दिनांक 03 अगस्त सन् 1979
प्रवचन-तीसरा
* प्रेम की आग
* शिष्य की परीक्षा
* संन्यास का उत्सव
प्रश्न-सार
*आप कहते हैं--प्रेम करो; तुम्हारे
सभी प्रेम का निचोड़ ही प्रार्थना बनेगी।
परंतु मैं तो प्रेम करने में बहुत ही कतराता हूं!
*क्या कभी सदगुरु भी शिष्य की परीक्षा लेता है?
*कभी संन्यास जीवन की महिमा से मंडित था। आज वह मृत्यु
का पर्यायवाची है। संन्यास मृत्यु का पर्यायवाची कैसे बन गया?
पहला प्रश्न: भगवान! आप कहते हैं--प्रेम करो; तुम्हारे सभी प्रेम का निचोड़ ही प्रार्थना बनेगी। परंतु मैं तो प्रेम करने
में बहुत ही कतराता हूं!
योग भरत! कौन नहीं कतराता? प्रेम की लोग बातें करते हैं; बातें करना प्रेम से
बचने का एक उपाय है। प्रेम की बात तो प्रेम नहीं। प्रेम की बात तो प्रेम के अभाव
को ढंकने की कला है। हां, लोग प्रेम के गीत गाते हैं--वे भी
उधार; वे भी अपने निज अनुभव के नहीं। लोग प्रेम की प्रशंसा
भी करते हैं, स्तुति करते हैं; प्रेम
का समादर करते हैं। लेकिन इस समादर में अनुभव नहीं है, प्रामाणिकता
नहीं है। यह समादर मन का भुलावा है।
प्रेम से कौन नहीं कतराता? कतराना ही होगा।
क्योंकि प्रेम है जोखिम का काम। प्रेम से बड़ी जोखिम कोई और नहीं। प्रेम मांगता है
दुस्साहस, क्योंकि प्रेम है अभियान, अज्ञात
की यात्रा। और मुफ्त नहीं होती यह यात्रा। बड़ी कीमत चुकानी होती है। बड़ी से बड़ी
कीमत चुकानी होती है। स्वयं को ही जो अर्पित कर सकता है, वही
प्रेम का स्वाद लेने में समर्थ होगा। अहंकार का विसर्जन है प्रेम।
प्रेम का ठीक अर्थ समझ लो, तो कठिनाई समझ में आ
जाएगी। अहंकार का विसर्जन है प्रेम का अर्थ। जब किसी के भी संदर्भ में तुम मैं-भाव
को छोड़ देते हो, वहीं प्रेम की अविरल धारा बह उठती है। फिर
वह स्त्री हो, पुरुष हो, गुरु हो,
परमात्मा हो--कोई भी हो; संगीत हो, काव्य हो, मूर्तिकला हो; तुम
किसी भी संदर्भ में जहां अपने मैं-भाव को विसर्जित कर देते हो, जहां तुम नहीं होते; नृत्य हो, गीत हो, उत्सव हो। जब नर्तक शून्य हो जाता है और
नर्तन ही शेष रह जाता है--नर्तकरहित नर्तन--बस प्रेम का आविर्भाव हुआ। जहां गायक
मिट जाता है और गीत ही बचता है; वादक मिट जाता है और वादन ही
बचता है--बस वहीं प्रेम का आविर्भाव है।
प्रेम से अर्थ नहीं है संबंध का। संबंध तो प्रेम की सबसे निम्न दशा
है। संबंध तो ऐसा है, जैसे पक्षी अभी अंडे में है; अभी
प्रेम पैदा नहीं हुआ। अभी अंडे को तोड़ना होगा; पक्षी को बाहर
आना होगा; पर फड़फड़ाने होंगे; अज्ञात,
अपरिचित आकाश की यात्रा पर निकल जाना होगा। और छोड़ देना होगा वह गेह,
वह घर, जहां सुरक्षा थी, जहां सब कुछ था। अंडे में पक्षी कितना सुरक्षित था! न भोजन की चिंता,
न दुश्मनों का डर; न मृत्यु का कोई बोध,
न जीवन की अड़चनें, समस्याएं। कुछ भी तो न था।
शांत, निश्चिंत, सुरक्षित अस्तित्व था।
तोड़ दिया उस अंडे को और चल पड़ा एक ऐसी यात्रा पर, जो कहां
समाप्त होगी, कुछ पता नहीं! कोई गंतव्य है भी या नहीं,
यह भी पता नहीं। और उन पंखों का भरोसा जिनके सहारे कभी उड़ा न था!
दुस्साहस चाहिए।
संबंध की तरह प्रेम तो ऐसा है, जैसे अंडे में पक्षी।
मैं जिस प्रेम की बात कर रहा हूं, वह संबंध से अतीत प्रेम है,
वह प्रेम की भाव-दशा है। प्रेम एक संबंध नहीं, वरन मन की एक शांत, मौन, आनंदित
अनुभव की स्थिति। प्रेम एक स्थिति--संबंध नहीं। और तब प्रेम प्रार्थना बन जाता है।
और जैसे-जैसे प्रार्थना गहरी होती है, प्रार्थना ही परमात्मा
बन जाती है।
परमात्मा कहीं और नहीं है, प्रेम का ही अंतिम
रूप है। काम है प्रेम का निम्नतम रूप; और राम है प्रेम का
आत्यंतिक रूप। यात्रा है: काम से राम तक। और लोग काम में ही उलझे रह जाते हैं,
क्योंकि काम सस्ता है, सुलभ है। बाजार में
मिलता है। धन से खरीदा जा सकता है। पद से खरीदा जा सकता है। अहंकार नहीं गंवाना
होता।
इसलिए तुम जिन्हें प्रेम के संबंध कहते हो, अच्छा हो कि काम के संबंध कहो। वासना के संबंध हैं। वासना तो कोई भी कर
लेता है; पशु-पक्षी कर लेते हैं। इसके लिए मनुष्य होने की
कोई आवश्यकता नहीं है। प्रेम सिर्फ मनुष्य कर सकता है। वासना में जो भी जहर है,
उससे जब वासना बिलकुल ही मुक्त हो जाती है, तो
प्रार्थना का जन्म होता है। जैसे कीचड़ कमल बन जाए, ऐसे वासना
प्रार्थना बन जाती है।
मैं उस आत्यंतिक प्रेम की ओर तुम्हें पुकार रहा हूं। और भरत, भय तो लगेगा। कभी गए नहीं उस मार्ग, डर तो पकड़ेंगे।
बचना भी चाहोगे, कतराओगे। पर अच्छा है कि होश तो आया कि मैं
कतरा रहा हूं। अभागे तो वे हैं, जिन्हें यह होश भी नहीं।
कतरा भी रहे हैं और मान भी रहे हैं कि बड़े प्रेम में हैं--पत्नी को प्रेम करते हैं;
पति को प्रेम करते हैं; बच्चों को प्रेम करते
हैं; परिवार को, मित्रों को। प्रेम
जाना नहीं, मान लिया है।
तुम्हें अपने बेटे से प्रेम है? सच? या कि बेटा तुम्हारी महत्वाकांक्षा को भरने का एक उपाय है, एक साधन? कि तुम जो बंदूक नहीं चला पाए, शायद उसके सहारे चला लो! कि तुम जो पद नहीं पा पाए, शायद
उसके सहारे पा लो! उसके बहाने, उसके निमित्त पा लो! कि तुम
जो धन नहीं कमा पाए, चलो, बेटा कमाएगा।
तुम तो न रहोगे, लेकिन तुम्हारा कोई अंश रहा आएगा। तुम कहीं
बेटे में अपनी शाश्वतता तो नहीं खोज रहे हो? यह तो तुम्हें
पता है, यह देह मर जाएगी। लेकिन चलो, इस
देह का एक अंश बचेगा। किसी रूप में तो जीऊंगा! मेरा नाम तो रहेगा--किसका बेटा है!
पुराने दिनों में जिसको बेटा नहीं होता था, उससे ज्यादा दुखी आदमी नहीं होता था। क्योंकि वंश-परंपरा कौन चलाएगा! बेटा
तो होना ही होना चाहिए। अपना न हो, तो उधार भी चलेगा। गोद ले
लेना पड़े, तो भी चलेगा। क्योंकि हम तो मिट जाएंगे, यह जाहिर है। चलो, कुछ तो छूट जाएगा! नाम भी बच रहा,
तो कोई तो पितृ-पक्ष में पानी चढ़ाएगा! नाम बच रहा, तो किसी तरह हमारी याद तो बची रहेगी। आदमी बचना चाहता है मृत्यु से,
इसलिए बच्चों को प्रेम करता है।
पत्नी से तुम प्रेम करते हो? या कि केवल साधन है
जिसका शोषण करते हो? पति से तुम प्रेम करते हो? या कि केवल एक साधन है, एक आर्थिक उपाय है--भोजन,
घर का आयोजन है, व्यवस्था है?
प्रेम न तो व्यवस्था है, न अर्थशास्त्र है।
प्रेम न तो सुविधा है, न सुरक्षा है। प्रेम तो एक काव्य है।
और काव्य को अनुभव करने की संवेदनशीलता कितने लोगों में है? कितने
लोग हैं, जो फूलों को देख कर मस्त होते हों? कितने लोग हैं, जो आकाश के तारों को देख कर आनंद से
भर जाते हों?
जिनके जीवन में आकाश के तारों का कोई परिणाम नहीं होता हो, जो पक्षियों के गीत सुन कर पुलक न उठते हों, जो
फूलों को हवा में नाचते देख कर पैरों में घूंघर न बांध लेते हों--वे प्रेम कर
सकेंगे? असंभव। पत्थर हैं वे। अभी उनके भीतर पाषाण पिघला
नहीं है। और उसी पत्थर को मैं अहंकार कह रहा हूं। और वही अहंकार कतराता है,
बचता है। और अहंकार के बचने का जो सबसे महत्वपूर्ण उपाय है, वह यह है कि वह तुम्हें यह भ्रांति दिलवा देता है कि प्रेम तो तुम करते ही
हो। और क्या प्रेम? यही तो प्रेम है! और चूंकि यह प्रेम नहीं
है और इसे तुम प्रेम मान कर जीते हो, आज नहीं कल इस प्रेम से
वितृष्णा पैदा होती है। इस प्रेम से विषाद पैदा होता है। इस प्रेम से संताप पैदा
होता है!
झूठा था यह प्रेम, पहली तो बात। फिर इस झूठे प्रेम
से तुम्हें वैराग्य पैदा होता है। झूठे प्रेम से पैदा हुआ वैराग्य उतना ही झूठा है
जितना प्रेम झूठा था। फिर चले तुम जंगल! फिर हो गए तुम संन्यासी, मुनि, महात्मा। यह तुम्हारा मुनि होना, महात्मा होना तुम्हारे झूठे प्रेम की परिणति है। यह महात्मापन भी उतना ही
झूठ है।
प्रेम सच्चा हो, तो भी वैराग्य पैदा होता है।
लेकिन वह वैराग्य राग के विपरीत नहीं होता, राग के पार होता
है। भेद को खूब ठीक से समझ लेना। वह वैराग्य राग का अतिक्रमण है--राग का विरोध
नहीं, राग का निषेध नहीं। वह वैराग्य राग का ही सुलझा हुआ
रूप है। वह वैराग्य राग का ही छंटा हुआ, निखरा हुआ रूप है।
राग ऐसे है, जैसे अनगढ़ पत्थर। और वैराग्य ऐसे है, जैसे किसी कलाकार के हाथों में पड़ गया अनगढ़ पत्थर--और उसने मूर्ति गढ़ी।
हां, बहुत कुछ काटा, बहुत कुछ छांटा,
छैनी चलाई बहुत। लेकिन पत्थर से दुश्मनी नहीं है, पत्थर से शत्रुता नहीं है। उससे बड़ा और कौन मित्र होगा पत्थर का! उसने
पत्थर को नये प्राण दिए, नये अर्थ, नई
भाव-भंगिमा दी। उसने पत्थर को काव्य दिया; पत्थर को जीवन
दिया; पत्थर में सांसें फूंकीं। उसने पत्थर को सप्राण किया।
एक साधारण सा पत्थर जब बुद्ध की प्रतिमा बन जाता है, तो तुम भेद देखते हो! इस पत्थर की तरफ तुम्हारी आंख भी न गई होती। और
बुद्ध की यह प्रतिमा तुम्हारे प्राणों को पकड़ लेगी।
पश्चिम के बहुत बड़े मूर्तिकार माइकलएंजलो के जीवन में यह उल्लेख है कि
संगमरमर बेचने वाले दुकानदार के पास वह एक दिन पहुंचा और उसने कहा, तुमने दुकान के उस तरफ रास्ते के किनारे एक बड़ा संगमरमर का पत्थर डाल रखा
है। कई वर्षों से मैं गुजरता हूं, उसे देखता हूं। उसे बेचना
नहीं? उस दुकानदार ने कहा, वह बिकता
नहीं। इसलिए मैंने तो आशा ही छोड़ दी है, उसको उस तरफ डाल
दिया है कि अगर कोई ले जाए तो ले जाए। माइकलएंजलो ने कहा कि मैं ले जाऊंगा।
वह दुकानदार बहुत खुश हुआ। उसने कहा, मेरी जगह खाली होगी।
वह पत्थर बिलकुल बेकार है। ढोने का खर्च भी मैं दे दूंगा। तुम ले जाओ। झंझट मिटे
और जगह खाली हो!
माइकलएंजलो पत्थर ले गया। कोई साल बीतने के बाद एक दिन माइकलएंजलो उस
दुकानदार के पास आया और कहा कि मेरे घर चलोगे? कुछ दिखाने योग्य है!
ले गया दुकानदार को। दुकानदार ने देखा जो, आंखों से आनंद के
आंसू बहने लगे। उसने बहुत मूर्तियां देखी थीं, पर ऐसी मूर्ति
नहीं। माइकलएंजलो ने उस पत्थर को रूपांतरित कर दिया था। उसे तो याद भी न आया कि यह
वही पत्थर है, जो मैंने मुफ्त दिया था। और जिसको ढोने के
पैसे भी मैंने दिए थे!
माइकलएंजलो ने उस पत्थर में जो प्रतिमा गढ़ी थी, वह है जीसस की प्रतिमा और मरियम की। जीसस को मरियम ने सूली से उतारा है।
जीसस की लाश को मरियम अपने हाथों में लिए बैठी है! कहते हैं ऐसी अदभुत प्रतिमा
दूसरी नहीं है।
अभी कुछ, दो या तीन साल पहले एक पागल आदमी ने इसी प्रतिमा को
रोम में हथौड़ा लाकर तोड़ दिया। और जब उस आदमी से पूछा गया--क्योंकि वह अमरीका से
आया तोड़ने इटली--उससे जब पूछा गया कि यह तूने क्या किया? तूने
जगत की श्रेष्ठतम कृति नष्ट कर दी! तो उसने कहा, जैसे
माइकलएंजलो का नाम प्रसिद्ध था, अब मेरा भी नाम प्रसिद्ध
रहेगा। उसने बनाई, मैंने मिटाई। वह बना सकता था, मैं बना नहीं सकता, लेकिन मिटा तो सकता हूं!
इस दुनिया में जो लोग बना नहीं सकते, वे मिटाने में लग
जाते हैं। जो कविता नहीं रच सकते, वे आलोचक हो जाते हैं। जो
धर्म का अनुभव नहीं कर सकते, वे नास्तिक हो जाते हैं। जो
ईश्वर की खोज नहीं कर सकते, वे कहने लगते हैं--ईश्वर है ही
नहीं। अंगूर खट्टे हैं! इनकार करना आसान, स्वीकार करना कठिन।
जो समर्पित नहीं हो सकते, वे कहते हैं--समर्पित होएं क्यों?
मनुष्य की गरिमा उसके संकल्प में है, समर्पण
में नहीं! जो समर्पित नहीं हो सकते, वे कहते हैं--कायर
समर्पित होते हैं; बहादुर, वीर तो लड़ते
हैं।
ध्यान रखना, सृजन कठिन है, विध्वंस आसान है।
जो माइकलएंजलो नहीं हो सकता, वह अडोल्फ हिटलर हो सकता है। जो
कालिदास नहीं हो सकता, वह जोसेफ स्टैलिन हो सकता है। जो
वानगॉग नहीं हो सकता, वह माओत्से तुंग हो सकता है। विध्वंस
आसान है। जो धार्मिक नहीं हो सकता, वह राजनीतिज्ञ हो सकता
है। राजनीतिज्ञ होने और राजनीति करने में कोई बुद्धिमत्ता चाहिए! बुद्धिमत्ता ही
एकमात्र अड़चन है राजनीति में। बुद्धिमान राजनीतिज्ञ नहीं हो सकता। उतना छोटा नहीं
हो सकता। उतना ओछा नहीं हो सकता। उतना क्षुद्र नहीं हो सकता। उतना नीच नहीं हो
सकता। उतने नीचे उतरना उसे आसान नहीं होगा। उसकी प्रतिभा उसे रोकेगी।
पत्थर को सुंदर मूर्ति में निर्मित कर लेना प्रेम को जानने का एक उपाय
है। साधारण शब्दों को जोड़ कर एक गीत रच लेना प्रेम को जानने का एक उपाय है। नाचना, कि सितार बजाना, कि बांसुरी पर एक तान छेड़ देना--ये
सब प्रेम के ही रूप हैं।
तुमने प्रेम को बहुत छोटा समझ रखा है। घर-गृहस्थी बसा ली कि समझा
प्रेम हो गया। यह तो प्रेम नहीं है, यह तो पशु भी कर लेते
हैं। ये बच्चे पैदा करना, ये घर-गृहस्थी बसाना, यह तो पशु-पक्षी भी कर लेते हैं। इसमें कुछ विशिष्टता नहीं है। इसके कारण
तुम मनुष्य नहीं हो। इसके कारण तुम पशुओं के ही हिस्से हो। जिस दिन तुम्हारा प्रेम
एक आंतरिक संवेदनशीलता बनेगा, जिस दिन संबंध कम और तुम्हारी
सहज अवस्था ज्यादा होगा; ऐसा नहीं कि किसी के प्रति प्रेम,
बल्कि ऐसा कि बैठे हैं तो प्रेम में, उठे हैं
तो प्रेम में, चले हैं तो प्रेम में, बोले
हैं तो प्रेम में, सोए हैं तो प्रेम में; उठना, बैठना, जगना, सोना--तुम्हारा प्रत्येक कृत्य जब प्रेमपूर्ण होगा; प्रेम
जब किसी के प्रति निवेदित नहीं होगा, बल्कि तुम्हारी
श्वास-श्वास में समोया होगा, तुम्हारे हृदय की धड़कन-धड़कन में
बजता होगा उसका नाद; मैं उस प्रेम की बात कर रहा हूं।
और निश्चित ही घबड़ाओगे, डरोगे, कतराओगे। लेकिन बिना इस यात्रा पर--कठिन यात्रा है, दुर्धर्ष
मार्ग है, तलवार की धार पर चलना है--बिना इसके निखरोगे भी
नहीं।
तो भरत, कतराओ कितने ही, डरो कितने ही,
लेकिन डर के बावजूद जाना है। यह यात्रा करनी ही है; करनी ही होगी।
कब तक विश्वासों का बोझ लादते फिरते,
तुमने यह खूब किया, हर बंधन तोड़ दिया।
जग की व्यावहारिकता का महत्व ज्यादा है,
मन की मजबूरी की कीमत कुछ खास नहीं।
टूट भले जाएं हम चाह के फरेबों से,
यह न कहेंगे लेकिन, पीड़ाएं रास नहीं।
जिसके आलिंगन को भोर तक तरसती थी,
तुमने यह खूब किया, वही सपन तोड़ दिया।
यह माना युग तक साथ कहां निभता है,
यह माना दुनिया बेदर्द बहुत होती है।
जो केवल दुखों की सीपी में खिलता है,
मानो या मत मानो, मन ही वह मोती है।
जिंदगी तुम्हें जिसमें जिंदगी नजर आती,
तुमने यह खूब किया, वह दर्पण तोड़ दिया।
बहुत लोग उस दर्पण को ही तोड़ रहे हैं, जिसमें जिंदगी जिंदगी
नजर आती। बहुत लोग उस दुख से अपने को बचा रहे हैं, जिस दुख
के बिना मोती पैदा नहीं होते। सीपी की पीड़ा में ही तो मोती का जन्म है। और प्रेमी
जितनी पीड़ा झेलता है, कोई और नहीं झेलता।
प्रेम है ही महान पीड़ा। लेकिन मधुर, रस डूबी, प्रभुपगी। पहले पहल डर लगेगा। पहले पहल कदम उठाओगे तो डर लगेगा। वैसा ही
डर जैसे कि पहली-पहली बार बच्चा चलता है तो डरता है। स्वाभाविक। कभी चला नहीं। मां
उसका हाथ पकड़ लेती है। चलाती है। दो कदम आगे खड़ी हो जाती है, हाथ का इशारा करती है कि आ! मैं तुझे सम्हाल लूंगी, बढ़!
झिझकता है। डरता है। लेकिन फिर मां पर आस्था, मां पर श्रद्धा;
बढ़ आता है। एक कदम चल लेता है, तो उसके आनंद,
उसके उल्लास का अंत नहीं है। जैसे मंजिल पा ली। मां तक एक कदम चल कर
मां की गोद में गिर गया है, और ऐसा आनंदित है जैसे अब और
करने को कुछ शेष नहीं रहा।
सदगुरु का कृत्य यही है कि शिष्य के आगे-आगे रहे। कहे कि और एक कदम!
कि और एक कदम! कि बस एक कदम और! और तुम जब एक कदम चलोगे तो तुम्हारा उल्लास बढ़ेगा।
और एक कदम चलोगे तो तुम्हारा अनुभव बढ़ेगा, दो कदम चलने की
हिम्मत आएगी। दो कदम चलोगे, तो तीन कदम चलने की हिम्मत आएगी।
और जैसा लाओत्सू ने कहा है: एक एक कदम चल कर हजारों मील की यात्रा पूरी हो जाती
है।
मगर पहला कदम निश्चित ही कठिन होता है भरत! तुमने अगर देखा हो, नया-नया पक्षी जब उड़ने को होता है, तो अक्सर उसकी
मां को उसे धक्का देना होता है। नहीं तो वह घोंसले को पकड़ कर ही बैठा रहता है। पर
फड़फड़ाता है। देखता है आकाश। आकाश की नीलिमा उसे भी पुकारती है। किसे नहीं पुकारती!
अनंत किसे नहीं छूता! इतना पत्थर तो कोई भी नहीं है। छूता है; डर के कारण तुम अंगीकार नहीं करते उसके आमंत्रण को, वह
बात और। बुलाता है। तुम बहरे बने बैठे रहते हो भय के कारण, वह
बात और। लेकिन चांदत्तारों के इशारे किसे नहीं अनुभव में आते! नहीं तुम उन इशारों
को मान कर चलते हो, यह तुम्हारी मर्जी, यह तुम्हारी कायरता, यह तुम्हारी नपुंसकता। देखता है
पक्षी और पक्षियों को उड़ते।
इसलिए तो तुम्हारे पास इतने पक्षी उड़ा रहा हूं--बुद्ध, महावीर, कृष्ण, कबीर, नानक, दादू, फरीद। इतने पक्षी
उड़ा रहा हूं तुम्हारे आस-पास--लाओत्सू, च्वांगत्सू, लीहत्सू, मोहम्मद, बहाउद्दीन,
मंसूर। इतने पक्षी उड़ा रहा हूं तुम्हारे पास कि इन उड़ते हुए
पक्षियों को देख कर भी तुम्हारे पंख फड़फड़ाने लगें। कि तुम्हें लगे कि मैं कब तक
बैठा रहूंगा! क्या मुझे इसी पिंजड़े में बंद रह जाना है? और
जब कि द्वार खुले हैं! जब कि पिंजड़ा बंद नहीं है! क्या मुझे इसी घोंसले में आबद्ध
रह जाना है? जब कि कोई और तुम्हें रोक नहीं रहा है सिवाय
तुम्हारे भय के। और तुम्हारे अतिरिक्त तुम्हारा भय कौन तोड़ेगा! इतने पक्षी
तुम्हारे पास उड़ा रहा हूं तुम्हारे आकाश में। इसको ही सत्संग कहते हैं। जहां और
उड़ते पक्षियों को देख कर तुम्हें यह बात खयाल में आने लगे कि मैं भी तो इन जैसा
हूं। ये पंख मेरे पास भी तो रहे। तुम फड़फड़ा कर देख लो। तुम जरा दो कदम आकाश में
उठा कर देख लो।
अक्सर ऐसा होता है कि मां को धक्का देना पड़ता है। वही धक्का गुरु देता
है। धक्का देते समय मां अच्छी न लगती होगी पक्षी को, यह भी याद रखना।
किसको अच्छी लगेगी ऐसी मां! दुश्मन मालूम होती होगी; धक्के
देती है! गुरु भी अच्छा नहीं लगता जो धक्के देता है। तुम सांत्वना की तलाश में आते
हो, धक्कों की तलाश में नहीं।
इसलिए तुम्हें पंडित-पुजारी ज्यादा प्रीतिकर लगते हैं। या बंधे-बंधाए
लकीरों के फकीर--जैन मुनि, बौद्ध भिक्षु, हिंदू संन्यासी,
मुसलमान फकीर--बंधे-बंधाए लोग, जो तुम्हें
धक्का नहीं देते, उलटे तुम्हें सांत्वना देते हैं, तुम्हारी पीठ थपथपाते हैं, कि बेटा तुम खूब अच्छा कर
रहे हो। एक अस्पताल और खुलवा दो। एक स्कूल और खुलवा दो। फकीरों को दान देना,
भिखमंगों को भिक्षा देना, ब्राह्मणों को भोजन
करवाना, यज्ञ करवा देना, हवन करवा
देना--मगर घोंसले को छोड़ना मत। घोंसले में मजे से बैठे रहो।
हवन चलता रहेगा। हवन के चलने से घोंसले से छूटने का क्या संबंध है!
पंडित-पुजारी आकर प्रार्थना कर जाएंगे। वे कहते हैं, तुम क्यों झंझट में
पड़ते हो प्रार्थना करने की? बेटा, तुम
तो कमाई करो। इतनी देर में तुम हजारों कमाओगे। और मैं दस-पांच रुपये में तुम्हारी
प्रार्थना कर जाता हूं। सीधा हिसाब है! क्यों इतना नुकसान उठाते हो? यज्ञ-हवन हम करने को हैं। यह हमारा व्यवसाय है। हम अपने व्यवसाय में कुशल
हैं। तुम अपने व्यवसाय में कुशल हो।
एक भिखमंगे ने अमरीका के बहुत बड़े करोड़पति एण्ड्रू कारनेगी को एक दिन
पकड़ लिया सुबह-सुबह घूमते बगीचे में। और कहा कि मुश्किल से मिले हैं, आज तो कुछ लेकर जाऊंगा! जब भी आता हूं तो नौकर-चाकर बाहर से ही टहला देते
हैं।
एण्ड्रू कारनेगी ने उस भिखमंगे को देखा। मस्त, लंबा, स्वस्थ, युवा। एण्ड्रू
कारनेगी ने कहा, तुम्हें शर्म नहीं आती? मुस्तंड होकर भीख मांगते हो! उस भिखमंगे ने कहा, सुनो!
तुम्हारा धंधा क्या है? एण्ड्रू कारनेगी ने कहा, मेरा धंधा बैंकिंग का है। सबसे बड़ा बैंकर था कारनेगी। तो उस भिखमंगे ने
कहा, मैं तो तुम्हें सलाह नहीं देता कि बैंकिंग किस तरह करो।
कभी बाप-दादे भीख मांगे हैं? तुम्हें भीख मांगने की कला आती
है? अपनी सलाह अपने पास रखो। जो इतना मुस्तंड मालूम हो रहा
हूं, वह इसीलिए, क्योंकि भीख मांगता
हूं। तुम क्यों नहीं मुस्तंड मालूम हो रहे? जरा अपना चेहरा
आईने में देखो! मस्त हूं। कल की फिकर नहीं है। कल फंसेगा फिर कोई, जैसे आज तुम फंस गए। और ध्यान रखो, यह मेरा व्यवसाय
है। और यह पुश्तैनी व्यवसाय है। यह मैं ही नहीं कर रहा हूं, मेरे
बाप भी करते थे, मेरे बाप के बाप भी करते थे। हम इसकी कला
जानते हैं। और इससे बेहतर कोई धंधा नहीं है--अगर पूछते ही हो तो। न कुछ लागत। न
कोई ब्याज-बट्टा। बस सुबह से उठे और जरा दो-चार आदमियों को तलाशना है। कोई न कोई
मिल ही जाता है। और फिर धीरे-धीरे हम कुशल हो जाते हैं जानने में भी कि कौन देगा,
कौन नहीं देगा।
एण्ड्रू कारनेगी ने उसे कुछ दिया और कहा कि मैं इस कारण दे रहा हूं कि
मैंने तेरे जैसा हिम्मतवर भिखमंगा नहीं देखा--कि तू मुझसे कह सका कि जब हम तुम्हें
सलाह नहीं देते, तुम हमें क्या सलाह देते हो! यह बात मुझे जंची। बात
तो ठीक ही है। हम क्या जानें भिखमंगे के राज! हमें सलाह नहीं देनी चाहिए।
पंडित-पुरोहित हैं, वे धंधा जानते हैं। वे कहते हैं,
हम धंधा कर देंगे। हमारी पहचान शास्त्रों से है। तुम पूजा भी करोगे
तो तुम्हारी पूजा अनगढ़ होगी। हमारी पूजा में व्यवस्था होगी, नियोजन
होगा, प्रक्रिया होगी; ठीक-ठीक होगी,
सम्यक होगी। और हम सस्ते में निपटा देते हैं। हमारा भी काम हो जाता
है, और तुम इतनी देर में कितना कमा लोगे!
पंडित-पुजारी तुम्हें सांत्वना दे रहे हैं, धक्के नहीं। इसलिए पंडित-पुजारियों को कभी सूली लगी है? तुमने सुना कि किसी देश में किसी पंडित को लोगों ने पत्थर मारे हों,
कि किसी पुजारी को सूली दी हो, कि किसी पुरोहित
की हत्या की हो? यह हुआ ही नहीं कभी। लोग पंडित-पुजारी,
पुरोहितों के पैर छूते हैं, सम्मान करते हैं।
जो तुम्हारी मलहम-पट्टी करते रहते हैं, जो तुम्हारे घावों को
ढांकते रहते हैं फूलों से, सुंदर-सुंदर फूलों से, उनका तुम सम्मान न करोगे तो और क्या करोगे!
जो लोग पंडित-पुरोहितों का सम्मान करते थे, उन्हीं लोगों ने जीसस को सूली चढ़ाया। आखिर जीसस का कसूर क्या था? जीसस धक्के दे रहा था। जीसस तुम्हारी मां की तरह है। और धक्के अच्छे नहीं
लगते, धक्के कभी अच्छे नहीं लगते। इसलिए मुझे इतनी गालियां
पड़ रही हैं; पड़ेंगी; बढ़ती रहेंगी।
जैसे-जैसे मैं धक्के दूंगा, जैसे-जैसे मेरे संन्यासी पंख
फड़फड़ाएंगे और आकाश में उड़ेंगे, और जैसे-जैसे ये गैरिक
पक्षियों से आकाश गैरिक होने लगेगा, जैसे सुबह होने लगी हो
और जैसे पूरब सुर्ख हो गया हो, वैसे-वैसे गालियां बढ़ती
जाएंगी। पत्थर भी बढ़ते जाएंगे। सूली भी लग सकती है! वह सब संभव है। क्योंकि धक्के
कोई पसंद नहीं करता। लोग सांत्वना चाहते हैं। पीठ ठोंको। और मैं तुम्हारा सिर
तोड़ने को तैयार! तुम आए थे पीठ ठुंकवाने, और मैं तुम्हारी
गर्दन काटने को तैयार! अहंकार का गिर जाना गर्दन का कट जाना है। तो नाराजगी में
अगर तुम मेरी गर्दन काटने को उत्सुक होने लगो, तो कुछ
आश्चर्य नहीं।
जब पक्षी को उसकी मां धक्का देती है, तो वह जोर से पकड़ता
है--और जोर से पकड़ लेता है। घोंसले को बिलकुल पकड़ लेता है कि छूटे ही न। लेकिन मां
इतनी आसानी से नहीं छोड़ देती। उड़ती है। उड़-उड़ कर दिखाती है कि देख मैं उड़ सकती हूं,
तू भी उड़ सकता है। तू मुझसे आया, मुझसे जाया।
मुझ जैसा है।
अमृतस्य पुत्रः--तू भी अमृत का पुत्र है--यही तो गुरु कहते हैं। कि
जैसे मैं, वैसे तू।
बुद्ध मरने लगे, तो आनंद रोने लगा। बुद्ध ने कहा,
मत रोओ! क्योंकि जैसा मैं, वैसा तू। अप्प दीपो
भव! अपना दीया बन। कब से तो कहता हूं नासमझ! उड़। तू उड़ सकता है। मुझे उड़ते देख कर
तुझे इतनी समझ नहीं आई! जैसा मैं, वैसा तू। भेद हममें जरा भी
नहीं है।
लेकिन लोग बड़े अजीब हैं। लोग इतने अदभुत हैं, उनकी विक्षिप्तता ऐसी गहरी है, उनकी बेहोशी ऐसी सघन
है कि जब बुद्ध उनसे कहते हैं कि जैसे हम, वैसे तुम। तो वे
क्या सुनते हैं मालूम? वे सुनते हैं कि जैसे हम, वैसे ही बुद्ध। सो कोई फर्क नहीं! सो तुम भी कहीं पहुंचे नहीं। हम बीमार
पड़ते, सो तुम बीमार पड़ते। हम बूढ़े हो गए, सो तुम बूढ़े हो गए। हम मरेंगे, सो तुम मरोगे। तो
फर्क क्या? जैसे हम, वैसे तुम। तुम्हीं
तो कहते हो!
एक आदमी पागल हो गया था। और उसे एक पागलपन छा गया--अजीब पागलपन--कि
मैं मर गया हूं। जिंदा! और माने नहीं। अब अगर कोई जिंदा आदमी कहे कि मैं मर गया
हूं, तो कैसे मनाओगे--कि नहीं मरे हो! सब तरह के उपाय किए
घर के लोगों ने। थक गए। परेशान हो गए। वह माने ही नहीं। भोजन करे, स्नान करे, सोए। मगर यह न माने कि मैं जिंदा हूं।
कहे मैं प्रेत हो गया हूं। प्रेत भी भोजन करते हैं! प्रेत भी सोते हैं, स्नान करते हैं! तुम मानो या न मानो--वह कहे। तुम लाख मुझे समझाओ। मैं
अपना अनुभव! अपने भीतर से जान रहा हूं कि मैं मर चुका। तुम नाहक समय खराब न करो,
अपने काम में लगो।
अंततः उसे मनोवैज्ञानिक के पास ले जाया गया। मनोवैज्ञानिक ने भी बहुत
कोशिश की। आखिर उसे एक सूझ आई। उसने कहा, एक काम करो। तुम एक
बात तो मानोगे कि मुर्दा आदमी के अगर हम हाथ में चाकू मारें तो खून नहीं निकलेगा!
उसने कहा कि नहीं निकलेगा। मुर्दा आदमी को कहीं खून निकल सकता है! तो उसने कहा,
फिर मेरे साथ आओ। वह आईने के सामने ले गया। धारदार चाकू निकाला। उस
आदमी के हाथ में जरा सा चाकू मारा। खून फव्वारे की तरह फूट उठा। उस मनोवैज्ञानिक
ने कहा, अब तो मानते हो कि तुम जिंदा हो? क्योंकि मुर्दों को खून नहीं निकलता! उसने कहा कि नहीं, अब मैं यह मानता हूं कि मुर्दों को भी खून निकलता है। इससे सिर्फ इतना ही
सिद्ध होता है कि मुर्दों को भी खून निकलता है। वह मेरी धारणा गलत थी कि मुर्दों
को खून नहीं निकलता। आज सिद्ध हो गया। अब तुम औरों को भी समझा देना कि मुर्दों को
भी खून निकलता है!
बुद्ध कहते हैं, तुम हम जैसे। और तुम सुन लेते हो,
बुद्ध हम जैसे। जरा सी बात का फर्क है। शायद वही की वही बात है एक
अर्थ में तो! मगर कितने अर्थ बदल गए! कहां आकाश, कहां जमीन!
और बुद्धों को तुम धक्का नहीं देने देते। तुम उनसे कहते हो, महाराज! शांति दो। सांत्वना दो। संतोष दो। और वे तुम्हें देना चाहते हैं
असंतोष, दिव्य असंतोष। ऐसा असंतोष कि जब तक परमात्मा न मिल
जाए, तब तक तुम जलते ही रहोगे; लपटों
में जलते रहोगे--विरह की, प्रेम की। एक ऐसी अशांति कि जो परम
उपलब्धि के पहले, समाधि के पहले जाएगी नहीं; तुम्हारा पीछा नहीं छोड़ेगी। तुम चाहते थे कोई मंत्र मिल जाता, कि गुनगुना लेते घड़ी भर, और सब ठीक हो जाता। और वे
तुम्हें एक ऐसा उपद्रव पकड़ा देते हैं, एक ऐसी अराजकता,
कि जब तक परमात्मा न मिलेगा, तुम तूफानों में
ही रहोगे। वे तुम्हारी किश्ती को किनारा नहीं देते, तूफान दे
देते हैं। वे धक्का दे देते हैं, किनारे छीन लेते हैं तुमसे।
सदगुरु वही, जिसके पास जाकर किनारे छिन जाएं और तूफान मिले।
सदगुरु वही, जो तूफानों में किनारा देखने की कला दे दे। जो
तूफानों में नाव को ले जाने का रस, आनंद दे दे।
तो मां पक्षी की, धक्के देती है। उड़ती है। दूसरे
वृक्ष पर जाकर बैठती है। वहां से आवाज देती है, पुकार देती
है। और बच्चा, एक मन करता उसका, जाऊं।
एक मन करता है, खतरा है। कहीं गिर न पडूं! एक मन करता है,
मां बुलाती है तो ठीक ही कहती होगी। और मां उड़ सकती है तो मैं क्यों
नहीं उड़ सकता! और देखने में मैं मां जैसा ही तो लगता हूं। ये पंख मेरे पास तो हैं,
फड़फड़ा तो मैं भी सकता हूं। आज नहीं कल। कल नहीं परसों। मां
प्रतीक्षा करती है; धक्के देती है; निमंत्रण
देती है; दूर झाड़ियों में छिप कर पुकार देती है। एक दिन
बच्चा हिम्मत जुटा लेता है। खोल देता है पंख, उड़ जाता है
आकाश में। फिर किसी मां को बुलाने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती।
मेरा काम है भरत, कि तुम्हें धक्के दूं। मेरा काम
है कि तुम्हें प्रेम के तूफान में छोड़ दूं।
मेरी एक धरोहर है, तू रखना जरा सम्हाल कर,
अपनी कविता छोड़
गया हूं, साथी तेरे
गांव में।
पास पड़ी है सरगम, लेकिन मौन है,
तनहाई में सुनता किसकी कौन है?
चैन नहीं मिलता है जलती रात को,
थामे कौन उमड़ती दृग-बरसात को?
एक साधना-फूल खिलाया बड़े जतन से पाल कर,
मुरझ न जाए कहीं देखना यह पीपल की छांव में।
मेरी एक धरोहर है, तू रखना जरा सम्हाल कर,
अपनी कविता छोड़
गया हूं, साथी तेरे
गांव में।
दुनिया है बेदर्द, पुरानी बात है,
पर सबको सहना पड़ता आघात है,
माना मुझसे कोई कुछ नाराज है,
समझ न पाया वह मस्ती का राज है,
लेकिन मैं तो सबकी सुन लेता हूं यही खयाल कर,
जीत समझता है जो अपनी, हारा है वह दांव में।
मेरी एक धरोहर है, तू रखना जरा सम्हाल कर,
अपनी कविता छोड़
गया हूं, साथी तेरे
गांव में।
सांसें चलतीं, मैं भी चलता जा रहा,
बाती जलती, मैं भी जलता जा रहा,
बहुत फासला मेरा-उसका, मीत रे,
दूरी कम कर सकता है बस गीत रे,
मेरा गीत, तराना तेरा, गूंजे जग की ताल पर,
नूपुर बन कर बाजे कोई जीवन-स्वर के पांव में।
मेरी एक धरोहर है, तू रखना जरा सम्हाल कर,
अपनी कविता छोड़
गया हूं, साथी तेरे
गांव में।
सदगुरु इतना ही करता है! एक गीत गुनगुना देता है तुम्हारे हृदय में। एक
कविता जगा देता है। फिर छोड़ देता है तुम्हें अनंत की यात्रा पर। तुम्हारे पैरों
में घूंघर बांध देता है; तुम्हारे हाथ में इकतारा सम्हाल देता है।
मेरा गीत, तराना तेरा, गूंजे जग की ताल पर,
नूपुर बन कर बाजे कोई जीवन-स्वर के पांव में।
मेरी एक धरोहर है, तू रखना जरा सम्हाल कर,
अपनी कविता छोड़
गया हूं, साथी तेरे
गांव में।
ऐसे ही बुद्धपुरुष सदा-सदा अपनी कविताएं तुम्हारे गांव में छोड़ गए
हैं। मगर उन कविताओं के तुम अपने अर्थ कर लेते हो, तो चूक जाओगे। उन
कविताओं को अपने अर्थ मत देना। उन कविताओं को अपना हृदय देना जरूर--अपना मस्तिष्क
न देना। उन कविताओं को सुनना, गुनना, गुनगुनाना,
नाचना, लेकिन उन्हें बुद्धि से विश्लेषण मत
करना, अन्यथा तुम चूक जाओगे। तुम जो भी विश्लेषण करोगे,
वही गलत होगा।
मुल्ला नसरुद्दीन बस में यात्रा कर रहा था। वह थोड़ी-थोड़ी देर में बस
के कंडक्टर से कहता जा रहा था, शाहदरा आने पर बता देना। कंडक्टर
ने कहा, चिंता मत करो, बड़े मियां! अभी
तो बहुत दूर है।
भीड़ अधिक होने की वजह से कंडक्टर मुल्ला को बता न पाया और बस आगे निकल
गई। मुल्ला ने फिर पूछा, अब शाहदरा और कितनी दूर है? बस
का कंडक्टर बोला, बड़े मियां, माफ करना।
शाहदरा तो पीछे निकल गया।
अब तो मुल्ला ने चिल्ला-चिल्ला कर जमीन-आसमान एक कर दिया। और कंडक्टर
से बोला, मैंने तुमसे कितनी बार कहा कि शाहदरा आए तो बता देना।
गलती किसकी है?
बस में बैठे लोगों के अनुरोध पर बस वापस शाहदरा की ओर ले जानी पड़ी।
शाहदरा पहुंचने पर मुल्ला नसरुद्दीन ने एक गिलास पानी बुलाया। कंडक्टर ने उसे पानी
लाकर दिया। मुल्ला ने जेब से दवाई की एक पुड़िया निकाली और पानी के साथ उसे फांक
गया। और बड़े आराम से पैर फैला कर लेट गया। कंडक्टर बोला, जल्दी उतरो बड़े मियां! इस पर मुल्ला नसरुद्दीन ने लेटे-लेटे जवाब दिया,
जाना तो मुझे गाजियाबाद है! कंडक्टर झल्लाया। बोला, अबे उल्लू के पट्ठे! यदि गाजियाबाद ही जाना था तो आधे रास्ते से बस क्यों
लौटा कर ले आया? मुल्ला बोला, इसमें
मैं क्या कर सकता था! चलते वक्त डाक्टर ने कहा था कि यह दवाई की पुड़िया शाहदरा आने
पर ले लेना।
तुम क्या समझोगे, यह तुम पर निर्भर है। तुम समझ को
बीच में लाओगे तो कुछ नासमझी हो ही जाने वाली है। तुम समझ को बीच में मत लाना।
सुनो! पीयो! मस्त होओ! समझ तुम्हारी काम की नहीं है। क्योंकि समझ तो
तुम्हें समझाएगी कि पकड़े रहो जोर से अपने नीड़ को; छोड़ मत देना। पकड़े
रहो अपनी पुरानी धारणाओं को; छोड़ मत देना। क्योंकि उन्होंने
इतने दिन तक सुरक्षा दी है। और फिर कौन जाने, इस
अनजान-अपरिचित आदमी के साथ चल पड़ना! कहां ले जाए? कहां भटका
दे?
जाने-माने लोगों के साथ चलना ठीक लगता है। चाहे जिंदगी भर भटकते ही
क्यों न रहो! लेकिन तिलकधारी पंडित पहचाना हुआ मालूम पड़ता है। बचपन से उसे देखा
है। बाप-दादे भी उसी के पीछे चलते रहे। रामायण की चौपाइयां दोहरा देने वाला पंडित
पहचाना हुआ मालूम पड़ता है। बचपन से सुनी हैं चौपाइयां। खून में समा गई हैं।
जब भी कोई बुद्धपुरुष होगा, वह तुम्हें धक्के देगा
अज्ञात की ओर। ज्ञात में बुद्धों की निष्ठा नहीं है--अज्ञात में है। क्योंकि
परमात्मा अज्ञात है। क्योंकि प्रेम अज्ञात है।
होली के दिन थे। मुल्ला नसरुद्दीन एक नाई की दुकान पर दाढ़ी बनवा रहा
था। और नाई ने डट कर भांग पी रखी थी। दाढ़ी बनाते-बनाते उसने मुल्ला का गाल ही
उस्तरे से काट दिया। मुल्ला बड़ा नाराज हुआ। और नाई से बोला, देखो जी! हजार बार तुमसे कहा है, लेकिन समझे नहीं
तुम अभी तक। यह भांग खाने का परिणाम है! नाई बोला, अहा! तभी
तो मैं कहूं कि गाल इतना मुलायम क्यों है!
तुम्हारी समझ किसी काम नहीं आएगी इस अज्ञात के जगत में। तुम बेहोश हो।
तुम सोए हो। तुम्हारी आंखें बंद हैं। तुम आंख वालों की बातें समझ नहीं सकते। हां, तुम आंख वालों की बातें पी सकते हो। उनके स्वर में स्वर मिला कर गा सकते
हो। उनके ताल में नाच सकते हो। और उनके साथ नाचो, उनके साथ
गाओ, तो तुम्हारी बंद आंखें भी खुल जाएं।
एक पुलिस अफसर और उनकी पत्नी को रात में चलने की बीमारी थी। एक दिन
पुलिस अफसर रात को देर से घर आया, कपड़े खूंटी पर टांगे, और सो गया। पत्नी ने देखा कि उसके कोट की जेबें घूस के माल से फटी पड़ रही
हैं। वह धीरे से उठी और हजार रुपये जेब से निकालने लगी। पुलिस अफसर भी कोई साधारण
आदमी तो था नहीं, उसने झट पत्नी को रंगेऱ्हाथों पकड़ लिया और
रोबीली आवाज में बोला, ऐ बदमाश औरत! शर्म नहीं आती पुलिस के
एक उच्च अधिकारी की चोरी करते हुए! चल थाने, तुझे मजा चखाऊं।
पत्नी घबड़ा गई। सौ रुपये का एक नोट धीमे से पति के हाथ में थमा कर बोली, सुनो! मामला यहीं दबा दो।
और दोनों नींद में हैं! दोनों सोए हैं। और यह सारी पृथ्वी सोई है। और
ये सारी पृथ्वी के लोग सोए-सोए चल रहे हैं। सब चल रहा है। रिश्वत भी ली जा रही है।
रिश्वत भी दी जा रही है। जेबें काटी जा रही हैं। जेबें भरी जा रही हैं। मकान बन
रहे हैं, गिर रहे हैं। लोग आबाद हो रहे, बरबाद
हो रहे। सब चल रहा है। लेकिन नींद नहीं टूटती। और नींद टूटे तो तुम्हारे जीवन में
प्रेम आए।
मूर्च्छा है, तब तक कामना। अमूर्च्छा है, तो
प्रेम।
इसलिए भरत, जागो! भय तो लगेगा, क्योंकि
सोने में जो सपने देख रहे हो, वे सब छोड़ने पड़ेंगे। भय के
बावजूद जागो। और अच्छा हुआ कि तुम्हें इतना समझ में आ गया कि तुम कतरा रहे हो। यह
पहला कदम है। अब दूसरा कदम यह है कि कतराने को पड़ा रहने दो एक तरफ और हिम्मत से
प्रेम की यात्रा करो। क्योंकि प्रेम की यात्रा ही प्रभु के मंजिल तक ले जाती है।
लेकिन मेरे प्रेम को ठीक-ठीक से समझ लेना। अपने अर्थ मत बिठाना। दूसरे
भी, मैं जो कह रहा हूं उसका अर्थ करेंगे, उनसे भी सावधान
रहना।
गीता पर हजार टीकाएं हैं! अगर तुम गीता को सीधा-सीधा पढ़ो, तो मामला इतना उलझा हुआ नहीं है। गीता साफ-सुथरी है। मगर अगर हजार टीकाएं
पहले पढ़ो और फिर गीता पढ़ो, तो तुम्हारी समझ में गीता बिलकुल
नहीं आएगी।
पहले पढ़ो शंकराचार्य को, तो वे गीता को एक रंग
देते हैं--अपना रंग। वे गीता की ऐसी तोड़-मरोड़ करते हैं! वे गीता को ऐसा उलटा-सीधा
आसन लगवाते हैं! वे गीता में से ऐसे अर्थ निकाल लेते हैं जो कृष्ण की कभी कल्पना
में भी न रहे होंगे!
कृष्ण समझाते हैं अर्जुन को: उतर जा युद्ध में। और शंकराचार्य कृष्ण
के वचनों में से अर्थ निकालते हैं: कर्म-संन्यास। सब कर्म छोड़ कर संन्यासी हो जाओ।
यह तो हो गया न गजब! पैर के बल खड़े आदमी को सिर के बल खड़ा करवा दिया!
शीर्षासन लगवा दिया। कहां कृष्ण कह रहे हैं--कर्म में उतर जाओ, अकर्ता भाव से। कर्म ऐसे कि जैसे अकर्म हो। तुम करने वाले नहीं; करने वाला परमात्मा। तुम सिर्फ उसके वाहन। मगर बस इसमें से शंकर ने ऐसा
अर्थ निकाला कि कृष्ण कह रहे हैं--कर्म तो तुम्हारा है नहीं, कर्ता तुम हो नहीं, इसलिए तुम झंझट में क्यों पड़ते
हो! तुम कर्म के बाहर हो जाओ; अकर्म साधो; कर्म से संन्यास लो।
कर्ता से संन्यास लो--यह कृष्ण का उद्देश्य था। लेकिन कर्ता से कर्म
में बदल देना बड़ा आसान है। और शंकराचार्य जैसे तार्किक के लिए तो बहुत आसान है, कोई अड़चन नहीं है। शंकर को पढ़ोगे तो शंकर ही ठीक मालूम पड़ेंगे। शंकर को
पढ़ते वक्त तो ऐसा लगेगा कि अगर कृष्ण भी सामने मौजूद हों तो शंकराचार्य उनको भी
राजी कर लेंगे कि यह अर्थ है--तुम्हारी बात का यह अर्थ है! कह तो तुम गए, लेकिन शायद अर्थ तुम्हें साफ नहीं है।
फिर रामानुज को पढ़ोगे, तो हैरान होओगे! कहीं
मेल नहीं है शंकर से। कहां संन्यास, कहां वैराग्य, और कहां रामानुज निकालते हैं कृष्ण के वचनों में से भक्ति, प्रेम, परमात्मा से राग! वे भी उतने ही बड़े तार्किक
हैं। वे भी कुछ शंकर से कम नहीं। रामानुज को पढ़ोगे तो ऐसा ही लगेगा कि गीता भक्ति
का शास्त्र है।
और फिर लोकमान्य तिलक, इसी पूना में हुए,
और उन्होंने तीसरा ही अर्थ निकाला--कर्म, कर्मयोग।
न भक्ति, न संन्यास--अखंड कर्मठता। मराठी मानुस को खूब जमी
होगी बात। अखंड कर्मठता! यह रही कुछ बात! क्या संन्यास! क्या भक्ति! हो जाए मुठभेड़।
लग जाओ कर्म में। टूट पड़ो कर्म में।
कहते हैं, जिस दिन लोकमान्य तिलक की पत्नी की मृत्यु हुई,
वे केसरी के दफ्तर में काम कर रहे थे। उनका अखबार केसरी। भागा हुआ
आदमी आया। उसने कहा, आपकी पत्नी चल बसी! बीमार तो थी ही। अब
गई, तब गई, ऐसी हो रही थी। आप जल्दी
करो!
मालूम है लोकमान्य ने क्या किया? लोकमान्य ने घड़ी की
तरफ देखा और कहा, अभी तो साढ़े चार बजे हैं! पत्नी आधा घंटा
पहले मर गई तो मैं क्या कर सकता हूं! पांच बजे दफ्तर बंद होगा। पांच बजे मैं
आऊंगा।
और ऐसे लोग हैं जो लोकमान्य की इस बात की खूब प्रशंसा करते हैं, कि वाह! कैसा अदभुत आदमी! पत्नी मर गई, मगर कर्म न
छोड़ा। कर्मयोगी! पांच बजे नियम से, घड़ी से आएंगे! जैसे अब
पत्नी के हाथ में है मरना, कि कब मरे--साढ़े चार बजे मरे,
कि पांच बजे मरे। अगर होशियार होती तो रविवार को मरना था। छुट्टी के
दिन!
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी छुट्टी के दिन ही मरी। रविवार का दिन!
मुल्ला ने एकदम सिर ठोंक लिया। उसने कहा, मुझे मालूम था कि वह
मरते वक्त भी मुझसे बदला लेगी। आज पिकनिक पर जाना था। सुंदर मौसम। दुष्ट को क्या
दिन सूझा मरने के लिए! और भी कभी मर सकती थी। सप्ताह में सात दिन होते हैं। मगर आज
ही मरना था। मुझे पता ही था कि वह जरूर कोई ऐसा मौका चुनेगी कि आखिरी दम भी मुझे
सता जाए!
लोग अपने ढंग से सोचते हैं। और सत्संग उन्हीं को उपलब्ध होता है, जो सोचने को तो किनारे पर रख देते हैं; जो कहते हैं,
अब सोचेंगे क्या! अब जीएंगे, अब अनुभव करेंगे।
हो चुका बहुत सोच-विचार, जनम-जनम हो गए, युगऱ्युग बीत गए।
भरत, अब प्रेम के संबंध में मत सोचते रहो! नहीं तो प्रेम
पर बड़े शास्त्र लिखे गए हैं। और जितने शास्त्र, उतनी उलझन।
और जितना प्रेम के संबंध में जान लोगे, उतना प्रेम मुश्किल
हो जाएगा।
मुल्ला नसरुद्दीन अपने बेटे फजलू से कह रहा था, क्या तुम्हारे मास्टर जी समझ गए कि यह सवाल हल करने में मैंने तुम्हारी
मदद की थी? फजलू बोला, हां, वे एकदम देखते ही समझ गए। तत्काल बोले कि यह काम दो आदमियों का लगता है।
केवल एक आदमी इतनी गलतियां कर ही कैसे सकता है!
तुम भी किसी एकाध पंडित के लक्षण नहीं दे रहे हो, अनेक पंडितों के लक्षण दे रहे हो। अनेक ज्ञानियों, अनेक
महात्माओं ने तुम्हें बिगाड़ा और बरबाद किया है। तुम्हारी खोपड़ी में इतना कचरा भर
गया है!
सारा कचरा खाली करो। प्रेम के संबंध में जो जानते हो, भूल जाओ, तो संभावना है प्रेम को जानने की। परमात्मा
के संबंध में जो जानते हो, भूल जाओ, तो
संभावना है परमात्मा को जानने की। फिर से अज्ञानी हो जाओ, तो
ज्ञान का आविर्भाव हो सकता है।
*दूसरा प्रश्न: भगवान! क्या कभी सदगुरु भी शिष्य की
परीक्षा लेता है?
नंदन! पूछते हो कभी!
प्रतिपल लेता है। पल-पल लेता है। सदगुरु के पास होना परीक्षा है। सत्संग परीक्षा
है--सतत, अहर्निश। तुम्हें समझ में आए या न आए।
सदगुरु के पास कोई ऐसी परीक्षा नहीं होती, जैसे विश्वविद्यालय में होती है--कि घोषणा की गई कि फलां तारीख से परीक्षा
शुरू होगी। और फिर घंटा बजा। और तुम परीक्षालय में गए और कापियां बटीं। और फिर
तुमने निकाले सब नोट्स वगैरह, जो तुम ले आए हो छिपा कर। और
जो और ज्यादा होशियार हैं, उन्होंने छुरा वगैरह निकाल कर
टेबल पर रख लिया, जिससे कोई बाधा न डाले। और परीक्षा शुरू!
सदगुरु के पास परीक्षा सूक्ष्म है। न कोई घंटा बजता; न कोई परीक्षालय में प्रवेश होता; न कोई कापियां
बांटी जातीं; न नकल करने का कोई उपाय है। चुपचाप चलती रहती
है। हो जाती है तब कहीं पता चलता है कि अरे, परीक्षा हो गई!
हो जाने के बाद भी पता चल जाए, तो समझो कि बहुत सौभाग्यशाली
हो तुम। नहीं तो हो भी जाती है परीक्षा, और पता भी नहीं
चलता। लोग उत्तीर्ण भी होते रहते हैं, अनुत्तीर्ण भी होते
रहते हैं, उनको कभी खबर भी नहीं लगती कि क्या हो रहा है!
बेहोशी ऐसी है!
एक सूफी कहानी। एक दरवेश के पास कोई आदमी आया और उसने उसे एक सिला हुआ
कपड़ा भेंट दिया। उसी समय दरवेश ने अपनी झोली में हाथ डाला और एक मछली निकाल कर उस
आदमी को दी। जिस आदमी ने कपड़ा भेंट किया था, उसको तत्क्षण एक मछली
निकाल कर दे दी।
दरवेश के पास बैठे हुए उसके बहुत से शिष्यों ने यह देखा, तो उस आदमी और अपने गुरु के बीच हुए उस आदान-प्रदान का रहस्य जानने के लिए
आपस में बहस करने लगे। मामला क्या है? न वह कुछ बोला;
चुपचाप आकर कपड़ा भेंट किया! और कपड़ा! और अचानक गुरु ने झोली में से
मछली क्यों निकाली? और कुछ न सूझा? मछली-कपड़े
का क्या लेना-देना? और तत्क्षण उसको मछली पकड़ा दी! इस
आदान-प्रदान में जरूर कुछ रहस्य है। कोई गुह्य बात, कोई
गुप्त राज, जो हमसे चूका जा रहा है। यह ऊपर का लेन-देन है,
भीतर कुछ और मामला है। कपड़ा किसी चीज का प्रतीक होगा। मछली किसी चीज
की प्रतीक होगी! बड़ा ऊहापोह चला। बड़ा वाद-विवाद शुरू हो गया। क्योंकि ऐसी चीजों
में वाद-विवाद की तो खूब गुंजाइश है। अब मछली का जो मतलब करना हो! कपड़े का जो मतलब
करना हो! बोला कोई कुछ है नहीं। शब्द आए नहीं बीच में। शब्द होते तो कुछ
इंगित-इशारा मिल जाता। पहेली रही बिलकुल।
कई दिन बीत गए, तो दरवेश ने उनसे पूछा कि वे किस नतीजे पर पहुंचे। जब
सभी शिष्य अपनी-अपनी बात बता चुके, तो दरवेश ने कहा, उस आदान-प्रदान द्वारा मैं देखना चाहता था कि तुममें से क्या कोई इतना
अक्लमंद भी है कि जो यह समझ सके कि इस आदान-प्रदान का कोई मतलब नहीं था!
बड़ी अजीब परीक्षा हुई यह तो। यह जानना चाहता था फकीर कि क्या तुममें
से कोई इतना अक्लमंद भी है कि जो यह भी समझ सके कि इस आदान-प्रदान का कोई प्रयोजन
नहीं है! मगर यह पराकाष्ठा है प्रतिभा की। क्योंकि अस्तित्व का कोई प्रयोजन नहीं
है। यह बस है। इसका कोई गंतव्य नहीं है। यह अस्तित्व कहीं जा नहीं रहा है।
मत पूछो कि अस्तित्व क्यों है? क्योंकि इसके न होने
का कोई कारण है, न कोई हेतु है--न पीछे, न आगे। न यह कहीं से आ रहा है, न कहीं जा रहा है। यह
सदा यहीं है। यह बस है। इसके है-पन को भोगो। प्रयोजन, हेतु,
कारण--मनुष्य की ईजादें हैं। हां, कार का
प्रयोजन होता है, क्योंकि एक जगह से दूसरी जगह ले जाती है।
कपड़े का प्रयोजन होता है, तन को ढंक देता है। धूप, गर्मी, बरसात में सहयोगी होता है। छाते का प्रयोजन
होता है, कि कभी वर्षा हो जाए तो आड़ हो जाती है, धूप पड़े तो आड़ हो जाती है। चीजों का प्रयोजन होता है--आदमी की बनाई गई
चीजों का। लेकिन आकाश का क्या प्रयोजन? चांदत्तारों का क्या
प्रयोजन? फूलों का क्या प्रयोजन? तुम्हारा
क्या प्रयोजन? होने का क्या प्रयोजन? कोई
प्रयोजन नहीं है।
सूफी फकीर कह रहा है कि मैं जानना चाहता था कि क्या कोई ऐसा भी
व्यक्ति यहां है, जिसमें इतनी प्रतिभा हो, जो इस
आदान-प्रदान की निष्प्रयोजनता को समझ सके। क्योंकि वही फिर मेरी और बातों को समझ
सकेगा, नहीं तो चूक जाएगा।
परीक्षा तो प्रतिपल चल रही है। तुम्हें पता भी नहीं चलेगा परीक्षा का।
परीक्षा का पता तो तुम्हें उसी दिन चलेगा, जब तुम उत्तीर्ण हो
चुके होओगे, पूर्ण उत्तीर्ण हो चुके होओगे। जब आखिरी परीक्षा
हो चुकी होगी और तुम अपने घर आ गए होओगे, तब तुम्हें पता चलेगा
कि अरे, कितनी परीक्षाएं गुजरती रहीं! परीक्षाओं पर
परीक्षाएं! लेकिन जब परीक्षाएं गुजरीं, तब तुम्हें जरा भी
खयाल नहीं आया होगा। आ जाए, तो तुम्हारा गुरु बहुत कुशल
नहीं। तो गुरु को परीक्षा लेना नहीं आता। अभी वह गुरु ही नहीं है--अगर तुम समझ जाओ
कि यह परीक्षा ली जा रही है। क्योंकि तुम्हें अगर समझ में आ जाए कि परीक्षा ली जा
रही है, तब तो तुम धोखा कर सकते हो। झूठे उत्तर दे सकते हो।
बनावटी उत्तर ला सकते हो। पूछ कर उत्तर आ सकते हो। किताबों को देख सकते हो।
शास्त्रों को पढ़ सकते हो।
एक झेन फकीर ने अपने शिष्य से पूछा कि शिष्य का लक्षण क्या है? उस शिष्य ने बड़े सहज भाव से कहा, बुद्धं शरणं
गच्छामि। संघं शरणं गच्छामि। धम्मं शरणं गच्छामि। जो जागे हुए हैं, उनकी शरण जाना शिष्य का अर्थ है। जागे हुओं की जो जमात है, सत्संग है, उसमें डूब जाना, शरणागत
हो जाना शिष्य का लक्षण है। जागे हुए जिस सूत्र के कारण जागे हैं, जागे हुओं की जमात जिस सूत्र के कारण फूलों की एक माला बन गई है, उस धर्म, उस परम नियम, उस परम
सूत्र पर अपने को समर्पित कर देना शिष्य का लक्षण है।
गुरु ने कहा, ठीक।
दूसरे दिन सुबह-सुबह जब फिर गुरु और शिष्य का मिलना हुआ, तो गुरु ने पूछा, शिष्य का क्या लक्षण है? शिष्य तत्क्षण बोला, बुद्धं शरणं गच्छामि। संघं शरणं
गच्छामि। धम्मं शरणं गच्छामि। गुरु ने कहा, भाग यहां से मूरख
कहीं का! यह कोई उत्तर है!
शिष्य ने कहा, यह तो बड़ी अजीब बात हुई। कल आपने कहा था--यही उत्तर
है। और आज कहते हैं--यह कोई उत्तर है!
गुरु ने कहा, कल कल था, आज आज है। कल यह सही
था। यह अपने कारण सही नहीं था; तेरी सहज स्फुरणा के कारण सही
था।
तुम समझना थोड़ा फर्क। इस उत्तर में क्या रखा है! यह तो बुद्धू सदियों
से दोहरा रहे हैं। हजारों-लाखों बुद्धू दोहराते रहे हैं--बुद्धं शरणं गच्छामि।
दोहराते रहे बुद्धं शरणं गच्छामि, और बुद्धू थे सो बुद्धू ही रहे।
कुछ फर्क न पड़ा। जाते रहे बुद्ध की शरण, मगर बुद्धूपन जरा भी
न हटा। इसमें क्या रखा है! यह तो तोते भी दोहराते हैं। बौद्ध देशों में, जैसे तुम्हारे देश में तोते दोहराते हैं राम-राम, सीता-राम,
ऐसा बौद्ध देशों में तोते दोहराते हैं: बुद्धं शरणं गच्छामि।
इसमें क्या रखा है! मगर नहीं, तेरी सहज स्फुरणा;
तूने तत्क्षण जवाब दिया था; सोचा नहीं था,
विचारा नहीं था। यह तेरी बुद्धि से नहीं आया था; यह तेरे हृदय से उमगा था। कल यह सही था। आज यह झूठा है। क्योंकि आज तू
सिर्फ कल को दोहरा रहा है। आज यह बुद्धि से आ रहा है। आज यह कल की कार्बन कापी है।
आज यह उधार है, बासा है। कल यह ताजा फूल था। आज पंखुड़ियां झड़
गईं। धूल में पड़ी हैं। धूल-धूसरित हो गई हैं। यह आज सही नहीं है।
उत्तर सीखे नहीं जा सकते--यह परीक्षा ऐसी है। सीखे हुए उत्तर किसी काम
के नहीं हैं--यह परीक्षा ऐसी है। यह परीक्षा तुम्हारी सहज स्फुरणा की है, तुम्हारी सहजता की है। इसलिए कोई भी कुंजियां नहीं हैं, जैसे परीक्षा की कुंजियां होती हैं। और जो कल सही था, आज सही हो या न हो!
इसलिए बहुत बार तुम मुझसे प्रश्न पूछते हो कि आपने पांच साल पहले यह
कहा था, आज आपने यह कहा। कौन सी बात सही?
पांच साल पहले की बात आज ला रहे हो! अरे, कल भी आज नहीं रहा। पांच साल गंगा का कितना पानी बह गया! मुझे खुद ही पता
नहीं कि पांच साल पहले मैंने क्या कहा था। कौन हिसाब रखता है? ये कोई हिसाब-किताब रखने की बातें हैं! यहां कोई खाते-बही हैं? और पांच साल पहले किससे कहा था! निश्चित ही वह तुम नहीं हो। जिससे कहा था,
उसके लिए रहा होगा उत्तर। और उसके लिए भी रहा होगा उत्तर उसी क्षण।
वह भी अगर आज यहां मौजूद हो और कहे कि पांच साल पहले आपने मुझसे ऐसा कहा था,
अब आप ऐसा कहते हैं! तो मैं उससे कहूंगा, पांच
साल में तुम भी तो बह गए। गंगा ही थोड़े बही; तुम भी बह गए।
हेराक्लतु ने कहा है, एक ही नदी में दुबारा नहीं उतरा
जा सकता।
और मैं तुमसे कहता हूं, एक ही आदमी से दुबारा
मिला नहीं जा सकता। जैसे नदी बह रही है और बदल रही है, ऐसे
आदमी बह रहे और बदल रहे हैं।
उस दिन तुम्हारे संदर्भ में उत्तर रहा होगा। उस संदर्भ में सही था। आज
के संदर्भ में उसका कोई अर्थ नहीं है। न तुम तुम हो, न मैं मैं हूं।
तुम अगर फोटोग्राफर के पास जाओ और आज अपनी तस्वीर उतरवाओ और फिर
तस्वीर में देखो और कहो कि यह क्या मामला है! पांच साल पहले मैं आया था और तुमने
मेरी तस्वीर उतारी थी। इन दोनों में कुछ मेल नहीं मालूम होता!
एक छोटा बच्चा अपनी मां के पास बैठा है और घर का अलबम देख रहा है। एक
सुंदर जवान की तस्वीर आई। घुंघराले बाल, बड़े-बड़े बाल, काले बाल, तेजस्वी चेहरा, रोब-दाब,
टाई-कोट! बेटे ने पूछा, यह कौन है? इसको तो मैंने कभी देखा नहीं। उसकी मां ने कहा, अरे
पहचाने नहीं? ये तुम्हारे डैडी! उस लड़के ने कहा, ये मेरे डैडी! तो वह जो घुटमुंडा अपने घर में रहता है, जिसको मैं अब तक डैडी समझता था, वह कौन है?
बीस साल बीत गए होंगे। अब वे बाल न रहे। अब वह बालों में घुंघरालापन न
रहा। अब वह चेहरा न रहा।
तुम जब इस तरह के सवाल पूछते हो कि पांच साल पहले आपने ऐसा कहा था, कि दस साल पहले ऐसा कहा था, तो तुम उस बच्चे से
ज्यादा समझदारी दिखला नहीं रहे हो।
मैं तो जो अभी कह रहा हूं, वह अभी का सत्य है,
अभी सत्य है। आने वाले क्षण में क्या होगा--आने वाला क्षण जानेगा।
गुरु के पास परीक्षा चलती रहती है, प्रतिपल चलती रहती
है। लेकिन कोई बंधे उत्तरों से काम नहीं होगा। इसलिए परीक्षा का पता भी नहीं चलता।
एक झेन फकीर के पास एक युवक तीन साल से आता रहा, आता रहा। और हर बार उसे एक पहेली दी गई थी, वह सुलझा
नहीं पाता था। जब भी आए, गुरु उसको मारता था।
झेन फकीर मारते हैं। उनकी करुणा महान है। डंडा पास रखते हैं। सिर रहे
कि जाए, सिर टूटे कि फूटे, उनका डंडा
निर्ममता से प्रहार करता है।
तीन साल से पिटता रहा शिष्य। आखिर घबड़ा गया कि कब तक पिटना है! दो-चार
दिन में तो किसी तरह दर्द जाता। फिर लौट कर आता। नया उत्तर लाता पहेली का। और वह
डंडा तैयार! और कई बार तो ऐसा हुआ कि शिष्य को लगा यह तो हद हो गई। एक दिन तो ऐसा
हुआ कि उसने जवाब ही नहीं दिया था और डंडा पड़ा। उसने कहा कि कम से कम मेरा जवाब तो
सुन लेते! गुरु ने कहा, तुझे देख कर ही मैं समझ गया कि तू गलत जवाब देगा।
भाग! रास्ते पर लग!
यह कोई परीक्षा का ढंग हुआ! कम से कम जवाब तो सुन लो! मगर सदगुरु देख
सकता है। तुम्हारी चाल कह देती है। वह जैसा घुसा होगा डरते-डरते, झिझका-झिझका; भयभीत; अपने को
मजबूत किए; आंखों में संदेह लिए कि अब फिर डंडा पड़ा! घुसा
होगा देखता--गुरु को कम और डंडे को ज्यादा। देख रहा होगा कि आज गुरु कैसी स्थिति
में है। कितनी दूर से जवाब दूं! तीन साल से जो पिट रहा हो, आखिर
अनुभव से भी आदमी कुछ तो सीखता है। इतना तो सीख ही गया होगा।
कई बार तो गुरु ने दरवाजा ही नहीं खोला। वह आकर बाहर दस्तक दे, गुरु कहे, भाग जा! नाहक मुझे डंडा मारना पड़ेगा। तू
क्या समझता है, तू ही पिटता है? मेरा
हाथ भी तो दुखने लगा।
आखिर उसने सोचा कि ऐसे काम नहीं चलेगा। पुराने शिष्यों से पूछ लूं।
किसी को उत्तर मालूम हो। इन लोगों ने कैसे हल किया! इनकी खोपड़ी पर अब डंडे नहीं
पड़ते। उसने एक सबसे पुराने शिष्य से पूछा कि आप तो बुजुर्ग हो गए। आप स्वीकृत हो
गए। आपने पहेली हल कर ली। आपने कैसे हल की थी? तो उसने कहा, भाई, पिटा तो मैं भी बहुत था। लेकिन एक दिन हल हो गई।
मैं गया भीतर, और जैसे ही गुरु ने पूछा, लाए उत्तर? बस न मालूम क्या हुआ, मैं एकदम चारों खाने चित्त गिर पड़ा। आंखें बंद। और गुरु ने कहा, ठीक। मुझे पक्का पता नहीं क्या हुआ। उस दिन डंडा नहीं पड़ा। गुरु ने मुझे
गले लगाया। और अपनी प्याली, जो उसको बहुत प्यारी प्याली थी
चाय पीने की, वह मुझे भेंट दे दी। वह प्याली रखी है, तुम देखो। चाय तो उससे मैं नहीं पीता। उस पर फूल चढ़ाता हूं। वह मेरा पूजा
का आलंबन बन गई। बस उस दिन के बाद पहेली नहीं पूछी गुरु ने। क्या हुआ, मुझे कुछ पता नहीं! मगर उस दिन के बाद मैं आदमी दूसरा हो गया, यह पक्का है। उत्तर कैसे आया, कहां से आया--यह भी
तुमसे नहीं कह सकता। लेकिन उस क्षण के बाद मैं वही आदमी नहीं हूं। वह तो मर ही
गया। सच ही मर गया। मैं दूसरा ही आदमी हूं।
उसने कहा, अरे महाराज! तीन साल से तुम मुझे पिटते देख रहे हो।
सिर पर पट्टियां बंधी देखते हो। इतनी तो दया करते--बुद्ध ने कितना समझाया कि करुणा
ही धर्म है--इतनी तो दया करते, इतना मुझे बता देते। यह तो
मैं कभी भी कर सकता था। इसमें रखा ही क्या है! एक दो दिन अभ्यास करूंगा--और तुम
देखना, तीसरे दिन!
दो दिन उसने अभ्यास किया; बार-बार अपने कमरे
में चारों खाने चित्त गिर पड़े। एकदम आंखें बंद करके पड़ा रह जाए, सांस बंद कर ले। जब अभ्यास पूरा हो गया, पहुंचा
तीसरे दिन गुरु के दरवाजे पर। न केवल दरवाजा खुला था, गुरु
अपने डंडे पर तेल मस रहा था। उसकी तो छाती बैठ गई कि हद्द हो गई। तेल मसते कभी
नहीं देखा था उसको, कि डंडे की मालिश कर रहा था! थोड़ा घबड़ाया
भी कि कुछ पता तो नहीं चल गया! वह गुरु, कहीं उस पुराने
शिष्य, कुछ दोनों में बातचीत तो नहीं हो गई! मगर फिर उसने
कहा, अब जो करना है, वह करके ही दिखाना
है। दो दिन मेहनत भी की है। गुरु ने पूछा, लाए उत्तर?
वह एकदम चारों खाने चित्त गिर पड़ा धड़ाम से। हाथ फैला दिए। आंख बंद
कर लीं। गुरु खिलखिला कर हंसा। पास आया और एक आंख खोल कर देखी। अब किसी की एक आंख
खोलो तो दूसरी भी खुल जाती है! उसने एक आंख खोली; दोनों खुल
गईं! उसने कहा, उठ! एक डंडे की जगह दो डंडे मारे। शिष्य ने
कहा, लेकिन यह आप क्या कर रहे हैं! यह दर्ुव्यवहार है। यह
अन्याय है। आज पहली दफे अपना अन्याय आपको कहना चाहता हूं। आपने यह उत्तर एक शिष्य
का स्वीकार किया था।
गुरु ने कहा, किया था। मगर उसने अभ्यास नहीं किया था उत्तर का।
सहजस्फूर्त था। उसे पता ही नहीं कहां से आया था। अज्ञात से उतरा था। कहो कि
परमात्मा का था, उसका नहीं था। निसर्ग का था। उसके स्वभाव से
जन्मा था। फूल अदभुत था। उसके प्राणों में खिला था। तुम अभ्यास करके आए हो। यह
कागजी फूल है। और मुर्दों की अगर एक आंख खोलो तो दूसरी नहीं खुलती। खयाल रखना,
दुबारा अगर अभ्यास करो, तो यह भी खयाल रखना कि
अगर मुर्दे की आंख खोलो एक, तो दूसरी नहीं खुलती। यह कैसा
मुर्दापन कि हमने खोली एक आंख, तुम्हारी दोनों ही खुल गईं!
यह मुर्दापन झूठा है। ऐसे मर कर तुम मर न पाओगे। और मर न पाए, तो नये न हो पाओगे।
सदगुरु के पास तो निरंतर परीक्षा चल रही है। प्रत्यक्ष नहीं--परोक्ष।
सत्संग परीक्षण है। और जैसे-जैसे मनुष्य की चेतना का विकास हुआ है, वैसे-वैसे सदगुरुओं की प्रक्रियाएं सूक्ष्म होती गईं।
मैं कोई डंडा लेकर नहीं बैठा हूं। मगर डंडे मारता जरूर हूं। अब डंडा
हाथ में लेकर क्या मारना! वह तो कोई भी कर दे। जिन सदगुरुओं को जापान में डंडा हाथ
में लेना पड़ा, उसका मतलब साफ है कि बड़ी मजबूत खोपड़ियों वाले लोग रहे
होंगे। डंडा मारना जरूरी था। इससे सूक्ष्म बात उनकी समझ में न आती।
मेरे पास भी डंडा है, पर सूक्ष्म है; दिखाई नहीं पड़ता; अदृश्य है। मैं भी मारता हूं।
चोटें भी पड़ती हैं। मगर चोटें सीधी नहीं हैं। कब किस ढंग से चोट मारता हूं,
तुम उसका कोई पूर्व-निर्धारण नहीं कर सकते। कभी हो सकता है हंस कर
चोट मारी जाती हो। कभी सिर्फ एक लतीफा कह कर तुम्हें चाट मारता होऊं। कभी पिटता हो
मुल्ला नसरुद्दीन, लेकिन वस्तुतः तुम पीटे जाते होओ। मुल्ला
तो सिर्फ निमित्त हो। कभी ढब्बू जी की बात करता हूं और वह बात तुम्हारी ही हो।
ये सूक्ष्म प्रक्रियाएं हैं। मनुष्य की चेतना के साथ ये प्रक्रियाएं
सूक्ष्म होती गई हैं। हम एक बहुत ही अदभुत समय में जी रहे हैं, जब मनुष्य एक उत्तुंग शिखर छूने के करीब है चेतना का। इसलिए सदगुरुओं के
सारे ढंग भी बदल जाएंगे। इस नई चेतना के साथ नये ढंगों का प्रयोग करना होगा।
मैं सब तरह के नये ढंगों का प्रयोग कर रहा हूं। चूंकि वे पुराने नहीं
हैं, इसलिए तुम्हें शायद एकदम से समझ में भी नहीं आएंगे।
समझते-समझते ही समझ में आएंगे।
लेकिन नंदन, तुम्हारा प्रश्न महत्वपूर्ण है। अब थोड़ा होशपूर्वक
देखना कि कब-कब तुम्हारी परीक्षा ली जाती है। अब जरा होशपूर्वक, जागरूकता से निरीक्षण करना। मगर एक बात ध्यान रखना, उत्तर
तैयार मत करना, नहीं तो परीक्षा में हमेशा अनुत्तीर्ण होते
रहोगे। यह परीक्षा ऐसी है, इसमें जिन्होंने उत्तर याद किए,
वे सदा असफल हुए। यह परीक्षा उनके लिए है, जो
उत्तर याद नहीं करते, जो प्रश्न को आने देते हैं अपने
भीतर--और उत्तर को जगने देते हैं।
रेडीमेड उत्तर काम नहीं आएंगे। तुम्हारा अपने प्राणों का उत्तर चाहिए।
तुम्हारे प्राणों का प्रतिसंवाद चाहिए, प्रतिध्वनि चाहिए--तो
ही तुम उत्तीर्ण हो सकते हो।
*तीसरा प्रश्न: भगवान! कभी संन्यास जीवन की महिमा से
मंडित था। आज वह मृत्यु का पर्यायवाची है। संन्यास मृत्यु का पर्यायवाची कैसे बन
गया? कृपा करके समझाएं।
नरेंद्र! संन्यास तो सदा
जीवन रहा, उत्सव रहा--लेकिन बुद्ध का, कृष्ण
का, महावीर का, कबीर का। अनुयायी,
पीछे चलने वाले लोग, अंधों की भीड़, वह तो सब चीजों को उलटा कर लेती है। उसके उलटा कर लेने के पीछे एक
वैज्ञानिक कारण है, वह तुम्हें समझ में आ जाए, तो सब समझ में आ जाएगा।
जैसे महावीर ने उपवास किए, खूब उपवास किए। कहते
हैं, बारह वर्षों की लंबी तपश्चर्या में उन्होंने केवल तीन
सौ पैंसठ दिन भोजन किया। मतलब एक वर्ष। औसतन हर बारह दिन उपवास किया और एक दिन
भोजन किया। ग्यारह दिन उपवास, एक दिन भोजन--ऐसा अनुपात।
स्वभावतः लोगों ने देखा कि महावीर ऐसा उपवास करते-करते-करते एक दिन परम प्रकाश को
उपलब्ध हो गए। और लोग तो बाहर की बात ही देख सकते हैं। महावीर के भीतर झांकने वाली
आंख कहां! महावीर के भीतर जो झांक सके, वह तो स्वयं महावीर
हो गया। उसे तो महावीर के भीतर झांकने की जरूरत ही न रही। जो महावीर के भीतर झांक
सकता है, अपने ही भीतर झांक लिया उसने। अब और किस महावीर की
जरूरत है! वह तो अपना दीया स्वयं बन गया। लेकिन लोगों ने महावीर को देखा, बाहर से देखा। बाहर से तो आचरण दिखाई पड़ता है, आत्मा
दिखाई नहीं पड़ती। यहीं अड़चन है। यहीं से उपद्रव शुरू होता है। यहीं से धर्म की
विकृति शुरू होती है।
महावीर के भीतर इतना आनंद था ध्यान का, समाधि का, कि भूल जाते थे भूख-प्यास। दिन गुजर जाते थे। यही उपवास शब्द का अर्थ है:
अपने पास होना--उपवास। या परमात्मा के पास होना--उपवास। अपने पास थे, इतने अपने पास थे कि शरीर से बहुत दूर पड़ गए; कि
शरीर की खबर ही न रही, इतने दूर पड़ गए। आत्मा के पास जब कोई
होता है, शरीर से दूर पड़ जाता है। आत्मा और शरीर के बीच अनंत
फासला है। ध्यान रखना, कह रहा हूं--अनंत। तौला नहीं जा सकता,
इतना फासला है। नापा नहीं जा सकता, इतना फासला
है। जो शरीर के पास है, आत्मा से दूर। जो आत्मा के पास है,
वह शरीर से दूर।
महावीर का उपवास आत्मा के पास होने से घटित होता था। शरीर भूल जाता
था। तुम्हें भी कभी-कभी लगा होगा, बहुत खुशी में भूख नहीं लगती।
खुशी पेट भर देती है, तो भूख नहीं लगती।
मैं एक घर में मेहमान था। उस घर की गृहिणी ने मुझे कहा कि मुझे कुछ और
नहीं पूछना है, लोग बड़े-बड़े सवाल आपसे पूछते हैं, मुझे सिर्फ एक सवाल पूछना है, वह भी एकांत में।
दोपहर को जब मैं सोने जा रहा था, तब उसने कहा, अब कोई नहीं है, मैं पांच मिनट आपका समय ले लूं!
मैंने कहा, पूछ तुझे क्या पूछना है। ऐसा कौन सा सवाल है!
उसने कहा, सवाल मूर्खतापूर्ण है, इसलिए
सबके सामने पूछ नहीं सकती। भद्द होगी मेरी। सवाल यह है कि मुझे मेरी सासू से बहुत
प्रेम था, जो कि असंभव जैसा है। बहुओं में और सासों में
प्रेम नहीं होता। लेकिन मेरी सास ने मुझे इतना प्रेम दिया कि मेरी मां भी नहीं दे
सकी। उससे मुझे इतना प्रेम था! और जब वह मरी, सांझ को मरी;
जैन परिवार; तो उस दिन अनथऊ, सांझ का भोजन नहीं हो सका। तो उस गृहिणी ने मुझे कहा कि रात मुझे इतनी भूख
लगी कि मैं अपने पति से कह भी न सकूं कि मुझे भूख लगी है। क्योंकि पति क्या कहेंगे
कि मेरी मां मर गई और तुझे आधी रात भूख लगी है! तुझे इतना भी दुख नहीं है! तो उसने
कहा कि मैं चोरी से चौके में गई, और जो कुछ मिल सका, चोरी से अंधेरे में मैंने खाया। मुझे भी अपराध-भाव सताए कि मैं यह क्या कर
रही हूं! मेरी सास मर गई। लाश घर में पड़ी है। और सास से मेरी दुश्मनी होती तो ठीक
भी था, कि चलो, अच्छा हुआ, झंझट मिटी। मगर उससे मेरा प्रेम था। और ऐसा प्रेम मेरा किसी से भी नहीं
था। जितना उसने मुझे चाहा, किसी ने मुझे नहीं चाहा। मेरा
मेरे पति से भी इतना लगाव नहीं है, जितना मेरा सास से था।
उसके मरने से मेरे जीवन का सब कुछ खो गया। और मुझे भूख लगी! मैं किसी से यह सवाल
पूछ नहीं सकी कि लोग क्या कहेंगे। आपसे पूछती हूं।
मैंने उससे कहा कि यह बिलकुल स्वाभाविक है। यह बिलकुल मनोवैज्ञानिक
है। आनंद में जब कोई होता है, तो आत्मा ही भरी नहीं मालूम पड़ती,
सब भरा मालूम पड़ता है। इसलिए भूख भूल जाती है, प्यास भूल जाती है। लेकिन जब कोई दुख में होता है, पीड़ा
में होता है, तो सब खाली हो जाता है, रिक्त
हो जाता है। आत्मा ही खाली नहीं हो जाती, शरीर भी खाली हो
जाता है। भयंकर भूख लग सकती है। इसमें कुछ बेबूझ नहीं है। तू व्यर्थ अपने को
अपराध-भाव से ग्रसित न कर। यह केवल सबूत है कि तूने अपनी सास को सच में ही प्रेम
किया था।
उसके सिर से जैसे हिमालय का बोझ टल गया। उसने कहा कि मैं इस अपराध-भाव
से दबी रही, दबी रही। यह मुझे काटता ही रहा, कि मैं एक रात भूखी न रह सकी! और जैन घर! और वही महिला हर पर्यूषण में दस
दिन का उपवास करती है। तो जो दस दिन का उपवास कर सके, वह एक
रात भूखा न रह सके, यह असंभव मालूम होता है।
लेकिन ऐसा हो सकता है कि दुख इतना गहरा हो कि भीतर इतनी रिक्तता मालूम
पड़े कि उसे भरना पड़े। अब तो मनोवैज्ञानिक इस सत्य को स्वीकार करते हैं। जिन देशों
में रिक्तता का बोध है, जैसे अमरीका खासकर, जहां लोगों
का जीवन बड़ा सूना-सूना हो गया है; जहां सब है और कुछ भी नहीं
है; वहां लोग खूब भोजन से अपने को भर रहे हैं। अमरीका की
सबसे बड़ी बीमारी है मोटापा। अमरीका के अधिक लोग पीड़ित हैं इससे। जो देखो वही डाइट
कर रहा है! जो देखो वही नेचरोपैथी की तलाश कर रहा है! जो देखो वही जा रहा है उपवास
करने! किसी तरह शरीर का वजन कम हो जाए।
मेरी एक संन्यासिनी है प्रीति गांगुली। प्रसिद्ध अभिनेता अशोक कुमार
की लड़की है। लाख उपाय किए गए, उसका मोटापा कम नहीं हुआ,
नहीं हुआ। मोटापा बढ़ता ही चला गया। भारत की फिल्म दुनिया में दो ही
तो मोटी औरतें हैं--एक टुनटुन और एक प्रीति। प्रीति का चेहरा सचमुच प्यारा है। अगर
देह उसकी अनुपात में होती, तो वह हेमामालिनी हो सकती थी।
उसकी कला भी उतनी ही है। उसकी कुशलता भी उतनी ही है। मगर देह इतनी बड़ी हो गई कि
उसे कोई हीरोइन के पार्ट तो मिल नहीं सकते। सब उपाय हार गए। मुझसे पूछती थी कि मैं
क्या करूं!
मैंने उससे कहा, बस एक ही चीज है जो शायद कभी
तेरे काम आ सके। और वह है कि तेरा किसी से प्रेम हो जाए। ऐसा प्रेम हो जाए कि
प्रेम तुझे भर दे! उसने कहा, प्रेम तो मेरा है किसी से। मगर
वह शादीशुदा है! मैंने कहा, शादीशुदा आदमी से प्रेम करने का
मतलब इतना ही होता है कि प्रेम से बचना। शादीशुदा आदमी से प्रेम करने का मतलब यही
होता है कि यह जीवन का मूल नहीं बन सकता; किनारे-किनारे।
कभी-जभी मिल-जुल लिए। शादीशुदा आदमी है। बाल-बच्चे वाला आदमी है। उसकी अपनी दुनिया
है। कभी-कभी मिल लिए। यह तेरे जीवन का आधार नहीं बन सकता। इससे कुछ हल नहीं होगा।
फिर बात आई-गई हो गई।
अभी परसों मैंने अखबार में पढ़ा कि प्रीति का किसी से प्रेम हो गया है।
और एक चमत्कार हुआ है। एकदम साठ पौंड वजन कम हो गया! प्रीति के लिए तो बहुत सुखद
खबर है। लेकिन फिल्म बनाने वाले लोग बड़ी मुश्किल में पड़ गए हैं। क्योंकि जिन्होंने
उसको पार्ट दे दिया था मोटापे के कारण, अब वे क्या करें! वह
मोटी प्रीति कहां से लाएं! और मोटी प्रीति के चेहरे पर जो मुस्कुराहट थी, जो कि हमेशा मोटे आदमियों के चेहरों पर होती है, वह
भी नदारद हो गई। वह मुस्कुराहट भी एक तरकीब है। वह शरीर में जो कमी है, उसको पूरा करने का मनोवैज्ञानिक उपाय है। मोटा आदमी मुस्कुराता है,
हंसोड़ होता है। मोटे आदमी को देख कर ही तुम्हें प्रसन्नता होती है।
क्योंकि मोटा आदमी तुम्हें किसी तरह आकर्षित करना चाहता है।
प्रीति की हंसोड़ अवस्था भी चली गई। मोटापा भी चला गया। जो फिल्में आधी
अटकी हैं, उनमें मुश्किल खड़ी हो गई। उसका पूरा भविष्य भी
अभिनेत्री की तरह खतरे में है। मगर उसे इसकी चिंता भी नहीं है। अब उसे समझ में आया
होगा कि मैंने जो उससे कहा था, कभी किसी से तेरा सच में
प्रेम हो जाए; कोई तुझे भर दे; किसी का
होना तुझे भर दे; तो तेरा खाने का जो अतिशय लोभ है, वह समाप्त हो जाए। वह दिन भर खाने-पीने में ही लगी रही है। रात-दिन
खाना-पीना! जितना खा सके, खाती रही! जितना पी सके, पीती रही।
सुख में आदमी इतना भर जाता है! जब सुख में इतना भर जाता है, तो आनंद की तो कहना ही क्या! महावीर को आनंद मिला, परमात्मा
मिला। उपवास फलित हुए। यह उनकी भीतरी कहानी, यह भीतर की कथा।
जो मैं तुमसे कह सकता हूं, क्योंकि मेरी जानी कथा, यह मेरा अनुभव। मैंने भी वैसे उपवास किए हैं, मगर जब
मेरे भीतर आनंद--तो।
फिर पीछे आता है अनुयायी। वह भी उपवास करता है। उसका उपवास अनशन है, उपवास नहीं। वह भूखा मरता है। वह जबरदस्ती अपने पर थोप लेता है।
तो महावीर का उपवास तो उत्सव है, आनंद है। और महावीर
के पीछे चलने वाले जैन मुनि का उपवास दुख है, जीवन-विरोधी है,
आत्मघाती है, मृत्योन्मुख है।
नरेंद्र, तुमने पूछा: "कभी संन्यास जीवन की महिमा से
मंडित था...।'
जब भी कभी कोई सच्चा संन्यासी हुआ है, जीवन की महिमा से
मंडित ही हुआ है। संन्यास जीवन की सुगंध है। संन्यास जीवन की अंतिम उड़ान है।
संन्यास जीवन का सार है। संन्यास जीवंतता है।
तुमने पूछा: "लेकिन आज वह मृत्यु का पर्यायवाची हो गया है।'
वह हो गया है भगोड़ों के कारण, झूठों के कारण,
पाखंडियों के कारण, अनुयायियों के कारण।
क्योंकि अनुयायी ऊपर से पकड़ते हैं। महावीर इतने आनंदित हुए, इतने
निर्दोष हुए कि उन्होंने कपड़े छोड़ दिए। इतनी निर्दोषता आ गई कि वे छोटे बच्चे जैसे
हो गए। उन्हें ध्यान ही न रहा कपड़ों का।
बाइबिल में कहानी है कि जब अदम और हव्वा ने ज्ञान के वृक्ष का फल खाया, तो उनको जो पहली बात खयाल आई, वह खयाल आई कि हम नंगे
हैं। यह कहानी समझने जैसी है; खासकर महावीर के संदर्भ में।
ये दोनों कहानियां एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। अदम और हव्वा को जो पहली बात
ज्ञान का फल खाते ही याद आई, वह यह थी कि हम नंगे हैं। और
उन्होंने पहला काम क्या किया मालूम? जल्दी से उन्होंने पत्ते
इकट्ठे करके पत्तों को लकड़ी की सीखचियों से जोड़ कर अपने वस्त्र बनाए। पहला काम अदम
और ईव ने ज्ञान का फल चखने के बाद वस्त्र बनाने का किया।
महावीर फिर निर्दोष हो गए। जैसे अदम और हव्वा रहे होंगे ज्ञान का फल
चखने के पहले। ध्यान का फल वही चख सकता है जो ज्ञान के फल को त्याग कर दे।
महावीर फिर निर्दोष हो गए। इसलिए जो पहली घटना उनकी घटी होगी, वह वस्त्रों के गिर जाने की घटी। यह नग्नता बड़ी और है। यह नंगापन नहीं है।
नग्नता और नंगेपन में फर्क है। नग्नता एक अत्यंत अपूर्व अवस्था है। नंगापन एक बड़ी
ओछी मनोस्थिति है, क्षुद्रता है।
जैन मुनि नंगे हैं, नग्न नहीं। उन्होंने आयोजन किया
है। उन्होंने अभ्यास किया है। जैसे उस आदमी ने अभ्यास किया था न, दो दिन तक लेट कर, आंखें बंद करके, चारों खाने चित्त, मर गए, सांस
रोक ली। बस ऐसा ही अभ्यास। अभ्यास से फलित जो नग्नता है, वह
नंगापन है। निर्दोषता से बही जो नग्नता है, उसकी सुगंध और,
उसका संगीत और। उसमें तो जीवन का उल्लास है। छोटे बच्चों का नृत्य
है, किलकारी है। जो अभ्यासजन्य नग्नता है, वह झूठी है, व्यर्थ है, थोथी
है, अहंकारी है, मृत्योन्मुख है,
जीवन-विरोधी है।
लोग एक तो ऐसे हैं, जो संन्यास लेते हैं जीवन के
प्रति अनुग्रह के कारण। और कुछ लोग संन्यास लेते हैं जीवन से घबड़ा कर। इन दोनों का
संन्यास अलग-अलग होगा। किसी की पत्नी मर गई, तो कहते
हैं--मूंड़ मुड़ाए भए संन्यासी! किसी की पत्नी मर गई; अब क्या
करें! अब सिर घुटा लिया, संन्यासी हो गए। अब कौन पंचायत करे
दुकान चलाने की! अब ऐसे ही संन्यासी होकर आदर भी मिल जाएगा, भोजन
भी मिल जाएगा। लोग आकर सेवा भी कर जाएंगे। अब कौन पंचायत करे रोटी-रोजी की! पत्नी
मर गई तो उन्हें एक मौका मिल गया संसार से भागने का। पत्नी के रहते भाग नहीं पा
रहे थे। जिम्मेवारी अनुभव होती थी। अपराध अनुभव होता था। और पत्नी इतनी आसानी से
भागने भी न देती। भागते भी कहां! खोज लाती। निकाल लाती, कहीं
भी छिपते, वहीं से।
मैं जानता हूं एक पत्नी को। उसने अपने भागे हुए पति को पंद्रह साल बाद
बनारस में खोज लिया। पंद्रह साल का संन्यास, और जैसे ही पत्नी को
देखा पसीना-पसीना हो गया संन्यासी। और पत्नी ने कहा, उठो,
चलो घर! और उठे संन्यासी और पत्नी के पीछे हो लिए! कि अब और कौन
फजीहत करवाए! जब वे लौट आए, उनकी पत्नी ने मुझे कहा कि ले आई
उनको। आखिर पंद्रह साल लगे, मगर मैंने भी एक अड्डा नहीं
छोड़ा। एक-एक आश्रम खोज डाला।
मैंने उससे कहा कि तू मेरे आश्रम नहीं आई?
उसने कहा, यह वह जगह है जहां उनको नहीं पाया जा सकता। यहां
दूसरी तरह के लोग संन्यासी होते हैं। यहां मैं नहीं आई। मुझे पक्का था कि यहां वे
नहीं पाए जाएंगे। काली कमली वाले बाबा! वहां देखा। हरिद्वार, ऋषिकेश, काशी, मथुरा-वृंदावन,
वहां खोजा। यहां नहीं आई।
उसकी बात ठीक है। उसकी समझ ठीक है। उसने कहा, यहां उनको क्या पाया जाएगा!
यहां एक और तरह का संन्यास घटित हो रहा है, जो जीवन-विरोधी नहीं है, जो भगोड़ेपन का नहीं है,
पलायनवादी नहीं है। एक तो थकान से आता है संन्यास--उदासी से,
विषाद से।
प्राण, अपने मन-सघनत्तरु में छिपा लो,
मैं मुसाफिर थक
गया हूं!
पांव ने गति का निरंतर प्यार पाया,
दृष्टि में विस्तार अंबर का समाया,
मन विकल खग की तरह निर्लक्ष्य उड़ता
नीड़ अपना मन, प्रहर भर को बना लो,
मैं मुसाफिर थक
गया हूं!
गीत रचने को बहुत मैंने रचे हैं,
पर हृदय में कुछ अभी ऐसे बचे हैं--
जो तुम्हारे होंठ छूना चाहते हैं
आज इनको स्वर-सिंहासन पर बिठा लो,
मैं मुसाफिर थक
गया हूं!
काटने को कट गया पथ जिंदगी का,
इस तरह जैसे तरसता तट नदी का,
छोर छूकर सब दिशाओं के, क्षितिज में--
ढल रही है सांझ, अब तो स्नेह ढालो,
उम्र का बुझता
दीया हूं।
मैं मुसाफिर
थक गया हूं।
एक तो थकान से--कि बुझ रही उम्र; जीवन जा रहा; अब तो मौत आ ही रही। मौत को देख कर, मौत की घबड़ाहट
में, भय में, स्वर्ग के लोभ में,
नरक के डर में एक संन्यास घटित होता है। वह संन्यास थोथा है,
मिथ्या है, सच्चा नहीं है। परमात्मा तो जीवन
है, इसलिए वह संन्यास परमात्मा की तरफ ले जाने वाला नहीं हो
सकता है।
जब भी संन्यास सच्चा होता है, तो जीवन की थकान से
नहीं, जीवन के उल्लास से पैदा होता है; जीवन की तरंगों से पैदा होता है--पक्षियों के गीतों से; वृक्षों की हरियाली से; फूलों के रंग से, गंध से; तारों की चमक से। जीवन के अनंत-अनंत अनुभवों
से पकता है। जीवन के पार ले जाता है, जीवन के विपरीत नहीं।
योग प्रीतम ने मुझे एक कविता भेजी है। वह दूसरे संन्यास का तुम्हें
स्मरण दिलाएगी।
डगर-डगर तू गाता चल, यह मस्ती बिखराता चल
जो भी राही मिले राह में, सबको प्रेम लुटाता चल
डोल रहे हैं मदहोशी में, यह बस्ती दीवानों की
पिए प्रेम की मदिरा हैं जो, बात उन्हीं मस्तानों
की
ऐसा नर्तन, गायन, उत्सव, और कहीं पर मिला नहीं
जली हुई है यहां शमा और भीड़ लगी परवानों की
तू भी साज बजाता चल, हंसता और हंसाता चल
यह जो है बासंती दुनिया, उसके रंग लुटाता चल
हिम्मत वाले, दिल वाले जो, यह मजमा उन
प्यारों का
लगे हुए जो नई सृष्टि में, यह मजमा उन यारों का
जिसकी प्रभु से प्रेम-सगाई, जो उसमें ही डूब गया
जो बेशर्त गंवा बैठे दिल, मजमा उन दिलदारों का
तू भी दांव लगाता चल, मन की मौज बढ़ाता चल
हिलमिल जा तू भी इन सबसे, सबको गले लगाता चल
जाति-वर्ग का भेद नहीं है, नहीं राष्ट्र का बंधन
है
जो भी खोजी हैं, प्यासे हैं, उन सबका अभिनंदन है
नहीं शर्त है, बंदिश कोई, जीवन जिसको प्यारा
है
उनमें फूल लगेंगे निश्चित, उन सबका मधु-वंदन है
तू भी आता-जाता चल, डुबकी यहां लगाता चल
यह तीर्थों का तीर्थ, यहां पर आकर पुण्य कमाता चल
कह सकते हैं धरतीवासी--यह अभियान हमारा है
यहां कला-विज्ञान मिल रहे--यह उद्यान हमारा है
तरहत्तरह के फूल खिले हैं, सबकी गंध अनूठी है,
सभी नहाएं स्वर-गंगा में--यह आह्वान हमारा है
तू भी बीन बजाता चल, कुछ संगीत सुनाता चल
यह धरती ही स्वर्ग बनेगी, सुंदरता बिखराता चल
डगर-डगर तू गाता चल, यह मस्ती बिखराता चल
जो भी राही
मिले राह में,
सबको प्रेम लुटाता
चल
एक संन्यास है--बूढ़ों का, मुर्दों का। एक
संन्यास है--युवाओं का, जो अभी जीवंत हैं। और ध्यान रहे,
बुढ़ापा शरीर की बात नहीं, मन की हारी हुई
अवस्था का नाम है। जवान भी बूढ़ा हो सकता है। बच्चा भी बूढ़ा हो सकता है। और जवानी
भी उम्र की बात नहीं, एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है। बूढ़ा भी जवान
हो सकता है। जीवन से जिसका प्रेम है, वह युवा है। और जीवन से
जिसका प्रेम नहीं है, वह बूढ़ा है।
जीओ! समग्रता से जीओ! और तुम सच्चे संन्यास को जान सकोगे।
यह वैराग्य, राग की आत्यंतिकता में से निकलता है। राग के बीज में
से ही यह विराग का फूल खिलता है। यह विराग उनका नहीं है, जो
राग को छोड़ गए हैं डर कर, पीठ कर ली है जिन्होंने। यह दमन
करने वालों का संन्यास नहीं है।
और मैं पुनः दोहरा दूं नरेंद्र, जब भी संन्यास पृथ्वी
पर आया है--चाहे याज्ञवल्क्य का हो, चाहे उद्दालक का,
चाहे बुद्ध का, चाहे कबीर का, चाहे जरथुस्त्र का, चाहे बहाउद्दीन का--जब भी
संन्यास पृथ्वी पर आया है, तो गाता हुआ आया है, नाचता हुआ आया है। उसके हाथ में सदा ही वीणा है; उसके
ओंठों पर सदा वंशी है; उसके प्राणों में सिर्फ एक स्वर
है--अहोभाव का, धन्यता का। धन्य हैं हम कि इस महान अस्तित्व
के हिस्से हैं। धन्यभागी हैं हम कि इस विराट अस्तित्व ने हमें जीवन दिया, हमारे प्राणों में श्वास फूंकी। यही कृतज्ञता संन्यास है।
आज इतना ही।
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