रस्सी नहीं बांधता, मुझे इसमें
कुछ दिखाई नहीं पड़ता। क्यों तुम्हारे मंदिरों में जाकर सिर झुकाऊं? मुझे पत्थर दिखाई पड़ते हैं। फिर मुश्किल हो जाएगी।
इसलिए सारे लोग बड़े आतुर होते हैं--जल्दी से धर्म की शिक्षा दो! और
धर्म की शिक्षा पर क्या शिक्षा देते हैं? शिक्षा यही कि कुछ
अंधविश्वास थोप दो--ऐसे थोप दो कि वे खून में मिल जाएं, मांस
मज्जा में सम्मिलित हो जाएं। बच्चा उनके साथ ही बड़ा हो, उसको
याद भी न रहे कि कब किस घड़ी में ये विश्वास उसके भीतर डाल दिए गए। जब वह बड़ा हो,
तो पाए कि ये विश्वास के साथ ही बड़ा हुआ है। जैसे ये विश्वास लेकर
ही आया हो परमात्मा के यहां से।
अगर विश्वास और संदेह में चुनना हो तो मैं कहूंगाः संदेह चुनना।
क्योंकि संदेह स्वाभाविक है, विश्वास अस्वाभाविक है। और मेरा
यह भी अनुभव है कि अगर कोई व्यक्ति ईमानदारी से संदेह चुने तो आज नहीं कल श्रद्धा
को खोजना ही पड़ेगा, क्योंकि संदेह के साथ जीना असंभव है।
संदेह यूं है जैसे छाती में तीर चुभा हो। उसे निकालना ही होगा। लेकिन विश्वास
मलहम-पट्टी कर देता है। विश्वास खतरनाक है--संदेह से भी ज्यादा खतरनाक है। विश्वास
से सावधान। विश्वास, तीर भी चुभा रहता है,मलहम-पट्टी भी कर देता है। क्लोराफार्म की तरह है विश्वास। तुम सड़ते रहते
हो और तुम्हें बेहोश रखता है। तुम्हें भरोसा दिलाए रखता है कि सब ठीक है, कुछ गलत नहीं है, सब ठीक है। इस सब ठीक होने की
भ्रांति में, जो गलत है तुम उसके भी आदी हो जाते हो।
धीरे-धीरे तुम घावों के भी आदी हो। तुम उन्हें जीवन का अनिवार्य अंग मान लेते हो।
मैं चाहता हूं संदेह को चुनना, अगर विश्वास और संदेह
में चुनना हो। क्योंकि संदेह कम से कम परमात्मा का दिया हुआ है। और परमात्मा जो भी
देता है, तुम जो भी जन्म के साथ लेकर आए हो, उसकी जरूर कोई सार्थकता है। संदेह से सत्य तो कभी नहीं मिलेगा, लेकिन संदेह में कोई जी नहीं सकता। संदेह में फांसी लग जाती है। और फांसी
का फंदा कौन नहीं तोड़ना चाहेगा? फांसी का फंदा तोड़ा तुमने और
श्रद्धा का आविर्भाव हुआ। संदेह के नीचे दबी है श्रद्धा और तुम संदेह के ऊपर थोप
रहे हो विश्वास। खयाल रखना, तुम श्रद्धा से और भी दूर हो गए।
एक पर्त तो संदेह की थी, एक चट्टान तो संदेह की थी, तुमने एक चट्टान और रख ली--विश्वास की। अब श्रद्धा और भी दूर हो गयी। अब
खुदाई और भी करनी पड़ेगी।
एक बहुत बड़े संगीतज्ञ वेगनर के पास जब भी कोई संगीत सीखने आता था, वह पहली बात यही पूछता था कि तुमने कहीं और संगीत नहीं सीखा? अगर सीखा हो तो मेरी फीस दुगनी होगी। अगर बिलकुल नहीं सीखा है कहीं,
क ख ग से शुरू करना है, तो फिर कोई बात नहीं।
फिर उतनी ही फीस लूंगा जितनी मैं सभी से लेता हूं। फिर दुगनी नहीं होगी। स्वभावतः
किसी ने आठ साल दस साल संगीत का अभ्यास किया था, तो वह कहता,
"आप उल्टी बातें कर रहे हैं। हम दस साल मेहनत करके आए हैं,
संगीत सीख कर आए हैं। हम से आपको कम फीस लेनी चाहिए। जो क ख ग से
शुरू करेंगे उनसे ज्यादा फीस लेनी चाहिए।
वेगनर कहता कि मेरा अनुभव कुछ और है। मेरा अनुभव यह है कि तुम जो सीख
कर आए हो पहले मुझे वह भुलाना पड़ेगा। तब काम शुरू होगा। काम तो क ख ग से ही शुरू
होगा। पहले तुम्हारी स्लेट की सफाई करनी पड़ेगी, फिर लिखावट हो सकेगी।
यह मेरा भी अनुभव है। मैं वेगनर से राजी हूं। वह ठीक कहता था। वह
पश्चिम के बहुत बड़े संगीतज्ञों में से एक था। उसने बात पते की कही है, गहरी कही है। मेरा भी यह अनुभव है। जो विश्वासी मेरे पास आ जाते हैं उनके
साथ उतनी मेहनत नहीं करनी पड़ती, क्योंकि उनके पास एक ही
चट्टान है जिसको तोड़ना है। विश्वासी के पास दोहरी चट्टानें हैं। पहले उसका विश्वास
तोड़ो और विश्वास से वह चिपटता है, क्योंकि विश्वास में
सांत्वना है। संदेह में तो कोई सांत्वना है ही नहीं। प्रत्येक व्यक्ति संदेह से
मुक्त होना चाहता है। संदेह स्वाभाविक है, संदेह से मुक्त
होने की आकांक्षा स्वाभाविक है। विश्वास अस्वाभाविक है, आरोपित
है। और इसलिए विश्वास से मुक्त होने की कोई आकांक्षा भी नहीं है। क्योंकि कभी
परमात्मा ने सोचा भी नहीं था कि तुम विश्वास में पड़ जाओगे। विश्वास पंडितों की,
पुरोहितों की ईजाद है, बेईमानों की ईजाद है,
शोषकों की ईजाद है, जो तुम्हारा लहू चूस रहे
हैं उनकी ईजाद है।
विश्वास झूठा सिक्का है; श्रद्धा के नाम से चलता है, लेकिन झूठा सिक्का है।
विश्वास का अर्थ होता है: उधार बासा। और सत्य कभी बासा हो सकता है, उधार हो सकता है? विश्वास तो एसे है जैसे कभी-कभी
किताबों में दबे हुए गुलाब के फूल मिल जाते हैं--सूखे, मुर्दा।
न उनमें गुलाब ही गंध होती है, न रंग होता है। विश्वास ऐसा
है-- किताबों में दबा हुआ फूल। और श्रद्धा ऐसी है--अभी झाड़ी पर खिला हुआ फूल। अभी
रसधार बह रही है उसमें अभी जीवंत है। अभी प्राण है उसमें। अभी सूरज की किरणें
प्रवेश करती हैं। अभी हवाएं उसे दुलारती हैं। अभी वह सांस लेता है। अभी उसके हृदय
में धड़कन है। अभी परमात्मा उसके भीतर विराजमान है।
श्रद्धा और विश्वास में वैसा ही फर्क है जैसे कागजी फूलों में और असली
फूलों में; झूठे सिक्कों में और असली सिक्कों में। विश्वास में
मत पड़ जाना। इसलिए मैं चाहता हूं: सौभाग्य का दिन होगा वह, जिस
दिन हम अपने बच्चों को विश्वास देना बंद कर देंगे। हमें वस्तुतः अपने बच्चों को
संदेह पर धार रखना सिखाना चाहिए। संदेह की तलवार पर धार रखना सिखाना चाहिए। संदेह
की तलवार पर धार रखो। संदेह का उपयोग करो ताकि कोई विश्वास तुम्हें पकड़ न सके।
संदेह को सजग रखो, ताकि किसी विश्वास के जाल में तुम उलझ न
जाओ।
और संदेह की एक खूबी है। खूबी यह है कि संदेह तुम्हें बैचेनी में
रखेगा, अशांत रखेगा, परेशान रखेगा।
उसमें कोई सांत्वना नहीं है। उसमें कोई सुरक्षा नहीं है कांटे पर कांटे पर जैसे
कोई सोया हो, करवट भी नहीं बदल सकते।
विश्वास तो बड़ी सुखद शैया दे देता है। जी भर कर सोओ। घोड़े बेच कर सोओ
जागने का कोई सवाल ही नहीं है। विश्वास मूर्च्छित करता है। संदेह सजग रखता है।
लेकिन संदेह से सत्य नहीं मिलता, पर संदेह से एक काम होता है, वह काम है कि
संदेह तुम्हें अपने से मुक्त करने के लिए सदा उत्प्रेरित करता है। संदेह करता है
कि मेरे पार जाओ। संदेह के पार जाना ही होगा।
तुम जरा सोचो तो तुम मान कर बैठ गए हो कि आत्मा अमर है; जाना नहीं। यह तुम्हारा मानना है कि आत्मा अमर है। बस आत्मा को अमर मान
लिया तो अब आत्मा का अनुभव करने की क्या जरूरत रही। मान लिया सो बात खत्म हो गयी।
जब मान ही लिया तो अब खोजना क्या है? हटा दो इस विश्वास को
और तब प्राणों में एक तड़फ उठेगी, एक बैचेनी, एक तूफान, एक आंधी, एक
झंझावात। सब कंप जाएगा। मौत द्वार पर दस्तक दे रही है, हर पल
आ सकती है, कभी भी आ सकती है। और आत्मा है भी या नहीं,
यह भी पता नहीं, अमरता की तो बात दूर। मौत के
बाद होगी या नहीं, यह तो सवाल नहीं; अभी
भी है या नहीं यह भी संदिग्ध है। कैसे तुम बैठे रहोगे इस अंगारे पर। इस ज्वालामुखी
पर, धधकते ज्वालामुखी पर ज्यादा देर नहीं बैठ सकोगे। यह
संदेह तुम्हें अन्वेषण में ले जाएगा। यह संदेह ही तुम्हें खोज में गतिमान करेगा।
और उसी खोज का अंतिम फल श्रद्धा है।
श्रद्धा है जानना, मानना नहीं। श्रद्धा है अनुभव।
श्रद्धा है ध्यान, ज्ञान नहीं। ज्ञान विश्वास पैदा कर देता
है। संदेह है अज्ञान। विश्वास है ज्ञान--उधार बासा, शास्त्रीय,
तोतारटंत। और श्रद्धा है स्वानुभव, साक्षात्कार,
सत्य के साथ मिलन।
संदेह से श्रद्धा को खोजो। श्रद्धा तुम्हें सत्य से मिला देगी। यह
सम्यक सूत्र है। संदेह को सीढ़ी बनाओ--श्रद्धा के मंदिर तक पहुंचने के लिए। तलवार
की धार पर चलना जै। मगर कोई उपाय नहीं है, कोई और सस्ता मार्ग
नहीं है। चलना ही होगा तलवार की धार पर। यूं ही निखार आता है। यूं ही जीवन में
ऊर्जा का आविर्भाव होता है। चुनौतियों में ही तो तुम जागते हो। संदेह चुनौतियां
देता है।
संदेह का उपयोग करना सीखो। संदेह को दबाओ मत। मैं चाहता हूं कि तुम
संदेह से जरूर मुक्त होओ, लेकिन दबा कर कोई कभी मुक्त नहीं हुआ है। जिसको तुम
दबा लोगे, उसे बार बार दबाना पड़ेगा। उससे कभी मुक्ति नहीं
होगी। वह भीतर बैठा रहेगा, वह भीतर पड़ा रहेगा। लाख दबाओ,
फिर अवसर पाकर निकल आएगा। जैसे कोई बीज को जमीन में दबा दे, वर्षा आएगी, फिर अंकुरण हो जाएगा। लाख दबाए चले जाओ,
फिर-फिर अंकुर आएंगे। फिर-फिर अवसर आएंगे। संदेह फिर खड़ा हो जाएगा।
संदेह दबाया नहीं जा सकता। हां, संदेह मिटाया जा सकता
है। और मिटाने का उपाय है: संदेह को जीओ। संदेह को उसकी समग्रता से जीओ। डरना क्या
है? भय क्या है? संदेह की सीढ़ी पूरी
तरह चलो। और तुम चकित होओगे यह जानकर कि संदेह श्रद्धा तक ले आता है। लोगों ने
तुमसे उल्टी बात कही है। तुम्हें अब तक
यही समझाया गया है कि संदेह से तुम कभी श्रद्धा तक नहीं पहुंचोगे। यह बात गलत है।
मैं पहुंचा हूं संदेह से ही श्रद्धा तक। इसलिए अपने अनुभव से कहता हूं कि यह बात
बुनियादी रूप से गलत है। संदेह के अतिरिक्त कोई कभी श्रद्धा तक नहीं पहुंचा है।
हां, यह जरूर सच है कि संदेह से कोई सत्य नहीं तक पहुंचता
है। संदेह श्रद्धा तक ले आता है, बस। और जो श्रद्धा पर आ गयी
उसकी भूमिका तैयार है। सत्य तक जाना ही नहीं होता, सत्य खुद
आता है। तुम्हारा काम है संदेह से श्रद्धा तक आ जाओ, फिर
प्रतीक्षा करो। फिर धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करो। सत्य खुद आएगा।
कबीर ने कहा है: मैं खोज-खोज कर थक गया परमात्मा को, नहीं मिला नहीं मिला। परमात्मा तुम्हारी खोज से नहीं मिलता। तुम खोजोगे भी
कहा? किस दिशा में? काबा में कि काशी
में कि कैलाश में, कहां खोजोगे? उसका
कोई पता भी तो नहीं, उसका कोई ठिकाना भी तो नहीं। नाम-धाम भी
तो नहीं। जाओगे कहां? कहां खोजोगे, क्या
करोगे? शास्त्रों में भटकोगे और शास्त्रों में भटकना बीहड़
जंगलों में भटकना है, जहां भटक गए तो निकलना मुश्किल हो जाता
है। गीता में खोजोगे, कुरान में खोजोगे, बाइबिल में खोजोगे और भटक जाओगे, अटक जाओगे। सत्य को
खोजा नहीं जा सकता।
कबीर ठीक कहते हैं कि मैंने बहुत खोजा, नहीं पाया। मगर
खोजते-खोजते एक बात घट गयी: मैं खो गया। उसे तो नहीं पाया, लेकिन
मैं खो गया। और जिस दिन मैं खो गया, एक अपूर्व घटना घटी। उस
दिन से परमात्मा मेरे पीछे लगा फिरता है। हरि लागे पाछे फिरत कहत कबीर कबीर! हरि
लागे पाछे फिरत...पीछे पीछे हरि घूमते हैं और मेरे और कहते हैं--कबीर, कबीर, कहां जाते! अरे सुनो भी, रुको भी! अब मुझे कुछ पड़ी नहीं--कबीर कहते हैं। अब मैं जानता हूं कि मैं
मिट गया। भूमिका तैयार हो गयी।
जिस दिन संदेह मिटता है उस दिन मैं भी मिट जाता है। संदेह और मैं का
संग-साथ है। श्रद्धा और मैं का कोई संग-साथ नहीं है। संदेह है अहंकार, श्रद्धा है निरहंकारिता। जहां श्रद्धा आयी, भूमिका
बन गयी। फिर परमात्मा स्वयं आता है, सत्य स्वयं आता है।
इसलिए यह ऐतरेय ब्राह्मण का सूत्र बड़ा प्यारा है: श्रद्धा पत्नी सत्यं
यजमान:। श्रद्धा को स्त्री कहा। ठीक ही कहा। ये काव्यात्मक प्रतीक हैं। सत्य तो है
पुरुष, श्रद्धा है स्त्री। इसलिए सत्य को यजमान कहा, अतिथि कहा। और मेजबान तो कोई स्त्री ही हो सकती है; पुरुष
की वह क्षमता नहीं, क्योंकि पुरुष की प्रेम ही पात्रता नहीं।
श्रद्धा है प्रेम की पराकाष्ठा। श्रद्धा स्त्रैण है। इसलिए जब कभी पुरुष में भी
घटती है तो उसके व्यक्तित्व में भी स्त्रैण कोमलता आ जाती है।
तुम देखते हो, बुद्ध, महावीर, जैनों के चौबीस तीर्थंकर, राम, कृष्ण, इनमें से किसी की हमने दाढ़ी-मूंछ नहीं बनायी
है। तुमने कोई प्रतिमा देखी जिसमें राम और कृष्ण की दाढ़ी मूंछ हों? तुमने कोई प्रतिमा देखी जिसमें राम और कृष्ण की दाढ़ी मूंछ हों? या बुद्ध की, या महावीर की? और
क्या तुम सोचते हो, सब मुखन्नस थे, कि
किसी को दाढ़ी मूंछ थी ही नहीं? एकाध हो भी सकता है कि
मुखन्नस हो, मगर चौबीस के चौबीस जैनों के तीर्थंकर बुद्ध भी
राम भी, कृष्ण भी, सारे अवतार! इनकी
दाढ़ी "मूंछ क्या हुई? और यूं भी नहीं कि सबके बचपन की
तस्वीरें हैं ये। बुद्ध बयासी वर्ष जीए, महावीर अस्सी वर्ष
जीए। अस्सी वर्ष तक कम से कम दाढ़ी मूंछ तो निकल ही आयी होगी मगर क्या हुआ? हुआ यह कि हमने दाढ़ी मूंछ अंकित नहीं की। हम इतिहास का उतना भरोसा नहीं करते।
इतिहास दो कौड़ी ही चीज है। हम समय का ही भरोसा नहीं करते, इतिहास
का क्या भरोसा करें? हम कालातीत पर दृष्टि रखते हैं। हम,
इतिहास से भी बड़ा कुछ सत्य है, उस पर हमारी
नजर है। इतिहास में तथ्य होते हैं, सत्य नहीं होते। सत्य तो
बड़ी और बात है। सत्य तो काव्य में होता है।
ये काव्यात्मक प्रतिमाएं हैं। यह दाढ़ी मूंछ हमने हटा दी। दाढ़ी मूंछ तो
रही, निश्चित रहीं, इसमें कोई शक-शुबा का कारण नहीं
है। लेकिन हमने मूर्तियों से हटा दी। हटा दी इसलिए कि जब ये व्यक्ति परम श्रद्धा
को उपलब्ध हुए तो इनके व्यक्तित्व में एक तरह की स्त्रैणता आ गयी। उस स्त्रैणता को
कैसे हम सांकेतिक करें, किस तरह संकेत दें? पत्थर की प्रतिमा में कैसे लिखें इस बात को कि इनके व्यक्तित्व में
स्त्रैण कोमलता आ गयी थी, श्रद्धा पराकाष्ठा को पहुंच गयी थी?
दाढ़ी मूंछ हटा कर हमने वह काम किया है।
फ्रेड्रिक नीत्शे ने अपनी बहुत सी-महत्वपूर्ण बातों में एक बात यह भी
कही है... हालांकि उसने तो आलोचना के लिए कही है, खंडन के लिए कही है।
वह कोई धार्मिक व्यक्ति नहीं था, नास्तिक था। उसने ही यह
प्रसिद्ध सूत्र दिया है इस सदी को कि ईश्वर मर चुका है। यद्यपि उसने आलोचना में यह
बात कही है, लेकिन मैं मानता हूं इसमें थोड़ी सचाई है। मैं तो
प्रशंसा में मानता हूं इस बात को। मेरी व्याख्या और है। उसने कहा है कि बुद्ध और
जीसस स्त्रैण हैं और उन्होंने सारी मनुष्यता को स्त्रैण कर दिया। उसने तो निंदा के
लिए कहा है। वह उसी तरह कहा है, जैसे तुम किसी को कह देते
हो--नामर्द, स्त्रैण। तुम तो निंदा के लिए, किसी को गाली देना चाहते हो, तब यह कहते हो। ऐसा ही
उसने कहा है, क्योंकि उसके लिए पुरुष की जो पुरुषता है,
जो कठोरता है, उसके प्रति बड़ा समादर है।
उसने लिखा है: मैंने अपने जीवन में जो सुंदरतम अनुभव किया है, जो सबसे सुंदर मैंने दृश्य देखा है, वह सूर्योदय का
नहीं है, सूर्यास्त का नहीं है, चांदत्तारों
का नहीं है, किसी सुंदर स्त्री का नहीं है, गुलाब के फूलों का नहीं है, कमल के फूलों का नहीं
है--वह सुंदर दृश्य क्या है? वह सुंदर दृश्य है--उसे कहा--एक
सुबह सैनिकों की एक टुकड़ी अपनी चमकती हुई संगीनें लेकर कवायद कर रही थी। सूरज की
धूप में संगीनों की चमक, जूतों की खटाखट आवाज, लयबद्ध, सैनिकों का वह प्रखर रूप! वह मेरे मन को भा
गया है। उससे ज्यादा सुंदर दृश्य मैंने कभी दूसरा नहीं देखा है। अब जिस आदमी के
लिए यह सौंदर्य है--संगीनों ही धूप में चमक, सिपाहियों के
बूटों की खनक, सिपाहियों के अकड़े हुए शरीर और उनकी कवायद में
जिसको संगीत सुनाई पड़ रहा है, वीणा में नहीं, सितार में नहीं, पिआनो में नहीं, बांसुरी में नहीं--जूतों की आवाज में जिसे संगीत सुनाई पड़ रहा है, लयबद्धता जिसे पहली बार अनुभव हुई है--उस आदमी के लिए जीसस और बुद्ध को
स्त्रैण कहने का मतलब साफ है। वह यह कह रहा है कि इन्होंने मनुष्य को बरबाद कर
दिया। इन्होंने पुरुष जाति को नपुंसक कर दिया। इन्होंने प्रेम की शिक्षा
दे-देकर--अहिंसा, प्रेम, क्षमा,
अक्रोध, अपरिग्रह--आदमी को मार ही डाला। उसकी
सारी जीवन ऊर्जा नष्ट कर दी। उसका सारा अभियान खंडित कर दिया।
नीत्शे तो यह निंदा के लिए कह रहा है, लेकिन मैं इसमें सत्य
का एक कण पाता हूं। वह एक कण यह है कि जरूर जीसस और बुद्ध के व्यक्तित्व में एक
स्त्रैणता है, एक नाजुकता है, फूलों
जैसी नाजुकता। वह अपरिहार्य है। जब श्रद्धा पूर्ण होती है तो पुरुष मिट जाता है,
क्योंकि पुरुषता मिट जाती है, कठोरता मिट जाती
है, आक्रमक भाव चला जाता है। ग्राहक भाव पैदा होता है,
ग्रहणशीलता पैदा होती है। स्त्रैण भी एक प्रतीक है।
तुमने ख्याल किया, कोई स्त्री किसी पुरुष के पीछे
नहीं भागती। और अगर भागे तो पुरुष फिर बिलकुल ही भाग खड़ा होगा। उस स्त्री से कोई
भी पुरुष बचेगा, जो उसका पीछा करे। स्त्री कभी किसी पुरुष से
प्रेम का निवेदन भी नहीं करती। पूरी मनुष्य-जाति के इतिहास में किसी स्त्री ने कभी
किसी पुरुष से प्रेम-निवेदन नहीं किया। ऐसा नहीं कि स्त्री को प्रेम अनुभव नहीं
होता; पुरुष से ज्यादा अनुभव होता है। पुरुष का अनुभव प्रेम
का बहुत छोटा है, आंशिक है। स्त्री का अनुभव प्रेम का बहुत
बड़ा है और बहुत समग्र है। मगर निवेदन नहीं करती, क्योंकि
निवेदन में थोड़ा आक्रमण है। "मैं तुमसे प्रेम करता हूं--यह बात कहना भी
आक्रमण है। यह एक तरह का आरोपण है। यह एक तरह की जबरदस्ती है। यह काम पुरुष ही कर
सकता है। यह पुरुषों को ही करना पड़ता है। यह निवेदन पुरुष को ही करना पड़ता है।
इसलिए हर स्त्री अपने पति को कहती सुनी जाती है कि "कोई मैं
तुम्हारे पीछे नहीं पड़ी थी, तुम ही मेरे पीछे पड़े थे। तुम्हीं लिखते थे प्रेम
पत्र। वह संभाल कर रखती है प्रेम पत्र, वक्त आने पर दिखा
देती है कि ये देख लो, क्या-क्या तुमने लिखा था।और तुम ही
मेरे बाप के चरण छूते थे आ-आकर। और तुमने ही चाहा था, कोई
मैं तुम्हारे पीछे नहीं पड़ी थी।
ऐसे मुल्ला नसरुद्दीन से उसकी पत्नी एक सुबह-ही सुबह कह रही थी। बस
चाय की टेबल पर शुरू हो जाती है कथा। चाय क्या है--श्री गणेशाय नमः! बस फिर कथा
शुरू। वहीं से शुरू हो गया। और मुल्ला के मुंह से निकल गया कि तूने मेरी जिंदगी
बरबाद कर दी। बस स्त्री तुनक गयी। उसने कहा कि मैं तुम्हारे पीछे नहीं पड़ी थी। मैं
तुम्हारे घर नहीं आयी थी। मैंने तुम्हारे बाप की खुशामद नहीं की थी। तुम्हीं मेरे
बाप के पास आए थे। तुम्हीं हाथ जोड़े फिरते थे। तुम्हीं चिट्ठियां लिखते थे।
तुम्हीं संदेश भेजते थे। तुम्हीं रास्ते में खड़े होकर सीटियां बजाते थे। किसने गाए
थे वे गीत मेरी खिड़की के पास?
मुल्ला ने ठीक कहा, "ठीक है। मैं स्वीकार करता
हूं कि यह बात सच है। मगर उसी तरह सच है जैसे कि चूहे को पकड़ने के लिए चूहेदानी तो
बैठी रहती है, कोई चूहों के पीछे नहीं दौड़ती। चूहे खुद ही
मूरख उसमें फंस जाते हैं। मैं ही फंसा यह सच है।'
मगर चूहेदानी बैठी रहती है, रस्ता देखती रहती है
कि आओ। इंतजाम सब कर देती है चूहादानी। रोटी के टुकड़े पड़े हैं, मक्खन पड़ा है, चीज पड़ा है, मिठाई
रखी है। सब इंतजाम है। आओ। और तुमने देखा, चूहेदानी की एक
खूबी होती है, उसमें भीतर आने का उपाय होता है, बाहर जाने का उपाय नहीं होता है। आ गए कि आ गए। आए तो आए ही क्यों?
अब वह जो भीतर आ गया, इस ख्याल में था कि बाहर
जाने का रास्ता भी होगा। बाहर जाने का रास्ता ही नहीं होता।
मजाक एक तरफ, लेकिन पुरुष आक्रमक होता है, वह
हमला करता है। प्रेम भी करे तो भी उस प्रेम में उसकी आक्रमकता होती है। यह पुरुष
का स्वभाव है। इसमें कुछ कसूर नहीं है। स्त्री अनाक्रमक होती है, ग्रहणशील होती है, स्वागत करती है, अंगीकार करती है। लेकिन उसका बुलावा भी आवाज में नहीं दिया जाता
है--चुपचाप, मौन में, इशारों में। सच
तो यह है कि वह नहीं-नहीं ही कहे चली जाती है।
सारी दुनिया के प्रेमियों का अनुभव है कि स्त्री के नहीं पर भरोसा मत
करना। उसकी नहीं में हां छिपी होती है। जरा गौर से खोदना, कुरेदना। तुम उसकी नहीं में हां पाओगे।
सेठ चंदूलाल मारवाड़ी एक स्त्री के प्रेम में थे। एक दिन बहुत उदास
बैठे थे। मुल्ला नसरुद्दीन, उनके मित्र ने पूछा, क्या हो
गया, इतने क्यों विषाद में पड़े हो? क्या
लुट गया?
चंदूलाल ने कहा कि मैं जिस स्त्री के प्रति आशा लगाए बैठा था, वह सब खंडित हो गयी।
मुल्ला ने कहा, अरे इतनी जल्दी निर्णय न लो। स्त्री लाख नहीं कहे,
उसका मतलब हां होता है। तुम घबड़ाओ मत। तुम तो पूछे ही चले जाओ,
कहे ही चले जाओ।'
चंदूलाल ने कहा, "नहीं कहती तो ठीक था।उसने
नहीं नहीं कहा।'
तो मुल्ला नसरुद्दीन कहा, उसने ऐसा क्या कह
दिया फिर? या तो नहीं कहेगी या हां कहेगी।'
अरे--उसने कहा--न उसने नहीं कहा न हां कहा। कहने लगी--अरे मर्दुए, जाकर अपनी शक्ल आईने में देख! अब इसमें से मैं क्या समझूं? तुम तो कहते हो नहीं कहे तो हां समझो, नहीं कहती तो
मैं भी हां समझता। हां कहती तो भी हां समझता। लेकिन न नहीं कहा न हां कहा। कहने
लगी कि जा और अपनी शक्ल आईने में देख। अब इसमें से मैं क्या समझूं? नहीं कहती तब तो कुछ बात थी, तो उसमें से हां निकाल
लेते।
स्त्री नहीं कहती है तो वह भी स्वीकार है। अनामक्रता इतनी होती है कि
वह हां भी भरे तो भी अशोभन मालूम होता है। उसकी लाज, उसकी लज्जा, उसका संकोच हां भी नहीं भरने देता। वह भी थोड़ा अभद्र मालूम होता है। वह
नहीं ही कहती है, लेकिन इशारों से हां कहती है। स्वीकार है
उसे। तुम उसके चेहरे पर, उसकी भावभंगिमा में पढ़ सकते हो कि
हां। लेकिन ओंठों से नहीं कहेगी। हां कहना भी थोड़ा सा आक्रमण है, जल्दी है।
सत्य के प्रति व्यक्ति को स्त्रैण होना होता है--ग्राहक, ग्रहणशील। द्वार खुले हैं। बंदनवार लगा है। स्वागतम् लिखा है। हार्दिक
स्वागतम् है। सत्य आए तो प्राणों में ले लेने की तैयारी है। न आए तो प्रतीक्षा की
तैयारी है। धैर्य होता है, प्रतीक्षा होती है। और एक मौन
निमंत्रण होता है।
इसलिए ठीक कहा ऐतरेय ब्राह्मण ने कि श्रद्धा पत्नी, सत्यं यजमानः। जीवन-यज्ञ में श्रद्धा पत्नी है और सत्य यजमान।
और यह जीवन यज्ञ है। यह पूरा जीवन यज्ञ है। यह आग जला कर और घी फेंकना
और गेहूं फेंकना और चावल फेंकना, यह पागलपन है। यह जीवन-यज्ञ की
जगह थोथे यज्ञ पैदा करना है। यह पूरा जीवन ही यज्ञ है। इसमें अगर कुछ-आग में डालना
है तो अहंकार डालना है। और अहंकार तुमने जाना कि तुम्हारे जीवन में तत्क्षण
श्रद्धा पैदा हुई। तुम गए कि फिर संदेह
करने वाला ही न बचा, तो संदेह कैसे बचेगा? जड़ से ही बात कट गयी। न रहा बांस न बजेगी बांसुरी। श्रद्धा को मैंने कहा
प्रेम की पराकाष्ठा। उस पराकाष्ठा पर व्यक्तित्व चाहे पुरुष का हो चाहे स्त्री का,
स्त्रैण हो जाता है। एक नाजुकता आ जाती है, एक
कोमलता आ जाती है। फूलों की कोमलता। तितलियों के पंखों की कोमलता। इंद्रधनुषों की
कोमलता।
और सत्य है पुरुष। इसलिए पुराना प्रतीक है कि सिवाय परमात्मा के और
कोई पुरुष नहीं।
मीरा के जीवन में यह कथा है मीरा मथुरा गयी, वृंदावन गयी। कृष्ण के प्रेम में दीवानी थी। सो जहां कृष्ण के चरण पड़े थे,
जहां कृष्ण की बांसुरी बजी थी, जिन बंसीबटों
में, जिस यमुनात्तट पर, वह सब उसके लिए
तीर्थ था, महातीर्थ था। उन-उन जगहों पर जाना चाहती थी,
वहां की मिट्टी भी पवित्र हो गयी थी। वहां की मिट्टी सोना थी उसके
लिए। लेकिन वृंदावन में एक मंदिर था कृष्ण का, बड़ा मंदिर,
जिसका पुजारी स्त्रियों को नहीं देखता था।
यह पागलपन कुछ स्वामी नारायण संप्रदाय में ही नहीं है! यह पागलपन बड़ा
पुराना है। स्वामी नारायण संप्रदाय के जो महंत हैं, प्रमुख जी महाराज,
वे स्त्री को नहीं देखते। हवाई जहाज में भी यात्रा करते हैं तो उनकी
सीट के चारों तरफ परदा बांध दिया जाता है--बुर्के के भीतर। वे अकेले ही आदमी हैं
जमीन पर, जो बुर्के में चलते हैं। क्या मजा है! हाथी पर जुलूस
निकलता है, मगर छाता ऐसा उनके ऊपर लगाया जाता है कि उनकी
आंखें छाते की छाया में रहें, कोई स्त्री दिखाई न पड़ जाए।
स्त्री से ऐसा भय है, ऐसी घबड़ाहट!
ऐसा ही वह पुजारी रहा होगा। या यही प्रमुख जी महाराज पिछले जन्म में
रहे हों, क्योंकि ऐसे लोग तो भटकते रहते हैं। ऐसे लोगों की
मुक्ति का तो कोई उपाय है नहीं! ये तो यहीं-यहीं चक्कर मारते हैं। ये जाएंगे भी
कहां! जो स्त्री से बचेगा, स्त्री की कोख से फिर पैदा होगा,
क्योंकि उसके चौबीस घंटे स्त्री ही खोपड़ी में समायी रहेगी। इधर मरा
नहीं कि उसने स्त्री खोजी नहीं, कि गया स्त्री के गर्भ में,
फिर गिरा गर्त में!
मीरा जब उस मंदिर पर पहुंची तो मीरा के आने की खबर तो पहुंच गयी थी, उसके गीतों की, उसकी वीणा की लहर तो पहुंच गयी थी।
पुजारी सावधान था। तीस साल से उस मंदिर में कोई स्त्री प्रवेश नहीं कर सकी थी।
उसने द्वार पर पहरे लगा रखे थे कि देखो, मीरा को भीतर मत
घुसने देना। मगर मीरा जब आयी और द्वार पर नाचने लगी तो पहरेदार उसके नाच में खो
गये। कौन नहीं खो जाएगा--मीरा नाचे! "पद घुंघरू बांध मीरा नाची रे!' कौन मीरा के नृत्य में न खो जाएगा! "मैं तो प्रेम दीवानी!' वह किसको दीवान न कर देगी! वह स्वयं तो दीवानी थी ही, लेकिन उसके आसपास भी दीवानेपन का
एक माहौल चलता था। वह खुद तो मस्त थी, मस्ती लुटाती भी थी।
वे भी झूमने लगे। पहरेदार भी झूमने लगे। भूल ही गये कि इसको रोकना है। पहले तो वह
वहीं गीत गाती रही द्वार पर मस्त होकर, तो अभी सवाल ही न उठा
था रोकने का। और जब वे बिलकुल डूब गये, मस्त हो गये और डोलने
लगे, तो मीरा नाचती हुई मंदिर में प्रवेश कर गयी। रोकें
रोकें कि वह तो भीतर थी। मीरा तो बिजली की चमक थी। कहां पकड़ पाओगे? जब तक उन्हें होश आया तब तक बात ही खतम हो चुकी थी, वह
तो भीतर पहुंच गयी थी। और पुजारी प्रार्थना कर रहा था, आरती
उतार रहा था। उसने स्त्री को देखा। उसके हाथ से आरती छूट कर गिर पड़ी। यह तीस साल
की पूजा और तीस साल की आरती! और कृष्ण के सामने होते हुए मीरा दिखाई पड़ गयी और
कृष्ण दिखाई क्या खाक पड़े होंगे इसको तीस साल में! यह नाहक ही मेहनत कर रहा था,
नाहक कवायद कर रहा था। थाली गिर गयी, थाल गिर
गया। और क्रोधित हो उठा। और कहा कि "ए स्त्री, क्या
तुझे द्वारपालों ने नहीं रोका? क्या तुझे मालूम नहीं है?
सारी दुनिया जानती है, वृदांवन का बच्चा-बच्चा
जानता है कि इस मंदिर में स्त्री का प्रवेश निषिद्ध है। द्वार पर बड़े-बड़े अक्षरों
में लिखा है कि स्त्री-प्रवेश निषिद्ध है। तूने प्रवेश कैसे किया? में स्त्री को नहीं देखता हूं। तूने मेरी तीस साल की तपश्चर्या नष्ट कर
दी।'
मीरा ने चुपचाप सुना और कहा कि मैं तो सोचती थी कि तुम कृष्ण के भक्त
हो, लेकिन मैं गलती में थी। क्योंकि कृष्ण का भक्त तो मानता है एक ही पुरुष
है--वह परमात्मा, वह कृष्ण। बाकी तो हम सब गोपियां हैं। तो
तुम सोचते हो दुनिया में दो पुरुष हैं--एक कृष्ण और एक तुम? और
क्या खाक तुम पुरुष हो। कृष्ण तो स्त्रियों से नहीं डरे। स्त्रियां नाचती रहीं
उनके चारों तरफ। राधा की कमर में हाथ डाल
कर वे बांसुरी बजाते रहे। उनके तुम भक्त हो, जरा मूर्ति में कृष्ण के बगल में
ही। बांसुरी बज रही है, राधा नाच रही है। कृष्ण के तुम भक्त
हो और स्त्रियों से ऐसा भय! यह क्या खाक भक्ति हुई? चलो,
अच्छा हुआ मैं आ गयी। यह तो
पता चल गया कि दुनिया में दो पुरुष हैं--एक परमात्मा और एक तुम।
बड़ी चोट पहुंची पुजारी को। गिर पड़ा पैरों पर। माफी मांगी कि मुझे
क्षमा कर दो। यह तो मुझे ख्याल ही न रहा कि पुरुष तो एक ही है।
भक्ति के शास्त्र का यह सारभूत है कि परमात्मा पुरुष है। वह आएगा। हम
सिर्फ द्वार खोल कर प्रतीक्षा करें। वह मेहमान होगा। हम मेजबान बनें। हम आतिथ्य के
लिए तैयार हो जाएं। अतिथि जरूर आएगा। कभी ऐसा नहीं हुआ कि न आया हो। जब भी किसी का
हृदय आतिथ्य के लिए तैयार हुआ है, वह जरूर आया है।
तो जैसा मैंने कहा, श्रद्धा प्रेम की पराकाष्ठा है,
स्त्रैणता की पराकाष्ठा है--वैसे ही सत्य ध्यान की पराकाष्ठा है।
श्रद्धा प्रेम की पराकाष्ठा है और सत्य ध्यान की पराकाष्ठा है। तुम श्रद्धा पैदा
कर लो और तुम्हारे जीवन में तत्क्षण सत्य उतर आएगा, ध्यान
उतर आएगा, समाधि उतर आएगी।
यह सूत्र भक्ति का है। इस सूत्र में सारी भक्ति का शास्त्र समा गया।
"श्रद्धा और सत्य की उत्तम जोड़ी है।' इससे उत्तम जोड़ी तो कुछ हो भी नहीं सकती। संस्कृत का सूत्र तो और भी
अद्भुत है। हिंदी में अनुवाद में कुछ खो गया। जिसने अनुवाद किया होगा हिंदी में,
भय के कारण कुछ बात छोड़ गया। संस्कृत का सूत्र है--"श्रद्धा
सत्यं तदित्युत्तम मिथुनम्।' यह सिर्फ जोड़ी की ही बात नहीं
है; इन दोनों के बीच जो संभोग होता है, जो मिथुन होता है, उसको छोड़ दिया है हिंदी सूत्र
में। अक्सर मैंने देखा है कि संस्कृत के
बहुमूल्य सूत्र हिंदी में अनुवादित होते-होते खराब हो जाते हैं क्योंकि हिंदी अब
कमजोरों की भाषा है। संस्कृत बलशाली लोगों की भाषा थी। उन्होंने हिम्मत से सत्य
कहे थे--जैसे के वैसे कहे थे। उन्हें कुछ कहने में कठिनाई न थी, कि इन दोनों के संभोग से...। मिथुन का अर्थ: संभोग। इन दोनों का संभोग,
परम संभोग है क्योंकि वही समाधि है। जहां श्रद्धा और सत्य का संभोग
होता है, उस संभोग से ही मोक्ष का जन्म होता है, कैवल्य का जन्म होता है, निर्वाण का जन्म होता है।
लेकिन हिंदी में सूत्र जरा साधारण हो गया--"श्रद्धा और सत्य की
उत्तम जोड़ी है।' जोड़ी में वह मजा न रहा। जोड़ी में बात खो गयी। जोड़ी
बड़ी साधारण बात हो गयी। यह वैसी हो गयी जैसे राम मिलाई जोड़ी, कोई अंधा कोई कोड़ी। राम भी क्या-क्या जोड़ियां मिलाता है! जब मिलाता है,
गलत ही मिलाता है। असल में
राम को तुम मिलाने ही नहीं देते, तुम तो ज्योतिषियों से
मिलवा आते हो! कहते हो--राम मिलाई जोड़ी! मिलाते ज्योतिषी हैं। राम को मिलाने दो तो
एक जोड़ी गलत न हो। मगर ज्योतिषियों से
मिलवाते हो, सब गलत हो जाता है। इनकी खुद की जोड़ी तो देखो।
जरा इनकी देवी जी को तो देख लो। फिर तुम समझ जाना, फिर इनसे
जोड़ी मिलवाना। अपनी मिला न पाए, तुम्हारी मिला रहे हैं। और
चार-चार आठ-आठ आने में, रुपये दो रुपये में मिला रहे हैं।
जोड़ी मिला रहे हैं। जीवन भर का निर्णय दो रुपये में करवा लेते हैं!!
मैं जबलपुर में था तो मेरे पड़ोस में एक ज्योतिषी रहते थे। उनके
पास बड़ी भाड़ लगी रहती थी, बहुत भीड़। साथ-साथ हम घूमने जाते थे सुबह, तो उनसे
धीरे-धीरे पहचान हो गयी। मैंने पूछा, "आपसे पास बड़ी भीड़
लगी रहती है। और भी ज्योतिषी हैं, मगर उनके पास इतनी भीड़
नहीं रहती।' उन्होंने कहा, इसका कारण
है। अरे जिस की लग्न-कुंडली, जन्म कुंडली कोई न मिला सके
उसकी मैं मिला देता हूं। अरे मिलाना अपने हाथ में है। सो जिनकी नहीं मिला पाता कोई,
वे सब यहां आते हैं। और सस्ते में मिला देता हूं। एक रुपये में।
दूसरे ज्योतिषी कोई दस मांगते हैं, कोई पंद्रह मांगते हैं,
मैं तो एक रुपये में, मेरी तो निश्चित फीस है।
मोल तोल करना ही नहीं। इधर एक रुपया रखो, इधर मिलाओ। और
हमेशा मिलाता हूं, आज तक मैंने कभी ऐसा कुछ किया ही नहीं कि
न मिलाया हो। जो भी आ जाए उसकी मिला देता
हूं। अरे अपने हाथ में है। इधर का खाना उधर बिठाया, इधर की
बात उधर समझायी, मिला मिलू के निपटाया। एक रुपये में और
चाहते भी क्या हो? और जो आदमी एक रुपया दे रहा है, उसको एक रुपये का फल भी मिलना चाहिए। सो मिलता है फल।'
रुपये दो रुपये में जोड़ी मिलवा रहे हो! फिर अंधे कोढ़ियों को मिलवा
देते हैं वे। राम से जोड़ी तो प्रेम के द्वारा मिलती है, ज्योतिषी के द्वारा नहीं मिलती। मगर प्रेम को तो हम होने नहीं देते। सो
हमें ईजाद करनी पड़ी हैं नकलें--ज्योतिषी से मिलवाओ, मां-बाप
मिलाते हैं। प्रेम से तो हम मिलने नहीं देते। पता नहीं क्यों प्रेम से कैसी
दुश्मनी है! प्रेम भर से सब दुश्मन हैं। और सब तरह से राजी हैं। धन पैसे का हिसाब
करेंगे, कुलीनता का हिसाब करेंगे, धर्म
का, जाति का, वर्ण का, सब विचार कर लेंगे। जनम के समय तारे कहां थे, क्या
थे, इस सबका भी हिसाब लगा लेंगे। मगर दो हृदयों से नहीं
पूछेंगे कि तुम्हें मिलना भी है भाई कि नहीं! सारी दुनिया मिला लेंगे, इन दो को भर छोड़ देंगे। इनसे नहीं पूछना है।
राम से मिलवाना हो तो इनसे पूछो। राम इनके भीतर से बोलेगा। और तो उसके
पास बोलने का कोई उपाय नहीं है। इनके हृदय में धड़केगा।
इसलिए जब प्रेम होता है तो तुम किसी ज्योतिषी के कारण प्रेम में नहीं
पड़ते, कि फलां ज्योतिषी ने कहा कि स्त्री के प्रेम में पड़ जाओ, तो
पड़ गये। कि फलां ज्योतिषी ने कहा, क्या करें, प्रेम करना ही पड़ेगा! प्रेम जब होता है तो तुम्हें पता ही नहीं चलता कि
क्यों। तुम जवाब भी नहीं दे पाते कि क्यों। तुम कहते हो, पता
नहीं कंधे बिचकाते हो--हो गया! यह राम मिलाई जोड़ी!
सूत्र में तो है: इन दोनों का मिथुन, इन दोनों का
संभोग--श्रद्धा का और सत्य का। सत्य है पुरुष, श्रद्धा है
स्त्री। श्रद्धा है स्त्रैणता की पराकाष्ठा। सत्य है पुरुष की पराकाष्ठा। और जहां
इन दोनों का मिथुन होता है, जहां इन दोनों का संयोग होता है,
जहां इन दोनों का प्रेम होता है, जहां इन
दोनों का ऐसा मिलन हो जाता है कि द्वैत समाप्त हो जाता है--मिथुन का वही अर्थ है
जहां द्वैत समाप्त हो जाए, अद्वैत रह जाए; जहां दोनों मिल कर एक हो जाते हैं, एक साथ हृदय
धड़कता है जहां--बस वही निर्वाण है, महापरिनिर्वाण है।
"श्रद्धा और सत्य की जोड़ी से मनुष्य दिव्यलोकों को
प्राप्त करता है।' दिव्य
लोक अर्थात समाधि, समाधान--जहां कोई समस्या न रही;
जहां जीवन एक उल्लास है।
संस्कृत का सूत्र फिर समझ लेने जैसा है: "श्रद्धया सत्येन
मिथुने।' दुबारा दोहराया है कि कहीं चूक न जाओ। "श्रद्धया
सत्येन मिथुने न स्वर्गोल्लोकान् जयतीति।' बिना इनके मिथुन
के स्वर्ग का जो आलोक है, जो उल्लास है, स्वर्ग का जो आनंद है उसकी उपलब्धि नहीं।
श्रद्धा की तैयारी करो, सत्य आएगा। श्रद्धा
के बीज बोओ, सत्य के फूल लगेंगे। श्रद्धा के द्वार खोलो,
सत्य का सूरज तुम्हारे भीतर प्रवेश कर जाएगा। और जहां श्रद्धा और
सत्य का मिथुन होगा, संभोग होगा...मेरी किताब संभोग से समाधि
की ओर को बहुत गालियां दी गयी हैं। किताब तो कोई पढ़ता ही नहीं। बस शीर्षक लोगों को
खटक गया। शीर्षक ही पढ़ कर लोग समझ जाते हैं कि बस रुक जाओ। इन सब बुद्धुओं को मैं
कहता हूं, जरा अपने शास्त्रों को देखो। ये हिम्मतवर लोग थे।
यह ऐतरेय ब्राह्मण का ऋषि हिम्मतवर व्यक्ति रहा होगा। सीधी-सीधी बात कह दी कि सत्य
और श्रद्धा का संभोग हो तो समाधि पैदा होती है। तो स्वर्ग है। तो मुक्ति है,
कैवल्य है।
यत्रानंदाश्चय मोदाश्च मुदः प्रमुद आस्ते
कामस्य यत्राप्ताः कामाः तत्र माममृतं कुरु।
"हे प्रभु, मुझे वह अमृतत्व
दे, जिसमें मोद-प्रमोद प्राप्त होता है, जहां कामनाएं स्वयं पूर्ण तृप्त हो जाती हैं।'
ये हिम्मतवर लोग थे। ये डरपोक कायर तुम्हारे तथाकथित साधु-संत और
महात्माओं जैसे नहीं थे। सीधी प्रार्थना है कि हे प्रभु, मुझे वह अमृत दे, दे मुझे वह राज, वह कीमिया, कि जिसे पीकर मैं मोद प्रमोद को प्राप्त
हो जाऊं। मोद-प्रमोद का क्या अर्थ होता है? तुम तो गाली देते
हो। तुम तो मोद प्रमोद करने वाले लोगों को संसारी कहते हो। और यह ऋषि प्रार्थना कर
रहा है--"मोद-प्रमोद को प्राप्त हो जाऊं।'
मेरे संन्यासियों को सारे जगत में गालियां पड़ती हैं। कहा जाता है कि
ये तो अधर्म फैला रहे हैं। संन्यासी को तपस्वी होना चाहिए, त्यागी होना चाहिए, भूखा मरना चाहिए, उपवास करना चाहिए, शरीर को गलाना चाहिए, कांटो पर लेटना चाहिए, धूपत्ताप में खड़ा होना चाहिए,
शीर्षासन, सिर के बल पर खड़ा होना चाहिए। ऐसे
उल्टे-सीधे उपद्रव करने चाहिए। मोद-प्रमोद!
मोद-प्रमोद तो वही हुआ, जिसके कारण हमने
चार्वाकों को गाली दी है, कि चार्वाक मानते हैं: खाओ,
पीओ, मौज करो। मोद-प्रमोद का अर्थ यही हुआ:
खाओ, पीओ, मौज करो। तथाकथित धार्मिक
आदमी इसको गाली देता है। और तब मैं चकित होता हूं कि जो वेदों की पूजा भी करते हैं,
वे भी वेदों को उठा कर देखते हैं या नहीं देखते! नहीं तो मेरा
संन्यासी उपनिषद और वेदों की अंतर्द्दष्टि के ज्यादा करीब है, बजाए तुम्हारे तथाकथित त्रिदंडी साधुओं के, शंकराचार्य
के शिष्यों के, तुम्हारे जैन मुनियों के। क्योंकि मैं उत्सव
सिखा रहा हूं। नाचो, गाओ! यह जीवन परमात्मा की इतनी बड़ी भेंट,
इसे यूं न गंवाओ। इसे अहोभाव से स्वीकार करो। इसके ऊपर और भी आनंद
हैं, पर इसे जो पाएगा वही इसके ऊपर के आनंद को पाने का हकदार
होता है।
उमर खैयाम का एक वचन है। कुरान कहती है कि स्वर्ग में शराब के चश्मे
हैं। उसी को आधार मान कर उमर खैयाम ने कहा है: अगर स्वर्ग में शराब के चश्मे हैं
तो हमें यहां पीने दो,थोड़ा अभ्यास करने दो। नहीं तो वहां पीएंगे एकदम चश्मों
में से, तो खतरा
होगा, बिलकुल बहक
जाएंगे। थोड़ा अभ्यास तो करने दो थोड़ी तैयारी तो करने दो जन्नत में आने की। यहां तो
कुल्हड़ से पी जाती है। यहां कोई नदियें तो नहीं बह रही हैं। और जिन्होंने जिंदगी
भर अपने को दबाया और दमन किया, कभी पीया नहीं, वे एकदम जन्नत में पहुंच कर क्या करेंगे? जैसे
मोरारजी देसाई क्या करेंगे? एकदम पीने में लग जाएंगे। जिंदगी
भर तो खुद भी नहीं पीया, दूसरों को भी नहीं पीने दिया। और
पीया भी तो क्या पीया--जीवन-जल पीया! एक बात तो पक्की है स्वर्ग में इनको जीवन-जल
नहीं पीने दिया जाएगा। कौन घुसने देगा इनको जीवन-जल पीने के लिए स्वर्ग में? लोग खदेड़ कर बाहर कर देंगे कि
अगर जीवन-जल पीना है तो वापिस भारत में जाओ, यह काम वहीं चल
सकता है।
वहां तो शराब के चश्मे हैं। उमर खैयाम एक सूफी फकीर है। उमर खैयाम कोई
शराबी नहीं, जैसा कि लोगों ने समझ लिया है। उमर खैयाम एक सूफी
फकीर है, एक सिद्ध पुरुष है--उसी कोटि का जिसमें बुद्ध और महावीर; उसी कोटि का
जिसमें उपनिषद के ऋषि। मगर उसके प्रतीकों के कारण गलती हो गयी। उसके प्रतीक सूफी
प्रतीक हैं। सूफियों के लिए शराब का अर्थ
है: उल्लास, आनंद, मस्ती। वह सिर्फ
प्रतीक है। वह यह नहीं कह रहा कि शराब पीओ। वह यह कह रहा है:लेकिन आनंदित होना है
इसका थोड़ा अभ्यास तो कर लो। वे स्वर्ग में जो शराब के झरने बहते हैं, उसका भी मतलब यही है कि वहां आनंद के झरने बह रहे हैं। और तुम्हारे साधु
संत, उनकी शक्लें तो देखो--उदास, मुर्दा...।
ये अगर पहुंच भी गये वहां तो करेंगे क्या? आनंद उल्लास के उस
जगत में, जहां अप्सराएं नाचती होंगी, श्री
प्रमुख जी महाराज क्या करेंगे? एकदम बुर्का ओढ़ कर बैठ रहेंगे।
स्वर्ग भी गये और बुर्का ओढ़े रहे। क्या खाक दीदार होगा! और कहीं भूल-चूक से
परमात्मा स्त्री हुआ तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी। और इस बात का पूरा खतरा है कि हो।
क्या पता! अरे परमात्मा का क्या भरोसा! अगर न भी हो तो कम से कम
प्रमुख जी महाराज के सामने तो स्त्री-रूप प्रगट होगा, यह मैं कहे देता हूं। इनके सामने तो वह स्त्री-रूप में ही प्रगट होगा।
इतना व्यंग तो परमात्मा भी समझता होगा। इतना मजा तो वह भी लेगा! अब प्रमुख जी आ ही
गये तो थोड़ा...इतना खेल, इतनी लीला तो वह भी रचाएगा। लीलाधर
है। इतनी लीला तो करेगा कि प्रमुख जी को थोड़ा नचाएगा। डमरू थोड़ा बजाएगा कि जमूरे
नाच!
स्वर्ग में आनंद है। आनंद का नाम स्वर्ग है। मेरे संन्यासियों को कोई
अड़चन न आएगी। वे यहीं अभ्यास कर रहे हैं स्वर्ग का। उनके लिए स्वर्ग में कुछ मौलिक
भेद नहीं हो जाएगा। हां, गुणात्मक भेद होगा, परिणात्मक
भेद होगा; मगर कुछ तो बूंदें उन पर यहां भी पड़ गयी हैं।
बूंदाबांदी तो यहां हो गयी, चलो वहां मूसलाधार वर्षा होगी।
मगर उनकी थोड़ी पहचान रहेगी। कुल्हड? से उन्होंने यहां शराब
पी ली, वहां झरनों में तैर लेंगे और झरनों से पी लेंगे। यहां
मस्त रहे, वहां भी मस्त रहने की उनको कला आ जाएगी।
तुम्हारे तथाकथित साधु-संन्यासी तो बड़ी मुश्किल में पड़ जाएंगे। उदासी
उनका अभ्यास है। उदासीनता उनकी तपश्चर्या है। अपने को गलाना, सड़ाना, भूखा मारना...। असल में यह सब अत्याचार
है--इस निरीह शरीर पर, इस बे-जुबान शरीर पर, इस निहत्थे शरीर पर। ये आत्मघाती प्रवृतियां हैं। पहली तो बात, इनको स्वर्ग में जगह नहीं मिल सकती। भूल-चूक से ये घुस जाएं तो निकाले
जाएंगे। न निकाले जाएं तो इनको स्वर्ग रास न आएगा। इनको लगेगा ये तो सब भ्रष्ट! ये
तो वही रजनीशी संन्यासी यहां जमे हुए हैं! वही नाच-गान चल रहा है! हम तो सोचते थे
वे ही लोग भ्रष्ट हैं; उन्होंने तो पूरा स्वर्ग भ्रष्ट कर
रखा है। इससे तो नर्क भला, कम से कम वहां उदासीनता तो बचा
सकेंगे अपनी, सिर के बल खड़े हो तो सकेंगे। यहां तो सिर के बल
खड़े होंगे, कोई अप्सरा ही धक्का मार देगी, कि यह क्या कर रहे हो? यह कोई ढंग है? स्वर्ग में खड़े होने का यह कोई ढंग है? तुम परमात्मा
का अपमान कर रहे हो। वहां उदास बैठेंगे, मुश्किल हो जाएगा।
गंधर्व इनके आसपास वीणा बजाएंगे, बांसुरी बजाएंगे। अप्सराएं
इनको गुदगुदाएंगी कि भैया, हंसो, थोड़ा
प्रसन्न होओ, थोड़ा अब तो आनंदित होओ!
यह ऋषि का वचन सुनो--"हे प्रभु, मुझे अमृत दे,
जिसमें मोद-प्रमोद प्राप्त होता है।' यह जिंदा
कौम रही होगी तब। तब इसे मोद-प्रमोद की भाषा में कोई निंदा नहीं मालूम होती थी। तब
इसे मोद-प्रमोद में कोई नास्तिकता नहीं मालूम होती थी। इसे जीवन का तब स्वीकार भाव
था। तब इसके लिए जीवन ही परमात्मा था। "जहां कामनाएं स्वयं पूर्ण तृप्त हो
जाती हैं। दे मुझे वह अमृत, जहां सारी कामनाओं की तृप्ति है।'
मेरे अनुभव में, इन दो-ढाई हजार वर्षो में भारत
की मनोदशा इतनी विकृत हो गयी है कि आज इसे अपने ही सूत्रों को समझना मुश्किल हो
गया है। मैं जो कह रहा हूं, वह सनातन धर्म है--एस धम्मो
सनंतनो! मगर मेरी बात जहर की जहर लगती है उन लोगों को, जो
सनातनधर्मी हैं। वे सोचते हैं--मैं धर्म को भ्रष्ट कर रहा हूं, मैं सभ्यता को भ्रष्ट कर रहा हूं, मैं संस्कृति को
भ्रष्ट कर रहा हूं। उनको अपने वेद, अपने उपनिषद, अपने ब्राह्मण ग्रंथ उठा कर देख लेने चाहिए। वे बहुत चौंकेंगे। मेरे
समर्थन में उन्हें कोई सूत्र नहीं मिलेगा। लेकिन जाना होगा उन्हें कम से कम ढाई
हजार साल के पहले, तब उन्हें मेरे समर्थन में सूत्र मिलने
शुरू होंगे। तब उल्लास था एक। तब इस देश ने पहली पहली बार धर्म का आविष्कार किया
था अनुभव किया था। तब बात ताजी थी फिर बासी पड़ती गयी। फिर उस पर राख जमती चली गयी,
धूल जमती चली गयी। फिर इतनी धूल जम गयी व्याख्याओं की कि अब सूत्रों
का तो पता ही चलना मुश्किल हो गया है। अब तो व्याख्याओं पर व्याख्याएं हैं और तुम
व्याख्याओं में ही भटके रहते हो। और व्याख्याएं तो अपनी-अपनी मर्जी की हैं,
जिसको जैसी करनी हों।
कृष्ण की एक गीता है। निश्चित ही कृष्ण का एक ही अर्थ रहा होगा। कृष्ण
कोई पागल नहीं थे। लेकिन हजारों टीकाएं हैं। और सब टीकाओं में विरोध है। अगर कृष्ण
ठीक हैं तो ज्यादा से ज्यादा एक टीका सही हो सकती है। ये हजारों टीकाएं सही नहीं
हो सकतीं। लेकिन जिसको जो मतलब निकालना हो...। शंकराचार्य कृष्ण की गीता में से
ज्ञानयोग निकाल लेते हैं। और रामनुजाचार्य गीता में से भक्तियोग निकाल लेते हैं।
और बालगंगाधर तिलक गीता में से कर्मयोग निकाल लेते हैं। गीता न हुई, भानूमति का पिटारा हो गया। कहीं न ईंट कहीं न रोड़ा, भानुमति
ने कुनबा जोड़ा! और इसमें से तुम जो चाहो निकाल लो। यह तो कोई जादू की पिटारी हो
गयी, कि रूमाल डालो, कबूतर निकालो;
कबूतर डालो, रूमाल निकालो। जो मर्जी।
इतना असत्य इन ढाई हजार वर्षों में बोला गया है। इसलिए मेरी बात
तुम्हें अड़चन की मालूम पड़ रही, क्योंकि ढाई हजार वर्षों की
दीवालें बीच में खड़ी हैं। अन्यथा मैं जो कह रहा हूं वह शाश्वत धर्म है, वह ऋत है। मैं जो सूत्रों का अर्थ कर रहा हूं , वह
सीधा-साफ है, वह किसी पंडित का अर्थ नहीं है। वह मेरा अनुभव
है। मैं तुमसे कहता हूं यहां आनंदित होओ तो तुम स्वर्ग के अधिकारी बनोगे। यहां
प्रफुल्लित होओ तो आगे भी प्रफुल्लता है। तुम यहां जो हो, वही
तुम आगे भी होओगे। हां, बहुत बड़े पैमाने पर होओगे। लेकिन
यहां कुछ होना पड़ेगा। आंगन आकाश हो जाएगा, मगर आंगन तो हो।
आंगन ही न होगा तो क्या खाक आकाश होगा?
इसलिए मरे इन सूत्रों के जो अर्थ हैं, बहुत ध्यानपूर्वक
सुनना। काश, इन सूत्रों का ठीक-ठीक अर्थ तुम्हारे ख्याल में
आ जाए तो इस देश का पुनर्जन्म हो सकता है। और इस देश के पुनर्जन्म के साथ सारी
मनुष्यता के लिए एक सौभाग्य का उदय हो सकता है, सूर्योदय हो
सकता है।
दूसरा प्रश्न: भगवान,
आप कभी अध्यात्म पर बोलते हैं तो कभी समाज पर, कभी राजनीति पर तो कभी विज्ञान पर, कभी शास्त्रों का
समर्थन करते हैं तो कभी उनकी होली जलाने की बात करते हैं। इससे कई तरह के
विरोधाभास खड़े हो जाते हैं, पर फिर आपका परंपरागत रूप भी
दिखाई पड़ता है, क्योंकि आप गेरुए वस्त्रों और माला का आग्रह
करते हैं।
क्या संन्यास के बिना क्रांति संभव नहीं? क्या व्यक्ति बिना संन्यास के लेबिल के स्वस्थ नहीं हो सकता? क्या मनुष्य होना काफी नहीं है--मात्र मनुष्य? यह जो
आप एक बड़ा विशाल संगठन खड़ा कर रहे हैं, इन सबका उद्देश्य
क्या है?
मेलाराम असरानी,
मैं तुम्हारी तकलीफ समझता हूं। तुम्हारी तकलीफ बहुतों की तकलीफ है, इसलिए विचारणीय है, गंभीरतापूर्वक विचारणीय है।
पूछा है तुमने--"आप कभी अध्यात्म पर बोलते हैं तो कभी समाज पर।' निश्चित ही, क्योंकि मेरे लिए अध्यात्म इतना विराट
है कि उसमें सब समा जाता है। वह अध्यात्म ही क्या जो एकांगी हो? वह अध्यात्म ही क्या, जिसके पास समाज के लिए कोई
जीवन-द्दष्टि न हो? वह अध्यात्म ही क्या जो राजनीति को भी
प्रभावित न कर सके? वह अध्यात्म ही क्या जो विज्ञान को भी
अपने रंग में न रंग दे? वह अध्यात्म ही क्या जिससे संगीत का
सृजन न हो, काव्य न जन्मे, साहित्य
पैदा न हो, सृजनात्मकता के झरने न फूटें?
मेरे लिए अध्यात्म जीवन की समग्रता का नाम है। मेरे लिए अध्यात्म
सर्वांगीणता है। तुम्हारे लिए अध्यात्म एक आयामी है, मेरे लिए अध्यात्म
बहु-आयामी है। और तुम्हारा एक-आयामी अध्यात्म कभी का मर चुका है, सड़ चुका है। उस सड़ना ही था, क्योंकि कोई भी चीज इस
जगत में एक-आयामी नहीं हो सकती। किसी भी चीज को थोड़ा गौर करो। गुलाब का एक फूल
खिला है। यह जमीन से रस ले रहा है और सूरज से प्रकाश ले रहा है। सूरज से भी इसको प्राण
मिल रहे हैं। बिना सूरज के यह गुलाब मुरझा जाएगा। न मेरा भरोसा हो, इसे ढांक दो बुर्के में और तुम देखोगे यह मुरझा गया। जमीन अब भी रस दे रही
है, लेकिन सूरज रोशनी नहीं दे रहा। सूरज के ताप के बिना इसका
जीवन खो जाएगा। या जमीन से उखाड़ लो और रख दो इसे सूरज में, सूख
जाएगा। अकेला सूरज भी काफी नहीं है। जमीन भी रस दे, सूरज भी
प्राण दें। और हवाएं भी जरूरी हैं। छीन लो इसे हवाओं से, रोक
दो हवाओं को, रख दो इसको एक खाली रिक्त स्थान में जहां हवा न
आती हो--यह मर जाएगा। यह भी सांस लेता है। हवाएं भी इसे जीवन देती हैं। पानी मत दो
इसे, यह मुरझा जाएगा। हवा भी हो, मिट्टी
भी हो, सूरज भी हो, पानी न हो। और भी
सूक्ष्म आयाम हैं।
सर जगदीश चंद्र बसु, ने एक खोज की थी आज से पचास साल
पहले, साठ साल पहले। तब तो उन पर बहुत हंसा, सारा वैज्ञानिक जगत हंसा था कि यह भी क्या बात है! मगर लोगों ने कहा,
"यह भारतीय इसी तरह की बातें करते हैं। ये उल्टी सीधी बातें
निकाल लाते हैं।' क्या बात निकाल ली जगदीश चंद्र ने, कि पौधों में भी प्राण हैं, संवेदनशीलता है, एक किस्म का बोध है। साठ साल लगे पश्चिम के विज्ञान को इस बात को स्वीकार
करने में । अब इसे समग्रता से स्वीकार कर लिया गया है। और तुम जान कर चकित होओगे
कि पानी, मिट्टी, सूरज, हवा, ये तो प्रत्यक्ष आवश्यकताएं हैं इसकी, ये आयाम तो प्रत्यक्ष हैं,
मगर कुछ अप्रत्यक्ष आयाम भी हैं। अगर माली इसको प्रेम करे तो यह
जल्दी बढ़ता है, बड़ा फूल आता है। अगर माली इसे प्रेम न करे,
उपेक्षा रखे, छोटा रह जाता है, इसका फूल भी छोटा रह
जाता है उसमें गंध भी कम होती है। अब इस पर वैज्ञानिक खोजें हो चुकी हैं और अब यह
वैज्ञानिक सत्य है।
कैनेडा के एक विश्वविद्यालय में उन्होंने दो तरह पौधे लगाए बगीचे में।
एक सी जमीन, एक सा सूरज, एक सी हवाएं,
एक-सा पानी, एक-सा खाद; लेकिन
मालियों को कहा कि एक तरफ की क्यारी में जितना प्रेम कर सको, जितना प्रेम बरसा सको बरसाना। फूलों को सहलाना, पत्तों
को छूना, जितना प्रेमपूर्ण हो सको...। और दूसरी तरफ बिलकुल
उपेक्षा रखना। पानी देना, खाद देना, कोई
भौतिक कमी न हो पाए, बराबर दोनों को मिले, लेकिन उपेक्षा रखना। उतना ही फर्क रखना कि इस तरफ पौधे वैसे जैसे मां का
बच्चा, और उस तरफ के पौधे ऐसे जैसे नर्स के लिए बच्चा। ठीक
है दूध दे दिया, दवा दे दी और सो जा! इससे ज्यादा कुछ भी
नहीं।
और तुम चकित होओगे जान कर, एक तरफ पौधे दुगने बड़े हुए, जिस तरफ प्रेम दिया गया
था। और जिस तरफ प्रेम नहीं दिया गया था, पौधे अधूरे ही बढ़े।
बाढ़ रुक गयी। एक तरफ फूल दुगने बढ़े आए और गंध ऐसी फैली...! और दूसरी तरफ फूल भी
अधूरे आए और गंध भी नाकुछ, रंग भी फीके-फीके। फिर इस पर बहुत
प्रयोग किये गये और हर बार यही सिद्ध हुआ कि जिन पौधों को प्रेम दिया गया, उन्होंने जल्दी बाढ़ की। मतलब प्रेम भी एक आयाम है।
एक दूसरे विश्वविद्यालय में एक पौधों की कतार को रविशंकार का सितार
सुनवाया गया--टेप पर, रोज, घंटों। और दूसरी तरफ उसी
तरह के पौधे, उनको पॉप संगीत, धूम-धड़ाका,
हंगामा। और जो परिणाम हुआ वह हैरान करने वाला है। जिस टेपरिकार्डर
पर रविशंकर की सितार बजती थी, सारे पौधे उस टेप पर झुक आए।
उन्होंने उस टेप को आच्छादित कर लिया। और जहां हंगामा मचा हुआ था, पॉप संगीत, पौधे दूसरी तरफ झुक गये, जैसे अपने कान पर हाथ रख रहे हों कि क्षमा करो भैया, माफ करो! और इस तरफ पौधे यूं झुक आए जैसे आलिंगन करने को आतुर हों। और वही
परिणाम हुआ। रविशंकर के संगीत से पौधे बड़े हुए, और पॉप संगीत
से ठिगने रह गये। अर्थ हुआ कि प्रेम ही नहीं, संगीत भी समझा
जाता है, गीत भी समझे जाते हैं।
पौधे का जीवन एक आयामी नहीं है, तो मनुष्य का जीवन
कैसे एक-आयामी होगा? मनुष्य तो और भी विकसित हैं, बहुत विकसित है। इस पृथ्वी पर तो कम से कम सर्वश्रेष्ठ चेतना उसके पास है।
बहु-आयामी होगी। जो धर्म, समाज राजनीति, साहित्य, विज्ञान, संगीत पर
कोई दृष्टि नहीं रखता, वह धर्म एकांगी होगा, अपंग होगा, थोथा होगा, मुर्दा
होगा।
इसलिए मेलाराम असरानी, मैं तुम्हारी तकलीफ
समझ सकता हूं, लेकिन तुम भी मेरी तकलीफ समझो। मेरी तकलीफ यह
है कि मैं धर्म को बहु-आयाम देना चाहता हूं। विरोधाभास कहीं भी नहीं है। मैं जो भी
कह रहा हूं उसमें कोई विरोधाभास नहीं है।विरोधाभास तुम्हारी मान्यताओं के कारण
पैदा होता है। मेरे जो संन्यासी हैं उनको कोई विरोधाभास मालूम नहीं पड़ता। जो मुझे
सुन रहे हैं, समझ रहे हैं, जिन्होंने
मुझे पीया है, उनसे पूछो। उन्हें कोई विरोधाभास मालूम नहीं
पड़ता। उनको तो एक अनुस्यूत धागा दिखाई पड़ता है, चाहे माला में
मैंने कहीं गेंदा पिरोया हो और गुलाब पिरोया हो और चाहे जूही और चाहे चंपा। फूल
अलग-अलग होंगे, मगर उनको मेरा भीतर पिरोया हुआ धागा दिखाई
पड़ता है। और जब फूल पिरो दिये जाते हैं, माला बन जाती है,
धागा दिखाई नहीं पड़ता, फूल ही दिखाई पड़ते हैं।
अब तुम इसी झंझट में पड़ जाते हो--गेंदे का
फूल और गुलाब का फूल, दोनों एक ही माला में लगे हैं, इन दोनों के बीच क्या तालमेल है? वह तालमेल भीतर के
धागे में है, जो तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता। वह दिखाई श्रद्धा
से पड़ेगा। वह मेरे करीब आओगे तो दिखाई पड़ेगा।
संन्यास मेरे करीब होना ही है, और कुछ भी नहीं।
संन्यास का इतना ही अर्थ है: तुम्हारी तरफ से इस बात की सूचना कि मैं राजी हूं साथ
होने को। ये गैरिक वस्त्र, इनका कोई मूल्य नहीं है। यह तो
मेरा झक्कीपन है और कुछ भी नहीं। मगर इससे कसौटी हो जाती है। मैं कहता हूं कम से
कम वस्त्र तो बदलो, इससे मैं जांच कर लेता हूं कि जो आदमी
वस्त्र बदलने तक को राजी नहीं वह क्या खाक बदलने को राजी होगा! वह आत्मा वगैरह
बदलने की तो बात ही छोड़ दो। वह वस्त्र पर ही अटक जाएगा। वह कहता है वस्त्र क्यों
बदलें। तो मैं कहता हूं, तुम अपना रास्ता लो। मुझे अपना काम
करने दो। यह वस्त्र बदलने से तो सिर्फ में तुम्हारी अंगुली पकड़ता हूं, उससे मुझे समझ में आ जाता है कि पहुंचा भी पकड़ लूंगा। यह वस्त्र बदलना तो
सिर्फ तुम्हारी स्वीकृति का सूचक है। यह तुम्हारी तरफ से यह कहना है कि हम राजी
हैं--चलो इस पागलपन के लिए भी राजी हैं।
और यह मामला तो पागलपन का है ही। यह परमात्मा की खोज दीवानों की खोज
है। इसमें अगर इतनी होशियारी रखी कि हम तो कपड़े अपने हिसाब से पहनेंगे तो फिर मेरे
साथ नहीं चल सकोगे। यह तो बात ही रुक गयी। यह कपड़े बदलने से कोई तुम्हें मोक्ष
नहीं मिल जाएगा, यह मैं भी जानता हूं। सो तुम मेरे कपड़े देख सकते हो।
क्या तुम सोचते हो कि तुम मोक्ष जाओगे और मैं नर्क जाऊंगा?
अगर गैरिक वस्त्रों से मोक्ष मिलता है तो मैं वंचित हुआ। इसलिए मैंने
गैरिक वस्त्र पहने नहीं, ताकि तुम्हें यह जाहिर रहे कि गैरिक वस्त्रों से
मोक्ष का कोई लेना-देना नहीं है। और सफेद वस्त्र तुम्हें पहनाता नहीं, क्योंकि सफेद वस्त्र पहनने में कोई अड़चन नहीं है। वैसे ही तुम पहनते हो।
तुम कहोगे, यह ठीक है, सफेद पहन लेंगे।
उसमें कोई अड़चन नहीं है। गैरिक वस्त्र तुम पहन कर जहां भी जाओगे वहीं अड़चन है। मैं
तुम्हारे लिए अड़चन खड़ी करना चाहता हूं कि जो देखे वह यही कहे कि यह चला जा रहा है
पागल! इतना तो मेरे साथ होने को राजी हो जाओ कि पागल होना भी अगर मेरे साथ है,
तो आनंद की बात है।
माला लटका दी है तुम्हारे गले में, इसमें कुछ परंपरा
नहीं है। कुछ खाक परंपरा नहीं है। परंपरागत माला का अर्थ होता है: माला के दाने
फेरते रहो, बैठो राम राम जपो। मेरे संन्यासी कोई माला वगैरह
नहीं फेरते। बस गले में लटकाए बैठे हुए हैं। यह तो सिर्फ एक प्रतीक है कि ये मेरे
लोग हैं, इनसे जरा सावधान रहना! ये खतरनाक लोग हैं। ये
परवाने हैं। यह सिर्फ उसकी सूचना है।
न तो कोई माला से संन्यास का संबंध है, न गैरिक वस्त्रों से।
लेकिन तुम्हें कैसे राजी किया जाए? तुम बाहर ही जीते हो,
बाहर से ही शुरू करना पड़ेगा। तुम वस्त्रों में ही जीते हो। वस्त्रों
से ही शुरू करना पड़ेगा।
मिर्जा गालिब के जीवन में यह उल्लेख है। बहादुर शाह जफर, आखिरी भारत का सम्राट, मुसलमान सम्राट--कवि भी था।
"जफर' उसका कवि नाम है। उसका जन्मदिन था। उसने और सारे
दरबारियों को बुलाया, राजाओं को बुलाया, कविओं को भी बुलवाया, गालिब को भी। मिर्जा गालिब उस
समय के बड़े कवि, आज भी बड़े कवि। शायद दस-पांच नाम ही हैं जो
मिर्जा गालिब का मुकाबला करते हों। गालिब की कुछ खूबी और, अंदाजे-बयां
और! ऐसे तो बहुत लोगों ने गाया है, लेकिन गालिब की बात और
है। नहीं वह अंदाज कोई और पा सका।...तो गालिब को भी निमंत्रण भेजा। लेकिन फक्कड़
कवि! मित्रों ने कहा कि ये कपड़े पहन कर मत जाओ। ये कपड़े पहन कर गए तो दरबान ही
धक्के देकर बाहर कर देगा। ये फटियल जूते, यह तुम्हारी न
मालूम किस जमाने की टोपी, इसको देख कर भगा दिए जाओगे,
दरबार में कहां जगह मिलेगी?
गालिब ने कहा कि कपड़े देखे जाते हैं कि आदमी देखा जाता है? मैं तो इन्हीं कपड़ों में जाऊंगा। निमंत्रण मुझे मिला है कि कपड़ों को?
और फिर निमंत्रण पत्र मेरे हाथ में है, यह मैं
दिखा दूंगा अगर गड़बड़ की दरबान ने।
नहीं माना, गालिब जिद्दी, चला गया और वही
हुआ जो होना था। दरबान ने धक्के दिए कि बाहर भाग जा, यहां से
बिलकुल भाग जा, आज इस तरफ आओ ही मत। भिखमंगो के लिए आज कोई
जगह नहीं। आज सम्राट का जन्मदिन मनाया जा रहा है।
अरे--गालिब ने कहा--मेरी सुनो तो!
उसने कहा, "बकवास बंद, नहीं तो जेल
में डाल दूंगा।'
गालिब ने कहा, "यह निमंत्रण पत्र।'
उसने कहा कि निमंत्रण पत्र तूने किसी का चुराया होगा। तुझे निमंत्रण
पत्र कौन देगा?
गालिब तो बहुत हैरान हुए। वापिस लौट आए। मित्र शायद ठीक ही कहते थे।
इस दुनिया में कपड़े पहचाने जाते हैं। एक मित्र से कपड़े उधार लिए, जूते उधार लिए, टोपी उधार ली, जल्दी
से अपने को संवारा, मुंह वगैरह धो-धोकर फिर पहुंचे। वही
दरबान एकदम झुका और कहा, "हुजूर, भीतर
आइए!' गालिब बहुत चकित हुए कि वाह रे कपड़े! मैं वही का वही
आदमी!
और जब सम्राट ने देखा उन्हें तो अपने पास बिठाया। सम्राट, और बड़े-बड़े महाराजा उपस्थित थे, उनको नहीं अपने पास
बिठाया, गालिब को अपने पास बिठाया। उसके मन में कद्र थी
कविता की। लेकिन बहादुर शाह भी बहुत हैरान हुआ, जब उसने इनके
रंग-ढंग देखे। सोचा था कि अंदाजे-बयां और यह तो ठीक मगर यह क्या कर रहा है आदमी!
क्योंकि वे उठाएं बर्फी, अपने जूते से लगाएं कि ले बेटा चख!
अचकन से लगाएं कि ले-ले चख! अरे ले मजा! कहते भी जाएं। टोपी से लगाएं कि ले,
खा ले। लड्डू उठाएं, कोट के इस खीसे में रखें
इस खीसे में रखें, कहें कि खा ले बेटा, फिर मिले न मिले!
थोड़ी देर तो जफर ने सुना, क्योंकि शिष्टाचारी
आदमी था, कैसे एकदम से कहे कि यह आप क्या कर रहे हैं?
लेकिन फिर बर्दाश्त के बाहर हो गया, बगल में
ही बैठा यह आदमी बस यही काम किए जा रहा है। आखिर जफर ने पूछा कि मैं कुछ समझा नहीं,
यह क्या रवैया है, यह क्या ढंग है, यह क्या शैली है आपकी? यह आप क्या कर रहे हो?
ज्यादा तो नहीं पी गए हो?
गालिब ने कहा, "नहीं, ज्यादा नहीं पी
गया। पी ही नहीं आज। आज तो आपका निमंत्रण था तो क्या अपने गरीब घर की शराब पीऊं,
सोचा आप पिलाएंगे, कुछ शानदार चीज पिलाएंगे,
कुछ कीमती चीज पिलाएंगे, इसलिए बिना पीए आया
हूं। मगर यह जो मैं कर रहा हूं, इसके पीछे कारण है। मैं नहीं
आया। मैं तो आया था, वह तो धक्के देकर लौटा दिया गया। अब तो
कपड़े आए हैं। अब यह भोजन मैं नहीं लूंगा। यह भोजन मेरे लिए नहीं है। मैं तो दरवाजे
से धक्के देकर कभी का लौटा दिया गया। अब तो जूते आए हैं, टोपी
आयी है, अचकन आयी है, कपड़े आए हैं,
यह चूड़ीदार पाजामा आया है, ये बेचारे आए हैं।
तो इनको भोजन करवा रहा हूं।'
तब जफर को पता चला कि मामला क्या है।
मेलाराम असरानी, तुम अभी कपड़ों में जीते हो। कपड़े
से ही शुरुवात करनी पड़ेगी। अभी तुम बाहर जीते हो। तुम जहां हो वहीं से तो यात्रा
शुरू करना पड़ेगी, और तो कोई उपाय नहीं। तुम अमृतसर में हो और
मैं दिल्ली से यात्रा शुरू करूं तो तुम कैसे सवार हो पाओगे उस गाड़ी में? अमृतसर से ही गाड़ी शुरू करनी पड़ेगी। वहीं से बोलना पड़ेगा--"बोले सो
निहाल, सतसिरी अकाल! वाहे गुरुजी का खालसा वाहे गुरुजी की
फतह!' अमृतसर से ही बोलना पड़ेगा, तभी
गाड़ी चलेगी। नहीं तो "गड्डी' चलेगी ही नहीं! तो
"गड्डी' चल जाए, इसलिए कपड़े से
शुरू करता हूं।
तुम कहते हो: "कभी आप शास्त्रों का समर्थन करते हैं और कभी उनकी
होली जलाने की बात करते हैं।' निश्चित ही क्योंकि तुम्हारे
शास्त्र एक व्यक्ति के द्वारा रचे नहीं गये! तुम्हारे वेदों में हजारों व्यक्तियों
के वचन हैं, सैकड़ों ऋषियों की ऋचाएं हैं। उनमें कुछ निपट गधे
भी थे। उनमें कुछ प्रबुद्ध पुरुष भी थे। अब मैं क्या करूं? इसमें
मेरा क्या कसूर है? मैं पूरे वेद स्वीकार नहीं कर सकता। और
जिन्होंने पूरे वेद स्वीकार किये या पूरे वेद इनकार किये, उन्होंने
दोनों ने गलती की है। वह गलती मैं नहीं कर सकता। पूरे वेद स्वीकार करने वाले लोग
अब तक रहे हैं। वह परंपरागत हिंदु जो है, हिंदु पंडित,
हिंदु संन्यासी, वह पूरा वेद स्वीकार करता है।
उसको गधों का गधापन दिखाई भी पड़ता है तो नजरदांज करता है, या
लीपापोती करता है; अर्थों के कुछ अर्थ बनाता है, नयी नयी कलमें लगाता है; किसी तरह छिपाने की कोशिश
करता है। मगर लाख उपाय करो, वेदों में निन्यानबे प्रतिशत
कचरा है। यह बिलकुल स्वाभाविक है, क्योंकि यही प्रतिशत है
समाज में गधों का और समझदारों का। इसमें कोई कर भी क्या सकता है! वेद तो केवल
प्रतिफलन हैं, दर्पण हैं। वेद तो उस समय के संग्रह हैं,
जैसे कि आज इनसाइकलोपीडिया ब्रिटानिका, उसमें
हजारों लेखकों का संग्रह होता है। वेद उस समय के इनसाइकलोपीडिया हैं, विश्वकोष हैं। उस समय जो भी उपलब्ध था, अच्छा बुरा,
वह सब संकलित कर लिया गया है। वह उस समय की तस्वीर है।
तो एक तो वह वर्ग है जो कहता है कि पूरा वेद हमें स्वीकार है--पूरा
वेद! उसको एक अड़चन आती है, तो उसको झूठे अर्थ करने पड़ते हैं। फिर एक दूसरा वर्ग
है--जैनों और बौद्धों का, चार्बाकों का--जो कहते हैं हमें
बिलकुल वेद स्वीकार नहीं हैं। वे निन्यानबे प्रतिशत के कारण उस एक प्रतिशत को भी
इनकार करते हैं जो बड़ा बहुमूल्य है, हीरे जवाहरात हैं जहां।
ये दोनों बातों को मैं अतिशयोक्तियां मानता हूं। इसलिए तुम मेरी अड़चन समझो। मेरी
अड़चन यह है कि एक दिन मैं वेद की प्रशंसा करूंगा और दूसरे दिन निंदा करूंगा।
तुम्हारे प्रश्नों पर निर्भर है। अगर तुमने ऐसा सूत्र पूछा, जो
गलत है, तो मैं क्या करूं? मेरी कोई
वेद के प्रति आस्था नहीं है, न अनास्था है। मैं तो सत्य के
प्रति एकमात्र मेरी आस्था है। अगर सत्य होगा उस वचन में तो मैं जरूर समर्थन
करूंगा--फिर वह वेद का हो, कुरान का हो, बाइबिल का हो, धम्मपद का हो, कहीं
का हो, मुझे कोई अंतर नहीं पड़ता मेरी निष्ठा सत्य में है,
सत्य जहां भी झलकेगा। सागर में झलके, नदी में
झलके, तालाब में झलके, झील में झलके,
रास्ते के किनारे बन गये बरसात के गङ्ढे में झलके, जहां भी सत्य झलकेगा मैं समर्थन में हूं। शास्त्रों से मुझे कुछ लेना-देना
नहीं है, मेरा लेना देना सत्य से है। मेरा उत्तरदायित्व सत्य
के प्रति है, किसी शास्त्र का मैं गुलाम नहीं हूं। इसलिए जब
तुम कोई ऐसा सूत्र उठा लाओगे, जैसे अभी-अभी यह सूत्र आनंद
मैत्रेय ने पूछ लिया ऐतरेय ब्राह्मण से। अब में कैसे इसको इनकार कर सकता हूं?
यह तो मेरे प्राणों की आवाज है। लेकिन तुम ऐसे सूत्र भी पूछ सकते हो,
जो निपट मूढ़तापूर्ण हैं। तब मैं संकोच न करूंगा कि ये वेद के हैं।
तब मैं निसंकोच उनकी निंदा करूंगा और कहूंगा इनको होली में जला दो।
तुम्हें मेरे वचनों को समझने में अड़चन आएगी, क्योंकि तुमने दो ही तरह के लोग
जाने--या तो वैदिक और या अवैदिक। मैं न तो वैदिक हूं न अवैदिक। मुझे क्या लेना
देना वैदिक होने से, अवैदिक होने से? मेरे
पास अपना अनुभव है। मेरा अनुभव मेरी कसौटी है। उस कसौटी पर जो सूत्र कस जाता है,
उसे कहता हूं सोना। उस कसौटी पर जो सूत्र नहीं कसता, चाहे सदियों से पूजा गया हो, वह मेरे लिए सोना नहीं
है। मैं उसे कैसे सोना कहूं? मैं अपने अनुभव के विपरीत नहीं
जा सकता हूं। मैं सबके विपरीत जा सकता हूं, लेकिन अपने
साक्षात्कार के विपरीत कैसे जा सकता हूं?
मेरे साथ तो तुम्हें यह सावधानी रखनी ही पड़ेगी। इसलिए अड़चन होती है।
कुरान में भी यही हालत होती है। कुछ वचन बड़े प्यारे, ऐसे प्यारे कि उनकी
पर्त से पर्त उघाड़ते आओ तो रहस्यों के रहस्य उघड़ते आएं। लेकिन अधिकतर बातें बिलकुल
कचरा। अब मैं क्या करूं? मुसलमान नाराज हो तो हो, हिंदु नाराज हो तो हो, जैन नाराज हो तो हो। इनकी
नाराजगी देखूं या जो सत्य है उसे वैसा ही कह दूं जैसा है?
निश्चित ही मैं कभी शास्त्रों का समर्थन करता हूं, कभी उनकी होली जलाने की बात करता हूं। सब इस पर निर्भर करता है कि मेरे
अनुभव से, जो चीज सत्य है वह बचाने योग्य है।
अंग्रेजी में कहावत है कि जब बच्चे को नहलाओ तो गंदे पानी के साथ
बच्चे को मत फेंक देना। दुनिया में दो तरह के लोग हैं। एक वे जो कहते हैं कि जब
बच्चे को नहलाया तो गंदे पानी को भी बचाओ। और एक वे कि जो कहते हैं अब पानी को
फेंक रहे हो बच्चे को क्यों बचाते हो, इसको भी जाने दो। मैं
कहता हूं, भैया बच्चे को बचाओ, गंदे
पानी को फेंक दो। तुम्हें मेरी बात में अड़चन दिखाई पड़ती है और इन दो अतिशयोक्तियों
में अड़चन दिखाई नहीं पड़ती! अति में अड़चन दिखाई पड़नी चाहिए तुम्हें।
शंकराचार्य अंधा समर्थन करते हैं, लेकिन समर्थन करने के
लिए उनको फिर बड़े डंड-बैठक लगाने पड़ते हैं, क्योंकि ऐसे वचन
हैं जिनका समर्थन नहीं किया जा सकता। तो फिर उनमें से ऐसे-ऐसे अर्थ निकालने पड़ते
हैं जो हैं नहीं या ठूंसने पड़ते हैं, जबरदस्ती करनी पड़ती है,
अर्थ का अनर्थ करना पड़ता है, तोड़-मरोड़ करनी
पड़ती है।
मैं किसी शास्त्र के साथ अनाचार करने को राजी नहीं हूं। यह व्यभिचार
है। शंकराचार्य ने जो किया यह व्यभिचार है। इसको मैं स्वीकार नहीं करता हूं। मैं
तो हीरे को हीरा कहूंगा, मिट्टी को मिट्टी कहूंगा।
बुद्ध और महावीर ने बिलकुल इनकार कर दिया वेदों को, इनसे भी मैं राजी नहीं हूं। क्योंकि वेदों में हीरे हैं और उन हीरों पर
मेरी अपूर्व श्रद्धा है। मुझे हीरों से मतलब है; किस खदान से
निकलते हैं, क्या करना है? आम चूसना है
कि गुठली गिनना है? मुझे तो जहां आम मिल जाए, वह किस वृक्ष पर लगा है क्या लेना-देना है? अगर रस
भरा है, जरूर उसकी प्रशंसा में दो शब्द कहूंगा। और अगर
जहरीला है तो तुम्हें सावधान करूंगा कि इसे फेंक दो, इसे
कचरे में डाल आओ।
इसलिए तुम्हें अड़चन तो आएगी, मगर अड़चन का कारण तुम
हो, मैं नहीं तुम कहते हो: "इससे कई तरह के विरोधाभास
खड़े हो जाते हैं।' तुम खड़े कर लेते हो, मेरी बात तो बिलकुल दो टूक है। तुम्हें विरोधाभास खड़े हो जाते हैं,
क्योंकि या तो तुम वेद को पूरा मानने को राजी हो। अगर जैन हो तो
पूरा इनकार करने को राजी हो। मैं न जो हिंदु हूं न जैन हूं। अगर मेरे साथ
उठना-बैठना है और मेरी बात समझनी है, तो तुम्हें जरा अपने
पक्षपात ढीले करने होंगे, थो॰?ा
तुम्हें तरल होना पड़ेगा, तुम्हें थोड़ा बहाव सीखना होगा। फिर
विरोधाभास खड़े नहीं होंगे। तब तुम्हें बात साफ दिखाई पड़ने लगेगी। बात इतनी साफ है,
जैसे सूरज निकला हो।
इसलिए मैं लाओत्सु के शास्त्रों पर बोला हूं, बुद्धों के शास्त्रों पर बोला हूं, जैनों के
शास्त्रों पर बोला हूं, हिंदुओं के शास्त्रों पर बोला हूं,
मुसलमानों के शास्त्रों पर बोला हूं, यहूदियों
के शास्त्रों पर बोला हूं, ईसाइयों के शास्त्रों पर बोला
हूं। मैंने करीब-करीब सारे धर्म...सिक्खों
के शास्त्रों पर बोला हूं। सारे धर्मों पर बोला हूं। इसलिए, ताकि
तुमसे मैं कह सकूं कि सभी धर्मों में हीरे मौजूद हैं और सभी धर्मों में कचरा भी
मौजूद है। कचरे से सावधान। और हीरा जहां भी मिले, अपना है।
और कचरा कहीं भी हो, अपने ही शास्त्रों में क्यों न हो,
जला देने योग्य है। और जितना जल्दी हो उतना अच्छा है। डर यह है कहीं
कचरे में हीरे न खो जाएं। खो गए हैं।
मेलाराम असरानी, तुम कहते हो: "इसलिए आपको
समझना मुश्किल हो जाता है।' नहीं, इसलिए
नहीं। तुम्हारी जड़ धारणाएं हैं--इसलिए, उस कारण।
तुम कहते हो: "आप भी क्रांतिकारी भी लगते हैं, पर फिर आपका परंपरागत रूप भी दिखाई पड़ता है।' निश्चित
ही। सत्य न तो नया होता है न पुराना होता
है। सत्य पुराने से पुराना है, नये से नया है। अब मैं क्या
करूं? सत्य शाश्वत है, तो पुराने से
पुराना है। और नये से नया है, ताजा से ताजा है। तो मेरे
दोनों रूप हैं। सत्य के साथ हूं मैं। अगर दोष देना हो सत्य को दो, मैं क्या कर सकता हूं? सत्य पुराने से पुराना है,
तो मुझे ऋग्वेद में भी सत्य की झलकें मिलती हैं। अब जैसे ऋत के ऊपर
जो सूत्र था, कल ही हमने उसकी चर्चा की है, ऋग्वेद का सूत्र है, अब उस सूत्र का कैसे इनकार कर
सकता हूं? माना कि पांच हजार साल पुराना या ज्यादा भी पुराना
हो सकता है। लोकमान्य तिलक के हिसाब से नब्बे हजार साल पुराना है। हो सकता है। कोई
सत्य पर किसी समय की बपौती तो नहीं है। सत्य को जानने वाले सदा हुए हैं, आज भी हैं। लेकिन वहां भी वही झगड़ा है।
कुछ लोग मानते हैं कि सत्य को जानने वाले सतयुग में हो चुके, कलियुग में कहां! वे परंपरावादी हैं। उनको क्रांति से घबडाहट होती है। और
कुछ हैं, जो कहते हैं कि अतीत में जो आदमी आदिम था, जंगली था, उसको क्या सत्य का पता; अब आदमी विकसित हुआ है, अब हम जानते हैं कि सत्य
क्या है। वे क्रांतिकारी हैं। उनको परंपरा से चिढ़ है। वे परंपरा को बिलकुल इनकार
कर देना चाहते हैं।
मैं किसी घेरे में बंधा हुआ नहीं हूं, मैं मुक्त हूं। न
परंपरा का घेरा मुझ पर है। मुक्त किसी का घेरा नहीं होता। मैं तो यूं हूं जैसे
मधुमक्खी।
बुद्ध ने अपने शिष्यों से कहा है कि तुम भिक्षा ऐसे मांगना जैसे
मधुमक्खी। इसलिए बुद्ध के भिक्षुओं की जो भिक्षा
है, उसको "मधुकरी' नाम दिया
गया है। थोड़ा यहां से ले लेना, थोड़ा वहां से ले लेना,
थोड़ा वहां से ले लेना। मधुमक्खी आती है, गुलाब
के ऊपर गीत गाती है, गुनगुनाती है, थोड़ा-सा
रस ले लेती है, उड़ जाती है। चंपा का भी रस ले लेती है और
चमेली का भी। मुक्त है। और मधुमक्खी की एक खूबी है: जिस फूल से भी रस लेती है,
उसको नष्ट नहीं करती। सच तो यह है कि मधुमक्खी के आने से फूल
प्रफुल्लित होता है, क्योंकि मधुमक्खी ने पहचाना, यह कोई कम सौभाग्य की बात नहीं है। मधुमक्खी कागज के फूलों पर नहीं आती,
असली फूलों पर आती है। जिस फूल पर नहीं आती वह बेचारा उदास खड़ा रह
जाता है।
मैं तो मधुमक्खी हूं। मैं तो ऋग्वेद से भी रस लूंगा। जहां-जहां रस
है...रसौ वे सः! परमात्मा का स्वरूप रस है!...मैं तो वेद से भी रस लूंगा। परंपरा
से भी रस लूंगा और क्रांति से भी रस लूंगा। मेरे लिए कोई इनकार नहीं है। मेरे लिए
समय में कोई सीमाएं नहीं हैं। न तो अतीत की मेरे मन में कोई प्रशंसा है वर्तमान के
विपरीत में और न वर्तमान की कोई प्रशंसा है अतीत के विपरीत में। सत्य जब भी और
जहां जैसा प्रगट हुआ है, मैं उसे पहचानता हूं। मैंने अपने सत्य को जाना,
उस दिन से मैंने सारे सत्यों को पहचान लिया है--कहीं भी किसी ढंग से
कहे गये हों, किसी भाषा में कहे गये हों।
एक ईसाई मिशनरी झेन फकीर रिंझाई के पास गया--इस आशा में कि रिंझाई को
ईसाई बना ले। क्योंकि रिंझाई के हजारों शिष्य थे, अगर यह ईसाई हो जाए
तो हजारों शिष्य ईसाई हो जाएंगे। तो उसने बाइबिल खोली और रिंझाई से कहा कि मेरा यह
धर्म वचन आप जरा सुनें। और बाइबिल में जो अद्भुत वचन हैं जीसस के, उनमें से एक वचन कहा--"ब्लैसिड आर दमीक, फर
देयर्स इज द किंगडम आफ गॉड।' धन्य हैं वे जो विनम्र हैं,
धन्य हैं वे जो विनीत हैं, क्योंकि प्रभु का
राज्य उन्हीं का है।
रिंझाई ने कहा, "बस, काफी है। जिसने भी यह
कहा हो वह बुद्धपुरुष था।'
रिंझाई को यह पता नहीं किसने कहा है। रिंझाई को यह भी नहीं पता कि यह
बाइबिल है। पर रिंझाई ने कहा, "बस इतना काफी है। जिसने भी
कहा हो वह बुद्धपुरुष था। मेरे नमन।'
ईसाई फकीर ने कहा, "आपने नाम भी नहीं पूछा!'
रिंझाई ने कहा, "नाम पूछ कर क्या करना है? अरे मधुमक्खी जब गुलाब का रस पीती है तो नाम पूछती है? रस पहचानती है। चंपा से पूछती कि तेरा नाम क्या है, सर्टिफिकेट
कहां है, है भी तू चंपा कि नहीं, सरकारी
टेडमार्का कहां है, नकली
तो नहीं है, असली है, कोई कैरेक्टर
सर्टिफिकेट है? मधुमक्खी को यह नहीं पूछना पड़ता, मधुमक्खी पहचानती है। खुद ही पहचानती है। असल में तो मधुमक्खी जिस फूल पर
बैठ जाती है उसी को प्रमाणपत्र मिल जाता है।'
मैं शास्त्रों को अनुगामी नहीं हूं। मैं जिस शास्त्र को समर्थन दे रहा
हूं, उसको प्रमाणपत्र दे रहा हूं। और जिस सूत्र को समर्थन
दे रहा हूं, उसको फिर पुनरुज्जीवित कर रहा हूं। इससे कुछ
फर्क नहीं पड़ता किसने कहा। अब मुझे पता नहीं यह ऐतरेय ब्राह्मण का वचन किसने कहा।
क्या लेना-देना है, किसी ने भी कहा हो। किसी ने कहा होगा।
जिसने भी कहा होगा वह बुद्धपुरुष था। उसने जानकर कहा है, क्योंकि
ऐसा ही मेरा जानना भी है। कोई समय को ठेका तो नहीं है।
ये धारणाएं गलत हैं कि सतयुग हो चुका पहले, अब यह कलियुग है। ये मूढ़तापूर्ण धारणाएं हैं। जो सत्य को जानते हैं,
उनके लिए सदा सतयुग है और जो सत्य को नहीं जानते उनके लिए सदा
कलियुग है। यह मेरी परिभाषा है।
तुमने पूछा कि आपका परंपरागत रूप भी दिखाई पड़ता है, क्योंकि आप गेरुए वस्त्रों और माला का आग्रह करते हैं। इस आग्रह के पीछे
कारण हैं। गेरुए वस्त्र बहुत बदनाम हो गये हैं । ये बड़े प्यारे वस्त्र हैं। मैं
इनका ठीक-ठीक रूप पुनः स्थापित करना चाहता हूं। ये बड़े बदनाम हो गये। ये मूढ़ों के
हाथ पड़ गये। उन्होंने इन वस्त्रों की गरिमा खो दी, अर्थ खो
दिया।
गैरिक रंग कई चीजों का प्रतीक है। सूर्योदय का प्रतीक है। ऐसा ही भीतर
तुम्हारे सूर्योदय होता है, तब अंतर-आकाश के क्षितिज पर, प्राची
पर, पूरब में सुर्खी फैल जाती है, गैरिक
रंग फैल जाता है। संन्यास का गैरिक वस्त्र दीक्षा का प्रतीक है कि तुमने सूर्योदय
की तलाश शुरू कर दी। अब रात टूटने का वक्त करीब आ गया। अब तुमने रात को तोड़ने की
तैयारी कर ली। अब तुम सूरज को निमंत्रण देने चले। गैरिक वस्त्र वसंत के भी प्रतीक
हैं इसलिए इनका एक नाम वासंती भी है। वसंत का रंग है यह। फूलों का रंग है यह। और
संन्यास वसंत है, मधुमास है। संन्यास है जीवन को समग्रता में
जीना, कि सारे फूल खिल जाएं।
गैरिक वस्त्र जीवन के प्रतीक हैं, क्योंकि यह लहू का
रंग है। यह तुम्हारी नसों में बहती हुई जीवन-धारा
है। लेकिन सदियों से गलत लोगों के हाथ में गैरिक वस्त्र रहे हैं, पोंगापंथियों के हाथों में रहे हैं। उनसे इस सुंदर प्रतीक को मैं मुक्त कर
लेना चाहता हूं। मैं उनसे सुंदर-सुंदर सूत्रों को भी मुक्त करने में लगा हूं,
सुंदर प्रतीकों को भी मुक्त कर लेना चाहता हूं। मैं इस पृथ्वी पर
इतने गैरिक संन्यासी कर देना चाहता हूं कि वे जो पुराने ढर्रे के संन्यासी हैं,
वे इस सागर में कहां खो जाएं पता ही न चले। मैं इतने गैरिक संन्यासी
पैदा कर लेना चाहता हूं--अपने ढंग के, नये ढंग के--कि पुराने ढंग का संन्यासी डरने लगे गैरिक
वस्त्र पहनने में, कि कहीं कोई भूल-चूक से यह न समझ ले कि
मैं भी पागलों की उसी बस्ती का हिस्सा हो गया हूं।
तुम अगर मेरी बात समझो तो जिस दिन लाखों...अभी भी कोई डेढ़-पौने दो लाख
व्यक्ति सारी पृथ्वी पर गैरिक वस्त्रों में संन्यासी हैं मेरे। जल्दी ही इनकी
संख्या बढ़ती चली जाएगी। अभी इनको अड़चन हो रही है, लेकिन तुम जरा ठहरो।
तुम्हारे करपात्री महाराज और तुम्हारे पुरी के शंकराचार्य, इनको
अड़चन खड़ी कर दूंगा। लोग इनसे ही पूछने लगेंगे कि अरे, आप
गैरिक वस्त्र पहने हुए हैं! थोड़ा समय लगता है।
मैं जब विश्वविद्यालय में प्रोफेसर था, तो मुझे अक्सर जहां
भी मैं बोलने जाता, लोग मुझसे पूछते कि आपने दाढ़ी-मूंछ क्यों
बढ़ा ली? यह मैंने कभी सोचा ही न था कि इससे अन्यथा भी कोई
पूछ सकेगा। लेकिन अमृतसर में सिक्खों की एक सभा में बोल कर नीचे उतरा मंच से और एक
सरदार जी ने पूछा...। क्योंकि मैं नानक पर बोला था और वे गदगद हो गये थे, आंसू बह रहे थे उनकी आंखों से और कहने लगे कि सरदार जी, आपने बाल क्यों कटा
लिये? इस प्रश्न का तो मेरे पास उत्तर था कि मैंने दाढ़ी और
मूंछ क्यों बढ़ा ली है। यह तो मैंने कभी सोचा ही नहीं था, एक
क्षण को तो मैं भी ठिठक गया कि यह बात तो कभी मैंने सोची नहीं कि कोई कभी पूछेगा
कि आपने बाल, क्यों कटा लिये। यह समझा कि है तो सरदार ही यह
आदमी, नहीं तो नानक पर ऐसी बात कोई कैसे कहेगा?
जल्दी ही तुम देखना, पुरी के शंकराचार्य और करपात्री
महाराज से लोग पूछने लगेंगे--"आप गैरिक वस्त्र क्यों पहने हुए हैं? आप भी बिगड़ गये? जरा मेरे संन्यासियों की संख्या बढ़
जाने दो। इसके पीछे क्रांति है। परंपरा को मुक्त करना है और क्रांति से ही परंपरा
पुनरुज्जीवित हो सकती है। और परंपरा जब पुनरुज्जीवित हो सकती है। और परंपरा जब
पुनरुज्जीवित होती है तो नयी होती है, पुरानी नहीं होती।
अब तुम पूछते हो:" क्या व्यक्ति बिना संन्यास के लेबिल के स्वस्थ
नहीं हो सकता?' तुम मुझसे क्यों पूछते हो? क्या
बिना मुझसे पूछे स्वस्थ नहीं हो सकते? मेलाराम असरानी,
यूं सोचो--मुझसे बिना पूछे स्वस्थ नहीं हो सकते? अगर मुझसे पूछे बिना स्वस्थ नहीं हो सकते, तो
संन्यास और क्या है? यह मेरे पास होनी की, मुझसे पूछने की, जिज्ञासा करने की कला है, और तो कुछ भी नहीं।
संन्यास को इतना तुम गंभीरता से न लो। मेरे लिए संन्यास बस अभिनय से
ज्यादा नहीं है। यह जीवन के रवैए को बदलने की घोषणा है। तुम स्वस्थ हो सकते हो
बिना संन्यास के, बिलकुल ठीक। लेकिन तुम मुझसे पूछने आए हो, इससे ही जाहिर होता है कि तुम अपने-आप स्वस्थ न हो सकोगे। अपने-आप तो तुम
प्रश्नों का भी हल नहीं कर सकते, क्या तुम स्वयं को खोज
पाओगे? स्वस्थ होने का अर्थ होता है: स्वयं में स्थित होने
के लिए किसी ऐसे व्यक्ति के साथ जुड़ना जरूरी है, जो स्वयं में स्थित हो गया हो।
गुरु और शिष्य का इतना ही तो भेद है। गुरु का अर्थ है जो स्वयं में
स्थित हो। और शिष्य का अर्थ है जो अभीप्सु है स्वयं में स्थित होने का। एक का दीया
जला है, एक का बुझा है। बुझा हुआ दीया, मेलाराम
असरानी, पूछ रहा है कि क्या मैं जले हुए दीया के पास आए बिना
जल नहीं सकता हूं? जल सकते हो तो जल जाओ, पूछना क्या है? जल ही जाओ। लेकिन बुझा दीया जले दीये
के पास आता जाए तो एक घड़ी ऐसी आती है निकटता की, जब छलांग
लगती है। जले दीये से ज्योति बुझे दीए पर चली जाती है। जले दीये का कुछ नुकसान
नहीं होता और बुझे दीये को सब कुछ मिल जाता है। एक का कुछ खोता नहीं और दूसरे का
सर्वस्व मिल जाता है।
संन्यास का कुछ और अर्थ नहीं है: बुझे दीये का जले दीये के करीब सरकते
आना। इससे ज्यादा कोई अर्थ नहीं। यह शिष्यत्व की उद्घोषणा है।
तुम हो सकते हो स्वस्थ तो मुझे कोई एतराज नहीं, जरूर हो जाओ। तुम कहते हो: "क्या मनुष्य होना काफी नहीं है। हां,
पशु से बेहतर है। ईसाई होने से, हिंदू होने से,
मुसलमान होने से, जैन होने से मात्र मनुष्य
होना बेहतर है। लेकिन वह इति नहीं है। मनुष्य होना केवल सीढ़ी है, पहुंचना तो भगवत्ता तक है। जब तक भगवान न हो जाओ, तब
तक रुकना मत। उसके पहले कैसे स्वस्थ होओगे? उसके पहले कोई
स्वास्थ नहीं है।
और तुमने पूछा है: "यह जो बाप बड़ा एक विशाल संगठन खड़ा कर रहे हैं, इस सबका उद्देश्य क्या है?
उपद्रव करना।
आज इतना ही।
सातवां प्रवचन; दिनांक २७ सितंबर, १९८०; श्री
रजनीश आश्रम, पूना
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें