पीवत राम रस लगी खुमारी-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो
दिनांक: 18 जनवरी, सन् 1981
ओशो आश्रम पूना।
प्रवचन-आठवां-(एक अभिनव धर्म चाहिए)
पहला प्रश्न: भगवान,
आपने महाकवि रवींद्रनाथ ठाकुर के उत्तर में कहा
कि सात आसमानों के पार कोई व्यक्तिवाची ईश्वर नहीं है जो तुम्हारी प्रार्थना सुने; सब प्रार्थनाएं अनसुनी रह जाती हैं।
महाकवि ने अनगिनत प्रार्थना के गीत गाए; पता नहीं, किसी ने उन्हें सुना या नहीं; लेकिन मुझे लगता है, उनकी एक प्रार्थना जरूर सुनी
गई। प्रार्थना इस प्रकार है:
आमि हब ना तापस, हब ना, हब ना, येमनी बलुन
यिनि।
आमि हब ना तापस निश्चय यदि ना मेले तपस्विनी।
आमि करेछि कठिन पन, यदि ना मिले बकुलवन
यदि मनेर मतन मन ना पाई जिनि
तबे हब ना तापस, हब ना, यदि ना पाइ से तपस्विनी।
आमि त्यजिब ना घर, हब ना बाहिर उदासीन संन्यासी
यदि घरेर बाहिरे ना हासे केहइ भुवन-भुलानो हासि।
यदि ना उड़े नीलांचन मधुर बातासे विचंचल,
यदि ना बाजे कांकन मन रिनिक-झिनि--
आमि हब ना तापस, हब ना, यदि ना पाइगो तपस्विनी।
आमि हब ना तापस, तोमार शपथ, यदि से तपेर बले
कोनो नूतन भुवन न पारि गड़िते नूतन हृदयत्तले
यदि जागाए वीणार तार कारो टुटिया मरम-द्वार,
कोनो नूतन आंखिर ठार ना लइ चिनि
"मैं तापस नहीं होऊंगा, नहीं
होऊंगा, चाहे जो जैसा कहे, यदि
तपस्विनी न मिले। मैंने कठिन प्रतिज्ञा की है, यदि बकुलवन न
मिले, यदि मन जैसा मनमीत नहीं मिले; यदि
उस तपस्विनी को न पाऊं; मैं तापस नहीं होऊंगा, नहीं होऊंगा मैं घर नहीं छोडूंगा, बाहर नहीं जाऊंगा।
उदासीन संन्यासी नहीं बनूंगा; यदि घर के बाहर कोई पृथ्वी को
लुभाने वाली हंसी न हंसे, यदि मीठी हवा में अत्यंत चंचल
नीलांचल न उड़े, यदि कंकण और नूपुर रुनझुन-रुनझुन न बजें। मैं
तापस नहीं होऊंगा, नहीं होऊंगा, यदि उस
तपस्विनी को न पाऊं।
तुम्हारी सौगंध, मैं तापस नहीं होऊंगा, यदि उस तपस्या के बल से किसी
नूतन हृदय में कोई नूतन भवन की सृष्टि न कर सका; यदि वीणा के
तार झंकृत कर किसी के मर्म-द्वार को तोड़कर किसी नूतन आंखों के इशारे को न पहचान
लूं। मैं तपस्विनी को पाए बिना तापस नहीं होऊंगा, नहीं
होऊंगा, नहीं होऊंगा।'
भगवान, क्या आपका नव-संन्यास
महाकवि की प्रार्थना की पूर्ति नहीं है?
निखिलानंद,
प्रार्थना और ध्यान के भेद को समझ सको, इसलिए मैंने कहा कि
कोई प्रार्थना कभी सुनी नहीं जाती है; कोई सुनने वाला नहीं
है। प्रार्थना है बहिर्मुखी; दूसरे पर निर्भर; उस परमात्मा के लिए पुकार है, जो कहीं बाहर है। और
परमात्मा बाहर नहीं है, परमात्मा भीतर है; तुम्हारा स्वभाव है; तुम्हारा स्वरूप है।
पुकारने की कोई जरूरत नहीं है। चुप हो जाना है, मौन हो जाना है, निर्विचार होना है। ध्यान है
अंतर्यात्रा; प्रार्थना है बहिर्यात्रा। प्रार्थना पर आधारित
धर्म सांसारिक है। ध्यान पर आधारित धर्म ही संसार का अतिक्रमण करता है।
इसलिए मैंने कहा कि रवींद्रनाथ की प्रार्थनाएं बहिर्मुखी हैं।
प्रार्थनाएं बहिर्मुखी ही हो सकती हैं। निवेदन है किसी से, जिसका कोई पता नहीं। कविता प्यारी हो सकती है, लेकिन
कविता और सत्य जरूरी नहीं कि एक हों।
इस बात पर जोर देने के लिए कि तुम अंतर्मुखी होओ; मत पुकारो; मत चिल्लाओ। मत बजाओ घंटियां मंदिरों की।
मत पढ़ो नमाजें मस्जिदों में। ये गुरुद्वारों में चल रहे तुम्हारे जपुजी के पाठ
कोरे आकाश में खो जाते हैं। यह सब उधेड़बुन व्यर्थ है। चुप होओ। चुप्पी साधो। ऐसी
चुप्पी कि जहां विचार की एक तरंग भी न हो। जहां भाव की जरा सी भंगिमा भी न बचे।
जहां चित्त के आकाश में कोई मेघ न घिरे हों। जहां प्रकाश ही प्रकाश रह जाए।
उस अनाच्छादित, विचारमुक्त, विकल्पशून्य चित्त
की दशा का नाम ध्यान है। उस ध्यान में बिना मांगे सब मिल जाता है।
और प्रार्थना में मांग ही मांग है, मिलता कुछ भी नहीं।
हां, कभी ऐसा हो सकता है कि तुम अंधेरे में तीर चलाते रहो और
कोई तीर लग जाए। लग जाए तो तीर, नहीं लगे तो तुक्का!
तो कभी ऐसा हो सकता है, संयोगवशात कि
तुम्हारी प्रार्थना पूरी हो जाए, तो उससे भ्रांति में मत पड़
जाना। इस जगत में बहुत सी बातें संयोग से हो जाती हैं। लेकिन संयोग को तुम जीवन के
सत्य मत समझ लेना।
मुल्ला नसरुद्दीन के जीवन में यह उल्लेख है कि लेटा था अपनी बगिया
में। बांसों का छप्पर बनाकर कद्दुओं की बेल उसने चढ़ाई थी। बड़े-बड़े कद्दू बांसों के
उस छप्पर पर लटक रहे थे। पास ही अंगूरों की बेल भी चढ़ी थी। और नसरुद्दीन कुछ
दार्शनिक भावदशा में रहा होगा। सोचने लगा कि परमात्मा भी कैसा है! अरे, जब बनाना ही था, तो अंगूर बनाता कद्दुओं जैसे;
मजा आ जाता। एक अंगूर काफी होता। तो अंगूर तो बनाए छोटे-छोटे और
कद्दू बना दिए इतने बड़े-बड़े! न कोई तुक है, न कोई संगति।
और तभी संयोग की बात, हवा का एक झोंका आया और एक कद्दू
उसके सिर पर गिर पड़ा! सिर फूटते-फूटते बचा। उसने कहा, क्षमा
कर। माफ कर। अरे, मैं कौन हूं, जो तुझे
सुझाव दूं! ठीक ही कहा है ज्ञानियों ने कि कर्म का ही फल नहीं मिलता; विचार का भी फल मिलता है। मैं सिर्फ विचार ही कर रहा था और तत्क्षण फल
पाया। इससे कर्म का सिद्धांत सिद्ध होता है।
एक दिन गुजर रहा था रास्ते से। मस्जिद के पास से निकला। अजान देने
मौलवी मस्जिद की मीनार पर चढ़ा था। पैर फिसल गया और गिरा; नसरुद्दीन के ऊपर गिरा। नसरुद्दीन की हड्डियां टूट गईं। अस्पताल में
पड़े-पड़े नसरुद्दीन सोचता था कि कर्म का सिद्धांत सही तो है; उस
आदमी ने कोई पाप किए होंगे, इसलिए गिरा गुंबज से। लेकिन उसको
तो चोट भी न आई और मेरी हड्डी-पसलियां टूट गईं! यह कैसा कर्म का सिद्धांत कि कोई
करे और कोई और भरे? कोई और बोए--कोई और काटे!
लेकिन पहली बात भी संयोग थी और दूसरी बात भी संयोग है। आदमी समझा लेता
है बहुत तरकीबों से अपने को।
सदियों-सदियों से गरीब को हम समझाते रहे हैं कि तुम गरीब हो, क्योंकि पिछले जन्मों में पाप किए। इससे गरीब को एक सांत्वना मिली है।
इससे बगावत नहीं हो सकी। भारत में जहां कि कर्म का सिद्धांत बहुत प्रभावी रहा,
बगावत मर ही गई। क्रांति की अंगार ही खो गई। राख ही राख रह गई।
कोई कौम बाईस सौ सालों तक गुलाम रहती है? वर्ष-दो वर्ष कोई किसी को जबर्दस्ती गुलाम रख ले। लेकिन बाईस सौ वर्ष! कोई
जबर्दस्ती किसी को गुलाम रख सके! और छोटी-छोटी कौमें आईं जिनकी कोई सामर्थ्य न थी।
और भारत हारता ही गया, हारता ही गया? इसके
पीछ वही कर्म का सिद्धांत काम कर रहा है।
भारत हर चीज के लिए राजी हो गया। जब गरीबी के लिए राजी हो गया, तो उसने सोचा कि गुलामी भी भाग्य का फल है। जो होना है; वह होकर रहेगा। हमारे किए क्या होता है। परमात्मा कर रहा है। इससे गरीब को
सांत्वना तो मिल गई, लेकिन गरीबी न मिटी। गरीबी बढ़ती चली गई।
यह सांत्वना जहर सिद्ध हुई। इससे अमीर को भी लाभ हुआ। अमीर को सुरक्षा मिल गई।
इसलिए अमीर प्रवचन करवाता है; पंडितों से सत्यनारायण की कथा
करवाता है। मंदिर बनवाता है।
जहां यही सिद्धांत ठोंक-ठोंककर लोगों के मनों में भरे जाते हैं, यही संस्कार, क्योंकि अमीर को सुरक्षा मिल गई। उसके
सारे पाप ढंक गए। उलटी बात हो गई: पिछले जन्मों के पुण्यों के कारण उसे धन मिला
है। गरीब अपनी गरीबी को स्वीकार कर लिया; अमीर को उसकी अमीरी
के लिए बल मिल गए। लेकिन यह सब संयोग की ही बात थी।
लेकिन हमारा एक आग्रह है कि हम संयोग को नहीं मानना चाहते। हम हर
संयोग को सिद्धांत में ढाल लेना चाहते हैं। जब तक सिद्धांत न ढाल लें, तब तक हमें बेचैनी बनी रहती है। फिर हम उलटे-सीधे करके किसी भी तरह अपने को
समझाते रहते हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन गुजर रहा था एक बगीचे के पास से। आम पक गए थे। और
आम्रकुंज की गंध हवाओं में तैर रही थी। नहीं रोक सका अपने को। बहुत सम्हाला; बहुत संयम साधा। बहुत याद किया कि कसमें खा चुका हूं कि चोरी नहीं करूंगा,
मगर फिर होशियार आदमी, समझाया कि अरे, आम तो परमात्मा ने लगाए, ये किसी के हैं? सबै भूमि गोपाल की! रस उसने भरा। फल उसने लगाए। और कोई कमबख्त समझ रहा
है--इसके हैं!
घुस गया तोड़ लिए आम। डालियां झुकी आ रही थीं, यूं आमों का बोझ था--ऐसे पक गए थे; ऐसे रस भरे थे!
अपनी पूरी झोली भर ली। और तभी मालिक आ गया और उसने कहा कि मुल्ला, शर्म नहीं आती। और तुम्हें लोग धार्मिक समझते हैं! तुम मुल्ला हो और चोरी
कर रहे हो?
नसरुद्दीन ने कहा, कौन कहता है मैं चोरी कर रहा हूं?
अरे, हवा का इतने जोर का झोंका आया; मैं तो रास्ते से निकल रहा था कि हवा के झोंके ने, अंधड़
ने मुझे उठाकर बगीचे में फेंक दिया!
दोनों हाथों में आम थे। तो उसने कहा, चलो, यह भी ठीक। मालिक ने कहा, यह भी मान लेते हैं कि हवा
के अंधड़ ने तुम्हें बगीचे में फेंक दिया। चलो यह भी ठीक। जंचती तो बात नहीं कि
इतने हवा का अंधड़! कभी देखा नहीं इस इलाके में। पर ठीक है, तुम
कहते हो तो माने लेता हूं। तुम्हारे हाथों में आम कैसे आए? ये
भी हवा के अंधड़ ने ला दिए?
उसने कहा कि नहीं, इनका कारण दूसरा है। मैं किसी
तरह आम के झाड़ को पकड़कर अपने को रोका। अंधड़ मुझे उड़ाए ही लिए जा रहा था। सो ये आम
टूट गए। इसलिए तुम मेरे हाथों में आम देख रहे हो।
उसने कहा, चलो, यह भी ठीक। मगर इस झोले
में इतने आम कैसे आए?
नसरुद्दीन ने कहा, मैं कोई दार्शनिक हूं! यही तो
मैं सोच रहा हूं कि इस झोले में इतने आम कैसे आए? वही तुम
पूछते हो। अब हर प्रश्न का कोई उत्तर है मेरे पास। तुम मुझसे यही पूछने लगो कि आम
के भीतर गुठली कैसे आई, जब आम के भीतर गुठली कैसे आई,
इसका कोई उत्तर नहीं; तो आम कैसे झोले के भीतर
आए, इसका भी उत्तर क्या जरूरी है?
आदमी अपने को समझा लेने के लिए तरकीबें खोज लेता है।
तुम पूछते हो निखिलानंद, कि मैंने कहा,
"कोई प्रार्थना नहीं सुनी गई, लेकिन यह एक
प्रार्थना तो सुनी गई!'
नहीं, यह भी संयोग है। संयोग की ही बात है। यह प्रीतिकर है।
मैं इन वचनों से राजी हूं।
मैं भी कहूंगा:
आमि हब ना तापस, हब ना, हब
ना, येमना बलुन यिनि।
आमि हब ना तापस निश्चय यदि ना मेले तपस्विनी।
आमि करेछि कठिन पन, यदि ना मिले बकुलवन
यदि मनेर मतन मन ना पाइ जिनि
तबे हब ना तापस, हब ना, यदि
ना पाइ से तपस्विनी।
तपश्चर्या के रवींद्रनाथ विरोध में थे। और उनकी इस बात से मैं राजी
हूं, सहमत हूं। समग्रतया सहमत हूं। तपश्चर्या एक तरह की
आत्महिंसा है। तापस कुछ पूजनीय बात नहीं। तापस रुग्णचित्त है। जो अपने को सता रहा
है, वह स्वाभाविक नहीं है। क्योंकि स्वभाव अपने को सताना
नहीं चाहता। स्वभाव तो स्वस्फुरणा से आनंद की खोज करता है--दुख की नहीं। हमारे
हृदय के गहनतम में, अंतरतम में आकांक्षा है, अभीप्सा है आनंद की। और आनंद की अभीप्सा कैसे अपने को सताएगी!
लेकिन क्यों लोग अपने को सताते हैं? लोग दो ही तरह की
बातें जानते हैं: या तो दूसरों को सताएंगे और या अपने को सताएंगे। धार्मिक जो लोग
होते हैं, वे दूसरों को तो सता नहीं सकते। वह तो हुआ पाप! तो
अब करें क्या? सताना तो है। किसी और को तो पाते नहीं। खुद को
सताते हैं। किसी दूसरे को तो मार नहीं सकते।
ईसाइयों का एक संप्रदाय है, जो खुद को कोड़ों से
मारता है। यह तापस है। सुबह से उठकर उस संप्रदाय को मानने वाले साधु-संत पहला जो
काम करते हैं, शरीर को नग्न करके कोड़ों से पिटाई करते हैं।
अपने ही हाथ से लहूलुहान कर लेते हैं। और भीड़ देखने इकट्ठी होती है। भीड़ भी हिंसक
है। क्योंकि जो हिंसा देखने इकट्ठा होता है, जो दूसरे को
अपने को मारते देखने के लिए सुबह-सुबह उठकर आता है--हजार काम छोड़कर आता है--इसका
मन भी रुग्ण है।
और ये अपने को पीटते हुए लोग, अपने को लहूलुहान
करते हुए लोग, उसे लगते हैं महात्मा हैं! स्वभावतः क्योंकि
वह सोचता है: यह मैं तो कभी कर नहीं सकता। जो मैं नहीं कर सकता, कोई दूसरा कर रहा है। निश्चित ही मुझसे बहुत आगे है। दूसरा सिर्फ मूर्खता
कर रहा है। दूसरा जघन्य अपराध कर रहा है। क्योंकि तुम किसी और को सताओ तो दूसरा
आदमी बचाव भी कर सकता है। तुम अपनी ही गरीब देह को सताने लगो तो बचाव का भी कोई
उपाय नहीं।
और देह परमात्मा की देन है; प्रकृति की देन है;
समग्र की देन है। इसका अपमान अस्तित्व का अपमान है। और क्या होगा
कोड़े मारने से? शरीर को लहूलुहान भी कर लिया और कांटों पर भी
लिटा लिया, और धूप में भी खड़े रहे, और
अपने को अंगारों पर भी चला लिया, तो भी क्या होगा? क्या तुम सोचते हो, इससे कुछ जीवन की ज्योति जग
जाएगी? कोई बुद्धत्व का प्रकाश हो जाएगा?
बुद्ध ने छह वर्षों तक अपने को सताया और कुछ भी न पाया। और जब थक गए, सता-सताकर थक गए, तो एक दिन उन्होंने अपने को सताना
छोड़ दिया। और जिस दिन अपने को सताना छोड़ा...। दूसरों को सताना तो पहले ही छोड़ चुके
थे जिस दिन महल छोड़ा था, जिस दिन राज-पाट छोड़ा था; फिर अपने को सताने में लग गए थे। एक संध्या अपने को सताना भी छोड़ दिया।
देख लिया: वह भी व्यर्थ, यह भी व्यर्थ। और उस रात वह
महाक्रांति घट गई। जब सुबह आंख खुलीं, तो वही व्यक्ति नहीं
थे वे, जो सोए थे। एक नव-जन्म हुआ था। एक निर्मल प्रज्ञा का
आविर्भाव हुआ था। धूम्ररहित शिखा भीतर जल रही थी। सब मौन था। सब आनंद था। चारों
तरफ अमृत की वर्षा हो रही थी।
बुद्ध ने कहा है: जो कर-करके न पा सका, वह न करके पा लिया।
जो श्रम से न पा सका, वह विश्राम से पा लिया। चमत्कारों का
चमत्कार!
नहीं कोई अपने को सताने से कुछ पाता है। इसलिए तपश्चर्या का मैं
पक्षपाती नहीं हूं। तपश्चर्या भोग की अति है। कुछ लोग हैं, जो खूब खा-खाकर अपने को परेशान किए हुए हैं। फिर कुछ लोग हैं, ये वही लोग हैं वस्तुतः जो पहले खूब खा-खाकर अपने को परेशान किए थे। फिर
ये उपवास कर-करके अपने को परेशान करते हैं। एक परेशानी से दूसरी परेशानी पर चले
जाते हैं।
मन अतियों पर चलता है। एक अति से दूसरी अति पर चला जाता है। काश, बीच में ठहर जाए, तो मुक्ति हो जाए!
तो न तो मैं कहता हूं भोग, और न मैं कहता हूं
तप। मैं कहता हूं: मध्य में ठहर जाओ। बुद्ध ने तो अपने मार्ग को ही मज्झिम निकाय
कहा। वही है स्वर्ण-रेखा--ठीक मध्य में रुक जाना। तुम मध्य में रुके, जैसे कोई घड़ी के पेंडुलम को रोक दे मध्य में, तो घड़ी
रुक जाती है। तुम मध्य में रुके कि मन रुका। मन भी घड़ी है; वस्तुतः
घड़ी है। क्योंकि मन समय है। जहां मन ठहरा--तुम समयातीत हुए, कालातीत
हुए।
बुद्ध के पास एक राजकुमार, श्रोण ने दीक्षा ली
थी। महाभोगी था। और जो होना था वही हुआ। जैसे ही उसने दीक्षा ली, अपने को सताना शुरू कर दिया। बौद्ध भिक्षु दिन में एक बार भोजन करते हैं।
वह दो दिन में एक बार भोजन करता था। खुद बुद्ध और उनके भिक्षु रास्ते पर चलते;
वह रास्ते के किनारे कांटों में, पत्थरों में
चलता। उसके पैर लहूलुहान हो गए। उसकी देह सुंदर थी--राजकुमार था--कोमल थी; फूल जैसी थी। छह महीने में ही सूखकर कांटा हो गई; काला
पड़ गया। उसके परिवार के लोग आते थे, पहचान भी नहीं पाते थे।
इतना विकृत, कुरूप हो गया। सारे पैरों में घाव हो गए। पेट
पीठ से लग गया।
बुद्ध ने एक सांझ उसके झोपड़े पर जाकर कहा कि श्रोण तुझसे मुझे एक बात
पूछनी है। मैंने सुना है कि तू जब राजकुमार था, तो तू वीणा बजाने में
बहुत कुशल था।
श्रोण ने कहा, यह बात सच है। वीणा में मुझे बड़ा रस था। मैंने अपने
जीवन का अधिक समय वीणा को साधने में ही बिताया था। मैं दीवाना था। घंटों वीणा का
अभ्यास करता था। और निश्चित मैंने वीणा के बजाने में गहरी कुशलता पा ली थी।
दूर-दूर तक मेरा नाम हो गया था। लेकिन आपको यह पूछने की क्या जरूरत पड़ी?
बुद्ध ने कहा, मैं इसलिए पूछने आया हूं, कि
मैंने कभी वीणा बजाई नहीं। तू मुझे समझा सकेगा। अगर वीणा के तार बहुत ढीले हों,
तो संगीत पैदा होता है या नहीं?
श्रोण ने कहा, आप भी कैसी बात करते हैं! वीणा बजाना या वीणा को
जानना जरूरी नहीं; कोई भी कह सकता है कि वीणा के तार अगर
बहुत ढीले होंगे, तो संगीत पैदा नहीं होगा।
तो बुद्ध ने पूछा, अगर तार बहुत कसे हों, तब संगीत पैदा होता है या नहीं?
श्रोण ने कहा, बहुत कसे हों तो टूट जाएंगे। बहुत ढीले हों तो उनमें
टंकार न हो सकेगी। बहुत कसे हों तो छुओगे तो टूट जाएंगे।
तो बुद्ध ने कहा, फिर वीणा के तार कैसे होने चाहिए
श्रोण?
श्रोण ने कहा, मध्य में होने चाहिए। ठीक बीच में होने चाहिए। न बहुत
कसे, न बहुत ढीले; न कसे, न ढीले। उस ठीक मध्य की रेखा पर होने चाहिए, तभी
उनसे संगीत पैदा होता है।
बुद्ध ने कहा, मैं तुझसे इतना ही कहने आया हूं, जो वीणा का नियम है, वही जीवन का नियम भी है। ठीक
मध्य में होने से ही जीवन-संगीत पैदा होता है। यह तू अति छोड़। पहले तू भोग की अति
में था। शराब पीता था। देर रात वेश्याओं को नृत्य करवाता था। दिन में सोता था। अब
तू ठीक उलटा करने लगा।
न तो मैं भोग के पक्ष में हूं, न तप के। पश्चिम भोगी
है, पूरब तपस्वी है। और दोनों कष्ट पा रहे हैं। पश्चिम भोग
से पीड़ित है, और पूरब तपश्चर्या से पीड़ित है।
एक अभिनव धर्म चाहिए। एक नई धार्मिकता चाहिए, जो न पूरब की हो, न पश्चिम की हो। ये अतियां हैं। जो
न भोग की हो, न तप की हो। जो बुद्धिमत्ता की हो। जो मध्य में
ठहर जाने की हो। जो जीवन-वीणा से संगीत उठाने में सफल हो सके।
इसलिए रवींद्रनाथ की बात प्यारी है। लेकिन रवींद्रनाथ की बात है काव्य
की बात। उन्होंने स्वयं कभी जीवन में ध्यान नहीं साधा। करते तो रहे प्रार्थनाएं
ही। यह भी प्रार्थना है।
और उनकी प्रार्थना के कारण मेरा नव-संन्यास पैदा नहीं हो गया है। उनकी
प्रार्थना से मेरे नव-संन्यास का क्या संबंध? उन्होंने प्रार्थना न
की होती, तो भी यह होता। वे न भी होते, तो भी यह होता।
मेरे संन्यास की धारणा का जन्म तो, मनुष्य जाति का पूरा
अतीत इतिहास कारण है, इस जन्म के पीछे। क्योंकि मैंने देखा
कि दोनों तरह से लोग परेशान हुए। भौतिकवादी परेशान हुए, अध्यात्मवादी
परेशान हुए। अब हमें एक ऐसी जीवन-दृष्टि चाहिए, जो समग्र हो।
जो भौतिकवादी हो--और अध्यात्मवादी हो। या यूं कहो कि न भौतिकवादी हो, न अध्यात्मवादी हो। जो वादी न हो, विवादी न हो।
जैसे शरीर और आत्मा के बीच एक तालमेल है, एक छंदबद्धता है; ऐसी ही एक छंदबंद्धता भौतिकता और
आध्यात्मिकता के बीच होनी चाहिए। उस छंदबद्धता में ही अनुभव होगा जीवन के सत्य का।
रवींद्रनाथ कवि हैं--ध्यानी नहीं। काश, ध्यानी होते तो यह जो
उन्होंने कहा है, यह प्यारा गीत ही न होता, इस गीत के पीछे अनुभव के प्राण भी होते। कवि अक्सर ऋषियों जैसी बातें कह
देते हैं। मगर बस, जैसी! कभी-कभी ऋषियों से भी बेहतर बातें
कह देते हैं। कहने में कुशल होते हैं, मगर अनुभव कुछ भी नहीं
होता। इसलिए किसी की कविता पढ़कर कवि से मिलने मत चले जाना। क्योंकि कविता में हो
सकता है आसमान छुआ हो, और कवि को देखो तो बहुत हैरान हो
जाओ--कि बैठा हो किसी शराबघर में और शराब पी रहा हो। कि कहीं बैठा जुआ खेल रहा हो।
कि कहीं रास्ते पर खड़ा किसी से झगड़ा कर रहा हो, और एक से एक
वजनी गालियां दे रहा हो। और तुम सोच ही न पाओ कि इसकी कविता में और इसकी गालियों
में कोई भी तो संबंध नहीं, कोई भी तो तुक नहीं।
कवि किन्हीं-किन्हीं क्षणों में जीवन के झरोखे को खुला पाता है। ऋषि
के झरोखे सदा के लिए खुल गए हैं। कवि के लिए कविता अकस्मात है। रवींद्रनाथ तक के
लिए अकस्मात थी। इसलिए जब कविता उतरती थी रवींद्रनाथ पर, तो वे द्वार-दरवाजे बंद कर लेते थे। कभी-कभी दिन-दो दिन--एक बार तो तीन
दिन तक निकले ही नहीं। और उन्होंने कह रखा था परिवार के लोगों को कि कोई मुझे बाधा
न दे। भूख भूल जाते थे; प्यास भूल जाते थे--जब तक कि पूरी
कविता न उतर आए। जब तक जो उनके ऊपर मंडराता था, पूरा-पूरा
रूप न ले ले, रूपायित न हो जाए--तब तक भूख, प्यास, नींद सब भूल जाते थे। लेकिन यह कभी-कभी होता
था। और जब होता था, तब अकस्मात होता था।
ऋषि के लिए अकस्मात नहीं होता। उसके हाथ में ध्यान की कुंजी होती है।
यूं नहीं कि कभी झरोखा अपने आप खुल गया हवा के झोंके में तो देख लिया सूरज को।
बल्कि यूं कि चाबी अपने हाथ में है, जब चाहा तब खोला और
देखा।
ऋषि मालिक होता है अपना। कवि अपना मालिक नहीं होता। इसलिए कवि को
अक्सर लगता है कि कोई चीज ऊपर से उतर रही है। ऋषि को लगता है--मेरे भीतर से आ रही
है; मेरे अंतरतम से आ रही है।
रवींद्रनाथ के वचन प्यारे हैं। काश, इन वचनों के पीछे
उनके ध्यान का अनुभव भी होता! तो इन वचनों का बल बहुत हो जाता। अभी ये वचन सुंदर
हैं, मगर कागज के फूल हैं। तब ये असली फूल होते; इनकी जड़ें भी होतीं। इनमें जड़ें नहीं हैं।
दूसरा प्रश्न: भगवान,
मुझे याद है कि आपने कई बार अपने प्रवचनों में
रवींद्रनाथ के काव्य की तुलना उपनिषदों से की है।
और उनके सौंदर्य-बोध की भूरि-भूरि प्रशंसा की है।
लेकिन कल आपने उन्हें लकीर के फकीर कहा,
तो विश्वास नहीं हुआ कि महाकवि रवींद्रनाथ सच में
ही लकीर के फकीर हैं!
उनकी ईश्वर की धारणा एक काव्य-प्रतीक भी तो हो
सकती है?
भगवान, निवेदन है कि आप इसे
स्पष्ट करें।
निर्मल घोष,
मैंने जब उनके सौंदर्य-बोध की भूरि-भूरि प्रशंसा की, और उनके काव्य की तुलना उपनिषदों से की, तब तुमने न
सोचा कि उनकी ये सारी बातें एक काव्य-प्रतीक भी हो सकती हैं! तब निर्मल घोष--तुम
बंगाली हो--तुम्हारे अहंकार को तृप्ति मिली होगी। तुम्हें प्यारा लगा होगा कि अहा,
धन्य बंगला देश! बंग भूमि। सोनार भूमि! तब तुम आह्लादित हुए होओगे।
तुम्हारे अहंकार को रस आया होगा।
और ऐसा तुम्हारे ही साथ नहीं है। यहां इन पिछले पच्चीस वर्षों का मेरा
यह निरंतर अनुभव है। मैं कृष्ण पर बोला। सैकड़ों प्रवचन कृष्ण पर दिए। कृष्ण की
गीता पर बोला; इतना बोला जितना संभवतः मनुष्य जाति के इतिहास में
कोई दूसरा व्यक्ति नहीं बोला। लोकमान्य तिलक का "गीता-रहस्य' गीता पर लिखी गई सबसे बड़ी टीका है। लेकिन मैं जितना बोला हूं, उसका केवल बारहवां हिस्सा है। लेकिन किसी हिंदू ने मुझसे यह न कहा कि आप
तो हिंदू नहीं हैं, आप कृष्ण की प्रशंसा क्यों कर रहे हैं?
आपको कृष्ण की प्रशंसा का कोई हक नहीं!
और जब मैंने जरा सी कृष्ण की आलोचना की, तो मेरे पास सैकड़ों
पत्र आने शुरू हो गए कि आप हिंदू नहीं हैं। आपको क्या हक है--कृष्ण की आलोचना करने
का!
यह दोहरा मापदंड देखते हो। प्रशंसा करूं तो हक है। और आलोचना करूं तो
हक नहीं? अगर प्रशंसा का हक है तो आलोचना की भी हक है।
मैं महावीर पर बोला; इतना बोला, जितना जैनियों के इतिहास में कोई महावीर पर नहीं बोला है। उनके जीवन पर
बोला; उनकी वाणी पर बोला। और जैन गदगद हुए। भूरि-भूरि
प्रशंसा की। और जब मैंने महावीर की जरा सी आलोचना की कि तत्क्षण आग लग गई!--कि
मुझे क्या हक है?--मैं उनकी धार्मिक भावनाओं को चोट पहुंचा
रहा हूं। और इतने दिन तक मैंने धार्मिक भावनाओं पर फूल चढ़ाए तो एकाध कांटा चुभाने
का हक भी मुझे है।
जब गुलाबों की बात करूं तो ठीक। और जब गुलाबों में लगे कांटों की बात
करूं, तो बस, गलत! जब गुलाबों की बात
करूं तो सत्य; और जब कांटों की बात करूं तो काव्य-प्रतीक!
यह अनुभव मुझे बहुत बार हुआ है। अमरीका से एक महिला ने--पैंसठ वर्ष की
उम्र की महिला--जीसस पर मेरी किताबें पढ़ीं। जब जीसस पर मैंने बोला, तो जीसस के मानने वालों ने न मालूम अलग-अलग देशों से कितनी प्रशंसा की। इस
वृद्धा ने मुझे लिखा कि आपको पढ़कर ही मैं जीसस को पहली दफा समझ पाई। मानती तो थी,
मगर समझती नहीं थी। आपने मुझमें जीसस की समझ पैदा की है, इसलिए मैं संन्यासिनी होना चाहती हूं। वह संन्यासिनी हो गई। और तीन वर्ष तक
निरंतर मुझे किताबें भेजती थी--पत्रिकाएं भेजती थी। और हमेशा कुछ न कुछ भेंट भेजती
थी। सतत यह क्रम जारी रहा। और एक प्रवचन में मैंने सिर्फ मजाक किया--और मजाक भी
झूठ नहीं है।
एक बहुत प्राचीन जीसस के संबंध में लिखी गई किताब में यह उल्लेख है कि
जीसस बहुत कुरूप थे। कुरूप ही नहीं थे, कुबड़े भी थे। कुबड़े
ही नहीं थे, उनकी ऊंचाई भी केवल चार फीट पांच इंच थी। कुरूप;
चार फीट पांच इंच ऊंचाई; और कुबड़े! और मैंने
तो सिर्फ इसका उल्लेख किया था और इस बात के लिए उल्लेख किया था कि इस बात की
संभावना है; क्योंकि और भी ऐसे उल्लेख पुराने शास्त्रों में
हैं यहूदियों के कि जीसस अति कुरूप थे। लेकिन उनके भक्तों ने, उनके प्रेमियों ने कहीं भी उनकी इस कुरूपता का कोई वर्णन नहीं किया है।
तो मैंने यह कहा था कि भक्त जिस भाव से देखता है, जिस हार्दिकता से देखता है, वहां शरीर तो खो जाता
है। वहां दिखाई पड़ती है भीतर की अंतरात्मा। वहां भीतर की ज्योति दिखाई पड़ती है।
उसकी नजर दीए पर नहीं टिकती; ज्योति पर टिकती है। और जो भक्त
नहीं है, जो श्रद्धा से देखते नहीं हैं, उनको ज्योति तो दिखाई पड़ती नहीं; सिर्फ दीया दिखाई
पड़ता है। तो मिट्टी का दीया है, कि सोने का दीया है--इस पर
ही उनकी नजर अटकती है।
तो जो विरोधी थे, उन्होंने तो केवल जीसस की देह
देखी। और जो प्रेमी थे, उन्होंने जीसस की आत्मा देखी। इस बात
का उल्लेख किया था। मगर बुढ़िया एकदम नाराज हो गई। उसने फौरन माला वापस भेज दी। और
बड़ी नाराजगी का पत्र लिखा कि आपने ऐसी बात कही कि मेरी धार्मिक भावना को बहुत चोट
पहुंच गई। हृदय बिलकुल खंड-खंड कर डाला।
लोग--उनकी धारणाओं का समर्थन हो--उनकी धारणाएं ठीक हों या गलत, इससे कुछ सवाल नहीं; उनकी हैं, इसलिए उनका समर्थन होना चाहिए, तो बड़े प्रसन्न होते
हैं।
अब जब मैंने कहा था कि रवींद्रनाथ की सौंदर्य-संवेदनशीलता अद्वितीय है, तब निर्मल घोष, तुमने जरा भी प्रश्न न उठाया कि आप
यह कैसे कहते हैं! इसको तुमने मान ही लिया। और जब मैंने उनके वचनों की तुलना
उपनषिदों से की, तब तुमने यह न कहा कि कहां उपनिषद, और कहां रवींद्रनाथ! आप कैसी तुलना कर रहे हैं?
लेकिन कल जब मैंने यह कहा कि वे लकीर के फकीर हैं, बस, चोट लग गई। तो तुम मुझे समझाने बैठे हो कि उनकी
ईश्वर की धारणा एक काव्य-प्रतीक भी तो हो सकती है! तुम अपने मन को समझा रहे हो कि
काव्य-प्रतीक ही होगी।
रवींद्रनाथ की धारणा काव्य-प्रतीक नहीं है। रवींद्रनाथ मानते थे कि
ईश्वर है--और व्यक्तिवाची ईश्वर है। आस्तिक थे--नास्तिक नहीं थे; बुद्ध जैसे नहीं थे; महावीर जैसे नहीं थे। और फिर भी
मैं कहता हूं कि उनके वचन बहुत बार उपनिषदों के करीब आ जाते हैं। वही ऊंचाई ले
लेते हैं। मगर यह ऊंचाई अचेतन है।
और उनका सौंदर्य-बोध निश्चित ही बहुत गहन है; बहुत प्रगाढ़ है। लेकिन वह भी अचेतन है और मूर्च्छित है। यह ध्यान और
साक्षी से नहीं जन्मा है। इसलिए लकीर की फकीर होने वाली बात भी मौजूद है।
अचेतन आदमी में सब होता है--गलत भी होता है, सही भी होता है। मगर दोनों के संबंध में वह अचेतन होता है। चेतन व्यक्ति
में सिर्फ सही ही बचता है। क्योंकि चेतना के साथ गलत का कोई संबंध नहीं जुड़ता।
जैसे अंधेरे घर में कभी-कभी तुम टटोलकर दरवाजे से निकल भी जाते हो। और कभी-कभी
दीवालों से भी टकरा जाते हो। और कभी फर्नीचर पर गिर पड़ते हो। और कभी टटोलने में
दीवाल से तस्वीर गिर जाती है। और कभी तुम बिलकुल ठीक निकल भी जाते हो।
शराबी भी कितना ही शराब पीए हो, डगमगाता-डगमगाता अपने
घर पहुंच जाता है। शराबी भी इतना पहचाना लेता है कि अपना घर आ गया। शराबी भी अपने
खीसे से चाबी निकालकर ताला खोलने की कोशिश करता है। ताले को भी पहचान लेता है।
खोलना मुश्किल होता है।
मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन खोल रहा था चाबी से। खुल
नहीं रहा था। खुले कैसे! हाथ कंप रहा था। पुलिस वाला रास्ते पर खड़ा हुआ देख रहा
था। हंसी भी आई, दया भी आई। पास आकर उसने कहा कि नसरुद्दीन, चाबी मुझे दो, मैं खोले देता हूं।
नसरुद्दीन ने कहा कि भई, चाबी तुम्हें देने की
जरूरत नहीं। बेहोश हूं, मगर इतना बेहोश नहीं कि चाबी किसी ओर
को दे दूं। तुम्हें अगर सहायता ही करनी है, तो इतना कृपा
करके करो कि ताले को जरा पकड़ लो कि ताला हिले ना।
यह सब बात ही चल रही थी कि पत्नी की नींद खुल गई उसने ऊपर दूसरी मंजिल
की खिड़की से कहा कि क्या चाबी खो गई? तो दूसरी चाबी फेंक
दूं!
नसरुद्दीन ने कहा, चाबी तो नहीं खोई, लेकिन अगर तू दूसरा ताला फेंक दे, तो काम हल हो जाए।
यह ताला इतना हिल रहा है? सच पूछो तो पूरा मकान हिल रहा है।
यह पुलिस वाला भी बेचारा क्या रोक पाएगा! इतना बड़ा मकान, इसको
कैसे सम्हालेगा? तू दूसरा ही ताला फेंक दे तो मैं खोल दूं
अभी।
बेहोश है आदमी, लेकिन फिर भी अपने घर पहुंच गया है। बेहोश है,
फिर भी ताली दूसरे को नहीं देनी है, यह भी
जानता है। बेहोश है, फिर भी ताली से ही ताला खोल रहा है,
कोई सिगरेट से नहीं खोल रहा है। बेहोश इतना है कि ताला भी हिल रहा
है, मकान भी हिल रहा है, मगर फिर भी
कुछ होश भी है।
ऐसी ही हमारी मूर्च्छित दशा है। रवींद्रनाथ ने सुंदर गीत गाए हैं, वे भी मूर्च्छा में। और जिस परमात्मा की वे बात कर रहे हैं, वह भी अनुभव की बात नहीं, वह भी मूर्च्छा है। लेकिन
अगर कोई मूर्च्छा में भी दरवाजे से निकल जाए, तो मैं इतना तो
कहूंगा कि निकला दरवाजे से! यूं तो चमत्कार है। होश वाला निकले, यह कोई चमत्कार है?
उपनिषद के ऋषियों से सुंदर गीत गाए, यह कोई चमत्कार नहीं।
चमत्कार यह है कि रवींद्रनाथ, खलील जिब्रान जैसे लोग,
जिनको कोई समाधि का अनुभव नहीं है, इन्होंने
भी उपनिषद की ऊंचाइयां छू लीं। यह चमत्कार है। यह काव्य-प्रतिभा है।
कवियों ने कैसी-कैसी ऊंचाइयां पा लीं! मगर उनके जीवन में उन ऊंचाइयों
के लिए कोई आधार नहीं है। उनकी सारी ऊंचाइयां बस, विचार की उड़ानें हैं।
विचार की उड़ान में वे कुशल हैं। कल्पना में, स्वप्न को देखने
में, सपनों को सजाने में, सजावट देने
में, निखार देने में उनकी प्रतिभा का कोई मुकाबला नहीं है।
निर्मल घोष, मैं तो गुलाबों की बात भी करूंगा और कांटों की भी।
अभी कुछ दिनों पहले बंबई से पारसियों के एक धर्मगुरु अपने पचास
शिष्यों को लेकर यहां आए थे। मुझसे उन्होंने प्रार्थनाएं भी की, पत्र भी लिखा कि आप जरथुस्त्र पर कभी बोलें। निश्चित ही जरथुस्त्र में
मुझे लगाव है, बहुत लगाव है। कभी उन पर बोला नहीं हूं। जानकर
नहीं बोला हूं। जरथुस्त्र की जीवन-दृष्टि मुझसे मेल खाती है। वे जीवन के पोषक हैं।
वे जीवन को जीने के पक्षपाती हैं। त्याग के नहीं, पलायन के
नहीं, भगोड़ेपन के नहीं।
लेकिन जरथुस्त्र के नाम से जो वचन संगृहीत किए गए हैं, वे बहुत साधारण हैं। इसलिए कभी बोला नहीं। क्योंकि बोलूंगा तो झंझट खड़ी
होगी। वे वचन साधारण हैं। अब जो भी जिम्मेवार रहा हो उन वचनों के लिए। शायद
जरथुस्त्र ही कहने में बहुत कुशल न रहे हों। कोई आवश्यक नहीं है कि समाधिस्थ
व्यक्ति वक्तव्य देने में कुशल हो।
जब गैर-समाधिस्थ व्यक्ति सुंदर वक्तव्य दे सकता है, तो यह भी खयाल रहे, समाधिस्थ व्यक्ति भी हो सकता है
सुंदर वक्तव्य न दे पाए। जब गैर-समाधिस्थ व्यक्ति इतनी गहन बातें कह सकता है,
जिनका उसे कुछ पता नहीं है, तो यह भी खयाल
रखना: समाधिस्थ व्यक्ति भी हो सकता है, जिसे पता है मगर कह न
पाए। बहुत बार गूंगे का गुड़ हो जाता है सत्य। अनुभव में तो आ जाता है, लेकिन कहने के लिए वाणी नहीं होती।
तो जरथुस्त्र के वचनों में बहुत मूल्य नहीं है, इसलिए मैं टालता रहा हूं यह बात। जरथुस्त्र की जीवन-दृष्टि अगर विहंगम रूप
से देखी जाए, तो मैं उसका पक्षपाती हूं। लेकिन अगर एक-एक वचन
का मैं विश्लेषण करने गया, तो मेरी मजबूरी है; कांटे आएंगे, तो मैं क्या करूंगा! इसलिए टालता रहा
हूं।
लेकिन उन्होंने खुद प्रार्थना की थी और अभी किसी और प्रसंग में मैंने
यह बात कह दी कि गुरु तो कुछ कहता है, शिष्य कुछ समझ लेते
हैं। जैसे जरथुस्त्र ने तो भीतर की अग्नि की बात कही थी, और
शिष्यों ने समझ लिया--बाहर अग्नि की पूजा करनी है। और अभी भी पूजा जारी है!
अगियारियां बन गई हैं। अग्नि के मंदिर बन गए हैं। पारसी अग्नि की पूजा कर रहे हैं।
इतना ही कहा था, और मेरे पास पत्र आने शुरू हो गए
हैं कि आप कौन हैं? आप पारसी नहीं हैं। आपको हमारे धर्म में
हस्तक्षेप करने का क्या अधिकार है?
प्रशंसा करने का अधिकार है! मैं प्रशंसा करूं, तो अधिकार है! और अभी मैंने कोई हस्तक्षेप भी नहीं किया। और मुझसे
प्रार्थना करने पारसी आए थे कि जरथुस्त्र पर बोलूं। और अभी इतनी सी बात कहीं कि
भीतर की अग्नि की जगह बाहर की अग्नि मत पूजो। भीतर की अग्नि खोजो। इसमें तो कोई
निंदा भी नहीं हुई, कोई आलोचना भी नहीं हुई। और जरथुस्त्र की
तो कोई आलोचना नहीं।
मैंने कहा, गुरु ने कुछ कहा, शिष्यों ने
कुछ समझा। गुरु सदा भीतर की बात कहते हैं, और शिष्य सदा बाहर
की बात समझ लेते हैं और यह होने वाला है, क्योंकि शिष्य की
दृष्टि बहिर्गामी है और गुरु की दृष्टि अंतर्गामी है। इसलिए रूपांतर हो जाएगा।
होने ही वाला है।
मगर बड़े क्रोध से भरे हुए पत्र आ गए हैं। अखबारों में पत्र छप गए हैं; कि मुझे कोई हक नहीं है। एक सज्जन ने तो यह भी लिखा है कि अगर हमें भीतर
की अग्नि भी उपलब्ध हो जाए, तो भी हम बाहर की अग्नि की पूजा
नहीं छोड़ेंगे।
मैंने कहा, कौन तुमसे कह रहा है, तुम छोड़ो।
मैंने किसी से कहा भी नहीं कि कोई छोड़े। जिसको जो करना हो, करे।
यहां तो एक से एक पागल हैं। कोई गऊमाता की पूजा कर रहे हैं, कोई
हनुमान जी की पूजा कर रहे हैं! तो कोई हर्जा नहीं है; अग्नि
की पूजा करो। कोई पीपल देवी की पूजा कर रहे हैं! और पत्थरों पर फूल चढ़ाए जा रहे
हैं, तो अग्नि कुछ बुरी नहीं; सुंदर
प्रतीक है।
लेकिन ये सज्जन कह रहे हैं कि हमें भीतर की अग्नि का अनुभव भी हो जाए
तो भी हम बाहर की पूजा बंद नहीं करेंगे। और आप हैं कौन? आप पारसी नहीं हैं।
जैसे कि मेरा पारसी होना जरूरी है! जरथुस्त्र के संबंध में कुछ कहने
को मेरा पारसी होना जरूरी है? बुद्ध के संबंध में कुछ कहने के
लिए मेरा बौद्ध होना जरूरी है? ये क्या ठेकेदारियां बना रखी
हैं? मेरा जरथुस्त्र से प्रेम है--कहूंगा। जो मुझे कहना
है--कहूंगा।
मुझे रवींद्रनाथ से भी प्रेम है। लेकिन प्रेम का मतलब यह नहीं होता, जैसा कि तुम समझते हो निर्मल घोष, और सारे लोग समझते
हैं कि प्रेम अंधा होता है। मेरा प्रेम आंख वाला है। जब फूल होगा तो फूल कहूंगा;
जब कांटा होगा, तो कांटा कहूंगा।
शायरों, राहिबों, सूफियों ने कहा--ऐ
नशेबों के कीड़ो खुदा दूर है
आदमी का खुदा तक पहुंचना गलत--आदमी का तसव्वुर भी मजबूर है
शायरों ने कहा, पादरियों ने कहा, सूफियों ने
कहा कि ऐ नीचाइयों के कीड़ो, कहां तुम--और कहां खुदा! बहुत
दूर है और आदमी खुदा तक पहुंचे, यह बात ही गलत। अरे, आदमी की कल्पना भी नहीं पहुंच सकती वहां तक।
शायरों, राहिबों, सूफियों ने कहा--ऐ
नशेबों के कीड़ो खुदा दूर है
आदमी का खुदा तक पहुंचना गलत--आदमी का तसव्वुर भी मजबूर है
मैंने फूलों से, शबनम से, तारों
से पूछा, तो सब झेंप कर मुस्कराने लगे
मैं तो समझा था इख्फाए-हक सिर्फ खल्लाक दानिशवरों ही का दस्तूर है
मैंने एहसास के अनगिनत तार छेड़े मगर कोई नग्मा न पैदा हुआ
यानी इन्सां का वजदान भी इस अल्वही धुंदलके की शिद्दत से मसहूर है
आखिरे-कार जब आदमियत से पूछा तो ये देखकर दम-बखुद रह गया
आदमी का खुदा तक पहुंचना गलत!--आदमी से अभी आदमी दूर है
आदमी आदमी को समझने लगा तो खुदा खुद जमीं पर उतर आएगा
आदमी का खुदा तक पहुंचना तो क्या! आदमी तो खुदाई पे छा जाएगा
ईश्वर की बात ही व्यर्थ है। आदमी को ही समझ लो, आदमियत को ही समझ लो। आदमी के भीतर छिपे हुए राज को पढ़ लो। यह आदमी के हृदय
में जो कुरान और वेद और बाइबिल है, थोड़ी सी इसकी समझ आ जाए,
थोड़ी यह लिखावट पहचान में आ जाए, तो किसी खुदा
को खोजने की जरूरत नहीं है आदमी खुद खुदा है।
आदमी का खुदा तक पहुंचना तो क्या! आदमी तो खुदाई पे छा जाएगा
मैं मनुष्य की भगवत्ता में भरोसा करता हूं, और किसी भगवान में नहीं। इसलिए मैंने कहा कि रवींद्रनाथ जिस भगवान से
प्रार्थनाएं कर रहे हैं, वैसा भगवान कहीं भी नहीं है।
वे प्रार्थनाएं सूने आकाश में खो जाती हैं।
तीसरा प्रश्न: भगवान,
आपकी चोटें इतनी चोटीली होती जा रही हैं कि हमें
चिंता होती है।
एक बार आप पर छुरे का हमला भी तो हो चुका है!
खुदा न करे और ऐसे खतरे आएं!
आखिर बात क्या है?
आखिर इतनी तेज गोलन्दाजी क्यों?
मोहम्मद कृष्ण,
मैंने कहा न; दो ही दिन पहले कहा:
न उनकी रीति नई, न अपनी प्रीत नई!
न उनकी हार नई, न अपनी जीत नई!
छुरा फेंकना तो सिर्फ हार गए इसका प्रतीक है। जब तुम किसी आदमी को
जवाब न दे सको; जब तुम्हारी बुद्धि पराजित हो जाए, तभी लोग छुरे फेंकने को तैयार होते हैं।
सुकरात को जहर दिया, इसलिए कि एथेंस के पंडित और
पुरोहित और तथाकथित ज्ञानी सुकरात को उत्तर देने में असमर्थ हो गए। अब एक ही उपाय
था कि इसका गला ही घोंट दो। लेकिन क्या सुकरात का गला घोंटने से गला घुटता है?
क्या सत्य का गला घोंटने से गला घुटता है? सत्य
तो जीए चला जाता है। सुकरात मर गया हो, लेकिन सुकरात ने जिस
सत्य की ज्योति को जलाया था, उसे तो नहीं बुझाया जा सकता।
जब जेरूसलम के पादरी और पुरोहित, पंडित, धर्मशास्त्री हारने लगे जीसस से; जवाब न बन पड़े
उनसे--तो जीसस को सूली दी। सरमद का गला काटा। किसने काटा? उन
लोगों ने काटा, जिनके पास इतनी प्रतिभा न थी कि सरमद का
मुकाबला करते।
मोहम्मद कृष्ण, मुझ पर जो छुरा फेंका गया, वह
इस बात का प्रतीक है कि अब साफ होने लगा कि लोगों के पास जवाब नहीं है। जब लोग
मार-काट पर उतरने लगें, तो समझ लेना कि हार चुके। अब अपनी
पराजय को स्वीकार कर रहे हैं।
और तुम कहते हो, "खुदा न करे और ऐसे खतरे
आएं!'
किस खुदा की बात कर रहे हो? फिर तुमने वही बात
छेड़ दी! तो क्या तुम सोचते हो, यह खुदा ने किया था, यह जो छुरा फेंका गया? पहले यह तो सोचो कि खुदा
का...फिर बड़ी झंझट हो जाएगी। फिर खुदा ने सुकरात को जहर पिलवाया! फिर खुदा ने जीसस
को सूली लगवाई! फिर खुदा ने सरमद का गला काटा! अगर खुदा ये काम करवा रहा हो,
तो ही सोचा जा सकता है--खुदा न करे, और ऐसे
खतरे आएं!
कोई खुदा नहीं है। और खतरे आएंगे। तुम मुझ पर छोड़ो। खुदा पर मत छोड़ो।
जब तक मैं मौजूद हूं, खतरे आएंगे। क्या खाक खुदा करेगा। खुदा लाख उपाय करे,
मुझे जो कहना है--कहूंगा। जो जीना है--जीऊंगा। उसमें रत्तीभर समझौता
नहीं कर सकता हूं। और समझौता करना उचित भी नहीं है। जिंदगी तो यूं ही चली जाने
वाली है। जिंदगी को बचाने का कोई उपाय भी नहीं है। तो जो जिंदगी चली ही जाने वाली
है, उसके लिए क्या समझौते करने।
मैं कोई पंद्रह-बीस वर्षों तक देश में यात्रा करता रहा। महीने में कोई
बीस दिन, कभी पच्चीस दिन, बस, या तो ट्रेन पर था या हवाई जहाज पर या कार में। ऊंट से लेकर हवाई जहाज तक,
जो मिल जाए--चलता ही रहा, चलता ही रहा।
मेरी नानी सीधी-सादी महिला थीं। वह हमेशा मुझे, जब भी मैं यात्रा पर जाता, तो मुझसे कह देतीं कि
देखो, दो बातें खयाल रखना। एक तो चलती गाड़ी में मत चढ़ना। और
दूसरा: गाड़ी में किसी से विवाद मत करना। तुम्हें क्या पड़ी? तुम
क्यों झंझट मोल ले लेते हो। जो जिसको करना है, करने दो। जो
जिसको ठीक जंचे--करे। जिसको गिरना है भूल में--गिरे। तुम क्यों झंझट में पड़ते हो?
वह आखिरी तक यही बात मुझे समझाती रहीं।
एक दिन मैंने उनको कहा कि चलती गाड़ी में क्या खतरा है?
अरे, गिर जाओ, चोट लग जाए। आदमी मर
तक जाते हैं चलती गाड़ी में!
और मैंने कहा, विवाद में क्या खतरा है?
विवाद में, कहा कि खतरा है। क्योंकि मैंने देखा है कि तुम जिससे
विवाद करो, उसको ही क्रुद्ध कर देते हो। वह भनभना जाता है।
जवाब तो उससे बनते नहीं। मार-काट पर कोई उतारू हो जाए! अरे, गुंडा
हो, बदमाश हो! क्या फायदा झगड़े से?
तो मैंने उनसे कहा, बात इतनी है ना कि गाड़ी में चढ़ना,
चलती गाड़ी में चढ़ना या उतरना या किसी से विवाद करना, इसमें जीवन को खतरा है।
उन्होंने कहा, हां, जीवन को खतरा है।
मैंने कहा, जीवन को वैसे ही खतरा है। क्योंकि सौ में से
निन्यानबे आदमी तो खाट पर ही मरते हैं। तो खाट पर सोऊं कि न सोऊं? चलती गाड़ी, उतरती गाड़ी में तो बहुत कम लोग मरते हैं।
वाद-विवाद में भी बहुत कम लोग मरते हैं। मगर खाट पर तो निन्यानबे प्रतिशत...!
उन्होंने कहा, लो, सुनो! कर दिया तुमने शुरू
बकवास। तुमने विवाद शुरू कर दिया। यही मैं समझाती हूं कि विवाद नहीं करना। अब इसका
कौन उत्तर देगा? इसमें झगड़ा हो जाएगा। अब मुझे भी उत्तर नहीं
सूझता। इसका क्या उत्तर! बात तो सच्ची है। बात तो तुम सच्ची कहते हो, मगर कड़वी कर देते हो।
अब यह बात तो सच्ची है कि खाट पर ही मरना पड़ता है। तो अब क्या खाट से
ही बचने लगें। तो फिर जीना ही मुश्किल हो जाएगा। फिर कहां जाओगे, क्या करोगे? कहां सोओगे? कहीं
तो सोओगे, कहीं तो उठोगे, कहीं तो
बैठोगे। मकान के भीतर--और मकान गिर जाए! मकान में आग लग जाए!
जिंदगी तो मोहम्मद कृष्ण, यूं ही है। आई--गई।
मुल्ला नसरुद्दीन शिष्य हो गए थे एक फकीर के। रात थी अभी। दोनों सोने
जा रहे थे। अपने-अपने बिस्तर पर लेट गए थे। फकीर ने कहा कि नसरुद्दीन जरा देख तो
बाहर बरसा तो नहीं हो रही!
नसरुद्दीन ने कहा, गुरुदेव, सुख-दुख
में समभाव रखना। अरे, बरसा हो कि न हो, अपने को क्या पड़ी? सब बराबर है। आप भी कैसी बातों
में पड़े हैं। और आपने ही तो समझाया कि सब हालत में समभाव रखना। तो जाने की क्या
जरूरत? हो रही हो तो ठीक, न हो रही हो
तो ठीक।
अब गुरु क्या कहे! चुप रहा। मगर उसे बेचैनी तो लग ही रही थी। उसने कहा
कि भई, यह कोई ज्ञान की बात का समय नहीं है। मेरे कपड़े बाहर
पड़े हैं। वे भीग गए, तो सुबह क्या पहनूंगा? फकीर आदमी हूं, दो ही जोड़े कपड़े हैं। तू जरा देख तो
आ।
नसरुद्दीन ने कहा, मेरे जाने की कोई जरूरत नहीं। वह
बिल्ली चली आ रही है। जरा आप ही उसके ऊपर हाथ फेरकर देख लो। आपके ही पास तो खड़ी
है। अगर भीगी हो, तो समझना हो रही है बरसा। अगर न भीगी हो,
समझना नहीं हो रही है।
गुरु अब क्या कहे! गुरु ने कहा, तू कम से कम इतना तो
कर कि बिल्ली को भगा दे बाहर।
नसरुद्दीन ने कहा, गुरुदेव, इस
जगत का स्वभाव ही आवागमन है। आना-जाना तो लगा ही हुआ है। अरे, जैसी आई, वैसी चली जाएगी! जो आया, सो गया। कौन रहा है! आप भी कैसी बातें कर रहे हो आज!
गुरु को क्रोध तो बहुत आया कि इस बकवासी को क्या उत्तर देना? फिर कहा, अच्छा, कम से कम इतना
तो कर कि दरवाजा बंद कर दे।
नसरुद्दीन ने कहा, गुरुदेव, तीन
काम मैंने कर दिए। अब एक आप कम से कम कर दो।
मोहम्मद कृष्ण, तुम पूछते हो, "इतनी तेज
गोलन्दाजी क्यों?'
अभी तो कुछ भी नहीं है यह। यह तो शुरुआत है। तुम जैसे-जैसे तैयार हो
जाओगे, वैसे-वैसे मैं भी छुरे पर धार रखता रहता हूं। तुम
जितने तैयार होओगे, उतने ही निपट नग्न सत्य तुमसे कहना
चाहूंगा। तुम तैयार न थे, तो इन्हीं सत्यों को मैंने थोड़ी सी
शक्कर की पर्त चढ़ाकर कहा था। तुम तैयार हो गए, तो शक्कर की
पर्त को गिराए जा रहा हूं।
लोग सोचते हैं कि मेरी बातों में असंगति है, वे गलती में हैं। असंगति उन्हें इसलिए दिखाई पड़ती है कि कल मैंने कुछ कहा
था, आज कुछ कह रहा हूं। मेरी बातों में एक समग्र संगति है।
मगर संगति को देखने के लिए सूझ चाहिए। मैं तुम्हारी तैयारी देखकर ही बोलता हूं।
तुम्हारी तैयारी बढ़ती जाती है, तो मेरे बोलने का ढंग बदलता
चला जाता है। फिर मुझे किन्हीं सत्यों पर चासनी चढ़ाने की कोई जरूरत नहीं। फिर वैसा
ही कह दूंगा, जैसे हैं।
जब बाजार में, भीड़-भाड़ में बोल रहा था, तो
निश्चित ही उस ढंग से बोल रहा था, जिस ढंग से भीड़-भाड़ समझ
सकती थी। जिनके बीच बोलना हो, उनकी ही भाषा बोलनी पड़ती है।
अब बोल रहा हूं संन्यासियों के बीच। अब उनके बीच बोल रहा हूं, जो कि तैयार हैं समझने को, सुनने को। सत्य चाहे फिर
कितना ही कड़वा क्यों न हो; जो निर्वस्त्र सत्य को, नग्न सत्य को समझने को राजी हैं, अब उनके बीच बोल
रहा हूं। इसलिए चोट तो गहरी होती चली जाएगी। और चोट गहरी होगी, तो खतरे भी आएंगे। खुदा के किए न किए कुछ होने वाला नहीं, मोहम्मद कृष्ण! मैं ही खतरों को निमंत्रण दे रहा हूं। और निमंत्रण दिए
बिना काम हो भी नहीं सकता।
सिर्फ ताराजिए-गुलजार का शिकवा तो नहीं
आस्मां पर भी सितारों की कमी पाता हूं
शफके-शाम हो या सुबह की अंगड़ाई हो
सब नजारों में बहारों की कमी पाता हूं
जिस्म कहता है कि मैं हद्दे-नजर को छू लूं
जहन कहता है सहारों की कमी पाता हूं
अजनबी राह से पहुंचा हूं यहां तक, लेकिन
मुझको इस बज्म से मानूस न होना आया
मैं महक बनके कफस में भी परअफ्शां ही रहा
रंग बनकर मुझे महबूस न होना आया
तीरगी कुल्बा-ए-दहकां की रही मद्दे-नजर
हजला-ए-शाह का फानूस न होना आया
मेरी मंजिल को उफक पार बताने वाले
मैंने देखा है उफकत्ता-ब-उफक कोई नहीं
एक मर्कज हो तो जंचता है तजस्सुस, लेकिन
अनगिनत दायरों में घूमती रहती है जमीं
हर उफक पर उफके-नौ की सदा आती है
तेरी मंजिल है बहुत दूर कहीं, और कहीं
अब मुसाफिर को नए अज्मे-सफर से क्या काम
अब इसी बज्म पे परचम मेरा लहराएगा
इस बियाबां में चमनजार सजाने के लिए
मेरा एहसास मेरा आईना बन जाएगा
इतने तूफान उठाऊंगा कि तारीखों में
अपने ताबूत से दहकान निकल आएगा
मुंजमिद कुहरे को चटखाएगी सूरज की किरन
इन धुंदलकों के कलेजे में उतर जाएगी
साए सिमटेंगे कि जुल्मत पे कोई आंच न आए
तीरगी चाहेगी लेकिन न अमां पाएगी
सीना-ए-संग की हिद्दत से खिलेंगे गुलजार
इतनी शिद्दत से
जमाने में बहार
आएगी
बहुत पतझड़ पाता हूं; वसंत चाहिए। तारों तक को उदास
पाता हूं; नृत्य चाहिए। कुछ करना होगा।
इतने तूफान उठाऊंगा कि तारीखों में
अपने ताबूत से
दहकान निकल आएगा
इतने तूफान उठाने हैं कि ताबूतों में जो बंद हैं लाशें, वे भी निकल आएं। लोग मुर्दा हो गए हैं; मर चुके हैं।
उनको फिर से जिंदगी देनी है। उनको फिर से जगाना है। और यह नींद कोई साधारण नींद
नहीं! सदियों पुरानी नींद है। यह मौत की नींद है। तूफानों के बिना कुछ होने वाला
नहीं।
मुंजमिद कुहरे को चटखाएगी सूरज की किरन
यह जमी हुई धुंध, सदियों पुरानी धुंध; इसको चटखाना है। सूरज की किरण उगानी है।
इन धुंदलकों के
कलेजे में उतर
जाएगी
और जब किरण इन धुंधलकों के कलेजे में उतरेगी--
साए सिमटेंगे कि जुल्मत पे कोई आंच न आए
और अंधेरा तो इनकार करेगा कि अंधेरे पर कोई आंच न आए; कि अंधेरे को कोई चोट न लगे।
साए सिमटेंगे कि जुल्मत पे कोई आंच न आए
तीरगी चाहेगी लेकिन
न अमां पाएगी
और अंधेरा अपने को बचाना चाहेगा, लेकिन उसे शरण नहीं
मिलने देनी है।
तीरगी चाहेगी लेकिन न अमां पाएगी
सीना-ए-संग की हिद्दत
से खिलेंगे गुलजार
पत्थर की छाती की गर्मी से फूल खिलाने हैं। पत्थर की छाती पर फूल
खिलाने हैं। छाती आदमी की पत्थर की हो गई है। यूं कोई साधारण काम नहीं है अब।
सीना-ए-संग की हिद्दत से खिलेंगे गुलजार
इतनी शिद्दत से
जमाने में बहार
आएगी
कठिन तो काम है, लेकिन इसीलिए तो उसे करने में
मजा भी है; एक चुनौती भी है।
सनसनाते हैं अंधेरे तो लरजते क्यों हो
हर नई सुबह
की तखलीक यूं
ही होती है
याद रखो, अंधेरा टूटता है, रात टूटती है,
रात मरती है, तभी तो सुबह का जन्म होता है।
ऐसे ही तो उत्पत्ति होती है सुबह की।
सनसनाते हैं अंधेरे तो लरजते क्यों हो
हर नई सुबह की तखलीक यूं ही होती है
रात की आंख से ढलका हुआ ताबां आंसू
दरहकीकत मेरे झूमर का गिरा मोती है
बतने-गेती में धड़कती हैं तजल्लीगाहें
जब शफक शाम की वादी में लहू बोती है
कौन जाने कि चटकने की रियाजत है यही
लोग कहते हैं कि मासूम कली सोती है
जब कली चौंक के चटकी तो गुलिस्ताने-जहां
इक अलाओ की तरह शोला-फिशां भड़केगा
कद्रें बदलेंगी, यकीं बदलेंगे, तुम बदलोगे
तीरगी में भी तजल्ली का गुमां धड़केगा
मैं तो कहता हूं मशीयत भी तड़प उट्ठेगी
दस्ते-इन्सां से जब इद्राक का दर खड़केगा
नकहते-गुल में पिघल जाएगा कांटों का वुजूद
इतनी शिद्दत से
मेरा अब्रे-रवां कड़केगा
इतने जोर से बिजली कड़कानी है, कि कांटे पिघल जाएं;
कि कांटें पिघलें और फूलों में ढल जाएं।
नहकते-गुल में पिघल जाएगा कांटों का वुजूद
इतनी शिद्दत से मेरा अब्रे-रवां कड़केगा
मैं तो कहता हूं मशीयत भी तड़प उट्ठेगी
दस्ते-इन्सां से जब इद्राक का दर खड़केगा
कद्रें बदलेंगी, यकीं बदलेंगे, तुम बदलोगे
तीरगी में भी
तजल्ली का गुमां
धड़केगा
अंधेरे में रोशनी को जगाना है, तो मामला तो उपद्रव
का है।
जब कली चौंक के चटकी तो गुलिस्ताने-जहां
इक अलाओ की तरह शोला-फिशां भड़केगा
एक अलाव बन जाएगा, जब कली चटकेगी। एक आग भड़केगी।
खतरे तो आएंगे।
मेरे साथ हो मोहम्मद कृष्ण, तो खतरे की तैयारी
रखो और खतरे में जीना ही एकमात्र जीना है। खतरे में जो जीने से डरता है, वह जीना ही नहीं चाहता है। इस दुनिया में सत्य केवल उनका है, जो खतरों की चुनौती स्वीकार करते हैं। जो अनंत की यात्रा पर निकलते हैं,
अज्ञात की यात्रा पर निकलते हैं। जो ज्ञात किनारों को छोड़ देते हैं
और अपने शफीने को लेकर बिना किसी नक्शे के उस दूर की यात्रा पर निकल जाते हैं,
जिसका कुछ ठीक पता नहीं, ठिकाना नहीं। हो भी,
न भी हो। वह दूर किनारा--पता नहीं, है भी या
नहीं। लेकिन उस दूर किनारे की खोज का मजा इतना है कि खोजी अगर सागर के बीच में भी
डूब जाए, मझधार में भी डूब जाए, तो
पहुंच जाता है और जो इसी किनारे बैठे रह जाते हैं डरे हुए, भयभीत--वे
किनारे पर भी बैठे रहें, तो सड़ते रहते हैं, उनकी जिंदगी मौत है।
एक ऐसी भी जिंदगी है, जो मौत है; और एक ऐसी भी मौत है, जो जिंदगी है।
आज इतना ही।
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