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बुधवार, 3 मई 2017

ज्यूं मछली बिन नीर-(प्रश्नोत्तर)-प्रवचन-09

ज्यूं मछली बिन नीर-(प्रश्नोत्तर)-ओशो

संन्यास: ध्यान की कसम-(प्रवचन-नौवां)
नौवां प्रवचन; दिनांक २९ सितंबर, १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना
पहला प्रश्न: भगवान,
मैं वर्षों से संन्यास लेने के लिए सोच-विचार कर रहा हूं, लेकिन कोई न कोई बाधा आ जाती है और मैं रुक जाता हूं। क्या करूं क्या न करूं, आप ही कहें। और यह भी बताएं कि परमात्मा क्या है, कौन है?
रामाकृष्ण चतुर्वेदी,

सोच-विचार से संन्यास का कोई संबंध नहीं। सोच-विचार की संन्यास में कोई गति भी नहीं। सोच-विचार सेतु नहीं है, बाधा है। जितना सोचोगे उतना उलझोगे। सोच-विचार से मार्ग नहीं मिलता। मिल भी रहा हो तो छिटक जाता है।
नदी के तट पर बैठ कर कितना ही सोचो कि नदी की गहराई क्या है, कैसे जानोगे? डुबकी मारनी होगी। और डुबकी मारने के लिए सोच-विचार सहयोगी नहीं है, साहस चाहिए। सोच-विचार जगत के लिए ठीक, बाहर के लिए ठीक, भीतर के लिए अवरोध है। भीतर तो निर्विचार से गति होती है। और संन्यास भीतर की यात्रा है, अंतर्यात्रा है।

हां, विज्ञान सोच-विचार से चलता है। वहां तर्क चाहिए, संदेह चाहिए--प्रखर संदेह, तलवार की धार जैसा संदेह! और तर्क में जरा-सी भूल-चूक नहीं होनी चाहिए। वहां गणित चाहिए। वह वस्तुओं का जगत है। वहां बुद्धि पर्याप्त है। लेकिन अंतर्यात्रा तो प्रेम का जगत है। वह तो परमात्मा का लोक है। वहां बुद्धि बिलकुल अपर्याप्त है। बुद्धि वहां असंगत है, अप्रसांगिक है। जैसे कोई कान से देखना चाहे तो कैसे देख पाएगा, आंख से सुनना चाहे तो कैसे सुन पाएगा? आंख देखने में समर्थ है, कान सुनने में समर्थ हैं। जिसकी जो क्षमता है उसका वही उपयोग करो।
विचार की क्षमता है--वस्तु को पहचानना, परखना। और निर्विचार की क्षमता है--स्वयं में जागना, स्व बोध, समाधि। संन्यास पहला कदम है समाधि के लिए। और तुम कहते हो रामकृष्ण कि मैं वर्षों से संन्यास लेने के लिए सोच-विचार कर रहा हूं। शायद तुम जन्मों से कर रहे होओगे, भूल गये हो पिछले जन्मों की बात वर्षों से कर रहे हो यह जो तुम्हें पता है। हाथ क्या लगा? वहीं के वहीं खड़े हो। जहां थे वहीं हो। शायद और उलझ गये होओगे। उमंग और धूमिल हो गयी होगी। और तुम कहते हो, "कोई न कोई बाधा आ जाती है।' और क्या बाधा आएगी? सोच-विचार तो बड़ी से बड़ी बाधा है। यह तो हिमालय जैसी बाधा है। और सब बाधाएं तो छोटी-छोटी हैं, उनका कोई मूल्य नहीं है। क्या बाधा हो सकती है? और जहां प्रेम है वहां सारी बाधाएं कट जाती हैं। लेकिन तथाकथित प्रेमी भी बस प्रेम की बातें करते हैं, प्रेम नहीं करते।
मैंने सुना है, एक प्रेमी अपनी प्रेयसी से कह रहा था...और जब प्रेमी प्रेयसियों से बातें करते हैं तो काव्य उमड़ आता है, गदगद हो उठते हैं...कह रहा था, "तूने यह फूल जो जुल्फों में सजा रखा है--एक दीया है जो अंधेरों में जला रखा है!' बड़ी प्रशंसा कर रहा था और कह रहा था कि "तुझसे बिना मिले मैं जी न सकूंगा पल भर। तू मिली तो जीवन सार्थक है। तू न मिली तो जीवन व्यर्थ है। तू न मिली तो आत्मघात के सिवाय कुछ और नहीं। सात समुंदर भी लांघना पड़े तो लांघूंगा। चांदत्तारों पर भी तुझे खोजना हो तो खोजूंगा। अग्नि भी बरसती हो तो भी तुझे तलाशूंगा।'और जब आदमी बातों में आ जाता है तो हर बात और बड़ी बात पर ले जाता है। बात में से बात निकल आती है। फिर भूल ही जाता है कि क्या कह रहा है। और जब विदा होने लगा तो उसकी प्रेयसी ने पूछा कि "कल मिलने आओगे न?' उसने कहा, "अगर वर्षा न हुई तो जरूर, क्योंकि छाता सुधरने गया है।'
सात समुंदर लांघने को तैयार था! आग बरसती हो तो आने को तैयार था! उसके बिना एक पल जी न सकेगा। और "तूने यह फूल जो जुल्फों में सजा रखा है--एक दीया है जो अंधेरों में जला रखा है!' यह भूल गयी कविता, सब चौपट हो गया। "छाता, जो सुधरने गया है...! कल अगर वर्षा न हुई तो जरूर आऊंगा!'
कल बाधाएं आती होंगी? और मौत आएगी रामकृष्ण, तो तुमसे पूछेगी कि "कुछ बाधा है? तो रुकूं थोड़ा? कल आ जाऊंगी, परसों आ जाऊंगी। सुलझा लो अपनी बाधाएं, निपटा लो अपनी समस्याएं।' मौत आएगी तो एक क्षण का भी तो समय न देगी। दुकान चलती हो कि न चलती हो; बेटी का विवाह हुआ हो कि न हुआ हो; पत्नी बीमार हो, मरणशैया पर पड़ी हो; कुछ भी हो, कैसी भी हालत हो--मौत आएगी तो न पूछती है, न समय देती है, न पूर्वसूचना देती है। फिर क्या करोगे? मरोगे कि नहीं? मरना ही होगा। सब बाधाएं यहीं पड़ी रह जाएंगी। सब ठाठ पड़ा रह जाएगा जब बांध चलेगा बंजारा।
संन्यास को तो यू स्वीकार करना चाहिए जैसे कोई मृत्यु को स्वीकार करता है। संन्यास है भी एक प्रकार की मृत्यु--मृत्यु से भी बड़ी मृत्यु, क्योंकि मृत्यु में तो केवल देह बदलती है और संन्यास में जीवन बदलता है, प्राण बदलते हैं, चैतन्य बदलता है। वह ज्यादा गहरी बात है। इसको तुम सोच-विचार में गंवा रहे हो। फिर पीछे बहुत पछताओगे।
बिछड़ गया न वो आखिर अधूरी बात लिये
मैं उससे कहता रहा रोज-रोज बात न टाल
वर्षों से टाल रहे हो। किसी दिन मौत आ जाएगी, फिर क्या करोगे? फिर यह भी तो न कह सकोगे कि जरा ठहर जा, संन्यास ले लूं; जरा ठहर जा कि गैरिक हो लूं। हम मुर्दों को गैरिक वस्त्रों में लपेटते हैं। जिंदगी भर सोचते रहे; लाश को नहला देते हैं धुला देते हैं। जिंदगी भर गंदगी रही; मुर्दे को साफ कर लेते हैं, ताजे कपड़े पहना देते हैं। अरथी को लाल कपड़े में बांध देते हैं, फूलों से लाद देते हैं। मगर अब क्या सार? अब क्या प्रयोजन? काश यहीं जिंदगी में कर लिया होता--यही सफाई! काश जिंदगी में ही समझ लिया होता कि मौत आनी है, इसलिए मौत के पहले तैयारी कर लूं, उसे पहचान लूं जो नहीं मरता है--मौत के आने के पहले। वही तैयारी है। उसे जान लूं, जो अमृत है। वह जो उपनिषद का ऋषि गाता है--असतो मा सदगमय! ले चल मुझे प्रभु, असत्य से सत्य की ओर। तमसो मा ज्योतिर्गमय! ले चल मुझे प्रभु, अंधकार से आलोक की ओर। मृत्योर्मा अमृतंगमय! ले चल प्रभु मुझे, मृत्यु से अमृत की ओर!...मगर प्रार्थनाओं से यह बात पूरी न होगी। तुम्हें कुछ करना होगा।
यह जीवन अवसर है कि तुम अमृत को तलाश लो। नहीं तलाशो तो मौत हाथ लगती है। जिसने तलाश लिया, अमृत हाथ लगता है। और एक बूंद भी अमृत की मिल गयी तो फिर दुबारा न कोई आना है न कोई जाना है, न कोई जन्म है न कोई मृत्यु है। फिर तुम शाश्वत के अंग हो।
संन्यास तो खोज है--अंतर-खोज!
लेकिन तुम कहते हो, बाधाएं आ जाती हैं।' बाधाएं तो आती रहेंगी। क्या तुम सोचते हो ऐसा कोई दिन होगा जिस दिन बाधा न होगी? बाधाएं तो आती ही रहेंगी। संसार समस्याओं का नाम है; एक सुलझी नहीं, दस खड़ी हो जाती हैं। एक के सुलझने में ही दस खड़ी हो जाती हैं। इसलिए इस आशा में न बैठो कि एक दिन जब कोई समस्या न होगी, कोई बाधा न होगी, तब लूंगा संन्यास। फिर संन्यास कभी नहीं घटेगा।
मेघा बरसे आधी रात
भीगा मन है, सोंधी बात
फिर फिर सोऊं जागूं, हार
कैसी बदली आधी रात
सपने में सागर भरपूर
नौका मेरी तट से दूर
पल पल डूबूं, उछलूं बार
बहकी पगली आधी रात
जीवन का कैसा है खेल
बिछुड़े हैं हम, फिर भी मेल
रोती कोई यह जलधार
चुप है रजनी, आधी रात
प्राणों में सोया संगीत
गाता कोई मन के गीत
मुझे पहुंचना सीमा पार
रोक रही है यह बरसात
बरसात रोकेगी, जिसे सीमा पार जाना है? कुछ भी नहीं रोकता है। तुम रुकना चाहते हो, इसलिए रुकावटें बहाना मिल जाती हैं। बहाने हैं, और कुछ भी नहीं तुम सोचते हो बुद्ध को रुकावटें न थीं? महावीर को रुकावटें न थीं, कि जीसस को रुकावटें न थीं? सबको रुकावटें थीं। जिसने भी जाना है उसने रुकावटों को सीढ़ियां बना लिया है। रास्ते के पत्थरों को बाधा नहीं माना, उनको सीढ़ी बना लिया, उन पर चढ़ गया है। और उन पर चढ़ कर उसने और भी दूर का आकाश देख लिया है।
ऐसे मत टालो और तुम मुझसे पूछते हो, मैं रुक जाता हूं बाधाओं के कारण। क्या करूं क्या न करूं, आप ही कहें।' मेरे कहने से क्या होगा? तुम फिर सोचोगे। मेरे कहने को तुम मानोगे? मान सके होते तो वर्षों टालते? मैं तो रोज ही वही कह रहा हूं। प्रतिदिन सतत एक ही तो तुमसे बात कह रहा हूं कि जागो। मगर तुम कहते हो, "अभी सुंदर सपना चल रहा है, अभी कैसे जागूं? थोड़ी देर ठहर जाएं।  यह सपना तो पूरा हो ले।' तुम कहते हो, "अभी नहीं। अभी तो बड़ी प्यारी नींद लगी है। अभी तो बड़ा मधुर संगीत बज रहा है निद्रा का, तंद्रा का। अभी मत उठाएं।' तुम और एक करवट ले लेते हो, कंबल ओढ़ लेते हो और सो जाते हो।
और तुम पछताओगे, बहुत पछताओगे, क्योंकि जितना समय हाथ से गया, गया; वह लौटाया नहीं जा सकता। अब और देर न करो, इतना ही कह सकता हूं। यूं ही बहुत देर कर दी है, अब और देर न करो। अगर संन्यास की अभीप्सा जगती है तो इस बीज को बीज ही न रहने दो, इसे अंकुरित होने दो, इसे यथार्थ बनने दो।
और पूछते हो तुम, "और यह भी बताएं कि परमात्मा क्या है, कौन है?' संन्यास तक की तुम्हारी हिम्मत नहीं, परमात्मा को कैसे जानोगे? लेकिन लोग सदियों से ऐसा सोचते रहे हैं कि परमात्मा को तो हम जान सकते हैं बिना कुछ किये; कोई जानने वाला बता दे कि परमात्मा ऐसा है और हम मान लेंगे। हम विश्वास से जी रहे हैं। विश्वास जहर है। इसी जहर ने सारी मनुष्यता को विषाक्त किया है।
मैं चाहता हूं कि तुम विश्वास से मत जीना। विश्वास से जीने वाला आदमी झूठ जी रहा है, प्रवंचना में जी रहा है। जानो, इसके सिवाय कोई मार्ग नहीं है। पहचानो, इसके सिवाय कोई मार्ग नहीं है। अनुभव करो। अनुभव के अतिरिक्त और न कोई मुक्ति है, न कोई निर्वाण है, न कोई परमात्मा है, न कोई सत्य है।
मानो मत। मानकर ही रुके हो, क्योंकि मानना बिलकुल सस्ता है। जानने में श्रम करना होता है। जानने में अपने प्राणों को बदलना होता है, तंद्रा को तोड़ना होता है। मूर्च्छा उखाड़नी पड़ती है--जड़ से, जड़मूल से। आमूल रूपांतरण से गुजरना होता है। अग्नि-परीक्षा है। कचरा सब जल जाता है। तभी तुम्हारे भीतर जो बचता है खालिस सोना, वही परमात्मा है।
मेरे कहने से क्या होगा? मेरे कहने से नुकसान होगा। मैं कह भी दूं कि परमात्मा ऐसा है, तो क्या होगा? यही होगा कि तुम वैसा परमात्मा को मान कर बैठ जाओगे। तुम्हें पूजा के लिए एक मूर्ति मिल गयी। तुम्हें एक आराध्य की धारणा मिल गयी। तुम्हें एक विश्वास मिल गया, जो तुमने कमाया नहीं।
परमात्मा कमाना पड़ता है। तुम्हें यूं मिल गया मुफ्त। और मुफ्त परमात्मा नहीं मिलता है; जीवन से मूल्य चुकाना होता है।
मैं कुछ भी न कहूंगा। इतना ही कहूंगा कि जलो ध्यान में, गलो ध्यान में। जिस दिन तुम्हारा सब कूड़ा करकट जल कर राख हो जाएगा, उस दिन तुम्हारे भीतर फिर भी जो बच रहेगा, सारी अग्नि को पार करने के बाद भी जो बच रहेगा, वही है परमात्मा। उसको जानोगे, उसको अनुभव करोगे तो रहस्य के द्वार खुल जाएंगे। इसके सिवाय कोई सस्ता मार्ग नहीं है।
लेकिन लोग हमेशा सस्ती चीजों के पीछे ही दौड़ते हैं, चाहे वे कागजी ही क्यों न हों। और अगर मुफ्त मिलती हो तो फिर कहना ही क्या!
कल चौदहवीं की रात थी
शब भर रहा चर्चा तेरा
कुछ ने कहा ये चांद है
कुछ ने कहा ये चेहरा तेरा
कल चौदहवीं की रात थी
हम भी वहीं मौजूद थे
हम से भी सब पूछा किये
हम हंस दिये
हम चुप रहे
मंजूर था पर्दा तेरा
कल चौदहवीं की रात थी
इस शहर में किससे मिलें
हम से तो छूटी महफिलें
हर शक्स तेरा नाम ले
हर शक्स दीवाना तेरा
कल चौदहवीं की रात थी
कूचे को तेरे छोड़कर
जोगी ही बन जायें मगर
जंगल तेरे
पर्वत तेरे
बस्ती तेरी
सहरा तेरा
कुछ ने कहा ये चांद है
कुछ ने कहा ये चेहरा तेरा
कल चौदहवीं की रात थी
हम भी वहीं मौजूद थे
हम से भी सब पूछा किये
हम हंस दिये
हम चुप रहे
मंजूर था पर्दा तेरा
कल चौदहवीं की रात थी
परमात्मा को कोई दूसरा तुम्हारे लिये नहीं उघाड़ सकता है। बुद्ध को मंजूर था पर्दा, नहीं कभी कहा कि परमात्मा क्या है, बात ही नहीं उठायी परमात्मा की। पूछा लोगों ने तो टाल गये। और बुद्ध की बड़ी अनुकंपा है कि टाल गये। जिन्होंने बताया उन्होंने नुकसान कर दिया। उन्होंने बताया, लोगों ने मान लिया। लोग तो मानने को तैयार बैठे हैं। मानने में न तो कुछ खर्च होता, न जीवन ऊर्जा लगती, न कुछ समर्पण करना है, न कोई साधना, न कहीं जाना, उठना न बैठना। जैसे हो वैसे ही रहते हो , उसी में और एक सूचना जुड़ जाती है। और थोड़ा श्रृंगार हो गया। और थोड़ी संपदा हो गयी। और थोड़े ज्ञानी बन बैठे। मगर उधार ज्ञान से कोई ज्ञानी बनता है?
मुझे भी पर्दे में रस है। मैं भी पर्दा उठाना नहीं चाहता। कहूंगा, तुम्हीं उठाओ। तुम्हीं उठाओ पर्दा और देखो। हां, पर्दा उठाने की विधि तुम्हें देता हूं। संन्यास वही है।
संन्यास सिर्फ ध्यान की कसम है। संन्यास इस बात की घोषणा है कि अब ध्यान ही मेरा जीवन होगा। और सब करूंगा, लेकिन वह अभिनय होगा, यथार्थ तो अब ध्यान होगा। अब सब कुछ मेरा समर्पित होगा ध्यान के लिए।  अब भीतर  का धन खोजूंगा। ठीक है बाहर के धन की भी जरूरत है, उसे पूरी करता रहूंगा; लेकिन वह अभीप्सा नहीं होगी, तृष्णा नहीं होगी, दौड़ नहीं होगी। काम चल जाए, ठीक। रोटी रोजी मिल जाए, ठीक। तन ढक जाए, ठीक। छप्पर हो जाए, ठीक। दौडूंगा नहीं, पागल नहीं होऊंगा। अब सारी जीवन-ऊर्जा भीतर की तरफ प्रवाहित होगी।
संन्यास इस बात की घोषणा है--अपने समक्ष और संसार के समक्ष।
और तुम्हारा अहंकार ही तो पर्दा है; उसे तुमने उठाया कि परमात्मा मिला। लेकिन अहंकार उठाने में प्राण कंपते हैं।
संन्यास में बाधा क्या है? तुम कहते हो बाधा। बस एक बाधा में जानता हूं, वह अहंकार है। अहंकार झुकने नहीं देता और संन्यास झुकना है। अहंकार शिष्य नहीं बनने देता और संन्यास शिष्यत्व है। अहंकार सीखने नहीं देता, क्योंकि सीखने का मतलब है अपने अज्ञान की स्वीकृति। अहंकार दावेदार है ज्ञान का।
लेकिन धन्यभागी वे थोड़े से लोग हैं जो अपने अज्ञान को स्वीकार कर लेते हैं, क्योंकि वह ही किसी दिन ज्ञान के आनंद से आपूरित होंगे। वे ही किसी दिन ज्ञान से गीले होंगे। बाकी तथाकथित उधार ज्ञान को संजो लेने वाले लोग सिर्फ धोखा खाएंगे, धोखा देंगे। उनका जीवन सिर्फ व्यथा की एक कथा होगी।
संन्यास आनंद की तरफ पहला कदम है। उठ आने की भावना उठी है तो चूको मत।
एक पुरानी कहावत है: बुरा करना हो तो ठहरो, जल्दी न करो और अच्छा करना हो तो जल्दी करो, ठहरो मत। प्रीतिकर है, महत्वपूर्ण है--अरबी कहावत है। क्योंकि जिस चीज के लिए भी ठहर जाओगे वह चीज ठहर ही गयी, फिर होगी नहीं। बुरे के लिए अगर थोड़ी देर रुक गये तो फिर तुमसे बुरा नहीं होगा। और भले के लिए भी थोड़ी देर रुक गये तो फिर भला नहीं होगा। थोड़ी देर रुके नहीं कि मन हजार बहाने खोज लगेगा। रुके नहीं कि मन तुम्हारा जल्दी से गर्दन पकड़ लेगा। वह कहेगा, "अब इतनी देर रुके, थोड़ी देर, और थोड़ी देर।' फिर रुकना ही आदत बन जाती है।
तो बुरे के लिए रुको। लेकिन बुरे के लिए कोई रुकता नहीं, यह बड़ी अजीब दुनिया है। आदमी क्या है, एक अचंभा है! कबीर कहते हैं: "एक अचंभा मैंने देखा!' एक क्या, यहां अनेक अचंभे मौजूद हैं। चार अरब अचंभे मौजूद हैं, क्या एक देखा! जिस आदमी को देखो वही एक अचंभा है। अचंभा यही है कि बुरे के लिए तुम रुकते नहीं। अगर कोई तुम्हें गाली दे, तुम उससे यह नहीं कहते कि भैया, चौबीस घंटे बाद गाली दूंगा; कल आऊंगा, आज तो दूसरे काम हैं, अभी तो बहुत बाधाएं हैं, अभी क्या गाली दूं! आज तो क्षमा करो, जब सुविधा होगी तब आऊंगा। गाली ही तो देनी है न, सुविधा में आकर दे जाऊंगा, फुर्सत से। अभी तो पत्नी के लिए दवा लेने जा रहा हूं या बेटों को स्कूल में भरती कराने जा रहा हूं। आज तो क्षमा करो।
ऐसा कभी तुमने कहा है, जब किसी ने गाली दी हो? नहीं, फिर जाए भाड़ में उसकी पत्नी और दवा, बाल बच्चे सब भूल जाते हैं। फिर इस संसार में क्या रखा है! फिर तो तुम वहीं ताल ठोंक कर निपटने को खड़े हो जाते हो। कल पर नहीं टालते, फिर तो अभी और यहीं! और अगर अच्छा कुछ करने का भाव उठता है तो तुम कल पर टालते हो। और जिस तुमने कल पर टाला वह सदा के लिए टल जाता है, क्योंकि कल कभी आता ही नहीं है।

दूसरा प्रश्न: महोदय,
आप यौन-स्वतंत्रता के समर्थक हैं, परंतु अमेरिका जैसे पश्चिमी देशों में यौन स्वतंत्रता होते हुए भी वहां यौन-विकार पाए जाते हैं। यौन-अपराध वहां भी होते हैं। अतः आपका यौन-स्वतंत्रता का सिद्धांत गलत सिद्ध होता है।
विन्धयवासिनी पांडेय,

महोदय, किसने आपसे कहा कि मैं यौन-स्वतंत्रता का समर्थक हूं? मैं कहता हूं "प्रेम की स्वतंत्रता' और भारतीय मन समझता है "यौन की स्वतंत्रता'
यह भारतीय मन का रोग है। तुम्हारा दमित चित्त प्रेम का अर्थ तत्क्षण यौन करता है। तुम्हारे लिए प्रेम की कोई और अवधारणा नहीं रही। तुम्हारे लिए प्रेम हमेशा कामवासना बन जाता है। यह तुम्हारे रुग्न चित्त का सबूत है।
मैंने कभी यौन स्वतंत्रता की बात नहीं कही। लेकिन सारे भारतीय अखबार मेरे ऊपर यौन-स्वतंत्रता का सिद्धांत थोपते हैं। वे अपना प्रक्षेप मेरे ऊपर करते हैं। मैं कहता हूं: प्रेम की स्वतंत्रता चाहिए। मैं कहता हूं: वह विवाह अनैतिक है जो प्रेम के आधार पर नहीं हुआ है। उस स्त्री से बच्चे पैदा करना अनाचार है, उस पुरुष से संबंध रखना अनाचार है, जिससे प्रेम नहीं। लेकिन हमारे सारे विवाह प्रेमशून्य हैं। कोई पोंगा पंडित, कोई ज्योतिषी जन्म-कुंडलियां मिला देता है। तारों में कसूर मत खोजो। तारों पर उत्तरदायित्व मत छोड़ो। बेचारे निरीह तारे कुछ बोल भी नहीं सकते। ग्रह-नक्षत्र कहें भी तो क्या कहें? तुम्हारा जो दिल हो वैसा बना लो। और परिणाम देखते हो? तुम्हारी जन्म-कुंडलियां मिला-मिला कर भी क्या परिणाम हुआ है विवाह का? इससे ज्यादा सड़ी कोई संस्था नहीं है। लोग सड़ रहे हैं मगर अपने मुखौटे लगाए हुए हैं, छिपाए हुए हैं अपने को।
जहां प्रेम नहीं है वहां नर्क है और जहां प्रेम है वहां स्वर्ग है।
मैं प्रेम की स्वतंत्रता का पक्षपाती हूं। लेकिन जब भी भारतीय सुनता है, वह तत्क्षण समझ लेता है कि यौन की स्वतंत्रता है। क्योंकि उसके लिए प्रेम का कोई अर्थ और है ही नहीं। उसके भीतर तो यौन उबल रहा है। उसके भीतर तो वासना ही वासना भरी हुई है।
तुम वही सुनते हो जो सुन सकते हो। विन्ध्यवासिनी पांडेय, यह तुम अपने संबंध में कुछ कह रहे हो, यह मेरा सिद्धांत नहीं है। यह सिद्धांत तुमने ही गढ़ लिया।
मैंने सुना, एक जगतगुरु शंकराचार्य अपने दो शिष्यों के साथ दिल्ली से फिरोजपुर जा रहे थे। एक शिष्य गया टिकट खरीदने, लेकिन टिकट बेचने वाली खिड़की पर एक अति सुंदर युवती बैठी थी। ब्रह्मचारी शिष्य के चित्त की जो गति हुई वह तुम समझ सकते हो। लार टपकने लगी, घिग्घी बंध गयी। इधर-उधर आंखें करे। मगर लाख इधर-उधर आंखें करो, आंखें वहीं जाएंगी जहां भीतर  वासना धक्के मार रही है। बचना चाहता है। मगर जिससे तुम बचना चाहते हो उसी पर अटक जाते हो। भला-चंगा आदमी, लेकिन गड़बड़ा गया। गया था फिरोजपुर का टिकट लेने, लेकिन स्त्री के सुंदर उरोज देख कर बोला, "उरोजपुर के टिकट के कितने दाम?' जब मुंह से यह "उरोजपुर' निकल गया तो पसीना-पसीना हो गया। लौट कर आ गया, जवाब के लिए भी नहीं रुका। अपने गुरु को आकर कहा कि मुझसे बड़ी भूल हो गयी, मुझे क्षमा करें। मैं नहीं जा सकता टिकट लेने। दूसरे शिष्य को भेज दें। वह उम्र में भी बड़ा है। मैं नया-नया भी हूं। मुझसे एक बड़ी भूल हो गयी, मैंने फिरोजपुर की जगह उरोजपुर कह दिया।
दूसरे शिष्य ने कहा, "तू रुक, मैं जाता हूं।' दूसरा शिष्य वहां गया। मगर जैसे ही उसने सुंदर युवती को देखा...और पंजाबी महिला, चुस्त कपड़े।  पंजाब में जा कर यह अचंभा समझ में आता है कि ये स्त्रियां इन कपड़ों में घुसती कैसे हैं। यह सवाल उठता है, निश्चित उठता है। ये जो इतने चुस्त कपड़े हैं, इनमें प्रवेश कैसे कर जाती हैं? कैसे निकलती होंगी, कैसे जाती होंगी? उसके चुस्त कपड़े! बस इसके भी प्राण मुश्किल में पड़ गये, जपने लगा राम-राम, जय बजरंग बली! याद किये बड़े-बड़े सिद्धांत कि ब्रह्मचर्य ही  जीवन है। मगर जब सब गड़बड़ पड़ गया तो मन में तो जो वासना उठ रही थी वह एक ही थी कि जब यह कपड़े के ऊपर से इतनी सुंदर लग रही है तो भीतर कितनी सुंदर न होगी! मगर इसको वह टाल रहा था। जाकर पूछा कि देवी जी...पूछना तो था गाड़ी कितने देर में आएगी, पूछा उघाड़ी कितने देर में आएगी। "उघाड़ी!' जबान यूं फिसल गयी।
सिगमंड फ्रायड ने बहुत खोज-बीन की है कि जबान कैसे फिसलती है और क्यों फिसलती है। उसके फिसलने के पीछे कारण भीतर होते हैं। वह भी घबड़ा कर लौट आया, पसीना पसीना चू रहा है। उसने गुरुदेव से कहा कि नहीं, यह मेरे वश के बाहर है। वह स्त्री बिलकुल नर्क का द्वार है! उसको देखते से ही आदमी नर्क में पड़ जाए। बड़ी खतरनाक स्त्री है।
जगतगुरु ने कहा, "तुम रुको, मैं उसे ठीक करता हूं।' जैसे-जैसे पास पहुंचे, ये दो शिष्यों का जो अनुभव हुआ था इससे मन में एक जिज्ञासा भी जगी थी कि "मामला क्या है!' जरूर कोई स्त्री बिलकुल अप्सरा होनी चाहिए, कोई मेनका, कोई उर्वशी, कि मेरे शिष्य, लंगोट के पक्के, इनको क्या हो गया! एकदम मात खा कर लौट कर आ गये।' तो बिलकुल अकड़ कर गये, बड़ी खटाऊं फटकाते गये, क्योंकि कहा जाता है कि खड़ाऊ जितनी फटकाओ उतना ब्रह्मचर्य सधता है। वह जो खड़ाऊं में जो अंगूठा दबा रहता है, वह ब्रह्मचर्य को साधता है--ऐसा हिंदु धर्म की वैज्ञानिकता को खोजने वालों का कहना है कि पैर का अंगूठा जो पकड़ता है खूंटी को खड़ाऊं की, बस उसको पकड़े रहे खड़ाऊं को कि ब्रह्मचर्य सधा रहता है। खूंटी छूटी कि सब गड़बड़ हुआ। सो जोर से खड़ाऊं बजाते हुए, खूंटी को बिलकुल संभाले हुए...! मगर जितना संभालो उतनी गड़बड़ हो जाती है। और क्रुद्ध भी थे कि मेरे दो शिष्यों को डांवाडोल कर दिया। तो जाकर ही टूट पड़े उस स्त्री पर, कि "तू नर्क में सड़ेगी! और शैतान तेरे स्तनों को इस तरह मलेगा'...उसके स्तन मल कर बता दिये। तब होश आया कि यह मैं क्या कर रहा हूं। मगर वहां भीड़ लग गयी कि जगतगुरु आप यह क्या कर रहे हैं! जब कर ही चूके तब पता चला।
विन्ध्यवासिनी पांडेय, यौन स्वतंत्रता का मैं समर्थक हूं, यह तुमसे कहा किसने? यह तुम को उघाड़ी आ रही है। तुम फिरोजपुर की तरफ न जा कर उरोजपुर चले। तुम शैतान का काम खुद ही करने लगे।
मैं जरूर प्रेम की स्वतंत्रता का पक्षपाती हूं, क्योंकि जिस व्यक्ति के जीवन में प्रेम भी स्वतंत्र नहीं है उसके जीवन में क्या खाक और कोई स्वतंत्रता होगी! प्रेम तो जीवन का फूल है--इस जीवन की सर्वाधिक बहुमूल्य संपदा है। वह तो स्वतंत्र होना ही चाहिए। उसकी स्वतंत्रता से ही तो किसी दिन प्रार्थना का जन्म होगा। और प्रार्थना से किसी दिन परमात्मा का अनुभव होगा। प्रेम ही अवरुद्ध हो गया तो प्रार्थना अवरुद्ध हो गयी। गंगोत्री पर ही मार डालो गंगा को...आसान है वहां मारना, क्योंकि गंगोत्री छोटी-छोटी बूंद बूंद टपकता है पानी वहां। गौमुख से निकलती है। अब गौमुख से कोई बहुत ज्यादा बड़ी धारा तो निकल नहीं सकती। गौमुख को रोका जा सकता है, बड़ी आसानी से रोका जा सकता है, काशी में आ कर गंगा को रोकना मुश्किल हो जाएगा। और गंगा सागर में जब पहुंचती है उसके पहले तो रोकना बिलकुल असंभव हो जाएगा। लेकिन गंगोत्री में रोकना बहुत आसान है।
प्रेम गंगोत्री है--और परमात्मा गंगा सागर। और प्रार्थना यूं समझो कि बीच का तीर्थ--प्रयाग समझो। लेकिन जब मैं प्रेम की स्वतंत्रता की बात करता हूं तो अनिवार्यरूपेण लोग समझते हैं मैं यौन की स्वतंत्रता की बात कर रहा हूं। और कारण यह है कि उनके भीतर दमित वासना "प्रेम' शब्द सुनते ही उभरने लगती है। प्रेम शब्द ही काफी है--शब्द ही काफी है। जैसे अग्नि में घी पड़ जाता है, एकदम धुआं उठने लगता है, वैसा ही विन्ध्यवासिनी पांडेय को धुआं उठ आया।
महोदय, आप यहां कैसे आ गये? यह रिंदों की महफिल है। यह दीवानों का जगत है। यह परवानों की दुनिया है। यहां पोंगा-पंथियों की कोई जरूरत नहीं है। गलत जगह आ गये। ऐसी जगह नहीं आना चाहिए। ऐसी जगह आ जाओ, बिगाड़ हो जाए।
अब इनको अड़चन हो रही होगी यहां देख कर। सुंदर स्त्रियों को देख कर इनको अड़चन हो रही होगी और जितनी सुंदर स्त्रियां यहां इनको देखने मिल सकती हैं, शायद एक जगह इतनी सुंदर स्त्रियां कहीं भी इनको भारत में देखने नहीं मिलेंगी। भारत में क्या दुनिया में देखने नहीं मिलेंगी एक जगह इकट्ठी। तो इनको बैचेनी हो रही होगी। ये कुलबुला रहे होंगे। इनका कठिनाई आ रही होगी।
मगर यह समझ तुम्हारे संबंध में सूचना देती है। कहते हो, "आप यौन स्वतंत्रता के समर्थक हैं।' मैं समर्थक नहीं हूं यौन स्वतंत्रता का। मैं समर्थक हूं--प्रेम की स्वतंत्रता का। और प्रेम जब होता है तो यौन भी पवित्र हो जाता है। और जहां प्रेम नहीं है वहां यौन एकदम पाशविक है। इसलिए इस देश में जो विवाह चल रहे हैं वे बिलकुल पशु के जैसे हैं। उससे पशु बेहतर। इस देश में चलने वाला विवाह पाशविक है। इसलिए तो हम उसको गठबंधन कहते हैं। पशु का भी मतलब गठबंधन ही होता है। पशु का मतलब--पाश का मतलब--पाश में बंधा। बांध दो दो व्यक्तियों को और लगा दो गांठों पर गांठें, सात गांठें बांध दो, और सात चक्कर लगवा दो--जिसको सात चक्कर लग गये वह घनचक्कर हो गया! अब जिंदगी भर चक्कर ही लगाए--एक कौल्हू का बैल हो गया। यह पत्नी को सताएगा, पत्नी इसको सताएगी, क्योंकि एक-दूसरे से बदला लेंगे। दोनों का जीवन नष्ट हो रहा है--किससे बदला लें? दोनों को मिल कर पंडित की गर्दन पकड़नी चाहिए--जिसने मंत्र पढ़ा--कि पढ़ उल्टा मंत्र और लगवा उल्टे फेरे, खुलवा दे! अरे गांठें बांधी हैं, खोल दे! और न खुलती हों तो कैंची से काट डाल, अगर बहुत कस कर लगी हों।
मगर पंडित तो अब दूसरों की गांठें बंधवा रहा होगा, कहीं और फेरे डलवा रहा होगा। और तुम खुद ही उसके पास गये थे, कोई तुम्हारे पास वह आया नहीं था। तो पति पत्नियों पर टूट रहे हैं, पत्नियां पतियों पर टूट रही हैं। चौबीस घंटे कलह मची हुई है। और कलह का कारण क्या है? कलह का कारण यह है कि दोनों का जीवन प्रेम को उपलब्ध नहीं हो पा रहा। और कैसे उपलब्ध हो? प्रेम कोई जबरदस्ती तो नहीं है। प्रेम कुछ ऐसा तो नहीं है कि करना चाहिए तो तुम कर सकोगे। प्रेम तो यूं आता है जैसे हवा का झोंका। तुम्हारे वश के बाहर है। यह कोई बिजली का पंखा नहीं है कि बटन दबायी और चल पड़ा। यह तो हवा का झोंका है, आता है तो आता है। प्रेम तुम्हारी वश की बात नहीं है।
और जब तक प्रेममय जीवन न हो तब तक तुम जो भी कर रहे हो वह अत्यंत निम्न है। वह सिर्फ यौन है, और कुछ भी नहीं। जिसको हम विवाह कहते हैं, वह केवल स्थायी वेश्यावृति है, और कुछ भी नहीं। कोई एक रात के लिए वेश्या को खरीद लेता है, किसी ने एक पत्नी को जिंदगी भर के लिए खरीद लिया है। यह खरीद-फरोख्त है। इस खरीद फरोख्त की दुनिया में जो जी रहा है, वह क्या खाक प्रेम ही स्वतंत्रता को समझेगा! उसको तत्क्षण यौन की स्वतंत्रता समझ में आएगी, क्योंकि वही उसका जीवन है।
हम वही समझ सकते हैं जो हम समझने से वंचित किये गये हैं--जो हमारे भीतर अधूरा रह गया है।
सेठ चंदूलाल ने एक नया नौकर रखा। बड़ा पंडित था नौकर। मगर जैसे पंडित होते हैं--पोथी-पंडित! शास्त्र उसे कंठस्थ थे। सोच कर कि अच्छा है, पंडित भी है, पूजा-पाठ भी कर देगा...चंदूलाल तो ठहरे मारवाड़ी, सोचा कि एक पत्थर से दो चिड़िएं मारी जाएं तो और अच्छा। भोजन भी पका देगा, रसोइए का काम भी कर देगा, मंदिर की पूजा पाठ भी कर देगा और कभी जरूरत पड़ी तो सत्यनारायण की कथा भी पढ़ देगा। यह अच्छा रहा, सस्ता रहा, कई काम में आ जाएगा।
लेकिन पहले ही दिन एक झंझट हो गयी। चंदूलाल अपनी पत्नी के साथ बच्चों समेत किसी रिश्तेदार के घर गये और जब लौट कर आए तब यह मुसीबत हुई। वे करीब तीस-पैंतीस मिनट तक घंटी बजाते रहे, तब कहीं उस पंडित ने दरवाजा खोला। चंदूलाल की आंखें तो गुस्से के मारे लाल हो गयीं--"क्यों बे बदतमीज, दरवाजा क्यों नहीं खोला? हम लोग आधा घंटा से ऊपर हो गया, घंटी बजा-बजाकर परेशान हुए जा रहे हैं।'
उस पंडित ने आंखें नीची करके जवाब दिया, "मुझे क्या पता सेठ जी कि आप दरवाजा खुलवाना चाहते हैं? आपने द्वार क्यों नहीं खटखटाया? मालिक, मैंने सोचा कि घंटी आपकी है, आप चाहे जितनी देर बजाएं, आधा घंटे क्या आप पूरे दिन बजाएं, रात बजाएं, अरे घंटी आपकी है, मैं क्या कर सकता हूं?'
अब यह पंडित सत्यनारायण की कथा पड़ सकता है, रामायण की चौपाइयों के अर्थ बता सकता है, हनुमान-चालीसा दोहरा सकता है; लेकिन इतनी भी अकल नहीं इसे! अकल का और पांडित्य से कोई संबंध नहीं है। अब ये विन्धयवासिनी पांडेय पंडित ही होंगे--अक्ल से नाममात्र का संबंध नहीं मालूम होता। थोड़ा सोचो महोदय, क्या कह रहे हो? कह रहे हो कि अमरीका जैसे पश्चिमी देशों में यौन स्वतंत्रता होते हुए भी वहां यौन विकार पाए जाते हैं। वे यौन विकार स्वतंत्रता के कारण नहीं पाए जाते, वे यौन विकार पाए जाते हैं--दो हजार साल की ईसाइयत के कारण। ईसाइयत ने जिस बुरी तरह से दमन करवाया है यौन का, इतना किसी धर्म ने नहीं करवाया। कम से कम हिंदुओं ने तो वात्स्यायन का कामसूत्र लिखा आज से तीन हजार साल पहले। विन्ध्यवासिनी पांडेय के कोई पूर्वज रहे होंगे--महर्षि वात्स्यायन। पंडित थे। महर्षि हैं, उन्होंने कामसूत्र लिखा। और पंडित कोक ने कोकशास्त्र लिखा। पंद्रह सौ साल पहले।
ईसाइयत के पास ऐसी एक भी किताब नहीं है--कामसूत्र या कोकशास्त्र जैसी। ईसाइयत ने बहुत दमन किया है। इस दुनिया में सबसे ज्यादा दमन करने वाला धर्म ईसाइयत है--खास कर कैथालिक ईसाई संप्रदाय। और वही प्रभावी संप्रदाय है। उसने इतना दमन किया है कि लोग उबल गये हैं लोग ज्वालामुखी पर बैठे हैं। तुमने कभी सुना कि ईसाइयों के किसी मंदिर में खुजराहो जैसी मूर्तियां हों, उनके किसी चर्च की दीवाल पर मैथुन के चित्र हों कि मैथुन की प्रतिमाएं हों?
विन्ध्यवासिनी पांडेय, यह तुम्हारे पूर्वज कर गये। इसमें मेरा कुछ हाथ नहीं। और जिन तुम्हारे पूर्वजों ने खुजराहो के मंदिर खोदे, पुरी और कोणार्क के मंदिरों पर नग्न और अश्लील यौन प्रतिमाएं बनायीं, ये किस बात की खबर दे रही हैं? ये इस बात की खबर दे रही हैं कि इस बुरी तरह दबाया गया होगा कि उसके प्रगट होने का एक ही रास्ता बचा था और वह रास्ता था--धर्म की आड़ में प्रगट होना। नहीं तो मंदिरों की दीवालों पर खोदने की कोई जरूरत न थी। मगर और कहीं तो खोद ही नहीं सकते थे, तो तरकीब निकालनी पड़ी--मंदिर। मंदिर में तो कुछ भी करो तो पवित्र हो जाता है। तो मंदिर की दीवालों पर ये सारे नग्न चित्र खुदे हैं। और नग्न भी साधारण नहीं--बेहूदे, अभद्र, अप्राकृतिक भी। एक स्त्री पुरुष की मिथुन-प्रतिमा हो, समझ में आ सकती है। लेकिन एक स्त्री के साथ तीनत्तीन चार-चार पुरुष संभोग कर रहे हैं। स्त्री को शीर्षासन में खड़ा करवाया हुआ है और उसके साथ संभोग चल रहा है। पुरुष शीर्षासन में खड़ा है और स्त्री के साथ संभोग कर रहा है। गजब के योगी हो चुके! क्या-क्या योग की साधना! वात्स्यायन और पंतजलि दोनों का तालमेल करवा दिया--क्या संश्लेषण करवाया! यह तुम्हारे पूर्वजों की कृपा है। ईसाइयत ने तो और भी ज्यादा दमन किया। इतनी भी अभिव्यक्ति का मौका नहीं दिया। यहां तो कम से कम इतनी अभिव्यक्ति हो गयी; कहीं छिपे  कोनों में, कुछ मंदिरों पर उभर कर आ गयी हमारी भीतर की दशा। लेकिन ईसाइयत ने तो गर्दनें काट दी लोगों की, जिंदा जला दिया लोगों को--जिन्होंने जला दिया लोगों को--जिन्होंने इस तरह से करने की कोशिश की। वेटिकन के पुस्तकालय में, पोप के पुस्तकालय में--जमीन के भीतर है, अंतर्गर्भ में पुस्तकालय है--पिछले दो हजार साल की वे सारी किताबें इकट्ठी हैं जो ईसाइयत ने वर्जित कर दीं। कैथोलिक संप्रदाय का प्रधान पोप हर वर्ष फेहरिश्त निकालता है किताबों की कि कौन-कौन सी किताबें काली लिस्ट पर आ गयीं। जो किताब काली लिस्ट पर आ जाती है, उसको फिर किसी ईसाई को पढ़ना पाप है। उस किताब की सारी प्रतियां इन दो हजार सालों में जलायी जाती रहीं; सिर्फ एक प्रति वेटिकन की लायब्रेरी में बचा ली जाती है। तो मैं तो कहूंगा यू. एन. ओ. वेटिकन की लायब्रेरी पर कब्जा करना चाहिए, क्योंकि उससे दो हजार साल की असलियत प्रगट होगी। क्योंकि दो हजार साल में ईसाइयत ने कौन-कौन सी किताबें जलायीं, उसमें जरूर वात्स्यायन जैसे कामसूत्र होंगे, पंडित कोक  के कोकशास्त्र होंगे। वे जला दिये गये, उनको होली कर दी गयी। लेकिन उनकी एक एक प्रतियां बचा रखी हैं उन्होंने। लेकिन बेटिकन की उस लायब्रेरी में किसी को प्रवेश का अधिकार नहीं है। उस संपदा को छीनना चाहिए वेटिकन से, ताकि यह जाहिर हो सके कि दो हजार साल में ईसाइयत ने कितना दमन किया है। और जिन लोगों ने कभी भी कोई ऐसी बात कही जो ईसाइयत के विपरीत जाती हो--छोटी छोटी बातें--उनको आग में भूल दिया।
अगर आज पश्चिम में यौन विकार पाए जाते हैं तो उसका कारण दो हजार साल की ईसाइयत है; उसका कारण यौन-स्वतंत्रता नहीं है। अगर यौन-स्वतंत्रता कारण हो तो आदिवासियों में सर्वाधिक यौन-विकार पाए जाने चाहिए। उनमें बिलकुल नहीं पाए जाते। जो जंगल में रहने वाले आदिम लोग हैं, जैसे बस्तर के आदिवासी, इनमें कोई यौन-विकार बताए? हां, जहां तक ईसाई मिशनरी पहुंच गये हैं वहां तक यौन विकार भी पहुंच गये हैं। ईसाई मिशनरी पहुंच रहे हैं, हर आदिवासी इलाके में पहुंच रहे हैं, क्योंकि आदिवासियों को ईसाई बना लेना बहुत आसान है। सीधे सादे लोग, उनको रोटी और नमक भी मिल जाए, लालटेन जलाने के लिए घासलेट का तेल मिल जाए--पर्याप्त है। इतने में वे ईसाई होने को राजी हैं। और उनको समझाने में भी कोई कठिनाई नहीं है, सीधे सादे लोग हैं। इनको कोई अड़चन भी नहीं है। भोले-भाले हैं। तो जहां-जहां ईसाई मिशनरी पहुंच गये हैं वहां-वहां यौन विकार भी पहुंच गये हैं। लेकिन जहां ईसाई मिशनरी नहीं पहुंच पाये हैं, विन्ध्यवासिनी पांडेय, वहां जा कर देखो। तुम चकित हो जाओगे, वहां कोई यौन विकार नहीं है। वहां यौन स्वतंत्रता है। यौन स्वतंत्रता इतनी है कि तुम चकित होओगे यह बात जान कर कि बस्तर में अभी भी जहां सभ्यता का प्रभाव नहीं पहुंचा है, छोटी-छोटी बस्तियां हैं आदिवासियों की वहां गांव के मध्य में एक बड़ा छप्पर होता है--छप्पर, क्योंकि गरीब हैं और तो कुछ उनके पास हो नहीं सकता, एक बड़ा छप्पर होता है। छोटा झोंपड़ा नहीं, एक बड़ा झोंपड़ा। और गांव में जब भी कोई लड़की और लड़का चौदह साल तेरह वर्ष की उम्र पा लेते हैं तो उनको फिर घर में नहीं सोने दिया जाता, उनको उस गांव के मध्य में जो कक्ष है उसमें ही सोने के लिए भेज दिया जाता है, ताकि गांव का हर लड़का और हर लड़की एक-दूसरे से संबंध बना कर अनुभव कर ले और गांव का हर लड़का हर लड़की के संपर्क में आ जाए और हर लड़की हर लड़के के संपर्क में आ जाए, ताकि जब वे चुनाव करें पत्नी के लिए तो उनके पास चुनाव का कोई आधार हो।
तुम चुनाव भी कैसे करोगे? यहां तो लड़की को देखने भी जाते हो तो लड़की आकर पान की तस्तरी घुमा कर चली जाती है। अब तुम पान देखो कि लड़की देखो! जब तो तुमने पान उठाया, लड़की गयी। लड़की देखो तो पान से चूके। और लड़की देखो तो अभद्र मालूम होता है। लड़की की तरफ घूर कर देखो तो लुच्चे मालूम होते हो। लुच्चे का मतलब होता है: घूर कर देखने वाला। "लुच्चा' शब्द को समझ लेना--लोचन से बना है, आंख से। लुच्चा का वही मतलब होता है जो आलोचक का। आलोचक घूर-घूर कर देखता है किसी चीज को। ऐसा ही लुच्चा घूर घूर कर देखता है। तो अगर लड़की की तरफ देखो, तो घूर घूर कर देखना हो जाए और अगर पान की तरफ देखो, तब तक लड़की गयी। और इतनी जल्दी कैसे पहचान लोगे, क्या खाक पहचान लोगे?...या आकर थाली में सब्जी परोस जाती है। बस निर्णय कर लोगे तुम कि यह लड़की तुम्हारी जिंदगी की साथिन होने वाली है? इसके साथ तुम जीवन सुख से रह सकोगे? यह थाली में इसकी सब्जी परोसना या पान की तस्तरी घुमा देना या चाय की प्याली पकड़ा देना क्या निर्णायक हो सकता है जीवन भर के साथ के लिए? इससे ज्यादा अवैज्ञानिक और क्या बात होगी?
आदिवासी ज्यादा सम्यक हैं। वे हर लड़की को मौका देते हैं, हर लड़के को मौका देते हैं कि तुम एक दूसरे को खूब पहचान लो। और एक दूसरी अद्भुत बात है, जो समझने जैसी है वह यह कि कोई लड़का किसी लड़की के साथ तीन दिन से ज्यादा न रहे ताकि हर एक लड़के को मौका मिल जाए। कोई लड़का एक लड़की से बंध जाए, कोई लड़की एक लड़के से बंध जाए तो अनुभव में कमी आएगी। इसलिए तीन दिन से ज्यादा की आज्ञा नहीं। तीन दिन एक लड़की का एक लड़के का साथ रहे फिर साथ बदलो। फिर दुबारा साथ हो जाए कभी, बात अलग। मगर तीन दिन से ज्यादा एक बार में साथ नहीं हो सकता। इसलिएर् ईष्या का कोई कारण नहीं है। इसलिए आदिवासियों मेंर् ईष्या नहीं पाई जाती। और एक मजे की बात है कि जब गांव की सारी लड़कियों को लड़कों ने देख लिया, लड़कियों ने लड़कों को देख लिया तो स्वभावतः इस अनुभव से उनको साफ हो जाता है कि किसके साथ उनका जीवन सुखद होगा, पहचान हो जाती है। यह ज्यादा वैज्ञानिक बात हुई, बजाय पंडित से जन्मकुंडली मिलवाने के, या हाथ की रेखाएं दिखवाने के।
हाथ में सिर्फ रेखाएं हैं, और कुछ भी नहीं; कोई भाग्य नहीं है वहां। और जन्मकुंडली सब बकवास है। इससे कुछ होने वाला नहीं है। चांदत्तारों को क्या लेना-देना है कि तुम किससे विवाह करते हो और किससे नहीं करते हो? यह ज्यादा वैज्ञानिक बात है। लेकिन ईसाई मिशनरी जहां पहुंच गये, उन्होंने इस संस्था को बंद करवा दिया, क्योंकि वे कहते हैं यह अनैतिक है। और विन्ध्यवासिनी पांडेय वहां जाएंगे तो ये भी कहेंगे कि यह अनैतिक बात है; जिनका विवाह नहीं हुआ, वे लड़के लड़कियां साथ रहें, प्रेम करें एक दूसरे को, एक दूसरे के शरीर से परिचित हों, यह तो बात बिलकुल ही पाप की हो गयी! लेकिन दो वर्ष के इस संग साथ में प्रत्येक लड़का अपनी पत्नी चुन लेता है और प्रत्येक लड़की अपना पति चुन लेती है। और जब लड़के लड़कियां जाहिर कर देते हैं कि हमने अपना चुनाव कर लिया, तब उनका विवाह हो जाता है।
और इसके साथ भी जुड़ी हुई यह बात भी तुम्हें याद दिला दूं कि इन आदिवासी इलाकों में कोई तलाक नहीं होता। तलाक का सवाल ही नहीं उठता। तलाक का विचार ही नहीं उठता, क्योंकि जिसको इतने पहचान से चुना है, इतने अनुभव से चुना है, इतने परख से चुना है, उससे अलग होने की कोई बात ही नहीं उठती। उसको सब रूपों में देख लिया है, फिर चुना है। चुना है तो जान कर चुना है। इसलिए इन आदिवासी इलाकों में न तो तलाक होता है और न कभी यह घटना सुनी जाती है कि कोई किसी दूसरे की स्त्री के साथ प्रेम में पड़ गया है या किसी दूसरे की स्त्री को ले भागा है। ये घटनाएं होती ही नहीं।
लेकिन जहां-जहां ईसाई मिशनरी पहुंच गये हैं उन्होंने यह घोटूल की संस्था बंद करवा दी। वह जो गांव का कक्ष है, जहां लड़के और लड़कियां साथ रहते हैं, उसका नाम घोटूल है। यह घोटूल की संस्था उन्होंने बंद करवा दी, क्योंकि यह अनैतिक है। और जहां-जहां उन्होंने यह संस्था बंद करवा दी, वहां स्वभावतः विवाह आ गया। और विवाह आया कि सब अनिति आ गयी। तब तलाक का सवाल उठता है। तब पत्नी से मन नहीं भरता या पति से मन नहीं भरता, तो वेश्याएं पैदा होती हैं। और तब चोरी छिपे दूसरी स्त्रियों से, दूसरे पुरुषों से संबंध पैदा होते हैं। यह बिलकुल स्वाभाविक है। इसकी सारी जिम्मेदारी तुम्हारे तथाकथित धार्मिक लोगों पर है।
तो मैं तुमसे कहना चाहता हूं कि पश्चिमी देशों में यौन-स्वतंत्रता के होते हुए भी वहां यौन-विकार पाए जाते हैं; उनका जुम्मा यौन स्वतंत्रता पर नहीं है, उनका जुम्मा दो हजार साल पुरानी ईसाइयत पर है। और पश्चिम में ईसाइयत अभी भी हावी है, छाती पर बैठी है।
और इस बात को ख्याल में रखो, क्योंकि यह तर्क अक्सर उठता है। तुमने देखा, जब जैनों के पयुर्षण होते हैं--अभी अभी खत्म हुए हैं--तो सब्जी के दाम गिर जाते हैं। बाजार में सब्जियां सस्ती बिकने लगती हैं, क्योंकि जैन सब्जी नहीं खरीदते, हरी चीज नहीं खाते, उपवास करते हैं या एक बार भोजन लेते हैं। मगर जैसे ही उनका पयुर्षण खत्म होता है, सब्जियों के दाम पहले से भी ज्यादा बढ़ जाते हैं, क्योंकि सारे जैन एकदम से टूट पड़ते हैं। दस दिन संभाला अपने को किसी तरह--इसी आशा में तो संभाला कि आखिर ग्यारहवां दिन आएगा ही। लगता तो बहुत दूर है, जैसे कयामत का दिन, मगर आएगा। आशा बांध कर गुजार दिये दस दिन। जप जप कर नमोकार मंत्र दस दिन काट दिये, माला फेर-फेर कर दिन भर मंदिर में बैठे रहते हैं जैन। उपवास क्या कर लेते हैं कि घर में बैठें तो खतरा। खतरा यह कि बेटा तो लड्डू खा रहा है और बाप बैठा देख रहा है। अब यह बाप, कितनी ही इनकी उम्र हो गयी हो, भीतर तो, इनके भीतर भी लड्डू खाने वाला बैठा हुआ है, उसका जी ललचा रहा है। अब बच्चों के लिए पत्नी भोजन बना रही है। और जब तुम उपवास करो तो तुम चकित हो जाओगे कि तुम्हारी नाक की क्षमता एकदम बढ़ जाती है। ऐसी गंधे आनी शुरू होती हैं, जो तुम्हें कभी नहीं आयी थीं पहले। पकौड़े दूसरे के घर पकते हैं और बास तुम्हें आती है। भूख में आदमी की नाक बिलकुल स्वच्छ हो जाती है। उपवास में और कुछ स्वच्छ होता हो या न होता हो, नासारंध्र बिलकुल स्वच्छ हो जाते हैं। गंध की क्षमता एकदम तीव्र हो जाती है। दूर दूर से बासें आने लगती हैं। तो फिर जरा संयम रखना मुश्किल हो जाता है। तो उपवास के दिन लोग मंदिर में ही गुजारते हैं, क्योंकि मंदिर में न तो भोजन पकता, न लड्डू आते, न बरफी आती। जैन मंदिरों में प्रसाद वगैरह भी नहीं। और जैन मंदिरों में बैठे हैं मुर्दा मुनि, उनको देख कर भूख भी लगी हो तो मिट जाए। उनको देख लो तो समझो दिन भर खराब हुआ, अपशगुन हो जाता है सुबह ही से। भोजन भी कोई सामने रख दे और और उनको देखते रहो, भोजन न कर सकोगे। उनकी नजर निंदा कर रही है: पापी, नर्क में सड़ोगे!' अब जरा से भोजन के लिए कौन नर्क में सड़ना चाहता है! और नर्क में सड़ने का वे ऐसा वर्णन करते हैं--पयुर्षण के दिनों में यही चर्चा चलती है-- कि नर्क में कैसे कैसे सड़ाया जाता है और जैनियों का चित्त एक नर्क से नहीं भरा तो उन्होंने सात नर्क की कल्पना की हुई है। नर्क के ऊपर नर्क! भेजेंगे तुमको सातवें में। और वहां लोग, यहां तो पकौड़े नहीं खाने दे रहे और वहां लोग कड़ाहों में पकौड़े की तरह तले जा रहे हैं! अब दस दिन के लिए पकौड़े छोड़ देने की बेहतर हैं बजाए इसके कि फिर अनंत काल तक पकौड़े की तरह तले जाओ।
और मरोगे भी नहीं, ख्याल रखना। मरने भी नहीं देते। यही तो मजा है नर्क का। मारेंगे और मरने देंगे नहीं। प्यास लगेगी और मुंह सीया रहेगा। जलधार सामने बह रही है, अमृत बह रहा है और मुंह सीया हुआ है, पी नहीं सकते। ऐसा घबड़ाएंगे कि तुम सोचोगे कि भैया दस दिन गुजार ही दो। अरे दस ही दिन की बात है। एक दिन निकल गया, दो दिन निकल गये और माला पर यही तो गिनते हैं कि कितने दिन निकल गये! एक निकल गया, दो निकल गये, तीन निकल गये। अब बस थोड़े ही और बचे। अरे हाथी तो निकल ही गया, पूंछ ही बची है। अब एक ही दिन बचा है, गुजार दो! बैठे हैं मंदिर में और गुजार रहे हैं। और बड़े रस से सुनते हैं नर्क की बातें, क्योंकि उस वक्त बड़ी प्रभावित करती हैं।
और उसमें एक मजा और भी है कि वहां बैठे-बैठे सोचते हैं कि जो भोजन कर रहे हैं, सड़ेंगे। वह भी एक मजा आता है, कि देखो कौन-कौन सड़ेंगे। नाम उनके याद कर रहे हैं कि कौन-कौन सड़ने वाले हैं। भोगेंगे फिर। अरे अभी दस दिन की तकलीफ हम भोग रहे हैं, फिर तुमको पता चलेगा! फिर हम स्वर्ग में मजा करेंगे, अप्सराएं नाचेंगी, कल्पवृक्षों के नीचे बैठेंगे। बैठते ही जो इच्छा हो, तत्क्षण पूरी हो जाती है।
दस दिन के बाद एकदम टूट पड़ते हैं। मिठाइयां सब तरह के व्यंजन, सब्जियां! ऐसे टूटते हैं पागल की तरह! उसका जुम्मा किसका है? वह दस दिन का जो उसका उपवास है, वह जिम्मेवार है। साधारण स्वस्थ आदमी, जो रोज ठीक से भोजन कर रहा है सम्यक रूप से; इस तरह नहीं टूटता। यह दो हजार साल की ईसाइयत जिम्मेवार है। आज पश्चिम में अगर यौन-स्वतंत्रता थोड़ी-सी आयी है तो उसके साथ यौन-विकार आए हैं, उसका कारण यह ईसाइयत है। यह स्वाभाविक है। जब बहुत दिन तक लोगों को रोक कर रखा जाएगा, जैसे जेल में बंद कर दो लोगों को, फिर एकदम दरवाजा खोल दो एक दिन, तो कोई तुम सोचते हो ये लोग चहल कदमी करते हुए निकलेंगे, कि अपनी छड़ी हाथ में लिए हुए जैसे लोग चहलकदमी के लिए निकलते हैं, शाम को घूमने निकलते हैं, लखनवी ढंग--ऐसे निकलेंगे? अरे लोग यूं निकलेंगे तीर की तरह कि दरवाजे से निकलना मुश्किल हो जाएगा, भीड़ हो जाएगी। दरवाजा खोलो, पागल की तरह भागेंगे, लौट कर पीछे नहीं देखेंगे।
यह जो पश्चिम में दो हजार साल कारागृह रहा, आज थोड़े थोड़े द्वार खुल गये हैं कहीं-कहीं से, तो लोग निकल भागे हैं और दूसरी अति पर चले गये हैं। यह सीधा मनोविज्ञान है। यह समाप्त हो जाएगा। मगर अगर ईसाइयत जिंदा रही तो यह समाप्त नहीं होगा।
तुम यह कहते हो कि यौन-अपराध वहां भी होते हैं। इसका सिर्फ इतना ही अर्थ है कि अभी पूर्ण स्वतंत्रता वहां नहीं हुई। इसलिए यौन-अपराध वहां भी होते हैं। इससे तुम इस बात को मत मान लेना कि तुम्हारी दमन की प्रक्रिया ठीक है, तो हम क्या करें, यौन अपराध वहां भी होते हैं, यहां भी होते हैं, तो हमारी दमन की प्रक्रिया में कोई गलती नहीं है। वहां भी यौन-अपराध इसी दमन के कारण हो रहे हैं, उसी दमन के कारण यहां भी यौन-अपराध हो रहे हैं।
ये जो इतने बालात्कार हो रहे हैं, जगह-जगह, कौन इसके लिए जिम्मेवार है? विन्ध्यवासिनी पांडेय, तुम और तुम जैसे लोग इस सबके लिए जिम्मेवार हैं। ये तुम्हारे धर्मशास्त्र जिम्मेवार हैं। यह तुम्हारी हजारों साल की अवैज्ञानिक परंपरा जिम्मेवार है।
तुमने देखा कि किसी गांव पर झगड़ा हो जाए तो झगड़े में सबसे पहले स्त्री शिकार होती है! और स्त्रियों का कोई झगड़े से संबंध नहीं होता। झगड़ा पुरुषों में होता है, शिकार स्त्री होती है। यह बड़ी हैरानी की बात है। पुरुषों में झगड़ा हो, पुरुष एक-दूसरे को काट डालें, ठीक है। स्त्रियां तो कोई झगड़े में भाग लेने आती नहीं। मगर स्त्रियों पर बलात्कार क्यों हो जाते हैं?
और तुम यह सामान्य रूप से भी देखो, दो आदमी लड़ते हैं, लेकिन गालियां स्त्रियों को देते हैं--तेरी मां को, तेरी बहन को, तेरी बेटी को...! यह बड़े मजे की बात है। इसका तुम रहस्य समझो। इसका राज समझो। इसका क्या अर्थ हुआ? झगड़ तुम रहे हो, एक दूसरे की खोपड़ी खोल दो, ठीक है; मगर इसकी मां ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा? इसकी बहन ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा? इसकी बेटी ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा? उनका तो कोई भी संबंध नहीं है। और इसके बाप को गाली क्यों नहीं देते, इसकी मां को क्यों देते हो? इसके भाई को गाली क्यों नहीं देते, इसकी बहन को क्यों देते हो? इसके बेटे को गाली नहीं देते, इसकी बेटी को क्यों देते हो? और यह ख्याल रखो कि अगर झगड़े में कोई कूदेगा इसके पक्ष से, तो इसका बाप कूदेगा, इसका बेटा कूदेगा, इसका भाई कूदेगा--न इसकी मां कूदेगी, न इसकी बहन, न इसकी बेटी। मगर सूचक है इस बात का कि तुम भरे बैठे हो, तैयार बैठे हो। मौका कोई मिल जाए कि तुम स्त्रियों पर टूट पड़ो। गाली स्त्री को पड़ने वाली है क्योंकि स्त्री ने अपने को रोक कर रखा है। जरा अवसर मिल जाए कि बांध टूट जाता है। दो कौमों में झगड़ा हो जाता है, स्त्रियों पर बलात्कार हो जाते हैं एकदम। पहला काम स्त्री। और दोनों धार्मिक कौमें हैं। कोई हिंदु, कोई मुसलमान, कोई जैन, कोई हिंदू--सब धार्मिक लोग। और जैसे ही धार्मिक लोगों में झगड़ा होता है, दोनों की नजर स्त्री पर लगी हुई है कि झगड़ा हो जाए तो बस स्त्री पर टूट पड़ो। एकदम बलात्कार हो जाते हैं। झगड़ा होता है सवर्णों में और शूद्रों में और परिणाम भुगतना पड़ता है शूद्रों की स्त्रियों को, तत्क्षण उनके साथ बलात्कार हो जाते हैं।
और बड़ा मजा यह है, जिनको छूने से तुम्हें पाप लगता है उनके साथ बलात्कार करने से तुम्हें पाप नहीं लगता! जिनकी छाया से तुम्हें पाप लगता है उनकी स्त्रियों के साथ बलात्कार करने से तुम्हें पाप नहीं लगता।
दक्षिण भारत में सदियों से यह परंपरा रही कि शूद्र जब निकले तो चिल्लाता हुआ निकले कि मैं शूद्र हूं, रास्ते से हट जाएं। क्योंकि किसी के ऊपर उसकी छाया पड़ जाए तो उसी हत्या हो जाए। छाया! शूद्र ही नहीं है अछूत, उसकी छाया भी अछूत है! और यह ज्ञानियों का देश है, धार्मिकों का देश है! ऋषि मुनियों की संतान! छाया! और ये कहते हैं जगत माया। और छाया भी माया नहीं! जगत माया है, मगर छाया सत्य है! जगत माया है, जगत झूठ है, मृग-मरीचिका है। और राम को ये पूजते हैं--पुरुषोत्तम , मर्यादा पुरुषोत्तम! और राम के जीवन में यह कहानी कि वे स्वर्ण मृग को मारने चले! स्वर्ण मृग होते हैं? किसी बुद्धू को भी समझ में आता है कि स्वर्ण मृग होते ही नहीं। सोने का कहीं हिरण होता है? किसी ने सुना किसी ने देखा? और राम स्वर्ण मृग को मारने चले। और जगत माया! यहां मिट्टी है, सोना भी मिट्टी है। यहां सब झूठ, सब भ्रम। मगर सोने के मृग को मारने चले।
सब माया है, मगर अछूत की छाया माया नहीं है! छाया पड? गयी तो अछूत को दंड दिया जाएगा, भयंकर दंड दिया जा सकता है, मृत्यु दंड भी दिया जा सकता है। मगर अछूत की पत्नियों को, उनकी मां को, उनकी बहनों को बलात्कार करो--इसमें कोई अड़चन नहीं है! यूं समझो कि बेचारे ब्राह्मण बलात्कार करके उनको शुद्ध कर रहे हैं, कि उनको मुक्त कर रहे हैं, कि कम से कम थोड़ा ब्राह्मत्व तो उनमें आ ही गया! यह इनकी अनुकंपा है, इनकी कृपा है! लेकिन ये दमित समाज के लक्षण हैं। ये अति कुत्सित समाज के लक्षण हैं। जरा अपनी समझ को सीधा खड़ा करो, शीर्षासन मत करवाओ।
चंदूलाल अपनी पत्नी के साथ बड़ी भागम-भाग करके रेलवे-स्टेशन पर पहुंचे। वे हांफते-हांफते प्लेटफार्म पर पहुंचे ही थे कि गाड़ी का आखिरी डब्बा निकट से गुजर गया और दोनों दिल मसोस कर रह गये। चंदूलाल ने ताव खा कर कहा कि यदि तू जरा सी जल्दी तैयार हो जाती तो हम गाड़ी पकड़ लेते। पत्नी भी जल हुई थी, तिलमिला कर बोली, "और अगर तुम इतनी जल्दी न करते तो हमें दूसरी गाड़ी के लिए इतनी देर प्रतीक्षा न करनी पड़ती।'
अपनी-अपनी पकड़, अपनी-अपनी समझ।
विन्ध्यवासिनी पांडेय, तुम मुझे समझे नहीं हो। तुम अपनी ही समझ के अनुसार आरोपण कर रहे हो। तुम अपने से ही बातें कर रहे हो, मुझसे नहीं। और मैं जो कह रहा हूं, यह भी तुम्हारे भीतर घुसेगा इसमें संदेह है।
एक पोंगा पंडित को खुद अपने से ही बातें करने की आदत थी। एक रोज उनके एक सहयोगी ने मजाक में पूछा, "पंडित जी, आप अपने से बातें किया करते हैं--यह आप आदतन करते हैं या इसका कोई कारण है?'
"इसके दो कारण हैं'--पोंगा पंडित ने कहा--"एक तो यह कि मैं हमेशा बुद्धिमान आदमी की ही बातें सुनना पसंद करता हूं और दूसरा यह कि मैं केवल बुद्धिमानों से ही बातें करना पसंद करता हूं।'
विन्ध्यवासिनी पांडेय, तुम अपने से ही बातें कर रहे हो। यह प्रश्न तुमने मुझसे नहीं पूछा। मुझे तुम समझे भी नहीं। प्रश्न पूछने से पहले थोड़ा समझ लेना चाहिए।
तुम कहते हो, "अतः आपका यौन-स्वतंत्रता का सिद्धांत गलत सिद्ध होता है।'
मेरा कोई सिद्धांत नहीं यौन-स्वतंत्रता का। जरूर मैं प्रेम की स्वतंत्रता को मानता हूं। प्रेम की स्वतंत्रता का एक छोटा सा हिस्सा है यौन स्वतंत्रता। लेकिन जहां प्रेम है वहां यौन भी पवित्र है। और जहां प्रेम नहीं है वहां विवाह भी अपवित्र है। और अमरीका में क्या हो रहा है, इससे मेरा कोई सिद्धांत गलत नहीं हो सकता। मेरा सिद्धांत तो गलत तब होगा जब मेरे आश्रम में यौन-विकार पाए जाएं, तब मेरा सिद्धांत गलत होगा, उसके बिना मेरा सिद्धांत गलत सिद्ध नहीं होता। मेरा कम्यून बनता है, इस कम्यून में तुम बताना कि कौन से यौन विकार हैं? तब मैं समझूंगा कि मेरा सिद्धांत गलत सिद्ध हुआ। मेरे सिद्धांत का प्रयोग करने का मौका तो मुझे दो।
इस मौके की यह अनिवार्य शर्त है कि मैं पहले तुम्हें हिंदु होने से मुक्त करूं, ईसाई होने से मुक्त करूं, जैन होने से मुक्त करूं। जब यह सब कचरा धुल जाए, तब तुम मेरे सिद्धांतों का उपयोग कर सकोगे और फिर यौन-विकार पैदा हो तो मेरा सिद्धांत गलत होगा। लेकिन मैं प्रयोग न कर पाऊं, इसकी हजार चेष्टाएं की जा रही हैं। मैं एक बड़ा कम्यून न बना पाऊं, इसकी हजार चेष्टाएं की जा रही हैं। क्या घबराहट है इन चेष्टा करने वालों को? यही घबराहट है, क्योंकि ये जानते हैं मेरा सिद्धांत सही सिद्ध हो सकता है। यह इनकी भीतरी आवाज है कि मेरा सिद्धांत सही सिद्ध हो सकता है। उसी डर के कारण हर तरह का विरोध है। नहीं तो क्या विरोध है? मुझे प्रयोग करने दो। मैं किसी और पर प्रयोग नहीं कर रहा हूं, जबरदस्ती प्रयोग नहीं कर रहा हूं।। जो मुझसे राजी हैं, मैं उन पर प्रयोग करूंगा। और जो मुझसे राजी हैं, उनको प्रयोग करने का हक है और मुझे हक है। मेरा प्रयोग होने दो। तुम्हें क्या घबराहट है? अगर मेरा प्रयोग गलत सिद्ध होगा तो तुम्हारे सिद्धांत और परिपुष्ट हो जाएंगे। और अगर मेरा सिद्धांत सही सिद्ध होगा तो सत्य के साथ तुम्हें भी खड़े होने का एक अवसर मिल जाएगा। इतनी घबड़ाहट क्या है? अब यह घबड़ाहट तुम देखो।

तीसरा प्रश्न है: भगवान,
कच्छ से संबंधित कुछ लोग बंबई स्टेशन पर एक-एक रुपये की टिकट बेच रहे हैं। उनका नारा है--रजनीश हटाओ, कच्छ बचाओ।'
भगवान, आपके कच्छ प्रवेश से उनके कच्छे को क्यों तकलीफ हो रही है? क्या वे लोग भी सरदार बलदेवसिंह की तरह अपने कच्छे को बदलना नहीं चाहते? कृपया कुछ कहें।
चैतन्य सागर,
बंबई जो कच्छी आ गये, वे तो बेचारे कच्छा अपना कच्छ ही छोड़ आए। ये तो नंग-धड़ंग बंबई में खड़े हैं। ये क्या कोई कच्छी हैं? ये नकली कच्छी! नहीं तो भागते ही क्यों? ये भगोड़े हैं। इनको कच्छ से इतना प्रेम था तो कच्छ में होना था। ये बंबई में क्या कर रहे हैं? इनको बंबई में होने की क्या जरूरत है? कच्छ जाओ, कच्छ में रहो। ये तो सब कच्छ से भाग आए। ये कोई कच्छी नहीं हैं। इन भगोड़ों को मैं कच्छी नहीं कहता। जो कच्छ में हैं। वे कच्छी हैं; उनके पास कच्छा है और वे कच्छा बदलने को तैयार हैं।
 ये बंबई के कच्छियों ने बड़ी दौड़-धूप करके, बड़ी मेहनत करके, बहुत श्रम करके गुजरात सरकार के पास केवल पैंसठ विरोध में पत्र पहुंचा पाए। मैं तो कच्छ गया नहीं। मेरे संन्यासियों ने जाकर कोई कच्छ में कोशिश नहीं की। लेकिन मेरे पक्ष में तीन सौ पचास संस्थाओं ने गुजरात सरकार को लिखा है कि मेरा स्वागत करने को तैयार हैं। जिन पैंसठ व्यक्तियों से...इनमें केवल बीस संस्थाएं हैं, बाकी पैंतालीस तो वे व्यक्ति हैं...एक-एक व्यक्ति ने एक-एक कार्ड लिख दिया है। उनसे भी पत्रकारों ने जाकर पूछा तो उनमें से कई ने कहा, "हमें पता ही नहीं कि ये कार्ड हमारे नाम से किसने लिख दिया है! हमें तो मालूम ही नहीं।' मतलब यह कि कार्ड भी झूठे लिखे गये हैं। एक-एक संस्था के नाम से दो-दो पत्र डलवा दिये हैं। वह मैंने संस्थाओं की लिस्ट देखी, तो एक संस्था के नाम से दो पत्र हैं, दो दफे नाम आया संस्था का।
और संस्थाएं क्या हैं--बनायी हुई संस्थाएं हैं! चार आदमियों ने मिल कर एक संस्था बना ली और पत्र लिखवा दिया। और पत्र लिखने के लिए कितनी कोशिश करनी पड़ी! छः आदमी बंबई से जाकर पूरे कच्छ का दौरा किये, कच्छियों को समझाते रहे कि रोको। और ये टिकट मेरे देखने में आया है। चैतन्य सागर ने जो पूछा--चैतन्य सागर उर्फ लहरू  ने पूछा, यह टिकट कोई मेरे पास ले आया था दिखाने। मैं तो टिकट देख कर बहुत खुश हुआ, क्योंकि जिनने लिखा है ये परम बुद्धू मालूम होते हैं। टिकट पर ही यह लिखा हुआ है: "रजनीश हटाओ, कच्छ बचाओ'!
अभी में कच्छ तो गया नहीं, तो मुझे हटाओगे कैसे? मतलब  मुझे पूना से हटाओ और कच्छ भेजो, तो कच्छ बचे! तो बात साफ ही है। अभी में कच्छ गया नहीं, तो कच्छ से हटने का तो कोई सवाल उठता नहीं। अभी तो पूना से हटने का सवाल है। और बेचारे बड़ी ठीक बात कह रहे हैं कि पूना से हटाओ तो कच्छ बचे। रजनीश हटाओ, कच्छ बचाओ! मैंने कहा कि बिलकुल मेरे पक्ष में काम चल रहा है। बुद्धू करेंगे भी क्या और! इनको इतनी भी अकल नहीं कि क्या कह रहे हैं। अभी मुझे कच्छ तो पहुंचने दो, फिर मुझे हटाना। अभी मैं पहुंचा ही नहीं, मैंने कदम नहीं रखा। अभी नहीं, मैंने कभी कदम नहीं रखा, कच्छ मैं कभी गया ही नहीं अपनी जिंदगी में। कच्छ में कोई घटना ही नहीं घटी है; सिर्फ लगता है कच्छप अवतार एक हुआ था, वह अगर कच्छ में हुआ हो तो हुआ हो, उसके बाद तो कच्छ में कोई घटना घटी नहीं।
और ये जो भाग आए हैं कच्छ का रण छोड़ कर, रणछोड़दास! भगोड़ों के लिए अच्छा नाम दे देते हैं--रणछोड़दास! और कच्छ का रण, उससे भाग आये, ये रणछोड़दास जो बंबई में बैठ गये हैं, ये जो पीठ दिखा कर भाग आए हैं, इनको कच्छ बचाने की क्या चिंता पड़ी है? मगर टिकट मुझे पसंद आया। असल में लहरू , इनसे कहो कि इस टिकट से जितना पैसा आए वह मुझे मिलना चाहिए। कच्छ को बचाओगे कैसे? और अभी तो पूना से हटाने में भी पैसा लगेगा और कच्छ बचाने में भी पैसा लगेगा। सा बंबई के संन्यासियों को इकट्ठा करके इनके दफ्तर पर कब्जा कर लो और इनसे कहना: जितना पैसा इकट्ठा हुआ वह दो, क्योंकि तुमने वायदा किया है कि रजनीश हटाओ--हटाएंगे! उन्हीं से हटा सकते हो, और तो कहां से हटाएंगे! और कच्छ का बचाएंगे! अब पूना को बचा लिया, अब कच्छ को बचाएंगे! सभी को बचाना है। एक-एक को ही बचाया जा सकता है। अब पूना बच गया, बंबई बच गया, अब कच्छ को बचाएंगे। ऐसे बढ़ते चलेंगे। भारत को बचाना है सारी दुनिया को बचाना है।
इस टिकट को देख कर मुझे लगा कि सरदार सिर्फ पंजाब में ही नहीं होते, गुजरात में भी होते हैं। एक हो गये प्रसिद्ध-- सरदार बल्लभभाई पटेल। मगर और छोटे-मोटे सरदार भी मालूम होते हैं वहां।
"यदि रात को अचानक घड़ी बंद हो जाए तो समय का ज्ञान कैसे किया जा सकता है?' सरदार विचित्तरसिंह ने अपने मित्र से पूछा।
मित्र ने कहा, "यात्रा प्रारंभ कर दीजिए।'
विचित्तरसिंह ने कहा, "इससे क्या होगा?'
मित्र ने कहा, पड़ोसी कहेंगे, यह कौन गधा है जो रात ढाई बजे गर्दभ रागिनी गा रहा है? टाइम का पता चल जाएगा।'
सरदार विचित्तरसिंह बाजार में स्वेटर खरीदने गये। दुकानदार ने पूछा, "खरीदनी है? सच में खरीदनी है? सरदार जी, पैसे हैं?'
सो उन्होंने निकाल कर नोट दिखा दिया। दुकानदार आश्वस्त हुआ। तब विचित्तरसिंह ने कहा दुकानदार से, "क्या मैं इसे पहन कर देख लूं?'
उनका भारी-भरकम शरीर, स्वेटर खराब कर दें! पहन जाएं तो ढीली हो जाए वह । फिर किसी और के काम की रहे न रहे ।
सो दुकानदार ने कहा कि जरूर, सरदार जी लेकिन पहनने के पांच रुपये लगेंगे। विचित्तरसिंह ने स्वेटर पहन लिया और जेब से पांच का नोट निकाल कर दुकानदार को दे दिया। उसने नोट हाथ में लेकर कहा, "अब स्वेटर उतार दो।'
विचित्तरसिंह ने कहा, "उतारने के दस रुपये लगेंगे। अरे जब पहनने के लगते हैं तो उतारने के भी लगेंगे!'
यह गणित है जो कुछ लोगों के दिमाग में चलता है।
एक सरदार ने सरदार विचित्तरसिंह ने पूछा, "सरदार जी, क्या बजा है आपकी घड़ी में?'
विचित्तरसिंह ने कहा, दस-दस।'
पहला सरदार बोला, "सरदार जी, एक ही बार बोलो न, मैं कोई थोड़ा ऊंचा सुनता हूं।'
विचित्तरसिंह के पिता जी ने पूछा कि बेटा, क्या घड़ी ठीक करवा ली? विचित्तरसिंह ने कहा, "हां पिता जी।'
बाप ने कहा, "तो अब घड़ी समय बताती होगी।'
विचित्तरसिंह ने कहा, "नहीं पिता जी, समय तो नहीं बताती। हां, देखना पड़ता है।'
ये बंबई के कच्छी तो मात किये दे रहे हैं। और कच्छप अवतार अगर कच्छ में हुआ था तो उसके कुछ तो परिणाम रह ही गये होंगे। कछुए की खाल भारी मोटी होती है--ऐसी के गोली भी नहीं लगती। इसलिए कछुए से ढाल बनायी जाती है, तलवार भी नहीं छेद सकती उसको।
ये बंबई के कछुए, इनकी बुद्धि में कुछ प्रवेश होता नहीं दिखता। ये कहते हैं कि मेरे कच्छ जाने से कच्छ की संस्कृति नष्ट हो जाएगी। क्या ऐसी नपुंसक संस्कृति को बचाना जो किसी के आने से नष्ट हो जाती हो? अगर तुम्हारी संस्कृति में कुछ बल है तो मुझे बदल लेना, मैं तुम्हें कैसे बदलूंगा? और अगर निर्बल है तो मैं बदलूंगा, तो मुझे बदलने दो। यह निर्बल की घबड़ाहट है, नपुंसक की घबड़ाहट है। क्या डरना? इनको भय है कि कच्छ का धर्म नष्ट हो जाएगा। कहीं अंधेरे से रोशनी नष्ट हुई है? हां; रोशनी से अंधेरा नष्ट होता है। अगर मैं अंधेरा हूं तो नष्ट हो जाऊंगा, तुम्हारे पास अगर रोशनी है। और अगर मैं रोशनी हूं तो तुम अंधेरे को बचा कर भी क्या करोगे? नष्ट हो जाने दो। जहां भी रोशनी और अंधेरे का मिलन होता है। रोशनी तो नष्ट नहीं होती। तो अगर कच्छ के पास रोशनी है तो क्या इतने भयभीत हो रहे हो?
गुजरात के चौदह संतों-महंतों ने, महात्माओं ने अपील की है कि मुझे कच्छ में प्रवेश न करने दिया जाए, इससे धर्म नष्ट हो जाएगा। अरे तुम चौदह, मैं अकेला आदमी अपने कमरे से बाहर निकलता नहीं किसका धर्म मुझे नष्ट करने जाना है? और धर्म हो  तो नष्ट भी करो, है कुछ हाथ में खाक नहीं मगर मुसीबत यह है, कहते हैं न मुट्ठी बंधी हो तो लाख की, खुल जाए तो खाक की! अभी मुट्ठी बंधी है, मैं खुलवा दूंगा--इतना ही भर सकता हूं। सो इनको दिखाई पड़ जाएगा कुछ नहीं मुट्ठी में। मुट्ठी बंधी रहे तो आदमी भरोसा किए रखता है कि न मालूम क्या-क्या मुट्ठी में है! खुद भी धोखा खाता है, औरों को भी धोखा देता रहता है। मुझसे इतनी घबड़ाहट क्या पैदा हो रही है? अगर में गलत हूं और तुम सही हो तो धबड़ाहट मुझे होनी चाहिए। मैं तो किसी से घबड़ाया हुआ नहीं हूं। मैंने तो जिंदगी में कभी एक क्षण को ऐसा अनुभव नहीं किया कि मेरी बात को कोई नष्ट कर देगा। और मैं तो कहता हूं कि कोई नष्ट कर दे तो अच्छा है, उसने मुझ पर बड़ी कृपा की: क्योंकि मैं गलत बात को पकड़े बैठा था, उसने नष्ट कर दी तो मुझे अवसर दिया कि मैं सत्य को खोज लूं। उसने कोई दुश्मनी तो नहीं की। उसने तो मेरे ऊपर बड़ा अनुग्रह किया। मैं तो तलाश में हूं उस आदमी की जो मेरी बातों को गलत सिद्ध कर दे। उससे मेरा छुटकारा हो जाए मेरी बातों का, मेरा जाल कट जाए। मैं ठीक बात समझ लूं।
मगर मुझे कभी कोई घबड़ाहट नहीं रही। घबड़ाहट औरों को है। इससे एक बात जाहिर होती है: घबड़ाहट हमेशा कमजोर को होती है। घबड़ाहट हमेशा उसे होती है जिसे पता है कि भीतर खोखलापन है। नहीं तो ये चौदह संत-महंत, इनको मैं निमंत्रण देता हूं, मैं आता हूं कच्छ, आना मेरे कम्यून में समझने की कोशिश करना, मुझे समझाने की कोशिश करना। तुम चौदह, मैं अकेला। निपटारा कर लेंगे। ऐसा क्या घबड़ाने की जरूरत है? इतने क्या परेशान हो रहे हो? और कभी हो तो बाहर से बुला लेना--पुरी के शंकराचार्य को बुला लेना, करपात्री महाराज को बुला लेना। और बहुत शंकराचार्य हैं, बहुत जगतगुरू हैं, यह देश तो भरा ही हुआ है जगह जगह, सबको बुला लेना। मैं सब के साथ चुनौती स्वीकार करने को राजी हूं। लेकिन मेरी बात को गलत सिद्ध करो। लेकिन बात को तो गलत सिद्ध कर नहीं सकते; इस भय से अब एक ही उपाय है कि मुझे रोको, मेरी बात को पहुंचने मत दो, मेरी बात को लोगों तक जाने मत दो।
ये कोई धार्मिक लोगों के लक्षण हैं? ये कोई सुसंकृत लोगों के लक्षण हैं? यह कोई सभ्यता की पहचान है? सुसंकृति, सभ्यता का तो एक ही अर्थ होता है कि मैं अपनी बात कहने के लिए स्वतंत्र हूं, तुम अपनी बात कहने को स्वतंत्र हो। फिर जो भी सच होगा वह जीत जाएगा। तुम जिंदगी भर से दोहराते रहे, सदियों से--सत्यमेव जयते। तुम्हें घबड़ाहट क्या है? अरे सत्य है, वह जीतेगा। सत्य न मेरा न तुम्हारा, सत्य जीतता है। लेकिन मैं जानता हूं कि मैं जो कह रहा हूं वह सत्य है। तुम्हारी घबड़ाहट बता रही है कि वह सत्य है।
आखिरी प्रश्न: भगवान,
गणेश व्युत्पत्ति उपनिषद, गाणपत्यत्तंत्र और गणेश सिद्धि में उल्लेख है कि श्वेत कल्प में उनका जन्म हुआ। पार्वती के स्नान करने और मैल का पुतला बना कर शक्ति का संचार करने की कथा तो जगत-प्रसिद्ध है। भगवान शिव ने गणेश के रोकने पर संदेह से ग्रस्त हो कर गणेश की गर्दन काट दी। पार्वती के विलाप करने पर शिव ने अपने गणों से कह कर दूसरी गर्दन मंगवायी। वे एक नवजात हाथी को मार कर उसकी गर्दन ले आए। यह कथा कहती है, शिव  जी ने उन्हें पुनः प्राणदान दिया, वे पुनरुज्जीवित हो गए।
भगवान, शिव जी ने दूसरे की हत्या करवाना क्यों पसंद किया? क्यों नहीं उसी कटी हुई गर्दन को गणेश के धड़ से जोड़ दिया? किसी दूसरे जीव की हिंसा तो न होती और गणेश का असली रूप भी देखने को मिलता।
दिनेश भारती,
इस बात में बहुत-सी बातें समझने जैसी हैं। भारत के धर्मग्रंथ इसी तरह की बकवास से भरे हुए हैं। यह शुद्ध बकवास है। पार्वती के स्नान करने और मैल से पुतला बना कर...तो पहली तो बात, पार्वती ने जैसे जन्म भर से स्नान न किया होगा। इतना मैल कि उससे एक पुतला बन जाए! जरा पार्वती की हालत तो देखो, जैसे जन्मों से न नहायीं हों, जैसे धूल और मिट्टी में ही लोटती-पलोटती रहीं हों! इतना मैल! नहाने की दुश्मन थीं क्या? इतनी क्या दुश्मनी नहाने से? और कहीं मैल के पुतलों से जीवन पैदा होता है? क्या बचकानी बातें हैं!
 मगर अद्भुत है हमारा देश। इस तरह की व्यर्थ की बातों को पूजे चला जाता है। इस तरह की व्यर्थ की बातों को सम्मान दिए चला जाता है। इन्हीं ने हमें जड़ किया है। इन्हीं अंधविश्वासों ने हमारी बुद्धिमत्ता को कुंठित कर दिया है; हमारी प्रतिभा की तलवार पर धार मार दी, बोथली कर दी हमारी प्रतिभा। जो लोग इस तरह की बातों को मान कर चलेंगे, इनसे क्या तो विज्ञान का जन्म होगा और क्या धर्म का जन्म होगा? ये तो दयनीय रहेंगे, दरिद्र ही रहेंगे। ये तो गुलाम ही रहेंगे। इनके जीवन में कभी भी कोई क्रांति नहीं हो सकती। और ये अभी भी यही कर रहे हैं--गणपति बप्पा मोरया! अभी भी मिट्टी से बना रहे हैं गणपति को। और क्या शोरगुल मचाते हैं, क्या उपद्रव मचाते हैं--और सोचते हैं बड़ा धार्मिक कार्य कर रहे हैं!
ये हमारी मूढ़ताओं के प्रदर्शन हैं। ये कथाएं इस बात की सूचक हैं कि हम सदियों से मूढ़ हैं। कोई आज की मूढ़ता नहीं है-- बड़ी पुरानी, बड़ी प्राचीन है। इसकी जड़ें बड़ी गहरी हैं। और इसे काटना हो तो पीड़ा तो होगी। इसलिए मेरे संबंध में इतना विरोध है क्योंकि मैं किसी भी मूढ़ता को स्वीकार करने को राजी नहीं हूं, चाहे वह कितने ही महत्वपूर्ण शास्त्र में लिखी हो, चाहे वह गणेश व्युत्पत्ति उपनिषद हो और चाहे गाणपत्य तंत्र हो और चाहे गणेश सिद्धि हो, इससे कुछ भेद नहीं पड़ता।
और फिर भगवान शिव। एक तरफ तो कहते हो कि वे त्रिकालज्ञ हैं, सर्वोतर्यामी हैं, सर्वज्ञ हैं। और उनको भी गणेश के रोकने पर संदेह हो गया! तो फिर दो में से कुछ एक हर बात कहो। संदेह तो बड़ी ही क्षुद्र मनोदशा है। संदेहग्रस्त व्यक्ति को तो हम धार्मिक भी नहीं मानते, भगवान मानना तो बहुत दूर। धार्मिक से तो अपेक्षा है श्रद्धा की और तुम्हारा भगवान तक संदेह करता है। और भगवान को तुम कहते हो वह सर्वव्यापी है, सब कालों को जानने वाला, सबका ज्ञाता। उसको कैसे संदेह होगा? और अगर उसको संदेह होता है तो फिर वह सर्वज्ञ नहीं है। क्या संदेह की बात थी? उनको पता ही होना था कि पार्वती ने अपने शरीर से मैल निकाल कर पुतला बना लिया और उसी में प्राण फूंक दिए। इसमें गणेश को मारने की क्या जरूरत थी? संदेह ही बता रहा है कि तुम्हारे देवी-देवता भी तुम्हारे आदमियों से बहुत भिन्न नहीं हैं--वहीर् ईष्या, वही संदेह; वही पति-पत्नी की कलह।
सब पतियों को अपनी पत्नियों पर संदेह है। होगा ही, क्योंकि प्रेम तो है नहीं, इसलिए संदेह है। और सब पत्नियों को अपने पतियों पर संदेह है, क्योंकि प्रेम तो है नहीं, इसलिए डर है, इसलिए भय है। जरा सी देर हो जाए पति को दफ्तर से लौटने में कि बस पत्नी को संदेह शुरू हो जाता है--पता नहीं किस स्त्री के साथ चला गया, पता नहीं क्या कर रहा है, पता नहीं कहां है! फौरन फोन करने लगती है, इंतजाम करने लगती है, पता लगाने लगती है। पति भी जरा ही देर से घर लौटे तो उसको रास्ते में ही इंतजाम कर लेना पड़ता है कि क्या उत्तर दूंगा, क्योंकि प्रश्न तो तैयार होंगे ही, दरवाजा खोलते ही से पत्नी टूट पड़ने वाली है कि इतनी देर कहां रहे।
सेठ चंदूलाल, एक दिन देर हो गयी और कल ही पत्नी ने वायदा किया था, कसम खायी थी कि अब कभी देर न करूंगा। मगर मित्रों के साथ गपशप में बैठ गए, ताश की बाजी लग गयी, भूल ही गए। आधी रात हो गयी। जब घर के पास आए तब होश आया। घर के पास आ कर शराब पीया हुआ पति भी आता है  तो होश आ जाता है। शराब भी एकदम नदारद हो जाती है। नींबू वगैरह पिलाने की जरूरत नहीं, दही वगैरह पिलाने की जरूरत नहीं है, सिर्फ पत्नी को सामने खड़ा कर दो या पत्नी की तसवीर, बस सब नशा रफूचक्कर हो जाएगा। जैसे ही घर के पास आए, खयाल आया कि अरे अब फिर भूल हो गयी, अब क्या करना, अब फिर झंझट खड़ी होगी, आधी रात हो गयी। सो जूते हाथ में लिए खिड़की ले कूदे, चुपचाप घर के भीतर प्रवेश किए, जैसे चोर प्रवेश करता है। पति सभी चोरों की तरह प्रवेश करते हैं। बिलकुल पूंछ दबा कर, भीगी बिल्ली की भांति! बाहर देखो तो सीना फुला कर चलते हैं, घर देखो उनकी असली हालत।
पत्नी सो रही थी, घुर्राटे ले रही थी। सो उन्होंने कहा, कोई तरकीब निकाल लेनी चाहिए। तरकीब निकाल ली। गुए, मुन्ना का झूला था, उसको झुलाने लगे। थोड़ी देर झूला झुलाया, झले की, आवाज, चर्र-चूं की आवाज हुई, तो पत्नी ने आंख खोली, और कहा, "क्या कर रहे हो?' तो नाराज हुए की पप्पू की मां, घंटए भर से पप्पू रो रहा है और तू घुर्राटे ले रही है। और मुझे उठ कर उसका झूला झुलाना पड़ रहा है।
चंदूलाल की पत्नी बोली, "पप्पू के पापा, पप्पू मेरे पास सो रहा है, झूला खाली है। आधी रात कहां रहे?'
यूं बहानों से न चलेगा।
फंस गए। पति-पत्नी तो एक दूसरे पर नजर रखे हुए हैं, एक दूसरे के दुश्मन समझो--जो एक दूसरे के पीछे लगे हैं, एक दूसरे की रक्षा कर रहे हैं कि कहीं भटक न जाओ। न पति पत्नी के भटकने देता है, न पत्नी पति को भटकने देती है। दोनों का एक दूसरे को सुधारने का एक महान आयोजन चल रहा है। कुछ भेद नहीं फिर।
और यह बात सच है कि अगर तुम अपने शास्त्रों को देखो, तो तुम्हारे देवी-देवता और आदमियों में कोई भेद नहीं--वहींर् ईष्या, वही वैमनस्यवही जलन, वही क्रोध, वही हिंसा। तुम्हारे ऋषि-मुनियों में और तुमसे भी कुछ खास फर्क नहीं मालूम पड़ता। नहीं तो तुम दुर्वासा को ऋषि नहीं कह सकते थे। वही क्रोध, वही आग जलती है, जो तुममें जलती है। जरा-सी बात में अभिषाप दे देते हैं। अब ये क्या देवता हुए? और शिव को तुम कहते हो--महादेव! देवों के देव! ये कोई छोटे-मोटे देवता भी नहीं, देवताओं के देवता! और उनको भी संदेह हो गया।
और संदेह क्या हुआ, फिर जरा भी उन्होंने पूछताछ भी नहीं की। गर्दन ही काट दी। जरा पूछताछ तो कर लेते। जरा पता तो लगा लेते। मगर गर्दन ही काट दी ऐसी हिंसक वृति।
मगर आश्चर्य तो यह है कि इन देवताओं को तुम अब भी पूज रहे हो, बीसवीं सदी में भी पूज रहे हो। अब भी तुम्हारे माथे गलत जगह झुक रहे हैं।
फिर पार्वती ने विलाप किया। क्या देवी-देवता हैं? इधर समझाते हैं कि आत्मा अमर, कोई मरता ही नहीं और पार्वती विलाप कर रही है अब!--और महादेव जी के साथ रहते-रहते जिंदगी गुजर गयी, इनको अक्ल न आयी, तो तुम महादेव की मूर्ति के सामने सिर पटक-पटक कर सोचते हो अकल आ जाएगी? अब विलाप कर रही हैं। और विलाप क्या करना है? जब मिट्टी के ही पुतले में सांस फूंकी थी, अरे तो फिर दो-चार महीने बाद नहा लेना था। ऐसी क्या बात आ गयी? हाथ का ही मैल था, इसमें रोना-धोना क्या है? या शिव जी के शरीर से मैल निकाल कर उसका पुतला बना लेना था। जब पार्वती को मैल के पुतले में प्राण फूंकना आता है तो पार्वती को गणेश की गर्दन जोड़ना नहीं आया?
इसमें तुम विरोधाभास देखो और तब तुम पाओगे तुम कैसी बचकानी कहानियों में उलझे रहे हो! और फिर पार्वती के विलाप ने रास्ते पर ला दिया उन्हें, जैसे सभी पत्नियों का विलाप पतियों को रास्ते पर ला देता है। पत्नियों के पास एक ही तरकीब बची है कि बस रोओ, जोर जोर से रोओ, कि मुहल्ले वाले सुन लें। पति कहने लगता है कि शांत हो बाई, साड़ी ला दूंगा, रेडियो खरीद दूंगा, फ्रिज ला दूंगा, क्या  चाहिए बोल? मगर जोर से नहीं। मुहल्ले वाले क्या कहेंगे! इज्जत बचा। इज्जत पर पानी न फेर।
सो इज्जत का सवाल उठा होगा। सो उन्होंने नवजात हाथी को मार की उसकी गर्दन ले आए, शिष्यों को भेज दिया। शिष्य भी उन्हीं जैसे भंगेड़ी। शिव जी तो "दम मारो दम!' शिव जी तो भंगेड़ियों के देवता हैं, गंजेड़ियों के देवता हैं। अब शिष्य भी क्या, गांजा भांग पीए बैठे होंगे। आखिर जैसे गुरू होंगे वैसे ही शिष्य होंगे न! शिव जी तो महाहिप्पी समझो। ये हिप्पी तो अभी नये नये आए, इनका कुछ खास नहीं है। असली हिप्पी तो शिव जी थे। यह तो उन्हीं की परंपरा समझो। इन्होंने फिर पुनरुज्जीवित कर दिया शिव का धर्म।
और तुमने उनकी बारात की कहानी तो सुनी होगी कि क्या एक से एक लोग पहुंचे बारात में कि पार्वती के पिता तो डर ही गये। अगवानी करने आए थे; जब बराती देखे गंजेड़ी, भंगेड़ी, कोई दम मार रहा है, कोई शराब की बोतल लिये होगा हाथ में, इरछे-तिरछे लोग, तरहत्तरह के अष्टावक्र! उनको देखकर ही वे घबड़ा गये कि यह मैं किसके चक्कर में पड़ गया, यह मेरी लड़की किसके हाथ पड़ी जा रही है! यह कहां का हजम आ गया है! छांट छांट कर लोग आए थे। उन्हीं में से किसी शिष्य को कहा होगा कि भई जा, गर्दन ले आ।
अब यह भी बड़े मजे की बात है कि गर्दन काटी थी तो गर्दन वहीं पड़ी होगी, क्या एकदम स्वर्ग चली गयी थी? भेजने की जरूरत क्या थी? मगर वे खुद की पीए होंगे, सामने पड़ी गर्दन दिखाई कहां पड़े! शिष्यों को भेज दिया गर्दन लेने। वे एक नवजात हाथी को मार कर उसकी गर्दन ले आए। ये सब बातें साफ हैं कि भंगेड़ी ही कर सकते हैं। हाथी की गर्दन और आदमी की गर्दन में कुछ फर्क है। लेकिन अब जो नशे में हो उसको क्या फर्क! नशे में कुछ फर्क नहीं होता। नशे में तो कुछ का कुछ दिखाई पड़ता है। और शिव जी ने उसी गर्दन को जोड़ दिया। उनको भी न दिखाई पड़ा  कि यह गर्दन किसकी है। जैसे अंधों का खेल चल रहा है! और वे पुनरुज्जीवित हो गये।
ये सारी चीजें उस समय के लिए शायद ठीक रही होंगी, जब आदमी का बिलकुल बचपना था, जब आदमी को कुछ होश न था। आज इस बीसवीं सदी में गणेश की पूजा देख कर हैरानी होती है, शिव के मंदिर बनते देख कर हैरानी होती है। शिव के और गणेश के भक्तों को देख कर अचंभा होता है। क्या पागलपन है! कैसी विक्षिप्तता है!
और यह कथा कहती है, वह श्वेत कल्प था और यह अंधकार युग। वह था आलोक का युग--सतयुग, स्वर्ण युग! और अब है यह कलियुग! अंधकार का युग। तमस का युग। लोग तामसी हो गये हैं।
बात उल्टी है। वह युग अंधकार का युग रहा होगा, जब इस तरह की मूढ़ताएं धर्म के ना पर चलती रहीं। और लोग इनको मानते रहे। आज पहली दफा मनुष्य जाति थोड़ी प्रौढ़ होनी शुरू हुई है। थोड़ी। इस प्रौढ़ता से बड़ी संभावनाएं हैं। इससे पुराना धर्म तो जाएगा। यह जो प्रौढ़ता की बाढ़ आएगी, यह जो आलोक की बाढ़ आएगी, इसमें सारा कचरा बह जाएगा। मनुष्य के एक नये जीवन की शुरुवात हो सकती है।
मैं अपने संन्यासियों के द्वारा उसी शुरूवात का पहला-पहला कदम उठा रहा हूं। यह पहली किरण है उसी सूरज की। मनुष्य को नयी जीवन-दृष्टि चाहिए, नया धर्म का बोध चाहिए, नयी चेतना चाहिए, नयी कथाएं चाहिए, नये अर्थ चाहिए, नये शास्त्र चाहिए, नया उद्बोध चाहिए। और जब तक यह न होगा तब तक कोई आशा नहीं है। एक ही आशा है कि यह हो सकता है। यह आशा तुम पर निर्भर है।

आज इतना ही।
नौवां प्रवचन; दिनांक २९ सितंबर, १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना



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