सूत्र:
सीतंति सुवंताणं, अत्था पुरिसाण लोगसारत्था।
तम्हा जागरमाणा, विधुणध पोराणयं कम्मं।।
39।।
जागरिया धम्मीणं, अहंम्मीणं
च सुत्तया
संया।
वच्छाहिवभगिणीए, अकहिंसु जिणो जयंतीए।।
40।।
पमायं कम्ममाहंसु, अप्पमायं
तहाउवरं।
तब्भावादेसओ वावि, बालं पंडितमेव
वा।। 41।।
न कम्मुणा कम्म खवेंति
वाला, अकम्मुणा
कम्म खवेंति
धीरा।
मेधाविणो लोभमया ववीता, संतोसिणो
नौ पकरेंति
पावं।।
42।।
जागरह नरा! णिच्चं, जागरमाणस्स
बड्ढते बुद्धी।
जो सुवति ण सो
धन्नो, जो जग्गति सो
सया धन्नो।।
43।।
जह
दीवा दीवसयं
पइप्पए
सो य दिप्पय
दीवो।
जिन-सूत्रों
का सार आज के
सूत्रों में
है--जिन साधना
की मूल भित्ति; जिनत्व
का अर्थ।
परमात्मा
की खोज में दो
उपाय हैं। एक
उपाय है: उसमें
ऐसे तल्लीन हो
जाना कि तुम न
बचो;
उसमें ऐसे
लीन हो जाना
कि लीन
होनेवाला बचे
ही नहीं--जैसे
सागर में नमक
की डगली
डाल दें, खो
जाती है, स्वाद
फैल जाता है, लेकिन कोई
बचता नहीं।
दूसरा मार्ग
है: खोना जरा
भी नहीं; जागना!
इतने जागना कि
जागरण ही शेष
रह जाये, जागनेवाला न बचे।
पहला
मार्ग बेहोशी
का है, दूसरा
मार्ग होश का
है, लेकिन
दोनों के भीतर
सार बात एक है
कि तुम न बचो।
इसलिए
तुम्हें
रामकृष्ण
जैसे उल्लेख
महावीर और
बुद्ध के जीवन
में न मिलेंगे,
कि
रामकृष्ण
परमात्मा का
नाम लेते-लेते
बेहोश हो गये,
कि घंटों
बेहोश पड़े
रहे। कभी-कभी
दिनों होश में
न लौटते। और
जब होश में
आते तो फिर
रोने लगते और
कहते कि मां!
यह कहां मुझे
बेहोशी की दुनिया
में भेज रही
हो? वापिस
बुला लो! उसी
गहन बेहोशी
में मुझे
वापिस बुला
लो! मुझे
संसार का होश
नहीं चाहिए!
मुझे तुम्हारी
बेहोशी चाहिए!
ऐसा
उल्लेख
महावीर के
जीवन में असंभव
है;
कल्पना में
भी नहीं लाया
जा सकता; महावीर
की जीवन-सरणी
में बैठता
नहीं। गिर पड़ना
बेहोश होकर, यह तो दूर; महावीर एक
पैर भी नहीं
उठाते बेहोशी
में; हाथ
भी नहीं
हिलाते
बेहोशी में; आंख की पलक
भी नहीं झपते
बेहोशी में।
लेकिन
इन दोनों
विपरीत दिखाई पड़नेवाले
मार्गों के
बीच में कुछ
सेतु हैं। वह
सेतु स्मरण
रखना। भक्त
अपने को डुबा
देता है--इतना डुबा देता
है कि कोई
बचता ही नहीं, पीछे
लकीर भी नहीं
छूट जाती है।
साधक अपने को जगाता
है--इतना
जगाता है कि
जागरण की
ज्योति ही रह
जाती है, कोई
जागनेवाला
नहीं बचता। हर
हालत में
अहंकार खो
जाता है--चाहे
परिपूर्ण रूप
से तल्लीन
होकर खो दो और
चाहे
परिपूर्ण रूप
से जागकर
खो दो। इन दो
अतियों पर
परिणाम एक ही
होता है। इसलिए
भक्त और
ज्ञानी, प्रेमी
और साधक सभी
वहीं पहुंच
जाते हैं। मार्ग
का बड़ा फर्क
है, मंजिल
का जरा भी
फर्क नहीं है।
राह
जुदा, सफर
जुदा, रहजनो-रहबर जुदा
मेरे
जुनूने-शौक
की मंजिले-बेनिशां
है और।
महावीर
से पूछो तो वे
कहेंगे: राह
जुदा, सफर
जुदा, रहजनो-रहबर जुदा!
यह मेरी राह
अलग, इस
राह की यात्रा
अलग; इतना
ही नहीं, मेरी
राह पर लूटनेवाले
और
पथ-प्रदर्शक
भी अलग!
लुटेरे भी
मेरी राह के अलग
हैं।
स्वभावतः
होंगे।
क्योंकि जहां
होश साधना है,
वहां
लुटेरे अलग
होंगे। वहां
वही लुटेरे बन
जायेंगे जो
भक्ति के
मार्ग पर
पथ-प्रदर्शक
होते हैं।
जहां होश को
गंवा देना है,
मस्ती में
डूब जाना है, जहां
परमात्मा की
शराब पी लेनी
है--वहां जो सहयोगी
है, वह
महावीर के
मार्ग पर
लुटेरा हो
जायेगा।
महावीर के मार्ग
पर जो सहयोगी
है, वह
महावीर के
मार्ग पर
लुटेरा हो
जायेगा। महावीर
के मार्ग पर
जो सहयोगी है,
पथ-प्रदर्शक
है, राहबर
है, वह
भक्ति के
मार्ग पर
लुटेरा हो
जायेगा।
ध्यान
भक्ति के
मार्ग पर
लुटेरा हो
जायेगा; वहां
प्रार्थना
पथ-प्रदर्शक
है। महावीर के
मार्ग पर
प्रार्थना
लुटेरा हो
जायेगी; वहां
ध्यान
पथ-प्रदर्शक
है। लेकिन
मंजिल पर जाकर
सब मिल जाते
हैं। क्योंकि
पहुंचना उस
जगह है जहां
तुम अशेष भाव
से, कुछ भी
बचे न, परिपूर्ण
रूप से मुक्त
हो जाओ।
इसे भी
खयाल में ले
लेना।
साधारणतः हम
सोचते हैं, मैं
मुक्त हो जाऊंगा,
तो ऐसा लगता
है कि मैं तो
बचूंगा--मुक्त
होकर बचूंगा।
लेकिन जो गहरे
उतरने की
कोशिश करेंगे या
जिन्होंने सच
में ही समझना
चाहा है--मैं
मुक्त हो जाऊंगा,
इसका केवल
इतना ही अर्थ
होता है कि
"मैं' से
मुक्त हो जाऊंगा।
"मैं' भाव
चला जायेगा।
"मैं' भाव
जहां तक है
वहां तक
मुक्ति नहीं
है। जहां "मैं'
भाव
विसर्जित हो
जाता है, वहीं
मुक्ति है।
"मैं' भाव
को विसर्जित
करने के दो
उपाय हैं: या
तो डुबा
दो, या जगा
लो।
ऐसा
समझो, पतंजलि
ने
योग-सूत्रों
में मनुष्य के
चित्त की तीन दशायें
कहीं हैं। एक
है सुषुप्ति।
एक है जाग्रत।
एक है स्वप्न।
जिस दशा में
हम साधारणतः
हैं, वह
स्वप्न की दशा
है; कामना
की, विचारणा
की, ऊहापोह
की, हजार-हजार
वासनाओं की।
स्वप्न की दशा
है। इस स्वप्न
की दशा के
दोनों तरफ
एक-एक दशायें
हैं: एक
सुषुप्ति की
और एक जागृति
की। इस स्वप्न
की दशा से
मुक्त होना
है। इस स्वप्न
की दशा में ही
तुमने स्वप्न
देख लिया है
कि तुम हो। यह
तुम्हारा
स्वप्न है। या
तो सुषुप्ति
में खो जाओ, जहां स्वप्न
न बचे; या
जाग्रत हो जाओ,
जहां
स्वप्न के
बाहर आ जाओ।
तो
स्वप्न के बीच
में हम खड़े
हैं। स्वप्न
यानी संसार।
इसलिए तो शंकर
उसे माया कहते
हैं। वह
स्वप्न की दशा
है। वहां जो
नहीं है, वह हम
देख रहे हैं।
और वहां जो है,
वह हमें
दिखाई नहीं पड़
रहा है। वहां
हम जो देख रहे
हैं, वह
हमारा ही
प्रक्षेपण
है। वहां
जिसमें हम जी रहे
हैं, वह
हमारी ही
कामना, हमारी
ही आशा, हमारी
ही भावना है।
सत्य से उसका
कोई संबंध
नहीं। वह
हमारी
निर्मिति है।
तुमने
स्वप्न में
देखा! स्वप्न
देखते समय तो
ऐसा ही लगता
है कि सब सच है; ऐसा
ही लगता है कि
कुछ भी असत्य
नहीं है। सुबह
जागकर
पता चलता है
कि अरे, एक
सपने में खो
गये थे, इतना
सत्य मालूम
पड़ा था!
रोज-रोज
तुम सपना देखे
हो,
रोज-रोज
सुबह पाया है
कि असत्य है; फिर भी जब
रात घनी होती
है, फिर
नींद में डूब
जाते हो, फिर
सपना तरंगित
होने लगता है,
फिर भूल
जाते हो, वह
याद काम नहीं
आती।
स्वप्न
की दशा से
बाहर होने के
दो उपाय हैं।
या तो
सुषुप्ति में
डूब जाओ।
रामकृष्ण और
भक्तों ने सुषुप्ति
का उपयोग किया
है स्वप्न से
मुक्त होने के
लिए। महावीर
और बुद्ध और
पतंजलि ने
जागृति का
उपयोग किया है
स्वप्न से
मुक्त होने के
लिए। लेकिन
असली बात
स्वप्न से
मुक्त होना है।
या इस किनारे
या उस किनारे, यह
मंझधार में न
रह जाओ!
महावीर
के ये सूत्र
जागरण के सूत्र
हैं। इनका
सार-भाव है: जागो!
मैंने
सुना है, एक
आदमी भर-दुपहर
भागा हुआ
शराबघर में
आया। उसने कलारिन
से कहा कि एक
बात पूछने आया
हूं। बड़ा
बेचैन और परेशान
था। जैसे कुछ
गंवा बैठा हो,
कुछ बहुत खो
गया हो।
"एक
बात पूछनी है:
क्या रात मैं
यहां आया था?'
"जरूर
आये थे।'
"कई
लोगों के साथ
आया था?'
"कई
लोगों के साथ
आये थे।'
"सबको
शराब पिलवाई
थी, खुद भी
पी थी?'
"जरूर पिलवाई थी
और पी थी।'
वह
आदमी बोला, "शुक्र
खुदा का! सौ
रुपये चुकाये
थे?'
उसने
कहा,
"बिलकुल
चुकाये थे।'
उसने
कहा,
"तब कोई
हर्जा नहीं।'
वह बड़ा
प्रसन्न हो
गया। उस कलारिन
ने पूछा कि
मैं कुछ समझी
नहीं, बात
क्या है? उसने
कहा, "मैं
तो यही सोच
रहा था कि सौ
रुपये कहीं
गंवा बैठा।
इसलिए ही
परेशान था।'
बेहोश
आदमी भी सोचता
है कि कहीं
गंवा तो नहीं बैठा!
लेकिन बेहोशी
में कमाओगे
कैसे, गंवाओगे ही! चाहे
शराब पीने में
गंवाये
हों, चाहे
किसी बगीचे
की बैंच पर
भूल आये होओ।
शायद बगीचे
की बैंच पर
भूल आना
ज्यादा बेहतर
था; सौ
रुपये ही
गंवाते, कम
से कम होश तो न
गंवाया होता!
लुट जाना
बेहतर था, यह
तो लुट जाने
से बदतर दशा
है। पर वह
आदमी बोला, "शुक्र खुदा
का! मैं तो डर
रहा था कि
कहीं रुपये गंवा
तो नहीं बैठा।'
जिंदगी
के अंत में
अधिक लोग ऐसी
ही दशा में पाते
हैं। सोचते
हैं,
कहीं
जिंदगी गंवा
तो नहीं बैठे!
लेकिन कितने ही
बड़े मकान
बनाकर छोड़ जाओ
और कितने ही
धन की राशियां
लगा जाओ, इससे
क्या फर्क
पड़ता है?
जिंदगी
तो गई और गई।
जिंदगी तो राख
हो गई। मकान बना
आये,
खंडहर
बनेंगे। बड़ी
दौड़-धूप की थी,
बड़ी तिजोड़ियां
छोड़ आये--कोई
और उनकी
मालकियत
करेगा।
तुम्हारे हाथ
तो खाली हैं।
इससे तो बेहतर
होता कि तुम बैठे
ही रहते और
तुमने कुछ न
किया होता, तो कम से कम
तुम उतने
पवित्र तो
रहते जितने जन्म
के समय थे। यह
तो सारी आपाधापी
तुम्हें और भी
अपवित्र कर
गई। यह तो तुम
और भी शराब से
भरकर विदा हो
रहे हो। यह तो
तुम और जहर ले
आये।
जिंदगी
से कमाया तो
कुछ भी नहीं, एक
नयी मौत और
कमाई, फिर जन्मने की
वासना कमाई।
यह कोई कमाना
हुआ? जिसे
तुम जिंदगी
कहते हो, महावीर
उसे स्वप्न
कहते हैं। और
जिसे तुम
जागरण कहते हो,
वह जागरण
नहीं है; वह
सिर्फ खुली
आंख देखा गया
सपना है।
हम दो
तरह के सपने
देखते हैं: एक, रात
जब हम आंख बंदकर
लेते हैं; और
एक तब जब सुबह
हम आंख खोल
लेते हैं।
लेकिन हमारा
सपना सतत चलता
है। महावीर के
हिसाब से सपने
से तो तुम तभी
मुक्त होते हो,
जब
तुम्हारा मन
ऐसा निष्कलुष
होता है कि
उसमें एक भी
विचार की तरंग
नहीं उठती। जब
तक तरंगें हैं,
तब तक
स्वप्न है। जब
तक तुम्हारे
भीतर कुछ चित्र
घूम रहे हैं
और तुम्हारे
चित्त पर
तरंगें उठ रही
हैं--"यह हो
जाऊं, यह
पा लूं, यह
कर लूं, यह
बन जाऊं'--तब
तक तुम स्वप्नों
से दबे हो।
फिर तुम्हारी
आंख खुली है या
बंद, इससे
बहुत फर्क
नहीं पड़ता।
तुम बेहोश हो।
महावीर के लिए
तो होश तभी है,
जब
तुम्हारा
चित्त
निर्विचार
हो।
तो
जागरण का अर्थ
समझ लेना।
जागरण का अर्थ
तुम्हारा
जागरण नहीं
है। तुम्हारा
जागरण तो नींद
का ही एक ढंग
है। महावीर
कहते हैं
जागरण चित्त
की उस दशा को, जब
चैतन्य तो हो
लेकिन विचार
की कोई तरंग
में छिपा न हो;
कोई
आवरण न रह
जाये विचार का;
शुद्ध
चैतन्य हो; बस जागरण
हो। तुम देख
रहे हो और
तुम्हारी आंख में
एक भी बादल
नहीं
तैरता--किसी
कामना का, किसी
आकांक्षा का।
तुम कुछ चाहते
नहीं।
तुम्हारा कोई
असंतोष नहीं
है। तुम जैसे
हो, उससे
तुम परम राजी
हो। एक क्षण
को भी
तुम्हारा यह राजीपन, तुम्हारा यह
स्वीकार जग
जाये और तुम
जगत को खुली
आंख से देख
लो--आंख जिस पर
सपनों की पर्त
न हो; आंख
जिस पर सपनों
की धूल न हो; ऐसे चैतन्य
से दर्पण स्वच्छ
हो और जो सत्य
है वह झलक
जाये--तो
तुम्हारी
जिंदगी में
पहली दफा, वह
यात्रा शुरू
होगी जो जिनत्व
की यात्रा है।
तब तुम जीतने
की तरफ चलने
लगे। सपने में
तो हार ही हार
है।
जिन
यानी जीतने की
कला। जिनत्व
यानी स्वयं के
मालिक हो जाने
की कला। हमने
और सबके तो
मालिक होना
चाहा है--धन के, पत्नी
के, पति के,
बेटे के, राज्य के, साम्राज्य
के--हमने और का
तो मालिक होना
चाहा है, एक
बात हम भूल
गये हैं, बुनियादी,
कि हम अभी
अपने मालिक
नहीं हुए। और
जो अपना मालिक
नहीं है, वह
किसका मालिक
हो सकेगा! वह
गुलामों का
गुलाम हो
जायेगा।
पहला
सूत्र:
सीतंति सुवंताणं, अत्था पुरिसाण लोगसारत्था।
"इस
जगत में ज्ञान
सारभूत अर्थ
है।'
इस
जगत में बोध
सारभूत अर्थ
है। अवेयरनेस!
सीतंति सुवंताणं, अत्था पुरिसाण लोगसारत्था।
तम्हा जागरमाणा, विधुणध पोराणयं कम्मं।।
"अतः
सतत जागते
रहकर पूर्वार्जित
कर्मों को प्रकंपित
करो। जो पुरुष
सोते हैं, उनका
अर्थ नष्ट हो
जाता है।'
जीवन
में हमारे भी
अर्थ है, कोई मीनिंग
है। हम भी कुछ
पाना चाहते
हैं। हां, हमारे
भी कुछ बहाने
हैं। अगर आज
मौत आ जाये तो तुम
कहोगे, "ठहरो!
कई काम अधूरे
पड़े हैं। न
मालूम कितनी
यात्राएं
शुरू की थीं, पूरी नहीं
हुईं। ऐसे बीच
में उठा लोगी
तो अर्थ अधूरा
रह जायेगा।
अभी तो अर्थ
भरा नहीं। अभी
तो अभिप्राय
पूरा नहीं
हुआ। रुको।'
सिकंदर, नेपोलियन
साम्राज्य
बनाने में
जीवन का अर्थ देख
रहे हैं। कोई
कुछ और करके
जीवन का अर्थ
देख रहा है।
लेकिन महावीर
कहते हैं: इस
जगत में बोध
सारभूत अर्थ
है। और कुछ भी
नहीं--न धन, न
पद, न
प्रतिष्ठा।
"जो
पुरुष सोते
हैं उनका यह
अर्थ नष्ट हो
जाता है।'
अर्थ
तुम्हारे
भीतर है और
तुम्हीं सो
रहे हो तो
अर्थ का जागरण
कैसे होगा? तुम्हारे
जागने में ही
तुम्हारे
जीवन का अर्थ जागेगा।
मेरे
पास अनेक लोग
आते हैं। वे
कहते हैं, जीवन
का अर्थ क्या
है? जैसे
कि अर्थ कोई
बाहर रखी चीज
है, जो कोई
बता दे कि यह
रहा! जैसे तुम
पूछो, सूरज
कहां है, कोई
बता दे कि वह
रहा आकाश में!
लोग
पूछते हैं, जीवन
का अर्थ क्या
है?
जैसे
अर्थ कोई
बनी-बनाई, रेडीमेड वस्तु है, जो कहीं रखी
है और तुम्हें
खोजनी है।
जीवन
में अर्थ नहीं
है। अर्थ
तुममें है! और
तुम जागोगे तो
जीवन में अर्थ
फैल जायेगा।
और तुम सोये
रहोगे तो जीवन
निरर्थक हो
जायेगा। फिर इस
निरर्थकता के
खालीपन से बड़ी
घबड़ाहट
होती है, तो
आदमी
झूठे-झूठे
अर्थ कल्पित
कर लेता है।
वे सहारे हैं,
सांत्वनाएं हैं। तो कोई
कहता है, बच्चों
को बड़े करना
है। लगा रहता
है, व्यस्त
रहता है।
क्योंकि जब भी
कोई अर्थ नहीं
मालूम पड़े
बाहर, तो
भीतर की
निरर्थकता
मालूम होती
है। बच्चों को
बड़े करना है।
तुम्हारे
पिता भी यही
करते रहे, उनके
पिता भी यही
करते रहे। ये
बच्चे बड़े किसलिए
हो रहे हैं--ये
भी यही
करेंगे। ये भी
बच्चे बड़े करेंगे।
इसका
मतलब क्या है? प्रयोजन
क्या है? अगर
तुम्हारे
पिता तुमको
बड़ा करते रहे
और तुम अपने
बच्चों को बड़ा
करते रहोगे, तुम्हारे
बच्चे उनके
बच्चों को बड़ा
करते रहेंगे,
तो इस बड़े
करने का
प्रयोजन क्या
है? इस सतत
सक्रियता का
अर्थ क्या है?
इसमें कुछ
अर्थ तो नहीं
है। यह तो
तुम्हें भी कभी-कभी
झलक जाता है।
धन ही
इकट्ठा कर
लोगे तो क्या
होगा? अंततः
आती है मौत! सब
हाथ खाली हो
जाते हैं! सब छिन
जाता है। जो
छिन ही जायेगा,
उसे पकड़-पकड़कर
क्या होगा? लेकिन कम से
कम बीच में
कुछ अर्थ है, प्रयोजन
है--इस तरह की
भ्रांति तो
पैदा हो जाती
है।
लोग
अजीब-अजीब
अर्थ पैदा कर
लेते हैं।
एक
युवक मेरे पास
आया। अपनी
प्रेयसी को
लेकर आया और
उसने कहा कि
मुझे विवाह
करना है।
मैंने कहा कि
अभी तेरी उम्र
बीस साल से
ज्यादा नहीं है, अभी
इतनी जल्दी
बोझ क्यों
लेता है? अभी
दो-चार-पांच
साल और मुक्त
रहकर गुजर
सकते हैं।
इतने
उत्तरदायित्व
लेने की अभी
जरूरत कहां है?
अभी तू
स्कूल में
पढ़ता है! थोड़ा
रुक! पढ़ लिख
ले।
उसने
कहा,
"उत्तरदायित्व
लेने के लिये
ही तो विवाह
करना चाहता
हूं; अन्यथा
खाली-खाली
मालूम पड़ रहा
है। मेरे ऊपर
कोई
उत्तरदायित्व
नहीं है।' धनी
घर का लड़का
है। सब सुविधा
है।
"खाली-खाली मालूम
हो रहा हूं।
शादी कर लूंगा
तो कुछ भरापन हो
जायेगा।'
अभी
अमरीका में एक
आदमी पर
मुकदमा चलता
था,
क्योंकि
उसने सात
आदमियों को
गोली मार दी
थी--अकारण, अपरिचित
अजनबियों को!
ऐसे लोगों को
जिनका चेहरा
भी उसने नहीं
देखा था, पीछे
से। सागरत्तट
पर कोई बैठा
था, उसने
पीछे से आकर
गोली मार दी।
एक ही दिन में
सात आदमी मार
डाले।
बामुश्किल
पकड़ा जा सका। पकड़े जाने
पर अदालत में
जब पूछा गया
कि तूने किया
क्यों? क्योंकि
इनसे तेरी कोई
दुश्मनी न थी;
दुश्मनी तो
दूर, पहचान
भी न थी।
तो
उसने कहा कि
मेरा जीवन बड़ा
खाली-खाली है; मैं
कुछ काम चाहता
था; किसी
चीज से अपने
को भर लेना
चाहता था। मैं
चाहता हूं कि
लोगों का
ध्यान मेरी
तरफ आकर्षित हो।
और वह काम हो
गया। अब मुझे
फिक्र नहीं, तुम फांसी
दे दो! लेकिन
सब अखबारों
में मेरा फोटो
भी छप गया, सभी
अखबारों में
नाम भी छप
गया। आज
हजारों लोगों
की जबान पर
मेरा नाम है, यह तो देखो!
लोग
कहते हैं, बदनाम
हुए तो क्या, कुछ नाम तो
होगा ही।
राजनीतिज्ञों
में और
अपराधियों
में बहुत फर्क
नहीं है।
राजनीतिज्ञ
समाज-सम्मत
व्यवस्था के
भीतर नाम को कमाने
की चेष्टा
करता है।
अपराधी
समाज-सम्मत व्यवस्था
नहीं खोज पाता, समाज
के विरोध में
भी कुछ करके
नाम पाने की
आकांक्षा
करता है।
इसलिए अगर कोई
रातनीतिज्ञ
बहुत दिनों तक
राजनीति को न
पा सके तो
उपद्रवी हो
जाता है, क्रिमिनल हो जाता है, अपराधी हो
जाता है।
क्योंकि मूल
आकांक्षा है:
लोगों का
ध्यान
आकर्षित करना।
मूल आकांक्षा
है: लोगों को
लगे कि मैं
कुछ हूं; दुनिया
कहे कि तुम
कुछ हो, तुम्हारा
कुछ अर्थ है।
तुम ऐसे ही
आये और चले नहीं
गये; तुमने
बड़ा शोर
मचाया।
तुम्हारा आना
एक तूफान की
तरह था।
दुनिया को
तुम्हारे ऊपर
ध्यान देना
पड़ा।
तुमने
कभी खयाल किया? तुम
वस्त्र भी
इसीलिए पहनते
हो ढंग-ढंग के
कि ध्यान पड़े,
कोई देखे।
स्त्रियां
देखीं, नयी
साड़ियां
पहनकर आ जाती
हैं तो बड़ी
बेचैन रहती
हैं, जब तक
कोई पूछ न ले, कहां खरीदी;
जब तक कोई साड़ी का
पोत न देखे और
प्रशंसा न कर
दे।
तुमने
वह कहानी तो
सुनी होगी।
बड़ी पुरानी
कहानी है कि
एक औरत ने
अपने घर में
आग लगा ली थी
और जब लोग आये
तब वह हाथ
ऊंचे-ऊंचे
उठाकर
चिल्लाने लगी
कि हे परमात्मा!
नष्ट हो गई, मर
गई, लुट गई!
तब किसी औरत
ने पूछा, "अरे!
ये कंगन तो
हमने देखे ही
नहीं, कब बनवाये?' उसने कहा कि
नासमझ, पहले
ही पूछ लेती
तो घर में आग
क्यों लगानी
पड़ती! यह गांव
भर की राह
देखती रही, कंगन बनाये
हैं, कोई
पूछेगा! किसी
ने न पूछा।
जब झोपड़े
में आग लगी और
आग की रोशनी
उठी और कंगन
चमकने लगे और
वह हाथ उठाने
का मौका आया
कि अब
चिल्ला-चिल्लाकर, हाथ
हिला-हिलाकर
वह कह सकती है...!
तुम
जरा अपने पर
गौर करना। हम
सभी कंगन
दिखाने निकले
हैं,
चाहे घर में
आग लगाकर भी
दिखाना पड़े।
लेकिन ऐसा न
हो कि हम ऐसे
ही विदा हो
जायें, किसी
को पता भी न
चले कि कब आये,
कब चले गये,
कब उठे, कब
बैठे, कब
जन्मे। इस
कंगन दिखाने
को लोग कहते
हैं, अरे! कुछ
नाम कर जाओ।
कहते हैं, कुछ
नाम छोड़ जाओ
इतिहास में।
तो तैमूरलंग
और चंगेज़
और नादिरशाह
इतिहास में
नाम छोड़ जाते
हैं, हजारों
लोगों को आग लगवाकर, हजारों
लोगों को
काटकर।
कहते
हैं,
एक वेश्या तैमूर के
शिविर में
नाचने आयी थी।
जब वह रात
जाने लगी तो
वह डरती थी, क्योंकि
रास्ता
अंधेरा था। और
कोई दस-बारह
मील दूर उसका
गांव था। तो तैमूर ने
कहा, घबड़ा
मत। उसने अपने
सैनिकों से
कहा कि इसके
रास्ते में
जितने गांव
पड़ें, आग
लगा दो! थोड़े
सैनिक भी
झिझके कि यह
जरा अतिशय
मालूम पड़ता
है। एक मशाल
से ही इसको
पहुंचाया जा
सकता है!
लेकिन तैमूरलंग
ने कहा, "इतिहास
याद नहीं
रखेगा मशाल से
पहुंचाओगे तो।
पता रहना
चाहिए आने
वाले हजारों
सालों को कि तैमूरलंग
की वेश्या थी,
कोई साधारण
वेश्या न थी।
उसके द्वार
में, दरबार
में नाचने आयी
थी।' कोई
आठ-दस
छोटे-छोटे
गांवों में, जो रास्ते
में पड़ते थे, आग लगा दी गई।
गांव में लोग
सो रहे थे, उनको
पता भी नहीं
था, आधी
रात--ताकि
रास्ता रोशन
हो जाये।
वेश्या उन
जलती हुई
लाशों के बीच
से अपने गांव
पहुंच गई।
तुमने
कभी खयाल किया
है कि तुम
कितने उपाय
करते हो कि
किसी तरह
लोगों का
ध्यान
आकर्षित हो जाये।
अर्थ नहीं है
जीवन में तो
तुम झूठे अर्थ
पैदा करने की
कोशिश करते
हो--कोई कह दे
कि "तुम बड़े
सार्थक हो!
तुम जो कर रहे
हो वह
मूल्यवान है!
तुम बड़ा ऊंचा
काम कर रहे हो!' तुमसे
कोई कुछ भी
करवा ले सकता
है, बस
तुमसे यह
कहलवा दिया
जाये कि तुम
कोई बड़ा काम
कर रहे हो, बड़ा
ऊंचा, बड़ा
महत्वपूर्ण!
इस जगत
में बोध के
अतिरिक्त और
कोई अर्थ नहीं
है। और जितने
अर्थ तुम
खोजते हो, उन
सब से
तुम्हारी
बेहोशी घनी
होती है, बढ़ती
है, जागरण
नहीं आता।
"जो
पुरुष सोते
हैं उनके अर्थ
नष्ट हो जाते
हैं। अतः सतत
जागते रहकर पूर्वार्जित
कर्मों को
प्रकंपित
करो।'
पुरानी
आदतें पड़ी हैं
बहुत, उनको
हिलाओ, डुलाओ,
ताकि उनसे
छुटकारा हो
सके, वे
ढीली हो
जायें! बड़ा
बहुमूल्य वचन
है: "अतः सतत
जागते रहकर पूर्वार्जित
कर्मों को
प्रकंपित
करो।' हिलाओ--जैसे
वृक्ष को कोई हिलाये और
उसकी जड़ें उखड़
जायें। अब
पानी मत सींचो
और! ऐसे ही
क्या कम दुख
भोगा है। ऐसे
ही क्या कम
भटके हो। पानी
मत सींचो!
लेकिन जो हमें
जगाता है, वह
दुश्मन मालूम
पड़ता है, क्योंकि
वह हिलाता है।
आस्पेंस्की ने
अपनी किताब
"इन सर्च आफ द
मिरेकुलस' अपने
गुरु गुरजिएफ
को समर्पित की
है, तो
उसमें लिखा
है: "गुरजिएफ
के लिए--जिसने
मेरी नींद को
तोड़ दिया।'
लेकिन
जब कोई
तुम्हारी
नींद तोड़ता
है तो सुखद
नहीं मालूम
होता। जब कोई
तुम्हारी
नींद तोड़ता
है तो तुम्हें
लगता है
दुश्मन।
इसलिए जगत में
नींद तोड़नेवाले
सदा दुश्मन
मालूम पड़े।
सुकरात को
हमने ऐसे ही
जहर नहीं पिला
दिया था, और न
जीसस को हमने
ऐसे ही सूली
पर लटका दिया,
न हमने
महावीर को ऐसे
ही पत्थर मारे
और कान में
खीलें ठोंके।
यह अकारण नहीं
था। ये लोग
नींद तोड़ रहे
थे। ये अलार्म
की तरह थे।
तुम जब मजे से
सो रहे थे और सुबह
का आखिरी सपना
देख रहे थे, तब ये बीच
में आ गये और
उन्होंने
उपद्रव मचा दिया
कि जागो!
तुम्हारा भाव
तो इन दो
पंक्तियों
में प्रगट हुआ
है।
न अजां हो, न
सहर हो, न
गजर हो
शबे-वस्ल
क्या
मजा हो जो
किसी को न
जगाए कोई।
न अजां
हो--न तो
मस्जिद में
कोई अजान पड़े; न
सहर हो--न सुबह
हो, न सूरज
ऊगे; न गजर
हो--न कोई
मंदिर में
घंटियों को बजाये;
मिलन की
रात! क्या मजा
हो जो किसी को
न जगाये
कोई!
सोने
में हमारी बड़ी
आतुरता है।
जिसको हम सुख
कहते हैं, अगर
तुम गौर से
पाओगे तो वह
एक मधुर सपना
देखने से
ज्यादा नहीं
है। जिसको हम
सुखी जिंदगी
कहते हैं, वह
ऐसी जिंदगी है,
जिसमें
मधुर
स्वप्नों का
काफी जाल है।
जिसको हम दुखद
जिंदगी कहते हैं,
वह भी सपनों
की ही जिंदगी
है; उसमें
सपने दुख से
भरे हैं, नाइटमेयर जैसे हैं।
लेकिन
सपना तो सपना
है। तुम सुखद
सपने देखकर भी
एक दिन मर
जाओगे तो क्या
होगा?
इसलिए
महावीर कहते
हैं,
अर्थ बाहर
नहीं है; अर्थ
तो तुम्हारे
भीतर की
ज्योति के
प्रज्वलित हो
जाने में है।
तुम्हारी
रोशनी
तुम्हारे
जीवन को भर दे
और सपनों को
तितर-बितर कर
दे। और तुमने
अब तक पूर्व
जन्मों में जो
अर्जित कर्म
किये हैं, जिनके
कारण जड़ें
मजबूत हो गई
हैं सपनों की,
जिनके कारण
सपने सत्य
मालूम होते
हैं, जिनके
कारण जो नहीं
है वह बहुत
वास्तविक
मालूम हो रहा
है--उनको
हिलाओ, प्रकंपित
करो! उन जड़ों
को तोड़ो और उखाड़ो!
"धार्मिकों
का जागना
श्रेयस्कर है
और अधार्मिकों
का सोना
श्रेयस्कर
है।' बड़ा
बहुमूल्य वचन
है! महावीर
कहते हैं, धार्मिकों
का जागना
श्रेयस्कर है
और अधार्मिकों
का सोना
श्रेयस्कर
है।
नादिरशाह के
जीवन में भी
ऐसा उल्लेख
हैं। उसने एक
सूफी फकीर को
पूछा, क्योंकि
वह खुद बहुत
आलसी था और
सुबह दस बजे के
पहले नहीं
उठता था। रात
देर तक
नाच-गान चलता,
शराब चलती,
तो सुबह
दस-बारह बजे
उठता। उसने एक
सूफी फकीर को
पूछा कि मेरे
दरबारी मुझ से
कहते हैं कि
इतना आलस्य
ठीक नहीं है, तुम क्या
कहते हो? उस
सूफी फकीर ने
महावीर का यह
वचन दोहराया
मालूम होता है;
क्योंकि
बिलकुल यही
वचन उसने
दोहराया।
उसने कहा, आप
तो अगर बिलकुल
सोयें
चौबीस घंटे तो
अच्छा है। नादिरशाह
थोड़ा चौंका।
उसने कहा, "तुम्हारा
मतलब?' उसने
कहा, "आप
जैसे व्यक्ति
जितनी देर सोयें,
उतना ही
उपद्रव कम! आप
तो सोये ही
रहें।'
महावीर
कहते हैं, धार्मिकों
का जागना
श्रेयस्कर है;
अधार्मिकों
का सोना
श्रेयस्कर
है। क्योंकि अगर
अधार्मिक
सक्रिय हो उठे,
तो अधर्म ही
करेगा।
महावीर यह कह
रहे हैं कि अधार्मिक
का तो
शक्तिहीन
होना अच्छा है;
धार्मिक का शक्तिशाली
होना अच्छा
है। महावीर यह
कह रहे हैं, धार्मिक के
पास बल हो तो
धर्म घटेगा; अधार्मिक को
पास बल होगा
तो अधर्म
घटेगा, वह
कुछ न कुछ
उपद्रव
करेगा।
राजनीतिज्ञ
बीमार रहें तो
अच्छा है; अस्पतालों
में रहें तो
अच्छा है। ठीक
हुए कि वे कुछ
उपद्रव
करेंगे। बिना
उपद्रव किये
वे रह नहीं
सकते हैं।
उपद्रव के लिए
अच्छे-अच्छे
नाम देंगे।
उपद्रव को सजायेंगे,
शृंगारेंगे। उपद्रव को
क्रांति, स्वतंत्रता,
समानता, साम्यवाद,
न मालूम
क्या-क्या नाम
देंगे। लेकिन
बहुत गहरे में
उपद्रव की
आकांक्षा है।
खाली वे बैठ
नहीं सकते।
महावीर
व्यंग्य कर
रहे हैं। वे
यह कह रहे हैं, अधार्मिक
सोये रहें तो
ठीक; धार्मिक
जागे।
इसलिए
महावीर की
पूरी
प्रक्रिया यह
है कि तुम जागो
भी,
साथ ही साथ
तुम धार्मिक
भी होते चलो; धार्मिक
होते चलो और
साथ ही साथ
जागते भी चलो।
अन्यथा शक्ति
भी गलत हाथों
में पड़कर
खतरनाक सिद्ध
होती है। ऐसा
ही तो हुआ है, विज्ञान ने
शक्ति सोये
हुए आदमियों
के हाथ में दे
दी। ऐसा नहीं
है कि पहली
दफा
वैज्ञानिकों
को अणु की
शक्ति का पता
चला है।
महावीर भी अणुवादी
थे। जैन-दर्शन
दुनिया का
सबसे प्राचीन अणुवादी
दर्शन है।
आइंस्टीन और रदरफोर्ड
ने जो इस सदी
में पाया है, वह जैन कोई
पांच हजार साल
से कहते रहे
हैं कि पदार्थ
अणुओं का समूह
है, पदार्थ
अणुओं से बना
है।
अणु का
सिद्धांत
जैनियों का
प्राचीनतम
सिद्धांत है।
और जैसे-जैसे
विज्ञान साफ
होता जा रहा
है,
वैसे-वैसे
पुराने
शास्त्रों के
अर्थ साफ होते
जा रहे हैं।
ऐसा लगता है
कि अणु-शक्ति
को खोज लिया
गया था! संभवतः
महाभारत का
अंत अणुशक्ति
से ही हुआ।
लेकिन फिर एक
बात समझ में
पूरब को आ गई
कि जब तक लोग
सोये हुए हैं,
इतनी शक्ति
उनके हाथ में
होना खतरनाक
है; उसका
दुरुपयोग
होगा। शक्ति
उसके हाथ में
होनी चाहिए, जिसके भीतर सदभाव पहले
आ गया हो तो
फिर ठीक हैं।
नहीं तो शक्ति
का तुम करोगे
क्या? तुमने
लार्ड बेकन का
प्रसिद्ध वचन
सुना होगा--पावर
करप्ट्स
एंड करप्ट्स
एब्सोल्यूटली--कि
शक्ति जिनके
हाथ में है वह
लोगों को व्यभिचारित
कर देती है और
परिपूर्ण रूप
से व्यभिचारित
कर देती है।
लेकिन वह वचन
सत्य होते हुए
भी पूर्ण सत्य
नहीं है। शक्ति
किसी को व्यभिचारित
नहीं करती।
शक्ति केवल
तुम्हारे
भीतर जो व्यभिचार
पड़ा था, उसे
प्रगट करती
है।
तुम
देखते हो, एक
आदमी के पास
कुछ भी नहीं
है तो वह शराब
नहीं पीता; वह शराब के
खिलाफ है। फिर
कल अचानक
लाटरी हाथ लग
जाती है, फिर
वह शराब पीने
लगता है। अब
वह भूल जाता
है सब शराब की
खिलाफत। तो
लोगों को ऐसा
लगता है कि धन
ने इसे भ्रष्ट
किया। बात गलत
है। धन न होने से
यह अपने को
समझाता था, अंगूर खट्टे
हैं। पीना भी
चाहता तो पीता
कहां से? तो
नीति के, धर्म
के वचन
दोहराता था।
अब जब धन हाथ
में आ गया, सब
भूल गया।
इस देश
में ऐसा हुआ।
स्वतंत्रता-संग्राम
के दिनों में
जो लोग बड़े त्यागीत्तपस्वी
मालूम पड़ते थे, वे
कोई त्यागीत्तपस्वी
थे नहीं।
क्योंकि
परीक्षा तो तब
है जब शक्ति हाथ
में आई। जब
शक्ति हाथ में
न थी तब तो कोई
भी त्यागीत्तपस्वी
होता है। जब
शक्ति हाथ में
आई, राज्य
रूपांतरित
हुआ और
तथाकथित त्यागीत्तपस्वी
सत्ताधारी
बने, तत्क्षण
त्यागत्तपश्चर्या
सब समाप्त हो
गई। लगेगा
शायद सत्ता ने
उन्हें
भ्रष्ट किया।
नहीं, सत्ता
ने केवल अवसर
दिया, तो
जो भ्रष्ट
होने के बीज
भीतर पड़े थे
उन पर वर्षा
हुई। बीज तो
थे ही।
क्योंकि
तुम्हारा धन
तुम्हें कैसे भ्रष्ट
कर सकता है, अगर तुम्हीं
भ्रष्ट होने
को पूर्व से
तैयार न थे? तुम सिर्फ
धन की
प्रतीक्षा कर
रहे थे। धन आ
गया, संयोग
मिल गया; अब
रुकने की कोई
जरूरत न रही।
अब रुके, वह
बिलकुल पागल
है। अब तक
रुके थे, वह
तो कारण यह था
कि अपनी पहुंच
के बाहर थे
अंगूर। इसलिए कहते
थे, खट्टे
हैं। अब नसेनी
हाथ लग गई, अब
कौन रुकेगा!
अब रुकना
असंभव है।
सत्ता
हाथ में आते
ही लोग भ्रष्ट
हो जाते हैं--इसलिए
नहीं कि सत्ता
भ्रष्ट करती
है,
बल्कि
इसलिए कि
सत्ता अवसर
देती है। तो
जो तुम्हारे
भीतर छिपा था
वह प्रगट हो
जाता है। अगर
तुम्हारे
भीतर काव्य
छिपा था, हाथ
में सत्ता आते
ही काव्य
प्रगट होगा।
क्योंकि तुम
कहोगे, अब
सुविधा मिली,
अब दौड़-धूप
न रही, धन
हाथ आ गया--अब
घर बैठकर गीत
गुनगुना लें!
अब तक तो
मजदूरी करनी
पड़ती थी, गङ्ढा
खोदना पड़ता था,
समय व्यर्थ
होता था, शक्ति
व्यय होती
थी--गीत गाने
का अवसर कहां
था! अब गीत
गाने का अवसर
मिला है।
तो धन
अगर सम्यक
हाथों में पड़े
तो शुभ है; असम्यक
हाथों में पड़
जाए तो अशुभ
है। इसलिए तुम
मेरी बात खयाल
रखना। मैं
तुमसे यह नहीं
कहता कि धन छोड़ो।
धन में क्या
रखा है? तुम्हारे
हाथ बदलने
चाहिए। तो जो
धन को छोड़कर
भाग जाते हैं--तथाकथित
त्यागी--वे
केवल अवसर को
छोड़कर भाग रहे
हैं; बीज
का क्या होगा?
बीज तो भीतर
है। वह तो साथ
ही चला
जायेगा। फिर वे
धन से डरने
लगेंगे, क्योंकि
उनको बात समझ
में आ जायेगी,
तर्क साफ हो
जायेगा कि धन
हाथ आया कि उपद्रव
शुरू होता है।
लेकिन धन कहीं
उपद्रव ला
सकता है? चांदी
के ठीकरे
उपद्रव ला
सकते हैं? तब
तो चांदी के
ठीकरे आत्मा
से भी ज्यादा
बलवान हो गये।
चांदी के
ठीकरे उपद्रव
नहीं ला सकते--उपद्रव
तुम्हारे
भीतर पड़ा है।
इसलिए
मैं कहता हूं, वास्तविक
त्यागी की
परीक्षा संसार
के भीतर है, बाहर नहीं। भगोड़े की
बात और है, लेकिन
वास्तविक
त्यागी की
परीक्षा
संसार के भीतर
है। वहीं पता
चलेगा। जो महल
में रहकर फकीर
की तरह रह
जाये--वहीं
पता चलेगा। जो
स्त्री-पुरुषों
के बीच रहकर
अकेला रह
जाये--वहीं
पता चलेगा।
जहां सब साधन
थे, लेकिन
फिर भी जो
अकंपित
रहे--वहीं पता
चलेगा।
इसलिए
अगर कोई मुझसे
पूछे कि त्याग
की अगर परम
प्रतिमा
बतानी हो, तो
मैं महावीर को
न बताऊंगा, मैं कृष्ण
को बताऊंगा।
महावीर परम
त्यागी हैं, लेकिन
परीक्षा की
सीमा के बाहर
हैं। परीक्षा कभी
भी नहीं हुई।
जहां उपद्रव
खड़ा होता है, वहां से दूर
हैं। लेकिन
कृष्ण
परीक्षा से भी
गुजर गये हैं।
मैं जनक को
बताऊंगा।
साम्राज्य है।
सारा
साम्राज्य का
जाल है। और
उसके बीच बाहर
हैं।
तो मैं
तुमसे भागने
को नहीं कहता।
और महावीर का
भी वचन तुम
ठीक से समझो, तो
वे भी जागने
को कह रहे हैं,
भागने को
नहीं कह रहे
हैं। हां, यह
हो सकता है कि जागकर
तुम्हें यहां
रहना अर्थहीन
मालूम पड़े, जैसा कि
महावीर को
मालूम पड़ा। और
तुम्हारी स्वाभाविक
नियति
तुम्हें दूर
वनों और
उपवनों में ले
जाये कि
पहाड़ों में ले
जाये, तो
ठीक है। लेकिन,
तुम संसार
को छोड़कर नहीं
जा रहे हो।
तुम्हारे छोड़ने
में कोई
प्रयास नहीं
है। तुम सहज
अपने स्वभाव
के अनुकूल, जो तुम्हें
ठीक पड़ रहा है,
उस तरफ जा
रहे हो। इसमें
फर्क है।
एक
आदमी जो बाजार
को छोड़कर
भागता है, जो
बाजार से डरकर
भागता है, उसका
अभी बाजार में
अर्थ खोया
नहीं है। अगर
अर्थ खो जाये
तो डर कैसा? और एक आदमी, जो बाजार
में अर्थ पाता
ही नहीं, इसलिए
चला जाता है।
ये दोनों जाते
हुए मालूम पड़ेंगे,
लेकिन
दोनों के भीतर
क्रांतिकारी
फर्क है।
ऐसा
समझो कि एक
रस्सी पड़ी है।
तुम गुजरे पास
से,
तुमने सांप
समझ लिया और
तुम भागे। तुम
पूरब की तरफ
जा रहे थे, तुम
पूरब की तरफ
ही भागे, लेकिन
घबड़ाकर
भागे।
क्योंकि सांप
में तुम्हें
भय मालूम पड़ा।
फिर एक और
आदमी आ रहा
है। उसने भी
गौर से देखा
और उसे सांप
नहीं दिखाई
पड़ा, रस्सी
ही दिखाई पड़ी।
उसको भी पूरब
जाना है, वह
भी पूरब जा
रहा है। लेकिन
जो घबड़ाकर
भागा है उसमें
और जो रस्सी
को देखकर जा
रहा है, बुनियादी
फर्क है।
दोनों एक ही
दिशा में जा
रहे हैं।
लेकिन जो भाग
गया है उसके
भागने के पीछे
अभी अंधकार है,
अंधेरा है,
अज्ञान है।
और जो जागकर
जा रहा है, उसके
जाने में
प्रकाश है, ज्योति है।
"इस
जगत में ज्ञान
आदि सारभूत
अर्थ हैं। जो
पुरुष सोते
हैं उनका अर्थ
खो जाता है।
सतत जागते
रहकर पूर्वार्जित
कर्मों को
प्रकंपित
करो।
धार्मिकों का
जागना
श्रेयस्कर, अधार्मिकों
का सोना
श्रेयस्कर
है। ऐसा भगवान
महावीर ने
वत्स देश के
राजा--शतानीक
की बहन जयंति
से कहा था।'
"प्रमाद
को कर्म (आस्रव)
और अप्रमाद को
अकर्म (संवर)
कहा है।
प्रमाद, होने
से मनुष्य
अज्ञानी होता
है; प्रमाद
के न होने से
ज्ञानी होता
है।'
"प्रमाद
को कर्म...' प्रमाद
यानी
मूर्च्छा।
प्रमाद यानी
सोया-सोयापन।
प्रमाद, जैसे
कोई भीतरी नशे
में तुम पड़े
हो।
"प्रमाद
को कर्म कहा
है...।'
तुम जो
भी कर रहे हो, उसका
सवाल नहीं है--तुम
क्यों कर रहे
हो, उसका
सवाल है।
यही
करना और ढंग
से भी किया जा
सकता है, जागकर भी किया जा
सकता है--तब
कर्म नहीं
होगा।
समझो।
तुम अपने
बच्चों में
लिप्त हो, राग
में डूबे हो।
तुमने बड़ी महत्वाकांक्षाएं
बच्चों के
कंधों पर रख
दी हैं। तुम
जो नहीं कर पाये
जिंदगी में, चाहते हो
तुम्हारे
बच्चे कर
लेंगे। अगर
मां-बाप बेपढ़े-लिखे
हों तो बच्चों
को बुरी तरह पढ़ाते-लिखाते
हैं। क्योंकि
उनकी एक कमी
रह गई, वह
खलती है। कम
से कम अपने
में न हो सकी, अपने बच्चों
में पूरी हो
जाये। जो
मां-बाप जिंदगी
भर तड़फते
रहे, किसी
बड़े पद पर न हो
सके, वे
अपने बच्चों
को पहले से ही
तैयार करते
हैं कि हम तो
चूक गये, तुम
मत चूक जाना!
अब तुम बच्चों
को तैयार कर
रहे हो जीवन
के युद्ध के
लिये। यह एक
स्थिति है।
फिर एक
दूसरा आदमी
है। उसके भी
बच्चे हैं।
लेकिन जागा
हुआ आदमी है।
जागते ही
"मेरे हैं', यह
तो खयाल समाप्त
हो जाता है; "बच्चे हैं', यह खयाल रह
जाता है।
"मेरे हैं', यह तो
प्रमाद का
हिस्सा है, मूर्च्छा का
हिस्सा है।
मेरा
क्या है? खाली
हाथ हम आते
हैं, खाली
हाथ हम जाते
हैं। और बच्चे
मेरे क्या हो सकते
हैं? भला
मेरे द्वारा
आये हों, मैं
मार्ग बना
होऊं; लेकिन
आये तो कहीं
अज्ञात से
हैं! मेरे
चौराहे से
गुजरे होंगे,
इससे मेरे
नहीं हो जाते।
मेरे पास हैं,
इससे मेरे
नहीं हो जाते।
मेरे शरीर का
सहारा लेकर
बड़े हो रहे
हैं, इसलिए
मेरे नहीं हो
जाते। मेरे
जीवाणु के माध्यम
से प्रगट हुए
हैं, इसलिए
भी मेरे नहीं
हो जाते।
चैतन्य
की अपनी
यात्रा है। ये
जो बच्चे
तुम्हारे पास
हैं,
ये भी
अपनी-अपनी
यात्रा से आये
हैं। इस जीवन
में
संयोग...तुमसे
गुजरे हैं, तुम्हारे
नहीं हैं।
तुमने
कभी खयाल
किया! बाल
तुम्हारे
शरीर से जुड़े
हैं,
काट देते हो;
फिर तो
तुम्हारे
नहीं रह जाते!
नाखून काट
देते हो, फिर
तो तुम्हारे
नहीं रह जाते!
बच्चा जैसे ही
पैदा हो गया, मां की देह
के बाहर आ
गया--तुम्हारा
क्या रह गया?
"मेरा'--भाव
गिर जाये, ममत्व
गिर जाये--फिर
तुम बच्चों की
फिक्र कर देते
हो, उनकी
साज-संवार कर
देते हो; लेकिन
इस साज-संवार
में अब कोई
राग नहीं है।
और इस
साज-संवार के
द्वारा तुम
अपनी
महत्वाकांक्षाओं
को, अपने
अहंकार को, अपनी अतृप्त
अभीप्साओं
को पूरा नहीं
करना चाहते।
तुम बच्चों को
साथ दे देते
हो कि ठीक है, संयोग मिल
गया, तुम
असहाय हो; मुझसे
बन सकता है, मैं कुछ कर
देता हूं।
लेकिन तुम
कहते हो, तुम्हें
जो होना हो
तुम वही होना;
मेरी मत
सुनना। मैं तो
असफल हुआ ही
हुआ; अब
मैं तुम्हें
और खराब न कर जाऊंगा।
एक बात, अगर
मां-बाप थोड़े
भी जाग्रत हों,
तो निश्चित
करेंगे--वे
बच्चों को सजग
कर देंगे कि
हमने तो
जिंदगी गंवाई
ही गंवाई, तुम
मत गंवा देना!
कृपा करके हम
जैसे तो बनना
ही मत और कुछ
भी बन जाना; क्योंकि यह
तो हमने होकर
देख लिया। इस
होने से तो
कुछ भी न
पाया।
सोया
हुआ बाप उलटी
कोशिश करता
है। वह कहता
है,
मेरे जैसे!
बच्चे उससे
थोड़े भिन्न
होने लगते हैं
तो वह नाराज
होता है। वे
प्रतिकृति
होने चाहिए।
वे ठीक मेरी
प्रतिमा होने
चाहिए। "मेरे'
हैं, तो
उनके माध्यम
से किसी तरह
का अमरत्व
खोजा जाता है,
कि मैं तो
मिट जाऊंगा,
लेकिन मेरी
प्रतिमाएं
छूट जायेंगी।
कोई सिलसिला
मेरा जारी
रहेगा।
कर्म
तो वही हैं।
कबीर भी कपड़ा
बुनते हैं, बाजार
में बेचने
जाते हैं।
गोरा कुम्हार मटकियां
बनाता है, बाजार
में बेचता है।
रैदास जिंदगी
भर जूते बनाते
रहे। लेकिन
कुछ फर्क हो
गया। कबीर अब
भी कपड़ा
बनाते हैं, लेकिन अब
इसमें कोई
व्यवसाय नहीं
है। अब इससे कुछ
धन कमा लेकर
धन के ऊपर
सांप बनकर बैठ
जाने की
आकांक्षा
नहीं है।
जरूरी है; रोटी
के लिए, कपड़े
के लिए कर
लेते हैं।
आवश्यक है, कर लेते
हैं। इसमें अब
कोई वासना
नहीं है।
जरूरत
और वासना के
भेद को समझना।
जरूरतें तो सभी
की पूरी होनी
चाहिए।
जरूरतें तो
जीवन का अंग
हैं। वासनाएं विक्षिप्तताएं
हैं। वे कभी
पूरी नहीं
होतीं। और
उनका जीवन की
किसी जरूरत से
कोई संबंध
नहीं है। कोई
आदमी सम्राट
होना चाहता है, इसका
जीवन की जरूरत
से क्या संबंध
है? हां, भूखा रोटी
मांगता है, यह समझ में
आता है। नंगा कपड़ा
चाहता है, यह
समझ में आता
है। लेकिन कोई
आदमी सम्राट
होना चाहता
है। अब यह
सम्राट होने
से किसी भी
जरूरत का कोई
संबंध नहीं
है।
तुम्हें
प्यास लगी है, पानी
चाहिए। तुम
धूप में खड़े
हो, छप्पर
चाहिए--समझ
में आता है।
लेकिन धन का
एक ढेर
लगा-लगाकर तुम
उस धन के ढेर
पर बैठे रहो, यह बात
रुग्ण है, यह
विक्षिप्त
है। अरबों
रुपये हो जाते
हैं लोगों के
पास, तब भी
दौड़ नहीं
रुकती! अब उन
रुपयों का कुछ
भी नहीं कर
सकते। अब कुछ
भी बचा नहीं
है, जो
उनसे खरीदा जा
सके; जो भी
खरीदा जा सकता
था वह सब खरीद
लिया, लेकिन
फिर भी दौड़
जारी रहती है।
यह कोई विक्षिप्त
दौड़ है। यह
कोई पागलपन
है। इस पागलपन
से जो मुक्त
हो जाता है, उसके कर्म बांधते
नहीं। उसके
कर्म
प्राकृतिक
कर्म हो जाते
हैं, नैसर्गिक
कर्म हो जाते
हैं।
प्रमाद
को इसलिए
महावीर कर्म
कहते हैं।
करने को कर्म
नहीं कहते, करने
में जो बेहोशी
है उसको कर्म
कहते हैं। यह
थोड़ा सोचने
जैसा है। यह
सूत्र बड़ा
बहुमूल्य है।
तुम क्या करते
हो, यह
सवाल नहीं
है--तुम होश
में रहकर करते
हो कि बेहोश
रहकर करते हो।
यह तो कर्म की
बड़ी अनूठी
व्याख्या
हुई। प्रमाद
को कर्म, अप्रमाद
को अकर्म!
"पमायं कम्ममाहंसु,
अप्पमायं तहाऽवंर।'
तो जाग
जाओ,
कर्म तो तब
भी जारी
रहेगा। आखिर
महावीर भी जाग
गये, फिर
भी तो कोई
चालीस साल
जीवित रहे, कर्म तो
किया ही; उठे
भी, सोये
भी, भोजन
भी किया, उपवास
भी किया, ध्यान
भी किया, मौन
भी किया, बोले
भी, चुप भी
रहे--सब कर्म
चलता रहा।
लेकिन यह कर्म
अब बांधता
नहीं है। अब
इस कर्म में
कोई तंद्रा
नहीं है, अब
कोई मूर्च्छा
नहीं है। अब
यह सोये-सोये
नहीं हो रहा
है, यह जागकर
हो रहा है।
जैसे
ही तुम जागते
हो,
जीवन शुद्ध
जरूरतों पर आ
जाता है। जो
गैर-जरूरी है,
उसकी पकड़
नहीं रह जाती।
ऐसा समझो कि
आज अचानक तुम्हें
खबर मिले कि
पूना में
भूकंप होने को
है और तुम्हें
थोड़ी-सी ही
चीजें बचाकर
निकलने का
मौका है, और
तुम सारा घर
का सामान
इकट्ठा कर लो,
और सोचो कि
क्या बचायें
और क्या
छोड़ें। तुम
चकित होओगे यह
जानकर और यह
विचार
तुम्हारे मन
में जरूर
आयेगा कि यह
इतना व्यर्थ
का सामान इकट्ठा
क्यों किया!
इसमें बहुत
थोड़ा ही काम
का होगा जो
तुम ले जा
सकोगे। और जब
तुम चुनने लगोगे,
तुम्हें
खुद ही समझ
में आयेगा, दस में से नौ
चीजें तुम खुद
ही छोड़े दे
रहे हो। लेकिन
इनको इकट्ठा
करने में बड़ा
समय व्यतीत किया।
इनको इकट्ठा
करने में पागल
की तरह दौड़े। इनको
इकट्ठा करने
में जीवन की
बड़ी संपदा खोयी
और कूड़ा-कर्कट
इकट्ठा किया।
इसको ले जाने
के क्षण में, तुम खुद ही
सोचोगे कि
इसमें बहुत-सा
तो ऐसा है जो
ले जाने योग्य
नहीं है।
ऐस्कीमों की
जीवन-व्यवस्था
में एक
प्रक्रिया है, बड़ी
बहुमूल्य है!
काश, सारी
दुनिया में
कभी हो जाये
तो बड़े काम की
हो! ऐस्कीमों,
जैसे यहां
वर्ष में
दीवाली आती है,
ऐसा उनका एक
दिन आता
है--उत्सव का
दिन। उस दिन उनके
पास जो भी हो, जो व्यर्थ
होता है, वह
बांट देते हैं।
इसका बड़ा
परिणाम होता
है। घर खाली, शुद्ध, साफ
हो जाते हैं।
और इसका दूसरा
परिणाम यह होता
है कि जब सालभर
बाद व्यर्थ को
बांट ही देना
है तो वे
व्यर्थ को
इकट्ठा भी
नहीं करते; क्योंकि वह
फिजूल है, वह
सालभर
बाद बंट जाना
है। उसके लिए
दौड़-धूप कौन
करे!
तो एस्कीमों
का घर अत्यंत
जरूरत, अत्यंत
आवश्यक पर
निर्भर है। और
तुम ऐस्कीमों
को जितना
संतोषी पाओगे,
किसी को न
पाओगे। पर मौत
के दिन तो सभी
कुछ छूट जाना
है; थोड़ा
भी न ले जा
सकोगे। अगर
थोड़ा मौत का
स्मरण बना रहे
तो तुम व्यर्थ
की दौड़-धूप
छोड़ दोगे।
तुम
अपने सौ
कर्मों को जरा
गौर से देखना; उसमें
से नब्बे तो
चुपचाप
गिराये जा
सकते हैं, जिनके
लिए कोई कारण
नहीं है।
दो
छोटे बच्चे
बात कर रहे
थे। एक बच्चा
कह रहा था कि
मेरी मां
अदभुत है! वह
किसी भी विषय
पर घंटों बोल
सकती है।
दूसरा बोला, यह
कुछ भी नहीं
है। मेरी मां
बिना विषय के
घंटों क्या, दिनों बोल
सकती है। विषय
के घंटों क्या,
विषय की कोई
जरूरत ही नहीं
है।
तुम जरा
खयाल रखना, तुम
जितना बोल रहे
हो, उसमें
से कितना
जरूरी था, कितना
तुम छोड़ सकते
थे! तुम जो कर
रहे हो, उसमें
से कितना
जरूरी था, कितना
छोड़ा जा सकता
था!
धीरे-धीरे
अपने जीवन को
व्यवस्था दो!
होश लाओ! जहां
चलकर पहुंचा
जा सकता है, वहां
दौड़कर
क्यों पहुंच
रहे हो?
मैं
विश्वविद्यालय
में शिक्षक था, तो
मैंने देखा कि
परीक्षा में
विद्यार्थी
लिखते तो हाथ
से हैं, लेकिन
पूरा शरीर
खिंचा है। तो
मैं उनसे कहता
कि जब तुम हाथ
से लिख रहे हो
तो दो अंगुलियों
पर जोर पड़े, यह तो समझ
में आता है; लेकिन यह
पूरा शरीर
अंगूठे से
लेकर सिर तक
तुम तने हुए
क्यों हो? किन्हीं-किन्हीं
विद्यार्थियों
को बात समझ में
आई और वे शरीर
को शिथिल
छोड़कर लिखे।
और बाद में
उन्होंने
मुझे कहा, यह
आश्चर्य की
बात है! हम
नाहक शक्ति खो
रहे थे और
उसकी वजह से हड़बड़ाहट
पैदा होती थी।
तुम
साइकिल चलाते
हो,
लेकिन शायद
ही तुम किसी
साइकिल चलानेवाले
को ठीक चलाते
देखो, क्योंकि
अगर ठीक कोई
चला रहा हो तो
पैर के पंजे
पर जोर देना
काफी है। पूरे
शरीर को तनाव
देने की कोई
जरूरत नहीं
है। लेकिन
साइकिल क्या
चला रहे हैं, पूरा शरीर
तना हुआ है।
फिर थक जाते
हैं। फिर ऊब
जाते हैं।
जिंदगी
में जरा गौर
करो! जो काम
जितने से हो
सकता हो उतना
तो जरूरी है; उससे
रत्तीभर भी
ज्यादा डालना
मूर्च्छा के कारण
हो रहा होगा।
वह साइकिल
सवार जानता ही
नहीं कि क्या
कर रहा है।
उसे याद ही
नहीं है कि वह
क्या कर रहा
है। जो काम
रत्तीभर से हो
सकता था, जो
सुई से हो
सकता था, वहां
तलवार लिए
बैठे हो। खुद
को लहूलुहान
कर लिया है, दूसरों को
लहूलुहान कर
रहे हो। और
सुई तो सी देती
कपड़े को, तलवार
और फाड़
देती है। जो
काम सुई से
होता है वह
तलवार से हो नहीं
सकता।
सम्यक
जीवन चाहिए!
महावीर
कहते हैं, "प्रमाद
को कर्म, अप्रमाद
को अकर्म कहा
है। प्रमाद के
होने से मनुष्य
अज्ञानी होता
है। और प्रमाद
के न होने से
मनुष्य
ज्ञानी हो
जाता है।' सम्हालो
थोड़ा! जीवन की
गंध को व्यर्थ
गंवाए दे
रहे हो।
कहीं
की रहेगी न
आवारा हो कर
यह
खुशबू जो
फूलों ने
कांटों पे
तौली।
बड़ी
मुश्किल से
खुशबू आती है।
बड़ी मुश्किल
से! बड़ी
जद्दोजहद से!
जरा देखो तो
बीज से लेकर
फूल तक की
यात्रा, कितनी
कठिन है!
करीब-करीब
असंभव है।
कितनी अड़चनें
हैं! कितने
अवरोध हैं!
पहले तो बीज
टूटे न टूटे; टूट
जाये तो ठीक
भूमि मिले न मिले;
ठीक भूमि भी
मिल जाये तो
कोई पानी दे न
दे, कोई
पानी भी दे, सूरज की
रोशनी पड़े न
पड़े; कोई
बच्चा उखाड़
दे पौधे को; कोई जानवर
खा जाये या
कोई कुत्ता
अपना पेशाब-घर
बना ले! करोगे
क्या? हजार
बाधाएं हैं!
तब कहीं वृक्ष
खड़ा हो पाता। तब
कहीं फूल आते।
कांटों पर तौलत्तौलकर
गंध पैदा करनी
पड़ती है।
कहीं
की रहेगी न
आवारा हो कर
यह
खुशबू जो
फूलों ने
कांटों पे
तौली।
--और
फिर होता क्या
है परिणाम? सिर्फ
आवारा होकर
भटक जाती है।
मनुष्य
होना बड़ी लंबी
यात्रा है। इस
देश में हम
कहते रहे हैं, चौरासी
करोड़ योनियां!
अनंत-अनंत काल,
यात्रा
करते-करते, निखारते-निखारते
यह फूल खिला
है, जो
मनुष्य है, जिसको हम
मनुष्य कहते
हैं। यह
मनुष्यता का
फूल खिला है।
और अब तुम कर
क्या रहे हो? यह गंध
आवारा हुई जा
रही है। यह
ऐसे ही व्यर्थ
भटकी जा रही
है और खोई जा
रही है। इतने
श्रम से जिसे
पाया है, उसे
तुम ऐसे चुपचाप
बेहोशी में गंवाए दे
रहे हो।
"अज्ञानी
साधक
कर्म-प्रवृत्ति
के द्वारा कर्म
का क्षय होना
मानते हैं; किंतु वे
कर्म के
द्वारा कर्म
का क्षय नहीं
कर सकते। धीर
पुरुष अकर्म...(संवर या
निवृत्ति) के
द्वारा कर्म
का क्षय करते
हैं। मेधावी
पुरुष लोभ और
मद से अतीत तथा
संतोषी होकर
पाप नहीं
करते।'
"अज्ञानी
साधक कर्मप्रवृत्ति
के द्वारा ही
कर्म का क्षय
सोचते हैं...।' वे सोचते
हैं, कर्म
को काटना है
तो और कर्म
करो। ज्ञानी
साधक कर्म के
द्वारा कर्म
का क्षय नहीं
मानते।
"अकर्म
के द्वारा...' अकर्म का
क्या अर्थ है? पहला--जो
व्यर्थ कर्म
हैं उन्हें
जाने दो।
त्याग करने को
नहीं कह रहा
हूं--बोध से
समझो कि
व्यर्थ हैं, वे अपने से
गिर जायेंगे,
चले
जायेंगे, विदा
हो जायेंगे।
तुम्हारा
लगाव टूट
जायेगा। थोड़ा जागकर
अपने
जीवन-चर्या को
गौर से देखते
रहो: सुबह से रात
तक क्या कर
रहे हो? उसमें
क्या-क्या
व्यर्थ है? तो पहले
व्यर्थ को
जाने दो। यह
पहला कदम होगा
कि धीरे-धीरे
तुम व्यर्थ को
हटा दो। और
तुम नब्बे
प्रतिशत
व्यर्थ
पाओगे। यह मैं
अतिशयोक्ति
नहीं कर रहा
हूं।
निन्यानबे
प्रतिशत पाओगे।
नब्बे
प्रतिशत कह
रहा हूं, ताकि
तुम एकदम से
घबड़ा न जाओ।
एक
मित्र को
मैंने कहा कि
तुम दिन में
इस तरह बोलो, जैसे
कि हर शब्द के
लिए मूल्य
चुकाना है; जैसे
टेलीग्राम कर
रहे हो; जैसे
एक-एक शब्द के
लिए मूल्य
चुकाना
पड़ेगा। उन्होंने
कुछ दिन
प्रयोग किया
और मुझे आकर
कहा, यह
बड़ी हैरानी की
बात है! तब तो
दस-बीस शब्दों
से ही दिन में
काम हो जाता
है। जहां "हां'
और "ना' कहने
से भी काम हो
जाता है, वहां
पहले मैं
कितना बोले जा
रहा था! और
इसके बड़े लाभ
हुए, उन्होंने
कहा। क्योंकि
कुछ गलत बोलकर,
कुछ व्यर्थ बोलकर
हजार झंझटें
खड़ी हो जाती
थीं।
तुम
जरा सोचो!
तुम्हारी
जिंदगी की
कितनी झंझटें
तुम्हारे बोलने
के कारण खड़ी
हो गई हैं! घर
आये,
कुछ बोल दिए
पत्नी से। तब
खयाल में नहीं
था कि यह
बोलने का क्या
परिणाम होगा।
जब बोला था तो कोई
भाव भी न था
बुरा; लेकिन
बोले, फंसे।
तुम भी बेहोश
हो। तुम
बेहोशी में
बोल गये।
पत्नी ने
बेहोशी में
सुना। उसने
कुछ का कुछ
सुना। लड़ने-झगड़ने
पर खड़ी हो गई।
अब तुम लाख
समझाते हो कि यह
मेरा मतलब न
था, इससे
क्या होता है?
अब मतलब न
था, यह
समझाने के लिए
तुम कुछ बोल
रहे हो, उसमें
से भी पत्नी
कुछ पकड़ेगी।
अब यह सिलसिला
कहां अंत होगा?
थोड़ा
सोचो, तुम्हारी
जिंदगी की
कितनी
विपदाएं कम न
हो जायें, अगर
तुम थोड़े चुप
रहो! सोच के
बोलो! अत्यंत
जरूरी हो तो
बोलो। जैसे
एक-एक शब्द के
लिए मूल्य
चुकाना पड़ेगा,
इस तरह
बोलो। तुम न
केवल यह पाओगे
कि तुम्हारे
बोलने में बल
आ गया, तुम
यह भी पाओगे
कि तुम्हारे
बोलने के कारण
अड़चनें
कम हो गईं; न
तुम अपने लिए
पैदा करते हो,
न औरों के
लिए अड़चनें
पैदा करते हो।
और तुम्हारे
जीवन में एक
प्रसाद
अभिव्यक्त
होना शुरू हो
जायेगा।
क्योंकि जो
चुप रहता है, उसके पास
ऊर्जा इकट्ठी
होती है। बोल-बोलकर तुम
उसे चुकता कर
लेते हो।
अकर्म
की तरफ पहला
कदम है:
व्यर्थ कर्म
के प्रति जागो।
फिर,
जो सार्थक
बच रहे--बचेगा,
कुछ तो
बचेगा; क्योंकि
जब तक जीवन है,
कुछ कर्म
रहेगा, जीवन
कर्म है--फिर
जो सार्थक बचे,
उसके प्रति
साक्षी-भाव
रखकर करो, कर्ता
रहकर मत करो।
ऐसे करो जैसे
तुम करनेवाले
नहीं हो। भूख
लगी है शरीर
को, तुम
आयोजन कर देते
हो; लेकिन
तुम भूख से भी
दूर हो, आयोजन
से भी दूर हो।
न तो भूख
तुम्हें लगी
है और न आयोजन
तुम करते हो।
तुम
अकर्ता-भाव
में डूबे रहते
हो। तुम कहते
हो, साक्षी
हूं, देखता
हूं। शरीर को
भूख लगती है, रोटी जुटा
देता हूं।
प्यास लगती है,
सरोवर के
पास चला जाता
हूं। लेकिन
तुम अब कर्ता
नहीं हो।
यह जो
कर्ता-भाव का
चला जाना है
और साक्षी-भाव
से,
जागकर,
अप्रमाद से
कर्म को करना
है--उसको
महावीर अकर्म
कहते हैं।
अकर्म का मतलब
तुम यह मत
समझना कि कुछ
न करना; जैसा
कि जैन
मुनियों ने
समझ लिया है।
अकर्म का अर्थ
यह नहीं है कि
तुम बस बैठ
गये। क्योंकि
तुम्हारे
बैठने से भी
क्या होगा?
एक
संन्यासी
मुझे मिलने
आये। काश्मीर
में एक शिविर
मैंने लिया
था। उसके पहले
ही वे मुझसे मिलने
आये थे, तो
मैंने उनसे
कहा कि अच्छा
हो काश्मीर आ
जायें।
उन्होंने कहा,
यह जरा
मुश्किल है।
चलो, मैंने
कहा, जाने
दो। बंबई में
जहां मैं था, जहां वे
मिलने आये थे,
मैंने कहा,
कल सुबह
फलां-फलां जगह,
कुछ मित्र
ध्यान करने को
इकट्ठे हो रहे
हैं, वहां
आ जाओ। उसने
कहा, यह भी
बड़ा मुश्किल
है। मैंने कहा,
मुश्किल
क्या है? मैं
समझूं। तो
उन्होंने कहा,
मुश्किल यह
है--उनके साथ
एक सज्जन और
थे--कि मैं पैसा
खुद नहीं रखता;
पैसे को
छूने का मैंने
त्याग कर दिया
है। तो टैक्सी
में बैठना पड़े,
तो पैसे की
तो जरूरत
पड़ेगी। ट्रेन
में बैठना पड़े
तो पैसे की
जरूरत पड़ेगी।
तो ये सज्जन
को साथ रखना
पड़ता है। जहां
इनको सुविधा
हो, वहीं
मैं आ सकता
हूं। और कल
इनको सुविधा
नहीं है। तो
मैंने कहा, यह भी बड़ा मजा
हुआ। पैसा तुम
इनकी जेब में
रखे हुए हो...। यह
तो उलझाव और
बढ़ गया। तुम
समझ रहे हो, तुम पैसा
नहीं छूते।
तुम सोच रहे
हो, तुम
पैसे से मुक्त
हो गये। तुम
पैसे से मुक्त
नहीं हुए, इस
आदमी से और
बंध गये। इससे
तो पैसा ही
ठीक था, अपने
ही खीसे में
रख लेते, अपने
ही हाथ से
निकाल लेते।
इसके हाथ से निकलवाया।
काम तो
तुम्हारा ही
होना है। बिना
पैसे के भी
नहीं होता, यह भी
तुम्हें पता
है। तो यह
किसको धोखा दे
रहे हो तुम? यह तुम्हारे
हाथ में ऐसी
कौन-सी खराबी
है या तुम्हारे
हाथ में ऐसा
कौन-सा गुण है,
जिसके कारण
अपने हाथ को
बचा रहे हो, इसका हाथ
डलवा रहे हो? तुम अगर पाप
कर रहे हो तो
कम से कम
अकेले ही कर रहे
थे; अब तुम
इससे भी करवा
रहे हो। तुम
पर दोहरा जुर्म
होगा। तुम
फंसोगे बुरी
तरह। तुम यह
मत सोचो कि
तुम त्यागी
हो।
अब जैन
मुनि है। बैठ
गया है दूर सिकुड़कर।
वह कहता है, हम
कुछ नहीं करते।
लेकिन कोई
उसके लिए रोटी
कमायेगा।
कोई उसके लिए
वस्त्र कमायेगा।
जो बड़े
जैन मुनि हैं, उनको
लोग बुलाने
में गांव में
डरते हैं; क्योंकि
उनका गांव में
आने का मतलब
है: सारे श्रावकों
की मुसीबत।
भारी खर्च का
मामला है। तो
बड़े मुनियों
को छोटे गांव
तो बुला ही
नहीं सकते।
कोई उपाय नहीं
है। क्योंकि
उतना खर्च कौन
उठायेगा?
अब यह
थोड़ा सोचना!
अगर तुम खाली
बैठ गये तो
तुम्हारी
जरूरतें कोई
और पूरी
करेगा। लेकिन
जब तक जरूरतें
हैं--और तब तक
जरूरतें है जब
तक जीवन है--तो
कर्म तो जारी
रहेगा। यह
कर्म दूसरे के
कंधे पर रख
देने से, यह
दूसरे के कंधे
पर रखकर गोली
चलाने से तुम
बचोगे न।
इसमें तुम पर
दोहरा पाप लग
रहा है। तुम जो
कर रहे हो वह
तो कर ही रहे
हो और इस आदमी
के कंधे पर रख
रहे हो। इस
आदमी को भी
तुम साधन बना
रहे हो। यह भी
गलत है।
जो
करना है जरूरी, वह
करना। फिर
साक्षी-भाव
रखना। शरीर की
जरूरत पूरी कर
देनी है।
जरूरत से
ज्यादा की आकांक्षा
नहीं करनी है।
मूल जरूरत पर
रुक जाना है।
और जो भी हो
रहा है, उसके
प्रति
साक्षी-भाव
रखना है।
"धीर
पुरुष अकर्म
के द्वारा
कर्म का क्षय
करते हैं।
मेधावी पुरुष
लोभ और मद से
अतीत तथा संतोषी
होकर पाप नहीं
करते।'
मेधावी!
महावीर
उन्हीं को
मेधावी कहते
हैं,
इंटेलीजेंट,
जो साक्षी
होने में
समर्थ हैं। और
मेधा मेधा नहीं।
जिसको तुम
मेधावी कहते
हो, वह तुम
जैसा ही
है--मूर्च्छित।
हो सकता है, किसी दिशा
में कुशल है।
कोई तकनीक
उसने सीख लिया
है। तुम कहते
हो, कोई
चित्रकार है
बड़ा मेधावी; क्योंकि तुम
जैसा चित्र
बनाते हो, उससे
बहुत अच्छा
चित्र बनाता
है। लेकिन
जीवन का चित्र
तो तुम जैसा
बना रहे हो, वैसा ही वह
भी बना रहा
है। तुम कहते
हो, कोई
कवि है, बड़ा
मेधावी।
क्योंकि जो
तुम नहीं कह
सकते, जो
तुम नहीं गा
सकते, वह
गा देता है।
ठीक है। लेकिन
जीवन का अंतिम
चित्र तो
तुम्हारे
जैसा ही वह
बना रहा है।
उसमें कोई
फर्क नहीं है।
क्रोध तुम्हें
है, उसे
है। लोभ
तुम्हें है, उसे है।
मत्सर
तुम्हें
घेरता है, उसे
घेरता है।
महावीर
कहते हैं, जिसने
जीवन के चित्र
को और जीवन के
गीत को सम्हाल
लिया, जिसने
वहां बुद्धिमत्ता
का उपयोग कर
लिया, वही
मेधावी है; बाकी सब
मेधा तो कहने
की मेधा है।
लज्जते-दर्द
के ऐवज दौलते-दो
जहां न लूं
दिल
का सकून
और है, दौलते-दो जहां है
और।
सारे
संसार की
संपत्ति भी
मिलती हो उस
आदमी को जिसने
थोड़े मन की
शांति जानी, तो
वह लेने को
राजी न होगा।
दो लोकों
की भी संपत्ति
मिलती हो..।
लज्जते-दर्द
के ऐवज दौलते-दो
जहां न लूं।
यह जो
सत्य की खोज
में पीड़ा
उठानी पड़ती है, इस
पीड़ा के बदले
भी अगर दुनिया
की सारी
संपत्ति
मिलती हो, दोनों
दुनिया की
मिलती हो, तो
भी न लूं।
दिल का सकून और है, दौलते-दो
जहां है और।
वह दिल की
शांति कुछ बात
और है। वह कुछ
संपदा और है।
एक बार जिसके
मन में उसकी
भनक पड़ गई, फिर
सब फीका हो
जाता है।
मेधावी पुरुष
लोभ के कारण
धर्म नहीं
करता। कोई
स्वर्ग पाने
के लिए धर्म
नहीं करता, न भय के कारण,
नर्क से
बचने के लिए
धर्म नहीं
करता। मेधावी
पुरुष तो पाता
है कि
जितना-जितना
जागरण आता है,
उतना-उतना
आनंद आता है।
जागरण में ही
छिपा है आनंद।
आनंद जागरण का
फल नहीं है; आनंद जागरण
का स्वभाव है।
ऐसा नहीं है
कि पहले जागरण
मिलता है, फिर
आनंद मिलता
है--जागरण में
ही मिल जाता
है। इधर तुम
जागते चले
जाते हो, उधर
आनंद की नई-नई
पुलक, नई-नई
किरण, नया-नया
नृत्य भीतर
होने लगता है।
इस
अहद में कमयाबिए-इन्सां
है कुछ ऐसी
लाखों
में
बामुश्किल
कोई इन्सां
नज़र आया।
लाखों
लोग हैं, आदमी
कहां! लाखों
आदमियों में
कभी एक-आध
आदमी नजर आता
है। क्योंकि
आदमी का जो
बुनियादी लक्षण
है, जागरण,
वह दिखाई नहीं
पड़ता। पशु हैं,
उन्हें भी
भूख लगती है
तो खोजते हैं;
कामवासना
जगती है तो
कामवासना की
तृप्ति करते
हैं। पशुओं को
भी लोभ दे दो
तो राजी हो
जाते हैं, भय
दे दो तो राजी
हो जाते हैं।
कुत्ते को
मारो-पीटो
तो जैसा करतब
करना हो, कर
देगा। लोभ दो,
रोटी के
टुकड़े डालो,
तो
तुम्हारे
पीछे जी-हजूरी
करता फिरेगा।
अगर मनुष्य भी
ऐसे ही लोभ और
भय के बीच ही
आंदोलित हो
रहा है, तो
फिर मनुष्य और
पशु में भेद
क्या है?
मनुष्यता
उसी दिन
प्रारंभ होती
है जिस दिन तुम्हारी
वृत्तियों से
पीछे एक जागरण
का स्वर, एक
जागरण का
स्रोत पैदा
होता है। जागते
ही तुम मनुष्य
बनते हो, उसके
पहले नहीं। और
ऐसा भी नहीं
है कि कभी-कभी तुम
न जागते होओ।
ऐसा भी नहीं
है कि जागने
के क्षण
कभी-कभी अचानक
न आ जाते हों।
क्योंकि जो तुम्हारा
स्वरूप है, उसकी झलक
कभी-कभी मिल
ही जाती है।
कितने ही आकाश
में बादल घिरें,
आकाश कभी न कभी
दो बादलों के
बीच से दिखाई
पड़ ही जाता
है।
तो
खयाल रखना, तुम
भी कभी-कभी
जागते हो; हालांकि
तुम उसका कोई
हिसाब नहीं
रखते, क्योंकि
तुम
प्रत्यभिज्ञा
नहीं कर पाते
कि यह क्या
है। तुम उसे
कुछ और-और नाम
दे देते हो। कभी
ऐसा होता है
कि अचानक खड़े
हो तुम, सुबह
का सूरज ऊगा, पक्षियों ने
गीत गाया--और
एक बड़ी गहरी
शांति और
सुकून
तुम्हें मिला!
तुम सोचते हो
शायद सुबह के
सौंदर्य के
कारण, सूरज
के कारण, पक्षियों
के गीत के
कारण। नहीं।
यद्यपि पक्षियों
के गीत, सुबह
के सूरज और
खुले आकाश ने
वातावरण दिया,
उस वातावरण
में क्षणभर
को तुम अवाक
रह गये, क्षणभर को
विचारधारा
बंद हो गई, क्षणभर
को बादल
यहां-वहां न
हिले, बीच
में से
थोड़ा-सा आकाश,
भीतर का
आकाश दिखाई पड़
गया।
कभी
किसी के प्रेम
में मन शांत
हो गया। कभी
संगीत सुनते
समय। कोई कुशल
वीणा-वादक
वीणा बजाता हो
और उसके तार
बाहर कंपते
रहे और भीतर, तुम्हारे
भीतर भी कुछ
कंपा; वीणा
बंद हुई, तुम्हारे
भीतर भी कुछ क्षणभर को
बंद हो गया।
एक गहन शांति
तुम्हें
अनुभव हुई।
लेकिन
तुम सोचोगे, शायद
यह वीणा-वादक
की कुशलता के
कारण है। यद्यपि
उसने निमित्त
का काम किया, लेकिन
वस्तुतः घटना
तुम्हारे
भीतर घटी।
ऐसे
जीवन में
तुम्हें कई
बार क्षण
मिलते हैं; लेकिन
तुम उनके कारण
गलत समझ लेते
हो।
जब भी
तुम्हें
शांति मिलती
है तो भीतर
कुछ प्रकाश
पैदा होता है, उसके
कारण ही मिलती
है। एक बार यह
समझ में आ जाये
तो फिर तुम
बाहर के
कारणों को
नहीं जुटाते;
फिर तुम
भीतर की ही
जागृति को सम्हालने
में लग जाते
हो।
ऐ
काश हो यह जज्बएत्तामीर
मुस्तकिल
चौंके तो
हैं खराबिए-ख्वाबे-गरां
से हम।
काश!
निर्माण का यह
अवसर थोड़ा
स्थायी हो
जाये। गहरी
नींद से चौंके
तो हैं, लेकिन
फिर कहीं हम
नींद में न खो
जायें।
ऐसा
रोज होता है।
तुम्हारी
नींद भी टूटती
है,
लेकिन फिर
तुम नींद में
खो जाते हो।
ऐ
काश हो यह जज्बएत्तामीर
मुस्तकिल
चौंके तो
हैं खराबिए-ख्वाबे-गरां
से हम।
हो
सकती है। यह
निर्माण की क्षणभर को
आई हुई दशा
स्थायी हो
सकती है।
लेकिन
तुम्हें
स्थायी करनी
पड़े। इसे
दोहराना पड़े।
इसे बार-बार
आमंत्रित
करना पड़े। जब
भी समय मिले, अवसर
मिले, फिर-फिर
इस भाव-दशा को
जगाना
पड़े--ताकि
इससे पहचान
होने लगे; ताकि
इससे संबंध जुड़ने लगे;
ताकि
धीरे-धीरे
तुम्हारे
भीतर यह
प्रकाश का स्तंभ
खड़ा हो जाये।
"मनुष्यो सतत जागते
रहो! जो
जागता है, उसकी
बुद्धि बढ़ती
है। जो सोता
है, वह
धन्य नहीं है।
धन्य वही है, जो सदा
जागता है।'
जागरह नरा! णिच्चं
जागरमाणस्स
बङ्ढते बुद्धी।
जो सुवति ण सो
धन्नो, जो जग्गति सो सया
धन्नो।।
जो
जागता है वह
धन्य है। मनुष्यो, सतत
जागते रहो! जो जागेगा
उसकी मेधा
बढ़ती है। जो
सोता है उसकी
मेधा सो जाती
है। जो जागता
है उसका भाग्य
भी जागता है।
जो सोता है
उसका भाग्य भी
सो जाता है।
जागरण की
पराकाष्ठा ही
भगवत्ता है।
इसलिए मैंने
कहा, भगवान
का अर्थ है:
जिसका भाग्य
पूरा जाग गया;
जिसने अपने
भीतर कोई
कोना-किनारा
सोया हुआ न छोड़ा,
जिसने
अंधेरे की कोई
जगह न छोड़ी।
उठ
कि खुर्शीद
का सामाने-सफर
ताजा करें
नफसे-सोख्त-ए-शाम औ
सहर ताजा
करें!
उठ
कि खुर्शीद
का सामाने-सफर
ताजा करें
उठो कि
सूरज की
यात्रा पर
चलें! यह सूरज
कोई बाहर का
सूरज नहीं--यह
भीतर के जागरण
का सूरज है।
"जैसे
एक दीप से सैकड़ों
दीप जल उठते
हैं, और वह
स्वयं भी
दीप्त रहता है,
वैसे ही
आचार्य दीपक
के समान होते
हैं। वे स्वयं
प्रकाशवान
रहते हैं और
दूसरों को भी
प्रकाशित करते
हैं।'
"जह दीवा दीवसयं'--जैसे दीये
से दीया जल
जाता है, दीप
से दीप जले, ऐसे किसी
जाग्रत पुरुष
को खोजो, जिसके
पास तुम्हारे
भीतर भी जागरण
की आकांक्षा जगे; जिसके
पास तुम्हारे
भीतर भी जागने
की परम वासना जगे; जिसके
पास तुम्हारे
भीतर भी
संक्रामक हो
जाये और तुम
भी सोचने लगो,
विचारने
लगो, प्रयास
करने लगो:
"कैसे नींद को
तोड़ें!' किसी
जागे हुए का
साथ चाहिए।
शास्त्र से यह
न हो सकेगा।
किसी जागे हुए
का साथ चाहिए!
तुम सोये हो
तो कोई जागा
हुआ ही
तुम्हें जगा
सकता है।
शास्त्र को
तुम रखे रहो, तुम उसका
तकिया बना
लोगे।
शास्त्र क्या
करेगा, अगर
तुम तकिया बना
लोगे? तुम
उस पर ही सिर टेककर और
आराम से सो
जाओगे, शास्त्र
क्या करेगा? कोई
तीर्थंकर
चाहिए!
महावीर
कहते हैं: वही
है आचार्य जो
जागा हुआ है, जिसका
आचरण जागृति
से निष्पन्न
है। जैसे एक
दीये से और
दीप जल जाते
हैं, सैकड़ों दीप जल जाते
हैं; फिर
भी जो दीप जल
रहा था, वह
तो दीप्त ही
रहता है, उसका
कुछ खोता थोड़े
ही है। यही तो
आध्यात्मिक संपदा
की महिमा है।
बांटो, बंटती नहीं। दिए
चले जाओ, चुकती
नहीं। जीवन की
और सभी
संपदाएं
बांटने से कम
होती चली जाती
हैं। इसलिए
जीवन की और
सभी संपदाएं
आदमी को कंजूस
बनाती हैं, कृपण बनाती
हैं। सिर्फ
आध्यात्मिक
संपदा ऐसी
संपदा है कि
बांटो, बंटती नहीं। एक
दीये से जलाये
जाओ हजार दीये,
कुछ ऐसा
नहीं कि पहले
दीये की जिससे
ज्योति जलाई
थी, अब
ज्योति कम हो
गई। ज्योति का
दान तुम्हें
कम नहीं करता।
ज्योति का दान
एक
ज्योतिर्मय
संघ का
निर्माण करता
है।
ऐसे
महावीर ने
हजारों दीये
जलाये; जिन-संघ
का निर्माण
हुआ। ऐसे
बुद्ध ने
हजारों दीये
जलाये; बुद्ध-संघ
का निर्माण
हुआ। लेकिन
फिर धीरे-धीरे
जब जीवित पुरुष
खो जाता है, वचन शास्त्र
में संगृहीत
हो जाते हैं, लोग
शास्त्रों का
तकिया बना
लेते हैं।
पड़ा
था सूना सितार
दिल का, हुई
अचानक यह जाग
तुमसे
जो
जिंदगी रोग बन
चुकी थी, बन गई
है आज राग
तुमसे।
हजारों
लोगों ने
महावीर के पास
ऐसा अनुभव किया।
जो
जिंदगी रोग बन
चुकी थी, बन गई
है आज राग
तुमसे
पड़ा
था सूना सितार
दिल का, हुई
अचानक यह जाग
तुमसे।
ध्यान
रखना, एक बड़ा
गहरा
सिद्धांत इस
सदी में कार्ल
गुस्ताव जुंग
ने खोजा। उसे
उसने सिनक्रानिसिटी
कहा है। कठिन
है उसका
अनुवाद। अर्थ
यह है कि अगर
एक व्यक्ति के
भीतर कोई घटना
घटे, एक व्यक्ति
की वीणा बजे, तो उसके पास
जो भी आयेगा, उसकी वीणा
पर भी वैसी ही
झनक शुरू हो
जायेगी। उसे
भी याद आ
जायेगी किसी
सोये हुए राग
की। उसे भी
अपना स्मरण
आना शुरू
होगा। इसमें
कार्य-कारण का
सिद्धांत
नहीं है। ऐसा
नहीं है कि
महावीर की
मौजूदगी के
कारण तुम
जागते हो।
जागरण तो
तुम्हारा
स्वभाव है; महावीर की
मौजूदगी के
कारण भूला हुआ,
बिसरा हुआ
याद आ जाता
है। जो होता
है, वह तो
तुम्हारे
भीतर ही होता
है, वह
महावीर के
बिना भी हो
सकता था; लेकिन
महावीर की
मौजूदगी में
सरलता से हो
जायेगा। जैसे
एक दीया जला
हो और दूसरा
दीया जले हुए
दीये को देखकर
इस स्मरण से
भर जाये कि
मैं भी दीया
हूं, मैं
भी जल सकता
हूं। जैसे एक
बीज फूटा हो
और दूसरे बीज
के भीतर भी
अकुलाहट पैदा
हो जाये कि मैं
भी फूट सकता
हूं।
इसलिए
सत्संग का
पूरब में बड़ा
मूल्य रहा है।
सत्संग
कीमिया है, रसायन,
अल्केमी।
सत्संग का
अर्थ है: किसी
ऐसे आदमी के
पास होना, किसी
ऐसे आदमी की
उपस्थिति में
होना, जो
जागा है। तो
धीरे-धीरे
बिना कुछ किये
तुम्हारे
भीतर भी कोई
नया राग उठने
लगेगा। तुम
अचानक पाओगे,
कोई नींद
टूटने लगी, कोई पर्तें
हिलने लगीं।
मरहबा
ऐ जज्बए-खुद
ऐतबादी
मरहबा
वो
हिला तूफां
का दिल, किश्ती
रवां होने
लगी।
किसी
ऐसे व्यक्ति
के पास
तुम्हारे
भीतर पड़ा हुआ
आत्मविश्वास
जिसे तुम भूल
गये हो, जग
आयेगा। शाबाश!
आत्मविश्वास
की दृढ़ता,
शाबाश!
मरहबा
ऐ जज्बए-खुद
ऐतबादी
मरहबा!
शाबाश!
तुम अपने भीतर
ही अनुभव
करोगे, कुछ
सोया जगने
लगा। तुम अपनी
ही पीठ थप थपाओगे।
वो
हिला तूफां
का दिल, किश्ती
रवां होने
लगी।
और
जरा-सा
तुम्हारे
भीतर तूफान
हिल जाये कि
नाव जो पड़ी है
जन्मों-जन्मों
से किनारे वह
रवाना हो जाये, किश्ती
चल पड़े।
सत्संग
में गुरु कुछ
करता नहीं, सिर्फ
उसकी
मौजूदगी...।
मौजूदगी भी
कुछ करती नहीं--मौजूदगी
से कुछ होता
है। सूरज कुछ
एक-एक फूल को पकड़कर
खोलता थोड़े ही
है; ऊगा
इधर, फूल खिलने
लगे।
वो
हिला तूफां
का दिल, किश्ती
रवां होने
लगी।
कुछ
सूरज सुबह ऊगकर
एक-एक पक्षी
के द्वार पर
दस्तक तो देता
नहीं कि गाओ, प्रभात
की बेला आ गई!
गीत गुनगुनाओ!
लेकिन सूरज
ऊगा--वो हिला तूफां का
दिल, किश्ती
रवां होने
लगी। कुछ
पक्षियों के
कंठों में कोई
प्यास जग उठती
है, कोई
गीत अपने से
फूटने लगता
है!
सूरज
की
मौजूदगी...ऐसी
तीर्थंकर की
मौजूदगी; ऐसे
अवतार की
मौजूदगी, मसीहा
की मौजूदगी, पैगंबर की
मौजूदगी; ऐसे
किसी व्यक्ति
की मौजूदगी
जिसका दीया जल
रहा है
अकंपित। ऐसा
क्षण अगर कहीं
मिलता हो तो
उसे चूक मत
जाना।
तुम्हारा मन
हजार तरकीबें
खोजेगा चूकने
की। इसी मन के
कारण तो तुम महावीर
को भी चूके, बुद्ध को भी
चूके, कृष्ण
को भी, क्राइस्ट
को भी। तुम
चूकते ही चले
गये हो। चूकने
की तुम्हारी
आदत बन गई है। सब दांव
पर लगा देना
अगर कभी
तुम्हें, कहीं
भी किसी के
सान्निध्य
में ऐसा लगे
की यहां दीया
जला है, तब
सब दांव पर
लगा देना। यह जुआरियों
का काम है। यह
अंधेरे में
उतरना है।
साहस और श्रद्धा!
लेकिन दांव पर
लगा देना।
क्यों? क्योंकि
अगर खोया तो
क्या खोयेगा?
तुम्हारे
पास कुछ है ही
नहीं खोने को।
अगर मिल गया
तो सब मिल
जायेगा। अगर
खोया तो कुछ
भी खोया नहीं।
लेकिन
तुम्हारे पास
जो है, तुम
उसे अभी बहुत
कुछ समझते हो।
मैंने
सुना है, शिवपुरी
के पास एक
विराट कवि
सम्मेलन का
आयोजन हो रहा
था। कुछ कवि
एक कार में
बैठकर वहां जा
रहे थे।
रास्ते में
डाकुओं ने घेर
लिया।
कवियों
में से बोला
एक,
"भैया!
तुम्हारे
गांव जा रहे
हैं, कवि
सम्मेलन में
भाग लेने।
हमारे पास धरा
क्या है? कुछ
कविताएं ही
सुना सकते
हैं। तो सुन
लो।' डाकुओं
ने उन्हें
ग्यारह रुपये
दिये और कहा,
"महाराज!
कविता आप गांव
में ही सुनाना
और जरा देर तक
सुनाना तो ठीक
रहेगा। हमें अभी
दुनिया में और
भी काम करने
हैं।
महावीर
अगर तुम्हारे
द्वार पर आकर
तुम्हें गीत
भी सुनाने को
राजी हो जायें
तो भी तुम
कहोगे, "महाराज!
किसी और को
खोज लो, अभी
हमें दुनिया
में बहुत और
काम करने हैं।
ये ग्यारह
रुपये दक्षिणा
ले लो हमें
छोड़ने की। यह
कविता कहीं और
सुना देना।'
महावीर
के चरणों में
तुमने फूल चढ़ाये--वे
ग्यारह रुपये
हैं कि
महाराज! आप
शांत रहो। हमें
बख्शो।
अभी हमें
दुनिया में और
बहुत काम पड़े
हैं।
लेकिन
इस दुनिया में
जरा गौर से
देखना, क्या
काम तुम कर
रहे हो? और
जिस दुनिया
में तुम इतने
उलझे हो, वहां
तुम क्या खोज
रहे हो? मेरे
देखे तो सभी
लोग परमात्मा
को खोज रहे
हैं। कुछ लोग
गलत जगह खोज
रहे हैं, कुछ
लोग ठीक जगह
खोज रहे हैं।
कुछ लोग ऐसे दरवाजों
पर खोज रहे
हैं जहां
दीवालें हैं,
दरवाजे
नहीं हैं, कुछ
लोग ठीक दरवाजों
पर दस्तक मार
रहे हैं।
मैं
तुमसे कहता
हूं,
वेश्या के
घर पर भी जो
आदमी दस्तक
देता है वह भी
परमात्मा की
खोज में ही
वहां गया है।
क्योंकि
वेश्या के
द्वार पर भी
वह आनंद की
तलाश में गया
है--और आनंद
परमात्मा की
तलाश है।
जिसने शराबघर
में शराब पीकर
बेहोश...नालियों
में गिर पड़ा
है, वह भी
परमात्मा की
ही तलाश में
गया था।
क्योंकि आनंद
की खोज
परमात्मा की
खोज है। लेकिन
गलत जगह। कोई
और मधुशाला
खोजनी थी, जहां
अदृश्य
अंगूरों की
सुरा ढाली
जाती है! कहीं
और पियक्कड़
होना था, पियक्कड़ ही होना था
तो! कहीं किसी
रामकृष्ण के
पास डूबना था
पीकर!
कहीं
भी तुम खोज
रहे हो, तुम्हारी
खोज कुछ भी हो,
तुम्हारा
बहाना कुछ भी
हो, अगर
तुम गौर से देखोगे
तो तुम पाओगे,
आनंद की
तलाश में
निकले हो। अगर
इतना तुम्हें समझ
में आ जाये तो
बहुत कठिनाई न
बचेगी। फिर तुम्हारे
पास एक कसौटी
हो गई कि "जहां
मैं खोज रहा
हूं, वहां
आनंद मिल सकता
है?' कितनी
बार तो वहां
गया हूं, सदा
खाली हाथ लौटा
हूं। कुछ खोकर
लौटा हूं, पाकर
तो कुछ भी
नहीं लौटा।
कुछ और दीन
होकर लौटा
हूं। कुछ और
दरिद्र होकर
लौटा हूं।
भिक्षा-पात्र
बड़ा भला हो
गया हो, हृदय
का पात्र भरा
तो नहीं।
आनंद
खोज रहे हो, यह
स्पष्ट हो, तो कसौटी
हाथ में
रहेगी। तो तुम
जांच लेना। जैसे
सोना जांचता
है सुनार, पत्थर
पर कस लेता है;
आनंद पर
कसते जाना, कसते जाना।
तुम पाओगे, जिंदगी, जिसको
तुम जिंदगी
कहते हो, कोई
भी उस आनंद के
पत्थर पर सोना
साबित नहीं होती।
तभी तुम सुन
सकोगे किसी
जाग्रत पुरुष
के वचन, किसी
जिन-पुरुष के
वचन।
लेकिन
तुम अपने को
धोखा दे रहे
हो। तुम
मांगते कुछ हो, मांगना
कुछ और चाहा
था, करते
कुछ हो, बताते
कुछ हो।
दूसरों को ही
धोखा देते हो,
ऐसा नहीं है;
खुद को भी
धोखा दे लेते
हो।
मैंने
सुना है, एक
यहूदी रबाई
दूसरे दिन के
सुबह के लिए अपना
प्रवचन तैयार
कर रहा था और
बाहर कुछ आवारा
बच्चे शोरगुल
मचा रहे थे।
तो वह उनसे
परेशान था, बाधा पड़ रही
थी। तो वह
खिड़की पर गया।
उसने कहा कि
तुम यहां क्या
कर रहे हो, पागलो!
नदी की खबर है,
एक बड़ा
राक्षस आया
है। बड़ा
विकराल है।
बड़ा भयंकर है!
ऐसा कभी देखा
नहीं गया। तुम
यहां क्या कर
रहे हो?
उसका
इतना कहना था
कि वे बच्चे
तो भागे सरपट
नदी की तरफ।
रबाई ने सोचा
कि ठीक, झंझट
मिटी। वह अपना
आकर फिर
पढ़ाई-लिखाई
में लग गया।
लेकिन थोड़ी ही
देर में उसने
देखा, सारा
गांव नदी की
तरफ जा रहा
है। उसने
खिड़की पर खड़े
होकर देखा, पूछा, "भाइयो!
कहां जा रहे
हो?' लोगों
ने कहा कि "अरे
तुम्हें पता
नहीं अभी तक? नदी के
किनारे एक
राक्षस आया
हुआ है। बड़ा
विकराल है!
हरे रंग का
है। बड़े-बड़े
दांत हैं।' जो रबाई ने
बताया भी नहीं
था, वह भी
सब उन्होंने
बताया। रबाई
ने कहा, ठहरो!
मैं भी आया।
रबाई ने अपने
मन में कहा कि
अरे बात तो
मैंने ही गढ़ी
है। पर उसने
कहा, कौन
जाने, सच
ही हो!
दूसरे
को धोखा
देते-देते
आदमी खुद को
भी धोखा दे
लेता है। कौन
जाने, सच ही हो!
कुछ हर्जा भी
क्या है जाने
में! देख ही लेना
चाहिए!
तुम
कहते कुछ और
हो,
चाहते कुछ
और हो, सोचते
कुछ और हो। तुम्हारा
जीवन
तुम्हारे ही
हाथ से पैदा
की गई उलझनों
में उलझ गया
है।
एक
भिखारी
मुल्ला नसरुद्दीन
को देखकर
चिल्लाया, "बड़े
मियां! भूखा
हूं, कुछ
पैसे दे दो तो
खाना खा लूं।'
मुल्ला ने दयावश बगल
के हलवाई की
दुकान पर ले
जाकर उसे खाना
खिलवा
दिया। खाना
खाकर भिखारी
बड़ा नाराज
होता बाहर
निकला और बड़बड़ाया,
"अजीब मजाक
है! पिक्चर
देखने के लिए
तो दो रुपये
चाहिए, वे
तो जुटते नहीं,
खाना सुबह
से पांच लोग
खिला चुके।'
मगर
तुम मांगते
खाना हो, देखना
पिक्चर है!
तुम
जिंदगी में
जरा गौर से
देखना, तुम
क्या मांग रहे
हो? क्योंकि
तुम जो मांग रहे
हो, वह मिल
जायेगा। तब
तुम पछताओगे।
न मिला तो पछताओगे।
मिल गया तो
पछताओगे।
क्योंकि
मांगा तुमने
कुछ और था और
चाहा कुछ और
था। फिर उस
भिखारी को तो
पता भी था
अपनी चाह का, तुम्हें
अपनी चाह का
भी कोई पता
नहीं।
इस
बेहोशी को
तोड़ो। ठीक-ठीक
साफ कर लो, क्या
चाहना है, ठीक-ठीक
दिशा खोज लो, कहां खोजना
है? और दो
ही दिशायें
हैं, ज्यादा
उलझन नहीं है।
या तो आदमी
बाहर की तरफ खोजता
है या भीतर की
तरफ खोजता है।
बाहर की तरफ
खोजकर तुमने
देख भी लिया
है। थोड़ा भीतर
को भी मौका दो!
और
ध्यान रखना, सांसारिक
आदमी को तो एक
ही अनुभव है--बाहर
की तरफ का; धार्मिक
आदमी को दोनों
अनुभव
हैं--बाहर का
भी, भीतर
का भी। इसलिए
धार्मिक आदमी
की बात जरा गौर
से सुन लेना।
इसलिए महावीर
की, कृष्ण
की, बुद्ध
की बात को जरा
गौर से सुन
लेना। तुम जहां
खोज रहे हो
वहां तो
उन्होंने भी
खोजा था। नहीं
पाया। फिर
उन्होंने
वहां खोजा
जहां तुमने
अभी नहीं खोजा
है। और वहां
पाया।
तो एक
बार थोड़ा-थोड़ा
समय,
थोड़ी-थोड़ी
शक्ति निकालो।
तेईस घंटे
संसार को दे
दो, एक
घंटा स्वयं के
लिए बचा लो।
जिस आदमी के
पास अपने लिए
एक घंटा भी
नहीं है, उससे
बड़ा दरिद्र
कोई भी नहीं
है। उसे ध्यान
कहो, प्रार्थना
कहो, जो
कहना हो कहो; लेकिन एक
घंटा अपने लिए
बचा लो। तुम
आखिर में मरते
वक्त पाओगे कि
बाकी तेईस
घंटे व्यर्थ
गये, वही
एक घंटा असली
बचाया हुआ
सिद्ध हुआ। और
वह एक घंटा
तुम्हारे
तेईस घंटों को
जीत लेगा, हरा
देगा।
क्योंकि जब
तुम्हें रस
आने लगेगा, रसधार बहेगी,
तो फिर तुम
कैसे धोखा
दोगे अपने को?
जब असली
सिक्के दिखाई
पड़ने लगेंगे
तो नकली सिक्कों
के धोखे में
तुम आओगे कैसे?
तोड़ो
इस बेहोशी को।
और तुम्हारे
बिना तोड़े कोई
और तोड़ न
सकेगा।
उठ कि खुर्शीद
का सामाने-सफर
ताजा करें।
--उठो!
थोड़ा
आत्मविश्वास
जगाओ!
मरहबा
ऐ जज्बए-खुद
ऐतबादी
मरहबा
वो
हिला तूफां
का दिल, किश्ती
रवां होने
लगी।
आज
इतना ही।
THANK YOU GURUJI
जवाब देंहटाएं