प्रतिरोध न करें-(प्रवचन-आठवां)
आठवां प्रवचन; दिनांक २७ सितंबर, १९८०; श्री
रजनीश आश्रम, पूना
पहला प्रश्न: भगवान,
अनुकंपा करें और गहराई से समझाएं: "प्रतिरोध
न करें।'
मैं एक व्यापारी हूं और विश्व का समाजसेवी सदस्य
हूं। अगर आप मुझे कोई युक्ति दें तो मैं बहुत अनुगृहीत होऊंगा।
मैंने आपकी "बुक ऑफ दि सीक्रेट्स' के पांचवे भाग को एक शब्द पढ़ा है: स्वीकार-भाव।
वह दूर नहीं है। वह तो हमारे प्राणों से भी निकट
है। वह तो हमारे चैतन्य का केंद्र है। आंसुओं की धुंध में लेकिन न पहचाने गये! पर
आंखें हमारी बहुत तरह की धुंधों से घिरी हैं। आंसुओं की धुंध तो है ही, क्योंकि जीवन हमारा विषाद है। और जीवन विषाद ही होगा। उसे जाने बिना कैसा
आनंद? उसे पहचाने बिना कैसा प्रकाश? उसके
अभाव में अंधकार है।
अंधकार अभाव का ही नाम है। अंधकार की कोई सत्ता नहीं है, कोई अस्तित्व नहीं है। रोशनी का न होना। बस दीये की गैर-मौजूदगी। दीया जला
और अंधकार गया। गया कहना भी ठीक नहीं, भाषा की भूल है;
क्योंकि था ही नहीं, जाएगा कहां? मिटा कहना भी ठीक नहीं; था ही नहीं तो मिटेगा कैसे?
अंधकार केवल अनुपस्थिति थी। प्रकाश उपस्थित हो गया, इसलिए अब अंधकार दिखाई नहीं पड़ता। प्रकाश अनुपस्थित हो जाए, फिर अंधकार दिखाई पड़ने लगेगा।
और जीवन हमारा बहुत दुखों से भरा है। हम दुख में ही जीते हैं; दुख में ही बड़े होते हैं; दुख में ही गलत हैं और मिट
जाते हैं। और इस दुख के पीछे पूरे समाज का षड़यंत्र है। समाज नहीं चाहता कि कोई
व्यक्ति आनंद को उपलब्ध हो। समाज के न्यस्त स्वार्थ तुम्हारे दुख पर ही जीते हैं।
तुम दुखी हो, पीड़ित हो, परेशान हो,
तो तुम पुरोहित के पास जाओगे। मंदिर, मस्जिद,
चर्च, गुरुद्वारा, गिरजा--आनंदित
व्यक्ति किस लिए जाएंगे? जो आनंदित है, वह जो जहां है वहीं मंदिर है। आनंद से बड़ा और कोई मंदिर है, कोई मस्जिद है? जो आनंदित है उसकी तो श्वास श्वास
में तीर्थ है; वह क्यों जाए काशी और क्यों जाए काबा? जो आनंदित है उसके तो प्राणों में गंगा बह रही है; वह
बाहर की गंगा में क्यों स्नान करे? जो भीतर की गंगा में
डुबकी लेता हो, वह बाहर की गंदी गंगा में किस कारण अपने को
गंदा करे? कोई आवश्यकता नहीं है।
इसलिए पुरोहित, पंडित, पादरी नहीं चाहते कि
आदमी आनंदित हो। उनका सारा व्यवसाय तुम्हारे दुख पर निर्भर है। तुम दुखी हो तो
उनके चरण गहते हो। तुम्हारा दुख मिट जाए, उनकी जरूरत ही
समाप्त हो जाती है। बीमार आदमी चिकित्सक के पास जाएगा, जाना
पड़ेगा। और जो स्वस्थ है वह किसलिए जाए? चिकित्सक की अंतर्भावना
तो यही होगी, अंर्तप्रार्थना तो यही होगी कि सभी लोग स्वस्थ
न हो जाएं, बीमारियां फैलती रहें। इसलिए तो जब बीमारियां
फैलती हैं तो डॉक्टर कहते हैं: सीजन आ गया। "सीजन'! व्यवसाय
का मौका आ गया, धंधे का मौका आ गया। कमाने का समय आ गया। इधर
लोग मरते हैं, उधर उनकी कमाई होती है।
जो व्यक्ति आनंदित है उसके जीवन में इतना प्रकाश होगा, इतनी ज्योति होगी कि वह दो कौड़ी के राजनेताओं के पीछे नहीं चलेगा। वह
क्यों किसी के पीछे चलेगा? अपनी रोशनी में अपना रास्ता
खोजेगा।
बुद्ध ने कहा है: अपने दीये स्वयं बनो। और जिनके पास अपना दीया है वह
क्यों किसी और की छाया बने, क्यों किसी और को अपनी बागडोर दे? और उसे साफ हो जाएगा बहुत, स्पष्ट हो जाएगा बहुत कि
जिनके हाथों में हमने बागडोर दी है वे हमसे भी ज्यादा अंधे हैं। अंधे ही नहीं हैं,
मूढ़ भी हैं। उनकी मूढ़ता और अंधेपन ने ही उनको हमारी छाती पर बैठ
जाने का अवसर दे दिया है। अंधे अंधों को मार्गदर्शन दे रहे हैं। कबीर ने कहा:
"अंधा अंधा ठेलिया, दोनों कूप पड़ंत।' वे अंधे अंधों को मार्गदर्शन देते हैं, फिर दोनों
कुएं में गिरते हैं। और यहां कतारबद्ध अंधे चल रहे हैं, क्यू
लगे हुए हैं। मुल्ला नसरुद्दीन ईद की नमाज पढ़ने ईदगाह गया था। वह जब ईद की नमाज
पढ़ने को झुका तो उसका कमीज का एक कोना ऊंचा उठा रह गया। पीछे के आदमी ने सोचा
भद्दा लगता है पजामे में खुसा रह गया। सो
उसने उसे खींच कर ठीक कर दिया। मुल्ला पहली ही दफा ईद की नमाज पढ़ने गया था।
सोचा कि शायद यह नियम है कि अपने से आगे वाले की कमीज खींचो, सो उसने भी आगे वाले की कमीज को
झटका दे दिया। आगे वाले ने सोचा कि शायद यह नियम है। वह भी पहली ही दफे आया
हुआ था, सो उसने अपने से आगे वाले की कमीज को झटका दे दिया।
वह बहुत हैरान हुआ। उस आगे वाले ने कहा, "क्यों मेरा कमीज
खींचते हो?'
उसने कहा, "मुझसे मत पूछो। मेरे पीछे वाले से पूछो।'
उसको पूछा, उसने कहा कि मुझसे क्या पूछते हो, मेरे पीछे यह जो मुल्ला नसरुद्दीन बैठा है, इसने
इतने जोर से झटका दिया मेरे कमीज को...। मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, "मैं क्या कर सकता हूं? अरे मैं खुद झटका खाया हुआ
हूं। तो मैंने सोचा यह शायद रिवाज है, परंपरा है, व्यवस्था है। मुझे क्या पता? मैं पहली दफा आया हूं।'
यहां तुम अनुकरण कर रहे हो। राजनेता चाहता नहीं कि तुम्हारे पास अपनी
आंखें हों। और राजनेता और धर्मगुरुओं को तो छोड़ दो; जिन्हें तुम सोचते हो
तुम्हारे शुभाकांक्षी हैं, तुम्हारे हितैषी हैं, तुम्हारे मां-बाप, तुम्हारा परिवार, तुम्हारे प्रियजन, वे भी नहीं चाहते कि तुम्हारे पास
अपनी आंखें हों। क्योंकि बेटा खुद देखने लगे तो फिर बाप का अनुसरण कैसे करेगा?
बाप जैसा जीया वैसा ही चाहता है कि मेरा बेटा भी जीए, मेरी बेटी भी जीए। हालांकि बाप की जिंदगी नर्क में गयी, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता, फिर भी वह चाहता है कि
मेरा बेटा वंश-परंपरा को आगे चलाए। रघुकुल रीति सदा चली आयी! रीत तो चलानी होगी।
कुल की बात है। मां खुद जिंदगी भर दुख में जीयी हो, पीड़ा में,
लेकिन अपनी बेटी को भी वह चाहेगी कि मेरा अनुसरण करे। अहंकार को
उसमें बड़ी तृप्ति मिलती है कि देखो मेरी बेटी, ठीक मेरा
अनुसरण कर रही है! मेरा बेटा उसी रास्ते पर चल रहा है जिस पर मैं चला! हालांकि तुम कहीं पहुंचे नहीं,
तुम्हारा बेटा कहीं पहुंचेगा नहीं। मगर पहुंचने की किसको पड़ी है!
सवाल यह है कि मेरा बेटा मेरे रास्ते पर चले! रास्ता कहीं जाए न जाए, यह सवाल ही नहीं उठता।
लेकिन अहंकार अपनी बंदूक दूसरों के कंधों पर रख कर चलाना चाहता है।
बाप जाते-जाते अपनी सारी बीमारियां, अपने सारे रोग, अपनी सारी मूढ़ताएं; अपने सारे अंधविश्वास अपने बेटों को सौंप जाता है। फिर बेटे भी अपने बेटों
को सौंप देंगे। यूं जड़ता मिटती नहीं। बाप को भी खतरा है कि अगर बेटे के पास अपना
बोध हो तो वह आज्ञाकारी नहीं होगा। आज्ञाकारी होने के लिए अंधा होना जरूरी है।
स्वयं का बोध नहीं होना चाहिए, तभी तो कोई आज्ञाकारी होता है।
इसलिए हम सेना में जो शिक्षण देते हैं सैनिकों को। वह उनके बोध को
मिटाने का, थोड़ा-बहुत बोध हो भी उनमें, तो
उनको बुद्धू बनाने का है। उनको हम इस तरह की प्रक्रिया से गुजारते हैं कि उनमें से
"नहीं' कहने की क्षमता ही समाप्त हो जाए। तभी तो कोई
सैनिक हो पाता है, जब उसमें "नहीं' कहने की क्षमता समाप्त हो जाती है। तब हम कहते हैं: "यह है
आज्ञाकारी!' तब हम उसको महावीर-चक्र देते हैं, उसको स्वर्णत्तगमे देते हैं, उसकी प्रतिष्ठा। उसकी
प्रतिष्ठा क्या है?--कि वह मशीन की भांति हो गया। मशीन
"नहीं' नहीं करती। तुम बटन दबाओ तो बिजली का बल्ब यह
नहीं कह सकता: "अभी मैं न जलूंगा, कि यह कोई जलाने का
समय नहीं है।' बिजली के बल्ब के पास कोई विचार की क्षमता
नहीं, बटन दबाओ तो जलता है, बटन दबाओ
तो बुझता है। जिस दिन सैनिक भी बटन दबाने से चलता है, बटन
दबाने से रुकता है, उस दिन हम उसे कहते हैं कि अब इसमें
आज्ञाकारिता पूरी हो गयी। इसको करने के लिए पांच-सात साल उससे मूर्खतापूर्ण कवायद
करवानी होती है--बायें घूम, दायें घूम; आगे आ, पीछे जा! कोई भी समझदार आदमी पूछेगा:
"किस लिए? किस लिए बायें घूम? और
किसलिए आगे आऊं और किसलिए पीछे जाऊं?' लेकिन जो यह पूछता है
उसको दंड मिलेगा? किसलिए का सवाल ही नहीं है। जो आज्ञा है
उसे पूरी करो।
जब धीरे-धीरे यह यंत्रवत् हो जाती है बात, इतनी यंत्रवत् हो जाती है...कि मैंने सुना, एक महिला
ने अपने मनोचिकित्सक को कहा कि मैं बड़ी परेशान हूं, मेरे पति
सेना में कर्नल हैं, कभी-कभी घर आते हैं। सौभाग्य यही है कि
कभी-कभी घर आते हैं। मगर जब भी आते हैं तो मेरी नींद हराम हो जाती है, इतनी जोर से घुर्राते हैं! मगर एक बात है कि जब बायीं करवट लेटते हैं तब
नहीं घुर्राते जब दायीं करवट लेटते हैं तब घुर्राते हैं।
तो मनोचिकित्सक ने कहा, "तू एक काम कर,
जब वे दायीं करवट लेट कर घुर्राने लगें, उनके
कान में कहना--बायें घूम!'
उसने कहा, "इससे क्या होगा? वे तो
सोए हैं।'
उसने कहा, "तू फिक्र मत कर। अगर कर्नल हैं, तब तो जागे भी सोए हैं। अब सोने जागने में कोई भेद नहीं। कर्नल होते-होते
आदमी के सोने-जागने में क्या भेद रह जाता है? तू फिक्र मत
कर। तू कोशिश तो कर।'
विश्वास तो न आया पत्नी को, मगर हर्ज क्या था!
रात जैसे ही वे घुर्राना शुरू किये, उसने कान में धीरे से
कहा--बायें घूम! और वह चकित हुई कि वे बायें घूम गये। नींद तक में बात घुस जाती
है--बायें घूम, दायें घूम! अब सात साल से, आठ साल से, दस साल से घूम ही रहे हैं--बायें घूम,
दायें घूम--यह बात खून में मिल गयी, मांस-मज्जा
में समा गयी।
यह सारी की सारी समाज-व्यवस्था व्यक्ति के भीतर स्वयं का बोध पैदा न
हो, इसके लिए एक साजिश है। यहां हम व्यक्ति को मिटाते हैं, नकारते हैं। छोटे से बच्चे को हम मिटाना शुरू कर देते हैं, विनष्ट करना शुरू कर देते हैं। उम्र पाते-पाते उसके भीतर आत्मा बचती ही
नहीं। कुछ रूपरेखा लेकर भी आया था, वह भी धुंधली हो जाती है।
और तब जीवन में दुख है। तब जीवन में दुख अनिवार्य है। चांदत्तारे हैं, सूरज है, सौंदर्य है। मगर क्या करोगे इन सब
चांदत्तारों का?
तेरे बिना मैं चांद-सितारों को क्या करूं
कुदरत के इन हंसीं नजारों को क्या करूं
तेरे बिना ये चांद
क्यों हर कदम पै लौटकर आती है तेरी याद
तुझको भुला भी दूं तो यादों को क्या करूं
तेरे बिना ये चांद
नजरों पै बोझ बन गई मौसम की हर अदा
तेरे बिना रंगीन बहारों को क्या करूं
तेरे बिना ये चांद!
जब तू नहीं तो जिंदगी जीने में क्या मजा
डूबी है दिल की नाव किनारों को क्या करूं
तेरे बिना ये चांद!
परमात्मा के बिना चांद भी चांद नहीं, पूर्णिमा भी अमावस है;
दिन भी अंधेरी रात। धन भी वरदान नहीं, अभिशाप।
सफलता भी सफलता नहीं, सिर्फ नयी-नयी असफलताओं का सिलसिला।
मेरा सारा प्रयास यहां यही है कि तुम्हें समझा सकूं कि आंखों के आंसू
कैसे पोंछे जाएं। लेकिन आंसू ही अगर होते तो भी बात आसान हो जाती; थोड़ी और उलझन है। आंसू हैं, वे पोंछे जा सकते हैं।
क्योंकि आंसुओं को कोई भी पोंछना चाहता है। आंसू कौन चाहता है आंखों में! आंसुओं
को लोग पी जाते हैं; आंसुओं को रोक लेते थाम लेते, क्योंकि अहंकार के विपरीत होते हैं आंसू। कोई नहीं दिखाना चाहता अपनी
आंसुओं से भरी आंखें। आंसू लबालब भरे हों तो भी लोग मुस्कराए चले जाते हैं। आंसुओं
को तो कोई भी पोंछना चाहता है। मगर मामले कुछ और जटिल हैं।
तुम्हारा ज्ञान सब थोथा है और बासा है, शास्त्रीय है। उस
शास्त्रीय ज्ञान की भी बड़ी धुंध है। वह आंसुओं से भी ज्यादा गहरी है। और मजा यह है
कि आंसू को तो हम पोंछना चाहते हैं, हम इस बात से उधार ज्ञान
को बिलकुल नहीं पोंछना चाहते। आंसुओं से तो हमारे अहंकार को चोट लगती है और इस
तथाकथित ज्ञान से हमारे अहंकार को खूब पोषण मिलता है। और यह ज्ञान बड़ी धुंध पैदा
करता है। किसी की आंखों में वेद की धुंध है और किसी की आंखों में कुरान की और किसी
की आंखों में बाइबिल की। बस दोहरा रहे हैं लोग--बिना जाने दोहरा रहे हैं।
जीसस हो जाओ तो सुंदर बात है। ईसाई होना--असुंदर। कृष्ण हो जाओ तो
तुम्हारे जीवन में आनंद के झरने फूट पड़ें। लेकिन हिंदु होना--दो कौड़ी का । मुहम्मद
हो जाओ तो तुम्हारे प्राणों से भी कुरान की सुगंध उठे, तो तुम्हारे वचनों में भी आयतें उतरें, तो तुम बोलो
तो इबादत, न बोलो तो इबादत; तुम चुप
बैठो तो इबादत; उठो तो इबादत, चलो तो
इबादत। लेकिन मुसलमान होने का कोई भी मूल्य नहीं है। लेकिन सस्ता काम है मुसलमान
होना।
जैन होना सस्ता है, जिन होना मंहगा काम है। महावीर जिन
थे, जैन नहीं। जिन का अर्थ होता है--जिसने अपने को जीता। और
जैन का अर्थ होता है--सुना है किसी ने अपने को जीता, हम उसके
पीछे चल रहे हैं। अब पच्चीस सौ साल पहले किसी ने जीता होगा अपने को, इन पच्चीस सौ साल में कितना कचरा मिल गया है, कितना
कूड़ा करकट इकट्ठा हो गया है! कहां गंगोत्री और कहां काशी की गंदी गंगा! मुर्दे ही
मुर्दे तैर रहे हैं। महावीर तो गंगोत्री हैं। तुम भी गंगोत्री हो जाओ। तुम्हारे
भीतर से भी गंगा प्रगट हो सकती है। लेकिन जब जैन होने से काम नहीं चलेगा, जिन होना पड़ेगा। और जैन होना बिलकुल सस्ता है, बिलकुल
मुफ्त, संयोगवशात्। तुम जैन घर में पैदा हो गये, तुम्हारे मां-बाप ने जैन धर्म तुम पर थोप दिया। कोई बौद्ध घर में पैदा हो
गया, उस पर बुद्ध धर्म थोप दिया। बुद्ध होने में श्रम करना
होता है। इसलिए महावीर और बुद्ध की परंपरा का नाम है--श्रमण संस्कृति, श्रम की संस्कृति। चेष्टा करनी होगी; प्रयास करना
होगा।
लेकिन इतना श्रम करने को कोई राजी नहीं मालूम पड़ता। लोग जितना धन
कमाने में श्रम करते हैं, काश ध्यान कमाने में इतना श्रम करें तो परमात्मा
जरा-भी दूर नहीं है!
यूं तो वो मेरी रगेजां से भी थे नजदीकतर
आंसुओं की धुंध में लेकिन न पहचाने गये।
पद पाने के लिए लोग जितनी दौड़ करते हैं, जितनी आपाधापी करते
हैं, उससे बहुत कम दौड़धूप में परमात्मा मिलता है। मगर
परमात्मा के संबंध में हमने कागज के फूलों को अंगीकार कर लिया है। शास्त्र यानी
कागज के फूल। जो अपना सत्य नहीं है वह कागजी होगा। जो अपना सत्य है वही जीवंत होता
है। और अपना सत्य ही मुक्ति लाता है।
लोटू सी. छुगानी, तुमने पूछा है: इस बात का अर्थ
तुम्हें प्रगट करूं--प्रतिरोध न करें। यह ध्यान का पूरा-पूरा सारसूत्र है:
प्रतिरोध न करें। यह साक्षी भाव की प्रक्रिया है। मन से मुक्त होने का सिर्फ एक ही
उपाय है--एक ही! दूसरा न कोई कभी उपाय था, न हो सकता है;
उस एक उपाय के बहुत रंग-रूप हो सकते हैं, लेकिन
वह उपाय एक ही है--वह है साक्षीभाव। और साक्षी-भाव का अर्थ होता है: प्रतिरोध न
करें। क्योंकि जैसे ही प्रतिरोध किया, कर्ता-भाव आ जाता है,
साक्षी-भाव समाप्त हो जाता है। इसको थोड़ा समझें।
तुम्हारे मन में प्रतिपल विचारों का तांता लगा हुआ है, वासनाओं का तांता लगा हुआ है, स्मृतियों की भीड़ जा
रही है--कल्पनाएं, योजनाएं, अपेक्षाएं,
क्या-क्या नहीं है! तुम्हारे इस छोटे-से मन में कितना भीड़म-भक्का है,
कितनी भारी कतार लगी हुई है, कतारों पर कतार
चली आती हैं! शरीर थक कर सो जाता है तो भी मन नहीं थकता, वह
चलता ही रहता है। दिन भी चलता है रास्ता, रात भी चलता है
रास्ता। रात सपने चलते हैं, दिन विचार चलते हैं। और तुम्हारे
विचार और तुम्हारे सपनों में कोई भेद नहीं; दोनों ही एक जैसे
हैं। सब पानी के बबूले हैं। मगर बबूले ही बबूले हो गये हैं। और इनके साथ तुम अपना
तादात्म्य कर लेते हो। इनके साथ तुम एक हो जाते हो। किसी विचार के साथ दोस्ती बांध
लेते हो, गठबंधन कर लेते हो, विवाह रचा
लेते हो। कहते हो--मैं हिंदु हूं; यह एक तरह का विवाह हुआ।
कहते हो--मैं मुसलमान; यह दूसरी तरह का विवाह हुआ। विवाह की
विधि अलग-अलग, मगर किन्हीं विचारों से तुमने भांवर डाल ली,
किसी प्रक्रिया से तुमने अपने को तादात्म्य कर लिया। तुम जड़ गये।
जिसको तुमने कहा गया वह अच्छा विचार है, उसको तुम पकड़ कर
छाती से लगा लेते हो। और जो तुम्हें समझाया गया बुरा विचार है, उसे तुम धिक्कारते हो, हटाते हो, धक्के मारते हो। अब एक झंझट शुरू होती है। जिसे तुमने कहा गया है कि बुरा
विचार है, जितना तुम उसे धकाओगे वह उतने ही बलपूर्वक
तुम्हारे पास आएगा। जैसे गेंद को कोई दीवाल से मारे, जोर से
मारे तो जोर से वापिस आती है, धीरे मारे तो धीरे वापिस आती
है, मारे ही नहीं तो वापिस ही नहीं आती।
प्रतिरोध न करने का पहला तो अर्थ यह हुआ--दीवाल पर गेंद न मारो।
क्योंकि तुम जितने जोर से मारोगे उतनी ही तुमने ऊर्जा गेंद को दे दी। गेंद के पास
अपनी कोई ऊर्जा नहीं है, अपनी कोई शक्ति नहीं है। तुम्हारे ही द्वारा शक्ति
मिलती है गेंद को। तुमने जितनी जोर से मारी, उतनी ही शक्ति
से गेंद गयी और जब दीवाल से टकराएगी, तो अगर शक्ति फिर भी बच
रही टकराने के बाद, तो वापिस लौटेगी। दीवाल वापिस नहीं
लौटाती। दीवाल क्या वापिस लौटाएगी! अगर तुम आहिस्ता से फेंको तो दीवाल के पास ही
गेंद गिर जाएगी। अगर बहुत आहिस्ता से फेंको तो दीवाल से जरा भी नहीं हटेगी,
शायद दीवाल तक भी नहीं पहुंच पाएगी। सब तुम पर निर्भर है।
और तुम प्रतिरोध करते हो, विरोध करते हो।
तुम्हें समझाया गया है कि बुरे विचार से लड़ना है। और बुरे विचार से लड़ कर तुम बुरे
विचार से ही घिरे रहते हो। वही विचार तुम्हें और और सताता है। दिन में किसी तरह
हटा देते हो तो रात में लौट आता है। जागरण में किसी तरह छिपा देते हो नींद में उघड़
आता है।
लोगों के सपने तो देखो, कैसे क्या हैं! क्या
से क्या सपने हैं!
मुल्ला नसरुद्दीन अपनी पत्नी से कह रहा था कि रात मैंने एक बहुत
बेहूदा सपना देखा कि तू एक बिलकुल गंदे डबरे में, जिसमें मल-मूत्र भरा
है, उसमें गिर गयी। धड़ाम से गिर गयी और तेरे सारे शरीर पर
मल-मूत्र और कीचड़ और न मालूम क्या-क्या जुड़ गया! जब तू बाहर निकली तो तुझे पहचानना
तक मुश्किल था। और मैं, मैं भी गिरा, लेकिन
मैं गिरा एक शहद के कुंड में और क्या मीठी शहद थी!
पत्नी ने कहा कि सपना मैंने भी देखा है। मैंने यह देखा है तुम मेरा
शरीर चाट रहे हो, मैं तुम्हारा शरीर चाट रही हूं।
पति-पत्नी और करें भी क्या--एक-दूसरे को चाटते हैं! शरीर चाटते, खोपड़ी चाटते, जो मिल जाए चाटने का चाटते हैं। पत्नी
ने भी गजब का सपना देखा! पत्नी ने पति को मात दे दी। पत्नी से कौन पति कब जीता है?
यह सपना यूं ही नहीं आ गया होगा। ये भी इरादे हैं। ऐसा पति का इरादा
होता है कि गिरा ही दूं किसी गङ्ढे में इस दुष्ट को, पीछे
लगी है। दिन में तो नहीं गिरा सके, दिन में तो वही गिरा देगी,
सो रात सपने में गिरा लिया। मगर सोचते थे बड़ी होशियारी की। मगर
पत्नी ने और भी होशियारी कर दी।
मुल्ला नसरुद्दीन ने एक दिन देखा कि पत्नी उसका क्रिकेट का बल्ला लिये
खड़ी है। थोड़ा डरा। मगर अपने भय को दबाया। हर पति को दबाना पड़ता है। छाती फुला कर
जोर से श्वास लेकर भीतर अंदर आया और पूछा, अरे! क्या तूने भी
क्रिकेट खेलना शुरू कर दिया है? क्या तुझे छक्का मारना आता
है?'
पत्नी ने कहा, "छक्का मारना नहीं आता, छुड़ाना
आता है। और आज छक्के छुड़ा कर रहूंगी।'
पत्नियों से कौन जीता? लेकिन पति-पत्नी बस
इसी तरह के सपने देख रहे हैं, सारे लोग इसी तरह के सपने देख
रहे हैं। मनोवैज्ञानिक तुम्हारे सपनों को पहले पूछता है कि तुम क्या सपने देखते हो,
क्योंकि तुम्हारे जागरण में तो तुम बेईमान हो। तुम्हारे जागरण में
तो तुमने इतना पाखंड रचा लिया है कि तुम्हारे जागरण से तुम्हारी असलियत का कोई पता
नहीं चलता। इसलिए मनोवैज्ञानिक को मजबूरी में तुम्हारे सपनों में तलाश करनी होती
है। क्योंकि सपने में तुम अभी भी बेईमानी नहीं कर पाते, सचाई
प्रगट हो जाती है। पड़ोसी की पत्नी ले भागते हो--सपने में। जागरण में तो कहते
हो--"बहन जी, माताराम! क्या क्या बातें कहते हो! जागरण
में तो अच्छी-अच्छी बातें कहनी ही होती हैं--धार्मिक और सांस्कृतिक और सभ्य। लेकिन
नींद में असलियत खुल जाती है। नींद में साफ हो जाता है।
मनोवैज्ञानिक तुम्हारे सपनों से पता लगाता है कि तुम्हारी असलियत क्या
है। यह दुर्दशा देखते हो कि आदमी का पता लगाने के लिए सपने खोजने पड़ते हैं! आदमी
का सत्य इतना असत्य हो गया है कि अब उसके संबंध में जानकारी भी चाहनी हो तो उसके
सपनों से पूछना पड़ती है। आदमी इतना पाखंडी हो गया है। और पाखंड को उसने सुंदर नाम
दे दिए हैं। पाखंड पर उसने सोने की पर्तें चढ़ा दी हैं, स्वर्ण और चांदी के वर्क लगा दिए हैं। जंजीरों पर भी उसने रंग-रोगन कर
दिया है; आभूषण मालूम होने लगी हैं जंजीरें।
तो पहली तो बात यह है कि तुम जब भी किसी विचार से लड़ोगे, प्रतिरोध करोगे, तो वह विचार लौट-लौट कर आएगा। तुम
उसे बल दे रहे हो। तुम उसे शक्ति दे रहे हो, ऊर्जा दे रहे
हो। तुम अपने दुश्मन को ही भोजन खिला रहे हो। तुम अपनी आस्तीन में ही सांप पाल रहे
हो। इसलिए ध्यान का, साक्षी का पहला सूत्र है: प्रतिरोध न
करें।
जीसस का वचन है: रेसिस्ट नाट। प्रतिरोध न करें। ईसाई भी इस वचन को
समझे नहीं, न इसका उन्होंने प्रयोग किया है। यह कुंजी है,
क्योंकि जिस चीज का तुम प्रतिरोध न करोगे, तुम
उससे मुक्त हो गये। लड़ो मत। दमन मत करो। दबाओ मत। जिसको दबाओगे उसे बार-बार दबाना
पड़ेगा। और कितना ही दबाओ, लाख बार दबाओ, वह बार-बार उभरेगा। और तुम्हारी जिंदगी दबाने और उभारने के बीच एक व्यर्थ
की कशमकश हो जाएगी। इसी में टूटोगे और नष्ट हो जाओगे।
लेकिन लोगों को डर यह है कि अगर हम दबाएं न, तो तो फिर हम गलती काम करने लगेंगे, अनाचरण फैल
जाएगा, अराजकता फैल जाएगी। यही तो उनका मुझसे विरोध है,
क्योंकि मैं भी कहता हूं प्रतिरोध न करो। तो वे कहते हैं:
"आपकी बात अगर मान कर हम चलें तो स्वच्छंदता हो जाएगी।' वह स्वच्छंदता इसीलिए मालूम लगती है कि तुम्हें पता नहीं कि प्रतिरोध न
करें, यह तो सिक्के का एक पहलू है; दूसरा
पहलू है--साक्षी बनें। प्रतिरोध न करें--यह आधी यात्रा, यह
आधी कुंजी, यह प्रारंभ का कदम। दूसरा हिस्सा है--साक्षी
बनें। प्रतिरोध जब नहीं करते तो कर्ता नहीं रहे, क्योंकि कुछ
कर नहीं रहे हो अब। अब देखने को ही बचा। अब ऐसे देखो जैसे दर्पण में चीजें झलकती
हैं। कुछ लेना देना नहीं दर्पण को। बंदर झांके तो बंदर झलकता है। दर्पण यह भी नहीं
कहेगा कि ये हनुमान जी हैं! दर्पण को क्या लेना-देना, हनुमान
जी हों कि न हों! आदमी झांकेगा तो आदमी दिखाई पड़ेगा। जो झांकेगा वह दिखाई पड़ेगा।
दर्पण तो सिर्फ प्रतिबिम्ब बनाता है, बस, कोई व्यक्तित्व नहीं देता, कोई निर्णय नहीं देता। न
प्रशंसा न निंदा। न तो स्तुति करता है और न हिकारता है, न
धिक्कारता है। कुछ कहता ही नहीं। यह दूसरा हिस्सा है। प्रतिरोध न करो, ताकि कोई चीज दबायी न जाए। सभी चीजों को उभर कर आ जाने दो। और दूसरा
हिस्सा है: अब साक्षी भाव से देखो, दर्पण मात्र हो रहो,
बस देखते रहो!
और एक जादू घट जाता है--सिर्फ देखने से! क्योंकि जब तुम मात्र देखते
हो, तुम ऊर्जा नहीं देते। प्रतिरोध में ऊर्जा दे देते हो। जब मात्र देखते हो
तो ऊर्जा नहीं देते। और देखने में एक अकल्पनीय घटना घटती है कि जब तुम किसी चीज को
देखते हो तो एक बात साफ हो जाती है कि देखने वाला दृश्य से अलग है, पृथक है। द्रष्टा और दृश्य एक नहीं हो सकते। तुम जब गुलाब के फूल को देखते
हो तो बात जाहिर हो गयी कि गुलाब का फूल दृश्य है, तुम
द्रष्टा हो। जब तुम सूरज को देखते हो तो कभी इस भूल में नहीं पड़ते कि मैं सूरज
हूं। जानते हो कि मैं देखने वाला हूं; सूरज बह रहा दूर।
जैसे-जैसे द्रष्टा भाव गहरा होता है वैसे-वैसे तुम्हारे और द्रष्टा के बीच का
अंतराल बड़ा होता है। यह अंतराल बढ़ता ही जाता है और एक ऐसी घड़ी आती है, यह दूरी इतनी हो जाती है कि दृश्य कहां खो जाते हैं क्षितिज के पार,
पता ही नहीं चलता, सिर्फ द्रष्टा रह जाता है।
और जहां द्रष्टा रह जाता है--मात्र द्रष्टा, और कोई दृश्य
नहीं बाचते--वहीं समाधि है। समाधि में समाधान है।
लोटू सी. छुगानी, तुमने कहा कि मैंने तो सिर्फ एक
ही शब्द पढ़ा आपका--स्वीकार भाव। पर वह शब्द बड़ा कीमती है। उस शब्द में तो सब आ
गया। स्वीकार भाव हो तो ही प्रतिरोध से बच सकोगे। अगर अस्वीकार का भाव है, कहीं भी दबा किसी कोने कातर में, तो तुम किसी न किसी
तरह से प्रतिरोध करोगे ही। थोड़ा न बहुत लड़ाई जारी रहेगी। और जरा सी भी लड़ाई जारी
रही तो तुम मन से बंधे रह जाओगे।
बुद्ध के जीवन में बड़ा प्यारा
उल्लेख है। वे अपने शिष्य आनंद के साथ एक जंगल से यात्रा कर रहे हैं। एक नाले को
पीछे कोई चार मील छोड़ कर आए हैं। दोपहर धनी है, तेज धूप है, बुद्ध एक छाया के नीचे बैठते हैं। वे बूढ़े हो गये हैं कोई अस्सी वर्ष उनकी
उम्र है। आनंद से वे कहते हैं: "आनंद, मेरा यह
भिक्षापात्र ले और तू पीछे लौट कर जा। अभी-अभी हम जिस नाले को पार कर आए हैं,
उसका पानी भर ला। मुझे बहुत प्यास लगी है।'
आनंद उस भरी दोपहरी में बुद्ध का भिक्षापात्र लेकर चार मील वापिस
लौटता है। लेकिन जब वह लौटता है तो बड़ा हैरान होता है। जब वे गये थे, नाले को पार किया था, तो नाला बिलकुल स्वच्छ था,
जैसे स्फटिक मणि जैसा! लेकिन इस बीच उसके आते ही आते उसने अपनी
आंखों से देखा कुछ बैलगाड़ियां उस नाले में से निकल गयीं। छोटा-सा पहाड़ी नाला।
बैलगाड़ियां के निकलने से सारी कीचड़ ऊपर उठ आयी, जो नीचे जमी
थी। वर्षों के पत्ते सड़े गले, जो नीचे बैठ गये थे तलहटी में,
वे सब ऊपर तैर आए। कचरा ही कचरा हो गया। यह पानी पीने योग्य न रहा
चार मील आना व्यर्थ हुआ। वह वापिस लौट आया। उसने बुद्ध से कहा, "वह पानी पीने योग्य नहीं, क्योंकि जब मैं गया तो ठीक
मेरे सामने ही एक कतार बैल गाड़ियों की उसमें से गुजर गयी। बैलों ने भी पानी पीया
और गाड़ियां गुजरीं, सब गंदा कर गये हैं। नाला बिलकुल गंदा हो
गया। अब उसका पानी पीने योग्य नहीं है। लेकिन मुझे पता है, आगे
कोई तीन चार मील दूरी पर नदी बहती है, मैं वहां से पानी भर
लाता हूं।
बुद्ध ने कहा कि नहीं, पानी तो उसी नाले का
ला, तू फिर जा। बुद्ध कहें तो आनंद को फिर जाना पड़ा। मगर
बहुत हैरान हुआ कि यह जिद क्या! पानी पीना है, नदी से बेहतर
पानी मिल जाता और तीन-चार मील वह भी यात्रा थी, कोई यात्रा
में भी फर्क नहीं पड़ता था। फिर उसी नाले पर भेज रहे हैं, जिसका
कि पानी बिलकुल गंदा हो गया है! लेकिन वह जब नाले पर पहुंचा तो चकित हुआ कि बुद्ध
का प्रयोजन अब समझ आया। इतनी देर में तो सारे पत्ते फिर वापिस बैठ गये थे, धूल फिर बैठ गयी थी या बह गयी थी। नाला फिर स्वच्छ हो गया था। वह पानी भर
कर लौटा और नाचता हुआ लौटा। और उसने बुद्ध से कहा, "आपने
अद्भुत किया। यही मेरी समस्या थी, कुछ दिन से पूछना चाहता था,
संकोचवश पूछ नहीं रहा था कि मेरे मन में इतनी गंदगी चलती है,
इसका क्या करूं? आपने तो बिना पूछे उत्तर दे
दिया। अब मैं समझ गया। अब मैं राज समझ गया। बस किनारे पर बैठ रहूं, कुछ करूं न। ...मैंने तो कुछ किया नहीं। जब मैं पहुंचा तो देखा कि पत्ते
बह गये हैं; कुछ थोड़े बहुत रह गये थे, तो
जब इतने बह गये हैं तो मैं किनारे बैठ रहा। मैंने कहा ये भी बह जाएंगे। कीचड़ वापिस
जम गयी थी। झरना स्वच्छ होता जा रहा था। रास्ते में तो मैं यह सोचता हुआ गया था कि
अब पानी जब लाना ही है तो उतर जाऊंगा नाले में, पत्तों को
हटाऊंगा, कपड़े से पानी को छान लूंगा। लेकिन जब नाले के
किनारे पहुंचा तब मुझे बोध आया कि अगर मैं उतरूंगा तो फिर गंदा कर दूंगा। बैठ रहा
किनारे पर कुछ किया न, सिर्फ देखता रहा, देखता रहा, देखता रहा--और स्वच्छ होता गया जल! और अब
मैं समझा राज कि क्यों मुझे आपने वापिस भेजा पीछे। यही मेरी मनोदशा है। अब मैं बैठ
रहूंगा किनारे। अब मैं उतरूंगा नहीं मन की इस धारा में कि इसे साफ कर लूं। अब मैं
लडूंगा नहीं, छानूंगा नहीं, दबाऊंगा
नहीं, बहाऊंगा नहीं। अब तो बैठ रहूंगा किनारे--तटस्थ भाव से।'
तटस्थ का अर्थ ही वही होता है: किनारे बैठ रहना। इसलिए तो तटस्थ भाव
कहते हैं। बैठ कर किनारे धारा को देखते रहना। और अगर तुम साक्षी बन कर बैठ रहो, स्वीकार-भाव से कि जो हो रहा है ठीक हो रहा है, जो
हो रहा है वही होना चाहिए, अन्यथा की कोई चाह नहीं, अन्यथा हो ऐसी कोई आकांक्षा नहीं--इस स्वीकार-भाव में प्रतिरोध गिर जाएगा।
और प्रतिरोध गिर गया तो साक्षी बनने में कोई कठिनाई नहीं है। सिर्फ देखते रहो।
मात्र दृष्टा! और एक दिन तुम पाओगे मन अपनी सारी गंदगी के साथ विदा हो गया है। उस
नाले में तो सिर्फ पत्ते और कीचड़ ही चले गये थे; यह नाला मन
का ऐसा है कि पत्ते कीचड़ गये कि मन ही गया, क्योंकि मन पत्ते
और कीचड़ का जोड़ है। और कुछ बचता नहीं पीछे। पत्ते कीचड़ गये कि मन भी गया। अ-मनी
दशा आ जाती है, जिसको नानक ने अ-मनी दशा कहा है। मन ही गया।
और जहां मन गया वहां संसार गया। मन संसार है। और तब जो अनुभव होता है, उसे तुम चाहो सत्य का अनुभव कहो, स्वयं का अनुभव कहो,
परमात्मा का अनुभव कहो, समाधि कहो, कैवल्य कहो, निर्वाण कहो। ये सब अलग-अलग नाम हैं--एक
ही अनुभूति के। वह अनुभूति है परम प्रकाश की, परम ज्योति की।
उस ज्योति के साथ अंधकार कट जाता है।
ये काली काली रतियां
हैं वहमों से लंबी
गुनाहों से काली
न सोते कटे हैं
न रोते कटे हैं
ये काली काली रतियां
दिया रंग फूलों को
कलियों को हंसना
और इन दोनों आखों को नित का बरसना
भवरों को घातें
हमें गम की रातें
तुम्हें याद करके हम अभी-अभी हटे हैं
न सोते कटे हैं
न रोते कटे हैं
गये हो; खयालों से जाओ तो जानूं
आह बन के लब पै न आओ तो जानूं
अरे बेवफा! आंसुओं से तुम्हें याद करके अभी हम हटे हैं
न सोते कटे हैं
न रोते कटे हैं
ये काली-काली रतियां
हमारी जिंदगी अभी तो अमावस है। न रोते कटती है न सोते कटती है। काटे
नहीं कटती। लोग कैसे-कैसे जिंदगी को काट रहे हैं! कोई ताश खेल रहा है; उससे पूछो, क्या कर रहे हो? वह
कहता है समय काट रहा हूं। समय काट रहा हूं यानी जिंदगी काट रहा हूं। समय यानी
जिंदगी। और ऐसा समय काट रहा है, जिसको दुबारा न पा सकेगा।
ऐसा अवसर काट रहा है, जो न मालूम कितने जन्मों के पुण्यभाग
से मिला है।
न सोते कटे हैं
न रोते कटे हैं
लेकिन जागो तो रात कटती ही नहीं, दिन हो जाता है ,
सुबह हो जाती है।
दिया रंग फूलों को
कलियों को हंसना
फूलों को ही रंग नहीं दिया, तुमको भी रंग दिया
है। और कलियों को ही हंसना नहीं दिया, तुमको भी हंसना दिया
है। लेकिन तुम भूल ही गये भाषा हंसने की । तुम्हें सिर्फ रोने की ही भाषा याद रही।
तुम गणित ही सीख गये। तुम प्रेम ही भूल गये।
पूछा है तुमने, लोटू सी छुगानी, कि मैं एक
व्यापारी हूं। थोड़े व्यापार से उठना पड़ेगा, थोड़ा गैर
व्यापारी होना पड़ेगा। व्यापार तो सब बाहर का होता है--धन का होता है, पद प्रतिष्ठा का होता है। यह भीतर की यात्रा है। यह गणित नहीं है व्यापार
नहीं है। तब प्रेम का जगत है--प्रार्थना का, ध्यान का। यहां
और ही भाषा चलती है। यहां किसी और ही तर्क की गति है। अगर व्यापारी ही रह कर भीतर
जाना चाहा तो न जा सकोगे। थोड़ी गैर व्यवसायिक वृति को सीखना पड़ेगा, क्योंकि व्यापार हमेशा लाभ और हानि की भाषा में सोचता है। और ध्यान में न
तो लाभ है, न हानि है। ध्यान में तो उसका अनुभव है जो हमें
मिला ही हुआ है; सिर्फ उसकी तरफ हम पीठ किये हुए हैं। मुड़ जाना
है और मुंह कर लेना है। अभी विमुख हैं, उन्मुख हो जाना है।
और तब रंग ही रंग हैं। सारे इंद्रधनुष के रंग तुम्हारे रंग हैं। और तब खिलते हैं
कमल--भीतर के कमल, सहस्रदल कमल!
मनुष्य की बड़ी संभावना है। मनुष्य की परमात्मा होने की संभावना है। और
जब तक मनुष्य परमात्मा न हो जाए तब तक तृप्ति अनुभव नहीं होती। तब तक अतृप्ति बनी
ही रहती है। कुछ न कुछ खोया-खोया लगता ही रहता है। बुद्धत्व जब प्रगट होता है, तभी आती है परितृप्ति, परितोष। और तभी पहली बार
अनुभव होता है कि जीवन कितना महान अवसर था; काटना नहीं था,
जानना था, जागना था, बीज
को फूल बनाना था, कली को खिलाना था। और यह सब घटना घट जाती
है। एक छोटी सी कुंजी से: साक्षी।
बस, घड़ी दो घड़ी, सुबह सांझ, जब अवसर मिल जाए, चुप होकर बैठ रहो। शिथिल हो जाओ,
शांत हो जाओ। शरीर को निढ़ाल छोड़ दो। विश्राम की अवस्था को सजा लो।
और फिर मन की धारा को देखते रहो। और कुछ भी न करो--न कोई मंत्र, न कोई रामनाम का जप, न कोई हनुमान चालीसा का पाठ,
न कोई गायत्री न कोई नमोकार। बस चुपचाप...क्योंकि वे सब तो मन के ही
खेल हैं। उनको दोहराओगे तो मन में ही अटके रह जाओगे। फिर साक्षी नहीं हो सकते।
यह जानकर तुम हैरान होओगे कि मंत्र और मन एक ही धातु से बनते
हैं--दोनों शब्द। मंत्र मन का ही हिस्सा है, वह मन का ही तंत्र
है। वह मन की ही व्यवस्था है। तो मंत्रों से कोई मन के पार नहीं जाता। हां,
यह हो सकता है मंत्रों से मन की बहुत सी सूक्ष्म शक्तियां हैं,
उनको जगा ले। मगर वह और नया उलझाव हो जाएगा। बाहर का धन इतना नहीं
रोकता जितना फिर मन की शक्तियां रोकने लगती हैं।
रामकृष्ण के पास एक तपस्वी आया। रामकृष्ण बैठे थे गंगा के तट पर
दक्षिणेश्वर में। देखते होंगे गंगा की धारा को बैठे-बैठे, और तो कुछ था नहीं करने को। उस तपस्वी ने कहा, "मैंने सुना है लोग तुम्हें परमहंस कहते हैं! तुम्हीं हो रामकृष्ण परमहंस?
अकड़ कर कहा, क्योंकि तपस्वी की अकड़ तो होगी
ही। जहां तपश्चर्या है वहां अकड़ है। बोध नहीं--अकड़, अहंकार।
क्योंकि तपश्चर्या में साक्षी-भाव नहीं है,
क्रिया-भाव है, कर्ता-भाव है। उपवास किया। सिर
के बल खड़ा रहा। एक हाथ उठा कर बारह वर्ष कोई खड़ा रहता है, कोई
खड़ा है तो बैठता ही नहीं। कोई सिर के बल खड़ा है। इस सबसे तो कर्ता-भाव पैदा होता
है। और जहां कर्ता भाव पैदा होता है वहां अस्मिता और अहंकार सघन होता है। और
साधारणत:धन से भी इतना अहंकार पैदा नहीं होता जितना तप से पैदा होता है।
इसलिए मैं तपश्चर्या का पक्षपाती नहीं हूं। त्यागी सिर्फ अहंकार पैदा
कर लेते हैं और कुछ भी नहीं। और स्वाभावत: सूक्ष्म अहंकार होगा। जिसके पास लाख
रुपये थे उसके पास एक अकड़ थी, जेब में एक गर्मी थी कि लाख
रुपये मेरे पास हैं! और यह लाख रुपये छोड़ देते हो तो एक नयी अकड़ पैदा होती है,
जो पुरानी अकड़ से भी बड़ी है। यह कहता है, "मैंने लाख को लात मार दी!' लाख तो कई पर हैं,
लेकिन लात मारने वाले कितने हैं? लाख वाले तो
बहुत हैं, अकड़ होती भी तो कोई बहुत ज्यादा नहीं हो सकती थी।
कोई लखपतियों की कमी है? दुनिया में बहुत हैं। तुम भी उनमें
से एक। मगर लाख को लात मारने वाले तो बहुत कम हैं; अकड़ और
सघन हो जाती है, और बड़ी हो जाती है।
तुम्हारे त्यागी तपस्वियों के चेहरों को जरा गौर से देखो। उनकी नाक पर
अहंकार बैठा हुआ दिखाई पड़ेगा। नंगे बैठे हैं, लेकिन नंगे बैठे हैं
इसलिए और अहंकार है, और अकड़ है कि देखते हो कि मैं नग्न बैठा
हूं! उनकी आखें तुमसे कहती हैं कि तुम पापी हो, नर्कों में
सड़ोगे। मैं हूं पुण्यात्मा! स्वर्ग का दावेदार हूं।
रामकृष्ण सीधे सादे आदमी थे--कोई तपस्वी नहीं, कोई त्यागी नहीं, कोई व्रती नहीं--सरलचित्त। और सरलचित्त
जो है वही साधु है। साधु शब्द का अर्थ होता है, जो सादा है।
और ये तुम्हारे तपस्वी सादे बिलकुल नहीं हैं, ये तो बड़े
तिरछे हैं। इनका तो पूरा काम तिरछा है। अब अपने को भूखा मार कर कोई सीधा हो सकता
है? तिरछा हो जाएगा। सिर के बल खड़े होकर कोई सीधा हो सकता है?
यह तो और उल्टा हो गया। वैसे ही खोपड़ी गड़बड़ थी, अब और गड़बड़ हो जाएगी।
उस साधु ने बड़ी अकड़ से पूछा रामकृष्ण को कि तुम्हीं हो रामकृष्ण
परमहंस? तो आओ मेरे साथ, चल कर गंगा को
पार करें। मैं पानी पर चल सकता हूं, तुम चल सकते हो?
रामकृष्ण हंसने लगे। उन्होंने कहा कि नहीं, मैं तो नहीं चल सकता। मगर एक बात पूछूं, अगर बुरा न
मानें, कितना समय लगा पानी पर चलने की यह कला सीखने में?
स्वभावत: उसने अकड़ से कहा, "अठारह वर्ष
लगे!'
रामकृष्ण ने कहा कि मैं बहुत हैरान होता हूं, क्योंकि मुझे तो जब उस पार जाना होता है तो दो पैसे देकर उस पार चला जाता
हूं। नाव वाला दो पैसे में पार करा देता है। दो पैसे का काम--अठारह वर्ष तुमने
गंवा दिये और फिर भी अकड़ रहे हो! फायदा क्या है? और मुझे कभी
साल में एकाध दो दफे जाना होता है उस पार। सो अठारह साल में समझो कि एकाध रुपये का
खर्चा होता है उस पार। सो अठारह साल में समझो कि एकाध रुपये का खर्चा होता है सब
मिला कर। एक रुपये की चीज तुमने अठारह साल में कमायी! और शर्म भी नहीं आती और
संकोच भी नहीं लगता! और यूं अकड़े खड़े हो!
मंत्र से मन की सोई हुई शक्तियां जग सकती हैं, मगर तुम और जाल में पड़ जाओगे। पानी पर चलने लगे तो और जाल में पड़े। कहीं
राख निकालना सीख गये हाथ से तो और जाल में पड़े। कहीं किसी को छू कर बीमारी दूर
करना आ गया तो और जाल में पड़े।
मन के पार जाना है। मन से मुक्त होना है। मन का अतिक्रमण करना है। यह
मन के अतिक्रमण का सूत्र है: प्रतिरोध न करें, स्वीकार-भाव रखें और
साक्षी बनें। बस देखते रहें।
मैं अपने संन्यासियों को इससे ज्यादा और कुछ भी नहीं सिखाता
हूं--मात्र देखते रहो। जीवन एक लीला है। तुम दर्शक बनो, द्रष्टा बनो। जैसे कोई फिल्म देखता है, नाटक देखता
है--बस ऐसे। खुद का जीवन भी यूं देखो, जैसे यह भी एक अभिनय
है। यह पत्नी, ये बच्चे, यह परिवार,
यह धन दौलत, छोड़ कर भागनी की कोई जरूरत नहीं,
सिर्फ इतना जानो--अभिनय है। चलो तुम्हें यह अभिनय करना रहा है। यह
बड़ी मंच है पृथ्वी की, इस पर सब अभिनेता हैं। और जिसने अपने
को समझा कि मैं कर्ता हूं वही चूक गया। और जिसने अपने को अभिनेता जाना वही पा गया
है। पाने की बात दूर नहीं है।
यूं तो वो मेरी रगेजां से भी थे नजदीकतर
आंसुओं की धुंध में लेकिन न पहचाने गये।
दूसरा प्रश्न: भगवान,
हरिद्वार से दो साधु कल आश्रम देखने आये थे। हमने
उनसे पूछा कि आपकी साधना क्या है? उनमें से एक स्वामी
श्री रामानंद परमहंसपुरी ने बताया कि हम श्वास-श्वास में नाम जपते हैं, अजपा जाप करते हैं।
और आपका दर्शन करना चाहते थे--यह कहते हुए:
"संत समागम हरिकथा, तुलसी दुर्लभ दोय।'
और कहा कि जैसे भगवान श्री कृष्ण से अर्जुन ने
पूछा था, ऐसे मैं भी भगवान श्री से पूछता हूं: "मेरा मन
चंचल है, एकाग्र कैसे हो?'
रंजन भारती,
साधुओं का अब साधना से कोई संबंध नहीं रह गया है। इसलिए भूल कर किसी
परंपरागत साधु से मत पूछना कि आपकी साधना क्या है। अब तो साधु सिर्फ पाखंड है।
साधना कोरा शब्द है। अब साधना कुछ भी नहीं है, क्योंकि साधना की
शुरुआत ही साक्षी-भाव से होती है और अंत भी साक्षी-भाव पर। साक्षी-भाव ही साधन,
साक्षी भाव ही साध्य।
उस अंतर्जंगत में साधन और साध्य अलग-अलग नहीं है। मार्ग ही मंजिल है।
तूने उनसे पूछा कि आपकी साधना क्या है। वहीं तेरी गलती हो गयी। साधु से पूछना ही
मत कि साधना क्या है। साधना ही करनी होती तो साधु काहे को होता? जंगल भाग गये, भगोड़े हैं, पलायनवादी
हैं--इनकी साधना क्या? साधना तो वहां जहां चारों तरफ लपटें
हैं। जहांर् ईष्या, वैमनस्य, अपमान,
सम्मान की भीड़ लगी हुई है--वहां साधना है। जंगल भाग गये आदमी की
क्या साधना है? एक गुफा में बैठ गये आदमी की क्या साधना है?
वहां कोई गाली तो देता नहीं, है ही नहीं कोई
गाली देने वाला, तो क्रोध भी नहीं उठता। गाली के अभाव में
क्रोध भी नहीं उठता। तो गुफा में बैठे आदमी को यह भ्रांति होने लगती है कि मैंने
क्रोध पर विजय पाली।
मैंने सुना है, एक आदमी तीस साल तक हिमालय की गुफाओं में रहा और उसकी
खबर नीचे तक पहुंच गयी मैदानों तक कि उसने लगता है परमात्मा को पा लिया, परम शांति की मूर्ति है! लोग धीरे-धीरे पहाड़ पर आने लगे उसके दर्शन को।
फिर कुंभ का मेला भरने को था तो लोगों ने कहा, "अब आप
कुंभ को दर्शन दें। करोड़ों लोग यहां तो नहीं आ सकते। उन पर कृपा करें, अनुकंपा करें। और आपने पा लिया है तो आपके दर्शन से उनको लाभ होगा। संत
समागम हरिकथा, तुलसी दुर्लभ दोय!'
तो साधु राजी हो गया। कुंभ के मेले में आया। तीस साल जो गुफा में
दिखाई न पड़ा था, कुंभ के मेले में आते से ही दिखाई पड़ गया। एक आदमी का
भीड़ में उसके पैर पर पैर पड़ गया। बस उसने उसकी गर्दन पकड़ ली। एक क्षण में भूल ही
गया, तीस साल एकदम विलीन हो गये जैसे थे ही नहीं। एकदम गर्दन
पकड़ ली। वह जो तीस साल पहले का आदमी था, एकदम वापस लौट आया,
एक क्षण में वापिस आ गया। और कहा, "तू
जानता है कि मैं कौन हूं?' लेकिन यह कहते ही उसे खयाल
आया--अरे! क्या हुआ मेरी तीस साल की साधना का? कहां गयी मेरी
शांति, कहां गया मेरा मौन? कहां गया
मेरा अक्रोध?'
फिर भी समझदार आदमी रहा होगा। उसने झुक कर उस आदमी के पैर छुए और माफी
मांगी और कहा, कि जो हिमालय मुझे तीस साल में नहीं दिखा सका वह तूने
जरा सा पैर रख कर दिखा दिया। मैं तेरा अनुगृहित हूं!' फिर वह
हिमालय नहीं गया। फिर उसने कहा कि अब मैं बाजार में रहूंगा, भीड़-भाड़
में रहूंगा क्योंकि यहीं साधना हो सकती है।
साधना का अर्थ ही यह होता है--जहां अवसर है, उत्तेजना है; जहां कोई गाली देगा, कोई अपमान करेगा, कोई सम्मान करेगा, कोई अच्छा कहेगा कोई बुरा कहेगा; जहां हार होगी जीत
होगी, धन मिलेगा पद मिलेगा, खो जाएगा,
आज मिलेगा कल खो जाएगा--जहां ये सब घटनाएं घटती रहेंगी। उनके बीच जो
निष्कंप है, यूं निष्कंप है कि जैसे कुछ भी नहीं हो रहा,
जैसे यह सब नाटक में चल रहा है, हमें कुछ
लेना-देना नहीं। हारे तो ठीक, जीते तो ठीक। जहां भेद ही नहीं
हार-जीत में। जहां सम्मान और अपमान में कुछ अंतर ही नहीं। जहां बदनामी हो कि यश
फैले, सब बराबर है। ऐसी ही दशा में साधना है।
साधु तो भगोड़े हैं तुम्हारे। मैं अपने संन्यासी को कह रहा हूं कि रहना
जगत में, भागना मत। क्योंकि जो भागे वे कभी नहीं जीत सकते। वे
तो संग्राम ही छोड़ गये, जीतेंगे क्या खाक? वे तो गुफाओं में छिप रहे। हम, युद्ध के मैदान से
कोई भाग जाए, पीठ दिखा दे, तो उसको
कायर कहते हैं। और जीवन के मैदान में जीवन के युद्ध से कोई भाग जाए तो
उसको--परमहंस! यह कौन सा गणित है, कैसा गणित है?
जिंदगी एक संग्राम है। यही तो है, कुरुक्षेत्र, यही तो है धर्मक्षेत्र। धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र! यही है वह जगह, जहां कौरव और पांडव इकट्ठे हैं; जहां घमासान प्रतिपल
होने की तैयारी में हैं; जहां अब शंख बजा अब शंख बजा,
बज ही रहा है; जहां अब धनुष उठे तलवारें
खनकीं-- यहीं है मौका। अर्जुन को कृष्ण ने यूं ही नहीं रोक लिया युद्ध में। वह तो
प्रतीक कथा है, बड़ी प्यारी कथा है, बड़ी
सांकेतिक कथा है। जैन उसको समझ न पाए। इसलिए कृष्ण पर नाराज हो गये। जैन धर्म में
गीता का जैसा अनादर है वैसा किसी और ग्रंथ का नहीं, क्योंकि
जैनों ने तो समझा कि कृष्ण ने हिंसा के लिए राजी कर लिया अर्जुन को। और जैनियों का
तो हिसाब है: अहिंसा परमोधर्मा:। तो इस आदमी ने तो भड़का दिया, भरमा दिया। अर्जुन तो यूं समझो कि जैन मुनि होने जा रहा था और कृष्ण ने
उसे खींच कर युद्ध में लगा दिया। और कितने तर्क दिए! अर्जुन ने बहुत बचने की कोशिश
की, भागने की बहुत कोशिश की; पूरी गीता
उसका सबूत है कि वह प्रश्न पर प्रश्न उठाए, संदेह पर संदेह
किये गया। और कृष्ण भी एक थे कि जहां से भागा वहीं से रोका। सब तरफ से दरवाजे बंद
कर दिये। अखीर में घबड़ा कर उसने कहा कि अच्छा भैया, तो तुम
जो कहो वही ठीक। अब और मेरा सिर न खाओ। मतलब उसका यह है कि अब लड़े लेता हूं। चलो
इससे बेहतर लड़ना ही है। निपटे लेता हूं।
तो जैनों को लगता है कि अर्जुन तो जैन हो जाता, जैन मुनि हो जाता। लेकिन कृष्ण ने उसे गड़बड़ कर दिया। कृष्ण ने उसे युद्ध
में लगा दिया। लेकिन मेरे देखे, कृष्ण ने जो किया वह बहुत
सोचने जैसा है, बहुत विचारणीय है। वही मैं कर रहा हूं। मैं
नहीं चाहता कि तुम भागो। तुम जीओ जिंदगी को इस युद्ध के मैदान में ही--अविचलित भाव
से, साक्षी भाव से, जो हो, जो परिणाम आए। इसलिए तो कृष्ण कहते हैं: "तू परिणाम की चिंता न कर।
तू फल की आकांक्षा न कर। जो बात आ पड़ी है उसे कर गुजर। फिर जो फल हो--
सफलता-असफलता, वह परमात्मा के हाथ है। कर्म हमारे हाथ,
फल परमात्मा के हाथ। मतलब यह है कि फल की जिसने विचारण की वह तो फिर
चिंता में पड़ेगा। फल अगर पक्ष में आया तो अहंकार भरेगा और फल अगर विपक्ष में गया
तो अहंकार टूटेगा; दोनों हालत में नुकसान होने वाला है।
अहंकार टूटा तो विषाद पकड़ेगा और अहंकार भरा तो अभिमान जगेगा, घमंड पैदा होगा, अकड़ आएगी। फल छोड़ ही दिया परमात्मा
पर तो फिर कोई सवाल ही न रहा। काम अपना पूरा किया, फिर जो
हुआ परिणाम उससे हमें क्या लेना-देना? जो हो ठीक। जैसा हो
ठीक। इससे एक निरपेक्ष भाव पैदा होता है--अपेक्षा शून्य। इससे साक्षी-भाव जगता है।
कृष्ण की पूरी दीक्षा अर्जुन को साक्षी भाव की है, कि तू
साक्षी-भाव से लड़।
रंजन, तू पूछती है कि साधु कल आश्रम देखने आए थे। इनको साधु
कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि साधु तो सादगी की बात है। सादगी
का अर्थ होता है: जीवन को व्यर्थ की जटिलताओं में न उलझाए, जो
साधारण भाव से जीए, जो अपने को साधारण मान कर जीए। साधु
तुम्हारे तो साधारण भावे से नहीं जी सकते। वे तो प्रतिपल अस कोशिश में लगे
हैं--कैसे असाधारण हो जाएं। उनकी सारी चेष्टा पुण्य-अर्जन की है, स्वर्ग पाने की है, मोक्ष पहुंच जाने की है। ये सब
वासनाएं हैं। और जो वासनाओं से बंधा है उसका डेरा नर्क में होगा। वह चाहे वासना
मोक्ष की ही क्यों न हो, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। चाहे तुम दिल्ली जाना चाहो और चाहे तुम स्वर्ग जाना
चाहो, कुछ भेद नहीं। एक ही बात है। अपने से बाहर तुम्हारी
यात्रा है। तुम अभी बाहर के लिए आकांक्षी हो, अभीप्सु हो।
तुम्हें अभी भीतर का रस नहीं आया। भीतर का जिसे रस आया,वह तो
अभी और यहीं मुक्त है--इसी क्षण! कहीं जाना नहीं है। कुछ पाना नहीं है। कोई
उपलब्धि की बात नहीं उठती। जो है वह है ही मिला ही हुआ है। वह सदा से हमारा है। वह
हमारा शाश्वत स्वरूप है। एस धम्मो सनंतनो! वही हमारा धर्म है।
साधु तो जटिल हो जाता है। कहलाता तो है साधु, हो जाता है बहुत जटिल। क्योंकि वह हर चीज में फूंक फूंक कर चलने लगता है,
उसका गणित बिठालने लगता है। ऐसा करूंगा तो पाप होगा, ऐसा करूंगा तो पुण्य होगा; ऐसा करूंगा तो लाभ,
ऐसा करूंगा तो हानि--वह व्यवसायी समझो। मगर व्यवसाय में कुछ भेद
नहीं है। वही बात। वही पागलपन। जरा भी अंतर नहीं। साधु तो जटिल हो जाता है। यह बड़ा
दुर्भाग्य है।
झेन फकीर रिंझाई साधु था, उसको मैं साधु
कहूंगा। किसी ने उससे पूछा कि आपकी साधना क्या है? जैसे रंजन,
तूने पूछा रामानंद परमहंस पुरी से कि आपकी साधना क्या है, ऐसे ही रिंझाई से किसी ने पूछा कि आपकी साधना क्या है? उसने कहा, "साधना! साधना मेरी कुछ भी नहीं। जब
भूख लगती है तब खाना खाता हूं और जब नींद आती है तब सो जाता हूं। जब नींद नहीं आती
तो नहीं सोता और जब भूख नहीं लगती तो नहीं खाता। न तो भूख से ज्यादा खाता हूं,
न भूख से कम खाता हूं। जितनी देर नींद आती है उतनी देर सोता हूं,
न तो ज्यादा न कम। स्वभाव, ऋत, सरलता से जी रहा हूं। मेरी क्या साधना? मुझ गरीब की
क्या साधना?'
सुनने वाला चौंका। उसने कहा कि इसमें कौन-सी खूबी है? अरे भूख हमको लगती है, हम भी खाते हैं; नींद हमको लगती है, हम भी सो जाते हैं। इसमें
तुम्हारी हमारी क्या खूबी? फिर भेद क्या?
रिंझाई ने कहा, "और तो मुझे कुछ भेद दिखाई नहीं पड़ता। भेद है भी
नहीं। मगर इतना मैं तुमसे कहूं कि तुम जब खाना खाते हो तो और भी हजार काम करते हो,
मैं वह हजार कान नहीं करता। मैं बिलकुल सीधा-सादा आदमी हूं। तुम
खाना तो खाते हो मगर सोचते दुकान की हो। तुम बैठते तो घर में हो मगर होते बाजार
में हो। और जब बाजार में होते हो तब घर की सोचते हो। तुम जहां होते हो वहां नहीं
होते। मैं जहां हूं वहीं हूं। ज्यूं का त्यूं ठहराया! मैं जहां हूं वहीं हूं। तुम
कहीं कहीं होते हो, न मालूम कहां-कहां होते हो! सारी दुनिया
में घूमते फिरते होते हो। सोते अपने कमरे में हो, सपना देखते
हो टिम्बकटू पहुंच गये, कि कुस्तुन्तुनिया पहुंच गये।
कहां-कहां नहीं चले जाते!'
सेठ चंदूलाल मारवाड़ी अपने मनौविज्ञानिक को कह रहा था कि बड़ी मुश्किल
में पड़ा हूं। चंदूलाल बेचारा अपनी पत्नी का गुलाम है--जोरू का गुलाम--जैसा कि
स्वभावतः मारवाड़ी होते हैं। या यूं समझो कि जो भी जोरू के गुलाम होते हैं वे सब
मारवाड़ी, तो भी कुछ फर्क नहीं पड़ा। ऐसा समझो कि ऐसा समझो,
बराबर। जोरू का गुलाम था। यह मनोवैज्ञानिक को पता नहीं था।
सोचा--तकलीफ क्या है? उसने कहा, "तकलीफ
मेरी यह है कि रात जब में सपना देखता हूं, रोज यही होता है,
अब मैं घबड़ा गया। मुझे बचाओ! मैं क्या देखता हूं कि बारह पत्नियां
हैं मेरी, एक से एक सुंदर!'
मनोवैज्ञानिक ने कहा कि इसमें तुम्हें क्या घबड़ाने की जरूरत, इसमें क्या बचना? अरे मौज करो, मौज करो! बारह पत्नियां मिल गयीं...।
चंदूलाल ने कहा, "आप समझे नहीं। कभी आपको
बारह पत्नियों का भोजन बनाने का अवसर मिला ही नहीं? मैं मर
जाता हूं रात भर भोजन बनाते बनाते बर्तन धोते धोते।' एक ही
काफी है भैया--उसने कहा कि--बारह में तो बहुत मुश्किल हो जाती है। रात भर भोजन
बनाओ, बर्तन धोओ, सफाई करो। और बारह के
बच्चे तुम समझते हो, कितने? कोई की नाक
बह रही है, वह पोंछो। कोई रो रहा, उसका
झूला हिलाओ। रात भर! सोने का तो नाम ही नहीं। विश्राम तो मिलता नहीं। रात जब सोने
जाता हूं, जितना थका होता हूं, सुबह
उठता हूं, उससे भी ज्यादा थकी हालत होती है। और उठते ही मेरी
पत्नी खड़ी है, सो फिर चक्कर शुरू। दिन में एक सता रही है,
रात बारह सता रही हैं। रात तो मुझे बचा दो, दिन
में तो मैं नहीं बच सकता यह मुझे पता है।
यह जो रिंझाई ने कहा कि, तुम यह मत कहो कि जब
तुम खाना खाते हो, खाना ही खाते हो और तुम जब सोते हो तो
सोते ही हो। यह गलत बात है। तुम सोते हो, तब तुम हजार काम
करते हो। कितने सपने देखते हो! क्या-क्या नहीं कर गुजरते हो सपनों में! हत्याएं कर
बैठते हो, चोरियां कर लेते हो। खाना खाते खाते तुम क्या क्या
नहीं सोचते रहते! कहां-कहां नहीं उड़े फिरते! मैं जब खाना खाता हूं तो बस खाना ही
खाता हूं और जब सोता हूं तो बस सोता हूं।
और एक दफा, एक कोई और दूसरा जिज्ञासु आया रिंझाई को मिलने,
कि उसने देखा कि बगीचे में एक आदमी झाड़ काट रहा है। यह तो सोच ही
नहीं सका कि यह रिंझाई होगा। क्योंकि रिंझाई महागुरु, इतना
ख्यातिनाम फकीर था कि वह लकड़ी काटेगा यह तो हो ही नहीं सकता है। तो उसने पूछा कि ऐ
भैया, रिंझाई से मिलना है, कहां मिलना
हो पाएगा? आश्रम बड़ा था, कोई पांच सौ
फकीर आश्रम में रहते थे। रिंझाई ने कहा, "रिंझाई से
मिलना है? तुम जरा रुको, मैं बुला कर
आया।'
वह जल्दी से भीतर गया, हाथ-मुंह धोया,
कपड़े बदले, आ कर कहा कि मैं रहा रिंझाई। कहिए
क्या काम है?
उस आदमी ने कहा कि आप हैं रिंझाई? अरे कपड़े बदल कर तुम
सोचते हो मुझे धोखा दे सकोगे? अभी दो मिनिट पहले तुम गये,
माना कि मुंह धो आए और कपड़े बदल लिए, मगर मैं
पहचानता हूं तुम वही के वही आदमी हो जो अभी लकड़ी काट रहे थे।
उसने कहा, "बिलकुल ठीक। मैं वही आदमी हूं। मगर तब तुम नहीं
पहचान सके तो मैंने सोचा मुंह धो कर आ जाऊं, और क्या करूं?
शायद लकड़ी काट रहा हूं पसीना बह रहा है, तुम
पहचान नहीं पा रहे, तो कुल्हाड़ी रख आया कि भई कुल्हाड़ी की
वजह से शायद नहीं पहचान पा रहे हो। मगर मैं ही हूं रिंझाई।'
उसने कहा, "आप लकड़ी काटते हैं!'
उसने कहा, "और क्या करूं? ईधन के लिए
लकड़ी की जरूरत है तो लकड़ी काटता हूं। और सुबह थोड़ी देर पहले आए होते तो कुंए से
पानी भर रहा था, क्योंकि स्नान करना होता है तो कुंए से पानी
भरता हूं।'
तो उस आदमी ने पूछा कि मैं तुमसे यह पूछता हूं कि जब तुम प्रबुद्ध हुए, उसके पहले क्या करते थे? उसने कहा, "यही लकड़ी काटता था, कुंएं से पानी भरता था।'
उस आदमी ने पूछा, "फिर फर्क क्या पड़ा?
पहले भी लकड़ी काटते थे, कुंएं से पानी भरते थे;
अब भी लकड़ी काट रहे, कुंएं से पानी भर रहे।'
उसने कहा, "फर्क इतना पड़ा कि पहले लकड़ी भी काटता था,
और दूसरे काम भी करता था। साथ-साथ मन चलता रहता था। पानी भी भरता था,
और भी मन दूसरी चीजें भरता रहता था। अब सिर्फ पानी भरता हूं। अब
सिर्फ लकड़ी काटता हूं। जो करता हूं वही करता हूं। अब बस वहीं होता हूं जहां होता
हूं।
साधु का अर्थ है--इतना सरल कि जो जहां है वहीं है। असाधु का अर्थ
है--भागा भागा, खंडित, बहुत टुकड़ों में टूटा
हुआ। साधु का अर्थ है--समग्र। तुम अपने साधुओं से मत पूछना कि तुम्हारी साधना क्या
है। ये तो भगोड़े हैं। साधना था तो संसार ही, जगत ही परमात्मा
ने दिया है साधने को। परमात्मा ने महात्मा नहीं बनाए, परमात्मा
ने संसारी बनाए। अगर परमात्मा को महात्मा ही बनाने होते तो हर बच्चे को महात्मा
बना कर भेजता। चले आते बच्चे--कोई सिर घुटाए चले आ रहे हैं त्रिदंडी साधु, कोई चले आ रहे हैं योगासन करते हुए, कोई चले आ रहे
हैं मुंह पर पट्टी बांधे हुए, हाथ में कमंडल लिए हुए,
कोई पिच्छी लिए हुए। एक से एक साधु! मगर परमात्मा संसारी आदमी बनाता
है। परमात्मा संसारियों में ज्यादा उत्सुक है, साधुओं में
इतना उत्सुक नहीं दिखाई पड़ता। एक साधु नहीं बनाता।
पश्चिम का एक बहुत बड़ा सदगुरु जार्ज गुरजिएफ कहा करता था कि परमात्मा
के खिलाफ हैं तुम्हारे महात्मा। और मैं इस बात से राजी हूं। तुम्हारे महात्मा
तुम्हें कुछ गलत बात सिखा रहे हैं। परमात्मा की मर्जी कुछ और है। परमात्मा चाहता है
कि जीवन के संघर्ष और चुनौती को तुम जीओ। और तुम्हारे महात्मा सिखाते हैं भाग खड़े
होओ। परमात्मा अवसर देता है, महात्मा तुम्हें अवसर से बचा
देते हैं। फिर लौटकर आना पड़ेगा, क्योंकि परमात्मा ऐसे
तुम्हें छोड़ देने वाला नहीं है। जब तक तुम पक न जाओ, जब तक
तुम केंद्रित न हो जाओ, तुम्हें वापिस आना पड़ेगा। तुम तो
कक्षा से भाग रहे हो, उत्तीर्ण कैसे होओगे? और जब तक उत्तीर्ण न होओ, तब तक स्कूल में लौटना
पड़ेगा। अच्छा है जल्दी उत्तीर्ण हो जाओ। अच्छा है इस बार उत्तीर्ण हो जाओ। इस अवसर
को क्यों चूकना?
मेरे लिए संसार में होना ही साधना है, क्योंकि यहां की सारी
तकलीफें हैं, चुनौतियां हैं और इन चुनौतियों को ही जो सम्यक
भाव से ध्यानपूर्वक जीता है, वह परम धन्यता को उपलब्ध हो जा
है।
तूने पूछा है कि उसमें से एक स्वामी श्री रामानंद परमहंस पुरी ने
बताया कि हम श्वास-श्वास में नाम जपते हैं। अब तू मजा देखती है! श्वास-श्वास में
नाम जपते हैं, अजपा जाप करते हैं! अजपा जाप का मतलब भी उनको पता
नहीं। अजपा जाप का मतलब होता है कि जाप नहीं। अजपा का मतलब होता है कि जहां अब कोई
शब्द न रहा--न राम, न ओंकार, न अल्लाह,
कोई शब्द न रहा। अजपा का अर्थ ही यह होता है कि अब जपने को कुछ न
बचा। मंत्रों के पार हो गये। मंत्र के पार हुए कि मन के पार हुए।
यह "अजपा' शब्द नानक का है। बहुत प्यारा है! लेकिन मजा तो देखो,
नानक को मानने वाले जपुजी रटे जा रहे हैं! और नानक कहते हैं अजपा और
ये जपुजी रट रहे हैं। जपुजी बिलकुल उल्टी बात हो गयी। कहां अजपा और कहां जपुजी! और
जप में भी जी लगा दिया...क्या-क्या पंजाबी हैं! जप ही काफी था, कम से कम जी से तो बचाओ। उसमें और जी लगा रहे हो! समादर दे रहे हो! और
नानक कहते हैं, अजपा को उपलब्ध हो जाओ।
तुम्हारे भीतर शून्य हो तब अजपा होता है। श्वास चले और तुम साक्षी
होओ! श्वास भीतर आयी, तुमने देखी; श्वास बाहर गयी,
तुमने देखी--बस सिर्फ तुम द्रष्टा रह जाओ श्वास के। इसको बुद्ध ने
"विपश्यना' कहा है। जिसको नानक ने अजपा कहा है उसको
बुद्ध ने विपश्यना कहा है।
"विपश्यना' शब्द भी प्यारा
है। इसका अर्थ है: देखना, पश्यना। पश्यना देखना। साक्षी का
ही अर्थ है। बस देखते रहो श्वास का आना और जाना। मगर इस देख में हम ऐसे तोतों की
तरह हो गये हैं कि हम क्या करते हैं हमें इसका भी पता नहीं। शब्द रट लिए हैं,
दोहराए जा रहे हैं। अब वे एक साथ में ही, एक
श्वास में ही दोनों बात कह रहे हैं कि श्वास-श्वास में नाम जपते हैं, अजपा जाप करते हैं। उनको पता नहीं कि क्या कर रहे हैं।
"और उन्होंने कहा कि हम भगवान का दर्शन करना चाहते
हैं, क्योंकि संत समागम हरिकथा तुलसी दुर्लभ दोय। और कहा कि
जैसे श्रीकृष्ण से अर्जुन ने पूछा था, ऐसे मैं भी भगवान श्री
से पूछता हूं, मेरा मन चंचल है, एकाग्र
कैसे हो?'
तो अजपा जाप कैसे कर रहे हो? मन चंचल है। अभी
एकाग्र भी नहीं हुआ। मनातीत होना तो बहुत दूर, अभी पहला कदम
भी नहीं उठा और मंजिल का दावा कर रहे हो।
मैं ऐसे लोगों को जानता हूं, जिन्होंने ध्यान पर
बड़ी-बड़ी किताबें लिखीं हैं और मुझसे पूछने आ जाते हैं कि ध्यान कैसे करें। मैं
उनसे पूछता हूं, "जब तुमने ध्यान पर इतनी बड़ी किताब लिख
दी तो सोचा भी नहीं कि ध्यान तुम्हें करना आता नहीं, तो कम
से कम संकोच तो करो कि किताब मत लिखो! क्योंकि तुम्हारी किताब को मान कर न मालूम
कितने मूढ़ ध्यान करने लगेंगे। और तुम्हें ध्यान का कोई पता नहीं है, कोई अनुभव नहीं है।'
तो वह कहते हैं, "हमने शास्त्रों को पढ़ कर
किताब लिख दी।'
और मैंने कहा, "हो सकता है तुम्हारे शास्त्र भी तुम जैसे लोगों
ने लिखे हों। न उन्हें ध्यान का कुछ पता है। क्योंकि ध्यानी तो बहुत कम हुए और
शास्त्र बहुत हैं। जाहिर है कि बहुत से शास्त्र तो गैर ध्यानियों ने लिखे।'
अच्छी-अच्छी बातें लिखी जा सकती हैं। लिखने में क्या खर्चा है? लिखने में लगता क्या है? अच्छे अच्छे शब्द चुने जा
सकते हैं। अब उन्होंने भी तुलसीदास का यह वचन उद्धृत कर दिया--"संत समागम
हरिकथा, तुलसी दुर्लभ दोय।'
लेकिन तुलसी को भी अनुभव नहीं है, क्योंकि कृष्ण के
मंदिर में उन्होंने इनकार कर दिया झुकने से। कहा, "तुलसी
माथ तब झुके जब धनुष बाण लेहू हाथ।' कहा कि मेरा माथा तो तब
झुकेगा जब तुम धनुर्धारी राम बन जाओगे। मैं कृष्ण के सामने नहीं झुक सकता।
क्या मजा है! और तुलसीदास के वचन पड़े हैं रामचरित मानस में, न मालूम कितने कि परमात्मा तो कण-कण में समाया हुआ है; वही है, उसके अतिरिक्त कोई भी नहीं है। कण-कण में
देख सके और कृष्ण की मूर्ति में न देख सके? कृष्ण की मूर्ति
क्या अड़चन दे गयी? यह किसी अनुभवी व्यक्ति की बात नहीं हो
सकती। यह तो आग्रही व्यक्ति की बात है। अरे जिसने परमात्मा को पहचाना, वह तो झुक ही गया--अब क्या है, मस्जिद हो तो भी झुका
है और गिरजा हो तो भी झुका है, गुरूद्वारा हो तो भी झुका है।
वह तो झुका ही हुआ है। मगर अभी तुलसी को अड़चन है, कृष्ण के
सामने भी नहीं झुक सकते। अभी राम के आग्रही हैं। अभी ऐसा लगता है कि धनुष-बाण इनका
ट्रेडमार्का है। वह जब तक न हो तब तक यह कैसे झुकें? पहले
धनुष-बाण होना चाहिए। मतलब राम से भी
ज्यादा महत्वपूर्ण धनुष बाण है। इनको राम भी मिल जाएं अगर बिना धनुष-बाण के,
ये झुकने वाले नहीं हैं। ये कहें, "तुलसी
माथ तब नवै, धनुष
बाण लैहु हाथ। धनुष बाण कहां है महाराज? पहले हाथ में धनुष
बाण लो, जब माथा मेरा झुके। यह को साधारण माथा है--तुलसीदास
का माथा है! यह माथा झुकवाना हो, हो इरादा तुम्हारा, अगर लेना हो मजा इस माथे के झुकने का, तो लो
धनुष-बाण हाथ।'
यह भी सशर्त है, इसमें भी शर्त आ गयी। माथा भी
झुक रहा है तो सशर्त। यह क्या खाक माथे का झुकना हुआ? और
कहानी क्या गढ़ी है लोगों ने कि कृष्ण जल्दी से बांसुरी पटकी, धनुष बाण लिया, फिर तुलसीदास झुके। क्या मजेदार लोग
हैं! इनको जरा भी होश नहीं है ये क्या कर रहे हैं, क्या करवा
रहे हैं। खुद भी कर रहे हैं और अपने ईश्वर से भी करवाते हैं। ईश्वर के ऊपर भी अपने
को आरोपित कर देते हैं; जैसे कि राम को कुछ चिंता पड़ी हो कि
तुलसीदास का माथा नहीं झुकेगा तो राम में कुछ कमी रह जाएगी। और अगर ऐसा कुछ हो कि
तुलसीदास का माथा झुकवाने में इतना मजा आ रहा हो तो ये राम दो कौड़ी के राम हो गये।
यह तो असंभव बात है कि बांसुरी पटक दें कृष्ण और धनुषबाण हाथ में ले लें। हां,
एक चपत जमा देते, यह समझ में आ सकता था--कि
निकल बाहर! तेरे माथे को झुकवा कर भी क्या करना है? करेंगे
क्या? खाएंगे पीएंगे तेरे माथे के झुकने को? करना क्या है? निकल जा, भाग
यहां से! कभी दुबारा इस तरफ आना मत!
मगर नहीं, उन्होंने जल्दी से धनुष-बाण हाथ लिया, फिर तुलसीदास का माथा झुका। सो भक्त भी प्रसन्न, भगवान
भी प्रसन्न। दोनों खूब आनंदित हुए होंगे, गदगद हुए होंगे कि
वाह, क्या गजब हो गया! तुलसीदास प्रसन्न हुए कि हमारी शर्त
मानी गयी और वे प्रसन्न हुए होंगे कि देखो कैसा महान माथा झुकवा लिया!
अब ये क्या खाक संत समागम करेंगे? जो कृष्ण से भी आग्रह
रखते हैं कि धनुष-बाण हाथ लो, ये संतों को पहचान सकेंगे?
इनको अगर जीसस मिल जाते तो तुलसीदास पहचानते? असंभव,
बिलकुल असंभव! कृष्ण को नहीं पहचान सके तो जीसस को तो कैसे पहचानते?
और जीसस तो गधे पर बैठ कर यात्रा करते थे। वहां यहूदी मुल्कों में
उन दिनों गधा एकमात्र सवारी थी। अब गधे पर बैठे इनको जीसस मिल जाते तो गधा ही अटका
देता कि कैसे माथा झुकाएं, पहले गधे से तो उतरो। नहीं तो गधा
यह समझेगा कि हम गधे को माथा झुका रहे हैं। गधों का क्या है! गधे क्या भी समझ सकते
हैं! अरे गधे कुछ से कुछ समझ लेते हैं! और तुलसीदास का माथा गधे के लिए झुके,
कभी नहीं! पहले नीचे उतरो गधे से और धनुष-बाण लो हाथ!
इनको मगर लाओत्सु मिल जाता, बहुत मुश्किल था।
लाओत्सु भैंसे पर सवार था। गऊमाता हो तो भी ठीक, भैंसा! यह
तो यमदूत का वाहन है। ये तो समझते यमदूत चले आ रहे हैं,एकदम
जोर-जोर से राम राम जपने लगते कि मौत आ गयी! और लाओत्सु तो गजब का आदमी था;
भैंसे पर भी सीधा नहीं बैठता था, उल्टा बैठता
था। एक तो भैंसे ... चीन में भैंसे पर बैठने का रिवाज रहा...और उल्टा!
एक दफा लोगों ने लाओत्सु को पूछा कि आप भैंसे पर उल्टे क्यों बैठते
हैं? बीच बाजार में चला जा रहा था अपने शिष्यों के साथ,
च्वागंत्सु और दूसरे शिष्य, लीहत्सु पीछे लगे
हुए थे। उसने कहा, "इसके पीछे राज है। अगर मैं भैंसे पर
सीधा बैठूं, आगे की तरफ मुंह करके बैठूं, तो मेरे शिष्यों की तरफ मेरी पीठ हो जाएगी; यह उनका
अपमान है। अगर मैं अपने शिष्यों से कहूं कि तुम मेरे आगे चलो, ताकि मेरी पीठ तुम्हारे प्रति न हो तो वे राजी नहीं होते। वे कहते हैं
आपकी तरफ हमारी पीठ हो जाएगी, वह अपमान है। सो मैंने यह
तरकीब निकाली भैंसे पर उल्टा बैठता हूं। मेरा चेहरा शिष्यों की तरफ, उनका चेहरा मेरी तरफ। किसी का अपमान नहीं।'
इसलिए वह उल्टा बैठता था। मगर उसकी बात में अर्थ है। तुलसीदास तो
समझते कि यह तो बड़ा मामला गड़बड़ हुआ जा रहा है। यमदूत चले आ रहे हैं और यमदूत भी
कोई साधारण नहीं, बिलकुल पागल यमदूत आ रहा है! घसीट कर ले जाएगा! उल्टा
बैठ कर आ रहा है भैंसे पर! एकदम चिल्लाते कि भैंसे से उतरो, तब
संत समागम हो।
वचन तो अच्छे-अच्छे कह गये बाबा तुलसीदास, मगर अनुभव के नहीं मालूम होते। संत समागम हरिकथा। बात तो सच है, मगर उधार होगी, सुनी होगी। संत समागम मुश्किल तो
जरूर है, क्योंकि एक तो संत को पाना मुश्किल। हजार संतों में
कभी एक संत होता है, नौ सौ निन्यानबे तो अंटशंट होते हैं। और
उन नौ सौ निन्यानबे की वजह से उस एक को पहचानना मुश्किल हो जाता है। क्योंकि भीड़
जिनकी है, वोट उनके हैं। वे नौ सौ निन्यानबे एक तरफ खड़े हो
जाते हैं और वह बेचारा अकेला पड़ जाता है। संत तो है वह अकेला पड़ जाता है। अंटशंटों
की भीड़ है। और अगर वोट से मामला तय होना है, भीड़ से तय होना
है, तो संत तो हारा ही हुआ है। ऐसे तो बुद्ध हारे, ऐसे तो महावीर हारे। ऐसे तो कूड़ा-करकट जीत गया।
भीड़ तो गलत लोगों से राजी हो जाती है, क्योंकि गलत लोगों से
तुम्हारा तालमेल बैठ जाता है। गलत लोग तुम्हारे अनुसार चलते हैं। अगर तुम कहते हो
मुंह पर पट्टी बांधो तब हम तुमको संत मानेंगे...तो तुमने देखा कृष्ण ने बांसुरी
उतार कर रख दी...तो अगर तुम मुंह पर पट्टी बांध लो तो तेरापंथी स्थानकवासी जैन
तुम्हें संत मानेंगे। बस मुंह पर पट्टी।
मैं हैदराबाद में था। एक जैन मुनि ने मेरी बातों को सुना। युवक था।
हिम्मत में आ गया, जोश में आ गया, मुंहपट्टी फेंक
दी। दूसरे दिन मैं जब सभा में बोलने गया तो वह भी मेरे साथ गया, तो वह भी मंच पर मेरे साथ बैठ गया। बस जैनियों में एकदम खलबली मच गयी,
कि मुंहपट्टी कहां है? मुझे चिट्ठियां आने
लगीं कि इस आदमी को आप मंच से नीचे उतारें; इसने मुंहपट्टी
छोड़ी है, मतलब अब यह जैन मुनि नहीं रहा।
मैंने उनसे कहा, "तुम मुंहपट्टी को नमस्कार
करते थे कि इस आदमी को? इसके चरण छूते थे। अभी कल तक तुम
इसकी सेवा को जाते थे। आज इसने मुंहपट्टी छोड़ दी तो क्या बिगड़ गया? मुंहपट्टी गयी न, और तो कुछ नहीं बिगड़ा? मुंहपट्टी का इतना क्या मूल्य है? तो तुम आदमियों को
छोड़ो, घर में मुंहपट्टियां लटका लो, उनकी
पूजा करो, सेवा करो। मुंहपट्टियां में ही तुम्हें रस है...।
मगर मैं समझता हूं कि जब बाबा तुलसीदास गलती कर सकते हैं तो ये बेचारे
क्या? ये हैदराबादी, इनका क्या,
इनकी कितनी समझ? मगर वे तो जिद पकड़ गये। वह तो
मामला उपद्रव का हो गया। भीड़ में लोग खड़े हो गये। उन्होंने कहा कि इनको मंच से
नीचे उतारा जाए। मैंने कहा, "देखो, मैं भी मंच पर बैठा हूं। मैं तो कोई मुंहपट्टी बांधे हुए नहीं हूं। तो यह
बेचारा बैठा है, इसमें क्या हर्ज है? यह
छिपकली देखो, हमसे भी ऊपर बैठी है, यह
भी मुंहपट्टी नहीं बांधे हुए है। अब इसमें झगड़ा क्या करना है? मच्छर उड़ रहे हैं, कोई मुंहपट्टी नहीं बांधे हुए हैं,
इनको कोई नहीं रोक रहा। इस गरीब को बैठा रहने दो।'
मगर नहीं बैठा रहने दिया। हालत यहां तक पहुंच गयी कि वे खींचने को मंच
पर चढ़ आए। तब मैंने ही उनको कहा कि अब आप ही हट जाओ। यह पागलों की जमात है। अगर
इनसे आदर पाना हो तो अपनी मुंहपट्टी फिर चढ़ा लो। ये मुंहपट्टी के दीवाने हैं। और
मूढ़ ही इस तरह की शर्तें पूरी कर सकते हैं।
लेकिन तुम्हारी कोई भी शर्त हो, तुम्हें मूढ़ मिल
जाएंगे शर्तों को पूरी करने वाले। बस तुम्हारी शर्त पूरी कर दें, वे संत हो गये। हजार में एक कोई संत होता है और जो संत है, वह तुम्हारी कोई शर्त पूरी नहीं करेगा। वह अपने ढंग से जीएगा। उसे क्या
फिक्र पड़ी तुम्हारी कि तुम उसे संत मानते हो कि असंत मानते हो? मानते हो कि नहीं मानते हो क्या लेना-देना है? वह
अपनी निजता में जीएगा, वह अपने आनंद में जीएगा। तुम्हारे
सम्मान से उसका कुछ बनता नहीं, तुम्हारे अपमान से उसका कुछ
बिगड़ता नहीं। तुम्हारी गाली या तुम्हारी स्तुति सब बराबर है।
एक तो संत को पाना मुश्किल, क्योंकि असंतों से
तुम्हारे दिमाग भरे हुए हैं। तुम्हारे संतों को भी धारणाएं बना रखी हैं कि उनको
ऐसा होना चाहिए। और संत के ऊपर कोई धारणा लागू नहीं हो सकती। सत्य किसी भी शर्त को
मानता नहीं। सत्य तो मुक्ति है, मुक्त है। तुम उस पर धारणाएं
आरोपित नहीं कर सकते। धारणाएं आरोपित कीं तो सत्य मर जाएगा, मुर्दा
शब्द रह जाएंगे।
तो एक तो संत का पाना मुश्किल, अगर पा भी लो तो
समागम बहुत मुश्किल। मिल कर भी समागम हो जाए यह जरूरी थोड़े ही है, क्योंकि समागम के लिए शिष्यत्व होना जरूरी है। संत हो, यह तो एक आधा हिस्सा पूरा हुआ। रोशनी हो, यह आधी
बात। मगर तुम्हारी आंख भी तो खुली हो, नहीं तो रोशनी से कैसे
मिलन हो पाए? तुम आंख बंद किये दीए के सामने बैठे रहो,
तो भी अंधेरा ही रहेगा। सूरज के सामने बैठे रहो, तो भी अंधेरा रहेगा। आंख खोलो।
शिष्य का अर्थ है: आंख खोलो।
संत के पास भी पहुंच जाओ अगर भूल-चूक से...भूल चूक से ही पहुंचोगे!
असंत तो तुम्हें खोजते फिरते हैं। वे तो तुम्हारे पीछे लगे रहते हैं कि भैया कहां
जा रहे हो! हम इधर हैं। इधर आओ!' बड़ी खींचतान मची है--इधर आओ,
उधर जाओ। सब दुकानदार अपनी-अपनी तरफ खींच रहे हैं, कि असली माल यहीं बिकता है।
एक इटेलियन ने दुकान खोली। उसने अपनी दुकान पर तख्ती लगायी--"इस
दुकान पर हर चीज सस्ते से सस्ते दामों में मिलती है।' एक यूनानी ने दुकान खोली। उसने यह तख्ती लगी देखी तो उसने तख्ती लगायी कि
यहां हम रद्दी चीजें नहीं बेचते, इसलिए सस्ते का सवाल नहीं
उठता। यहां तो हम असली चीजें बेचते हैं। और जितनी इनकी कीमत हो उतनी ही कीमत ली
जाती है। न कम न ज्यादा! कचरा खरीदना हो तो कहीं और।
उन दोनों के बीच में एक यहूदी ने दुकान खोली। उसने तख्ती लगायी कि बगल
की दोनों की दुकानों का दरवाजा यही है। कुछ भी खरीदना हो, सस्ता भी मिलता है यहां, महंगा भी। बगल की दोनों
दुकानों का दरवाजा यही है, मुख्यद्वार यही है।
ऐसा झगड़ा मचा हुआ है। संत तुम्हारे पीछे नहीं दौड़ते फिरते। संत तो
अपने भीतर थिर हैं। तुम्हें उनकी तलाश करने आना पड़ता है, तुम्हें उनको खोजना पड़ता है। जो तुम्हारे पीछे दौड़ते फिरते हैं, वे संत नहीं हैं। उनका कुछ रस है। वे तुम्हारे शोषण में उत्सुक हैं। इसलिए
तुम्हारी शर्तें भी पूरी करेंगे।
तो पहले तो संत को पाना मुश्किल और अगर कभी भूल-चूक से पा लो, कभी नदी नाव संयोग हो जाए, तो कठिनाई यह आ जाती है
यह कि तुम्हारा शिष्य होना जरूरी है, तो ही समागम हो पाए।
संत के पास देने को है, मगर तुम्हारी झोली भी तो लेने को
राजी हो। संत बांटने को तैयार है, मगर तुम्हारे द्वार-दरवाजे
बंद हैं, तुम लेने को राजी हो। तुम डरे हुए खड़े रहते हो। संत
तुम्हें डुबाने को तैयार है, मगर तुम डूबने को राजी नहीं।
तुम घबड़ाए हुए हो। तुम अपना हिसाब लगाते हो। तुम सब तरफ से सोच-विचार करते हो गणित
बिठाते हो कि लाभ कितना हानि कितनी, कितने दूर तक जाऊं,
कितने दूर तक न जाऊं! और यह आदमी संत है भी या नहीं।
और कैसे तुम जांचोगे? तुम्हारे पास धारणाएं तो सब बासी
हैं, उनसे कुछ निर्णय होने वाला नहीं। जैन के पास धारणाएं
हैं जैन शास्त्र से ली गयीं, वह उसी हिसाब से तौलता है।
इसलिए उनके शास्त्रों के अनुसार न तो कृष्ण संत हैं, न जीसस
संत हैं, न मुहम्मद संत हैं, न
जरथुस्त्र संत हैं, न लाओत्सु। उनकी अपनी धारणाएं हैं,
उन पर वह कसता है। वे उन धारणाओं पर पूरे नहीं उतर सकते।
एक जैन मुनि ने मुझसे कहा कि आप जीसस को संत न कहें, क्योंकि उनको सूली लगी। अरे तीर्थेंकरों को तो लक्षण यह है कि कांटा भी
रास्ते पर अगर सीधा पड़ा तो उनको देख कर उल्टा हो जाता है--कांटा भी! क्योंकि जिसके
सारे पाप समाप्त हो गये हैं, उसको कष्ट हो ही नहीं सकता। और
जीसस को सूली लगी, कांटे की बात छोड़ो, सूली
लगी। किसी महापाप का परिणाम ही होगा।
मैंने उनसे कहा, "तुम यह भी सोचो कि जीसस को
सूली लगी लेकिन जीसस को कष्ट हुआ या नहीं? सवाल यह है। सूली
लगने से कुछ तय नहीं होता। कष्ट हुआ कि नहीं, यह और ही बात
है। कष्ट हुआ होता तो जीसस कभी यह कह कर विदा न होते दुनिया से कि "हे प्रभु,
इन सबको क्षमा कर देना जो मुझे सूली लगा रहे हैं, क्योंकि इन बेचारों को पता नहीं कि ये क्या कर रहे हैं।' जीसस को ईसाई इस कारण संत कहते हैं कि सूली पर लटक कर भी वे क्रोधित न
हुए। तुम महावीर को इसलिए संत कहते हो कि कांटा सीधा पड़ा था, उल्टा हो गया। इसमें कांटा संत होता है, महावीर कैसे
संत होते हैं? कांटा संत है, जाहिर है,
बिलकुल साफ बात है कि कांटा कोई साधारण कांटा नहीं है, कोई तीर्थेंकर है, कोई पहुंचा हुआ सिद्धपुरुष है।
देखो, एकदम देख कर उल्टा हो गया कि बेचारे को गड़ न जाए। मगर
इससे महावीर की क्या कसौटी हो रही है? कसौटी तो सूली पर हो
रही है।
वे कहने लगे, "आप कैसी बातें कर रहे हैं! आप सब शास्त्रों का
खंडन कर रहे हैं।'
मैं कोई खंडन नहीं कर रहा हूं, मैं तो सिर्फ तुम्हें
यह स्मरण दिला रहा हूं कि अपनी धारणाओं को दूसरे पर मत थोपो। तुम्हारी धारणाओं का
क्या मूल्य? तुम्हारी धारणाएं तुम सब पर नहीं थोप सकते।
और संत तो अनंत-अनंत रूपों में प्रगट हुए हैं, कोई एक रूप नहीं उनका। इसलिए तुम जब बंधी हुई धारणाओं से जाओगे तो निश्चित
ही...जैन सिर्फ जैन साधु को ही साधु मान पाएगा; संत मान
पाएगा और हिंदु केवल हिंदु को ही संत और साधु मान पाएगा और मुसलमान केवल मुसलमान
को ही साधु और संत मान पाएगा। अब मजा यह है कि तुमने कसौटी पहले ही तय कर ली।
अनुभव संत का करो, फिर कसौटी तय करना।
और मैं तुमसे कहता हूं: जिन्होंने संतों का समागम किया, उन्होंने फिर कसौटी तय नहीं की। क्योंकि एक संत को पहचाना तो उन्होंने यह
बात समझ ली कि संत अनंत रूपों में हो सकते हैं, उनकी अनंत
जीवन शैलियां हो सकती है।
इसलिए मैं जरथुस्त्र पर , लाओत्सु पर , जीसस पर, बुद्ध पर, महावीर पर,
कृष्ण पर, मुहम्मद पर, सब
पर बोला हूं, बोल रहा हूं, ताकि
तुम्हें यह स्मरण दिलाता हूं--तुम भूल न जाओ--कि संतत्व उतना ही अनंत है जितना
परमात्मा, क्योंकि यह परमात्मा का ही रूप है। बंधी हुई
धारणाओं वाला व्यक्ति समागम नहीं कर सकता, बीच में धारणाएं आ
जाएंगी।
तो वे बेचारे कह रहे थे--"संत समागम हरिकथा'...।लेकिन कर नहीं पाएंगे संत समागम। उनकी बंधी हुई धारणाएं हैं। वे ही
धारणाएं बाधा बन जाएंगी। अभी उनका मन चंचल है। मन चंचल है और नाम है--रामानंद
परमहंस पुरी! परमहंस उसको कहते हैं, जो मन के पार चला गया।
मन है विचार। और हंस है प्रतीक विवेक का। हंस प्रतीक है--नीर क्षीर विवेक कर सके
जो। यह काव्य कल्पना है, कवि की कल्पना है कि अगर हंस को हम
दूध दे दें और पानी मिला हो, तो वह दूध-दूध पी लेगा, पानी छोड़ देगा। यह बात कोई तथ्य नहीं है। इस भ्रांति में मत पड़ना कि यह
कोई वैज्ञानिक तथ्य है। अगर यह वैज्ञानिक तथ्य हो तो मैं कहता हूं वह दूध भी नहीं
पी सकता, क्योंकि दूध खुद ही नब्बे प्रतिशत पानी है; बिना ही मिलाये। वह गऊमाता खुद ही मिला देती है। ये गोपाल जी तो बाद में
मिलाएंगे। नब्बे प्रतिशत तो पानी ही है। यह तो दूध भी नहीं पी सकेगा।
और अब जमाने बड़े खराब आ गये हैं। अब लोग जल मिलाते हैं, यही नहीं; मैं अहमदाबाद जाता हूं तो कभी वहां दूध
नहीं पीता, क्योंकि कोई अहमक अहमदाबादी जीवन-जल मिला दे। ये
मोरारजी भाई के शिष्य अहमदाबाद में रहते हैं--अहमक! एक से एक अहमक पड़े हुए हैं। जल
मिलाओ, वह भी ठीक, चलो कोई हर्जा
नहीं--जल तो है! मगर जीवन-जल मिला दो, करुणावश, कि जो भी पीएगा, उसकी उम्र बढ़ेगी और प्रधानमंत्री
बनेगा! करूणावश! क्या जल मिलाना, जब जीवन जल उपलब्ध है तो
जीवन जल ही मिला दो! वह तो दूध से भी ऊंची चीज है!
हंस कोई जल और दूध में भेद नहीं कर पाएगा। लेकिन यह काव्य प्रतीक है
कि हंस दूध को अलग कर लेता है, जल को अलग कर देता है। इसका अर्थ
है: वह असार को अलग कर देता, सार को अलग कर देता। और परमहंस
का अर्थ है, जो ऐसे नीर-क्षीर विवेक को उपलब्ध हो गया है,
जिसने असार को छो॰? दिया और सार को ग्रहण कर
लिया; जिसने अपने जीवन में व्यर्थ को छोड़ दिया और सार्थक को
पकड़ लिया; परिधि से मुक्त हो गया और केंद्र पर स्थिर हो गया।
तब किसी को परमहंस कहा जा सकता है।
और अभी मन चंचल है। अभी मन कौआ है, हंस भी नहीं हुआ। अभी
मन चंचल है, कांव कांव कर रहा है। और पूछने आए हैं चित्त
एकाग्र कैसे हो! चित्त को एकाग्र भी नहीं करना है। चित्त से मुक्त ही होना है,
क्या एकाग्र करना है? बंटा हुआ इतने कष्ट दे
रहा है, इकट्ठा हो जाएगा तो छाती पर पत्थर की तरह बैठ जाएगा। फिर तो हटाना मुश्किल हो
जाएगा। अभी बंटे हुए से नहीं जीत पा रहे हो, एकाग्र करके
क्या और अपनी बची-खुची लुटिया भी डुबानी है? थोड़ी-बहुत बची
है लाज, वह भी उघड़ जाएगी। यूं तो उघड़ जाएगी। यूं तो उघड़ ही
गयी, लंगोटी बची है, वह लंगोटी भी निकल
जाएगी। एकाग्र करके क्या करना है? एकाग्र नहीं करना है।
ध्यान एकाग्रता नहीं है। एकाग्रता तो मन की ही चेष्टा है। मन को एक
केंद्र पर रोक देना एकाग्रता है और मन से मुक्त हो जाना ध्यान है। एकाग्रता का कोई
सवाल नहीं। एकाग्रता तो तुच्छ बात है। और एकाग्रता तो बड़ी आसानी से हो जाती है, इसमें कुछ अड़चन नहीं है। एक सुंदर स्त्री को देखो, सारा
बाजार खो जाता है, चित्त एकाग्र हो जाता है। यह कोई बड़ी बात
है? फिल्म देखने चले जाते हो, भूल गये
दुकान, भूल गये घर, भूल गये सब--चित्त
एकदम एकाग्र हो जाता है। फिल्म में एकाग्र हो जाता है।
यह रामानंद परमहंस को कहो कि फिल्में देखो भैया, चित्त एकाग्र हो जाएगा! अरे मदारी डमरू बजा देता है तो अनेकों का चित्त
एकाग्र हो जाता है, भूल जाते हैं, साइकिल
टेक कर खड़े। जा रहे थे पत्नी के लिये दवा लेने, भूल ही गये।
याद ही न रही कि कौन पत्नी! मदारी ने डमरू बजा दिया, बंदर
नचाने लगा। अभी कुछ खास भी नहीं हो रहा है काम, मगर आशा बंधी
है कि शायद कुछ हो। चित्त बिलकुल एकाग्र हो जाता है। एकदम ठहरे खड़े हो गये। सब रुक
गया। समय भूला, स्थान भूला।
चित्त एकाग्र होना कोई कठिन बात नहीं है। वैज्ञानिक जब अपना अन्वेषण
करता है, चित्त एकाग्र हो जाता है। सर्जन जब अपनी सर्जरी करता
है, चित्त एकाग्र हो जाता है। चित्रकार जब पेंटिग करता है,
चित्त एकाग्र हो जाता है। संगीतज्ञ जब वीणा बजाता है, चित्त एकाग्र हो जाता है। चित्त एकाग्र होना कोई बहुत बड़ी बात है? यह तो बड़ी सामान्य घटना है, सबको होती है। अड़चन
इसलिए होती है कि जहां चित्त एकाग्र नहीं होना चाहता वहां तुम उसे एकाग्र करना
चाहते हो, तब अड़चन होती है। जैसे सामने से तो जा रही है
हेमामालिनी और तुम हनुमान जी पर चित्त एकाग्र कर रहे हो, कैसे
हो? यह बात बने तो कैसे बने? हनुमान जी
भी क्या करें? इसमें कसूर उनका भी नहीं। चित्त तो एकाग्र
होने को राजी है, मगर वह हेमामालिनी पर होना चाहता है। और
हनुमान जी में उसे कुछ जंचता नहीं कि कैसे, किसलिए एकाग्र
होना है? और फिर ऐसी जल्दी क्या है, हनुमान
जी पर ही करना तो बाद में कर लेंगे,
अरे मरते समय कर लेंगे! अभी तो चार दिन की चांदनी है, थोड़ा इधर देख लें। फिर तो अनंत काल तक पड़े हनुमान जी से निपटाना है,
फिर करना क्या है! फिर हम और हनुमान जी! मगर यह थोड़ी देर के लिए जो
अवसर मिला है, झरोखा खुला है, इसको तो
न चूकें!
चित्त तो एकाग्र बिलकुल होने को राजी है, मगर तुम उल्टी सीधी चीजों पर एकाग्र करना चाहते हो। तो अड़चन आती है। चित्त
कहता है कि "नहीं होंगे एकाग्र! हमें यहां एकाग्र होना है, तुम वहां करना चाहते हो! तुम हो कौन? तुम्हारी
हैसियत क्या?' और चित्त वहीं ले जाएगा। और अगर तुमने ज्यादा
गड़बड़ की तो परिणाम यह होगा कि तुम्हें हनुमान जी में हेमामालिनी दिखाई पड़ेगी। तुम
लाख आंखें झपको, कुछ भी करो, जब भी आंख
खोलोगे--हेमामालिनी खड़ी हुई है! हनुमान जी छिप गये, ओट में
हो जाते हैं।
चित्त को एकाग्र करना कठिन नहीं है, लेकिन चित्त के साथ
जब तुम जबरदस्ती करते हो तब अड़चन आती है। अगर हम प्रत्येक व्यक्ति को उसके स्वभाव
में जीने दें तो चित्त की एकाग्रता तो बिलकुल ही सामान्य घटना है।
मैं स्कूल में विद्यार्थी था। मेरे एक अध्यापक थे, वे इतिहास पढ़ाते थे। अब इतिहास में मुझे कोई रस नहीं कि कोई हैनरी सप्तम
हुए। क्या करना है मुझे, हुए तो हुए! न होते तो भी कोई हर्जा
नहीं था। न उनको मुझसे कुछ लेना-देना, न मुझे उनसे कुछ लेना
देना। न कभी मिलने का सवाल आने वाला है। वे कब के हो चुके। बीति ताहि बिसार दे,
आगे की सुध लेह। तो मैं उनके तख्ते पर लिख देता था--बीति ताहि बिसार
दे! वे एकदम आकर नाराज हो जाते कि तुमने फिर लिखा तख्ते पर वही! मैं उनसे कहता कि
इसमें क्या सार है?
और बाहर अमराई में, मेरे स्कूल के थोड़े ही दूर पर
आमों के घने वृक्ष, वहां कोयल की कुहू-कुहू उठती। वे मुझसे
कहते कि तुम देखो, तुम्हारा चित्त एकाग्र करो। मैं कहता,
"एकाग्र है मेरा चित्त, मगर कोयल की
कुहू-कुहू पर, आपकी बकवास पर नहीं।'
वे कहते, निकल जा बाहर, कमरे के बाहर!'
मैंने कहा, "यही मेरी इच्छा है।'
तो मैं बाहर ही खड़े होकर...इतिहास मैंने बाहर ही खड़े हो कर पढ़ा, इसलिए इतिहास में मेरी बड़ी गड़बड़ है। मैं इतिहास के संबंध मैं कुछ कहूं,
मानना मत। वह बाहर ही खड़े खड़े पढ़ा है। वे मुझे बाहर ही खड़ा रखते ।
और मेरे प्रिंसीपल थे, वे चक्कर लगाने आते, वे जब देखो तब मैं बाहर ही खड़ा। वे मुझसे कहते, "मामला क्या है? तुम जब देखो तब बाहर खड़े...।
मैंने कहा, "मैं इतिहास बाहर ही खड़े होकर पढ़ता हूं।'
कहा, मैं मतलब नहीं समझा।'
मैंने कहा, "मेरा चित्त एकाग्र है, वे
मुझे भीतर बैठने देते नहीं।'
उन्होंने पूछा, "यह तो हद उल्टी बात हो गयी! तुम्हारा चित्त
एकाग्र है?'
मैंने कहा, मेरा बिलकुल चित्त एकाग्र है। वे मुझे भीतर नहीं आने
देते। आप उनसे पूछिये।'
उन्होंने जाकर पूछा कि छोटेलाल जी, इस विद्यार्थी का
चित्त एकाग्र है, आप इसको बाहर क्यों खड़ा करते हैं? वे कहने लगे, "इसका चित्त एकाग्र है कोयल की
कुहू कुहू में। और मैं चाहता हूं इतिहास में हो।'
लौट कर वे मुझसे बोले कि तुमने यह पूरी बात मुझे क्यों नहीं बतायी? मैंने कहा, "पूरी बात बताने का सवाल नहीं। मुझे
कोई रस ही नहीं है इस इतिहास में। चंगेज खां हुए, तैमूरलंग
हुए, हो गये! अब यह तैमूर, इससे क्या
लेना-देना है?
और अभी कोयल जो गा रही है गीत, अभी, उसको न सुनूं और यह लंगड़े तैमूर की कथा ये जो छोटेलाल जी गा रहे हैं,
इसको सुनूं? मुझे रस नहीं है।'
मैंने अपने जीवन में कभी अनुभव ही नहीं किया कि चित्त की एकाग्रता कोई
प्रश्न है। मैंने हमेशा अपने चित्त को एकाग्र पाया। मगर चित्त जहां एकाग्र होता है
वहीं होता है। तुम खींचतान करो, लड़ाई-झगड़ा करो, कुछ सार नहीं है। उससे सिर्फ विषाद आएगा।
चित्त से पार चलो। और चित्त से पार चलने के लिए साक्षी उपाय है, एकाग्रता नहीं। ऐसे अगर उलझे रहे तो यह रात कभी कटेगी नहीं।
रात अभी बाकी है
दिल को करार आया नहीं
छेड़ दे साजन वो नगमा तूने जो गाया नहीं
नस-नस में बस गये हो, आंखों में हो समाये
तुम ही कहो कि जालिम क्यों अब हो आये
चारों तरफ खुशी के सामान झूमते हैं
रात अभी बाकी है
दिल को करार आया नहीं
छेड़ दे जालिम वो नगमा तूने जो गाया नहीं
शबनमी आंखों में दिल है
डर है तेरी आगोश में जिंदगी एक गीत बन के,
एक गीत बन के आ गयी आगोश में
जो मुझे कहनी है तुमसे वो रात अभी बाकी है
रात अभी बाकी है
दिल को करार आया नहीं
छेड़ दे जालिम वो नगमा तूने जो गाया नहीं
जब तक ईश्वर का नगमा तुम सुनो न, तब तक रात भी बाकी
रहेगी, बात भी बाकी रहेगी। और यह नगमा अभी छेड़ा जा सकता है।
साक्षी उस संगीत को तुम्हारे भीतर जगा देता है।
आज इतना ही।
आठवां प्रवचन; दिनांक २७ सितंबर, १९८०; श्री
रजनीश आश्रम, पूना
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