लगन महुरत झूठ सब-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो
दिनांक 21 नवम्बर, 1980,श्री ओशो आश्रम पूना।
पहला प्रश्न:
भगवान, आज प्रारंभ होने वाली
प्रवचनमाला के लिए आपने नाम चुना है: लगन महूरत झूठ सब।
निवेदन है कि संत पलटू के इस वचन पर प्रकाश
डालें।
आनंद दिव्या, पलटू
का पूरा वचन ऐसा है--
पलटू सुभ दिन सुभ घड़ी, याद पड़ै जब नाम।
लगन महूरत झूठ सब, और बिगाड़ैं काम।।
धर्म तो परवानों की दुनिया है! दीवानों की, मस्तों की। वहां कहां लगन-महूरत! धर्म तो शुरू वहां होता है जहां समय
समाप्त हो जाता है। वहां कहां लगन-महूरत!
लगन-महूरत की चिंता तो उन्हें होती है जो अतीत में जीते हैं और भविष्य
में जिनकी वासना अटकी होती है। जीते हैं उसमें जो है नहीं और आशा करते हैं उसकी जो
अभी हुआ नहीं--और शायद कभी होगा भी नहीं।
धर्म का संबंध न तो अतीत से है न भविष्य से है। धर्म है: अभी और यहीं
जीना। बस अभी और यहीं। इस क्षण के पार कुछ भी नहीं है। इस क्षण से हटे कि धर्म से
चूके। बाल भर का फासला पड़ा इस क्षण से कि जमीन-आसमान अलग-अलग हो गए।
यह क्षण द्वार है प्रभु का। क्योंकि वर्तमान के अतिरिक्त और किसी की
कोई सत्ता नहीं है। अतीत है मात्र स्मृतियों का जाल। और भविष्य है केवल कल्पनाओं, सपनों की बुनावट। दोनों अस्तित्व शून्य हैं। और इन दोनों में जो जीता है,
उसी का नाम संसारी है। वही भटका है।
ध्यान रहे, जिसको तुमने संसार समझा है, वह
संसार नहीं है। घर-द्वार, पत्नी-बच्चे, बाजार-दुकान--यह सब संसार नहीं है। इसको तो छोड़ देना बड़ा आसान। इसको तो
बहुत भगोड़े छोड़ कर भाग गए। मगर सवाल यह है कि क्या संसार उनसे छूटा? बैठ जाओ गुफा में हिमालय की, फिर भी संसार तुम्हारे
साथ होगा। क्योंकि संसार तुम्हारे मन में है। और मन है अतीत और भविष्य का जोड़।
जहां वर्तमान है, वहां मन नहीं।
बैठ कर भी गुफा में क्या करोगे हिमालय की? वही अतीत की उधेड़बुन होगी। वही बीती बातें याद आएंगी। वही बिसरे, विस्मृत हुए क्षण लौट-लौट द्वार खटखटाएंगे। क्या करोगे हिमालय की गुफा में
बैठ कर? फिर भविष्य को संजोओगे। फिर आगे की योजना बनाओगे।
और अक्सर तो यूं होता है कि जो बाजार में बैठा है, उसका भविष्य बहुत बड़ा नहीं होता; क्योंकि वह इस जीवन
के पार की कल्पना नहीं कर पाता। उसकी कल्पना बहुत प्रगाढ़ नहीं होती। और वह जो
हिमालय की गुफा में बैठा है, उसे तो कुछ और काम-धाम नहीं,
सारी ऊर्जा उपलब्ध है, करे तो क्या करे! तो
मृत्यु के बाद भी जीवन की कल्पना करता है। स्वर्गों के स्वप्न देखता है। स्वर्ग
में भोग की कामनाएं करता है। स्वर्ग में शराब के चश्मे बहाता है। स्वर्ग में
अप्सराओं को अपने चारों तरफ नचाता है।
यह तुमने एक अजीब बात देखी? कि चूंकि सारे
शास्त्र पुरुषों ने लिखे--और ये सारे भगोड़े पुरुष थे। पुरुष ऐसा लगता है ऊपर-ऊपर
से ही बहादुर है, भीतर-भीतर बहुत कायर। भीतर-भीतर बहुत पोला।
बाहर-बाहर बड़ी अकड़। चूंकि यह सारे स्वर्गों की योजनाएं और कल्पनाएं पुरुषों ने कीं,
इसमें उन्होंने पुरुषों के भोग का तो इंतजाम किया है, लेकिन स्त्रियों के भोग का कोई इंतजाम नहीं किया है। सुंदर लड़कियां होंगी,
बड़ी खूबसूरत अप्सराएं होंगी। मगर कुछ इंतजाम स्त्रियों के लिए भी तो
करो! सुंदर युवकों का कुछ इंतजाम करो! जरूर कुछ धर्मों ने सुंदर युवकों का भी
इंतजाम किया है, लेकिन वह भी स्त्रियों के लिए नहीं, वह भी पुरुषों के लिए। जिन देशों में समलैंगिकता की बीमारी प्रचलित रही है,
उन देशों में वे सुंदर लड़के आयोजित किए हैं उन्होंने स्वर्ग में,
लेकिन वे भी पुरुषों के लिए।
सच तो यह है कि बहुत-से देशों में यह धारणा रही कि स्त्री में कोई
आत्मा ही नहीं होती। जब आत्मा ही नहीं, तो कैसा स्वर्ग!
पुरुष मरता है तो देह तो भस्मीभूत होती है और स्त्री मरती है तो सब भस्मीभूत हो
जाता है। पुरुष मरता है तो सिर्फ पींजड़ा अर्थी पर चढ़ता है, पक्षी
स्वर्ग की तरफ चल पड़ता है--जीवात्मा, परमहंस। और स्त्री मरती
है तो सभी राख हो जाता है--कोई आत्मा तो है ही नहीं स्त्री में! इसलिए स्त्री के
लिए स्वर्ग में कोई इंतजाम नहीं है। कोई व्यवस्था नहीं। न साड़ियों की दुकानें;
न जौहरी, न जवाहरात; न
सोना, न चांदी; कुछ भी नहीं। कारण साफ
है। इंतजाम पुरुषों ने किया है, वे क्या फिक्र करें
स्त्रियों की! अपने लिए इंतजाम कर लिया है उन्होंने। अपने लिए सब व्यवस्था कर ली
है। स्त्री तो आत्मारहित है!
इसलिए बहुत-से धर्मों में स्त्रियों को मंदिर में प्रवेश का अधिकार
नहीं, स्वर्ग में प्रवेश का तो क्या अधिकार होगा! मस्जिदों
में प्रवेश का अधिकार नहीं। सिनागागों में प्रवेश का अधिकार नहीं। स्वर्ग की तो
बात ही छोड़ दो! और मोक्ष का तो सवाल ही न उठाना! इस देश के साधु-संत भी समझाते रहे
कि स्त्री नरक का द्वार है।
और स्त्री अगर नरक का द्वार है तो ये उर्वशी और मेनकाएं स्वर्ग कैसे
पहुंच गईं! ऋषि-मुनियों के लिए कुछ तो इंतजाम करना होगा--पीछे के दरवाजे से सही।
इनको घुसा दिया होगा पीछे के दरवाजे से। और ये जो स्वर्ग में अप्सराएं हैं, ये सदा युवा रहती हैं। ये कभी वृद्धा नहीं होतीं। ये कर्कशा नहीं होतीं।
ये लड़ाई-झगड़ा नहीं करतीं। इनका तो कुल काम है: नाचना, गाना,
देवताओं को लुभाना, भरमाना।
ये सारी कल्पनाएं किसने की हैं? ये गुफाओं में बैठे
हुए लोग, जो कहते हैं हम छोड़ कर आ गए संसार; हमने पत्नी छोड़ दी, तो अब उर्वशी की आकांक्षा कर रहे
हैं। कहते हैं हमने दुकान छोड़ दी, धन छोड़ दिया, तो अब स्वर्गों में वृक्षों पर फूल लगते हैं वे हीरे-जवाहरातों के हैं। और
पत्ते लगते हैं वे सोने-चांदी के हैं। कंकड़-पत्थर तो वहां होते ही नहीं। राहें भी
पटी हैं तो बस मणि-मुक्ताओं से पटी हैं। यही लोग हैं जो दुकानें छोड़ कर भाग गए
हैं। इनकी कल्पनाओं का विस्तार तो मौजूद है।
और अपने लिए स्वर्ग; और अपने से जो भिन्न हैं या अपने
से जो विपरीत हैं, उनके लिए नर्क। जो अपनी मान कर चलें,
उनके लिए स्वर्ग। जो अपने से विपरीत धारणाएं रखें, उनके लिए नर्क। और नर्क में भी इन्होंने फिर कष्ट का जितना इंतजाम ये लोग
कर सकते थे किया है। हिटलरों को माफ किया जा सकता है, चंगेजखां
और तैमूर लंग पीछे पड़ जाते हैं तुम्हारे ऋषि-मुनियों के सामने। नर्क की उन्होंने
जो कल्पना की है, वह महा दारुण है। उस कल्पना को करने के लिए
भी बड़े दुष्टचित्त लोग चाहिए। और ये थे अहिंसक, शाकाहारी,
दुग्धाहारी! सिर्फ दूध ही दूध पीएं। लेकिन हिंसा कहीं गई नहीं है,
भीतर मौजूद है। लोभ कहीं गया नहीं है, भीतर
मौजूद है। वासना मरी नहीं है, उसने नए रूप ले लिए, नया शृंगार कर लिया, और भी ताजी हो गई।
मैं तुमसे कहना चाहता हूं कि संसार बाहर नहीं है। संसार भी भीतर है और
संन्यास भी भीतर है। संसार भी तुम्हारे मन की एक अवस्था है और संन्यास भी। संसार
है अतीत और भविष्य में डोलना। और संन्यास है वर्तमान में थिर हो जाना।
पलटू यही कह रहे हैं: "लगन महूरत झूठ सब।'
ये तो सांसारिक चित्त की बातें हैं कि कल का इंतजाम कर लूं। यह जो
ज्योतिषियों के पास जाता है हाथ दिखाने, हस्तरेखाएं पढ़वाने,
भाग्य को, विधि को समझने, जन्म-कुंडली दिखाने, यह कौन है? यह कोई धार्मिक व्यक्ति है! यह अधार्मिक व्यक्ति है। भविष्य की इतनी चिंता,
कल के लिए इतना आयोजन, स्वभावतः सिर्फ
सांसारिक मन की ही पराकाष्ठा हो सकती है। और इसलिए अकारण नहीं है कि सब
ज्योतिषियों का एक ही नारा है: दिल्ली चलो। क्योंकि सब नालायक दिल्ली में इकट्ठे
हो गए हैं। संसार के जितने भी महत्वाकांक्षी, पदाकांक्षी,
धनाकांक्षी, उनकी जमात राजधानियों में बैठी
है। तो ज्योतिषी बेचारे यहां-वहां क्या करें? उनका भी काम
वहीं है।
सब राजनेताओं के ज्योतिषी हैं। चलते भी हैं तो फूंक-फूंक कर चलते हैं।
कुछ भी काम करते हैं तो ज्योतिषी से पूछ कर करते हैं। चुनाव लड़ते हैं, नाम दर्ज करते हैं चुनाव के लिए, तो ज्योतिषी इंतजाम
करते हैं, चांदत्तारों का हिसाब लगाया जाता है। कौन गधा
दिल्ली में जीतता है, इसके लिए चांदत्तारों को कोई चिंता पड़ी
है! दिल्ली में न मालूम कितने गधे आते रहे, जाते रहे। दिल्ली
बहुत गधों को देख चुकी। दिल्ली तो मरघट है--गधों का मरघट। लेकिन ज्योतिषी के लिए
वहां धंधा है।
ये ज्योतिषी धर्म-स्थानों पर भी अड्डा जमाए बैठे हैं। यह बड़ी हैरानी
की बात। दिल्ली में तो समझ में आता है, मुझे कुछ एतराज नहीं,
दिल्ली में होंगे ही, होना ही चाहिए, तर्कशुद्ध बात मालूम होती है। दिल्ली में न होंगे तो कहां होंगे। मगर काशी
में ये क्या कर रहे हैं! काशी में भी ज्योतिषी इकट्ठे हैं। क्योंकि वहां भी संसारी
ही जा रहे हैं। हां, उनका संसार जरा तुम्हारे संसार से भिन्न
है, वे जरा ज्यादा लोभी हैं। तुम क्षणभंगुर से राजी हो,
वे शाश्वत धन चाहते हैं। तुम थोड़े कम संसारी हो, वे थोड़े ज्यादा संसारी हैं।
तुम्हारे ऋषि-मुनि समझाते हैं तुम्हें कि क्या क्षणभंगुर में पड़े हो, अरे, उसको खोजो जो सदा तुम्हारा रहेगा! यह तुम्हारे
लोभ को उकसाया जा रहा है। तुमसे कहते हैं कि क्षणभंगुर में समय मत गंवाओ, नहीं तो नर्क में सड़ोगे। यह तुम्हारे भय को प्रज्वलित किया जा रहा है।
तुम्हारा तथाकथित धर्म भय और लोभ का ही जोड़ है। और भय और लोभ से धर्म का क्या
संबंध! धार्मिक चित्त को तो आने वाले क्षण की भी कोई चिंता नहीं है। यह क्षण काफी
है।
जीसस ने कहा है अपने शिष्यों से--एक खेत के पास से गुजरते थे, खेत में जंगली लिली के सफेद फूल खिले थे, और जीसस ने
अचानक कहा ठहर कर कि देखो, देखो लिली के इन फूलों को। इनके
सौंदर्य का राज जानते हो? इनकी सुगंध का रहस्य पहचानते हो?
और मैं तुमसे कहता हूं कि सम्राट सुलेमान भी अपनी बहुमूल्य वेशभूषा
में, हीरे-जवाहरातों से लदा हुआ इतना सुंदर न था जितने ये
लिली के सीधे-सादे फूल। इनके सौंदर्य की महिमा अद्वितीय है, अतुलनीय
है। क्या है राज इनके सौंदर्य का कि सुलेमान को हरा दें?
एक क्षण सन्नाटा रहा। और फिर जीसस ने ही उत्तर दिया और कहा, इनका राज बहुत छोटा है। सोचोगे, चूक जाओगे। सोचो मत।
इनका राज बहुत सीधा-सादा है। ये अभी और यहीं जीते हैं। कल की इन्हें कोई चिंता
नहीं। सुलेमान कल के लिए चिंतित था। इसलिए हीरे-जवाहरातों से जरूर लदा था, सुंदर वस्त्र पहने हुए था, लेकिन मन में झंझावात थे,
आंधियां थीं, चिंताएं थीं, तूफान ही तूफान थे। बीत गए कल की धूल अभी भी उड़ रही थी। और अभी जो दिन आया
नहीं, उसकी चिंताओं ने आकर बसेरा कर लिया था।
दिन तो आएगा कि नहीं आएगा, पता नहीं, कल जरूरी तो नहीं है कि आए ही। एक दिन तो ऐसा होगा कि कल नहीं होगा। एक
दिन तो तुम सुबह उठोगे नहीं। कल अनिश्चित है। और सच तो यह है, कल कभी आता ही नहीं। जब भी आता है, आज आता है।
इसलिए पलटू ठीक कहते हैं: "लगन महूरत झूठ सब।'
इस बकवास में न पड़ो। अतीत और भविष्य में न उलझो। ज्योतिषियों के जाल
में न पड़ो। इसका धर्म से कुछ लेना-देना नहीं।
"और बिगाड़ैं काम।'
इन्हीं नासमझों ने तो काम बिगाड़ा है। ये ही तो अड्डा जमा कर बैठ गए
हैं। ये ही ठेकेदार हो गए हैं। मंदिरों पर कब्जा, तीर्थों पर कब्जा,
हर जगह यही बैठे हैं। हर जगह यही साजिश। सदियों से आदमी का शोषण चल
रहा है।
"पलटू सुभ दिन सुभ घड़ी...'
पलटू कहते हैं मुझसे पूछो तो कहूंगा, वह घड़ी शुभ, वह दिन शुभ--
"याद पड़ै जब नाम।'
जब प्रभु की स्मृति आ जाए। याद पड़ै जब नाम! जब उसकी याद से दिल नाच
उठे, डोल उठे। जैसे हवा का झोंका आए; या बेवजह मरीज को करार आ जाए। जैसे अचानक वसंत आ जाए, फूल खिल जाएं। ऐसे जिस घड़ी तुम्हारी चेतना में स्वरूप का स्मरण आता है,
अपने भीतर छिपे हुए, अपने भीतर विराजे हुए
प्रभु की स्मृति उठती है, सुरति उठती है, ध्यान का जिस क्षण जन्म होता है!
"पलटू सुभ दिन सुभ घड़ी, याद
पड़ै जब नाम।'
ध्यान की वह शुभ घड़ी, सुरति का वह अपूर्व अवसर,
वही सब कुछ है। वही लगन, वही महूरत। लेकिन वह
परम अवसर केवल वर्तमान में घटित होता है। न बीते कल में, न
आने वाले कल में। अभी हो सकता है। अभी या कभी नहीं।
कुछ इस अदा से...
कुछ इस अदा से आज वो पहलूनशीं रहे
जब तक हमारे पास रहे, हम नहीं रहे
कुछ इस अदा से आज वो...
या रब किसी के राजे-मुहब्बत की खैर हो
दस्ते-जुनूं रहे न रहे, आस्तीं रहे
जब तक हमारे पास रहे, हम नहीं रहे
कुछ इस अदा से आज वो...
मुझको नहीं कुबूल दो आलम की वुसअतें
किस्मत में कूएऱ्यार की दो गज जमीं रहे
जब तक हमारे पास रहे, हम नहीं रहे
कुछ इस अदा से आज वो पहलूनशीं रहे
"पलटू सुभ दिन सुभ घड़ी, याद
पड़ै जब नाम।'
क्यों उस घड़ी को शुभ कहा? क्यों उस दिन को शुभ
कहा? जब प्रभु का स्मरण आ जाता है, तो
उस क्षण में अपना स्मरण खो जाता है।
कबीर ने कहा है: प्रेम गली अति सांकरी, तामें दो न समाएं।
उस प्यारे की गली बहुत संकरी है। प्रेम की गली बहुत संकरी है। इतनी
संकरी कि उसमें दो न समा सकेंगे। वहां अगर मैं को लेकर गए तो मैं ही रह जाएगा, तू नहीं। और अगर तू को पुकारा, तो मैं को मिट जाना
होगा; मैं को पीछे छोड़ आना होगा।
वर्तमान के क्षण में ज्यादा जगह नहीं है। बड़ी संकरी गली है। संकरी से
संकरी गली है। इससे और ज्यादा संकरा कुछ भी नहीं हो सकता।
जीसस का भी वचन ठीक इस जैसा है: उस प्रभु का रास्ता यूं तो बहुत सीधा
है, मगर याद रहे--बहुत संकरा भी।
सीधा और संकरा। सीधा तो ऐसे जैसे तीर जाता है और बेध देता है अपने
लक्ष्य को, इतना सीधा। लेकिन संकरा बहुत। एक छोटे-से विचार को भी
लेकर जाना चाहोगे अपने साथ तो न जा सकोगे। उतना विचार ही बाधा बन जाएगा। सोचो--और
तुम पाओगे तत्क्षण कि जैसे ही तुमने सोचा, वर्तमान से चूक
गए।
झेन फकीर रिंझाई ने जब अपने गुरु को जाकर पहली दफा प्रणाम किया और
पूछा कि मैं कैसे पाऊं निर्वाण? कैसे मिलेगा बुद्धत्व?
तो गुरु ने कहा: बैठ, सोच मत, और
सब मिला ही हुआ है!
मगर इतना आसान तो नहीं है सोचना छोड़ देना। रिंझाई बैठा और सोचने लगा
कि गुरु का मतलब क्या है? कि बैठ, सोच मत, सब मिला ही हुआ है! गुरु हंसने लगा और उसने कहा, तूने
सोचना शुरू कर दिया। सोचा कि चूका। अरे, सोच मत!
जिस क्षण तुम्हारे भीतर विचार की प्रक्रिया बंद हो जाती है, तभी तुम उस संकरी गली में प्रवेश कर सकते हो। विचार तो हटा देगा, च्युत कर देगा। यहां-वहां ले जाएगा। कहीं ले जाएगा। कहीं न कहीं ले जाएगा।
वहां न रहने देगा जहां हो।
मुझको नहीं कुबूल दो आलम की वुसअतें
ये दो दुनियाओं का सारा साम्राज्य भी मिलता हो, यह सारी विशालता भी मिलती हो--इस दुनिया की और उस दुनिया की भी--तो भी
प्रेमी को, भक्त को, खोजी को स्वीकार
नहीं होता।
मुझको नहीं कुबूल दो आलम की वुसअतें
किस्मत में कूएऱ्यार की दो गज जमीं रहे
बस, उस प्यारे का रास्ता, उसके
रास्ते पर दो गज जमीं मिल जाए, बहुत। दो आलम की वुसअतों का
क्या करेंगे!
किस्मत में कूएऱ्यार की दो गज जमीं रहे
उस प्यारे की गली में बस जरा-सी जगह मिल जाए, दो गज जमीं मिल जाए।
जब तक हमारे पास रहे, हम नहीं रहे
कुछ इस अदा से आज वो पहलूनशीं रहे
जब तक हमारे
पास रहे, हम नहीं रहे
जब परमात्मा तुम्हारे भीतर प्रकट होता है, तुम मिट जाते हो। व्यक्ति का और परमात्मा का मिलन कभी नहीं होता। जब तक
व्यक्ति होता है तब तक परमात्मा नहीं। जब परमात्मा होता है तो व्यक्ति नहीं। झुकने
की कला सीखनी होती है। मिटने की कला सीखनी होती है। उस समर्पण को ही मैं संन्यास
कहता हूं।
या रब किसी के राजे-मुहब्बत की खैर हो
वही है प्रेम। वही है राज मुहब्बत का।
या रब किसी के राजे-मुहब्बत की खैर हो
दस्ते-जुनूं रहे न
रहे, आस्तीं रहे
बस, झुकने के लिए कोई एक स्थान मिल जाए। आस्तीं रहे। कोई
चौखट मिल जाए जहां सिर को रख दूं। इतना भर हो जाए। और यही राज है मुहब्बत का।
या रब किसी के राजे-मुहब्बत की खैर हो
दस्ते-जुनूं रहे न रहे, आस्तीं रहे
जब तक हमारे पास रहे, हम नहीं रहे
कुछ इस अदा से आज वो...
कबीर ने कहा है: जब तक मैं था, वह नहीं।
हेरत हेरत हे सखी रह्या कबीर हेराइ।
मगर हेरतेऱ्हेरते, खोजते-खोजते वह शुभ घड़ी भी आ
गई--"पलटू सुभ दिन सुभ घड़ी'--कि कबिरा रहा हेराइ।
हेरत हेरत हे सखी कबिरा रहा हेराइ।
और बस, फिर इस जगत का सबसे बड़ा अनुभव प्रकट होता है:
बुंद समानी समुंद में सो कत हेरी जाइ।
नहीं-नहीं--कबीर ने फिर बाद में बदल दिया और कहा:
समुंद समाना बुंद में सो कत हेरी जाइ।
पहले तो कहा था--बुंद समानी समुंद में। पहला वही अनुभव होता है।
क्योंकि पहले तो मैं खोता है और तू प्रकट होता है। तो स्वभावतः बूंद खो जाती है और
समुद्र प्रकट होता है। तो बुंद समानी समुंद में। मगर पीछे लौट कर पता चलता है कि
बात कुछ और थी--समुंद समाना बुंद में--कि समुद्र ही बूंद में आकर उतर गया है। जिस
दिन तुम शून्य होते हो, मौन होते हो, निर्विचार होते हो,
निर्विकल्प होते हो; जिस दिन अ-मनी दशा होती
है; जिस दिन न अतीत न भविष्य, बस
वर्तमान का यह संकरा-सा रास्ता रह जाता है, यह कूएऱ्यार,
यह प्यारे की संकरी गली, यह सीधा और साफ
रास्ता, बस, उस घड़ी समुद्र बूंद में
उतर आता है। चमत्कारों का चमत्कार हो जाता है।
क्या इसे पूछने ज्योतिषी के पास जाओगे? क्या कोई ज्योतिषी
बता सकेगा कि कब आएगा वह लगन का क्षण? किस मुहूर्त में मैं
प्रभु का स्मरण कर पाऊंगा? नहीं, उससे
तो और काम बिगड़ जाएगा। क्योंकि ज्योतिषी तो हमेशा कल की बताएगा, परसों की बताएगा, और आज से चुका देगा।
किसी प्रेमी से पूछो! किसी बुद्ध से पूछो! किसी परवाने से पूछो! देखा
है किसी परवाने को नाचते हुए शमा के चारों तरफ? रक्स देखा है कभी
परवाने का? वही भक्त की दशा है। भक्त यूं है जैसे परवाना।
चला है मरने, चला है मिटने, चला है
अपने को खोने। और भगवान जैसे शमा, ज्योति। नाचता है परवाना
मस्ती में कि आ गई वह शुभ घड़ी, वह शुभ दिन, मिटने का मुहूरत आ गया। नाचते-नाचते पास आता चला जाता है, पास आता चला जाता है। जल जाते हैं पंख, जल जाता है
स्वयं, हो जाता है राख। मगर यही ढंग है उसे पाने का। मिट
जाना ही ढंग है।
वादा कर लेते हैं और साफ मुकर जाते हैं
ये हमीं हैं जो फकत बात पै मर जाते हैं
ले चला दिल हमें फिर कूचाए-जानां की तरफ
लाख चाहा था कि न जाएंगे, मगर जाते हैं
कोई इतना भी किसी से न खफा हो या रब
पास आते हैं तो कतरा के निकल जाते हैं
हमको तूफानों से टकराना भी आता है "शफ़क'
और होते हैं जो अंजाम से डर जाते हैं
वादा कर लेते हैं और साफ मुकर जाते हैं
ये हमीं हैं जो फकत बात पै मर जाते हैं
ले चला दिल हमें फिर कूचाए-जानां की तरफ
लाख चाहा था कि न जाएंगे, मगर जाते हैं
कोई इतना भी किसी से न खफा हो या रब
पास आते हैं तो कतरा के निकल जाते हैं
हमको तूफानों से टकराना भी आता है "शफ़क'
और होते हैं जो अंजाम से डर जाते हैं
वादा कर लेते हैं और साफ मुकर जाते हैं
"पलटू सुभ दिन सुभ घड़ी, याद
पड़ै जब नाम।'
मगर वह नाम याद तभी पड़ता है जब इतनी तैयारी हो--मिट जाने की, समर्पित हो जाने की, समाप्त हो जाने की। कूचाए-जानां
की तरफ आंख भी उठाना खतरे से खाली नहीं। उस परम प्रेमी की तरफ एक कदम भी उठाना
अपनी मौत को अपने हाथ से बुलाना है।
ले चला दिल हमें फिर कूचाए-जानां की तरफ
मगर अगर दिल की सुनो तो आज ले चले, अभी ले चले, इसी क्षण ले चले। मगर दिल की सुनता कौन है! लोग तो खोपड़ी में जीते हैं।
लोग तो सिर की ही सुनते हैं। और सिर में कचरा भरा है। सिर में तुम्हारे है ही क्या?
शास्त्र होंगे, सिद्धांत होंगे, शब्द होंगे, हिंदू धर्म होगा, इस्लाम
धर्म होगा, जैन धर्म होगा, ईसाइयत
होगी। लेकिन इससे काम न चलेगा। खयाल रहे, नानक सिक्ख नहीं थे
और मोहम्मद मुसलमान नहीं थे और ईसा को ईसाइयत का कोई पता न था; और बुद्ध को बौद्ध होने की खबर भी न थी।
ले चला दिल हमें फिर कूचाए-जानां की तरफ
लाख चाहा था
कि न जाएंगे,
मगर जाते हैं
सिर तो कहेगा, मत जाओ। सिर तो कहेगा, किस खतरे
में पड़ते हो। अरे, क्या आत्मघात करना है! क्या अपने को
मिटाना है, बरबाद करना है! कहां जाते हो? धन की तरफ चलो, पद की तरफ चलो। यह है रास्ता दिल्ली
का। दिल्ली चलो! दिल्ली दूर नहीं है! और तुम कहां चले?
दिल कुछ और कहता, मन कुछ और कहता। मन तो भरमाता
है। मन संसार है। सारा संसार तुम्हारे सिर में है। और सारा परमात्मा तुम्हारे हृदय
में है। क्योंकि जहां प्रेम है वहां परमात्मा है।
ले चला दिल हमें फिर कूचाए-जानां की तरफ
लाख चाहा था
कि न जाएंगे,
मगर जाते हैं
और जिसने दिल की सुनी, वह लाख चाहे कि न
जाएं मगर जाना ही होता है। और दिल को तूफानों से टकराना आता है। मन तो कायर है। मन
तो हिसाब-किताब बिठाता है। कौड़ी-कौड़ी का हिसाब-किताब बिठाता है। मन तो दुकानदार
है। मन तो मारवाड़ी है। मन तो कहता है, दो पैसे लगाना तो चार
पैसे बचने चाहिए। मन तो कहता है कि देना कम, लेना ज्यादा।
तभी तो लाभ होगा।
मन गणित है। मन चालबाजी है। हृदय तो भोला-भाला है। हृदय तो देना जानता
है, लुटाना जानता है। हृदय सम्राट है, मन भिखारी है।
हमको तूफानों से टकराना भी आता है "शफ़क'
और होते हैं
जो अंजाम से
डर जाते हैं
और मन तो अंजाम की बात कहेगा। मन तो कहेगा, अंजाम सोच लो। परिणाम क्या होंगे? जाते तो हो,
लौट पाओगे? जाते तो हो जरूर, बच पाओगे? जाते तो हो इस तूफान में, लेकिन कश्ती यह टूटी-फूटी, यह जराजीर्ण, पहुंच पाओगे दूसरे किनारे तक? छोड़ते तो हो यह किनारा
सुरक्षित, और किसी अज्ञात की यात्रा पर निकलते हो! होश गंवा
रहे हो? जरा समझो, सनको मत! सनकी न
बनो! पागल न बनो!
और तुम्हारे सब समझदार तुम्हें यही समझाएंगे। तुम्हारे सब सयाने तुमको
यही बताएंगे कि किनारे को जोर से पकड़ो, तूफान भारी है। यह तो
तुम सौभाग्यशाली हो कि कोई दीवाना तुम्हें मिल जाए और कहे कि यह मौका छोड़ने जैसा
नहीं; तूफान भारी है, यही क्षण है। यही
है शुभ दिन, शुभ घड़ी, छोड़ दो नाव। और
पतवार भी मत ले जाओ। क्योंकि यह तूफान पतवारों से पार नहीं होता। यह अपने सहारे से
पार नहीं होता। यह तो उसकी हवाएं ले जाएंगी, पाल खोलो!
पतवारें फेंक दो!
हमको तूफानों से टकराना भी आता है "शफ़क'
और होते हैं
जो अंजाम से
डर जाते हैं
ऐसी तैयारी हो, तो ही दिव्या, इस सूत्र को तू
समझ पाएगी। और इस सूत्र में सारा राज है संन्यास का। इस सूत्र में सब शास्त्र आ
गए। कृष्ण और बुद्ध और महावीर और जरथुस्त्र और लाओत्सू और कबीर और नानक और
फरीद--सब आ गए।
हाथ की रेखाओं में मत उलझे रहो, हाथ की रेखाएं बस
रेखाएं हैं। हृदय में तलाशो; हृदय में खोदो। और उसके खोदने
की शुभ घड़ी अभी है।
लेकिन लोग बड़े अजीब हैं, टाले जाते हैं,
टाले जाते हैं। मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं
कि संन्यास लेना है, जरूर लेना है। तो मैं कहता हूं, लेना है? तो ले ही लो! कहते हैं, लेंगे, लेकिन जरा व्यवस्था जमा लें। इतनी जल्दी भी
क्या है! संन्यास तो शास्त्रों में कहा है कि पचहत्तर साल के बाद लेना चाहिए।
शास्त्र लिखे होंगे सयानों ने। सयाने ही लिखते हैं। चालबाज, होशियार, काइयां; जमाने भर का
गणित बिठाने वाले लोग। पचहत्तर साल के बाद ले लेना!
उनकी हालत तो यूं है जैसे रामकृष्ण के पास एक आदमी आता था। हमेशा हर
धार्मिक उत्सव मनाता था। और बड़े जोर-शोर से मनाता था। और जब धार्मिक उत्सव मनाता
था तो बकरे कटते, मुर्गे कटते, बलिदान चढ़ता--धनी
था। फिर अचानक उसने उत्सव मनाने बंद कर दिए। न बकरे कटते, न
मुर्गे कटते, न लोग इकट्ठे होते, न
जलसा होता। रामकृष्ण ने कहा, क्या हुआ तुझे? पहले तू बड़े जलसे मनाता था, बड़े उत्सव होते थे;
अब क्या हो गया? उसने कहा, क्या करें, अब दांत ही न रहे।
तब असलियत पता चली कि वह बकरे का कटना और वह मुर्गों का कटना, वह कोई धार्मिक उत्सव नहीं था, वह तो दांतों की वजह
से चल रहा था। अब दांत ही न रहे, सो वह तपस्वी हो गया। अब
उसने अहिंसा धारण कर ली। अब उसने हिंसा का त्याग कर दिया।
पचहत्तर साल के हो जाओगे तब तुम संन्यास लोगे? अरे कब्र में होओगे तब तक तुम! संसार ही तुम्हें छोड़ चुका होगा, फिर तुम क्या छोड़ोगे! धक्के देकर तुम निकाले जाओगे तब तुम अपने मन को समझा
लेना कि अरे, छोड़ते हैं! धक्के देकर निकाले जा रहे हो लेकिन
कहना कि हम छोड़ते हैं।
संन्यास को लोग टालते हैं, स्थगित करते हैं।
बेईमानी के सिवाय और कुछ भी नहीं। मगर बेईमानी को हम समझदारी कहते हैं। इस दुनिया
में बेईमान समझदार हैं, ईमानदार नासमझ।
एक क्षण भी मत टालो। क्योंकि एक क्षण का भी कोई भरोसा नहीं है। और यह
मत कहो कि ठीक घड़ी आएगी, ठीक क्षण आएगा, तब लेंगे।
पचहत्तर साल के तो हो जाएं पहले, फिर ले लेंगे। अब भारत की
तो औसत ही उम्र छत्तीस साल है। तो इसमें तो औसत अर्थों में तो कोई संन्यासी हो ही
नहीं सकता।
और जिन ऋषि-मुनियों ने लिखा है कि पचहत्तर साल के होकर संन्यास ले
लेना, उस समय भारत की उम्र आज से भी कम थी। इस भ्रांति में
मत रहना कि उस समय लोग काफी लंबे देर तक जिंदा रहते थे। क्योंकि जितने भी
अस्थि-पंजर पाए गए हैं अब तक, पांच हजार साल पुराने, उनमें से किसी की भी उम्र चालीस साल से ज्यादा नहीं सिद्ध हुई।
और यह बात इससे भी सिद्ध होती है कि उपनिषद के ऋषि आशीर्वाद देते थे
कि सौ वर्ष जीओ। अगर यह बात सच थी कि लोग सौ वर्ष जीते ही थे तो किसी को यह
आशीर्वाद देना कि सौ वर्ष जीओ, आशीर्वाद नहीं मालूम होता। अरे,
सौ वर्ष जीने का आशीर्वाद तो तभी आशीर्वाद हो सकता है जब लोग
मुश्किल से पचास साल जीते हों। जब लोग सौ साल जीते ही हों तब किसी को आशीर्वाद
देना कि सौ साल जीओ, निपट गंवारी होगी। और हिसाब यह था कि
पचास साल में वानप्रस्थ। क्या हिसाब था! पच्चीस साल तक अध्ययन, तो ब्रह्मचर्य। फिर पच्चीस साल गृहस्थ; संसार का
अनुभव। फिर पच्चीस साल वानप्रस्थ।
वानप्रस्थ शब्द बड़ा अदभुत है। जंगल की तरफ मुंह। जाना नहीं, सिर्फ मुंह रखना। मतलब खयाल रहे कि जाना है। हिसाब लगाना कि अब गए,
तब गए! कि अब जाते हैं। शुभ घड़ी आ जाए, शुभ
मुहूर्त आ जाए, तो अब जाते ही हैं! अब बच्चे बड़े भी हो गए,
अब शादी-विवाह भी हो गया, अब बच्चों के बच्चे
भी होने लगे, बस अब जाते ही हैं, अब
जाते ही हैं! बिस्तर वगैरह बांध कर रखना, सूटकेस वगैरह तैयार
कर लेना--जंगल की यात्रा पर जा रहे हो, पाथेय सजा लेना!
पच्चीस साल वानप्रस्थ में गुजारना। अर्थात जंगल की तरफ मुंह रखना। रहना यहीं! करना
वही सब जो करते रहे! और जो-जो चालबाजियां तुमने जिंदगी में सीखीं वह अपने बच्चों
को सिखा देना जाने से पहले, नहीं तो ये क्या करेंगे बेचारे!
और पचहत्तर साल में फिर संन्यस्त! जब कि ये बच्चे तुम्हें धक्के देकर
ही निकालने लगें; जब कहने लगें कि पिता जी, अब
क्षमा करो, कि अब बहुत हो गया, अब
खोपड़ी और न खाओ; जब दुतकारने लगें; जब
घर में कोई पूछताछ ही न रह जाए; जब कोई प्रतिष्ठा ही न रह
जाए, तब फिर जंगल की तरफ चले जाना; फिर
संन्यासी हो जाना।
यह तो यूं हुआ जैसा हम मरे हुए आदमी के साथ करते हैं। जिंदगी भर जिसने
राम का नाम नहीं लिया, उसकी अरथी उठा कर कहते हैं: रामनाम सत्य है! वे
बेचारे असत्य हो गए, अब तुम रामनाम सत्य कर रहे हो! अरे,
रामनाम ही सत्य कहना था तो जिंदा आदमी से कहना था! मगर जिंदा से कहो
तो लोग नाराज हो जाते हैं।
मैं छोटा विद्यार्थी था जब, तो स्कूल जाते वक्त
बीच में एक मंदिर था, और उसके जो पुजारी थे वे बड़े प्रसिद्ध
थे, बंशीवाले उनका नाम था। और उनकी बड़ी ख्याति थी कि वे बड़े
सज्जन, बड़े करुणावान, बड़े दानी,
बड़े प्रेमी, बड़े भक्त! और जब प्रार्थना करते
थे वे कृष्ण की तो आंखों से आंसू बह रहे! मगर मुझे देखते ही से वे एकदम डंडा उठा
लेते थे। कि बस, बोलना मत, कहना मत!
क्योंकि मैं जब भी वे मिलते, कहीं भी मुझे मिल जाते, मैं कहता: रामनाम सत्य है। इससे वे बहुत नाराज होते थे। कि तू है कैसा!
तुझे कुछ पता है! कि जब कोई मर जाता है तब कहते हैं रामनाम सत्य है। मैं अभी जिंदा
हूं!
वे पूजा कर रहे होते, बंशीवाले की पुकार लगा रहे होते
कि मैं उनके मंदिर में पहुंच जाता। मुझे देख कर ही बंशीवाले को भूल जाते! कि तू
बाहर निकल! देख, बोलना मत! वह बात मुंह से ही मत निकालना! वह
बात ही गलत है! तुझे कुछ समझ ही नहीं है! जब देखो तब वही-वही कह देता है! मैं
पूछता: क्या? वह कहते कि मैं नहीं कह सकता क्या।
जब उनको मैं बहुत सता चुका तो एक दिन आ गए वे, अपना डंडा लिए मेरे पीछे-पीछे मेरे घर पहुंच गए। मेरे पिता जी से बोले कि
इसको रोको। यह गलत बातें कहता है। और मेरी पूजा में विघ्न-बाधा डालता है। यह
राक्षस है! पता नहीं इसको कैसे पता चल जाता है कि मैं पूजा कर रहा हूं, बस वहीं पहुंच जाता है! अब मैं पूजा करूं कि इसकी फिकर करूं? और सब गड़बड़ हो जाता है। ऐसी बातें कह देता है!
तो मैंने उनसे कहा कि आप कम से कम बातें तो बताइए। कि तू चुप रह, तू बीच में मत बोल! तो मेरे पिताजी ने भी कहा कि यह बात तो तर्कसंगत है,
कि आखिर उसने कहा क्या यह तो आप कहिए। कोई गाली दी, कोई बुरे वचन आपसे बोला, कोई आपका अपमान किया?
अरे, कहा, कुछ भी गाली
नहीं दी, कोई बुरा वचन नहीं कहा, मगर
ऐसी बात कहता है जो बुरी से बुरी है।
तो मैंने कहा कि आप कम से कम उस बात को कहो। चलो, मेरे पिताजी के कान में कह दो--अगर मेरे सामने कहने में संकोच लगता है। और
जब मैं तुमसे कहता हूं और संकोच नहीं खाता, तो तुम क्या
संकोच खा रहे हो? कह दो, जी! वे मुझे
डांटें कि तू चुप रह! दो बड़े बुजुर्ग बातें कर रहे हैं तो तुझे बीच में बोलने की
जरूरत नहीं। मैंने कहा, बात मेरे संबंध में हो रही है! और
निर्णय मेरे संबंध में होना है। इतना मुझे हक होना चाहिए। और अगर तुम न कह सकते
होओ तो मैं कह दूं। कि नहीं, बिलकुल मुंह से मत बोलना! वह
बात कहने की है ही नहीं!
जब वे चले गए तब मेरे पिताजी ने मुझसे पूछा कि बात क्या है आखिर? ये आदमी तो सीधे-सादे हैं, भोले-भाले हैं, और इनकी तो गांव में बड़ी प्रतिष्ठा है; और ये एकदम
भन्नाते हैं, तुझे देखते ही से एकदम इनको रोष चढ़ जाता है,
डंडा हाथ में पकड़ लेते हैं, कंपने लगते हैं;
बात क्या है? मैंने कहा, कुछ बात नहीं। जो आमतौर से लोग कहते हैं--रामनाम सत्य है। वही मैं इनसे
कहता हूं। मेरा कहना यह है कि मर कर किसी से कहने में क्या सार है? अब वह बेचारा सुन ही नहीं रहा--वह तो कभी के मर चुके, वह तो ठंडे हो चुके, अब उनसे तुम कह रहे हो: रामनाम
सत्य है! अरे, जिंदा को याद दिलाओ! मैं इनको याद दिला रहा
हूं, बूढ़े हो गए, अब याद आ जाए तो
अच्छा है।
वह बोले कि यह बात तो ठीक नहीं कहना! यह जिंदा आदमी से कहनी ही नहीं
चाहिए। मैंने कहा, यह भी अजीब हिसाब है, मुर्दे से
कहो कि रामनाम सत्य है और जिंदे से कहो मत! सोचने लगे वे। उन्होंने कहा कि बात
तेरी ठीक है, तेरी बातें अकसर ठीक होती हैं, मगर उनमें कुछ न कुछ गड़बड़ जरूर होती है। तू भी कहां से खोज लाता है! यह
मुझे भी हो गई जिंदगी सुनते--अरथियां निकलती हैं, रामनाम
सत्य मैंने भी कई का किया है, मगर मुझे कभी यह खयाल न आया कि
यह जिंदा आदमी को कहना चाहिए।
मैंने कहा, जिंदा ही को कहना चाहिए। अब जैसे ये बंशीवाले हैं!
अगर मेरा बस चले तो इनकी अरथी बांध कर, इनकी खटिया खड़ी करके
और बाजार में घुमाऊं और रामनाम सत्य का ढिंढोरा पिटवाऊं। तो ये बेचारे सुनें,
इनको कुछ अकल आए। नहीं तो बांसुरी वाले की बस पूजा ही करते रहे! और
क्या यह पूजा सच हो सकती है जिसमें रामनाम सत्य है...इसमें कोई खराब बात तो है ही
नहीं। राम का नाम सत्य है, इसमें कौन-सी खराब बात है?
इसमें क्या इनको अड़चन है? मगर मौत की घबड़ाहट!
लोग मरने के बाद सुनना चाहते हैं रामनाम सत्य है, पहले मत कहना। पहले तो उनको उलझे रहने दो उनके मन के जालों में। संन्यास
को टाले जाते हैं, धर्म को टाले जाते हैं, सत्य को टाले जाते हैं, राम को टाले जाते हैं--सरकाए
जाते हैं: आगे, और आगे, और आगे।
सरकाते-सरकाते ही कब्र में गिर जाते हैं। एक पैर कब्र में पड़ जाता है तब भी अभी
आशा संसार में ही लगी रहती है; अभी मन दौड़ता ही रहता है।
आनंद दिव्या! पलटू के इस प्यारे वचन को हृदय में खोद ले--
"पलटू सुभ दिन सुभ घड़ी, याद
पड़ै जब नाम।'
जब राम याद आ जाए, तब वही घड़ी शुभ है, वही दिन शुभ है।
"लगन महूरत झूठ सब...'
मत पूछना लगन, मत पूछना महूरत।
"और बिगाड़ैं काम।।'
दूसरा प्रश्न:
भगवान, नारद परिव्राजकोपनिषद
में संन्यासी के लिए यह कठोर वर्जना है:
न संभाषेत्स्त्रियं कांचित्यपूर्वदृष्टां न च
स्मरेत।
कथां च वर्जयेत्तासां न पश्येल्लिखितामपि।।
एतच्चतुष्टयं
मोहात्स्त्रीणामाचरतो यतेः।
चित्तं
विक्रियतेऽवश्यं
तद्विकारात्प्रणश्यति।।
वह किसी स्त्री से बात न करे।...वह यानी
संन्यासी।...संन्यासी किसी स्त्री से बात न करे। पूर्व परिचित स्त्री का स्मरण न
करे। स्त्रियों के चित्रों को भी न देखे, तथा स्त्रियों से
संबंधित चर्चा न सुने। क्योंकि स्त्री-संबंधी चर्चा, उनका
स्मरण, चित्रावलोकन तथा संभाषण आदि से मन में विकार की
उत्पत्ति होती है, और वह उसकी योग-भ्रष्टता का कारण होता है।
आपके संन्यासी इस नियम का पालन उसके समग्र
उल्लंघन में करते हैं और फिर भी संन्यासी हैं। क्यों?
त्र्यंबक भावे, इसीलिए
संन्यासी हैं। और यह जो नारद परिव्राजकोपनिषद में संन्यासी की लक्षणा है, यह संन्यासी की लक्षणा नहीं है। यह लक्षणा बिलकुल गलत है। इसी गलती का तो
हम परिणाम भोग रहे हैं सारी पृथ्वी पर। यह सड़ी-गली मनुष्यता इसी तरह के मूढ़तापूर्ण
सिद्धांतों के कारण पैदा हुई है।
सुबह ही सुबह आज मैंने जब तुम्हारा प्रश्न देखा तो अखबार उठा कर देखे।
आज के अखबार तो आए नहीं थे, कल के अखबार थे। तो तीन खबरें थीं अखबारों में,
वे तुम्हारे काम पड़ेंगी। और कहीं नारद जी मिल जाएं तो उनको भी बता
देना।
पहली खबर थी अमरीका के एक ईसाई संप्रदाय के संबंध में, उसके प्रमुख की गिरफ्तारी की। यह संप्रदाय कठोर ब्रह्मचर्यवादी है। इस
संप्रदाय की धारणा स्त्रियों के बिलकुल विपरीत है। यह संप्रदाय विवाह को स्वीकार
नहीं करता। यह संप्रदाय मानता है कि धार्मिक व्यक्ति को अविवाहित ही रहना चाहिए।
इस संप्रदाय के लाखों अनुयायी हैं। इस संप्रदाय के प्रमुख की गिरफ्तारी कल हुई है।
और गिरफ्तारी का कारण यह है कि उनका संबंध उनकी स्वयं की छः सेक्रेटरियों से था।
और गिरफ्तारी के बाद जब उनको डांटा-डपटा गया तो उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि इन
छः के अतिरिक्त तीन और महिलाओं के साथ भी उनके प्रेम-संबंध हैं।
यह प्रमुख की दशा है! बाकी की तुम समझ लेना!
दूसरी खबर थी कोरिया से। छियालीस बौद्ध भिक्षु अति कामनाग्रस्तता और
कामविकारों के कारण ऐसे अपराध किए हैं जो अमानवीय हैं। उनकी गिरफ्तारी हुई है।
बौद्ध भिक्षु! अपराध का कारण है काम-विकृति। छोटे बच्चों के साथ व्यभिचार किया है, छोटी बच्चियों के साथ व्यभिचार किया है। बलात्कार किया है। पुरुषों के साथ
भी पुरुषों के संबंध थे। उन पर काम-विकृति के ही नहीं, वरन
हिंसा, हत्या इत्यादि के भी जुर्म हैं। क्योंकि जब किसी छोटी
बच्ची के साथ बलात्कार किया और फिर घबड़ाए कि अब यह बच्ची जाएगी और खबर कर देगी,
तो उसको मार भी डाला। किसी स्त्री के साथ बलात्कार किया, फिर घबड़ाए, तो उसको रिश्वत दी, रुपए दिए। अब इन भिक्षुओं के पास रुपए कहां से आए? तो
धन-संग्रह भी उन्होंने काफी कर रखा था।
नारद ने जो बात कही है, यह उस सबका परिणाम
है।
और तीसरी खबर थी बगदाद के संबंध में।...बगदाद तो मुसलमानों का धर्मतीर्थ
है।...बगदाद में एक विशेष स्त्री-बाजार है, जहां सुंदर स्त्रियां
बिकती हैं--अभी भी, बीसवीं सदी में। जहां कोई भी पुरुष अगर
पैसे चुका सकता है तो अपनी मनपसंद की स्त्री के साथ कुछ घंटों के लिए विवाह कर
सकता है। क्योंकि इस्लाम धर्म वेश्याओं के विपरीत है। अब वेश्याओं से बचने के लिए
कुछ इंतजाम तो करना ही होगा। तो यह तरकीब निकाली गई। कुछ घंटों के लिए विवाह। काजी
आता है, बाकायदा निकाह करवाता है; और
कुछ घंटों के बाद वही काजी आकर तलाक करवा देता है।
इस तरह बगदाद में वेश्यावृत्ति से पूरी तरह छुटकारा पा लिया गया है।
बगदाद अकेला नगर है पूरी पृथ्वी पर जहां कोई वेश्यागिरी नहीं होती। काजी आ जाता
है--धर्मगुरु--वह आकर निकाह करवा देता है। चार-छः घंटे के लिए।
कैसा मजा है! और यह सब धर्म के नाम पर चलता है। और यह एक दिन की खबर
है। ये खबरें रोज होती हैं। यह तो संयोग की बात है कि मैंने अखबार उठा कर देखे कि
तुम्हारे लिए कुछ सामग्री कल के अखबारों में है या नहीं? और यह सदियों से हो रहा है। जिम्मेवार कौन है?
यह नारद परिव्राजकोपनिषद में संन्यासी के लिए जो कठोर वर्जना है, वही जिम्मेवार है। यह वर्जना ही मूर्खतापूर्ण है। इस पृथ्वी पर आधी
स्त्रियां हैं, आधे पुरुष हैं--सच तो यह है, स्त्रियां थोड़ी ज्यादा हैं, पुरुष थोड़े कम हैं।
क्योंकि स्त्रियां पुरुषों से ज्यादा मजबूत हैं। पुरुषों को यह भ्रांति है कि वे
मजबूत हैं।
वे गलती में हैं। उनको विज्ञान का कुछ पता नहीं है। प्रकृति को ज्यादा
पता है।
प्रकृति एक सौ पंद्रह लड़के पैदा करती है और सौ लड़कियां पैदा करती है।
विवाह की उम्र आते-आते पंद्रह लड़के खतम हो जाते हैं, सौ ही बचते हैं। तो
प्रकृति पहले से ही "स्पेयर' तैयार करती है। पंद्रह
"स्पेयर'। क्योंकि इनका कोई भरोसा नहीं। ये कब
टांय-टांय फिस्स हो जाएं, इनका कुछ पक्का नहीं। लड़की मजबूत
काठी की होती है। ऐसे कोई टांय-टांय फिस्स होने वाली नहीं है। सौ लड़कियां और एक सौ
पंद्रह लड़के, यह अनुपात है। और शादी की उम्र होतेऱ्होते
बराबर हो जाते हैं।
फिर लड़कियां पांच साल ज्यादा जीती हैं। अगर पुरुष पचहत्तर साल जीएगा
तो लड़की अस्सी साल जीएगी। तो स्वभावतः पृथ्वी पर हमेशा ज्यादा स्त्रियां होंगी।
क्योंकि कई पुरुषों को दफना चुकी होंगी। और पुरुष की मूर्खता और यह है कि वह शादी
करते वक्त अपनी उम्र ज्यादा चाहता है लड़की से। लड़की की उम्र अगर बीस तो लड़के की
पच्चीस। इसका मतलब यह हुआ कि पांच साल का यह फर्क और पांच साल का प्रकृति का फर्क, दस साल का अंतर पड़ जाएगा आखिर में। यह भइया दस साल पहले रामनाम सत्य हो
जाएगा इनका।
अगर थोड़ी समझदारी हो तो पांच साल बड़ी उम्र की लड़की से शादी करनी
चाहिए। ताकि कम से कम दोनों का रामनाम सत्य करीब-करीब हो। जब भी दुनिया में थोड़ी
वैज्ञानिकता होगी तो यही होगा। पच्चीस साल की लड़की, पच्चीस साल का लड़का
नहीं होना चाहिए, बीस साल का लड़का। बराबर उम्र का भी नहीं,
पांच साल कम। लेकिन पुरुष को इसमें बड़ी दिक्कत मालूम होती है।
क्योंकि अपने से कमजोर, हर हालत में कमजोर स्त्री से विवाह
करना चाहता है पुरुष, क्योंकि अकड़।
स्त्री पढ़ी-लिखी कम होनी चाहिए। इसलिए सदियों से: वेद न पढ़े, उपनिषद न पढ़े। उसके लिए तो कचरा!--रामायण वगैरह पढ़ती रहे! ये बाबा
तुलसीदास जो लिख गए हैं, उसको पढ़ती रहे। बाकी असली कोई चीजें
न पढ़े। रामलीला देखती रहे। और देखती रहे स्त्री के साथ होता हुआ अत्याचार, कि जब मर्यादा पुरुषोत्तम तक यह व्यवहार कर रहे हैं सीता के साथ, तो उसके पतिदेव उसके साथ जो कर रहे हैं, वह ठीक ही
है। स्त्री को चुपचाप स्वीकार करना चाहिए। गर्भवती स्त्री को घर से निकाल रहे हैं।
तो अगर पतिदेव गर्भवती स्त्री को भी घर से निकाल दें, तो भी
उसे स्वीकार करना चाहिए।
और मजा देखते हो, रावण के यहां से जब राम लेकर आए
सीता को तो अग्नि-परीक्षा अकेली सीता को देनी पड़ी! और ये भइया! भइया ही थे! कम से
कम इतना तो करते कि जब सात चक्कर लगाए थे और घनचक्कर बने थे, तब साथ-साथ चक्कर लगाए थे, कम से कम अग्नि-परीक्षा
में साथ-साथ उतरे होते। यह भी कोई बात हुई! और सीता अगर इतने दिन अलग रही थी,
तो ये भइया भी तो अलग रहे थे! और न मालूम किस-किस तरह के लोगों के
साथ रहे थे--अंदरों-बंदरों के साथ, इनका क्या भरोसा! कौन-कौन
से काम न करते रहे हों! कम से कम सीता तो एक भले आदमी के हाथ में थी, जिसने कोई दर्ुव्यवहार नहीं किया।
रावण ने सीता के साथ कोई दर्ुव्यवहार नहीं किया। रावण ने सीता के शरीर
को भी स्पर्श नहीं किया। इससे ज्यादा दर्ुव्यवहार तो राम और लक्ष्मण ने
किया--शूर्पणखा की नाक काट ली। राम के सामने। और राम कुछ बोले नहीं; विरोध भी न किया। और शूर्पणखा ने ऐसा कौन-सा कसूर किया था! प्रणय-निवेदन
किया था। प्रत्येक स्त्री को हक है। और प्रत्येक पुरुष को हक है। इनकार कर देते कि
भई, मैं राजी नहीं, कि मेरा इरादा नहीं,
कि मैं विवाहित हूं। नाक वगैरह काटने की क्या जरूरत आ गई थी! ये
लक्ष्मण आदमी हैं? यह भली स्त्री प्रेम का निवेदन कर रही है,
तो कह देते कि नहीं भई, मैं पहले ही से
नियोजित हूं, पहले ही से फंस गया, अब
क्या करूं? अब मुझे माफ करो, कहीं और
खोजो!
लक्ष्मण पर सीता को भी भरोसा नहीं था। क्योंकि जब राम स्वर्णमृग की
तलाश में चले गए...क्या गजब के राम थे! अरे, कहीं सोने के हिरण
होते हैं! किसी बुद्धू को भी भरोसा दिलाना मुश्किल है। स्वर्णमृग दिखाई पड़ गया और
उसकी खोज में चले गए। और यह राम थे! और इनको तीनों काल का ज्ञान है! और यह मृग
झूठा है, इतना ज्ञान नहीं! त्रिकालज्ञ हैं! सर्वांतर्यामी
हैं! घट-घट का इनको पता है! इसी एक घट का पता नहीं है! चल पड़े! और लक्ष्मण को कह
गए--पहरा देना। और जब राम ही धोखा खा गए...!
और जब पुकार उठी जोर से कि मैं संकट में हूं, मुझे बचाओ, तो सीता बेचारी क्या करे? उसने लक्ष्मण को कहा कि जाओ, बचाओ! लक्ष्मण दुविधा
में पड़ा। क्योंकि राम ने आज्ञा दी थी कि पहरा देना। और सीता कहती है--जाओ, बचाओ! उसकी झिझक देख कर सीता ने जो शब्द कहे हैं, वे
सूचक हैं। सीता को जरूर शक रहा होगा इस आदमी पर।
और शक के कई कारण भी हैं। जब स्वयंवर हो रहा था तब भी सीता देख रही
होगी कि रामचंद्र जी तो बैठे थे शांति से, मगर लक्ष्मण एकदम
उठ-उठ खड़ा होता था! उसको बिठलाना पड़ता था; भइया, तू बैठ! जब बड़े भाई मौजूद हैं, तू चुपचाप रह! उसको
ऋषि-मुनि समझाते तब वह थोड़ा बैठता, मगर फिर उठ कर खड़ा हो
जाता। वह धनुष तोड़ने को एकदम आतुर हो रहा था। तब से ही सीता को शक रहा होगा कि यह
आदमी कुछ गड़बड़ है।
फिर अपनी पत्नी को छोड़कर--इसको तो कोई वनवास दिया नहीं था--उर्मिला को
छोड़ कर चुपचाप सीता मइया के पीछे चला आया, सीता को और भी शक हुआ
होगा। कि चौदह साल जंगल में भटकना! कोई भाई वगैरह के पीछे भटकता है? ऐसा भाईचारा वगैरह कहीं होता है? यह आदमी कुछ गड़बड़
है! और चौदह साल से पीछे ही लगा हुआ है! रामचंद्र जी तो आगे-आगे, सीता मइया उनके पीछे, उनके पीछे लक्ष्मण जी! अब पता
नहीं पीछे-पीछे क्या कहता था! क्या व्यवहार करता था! क्योंकि सीता ने जो वक्तव्य
दिया उससे कुछ जाहिर होता है। सीता ने कहा कि मुझे मालूम है कि तेरी यही इच्छा है
कि किसी तरह राम समाप्त हो जाएं तो तू मुझ पर कब्जा कर ले।
यही वक्तव्य बताता है कि सीता को इस आदमी पर शक निश्चित रहा, संदेह रहा। और इस बात के कहते ही से लक्ष्मण को एकदम चोट भी पड़ गई,
इससे भी पता चलता है। चोट ही उस बात की पड़ती है जिसका भीतर डर हो।
अभी जाने को राजी नहीं था, कि रामचंद्र जी आज्ञा दे गए हैं,
मैं तो यहीं रहूंगा; भाई की आज्ञा है, नहीं छोड़ सकता। और जब सीता ने यह कहा कि मुझे पता है कि तू यहां क्यों है,
भाई की आज्ञा वगैरह का कोई सवाल नहीं है, सवाल
यह है कि किसी तरह राम खतम हो जाएं तो तू मुझ पर कब्जा कर ले। तेरी नजर खराब है,
तेरी नीयत खराब है। बस, यह कहते ही से लक्ष्मण
जी चल पड़े। एकदम क्रोध में आ गए। क्रोध ही तब आता है जब कोई घाव को छू देता है।
रावण ने तो कोई दर्ुव्यवहार नहीं किया। और सीता की अग्नि-परीक्षा ली
गई! रामलीला दिखाई जा रही है स्त्रियों को कि देखो, तुम्हारे पतिदेव ऐसी
परीक्षा लेंगे। घबड़ाना मत, परीक्षा देना। देखो, सीता मइया आग में से निकलीं और बिलकुल बच कर निकल आईं। ऐसे ही तुम भी आग
में से निकलो। तुम भी बच कर निकल आओगी।
इस पागलपन में मत पड़ना। आग-माग में से कोई बच कर नहीं निकलता। न सीता
मइया निकली हैं, न कोई और मइया निकल सकती हैं। आग को कुछ नहीं पड़ी है।
और इसके बावजूद भी, एक धुब्बड़ ने कह दिया कि मुझे शक
है--उसे अपनी पत्नी पर शक था--कि तू रात भर कहां रही? मैं
कोई राम नहीं हूं कि वर्षों रावण के घर रह आई सीता और फिर भी रख लें। बस, इतनी-सी बात और अग्नि-परीक्षा व्यर्थ हो गई। जिसने अग्नि-परीक्षा दे दी थी,
उसके साथ कुछ तो सदव्यवहार होना चाहिए था। उसको निकाल फेंक दिया।
जैसे आदमी दूध में से मक्खी निकाल कर फेंक देता है।
यह रामलीला दिखाई जाती है स्त्रियों को। रामचरितमानस पढ़ो, तुलसीदास की चौपाइयां रटो, "ढोल गंवार शूद्र
पशु नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी'--इनको
कंठस्थ करो। मगर वेद, उपनिषद, ब्रह्मज्ञान
की बातों में मत पड़ना। उन ऊंचाइयों से स्त्रियों को वंचित रखा जाता है। ताकि
पतिदेव ब्रह्मज्ञानी मालूम पड़ें, स्त्री अज्ञानी मालूम पड़े।
आज भी वही की वही हालत है। अगर स्त्री एम.ए. हो तो बी.ए. लड़का उससे
शादी करने को राजी नहीं होता। उसको लगता है बेइज्जती हो रही है। कोई पूछेगा कि
पत्नी कहां तक पढ़ी है? एम.ए.। और आप? बी.ए.। तो जरा
चोट पहुंचेगी कि यह बात ठीक नहीं। पत्नी हर हालत में छोटी होनी चाहिए। पढ़ाई-लिखाई
में छोटी होनी चाहिए। शरीर में भी छोटी होनी चाहिए--लंबी पत्नी से कोई शादी करने
को राजी नहीं होता। कि तुम अपनी पत्नी के साथ चले जा रहे हो, वह तुमसे लंबी है, तो डर यह रहता है कि कोई पूछने
लगे कि ये क्या आपकी माता जी हैं या कौन हैं? घबड़ाहट लगती
है!
अब वह चितरंजन हंस रहे हैं! उनकी पत्नी वीणा उनसे मजबूत और बड़ी है। वे
जहां जाते हैं बेचारे, लोग उनसे यही पूछते हैं कि भैया, माता जी को लेकर कहां जा रहे हो? मगर चितरंजन ने
हिम्मत का काम किया है। इसको ही कहते हैं मर्दानगी! अरे, डरे
नहीं!
हमको तूफानों से टकराना भी आता है "शफ़क'
और होते हैं
जो अंजाम से
डर जाते हैं
कोई फिक्र न की कि पत्नी एक फीट ऊंची है, जहां जाएंगे वहीं मुसीबत खड़ी करेगी! और वीणा बेचारी बहुत झुक-झुक कर भी
चले तो भी क्या करे। शरीर से भी मजबूत है।
तो पुरुष को तो हर तरह अकड़ होनी चाहिए। ऊंचा होना चाहिए, मजबूत होना चाहिए। वह जो पहलवान छाप बिड़ी होती है न, वही तस्वीर होनी चाहिए--पहलवान छाप! पढ़ा-लिखा भी ज्यादा होना चाहिए,
नौकरी भी बड़ी होनी चाहिए, तनख्वाह भी ज्यादा
मिलनी चाहिए--हर स्थिति में स्त्री से ऊपर होना चाहिए।
यह स्त्रियों के साथ सदियों से दर्ुव्यवहार चल रहा है। और यह
दर्ुव्यवहार साधारणजन करें तो भी समझ में आता है, लेकिन उपनिषदों तक
में इस तरह के दर्ुव्यवहार की बातें लिखी हों तो बड़ी हैरानी होती है। अब ये वचन
क्या हैं?
"न संभाषेत्स्त्रियं--स्त्री से बात न करे।'
बड़े डरपोकपन की बात है। यह कोई संन्यासी का लक्षण हुआ! स्त्री से बात
न करे। इतनी स्त्रियां हैं, सारी पृथ्वी उनसे भरी है, कहां
जाओगे? कैसे बचोगे? और स्त्रियों से
बात न करे, और स्त्रियां ही सत्संग करने आती हैं। मार डाला
संन्यासी को! गर्दन में फांसी लगा दी उसके! पुरुष जाते ही कहां हैं सत्संग करने!
पुरुष तो अगर जाते भी हैं कभी सत्संग करने तो उन्हीं स्त्रियों को देखने जाते हैं
जो सत्संग करने गई हैं। या उन्हीं स्त्रियों के पति पीछे-पीछे चले जाते हैं--रक्षा
की दृष्टि से। क्योंकि धर्मशास्त्र कह गए हैं कि जब लड़की हो तो बाप रक्षा करे,
और जब युवती हो जाए तो पति रक्षा करे, और जब
वृद्धा हो जाए तो बेटा रक्षा करे। स्त्री हुई कि कोई सामान हुआ! रक्षा ही रक्षा!
उसमें कोई आत्मा स्वीकार करते हो या नहीं? तुम्हीं रक्षक हो
उसके। और भक्षक कौन है फिर? जब सभी तुम रक्षक हो तो भक्षक तो
कोई होना ही नहीं चाहिए। तुम्हीं भक्षक हो।
स्त्रियों से बात न करे, यह तो बड़े डरपोकपन की
बात हो गई। और जो पुरुष इतना स्त्रियों से डरा हुआ है, तुम
सोचते हो उसके जीवन में ध्यान फलित हुआ होगा! तुम सोचते हो उसके जीवन में आनंद
फलित हुआ होगा! तुम सोचते हो उसके जीवन में परमात्मा की कोई झलक मिली होगी! जिसको
परमात्मा की झलक मिल जाए उसे तो स्त्री में भी परमात्मा की ही झलक मिलेगी।
फूलों के सौंदर्य से तो कोई विरोध नहीं है नारद को, चांद सुंदर निकलेगा उससे तो कोई विरोध नहीं है, पक्षी
गीत गाएंगे उससे तो कुछ विरोध नहीं है, कोयल कुहू-कुहू करेगी
उससे तो कुछ विरोध नहीं है, संगीत बजेगा उससे तो कुछ विरोध
नहीं है--और सब सौंदर्य स्वीकार है, सिर्फ स्त्री के सौंदर्य
से क्या डर है?
डर का कारण सिर्फ इतना ही है कि ये भगोड़े संन्यासियों के कारण यह
सूत्र बनाया है। ये भाग गए हैं, कच्चे घड़े हैं। कच्चे घड़े को
कहना पड़ता है कि भैया वर्षा से बचना! जहां बूंदा-बांदी हो रही हो, फौरन छाता खोल लेना। तत्क्षण छत्रपति हो जाना!
मेरे एक प्रोफेसर थे। वे छत्रपति थे। एक तो बंगाली थे, सो बंगाली वैसे ही छत्रपति होते हैं। छाता बड़े काम की चीज है। अरे वर्षा
हो तो बचाता है, धूप हो तो बचाता है, कुत्ता
वगैरह भौंकने लगे तो बचाता है, कोई लड़के-बच्चे डरवाने लगें
तो बचाता है, स्त्री वगैरह दिखाई पड़ जाए तो बचाता है। वे उसे
स्त्री से बचाने के लिए उपयोग में लाते थे। जब मैं पहली दफा उनका विद्यार्थी हुआ
तो हम तीन ही विद्यार्थी थे--दो लड़कियां थीं और मैं। दर्शनशास्त्र पढ़ने लड़के तो
जाते ही नहीं। मैं तो गया था क्योंकि मुझे कोई पढ़ना-लिखना था नहीं। सो
दर्शनशास्त्र हो कि भूगोलशास्त्र हो कि इतिहासशास्त्र हो, कुछ
भी हो, जहां जगह थी...!
मुझसे उपकुलपति ने पूछा, क्या पढ़ना है?
मैंने कहा, जहां जगह हो। उन्होंने कहा,
तुम कुछ पढ़ने का इरादा लेकर नहीं आए? मैंने
कहा कि पढ़ना है किसको? वक्त गुजारने आए हैं। वे थोड़े चौंके,
उन्होंने कहा, तुम बात कैसी करते हो! वक्त
गुजारने आए हो? मैंने कहा, मैं
सच्ची-सच्ची बात कह रहा हूं आपसे। पढ़ना वगैरह मुझे नहीं है। और मुझे जो पढ़ना है वह
मैं खुद ही पढ़ लूंगा। वह मुझे कौन पढ़ाएगा? आप पढ़ाएंगे?
इसलिए जहां जगह हो वहां रख दो। न मुझे कक्षा में जाना है ज्यादा।
यूं कभी-कभी आहे-गाहे चला जाऊंगा। यूं ही चहलकदमी के लिए। जाना-करना मुझे है नहीं।
दो लड़कियां थीं। लड़कियां दर्शनशास्त्र पढ़ती हैं; क्योंकि दर्शनशास्त्र पढ़ कर कोई नौकरी वगैरह तो मिलती नहीं। नौकरी उन्हें
करनी नहीं। उन्हें डिग्री लेनी है, ताकि ठीक जगह विवाह हो
जाए। कोई डिप्टी कलेक्टर से हो जाए, किसी डाक्टर से हो जाए,
किसी इंजीनियर से हो जाए। वह सर्टिफिकेट विवाह के काम आता है। नौकरी
तो उन्हें कोई करने नहीं देता। क्योंकि नौकरी स्त्रियां करें तो वहां लोगों को
भ्रष्ट करेंगी। लोगों को बचाने के लिए ये स्त्रियों को कहीं जाने नहीं दिया जाता।
स्त्रियों से तो ऐसा घबड़ाया हुआ है पूरा मुल्क कि जहां गईं वहीं लोगों को भ्रष्ट
किया, नरक भेजा; नरक के द्वार हैं।
तो वे दो लड़कियां थीं और मैं। और वे आंख बंद करके पढ़ाते थे, क्योंकि लड़कियों को वे देख नहीं सकते थे। उन्होंने ब्रह्मचर्य का भारी
व्रत ले रखा था। मालूम होता है यह जो त्र्यंबक भावे ने पूछा है, नारद परिव्राजकोपनिषद, इसी का वे अध्ययन करते रहे
होंगे। आज राज खुला! तो वे आंख बंद करके पढ़ाते थे। मैं उनकी क्लास में जरूर जाता
था, क्योंकि मैं आंख बंद करके सोता था। न वे देखते थे,
न कोई सवाल उठता था। वे मुझसे बड़े प्रसन्न थे। कभी-कभी रास्ते पर
मुझे मिल जाते, कहते, विद्यार्थी हो तो
एक तुम हो। दोनों लड़कियां इतनी सुंदर हैं फिर भी तुम आंख बंद करके बैठते हो।
मैंने उनसे कहा कि मैं यह पूछूं कि लड़कियां सुंदर हैं, यह आपको पता कैसे चला? आप तो आंख बंद करके पढ़ाते
हैं। अरे, मुझे तो यह भी पता नहीं कि कौन-सी लड़कियां हैं,
क्योंकि मैं तो सोता हूं। इधर फुरसत किसको पड़ी! मेरा समय वह सोने का
है। इसलिए मैं आपकी कक्षा में जरूर आता हूं, क्योंकि वहां
कोई बाधा नहीं; आप आंख बंद किए हैं, देखने
वाला कोई है नहीं, मैं तब तक सोता हूं।
मैंने उनसे पूछा कि आप यह छाता जो लगाते हैं, बड़ी तरकीब से लगाते हैं। छाता बिलकुल यूं लगाते थे कि उनके सिर से लग जाता
था। तो वे कहते थे, इसका भी कारण यही है ताकि छाता बिलकुल
आंखों को ढांके रहे। अरे, स्त्रियों का क्या, कहीं से भी निकल आती हैं! इधर जा रही हैं, उधर जा
रही हैं। और स्त्रियों से बचना है।
मगर इस तरह का डरा हुआ आदमी कितनी देर बच सकता है! आखिर वे एक स्त्री
के चक्कर में फंस गए। उस स्त्री ने उन्हें डुबाया। मैंने उनसे कहा कि मैंने पहले
ही आपको चेताया था कि आप स्त्रियों के चक्कर में फंसोगे! इतने डरोगे, इतना दमन करोगे, तो भीतर वासना इकट्ठी होगी; और एक न एक दिन फूटेगी, विस्फोट होगा।
यह कहना कि स्त्री से बात न करे, एकदम अवैज्ञानिक है।
इसका परिणाम तो यही होगा कि तुम्हारे भीतर स्त्री के प्रति बहुत-बहुत विकार,
विचार, वासना, कामना
इकट्ठी होने लगेगी। सपने तैरने लगेंगे। और स्त्रियां सपनों में जितनी सुंदर होती
हैं उतनी असलियत में नहीं होतीं। मैं तो कहता हूं, जी खोल कर
बात कर लेना। तब तुम्हें पता चल जाएगा कि अरे, बड़ी कर्कशा
है। बाई से बात कर ली तो अच्छा हुआ! पहचान में आ गई। तुम तो जितनी घुसफुस करके बात
कर सको कर लेना, बिलकुल पास बैठ-बैठ कर बात कर लेना, ताकि असलियत जाहिर हो जाए। दूर-दूर रहे, बचे-बचे रहे;
असलियत जाहिर न होगी, सपना सपना ही बना रहेगा।
अनुभव के अतिरिक्त इस जगत में कोई मुक्ति नहीं है।
इसलिए मैं कहता हूं, त्र्यंबक भावे, मेरे संन्यासी संन्यासी हैं। तुम यहां पूछो, मेरे
आश्रम की संन्यासिनियों से पूछो। मेरे पास रोज संन्यासिनियों के पत्र होते हैं कि
मामला क्या है, कि यह अजीब दुनिया है आपकी! सारी दुनिया में
हम हो आए, पुरुष हमारा पीछा करते हैं, यहां
हमें पुरुषों का पीछा करना पड़ता है--और पुरुष भागते हैं!
भागें न तो क्या करें! अरे, कोई एकाध स्त्री पीछे
पड़ी हो तो भी ठीक, इतनी पिटाई-कुटाई उनकी हो चुकी है,
अनुभव से सीख लिया। कितने ही गधे हों, मगर
इतने कुट-पिट चुके हैं।
मैं छोटा था तो मुझे गधों पर बैठने का शौक था। गांव में मेरे घोड़े
ज्यादा थे भी नहीं। थोड़े-से घोड़े थे, वे तांगे खींचते थे।
मगर गधे मुक्त विचरण करते थे। मैं शाम से गधों की तलाश में निकल जाता। मैं तो पहले
सोचता था कि गधे सच में ही गधे होते हैं, मगर मैं चकित हुआ
यह जान कर कि गधे मुझे पहचानने लगे। अरे, मुझे ही नहीं
पहचानने लगे, मुझे सौ कदम की दूरी से भी--मेरे पैरों की आवाज
पहचानने लगे। बस, मुझे उन्होंने देखा कि भागे। और कोई गुजर
जाए, खड़े रहें, मुझे देखते ही से भाग
जाएं। एकदम चीपों-चीपों मचा दें।
जो भी मेरे साथ हो, वह कहे कि बात क्या है? तुम्हें गधे देख कर एकदम चीपों-चीपों करने लगते हैं, एकदम भागने लगते हैं! एक कुम्हार जिसके गधों पर मैं अकसर सवार होता था,
वह भी मुझसे बोला कि बात क्या है कि तुम जब भी इधर से निकलते हो तो
मेरे सारे गधे एकदम शोरगुल मचाने लगते हैं! ऐसे चुपचाप खड़े रहते हैं, अपनी धुन में मस्त! तुमने क्या किया इनके साथ?
मैंने कुछ नहीं किया। इतना ही कि जब ये मुझे मिल जाते हैं एकांत में
कभी तो मैं इन पर सवारी करता हूं। ये मुझे पहचानने लगे। तो मुझे धारणा जो थी कि
गधे गधे होते हैं, वह गलत सिद्ध हुई। गधे भी बड़े समझदार होते हैं। ऐसे
बने खड़े रहते हैं, बिलकुल सीधे-सादे, भोले-भाले;
बिलकुल दार्शनिक मालूम होते हैं; चिंतित,
बड़े मग्न, सारे जगत का विचार कर रहे हैं कि
तीसरा महायुद्ध होगा कि नहीं होगा, कि अब ईराक-ईरान में क्या
होता है देखें, कि अयातुल्ला खोमेनी अब और क्या दिखाते हैं
देखें--ऐसे तो लगते हैं कि बड़े चिंता में मग्न हैं, मगर होते
बड़े समझदार हैं। मैं अपने अनुभव से कहता हूं कि बड़े समझदार होते हैं।
तो यहां मेरी संन्यासिनियां मुझे पत्र लिखती हैं कि अजीब दुनिया आपने
बनाई है! यहां हम तो पीछा करते हैं, पुरुष एकदम भागते
हैं। वे कहते हैं, नहीं-नहीं। आमतौर से सारी दुनिया में यह
बात जाहिर है कि जब स्त्री कहे नहीं-नहीं तो उसका मतलब होता है: हांऱ्हां। मगर
मेरे इस आश्रम में जब पुरुष कहे नहीं-नहीं, तो उसका मतलब
होता है: नहीं-नहीं। अनुभव तो किसी को भी सिखा देता है।
रसरी आवत जात है सिल पर परत निशान
करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान
जड़मति भी सुजान हुए जा रहे हैं और तुम कहां, त्र्यंबक भावे, कहां की बातों में पड़े हो! किसी
स्त्री से बात न करे! अपनी मां से बात करोगे कि नहीं? अपनी
बेटी से बात करोगे कि नहीं? अपनी बहन से बात करोगे कि नहीं?
लेकिन संन्यासी तो इन सबको छोड़ कर भाग खड़ा होता है। इसीलिए भागना
पड़ता है उसको बेचारे को कि इनसे अगर बात करनी पड़ी तो सब बिगाड़ हो जाएगा।
इतने डरपोकपन से कभी कोई संन्यास हुआ है! और होगा भी तो बिलकुल पोला
होगा। फुफ्फस! बंगाली बाबू! मछली और भात, और भीतर कुछ भी
नहीं--कितना ही खोजो, आत्मा का पता ही न चले! कितना ही खोदते
चले जाओ, फिर मछली, फिर भात, फिर मछली, फिर भात! इधर से जाओ, उधर से बाहर निकल आओ, मछली और भात के सिवाय कुछ भी न
मिले।
और तुम कहते हो: "पूर्व परिचित स्त्री का स्मरण न करे।'
अरे, इतना स्मरण तो रखना ही पड़ेगा कि स्मरण नहीं करना है!
उसी में गड़बड़ हो जाएगी। पूर्व परिचित स्त्री का स्मरण न करे--इतना स्मरण तो रखोगे!
स्मरण छोड़ोगे तो हो जाएगा स्मरण। स्मरण करोगे तो हो जाएगा स्मरण।
एक आदमी ने एक साधु से जाकर कहा--तिब्बती कथा है--कि मुझे कुछ मंत्र
दे दें, सिद्धि हो जाए। बड़ी सेवा की, हाथ-पैर
दाबे। साधु ने कहा कि भाई, तू नहीं मानता, जानता मैं कुछ नहीं। अरे, उसने कहा कि आप जानते हैं;
यह तो ज्ञानियों का लक्षण है कहना कि नहीं जानते। मुझे आपकी सिद्धि
पता है। आपके हाथ में सब है। जरा-सा मंत्र दे दो। अरे, कर दो
कृपा।
साधु ने देखा कि यह दुष्ट पीछा नहीं छोड़ेगा तो उसे एक मंत्र दे दिया।
एक कागज पर लिख दिया छोटा-सा मंत्र--कुछ भी लिख दिया होगा, कोका-कोला कोका-कोला--या कुछ भी। मतलब जो समझ में न आए ऐसी कोई चीज लिख दी
होगी। और कहा कि यह ले जा भइया, पांच दफे पढ़ लेना। बस,
इतना खयाल रहे कि जब भी पांच दफे पढ़े तो बंदर की याद न आए।
अरे, उसने कहा, बिलकुल बेफिकर रहो।
बंदर की जिंदगी भर मुझे याद नहीं आई, साठ साल की उम्र हो गई
और बंदर की कभी याद नहीं आई, अब क्यों आएगी? और पांच ही दफे पढ़ना है न? मिनट भर का काम है। अभी
जाता हूं, नहा-धो कर बैठता हूं पूजागृह में, पांच दफे पढ़ कर सिद्धि किए लेता हूं।
भागा! लेकिन बड़ा हैरान हुआ। सीढ़ियां भी नहीं उतर पाया मंदिर की कि
बंदरों की याद आने लगी। बहुत झिड़का, खांसा-खखारा, कि हट, भागो, धत तेरे की,
तू क्यों पीछे पड़ा है? मगर बंदर तो बंदर। मुंह
बिचकाएं। कहीं बाहर तो हैं नहीं, भीतर ही। एक नहीं, दो नहीं, कतारों पर कतारें। कहा, मार डाला, ये बंदर सब कहां छिपे थे! अब तक कभी निकले
ही न थे।
घर पहुंचते-पहुंचते तो सारी दुनिया खो गई, बंदर ही बंदर थे। जहां देखे, बंदर ही बंदर दिखाई
पड़ें। अरे, अपनी पत्नी को देखा और देखा कि बंदर बैठा हुआ है।
आंखें मीड़ीं, पानी छिड़का, कि हे प्रभु,
यह क्या हो रहा है? बेटे को देखा, लगा बंदर चला आ रहा है। तब तक भी ठीक था, जब बाप को
देखा और देखा कि बंदर, तो उसने कहा कि मैं पागल हो गया।
जल्दी से नहाया-धोया, मगर नहाना-धोना क्या? बंदर नहा-धो रहे। जा कर पूजागृह का दरवाजा बंद करके बैठ गया। पांच दफे
पढ़ना तो दूर, कागज हाथ में ले और बंदर की तस्वीर। इधर बंदर,
उधर बंदर, सब तरफ बंदर। कई दफे कोशिश की,
कई दफे नहाया, कई दफे धोया।
पत्नी ने कहा, तुम कर क्या रहे हो, आज रात
सोना नहीं है? अरे, उसने कहा, तू जा। बंदरिया कहीं की। पीछे पड़ी है। पत्नी ने कहा, बंदरिया! होश में हो? बाप ने सुना कि पत्नी से
बंदरिया कह रहा है, बाप ने कहा, क्या
कहता है रे, नालायक! अरे, कहा, बंदर! तू चुप रह, खूसट! मैं क्या घर के बाहर गया,
सब बंदरों ने ही कब्जा कर लिया है। पता नहीं आज बाप कहां गए,
पत्नी कहां गई। लड़का बोला, पप्पा, आप क्या कहते हैं! अरे, उसने कहा, चुप रे, बंदर की औलाद!
घर के लोगों को शक हुआ कि यह आदमी पागल हो गया है। कहा, तू होश में है? पकड़ कर उसको आईने के सामने ले गए कि
आईने में देख! उसने देखा, बंदर खड़ा है आईने में। उसने कहा,
हे प्रभु, यह क्या हो रहा है! अपने मुंह पर
हाथ फेरा कि मैं आदमी था, भला-चंगा गया था, यह कौन-सी सिद्धि हो गई कि दर्पण में बंदर दिखाई पड़ रहा है!
रात ही पहुंचा साधु के पास भागता हुआ कि भइया, यह मंत्र तुम्हारा सम्हालो, यह सिद्धि मुझे नहीं
करनी। मार डाला! मुझे ही नहीं मार डाला, मेरे परिवार को भी
मार डाला! यह तुमने क्या बात कह दी कि बंदर को याद मत करना! बस, अड़चन उसी से हो गई। वह जो याद न करना!
अब यह तुम्हें पता नहीं कि अगर तुम यह सूत्र मान कर चलोगे कि पूर्व
परिचित स्त्री का स्मरण न करे, तो पूर्व परिचित स्त्री ही स्मरण
आएगी। वही-वही स्मरण आएगी।
"स्त्रियों के चित्रों को भी न देखे।'
क्या डरपोकपन है, हद हो गई! चित्र में क्या है!
कागज है, लकीरें खिंची हैं, उससे भी डर
लग रहा है! लेकिन दमित काम यही उपद्रव खड़ा कर देता है--कागज में भी स्त्री दिखाई
पड़ने लगेगी चलती-फिरती! निकल आएगी कागज में से बाहर, बातें
करने लगेगी कि स्वामी जी, भले पधारे, पवित्र
कर दिया घर को! और तुम्हारे प्राणों पर सांप लोट जाएंगे कि मारा, अब भाषण भी हुआ जा रहा है। अब न बोलें तो नहीं बनता, बोलें तो नहीं बनता। कागजों में से स्त्रियां निकलने लगेंगी।
"स्त्रियों से संबंधित चर्चा न सुने।'
और यह क्या है? त्र्यंबक भावे, यह क्या हो रहा
है यहां? स्त्रियों से संबंधित चर्चा चल रही है। और ये नारद
क्या कर रहे हैं उपनिषद में? स्त्रियों की चर्चा कर रहे हैं।
और जितने तुम्हारे शास्त्रों में स्त्रियों की चर्चा है, कहीं
और नहीं। स्त्रियों ही स्त्रियों की चर्चा है। खूब वर्णन किया है स्त्रियों का!
जैसा तुम्हारे महात्माओं ने स्त्रियों का नख-शिख वर्णन किया है, कवियों को भी मात दे दी! पानी पिला दिया! चारों खाने चित कर दिया! क्या
वर्णन किया है!
और क्या बाहर-भीतर की बातें कहीं--गहरी बातें कह दीं! कि स्त्री के
भीतर क्या है वह भी बता दिया, कि मल-मूत्तर, कफ-वात-पित्त!...क्या-क्या ज्ञानी थे!...हड्डी-मांस-मज्जा! और जैसे खुद के
भीतर सोना-चांदी भरा हो! शर्म भी न आई यह सब कहते हुए!
"क्योंकि स्त्री-संबंधी चर्चा और उसका स्मरण,
चित्रावलोकन तथा संभाषण आदि से मन में विकार की उत्पत्ति होती है।'
इससे झूठी और कोई बात नहीं हो सकती। मन में विकार है, इसलिए स्त्री में विकार दिखाई पड़ता है। स्त्री के कारण मन में विकार नहीं
होता। मन में विकार है, इसलिए धन में लोभ मालूम पड़ता है।
नहीं तो धन में क्या लोभ है? सौ का नोट पड़ा रहे पड़ा रहे,
तुम्हारा क्या ले रहा है! सौ का नोट कुछ तुम्हारा बिगाड़ सकता है?
सौ का हो कि हजार का हो! नोट तुम्हारा क्या करेगा, कागज कागज है!
मगर ले जाओ सौ का नोट तुम विनोबा भावे के पास, वह फौरन आंख बंद कर लेते हैं। यही नारद परिव्राजकोपनिषद उनको भी दिक्कत दे
रहा है। आंख बंद कर लेते हैं, कि सौ का नोट, हरियल, घबड़ाहट फैल जाती है भीतर! कहीं लोभ पैदा न हो
जाए!
सौ का नोट लोभ पैदा करेगा? नोट लोभ पैदा कर सकता
है? लोभ होगा तो नोट प्रकट करेगा। और तब तो मैं कहूंगा कि
खोल कर आंख देख लो, ताकि जो भीतर है वह प्रकट हो जाए। मन में
विकार की उत्पत्ति बाहर से नहीं आती, मन में विकार है,
बाहर तो पर्दे हैं। तुम्हारे विकार बाहर जाकर आरोपित हो जाते हैं।
और तुमने पूछा कि यह सूत्र कहता है कि ऐसा करेगा तो योग-भ्रष्टता का
कारण होता है।
नहीं, अगर योग ही हो तो फिर कोई भ्रष्ट नहीं होता। योग न हो
तो भ्रष्ट है ही! योग का अर्थ समझो। योग का अर्थ है: व्यक्ति और परमात्मा का मिलन।
जहां व्यक्ति और परमात्मा मिल जाता है, वहां योग है। वहां से
कोई कभी न भ्रष्ट हुआ है, न हो सकता है।
पलटू सुभ दिन सुभ घड़ी, याद पड़ै जब नाम।
लगन महूरत झूठ सब, और बिगाड़ैं काम।।
आज इतना ही।
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