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मंगलवार, 2 मई 2017

ज्यूं मछली बिन नीर-(प्रश्नोत्तर)-प्रवचन-02

जगत सत्य बह्म सत्य -(दूसरा-प्रवचन)


दिनांक 22 सितंबर, 1980; श्री रजनीश आश्रम, पूना

पहला प्रश्न: भगवान,
आदिगुरु शंकराचार्य के "जगत मिथ्या, ब्रह्म सत्य' सूत्र का खंडन करते हुए आपने कहा कि जगत भी सत्य है और ब्रह्म भी सत्य है। लेकिन सत्य की परिभाषा है--वह, जो कि नश्वर नहीं है। इसलिये जगत जो कि नश्वर है, सत्य कैसे होगा? मिथ्या ही होगा। ब्रह्म अनश्वर है, इसलिए सत्य है।
आपसे अनुरोध है कि सत्य की परिभाषा करते हुए इस पहलू पर प्रकाश डालें।
पंडित ब्रह्मप्रकाश,
बड़े भाग्य कि आप भी इस मयकदे में पधारे! ऐसे तो मयकदे में आना अच्छी बात नहीं है और आ ही गये हैं तो बिना पीए जाना अच्छी बात नहीं है। जाम हाजिर है। जी भर कर पी कर लौटें।
पूछते हैं आप कि सत्य की क्या परिभाषा है? सत्य की कोई परिभाषा नहीं है,न हो सकती है। परिभाषित होते ही सत्य असत्य हो जाता है। सत्य तो अनिर्वचनीय है। कैसे उसकी परिभाषा होगी? कैसे उसकी व्याख्या होगी? सत्य तो शब्दों में आता नहीं, छूट-छूट जाता है। सत्य तो शब्दातीत है, मनातीत है। सत्य अनुभव है--और ऐसा अनुभव, जो कि मन के अतिक्रमण पर ही उपलब्ध होता है--निर्विचार में, शून्य में, समाधि में।
परिभाषा तो मन करेगा और मन को सत्य का कभी अनुभव नहीं होता। अनुभव होता है मनातीत अवस्था में। अनुभव किसी और को होता है,
परिभाषा कोई और करेगा। बात तो गलत हो ही जाएगी। जिसने देखा वह बोलेगा नहीं और जिसने नहीं देखा वह बोलेगा। आंख वाला देखेगा और अंधा परिभाषा करेगा! यह भी मान लो कि अंधा आंख वाले के साथ था जब सूरज ऊगा। देखा आंख वाले ने। माना कि अंधा साथ था आंख वाले के, तो भी परिभाषा तो अंधा नहीं कर सकता है। जिसने देखा नहीं वह कैसे परिभाषा करे? और जिसने देखा है वह तो अवाक हो जात है। अनुभव इतना विराट है कि व्यक्ति तो उसमें लीन हो जाता है। जैसे बूंद सागर में गिर जाए, क्या खाक बूंद परिभाषा करेगी सागर की! बूंद तो बचती ही नहीं,कौन करे परिभाषा, किसकी करे परिभाषा!
लेकिन जो शास्त्रों में जीते हैं, जो शब्दों में जीते हैं, वे सत्य को भी शब्दों में ही घसीट लाते हैं। उनके लिए सत्य भी एक शब्द है। और जैसे ही सत्य शब्द बना, वैसे ही असत्य हो जाता है।
लाओत्सु का प्रसिद्ध वचन है कि सत्य को बोला नहीं कि असत्य हुआ नहीं।
इसलिए मत पूछो परिभाषा। इंगित कर सकता हूं कि कैसे सत्य का अनुभव हो, परिभाषा नहीं कर सकता हूं। शंकराचार्य परिभाषा करते हैं, इससे ही जाहिर होता है कि कहीं उलझाव पांडित्य का है। न तो "अग्नि' शब्द में अग्नि है, न "प्रेम' शब्द में प्रेम है, और न सत्य शब्द में सत्य है। लेकिन हम सब शब्दों में पलते हैं और शब्दों में बड़े होते हैं। शब्दों की ही शिक्षा है। शब्दों का ही जाल है हम भूल ही जाते हैं कि जीवन का शब्दों से कुछ लेना-देना नहीं। और शब्दों के साथ एक बड़ी अड़चन है कि शब्द हमेशा बांटते हैं, काटते हैं, तोड़ते हैं। उनकी भी मजबूरी है, शब्दों की सीमा होती है, अनुभव असीम होते हैं। शब्द बेचारा करे भी क्या! उसकी अपनी असमर्थता है। विवश है। वह तो तोड़ेगा, खंडित करेगा, विश्लेषण करेगा।
जैसे रात और दिन एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, अंधेरा और प्रकाश एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। लेकिन शब्द में तो दो हो जाएंगे।
विज्ञान से पूछो। विज्ञान क्या कहता है अंधकार के संबंध में। कहता है कि अंधकार कम प्रकाश का नाम है और प्रकाश कम अंधकार का नाम है। दोनों में भेद कुछ भी नहीं। सघनता या विघनता का, पर गुणात्मक कोई भेद नहीं। सर्द और गर्म अलग-अलग शब्द हैं। स्वभावतः ठंडी चाय और गर्म चाय में भेद है। लेकिन यथार्थ में सर्दी और गर्मी एक ही थर्मामीटर से नाप लिए जाते हैं। तो उनमें भेद गुणात्मक नहीं है, मात्रात्मक है, परिमाणात्मक है।
इसे यूं समझो तो आसान हो जाएगा। एक हाथ को बर्फ की शिला पर रख लो और एक हाथ को अंगीठी पर तपाओ। दोनों हाथ तुम्हारे हैं। एक गर्म हो जाएगा, एक बिलकुल ठंडा हो जाएगा। फिर दोनों हाथों को, बाल्टी भरी है पानी की, उसमें डाल दो। और अब मैं तुमसे पूछता हूं कि पानी गर्म है कि ठंडा? तुम बहुत मुश्किल में पड़ोगे; क्योंकि एक हाथ एक बात कहेगा, दूसरा हाथ दूसरी बात कहेगा। जो हाथ ठंडा हो गया है बर्फ पर रखने के कारण,वह तो कहेगा पानी गर्म है। और जो हाथ गर्म हो गया है अंगीठी पर तापने के कारण, वह कहेगा पानी ठंडा है। तुलना की बात हो गयी। फिर पानी ठंडा है कि गर्म, अब तुम जो भी कहोगे गलत होगा। ठंडा कहो तो एक हाथ इनकार करेगा और गर्म कहो तो दूसरा हाथ इनकार करेगा। या तो पानी दानों हैं या पानी दानों नहीं है। किस हाथ की मानोगे--बायें की कि दायें की? वामपंथी होओगे कि दक्षिणपंथी? और दोनों हाथ तुम्हारे हैं। और दोनों की जानकारी तुम्हें मिल रही है। किसकी जानकारी सत्य है, किसकी सूचना सत्य है? दानों ही सत्य सूचना दे रहे हैं एक अर्थों मैं। दानों अपना-अपना अनुभव कह रहे हैं। शब्द के साथ यह मुसीबत है कि शब्द जीवन को दो खंडों में तोड़ लेता है। शब्द द्वैतवादी है और अनुभव अद्वैतवादी है। मैं शंकराचार्य को अद्वैतवादी नहीं मानता हूं। शंकराचार्य लाख उपाय करें अद्वैतवादी अपने को घोषित करने का, द्वैतवादी हैं। मैं अद्वैतवादी हूं। इसलिए कहता हूं शंकराचार्य को द्वैतवादी कि वे माया और ब्रह्म को तोड़ते हैं। एक को कहते हैं सत्य, एक को कहते हैं असत्य। मैं अद्वैतवादी हूं। मैं तोड़ता ही नहीं हूं। मैं कहता हूं दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं--एक प्रगट एक अप्रगट; एक व्यक्त एक अव्यक्त। और जो व्यक्त है वह भी अव्यक्त का ही अंश है। और जो अव्यक्त है वह भी व्यक्त से जुड़ा है, संयुक्त है, क्षण भर को पृथक नहीं, कण भर को पृथक नहीं।
शंकराचार्य माया को कहते हैं मिथ्या। माना कि जगत क्षणभंगुर है, लेकिन क्षणभंगुर का अर्थ समझ लेना। क्षणभंगुर का इतना ही अर्थ होता है कि परिवर्तनशील है। तुमने जगत में कोई चीज मिटते देखी? कहते तो हो नश्वर, सुन लिया होगा शब्द, मगर तुमने जगत में किसी चीज को मिटते देखा? मिटा सकते हो कोई चीज? रेत का एक कण तुम्हें दे देता हूं, मिटा सकते हो इसे? कहते तो हो नश्वर, मिटा कर दिखा दो। विज्ञान हार गया है। विज्ञान कहता है इस जगत में कोई चीज न तो मिटायी जा सकती है और न कोई चीज बढ़ायी जा सकती है। एक रेत का कण भी तुम मिटा नहीं सकते। हां,यह कर सकते हो पीस डालो, मगर एक कण बहुत कणों में बदल जाएगा। है तो अभी भी, रूप बदल गया, सत्ता तो नहीं गयी। जला दो, राख कर डालो, फिर भी रूप बदला, सत्ता तो नहीं गयी। अस्तित्व तो अब भी है। जाओ सागर में फेंक दो, खो गया सागर में, तरंगें दूर-दूर तक कणों को ले जाएंगी, अब कहीं दिखाई नहीं पड़ता; मगर कहीं भी ले जाएं तरंगें, है अभी भी। दिखाई भी न पड़े तो भी है अभी भी।
पानी गर्म होकर वाष्पीभूत हो जाता है, अब दिखाई नहीं पड़ता। लेकिन क्या तुम सोचते तो मिट गया? फिर वर्षा में वर्षा कैसे होती है? जो मिट गया था वह फिर प्रगट कैसे होता है? मिटा नहीं था, केवल अदृश्य हो गया था। आंख की देखने की क्षमता के पार हो गया था। आंख की बड़ी छोटी-सी सीमा है। आंख के देखने की सीमा बहुत छोटी है। नीचे भी बहुत है देखने को, उस सीमा के पार भी बहुत है देखने को। भाप तुम्हारी आंख नहीं देख पाती, मगर फिर ठंडक ले आओ, बर्फ के कण बरसा दो, भाप फिर दिखायी पड़ने लगेगी, फिर पानी हो कर बरस उठेगी। मिटा नहीं सकते तुम।
"नश्वर' कहते हो--उधार। शास्त्र में पढ़ लिया कि जगत नश्वर है। कभी सोचा नहीं, कभी विचारा नहीं कि इस जगत में किसी चीज को मिटते देखा है, कि यूं ही कह दिया नश्वर है? सुनी सुनायी बात दोहरा दी, पिटी-पिटायी बात दोहरा दी कि जगत नश्वर है। जगत सदा से है, कभी मिटा नहीं और सदा रहेगा। नश्वर का केवल इतना ही अर्थ हुआ कि रूप बदलते हैं लेकिन रूप बदलने से सत्ता तो नहीं जाती, अस्तित्व तो नहीं जाता। जवान बूढ़ा हो गया, सत्ता तो बनी है। बच्चा जवान हो गया, सत्ता तो बनी है। और अब तो विज्ञान ने उपाय खोज लिया--स्त्री पुरुष हो जाए, पुरुष स्त्री हो जाए। सत्ता तो बनी है। जब तुम मर जाते हो तब भी कुछ मरता नहीं। मृत्यु होती ही नहीं, रूप बदल जाता है। एक घर से दूसरे घर में चले गये, इससे कुछ मिटना तो नहीं हो गया। एक गांव में न बसे, दूसरे गांव में बस गये। एक देह में न बसे, दूसरी देह में बस गये। और आवारा भी हो जाओ, किसी घर में न बसो, झाड़ों के नीचे ही टिकने लगो, आज इस सराय में कल उस सराय में, आज इस होटल में कल उस होटल में--तो भी क्या फर्क पड़ता है? तुम हो!
इस जगत में कुछ भी कभी नहीं मिटा है और न कभी मिटेगा। नश्वर कैसे कहते हो? सिर्फ रूपांतरण को, परिवर्तन को? लेकिन परिवर्तन के भीतर भी अनुस्यूत, अपरिवर्तित मौजूद है। जैसे कि माला के मोतियों में भीतर अनुस्यूत धागा है। धागा दिखाई नहीं पड़ता, मगर वही धागा माला को सम्हाले हुए है। माला के गुरिए अलग-अलग मालूम पड़ते हैं, मगर भीतर कोई जोड़ने वाला सूत्र भी है।
इस जगत में सारी चीजें बदलती हैं, मगर इस जगत की गहराई में छिपा हुआ सबको जोड़ने वाला कोई सूत्र भी है, उसको ही मैं ब्रह्म कहता हूं, उसको ही मैं सत्य कहता हूं।
परिवर्तन और शाश्वतता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। शाश्वतता है माला में धागे की भांति और परिर्वतनशीलता है माला के मनकों की भांति। दोनों में कुछ दुश्मनी नहीं है। और दोनों ही सत्य हैं। मगर शब्द की अड़चन है। तुमने अगर शब्द में व्याख्या कर ली कि सत्य वह है जो कभी परिवर्तित नहीं होता, जो अनश्वर है--तो स्वभावतः तुम्हारी परिभाषा के कारण, जो नश्वर है, जो परिवर्तित होता है वह मिथ्या हो गया--तुम्हारी परिभाषा के कारण, सिर्फ तुम्हारी परिभाषा के कारण! मगर तुम्हारी परिभाषा का मूल्य क्या है? अस्तित्व को क्या पड़ी तुम्हारी परिभाषा की?
तुम गुलाब को गुलाब कहो कि कोई और नाम दे दो... दुनिया में हजारों भाषाएं हैं, तो गुलाब के हजारों नाम हैं। तुम्हारे नामों से गुलाब को कोई चिंता है? तुम सुंदर कहो कि कुरूप कहो, गुलाब को कोई फर्क पड़ता है? फेशनें बदल जाती हैं। रोज बदलती हैं फेशनें। आज से सौ साल पहले कोई कल्पना कर सकता था कि कैक्टस को तुम अपने घर में बैठकखाने में रखोगे, कि कैक्टस कभी सुंदर हो जाएगा? सौ साल पहले कोई सोच सकता था? अभी भी गांव के आदमी को तुम कहोगे कि कैक्टस सुंदर है, तो वह तुम्हारी आंख फाड़ कर देखेगा कि क्या बक रहे हो, होश-हवास की बातें करो! वह तो कैक्टस को लगाता है अपने खेत की बाड़ी में कि कोई जानवर न घुस जाएं, कि कोई चोर न घुस जाए। वह तो घर में कैक्टस को रख भी नहीं सकता। वह कहेगा, मैं कोई पागल हूं?
गुलाब सुंदर होता था; लेकिन अब गुलाब सुंदर है ऐसा कहना थोड़ा पुराणपंथी बात हो जाती है। पुरानी हो गयी फैशन। अब जो बिलकुल सुसंस्कृत लोग हैं, जो आधुनिक लोग हैं, वे अपने घर में कैक्टस रखते हैं। सारी दुनिया की भाषाओं में, नयी कविता कैक्टस के गीत गाती है। नये चित्रकार कैक्टस के चित्र बनाते हैं। गुलाब दकियानूसी हो गया। अब कौन पूछता है गुलाब को! गुलाब अब आभिजात्य का प्रतीक हो गया और कैक्टस--दरिद्रनारायण, सर्वहारा! और यह तो साम्यवाद का युग है, समाजवाद का युग है। समाजवाद में और गुलाब की प्रशंसा--शर्म नहीं आती संकोच नहीं होता? गये राजा-महाराजा, गये गुलाब और कमल भी, अब तो कैक्टस की पूजा होगी। अब तो कांटे सुंदर हैं। सर्वहारा बेचारा कांटा, जिसकी कभी कोई प्रशंसा किसी ने नहीं की, कोई कालिदास, कोई भवभूति, कोई शेक्सपियर, कोई मिलटन चिंता ही नहीं किया। सब राज-परिवारों की प्रशंसा करते रहे। सब दरबारी थे। सब जी-हुजूर थे। किसी ने इस सम्राट की प्रशंसा की, किसी ने उस सम्राट की। गुलाब के दिन लद गये, कैक्टस का वक्त आ गया। मगर न कैक्टस को पड़ी है कुछ, न गुलाब को पड़ी है कुछ। गुलाब गुलाब है, कैक्टस कैक्टस है। तुम चाहे प्रशंसा करो, चाहे निंदा करो। तुम्हारी व्याख्याओं से कुछ फर्क नहीं पड़ता है।
तुमने व्याख्या कर ली कि सत्य वह, जो शाश्वत है। तुम सत्य को जानते हो? बिना जाने व्याख्या कर ली! फिर व्याख्या में जकड़ गये। अब उस व्याख्या के कारण जगत को माया कहना पड़ता है। ऐसे ही शंकराचार्य व्याख्या में उलझ गये। जब ब्रह्म को शाश्वत कह दिया, अपरिवर्तनीय कह दिया, अनश्वर कह दिया तो। परिभाषा में मजबूरी खड़ी कर दी--जगत को मिथ्या कहो, झूठ कहो स्वप्नवत कहो लेकिन यह परिभाषा की मजबूरी है। अस्तित्व की इसमें कोई बात नहीं उठी।
बुद्ध ने परिभाषा ऐसी नहीं की। बुद्ध ने कहा: जगत परिवर्तनशील है। यूनान में बहुत बड़े रहस्यवादी चिंतक, मनीषी हैराक्लाइटस ने कहा: जगत सतत परिवर्तन है। जैसे नदी बह रही है, जैसे गंगा बह रही है। हैराक्लाइटस ने कहा: तुम एक ही नदी में दुबारा नहीं उतर सकते, इतनी तेजी से धार बह रही है। मगर यही सत्य है। चूंकि हैराक्लाइटस और बुद्ध ने परिवर्तन को ही सत्य माना, इसलिये दोनों के लिए ईश्वर असत्य हो गया। यह व्याख्या की बात है, तुम किसको सत्य मान लेते हो। हैराक्लाइटस और गौतम बुद्ध कहते हैं कि जो जगत दिखाई पड़ रहा है, यह तो परिवर्तनशील है। और यही हमारा प्रत्यक्ष अनुभव है कि सारा जगत एक प्रवाह है। यह जो प्रवाहमान है, यही सत्य है। तो जिस शाश्वत ब्रह्म की तुम चर्चा कर रहे हो, वह असत्य हो गया--परिभाषा के कारण। और परिभाषा कौन तय करेगा? तुम्हारे हाथ में है।
रज्जब कहते हैं: ज्यूं का त्यूं ठहराया! जैसा था वैसा ही ठहरा दिया, अर्थात शाश्वत में प्रवेश कर लिया, जहां कोई परिवर्तन नहीं। यह रज्ज्ब की परिभाषा हुई। बुद्ध कहते हैं: चरैवेति, चरैवेति! चले चलो, चले चलो! ठहरना मत, क्योंकि ठहरे कि झूठ हुए। गति सत्य है, गत्यात्मकता सत्य है। अगति असत्य है।
और विज्ञान भी बुद्ध से राजी है। इसलिए पश्चिम में जहां विज्ञान का प्रभाव बढ़ा है, वहां शंकराचार्य का कोई प्रभाव नहीं बढ़ रहा है, वहां बुद्ध का प्रभाव बढ़ रहा है। क्योंकि विज्ञान का अनुभव है कि जगत परिवर्तनशील है। और गौतम बुद्ध ने सबसे पहले जगत की परिर्वतनशीलता को अंगीकार किया--इतनी गहराई से अंगीकार किया कि बुद्ध ने कहा: हमें संज्ञाएं मिटा देनी चाहिए भाषा से, क्योंकि संज्ञाएं भ्रांति देती हैं। हमें सिर्फ क्रियाएं बचानी चाहिए।
जैसे तुम कहते हो नदी है। नहीं कहना चाहिए, क्योंकि नदी एक क्षण को भी है की अवस्था में नहीं होती। नदी हमेशा बहाव है, ठहराव नहीं; प्रवाह है, थिरता नहीं; गति है। तुम कहते हो वृक्ष है। जब तुम कह रहे हो वृक्ष है, तब भी वृक्ष में नये पत्ते निकल रहे हैं, पुराने पत्ते गिर रहे हैं, नयी जड़ें आ रही हैं, वृक्ष उठ रहा है ऊपर, फूल खिल रहा है, फल पक रहा है--और तुम कहते हो है! है में तो ऐसा लगता है जैसे ठहरा है।
बुद्ध कहते हैं: वृक्ष हो रहा है। क्रिया है, संज्ञा नहीं। तुम भी हो रहे हो। बच्चा जवान हो रहा है। जवान बूढ़ा हो रहा है। बूढ़ा जीवन के द्वार से मृत्यु के द्वार में प्रवेश कर रहा है। प्रतिपल चीजें बदल रही हैं। चूंकि बुद्ध ने सत्य की यही परिभाषा की है--प्रवाह सत्य हैत्तो फिर जो भी प्रवाह में नहीं है वह असत्य है। इसके लिये बुद्ध ने ईश्वर को नहीं माना, ब्रह्म को नहीं माना।
हैराक्लतु ने भी ब्रह्म को नहीं माना, ईश्वर को नहीं माना। अस्तित्व की गतिमयता को माना है।
लेकिन में मानता हूं कि दोनों ने अधूरी बात कही। शंकराचार्य ने शाश्वतता की बात कही, बुद्ध ने गत्यात्मकता की बात कही। मेरा अनुभव है कि दोनों आधी बात कह रहे हैं। और जब तुम आधी बात कहोगे तब अड़चन होगी। शेष आधे को इनकार करना पड़ेगा। अगर जगत को कहो कि गर्म है, तो ठंडा माया है, झूठ है--कहना ही पड़ेगा। और अगर कहो जगत ठंडा है तो गर्मी झूठ है, माया है। पसीना भी बहे तो भी मानना पड़ेगा कि झूठ है। पसीना भी झूठ है। अनुभव में भी आए गर्मी तो भी नकारना पड़ेगा।
मैं जीवन को उसकी समग्रता में अंगीकार करता हूं। मुझे विरोधाभास में जरा भी अड़चन नहीं है, क्योंकि मैं मानता हूं--सत्य विरोधाभासी ही है। सत्य अनिवार्य रूप से विरोधाभासी है।
तुमने पूछा, पंडित ब्रह्मप्रकाश, कि आदिगुरु शंकराचार्य के "जगत मिथ्या ब्रह्म सत्य' सूत्र का खंडन करते हुए आपने कहा कि जगत भी सत्य है और ब्रह्म भी सत्य है।
अगर जगत असत्य है तो क्या आदि और क्या अंत? अगर जगत असत्य है तो शंकराचार्य कभी हुए ही नहीं। जब जगत ही असत्य है तो शास्त्र कैसे लिखोगे? शास्त्र के होने के होने के लिये भी जगत का सत्य होना जरूरी है। शंकराचार्य कागज को स्याही से रंगते रहे--स्याही भी असत्य, कागज भी असत्य, शंकराचार्य भी असत्य! और किनके लिए लिख रहे हो? जो असत्य है, उनके लिए? जो मिथ्या है, उनके लिए? पागल हो? यह तो पागलों जैसी बात हुई कि एक पागल क्यों कहते हो? इसलिए कि जो नहीं है उसको वह मानता है। वह किसी से बात कर रहा है, गुफ्तगू कर रहा है।
एक पागल पागलखाने की दीवाल से कोई दो घंटे से कान लगाए बैठा था। सुपरिन्टेंडेंट कई बार वहां से आया-गया और वह कान ही लगाए बैठा था। सुपरिन्टेंडेंट की भी उत्सुकता जगी कि क्या सुन रहा है! उसने पूछा कि भाई क्या सुन रहे हो? उसने कहा कि शांत, चुप! सुपरिटेंडेंट की जिज्ञासा और घनी हो गयी। उसने भी कान लगाया दीवाल से। कोई पंद्रह मिनिट सुनने के बाद, कुछ सुनायी पड़े न, उसने पूछा पागल को कि मुझे तो कुछ सुनायी नहीं पड़ता। पागल ने कहा कि दो घंटे मुझे भी हो गये, मुझे भी कुछ सुनायी नहीं पड़ता। आप तो पंद्रह ही मिनिट में कहने लगे, अरे मुझे दो घंटे हो गये, कुछ सुनायी नहीं पड़ रहा है।
इसको तुम पागल कहोगे। क्यों पागल कह रहे हो, क्योंकि उसे सुन रहा है जो है ही नहीं। पागल उससे बातें करता है जो है ही नहीं।
शंकराचार्य बिलकुल पागल होने चाहिये। अगर जगत असत्य है, मिथ्या है, किसको समझाते? किसका खंडन, किसका मंडन? शास्त्र किसके लिए लिखते हो, शास्त्र कैसे लिखते हो? तुम भी नहीं हो।
शंकराचार्य कहते हैं: मेरा तेरा सब झूठ। और कथा तुमसे मैं कहूं, जिसमें पता चलता है कि मेरात्तेरा झूठ नहीं। शंकराचार्य ने मंडनमिश्र से विवाद किया, महत्वपूर्ण विवाद हुआ। छह महीने विवाद चला। मंडनमिश्र उस समय के बड़े ख्यातिलब्ध पंडित थे। लेकिन शंकराचार्य की तर्क-प्रक्रिया जरूर मंडनमिश्र से श्रेष्ठ थी। प्रखर था तर्क शंकराचार्य का। मगर तर्क से कुछ होता नहीं। हरा दिया मंडनमिश्र को। अध्यक्षता कर रही थी मंडनमिश्र की पत्नी--भारती। क्योंकि कोई व्यक्ति चाहिये था जो निर्णय दे सके और सिवाय भारती के कोई ऐसा व्यक्ति उपलब्ध न था जो शंकराचार्य और मंडनमिश्र के विवाद की अध्यक्षता करे। भारती ने अध्यक्षता की और उसने घोषणा भी की। बड़ी ईमानदार स्त्री रही होगी। उसने कहा कि शंकराचार्य जीत गये, मंडनमिश्र हार गये। अपने पति को घोषित कर दिया कि हार गया।
लेकिन शंकराचार्य किसको हरा रहे हैं, जो नहीं है? कौन जीत रहा है, जो नहीं है? और भारती ने तब उन्हें मुश्किल में डाल दिया। और उसने कहा, "लेकिन एक बात याद रखें। आप तो शास्त्रों के जानकार हैं, शास्त्र कहते हैं कि पत्नी अर्धांग होती है। तो अभी आपने आधे मंडनमिश्र को जीता है, अभी मैं शेष हूं। अभी जीत अधूरी है। अब मुझे जीतें। जब तक मुझे न जीतेंगे, यह जीत पूरी नहीं है। डंका मत बजाते फिरना कि मैंने जीत लिया। मंडनमिश्र हार गये, अभी आधे मंडनमिश्र हारे, आधे मौजूद हैं।'
शंकराचार्य को भी बात तो माननी पड़ी, कि बात तो शास्त्र की थी। स्त्री अर्धांगिनी है। सोचा न था कभी कि ऐसी झंझट आएगी। एक नयी झंझट आ गयी छह महीने के बाद। स्त्रियां जो झंझट न खड़ी कर दें...। शंकराचार्य अविवाहित थे। किसी तरह स्त्री से बचे थे, यहां उलझ गये। खुद की स्त्री नहीं थी, दूसरे की स्त्री ने झंझट पैदा कर दी। झंझटों का मामला ऐसा है कि अपनी स्त्री न हो तो किसी और की स्त्री पैदा कर दे। और जवाब न सूझा क्योंकि बात शास्त्र की थी। इनकार करते तो भी कैसे करते? झुक कर स्वीकार कर लिया कि ठीक है विवाद करूंगा।
और तुम जानते हो कि स्त्री के तो सोचने के ढंग अलग होते हैं, विचारने के ढंग अलग होते हैं। उसने ब्रह्म वगैरह की चर्चा नहीं। उसनें तो वात्स्यायन के कामसूत्र की चर्चा की। ब्रह्मसूत्र की नहीं, बादरायण के ब्रह्मसूत्र की नहीं--वात्स्यायन के कामसूत्र की। शंकराचार्य को झंझट में डाल दिया, और भी झंझट में डाल दिया, क्योंकि वे ब्रह्मचारी। अभी उम्र भी उनकी कोई ज्यादा नहीं थी--कोई तीस साल। स्त्री को तो जाना नहीं, पहचाना नहीं। मेरे संन्यासी होते तो कोई अड़चन न थी। पुराने ढंग के संन्यासी थे, कामसूत्र पर क्या कहें! निवेदन किया कि मुझे छह महीने की छुट्टी दी जाए, ताकि मैं कामसूत्र का अध्ययन करूं, कामवासना के संबंध में कुछ विचार करूं, तब विवाद चले आगे। भारती ने कहा कि ठीक है, छह महीने बाद आ जाएं।
तब कहानी कहती है कि शंकराचार्य ने अपनी देह छोड़ी, शिष्यों के पास अपनी देह रखवा दी एक गुफा में और शिष्यों से कहा, "मेरी देह की फिक्र करना, क्योंकि छह महीने बाद मैं वापस लौटूंगा।' और एक राजा मरा तो उस राजा की देह में प्रवेश कर लिया, ताकि कामवासना का अनुभव किया जा सके। शंकराचार्य के मानने वाले इस बात को बड़े गौरव से उल्लेख करते हैं, क्योंकि यह बड़े चमत्कार की बात है--अपनी देह छोड़ना, दूसरे की देह में प्रवेश करना--परकाया प्रवेश! मगर मैं पूछता हूं, यह मेरेत्तेरे का भेद कैसा? काया तो काया है। काया तो माया है! इसमें मेरा और तेरा क्या? अगर कामवासना का अनुभव करना था तो अपनी ही काया से क्यों न कर लिया? इसमें किसी दूसरे की काया में प्रवेश करके किया, यह बात तो बड़ी बेईमानी की मालूम पड़ती है। इसमें दोहरी बेईमानी हो गयी। एक तो राजा की पत्नी को धोखा दिया, क्योंकि राजा की पत्नी समझी कि राजा पुनरुज्जीवित हो उठा है। वह तो अपना पति मान कर ही संभोग करती रही राजा से। एक तो दूसरे की पत्नी को धोखा दिया! यह व्यभिचार है, बलात्कार है। और मजा यह है कि यह धोखा किस लिए दिया! यह धोखा इसलिये दिया कि "मेरी काया तो ब्रह्मचारी की काया है!' काया का भी जैसे कोई ब्रह्मचर्य होता है! ब्रह्मचर्य तो आत्मा का होता है।
यह जो लोग कहते हैं कि सारा संसार माया है, काया माया है, यह सब मिट्टी है। मिट्टी-मिट्टी में भी भेद। अपनी मिट्टी, उसकी मिट्टी खराब करो, ठीक, अपनी मिट्टी बचाओ! मिट्टी पर भी ऐसा आग्रह, ऐसी आसक्ति! अपनी मिट्टी तो रख गये शिष्यों के पास कि छह महीने तक रक्षा करना, कीड़े-मकोड़े न लग जाएं, शरीर सड़ न जाए, इसकी फिकर करना, हिफाजत करना। अपनी मिट्टी को तो बचा कर रख गये और दूसरे की मिट्टी में प्रवेश कर गये! मिट्टी मिट्टी में भी अपने और तेरे का भेद है! फिर यह सब माया और ब्रह्म की बातें बकवास हैं। फिर यह जगत कैसा मिथ्या है? यह जगत तो बहुत सत्य मालूम होता है; इसमें मिट्टी भी सत्य मालूम होती है। यह किस बात की सूचना हुई?
और मजा यह है कि शंकराचार्य के मानने वाले मानते हैं कि उनका ब्रह्मचर्य खंडित नहीं हुआ। अपनी ही देह से भोगते स्त्री को तो खंडित होता ब्रह्मचर्य; दूसरे की देह से स्त्री को भोगा तो खंडित नहीं हुआ! तो ब्रह्मचर्य का अर्थ हुआ--कुछ देह की बात है, आत्मा का इससे कुछ संबंध नहीं। फिर इसको ब्रह्मचर्य क्यों कहते हो? ब्रह्मचर्य शब्द में ही ब्रह्म समाया हुआ है। ब्रह्मचर्य का अर्थ भी शंकराचार्य को पता नहीं मालूम होता। ब्रह्मचर्य का अर्थ होता है: ब्रह्म जैसा आचरण, ब्रह्म जैसी चर्या। यह तो बड़े अज्ञान की चर्चा हुई। यह चमत्कार न हुआ। इसकी कोई ठीक से व्याख्या नहीं किया हजारों वर्षों में, मैं ठीक से व्याख्या कर रहा हूं। यह चमत्कार न हुआ, यह मूढ़ता हुई।
सच तो यह है यह कहानी गढ़ी होगी। यह सिर्फ ब्रह्मचर्य को बचाने के लिये, बढ़ाने के लिये, ब्रह्मचर्य के लिये आवरण खड़ा करने के लिये कहानी गढ़ी होगी। भोग तो किया होगा उसी देह से। भोग करने वाला तो वही है। और अगर कोई यह कहे कि वह तो साक्षी-भाव से भोग किये, तो अपनी ही देह में कर लेते साक्षी-भाव से। इसमें दूसरे की देह में जाने की क्या जरूरत थी? और दूसरे की स्त्री को धोखा देने की क्या जरूरत थी? कम से कम ईमानदारी तो होनी ही चाहिये।
और एक घटना है कि शंकराचार्य सुबह-सुबह स्नान करके काशी के घाट पर प्रभु स्मरण करते हुए ब्रह्ममुहूर्त में सीढ़ियां चढ़ रहे थे और एक शूद्र ने उन्हें छू लिया। शूद्र के छूते ही वे नाराज हो गये। और कहा कि "अंधे, मूढ़! तुझे शर्म नहीं आती? शूद्र हो कर ब्राह्मण को छू लिया!'
जगत माया है, शूद्र सत्य है! मत कहो कि जगत माया है, ब्रह्म सत्य। कहो--"जगत माया, शूद्र सत्य!' कहां का ब्रह्म; कैसा ब्रह्म? शूद्र सत्य है! और शंकराचार्य ने कहा, "मुझे फिर स्नान करना पड़ेगा। तूने अपवित्र कर दिया।' मिट्टी मिट्टी को छू गयी--एक मिट्टी शूद्र की, एक ब्राह्मण की! मिट्टी भी ब्राह्मण और शूद्र होती है? शंकराचार्य से तो लगता है कि शूद्र ही ज्यादा समझदार था। शूद्र ने कहा, प्रार्थना करता हूं महात्मन, मेरे प्रश्नों के उत्तर दें। पहला तो यह कि मेरी देह ने आपकी देह को छुआ, क्या देह भी शूद्र और ब्रह्म होती है? मैं भी नहाया हुआ हूं, आप भी नहाये हुए हैं। मैं गैर नहाया हुआ नहीं हूं, मैं भी नहा कर गंगा से आ रहा हूं। गंगा ब्राह्मण को ही पवित्र करती है, शूद्र को नहीं? और आप ही नहीं ईश्वर का स्मरण कर रहे हैं, मैं भी स्मरण कर रहा हूं, तो ईश्वर का स्मरण आपको ही शूद्र करता है मुझे नहीं? तो यह भेद-भाव ईश्वर की दुनिया में भी जारी है? गंगा भी पक्षपाती है? तो मैंने आपको छू दिया तो क्या बिगड़ गया? अगर आपको मैंने छू दिया, मैं अपवित्र नहीं हुआ तो आप कैसे अपवित्र हो गये? और अगर आप कहते हों कि यह सवाल देह का नहीं है आत्मा का है तो मैंने एक तो आपकी आत्मा छुई नहीं।आत्मा छुई जा सकती नहीं। अगर ठीक से समझो तो आत्मा ही एकमात्र अछूत है। छुई जा सकती ही नहीं इसलिए अछूत। अछूत का मतलब छूने योग्य नहीं है ऐसा नहीं; छूने के पार है,ऐसा। स्पर्श नहीं किया जा सकता। फिर भी अगर आप कहते हो कि आत्मा छू लेने से अपवित्र हो गयी तो मैं यह पूछता हूं कि क्या आत्मा भी अपवित्र हो सकती है? आत्मा तो स्वाभावतः पवित्र है। वह तो ब्रह्म ही है स्वयं ब्रह्म है। और जगत माया और ब्रह्म सत्य की बातें...!'
और शंकराचार्य ने जितना ब्राह्मणवाद इस देश में फैलाया उतना किसी और व्यक्ति ने नहीं फैलाया। और शंकराचार्य की चिंतना का विचारणा का कुल परिणाम इतना हुआ कि शंकराचार्य एक जमात छोड़ गये हैं अहंकारियों की। जगत मिथ्या सो फिर अहंकार ही सत्य रह जाता है और कुछ बचता नहीं । अब यह अहंकार है कि यह मेरी देह है। जहां मेरे भाव है वहां अहंकार है। यह अहंकार है कि मैं ब्राह्मण और तू शूद्र और तूने छू कर मुझे अपवित्र कर दिया। क्या खाक ब्राह्मण रहे होंगे! अगर ब्राह्मण थे तो तुम्हें छूने से शूद्र भी होता तो ब्राह्मण हो जाना चाहिए था। यह क्या बात हुई कि शूद्र ब्राह्मण को छुए तो ब्राह्मण अपवित्र हो जाए! होना तो यह चाहिए कि शूद्र पवित्र हो जाए। यह क्या ब्राह्मण की नपुंसकता हुई! यह तो शूद्र ज्यादा बलवान सिद्ध हुआ।
लेकिन हमारे बड़े मजे हैं। हम तोतों की तरह दोहराए जाते हैं।
पंडित ब्रह्मप्रकाश, तुम पूछ रहे हो कि सत्य की परिभाषा है--वह जो नश्वर भी नहीं है। यह परिभाषा तुम्हें कहां मिली, कैसे मिली? सत्य को जाना है? मैं कहता हूं मैंने जाना है और पाया है कि सत्य नश्वर भी है, अनश्वर भी। सत्य संसार भी है, ब्रह्म भी। सत्य देह भी है आत्मा भी। सत्य के ये दो पहलू हैं, इनमें कुछ विरोधाभास नहीं। इनमें बड़ा तालमेल है। इनमें बड़ा गहन ऐक्य है अद्वैत है। इनके बीच संगीतपूर्ण लयबद्धता है।
तुम ही देखो, तुम्हारी देह में और तुम्हारी आत्मा में कैसी लयबद्धता है। देह प्रफुल्लित हो तो आत्मा प्रफुल्लित होती है। आत्मा प्रफुल्लित हो तो देह प्रफुल्लित होती है। बड़ी लयबद्धता है। जैसी तुम्हारी देह और आत्मा में लयबद्धता है, ऐसे ही ब्रह्म में और उसकी देह-इस विराट संसार में-लयबद्धता है। मनुष्य छोटा रूप है इस पूरे जगत का। इस जगत की पूरी कथा उसमें लिखी है। एक मनुष्य को हम पूरा समझ लें तो हमने सारा अस्तित्व समझ लिया। मनुष्य प्रतीक है।
तुम्हारे भीतर आत्मा और शरीर में कैसा तारतम्य बंधा हुआ है, कैसा नृत्य चल रहा है! ठीक ऐसा ही नृत्य ब्रह्म में और उसकी अभिव्यक्ति में चल रहा है।
और शंकराचार्य बहुत अड़चन में पड़े। अड़चन में पड़ोगे ही क्योंकि व्याख्या अड़चन में डालने वाली है। उनसे बार-बार पूछा गया, जिसका वे जवाब नहीं दे सके और हजार साल में कोई शंकराचार्य को मानने वाला जवाब नहीं दे सका। जवाब है नहीं कोई देगा भी कैसे? उनसे पूछा गया--अगर ब्रह्म है और माया असत्य है,तो माया आयी कैसे, आयी क्यों, कहां से आयी? क्योंकि सबका स्रोत तो ब्रह्म है। फिर माया का स्रोत भी ब्रह्म ही होगा। नहीं तो आएगी कहां से? ब्रह्म के अतिरिक्त तो कुछ भी नहीं है। ब्रह्म ही तो सर्वव्यापी है। वही तो एकमात्र अस्तित्व है।
ब्रह्म अस्तित्व का पर्यायवाची है। "ब्रह्म शब्द प्यारा है। ब्रह्म का अर्थ होता है--जो विस्तीर्ण है, फैला हुआ है; जो लोक लोकांतर में व्याप्त है; जिसने सारे आकाश को आच्छादित किया हुआ है। ऐसी इंच भर जगह नहीं है जहां ब्रह्म न हो। तो फिर माया कहां से आयी?
तो फिर शंकराचार्य को लीपापोती करनी पड़ती है। वह लीपापोती बिलकुल व्यर्थ है, उसमें किसी को धोखा पैदा नहीं होता। हां जिनको धोखा ही खाना है उनकी बात और। यह सीधा सवाल है, इसका जवाब नहीं हो सकता। आएगी तो ब्रह्म से आएगी। और तब अड़चन खड़ी हो जाएगी। दो ही बात हो सकती हैं। या तो ब्रह्म के अतिरिक्त कहीं से आयी, तो फिर हमें अस्तित्व का एक स्रोत मानना होगा ब्रह्म के अलावा भी। तब जगत में दो ब्रह्म हो जाएंगे, दो सत्य हो जाएंगे, और अड़चन फिर बढ़ती चली जाएगी। फिर दोनों में कौन बड़ा सत्य है? फिर दोनों में कौन शक्तिशाली है? फिर एक बात तो तय हो जाएगी कि ब्रह्म फिर सर्वशक्तिमान नहीं है, और भी कोई है जो कुछ कम शक्तिशाली नहीं मालूम होता। सच तो यह है कि ज्यादा शक्तिशाली मालूम होता है; क्योंकि संसार अधिक लोगों को प्रभावित करता है, ब्रह्म तो शायद ही किसी को प्रभावित कर पाता है--कभी करोड़ों में एकाध। अधिकतम लोग तो संसार से ही प्रभावित हैं, संसार में ही जी रहे हैं। तो वह जो दूसरा ब्रह्म है, वह ज्यादा शक्तिशाली मालूम होता है। उसकी विजय बड़ी मालूम होती है। उसने अधिक लोगों को जीता हुआ है। यह तुम्हारे तथाकथित ब्रह्म, यह तो कभी एकाध वोट इनको मिल जाये कहीं तो मिल जाए। इनकी हैसियत क्या है?
और दूसरा स्रोत मान लिया तो अड़चन और खड़ी हो जाने वाली है। फिर सवाल यह है कि हम किस ब्रह्म को खोजें? जिससे माया पैदा हुई उसको खोजें, कि जो माया के विपरीत है उसको खोजें?किसको खोजने से मुक्ति होगी? और फिर दोनों में संघर्ष होगा, कौन जीतने वाला है? कैसे निर्णय होगा? जो जीते उसी के साथ होना चाहिये। और जीतता तो दिखता है नंबर दो का ब्रह्म; नंबर एक का तो ब्रह्म जीतता नहीं दिखता, हारता दिखता है, रोज रोज हार होती चली जाती है। तो यह माना नहीं जा सकता कि एक और स्रोत है। तब फिर एक ही उपाय बचता है--ब्रह्म से ही माया पैदा हुई। तब एक अड़चन खड़ी होती है कि सत्य से मिथ्या कैसे पैदा हो सकता है? सत्य के वृक्ष में मिथ्या फूल लगें! सत्य की शाखाएं, सत्य की जड़ें और फूल लगें झूठ के--असंभव! सत्य से जो पैदा होगा वह भी सत्य होगा।
शंकराचार्य इस परिभाषा में उलझ कर बहुत झंझट में पड़ गये। उनकी काफी पिटाई हुई है एक हजार साल में। होना निश्चित थी। जिम्मेवार वे खुद हैं।
में तो मानता हूं कि यह जगत ब्रह्म से ही विस्तीर्ण होता है, उसकी अभिव्यक्ति है उसका आह्लाद है, उसका उत्सव है। ये सब रंग उसके हैं, ये सब फूल उसके हैं। ये सब व्यक्तित्व उसके हैं। ये सब रूप उसके हैं, ये सब नाम उसके हैं। वही है पहाड़ों में, वही नदियों में, वही झरनों में, वही मनुष्यों में, वही पशुओं में, वही पक्षियों में। इस सारे वैविध्य के भीतर वही है। इसलिए मैं इस वैविध्य को असत्य नहीं कह सकता क्योंकि इसको असत्य कहूं तो फिर दो बातें करनी पड़ेंगी--या तो ब्रह्म को भी असत्य कहो, क्योंकि असत्य से ही असत्य पैदा हो सकता है; या फिर दोनों को सत्य कहो।
दोनों को असत्य कहने वाले लोग भी पैदा हुए, जैसे नागार्जुन ने कहा दोनों असत्य है। और उसका तर्क कहीं शंकराचार्य से ज्यादा श्रेष्ठकर है। शंकराचार्य उसके सामने टिकते नहीं। नागार्जुन ने कहा कि अगर जगत असत्य है तो ब्रह्म भी असत्य। जहां से नागार्जुन ने पकड़ा वहीं से मैंने शंकर को पकड़ा है, लेकिन नागार्जुन शंकर के ही तर्क को आगे बढ़ाता है। वह कहता है कि अगर जगत असत्य है तो ब्रह्म भी असत्य, क्योंकि जब फूल असत्य है तो हम वृक्ष को कैसे सत्य मानें? उसका भी तर्क वही है जो मेरा है, हालांकि वह दूसरे आयाम में गया। उस आयाम में मैं जाने को राजी नहीं हूं, क्योंकि उसमें मैं उलझन में पड़ा। नागार्जुन से पूछा गया: जब सभी असत्य है, तुम किसको समझा रहे हो? किसको लिख रहे हो? जगत भी असत्य, तुम भी असत्य। कम से कम शंकराचार्य खुद तो सत्य थे। कम जगत असत्य हो, कम से कम आत्मा तो सत्य थी।
नागार्जुन ने कहा कि जब सारा जगत असत्य है, दृश्य असत्य है, तो दृश्टा कैसे सत्य हो सकता है? वह शंकराचार्य की जो तर्कसरणी है,नागार्जुन उस पर शंकराचार्य से बहुत आगे चला जाता है। वह उसी तर्क को पूरा खींचता है। शंकराचार्य बेईमान मालूम होते हैं,बीच में ही रुक जाते हैं। लेकिन नागार्जुन इस अर्थों में ईमानदार हैं। झंझटें बहुत आती हैं उस पर मगर वह तर्क पूरा ले जाता है,जहां तक ले जाया जा सकता है। वह कहता है: असत्य से ही असत्य पैदा हो सकता है। और जब दृश्य ही असत्य है तो द्रष्टा कैसे सत्य होगा? द्रष्टा भी असत्य। सब असत्य
मगर उसकी अड़चन खड़ी होती है कि जब सब असत्य है तो तुम किसको समझ रहे हो? सांप है ही नहीं और तुम लाठी मार रहे! और लाठी मारने वाला भी नहीं है और लाठी भी नहीं है।
मैंने भी तर्क को वहीं से पकड़ा है, लेकिन मैं दूसरे आयाम में ले जा रहा हूं। मैं कह रहा हूं कि जगत भी सत्य है और ब्रह्म भी सत्य है। और मैं जब यह कह रहा हूं तो यह मेरी तार्किक निष्पत्ति मात्र नहीं है। यह मेरा अनुभव है। मैं अपनी देह को उतना ही सत्य मानता हूं जितनी अपनी आत्मा को। और इसलिए मैं अपने संन्यासी को कहता हूं--संसार को छोड़ना मत। लोग मेरी बात समझें या न समझें , क्योंकि लोगों के पास पिटी-पिटाई धारणाएं हैं, लेकिन मैं जो कह रहा हूं उसके लिए बुनियादी आधार हैं। मैं यह कह रहा हूं कि संसार को मत छोड़ना क्योंकि संसार परमात्मा का ही रूप है, उसका ही गीत है। गायक छिपा है, गीत सुनाई पड़ा है। जैसे दूर कोयलिया बोले! कोयल दिखाई भी न पड़े, लेकिन गीत, उसकी गूंज तुम तक आ जाए, तो तुम मान लोगे कि कोयल है, क्योंकि गीत है। यह कोयल की कुहू-कुहू पर्याप्त है, प्रमाण है कि कोयल भी होगी। नहीं दिखाई पड़ती, कहीं छिपी है दूर अमराई में, मगर कुहू-कुहू की पुकार तुम्हारे प्राणों को गदगद कर जाती है, तो कोयल होगी।
संसार परमात्मा की कुहू-कुहू है। परमात्मा तो छिपा है किसी गहरी अमराई में अप्रगट है, तुम्हारे भीतर भी छिपा है, मेरे भीतर भी छिपा है। पत्थर में भी वही सोया हुआ है, बुद्धों में भी वही जागा है। जो पत्थरों में सोया है, वही बुद्धों में जगा है। हमने अच्छा किया कि बुद्ध की मूर्तियां बनायीं वे पत्थर की बनायीं। उससे संकेत दिया हमने जगत को कि पत्थर में भी वही है, जो बुद्ध में है। हमने भेद तोड़ा। हमने कहा: देखो, हम मूर्ति बुद्ध की पत्थर में बनाते हैं।
सबसे पहले मूर्तियां जगत में बुद्ध की बनीं। इसलिए उर्दू में तो बुत शब्द मूर्ति का पर्यायवाची हो गया। बुत बुद्ध का ही बिगड़ा हुआ रूप है। बुत-परस्ती का अर्थ है: बुद्ध-परस्ती। बुद्ध की ही पहली प्रतिमाएं दुनिया में दिखाई पड़ी। और हमने प्रतिमाएं बनायीं पत्थर की। इशारा यह था कि जो पत्थर में सोया है वही बुद्ध में जागा है। एक ही है। वही सोता है, वही जागता है। वही भटकाता है, वही घर लौट आता है। उसका ही सब खेल है, उसकी ही सारी लीला है।
संसार से भागना मत। संसार को गंभीरता से भी मत लेना त्यागना भी मत। पलायन कायरता है।
अपने संन्यासी को में कहता हूं: जीओ, जी भर कर जीओ! पीओ, जी भर कर पीओ! और प्रतिपल साक्षी भी बने रहो। दृश्य भी सत्य है, द्रष्टा भी सत्य है। लेकिन तुम दोनों को जानो। तुम दोनों का अनुभव को विस्तीर्ण करो--दृश्य में भी और द्रष्टा में भी। तब तुम्हारे जीवन में सत्य अपनी समग्रता से उतरेगा।
अब तक का जो संन्यास था वह अधूरा था, अपंग था। अब तक का जो संसारी था वह भी अधूरा था और अपंग था। मेरा संन्यासी न तो पुराने ढंग का संन्यासी है, न पुराने ढंग का संसारी है। मेरे संन्यास में संसार और संन्यास ने अपना द्वंद्व छोड़ दिया है, अपना द्वैत छोड़ दिया है; वे अद्वैत को उपलब्ध हो गये हैं। मेरा संन्यासी ध्यानपूर्वक संसार में जीएगा, साक्षीभाव से संसार में जीएगा। ब्रह्म में रहेगा और संसार से भागेगा नहीं। क्योंकि दोनों सत्य हैं और एक ही सत्य के दो पहलू हैं।
सुन लो पंडित ब्रह्मप्रकाश कबीर क्या कहते हैं--
चुवत अमीरस, भरत ताल जहं, शब्द उठै असमानी हो,
सरिता उमड़ि सिंधु को सोखै, नहिं कछु जाए बखानी हो।
चांद सुरज तारागन नहिं वहं, नहिं वहं रैन बिहानी हो।
बाजे बजैं सितार बांसुरी, रंरंकार मृदुबानी हो।
कोटि झिलमिलै जहं तहं झलकै, बिन जल बरसत पानी हो।
दस अवतार एक रत राजैं, अस्तुति सहज सेआनी हो।
कहै कबीर भेद की बातैं, बिरला कोई पहचानी हो।
भेद की बात कोई बिरला पहचान पाता है। और क्या भेद की बात? "नहिं कछु जाए बखानी हो।' बात ऐसी है कि कहो तो कही नहीं जा सकती मगर अनुभव की जा सकती है। चुवत अमीरस! वहां जहां अनुभव होता है, वहां अमृत  झरता है। सत्य एक स्वाद है अमृत का। "चुवत अमीरस, भरत ताल जहं'! और कुछ छोटी मोटी बूंदा बांदी नहीं होती, ताल भर जाते हैं भीतर, सरोवर उमड़ आते हैं भीतर! मानसरोवर निर्मित हो जाता है भीतर।
"चुवत अमीरस, भरत ताल जहं, शब्द उठै असमानी हो।' और भीतर शास्त्र का जन्म होता है, उपनिषद पैदा होते हैं, कुरान जगते हैं, बाइबिल बोलती है। "शब्द उठै असमानी हो'! मगर वह शब्द हमारा नहीं होता--आकाश का होता है, विराट का होता है। हमारा तर्क बहुत पीछे छूट जाता है। हम खुद ही बहुत पीछे छूट जाते हैं। वह जो ध्वनि उठती है, वह जो शब्द उठता है, हमने बड़ा। हम उसमें सिर्फ एक झंकार हो जाते हैं।
"सरिता उमड़ि सिन्धु को सोखै'। और मामला ऐसा है सत्य का, ऐसा बेबूझ पहेली जैसा, इसलिए मैं कहता हूं विरोधाभासी। "सरिता उमड़ि सिन्धु को सोखै'...जैसे सरिता उमड़े और सागर को पी जाए, भरोसा न आए। यह बात ही भरोसे की नहीं कि सरिता उमड़े और सागर को पी जाए। मगर ऐसा ही अनुभव है। तुम्हारे भीतर इतना विराट समा जाता है कि भरोसा नहीं आता, जैसे बूंद में सागर समा जाए!
"सरिता उमड़ि सिन्धु को सोखै'। एक-एक जाग्रत पुरुष ब्रह्म को पूरा का पूरा पी गया है, कुछ छोड़ा नहीं। बड़ी हैरानी की बात है। हम इतने छोटे हैं और विराट को पी जाते हैं! मगर यह घटना घटती है। और घटती है, तभी समझ में आती है। लाख कोई समझाए, समझ के पार रह जाएगी। मैं कितना ही तुमसे कहूं कि जगत भी सत्य, ब्रह्म भी सत्य; मगर जब तक यह तुम्हारा अनुभव न हो तब तक बात तुम्हें जमेगी नहीं। तुम्हारे पुराने पक्षपात घेरे रहेंगे।
"सरिता उमड़ि सिन्धु को सोखै, नहीं कछु जाए बखानी हो।' अब क्या कहें, किससे कहें? छोटी-सी सरिता ने सागर को पी लिया है। कहें तो कौन मानेगा? लाख सिर पटकें, कोई राजी न होगा।
"चांद सुरज तारागन नहीं वहं, नहीं वहं रैन बिहानी हो। बाजे बजै सितार बांसुरी'...!
बड़ा आह्लादपूर्ण है यह अनुभव। संगीत है, नृत्य है, महोत्सव है। "बाजे बजैं सितार बांसुरी, रंरंकार मृदुबानी हो।'
"कोटि झिलमिलै जहं तहं झलकै'...। जैसे करोड़ों दीए जल गये हों! सब तरफ झिलमिल झिलमिल हो जाती है। तुम्हारे भीतर का दीया क्या जलता है, सबके भीतर के दीये तुम्हें दिखाई पड़ने लगते हैं। बुद्ध ने कहा है: जब मैं ज्ञान को उपलब्ध हुआ तो मैंने जाना कि सारा जगत मेरे साथ ज्ञान को उपलब्ध हो गया है। मैंने क्या बुद्धत्व पाया, सारे जगत ने मेरे साथ बुद्धत्व पा लिया!
"कोटि झिलमिलै जहं तहं झलकै, बिनु जल बरसत पानी हो।' और बड़ी मुश्किल है। कोई मेघ दिखायी पड़ते नहीं, कोई जल दिखायी पड़ता नहीं--और यूं वर्षा हो जाती है, यूं बरसता है, ऐसा घनघोर बरसता है, ऐसा उमड़-घुमड़ कर बरसता है! न कहीं बादल दिखायी पड़ते न कहीं कोई जल दिखायी पड़ता और वर्षा होती है। और भिगा जाती है, भिगो जाती है, गीला कर जाती,आद्र कर जाती है, रस से भर जाती है।
"चुवत अमीरस, भरत ताल जहं'...
"दस अवतार एक रत राजैं'...। और परमात्मा के जितने रूप प्रगट हुए हैं, सब एक साथ प्रगट हो जाते हैं। सभी अवतार जैसे एक साथ सामने खड़े हो जाते हैं। कृष्ण की बांसुरी बजती है, बुद्ध की समाधि जगती है, महावीर का कैवल्य--सब एक साथ!
"दस अवतार एक रत राजैं, अस्तुति सहज सेआनी हो।' अब किस-किसकी प्रार्थना करो, किस-किसकी स्तुति करो? अवाक रह जाता है अनुभव करने वाला। वाणी खो जाती है। गूंगा हो जाता है। बोल नहीं उठता।
"कहैं कबीर भेद की बातैं, बिरला कोई पहचानी हो।'
पंडित ब्रह्मप्रकाश, अगर जानना हो तो ध्यान में उतरो, परिभाषा न पूछो। समाधि में उतरो, तर्कशास्त्र में मत पड़ो। ऐसे मुझे कुछ अड़चन नहीं है। तर्क मेरे लिए खेल है। तर्क ही करने में किसी को रस आता हो तो मुझे कुछ बेचैनी नहीं। में तर्क भी कर सकता हूं। मगर तर्क मेरे लिए खेल है, इससे ज्यादा नहीं। उसका कोई मूल्य नहीं है। जैसे ताश के पत्ते कोई खेले। अगर तुम्हें अच्छा लगे तो मैं ताश के पत्ते भी खेलने को राजी हूं। तुम्हारी मर्जी। मगर उससे कुछ हल नहीं होगा। वे सब राजा-रानी ताश के पत्तों पर जो हैं, बस ताश के पत्तों पर हैं, न कोई राजा है न कोई रानी है। जैसे शतरंज के मोहरे कोई वजीर है, कोई हाथी है, कोई राजा है, कोई कोई भी नहीं वहां। ऐसा ही तर्क का जाल है--शतरंज का खेल है।
मगर मैं उन लोगों में से नहीं हूं कि जिन्हें तर्क करने में कोई अड़चन होती हो। में तर्क को उसकी आखिरी सीमा तक खींच सकता हूं। मैं तर्क को खूब धार दे सकता हूं। मगर इतना तुम्हें याद दिलाऊं कि तर्क से कुछ हल न होगा। हल तो होगा समाधि से। समाधान तो होगा समाधि से परिभाषा न पूछो। अब यहां आ गया हो, यह मयकदा है, पीओ! भूले-चूके आ गये, बड़ी कृपा की! पंडितजन इस तरफ आते नहीं और आ जाते हैं तो मुश्किल में पड़ जाते हैं। अगर तुम उतार कर रख सको अपना पांडित्य तो यह शराब तुम्हारे लिए भी निमंत्रण है।
फिर दोहरा दूं। एक तो ऐसी जगह आना ठीक नहीं और आ गये तो बिना पीये जाना ठीक नहीं।
योग प्रीतम का यह गीत कुछ इशारे दे सकता है। योग प्रीतम मेरे संन्यासी हैं और जो मैं कहता हूं, उसे गीतों में बांध देते हैं।
कुछ ऐसी हमारी किस्मत हो, पीता भी रहूं और प्यास भी हो
मस्ती में बहकता दिल भी रहे और होश भरा उल्लास भी हो
मिट जाएं मेरी हस्ती के निशां, मौजूद भी लेकिन पूरा रहूं
मैं उसका नजारा देखा करूं, संसार भी हो संन्यास भी हो
जीवन का सफर यों बीते अगर, कुछ धूप भी हो, कुछ छांव भी हो
मिलता भी रहे चलने का मजा, मंजिल का सदा अहसास भी हो
पर्दे में छुपा हो लाख मगर, जलवा भी दिखाई देता रहे
इस आंख मिचौनी खेल में वो, कुछ दूर भी हो, कुछ पास भी हो
कुछ इश्के-खुदा में चुप भी रहूं, कुछ इश्के-बुतां में बात भी हो
धरती भी बसी आंखों में रहे, प्यारा ये खुला आकाश भी हो
हो चुप्पी मगर कुछ गाती हुई, संगीत हो मौन में डूबा हुआ
रोदन भी चले कुछ मुस्काता, कुछ अश्रु बहाता हास भी हो
सन्नाटा कभी तूफान सा हो, चुपचाप सी गुजरे आंधी कभी
मझधार भी हो साहिल की तरह, पतवार भी हो, विश्वास भी हो
मुमकिन हो अगर यह दुनिया में, जीने का मजा कुछ और ही हो
मौला भी रहे, बंदा भी रहे, गीता भी झरे और व्यास भी हो
कुछ ऐसी हमारी किस्मत हो, पीता भी रहूं और प्यास भी हो
मस्ती में बहकता दिल भी रहे और होश भरा उल्लास भी हो
मिट जाएं मेरी हस्ती के निशां, मौजूद भी लेकिन पूरा रहूं
मैं उसका नजारा देखा करूं, संसार भी हो संन्यास भी हो
में चुनाव करने को नहीं कहता। मैं पूरा-पूरा जीने को कहता हूं। समग्र रूप से जीना ही धर्म है। अधूरा जीना ही अधर्म है।

दूसरा प्रश्न: भगवान,
संन्यास के बिना भगवत्ता को पाना असंभव है या संन्यास सिर्फ सत्य का द्वार है? कृपया समझाएं।
हर्ष कुमार,
क्या खाक समझाऊं?और समझाऊं भी तो क्या तुम समझोगे? तुम्हारा प्रश्न ही ऐसी नासमझी का है। क्या तुम सोचते हो भगवत्ता और सत्य दो चीजें हैं? जरा अपने प्रश्न पर पुनः विचार करो।
पूछते हो,"संन्यास के बिना भगवत्ता को पाना असंभव है या संन्यास सिर्फ सत्य का द्वार है? सत्य का द्वार कहो या भगवत्ता कहो, एक ही बात है। सत्य और भगवत्ता एक ही है। तुम्हारी नजर में ऐसा लग रहा है कि भगवत्ता कोई बहुत और बात है, बहुत ऊंची--और संन्यास तो केवल सत्य का द्वार है! सत्य के बाद भी कुछ बच रहता है? सत्य में भगवत्ता समा गयी। और तुम ऐसे पूछ रहे हो कि सिर्फ द्वार ही हो तो फिर बिना संन्यास के चल जाएगा। मगर बिना द्वार के प्रवेश कैसे करोगे?
पूछते हो,"या सिर्फ द्वार ही है?' तो तुम्हारा क्या दीवाल से घुसने का इरादा है? नाम से तो तुम सरदार नहीं मालूम होते--हर्ष कुमार। मगर हो सकता है पंजाब में रहते हो और संग साथ का असर पड़ गया हो।
मैंने सुना है, चंड़ीगढ़ विश्वविध्यालय में भाषा प्रतियोगिता हो रही थी। प्रतियोगिता का विषय था कि ऐसी कौन सी भाषा है जो कम शब्दों में अधिक बात प्रगट करती हो? उदाहरण के लिए एक वाक्य चुना गया--क्या मैं अंदर आ सकता हूं? प्रतियोगिता में हिंदी, अंग्रेजी, मराठी और पंजाबी और गुजराती अध्यापकों ने भाग लिया। अंग्रेजी वाले ने कहा सबसे पहले, "मे आइ कम इन सर?'
हिंदी वाला बोला, "श्रीमान, में अंदर आऊं?'
मराठी बोला, "मी आत येऊ का?'
गुजराती बोला, "हूं अंदर आवी शकुं छूं?'
सबसे बाद में वाह गुरु जी का खालसा करते हुए सरदार बिचित्तरसिंह उठे और हाथ ऊपर उठा कर, कृपाण निकाल कर दरवाजे को धक्का देकर बोले, "वड़ां?' वड़ां अर्थात घुसूं? और कृपाण हाथ में देख कर स्वाभावतः ...जो निरीक्षक बैठे थे उठ कर खड़े हो गये कि आइए-आइए! अरे विराजिए-विराजिए! ऐसे सरदार बिचित्तरसिंह जीत गये। पूछा उनने--"घुसूं?' मगर हाथ में कृपाण!
तुम तो बिचित्तरसिंह से भी आगे निकले जा रहे हो, तुम क्या दीवाल से घुसने का इरादा रखते हो? दरवाजे से ही जाना होगा। और दरवाजा मिल गया तो सब मिल गया, बचा क्या? और दरवाजा खुल गया तो सब खुल गया, बचा क्या?
संन्यास द्वार है--सत्य का कहो या भगवत्ता का। संन्यास का अर्थ क्या है? इतना ही कि तुम जीवन को समाधि के रंग में रंग लो। वसंत आ जाए। ये गैरिक वस्त्र वसंत का रंग है। यह वसंत के फूलों का रंग है। यह बहार का रंग है। तुम्हारी जिंदगी खिजां है,इसमें वसंत चाहिए, मधुमास चाहिए।
संन्यास का अर्थ कुछ त्यागना नहीं है, छोड़ना नहीं है, भागना नहीं है--जागना है। और सोए सोए भोगा, अब जाग कर भोगो--बस इतना ही फर्क है। शेष सब वैसा ही रहेगा, कुछ बदलेगा नहीं। बाहर जैसा है वैसा ही चलेगा; शायद और भी सुंदर चले, क्योंकि नींद में तो कुछ भूल-चूक होती ही रहती है, जाग कर भूल चूक भी असंभव हो जाएगी। और जो होशपूर्वक जीता है, उसके आनंद का अंत नहीं है।
संन्यास तो जीवन की कला है, लेकिन संन्यास के नाम पर बहुत कुछ गलत चला है। उससे भय व्याप्त हो गया है। उससे घबराहट पैदा हो जाती है, क्योंकि संन्यास के नाम पर बहुत अनाचार हुआ, अत्याचार हुआ। संन्यास के नाम पर कितनी स्त्रियां अपने पतियों के रहते विधवा हो गयीं, कितने बच्चे अपने बापों के रहते हुए अनाथ हो गया। इसका कोई हिसाब लगाए तो शायद तुम्हें पता चले कि अतीत में संन्यास की जो धारणा थी, उसके कारण मनुष्यजाति को जितना दुख झेलना पड़ा है उतना किसी के कारण नहीं झेलना पड़ा। चंगेज़खां और तैमूरलंग और नादिरशाह , सब पीछे हट जाएंगे। मार लिए होंगे इनने कुछ हजार लोग, मगर संन्यास ने जितने लोगों के जीवन को मारा है...और मार ही डालो किसी को तो कृपा है, अधमरा करके छोड़ दो तो और मुश्किल। और संन्यास ने यही किया। जब पति भाग जाता है तो खुद भी अधमरा हो जाता है और पत्नी को अधमरा कर जाता है, बच्चों को अधमरा कर जाता है। कितनी पत्नियों को भीख मांगनी पड़ी, कितने बच्चों को भीख मांगनी पड़ी। कितनी पत्नियां वेश्याएं हो गयी होंगी तुम्हारे संन्यासियों के कारण और कितनी पत्नियों को कितना नहीं दुख उठाना पड़ा होगा! और कितने बच्चे खिल भी न पाए होंगे और कुम्हला गये होंगे! अगर हम पांच हजार साल में तुम्हारे तथाकथित संन्यासियों का सारा हिसाब-किताब लगा पाएं तो शायद लगे कि इससे बड़ी कोई महामारी पृथ्वी पर न कभी फैली थी, न कभी फैलेगी।
मेरा प्रयास है कि संन्यास को रुग्णता से मुक्ति दिला दूं; उसे स्वस्थ कर लूं, उसे गरिमा दे दूं, उसे महिमामंडित कर दूं। इसलिए मैं संन्यास की परिभाषा बदल रहा हूं, उसका रंग-रूप बदल रहा हूं। स्वभावतः हिंदू नाराज हैं, मुसलमान नाराज हैं, ईसाई नाराज हैं, जैन नाराज हैं, बौद्ध नाराज हैं। होंगे ही, क्योंकि उनकी सारी संन्यास की धारणा को मैं राख किये दे रहा हूं। मेरी संन्यास की अपनी नयी धारणा है। और मैं इस बात की घोषणा करता हूं कि मैं जिसे संन्यास कह रहा हूं, वही संन्यास मनुष्य-जाति के लिए सौभाग्य सिद्ध हो सकता है। अतीत का संन्यास तो दुर्भाग्य सिद्ध हुआ।
संन्यास अर्थात जीवन को जीने की कला। न इससे कुछ कम, न इससे कुछ ज्यादा--बस जीवन को जीने की कला।
अब तुम पूछते हो हर्ष कुमार कि संन्यास के बिना भगवत्ता को पाना असंभव है? संन्यास तक की हिम्मत नहीं है, भगवान को पचा पाओगे? फिर यह सरिता सागर  को पी जाएगी? संन्यास तक की हिम्मत नहीं है और भगवान को पाने का इरादा रखते हो? जीवन तक को जीने की छाती नहीं है, भगवान को झेल सकोगे? कहो है वह झोली तुम्हारे पास? संन्यास उसी की तो तैयारी है कि अगर परम अतिथि आए तो ऐसा न हो कि द्वार से ही लौट जाए, कि हमारे द्वार बंद हों। कहीं ऐसा न हो कि द्वार तो खुले हों, लेकिन बंदनवार न लगा हो। कहीं ऐसा न हो कि द्वार भी हो, द्वार भी खुला हो वंदनवार भी लगा हो, लेकिन हम बेहोश पड़े हों। कहीं ऐसा न हो कि हम बेहोश भी न हों, लेकिन आंख बंद किए बैठे हों।
संन्यास तैयारी है अपने को उस परम अतिथि के योग्य बनाने की, कि वह आए तो हमें तैयार पाए। और वह आता है, रोज आता है, प्रतिपल आता है, द्वार खटखटाता है। मगर या तो तुम साए और या तुम कहीं और, घर तो तुम मिलते ही नहीं, क्योंकि तुम सदा कहीं और। तुम जहां हो वहां नहीं होते।
खयाल करना, तुम जहां हो वहां नहीं होते! तुम सदा कहीं और होते हो। अतीत की स्मृतियों में खोये हो, भविष्य की कल्पनाओं में खोये हो? मगर वहां नहीं जहां तुम हो, कहीं और।
एक महिला एक साधु के पास जाती थी। वह अपने पति की अधार्मिकता से परेशान थी। अपने को धार्मिक मानती थी।
तथाकथित धार्मिक लोग दूसरों को अधार्मिक मानते हैं। यही उनका मजा है। यही अकड़, यही अहंकार उनका एकमात्र रस है। और तो कुछ पाया नहीं, मगर यह मजा उनको मिल जाता है कि हम धार्मिक!
स्त्रियां अक्सर साधु-संतो के पास जाती हैं,क्योंकि और जीवन की सब दौड़ में तो आदमी ने उसको अवरुद्ध कर दिया है। न चित्रकार हो पाती हैं, न मूर्तिकार हो पाती हैं, न कवि हो पाती हैं, न संगीतज्ञ हो पाती हैं, क्योंकि आदमी ने वे सब द्वार दरवाजे बंद कर दिये। क्योंकि हमेशा आदमी को खतरा लगा हुआ है। संगीतकार होंगी तो संगीतज्ञों के पास बैठेंगी, किसी संगीतज्ञों के पास बैठेगी, किसी संगीतज्ञ को उस्ताद बनाएंगी। और भरोसा इन लफंगों का! सो संगीतज्ञ नहीं होने देंगे। नर्तक नहीं होने देंगे, क्योंकि ये नाचने गाने वाले ये कोई ढंग के आदमी हैं? कब भगा कर ले जाएं पत्नी को, कहां नौका डुबवा दें--इन पर भरोसा नहीं किया जा सकता। चित्रकार, इनका क्या भरोसा करो! नग्न स्त्रियों के चित्र बनाते हैं। कवि, ये तो प्रेम का ही गीत गुनगुनाए चले जाते हैं। इनने तो जहां सुंदर स्त्री देखी कि इनकी लार टपक पड़ती है। एकदम बेहाल हो जाते हैं। एकदम ठंडी सांसें भरने लगते हैं।
सरदार बिचित्तरसिंह एक बस में क्यू लगाए खड़े थे। उनके सामने ही एक पंजाबी लड़की खड़ी थी। पंजाब में लगा होगा क्यू भी। और पंजाबी लड़की चुस्त कपड़े पहने हुई थी--ऐसे चुस्त कि पता नहीं कैसे निकालती, कैसे पहनती! यह चमत्कार भी लड़कियां ही कर सकती हैं, यह पुरुष नहीं कर सकते। आखिर बिचित्तरसिंह से जिज्ञासा न रुकी। गर्मी बहुत थी, पसीना-पसीना हुए जा रहे थे। तो उस लड़की से पूछा, कि भैणजी...! हालांकि दिल तो कुछ और हो रहा था, मगर दिल कुछ होता रहे, कहना तो पड़ता है--भैणजी! "इस गर्मी में इतने चुस्त कपड़े आप पहने हैं,गर्मी नहीं लगती?'
उस लड़की ने कहा कि नहीं, आप जैसे मनचलों के रहते कहां गर्मी! आसपास खड़े ठंडी आह सांसें भरते रहते हैं। अब आप ही कैसी-कैसी सांसें भर रहे हो! हवा लगती रहती है। पंखे चलते रहते हैं चारों तरफ! और जितने चुस्त कपड़े पहनो उतने ही पंखे चलते हैं। इसलिए तो गर्मी में चुस्त कपड़े पहनते हैं।
कवियों का क्या भरोसा, ठंडी सांसें भरते हैं! जब देखो तब कविता यानी प्रेम! तो पुरुषों ने स्त्रियों के और सब तो द्वार बंद कर दिये, भरोसा किया है सिर्फ साधुओं का कि ये सज्जन आदमी हैं साधु-संत-महात्मा, इनके पास भर जाने देता हैं। तो सारी जगह अवरुद्ध  कर दी, सब दरवाजे बंद कर दिये, सो बेचारी स्त्रियां मंदिरों में बैठी हैं, सत्यनारायण की कथा सुन रही हैं, रामायण सुन रही हैं और अपने भाग्य को कोस रही हैं। और करें भी क्या! और तो कहीं कोई उपाय नहीं बचा तो अब उसी में ले अकड़ निकालती हैं वे क्योंकि अब और कोई अकड़ निकालने की दूसरी जगह नहीं। चित्रकार होतीं, मूर्तिकार होतीं, नर्तक होतीं,संगीतज्ञ होतीं, कवि होतीं, तो उससे अहंकार पूरा होता। वह सब अहंकार पर तो अड्डा पुरुषों ने कर लिया है। स्त्री को बस एक अहंकार की सुविधा छोड़ी है कि धार्मिक हो, नैतिक हो। सो स्त्रियां उसमें कंजूसी नहीं करतीं, क्योंकि अब एक ही चीज बची तो दिल खोल कर धार्मिक हो जाती हैं। और फिर पतियों को सताती हैं, पूरा बदला ले लेती हैं। पतियों को ठिकाने ही लगाती रहती हैं, कि तुम बिलकुल अधार्मिक हो, नर्क में सड़ोगे!
सो यह महिला भी अपने पति के पीछे चौबीस घंटे पड़ी रहती थी। यह बदला है, और कुछ भी नहीं। आदमी ने जो किया है, उसका फल है यह। यह उसको तब तक भोगना पड़ेगा जब तक स्त्री को स्वतंत्रता नहीं देता। तब तक यह कष्ट उसको झेलना ही पड़ेगा। यह स्त्री की स्वतंत्रता छीनने का दंड है।
तो महात्मा से उसने एक दिन कहा कि मैं क्या करूं, मेरे पति न पूजा करते न प्रार्थना करते? मैं तो थक गयी। मैं तो हार गयी। ऐसा आदमी मैंने नहीं देखा। इसकी खोपड़ी में कुछ घुसता ही नहीं। अब तो आप ही कुछ करो।
महात्मा ने कहा, "अच्छा मैं कल सुबह आऊंगा।' तो ब्रह्ममुहूर्त में ही महात्मा आए और पत्नी ने देखा कि महात्मा आ रहे हैं तो ब्रह्ममुहूर्त के पहले ही उठ कर उसने अपना पूजागृह सजा कर और दीये जला कर, ऊदबत्ती-धूपबत्ती सब लगा कर घंटे-बंटे बजाने लगी और बड़ा शोरगुल मचा दिया। पति की भी नींद खुल गयी। अब ब्रह्ममुहूर्त में उठने का सवाल ही नहीं उठता था, मगर इतना शोरगुल मचाया उसने...जय जगदीश हरे! ऐसा शोरगुल मचाया कि उनको नींद न आए, करवट बदलें। आखिर उसने सोचा कि इससे सार नहीं, पड़े रहने से कोई सार नहीं, उठ कर वे बगीचे घूमने लगे। उधर महात्मा आए। यहां जय जगदीश हरे का पाठ चल रहा था। महात्मा भी प्रसन्न हुए कि है बाई पहुंची हुई! पति बगीचे में ही मिल गये तो महात्मा ने कहा, "आपके लिए ही आया हूं आपकी पत्नी कहां है?
तो पति ने कहा, "मेरी पत्नी सब्जी खरीदने बाजार गयी है।' महात्मा ने कहा "सब्जी खरीदने गयी है! ब्रह्ममुहूर्त में! अभी कहां सब्जी मंडी खुलती है? होश में हो?'
कहा कि मानो, सब्जी खरीदने गयी है। और भिंड़ी खरीद रही है। आप जो आने वाले हो, सो भिंडी की सब्जी बनाने वाली है। और मोलत्तोल करने में झगड़ा हो गया है। सो वह जो कुंजड़िया है, उसकी गर्दन पकड़ ली है मेरी पत्नी ने।
पत्नी सुन रही है यह सब। जय जगदीश हरे तो कहती जा रही है, यह सब सुन रही है कि पति क्या कह रहा है। आखिर उसने छोड़ा जय जगदीश हरे, घंटी बंटी बजाना बंद करके बाहर आ गयी। कहा कि यह क्या झूठ चल रहा है, सरासर झूठ है! मैं पूजा कर रही हूं। शर्म नहीं आती कि महात्मा जी तक को तुम झूठ बोल रहे हो? अरे क्या खड़े देख रहे हो, पैर पड़ो महात्माजी के!
महात्मा ने कहा, "यह बात तो ठीक है। वही मैं देख रहा कि जय जगदीश हरे की आवाज आ रही है,घंटी बज रही है। पर पता नहीं कोई और कर रहा हो पूजा, क्या पता! अब यह पत्नी तुम्हारे सामने खड़ी है, तुम्हें झूठ बोलते शर्म नहीं आती? तुम्हारी पत्नी ठीक कहती है कि मेरे पति की बुद्धि बिलकुल मारी गयी है। अब तुम कहां कि भिंडी और कहां की सब्जी-मंडी लगाए हुए हो!
लेकिन पति ने कहा कि मैं प्रार्थना करता हूं अपनी से भी कि आज कम से कम सच बोल दे, कह दे ईमान से। खा महात्मा की कसम! और कह दे ईमान से कि नहीं तू गयी थी बाजार और नहीं तू खरीद रही थी भिंडी और नहीं तूने कुंजड़िया की गरदन पकड़ी थी?
अब महात्मा की कसम पत्नी नहीं खा सकी। एकदम उसे ख्याल आया कि बात तो सच है। कह तो रही थी जय जगदीश हरे, लेकिन महात्मा आ रहे हैं तो विचार चल रहा था कि आज सब्जी क्या बनानी है, कि भिंडी की बना लेंगे। तो जल्दी से पूजा वगैरह खत्म करके एकदम जाना है सब्जी मंडी में। और चली गयी थी--विचार में, कल्पना में। और दाम पर झगड़ा हो गया था। सो गुस्सा उसे ऐसा आ गया कि महात्मा तो घर में आ रहे हैं  और उस कुजंड़िया को कुछ अकल नहीं  और दाम दुगने बता रही है! एकदम गर्दन पकड़ ली थी।
तो उसने कहा कि क्षमा करें, मेरे पति ठीक कह रहे हैं। जय जगदीश हरे तो ऊपर-ऊपर चल रहा था। गयी तो बाजार ही थी, सब्जी मंडी, और पता नहीं इनको कैसे पता चला!
महात्मा भी बहुत चकित हुआ। उसने कहा,"आपको कैसे पता चला?'
उसने कहा कि कैसे पता चला! एक बात तय है कि जो जहां है वहां नहीं है। सो इतना तो पक्का है कि पत्नी पूजागृह में नहीं है। अब यह तो छोटा सा गणित है,इसको भिंडी की सब्जी बहुत पसंद है। सो महात्मा जी आएं सो भिंडी की सब्जी खिलाएगी। मुझे खिला-खिला कर मार डाला है। जिंदगी हो गयी है भिंडी की सब्जी खाते-खाते। आत्महत्या करने का विचार आ जाता है जब भिंडी की सब्जी देखता हूं, मगर कुछ बोल नहीं सकता कि पता नहीं इसमें भी कोई अध्यात्म हो! भिंडी का कुछ राज हो! कोई योगशास्त्र हो, कि भिंडी में कोई रस हो जो आदमी को धार्मिक बनाता हो। इसलिए चुप रहता हूं, खाए चला जाता हूं। प्राणों पर बन आती है, मगर क्या करूं? इसको भिंडी की सब्जी पसंद है। सो यह मुझे पक्का था कि यह भिंडी की सब्जी खरीदेगी। और अभी खरीद रही होगी, क्योंकि यही तो मौका है जब यह इसको मिलता है सुविधा का। जय जगदीश हरे ऊपर-ऊपर चलता रहता है और भीतर-भीतर इसको जो दिन भर की योजना बनानी है बनाती है। तो मैंने तो अंदाज लगाया कि भिंडी की सब्जी जरूर खरीदेगी, यह आज खरीद ही रही होगी। यह तो लग गया तीर, नहीं लगता तो तुक्का था। मगर लग गया तीर। और यह भी मैं जानता हूं यह जहां जाए वहां झगड़ा न हो, यह असंभव है। जिंदगी भर का अनुभव मेरा यह है कि मैं घर में घुसा नहीं कि झगड़ा। अरे हर बहाने झगड़ा! बोलो तो मुसीबत, न बोलो तो मुसीबत। कुछ भी बोलता हूं, उसी में से निकाल लेती है तरकीब। मैं बहुत सोच सोच कर आता हूं कि यह बोलना है, मगर ऐसा आज तक नहीं हो पाया सफल कि कोई ऐसी बात मैं बोल पाया होऊं जिसमें इसने कुछ रास्ता न निकाल लिया हो। एक दिन तो मैंने कसम खा ली कि आज बोलना ही नहीं, सो मैं आकर बिलकुल चुप बैठ गया, बस इसने उसमें से भी निकाल लिया कि क्या चुप बैठे हो! क्या मैं मर गयी जो तुम चुप बैठे हो? अरे मैं मर जाऊं तब बैठे रहना, अभी तो बोल लो! कुछ तो बोलो!' चुप में से भी निकाल लिया इसने! और मेरी गर्दन पर सवार रहती है, तो मैंने सोचा कुंजड़िया की गर्दन पर सवार होगी। यह सिर्फ कल्पना से मैंने किया। यह संयोग की बात है कि बैठ गयी बात। मगर मेरे जीवन भर का अनुभव इसके पीछे खड़ा है। एकदम कल्पना भी नहीं है मेरी यह,जीवन भर के अनुभव का निचोड़ यह है कि यह होने वाला है। इसलिए मैंने कह दिया।
मगर यह तुम्हारी सबकी हालत है। तुम जहां हो वहां नहीं। और परमात्मा वहां आएगा तुम जहां हो। उसको क्या पता बेचारे को कि तुम सब्जीमंडी गए हो, भिंडी खरीद रहे हो, कुंजड़िया की गर्दन दबा दी। कहां-कहां तुम्हारा पीछा करता फिरेगा! वह तो वहां आएगा जहां तुम हो और वहां तुम कभी भी नहीं हो।
संन्यास का इतना ही अर्थ होता है: तुम जहां हो वहीं होने का विधान। न अतीत का कोई मूल्य है--जा चुका जा चुका; न भविष्य का कोई मूल्य है--आया नहीं आया नहीं। जो आया है, जो सामने खड़ा है, जो प्रत्यक्ष है--बस उसमें जीना। उसके आरपार झांकना भी नहीं। वर्तमान के इस छोटे से क्षण में जो जी ले, वह संन्यासी है। क्षण-क्षण जो जीए चले वह संन्यासी है।
तुम पूछते हो, "संन्यास के बिना भगवत्ता को पाना असंभव है या संन्यास सिर्फ सत्य का द्वार है?'   
तुम्हारा प्रश्न या तो कोई सरदार पूछ सकता है या कोई राजनेता पूछ सकता है। सरदार तो तुम नहीं हो, नाम से ही पक्का पता चलता है। हो सकता है राजनीति में होओ। राजनीति में बुद्धि बिलकुल खो जाती है। असल में बुद्धि हो तो कोई राजनीति में जाता ही नहीं।
नेताजी से उनके मित्र ने पूछा कि क्या भाई, क्या हालचाल हैं भाभीजी के? उन्हें बच्चा होने वाला था, क्या हुआ?
नेताजी सोचनीय मुद्रा बना कर बोले, श्रीमती जी ने जुड़वां बच्चों को जनम दिया है। और मेरा ख्याल है कि उसमें एक लड़का है और एक लड़की। मगर हो सकता है कि मेरा यह ख्याल गलत हो और एक लड़की हो और एक लड़का।'
तुम भी क्या प्रश्न पूछ रहे हो!
एक बार प्रसिद्ध नेताजी की सभा में बड़ा हुड़दंग होने लगा, बड़ा हो-हल्ला होने लगा। नेताजी ने नाराज होकर कहा, "लगता है इस सभा में सारे गधे इकट्ठे हो गए हैं। क्या अच्छा नहीं होगा कि एक बार में एक ही बोले?'
एक व्यक्ति बोला, "ठीक है, तब आप ही शुरू करिए।'
मैंने सुना है, एक नेता जी नये-नये चुन कर दिल्ली पहुंचे
एक दूसरे नेता जी के घर मेहमान थे। दोनों बैठे थे बैठकखाने में, खिड़की में से देखा नये नये आए नेताजी ने कि गधों की एक कतार चली आ रही है। इतनी लंबी कतार उन्होंने कभी देखी नहीं थी। हो सकता है गधों ने मोर्चा निकाला हो, प्रधानमंत्री से मिलने जा रहे हों। अरे गधों को क्या, काम ही क्या! और गधे बड़ी राजनीति करते हैं। बड़ा लंबा जुलूस! तो नये-नये नेता ने पूछा कि इतने गधे, क्या ये सब दिल्ली के ही गधे हैं? तो उस दूसरे नेता ने कहा, "नहीं कुछ चुन कर भी आ जाते हैं। सभी दिल्ली के नहीं हैं।'
तुम क्या राजनीति में हो हर्ष कुमार? ऐसा प्रश्न पूछते हो? कह रहे हो, "कृपया समझाइए।' क्या खाक समझाऊं? कृपा भी करना चाहूं तो कैसे करूं? तुम भगवत्ता और सत्य को क्या दो चीजें समझे बैठे हो? अभी-अभी तुमने पंडित ब्रह्मप्रकाश को देखा, वे कम से कम बेचारे इस अर्थ में ठीक भी हैं कि संसार और ब्रह्म में कम से कम द्वैत दिखाई पड़ता है! चलो कम से कम तर्क के लिए माना जा सकता है कि दो हैं, विचार के लिए, विश्लेषण के लिए, परिकल्पना की तरह स्वीकार किया जा सकता है। मगर तुमने तो पंडित ब्रह्मप्रकाश को भी हरा दिया, उनको भी चारों खाने चित्त कर दिया। तुम तो भगवत्ता और सत्य में भेद कर रहे हो! जैसे सत्य तो माया और भगवत्ता सत्य। और सत्य माया! सो तुम पूछ रहे हो, "संन्यास क्या सिर्फ सत्य का द्वार है?' सिर्फ! तुम्हें कुछ भी पता नहीं कि तुम क्या पूछ रहे हो; किन शब्दों का उपयोग कर रहे हो, इसका भी तुम्हें होश नहीं।
हर कदम पर नित नए सांचे में ढल जाते हैं लोग।
देखते ही देखते कितने बदल जाते हैं लोग।।
किस लिए कीजै किसी गुमगश्ता जन्नत की तलाश।
जब कि मिट्टी के खिलौने से बहल जाते हैं लोग।।
कितने सादा दिल हैं अब भी सुन के आवाजें-जरस।
पेशो-पस से बेखबर घर से निकल जाते हैं लोग।।
अपने साए-साए सर न्योहढ़ाए आहिस्ता-खिराम।
जाने किस मंजिल की जानिब आजकल जाते हैं लोग।।
शमअ की मानिन्द अहले-अंजुमन से बेनियाज।
अक्सर अपनी आग में चुपचाप जल जाते हैं लोग।।
शायर उनकी दोस्ती का अब भी दम भरते हैं आप।
ठोकरें खाकर तो सुनते हैं संभल जाते हैं लोग।।

नहीं संभलते। सुनते हैं कि सम्हल जाते हैं लोग, मगर नहीं सम्हलते। आदमी कितनी ही ठोकरें खाए, उन्हीं-उन्हीं जगहों पर ठोकरें खाता है। असल में उन्हीं उन्हीं जगहों पर ठोकरें खाने की आदत हो जाती है।
सोच तो लिया करें पूछने के पहले कि प्रश्न बनता भी है या नहीं! और जब प्रश्न ही विक्षिप्तता से भरा है।
संन्यास सत्य का द्वार है, संन्यास भगवत्ता का द्वार है। और संन्यास के बिना कोई द्वार नहीं है। लेकिन जब मैं संन्यास की बात कर रहा हूं तो मेरे संन्यास की बात कर रहा हूं, किसी और संन्यास की धारणा से मुझे कुछ लेना देना नहीं। उनकी वे जानें।
आखिरी प्रश्न: भगवान,
आप न कहीं आते न जाते, अपने कक्ष को ही नहीं छोड़ते हैं, फिर दूर-दूर देशों से कैसे लोग आपके पास खिंचे चले आते हैं? इसका राज क्या है?
स्वरूपानंद,
राज कुछ भी नहीं। बात दो और दो चार, ऐसी साफ है। दीया जले तो परवाने अपने-आप चले आते हैं। न मालूम  कैसे खबर हो जाती है! परवानों के प्राणों में न मालूम कौन अभीप्सा जगा देता है! चल पड़ते हैं दूर-दूर अंधेरों के लोक से। दीया जले भर कि परवाने चले आते हैं। और दीया एकांत कक्ष में भी जले, कुछ फर्क नहीं पड़ता। परवाने रास्ता खोज लेते हैं--खिड़कियों से चले आते हैं, द्वार से रंध्रों से चल आते हैं। अगर जगह न मिले, प्रवेश के लिए द्वार न मिले, तो खिड़कियों के कांचों पर फड़फड़ाते हैं। मगर चले आते हैं।
राज कुछ भी नहीं। बात साफ है। सुबह सूरज निकलता है, कौन कह जाता है पक्षियों को कि गीत गाओ? सूरज तो किसी से कहता नहीं कि गीत गाओ। पक्षियों के कंठों से गीत फूटने लगते हैं--अवश! रोकना भी चाहें तो रोक नहीं सकते, गीत फूटने ही लगते हैं। वृक्ष जाग उठते हैं। फूल अपनी पंखुरियां खोल देते हैं, गंध आकाश में उड़ने लगती है। क्या हो जाता है? कैसे हो जाता है? राज क्या है? राज कुछ भी नहीं। सब बात गणित की तरह सीधी-साफ है। सूरज निकलेगा, पक्षी गीत गाएंगें, फूल खिलेंगे, वृक्ष जागेंगे। लोगों की नींद टूटेगी। दीया जलेगा, परवाने आएंगे।
बहुत दिनों तक तो मैंने किसी को कुछ कहा ही न था। चाहा था छिपा लूं। मगर कुछ मामला है कि छिपता नहीं। छिपाना चाहा था, क्योंकि कौन झंझट में पड़े मैंने सोचा था। मगर लोगों को खबर होने लगी। किसी तरह लोगों को आभास होने लगा। फिर जब मुझे लगा लोगों को खबर ही होने लगी और लोग आने ही लगे, तो छिपाना व्यर्थ है। अब प्रगट हो जाना ही उचित है, कि जिसको आना हो आ जाए।
जाता मैं कहीं नहीं हूं, जाऊंगा भी नहीं। जाने-आने में मुझे रस नहीं। भीतर से ही आवागमन समाप्त हो गया तो अब बाहर का क्या आवागमन! लेकिन जिन्हें आना है वे आ जाएंगे। जिन्हें आवागमन समाप्त करना है वे आ जाएंगे।
चुप अगर रहता हूं तो दिल गम से फटा जाता है
नाला जो करता हूं तो अंदेशाए रुसवाई है
यह तो साधारण-से प्रेम के संबंध में कही गयी बात है। लेकिन जब व्यक्ति और परमात्मा के बीच प्रेम की घटना घटती है, उस विराट प्रेम की, तब तो हिसाब भी लगाना मुश्किल है, असंभव!
चुप अगर रहता हूं तो दिल गम से फटा जाता है
नाला जो करता हूं तो अंदेशाए रुसवाई है
कभी कहा न किसी से तेरे फसाने को
न जाने कैसे खबर हो गई जमाने को
सुना है गैर की महफिल में तुम न जाओगे
कहो तो आज सजा लूं गरीबखाने को
अब आगे तुम पै भी मुमकिन है कोई बात आए
जो हुक्म हो तो यहीं रोक दूं फसाने को
कुछ ऐसे सज गए तिनके कि अब यह डर है मुझे
कहीं नजर न लगे मेरे आशियाने को
दुआ बहार की मांगी तो इतने फूल खिले
कहीं जगह न मिली मेरे आशियाने को
कभी कहा न किसी से तेरे फसाने को
न जाने कैसे खबर हो गई जमाने को
मैंने तो किसी को कहा न था। चाहा था चुप ही रह जाऊं। कौर झंझट ले! कौन व्यर्थ उपद्रव में पड़े! लेकिन खबर होने लगी। धीरे धीरे लोग आने लगे। फिर जब मैंने देखा कि झंझट में ही पड़ना है तो क्या छोटी झंझट में पड़ना! छोटी चीजों में मुझे रस नहीं। मेरी रुचि बहुत सीधी सादी है। मुझे श्रेष्ठतम में ही रस है। और जब उलझना ही है तो फिर पूरा ही। तो फिर मैंने कहा कि जब कहना ही है तो क्या एक दो से कहना, फिर आने दो सब परवानों को! फिर सारी पृथ्वी से आएं, दूर-दूर देशों से आएं। है तो कठिनाई।
चुप भी रहना बड़ा मुश्किल था, क्योंकि देखा जब चारों तरफ लोगों को गिरते, कैसे चुप रहो, जबकि तुम्हें पता है कि तुम बता सकते हो कि यह गङ्ढा है, मत गिरो? देखते देखते कैसे चुप रहो लोगों की उदासी, लोगों की बेचैनी, लोगों की परेशानी, विक्षिप्तता को देख कर-- जबकि तुम्हें पता है कि इनके जीवन में क्रांति अभी हो सकती है, इसी क्षण हो सकती है? जब तुम्हें कुंजी पता है तो लोगों को तालों से सिर मारते देख कर कैसे चुप रहो?
चुप अगर रहता हूं तो दिल गम से फटा जाता है
चुप अगर रहता हूं तो दिल गम से फटा जाता है
एक करुणा उठने लगती है।
नाला जो करता हूं तो अंदेशाए रुसवाई है
और अगर जोर से पुकार कर कहूं तो बदनामी का डर है। फिर मैंने कहा होने दो बदनामी। अब बात तो कह देनी है। जोर से ही कह देनी है। सो तुम देख रहे हो: जिन्हें सुननी है उन्होंने सुन भी ली है; जिन्हें आना है वे आ भी गए और बदनामी भी जितनी होनी है वह भी हो रही है।
चुप अगर रहता हूं तो दिल गम से फटा जाता है
नाला जो करता हूं तो अंदेशाए रुसवाई है
कभी कहा न किसी से तेरे फसाने को
न जाने कैसे खबर हो गई जमाने को
सुना है गैर की महफिल में तुम न जाओगे
कहो तो आज सजा लूं गरीबखाने को
अब आगे तुम पै भी मुमकिन है कोई बात आए
जो हुक्म हो तो यहीं रोक दूं फसाने को
कुछ ऐसे सज गए तिनके कि अब ये डर है मुझे
कुछ नजर न लगे मेरे आशियाने को
 दुआ बहार की मांगी तो इतने फूल खिले
कहीं जगह न मिली मेरे आशियाने को
कभी कहा न किसी से तेरे फसाने को
न जाने कैसे खबर हो गई जमाने को

आज इतना ही।
दूसरा प्रवचन; दिनांक २२ सितंबर, १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना
 



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