उठो, जागो—सुबह
करीब है—प्रवचन
सोलहवां
प्रश्नसार:
ऐसे ही
क्या आपका ‘प्रेम’ शब्द खतरे
से नहीं भरा
है?
2—जो
दीया तूफान से
बुझ गया,
उसे फिर जला
के क्या करूं?
जो
परमात्मा घर
से ही भटक गया,
उसे घर वापस
बुला के क्या
करूं?
3—तेरे
गुस्से से भी
प्यार,
तेरी मार भी
स्वीकार।
पहला
प्रश्न:
कल
आपने बताया कि
महावीर ने
प्रेम शब्द का
उपयोग नहीं
किया, क्योंकि
लोग उसका गलत
अर्थ लेते
हैं--और यह कि आज
लोग अहिंसा का
गलत अर्थ लेते
हैं, इसलिए
आप प्रेम शब्द
का उपयोग करते
हैं। पर जैसा
लोग महावीर के
समय में प्रेम
शब्द का गलत
अर्थ करते थे,
क्या आज भी
वही स्थिति
नहीं है? और
आपके द्वारा
सर्वाधिक
उपयुक्त शब्द,
प्रेम, क्या
आज भी खतरे से
भरा नहीं है?
शब्द-मात्र
खतरे से भरा
है। क्योंकि
जैसे ही बोला
गया शब्द, बोलनेवाले की मालकियत
उस पर समाप्त
हो जाती है; सुननेवाला
मालिक हो जाता
है। कुछ मैंने
कहा, कहते
ही मैं मालिक
नहीं रहा; सुनते
ही तुम मालिक
हो गये। अब
तुम क्या अर्थ
करोगे--तुम पर
निर्भर है।
तो जो
शब्दों से
डरते हों, उन्हें
तो बोलने का
ही उपाय नहीं
है। क्योंकि अर्थ
मैं नहीं डाल
सकता; अर्थ
तो तुम
डालोगे। मेरा
अर्थ तो मेरे
हृदय में रह
जायेगा; शब्द
की खाली खोल
तुम तक जायेगी;
आत्मा फिर
तुम उसमें
डालोगे। तो
अर्थ तो सदा तुम्हारा
होगा। और
चूंकि तुम
उपद्रव से
ग्रस्त हो, तुम जो भी
अर्थ डालोगे
वह भी
उपद्रव-ग्रस्त
होगा। क्योंकि
तुम बड़े
भ्रांत हो, तुम्हारे
अर्थ भ्रांत
ही होंगे। तुम
गलत ही निकाल
लोगे।
तो
इसका तो यह
अर्थ हुआ कि
जिन्होंने
जाना है, वे
चुप रह जायें।
लेकिन चुप रह
जाने का भी
तुम अर्थ
करोगे कि
क्यों चुप रह
गये। बुद्ध ने
बहुत-से
प्रश्नों के
उत्तर नहीं
दिये--सिर्फ
इस कारण कि उन
प्रश्नों के
उत्तर लोगों
को गलत अर्थों
में ले जाते
हैं। तो बुद्ध
के मरने के
बाद जो सबसे
बड़ा विवाद
बुद्ध के
अनुयायियों
में उठा, वह
यह था कि
बुद्ध इन
प्रश्नों के
संबंध में चुप
क्यों रह गये!
और बुद्ध-धर्म
के जो खंड-खंड
टुकड़े हुए, वह उनके चुप
रह जाने की वजह
से हुए।
क्योंकि किसी
ने कहा कि वे
चुप रह गये, क्योंकि जो
उन्होंने
जाना वह शब्द
में प्रगट करने
योग्य न था।
किसी ने कहा, वे चुप रह
गये, क्योंकि
वहां जानने को
ही कुछ नहीं
है; प्रगट
करने का सवाल
ही नहीं है।
किसी ने कहा, वे चुप रह
गये, क्योंकि
उन्हें पता ही
नहीं चला, तो
बोलते क्या?
चुप्पी
का भी तो तुम
अर्थ करोगे!
तो अर्थ से तो बचा
नहीं जा सकता।
तो उपाय क्या
है?
उपाय यही है
कि जिसे जो
शब्द ठीक लगे,
वह उसका
उपयोग करे और
सब तरह से, हर
दिशा से, उस
शब्द को
परिभाषित
करे। जितने
दूर तक संभव हो
तुम्हें मौका
न दे कि तुम
अपना अर्थ
प्रवेश कर
पाओ। इस तरह
की परिभाषा
करे, सब
तरफ से इस तरह
का पहरा
बिठाये शब्द
पर, फिर भी
अगर तुम गलत
अर्थ करना
चाहो तो करोगे
ही।
लेकिन
सत्य का गलत
उपयोग होगा, इस
डर से सत्य
बोलने से नहीं
रुका जा सकता।
सौ में
निन्यानबे
लोग गलत अर्थ
कर लेंगे, कोई
हर्ज नहीं; वह जो एक ठीक
अर्थ कर लेगा,
तो भी
सार्थक है
बोलना।
क्योंकि वे जो
निन्यानबे
गलत अर्थ कर
रहे हैं, न
सुनते तो भी
गलत होते, कुछ
बिगड़ा
नहीं है। वे
गलत थे, इसलिए
गलत अर्थ किया;
गलत अर्थ के
कारण गलत नहीं
हो गये हैं।
इसलिए अगर
उन्होंने गलत
अर्थ किया तो
उनकी जिंदगी
में कुछ और
बिगाड़ नहीं आ
जायेगा। वे बिगड़े थे, बिगड़े रहेंगे।
लेकिन वह जो
सौ में एक भी
अगर सुन लेगा,
राजी होगा,
उठेगा, चलेगा,
तो
पर्याप्त है।
सौ
सुननेवालों
में अगर एक भी जग
जाये, तो
सार्थक हो गया
श्रम।
निन्यानबे की
फ्रिक करने की
कोई जरूरत
नहीं है।
महावीर
ने अहिंसा
शब्द चुना, वह
उनकी पसंद थी।
उनकी पसंद के
बहुत कारण
हैं। एक कारण
है कि प्रेम
और भक्ति के
नाम पर चलनेवाला
संप्रदाय
बिलकुल विकृत
हो गया था। अब
अगर प्रेम की
ही वे बात
करते तो उस
संप्रदाय से
पृथक, अलग
खड़े होने की
कोई सुविधा न
थी। वे जिस
क्रांति की
बात करना
चाहते थे, वह
क्रांति पैदा
न होती।
उन्हीं
शब्दों के उन्हीं
पारिभाषिक
शब्दों का
उपयोग करने का
परिणाम यह
होता, वे
भी पंडितों और
ब्राह्मणों
के उसी समुदाय
में खो जाते
जिसकी बड़ी भीड़
थी। उन्होंने
अहिंसा शब्द
का उपयोग
किया। इस तरह
उन्होंने एक
परिभाषा दी।
इस तरह
उन्होंने
अपने को पृथक
किया। इस तरह
भीड़ में खोने
से अपने को
बचाया।
उपयोगी था उनका
उपयोग कर लेना
अहिंसा का।
लेकिन
इन पच्चीस सौ
सालों में
अहिंसा शब्द
को बड़ा मूल्य
मिल गया है।
उस मूल्य से
फिर वैसी की
वैसी स्थिति
खड़ी हो गई है।
अब अहिंसा
शब्द का उपयोग
करने का अर्थ
है: अहिंसा की
कतार में खड़े
हुए लोगों की
भीड़ में खो
जाना।
तो जिस
कारण से
महावीर ने
अहिंसा शब्द
का उपयोग किया, उसी
कारण से मैं
अहिंसा शब्द
का उपयोग नहीं
कर सकता हूं।
कारण वही है।
मैं प्रेम
शब्द का उपयोग
करना
चाहूंगा। इन
पच्चीस सौ
सालों में प्रेम
शब्द खो गया, उपयोग में
नहीं आया।
जैसे किसी ने
अपने खेत को
कुछ वर्षों के
लिए बंजर छोड़
दिया हो, खेती
न की हो, तो
जिस खेत पर
बार-बार खेती
की गई है, उसका
उपजाऊपन नष्ट
हो जाता है।
वह जो खाली
पड़ा रहा खेत
है वर्षों तक,
उसने फिर
उपजाऊ शक्ति
को अर्जित कर
लिया है। तो
प्रेम शब्द
फिर उपयोगी हो
गया है। उस
शब्द में फिर
प्राण डाले जा
सकते हैं।
पच्चीस
सौ साल के
अंतराल ने, इस
पच्चीस सौ साल
में बुद्ध, महावीर और
गांधी तक
अहिंसा शब्द
की बड़ी महिमा गायी गई
है। अहिंसा
शब्द पर काफी
खेती हो चुकी;
अब वहां कुछ
भी पैदा नहीं
होता। अब तो
डर यह है कि
जितने बीज तुम
डालोगे, वे
भी लौटेंगे...!
इसलिए मैं उस
खेत की ओर नजर
करता हूं, उस
खेत की तरफ, जिस पर इन
पच्चीस सौ
वर्षों में
खेती नहीं हुई।
प्रेम
शब्द का
आध्यात्मिक
अर्थ उपयोग
नहीं किया गया
है। उसका
उपयोग कर लेना
जरूरी है। मैं
यह नहीं कहता
हूं कि सदा यह
सार्थक रहेगा; जल्दी
ही इस खेत में
से भी उपजाऊपन
नष्ट हो जायेगा।
तब नये-नये
शब्द खोजने
होंगे। वह
आनेवाले लोग
चिंता करें।
नये
शब्द सदा
जरूरी रहते
हैं,
क्योंकि
नये शब्दों के
साथ मनुष्य
में नयी चेतना
का संचार होता
है। और
कभी-कभी
पुराने बहुत
दिन तक उपयोग
न किये गये
शब्दों का
पुनः उपयोग
उपयोगी होता
है, क्योंकि
वे फिर नये हो
गये होते हैं;
इतने दिन तक
पड़े रहे खाली,
बिना फसल
बोये, फिर
क्षमता को
अर्जित कर
लेते हैं। तो
प्रेम शब्द ने
क्षमता
अर्जित कर ली
है।
फिर
कुछ और बातें
हैं। अहिंसा
शब्द
नकारात्मक
है। उसमें
"नहीं' पर
जोर है।
महावीर का जोर
"नहीं' पर
था। मेरा जोर
"नहीं' पर
नहीं है। मेरे
लिए आस्तिकता
स्वीकार में है।
"हां' के
भाव में है।
"नहीं' पर
जीवन के स्तंभ
नहीं रखे जा
सकते। और
जिसने "नहीं' के घर में
रहना शुरू
किया वह सिकुड़
जाता है। और
जैन धर्म अगर
सिकुड़ गया तो
उसका कोई और
कारण नहीं है;
"नहीं' के
घर ने मार
डाला।
बुद्ध
ने भी "नहीं' शब्दों
का उपयोग शुरू
किया था। पांच
सौ साल में
बुद्ध का धर्म
नष्ट हो गया
और तब बौद्ध
भिक्षुओं को
एक बात समझ
में आ गई कि
"नहीं' शब्दों
ने जान ले ली।
वे जो
नकारात्मक
शब्द हैं--निर्वाण--नहीं
हो
जाना--किसकी
आकांक्षा है
"नहीं' होने
की? शब्द
सुनकर ही लोग
चौंक जाते
हैं। तो जब
बौद्ध भिक्षु
भारत के बाहर
गये, बर्मा,
लंका, चीन
तो उन्होंने
"नहीं' शब्दों
का त्याग कर
दिया। एशिया
में बुद्ध-धर्म
फैला जब उसने
"हां' शब्दों
का उपयोग
किया--अकारात्मक,
विधायक, जीवंत।
बौद्ध धर्म
विराट धर्म हो
गया। बुद्ध के
शब्द अगर पकड़े
रहते तो जो
दशा जैनों की
हुई, वही
दशा
बुद्ध-धर्म की
होती। बुद्ध
की मजबूरी थी
"नहीं' शब्दों
का उपयोग करने
की; वही
मजबूरी थी जो
महावीर की थी।
ब्राह्मण परंपरा
"हां' शब्दों
से भरी है।
आस्तिक शब्दों
से भरी है। इस
बड़ी परंपरा से
अगर अलग खड़े न करो
तो यह परंपरा
लील जायेगी।
इस परंपरा से
अलग खड़ा होना
जरूरी है। अलग
खड़े होने के
लिए "नहीं' शब्दों
का उपयोग करना
पड़ा, ताकि
सीमा-रेखा साफ
हो जाये। और
जब अल्पमत में
कोई होता है
तो उसे बड़ी
स्पष्टता से
अपनी सीमा-रेखा
बनानी पड़ती है,
क्योंकि
बहुमत उसे लील
जायेगा।
हिंदुओं का विराट
सागर था; जैनों,
बौद्धों की
नदी कहीं भी
खो जाती इसमें,
यह तालत्तलैया
कहीं भी खो
जाता, इसका
कहीं पता भी न
चलता। तो उस तालत्तलैया
को बहुत
सुरक्षित
होकर अपनी
व्यवस्था
करनी पड़ी।
उसने उन सारे
शब्दों का
उपयोग रोक
दिया, जो
हिंदू उपयोग
करते थे। वे
शब्द अपने-आप
में बहुमूल्य
थे; लेकिन
मजबूरी थी, उन शब्दों
के साथ संबंध
हिंदुओं का
था। अगर ब्रह्म
शब्द का उपयोग
करो--डूबे! अगर
परमात्मा शब्द
का उपयोग
करो--डूबे!
हिंदुओं के
पास लंबी परंपरा
थी। उस परंपरा
के कारण सारे
विधायक शब्द
उपयोग कर लिये
गये थे। हिंदुओं
का वही तो बल
है। हिंदू
इतने आघातों
के बाद जीते
रहे हैं, उसका
कारण कहां है?
उसका कारण
है उनकी
विधायकता में,
स्वीकार
में, अंगीकार
में।
अगर
तुम वैदिक, उपनिषद
के ऋषियों का
स्मरण करो तो
तुम्हें समझ
में आयेगा कि
अब तुम जिसे
साधु और
संन्यासी
कहते हो, उस
हिसाब से वे
साधु-संन्यासी
न थे। मैं जिस
हिसाब से
संन्यासी
कहता हूं, उस
हिसाब से
संन्यासी थे।
घर में थे, गृहस्थी
में थे, उनकी
पत्नियां
थीं, बच्चे
थे, धन-दौलत
थी। बड़ा
विधायक रूप
था।
संन्यास
हिंदुओं के
लिए गृहस्थी
के विपरीत
नहीं था, गृहस्थी
का ही
आत्यंतिक फल
था। ऐसा नहीं
था कि घर को
छोड़कर जो चला
गया, वह
संन्यासी है;
नहीं, जिसने
घर पूरा कर
लिया, वह
संन्यासी है।
जो घर में
पूरा-पूरा जी
लिया और पार
हो गया; जीवन
के अनुभव
एक-एक सोपान
की तरह चढ़
गया--वह संन्यासी
है। संन्यास
हिंदुओं के
लिए जीवन का
अंतिम शिखर
था। पहले
ब्रह्मचर्य, फिर
गार्हस्थ्य, फिर
वानप्रस्थ, फिर
संन्यास--ऐसी
जीवन में एक
क्रमबद्धता
थी, एक
विकास था।
बहुत
वैज्ञानिक
बात थी। पहले
संसार को ठीक
से अनुभव तो
कर लो, भोग
की पीड़ा तो
जानो, ताकि
तुम त्यागी हो
सको। धन की
व्यर्थता तो
जानो ताकि
विराग का जन्म
हो सके! इस देह
की नश्वरता को
तो पहचानो!
शास्त्रों से
नहीं--जीवन, अनुभव...! सभी
को अनुभव हाथ
आ जाता है।
तो
हिंदुओं के
हिसाब से
संन्यास
जीवन-विरोधी न
था,
जीवन का
नवनीत था।
जिन्होंने
जीवन को जीया,
वे उस नवनीत
को उपलब्ध
हुए। दूध है; उसे जमाओ,
दही बनाओ, दही का मंथन
करो, मक्खन
निकालो, मक्खन को गरमाओ,
घी
बनाओ--ऐसा
संन्यास था।
घी की तरह! फिर
घी का तुम कुछ
भी नहीं कर
सकते।
तुमने
कभी खयाल किया, घी
के बाद कोई
गति नहीं है!
घी को तुम कुछ
और नहीं बना
सकते। दूध दही
हो सकता है; दही मक्खन
बन जाता है; मक्खन घी बन
जाता
है--लेकिन अब
तुम घी को कुछ
भी नहीं बना
सकते।
पराकाष्ठा!
अब अगर
तुम चाहो, कि
घी को पीछे भी लौटायें
तो वह भी नहीं
कर सकते। तुम
चाहो कि अब घी
का मक्खन बना
लें, कि
मक्खन का अब
दही बना लें, कि दही से अब
दूध में उतर
जायें--वह भी
नहीं हो सकता।
तो
हिंदुओं के
लिए तो
संन्यास घी की
तरह था; वह
आखिरी बात
थी--जिससे
पीछे लौटना
नहीं होता, जिसके आगे
जाना नहीं है।
और उस तक जिसे
पहुंचना है, उसे ये सारी सीढ़ियां
पार करनी
होंगी।
इस
सनातन धर्म के
बीच महावीर का
आविर्भाव हुआ।
यह परंपरा सड़
गई थी, गल गई
थी। सभी
परंपराएं एक
दिन सड़
जाती हैं, गल
जाती हैं। यह
जीवन का
स्वाभाविक
धर्म है। जैसे
हर जवान बूढ़ा
हो जाता है, फिर हर बूढ़ा
मर जाता है, फिर एक दिन
अस्थि लेकर हम
जाकर जला आते
हैं--ठीक ऐसी
ही
संस्कृतियां
पैदा होती हैं,
धर्म पैदा
होते हैं, जवान
होते हैं, बूढ़े
होते हैं, मरते
हैं। लेकिन
जिस बात को हम
सामान्यतया
जीवन में कर
लेते हैं...मां
मर गई तो बहुत
प्रेम था, फिर
भी क्या करोगे?
रोते हो, धोते हो, रोते
जाते हो, अर्थी
बांधते
जाते
हो--करोगे
क्या? रोते
जाते हो, अर्थी
लेकर चल पड़ते
हो। रोते जाते
हो, जला
आते हो। इतनी
हिम्मत हम
धर्मों के साथ
न कर पाये कि
वे भी जवान
होते हैं; जब
जवान होते हैं
तब उनका मजा
और! जब हिंदू
धर्म शिखर पर
था तो उसने
उपनिषद जैसे
शास्त्रों को
जन्म दिया, महाकाव्य
पैदा हुआ! सब
तरफ गीत गूंज
उठा हिंदू
धर्म का!
प्राणों में
पुलक थी, उत्साह
था, जवानी
थी! फिर हिंदू
धर्म बूढ़ा
हुआ। जब हिंदू
धर्म बूढ़ा हुआ
और मर गया या
मरने के करीब
था, मरणासन्न
था, तब
बुद्ध और
महावीर का
आविर्भाव
हुआ। अब इस मरते
आदमी के साथ
उनको किसी भी
तरह का संबंध
जोड़ना खतरनाक
था। यह तो मर
ही रहा था।
इसके साथ संबंध
जोड़ने का
अर्थ था, तुम
पहले से ही
मौत से जुड़
गये।
स्वभावतः
उन्होंने नये
शब्द खोजे।
तुम
देखो, जैनों
ने संस्कृत
भाषा तक का
उपयोग न किया!
शब्दों की तो
बात अलग; उस
भाषा में भी
बोलने में
खतरा था, क्योंकि
भाषा के सब
संबंध थे। अब
अगर संस्कृत का
महावीर उपयोग
करते तो
उपनिषदों से
ऊंचा गीत और
क्या गा पाते?
पराकाष्ठा
हो गई थी।
संस्कृत ने
अपनी आखिरी ऊंचाई
पा ली थी।
संस्कृत ने
शिखर छू लिया
था; अब
इसके पार जाने
का कोई उपाय न
था। इस मंदिर
पर कलश चढ़
चुका था। तो
महावीर ने
संस्कृत का उपयोग
न किया।
महावीर ने
प्राकृत का
उपयोग किया।
संस्कृत
पंडित की भाषा
थी, सुसंस्कृत
की, अभिजात्य
की। महावीर ने
दीन की, गरीब
की, लोकजन की भाषा का
उपयोग किया।
ध्यान
रखना, जब भी
नया धर्म आता
है तो उनके
द्वारा आता है,
जो पुराने
धर्म के कारण
दलित थे, पीड़ित
थे। जो पुराने
धर्म के कारण
प्रतिष्ठित
थे वे तो नये
धर्म को क्यों
चुनेंगे?
उनका तो पुराने
धर्म के साथ
बड़ा संबंध है।
उनके तो बड़े
स्वार्थ हैं।
तो स्वभावतः
ब्राह्मण
आंदोलित होगा
महावीर के
विचारों से, यह तो संभव न
था। क्षत्रिय
आंदोलित हो
सकता था, वैश्य
आंदोलित हो
सकता था, शूद्र
आंदोलित हो
सकता था।
क्षत्रिय भी
बहुत आंदोलित
नहीं हुआ, क्योंकि
उसके भी संबंध
बहुत गहरे
ब्राह्मण से
जुड़े थे। ब्राह्मण
सबके ऊपर था।
लेकिन
वस्तुतः तो
क्षत्रिय ही
ऊपर था, जिसके
हाथ में तलवार
है। क्षत्रिय
के कारण और आज्ञा
से ब्राह्मण
ऊपर रह सकता
था। नाममात्र को
ब्राह्मण ऊपर
था, वस्तुतः
तो क्षत्रिय
ऊपर था। तुम
कितनी ही बात
करो कि संतों
की महिमा थी; महिमा थी, लेकिन उस
महिमा को भी
जब तक राजा
आकर चरण न छूता,
कौन महिमा
थी? राजा
आकर चरण छूता
था तो संत की
महिमा थी। तो
संत दीवाने
रहते थे कि
कितने राजा
किसके पास आते
हैं। तो
क्षत्रिय भी
प्रतिष्ठित
था। इसलिए जैन
धर्म अगर
बनियों का
धर्म हो गया, तो कुछ
आश्चर्य नहीं
है। वैश्य
सर्वाधिक प्रभावित
हुए। शूद्र
बहुत कम
प्रभावित हुए,
क्योंकि
प्रभावित
होने की भी
थोड़ी समझ तो
चाहिए!
क्षत्रिय के
स्वार्थ थे, ब्राह्मण का
तो कोई उपाय न
था कि वह जैन
बने; इस
बनने में कोई
सार न था। अभी
भी तुम देखते
हो, हिंदुस्तान
में जो लोग
ईसाई बनते हैं,
कोई बिरला,
सिंघानिया,
साहू कोई
ईसाई बनते हैं?
ईसाई बनता
है शूद्र, गांव
का गरीब, आदिवासी।
जिनका निहित
स्वार्थ है, वे किसलिए
ईसाई बनेगें?
ईसाई तो वह
बनता है जो
हिंदू धर्म से
पीड़ित है, परेशान
है। जो हिंदू
धर्म उसे नहीं
दे सका है, उसका
आश्वासन
ईसाइयत देती
है।
तो
महावीर और
बुद्ध दोनों
ने कहा, कोई
वर्ण नहीं है।
लेकिन शूद्र
तो इतना दलित
था कि उसे ये
शब्द भी समझ
में न आ सकते
थे; उसको
तो शास्त्र
पढ़ने की मनाही
थी। उसको तो
कोई शिक्षा भी
न थी। इसलिए
स्वभावतः
ब्राह्मण आ नहीं
सकता था, क्षत्रिय
को आने का कोई
कारण न
था--उसके हाथ
में तलवार और
बल था। शूद्र
समझ नहीं सकता
था। और शुद्र
को भीतर लाने
में खतरा भी
था, क्योंकि
वह वैश्य नहीं
घुसने देता था
शूद्र को।
क्योंकि वह छिड़कता
था। उसकी भी
धारणा तो
हिंदू की थी।
अगर क्षत्रिय
आता तो वैश्य
स्वीकार कर लेता;
वह ऊपर का
था; ब्राह्मण
आता तो भी
स्वीकार कर
लेता। शूद्र से
उसे भी अड़चन
थी; वह
उससे भी नीचे
था। इसलिए
वैश्य शूद्र
को घुसने न
देगा। इसलिए
जैन धर्म वैश्यों
का धर्म हो
गया, दुकानदारों
का धर्म हो
गया।
स्वभावतः
महावीर को
इनकी भाषा का
उपयोग करना
पड़ा--लोक-भाषा
का।
बुद्ध
ने भी वही
किया।
उन्होंने भी
लोक-भाषा का
उपयोग किया।
उन्होंने
पाली चुनी।
क्योंकि वे
प्राकृत
चुनते तो
महावीर के साथ
बंध जाते।
इसे
थोड़ा सोचना
चाहिए।
महावीर बुद्ध
से कोई तीस
साल उम्र में
बड़े थे।
महावीर पहले आ
गये थे। तीस
साल वे काम कर
चुके थे।
ब्राह्मण
संस्कृत
बोलते थे, महावीर
ने प्राकृत
चुनी थी; बुद्ध
को दोनों उपाय
न रहे थे। एक
ही क्षेत्र में
थे दोनों, लेकिन
बुद्ध ने पाली
चुनी, ताकि
साफ-साफ
व्याख्या हो
सके, भेद
हो सके। भाषा
से बड़ा भेद और
किसी चीज से
पैदा नहीं
होता।
तुम
जानते हो, जब
कोई आदमी
तुम्हारी
भाषा नहीं
समझता, तो
तुम अजनबी हो
गये, एकदम
अजनबी हो गये।
पास-पास बैठे
हो और हजारों
मील का फासला
हो गया।
क्योंकि आदमी
जीता है भाषा
से, जुड़ता है भाषा से।
संस्कृत
का त्याग करने
का परिणाम यह
हुआ कि जैन
हिंदू धर्म से
बिलकुल साफ
अलग टूट गये।
पाली का
प्रयोग करने
के कारण बौद्ध
जैनों से भी
टूट गये, ब्राह्मणों
से भी टूट
गये।
दोनों
ने वर्णों का
विरोध किया, तो
ही तो वे
आकर्षित कर
सके वैश्य को।
यद्यपि वैश्य
आकर्षित हो
गया, लेकिन
बड़े मजे की
बातें हैं, दुनिया में
संस्कार बड़ी
मुश्किल से
जाते हैं। अभी
भी जैन मंदिर
में शूद्र को
प्रवेश नहीं
है। और महावीर
कहते हैं, न
कोई शूद्र है,
न कोई
ब्राह्मण है,
न कोई वैश्य
है, न कोई
क्षत्रिय है।
उनकी सारी
क्रांति
वर्ण-विरोधी
है। लेकिन फिर
भी वर्ण जाता
नहीं।
तुमने
देखा, अगर कोई
ब्राह्मण
ईसाई हो जाये,
तो वह ईसाई
होकर भी
ब्राह्मण
रहता है। ईसाइयों
को मैं जानता
हूं। उनमें
कोई अगर ब्राह्मण
के वर्ग से
ईसाई हुआ है
और कोई अगर
शूद्र के वर्ग
से ईसाई हुआ
है, तो वह
जो ब्राह्मण
ईसाई है, शूद्र
ईसाई से ऊपर
रहता है।
ब्राह्मण
ईसाई शूद्र
ईसाई से विवाह
नहीं करता।
संस्कार बड़े
गहरे बैठ जाते
हैं!
तो जब
महावीर ने
वर्णों की
व्यवस्था तोड़
दी,
तो
उन्होंने
आश्रम की
व्यवस्था भी
तोड़ दी; क्योंकि
वह वर्णाश्रम
एक ही प्रत्यय
था--चार वर्ण, चार आश्रम।
जब महावीर ने
वर्ण की
व्यवस्था तोड़ी
तो उन्होंने
आश्रम की भी
व्यवस्था तोड़
दी। यह तोड़ना
जरूरी था, नहीं
तो हिंदू
ढांचा पकड़े
रहता; उससे
छूटना
मुश्किल था।
जब तुम किसी
एक सागर में
पैदा होते हो
तो तुम्हें
अपना द्वीप
बनाना पड़ता
है। तो
उन्होंने कहा
कि न कोई
ब्रह्मचर्य
का सवाल है, न कोई
गृहस्थ का
सवाल है, न
कोई
वानप्रस्थ का,
न कोई
संन्यस्त का;
और जब तुम
संन्यस्त
होना चाहते हो
तभी हो सकते
हो। इस तरह
उन्होंने
दोनों ही
व्यवस्थाएं
तोड़ दीं। फिर
उन्होंने नये
शब्द खोजे,
नयी भाषा
खोजी।
प्रेम
शब्द बहुत
खतरनाक है।
क्यों? क्योंकि
प्रेम के साथ
ही तत्क्षण
परमात्मा प्रवेश
करता है।
तुमने कभी
देखा, एक
साधारण
स्त्री को भी
तुम प्रेम
करने लगो तो
उसमें देवी का
आविर्भाव हो
जाता है। एक
स्त्री एक
साधारण-से पुरुष
के प्रेम में
पड़ जाये तो
उसे परमात्मा
मानने लगती
है। जहां
प्रेम आता है,
वहां पीछे
से परमात्मा आ
जाता है।
साधारण जीवन
में, जहां
कि तुम
भलीभांति
जानते हो कि
यह आदमी परमात्मा
नहीं है, लेकिन
फिर भी उसकी
प्रेयसी उसे
परमात्मा
मानने लगती
है। तो अगर
प्रेम शब्द का
बहुत उपयोग
करो तो
परमात्मा को
इनकार न कर
सकोगे।
क्योंकि
प्रेम शब्द का
इशारा ही और की
तरफ है। प्रेम
तीर है, निशाना
कहीं और है:
निकलेगा
तुम्हारे
हृदय से, लगेगा
किसी और हृदय
में।
तो
प्रेम तो
खतरनाक
है--ध्यान। प्रेम
तो खतरनाक
है--अहिंसा।
प्रेम तो
खतरनाक है, क्योंकि
प्रेम के साथ
परमात्मा आता
है और परमात्मा
के साथ
हिंदुओं की
पूरी
जीवन-चिंतना
जुड़ी है।
इसलिए महावीर
को परमात्मा
भी इनकार कर देना
पड़ा, प्रेम
भी इनकार कर
देना पड़ा, प्रार्थना
भी इनकार कर
देनी पड़ी, पूजा,
अर्चना, धूप-दीप
सब इनकार कर
देना पड़ा। सब
भांति व्यक्ति
अपने में भीतर
चला जाये, बाहर
जाये ही नहीं।
परमात्मा भी
बहिर्यात्रा
है। इस कारण
महावीर ने
अहिंसा शब्द
का उपयोग
किया।
लेकिन
अहिंसा बहुत
कमजोर शब्द है; प्रेम
के सामने
टिकता नहीं, बहुत लंगड़ा
है। उनकी
जरूरत थी।
उनकी मजबूरी
थी। लेकिन
प्रेम के पास
पैर हैं।
तुम
जरा किसी
स्त्री से कहो
कि मेरा तुझसे
अहिंसा का
संबंध हो गया
है,
तब तुम्हें
पता चलेगा! वह
दुबारा
तुम्हारी शकल
न देखेगी।
किसी स्त्री
से अहिंसा का
संबंध! उसका
मतलब इतना हुआ
कि हम तुम्हें
मारेंगे भी नहीं,
कष्ट भी न
देंगे। खतम, संबंध पूरा
हो गया! दोगे
क्या? यह
तो न देने की
बात हुई। दुख
न दोगे, समझ
में आया।
मारोगे नहीं,
यह भी समझ
में आया।
लेकिन इतने पर
कोई संबंध निर्भर
होते हैं?
अहिंसा
संबंध तोड़ने
की व्यवस्था
है,
जोड़ने की नहीं।
इसलिए महावीर
का अनुयायी
टूट जाता है, सबसे टूट
जाता है।
अहिंसा जोड़ ही
नहीं सकती। अहिंसा
में कोई
सीमेंट नहीं
है। अहिंसा
में योग नहीं
है।
अब तुम
चकित होओगे, महावीर
ने योग शब्द
का उपयोग नहीं
किया। और भी
तुम हैरान
होओगे कि
महावीर ने
"अयोग' शब्द
का उपयोग किया
है। जुड़ना
नहीं है, टूटना
है, अयोग।
तो जब महावीर
का ज्ञानी परम
अवस्था को
उपलब्ध होता
है तो उसको वे
कहते हैं, "अयोगी, केवली'।
जो सब तरह से
सबसे टूटकर
अकेला हो गया: अयोगी, केवली।
योग पाप है, क्योंकि योग
में तो बात ही जुड़ने की
है। जुड़ना
तो है ही नहीं,
क्योंकि जुड़ना ही
तो संसार है।
संसार से टूट
जाने में असली
बात है।
तो
अहिंसा से
संबंध तोड़ा जा
सकता है, जोड़ा
तो नहीं जा
सकता। अहिंसा
सिकोड़ सकती है,
फैला तो
नहीं सकती।
अहिंसा
तुम्हें अपने
में बंद कर
देगी, खोलेगी
तो नहीं।
अहिंसा में
कोई
द्वार-दरवाजे
नहीं हैं, दीवाल
है। इसलिए
जितने तुम
अहिंसा जैसे
शब्दों से भरोगे,
उतने ही तुम
पाते जाओगे कि
तुम सूखने लगे,
तुम्हारे
पत्ते कुम्हलाने
लगे, शाखाएं
गिरने लगीं, तुम सिकुड़ने
लगे, तुम
लौटने लगे।
तुम्हारा
फैलाव खो गया।
तुम्हारे
जीवन का
अभियान खो
गया।
तो अगर
जैन सिकुड़ गये
तो कुछ
आकस्मिक नहीं
है। फैलने का
उपाय न था।
नकार
को कभी जीवन
की व्यवस्था
मत बनाना, क्योंकि
जीवन का
स्वभाव फैलाव
है। यहां सब
चीजें फैलती
हैं। एक छोटे
से बीज को डाल
दो, एक बड़ा
वृक्ष हो जाता
है। उस वृक्ष
में फिर करोड़ों
बीज लग जाते
हैं। एक बीज करोड़ बीज
हो जाता है। करोड़
बीजों को फैला
दो, पूरी
पृथ्वी
वृक्षों से भर
जायेगी। एक
बीज से यह
पूरी पृथ्वी
हरी हो सकती
है।
तुम
जरा देखो तो
जीवन का ढंग।
ईसाई कहते हैं, अदम
और हव्वा, एक
जोड़ा भगवान ने
पैदा किया था,
फिर उससे ये
सारे चार अरब
मनुष्य पैदा
हुए। बस एक
जोड़ा काफी था।
यहूदियों
की कथा है कि
परमात्मा
बहुत नाराज हो
गया था एक
बार। लोग
भ्रष्ट हो गये
थे। तो उसने
सारी पृथ्वी
को महाप्रलय
में डुबा
दिया। लेकिन
एक भक्त था
उसका: नोह।
उसने नोह
से कहा कि
तुझे हम बचा
लेंगे। लेकिन नोह ने
प्रार्थना की
कि माना कि
लोग बुरे हैं, गलत
हो गये हैं; लेकिन इतने
नाराज न हों, कुछ तो बचा
लें, बीज
तो बचा लें।
तो परमात्मा
ने कहा, "अच्छा!
तू एक-एक
पशुओं का
एक-एक जोड़ा
अपनी नाव में
रख लेना। वह
नाव भर बचेगी।'
बस एक जोड़ा
काफी था।
लेकिन बड़ी
मधुर कहानी
है। नोह
और उसकी पत्नी
दरवाजे पर खड़े
हो गये और नाव
में, उन्होंने
कहा, आ जाओ
एक-एक जोड़ा।
तो हाथी आया, ऊंट आये, घोड़े
आये, गधे
आये--सब आये।
फिर जब प्रलय
समाप्त हो गया,
सात दिन के
बाद सारी
पृथ्वी डूब गई,
सिर्फ नोह
की नाव बची।
फिर पृथ्वी
उभरी, फिर
किनारे नाव
लगी। फिर वे
दोनों दरवाजे
पर खड़े हो गये,
फिर एक-एक
को निकाला।
लेकिन वे बड़े
हैरान हुए, चूहे कोई
दस-पच्चीस निकले!
तो नोह ने
अपनी पत्नी से
पूछा, "यह
मामला क्या है?
मैंने पहले
कहा था कि
दो-दो लेना, एक-एक लेना।'
उसने कहा, "लिये तो
इतने ही थे, मगर इतने हो
गए सात दिन
में।'
एक
जोड़ा काफी है।
उतने बचाने से
सारी प्रकृति, सारी
पृथ्वी बच गई।
जीवन
का स्वभाव
फैलाव है।
प्रेम में
फैलाव है; अहिंसा
में सिकुड़ाव
है। इसलिए मैं
तो प्रेम शब्द
को ही पसंद
करता हूं।
अहिंसा प्रेम
का एक छोटा-सा
अंग है। जिससे
हम प्रेम करते
हैं, उसे
हम दुख नहीं
देना
चाहते--यह बात
ही साफ है। जिससे
हमारा प्रेम
का संबंध है, उससे हमारा
अहिंसा का
संबंध तो हो
ही गया। लेकिन
जिससे हमारा
अहिंसा का
संबंध है, उससे
प्रेम का
संबंध हो
गया--यह जरूरी
नहीं है।
प्रेम अहिंसा
से बड़ी बात
है। जिससे हम
प्रेम करते
हैं, उसे
हम कैसे दुख
पहुंचायेंगे?
उसे दुख पहुंचाकर
तो अपने को ही
दुख पहुंच
जाता है।
भूल-चूक से अगर
पहुंच भी जाता
हो, तो भी
हम क्षमाऱ्याची
होते हैं, सुधार
की कोशिश करते
हैं। अहिंसा
अपने से सध आती
है; जहां
प्रेम आया, अहिंसा पीछे
से अपने आप आ
जाती है।
तो मैं
तो कहता हूं, प्रेम
को बढ़ाओ।
वह
व्यक्तियों
पर सीमित न
रहे; फैलता
जाये, वृक्षों,
पशु-पक्षियों
को भी घेर ले।
और जब
मैं कहता हूं, परमात्मा
को प्रेम करो,
तो मेरा
इतना ही अर्थ
है कि यह जो
दिखाई पड़ रहा है--दृश्य--इसको
इतना प्रेम
करो कि इस सभी
में तुम्हें
अदृश्य की
प्रतीति होने
लगे। पत्ते-पत्ते
में वह दिखाई
पड़ने लगे।
अहिंसा
अपने से आ
जायेगी।
अहिंसा के लिए
अलग से
शास्त्र
बनाने की कोई
जरूरत नहीं
है।
माना
कि प्रेम शब्द
के अब भी गलत
अर्थ लिये जायेंगे, लेकिन
फिर भी मैं
मानता हूं कि
प्रेम ज्यादा
जीवंत शब्द
है। गलत भी
अर्थ लिये
जायेंगे, तो
भी चुनने
योग्य है। गलत
अर्थ तो
अहिंसा के भी
लिये गये। और
शब्द
नकारात्मक था,
मुर्दा
था--तो गलत
अर्थ मुर्दे
पर इकट्ठे
हुए। बड़ी सड़ांध
पैदा हो गई।
जीवंत कोई
शब्द हो तो
थोड़ा-बहुत गलत
अर्थ लेने में
बाधा डालेगा,
इनकार
करेगा। एक
पत्थर पड़ा हो,
उसको तुम
छैनी उठाकर
काटने लगो, तो वह कुछ
बाधा न
डालेगा। एक
जिंदा बच्चा
हो तो उछलेगा-कूदेगा,
चीखेगा-चिल्लायेगा।
मोहल्ले-पड़ोस
के लोगों को
इकट्ठा कर
लेगा अगर छैनी
उठाओगे उसके
ऊपर।
प्रेम
जीवंत है। अगर
तुम उसे
बदलोगे तो
इतनी आसानी से
न बदल पाओगे; शोरगुल
मचायेगा।
अहिंसा
बिलकुल
मुर्दा है।
तुम उसे बना
लेना, अपने
रंग-ढंग में
रंग-लेप कर
लेना। अहिंसा
के शब्द से
आवाज भी न
निकलेगी। तुम
जो भी बना
लोगे, वही
बन जायेगी।
नकार
हमेशा ही
सावधान होने
योग्य है।
अभाव है नकार।
अभाव पर इतना
जोर मत देना; क्योंकि
अभाव से तुम
धीरे-धीरे
रसहीन हो जाओगे।
अभाव को
देखते-देखते
तुम भी
धीरे-धीरे बुझ
जाओगे।
महावीर
की मजबूरी थी, उन्होंने
चुना; लेकिन
उनकी मजबूरी
से मैं बंधा
हुआ नहीं हूं।
उन्होंने ठीक
माना होगा।
उनकी
परिस्थिति
में जो उन्हें
ठीक लगा होगा,
किया होगा।
लेकिन उनकी
परिस्थिति
मेरे ऊपर कोई
बंधन नहीं है।
यही तो मुझे
सुविधा है।
मेरे ऊपर किसी
का बंधन नहीं
है। अगर जैन
महावीर पर बोलेगा
तो उसको अड़चन
होगी। वह
हिम्मत नहीं
जुटा पाता।
उसको महावीर
का बंधन मानकर
चलना पड़ता है।
जो महावीर ने
कहा, वह हर
हालत में ठीक
होना ही
चाहिए। उस दिन
के लिए भी ठीक
होना चाहिए, आज भी ठीक
होना चाहिए।
मैं कहता हूं,
उस दिन जरूर
ठीक रहा होगा;
क्योंकि
महावीर जैसा बुद्धिशाली
व्यक्ति, जब
इस शब्द को
चुना था तो
बहुत सोचकर
चुना होगा।
लेकिन महावीर
कोई सदा के
लिए आदमी को
बांध नहीं
गये। कौन बांध
जाता है? कौन
बांध सकता है?
मेरे लिए
कोई मजबूरी
नहीं है।
इसलिए मैं
पतंजलि पर भी
बोलता हूं, तो भी मेरी
कोई मजबूरी
नहीं है। कोई
बंधन नहीं है।
कोई ऐसा नहीं
है कि पतंजलि
ने जो कहा है, वह ठीक ही
कहा है। आज के
लिए तो मैं
फिक्र नहीं करता।
आज के लिए तो
मैं जो कहूंगा,
मैं मानता
हूं, ज्यादा
ठीक है।
उन्होंने
अपने समय के
लिए कहा होगा।
जैसे वे अपने
समय के लिए
कहने के हकदार
थे, वैसे
अपने समय के
लिए कहने के
लिए मैं हकदार
हूं।
निश्चित
ही,
मैं यह नहीं
कहता कि मैं
जो कह रहा हूं,
वह सदा-सदा
सही रहेगा; कभी न कभी सड़
जायेगा, मरेगा।
तब कोई न कोई
उसे
बदलेगा--बदलना
ही चाहिए। इस
जगत में कोई
भी व्यक्ति
सभी के लिए
सदा के लिए
निर्णायक
नहीं हो सकता;
नहीं तो
मनुष्य की
स्वतंत्रता, महिमा मर
जायेगी।
गुनो, सुनो,
समझो, लेकिन
कभी भी अंधी
लकीरें मत पीटो।
स्थिति
तो करीब-करीब
आज भी वही है।
प्रेम शब्द
गलत समझा
जायेगा।
लेकिन मेरे
साथ भेद है।
मैं कोई नया
धर्म खड़ा करने
में उत्सुक
नहीं हूं। नयी
भाषा खड़ी करने
में उत्सुक
नहीं हूं। नया
शास्त्र
निर्मित करने
में उत्सुक
नहीं हूं।
शास्त्र तो
बहुत हैं।
धर्म भी बहुत
हैं। भाषाएं
भी बहुत हैं।
अब तो हमें
कुछ खोज करनी
चाहिए कि सभी
धर्मों के
भीतर जो सार है, वह
हमारी पकड़ में
आ जाये। तो
मैं यह
नहीं...मेरी चेष्टा
वही नहीं है
जो महावीर की
थी। तो महावीर
हिंदू से डरे
थे; मैं
डरा हुआ नहीं
हूं। बुद्ध, महावीर से
भी डरे हुए थे;
मैं डरा हुआ
नहीं हूं। मैं
न ईसाई से डरा
हुआ हूं, न
मुसलमान से
डरा हुआ हूं, न हिंदू से, न जैन से, न
बौद्ध
से--किसी से
डरे होने का
कोई कारण नहीं
है। हां, अगर
मुझे कोई नया
धर्म स्थापित
करना हो तो भय आ
जायेगा।
क्योंकि फिर
मुझे खयाल
रखना पड़ेगा।
सारे बाजार का
खयाल रखना
पड़ेगा। मेरी
चीज कुछ नयी
होनी चाहिए, पृथक होनी
चाहिए; उसमें
गंध, रंग
अलग होना
चाहिए, ट्रेडमार्का अलग होना
चाहिए, तो
ही टिक पायेगी
बाजार में, अन्यथा खो
जायेगी।
मेरी
तो चेष्टा बड़ी
भिन्न है।
मेरी चेष्टा
यह है कि जो अब
तक जाना गया
है--और काफी
जान लिया गया
है--अब उस
जानने का सार-निचोड़
लोगों को
मिलना शुरू हो
जाये।
धर्मों
का कोई भविष्य
नहीं है। धर्म
गये,
अतीत की बात
हो गये। जैसे
विज्ञान एक है,
ऐसा ही
भविष्य में
कभी धर्म भी
एक होगा।
हिंदू नहीं
होगा, मुसलमान
नहीं होगा, ईसाई नहीं
होगा। इन सबने
अपनी-अपनी
धाराएं धर्म
के सागर में
डाल दीं। अब
सागर को हम
गंगा थोड़े ही
कहते हैं, यमुना
थोड़े ही कहते
हैं--कोई
जरूरत नहीं
कहने की। सागर
यमुना से भी
बड़ा है, गंगा
से भी बड़ा है, ब्रह्मपुत्र
से भी बड़ा
है--हजारों
नदियों को लील
जाता है; इंचभर
ऊपर नहीं
उठता। हजारों नदियां
बादलों में उड़
जाती हैं; इंचभर
नीचे नहीं
गिरता। अब
धर्म का सागर
बनना चाहिए; ताल, सरोवर
बहुत हो चुके।
अब उन्होंने
काफी बोध की सामग्री
इकट्ठी कर दी
है। अब कोई
जरूरत नहीं है
कि हिंदू
मुसलमान से
लड़े, कि
जैन हिंदू से
लड़े। अब तो जरूरत
है कि जैन, हिंदू
और मुसलमान और
ईसाई और सिक्ख
के बीच जो सारभूत
है, वह
प्रगट हो जाये;
ताकि धर्म
का विज्ञान
बने।
अब
विज्ञान
विज्ञान है; न
ईसाई है, न
हिंदू है, न
मुसलमान है।
कोई ईसाई भी
अगर
वैज्ञानिक
सत्य खोजता है
तो उस सत्य को
हम ईसाई तो
नहीं कहते।
आइंस्टीन ने
रिलेटिविटी
का सिद्धांत
खोजा, सापेक्षता
का सिद्धांत
खोजा। इसको हम
ईसाई तो नहीं
कहते, यहूदी
तो नहीं कहते,
मुसलमान तो
नहीं कहते।
मुसलमान खोजे
तो भी वह
विज्ञान, हिंदू
खोजे तो
भी विज्ञान, यहूदी खोजे
तो भी
विज्ञान। तो
धर्म के संबंध
में भी, कोई
भी खोजे, वह उस एक ही
परम सत्य की
तरफ इशारे
हैं। अंगुलियों
को छोड़ो
अब, अब
चांद को देखो!
मेरी
चेष्टा है कि
तुम्हें
अंगुलियों से छुड़ाऊं और
चांद को दिखाऊं, क्योंकि
सभी अंगुलियां
उसी चांद की
तरफ बता रही
हैं। हां, किसी
अंगुली पर
हीरे जड़ा
हुआ शृंगार है;
कोई अंगुली
काली-कलूटी
है; कोई
दुर्बल है; कोई बड़ी
सुंदर है, युवा
है; कोई
बूढ़ी है; कोई
अति प्राचीन
है; कोई
अभी छोटे
बच्चे की तरह
है, नये-नये
पल्लव की
भांति--मगर ये
सारी अंगुलियां
जिस चांद की
तरफ उठी हैं, वह एक है।
हमने
अंगुलियों पर
अब तक बहुत
ध्यान दिया, अब
अंगुलियों को
छोड़ें और चांद
पर ध्यान दें।
इशारा समझें।
तो मैं
तो प्रेम शब्द
का उपयोग जारी
रखूंगा। खतरा
तो है, लेकिन
खतरे से क्या घबड़ाना? खतरे से
घबड़ा-घबड़ाकर
ही तो आदमी
नपुंसक हो गया
है। हर जगह
खतरे से बच
रहे हैं।
धीरे-धीरे तुम
पाओगे, जिंदगी
से भी बच गये; क्योंकि
जिंदगी स्वयं खतरा
है। जो प्रेम
से बचेगा, आज
नहीं कल
जिंदगी से भी
बचेगा।
जिंदगी में भी
खतरा है। मौत
तो जिंदगी में
ही घटेगी।
कभी
तुमने सोचा...?
मेरी
बूढ़ी नानी थी।
वह सदा डरती
थी कि मैं हवाई
जहाज में न
जाऊं। जब भी
मैं घर से
निकलता, तब वह
कहती, "एक
बात खयाल
रखना--हवाई जहाज
में कभी नहीं।'
मैंने
उसको कहा कि
तू डरती क्यों
है हवाई जहाज
से?
उसने कहा कि
अखबार में खबर
आती है कि गिर
गया, लोग
मर गये। मैंने
कहा, "तुझे
पता है, निन्यानबे
प्रतिशत लोग
तो खाट पर
मरते हैं? तो
क्या खाट पर
सोना बंद कर
दूं, बोल?' उसने कहा, यह बात तो
ठीक है। उसको
भी जंची
बात। उसने कहा,
यह बात तो
ठीक है। मरते
तो खाट पर ही
हैं निन्यानबे
प्रतिशत लोग।
तो अगर
दुर्घटना कोई
बचानी है तो
खाट बचानी है।
कभी-कभार कोई
मरता है हवाई
जहाज में।
उसने कहा, फिर
जाओ, फिर
कोई बात नहीं।
खाट से, अब
खाट से बचोगे
तब तो फिर
जीना ही मुश्किल
हो जायेगा।
ईरान
में कहावत है, जमीन
पर सोनेवाला
खाट से कभी
नहीं गिरता।
बिलकुल ठीक
है। जब जमीन
पर ही सो रहे
हैं तो खाट से
गिरोगे कैसे?
लेकिन ऐसे
कहां तक बचते
रहोगे? फिर
जीओगे कैसे? फिर यह जीना
तो एक पलायन
हो जायेगा।
यहां तो हर
चीज में खतरा
है। यहां प्रेम
करो, खतरा
है। यहां घर
से बाहर निकलो,
खतरा है।
यहां सांस लो,
खतरा है। इन्फैक्शन।
यहां पानी पीयो,
खतरा है।
यहां भोजन करो,
खतरा है।
यहां खतरा ही
खतरा है। यहां
तो मरे हुए ही
खतरे के बाहर
हैं।
देखा
तुमने, मरा
हुआ आदमी
बिलकुल खतरे
के बाहर है।
पहली तो बात, अब मर नहीं
सकता। कोई
बीमारी नहीं
लग सकती, छूत
की बीमारी
नहीं लग सकती।
दूसरे इससे
बचते हैं, यह
किसी से नहीं
बचता। तो जिन
लोगों ने भी
खतरे, खतरे,
खतरे को
सोचा है, हिसाब
रखा है, वे
धीरे-धीरे मर
गये। इस देश
के मुर्दा हो
जाने में बड़ा
हाथ है--इस
धारणा का, कि
इसमें खतरा है,
इसमें खतरा
है। तो सिकुड़ते
जाओ, सिकुड़ते जाओ--जाओगे
कहां?
मैंने
सुना है, पुराने
गांव की एक
कहानी है कि
गांव का जो
मालगुजार था,
उससे मिलने
एक ब्राह्मण
आया। तो जब
ब्राह्मण आये
तो मालगुजार
को नीचे बैठना
चाहिए। मालगुजार
अपने तखत
पर बैठा था।
ब्राह्मण आया तो
मालगुजार, वह
नीचे
ब्राह्मण
बैठने लगा।
मालगुजार ने
कहा, "यह
ठीक नहीं है, नियम के
विपरीत है।
तुम ऊपर बैठो,
मैं नीचे
बैठता हूं।' उस ब्राह्मण
ने कहा, "लेकिन
इसमें बड़ी
झंझट आयेगी।'
जिद्दी था
मालगुजार भी।
उस ब्राह्मण
ने कहा, "ऐसा
कहां तक करोगे?
क्योंकि
अगर मैं नीचे
बैठूंगा, तुम
क्या करोगे
फिर?' उसने
कहा, "मैं गङ्ढा
खोदकर उसमें
नीचे बैठ जाऊंगा।'
उसने कहा, "अगर मैं गङ्ढे
में आ गया, फिर?
उसने कहा, "मैं और गङ्ढा
नीचे खोद
लूंगा।' उस
ब्राह्मण ने
कहा, "मैंने
अगर और गङ्ढा
खोद लिया तो?' उस मालगुजार
ने कहा, "फिर
गङ्ढे को
पूर के मैं घर
चला जाऊंगा।
फिर क्या
करूंगा? तुम
मेरे पीछे ही
लगे रहोगे, तो तुमको गङ्ढे
में पूर के, मैं घर चला जाऊंगा।'
ऐसे
कहां तक भागते
रहोगे? कहीं
तो भय को गङ्ढे
में दबाना
पड़ेगा। कहीं
तो उसको पूरना
पड़ेगा।
यह
मुझे पता है
कि प्रेम
खतरनाक शब्द
है। सभी जीवंत
शब्द खतरनाक
होते हैं।
अहिंसा
क्लीनिकल है।
अहिंसा
बिलकुल
अस्पताल में
धोया, पोंछा, साफ-सुथरा
शब्द है।
उसमें रोगाणु
हैं ही नहीं।
जीवाणु ही
नहीं हैं तो
रोगाणु कहां
से होंगे? वह
बड़ा डाक्टरी
शब्द है।
उसमें काफी
औषधियां छिड़की
गई हैं। पर वह
पीने योग्य भी
नहीं रहा, जैसा
बहुत पोटेशियम
डाल दिया हो
पानी में।
प्रेम
बड़ा जीवंत
शब्द है--होना
ही चाहिए; क्योंकि
सारा जगत
प्रेम से जीता
है। तुम जन्मे
हो प्रेम से।
तुम जीओगे
प्रेम में। और
काश, तुम
मर भी सको
प्रेम में, तो धन्यभागी
हो! जन्मते
सभी हैं, जीते
बहुत कम हैं; मरते तो कभी-कभी
कोई हैं।
जन्मते सभी
प्रेम में
हैं।
इसलिए
प्रेम की
प्रबल
आकांक्षा
जीवन में होती
है--प्रेम
मिले, प्रेम
बंटे, प्रेम
दिया जाये, प्रेम लिया
जाये। जीवन का
सारा
आदान-प्रदान प्रेम
के सिक्कों का
है। प्रेम से
मत भागना; क्योंकि
जो प्रेम से
भागा, वह
जीवन से भागा,
और जो जीवन
से भागा वह
परमात्मा के
मंदिर को कभी
भी खोज न
पायेगा।
मछली
की तरह तड़पायेगा
अहसास तुझे पायाबी का
जीना
है तो अपने
दरिया में इमकानेत्तलातुम
रहने दे।
--घबड़ा
मत तूफानों
से। अगर जीना
है...
जीना
है तो अपने
दरिया में इमकानेत्तलातुम
रहने दे
--रहने
दे आंधियों,
तूफानों की
संभावना। अगर
आंधी और तूफान
की सारी संभावना
काट दी, तो
दरिया दरिया न
रह जायेगा, छिछला हो
जायेगा।
मछली
की तरह तड़पायेगा
अहसास तुझे पायाबी
का--फिर उथला
पानी तुझे
मछली की तरह तड़पायेगा।
तूफान रहने दो; क्योंकि
तूफानों
से टक्कर लेकर
ही जीवन
निखरता है। तूफानों
में से गुजरकर
ही जीवन का
निखार आता है।
प्रेम
को मैं धर्म
कहता हूं।
लेकिन कठिन है, क्योंकि
तुमने प्रेम
को केवल वासना
की तरह जाना
है। इसलिए
तुम्हारे डर
को मैं समझता
हूं। तुम घबड़ाये
हो! प्रेम? प्रेम
से तो तुमने
केवल वासना
जानी है।
प्रेम से तो
तुमने अपने
बहुत निम्नतम
रूप का ही
संबंध जोड़ा
है। यह
तुम्हारी भूल
है, इसमें
प्रेम का कोई
कसूर नहीं। अब
किसी आदमी के
हाथ में हीरा
हो और वह उसको
किसी के सिर
में मारकर सिर
तोड़ डाले तो
इसमें हीरे का
कसूर है? कि
तुम हीरे से
बचोगे? हीरे
का काम किसी का
सिर तोड़ डालना
नहीं है। यह
तो छोटे-मोटे
पत्थर से भी
हो सकता था।
मनुष्य
ने प्रेम का, प्रेम-ऊर्जा
का बड़ा
निम्नतम
उपयोग किया है,
क्षुद्रतम उपयोग किया
है। वह उपयोग
है--और संतति
को पैदा करना।
प्रेम का जो
परम उपयोग है,
वह स्वयं को
जन्म देना है।
प्रेम का जो
साधारण उपयोग
है, वह
दूसरे को जन्म
देना है।
प्रेम की जो
आखिरी पराकाष्ठा
है, वह
अपने को जन्म
देना
है--आत्म-जन्म।
प्रेम की जो
आखिरी
पराकाष्ठा है,
वह बाहर
दिखाई पड़नेवाली
देहें, शरीर, रूप,
रंग, इन
पर ही समाप्त
नहीं हो जाती।
रंग में जो
छिपा है, रूप
में जो छिपा
है, दृश्य
में जो छिपा
है, जब वह
दिखाई पड़ने
लगे, तब
तुम समझना कि
तुमने प्रेम
का पूरा उपयोग
किया।
तुम्हारे
पास रोशनी है, लेकिन
रोशनी से अगर
तुम जिंदगी की
गंदगी ही देखते
फिरो तो रोशनी
का कोई कसूर
नहीं है। यह
रोशनी
तुम्हें
जिंदगी का परम
रूप भी दिखा
सकती थी।
है
तेरा हुस्न जब
से मेरा मरकजे-निगाह
हर
शै है एतबारे-नजर
से गिरी हुई।
और एक
बार उसका रूप
तुम्हें थोड़ा
दिखाई पड़ने लगे, थोड़ी
उसकी झलक आने
लगे, उसके
हुस्न की, उसके
सौंदर्य की; फूलों में
से कभी
तुम्हें उसकी
आंख भी झांकती
दिखाई पड़ने
लगे; सागर
की लहरों में
कभी तुम्हें
उसकी भी लहर
का अनुभव हो
जाये...
है
तेरा हुस्न जब
से मेरा मरकजे-निगाह!
तुम्हारी
आंख में जरा
उसके सौंदर्य
की छाया बनने
लगे,
प्रतिबिंब,
परछाई पड़ने
लगे...
हर
शै है एतबारे-नजर
से गिरी हुई!
उसी
दिन से सब
चीजें मूल्य
खो देंगी। उसी
दिन से तुम धन, पद,
प्रतिष्ठा,
देह, वस्तुएं,
इन सब का
मूल्य गिर
जायेगा।
महावीर कहते
हैं, इन सब
का मूल्य गिरा
दो तो सत्य
तुम्हें
उपलब्ध हो
जायेगा; मैं
तुमसे कहता
हूं कि तुम
परमात्मा का
थोड़ा इशारा
खोजने लगो, थोड़ा उसका
हुस्न
तुम्हारी आंख
में उतरने लगे,
थोड़ा उसका
नशा तुम्हें
मदमस्त करने
लगे तो चीजें
अपने-आप छूट जायेंगी।
और ये
दो ही रास्ते
हैं: या तो
चीजें छोड़ो, तो
सत्य का दर्शन
होता है; या
सत्य का दर्शन
शुरू करो, तो
चीजें छूट
जाती हैं। अब
मैं तुमसे
कहता हूं कि
पहला मार्ग
बड़ा खतरनाक
है। चीजें छोड़ो,
पक्का नहीं
है कि चीजें
छूटने से उसका
दर्शन हो
जायेगा; कहीं
ऐसा न हो कि
चीजें छूटने
से तुम केवल सिकुड़कर
रह जाओ और
दर्शन की
क्षमता भी खो
जाये। ऐसा ही हुआ
है। कभी कोई
एक-आध महावीर
अपवाद हो जाते
हैं, बात
अलग। नियम
नहीं हैं वे।
अधिक लोगों को
तो मैं यही
देखता हूं कि
चीजें
छोड़-छोड़कर
उनको कुछ मिला
नहीं है; कुछ
छूटा जरूर, मिला कुछ भी
नहीं है।
मिलने से तो
वे भयभीत हो गये
हैं, डरते
हैं। मैं तो
तुमसे कहूंगा
छोड़ना मत, जब
तक कि श्रेष्ठ
का अनुभव न हो
जाये।
श्रेष्ठ को
पहले उतरने दो;
आने दो
रोशनी को, फिर
अंधेरा
जायेगा।
तुम
खेल रहे थे कंकड़-पत्थर
से,
फिर कोई
हीरे दे गया
था; कंकड़-पत्थर छूट
जायेंगे।
हीरे जब सामने
हों तो मुट्ठियां
कौन कंकड़-पत्थरों
से भरेगा!
लेकिन
जरूरी नहीं है
कि तुम कंकड़-पत्थर
छोड़ दो तो कोई
आकर हीरों से
तुम्हारी मुट्ठियां
भर दे।
अकसर
तो मैं देखा
हूं,
जैन मुनि जब
मेरे पास कभी
आते हैं, तो
उनकी बात
सुनकर बड़ी व्यथा
होती है।
तो वे
यही कहते हैं
कि हमने छोड़
तो सब दिया, लेकिन
पाया तो कुछ
भी नहीं।
जिंदगी हो गई
छोड़ने में, अब मौत करीब
आने लगी। अब
तो हाथ-पैर भी
कंपने लगे। अब
डर भी समाने
लगा। अब लौटकर
भी उस संसार में
नहीं जा सकते
जिसको छोड़
आये। अब थूककर
चाटना ठीक भी
नहीं मालूम
होता। और समय
भी न रहा, शक्ति
भी न रही।
लेकिन भीतर एक
संदेह उठता
है। न मालूम
कितने जैन
मुनियों ने
मुझसे कहा है
कि भीतर एक
संदेह उठता है
कि हमने छो॰?कर ठीक किया?
कहीं हमसे
कुछ भूल तो
नहीं हो गई?
कहीं
ऐसा तो नहीं
था कि यही
संसार सब कुछ
है और हम इसको
भी छोड़ बैठे? दूसरा
तो मिला नहीं,
यह छूट गया।
तुम्हें
उनकी पीड़ा का
अंदाज नहीं, क्योंकि
तुम केवल उनका
प्रवचन सुनते
हो। प्रवचन
में तो वे वही
दोहराते हैं,
जिसको
सुनकर वे फंस
गये हैं।
प्रवचन में तो
वे सत्य नहीं
कहते।
अभी तक
आदमी इस
प्रामाणिकता
को उपलब्ध
नहीं हुआ कि
प्रवचन में
सत्य कहे।
प्रवचन में तो
वह वही कहता
है जो तुम्हें
रास आता है, भाता
है। अब जैनों
के बीच बोलते
हैं तो जो जैनों
को रास आता है,
जो उनके
शास्त्र के
अनुकूल पड़ता
है, वही
बोलना पड़ता
है। जब मेरे
पास कभी आ
जाते हैं, क्योंकि
अब तो उनके
अनुयायी भी
आने नहीं देते;
पहले आ जाते
थे, तो वे
मुझसे कहते थे,
अकेले में
बात करनी है।
अपने
अनुयायियों
को बाहर कर
देते। अकेले
में क्यों
करनी है? वे
कहते कि आप
इनको तो बाहर
जाने दें, इनके
सामने सच न
कहा जा सकेगा।
अकेले में
उनके प्रश्न
बुनियादी रूप
से तीन मैंने
पाये। एक, कि
उन्होंने छोड़
दिया सब, लेकिन
भीतर से रस
नहीं गया है।
दूसरा, जो-जो
वासनायें
उन्होंने दबा
ली हैं, जैसे-जैसे
देह कमजोर
होती जाती है,
वे वासनाएं
प्रबल होकर
उभर रही हैं।
पैंतालीस साल
के बाद पता
चलना शुरू
होता है, जो-जो
दबा लिया, वह
मुश्किल में
डालता है।
क्योंकि दबाने
की ताकत कमजोर
हो जाती है। दबानेवाला
दीन होने लगता
है, क्षीण
होने लगता है।
और जो वासना
दबाई है, अंगार
की तरह वह
ताजी रहती है।
और तीसरी बात,
एक संदेह कि
हमने जो किया
है, वह ठीक
किया? यह
उचित हुआ? कहीं
ऐसा तो नहीं
है कि जो
संसार में है
वही ठीक हो?
अब यह
बड़ी दयनीय दशा
है। यह तुमसे
ज्यादा दयनीय
दशा है। यह
तुमसे ज्यादा
मुश्किल और
उलझन की दशा है।
तुम्हारे पास
कुछ तो
है--संसार ही
सही;
ये हाथ
बिलकुल खाली
हो गये। इन
खाली हाथों की
दीनता देखो!
मैं
तुम्हें दीन
नहीं बनाना
चाहता। मैं
कहता हूं, तुम
परमात्मा को
खोजो। वह
जैसे-जैसे
मिलता जायेगा,
वैसे-वैसे
संसार
तिरोहित होता
जायेगा। जैसे-जैसे
तुम्हारे हाथ
भरने लगेंगे
उससे, वैसे-वैसे
तुम पाओगे
संसार से हाथ
हटने लगे। हटाना
न पड़ेंगे।
हटाना पड़ें तो
दमन होता है।
हट जायें, अपने
से हट जायें
तो उसका
सौंदर्य ही
अनूठा है। फिर
उसकी लकीर भी
नहीं रह जाती
भीतर, पीड़ा
भी नहीं रह
जाती।
जिस
दिन से इश्क
अपना हुआ
मीरे-कारवां
आगे
बढ़े हुए हैं
हर इक कारवां
से हम।
--और
जिस दिन तुम
अपनी बागडोर
प्रेम के हाथ
में दे दोगे...
जिस
दिन से इश्क
अपना हुआ
मीरे-कारवां
--और
जिस दिन से
तुम्हारा
पथ-प्रदर्शक,
अगुआ प्रेम
हो जायेगा...
आगे
बढ़े हुए हैं
हर इक कारवां
से हम।
--उसी
दिन तुम पाओगे,
तुम सबसे
ज्यादा आगे बढ़
गये हो। प्रेम
के अतिरिक्त
कोई आगे बढ़ा
नहीं है।
प्रेम
पथ-प्रदर्शक है।
प्रेम प्रकाश
का दीया है।
खतरे
मुझे मालूम
हैं कि प्रेम
के हैं, क्योंकि
तुमने प्रेम
का गलत रूप
जाना है।
लेकिन
तुम्हारे गलत
रूप जानने के
कारण सत्य
तुमसे न कहूं,
तो वह और भी
खतरनाक होगा।
मैं वही
कहूंगा जो ठीक
है। तुम्हें
उसमें से गलत
निकालना हो, निकाल लेना।
वह तुम्हारी
जिम्मेवारी
है। लेकिन
जिम्मेवार
तुम्हीं
रहोगे। लेकिन
इस कारण कि
कहीं तुम कुछ
गलती न कर लो, मैं तुम्हें
मारना नहीं
चाहता।
तुम्हारी जिंदगी
तो पूरी-पूरी ऊरर्जा
से भरी हुई
होनी चाहिए।
कोई हर्जा
नहीं, आज
गलत जाओगे; जिस ऊर्जा
से गलत गये हो,
उसी ऊर्जा
से वापिस भी आ
सकते हो।
लेकिन
प्रेम को जरा
कसना। रोज-रोज
ऊपर उठाना। रोज-रोज
देखना कि उसके
और नये-नये
सोपान हैं।
मधुर-मधुर
सोपान हैं!
बड़े
प्रीति-भरे!
तुम तो
जिसे प्रेम
कहते हो, वह
बड़ी मिश्रित
अवस्था है; जैसे सोने
में बहुत कूड़ा-कर्कट
मिला हो।
इसलिए
तुम्हारे
प्रेम में
घृणा भी मिली
है। तुम जिसको
प्रेम करते हो
उसी को घृणा
भी करते हो।
तुमने
कभी जांचा
अपने मन को कि
जरा पत्नी
नाराज हो जाती
है कि तुम
सोचते हो कि
मर ही जाये तो
बेहतर। सोचने
लगते हो कि हे
भगवान, इसको
उठाओ! कहां
फंस गये इस
चक्कर में!
बेटा तुम्हारे
अनुकूल नहीं
चलता तो मां
कहने लगती है कि
तुम पैदा ही न
हुए होते जो
अच्छा था।
तुम्हारे
प्रेम से घृणा
बहुत दूर नहीं
है। तुम्हारे
आशीर्वाद से
तुम्हारा
अभिशाप बहुत
दूर नहीं है; पास ही पास
बैठे हैं।
तुम्हारी
मुस्कुराहट तुम्हारे
आंसुओं से
बहुत ज्यादा
दूर नहीं है।
थोड़ा जागो! इसे
देखो।
तुम्हारा
प्रेम क्षण
में क्रोध बन
जाता है, क्षणभर में क्रोध
बन जाता है।
अभी जिसके लिए
तुम जान देने
को तैयार थे, क्षणभर में उसी की
जान लेने को
तैयार हो जाते
हो। जरा सोचो,
जरा जागो
और देखो।
यह
प्रेम बहुत
गंदगियों से
मिला हुआ है।
इसमें क्रोध
भी है। इसमें
द्वेष भी है। इसमेंर्
ईष्या भी है, मत्सर
है, मोह है,
राग है, घृणा
है, हिंसा है।
तुम
जिसे प्रेम
करते हो उसी
की गर्दन
दबाने लगते हो, इतनी
हिंसा है।
प्रेमी अकसर
एक-दूसरे को
मार डालते
हैं। विवाह की
तिथि अकसर मरण
की तिथि सिद्ध
होती है।
एक
आदमी का विवाह
हो रहा था।
राह पर एक
मित्र मिल
गया। कल विवाह
होनेवाला था।
उस मित्र ने
कहा,
"बड़ी बधाइयां!'
उस मित्र ने
कहा, "शायद
तुम्हें पता
नहीं है, अभी
मेरा विवाह
हुआ नहीं, कल
होनेवाला है।'
उसने कहा, इसीलिए तो बधाइयां
दे रहे हैं, फिर बधाइयां
देने का उपाय
न रहेगा। एक
दिन और बचा है,
जी लो! चल लो
मस्ती से, स्वतंत्रता
से।'
अगर
राह पर तुम
स्त्री-पुरुष
को चलते देखो
तो तुम
तत्क्षण कह
सकते हो कि ये
पति-पत्नी हैं
या नहीं। पति
डरा-डरा चल
रहा है, नीचे
नजर रखकर चल
रहा है, इधर-उधर
देखता नहीं; क्योंकि फिर
झंझट खड़ी हो
जाये!
यह
प्रेम गर्दन
को काट जाता
है।
मैं एक
ट्रेन में सफर
कर रहा था। एक
महिला मेरे
साथ उस डब्बे
में थी। उसका
पति भी था, लेकिन
वह किसी दूसरे
डब्बे में था।
पर वह हर स्टेशन
पर आता। तो
मैंने उससे
पूछा कि मुझे
शक होता है, ये पति हो
नहीं सकते।
उसने कहा, "क्यों?'
वह थोड़ी
चौंकी।
"कितने
दिन हुए शादी
हुए?'
उसने
कहा,
"कोई सात-आठ
साल हो गये।'
"यह
बात उपन्यास
में हो सकती
है। सात-आठ
साल हो गये, और पति हर
स्टेशन पर उतरकर
आते हैं इस
भीड़-भड़क्का
में...!'
वह
कहने लगी, "आपने
ठीक पहचाना।
वे मेरे पति
हैं नहीं, लगाव
है।'
तब बात
ठीक है। लगाव
एक बात है।
पत्नी तुम किसी
और की होओगी।
नहीं तो अपना
पति हर स्टेशन
पर उतरकर
आये! एक दफे जो
छूटा, तो वह
आखिरी स्टेशन
पर भी आ जाये
तो काफी है।'
प्रेम
में बड़ा और
बहुत कुछ मिला
हुआ है। एक-दूसरे
की गर्दन दबा
देते हैं। हां, बहाने
हम अच्छे
खोजते हैं।
लेकिन जिसको
प्रेम कहें, वह अभी बड़ी
दूर है। लेकिन
जिसे तुम
प्रेम कह रहे
हो, उसमें
भी वह पड़ा है।
इसलिए मैं यह
न कहूंगा, इस
सब को फेंक
देना। इसको
निखारना है।
इस सोने में
मिट्टी मिली
है, माना; मिट्टी को
काट डालना है,
सोने को
बचाना है। तो
दुनिया में
कुछ लोग हैं जो
इसी को प्रेम
समझ रहे हैं।
वे गलत। और
दुनिया में
कुछ लोग हैं
जो मिट्टी के
कारण इस पूरे प्रेम
को फेंक देने
को कहते हैं।
वे भी गलत; पहले
से भी ज्यादा
गलत। क्योंकि
मिट्टी के बहाने
कहीं सोने को
मत फेंक देना!
अहिंसा
की धारणा में
वही हो गया
है। फेंक ही दो
इस प्रेम को; इसमें
खतरा है, इसमें
उपद्रव है, इसमें तनाव
है, परेशानी
है, अशांति
है। फेंक ही
दो। लेकिन साथ
ही सोना भी
चला जाता है।
मैं
तुमसे कहता
हूं,
ये दोनों
अतियां हैं, इनसे बचना।
इसमें से
मिट्टी तो काटनी
है--घृणा काटनी
है, क्रोध
काटना है, मत्सर,र्
ईष्या अलग
करनी
है--प्रेम को
निखारना है।
जीवन
एक
प्रयोगशाला
है प्रेम को
निखार लेने की।
और धन्यभागी
हैं वे जो अपने
प्रेम को पूरा
निखार लेते
हैं। उस प्रेम
के निखरे
रूप में ही
जगत जैसा
दिखाई पड़ता है
उसका नाम परमात्मा
है। उस प्रेम
के निखरे
रूप में ही
तुम जिस नियति
को उपलब्ध
होते हो, उसका
नाम आत्मा है।
दूसरा
प्रश्न:
जो
दीया तूफान से
बुझ गया उसे
फिर जलाकर
क्या करूं? जो
स्वभाव
स्वप्न में खो
गया, उसे
वापस जगाकर
क्या करूं? आप कहते हैं
तो मान लेता
हूं कि मैं ही
परमात्मा हूं,
लेकिन जो
परमात्मा घर
से ही भटक गया,
उसे घर
वापिस बुलाकर
क्या करूं?
ऐसा
प्रश्न
बहुतों के मन
में उठता है, स्वाभाविक
है। लेकिन तुम
जीवन की
जटिलता को नहीं
समझ रहे हो।
स्वभाव
इसीलिए खो गया
है, क्योंकि
बिना खोये तुम
उसे जान ही न
सकोगे। वह
जानने की
प्रक्रिया
है। जो
तुम्हारे पास
है, सदा से
है, सदा से
है, सदा से
है, तुम
उसके प्रति
अंधे हो जाते
हो। उसे खोना
जरूरी है, ताकि
तुम पा सको।
पाने के लिए
खोना
अनिवार्य है।
खोकर भी तुम
वस्तुतः थोड़े
ही खोते हो, क्योंकि
स्वभाव तो वही
है जो खोया न
जा सके।
विस्मरण
का नाम खोना
है। तुम भूल
गये हो। और यह
भूलने की बात
अत्यंत
आवश्यक है समझ
लेनी। भूलने
का अर्थ यह
नहीं है कि
तुम कुछ और हो
गये हो जो तुम
नहीं हो।
भूलने का इतना
ही अर्थ है कि
तुमने कुछ और
समझ लिया है।
हो तो तुम वही
जो हो। जैसे
आज रात तुम
यहां सोओ और
सपने में देखो, कलकत्ते में हो, तो
कोई कलकत्ते
पहुंच नहीं
गये। कोई
लौटने के लिए
तुम्हें कोई
हवाई जहाज
नहीं पकड़ना
पड?गा। कोई
हिलाकर जगा
देगा, तुम
पूना में जगोगे,
कलकत्ते में नहीं जगोगे।
तुम यह न
कहोगे कि यह
क्या मुसीबत
कर दी। तुम भागकर
स्टेशन भी न
जाओगे कि अब
मैं पकड़ूं
ट्रेन पूना
जाने की, इस
आदमी ने कलकत्ते
में जगा दिया।
सपने में कलकत्ते
में थे। यह
सिर्फ खयाल
था। असलियत
में तो तुम पूना
में ही हो।
परमात्मा
को खोया जा
नहीं सकता। हो
तो तुम
परमात्मा में
ही। सपने तुम
कोई भी देख लो।
और सपना
तुम्हारी
स्वतंत्रता
है। और सपने बड़े
मधुर हैं। और
सपने एकदम
बुरे भी नहीं
हैं,
क्योंकि
इन्हीं सपनों
के माध्यम से
तुम अपने से
अपने को दूर
कर लेते हो, फासला कर
लेते हो। फिर
मिलन का मजा आ
जाता है। जैसे
मछली सागर में
ही रहती है तो
सागर को भूल
ही जाती है, सागर का पता
ही नहीं चलता।
जरा फेंक दो
मछली को
किनारे पर, तड़फती है; तब
उसे पहली दफा
याद आती है कि
सागर क्या है।
तुम
अपने सपनों के
तट पर तड़फ
रहे हो। यह तड़फ
तुम्हें फिर
सागर में ले
जायेगी। अब
तुम पूछते हो
कि "क्या
फायदा जो दीया
तूफान से बुझ
गया...?' बुझा
नहीं है। कोई
तूफान
तुम्हारे
दीये को बुझा
नहीं सकता; अन्यथा
तूफान तो इतने
हैं...। कोई
तूफान तुम्हारे
दीये को नहीं
बुझा सकता।
किसको पता चल
रहा है यह? यह
कौन कह रहा है
कि क्या करूं
उस दीये को
फिर से जलाकर
जिसको तूफान
ने बुझा दिया?
यह जो कह
रहा है वही तो
तुम्हारा
दीया है--यह तुम्हारा
जो चैतन्य-भाव
है। यह कौन कह
रहा है कि क्या
फायदा उस
परमात्मा को
खोजने से जो
घर से ही दूर
चला गया? मगर
यह कौन है जो
कह रहा है?
यही
तुम्हारा
परमात्म-भाव
है। यह
साक्षी-भाव, यह
चैतन्य, यह
ज्ञान, यह
बोध, यह
ज्योति। दीया
बुझता नहीं।
यह दीया बुझनेवाला
दीया नहीं है।
और बुझ जाता
तो इसके जलाने
के फिर कोई
उपाय न थे।
बुझ जाता तो
तुम होते ही
न। बुझ जाता
तो सोचनेवाला
भी न होता कि
कैसे इसे जलाऊं।
तुम हो। तुम
परिपूर्ण हो।
सिर्फ एक सपने
ने तुम्हें
घेर लिया है।
एक बादल आ गया
है। और सूरज
को ढांक
लिया है।
यह
धूप-छांव का
खेल बड़ा मधुर
है। इसलिए
हिंदुओं की
परिभाषा बड़ी
अनूठी है। वे
कहते हैं, लीला
है। तुम इसको
बड़ा काम समझ
रहे हो कि खो
दिया, अब
क्या फायदा!
तुमने कभी
बचपन में
छिया-छी नहीं
खेली? दो
बच्चे छिया-छी
खेलते हैं, दोनों आंख
बंद करके खड़े
हो जाते हैं, छिप जाते
हैं। पता है
कि यहीं छिपे
हैं, इसी
कमरे में छिपे
हैं। कई बार
चक्कर लगाते
हैं, खोजते
हैं कहां छिपा
है, बड़ा
शोरगुल मचाते
हैं--और
उन्हें पक्का
पता है कहां
छिपा है,क्योंकि
घर ही कौन बड़ा
है; वही
कमरे में कहीं
छिपा है, बिस्तर
के नीचे चला
गया है कि
दीवाल की ओट
में खड़ा हो
गया है। सब
पता है। लेकिन
फिर खेल का मजा
चला जाता है, जब सब पता ही
है तो। तो
थोड़ा दौड़ते
हैं, धामते हैं, खोजते
हैं, इधर-उधर
झांकते
हैं, फिर
पकड़ लेते हैं।
हिंदू
कहते हैं, यह
जगत छिया-छी
है, लीला
है। तुम्हीं
अपने को खोज
रहे हो, तुम्हीं
अपने को छिपा
रहे हो। तुम
पूछोगे, "क्यों?
क्यों
खेलें छिया-छी?'
मत खेलो।
सारा धर्म वही
तो कला सिखाता
है तुम्हें कि
जिनको छिया-छी
नहीं खेलनी, वे ध्यान
करें, वे
छिया-छी के
बाहर हो जाते
हैं। ध्यान का
मतलब कुल इतना
ही है कि अगर
थक गये, अब
तुम्हें
खेलना नहीं है,
तो घोषणा कर
दो कि अब हम
खेल के बाहर
होते हैं, अब
हम जरा
विश्राम
करेंगे, या
अब हमें भूख
लगी है, अब
हम घर जाते
हैं। जिनको
अभी खेलने में
रस आ रहा है, वे खेलें।
जिनको खेलने
में अब थकान
आने लगी है, वे घर लौट
जायें।
परमात्मा
की खोज का
मतलब इतना ही
है कि अब बहुत
हो गई छिया-छी; अब
थक गये। बस
इतना ही स्मरण
काफी है कि थक
गये--विश्राम।
जैसे दिनभर
आदमी मेहनत
करता है, रात
सो जाता है।
अब तुम यह तो
नहीं कहते रात
खड़े होकर कि
अब क्यों सोयें,
जब दिनभर
मेहनत की!
तुम्हारी
मर्जी, न
सोना हो तो न
सोओ, खड़े
रहो। रातभर
सोये रहे, अब
सुबह तुम्हें
कोई उठाने लगे
तो तुम यह तो नहीं
कहते कि नहीं
उठेंगे अब; रातभर सोये
रहे, अब
क्यों उठें?
नहीं सोने,
के बाद
जागना है; जागने
के बाद सोना
है। दिन के
बाद रात है, रात के बाद
दिन है।
ध्यान, संसार,
परमात्मा, अरूप और उसके
रूप, इन
दोनों के बीच
यात्रा है। यह
खेल बड़ा मधुर
है। बस खेलने
की कला आनी
चाहिए। और खेल
में "क्यों' का तो सवाल
मत उठाना।
क्योंकि
"क्यों' दुकानदार
का शब्द है, खिलाड़ी का नहीं। अब
दो आदमी
फुटबाल खेल
रहे हैं, तो
तुम पूछते हो,
"यह क्या
फायदा? इधर
से गेंद उधर
मारी, उधर
से इधर मारी; अरे एक जगह
रखो, बैठ
जाओ शांति से।'
आदमी बालीबाल
खेल रहे हैं, तुमने देखा
कैसा पागलपन
करते हैं! बीच
में एक जाली
बांध रखी है, इधर से फेंक
रहे हैं उधर; उधर से फेंक
रहे हैं इधर।
और इनकी तो छोड़ो
ही, कई भीड़
लगाकर खड़े हैं
देखने के लिए।
इतना-सा काम
हो रहा है, गेंद
इधर से उधर
फेंकी जा
रही--यह तो दो
मशीनें लगाकर
भी कर सकते
हो। इसमें सार
क्या है? अगर
दुकानदार है
तो पूछेगा, "क्यों? इससे
मिलेगा क्या?'
लेकिन तब
चूक गये बात।
मिलने का सवाल
नहीं है, खेल
में ही रस है।
यह जो खेल की
उमंग है, इसमें
ही रस है।
तिनके
की तरह सैले-हवादिस
लिये फिरा
तूफान
लेकर आये थे
हम जिंदगी के
साथ।
तूफान
हमारे साथ आया
है। जिंदगी
तूफान है। इसमें
बड़ी लहरें
उठती हैं, बड़ी
आंधियां आती
हैं। फिर
सन्नाटा भी छा
जाता है।
सन्नाटे के
लिए आंधी
जरूरी है; आंधी
के लिए
सन्नाटा
जरूरी
है--दोनों परिपूरक
हैं। यहां
मिलना भी है, खोना भी है; पाना भी है, बिछुड़ना भी
है; याद भी
है, विस्मृति
भी है। ये
दोनों पहलू
हैं, दो
पंख हैं। इनसे
ही जीवन के
आकाश में उड़ने
का उपाय है।
ये
हादसे कि जो
इक-इक कदम पे हाइल हैं
खुद
एक दिन तेरे
कदमों का आसरा
लेंगे।
जमाना
चीं-ब-जबीं
है तो क्या
बात है "रविश'
हम
इस अताब
पे कुछ और
मुस्कुरा
लेंगे।
ये
हादसे, ये
घटनायें जो हर
कदम पर घट रही
हैं, ये
पत्थर जो हर
कदम पर अड़े
हुए हैं, खुद
एक दिन तेरे
कदमों का आसरा
लेंगे। घबड़ाओ
मत; ये
पत्थर नहीं
हैं, ये सीढ़ियां
बन जानेवाली
हैं। यह भटकाव
ही उसके
पहुंचने का
रास्ता बन
जाने वाला है।
यह दूर हो
जाना ही पास
आने का उपाय
है।
ये
हादसे कि जो
इक-इक कदम पे हाइल हैं
ये जो
अड़े हैं पत्थर, और
घटनाएं, और
जीवन के उलझाव,
और बाजार और
दुकान और
तृष्णा और मोह
और हजार-हजार
बातें
हैं...खुद एक
दिन तेरे
कदमों का आसरा
लेंगे। घबड़ाओ
मत, खेले
चले जाओ। अभी
तुम ठीक से
खेल समझे नहीं,
अभी खेल का
गणित नहीं
आया। गणित आ
जायेगा तो रस
आने लगेगा। और
तब इन पत्थरों
पर चढ़ने
में मजा आने
लगेगा। तब तुम
धन्यवाद दोगे
इन पत्थरों को
कि अच्छा किया
कि तुम थे, अन्यथा
कहां चढ़ते!
अच्छा हुआ कि
तुम थे, अन्यथा
जीवन को जांचने
की सुविधा
कहां मिलती, अवसर कहां
मिलता!
जमाना
चीं-ब-जबीं
है तो क्या
बात है "रविश'
और अगर
जमाना बहुत
क्रोध से भरा
है और चारों तरफ
बड़ी अड़चन और
मुसीबत है तो
बात क्या है
"रविश'...
हम
इस अताब
पे कुछ और
मुस्कुरा
लेंगे।
इस
क्रोध पर थोड़ा
और मुस्कुरा
लेना।
यह जो
जमाना इतने
उपद्रव खड़ा
करता है, इस पर
थोड़ा मुस्कुराना
सीखो।
परमात्मा
का खोजी खेल
मानकर चलता
है। तुम बड़ी गंभीरता
से चल रहे हो, यह
अड़चन है।
तुम्हारे
तथाकथित
धार्मिकों ने तुम्हें
बड़े गंभीर
चेहरे सिखा
दिये हैं; जैसे
कि प्रार्थना
कोई काम है! प्रार्थना
खेल है।
प्रार्थना रस
है, काम
नहीं है।
इसमें कुछ लाभ
और लोभ थोड़े
ही है। इसमें
तो होने का
मजा है। इन
पक्षियों से
पूछो! ये जो
झींगुर गुनगुनाये
जा रहे हैं, इनसे पूछो--किसलिए? वे तुम्हारी
बात पर ही
आश्चर्य
करेंगे कि सवाल
भी उठाने
योग्य है? मजा
आ रहा है।
तुम्हें
जब तक संसार
में मजा आ रहा
है,
दौड़े जाओ; जब तुम्हें
परमात्मा में
मजा आने लगे, रुक जाना।
मजे-मजे की
बात है।
मैं जो
संसार में हैं, उनके
विरोध में
नहीं हूं। मैं
कहता हूं, उन्हें
मजा आ रहा है
तो मजा लें।
तकलीफ तो कब खड़ी
होती है कि
तुम्हें मजा
संसार में आ
रहा है और तुम
किसी की बात
में पड़ गये और
उसने कहा कि
संसार में
क्या रखा है!
तुम्हें मजा
संसार में आ
रहा है। अब
तुम एक उलझन
में पड़े, एक
तनाव पैदा
हुआ। किसी ने
कह दिया, संसार
में क्या रखा
है, यह तो
सब धूल है, यह
तो सब पड़ा रह
जाएगा--यह ठाठ
पड़ा रह जायेगा,
जब बांध
चलेगा बनजारा!
उनका बनजारा
बांधकर चल रहा
हो, लेकिन
तुम्हारा तो
अभी बिलकुल
खेल लग रहा था,
तंबू लग रहा
था, व्यवस्था
तुम जुटा रहे
थे। यह बात
तुम्हारे कान
में पड़ गई, अब
तुम अड़चन में
पड़े। अब तुम
तंबू भी गाड़े
जा रहे हो और
सोच रहे हो, सब ठाठ पड़ा
रह जायेगा। अब
अड़चन आई। अब
तुम इकहरे न
रहे।
तुम्हारा व्यक्तित्व
खंडों में बंट
गया।
तुम्हारे तथाकथित
धर्मों ने
तुम्हें
विक्षिप्त
बना दिया है।
मैं
तुमसे जो कह
रहा हूं वह यह
नहीं कह रहा
हूं कि तुम
छोड़कर चल पड़ो।
मैं तुमसे कह
रहा हूं, ठीक
से तंबू गड़ा
लो। भगवान से
भटकने का मौका
मिला है, ठीक
से भटक जाओ।
दूर जाने का
क्षण आया है, दूर चले
जाओ। इसमें भी
क्या कंजूसी
करनी? क्योंकि
मेरे देखे जो
जितनी दूर
जाता है, जब
उसे याद पकड़ती
है तो उतनी ही
तीव्रता से
पास आता है।
पास आने और
दूर आने में
एक अनुपात है।
खोने का तो
कोई उपाय नहीं
है, खेल
है। रोकर
खेलना हो रोकर
खेल लो; हंस
के खेलना हो
हंसकर खेल लो।
जो हंसकर
खेलता है, उसको
मैं धार्मिक
कहता हूं। जो
रो-रोकर खेलने
लगे, वह
कोई खिलाड़ी
नहीं है।
है
रात तो इसके
बाद सहर, अनवार भी लेकर
आएगी
है
सुबह तो शब
तारों के
चमकते हार भी
लेकर आएगी।
है रात
तो इसके बाद
सहर--रात है तो
सुबह होने के
करीब है, घबड़ाओ मत। रात का
मजा ले लो, सुबह
तो हो ही
जायेगी। सुबह
के लिए रोओ, चिल्लाओ-चीखो मत। यह
रात सुबह के
रास्ते पर ही
है। यह रात
होनेवाली
सुबह ही है।
यह रात सुबह
का ही छिपा
हुआ रूप है।
है
रात तो इसके
बाद सहर अनवार
भी लेकर आएगी।
सुबह
प्रकाश भी
लेकर आनेवाली
है। अंधेरे को
ठीक से तो भोग
लो! क्योंकि
अगर आंखें
अंधेरे को ठीक
से न भोग पायें
तो तुम प्रकाश
को भोगने के
योग्य न बन
पाओगे।
तुमने
कभी खयाल किया? जब
अंधेरे के बाद
तुम प्रकाश को
देखते हो तो अंधेरा
तुम्हारी
आंखों को तैयार
करता है; तुम
प्रकाश को
देखने में
समर्थ हो जाते
हो। आंख को
विश्राम
मिलता है
अंधेरे में; आंख ताजी हो
जाती है। फिर
से तुम देखने
में कुशल हो
जाते हो।
इसलिए तो आंख
झपकती रहती
है। तुमने कभी
पूछा कि आंख
झपकती क्यों
रहती है? यह
हर पल अंधेरे
को पैदा करती
रहती है, ताकि
ताजी बनी रहे।
इसलिए तुमने
देखा फिल्म जाते
हो देखने, तो
तीन घंटे तुम
आंख का झपकना
भूल जाते हो।
उसी लिए आंख
थक जाती है।
फिल्म के कारण
नहीं, टेलीविजन
देखने के कारण
नहीं; तुम
आंख का झपकना
भूल जाते हो
कि जो
स्वाभाविक
प्रक्रिया थी
अंधेरे को
बीच-बीच में
लाने की, वह
भूल जाते हो।
तुम इतने
ज्यादा तन
जाते हो कि
आंख फाड़े
बैठे रहते हो।
अब की बार जब
सिनेमा जाओ या
फिल्म देखने
जाओ या
टेलीविजन
देखो, तो
आंख को झपकाते
रहना, तुम
पाओगे कोई
थकान न आई।
आंख के झपकने
में राज है।
अंधेरा
प्रकाश का खेल
है। धूप छाया
का खेल है।
है
रात तो इसके
बाद सहर अनवार
भी लेकर आएगी।
विश्राम
तो कर लो थोड़ा
रात में।
संसार
विश्राम है
परमात्मा का।
जल्दी ही सुबह
होगी, परमात्मा
भी आयेगा, प्रकाश
भी लायेगा।
भाग-दौड़ मत
करो। व्यर्थ
शीर्षासन
इत्यादि
लगाकर खड़े न
हो जाओ। इससे
रात के जाने
का कोई संबंध
नहीं। रात
अपने से आती
है, अपने
से जाती है।
तुम तो सिर्फ
साक्षी रहो।
है
सुबह तो शब
तारों के
चमकते हार भी
लेकर आएगी।
और अगर
सुबह है तो
ध्यान रखना, रात
भी आनेवाली
है।
यह
जीवन का चक्र
है जो घूमता
चला जाता है।
इस चक्र में
जो खेलना सीख
जाये--खेलना
पहली शर्त--गंभीरता
से नहीं, खिलाड़ी के अहोभाव
से, रस
से--जो खेलना
सीख जाये, यह
पहली शर्त। और
दूसरी बात
धीरे-धीरे
तुम्हारे खिलाड़ीपन
से उठेगी, वह
है
साक्षी-भाव।
जब तुम देखोगे,
रात भी अपने
से आती है; सुबह
भी अपने से हो
जाती है; फिर
सांझ आ जाती
है, फिर
तारे जगमगा
उठते हैं--यह सब
अपने से हो
रहा है तो मैं
नाहक दौड़-धूप
क्यों करूं; मैं सिर्फ
साक्षी रहूं,
देखूं,
जो होता है
उसका मजा लूं,
रस लूं!
परमात्मा
इतने रूप धरता
है, इतने-इतने
नाच करता है, मैं द्रष्टा
बनूं। तो पहले
खिलाड़ी
बनो, फिर
द्रष्टा बन
जाओ, बस।
यह दो बातें
जिसके जीवन
में आ गईं, उसने
पा ही लिया।
शिकस्ते-दिल
को शिकस्ते-हयात
क्यों समझें?
है मैकदा तो
सलामत हजार
पैमाने
बुलंद
नग्मए-आदम
है बज्मे-अंजुम
में
कब
इक सितारए-नौ
हंस पड़े खुदा
जाने
हयात
अभी है फकत इक
हयात का परतब
अभी
हयात को समझा
ही क्या है
दुनिया ने।
शिकस्ते-दिल
को शिकस्ते-हयात
क्यों समझें?
अगर
तुम हार गये
हो तो इसको
जीवन की हार
मत समझो। जीवन
कभी नहीं
हारता। तुम
हार जाओगे तो
विदा कर लिये
जाओगे, बुला
लिये जाओगे।
जीवन चलता
जाता है। एक
लहर हार जाती
है तो विलीन
हो जाती है
सागर में।
शिकस्ते-दिल
को शिकस्ते-हयात
क्यों समझें?
है मैकदा तो
सलामत हजार
पैमाने।
और अगर
एक पैमाना टूट
गया तो घबड़ाते
क्यों हो, मधुशाला
साबित है, तो
हजार पैमाने
भरे तैयार
हैं।
यहां
छोटी-छोटी
चीजों से लोग
घबड़ा जाते
हैं। किसी की
पत्नी मर गई, वैराग्य
का उदय हो
गया। है मैकदा
तो सलामत हजार
पैमाने! इतनी
जल्दी क्यों
करते हैं? किसी
की दुकान में
घाटा लग गया, दिवाला निकल
गया--अरे, दीवाली
बहुत मनाई, अब दिवाला
भी मना लो!
इतना घबड़ाना
क्या?
है मैकदा तो
सलामत हजार
पैमाने।
हारकर
धर्म की तरफ, पराजय
के भाव से, विफलता
से, विषाद
से कहीं कोई
गया है! उदासी
से तो रुग्णता
आती है, जीवन
का स्वास्थ्य
नहीं। धर्म की
तरफ उदासी से
नहीं, प्रसन्नता
से, प्रफुल्लता
से गये हुए ही
पहुंचते हैं।
बुलंद
नग्मए-आदम
है बज्मे-अंजुम
में
--नक्षत्र
मंडल में आदमी
का गीत गूंज
रहा है।
कब इक सितारए-नौ
हंस पड़े खुदा
जाने
--कब
वर्षा हो
जायेगी परम
आनंद की, पता
नहीं कभी भी
हो सकती है!
हयात
अभी है फकत इक
हयात का परतब
--जिसे
तुमने अभी
जिंदगी समझा
है, वह तो
केवल जिंदगी
की छाया है।
हयात
अभी है फकत इक
हयात का परतब
अभी
हयात को समझा
ही क्या है
दुनिया ने।
अभी
तुमने जीवन का
पूरा राज कहां
सीखा? जल्दी
मत करो।
निर्णय मत लो
कि "क्या
फायदा जो दीया
बुझ गया, अब
इसको जलाने से
क्या फायदा!
और जो घर छूट
गया, उसको
खोजने से क्या
फायदा!' ऐसे
तो तुम थककर
गिर जाओगे।
ऐसे तो तुम
जीते-जी
मुर्दा हो जाओगे।
उठो!
जीवन की
यात्रा
प्रफुल्लता
से करनी है।
और जब
कुछ खोता हो, तब
भी समझ रखना:
यह भी कुछ पाने
का उपाय होगा।
आखिरी
प्रश्न:
तेरे
गुस्से से भी
प्यार, तेरी
मार भी
स्वीकार
चाहे
खुशी दो कि दो
गम,
दे दो
खुशी-खुशी
करतार
तेरी
धूप हो कि
छांव, मुझको
दोनों हैं
स्वीकार
तेरा
सब कुछ मुझे
पसंद, तेरा
न भी नहीं
इनकार।
शुभ
है,
ऐसी ही भाव
की दशा भक्त
की दशा है। और
जिसको ऐसे
स्वीकार का
भाव आ गया; अस्वीकार
को भी स्वीकार
करने की
क्षमता आ गई;
"नहीं' में
भी दंश न रहा; हार में भी
कांटे न चुभे;
सुख आये कि
दुख, दोनों
को जिसने
परमात्मा का
उपहार समझकर
स्वीकार कर
लिया, उसका
प्रसाद मान कर
स्वीकार कर
लिया--उसकी
मंजिल ज्यादा
दूर नहीं है।
उसके पैर
मंजिल के करीब
आने लगे। उसका
रास्ता पूरा
होने के करीब
आने लगा।
इस
भाव-दशा को
सम्हालना। इस
भाव-दशा को
धीरे-धीरे
गहराना। यह
तुम्हारे
रोएं-रोएं में
समा जाये। यह
तुम्हारी
धड़कन-धड़कन में
बस जाये।
जिनको
हर हालत में
खुश और शादमां
पाता हूं मैं
उनके
गुलशन में बहारे-बेखिजां
पाता हूं मैं।
जो हर
हाल में खुश
हैं,
उनके जीवन
में वसंत आता
है और पतझड़
कभी नहीं आती।
वाये
वोह आंख जिसे दीदए-मुश्ताक
कहें
हाय
वोह दिल जो
गिरफ्तार
मुहब्बत में
रहे।
अगर
तुम्हारे पास
ऐसी प्रेम की
भाव-दशा उठ
रही है, ऐसी
पहली झलकें
आनी शुरू हुई
हैं कि सुख और
दुख दोनों को तुम
प्रभु की
अनुकंपा मान
लो, तो फिर
जल्दी ही, तुम्हारे
पास वैसे दिल
का निर्माण हो
जायेगा।
हाय
वोह दिल जो
गिरफ्तार
मुहब्बत में
रहे!
वाये
वोह आंख जिसे दीदए-मुश्ताक
कहें!
फिर
तुम्हारी आंख
परमात्मा को
देख ही लेगी।
यही तो
अभिलाषी की
आंख की
परीक्षा है।
सुख को तो सभी
स्वीकार कर
लेते हैं।
उससे कुछ पता
नहीं चलता।
दुख को भी जो
स्वीकार कर
लेता है, उससे
ही पता चलता
है। फूल गिरें,
सभी मान
लेते हैं, और
प्रसन्न हो
लेते हैं।
लेकिन जबे
कांटे जीवन
में आयें तब
भी जो
मुस्कुराता
रहता है...
वाये
वोह आंख जिसे दीदए-मुश्ताक
कहें।
आ गई वह
आंख,
वह अभिलाषी
नेत्र, प्रभु
के दर्शन करने
की क्षमता
वाले नेत्र...।
हाय
वोह दिल जो
गिरफ्तार
मुहब्बत में
रहे।
एक
पागलपन आयेगा, घबड़ाना
मत। यह पागलों
की ही बात है।
बुद्धिमान तो
ठीक-ठीक को
स्वीकार करते
हैं। बुद्धिमान
तो सुख को
स्वीकार करते
हैं, दुख
को इनकार करते
हैं; फूल
चुनते हैं, कांटे अलग
करते हैं। यह
तो दीवानों की
बात है कि
दोनों को
स्वीकार कर
लेते हैं।
और मैं
तुमसे कहता
हूं,
दीवानगी से
बड़ी कोई
बुद्धिमत्ता
नहीं है। क्योंकि
जो सुख को
स्वीकार करते
हैं, दुख को
अस्वीकार, उनके
जीवन में दुख
ही दुख भर
जाता है।
तुम्हारे
अस्वीकार
करने से दुख
थोड़े ही जाता
है, दुगना
हो जाता है।
कांटा तो चुभा
ही है, पीड़ा
तो हो ही रही
है--तुम
अस्वीकार
करते हो, उससे
पीड़ा और सघन
हो जाती है।
कांटा चुभा
है और तुम
स्वीकार कर
लेते हो, तुम
कहते हो, "प्रभु
की कोई मर्जी
होगी! जरूर
किसी कारण से चुभाया
होगा।'
बायजीद
निकलता था एक
रास्ते से, पत्थर
से चोट लग गई, वह गिर पड़ा, पैर से खून
निकलने लगा!
उसने हाथ
उठाये आकाश की
तरफ और प्रभु
को धन्यवाद
दिया कि
"धन्यवाद, मेरे
मालिक! तू भी
खूब खयाल रखता
है!' उसके
एक भक्त ने
पूछा, "यह
जरा जरूरत से
ज्यादा हो गई
बात।
अतिशयोक्ति
हुई जा रही
है। खून निकल
रहा है, पत्थर
की चोट लगी
है--धन्यवाद
का कारण कहां
है?'
बायजीद
ने कहा, "पागलो,
फांसी भी हो
सकती थी! उसका
खयाल तो देखो!
अपने फकीरों
का खयाल रखता
है। जरा-सी
चोट से बचा दिया।
मैं जैसा आदमी
हूं, उसकी
तो फांसी भी
हो जाये तो कम
है। मेरे पाप,
मेरे गुनाह
तो देखो!'
तो पैर
में लगी चोट
और बहता लहू
भी अहोभाग्य हो
गया।
बायजीद
तीन दिन से
भूखा था। एक
गांव में
रुके। वह सांझ
प्रार्थना जब
करता था तो
रोज कहता था, "प्रभु!
जो भी मेरी
जरूरत होती है,
तू सदा पूरी
कर देता है।' उस दिन भक्त
जरा नाराज थे,
तीन दिन से
भूखे थे। किसी
गांव में
ठहरने को जगह
न मिली। लोगों
ने रुकने न
दिया। लोग
विरोध में थे।
फिर भी उस रात
उन्होंने कहा,
अब आज देखें,
आज यह
बायजीद क्या
कहता है! उसने
फिर वही कहा कि
हे प्रभु! तू भी
खूब है। जब जो
मेरी जरूरत
होती है, पूरी
कर देता है।
एक
भक्त ने कहा, "अब
सुनो! तीन दिन
से भूखे हैं।
क्या खाक
जरूरत पूरी कर
देता है?'
बायजीद
हंसने लगा।
उसने कहा, "तुम
समझे ही नहीं;
तीन दिन से
भूख मेरी
जरूरत थी। तीन
दिन उपवास मेरी
जरूरत थी।
उसने पूरी की।'
देखो, ऐसा
आदमी दुख नहीं
पा सकता। ऐसे
आदमी को कैसे दुख
दोगे? परमात्मा
भी बड़ी
उधेड़-बुन में
पड़ जाता होगा
ऐसे आदमी के
साथ कि अब करो
क्या! यह आदमी
तो जीतने लगा!
यह तो छिया-छी
में हाथ आगे
मारने लगा।
इसको दुखी
करने का उपाय
न रहा।
और सुख
तभी उत्पन्न
होता है जब
दुखी होने का
उपाय नहीं रह
जाता। अगर
तुमने सुख पकड़ा
और दुख छोड़ा, तो
तुम धीरे-धीरे
पाओगे, तुम्हारा
सुख भी दुख हो
जाता है। पकड़नेवाले
का सुख भी दुख
हो जाता है; क्योंकि वह
डरता है, कहीं
छिन न जाये। छिनेगा तो
ही। कौन सुख
स्थायी होता
है? आया है,
जायेगा!
पानी की लहर है।
न दुख ठहरता, न सुख
ठहरता। जिसने
पकड़ा सुख को, वह दुखी
होने लगा।
पहले सुख की
आकांक्षा में
दुखी था; अब
इस भय से दुखी
होगा कि छूटता,
अब गया, अब
गया, अब
जायेगा! और
जिसने दुख को
स्वीकार कर
लिया, वह
तो दुख को भी
रूपांतरित कर
लेता है। सुख
तो सुख है ही, वह दुख को भी
सुख बना लेता
है। इस कीमिया
को ही धर्म समझना।
जुनूं हर
रंग में मशरूरो-शादां
खिरद! हर
हाल में चींबर
जबीं है।
प्रेमोन्माद, जुनूं
हर रंग में मशरूरो-शादां...
--वह जो
पागलों की
मस्ती है, दीवानों
की मस्ती है, वह तो हर हाल
में खुश है।
खिरद!
लेकिन अक्ल, बुद्धि,
हर हाल में चींबर जंबी
है। वह
हर हाल में त्यौरी
चढ़ाये
हुए है। कुछ
भी हो जाये, तृप्ति नहीं
होती। कुछ भी
मिल जाये, असंतोष
बना रहता है।
सौभाग्य
है,
अगर इस तरह
की भाव-दशा
में रमते जाओ।
यह सिर्फ तुम्हारी
कविता न हो, तुम्हारा
जीवन बने! यह
तुमने सिर्फ
होशियारी न की
हो प्रश्न
पूछकर, यह
तुम्हारा भाव
बने! सघन भाव!
तो तुम पाओगे,
सब तरफ से
परमात्मा ने
नये-नये द्वार
खोल लिये; हर
तरफ से उसकी हवाएं
तुम्हें छूने
लगीं।
हर
एक जल्वा है
मेरे लिए कशिश
तेरी
हर
एक सदा मुझे
तेरा पयाम
होती है।
फिर हर
आवाज में उसका
संदेश और हर
रूप में उसका
रंग,
हर फूल में
उसकी खुशबू...।
तुम तैयार हो
जाओ। और यही
तैयारी का ढंग
है। इसे तुम
चौबीस घंटे
स्मरण रखो।
जल्दी ही दुख
भी आयेंगे, स्मरण रखना।
सुख भी आयेंगे,
स्मरण
रखना। तुम हर
हालत में सभी
कुछ उसी को समर्पण
किये चले
जाना। तुम
कहना, सब
तेरे हैं, सब
तेरे भेजे
हैं! और जल्दी
ही तुम पाओगे,
तुम्हारे
जीवन में
सुख-दुख की
उधेड़-बुन खो
गई और एक परम
शांति
विराजमान हो
गई है--ऐसी
शांति जो
पृथ्वी की
नहीं है; ऐसी
शांति जो केवल
स्वर्ग की है!
आज
इतना ही।
thank you guruji
जवाब देंहटाएं