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गुरुवार, 11 मई 2017

नहीं राम बिन ठांव-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-01

नहीं राम बिन ठांव-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो
प्रवचन-पहला
दिनांक 25 मई सन् 1974
ओशो आश्रम, पूना।

राम-संकेत
निश्चित ही, मेरे करीब तुम्हें बहुत बार लगेगा, नहिं राम बिन ठांव। लेकिन यह मेरे बिना भी लगने लगे, यही तुम्हारे ध्यान में गंतव्य होना चाहिए।

प्रश्न:
भगवान श्री, इसके पूर्व कि हम पूछें, हम अपने प्रणाम और आभार निवेदित करते हैं।
संतों ने सदा कहा है: नहिं राम बिन ठांव।
यही आप भी कहते हैं।
शाब्दिक तल पर हम इससे परिचित हैं, इससे अधिक नहीं।
कृपापूर्वक बताएं कि इससे क्या अभिप्रेत है?

 शब्द के तल पर जो परिचय है उसे परिचय कहना भी ठीक नहीं। धर्म के आयाम में, शब्द से बड़ा कोई धोखा नहीं है।
शब्द तो समझ में आ जाता है, उसमें जरा भी कठिनाई नहीं, लेकिन शब्द में जो छिपा है वह समझ के बाहर रह जाता है। वहीं असली कठिनाई है।

और शब्द समझ में आ जाए, शब्द में जो छिपा है वह समझ के बाहर रह जाए, तो जीवन में बड़ा उपद्रव पैदा होता है। अज्ञानी रहते हुए ज्ञानी होने का भ्रम शुरू हो जाता है। इससे बड़ी मुसीबत दूसरी नहीं है। जानते नहीं हैं; और लगता है, जानते हैं।
और जीना तो वहां से होगा, जहां जानना है। जीवन तो जानने से रूपांतरित होगा। इस भ्रांति के कारण कि शब्द को जान लिया, इसलिए धर्म को जान लिया, हमारा जीवन एक दिशा में और हमारा मन दूसरी दिशा में यात्रा करता है। अक्सर वे दिशाएं विपरीत होती हैं।
पाखंड, हिपोक्रेसी इसलिए तथाकथित धार्मिक आदमी की जीवन-चर्या बन जाता है। तथाकथित धार्मिक आदमी नितांत पाखंडी मालूम होता है। कहता कुछ है, जीता कुछ है। और उसके जीवन और उसके कहने में, कहीं कोई तालमेल नहीं दिखाई पड़ता। यह जो गैरत्तालमेल है, यह पैदा होता है शब्द को समझ लेने से। इस संबंध में कुछ बातें और विचार कर लें, फिर हम प्रश्न को लें।
ईश्वर, आत्मा, मोक्ष, सुनते ही समझ में आ जाते हैं। क्योंकि अर्थ हमें शब्दकोश में जो लिखा है वह पता है। मोक्ष का अर्थ हमें मालूम है, ईश्वर का अर्थ हमें मालूम है, आत्मा का अर्थ हमें मालूम है। लेकिन अर्थ तो अस्तित्व नहीं है। ईश्वर कहने से, ईश्वर सुनने से, ईश्वर का कोई भी पता नहीं चलता। ईश्वर शब्द तो ईश्वर नहीं है। जो बोल रहा है, उसने अगर जाना है, तो भी वह अपने ज्ञान को आप तक नहीं पहुंचा सकता। शब्द ही जाएंगे, ज्ञान तो पीछे रह जाएगा। शब्द याददाश्त के हिस्से हो जाएंगे, स्मृति भरी-पूरी हो जाएगी, स्मृति सघन हो जाएगी, स्मृति का बोझ हो जाएगा, स्मृति शास्त्र बन जाएगी। और आपको भ्रांति पैदा होगी कि ईश्वर को मैं जानता हूं, क्योंकि ईश्वर शब्द को आपने सुना, पढ़ा और भाषाकोश में अर्थ लिखा है।
लेकिन बिना ईश्वर तक गए कोई कैसे ईश्वर को जान सकेगा? काश, इतना सरल होता कि भाषाकोश को जानकर हम ईश्वर को जान लेते, तो अब तक पृथ्वी पर कोई अज्ञानी न बचता, अभी तक सभी ज्ञानी हो गए होते। अगर मोक्ष का अभिप्राय, मोक्ष शब्द की व्युत्पत्ति में, उसके व्याकरण में छिपा होता, तो सभी मुक्त हो गए होते, बंधन में कोई भी न होता।
शब्द को जानना कितना सरल है!
लेकिन मन यात्रा से बचना चाहता है, तो भ्रांति पैदा करता है। मन यात्रा से बचना चाहे, यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि यह यात्रा मृत्युऱ्यात्रा होने वाली है। ईश्वर को खोजने जो निकलेगा, वह स्वयं को खो देगा। भाषाकोश को देख लेने से स्वयं के खोने का कोई संबंध नहीं। शास्त्र को कंठस्थ कर लेने से स्वयं के मिटने का कोई सवाल नहीं। लेकिन जो मोक्ष खोजने जाएगा, वह मिटेगा। क्योंकि मिटे बिना कोई मोक्ष नहीं, कोई मुक्ति नहीं। मूलतः, मैं ही मेरा बंधन हूं, तो जब तक मेरा मैं विसर्जित न हो जाए तब तक कैसा मोक्ष? मैं ही मेरे और परमात्मा के बीच दीवार हूं, जब तक यह दीवार न गिर जाए तब तक कैसे परमात्मा की अनुभूति?
यह यात्रा मृत्युऱ्यात्रा है। साधक मरने ही निकला है।
लेकिन मरकर ही परम जीवन उपलब्ध होता है। खोकर ही स्वयं को पाया जाता है।
और इसलिए मन डरता है। मन भ्रांतियां पैदा करता है। मन परिपूरक खोजता है।
इस परिपूरकता के नियम को ठीक से समझ लें। मन की सबसे बड़ी कला परिपूरक, सब्सटीटयूट खोजना है। जो जीवन में न मिल पाए, मन उसे स्वप्न में दे देता है।
आप प्यासे हैं, रात गहरी नींद में सोए हैं। प्यास तड़फाती है, नींद टूटेगी, उठना पड़ेगा, पानी खोजना पड़ेगा, झरने तक जाना पड़े। तो मन एक परिपूरक निर्मित करता है, एक स्वप्न शुरू हो जाता है। झरना बह रहा है, आप झरने तक पहुंच गए हैं, खूब हृदयपूर्वक प्यास को बुझा रहे हैं। नींद जारी रहती है, नींद को टूटने की कोई जरूरत नहीं है। यह तो सुबह उठकर ही पता चलता है कि रात जो पानी पीया वह झूठा था, जिस सरोवर पर गए वह स्वप्न था और जो प्यास मिट गई वह मिटी नहीं थी, वह भ्रांति थी। लेकिन यह तो सुबह जागने पर ही पता चलता है। रात नींद निश्चिंतता से पूरी हो जाती है। नींद न टूटे, इसलिए मन परिपूरक पैदा करता है।
जीवन में भी, नींद न टूटे, मन परिपूरक पैदा करता है।
ईश्वर को जानने चलेंगे, तो नींद टूटेगी। और नींद में हमारा बड़ा स्वार्थ है, क्योंकि हमने अब तक जन्मों-जन्मों तक नींद को ही संवारा है, वही हमारी निर्मिति है। परिवार हो हमारा, मित्र हों, पत्नी हो, बच्चे हों, धन हो, दौलत हो, पद-प्रतिष्ठा हो, सब हमारी नींद का हिस्सा है। नींद के टूटते ही यह सब भी बिखर जाएगा। इस सबमें भी जो जोड़ हैं, वे नष्ट हो जाएंगे। नींद टूटेगी तो यह पूरा संसार, जिसे हम अब तक संसार समझे हैं, जिन्हें अपना समझा है, वे सब खो जाएंगे। सुबह जागकर सपने के मित्र वापस नहीं मिल सकते। सुबह जागकर सपने के महल वापस नहीं पाए जा सकते। सुबह जागकर सपने की जो संपदा थी, उसे खोजने का कोई भी उपाय नहीं, वह खो गई, सदा को खो गई।
यह सब हमने स्वप्न में बनाया है। इसलिए डर है, स्वप्न टूट न जाए, नींद टूट न जाए, तो हम मूर्च्छित जीते हैं।
मन मूर्च्छा का नाम है।
और जहां भी टूटने का डर पैदा होता है, मन तत्क्षण परिपूरक पैदा करता है।
ईश्वर को जानने में नींद टूटेगी। लेकिन शब्द ईश्वर को जानने में नींद को टूटने का कोई भी कारण नहीं, बल्कि नींद और मजबूत हो जाती है, नींद और गहरी लग जाती है। ईश्वर को खोजने जाएंगे तो संसार मिटेगा। यह शब्द ईश्वर को कंठस्थ कर लेने से, ईश्वर भी संसार का ही हिस्सा हो जाता है। इसलिए हम मंदिर बनाते हैं, मस्जिद बनाते हैं, गुरुद्वारा बनाते हैं। जहां हमने दुकान बनाई, जहां हमने मकान बनाया, उन्हीं के पास हम मंदिर-मस्जिद भी बना देते हैं, वे भी हमारे इस संसार के हिस्से हो जाते हैं। हिंदू है, मुसलमान है, ईसाई है, सिक्ख है, जैन है, संसार के झगड़े हैं, हम धर्मों के झगड़े भी उसमें जोड़ देते हैं। जैसे कि झगड़े कम हों, जैसे कि राजनीति काफी न हो, जैसे कि और उपद्रव पर्याप्त नहीं हैं, तो हम धर्मों के उपद्रव भी जोड़ देते हैं, हम उनके लिए भी लड़ते हैं। वैसे ही प्रतिस्पर्धा काफी है--राष्ट्रों की है, धन की है, पद की है--हम धर्मों की प्रतिस्पर्धा भी जोड़ते हैं। हम धर्म को भी संसार का हिस्सा बना लेते हैं, यह मन की कला है।
आपको खयाल हो, आप सबने ऐसे सपने देखे होंगे, जिनमें ऐसा लगता है कि हम जाग रहे हैं। सपने में जागने का सपना देखा जा सकता है। सपने में आप देख सकते हैं कि अलार्म बज गया, सुबह हो गई, मैं उठ खड़ा हुआ, सपना टूट गया--और यह भी सपना है। यह तो सुबह ही, जब असली सुबह आएगी, तब पता चलेगा कि सपने में भी जागने का सपना देखा जा सकता है। और सबसे खतरनाक सपना वही है जिसमें जागने का सपना देखा जा सके, क्योंकि फिर उसमें भ्रांति पूरी हो जाती है।
तो जो व्यक्ति संसार में धार्मिक होने का सपना देख लेता है, इससे बड़ा और कोई सपना नहीं है। बजाय इसके कि हम जाएं खोज में, हम झूठे परमात्मा अपने आसपास निर्मित कर लेते हैं। अगर हम असली परमात्मा की खोज में जाएंगे तो हम मिटेंगे। खुद को बचाने के लिए हम नकली परमात्मा ईजाद कर लेते हैं।
धर्मशास्त्र कहते हैं कि परमात्मा ने जगत बनाया। ठीक कहते होंगे। लेकिन अगर हम परमात्माओं को देखें, जो आदमी के आसपास हैं, तो वे आदमी के बनाए हुए हैं। मंदिर में जो मूर्ति रखी है वह आपने बनाई है। और कुशल है अदभुत आदमी! खुद की बनाई मूर्ति के सामने झुकता है, प्रार्थना-पूजा करता है। खुद गढ़ता है मूर्ति को, उसके ही हाथ की निर्मिति है, खुद ही प्रतिष्ठित करता है, पत्थर को उठाकर परमात्मा बना लेता है, फिर उसके सामने घुटने टेकता है। अदभुत खेल है। पूजा-प्रार्थना करता है। खिलौनों के सामने पूजा चलती है। और प्रसन्न घर लौटता है कि परमात्मा के मंदिर होकर आया हूं।
शब्दों से यह जाल निर्मित हुआ। इसलिए ठीक पूछा है कि शब्द से समझ में आता है।
शब्द से वस्तुतः कुछ भी समझ में नहीं आता, समझने की परिपूरकता पैदा होती है। लगता है, समझ में आया। और यह लगना बुरा है।
तो पहली बात तो यह समझ लें कि शब्द की समझ का कोई भी मूल्य नहीं, वह नासमझी को छिपाने का उपाय है। वह जैसे हम नग्नता को वस्त्रों से छिपा लेते हैं, फिर भी भीतर तो नग्न ही बने रहते हैं, कोई नग्नता मिटती नहीं। और अगर आप होशियार हों तो इस तरह के वस्त्र पहन सकते हैं कि नग्नता और उभरकर दिखाई पड़े। नंगा आदमी इतना नग्न कभी नहीं होता, नग्न स्त्री इतनी नग्न कभी नहीं होती, जैसा कि वस्त्रों से नग्नता को उभारकर दिखाया जा सकता है।
आपके शब्द, आपकी झूठी समझ, आपकी भीतर की दरिद्रता को भरेगी नहीं, मिटाएगी भी नहीं, सिर्फ ढंक लेगी। और कभी आप इस तरह इस समझ का उपयोग कर सकते हैं कि आपके पांडित्य से आपकी मूढ़ता और भी प्रगाढ़ होकर प्रगट हो। मूढ़ में तो एक तरह की सरलता होती है। मूढ़ में एक तरह का निर्दोष भाव होता है। पंडित? पंडित की मूढ़ता बड़ी जटिल है, बड़ी सूक्ष्म है। और अगर आपके पास जरा-सी भी देखने की आंखें हों तो आप पाएंगे कि पंडित से बड़ा मूढ़ खोजना मुश्किल है। उसकी मूढ़ता सब तरफ से प्रगट होकर दिखाई पड़ती है। ढांका उसने बहुत है। पर जो-जो हम ढांकते हैं, उस-उस से खबर भी मिलती है कि हमें उसका पता है। जो-जो हम ढांकते हैं, वह-वह हम उघाड़कर दिखा भी रहे हैं। क्योंकि हर ढांकी चीज खबर देती है कि कुछ ढांका गया है, कुछ ढांकने योग्य था।
अपढ़, अज्ञानी, जिसने अपने को ढांका नहीं, उसकी नग्नता आदिवासी जैसी नग्नता है। वह नंगा खड़ा है। उसे नग्नता का भी कोई पता नहीं है।
लेकिन पंडित की मूढ़ता वेश्या जैसी नग्नता है। उसने बहुत वस्त्रों में उसे ढांका है, सब तरफ से छिपाया है; और फिर भी छिपाने से वह प्रगट हो रही है। छिपाया ही इसलिए है कि कहीं प्रगट न हो जाए।
शब्द की समझ समझ नहीं है, यह समझ में आ जाए तो पहला कदम उठा। शास्त्र से मिला हुआ ज्ञान ज्ञान नहीं है, यह बोध में आ जाए तो ज्ञान की पहली किरण उतरी।
और तब कठिन नहीं होगा शास्त्र को हटाकर रख देना। तब कठिन नहीं होगा शब्दों के जाल को तोड़कर बाहर आ जाना। कठिन इसलिए है कि हमें लगता है कि वह समझ है। हाथ में पत्थर रखे हों और हमें खयाल हो कि हीरे हैं तो छोड़ना मुश्किल होता है। पत्थर की वजह से नहीं, खयाल है कि हीरे हैं। खयाल आ जाए कि पत्थर हैं, हीरों की भ्रांति थी, तो छोड़ने में क्या अड़चन है। छोड़ना पड़ेगा ही नहीं। स्मृति आते ही, बोध आते ही कि पत्थर हैं, पत्थर गिर जाएंगे।
शब्दों के पत्थरों को गिर जाने दें, तो अर्थ का उदय होगा।
धर्म के आयाम में शब्द से अर्थ का उदय नहीं होता। निःशब्द से अर्थ का उदय होता है। शब्दों को हटाएं, तो निःशब्द की धारा प्रगट होगी।
पूना में जो नदी है, वह ढंक जाती है, पत्तों ही पत्तों से ढंक जाती है। पानी उसमें दिखाई ही नहीं पड़ता। एक हरियाली फैल जाती है। वैसा ही आपका मन है। पत्तों को हटाएं तो नीचे सरिता बह रही है। शब्द को हटाएं तो नीचे अर्थ की सरिता छिपी है।
और सब दिशाओं में बात भिन्न है। जब मैं कहता हूं वृक्ष, शब्द सुनते ही अर्थ भी समझ में आ जाता है। जब मैं कहता हूं सरिता, सागर, मकान, तो शब्द सुनते ही अर्थ भी समझ में आ जाता है। लेकिन जब मैं कहता हूं ईश्वर, आत्मा, मोक्ष, शब्द सुनाई पड़ता है, अर्थ समझ में नहीं आता।
वृक्ष कहते ही समझ में आ जाता है, क्योंकि वृक्ष आपका भी अनुभव है। इसलिए शब्द संकेत करता है, और आपका अनुभव है, इसलिए समझ में आ जाता है। सागर कहते ही समझ में आ जाता है, क्योंकि आपका भी अनुभव है। लेकिन दूर रेगिस्तान में बसा एक आदमी, जिसने सागर कभी नहीं देखा, जिसने सागर का कोई चित्र भी नहीं देखा, उससे हम सागर शब्द कहें, उसे कुछ भी समझ में नहीं आता। वह सुनता है, बौद्धिक रूप से समझने की कोशिश भी करता है। हम उसे समझा भी दे सकते हैं कि जैसे यहां रेत का विस्तार है, ऐसा ही जल का विस्तार है, तो एक प्रतीति भी बनती है, एक प्रत्यय, एक कंसेप्ट भी आ जाता है। लेकिन फिर भी सागर के किनारे खड़े होकर जिसने सागर को देखा, या जिसने सागर में उतरकर और सागर में तैरकर देखा, जिसने सघफग की है सागर में, उसका अनुभव मरुस्थल में बैठे आदमी के किसी भी प्रत्यय से पूरा नहीं होता।
जब मैं कहता हूं परमात्मा, तो न तो आप परमात्मा के किनारे गए, न परमात्मा में उतरकर तैरे, न परमात्मा की लहरों से आपकी कोई संगति बनी, कोई संबंध हुआ, न उन लहरों के संगीत में आप विलय हुए। आपकी बूंद दूर ही दूर रही।
बूंद डरती है, सागर में जाएगी तो खो जाएगी।
यह डर सच भी है और फिर भी असत्य है। बूंद खोएगी निश्चित ही, लेकिन खोने में कुछ भी हानि नहीं है, क्योंकि खोकर बूंद सागर हो जाएगी। छोटा मिटेगा, बड़ा उपलब्ध होगा। ना-कुछ खोएगा, सब कुछ मिलेगा। लेकिन जो मिलेगा उसका बूंद को अभी कोई पता नहीं। अभी तो जो खोएगा उसका ही पता है। इसलिए डर है, इसलिए भय है।
शब्द को हटाएं। हटाने का पहला कदम यह होगा कि समझ लें कि शब्द से यहां कोई गति नहीं है। संतों के वचन पाठशालाओं में नहीं समझाए जा सकते। संतों ने जो कहा है, विश्वविद्यालयों से उसका कोई संबंध नहीं जोड़ा जा सकता। संतों ने जो कहा है, उसे शास्त्रों में लिपिबद्ध किया गया, पर किया नहीं जा सका। ऊपर-ऊपर की खोल तो लिपिबद्ध हो गई, भीतर-भीतर का सार छूट गया। बाहर-बाहर की रेखाएं तो पकड़ में आ गईं, भीतर की आत्मा से कोई संस्पर्श नहीं हो पाया।
यह वचन, नहिं राम बिन ठांव, अनूठा है। इस एक वचन में सारे वेद, सारे उपनिषद, सारी गीताएं समा जाती हैं। इस एक वचन को समझ लें तो फिर कुरान और बाइबिल को समझने की कोई जरूरत नहीं रह जाती। यह छोटा-सा वचन आणविक शक्ति जैसा है। एक छोटे से अणु में इतनी विराट ऊर्जा! और जिन संतों ने कहा है, जिन संतों ने ऐसे छोटे-छोटे आणविक वचन कहे, वे कोई बहुत पढ़े-लिखे लोग नहीं थे।
यह बड़ी हैरानी की बात है कि पढ़े-लिखे लोग अक्सर संतत्व को उपलब्ध नहीं हो पाते। अपवाद मिल जाएं, बाकी नियम यही है कि बहुत पढ़े-लिखे लोग संतत्व को उपलब्ध नहीं हो पाते। क्योंकि बहुत पढ़े-लिखे लोग परिपूरक चीजें खोजने में इतने कुशल हो जाते हैं, इतने निष्णात, खुद को धोखा देने में उनकी क्षमता इतनी प्रगाढ़ हो जाती है, कि रंगे हाथों खुद को वे कभी पकड़ ही नहीं पाते कि वे क्या कर रहे हैं।
गैर पढ़े-लिखे लोग--कबीर, दादू, नानक--सरलता से प्रवेश कर जाते हैं। बहुत बोझ नहीं है उतारकर रखने को। बहुत दीवाल भी नहीं है तोड़ने को। जरा-सा धक्का और सब गिर जाता है।
यह जो वचन है, ऐसे ही गैर पढ़े-लिखे लोगों के जीवन-अनुभव का सार है।
वचन तो साफ है, शब्द में तो कोई कठिनाई नहीं है: राम के बिना और कोई ठिकाना नहीं; राम के बिना और कोई छाया नहीं, कोई शरण नहीं; राम के बिना और कोई उपाय नहीं।
कैसी मनोदशा में इसका स्मरण आता होगा?
हमें धन में शरण दिखाई पड़ती है, धन में ठांव दिखाई पड़ती है। चारों तरफ जो लोग हैं, उनकी भाषा धन की है, वे आदमी को तौलते भी धन से हैं। कितना है तुम्हारे पास, वही तुम्हारी आत्मा का वजन है। कुछ भी नहीं है तुम्हारे पास तो तुम्हारे पास कोई आत्मा भी नहीं है।
संपदा, कोई भी मुद्राओं में हो, बाहर है--और तुम भीतर हो। क्या तुम्हारे पास है, वह कभी भीतर नहीं जा सकता। तिजोरियों को भीतर ले जाने का कोई भी उपाय नहीं, वे बाहर ही रहेंगी। बड़े साम्राज्य हों, उनको भी भीतर ले जाने का कोई मार्ग नहीं, वे बाहर ही रहेंगे। और तुम सदा भीतर हो और तुम्हें बाहर ले जाने का कोई उपाय नहीं।
इसलिए संपदा और आत्मा का कभी भी मिलन नहीं होता। आत्मा का अर्थ है आंतरिकता, संपदा का अर्थ है बाहर, सदा बाहर। कहीं भी ये दो रेखाएं एक-दूसरे को नहीं काटतीं। इनका कहीं कभी मिलन ही नहीं होता, होने का कोई उपाय ही नहीं है। ये आयाम अलग, जगत अलग।
पर हम तौलते हैं आदमी को, क्या है उसके पास, कितनी शिक्षा, कितना पद, कितनी बड़ी कुर्सी, सिंहासन। क्या है तुम्हारे पास, वही तुम हो--यह हमारा मापदंड है।
यह मापदंड सरासर असत्य है। इस मापदंड के कारण अगर हमसे कोई पूछे, हमारा भीतरी अनुभव पूछे, तो धन के बिना कोई ठांव नहीं, यह हमारे अनुभव का निचोड़ होगा। हम संतों को भी तौलते हैं तो धन से।
महावीर अगर गरीब घर में पैदा होते, तो जैन उन्हें तीर्थंकर मानने वाले नहीं थे। यह मैं निश्चय से कहता हूं, क्योंकि जैनों के चौबीस तीर्थंकर ही राजाओं के पुत्र हैं। सोचने जैसा है कि हजारों-हजारों सालों में एक भी व्यक्ति ऐसा पैदा न हुआ जो गरीब घर से आया हो और तीर्थंकर हो सके? राजाओं के बेटे ही तीर्थंकर हो सकते हैं? तो भविष्य निराशाजनक है, क्योंकि अब राजा नहीं रहे और अब कोई तीर्थंकर नहीं हो सकेगा। अब बड़ी कठिनाई है। बुद्ध, तीर्थंकर, जिन, बुद्धत्व को उपलब्ध हुए, पर लोकमानस उन्हें भी स्वीकार न करता अगर वे राजपुत्र न होते। राम और कृष्ण को गरीब घर में पैदा करके देखो, वे अवतार की तरह स्वीकार न हो सकेंगे। हमारा मन संतों को भी धन से ही तौलता है।
तो अगर जैनों का शास्त्र पढ़ें या बौद्धों का शास्त्र पढ़ें, तो जैन गिनाते हैं कि कितना बड़ा साम्राज्य महावीर के पास था। था नहीं उतना बड़ा, क्योंकि उन दिनों के साम्राज्य छोटी-छोटी जमींदारियां थे। हिंदुस्तान में कोई दो हजार राजा थे उस समय, तो कितना बड़ा साम्राज्य हो सकता है? एक छोटे जिले से ज्यादा बड़ा नहीं हो सकता। एक छोटे-मोटे जमींदार महावीर के बाप थे, कोई बहुत बड़े राजा नहीं थे। और अगर महावीर पैदा न होते तो कोई इतिहास में उनके बाप का नाम नहीं हो सकता था। मगर जैन गिनाते हैं कि इतना बड़ा साम्राज्य, इतने घोड़े, इतने हाथी। जितने घोड़े और हाथी वे गिनाते हैं, उतने घोड़े और हाथी उस छोटे से राज्य में खड़े भी नहीं किए जा सकते। इतने हीरे-जवाहरात! यह सब झूठ है।
लेकिन इसमें एक सत्य छिपा है। और वह सत्य यह है कि जैन का मन यह मानने को नहीं होता कि मेरा तीर्थंकर और छोटे घर से आता हो। इस सत्य को पकड़ना, जानना जरूरी है। मेरा तीर्थंकर चक्रवर्ती सम्राट होगा! कि हमारा तीर्थंकर और कैसे साधारण घर से आ सकता है? तो धन का झूठा विस्तार महावीर के चारों तरफ खड़ा किया जाता है।
महावीर जब बोलते हैं, तो हजारों मील लंबा स्थान घेरना पड़ता है जहां सुनने वाले इकट्ठे होंगे। सुनने वालों की संख्या बहुत बड़ी करके बतानी पड़ती है, क्योंकि अगर दस-पांच ही सुनने वाले महावीर को हों, तो हमें लगेगा कि महावीर की हैसियत ही कुछ नहीं। अरबों-खरबों लोग सुनते हैं। हालांकि यह असंभव है। आज तो संभव है, क्योंकि माइक है, लाखों लोग भी सुन सकते हैं। महावीर के समय में यह संभव नहीं कि लाखों लोग सुन सकें। अनिवार्यरूपेण महावीर छोटे-छोटे समूह में बोले। पर जैन का मन नहीं मानता, क्योंकि संख्या हमारा मूल्य है। कितने लोग!
फिर हम झूठ और सच की फिक्र नहीं करते। भक्त और दुश्मन कभी झूठ और सच की फिक्र नहीं करते। प्रेमी झूठ बोलता है, अतिशय करता है। शत्रु भी झूठ बोलता है, अतिशय करता है। घृणा और प्रेम में हम सब भूल जाते हैं। सचाई, झूठ, फिर सब सीमाएं तोड़कर नदी बहने लगती है।
वैसा ही हम बुद्ध के लिए गिनाते हैं। वैसा ही हम राम और कृष्ण के लिए गिनाते हैं। उस गिनती से उनके पास कितना था, इसका कोई संबंध नहीं है। उस गिनती से हमारे मापदंड का पता चलता है कि अगर उनके पास कुछ भी न हो, तो हम स्वीकार न कर सकेंगे। हमारी स्वीकृति मुश्किल में पड़ जाएगी। धन को बड़ा करते हैं, उससे ही हमें आत्मा के बड़े होने का पता चलता है। महावीर ने कितना छोड़ा, इससे हम त्याग को नापते हैं। अगर महावीर के पास कुछ भी न हो, तो फिर हम महावीर को त्यागी भी न कह सकेंगे, क्योंकि जब कुछ छोड़ा ही नहीं तो त्यागी कैसे?
हमारी धारणा में भी नहीं आ सकता कि एक भिखमंगा भी त्यागी हो सकता है। क्योंकि त्याग का कोई संबंध, कितना छोड़ा है, इससे नहीं, छोड़ने के भाव से है।
क्या आप सोचते हैं कि एक आदमी के पास एक पैसा है, वही उसकी कुल संपदा है; और एक आदमी के पास करोड़ रुपया है; जिसके पास करोड़ है वह आधा करोड़ छोड़ देता है और जिस आदमी के पास एक पैसा है वह पूरा पैसा छोड़ देता है; आपके हिसाब से आधा करोड़ जिसने छोड़ा वह बड़ा त्यागी, क्योंकि आप एक पैसा और आधा करोड़ का हिसाब लगाएंगे। लेकिन जो जानते हैं, उनके हिसाब से एक पैसा जिसने छोड़ा, वह बड़ा त्यागी है; क्योंकि उसने पूरा छोड़ दिया जो भी उसके पास था और जिसने आधा करोड़ छोड़ा उसने आधा ही छोड़ा है।
लेकिन फिर भी एक पैसा हमें चाहिए हिसाब लगाने को। अगर बिलकुल कुछ भी न हो किसी के पास और वह कह दे कि छोड़ा, तो हम उस पर भरोसा ही नहीं करेंगे। हम कहेंगे, तुम्हारे पास कुछ है नहीं, तुमने छोड़ा क्या?
छोड़ने का कोई संबंध होने से नहीं है। छोड़ना एक भाव है। लेकिन उस भाव को हम कैसे नापें? नाप का मापदंड तो मुद्रा है। कितना है, उससे त्याग नापा जाता है। अब यह बड़े मजे की बात है। त्याग को भी हम धन से नापते हैं, भोग को भी धन से नापते हैं। नाप ही हमारे पास धन है। धन हमारी शरण है।
और जब तक धन हमारी शरण है, तब तक राम हमारी शरण नहीं हो सकते।
नहिं राम बिन ठांव--कब, किस मनोदशा में उठेगा?
जब धन की भ्रांति टूटती है। और जब लगता है कि धन व्यर्थता है। और जब लगता है कि धन को कितना ही पा लूं तो भी कुछ नहीं पाया जाता।
धन संघर्ष है राम से, वह एक लड़ाई है। धन समर्पण से बचने का उपाय है। धन का मतलब है, मेरे पास खुद शक्ति है, मैं क्यों समर्पण करूं? मैं क्यों किसी की शरण जाऊं, लोग मेरी शरण आएंगे। धन दूसरों को शरण में बुलाने की व्यवस्था है।
इसलिए जीसस बहुत जोर देते हैं कि जो निर्धन नहीं, वह मेरे पास न आ सकेगा। जीसस कहते हैं कि सुई के छेद से ऊंट भी निकल जाए, लेकिन परमात्मा के द्वार से धनी न निकल सकेगा।
इसका यह मतलब नहीं है कि जिनके पास धन है वे सदा वंचित रहेंगे। धन का बड़ा सवाल नहीं है, लेकिन धन जिनका मूल्य है। चाहे आपके पास कुछ भी न हो, आप भीख मांगते हों, लेकिन आपका मूल्यांकन धन है, आपके जीवन का ढांचा धन है, सोचते धन से हैं, हिसाब धन से लगाते हैं, तो आप निर्धन हों भला, लेकिन आप परमात्मा के द्वार पर प्रवेश न कर सकेंगे।
क्यों? क्योंकि जिसका धन में भरोसा है, उसका खुद में भरोसा है। धन में भरोसे का अर्थ है, खुद में भरोसा है।
राम में भरोसे का अर्थ है, खुद में भरोसा समाप्त। वह स्वयं के संकल्प का अंत है। जिसको हम विल-पावर कहते हैं, संकल्प की शक्ति कहते हैं, उस शक्ति से भरे हुए आदमी को यह वचन बिलकुल ही व्यर्थ मालूम पड़ेगा। उस आदमी को तो लगता है कि मेरी शक्ति मैं हूं। मेरी शक्ति मुझसे आती है। मेरी सफलता मुझसे आती है। धन, पद, यश, मुझसे आता है। शक्ति का स्रोत मैं हूं। मैं धन पैदा करूंगा। मैं साम्राज्य को बड़ा करूंगा। मैं अपनी शक्ति को बढ़ाऊंगा, मैं मृत्यु से जूझूंगा, लडूंगा; और एक दिन परम विजय को उपलब्ध हो जाऊंगा।
सांसारिक आदमी का अर्थ है कि जिसका स्वयं पर भरोसा है।
यह बड़ा मुश्किल लगेगा। क्योंकि हम तो स्वयं पर भरोसे का बड़ा मूल्य मानते हैं, सेल्फ कॉन्फीडेंस, स्वयं पर भरोसे को हम सिखाते हैं। हर बच्चे को कहते हैं: खुद के पैर पर खड़े हो जाओ। अपने पर भरोसा रखो। लड़ो, जूझो, डरो मत। तुम जरूर जीतोगे, ऐसी धारणा रखो, तो जीतोगे, तो जीत जाओगे। प्रतिस्पर्धा, प्रतियोगिता, संघर्ष का सूत्र यही है कि अपने पर भरोसा रखो। अपने पर भरोसा खोया तो पैर डगमगा जाएंगे और गिर पड़ोगे। हम प्रत्येक व्यक्ति को यही सिखाते हैं कि तुम महाशक्तिशाली हो, डरो मत, लड़ो। और आज नहीं कल, सब तुम्हारी शरण आ जाएंगे।
जिस दिन यह भ्रमजाल टूटता है, जिस दिन हमें लगता है कि मेरी कोई शक्ति हो कैसे सकती है, क्योंकि मैं ही नहीं हूं। मेरा होना सिर्फ एक धारणा है। मैं तभी हो सकता हूं जब इस सारे अस्तित्व से अलग हो सकूं। एक क्षण श्वास न आए तो मैं समाप्त हो जाता हूं। एक क्षण सूरज न उगे, मेरी मृत्यु हो जाए। यह जो विराट का इतना बड़ा जाल है, इस जाल में कहीं से भी कुछ सरक जाए, तो मेरी ईंटें गिर जाती हैं, मेरा भवन भूमिसात हो जाता है। इस पूरे कॉसमास में, इस जागतिक व्यवस्था में, मैं एक छोटा-सा अंग हूं। और अंग भी ऐसा नहीं कि अलग हो सकूं। अलग होते ही मैं नहीं हूं।
थोड़ा सोचें, अपने को अलग करके सोचें इस विराट से, आप क्या हैं फिर? शून्य हो जाएंगे तत्क्षण।
आपके जीवन की धारा विराट से बहती है। श्वास आती है विराट से, वापस विराट में लौट जाती है। जन्म होता विराट से, वापस मृत्यु में लीन हो जाते हैं। सब उसी से आता है, उसी में वापस लौट जाता है। एक विराट का वर्तुल है जिसमें आप घूमते हैं। आपका होना पृथक नहीं है।
इसलिए संघर्ष किससे? अगर आप पृथक हैं, तो संघर्ष है। अगर आप पृथक हैं, तो दूसरे आपके प्रतियोगी हैं, शत्रु हैं।
ध्यान रहे, जब तक राम को कोई शरण की तरह अनुभव न कर ले, तब तक इस जगत में सभी शत्रु हैं, मित्र कोई भी नहीं। जिसको हम मित्र कहते हैं, वह भी छिपा हुआ शत्रु है, क्योंकि वह भी हम से संघर्ष कर रहा है।
हम यहां बैठे हैं, कोई संघर्ष नहीं मालूम पड़ता। लेकिन अगर हवा में आक्सीजन कम हो जाए तो हम प्रतियोगी हो जाएंगे, कौन श्वास ले! वैज्ञानिक कहते हैं, चूंकि टेक्नोलॉजी के विस्तार से पूरी वायु दूषित होती जा रही है, इस सदी के पूरे होतेऱ्होते वायु इतनी दूषित हो जाएगी कि केवल वे ही लोग आक्सीजन पा सकेंगे जिनके पास धन है। आक्सीजन भी मुफ्त नहीं रह जाने वाली ज्यादा दिन, क्योंकि उसकी एक मात्रा है।
तो बड़े नगरों में, न्यूयार्क और बंबई जैसे नगरों में केवल धनी आक्सीजन पा सकेगा। गरीब को दूषित हवा पर ही रहना पड़ेगा। जैसे गरीब दूषित पानी पर रहता है, गंदे मकान में रहता है, गंदे कपड़ों में रहता है, ऐसे ही गंदी हवा में रहेगा, क्योंकि शुद्ध हवा नहीं खरीद सकेगा। यह संघर्ष बढ़ता जाए तो थोड़े से लोग ही जी सकेंगे जो शुद्ध हवा पा सकते हैं, बाकी लोग मिट जाएंगे।
हम यहां बैठे हैं, लेकिन हम श्वास में अभी भी संघर्ष कर रहे हैं। हम बैठे हैं, लगते हैं शांत हैं, कोई झगड़ा नहीं है, कोई प्रतियोगिता नहीं है, लेकिन भीतर प्रतियोगी बैठा है। मित्र भी छिपे हुए शत्रु हैं। अगर आप पृथक हैं, तो यह पूरा जगत शत्रु है और इससे लड़कर आपको अपने जीवन की सुरक्षा करनी है।
डार्विन जैसे विचारक सरवाइवल आफ द फिटेस्ट, जो योग्यतम है वही बचेगा या जो शक्तिशाली है वही बचेगा, ऐसे सिद्धांतों को जन्म दे सके, क्योंकि उनकी मौलिक धारणा प्रत्येक को पृथक मानने की है। तब जीवन एक उपद्रव है और एक अराजकता है और हिंसा उसका सूत्र है। दूसरे को मिटाकर ही खुद के जीने का उपाय है। आपकी मृत्यु मेरा जीवन है, मेरा जीवन आपकी मृत्यु है।
ऐसे जीवन की धारा में आनंद तो असंभव है। जहां हिंसा सूत्र हो, वहां आनंद असंभव है। जहां हिंसा सूत्र हो, वहां उत्सव असंभव है। जहां हिंसा सूत्र हो, वहां शांति असंभव है। और जहां प्रतिपल लड़ना हो जीवन के लिए, वहां जीवन की समाधिस्थ दशा को पाने का कोई उपाय नहीं। जहां एक-एक श्वास के लिए संघर्ष करना हो और दूसरे की मृत्यु बनना हो, वहां उल्लास और अहोभाव के लिए कहां मौका है, कहां संधि? अगर मैं पृथक हूं--जैसा कि हम सब मानते हैं--तो शत्रुता चारों तरफ है और इस शत्रुता के बीच कैसे अभय को आप पहुंच सकेंगे?
जिस दिन यह भ्रांति गिरती है कि मैं पृथक हूं, यह भाव गिरता है, अस्मिता विलीन होती है, अहंकार विसर्जित होता है, उस दिन तत्क्षण मुझे लगता है कि मैं एक अंग हूं और और अंग भी एक जीवंत जगत का। वह वृक्ष भी, आकाश में भटकता हुआ बादल भी और मैं एक ही मूल-स्रोत की अभिव्यक्तियां हैं, एक ही जीवन-धारा से उठते हैं। यह रूपों का भेद है, मूल-स्रोत एक है। यह आकृतियों की भिन्नता है, लेकिन आत्मा की भिन्नता नहीं। आकृतियां भिन्न हैं, आत्मा एक है। रूप भिन्न हैं, वह जो अरूप सागर सबके भीतर दौड़ रहा है चेतना का, वह एक है।
राम की शरण का अर्थ है कि मैं पृथक नहीं हूं। राम ही एकमात्र ठांव है, इसका अर्थ है कि मैं अपनी पृथकता को विसर्जित करता हूं। मेरा संकल्प अब मेरा सूत्र न होगा। समर्पण अब मेरे जीवन की व्यवस्था होगी। अब मैं छोड़ता हूं संघर्ष और बहना शुरू करता है।
तत्क्षण सारा जगत मित्र हो जाता है। मित्र कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि जहां शत्रु न बचे हों वहां कैसी मित्रता? तत्क्षण सारा जगत एक परिवार हो जाता है। तब जगत के सारे रूपों के बीच एक आंतरिक पारिवारिकता का जन्म होता है। तब सबके भीतर मैं हूं और मेरे भीतर सब है।
इसे ही हिंदू अद्वैतभाव कहते रहे हैं।
नहिं नाम बिन ठांव का अर्थ राम शब्द से मत पकड़ना। इससे कोई हिंदुओं के भगवान का लेना-देना नहीं है। राम से दशरथ के बेटे राम का कोई भी संबंध नहीं है इस सूत्र में। यहां राम का अर्थ अल्लाह है, यहां राम का अर्थ परमात्मा, गॉड। यहां राम का अर्थ उस तत्व से है, जिसमें हम सब जी रहे हैं, जिसमें हम सब श्वास ले रहे हैं, जिसके होने में हमारा होना समन्वित है।
इसे थोड़ा समझें। यदि यह सत्य है, संतों की यह प्रतीति सत्य है कि हम अंग हैं, तो फिर हमारी कोई मृत्यु नहीं हो सकती। क्योंकि व्यक्ति मिटते हैं, लेकिन यह विराट तो सदा बना रहता है। मैं नहीं था, तब भी था। मैं नहीं रहूंगा, तब भी होगा। अगर मैं पृथक हूं तो मेरा जन्म होता है और मेरी मृत्यु होती है। पृथकता का जन्म भी होगा, मृत्यु भी होगी। और अगर मैं पृथक नहीं हूं, तो मैं जन्म के पहले भी था। मेरे रूप भिन्न रहे होंगे। मैं मृत्यु के बाद भी रहूंगा, मेरे रूप कोई भी हों, मिटने का कोई उपाय नहीं। अगर मैं इस सर्व के साथ एक हूं तो जीवन शाश्वत है, तो अनादि है, अनंत है, सदा से है, सदा होगा। भय विसर्जित हो जाता है।
और तब जीवन में उत्सव का उदय होता है। भयभीत हृदय कैसे नाच सकते हैं? मौत प्रतिपल खड़ी है। सब तरफ से मौत झांकती है। जहां देखो वहां मौत की छाया दिखाई पड़ती है। कहीं भी जाओ, मौत पीछा करती है। पृथकता का बोध मृत्यु को जन्म देता है। मैं पृथक हूं तो मौत अनिवार्य है।
अगर मैं एक हूं इस विराट एकता से, मौत समाप्त हो गई। इसका अर्थ हुआ, अहंकार के मिटते ही मृत्यु मिट जाती है। संकल्प के मिटते ही फिर कोई मृत्यु नहीं है, अमृत का जन्म होता है।
इसलिए संत कहते हैं, समर्पण अमृत है।
लोग अमृत को खोजते हैं। पश्चिम में अल्केमिस्टों की पुरानी परंपरा है। पूरब में, चीन में, भारत में, सब मुल्कों में लोग खोजते रहे हैं कि शायद पारद के माध्यम से अमृत मिल जाए, शायद धातुओं में रासायनिक सूत्रों में कहीं अमृत मिल जाए। कोई एक ऐसी चीज, जिसको पीकर आदमी फिर मरता नहीं।
रासायनिक खोजों से अमृत कभी भी न मिलेगा, क्योंकि अमृत कोई रसायन नहीं है, वह कोई केमिकल नहीं है। न पारद से मिलेगा, न स्वर्ण-भस्मियों से मिलेगा, न मोती से।
नहीं, उन सबसे नहीं मिलेगा, क्योंकि अमृत का अर्थ ही कुछ और है। वह रासायनिक प्रक्रिया का फल नहीं है। अमृत का अर्थ है समर्पण। अमृत का अर्थ है जब मृत्यु मर जाए, मृत्यु न बचे। अमृत एक भीतरी भाव है।
अभी आपका भीतरी भाव मृत्यु है। चाहे आप भुलाते हों, छिपाते हों, लेकिन भीतरी भाव मृत्यु है। प्रतिपल आप मृत्यु से डांवाडोल हैं, वह आपके भीतर कंपित हो रही है। प्रतिक्षण शरीर जा रहा है, मौत करीब आ रही है, सब तरफ से झांकती है। बूढ़े आदमी को देखते हैं, मौत झांकती है। एक खंडहर हुए मकान को देखते हैं, मौत झांकती है। एक कुम्हलाया फूल, मौत झांकती है। एक सूख गया झरना, मौत झांकती है। जहां देखें वहां मौत है। और आप कंप रहे हैं। इस कंपित दशा में...।
पश्चिम में एक बहुत बड़ा विचारक हुआ--डेनिश विचारक--कीर्कगार्ड। वह कहता है, आदमी की जो वास्तविक दशा है, वह ट्रेम्बलिंग है। कंपन उसकी वास्तविक दशा है, वह प्रतिपल कंपा हुआ है।
आंख बंद करके कभी देखें तो आप पाएंगे, सिवाय भय के और भीतर कुछ भी नहीं। इस भय के कारण आप भगवान की प्रार्थना भी कर सकते हैं, मगर वह भी भय का ही विस्तार होगा। इस भय के कारण हाथ जोड़ सकते हैं, घुटने टेक सकते हैं, लेकिन वह भी भय का ही विस्तार होगा। मस्जिदों में, मंदिरों में घुटने टेके हुए लोग किसी परमात्मा के सामने नहीं झुके हैं, भीतरी भय के कारण झुके हैं। परमात्मा तो बहाना है; डर है भीतर, कंप रहे हैं। घुटने टेकना, युद्धस्थल पर हारे हुए सैनिक का लक्षण है। भयभीत, मौत सामने खड़ी है, मौत से बचने को वह घुटने टेकता है कि मुझे बचाओ, हाथ जोड़ता है। उसी को हमने प्रार्थना का ढंग बना लिया। भगवान के सामने डरे हुए खड़े हैं, बचाओ! तुम्हारी शरण आए हैं, मौत पीछा कर रही है।
सुना है मैंने, एक सूफी फकीर हुआ। उसके नौकर ने एक दिन सुबह-सुबह ही आकर कहा कि आपका घोड़ा मुझे दे दें। समय मेरे पास ज्यादा नहीं। गया था बाजार आपकी सब्जी खरीदने, किसी ने मेरे कंधे पर हाथ रखा। देखा, एक काली छाया! मैंने पूछा, तू कौन?
उसने कहा, तेरी मौत। और शाम तैयार रहना, मैं आती हूं।
सूफी हंसने लगा। उसने कहा, घो॰?ा तुम ले जा सकते हो।
नौकर घोड़ा लेकर भागा। यह घटना जहां घटी उस गांव का नाम दमिश्क, नौकर भागा बुखारा की तरफ। जैसे ही नौकर गया, फकीर निकला गांव में। बाजार में एक कोने में उसने मौत को खड़ा देखा और कहा कि यह क्या ढंग है? मेरे नौकर को नाहक डराया और अगर कुछ कहना था तो मुझसे कहना था।
मौत ने कहा कि मैंने तुम्हारे नौकर को डराया नहीं, मैं खुद चकित हो गई, इसलिए अचानक उसके कंधे पर हाथ रख दिया। क्योंकि आज शाम हम दोनों का मिलना बुखारा में तय है और वह यहां घूम रहा है सुबह और फासला लंबा है। मैं खुद चौंक गई, इसलिए मैंने उसके कंधे पर हाथ रख दिया।
फकीर फिर हंसा। मौत ने पूछा, लेकिन आप क्यों हंसते हैं? उसने कहा, सुबह भी मैं हंसा था जब उसने घोड़ा मांगा। यही मेरा भी खयाल था कि इसका बुखारा पहुंचना शाम तक जरूरी है। इसीलिए घोड़ा भी दे दिया कि बेचारा पैदल बड़ा थक जाएगा। और अगर यह बुखारा की तरफ जा रहा है तो सांझ मौत वहीं होनी निश्चित है।
भागो कहीं भी, कितने ही तेज घोड़े तुम्हारे पास हों, बचने का कोई उपाय नहीं है।
अल्केमिस्ट सभी मर गए। बड़े दावेदार हुए हैं, जिन्होंने कहा कि हमने अमृत खोज लिया। मगर उनमें से एक भी जिंदा नहीं है, सिर्फ कहानियां जिंदा हैं।
अब वैज्ञानिक फिर उसी मूढ़ता में पड़े हैं। जिसको हम केमिस्ट्री कहते हैं, उसका जन्म भी अल्केमी से ही हुआ है। वही अमृत को खोजते-खोजते आक्सीजन और हाइड्रोजन और केमिस्ट्री की सारी चीजें खोज में आने लगीं। अब फिर विज्ञान कहता है कि कुछ करना है कि आदमी को मौत से बचाया जा सके। और वैज्ञानिक कहते हैं, कुछ किया जा सकता है। यह भरोसा सदा से रहा है कि कुछ किया जा सकता है और आदमी मौत से बचाया जा सकता है।
निश्चित कुछ किया जा सकता है, लेकिन उस करने का संबंध प्रयोगशाला से नहीं है। उस करने का संबंध अंतस्तल से है। जब तक संकल्प, विल और मैं हूं, तब तक मौत सुनिश्चित है। जिस दिन मैं नहीं हूं, उस दिन मौत का कोई उपाय नहीं। क्योंकि पूर्ण कभी भी नहीं मरता, यह जो विराट है यह कभी भी नहीं मरता। लहरें आती हैं, जाती हैं, सागर बना रहता है। जब तक मैं लहर हूं, तब तक मरूंगा, जब मैं सागर हूं तो मरने का कोई उपाय नहीं।
इस सूत्र में राम का संकेत इस विराट सागर के प्रति है। हिंदू, मुसलमान, ईसाई से इसका कुछ लेना-देना नहीं है। राम हिंदुओं के लिए परमात्मा का सूचक शब्द है और बड़ा प्यारा शब्द है। इसका किसी व्यक्ति से, ऐतिहासिक व्यक्ति से, कोई प्रयोजन नहीं है।
राम की शरण जाने का अर्थ है, अपने को मिटाकर सर्व की शरण जाना। मैं नहीं हूं, यह जो फैलाव है, यह जो विस्तार है, यह जो ब्रह्म है, यही है। इसके अतिरिक्त कोई ठांव नहीं। इसके अतिरिक्त जो ठांव खोज रहा है, वह भटकेगा।
हम भटक रहे हैं जन्मों-जन्मों से सिर्फ ठांव खोजने के लिए। एक शरण-स्थल चाहिए, एक छाया की जगह चाहिए, जहां हम विश्राम कर सकें। लेकिन जन्मों-जन्मों से खोज रहे हैं। एक राह दूसरी राह में बदल जाती है, लेकिन ठांव नहीं आती। कई बार पड?ाव आते हैं, लेकिन मंजिल नहीं आती।
पड़ाव का मतलब है, घड़ीभर ठहर जाते हैं, फिर पता चलता है कि यह कोई मंजिल नहीं है, विश्राम थोड़ा हुआ, आगे की यात्रा फिर खुल जाती है। हर यात्रा नई यात्रा से जुड़ जाती है, लेकिन यात्रा का अंत नहीं आता।
यात्रा का अंत तो राम पर ही होता है।
उसका यह अर्थ नहीं है कि फिर आप नहीं चलते हैं, फिर आप नहीं बहते हैं। फिर भी चलते हैं, फिर भी बहते हैं। क्योंकि जीवन की धारा तो चलती ही रहती है। लेकिन आप नहीं होते, यात्री नहीं होता, यात्रा जारी रहती है। और जिस दिन यात्री नहीं, उस दिन चिंता कैसी? जिस दिन यात्री नहीं, उस दिन चिंता किसको? तब जीवन एक उत्सव है, एक सेलिब्रेशन है। तब जीवन एक समाधिस्थ नृत्य है, तब जीवन एक संगीत है।
अभी जीवन एक चिंता है। अभी जीवन एक बेचैनी है, अभी जीवन एक अंतर-कलह है, अभी जीवन दुख है।
नहिं राम बिन ठांव! निश्चित ही, राम के बिना कोई ठांव नहीं।
कुछ और मैत्रेय जी?


प्रश्न:
भगवान श्री, किसी ने पहुंचने के बाद, नहिं राम बिन ठांव, ऐसा जाना।
लेकिन हमें तो आपकी तरफ देखकर ही ऐसा लगने लगता है।
ऐसा क्यों?

लग सकता है, अगर देखो तो। लेकिन देखता कौन है? देखने के लिए अलग ढंग की आंखें चाहिए। कभी-कभी किसी-किसी क्षण में तुम्हारे अनजाने वैसी आंखें आ जाती हैं। तुम्हारे अनजाने कभी-कभी तुम अपने को भूल जाते हो। कभी-कभी तुम खो जाते हो। और जब तुम नहीं होते तब आंखों का पर्दा हट जाता है। उस क्षण एक झलक मिल सकती है।
देखने का अर्थ ही है कि देखने वाला भीतर न खड़ा हो। तो दर्शन होता है, क्योंकि देखने वाला पूरे समय आंखों में बाधा डालता रहता है। उसके पक्षपात हैं, उसकी धारणाएं हैं, उसके सिद्धांत हैं। वह पूरे वक्त बाधा डाल रहा है। वह कह रहा है, इस तरह देखो। वह कह रहा है, यह देखो। वह कह रहा है, यह हो ही नहीं सकता जो तुम देख रहे हो। वह भीतर जो देखने वाला खड़ा है, वह देखने नहीं देता।
कभी-कभी वह सरक जाता है। तुम्हारे अनजाने, तुम्हें पता भी नहीं होता, कब वह सरक गया। तुम्हें पता हो, तो वह सरक ही न पाएगा। तुम उसे पकड़े ही रहोगे। कभी मुझे सुनते समय तुम भूल ही जाते हो कि हो। तब एक क्षण को आंख से पर्दा हटता है और तब तुम्हें दिखाई पड़ सकता है। कभी मेरे पास चुपचाप बैठे हुए भी मेरी शांति तुम्हारे लिए भी सघन हो जाती है। क्योंकि शांति एक तत्व है, जैसे हवा की शीतलता है, वह कोई कल्पना नहीं तुम्हारी। बगीचे में तुम जाते हो, शीतल हवाएं तुम्हें छूती हैं और तुम्हारे भीतर तक के स्नायु ठंडे हो जाते हैं। शांति भी एक ऐसा ही तत्व है, एलिमेंटल फोर्स है। अगर मैं शांत हूं और तुम अगर चुपचाप बैठ भी सको मेरे पास, स्वीकार के एक भाव में, तो वह जो शांति मेरे पास है वह तुम्हारे ऊपर भी सघन हो जाएगी। भीतर तक तुम्हारे स्नायुओं को छुएगी और ठंडा कर जाएगी।
और जब आंखें ठंडी होती हैं तब दिखाई पड़ता है, उत्तप्त आंखें कुछ भी नहीं देख पातीं। उत्तप्त आंखें अपने में बेचैनी से ही भरी हुई हैं, उत्तप्त आंखें विक्षिप्त हैं।
तो जब भी तुम शांत होते हो, तब दर्शन हो पाता है।
और इसके लिए जरूरी नहीं कि तुम मेरे पास ही आओ तब यह हो। मैं सिर्फ बहाना हूं। तुम अपने अकेले में बैठकर भी अगर मौन हो सको, शांत हो सको, तो यही होगा। तुम अगर पक्षियों को सुनते समय भी अपने को भूल जाओ, तो यही होगा। क्योंकि पक्षी भी यही कह रहे हैं, नहिं राम बिन ठांव। यह सवाल तुम्हारा नहीं, यह पूरा अस्तित्व यही कह रहा है।
आदमी को छोड़कर पूरा अस्तित्व राम के साथ जी रहा है। आदमी भटका है। आदमी थोड़ा हटा है रास्ते से। इसलिए आदमी के सिवाय और कहीं संताप नहीं है। आदमी के सिवाय और कहीं विक्षिप्तता नहीं है। वृक्ष भी जन्मते हैं और मरते हैं, लेकिन वहां कोई अहंकार नहीं। इसलिए वृक्ष सदा आनंद में हैं। पक्षी भी जन्मते हैं और मरते हैं, लेकिन सदा नाच रहे हैं, गा रहे हैं, उनका उत्सव अखंड है।
आदमी भटका है, भटकने की संभावना है, क्योंकि आदमी चेतन है। पक्षी आनंदित हैं, लेकिन उन्हें अपने आनंद का भी कोई पता नहीं है। आदमी दुखी है, क्योंकि उसे पता है। अगर आदमी अपने को भूल जाए तो वह भी पक्षियों जैसे ही, वृक्षों जैसे ही आनंद में प्रवेश पा जाएगा।
एक बात भिन्न होगी और वही चरम सीमा है; उसे पता भी होगा कि मैं आनंदित हूं। यह पता होने की संभावना दुख में ले गई है, यही संभावना परम आनंद में भी ले जाएगी।
तो कहीं भी घट सकता है। नदी के किनारे तुम बैठे हो, देखो धारा को, अपने को भूल जाओ और बहने दो धारा को। धारा के संबंध में सोचो भी मत, क्योंकि सोचते ही तुम वापस आ जाओगे। सिर्फ बहने दो धारा को और तुम जैसे अनुपस्थित हो जाओ। तुम भूल ही जाओ कि तुम हो। तत्क्षण शून्य से जैसे आनंद तुम्हारे भीतर और बाहर पुलकित हो उठेगा, हजार-हजार फूल भीतर खिल जाएंगे, और तुम देख पाओगे।
दर्शन संभव है, अनुभव संभव है, तुम्हारी गैर-मौजूदगी चाहिए, शेष सब बहाने हैं। तुम्हें यहां बुलाकर बैठा हूं, तुमसे बात कर रहा हूं, बात करना बहाना है। बात करना सिर्फ तरकीब है। तरकीब इस बात की कि शायद तुम बातचीत में उलझ जाओ और बात से बात निकलती जाए और तुम भूल जाओ। तुम बात में इतने लीन हो जाओ...।
शायद तुम नदी में लीन न हो सको अभी। शायद वृक्षों को तुमने देखा ही नहीं, पक्षियों को तुमने कभी सुना ही नहीं, उस भाषा से तुम परिचित नहीं।
मेरी भाषा से तुम परिचित हो, आदमी की भाषा से तुम परिचित हो। शायद इस आदमी की भाषा में तुम डूब जाओ, लीन हो जाओ, शायद इस भाषा का काव्य तुम्हें पकड़ ले। उस क्षण में अचानक तुम देख पाओगे। तुम्हारी आंखें खुलेंगी। जैसे एक बिजली कौंध जाए और सब जहां अंधेरा था, वहां प्रकाश हो जाए।
एक क्षण को भी तुम देख लो, तो फिर तुम दुबारा वही नहीं हो सकोगे। क्योंकि जो देख लिया गया, वह तुम्हारी आत्मा का हिस्सा हो जाएगा। और जो देख लिया गया, वह तुम्हें बार-बार पुकारेगा। और जो देख लिया, वह तुम्हारे लिए चुनौती बन जाएगा। और जो तुमने देख लिया, उसकी खोज शुरू हो जाएगी।
और तुम्हारी समझ में आ जाए कि यह केवल बहाना था तुमसे बात करना, तुम्हारी आंख को खोलने का, तो फिर तुम पक्षियों का सहारा भी ले सकते हो। तो वे तुम्हारे गुरु हो जाएंगे। तब तुम एक गाय की आंख में भी झांक सकते हो, तब वही तुम्हारी गुरु हो जाएगी। तब तुम कहीं भी गुरु खोज ले सकते हो।
शिष्य होना भर आता हो, तो सब तरफ गुरु पैदा हो जाता है। असली सवाल शिष्यत्व है। नानक इसीलिए अपने अनुयायियों को सिक्ख कहे हैं। सिक्ख शिष्य शब्द का अपभ्रंश है। शिष्य होना आ जाए तो गुरु सब जगह उपलब्ध हो जाता है। एक पत्थर की दीवाल भी गुरु हो जाएगी, एक चट्टान भी गुरु हो जाएगी। और शिष्य होना न आता हो तो एक गुरु भी पत्थर की दीवाल है।
कभी-कभी ऐसी झलक तुम्हें यहां आएगी। उस झलक को सम्हालना, उसे संजोना भीतर, उससे ज्यादा बहुमूल्य और कुछ भी नहीं है। और वह झलक मेरी अनुपस्थिति में भी आने लगे, इस दिशा में खोज करते रहना। जल्दी ही, निरंतर उस दिशा में खोज करने से, सूत्र तुम्हारी पकड़ में आ जाएगा। और सूत्र ऐसा है कि समझाया नहीं जा सकता, तुम निरंतर अनुभव और खोज करते रहोगे तो पकड़ में आ जाएगा।
ऐसे ही जैसे किसी तैरने वाले से कोई पूछे कि तरकीब क्या है तैरने की! तो कोई भी नहीं बता सकता। बड़े से बड़ा तैराक भी नहीं बता सकता कि तरकीब क्या है। वह कहेगा, आओ, पानी में चलो, हाथ-पैर तड़फाओ, फेंको। धीरे-धीरे भीतरी अनुभव से लगेगा कि किस भांति हाथ फेंकने से तैरना बनने लगता है। धीरे-धीरे हाथ व्यवस्थित हो जाएंगे। तैरना व्यवस्थित तड़फना है, और तो कुछ भी नहीं।
अनजान आदमी को पानी में फेंक दो जो तैरना नहीं जानता, वह भी तड़फेगा, हाथ-पैर फेंकेगा, पर उसे अभी लयबद्धता नहीं मालूम। और अगर डूबकर मरेगा तो इसलिए नहीं कि तैरना नहीं जानता था, डूबकर मरेगा इसलिए कि गलत ढंग का तैरना जानता था। उलटे-सीधे हाथ-पैर फेंककर खुद ही फंस जाएगा। तैरने वाले में और उसमें हाथ-पैर फेंकने का फर्क नहीं है, सिर्फ व्यवस्था और अव्यवस्था का फर्क है। और व्यवस्था अनुभव से आती है।
धीरे-धीरे तुम और भी कुशल हाथ फेंकोगे। कम श्रम से हाथ फेंकोगे। जब तुम और भी कुशल हो जाओगे तो शायद हाथ भी नहीं फेंकोगे, सिर्फ पानी पर फ्लोट कर सकोगे, रोक लोगे अपने को, पानी ही तुम्हें सम्हालेगा। कोई जरूरत नहीं है कि तुम हाथ-पैर ही फेंको, बिना श्रम किए तुम पानी पर सम्हल जाओगे, एक फूल की तरह, एक कमल की तरह। तब तुम्हें कुछ भी न करना पड़ेगा। लेकिन यह आएगा निरंतर अनुभव से।
ठीक ऐसे ही एक तैरने का प्रयोग मैं तुम्हें करवा रहा हूं। निरंतर, कई बार झलक मिलेगी, उसे सम्हालना। उस झलक को अपने भीतर सम्हालकर ले जाना। जैसे गर्भवती स्त्री चलती है, ऐसे अपने को सम्हालना। जैसे भीतर एक बच्चा हो और गर्भवती स्त्री एक-एक पैर सम्हालकर रखती है। यह तुम्हारा गर्भ बन जाए, यह दर्शन, यह क्षण। धीरे-धीरे यह बड़ा होगा, तुम खो जाओगे और यह क्षण फैल जाएगा।
निश्चित ही, मेरे करीब तुम्हें बहुत बार लगेगा, नहिं राम बिन ठांव। लेकिन यह मेरे बिना भी लगने लगे, यही तुम्हारे ध्यान में गंतव्य होना चाहिए।

आज इतना ही।



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