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रविवार, 20 अप्रैल 2014

जिनसूत्र--(भाग--1) प्रवचन--14

प्रेम से मुझे प्रेम है—प्रवचन—चौदहवां

प्रश्‍नसार:

1--परंपरा-भंजक महावीर ने स्वयं को चौबीसवां तीर्थकर क्‍यों स्‍वीकार किया?

2—महावीर का स्‍वयं सदगुरू, तीर्थंकर बनना व शिष्‍यों को दीक्षा देना—क्‍या उनके ही सिद्धांत के विपरीत नहीं है?

3—वर्तमान शताब्‍दि में आप हमें कौन—सा शब्‍द देना पसंद करेंगे?

4—आपके सामने दिन खोलूं कि नहीं खोलूं—मुझे घबराहट होती है। और क्‍या मैं कुछ भी नहीं कर पाती? मेरी हिम्‍मत अब टूटी जा रही है।


पहला प्रश्न:

परंपरा-भंजक महावीर ने स्वयं को प्राचीनतम जिन-परंपरा का चौबीसवां तीर्थंकर क्योंकर स्वीकार किया होगा? कृपया समझाएं!

रंपरा की तो परंपरा है ही, परंपरा-भंजन की भी परंपरा है। परंपरा तो प्राचीन है ही, क्रांति भी कुछ नवीन नहीं। क्रांति उतनी ही प्राचीन है जितनी परंपरा।
इस पृथ्वी पर सब कुछ इतनी बार हो चुका है कि नया हो कैसे सकेगा? जिसको तुम नया कहते हो, वह भी बड़ा पुराना है; जिसे पुराना कहते हो, वह तो है ही। जब से परंपरावादी रहा है, तभी से क्रांतिवादी भी रहा है। जब से रूढ़िवादी रहा है, तभी से रूढ़ि को तोड़नेवाला भी रहा है। जब प्रतिमाएं बनानेवाले लोग पैदा हुए, तभी से प्रतिमाओं को तोड़नेवाले लोग भी पैदा हो गये। वे साथ-साथ हैं। वे अलग-अलग हो भी न सकेंगे। वे दिन और रात की तरह साथ-साथ हैं।
क्रांति और परंपरा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। न परंपरा जी सकती है बिना क्रांति के, न क्रांति जी सकती है बिना परंपरा के। जिस दिन परंपरा मर जायेगी, उसी दिन क्रांति भी मर जायगी।
 इसे थोड़ा समझना; क्योंकि साधारणतः हम जीवन में जहां भी विरोध देखते हैं--सोचते हैं, दोनों दुश्मन हैं। ऐसा देखना अधूरा है। जहां-जहां विरोध है, वहां गौर से खोजोगे तो गहराई में पाओगे, दोनों परिपूरक हैं। विरोध भी एक भांति कि मैत्री है और शत्रुता भी एक ढंग का प्रेम है। पुरुष हैं, स्त्रियां हैं उनमें प्रेम भी है, विरोध भी है। विरोध के कारण ही प्रेम है। क्योंकि विरोध से भिन्नता पैदा होती है। विरोध से दूसरे को खोजने की आकांक्षा पैदा होती है। स्त्री-पुरुष लड़ते रहते हैं और प्रेम करते रहते हैं। लड़ाई और प्रेम कुछ इतने विपरीत नहीं हैं।
जिस पति-पत्नी में लड़ाई बंद हो चुकी हो, समझना कि प्रेम भी मर चुका। जब तक प्रेम की चिंगार रहेगी, तब तक थोड़ा-बहुत झगड़ा, थोड़ी-बहुत कलह भी रहेगी। लड़ने से प्रेम नहीं मरता है। लड़ना प्रेम का ही अनिवार्य हिस्सा है।
जैनों की परंपरा उतनी ही प्राचीन है जितनी हिंदुओं की। जैनों के पहले तीर्थंकर ऋषभ का नाम वेदों में उपलब्ध है--बड़े सम्मान से उपलब्ध है। उस जमाने के लोग बड़े हिम्मतवर रहे होंगे। अपने विरोधी को भी सम्मान से याद किया है।
जिस दिन दुनिया समझदार होती है, उस दिन ऐसा ही होगा। तुम अपने विरोधी को भी सम्मान से याद करोगे, क्योंकि विरोधी के बिना तुम भी नहीं हो सकते हो। विरोधी तुम्हें परिभाषित करता है। उसकी मौजूदगी तुम्हें त्वरा देती है, तीव्रता देती है, गति देती है। उसका विरोध तुम्हें चुनौती देता है। उसके विरोध के ही आधार पर तुम अपने को निखारते हो, सम्हालते हो, मजबूत करते हो।
अडोल्फ हिटलर ने अपनी आत्मकथा में लिखा है: जिस राष्ट्र को शक्तिशाली रहना हो, उसे शक्तिशाली दुश्मन खोज लेने चाहिए। अगर दुश्मन कमजोर होगा, तुम कमजोर हो जाओगे। जिससे लड़ोगे, वैसे ही हो जाओगे। अगर दुश्मन शक्तिशाली होगा तो उससे लड़ने में तुम शक्तिशाली होने लगोगे। मित्र तो कैसे भी चुन लेना, लेकिन शत्रु जरा सोच-समझकर चुनना। क्योंकि मित्र अंततः उतने निर्णायक नहीं हैं, जितना शत्रु निर्णायक है। वह तुम्हें परिभाषा देता है। वह तुम्हें जीवन की व्याख्या देता है। वह तुम्हें चुनौती देता है। वह तुम्हें बुलावा देता है, प्रतिस्पर्धा का अवसर देता है।
तो ऋग्वेद ने ऋषभ को बड़े सम्मान से याद किया है। ऋषभ जैनों के पहले तीर्थंकर हैं।
जैनों का विरोध, जैनों की क्रांति उतनी ही पुरानी है, जितनी हिंदुओं की परंपरा। जैन वेद-विरोधी हैं। लेकिन वेद ने बड़ा सम्मान दिया है। जैन मूर्ति-विरोधी हैं, यज्ञ-विरोधी हैं, परमात्मा को भी स्वीकार नहीं करते, भक्ति का कोई उपाय नहीं मानते--मूलतः व्यक्तिवादी हैं, अराजक हैं। समूह में उनका भरोसा नहीं है, व्यक्ति में भरोसा है। और एक-एक व्यक्ति अलग और अनूठा है। और एक-एक व्यक्ति को अपना ही मार्ग खोजना है। कृष्णमूर्ति जो कह रहे हैं, वह जैनों की प्राचीनतम परंपरा है, वह कुछ नई बात नहीं है। यद्यपि जैन भी उनसे राजी न होंगे, क्योंकि अब तो जैन भी भूल गए हैं कि उनके प्राणों में कभी क्रांति का तत्व था; वह आग बुझ गई है, राख रह गई है। अब तो वे भी परंपरावादी हैं।
लेकिन जैनों को समझना हो तो उनकी क्रांति के रुख को समझना जरूरी होगा। इससे बड़ी क्या क्रांति हो सकती है कि परमात्मा नहीं है, प्रार्थना नहीं है, पूजा-पूजागृह, सब व्यर्थ हैं! तुम किसी की अनुकंपा के आसरे मत बैठे रहना; तुम्हें स्वयं ही उठना है। तुम्हें कोई ले जा न सकेगा! महावीर यह भी नहीं कहते कि मैं तुम्हें कहीं ले जा सकता हूं; ज्यादा से ज्यादा इशारा करता हूं, जाना तुम्हीं को पड़ेगा--अपने ही पैरों से।
महावीर तो आदेश भी नहीं देते कि जाओ। वे कहते हैं, आदेश में भी हिंसा हो जायेगी। मैं कौन हूं जो तुमसे कहूं कि उठो और जाओ? मैं उपदेश दे सकता हूं, आदेश नहीं।
इसलिए तीर्थंकर उपदेश देते हैं, आदेश नहीं। उपदेश का मतलब है: मात्र सलाह। मानो न मानो, तुम्हारी मर्जी। न मानो तो तुम कोई पाप कर रहे हो, ऐसी घोषणा न की जायेगी। मान लो, तो तुमने कोई महापुण्य किया, ऐसा भी कुछ सवाल नहीं है। मान लिया तो समझदारी, न मानी तो तुम्हारी नासमझी। लेकिन इसमें कुछ पाप-पुण्य नहीं है।
तीर्थंकर आदेश भी नहीं देते। वे कहते हैं कि आदेश देने का अर्थ हुआ कि तुम दूसरे के मालिक हो गए। तुमने कहा, ऐसा करो; अब अगर न करेगा दूसरा व्यक्ति तो उसके मन में अपराध का भाव पैदा होगा, उसकी जिम्मेवारी तुम्हारी हो गई। अगर करेगा तो गुलामी अनुभव करेगा; तुम्हारी आज्ञा से चला। जैन कहते हैं, अगर आज्ञा मानकर किसी की तुम स्वर्ग भी पहुंच गए तो वह स्वर्ग भी नर्क ही सिद्ध होगा; क्योंकि दूसरे के द्वारा जबर्दस्ती पहुंचाए गए।
सुख में कभी कोई जबर्दस्ती पहुंचाया जा सकता है? सुख तो स्वेच्छा से निर्मित होता है। अगर नर्क भी तुम स्वयं चुनोगे तो सुख मिलेगा; और स्वर्ग भी अगर धक्का देकर पहुंचा दिया, पीछे कोई बंदूक लेकर पड़ गया और दौड़ाकर तुम्हें स्वर्ग में पहुंचा दिया, तो वहां भी तुम्हें सुख न मिलेगा।
निज की स्वतंत्रता में स्वर्ग है। परतंत्रता में नर्क है।
इसलिए महावीर तो आदेश भी नहीं देते। क्रांति उनकी बड़ी प्रगाढ़ है। और वे कहते हैं, तुम स्वयं जिम्मेवार हो, कोई और नहीं। बड़ा बोझ रख देते हैं व्यक्ति के ऊपर। बड़ा भारी बोझ है! राहत का कोई उपाय नहीं। महावीर के पास कोई सांत्वना नहीं है। वे सीधा-सीधा तुम्हारा निदान कर देते हैं कि यह तुम्हारी बीमारी है; अब तुम्हें सांत्वना खोजनी हो तो कहीं और जाओ।
तो महावीर उस मूर्ति-भंजक परंपरा के अंग हैं, जो उतनी ही प्राचीन है जितनी परंपरा। इसलिए स्वभावतः उस परंपरा-विरोधी परंपरा ने उन्हें अपना चौबीसवां तीर्थंकर घोषित किया। वस्तुतः उनके पहले के तेईस तीर्थंकरों में कोई भी उनकी महिमा का व्यक्ति नहीं था। वे बड़े महिमाशाली व्यक्ति थे, लेकिन महावीर की प्रगाढ़ता बड़ी गहरी है। इसलिए धीरे-धीरे ऐसी हालत हो गई कि तेईस तीर्थंकरों को तो लोग भूल ही गए। पश्चिम से जब पहली दफे लोग जैन-धर्म का अध्ययन करने पूरब आये तो उन्होंने यही समझा कि ये महावीर ही इस धर्म के जन्मदाता हैं। तो पुरानी सभी अंग्रेजी, जर्मन, फ्रेंच की किताबों में महावीर को जैन-धर्म का स्थापक कहा गया है। वे स्थापक नहीं हैं। वे तो अंतिम हैं, प्रथम तो हैं ही नहीं। लेकिन बाकी तेईस खो गए। महावीर की प्रतिभा ऐसी थी, ऐसी जाज्वल्यमान थी कि ऐसा लगने लगा, उन्हीं से जन्म हुआ है इस धर्म का। तेईस तो करीब-करीब पुराण-कथा हो गए; उनका कोई उल्लेख भी नहीं रहा। वे तो धूमिल कथा-कहानी के हिस्से हो गए, पुराण हो गए, इतिहास न रहे। ऐसा कभी-कभी होता है, जब बहुत प्रतिभाशाली व्यक्ति पैदा होता है तो वह चाहे बीच में पैदा हो, चाहे पहले हो, चाहे अंत में, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता--सभी चीजें उसके आसपास वर्तुलाकार चक्कर काटने लगती हैं।
आज तुम जिस जैन-धर्म को जानते हो, पक्का नहीं है कि ऋषभ का वही रहा हो, पार्श्वनाथ का वही रहा हो, नेमीनाथ का वही रहा हो, जरूरी नहीं है। आज तो तुम जिस जैन-धर्म को जानते हो, उसकी सारी रूप-रेखा महावीर ने दी है। वह रूप-रेखा इतनी गहन हो गई कि अब तुम उसी बात को ऋषभ में भी पढ़ लोगे, क्योंकि महावीर को तुमने समझ लिया है।
समझो कि जो मैं तुमसे कह रहा हूं महावीर के संबंध में, जरूरी नहीं कि महावीर उससे राजी हों। लेकिन अगर तुमने मुझे ठीक से समझा, तो फिर मैं तुम्हारा पीछा न छोड़ सकूंगा; फिर तुम जब भी महावीर को पढ़ोगे, तुम मुझे ही पढ़ोगे। जो मैं कह रहा हूं, वह तुम्हें सुनाई पड़ने लगेगा। अर्थ तुम्हारे भीतर प्रविष्ट हो जाये, तो बाहर के शब्दों में वही अर्थ दिखाई पड़ने लगता है।
महावीर इस क्रांतिकारी परंपरा में सबसे ज्यादा महिमावान, सबसे बड़े मेधावी व्यक्ति हुए। इसलिए उनके शब्द समझने जैसे हैं, विचार करने जैसे हैं, क्रांतिकारी तो अनूठे रहे होंगे; क्योंकि जैनों के दो संप्रदाय हैं--दिगंबर और श्वेतांबर। दिगंबर तो मानते हैं, महावीर का कोई भी वचन बचा नहीं, कोई शास्त्र बचा नहीं। यह भी क्रांति का हिस्सा है। वे कहते हैं, कोई शास्त्र महावीर का वचन नहीं। ये जो वचन हैं, यह श्वेतांबरों के संग्रह से लिये गये हैं। दिगंबरों के पास कोई संग्रह नहीं है। यह बड़े आश्चर्य की बात है कि दिगंबरों ने बचाया क्यों नहीं! यह भी उसी गहरी क्रांति का हिस्सा है। क्योंकि अगर बचाओ शब्दों को, तो आज नहीं कल वे शास्त्र बन जाएंगे। बचाओ तो शास्त्र आज नहीं कल वेद बन जाएंगे। इसलिए दिगंबरों ने तो महावीर के वचन बचाए ही नहीं। यह शास्त्र के प्रति बगावत की बड़ी अनूठी कहानी है। मानते हैं महवीर को, लेकिन कुछ शास्त्र नहीं बचाया है। व्यक्तिगत, गुरु से शिष्य को कहकर जो बातें आयी हैं, बस वही; उनको लिखा नहीं है।
और इसलिए कोई भी शास्त्र महावीर के संबंध में दिगंबरों के हिसाब से प्रामाणिक नहीं है। न शास्त्र बचाया कि कहीं उसके साथ परिग्रह न हो जाए, न इस तरह के कोई आश्वासन दिये कि महावीर को पूजोगे तो मोक्ष मिल जायेगा। स्वयं को जानोगे तो मोक्ष मिलेगा, महावीर की पूजा से नहीं। स्वयं को जगाओगे तो मोक्ष मिलेगा, महावीर की अनुकंपा से नहीं। कोई गुरुप्रसाद की जगह जैनों के पास नहीं है। क्योंकि वे कहते हैं, सत्य अगर किसी के प्रसाद से मिल जाये तो सस्ता हो गया। फिर तो सत्य भी वस्तु की तरह हो गया; किसी ने दे दिया; उधार हो गया। अपने जीवन को गलाओ। अपने जीवन को गला-गलाकर ही सत्य ढाला जायेगा। यह सत्य कहीं बाहर नहीं है कि कोई दे दे।
इसलिए यह समझ लेना जरूरी है कि महावीर को जब स्वीकार किया गया चौबीसवें तीर्थंकर की तरह, तो इसीलिए स्वीकार किया गया कि उनसे ज्यादा बगावती आदमी उस समय में कोई भी न था। और भी लोग थे। और भी दावेदार थे। क्योंकि क्रांति किसी की बपौती थोड़े ही है। जब महावीर जिंदा थे तो बड़े तूफान के दिन थे भारत में; बड़ी बौद्धिक जागृति का काल था; बड़े शिखर पर लोग, आकाश में परिभ्रमण कर रहे थे। जैसे आज अगर विज्ञान समझना हो तो कहीं पश्चिम में शरण लेनी पड़ेगी; उस दिन अगर धर्म का कोई भी रूप समझना था, तो भारत में शरण लेनी पड़ती। भारत के पास सभी धर्म की परंपराओं के बड़े जाग्रत पुरुष थे। और उन सभी के शिष्यों की आकांक्षा थी कि वे चौबीसवें तीर्थंकर की तरह घोषित हो जायें। प्रबुद्ध कात्यायन था, मक्खली गोशाल था, संजय विलेट्ठीपुत्त था, और भी लोग थे। अजित केशकंबली था। ये सभी बड़े महिमाशाली पुरुष थे। लेकिन इन सबके बीच से वह जो सर्वाधिक क्रांतिकारी था, महावीर, वह श्रमणों की परंपरा में चौबीसवां तीर्थंकर बना। बुद्ध भी थे।
बुद्ध की तो अलग ही परंपरा बन गई; अलग ही धर्म का जन्म हुआ। लेकिन यह सोचने जैसा है कि बुद्ध की मौजूदगी में भी क्रांतिकारियों की धारा ने महावीर को चुना था। महावीर की क्रांति बुद्ध से ज्यादा गहरी है। बहुत जगह बुद्ध थोड़ा समझौता करते मालूम पड़ते हैं; ज्यादा व्यवहारिक हैं। महावीर बिलकुल अव्यवहारिक हैं। क्रांतिकारी सदा अव्यवहारिक रहा है। उसके पैर जमीन पर नहीं होते, आकाश में होते हैं। वह आकाश में उड़ता है।
कुछ उदाहरण के लिए समझना जरूरी है। बुद्ध के पास स्त्रियां आयीं, दीक्षा के लिए, तो बुद्ध ने इनकार कर दिया। यह समझौता था। यह थोड़ा भय था। यह इस बात का भय था कि ऐसा तो कभी नहीं हुआ कि स्त्री और पुरुष साथ-साथ संन्यासी हों और साथ-साथ रहें। बुद्ध को भय लगा, इससे तो कहीं ऐसा न हो जाये कि धर्म नष्ट हो जाये! कहीं स्त्री-पुरुषों का साथ रहना कामवासना के ज्वार के पैदा होने का कारण न बन जाये! कहीं स्त्रियां पुरुषों को भ्रष्ट न कर दें। तो वह जो स्त्रियों के प्रति पुरुषों का पुराना भय है, कहीं न कहीं बुद्ध के मन में उसकी छाया थी। उन्होंने इनकार किया। वे वर्षों तक इनकार करते रहे कि स्त्री को मैं संन्यास न दूंगा; क्योंकि स्त्री को संन्यास देने से खतरा है।
महावीर के सामने भी सवाल उठा। वे तत्क्षण संन्यास दे दिये। उन्होंने एक बार भी यह सवाल न उठाया कि स्त्री को संन्यास देने से कोई खतरा तो न होगा! क्रांतिकारी खतरे को मानता ही नहीं; बल्कि जहां खतरा हो वहां जानकर जाता है। उन्होंने यह खतरा स्वीकार कर लिया। उन्होंने कहा, जो होगा ठीक है। फिर बुद्ध ने मजबूरी में, बहुत दवाब डाले जाने पर, वर्षों के बाद जब स्त्रियों को दीक्षा भी दी तो उन्होंने तत्क्षण कहा कि अब मेरा धर्म पांच सौ वर्ष से ज्यादा न जीयेगा; यह मैंने अपने हाथ से ही बीज बो दिया अपने धर्म के नष्ट होने का। और बुद्ध का धर्म पांच सौ वर्ष के बीच नष्ट भी हो गया भारत से। और कारण वही सिद्ध हुआ जो बुद्ध ने माना था; जो भय था वह सही साबित हुआ। क्योंकि जब स्त्री-पुरुष पास-पास रहे तो विराग तो दूर हो गया, वैराग्य तो दूर हो गया, राग-रंग शुरू हुआ। राग-रंग ने नये रास्ते खोज लिये, नयी तर्क की व्यवस्थाएं खोज लीं। तंत्र का जन्म हुआ। बुद्ध-धर्म समाप्त हो गया।
लेकिन महावीर का धर्म अब भी जीता है, अब भी जीता-जागता है। स्त्रियों को समाविष्ट कर लिया, धर्म नष्ट न हुआ। बड़ा क्रांतिकारी भाव रहा होगा। महावीर नग्न खड़े हो गए। कोई जैनों में भी परंपरा न थी नग्न होने की। आज तो तुम जाकर देखोगे दिगंबर जैन मंदिरों में तो चौबीस ही जैनों की प्रतिमाएं नग्न हैं। वह महावीर ने परिभाषा दे दी। वे तेईस नग्न थे नहीं, महावीर ही नग्न हुए थे। बाकी तेईस तो वस्त्रधारी ही थे। इसलिए अगर श्वेतांबरों और दिगंबरों के विवाद में निर्णय करना हो तो बहुमत श्वेतांबरों के पक्ष में होगा, क्योंकि चौबीस तीर्थंकरों में तेईस वस्त्रधारी थे, और एक ही निर्वस्त्र था। तो अगर निर्णय ही करना हो तो तेईस की तरफ ध्यान करके करना चाहिए, सीधा लोकतांत्रिक हिसाब है। लेकिन महावीर का प्रभाव इतना महिमाशाली हुआ कि जिनके वस्त्र थे उनकी प्रतिमाओं से भी वस्त्र उतर गए। क्योंकि फिर ऐसा लगने लगा, अगर महावीर नग्न हैं और पार्श्वनाथ वस्त्र पहने हुए हैं तो पार्श्वनाथ ओछे मालूम पड़ेंगे, छोटे मालूम पड़ेंगे: इतना भी त्याग न कर पाये! नग्नता कसौटी हो गई।
ऐसा सदा हुआ है। जो सर्वाधिक महिमाशाली है वह कसौटी बन जाता है। फिर उसके पीछे इतिहास भी बदल जाता है। अतीत भी बदल जाता है; क्योंकि अतीत के संबंध में हमारे दृष्टिकोण बदल जाते हैं। नग्न खड़े हो जाना बड़ा क्रांतिकारी मामला था, क्योंकि नग्नता सिर्फ नग्नता नहीं है। इसका तुम अर्थ समझो।
नग्न होने का अर्थ है: समाज का परिपूर्ण अस्वीकार; समाज की धारणाओं की परिपूर्ण उपेक्षा। तुम अगर चौरस्ते पर नग्न खड़े हो जाओ तो उसका अर्थ यह होता है कि तुम दो कौड़ी कीमत नहीं देते कि लोग क्या सोचते हैं, कि लोग अच्छा सोचते हैं कि बुरा सोचते हैं, कि लोग तुम्हारे संबंध में क्या कहेंगे! हमारे पास शब्द है भाषा में--किसी को गाली देनी हो तो हम कहते हैं "नंगा-लुच्चा'--वह महावीर से पैदा हुआ। नग्न वे थे और बाल लोंचते थे, इसलिए लुच्चा। पहली दफा महावीर को ही लोगों ने नंगा-लुच्चा कहा; क्योंकि वे नग्न खड़े होते थे और बाल भी काटते न थे। जब बाल बढ़ जाते थे तो हाथ से उनका लोंच करते थे।
तुमने कभी सोचा न होगा कि आखिर नंगे को लुच्चा क्यों कहते हैं! लुच्चे का क्या संबंध है? फिर तो धीरे-धीरे लुच्चा शब्द अलग भी उपयोग होता है। अब तुम कहते हो, फलां आदमी बड़ा लुच्चा है। लेकिन तुम यह नहीं पूछते कि उसने लोंचा क्या है! महावीर के साथ पैदा हुआ शब्द है--गाली की तरह पैदा हुआ, निश्चित ही समाज बहुत नाराज हुआ होगा, बहुत क्रुद्ध हुआ होगा। इस आदमी ने सारे हिसाब तोड़ दिये।
वस्त्र सिर्फ वस्त्र थोड़े ही हैं, समाज की सारी धारणा है। वस्त्रों में छिपे हुए समाज का सारा संस्कार, उपचार, शिष्टाचार, सभ्यता, सब है। नग्न को हम असभ्य कहते हैं। आदिवासी हैं, नग्न रहते हैं, उनको हम असभ्य कहते हैं, आदिम कहते हैं। क्यों? क्यों असभ्य? क्योंकि अभी उन्हें इतनी भी समझ नहीं कि अपने शरीर को ढांकें, छिपाएं; जानवरों की तरह हैं; पशुओं की तरह हैं। आदमी और जानवर में जो बड़े-बड़े फर्क हैं, उनमें एक फर्क यह भी है कि आदमी कपड़े पहनता है। आदमी अकेला पशु है जो कपड़े पहनता है। बाकी सभी पशु नग्न हैं। तो महावीर जब नग्न हुए उन्होंने कहा कि संस्कृति नहीं, प्रकृति को चुनता हूं; सभ्यता को नहीं, आदिम-स्वभाव को चुनता हूं। और जो भी दांव पर लगती हो इज्जत, पद-प्रतिष्ठा, वह सब दांव पर लगा देता हूं। आज से पच्चीस सौ साल पहले वैसी हिम्मत बड़ी कठिन थी; आज भी कठिन है। आज भी नग्न खड़े होने पर अड़चनें खड़ी हो जायेंगी, तत्क्षण पुलिस ले जायेगी, अदालत में मुकदमा चलेगा।
दिगंबर जैन मुनि को किसी गांव से गुजरना हो तो पुलिस को खबर करनी पड़ती है। और जब दिगंबर जैन मुनि, नग्न मुनि गुजरता है, तो उसके शिष्यों को उसके चारों तरफ घेरा बनाकर चलना पड़ता है ताकि उसकी नग्नता कुछ तो ढंकी रहे।
दिगंबर जैन मुनि खोते चले गए हैं, एक दर्जन से ज्यादा नहीं हैं अब। क्योंकि बड़ा कठिन मामला है। वह नग्नता ही उपद्रव है। फिर सारे समाज की व्यवस्था को जड़-मूल से इनकार करना, तो समाज भी प्रतिरोध करता है, बदला लेता है, नाराज हो जाता है।
 प्रथम तीर्थंकर का उल्लेख तो ऋग्वेद में है; लेकिन महावीर का उल्लेख किसी हिंदू-ग्रंथ में नहीं है। निश्चित ही महावीर अति क्रांतिकारी रहे। इतने क्रांतिकारी रहे कि उनका उल्लेख करने तक की हिम्मत हिंदू-शास्त्रों ने नहीं की है। इस आदमी का नाम लेना भी खतरनाक मालूम हुआ है।
तो क्रांतिकारियों की जो परंपरा है, उस परंपरा ने अगर महावीर को चौबीसवां तीर्थंकर स्वीकार किया, स्वाभाविक था यह।
 यह भी समझ लेना जरूरी है कि महावीर के पहले तक जैन-धर्म कोई अलग धर्म न था। वह चिंतकों की एक धारा थी, लेकिन कोई अलग धर्म न था। महावीर के साथ ही चिंतकों की धारा सघन हुई; उसने रूप लिया, संगठन बनी, संघ बनी और हिंदू परंपरा से अलग होकर चलने लगी।
पार्श्वनाथ या ऋषभदेव एक अर्थ में हिंदू ही थे--वैसे ही जैसे जीसस यहूदी थे। महावीर भी जब जिंदा थे तो करीब-करीब हिंदू थे। लेकिन महावीर ने जो प्रगाढ़ता से क्रांति को रूप दिया, वह इतना प्रबल हो गया, इतना साफ हो गया कि उसे फिर हिंदू-धारा में सम्मिलित रखना मुश्किल हो गया। वह अलग ही टूट गई धारा।
यहां तुम सोचो, बुद्ध महावीर के समकालीन थे। बुद्ध को श्रमणों की परंपरा ने अपना चौबीसवां तीर्थंकर स्वीकार नहीं किया; महावीर को किया। हिंदुओं ने बुद्ध को अपना दसवां अवतार स्वीकार किया; महावीर के नाम का उल्लेख भी नहीं किया। क्या मामला है? बुद्ध अभी भी स्वीकार किये जा सकते थे। थोड़े बगावती थे, लेकिन डोर बिलकुल न तोड़ दी थी; फिर भी बंधे थे। महावीर ने बिलकुल ही डोर तोड़ दी, खूंटी उखाड़ ली; बाहर खड़े हो गए खुले आकाश में।
महावीर सभी तरह से मनुष्य को विशाल करना चाहते हैं।
नजर को वुसअत नसीब होगी
हदों से निकलेगा जब तखैय्युल
हरम भी ऐ शेख! सतहे-बीं, सुन
मकान है, ला-मकां नहीं है।
तभी विशालता आत्मा को उपलब्ध होती है। जब कल्पना के ऊपर से भी सारी जंजीरें हट जाती हैं। जब तुम्हारा सोच-विचार मुक्त होता है तभी तुम्हारी आत्मा भी विशाल होती है।
नजर को वुसअत नसीब होगी--तभी तुम्हारी दृष्टि विशाल बनेगी, जब उसके ऊपर किसी तरह के बंधन न रह जाएं--न शास्त्र के, न अतीत के, न सदगुरुओं के।
हरम भी ए शेख! सतहे-बीं, सुन
मकान है, ला-मकां नहीं है।
ये मंदिर, ये मस्जिद, ये पूजागृह भी, सुन! ये भी संकीर्ण हैं! मकान हैं, ला-मकां नहीं हैं।
और हमें एक ऐसी जगह चाहिए जहां कोई सीमा न हो, ला-मकां; जहां कोई सीमा न रोकती हो। नजर को वुसअत नसीब होगी--और तब तेरी दृष्टि विशाल होगी।
तो महावीर ने अत्यंत विशाल दृष्टि दी है। लेकिन जब अत्यंत विशाल दृष्टि होगी, तो सभी की दृष्टियों के विपरीत पड़ जायेगी। संकीर्ण दृष्टि के साथी मिल जाएंगे; विशाल दृष्टि के साथी नहीं मिलते। अब अगर मैं कृष्ण की ही महिमा गाऊं तो हिंदू मेरे साथ हो जाएंगे; लेकिन उनकी शर्त है कि फिर महावीर की बात मत उठाना। अगर मैं महावीर के ही गीत गुनगुनाऊं, तो जैन मेरे साथ हो जाएंगे; लेकिन उनकी शर्त है, अब कृष्ण को बीच में मत लाना।
अगर तुम संकीर्ण हो तो तुम्हें किसी न किसी का साथ मिल जायेगा, क्योंकि संकीर्ण लोग चारों तरफ मौजूद हैं। मुझसे जैन भी नाराज हो जाता है, क्योंकि मैंने कृष्ण की बात की; मुझसे हिंदू भी नाराज हो जाता है, क्योंकि मैंने महावीर की बात की; मुझसे बौद्ध नाराज हो जाता है कि क्यों मैंने महावीर की चर्चा की; मुझसे जैन नाराज हो जाता है कि बुद्ध की बात क्यों उठाई!
मुझसे तो साथ-संग वही दे सकता है जिसकी नजर संकीर्ण न हो। और मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं कि मैं परंपरा के भी पक्ष में हूं और क्रांति के भी पक्ष में हूं। तब और अड़चन हो जाती है। तब परंपरावादी मुझसे नाराज हो जाता है कि क्रांति की तुम बात करते हो; और क्रांतिवादी नाराज हो जायेगा कि तुम परंपरा की बात करते हो। लेकिन मैं असल में चाहता हूं कि तुम्हारी नजर पर कोई भी सीमा न रह जाये; तुम्हारी सब सीमाएं टूट जाएं; तुम विशाल हो जाओ; तुम खुले आकाश के नीचे खड़े हो जाओ; कोई घेरा न रहे! बड़े से बड़ा घेरा भी आखिर घेरा है। और आत्मा का तभी जन्म होता है जब तुम्हारी दृष्टि सभी दृष्टियों से मुक्त हो जाती है। उस अवस्था को महावीर ने सम्यक दृष्टि कहा है--जब कोई दृष्टि नहीं पकड़ती।
इसलिए महावीर ने अपने विचार-दर्शन को अनेकांत कहा है। अनेकांत का अर्थ होता है: जिसने कोई एकांतिक दृष्टि नहीं पकड़ी। महावीर ने जिस दर्शन को जन्म दिया, उसका नाम स्यातवाद है। तुम महावीर से कुछ पूछो तो वे सात भंगियों में उत्तर देते हैं। तुम उनसे पूछो, ईश्वर है? तो वे कहते हैं, है; और तत्क्षण कहते हैं, नहीं है। और वे कहते हैं, दोनों है, और कहते हैं दोनों नहीं है। और ऐसा उत्तर देते चले जाते हैं। सात दृष्टियां हो सकती हैं ईश्वर के बाबत, वे सातों दृष्टियों का एक साथ उपयोग करते हैं। वे तुम्हें कोई जगह नहीं देना चाहते। तुमने पूछा, ईश्वर है? महावीर कहते हैं, है। इसके पहले कि तुम उठो और सोचो कि बस फैसला हो गया, वे कहते हैं रुको, नहीं है। तुम सोचोगे, चलो यह भी ठीक है--नहीं है तो भी बात साफ हो गई। उठने लगे, वे कहते हैं, बैठो, दोनों है, है भी और नहीं भी। अब तुम जरा अड़चन में पड़े। लेकिन वे अभी भी नहीं रुकते, वे बढ़ते ही चले जाते हैं। कहते हैं, दोनों है। चौथा उनका उत्तर है, दोनों नहीं है। और ऐसा सात भंगियों में--सप्त-भंग!
कौन राजी होगा इस आदमी से? क्योंकि तुम चाहते हो, कुछ बंधी हुई लकीर मिल जाये। लेकिन महावीर कहते हैं, सभी बंधी लकीरें, सभी संकीर्णताएं उस परम सत्य को प्रगट नहीं कर पातीं। एक अर्थ में वह है और एक अर्थ में नहीं है।
जैसे कोई तुमसे पूछे, शून्य है? क्या कहोगे? एक अर्थ में है; अगर कहो कि नहीं है तो पूरा गणित गिर जायेगा। एक अर्थ में है। और एक अर्थ में नहीं है, क्योंकि शून्य का मतलब ही होता है कि जो नहीं है। और अगर दोनों बातें एक साथ सच हैं तो फिर तीसरी बात भी ठीक है कि दोनों है। लेकिन दोनों बातें एक साथ सच कैसे हो सकती हैं? कोई चीज या तो होती है या नहीं होती। तो महावीर कहते हैं, दोनों असत्य भी हैं। ऐसा वे बढ़ते चले जाते हैं। और प्रत्येक वक्तव्य के साथ वे स्यात लगाते हैं, परहैप्स। यह बड़ी अनूठी बात है। वे कहते हैं, स्यात।
तुम सुनने आते हो कोई मत। तुम अनिश्चित हो। तुम्हें पता नहीं, क्या है, क्या नहीं है। तुम चाहते हो, कोई आदमी जो टेबिल ठोककर कह दे कि हां, ईश्वर है। और इतने जोर से कहे कि तुम घबड़ा जाओ और मान लो। लेकिन महावीर कहते हैं, स्यात; वे तुम्हें सांत्वना नहीं देते। वे कहते हैं, हो भी सकता है, न भी हो। इसमें कोई झिझक नहीं है।
अनेकों को ऐसा लगेगा, शायद महावीर को पता नहीं है। कहते हैं "शायद'? लेकिन महावीर को पता है, इसलिए कहते हैं स्यात। क्योंकि जो पता है वह इतना बड़ा है कि उसके संबंध में कोई भी वक्तव्य एकंागी हो जाता है। उसके संबंध में सभी वक्तव्य एक साथ ही सार्थक हो सकते हैं। तब एक वक्तव्य दूसरे वक्तव्य को काटता जाता है। तुम्हारे पास कुछ सिद्धांत नहीं बचता, आखिर में तुम ही बचते हो। तुम्हारी बुद्धि के पास कोई दृष्टिकोण नहीं बचता, केवल देखने की क्षमता बचती है।
इससे बड़ी क्रांति कभी घटी नहीं। इसलिए क्रांतिकारियों ने अगर महावीर को अपना चौबीसवां तीर्थंकर स्वीकार किया तो कुछ आश्चर्य नहीं है। तुम्हें अड़चन होती है सोचने में कि क्रांति, मूर्ति-भंजन और उसमें भी फिर चौबीसवें तीर्थंकर! क्योंकि तुमने सोचा है और समझा है अब तक कि क्रांति कोई नई चीज है। क्रांति और परंपरा ऐसे हैं, जैसे तुम्हारे दो पैर। सभी क्रांतियां अंततः परंपरा बन जाती हैं और सभी परंपराएं प्रारंभ में क्रांतियां थीं। क्रांति परंपरा का पहला कदम है और परंपरा क्रांति की अंतिम दशा है।
कृष्णमूर्ति कुछ कहते हैं, वचन क्रांतिकारी हैं--परंपरा बनने लगे। कृष्णमूर्तिवादी आदमी पैदा हो गया है। कृष्णमूर्ति कहते हैं, कोई गुरु नहीं। उनका माननेवाला भी कहता है, कोई गुरु नहीं। लेकिन मेरे पास उनके माननेवाले आ जाते हैं। वे कहते हैं, कोई गुरु नहीं। मैंने कहा, तुमने यह सीखा कहां? वे कहते हैं, उनके चरणों में बैठकर सीखा है। तो वे तुम्हारे गुरु हो गए। तुम यह स्वयं के बोध से दोहरा रहे हो कि कोई गुरु नहीं? यह भी तुमने सीख लिया है। और जहां सीखना हो गया, वहां गुरु आ गया। कृष्णमूर्तिवादी भी अपने पक्ष की तर्कणा करता है, विचारणा करता है, सिद्ध करने के लिए प्रमाण देता है, वाद-विवाद करता है। बचना मुश्किल है।
क्रांति ऐसे ही है जैसे जन्म--और जब जन्म हो गया तो मौत भी होगी। अब तुम लाख उपाय करो बचने के; अगर बचना था तो जन्मना ही नहीं था। वहीं भूल हो गई। अब कुछ किया नहीं जा सकता। मरना तो पड़ेगा ही।
आगे खयाल रखना, जन्मना मत। इसलिए जिसको मौत से बचना हो उसे जन्म से बचना चाहिए।
कहते हैं, डायोज़नीज़ को किसी ने पूछा कि दुनिया में सबसे बेहतर बात कौन-सी है। उसने कहा, बेहतर बात तो है पैदा न होना। उस आदमी ने कहा, खैर अब यह तो हो ही नहीं सकता, हम हो ही गए पैदा--नंबर दो क्या? उसने कहा, नंबर दो--जितनी जल्दी मर सको मर जाना। पैदा न होते, कोई झंझट न होती; मर गए, फिर झंझट मिट गई।
क्रांति जन्म है। मगर जब क्रांति हो गई तो मौत भी होगी। क्रांति परंपरा बनेगी। यही तो तुम देख रहे हो। ये जो सारे धर्म तुम्हें पृथ्वी पर दिखाई पड़ते हैं, क्या तुम सोचते हो, ये पहले ही क्षण से परंपरा थे? पहले क्षण में तो ये क्रांति की तरह उठे थे। फिर सम्हल गए, संगठित हो गए, व्यवस्थित हो गए; अराजकता खो गई, ज्योति खो गई। फिर सब बात बंद हो जाती है। फिर धीरे-धीरे सब समाप्त हो जाता है।
जैन-धर्म अब एक परंपरा है। बुद्ध-धर्म एक परंपरा है। सिक्ख-धर्म अब एक परंपरा है। नानक के साथ क्रांति थी, बड़ी बगावत थी। फिर खो गई बात। फिर धीरे-धीरे राख जम गई। सभी चीजों पर राख जम जायेगी, क्योंकि यह जीवन का नियम है। इसलिए क्रांति को फिर-फिर करते रहना पड़ता है और धर्म को पुनः पुनः जन्म देना पड़ता है। लेकिन कोई भी व्यक्ति धर्म को जन्म देते वक्त यह न सोचे कि उसका धर्म अपवाद होगा। असंभव है। अपवाद कोई भी नहीं हो सकता। जो पैदा हो रहा है, वह मरेगा। फिर नये धर्मों की जरूरत रहेगी।
अब यहां भी थोड़ा सोचने जैसा है। जब धर्म क्रांतिकारी होता है तब अलग तरह के लोगों को आकर्षित करता है--क्रांतिकारियों को, बगावतियों को, विद्रोहियों को। फिर धीरे-धीरे जैसे-जैसे धर्म स्थापित होने लगता है, ऐस्टेब्लिश होने लगता है, फिर वह क्रांतिकारियों को आकर्षित करना तो दूर, अगर वे पैदा हो जायें तो उन्हें निकाल बाहर करता है, क्योंकि वे खतरा करने लगते हैं।
अब यह एक बड़ा विरोधाभास है। अगर जैन-धर्म में फिर महावीर पैदा हो जायें तो जैनी उन्हें निकाल बाहर कर देंगे, बर्दाश्त न करेंगे। अगर जीसस फिर पैदा हो जायें ईसाई घर में तो अब की बार फिर सूली लगेगी--अब की बार ईसाई लगाएंगे। पिछली बार यहूदियों ने लगाई थी, क्योंकि उन्होंने यहूदी-घर में पैदा होने की गलती की थी। किसी और ने नहीं लगाई, यहूदियों ने लगाई थी।
और यहूदी बड़े क्रांतिकारी थे अपने प्रथम चरण में। मूसा बड़े क्रांतिकारी हैं। यहूदियों की मुक्ति, इजिप्त से उनका छुटकारा, नए जीवन और जगत की खोज, नए समाज की पूरी की पूरी अंतरचिंतना और उसकी नींव मूसा ने भरी।
लेकिन उसी घर में, उसी कुल में, उसी परंपरा में आता है जीसस, और जीसस वही करना चाहता है जो मूसा ने किया था; लेकिन मूसा के माननेवाले बरदाश्त न करेंगे, क्योंकि यह फिर उखाड़ डालेगा।
कहीं भी तुम पैदा हो जाओ, अगर तुमने नये धर्म की चिंतना की--और धर्म सदा ही नया है, क्रांति उसकी शुरुआत है--तो तुम निकाल बाहर किये जाओगे। हां, तुम्हारे आसपास एक नया धर्म निर्मित हो जायेगा। जल्दी ही तुम्हारे बच्चे वहां भी क्रांति न चलने देंगे। वहां भी जब कोई क्रांतिकारी पैदा होगा, उसे निकाल बाहर किया जायेगा। यह क्रांतिकारी का भाग्य है कि सूली पर लटके। और यह सभी धर्मों की नियति है कि क्रांति की तरह पैदा हों, परंपरा की तरह सड़ जाएं।

दूसरा प्रश्न:

कल आपने समझाया कि महावीर ने बड़ी कुशलता से, बड़ी अहिंसा के साथ ईश्वर, पूजा, प्रार्थना, प्रेम आदि शब्दों का इनकार किया। उसके पहले भी आपने बताया था कि उन्होंने शरण और भक्ति का भी इनकार किया। कृपया समझाएं कि तब उनका स्वयं एक सदगुरु, तीर्थंकर बनना व शिष्यों को दीक्षा व आशीर्वाद देना क्या उनके ही सिद्धांत के विपरीत नहीं है?

हली बात--महावीर तीर्थंकर हैं, सदगुरु नहीं। सदगुरु भक्तों का शब्द है। इसलिए महावीर के लिए सदगुरु शब्द का उपयोग मत करना। और तीर्थंकर का बड़ा अलग अर्थ होता है। सदगुरु का बड़ा अलग अर्थ होता है।
सदगुरु का अर्थ होता है: जो तुम्हारा हाथ पकड़ ले; जैसे बाप बेटे का हाथ पकड़ लेता है और ले चलता है। और बेटा अपनी सारी श्रद्धा बाप को दे देता है; वह जानता है कि हम ठीक जा रहे हैं--चाहे बाप खतरे में भी जा रहा हो, भयंकर जंगल से गुजर रहा हो। बाप डरता हो तो डरता रहे, बेटा मस्ती से चलता है। बाप के हाथ में हाथ है, अब और क्या चाहिए! बेटा आनंदित होकर देखता है जंगल। वह हजार प्रश्न उठाता है। बाप कहता है, चुप रहो! बाप घबड़ा रहा है। बाप अकेला है। बेटे को क्या फिक्र है! जब बाप साथ है तो सब बात हो गई।
सदगुरु का अर्थ होता है: समर्पण किसी के प्रति; उसके हाथ में हाथ दे देना, बस। फिर भक्त कहता है, अब हम छोटे बच्चे की तरह हो गए; अब तुम्हें जहां ले चलना हो ले चलो; हम शिष्य हो गए।
तीर्थंकर का बड़ा अलग अर्थ है। तीर्थंकर तुम्हारे हाथ को अपने हाथ में नहीं लेता। तीर्थंकर तुम्हें सहारा नहीं देता। तीर्थंकर शब्द का अर्थ होता है: तीर्थ बनानेवाला, घाट बनानेवाला। नदी के किनारे घाट बना देता है, फिर जिसकी मौज हो उस घाट से उतर जाये। लेकिन वह तुम्हें इस नाव में बिठाकर ले नहीं जाता। वह माझी नहीं है। वह तुम्हें नाव में बिठाकर उस पार नहीं ले जाता, न वह तुम्हारा हाथ पकड़कर नदी में तैराता है। वह सिर्फ घाट बना देता है।
तीर्थ का अर्थ होता है: घाट। तीर्थंकर का अर्थ होता है: जिन्होंने घाट बनाये। तो सुगम कर देता है उतरना, लेकिन हाथ पकड़कर उतारता नहीं। ऊबड़-खाबड़ जंगल पहाड़ में उतरना मुश्किल होता है। वह घाट बना देता है। वह सब व्यवस्थित कर देता है। ठीक जगह--जहां से दूसरा किनारा करीब से करीब है, ऐसी जगह, जहां जलधार बहुत खतरनाक नहीं है; ऐसी जगह, जहां जलधार छिछली है, तुम चलकर भी पार हो सकोगे; ऐसी जगह, जहां कम से कम डूबने का भय है--वह घाट बना देता है। वह घाट के ऊपर सारे नक्शे रख देता है कि बाएं जाओ कि दाएं जाओ, कि कितने कदम चलने पर पानी गहरा होगा और कितने कदम चलने पर दूसरा किनारा करीब आ जायेगा। वह दूसरे किनारे का वर्णन कर देता है। वह सारी बात कर देता है, घाट निर्मित कर देता है, सारे उपकरण यात्रा के मौजूद कर देता है--बस, वहीं छोड़ देता है। फिर तुम जाओ, यात्रा तुम्हीं को करनी है।
तीर्थंकर सदगुरु नहीं है। तीर्थंकर से तुम्हारा कोई व्यक्तिगत संबंध नहीं है। तीर्थंकर से तुम्हारा बड़ा अव्यक्तिगत संबंध है। महावीर के पास तुम जाओ तो तुम्हारा जो प्रेम महावीर के प्रति है वह एकतरफा है। तुम्हारा होगा। महावीर तो कहते हैं, उसे भी छोड़ो, क्योंकि वह भी बंधन बनेगा। महावीर का तो बिलकुल नहीं है। तुम भला अपनी कल्पना से सोचते होओ कि हम दीवाने हैं महावीर के, लेकिन महावीर तुम्हारे दीवाने नहीं हैं। तुम चले जाओगे तो वे बैठकर रोएंगे नहीं कि कहां खो गया।
भक्त और सदगुरु की बात अलग है। जीसस ने कहा है: सदगुरु ऐसा है...वह धारणा है पैगंबर की, सदगुरु की, कि जैसे गडरिये की कोई भेड़ भटक जाये। सांझ हो गई, सारी भेड़ें आ गईं, लेकिन एक भेड़ जंगल में भटक गई, तो सारी भेड़ों को खतरे में छोड़कर वह उस एक भेड़ की तलाश में जाता है। वह जंगल में उतरता है फिर अंधेरी रात में, चिल्लाता है, पुकारता है। जब भेड़ को खोज लेता है तो उसे कंधे पर रखकर लौटता है। भटकी भेड़ को कंधे पर रखकर लौटता है। और भटकी भेड़ के लिए जो भेड़ें साथ थीं, उनको खतरे में छोड़ जाता है। इस बीच जंगली जानवर हमला भी कर सकते हैं!
यह ईसाइयों की मसीहा की धारणा है, सदगुरु की। उसका संबंध वैयक्तिक है। वह तुम्हारी तरफ व्यक्तिगत ढंग से सोचता-विचारता है। तीर्थंकर निर्वैयक्तिक है। वह सिर्फ सिद्धांत बता देता है। वह कहता है, दो और दो चार होते हैं, तुम जोड़ लो। गणित बता दिया, नियम बता दिया, अब तुम कर लो हल। इससे ज्यादा उसका कोई संबंध नहीं है।
अगर तुम चले जाओ, खो जाओ, तो तुम्हारे लिए बैठकर रोता नहीं और न बीहड़ में तुम्हें चिल्लाता हुआ आता है। क्योंकि तीर्थंकरों की धारणा ऐसी है। वे कहते हैं, जिसे भटकना है वह भटकेगा। जब अपने ही भटकने से ऊब न जायेगा, तब तक भटकेगा। और अगर कोई भटकना ही चाहता है तो उसे न भटकने देना उचित नहीं है, उसकी स्वतंत्रता में बाधा है। अब इस बात का भी मूल्य है।
जीसस की बात भी समझ में आती है कि जो जाग गया है, वह उसको सहारा दे जो सोया है। महावीर की बात भी समझ में आती है। वे कहते हैं, सहारा देना एक बात है; लेकिन वह सहारा न चाहता हो तो उस पर सहारा थोपना बिलकुल दूसरी बात है। इसलिए वे उपदेश देते हैं, आदेश नहीं देते। वे मार्ग दिखा देते हैं, फिर यह भी नहीं कहते कि चलो, उठो। फिर तुम्हें झिझकारते नहीं हैं, तुम्हें सोए से उठाते नहीं, तुम्हारे सपने को तोड़ते नहीं। वे कहते हैं, अगर तुम्हारी यही मर्जी है तो तुम्हारी वैयक्तिक स्वतंत्रता है। वे तुम्हारी वैयक्तिक स्वतंत्रता को सम्मान देते हैं। अगर तुमने भटकना तय किया है तो यही तुम्हारी नियति है, अभी और भटको; जब तुम्हें समझ में आ जाये तब लौट आना। इसका मतलब यह हुआ: वे तुम्हें भेड़-बकरी नहीं मानते, तुम्हें मनुष्य मानते हैं। तब तुम्हें समझ में आयेगी बात कि उनकी बात का भी बल है। वे कहते हैं, तुम कोई भेड़ थोड़े ही हो कि हम तुम्हें उठाकर कंधे पर ले आएं। तुम मनुष्य हो! तुम्हारे भीतर परमात्मा छिपा है। और अगर तुम्हारे परमात्मा ने यही अभी तय किया है कि अभी और थोड़ा झेलना है दुख, और थोड़ा जीना है नर्क, तो कौन तुम्हें रोक सकता है! तुम्हारे ऊपर कोई भी नहीं है, तुम अंतिम हो। मुझे कुछ मिला है, वह मैं कह देता हूं; उपयोग करना हो कर लेना, न करना हो न कर लेना। ऐसा निर्वैयक्तिक संबंध है।
इसलिए पहली बात--तीर्थंकर सदगुरु नहीं है। दूसरी बात--तीर्थंकर दीक्षा तो देता है, आशीर्वाद नहीं देता। आशीर्वाद सदगुरु देता है। आशीर्वाद का अर्थ है: मेरी शुभाकांक्षा तुम्हारे साथ है। न, महावीर बिलकुल निर्वैयक्तिक हैं। वे कहते हैं, मेरी शुभाकांक्षा क्या करेगी? नर्क का रास्ता शुभाकांक्षाओं से पटा पड़ा है। तुम्हारा होश काम आएगा, मेरी शुभाकांक्षा थोड़े ही! और वे कहते हैं, कहीं तुम्हारे मन में ऐसा भरोसा आने लगे जैसा कि काहिलों और सुस्तों को आ जाता है--किसी के आशीर्वाद से सब हो जायेगा--तो वे वैसे ही मर रहे थे और मर जाते। वे वैसे ही डूब रहे थे, वे और हाथ-पैर तड़फड़ाना छोड़ देते हैं। वे कहते हैं, अब आशीर्वाद मिल गया, अब सब ठीक है।
महावीर कहते हैं, ऐसी झूठी बातों के लिए मेरे पास मत आना। दीक्षा देते हैं। दीक्षा का अर्थ है: इनिसिएशन। दीक्षा का अर्थ है: वे तुम्हें बता देते हैं, जो उन्हें हुआ है। वे कहते हैं, यह रहा रास्ता। ज्योति फेंक देते हैं रास्ते पर। दीक्षा का तो अर्थ है, उदघाटन कर देते हैं एक द्वार का। जिस द्वार से वे प्रवेश किए हैं, वह द्वार तुम्हें भी इंगित कर देते हैं, कि वो रहा। आशीर्वाद का अर्थ है कि वे तुम्हारे लिए प्रार्थना करते हैं। आशीर्वाद का अर्थ है कि वे मंगल कामना करते हैं। आशीर्वाद का अर्थ है कि तुम्हारी यात्रा में वह भी सम्मिलित हैं। नहीं, तीर्थंकर आशीर्वाद नहीं देते। ये अलग-अलग परंपराओं के शब्द हैं, इनका अलग-अलग अर्थ समझ लेना जरूरी है, अन्यथा बड़ी भ्रांति पैदा होती है।
पहली दफा मैं बंबई निमंत्रित हुआ, कई वर्ष पहले--एक महावीर जयंती पर। मेरे पहले, एक जैन मुनि बोले तो मैं तो बहुत चकित हुआ, क्योंकि उन्होंने जो बातें कहीं, वे बिलकुल अ-जैन थीं। उन्होंने कहा महावीर का जन्म हुआ जगत के कल्याण के लिए। ऐसा जैनी मुनि कहते हैं। जैनी भी कहते हैं। उनको पता नहीं कि वे क्या कह रहे हैं। यह तो हिंदू-भाषा है। कृष्ण का जन्म हुआ जगत के कल्याण के लिए। यह समझ में आ जाता है। यदाऱ्यदा हि धर्मस्य...जब-जब होगी धर्म को अड़चन, तब तब आऊंगा...युगेऱ्युगे। यह ठीक है। अवतार की भाषा तो बिलकुल ठीक है कि जब जरूरत होगी मेरी, मैं आऊंगा, तुम फिक्र मत करना। जब अंधेरा होगा तब आऊंगा दीया लेकर। जब जाल फैलेगा घृणा का और हिंसा का, तब आऊंगा तुम्हें उठाने। और हमेशा-हमेशा, तुम भरोसा कर सकते हो।
लेकिन तीर्थंकर ऐसी भाषा नहीं बोलते। तीर्थंकर की भाषा ही अलग है। तीर्थंकर कहता है, कौन किसका कल्याण कर सकता है? महावीर पैदा हुए अपने पिछले जन्मों के कर्म-फल के कारण। पैदा होना मजबूरी है। महावीर की कोई स्वेच्छा नहीं है। पैदा हुए, क्योंकि पिछले जन्म में जो कर्म-जाल पैदा किया है, वह खींच लाया। और जो चेष्टा उन्होंने की, कोई जगत-कल्याण के लिए नहीं है। क्योंकि महावीर का मानना ही है कि कोई दूसरा किसी दूसरे का कल्याण नहीं कर सकता। कल्याण तो सदा आत्म-कल्याण है।
तो जब मैं बोला और मैंने यह कहा तो मुनि तो बहुत नाराज हुए। बड़ी घबड़ाहट फैल गई। "गुणा' यहां मौजूद है, वह उस सभा में भी मौजूद थी। उसने बाद में मुझे बताया, कई साल बाद, कि उसने तो "ईश्वर भाई' को कहा कि अब हम यहां से निकल चलें, यहां कुछ झगड़ा-फसाद होगा। यहां मारपीट होकर रहेगी अब। क्योंकि सभी जैन नाराज हो गए, क्योंकि मैंने कहा, महावीर किसी के कल्याण के लिए पैदा नहीं हुए। लेकिन नाराजगी से क्या होता है? तुम्हारे शास्त्र, तुम्हारी पूरी दृष्टि अलग है। और उस दृष्टि का अपना मूल्य है। इसलिए उसकी शुद्धता को बचाया जाना चाहिए। ऐसे तो सब वर्णसंकर हो जाती हैं बातें।
महावीर कहते हैं, कल्याण आत्म-कल्याण है। इसलिए आशीर्वाद नहीं दे सकते। फिर उस दिन से जो जैन नाराज हुए तो नाराज ही हैं। क्योंकि उनको लगा कि मैंने उनके महावीर की कुछ प्रतिष्ठा छीन ली है। मैं उनके महावीर को ठीक-ठीक प्रतिष्ठा दिया। मैंने वही कहा जो महावीर कहते।
लेकिन साधारण आदमी साधारण आदमी है। वह खुद नहीं करना चाहता। वह चाहता है कि कोई के आशीर्वाद से हो जाये, मुफ्त मिल जाये। धन तो तुम खुद कमाते हो, धर्म तुम आशीर्वाद से चाहते हो। तुमने बेईमानी परखी? मकान बनाना हो, तुम खुद बनाते हो; मोक्ष आशीर्वाद से हो जाये! तुम जो करना नहीं चाहते, जो तुम कहते हो मुफ्त मिले तो ले लेंगे, उसमें भी सोचने का समय मांगोगे। अगर सच में ही कोई देने आ जाये कि यह रहा मोक्ष, लेते हो? तुम कहोगे, अभी इत्ती जल्दी तो मत करो, थोड़ा सोचने दो, घर जाने दो, पत्नी भी है, बच्चे भी हैं, थोड़ा पूछ तो लूं! जो तुम टालना चाहते हो, तुम बड़ी कुशलता से टालते हो। तुम कहते हो, जब होगी प्रभु की कृपा! मगर और चीजों के लिए तुम नहीं कहते। और के लिए तुम खूब आपा-धापी करते हो। तो साफ-साफ कहो न कि अभी चाहिए नहीं। यह बेईमानी तो मत करो। इतना ही कह दो कि हमें अभी कोई आकांक्षा नहीं पैदा हुई है। नहीं, लेकिन वह कहना जरा अभद्र मालूम पड़ता है। तुम शिष्टाचार को मानते हो, सभ्यता को मानते हो। तुम कहते हो, यह कहना जरा, साफ-साफ कहना ठीक नहीं। तुम जरा चोरी-छिपे, लुके-लुके कहते हो। तुम ढंग से, सजाकर कहते हो, शृंगार से कहते हो। तुम कहते हो, जब प्रभु की कृपा होगी, जब आशीर्वाद होगा सदगुरु का...।
मेरे पास लोग आते हैं। मैं उनसे पूछता हूं, कभी बहुत वर्ष से नहीं दिखाई पड़े। वे कहते हैं, आपने बुलाया ही नहीं। कितनी मजेदार बात कह रहे हैं वे! तो मैंने कहा, अब कैसे आ गये? मैंने तो अभी भी नहीं बुलाया था। वे कहते हैं, जरा पूने में कुछ धंधे का काम आ गया था। धंधा का जब काम होता है तब वे अपने से आते हैं। अब रहा यह कि मैं पूना में हूं तो मेरे पास भी चलो हो आओ। लेकिन मेरे पास आने के लिए जिम्मेवारी मुझ पर ही छोड़ते हैं कि आपने बुलाया ही नहीं। हालांकि वे सोचते होंगे, बड़ी प्रेमपूर्ण बात कह रहे हैं, लेकिन बड़ी बेईमानी की बात कह रहे हो। आना हो तो तुम आ जाते हो; न आना हो तो कहते हो, जब आप बुलायेंगे। कसूर जैसे मेरा है! तुम जब कहते हो, जब प्रभु की कृपा होगी...इसका अर्थ हुआ कि प्रभु की कृपा नहीं हो रही है। तुम सोचते हो, ऐसा भी हो सकता है कि प्रभु की कृपा न होती हो? क्या तुम सोचते हो, प्रभु कुछ अड़चन डाल रहा है कि दूसरों पर कृपा बरसा रहा है, तुम पर नहीं कर रहा है? अगर कोई कृपा जैसी चीज है तो वह सभी पर बरस रही है। लेकिन तुम जब लेना चाहोगे तभी ले सकोगे।
इसलिए महावीर कहते हैं, यह बात ही छोड़ दो आशीर्वाद की। इशारा मैं कर देता हूं, चलना तुम्हें है। और वे कोई व्यक्तिगत संबंध नहीं बांधते। उनका जो सबसे बड़ा शिष्य था, गौतम, वह महावीर के जीते-जी समाधि का अनुभव न कर सका, "केवल ज्ञान' उसे उपलब्ध न हो सका। जिस दिन महावीर की मृत्यु हुई, उस दिन वह गांव के बाहर उपदेश देने गया था, दूसरे गांव। जब वह लौटता था, रास्ते में उसे खबर मिली की महावीर ने शरीर छोड़ दिया, उनका महापरिनिर्वाण हो गया। तो वह रोने लगा। उसने राहगीरों से पूछा कि यह तो हद्द हो गई, जिनके साथ मैं जीवनभर रहा, आखिरी क्षण में किस दुर्भाग्य के कारण मैं दूसरे गांव चला गया! आखिरी क्षण तो उन्हें देख लेता! और अब मेरा क्या होगा? उनके रहते-रहते मैं मुक्त न हो सका, अब मेरा क्या होगा? अब तो गहन अंधकार है और दीया भी बुझ गया। क्या उन्होंने कुछ मेरे लिए संदेश छोड़ा है? तो राहगीरों ने कहा, हां। आखिरी समय में उन्होंने आंख खोली; उन्होंने कहा, गौतम यहां नहीं है; लौटे तो उसे इतनी बात कह देना कि तू पूरी नदी तो पार कर गया, अब किनारे को पकड़कर क्यों रुक गया है?
कहते हैं, उसी क्षण गौतम ज्ञान को उपलब्ध हुआ। क्या कहा महावीर ने उसके लिए? क्या संदेश छोड़ा कि तू पूरी नदी तो पार कर गया--संसार छोड़ दिया, धन छोड़ दिया, पत्नी छोड़ दी, घर-द्वार छोड़ दिया, सब छोड़ दिया, सब तरफ से राग हटा लिया--अब तूने राग मुझ पर जमा लिया! किनारे को पकड़ लिया। अब तू कहता है, गुरु...। यह भी छोड़ दे, नहीं तो नदी तो पार कर आया, अब किनारे को पकड़कर अटका है, तो बाहर कैसे निकलेगा? अब यह भी छोड़। जब सब छोड़ा है तो सभी छोड़। अब इतना भी अपवाद मत रख।
उसी क्षण गौतम को बोध आया कि अरे, मैं महावीर को पकड़ने के कारण ही रुक गया हूं! यह मोह छूटता नहीं, इसलिए रुक गया हूं।
तो जैन भाषा अमोह की भाषा है। वहां आशीर्वाद नहीं है।
डूब जाये कि सलामत रहे किश्ती मेरी
न हाथ बढ़ा कभी खिज्र के दामन की तरफ।
--चाहे डूब जाये, चाहे बचे नाव; लेकिन महावीर कहते हैं, किसी और की तरफ हाथ बढ़ाना मत। न हाथ बढ़ा कभी खिज्र के दामन की तरफ। किसी सदगुरु की तरफ हाथ मत बढ़ाना। आशीर्वाद मत मांगना। डूब जाए तो भी ठीक है, पार हो जाये तो भी ठीक है, लेकिन भीख मत मांगना।
महावीर का पथ सम्राटों का पथ है, भिखारियों का नहीं।
मेरी फितरत है तूफां और मैं आशोबे-फितरत हूं
तसव्वुर का भी दामन तर नहीं करता मैं साहिल से।
--स्वभाव मेरा तूफान का है।
मेरी फितरत है तूफां और मैं आशोबे-फितरत हूं।
--और मैं प्रकृति की मुक्त निगाह, मुक्त दृष्टि हूं। तसव्वुर का भी दामन तर नहीं करता मैं साहिल से--साहिल की तो बात ही नहीं करता, किनारे की तो बात ही नहीं करता। बात तो दूर, अपनी कल्पना को भी मैं किनारे की बात से भ्रष्ट नहीं करता।
सहारे की बात ही गलत है। बे-सहारा! जब तक तुम इतने बे-सहारा न हो जाओ कि तुम्हें लगे अब अपने ही पैरों पर खड़ा होना होगा, और कोई पैर नहीं हैं; अब अपनी ही बुद्धि को जगाना होगा, और कोई सहारा नहीं है; और अपने ही प्राणों का उत्कर्ष करना होगा, कोई और आशीर्वाद, कोई और सांत्वना नहीं है...। तुमने कभी सोचा?
आस्कर वाइल्ड ने लिखा है कि जब नाव डूब जाती है किसी की और आदमी सागर में तड़फड़ाता है तो जैसी उसकी दशा होती है, जब तक तुम्हारी न हो जाये तब तक तुम कुछ करोगे न। नाव डूब गई। सागर की उत्तंग तरंगें, किनारे का कोई पता नहीं--तब क्या दशा होती है? तब तुम सोचते हो कि आयेगा किसी का आशीर्वाद या उसको बचाना होगा बचायेगा? नहीं, तब तुम प्राणपण से, अपनी समग्र ऊर्जा से बचने की चेष्टा में लग जाते हो; तुम सागर से लड़ने लगते हो। उस समय न तो विचार रह जाते हैं। कहां विचार की जगह है? सुविधा कहां है? फुर्सत किसे है उस समय विचार करने की? जीवन संकट में है। न विचार रह जाते हैं। कितनी बार ध्यान किया था और न लगा था; उस दिन लग जाता है। अब कोई विचार नहीं रह जाते। न कोई कामना उठती, न कोई वासना उठती, न धन, न स्त्री, न संसार, कुछ भी नहीं, सब खो जाता है। सिर्फ एक स्वयं को बचाने की--वह भी भाव की दशा होती है, विचार नहीं होता। और तुम जूझने लगते हो सागर से।
महावीर कहते हैं,  ऐसी ही तुम्हारी स्थिति होनी चाहिए। ऐसी ही स्थिति है, लेकिन तुमने कल्पना की नावें बना रखी हैं और तुमने कल्पना के सहारे ले रखे हैं। उन सहारों के कारण तुम चेष्टा नहीं कर पाते जितनी कि कर सकते थे। इसलिए वे कहते हैं, हटा लो सारी सांत्वनाएं।
महावीर ने अपने साथ चलनेवालों के सब आश्रय छीन लिये। उनको बे-आसरा कर दिया, ताकि उनके भीतर जो सोए हुए प्राणों की ऊर्जा है वह इस चुनौती में उठ जाये, ज्योतिर्मय हो उठे।
मुकाबिल में तेरे लाखों खुदा इसने बनाए हैं
उन्हें पूजा है, उनकी बंदगी के गीत गाए हैं।
आदमी ने असली परमात्मा की जगह न मालूम कितने परमात्मा बनाए हैं। उन्हें पूजा, उनकी बंदगी के गीत गाए हैं। महावीर कहते हैं, असली परमात्मा तुम्हारे भीतर छिपा है। न तो बंदगी से कुछ होगा, न गीतों से कुछ होगा, न पूजा-अर्चा के थालों से कुछ होगा। तुम जीवन के तथ्य को समझो। इस सत्य को समझो कि भवसागर में पड़े हो और डूब रहे हो। स्थिति को ठीक से समझ लोगे तो तुम स्वयं को बचाने में लग जाओगे। और तुम्हारे अतिरिक्त तुम्हें कोई और बचा नहीं सकता है। इसलिए महावीर कहते हैं, शरण-भावना से बचना, अशरण-भावना में ध्यान करना। किसी की शरण जाने की बात मत सोचना। समर्पण नहीं, संकल्प।

तीसरा प्रश्न:

आपने कहा कि लोक-व्यवहार में आकर प्रज्ञापुरुषों के शब्द अपना अर्थ खो बैठते हैं। और आपने बताया कि महावीर ने "अहिंसा', जीसस ने "प्रेम' और सूफियों ने "इश्क' शब्द अपनाए। भगवान! वर्तमान शताब्दि में आप कौन-सा शब्द हमें देना पसंद करेंगे?

मैं तो प्रेम के प्रेम में हूं। उस शब्द से बहुमूल्य मुझे कोई और दूसरा शब्द मालूम नहीं होता। लाख विकृतियां हो गई हों, फिर भी उस शब्द में जादू है। अहिंसा मरा-मरा शब्द लगता है। उससे औषधि की बास आती है। अहिंसा--अस्पताल में जैसी बास आती है, वैसी बास आती है। कुछ नहीं करना है, कुछ रोकना है, कुछ निषेध--प्रेम जैसे फूल नहीं खिलते। प्रेम शब्द हृदय में कुछ और ही गूंज लाता है, कोई कमल खिल जाते हैं, कोई द्वार खुलते हैं। अहिंसा से ऐसा पता चलता है, कुछ मजबूरी, कुछ कर्तव्य--विधायकता नहीं है, पाजिटीविटी नहीं है। "नहीं' में होती भी नहीं।
प्रेम में "हां' है, स्वीकार है। प्रेम में एक अहोभाव है, गीत है, नृत्य है। तो लाखों विकृतियां हो गई हों प्रेम में, तो भी मैं प्रेम को चुनता हूं। क्योंकि प्रेम जिंदा है और उन विकृतियों को अलग करने की क्षमता है उसमें। अहिंसा शब्द में कोई प्राण नहीं हैं। तो भला उसमें महावीर ने जब प्रयोग किया तो कोई विकृतियां न रही हों, अब तो हजारों विकृतियां हो गई हैं। और तकलीफ यह है कि अहिंसा मुर्दा शब्द है। इसलिए उन विकृतियों को छिटकाकर फेंक नहीं सकता। प्रेम फेंक सकता है। प्रेम जीवंत है।
ऐसा ही समझो कि एक आदमी मरा हुआ पड़ा है, साफ-सुथरे वस्त्रों में पड़ा है; बिलकुल धुले-धुलाए वस्त्र हैं, शुभ्र वस्त्र हैं; धूल का कण भी नहीं है। और एक जिंदा आदमी बैठा है; पसीने से तरबतर है; धूल भी चिपक गई है; दिनभर मेहनत की है; स्नान की जरूरत है। और तुम अगर मुझसे पूछो कि किसको चुनोगे, तो मैं कहूंगा, मैं जिंदा को चुनता हूं। पसीना है, नहाने से छूट जायेगा। धूल जम गई है वस्त्रों पर, साबुन उपलब्ध है। मगर आदमी जिंदा है! यह मुर्दा आदमी, माना कि न इसमें पसीना निकलता है, न इस पर धूल जमी है, यह कांच के ताबूत में रखा रह सकता है, ऐसा ही साफ-सुथरा बना रहेगा--पर इसका करोगे क्या? इससे होगा क्या?
अहिंसा मुर्दा शब्द है। प्रेम जीवंत है। निश्चित ही प्रेम के साथ पसीना भी है। पसीने में कभी-कभी बदबू भी आती है। पसीने पर धूल भी जम जाती है। आदमी गंदा भी हो जाता है, लेकिन यह सब जिंदगी के लक्षण हैं। जहां गंदगी हो सकती है, वहां स्वच्छता लायी जा सकती है। ध्यान रखना, जहां गंदगी हो ही नहीं सकती, वहां स्वच्छता कैसे लाओगे? वहां तो मौत आ चुकी। तुम उस बच्चे को पसंद करोगे जो मुर्दे की तरह एक कोने में बैठा रहता है! मां-बाप पसंद करते हैं अकसर, क्योंकि उनके लिए कम उपद्रव का कारण होता है। गोबर-गणेश! बैठे हैं। कभी-कभी पूजा करनी हो तो गणपति जी की पूजा कर लो, बाकी वे बैठे रहते हैं। मां-बाप को ठीक लगते हैं, लेकिन बाद में पछताएंगे। वे ऐसे ही बैठे रहेंगे। फिर एक उपद्रवी, नटखटी बच्चा है, दौड़ता है, हाथ-पैर भी तोड़ लाता है, खून भी निकल आता है, कपड़े भी गंदे कर आता है, कीचड़ में सना हुआ घर आ जाता है। मैं तो इसी को चुनूंगा। यह जिंदा तो है! इससे कुछ होने की संभावना है।
अहिंसा में कुछ न हो, इसकी चेष्टा है। प्रेम में कुछ हो, इसकी चेष्टा है। मैं जीवन के पक्ष में हूं, मौत चाहे कितनी ही साफ-सुथरी हो। और मौत बड़ी साफ-सुथरी चीज है। झंझटें तो जीवन में हैं, मौत में क्या झंझट है? वह तो सब झंझटों का अंत है। तो भी मैं मौत को न चुनूंगा, मैं जीवन को ही चुनूंगा।
दयारे-रंगो-निकहत में गुजर क्या होशमंदों का
यह पैगामे-बाहर आया तो दीवानों के नाम आया।
--वे जो बहुत होशियार हैं, गणित से जीते हैं, समझदारी-समझदारी ही जिनके जीवन में है और दीवानगी बिलकुल नहीं, जिन्होंने पागल होने की सारी क्षमता को नष्ट कर दिया है--उनके जीवन में कभी वसंत का पैगाम नहीं आता।
दयारे-रंगो-निकहत में गुजर क्या होशमंदों का!
--इस रंग-रूप, फूलों से भरी दुनिया में समझदारों की कहां जरूरत है?
यह पैगामे-बहार आया तो दीवानों के नाम आया।
और जब भी वसंत की लहर आती है, संदेश आता है जीवन का, तो दीवानों के नाम आता है।
अहिंसा तुम्हें होशियारी दे देगी, लेकिन दीवानगी कहां से लाओगे? अहिंसा तुम्हें गलत करने से बचा लेगी; लेकिन सही करने का रंग-रूप कहां से लाओगे? अहिंसा तुम्हें गाली देने से रोक लेगी; लेकिन गीत कहां से जन्माओगे?
गाली देने से रुक जाना काफी है? तो जो आदमी गाली नहीं देता, बस पर्याप्त है?
यही तो जैन मुनियों की दशा हो गई है। वे गाली नहीं देते; गीत उनसे पैदा नहीं होता। बैठे हैं, गोबर-गणेश, उनकी पूजा कर लो! जैनी जाते हैं सेवा को। उनसे बुराई तो उन्होंने काट डाली, लेकिन कहीं कुछ भूल हो गई, कहीं कुछ बड़ी बुनियादी चूक हो गई। और वह चूक यह है कि उन्होंने गलत को छोड़ने की आकांक्षा की, गलत से बचने की चेष्टा की; लेकिन सही को जन्माने के लिए उन्होंने कोई प्रयास न किया। उनका खयाल है कि गलत हट जाए तो सही अपने से आ जायेगा। मेरा खयाल है कि सही आ जाये तो गलत अपने से हट जायेगा। और मैं तुमसे कहता हूं कि उनका खयाल गलत है। उनका खयाल ऐसे ही है जैसे कोई आदमी, अंधेरा भरा हो कमरे में, अंधेरे को धक्का दे देकर निकालने लगे। नहीं, अंधेरे को कोई धक्के देकर नहीं निकाल सकता--थकेगा, मरेगा, जिंदगी खराब हो जायेगी। दीया जलाओ! कुछ विधायक को जलाओ! अंधेरा अपने से चला जाता है।
तो मैं तुमसे नहीं कहता, क्रोध छोड़ो। मैं कहता हूं, करुणा जन्माओ। मैं तुमसे नहीं कहता, संसार छोड़ो। मैं कहता हूं, आत्मा को जगाओ। मैं तुमसे नहीं कहता, धन-दौलत छोड़ो। मैं कहता हूं, भीतर एक धन-दौलत है, उस खोजो। मेरा रुख विधायक है। और यह मेरा जानना है कि जिस दिन तुम्हें भीतर की धन-दौलत मिल जायेगी, तुम बाहर की धन-दौलत को पकड़ोगे? न पकड़ोगे न छोड़ोगे, क्योंकि वह धन-दौलत ही न रही। छोड़ने लायक भी न रही, पकड़ने की तो बात दूर है। रखा ही क्या है वहां? जहां भीतर के हीरे दिखाई पड़ने लगें, वहां सब बाहर का कंकड़-पत्थर हो जाता है। जब भीतर के सौंदर्य में जीने लगे तो बाहर सौंदर्य दिखता ही नहीं। लेकिन अगर तुम बाहर के सौंदर्य को छोड़कर भागे और यही तुम्हारी जीवन की शैली हो गई, निषेध, इनकार, नेति-नेति, तो तुम मुश्किल में पड़ोगे। फांसी लगा लोगे अपने हाथ से गले में। और जिसको तुम छोड़कर भागे हो, उसकी बुरी तरह याद आएगी। आयेगी ही।
इसलिए जो छोड़कर भागते हैं--स्त्रियों के संबंध में चिंतन चलता रहता है, धन के संबंध में चिंतन चलता रहता है। छिड़कते हैं, झिटकते हैं उस चिंतन को, हटाते हैं। जब-जब स्त्री की याद आ जाती है, जोर-जोर से राम-राम-राम-राम जपने लगते हैं कि किसी तरह...। मगर तुम्हारे  जपने से क्या होता है? राम-राम-राम ऊपर रह जाता है, काम-काम-काम-काम भीतर चलता जाता है। तुम्हारे हर दो राम के बीच में से काम की खबर आने लगती है।
भागो मत! घबड़ाओ मत। डरो मत! परमात्मा जीवन का निषेध नहीं है, जीवन का परिपूर्ण अनुभव है। और धर्म पलायन नहीं है, जीवन का परिपूर्ण भोग है।
महावीर ने प्रेम के लिए अहिंसा शब्द चुना; वहां भूल हो गई। पर भूल हो जाने के लिए कारण थे। क्योंकि प्रेम  शब्द...उपनिषद और वेद प्रेम की चर्चा कर रहे थे। और प्रेम का सब तरफ जाल था। और प्रेम के नाम पर सब तरफ भ्रष्टाचार था। तो महावीर को लगा, अब प्रेम का शब्द उपयोग करना खतरे से खाली नहीं है। उन्होंने इसी आशा में अहिंसा का उपयोग किया कि वे समझा लेंगे तुम्हें कि अहिंसा का अर्थ प्रेम ही है। लेकिन वे न समझा पाए। कसूर उनका नहीं है। कसूर उनका है जिन्होंने सुना। उन्होंने तत्क्षण अहिंसा में से प्रेम तो न निकाला, नकारात्मकता निकाल ली। तो महावीर का धर्म धीरे-धीरे ऐसा धर्म हो गया कि इसमें क्या-क्या नहीं करना है, वही महत्वपूर्ण हो गया।
ज़ाहिद हद्देऱ्होशो-खिरद में रहा "असीर'
नादां ने जिंदगी ही को जिंदां बना दिया।
वह जो बुद्धि-बुद्धि से जी रहा है...
ज़ाहिद हद्देऱ्होशो-खिरद में रहा "असीर'
--जो सदा ही बुद्धि की सीमा में ही घिरा रहा, छोड़ने-त्यागने की सीमा में ही घिरा रहा...
नादां ने जिंदगी ही को जिंदां बना दिया।
--उस ना-समझ ने अपने जीवन को ही एक कारागृह बना लिया। छोड़ो-छोड़ो, सिकुड़ते जाओ--धीरे-धीरे तुम पाओगे, फांसी लग गई अपने ही हाथों। लेकिन, तुम समझ न पाओगे, क्योंकि जितनी तुम्हारी फांसी लगेगी उतने ही लोग तुम्हारे पैरों में फूल चढ़ायेंगे। वे कहेंगे, कैसे महात्यागी! तो तुम्हें फांसी में भी रस आने लगेगा। क्योंकि फांसी जितनी तुम कसते जाओगे, उतना ही तुम्हें सम्मान मिलेगा। जितने ज्यादा उपवास करोगे, जितना अपने को तोड़ते जाओगे, उतना सम्मान मिलेगा। जितना अपने को मिटाओगे, अपना घात करोगे, उतना सम्मान मिलेगा। तो उस मुनि को ज्यादा सम्मान मिलता है जो ज्यादा त्याग करता है। उसको वे लोग कहते हैं, महामुनि। लोग सिर रखते हैं उसके चरणों में। तो अहंकार मजा लेता है!
तो जिन्होंने भी निषेध की यात्रा की, उन्होंने सिर्फ अहंकार को भर लिया। उनके जीवन में आत्मा खुली नहीं, खिली नहीं।
तो मैं तो प्रेम को ही चुनता हूं। मैं प्रेम के प्रेम में हूं। मैं तो तुमसे कहूंगा, लाख खराबियां हो इस शब्द में--महावीर से कुछ सीख लो। महावीर ने इस शब्द की खराबियों को देखकर अहिंसा चुना, लेकिन जो परिणाम हुए वे और भी बदतर हुए। बीमारी तो बीमारी, औषधि भी बीमारी बन गई।
मैं तो तुमसे कहूंगा, प्रेम चुनो। और प्रेम इतना सबल है कि वह अपनी भूलों को पार करने की क्षमता रखता है। वह जिंदा है, तो गंदा भी हो जाये तो स्नान कर सकता है। अहिंसा लाश है, गंदी न होगी, लेकिन उसकी स्वच्छता का भी क्या मूल्य है? उसकी स्वच्छता में जीवन की सुवास नहीं है। उसकी स्वच्छता क्लिनिकल है।
मुझे तो प्रेम शब्द में रस है। क्योंकि मेरे देखे, यह सारा जगत प्रेम से आंदोलित है। यहां श्वास-श्वास प्रेम से चल रही है। यहां फूल-फूल प्रेम से खिल रहे हैं। और अभी तो वैज्ञानिक भी सोचने लगे हैं कि जब प्रेम से सारा जगत बंधा हुआ है--स्त्री पुरुषों से बंधी, पुरुष स्त्रियों से बंधे, मां-बाप बेटों-बच्चों से बंधे, बेटे-बच्चे मां-बाप से बंधे, मित्र मित्रों से बंधे--जहां सब कुछ बंधा है प्रेम से, वहां हमें यह मानकर चलना पड़ेगा कि हम एक प्रेम के सागर में जी रहे हैं।
जब अणु की पहली दफा खोज हुई और अणु का विस्फोट किया गया, तो रदरफोर्ड ने, जिसने पहली दफा अणु के संबंध में गहरी खोज की, उसको एक सवाल उठा कि अणु के जो परमाणु हैं--इलेक्ट्रान, न्यूट्रान, पाजिट्रान--ये आपस में कैसे बंधे हैं? इनको कौन-सी शक्ति बांधे हुए है? ये बिखर क्यों नहीं जाते?
तुमने कभी खयाल किया--एक पत्थर पड़ा है, सदियों से पड़ा है, बिखरता क्यों नहीं? तुम इसे तोड़ दो हथौड़े से, बिखर गया, फिर तुम इसे जोड़ो, फिर रख दो टुकडों को पास-पास, मगर अब न जुड़ेगा। बात क्या हो गई? इतने दिन तक कौन-सी चीज इसे जोड़े थी? अगर वह चीज इतने दिन तक जोड़े थी, फिर तुमने टुकड़े पास रख दिये, अब क्यों नहीं जोड़ती? कोई चीज तोड़ दी तुमने। पत्थर नहीं तोड़ा तुमने; कोई और चीज जो सूक्ष्म थी, तोड़ दी। पत्थर तो अब भी वही का वही है, उसका वजन भी वही है, टुकड़े भी उतने के उतने हैं--लेकिन पहले जुड़े थे, अब टूट गए। अब तुम लाख उनको पास-पास बिठाओ, उनको लाख समझाओ कि अब फिर से जुड़ जाओ, पूजा-प्रार्थना करो, यज्ञ-हवन करो, वह सुनेगा नहीं। कोई चीज तुमने तोड़ दी, कोई बहुत सूक्ष्म चीज तोड़ दी।
रदरफोर्ड सोचने लगा, कौन-सी चीज जोड़े हुए है! बहुत-से सिद्धांत प्रतिपादित किये गये हैं। उनमें एक सिद्धांत प्रेम का भी है, यह आश्चर्य की बात है। वैज्ञानिक और प्रेम की बात करें! लेकिन आश्चर्यचकित होने की जरूरत नहीं है। अगर जीवन सब तरफ प्रेम से जुड़ा है, अगर वृक्ष फलों से प्रेम के कारण जुड़े हैं, अगर वृक्ष फूलों से प्रेम के कारण जुड़े हैं, अगर आदमी आदमी से प्रेम के कारण जुड़ा है तो फिर निश्चित ही जीवन की इकाइयां भी, ईंटें भी प्रेम से ही जुड़ी होंगी। चाहे तुम उसे मैग्नेटिज्म कहो, चाहे तुम उसे इलेक्ट्रिसिटी कहो--यह नाम का भेद है। लेकिन कोई चुंबकीय शक्ति सारे जीवन को जोड़े हुए है। उस चुंबकीय शक्ति को भक्तों ने भगवान कहा है, प्रेम कहा है, परमात्मा कहा है। महावीर उसे सत्य कहते हैं।
लेकिन फिर महावीर का "सत्य' शब्द बड़ा तटस्थ है। उससे रसधार नहीं बहती। सत्य बड़ा रूखा-सूखा है, मरुस्थल जैसा है। प्रेम मरूद्यान है; बड़ी रसधार बहती है। उपनिषद कहते हैं, रसो वै सः। वह जो परमात्मा है, रस उसका स्वभाव है।
रस को मैं भी जीवन का सत्य  मानता हूं। और तुम्हारे जीवन में रस तभी होता है जब प्रेम होता है। जहां-जहां प्रेम, वहां-वहां रस। जहां-जहां प्रेम खोया, वहां-वहां रस सूखा। रस में डूबो। तन डूबे, मन डूबे, सब डूबे। रस में डूबो! और तब तुम्हारी दृष्टि में एक अलग ही दृश्य दिखाई पड़ना शुरू हो जायेगा।
"जमील' अपनी असीरी पे क्यों न हो मगरूर
यह फख्र कम है कि सैय्याद ने पसंद किया!
"जमील' अपनी असीरी पे क्यों न हो मगरूर! जमील ने कहा है, क्यों न हम अभिमान करें इस बात का कि परमात्मा ने हमें कैद करने योग्य समझा, बांधने योग्य समझा! यह फख्र कम है कि सैय्याद ने पसंद किया!--कि उसने हमें पसंद किया, कि भेजा, कि बनाया!
भक्त तो अपने दुख में से भी सुख का गीत सुन लेता है। अपनी जंजीरों में भी रस पा लेता है। कहता है, परमात्मा ने ही बांधा है। छूटने की जल्दी भक्त को नहीं है। भक्त कहता है, तेरे बंधन हैं--राजी हैं! और ऐसे भक्त छूट जाता है। क्योंकि जिस बंधन को तुमने सौभाग्य समझ लिया, वह बंधन बांधेगा कैसे? बंधन तभी तक बांधता है जब तक तुम छूटना चाहते हो। तुम्हारे छूटने की वृत्ति के विपरीत होने के कारण बंधन मालूम होता है। जब तुम स्वीकार कर लिये, राजी हो गए, तुमने कहा कि ठीक...।
"जमील' अपनी असीरी पे क्यों न हो मगरूर
यह फख्र कम है कि सैय्याद ने पसंद किया!
यह कोई कम गौरव की बात है कि परमात्मा ने चुना! जो बनाया, जैसा बनाया...। वह हर जगह उसके प्रेम को खोज लेता है।
और तुम्हारा जीवन अगर हर जगह प्रेम को खोजने लगे--ऐसी जगह भी जहां खोजना बड़ा मुश्किल है--जिस दिन तुम सब जगह प्रेम के दर्शन करने लगो, उस दिन परमात्मा के दर्शन हो गए।
जीसस ने कहा है, परमात्मा प्रेम है। और मैं कहता हूं, प्रेम परमात्मा है।
पर ये रास्ते अलग-अलग हैं। महावीर का रास्ता भक्त का रास्ता नहीं है--होश का। भक्त का रास्ता है बेहोशी का। भक्त का रास्ता मधुशाला का है। वह कहता है, यह होश ही हमारी पीड़ा है।
तुझ पे कुर्बां मेरे दिल की हर एक बेखबरी
आ! इसी मंजिले-एहसासे-फरामोश में आ।
हे प्रभु! भक्त कहता है, तुझ पे कुर्बां मेरे दिल की हर एक बेखबरी--और तो मेरे पास कुछ भी नहीं है, बेहोशी है। यह मेरे दिल का पागलपन है, दीवानगी है। यह तुझ पर कुर्बान करता हूं। यह तुझ पर न्योछावर करता हूं। और तो मेरे पास कुछ भी नहीं है।
तुझ पे कुर्बां मेरे दिल की हर एक बेखबरी
आ! इसी मंजिले-एहसासे-फरामोश में आ।
और मैं तुझे याद भी कर सकूं, यह भी मेरी सामर्थ्य नहीं। तू मेरे विस्मरण के द्वार से ही आ!
आ! इसी मंजिले-एहसासे-फरामोश में आ। मेरी इस बेहोशी के रास्ते से ही तू आ!
भक्त का ढंग और। भक्त भी पहुंच जाते हैं। साधक भी पहुंच जाते हैं। महावीर का मार्ग साधक का है। नारद का मार्ग भक्त का है। लेकिन अगर तुम मुझसे पूछते हो, तो मेरे देखे भक्त के मार्ग से अधिक लोग पहुंच सकते हैं। हां, जिनको भक्ति असंभव ही मालूम पड़ती हो, उनको साधक का मार्ग है। वह मजबूरी है। तुम्हारा प्रेम अगर इतना मर गया है और जड़ हो गया है कि उसमें से तुम परमात्मा को प्रगट नहीं कर सकते, तो फिर छोड़ो। फिर तुम साधक के मार्ग से चलो।
लेकिन साधक का मार्ग दोयम है, नंबर दो है। वह उनके लिए है जिनके भीतर की आत्मा कुछ मुर्दा हो गई है और जिनके भीतर प्रेम के स्रोत सूख गए हैं, जिनके भीतर गीत-गान नहीं उठता, जिनके भीतर नृत्य-नाच नहीं उठता, जिनकी बांसुरी खो गई है--उनके लिए है। अगर तुम्हारी बांसुरी अभी भी तुम्हारे पास हो और तुम गुनगुना सको गीत, तो सौभाग्यशाली हो। अगर यह न हो; अगर कहीं सब खो चुके बांसुरी दूर जीवन की यात्रा में; कहीं प्रेम को कुठाराघात हो गया; कहीं सब जड़ हो गया तुम्हारा हृदय, अब उसमें कोई पुलक नहीं उठती--तो फिर साधक का मार्ग है। साधक का मार्ग उन थोड़े-से लोगों के लिए है, जिनके भीतर प्रेम की सब संभावनाएं समाप्त हो गई हैं। लेकिन अगर प्रेम की जरा-सी भी संभावना हो और अंकुरण हो सकता हो, तो फिक्र छोड़ो। जब गीत गाकर और नाचकर उसके घर की तरफ जा सकते हैं, तो फिर लंबे चेहरे, उदास चेहरे लेकर जाने की कोई जरूरत नहीं। जब स्वस्थ, प्रफुल्लित उसकी तरफ जा सकते हैं, तो नाहक की उदासी, नाहक का वैराग्य थोपने की कोई जरूरत नहीं।
महावीर के मार्ग से लोग पहुंचे हैं, तुम भी पहुंच सकते हो। लेकिन महावीर का मार्ग बहुत संकीर्ण है; बहुत थोड़े-से लोग पहुंचते हैं; बहुत थोड़े-से लोग जा सकते हैं।
भक्ति का मार्ग बड़ा विस्तीर्ण है। उस पर जितने लोग जाना चाहें, जा सकते हैं। लेकिन कुछ लोगों को कठिनाई में रस होता है। कुछ लोगों को जो चीज सुलभता से मिलती हो, वह जंचती नहीं। कुछ लोगों को जितने ज्यादा उपद्रव और मुसीबतों में से गुजरना पड़े उतना ही उन्हें लगता है, कुछ कर रहे हैं। उनके लिए महावीर का मार्ग बिलकुल ठीक है।

आखिरी प्रश्न:

आपके पास कुछ भी लिखती हूं तो आप नाराज हो जाते हैं। पीछे मुझे बहुत घबड़ाहट होती है कि आपके पास दिल खोलूं कि नहीं खोलूं। और क्या मैं कुछ भी नहीं कर पाती? कोशिश तो हर हाल करती हूं कि आपकी बात समझ में आए। भक्त को अहंकार का कुछ भी पता नहीं। कैसे क्या करूं? मेरी हिम्मत अब टूटी जा रही है। कृपया एक बार फिर समझाएं!

रु का प्रश्न है।
"आपके पास कुछ भी लिखती हूं तो आप नाराज हो जाते हैं।' बहुत बार ऐसा लगेगा कि मैं नाराज हुआ हूं, पर मेरी नाराजगी में केवल इतनी ही अभिलाषा है कि शायद नाराज होकर कहूं तो तुम सुन लो; शायद नाराज होकर कहूं तो तुम्हारा सपना टूटे; शायद चोट देकर कहूं तो तुम थोड़े तिलमिलाओ और जागो।
झेन फकीर तो डंडा हाथ में रखते हैं तरु! और उन्होंने देखा कि जरा उनका कोई शिष्य झपकी खा रहा है कि उन्होंने सिर फोड़ा। लेकिन कई बार ऐसा हुआ है कि झेन सदगुरु का डंडा पड़ा है और उसी क्षण साधक समाधि को उपलब्ध हो गया है।
तुम्हारी नींद गहरी है; चोट करनी जरूरी है। तुम्हें धक्के देने जरूरी हैं। तुम्हें लोरी ही गाकर सुनाता रहूं तो तुम और भी सो जाओगे। हालांकि लोरी तुम्हें अच्छी लगती है। मगर तुम्हारे अच्छे लगने को देखूं? तो तुम्हें तो नींद ही अच्छी लगती है। तुम्हें जगाना होगा! तुम्हें झकझोरना होगा!
और धीरे-धीरे तुमने अपने रोगों को भी अपने जीवन का हिस्सा मान लिया है। तुम धीरे-धीरे अपने रोगों के भी प्रेम में पड़ गए हो।
एक छोटा बच्चा अपने नाना-नानी के घर आया था। रात जब नानी उसकी सुला गई उसे कमरे में और बिजली की बत्ती बुझाई, तो वह बैठ गया और रोने लगा। उसने पूछा कि क्या हुआ तुझे। नानी ने पूछा, क्या हुआ तुझे? उसने कहा कि मुझे अंधेरे का बहुत डर लगता है। पर उसने कहा, "अरे पागल! और तू अपने घर भी तो अंधेरे में ही सोता है और अलग ही कमरे में सोता है, तो फिर क्या डर है?' तो उसने कहा, नानी, वह बात अलग है। वह मेरा अंधेरा है।
अपने-अपने अंधेरे से भी लगाव हो जाता है। मेरा अंधेरा, मेरी बीमारी, मेरा रोग, मेरी चिंता, मेरा संताप-- "मेरा' उससे भी जुड़ जाता है। तभी तो हम अपने दुख को भी पकड़े बैठे रहते हैं। दुख छोड़ने में भी डर लगता है, क्योंकि कहीं ऐसा न हो कि दुख भी छूट जाये और हाथ खाली हो जायें, और कुछ मिले न; कम से कम कुछ तो है, दुख ही सही, दर्द ही सही! होने का पता तो चलता है कि है।
तो कई बार तुमसे मुझे नाराज भी होना पड़ता है--सिर्फ इसीलिए कि तुम्हें प्रेम करता हूं, अन्यथा कोई कारण नहीं है।
"और पीछे मुझे बहुत घबड़ाहट होती है कि आपके पास दिल खोलूं कि नहीं खोलूं!'
क्या तुम्हारे खोलने न खोलने से कुछ फर्क पड़ेगा? खुला ही हुआ है। जिस दिन अपने को जाना, उसी दिन से सभी का दिल खुल गया है। अपना दिल खुले तो सब का दिल खुल जाता है। अब मुझसे छिपाने का उपाय नहीं है। न बताओ, कोई फर्क न पड़ेगा। क्योंकि मनुष्य मात्र की पीड़ा एक है। विस्तार के फर्क होंगे, थोड़े बहुत रंग-ढंग के फर्क होंगे; लेकिन मनुष्य मात्र की पीड़ा एक है--कि जिससे हम जन्मे हैं उससे हम बिछुड़ गए हैं; कि जो हमारा मूल स्रोत है उससे हम खो गये हैं। और इसलिए सब खोजते हैं, लेकिन तृप्ति नहीं होती। बहुत दौड़ते हैं, लेकिन पहुंचते नहीं; क्योंकि अपने घर का पता ही भूल गया है। विस्तार की बातें अलग हैं। वे हर एक व्यक्ति की अलग हैं। उसमें जाने से कोई सार भी नहीं है।
तुम अपना दिल खोलो या न खोलो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। तुम्हारी आधारभूत पीड़ा का मुझे पता है।
वह पीड़ा यही है कि कैसे प्रभु से मिलन हो जाये! प्रभु नाम दो या न दो। कैसे उससे मिलन हो जाये, जिसे पाकर फिर कुछ और पाने को न बचे!
"और क्या मैं कुछ भी नहीं कर पाती हूं?'
करती बहुत हो, लेकिन करने से वह मिलता नहीं। कर-करके हारने से मिलता है। जब तक करना जारी रहता है, तब तक तो थोड़ी न थोड़ी अस्मिता बनी ही रहती है। "मैं कर रहा हूं',  तो मैं बचा रहता हूं। कृत्य से तो अहंकार कभी मरता नहीं। हां, कृत्य से अहंकार सुंदर हो जाता है, सुरुचिकर हो जाता है। कृत्य से अहंकार में सजावट आ जाती है, शृंगार आ जाता है; मिटता नहीं। मिटता तो तभी है, जब तुम्हें पता चलता है, मेरे किए कुछ भी न होगा। आत्यंतिक रूप से ऐसा पता चलता है कि मेरे किए कुछ भी न होगा। अंतिम रूप से यह निर्णय आ जाता है कि मेरे किए कुछ भी न होगा। वहीं "मैं' गिरता है, जहां उसके किए कुछ भी नहीं होता।
तो तुम करते तो बहुत हो; लेकिन मैं तुमसे कहे चला जाता हूं, कुछ भी नहीं, यह भी कुछ नहीं, और करो, और करो। और जो जितना ज्यादा कर रहा है उससे मैं और ज्यादा कहता हूं, यह कुछ भी नहीं, और करो। क्योंकि जो जितना ज्यादा कर रहा है, उससे उतनी ही आशा बंधती है कि करीब पहुंच रहा है उस सीमा के, जहां सब करना व्यर्थ हो जाएगा। तो और दौड़ाता हूं। जो पिछड़ गए हैं, उनको न भी कहूं, क्योंकि उनके दौड़ने से भी कुछ बहुत होनेवाला नहीं है। लेकिन जो दौड़ में बहुत आगे हैं और बड़ी शक्ति से दौड़ रहे हैं उनको तो जरा भी शिथिलता खतरनाक होगी और महंगी पड़ जायेगी।
ऐसा उल्लेख है, रवींद्रनाथ के चाचा थे अवनींद्रनाथ। बड़े चित्रकार थे। भारत में ऐसे चित्रकार इस सदी में एक-दो ही हुए। दूसरा जो बड़ा चित्रकार भारत में पैदा हुआ, नंदलाल, वह उनका शिष्य था। रवींद्रनाथ एक दिन बैठे थे अवनींद्रनाथ के साथ। और नंदलाल, जब वह युवक था और विद्यार्थी था, कृष्ण का एक चित्र बनाकर लाया। रवींद्रनाथ ने लिखा है कि ऐसा सुंदर चित्र मैंने पहले कभी देखा न था; कृष्ण की ऐसी छवि कोई बना न पाया था। और मैं तो भावविभोर हो गया, विमुग्ध हो गया, नाच उठने का मन हो गया; लेकिन मैं चुप रहा। क्योंकि अवनींद्रनाथ मौजूद थे, और वे चित्र को बड़े गौर से देख रहे थे। बड़ी देर सन्नाटा रहा।
रवींद्रनाथ ने लिखा है कि मैं घबड़ा गया कि बात क्या है, वे कुछ कहें! तोड़ें इस खामोशी को, कुछ तो कहें। नंदलाल भी थरथर कांप रहा था। और आखिर उन्होंने आंखें ऊपर उठाईं और उस चित्र को उठाकर बाहर फेंक दिया अपनी बैठक से। और नंदलाल से कहा, "इसको तुम बड़ी कला मानते हो? यह तो बंगाल में जो पटिये हैं, जो कृष्ण का चित्र बनाते हैं, दो-दो पैसे में बेचते हैं, उनके लायक भी नहीं है। तुम जाओ पटियों से सीखो कि कृष्ण कैसे बनाये जाते हैं!'
नंदलाल सिर झुकाकर, चरण छूकर लौट गया। रवींद्रनाथ को तो बड़ा आश्चर्य हुआ और क्रोध भी आया। लेकिन गुरु-शिष्य के बीच क्या बोलना, तो वे चुप रहे। जब नंदलाल चला गया तब उन्होंने कहा कि यह मेरी समझ के बाहर है। आपके भी चित्र मैंने देखे, लेकिन मैं कह सकता हूं कि उन चित्रों में भी मुझे कोई इतना नहीं भाया जितना यह कृष्ण का चित्र भाया। और आपने इसको उठाकर फेंक दिया!
लेकिन अवनींद्रनाथ चुप! तो उन्होंने आंखें उठाकर देखा, आंख से आंसू बह रहे हैं। अवनींद्रनाथ ने कहा कि तुम समझे नहीं; इससे मुझे बड़ा भरोसा है; इससे अभी और खींचा जा सकता है। अभी यह और ऊंचाइयां छू सकता है। मैं भी जानता हूं कि ऐसा चित्र मैंने भी नहीं बनाया। मगर इसकी अभी और संभावना है। अगर मैं कह दूं कि बस, बहुत हो गया। मेरी प्रशंसा का हाथ इसके सिर पर पड़ जाये, तो यही इसकी रुकावट हो जायेगी। मैं इसका दुश्मन नहीं हूं।
नंदलाल तीन साल तक पता न चला, कहां चला गया। वह गांव-गांव बंगाल में घूमता रहा और जहां-जहां पटियों की खबर मिली, गांव के ग्रामीण कलाकारों की, उनसे जाकर कृष्ण के चित्र बनाना सीखता रहा। तीन साल बाद लौटा। रवींद्रनाथ को नंदलाल ने आकर कहा कि उनकी बड़ी अनुकंपा है! ऐसा बहुत कुछ सीखकर लौटा हूं जो यहां बैठकर कभी सीख ही न पाता! उन ग्रामीण सरल हृदय लोगों में तकनीक तो नहीं है, तकनीक की उन्हें कोई शिक्षा नहीं मिली है; लेकिन भाव की बड़ी गहनता है। और असली चीज तो भाव है, तकनीक में क्या रखा है?
तो जो यहां मेरे पास तीव्रता से काम में लगे हैं, उनकी पीठ मैं नहीं थपथपाता। उनसे तो मैं कहता हूं, यह क्या है? बंगाल के पटिये भी इससे बेहतर कर लेते हैं। उनसे तो मैं यही कहे चला जाऊंगा, यह भी कुछ नहीं--और-और-और--उस घड़ी तक, जहां कि करने की पराकाष्ठा आ जाये। क्योंकि जहां करने की पराकाष्ठा आती है वहीं अहंकार की भी पराकाष्ठा आ जाती है। और जब करना-मात्र गिर जाता है, जब तुम्हें लगता है, अब आगे करने को कुछ भी नहीं बचा और तुम बैठ जाते हो, उस बैठने में ही पहली दफा परमात्मत्तत्व से संबंध होता है। तुम नहीं होते, उस बैठने में तुम नहीं होते; उस बैठने में तुम्हारे भीतर परमात्मा ही होता है।
"क्या मैं कुछ भी नहीं कर पाती हूं? कोशिश तो हर हाल करती हूं कि आपकी बात समझ में आये। भक्त को अहंकार का कुछ भी पता नहीं। कैसे क्या करूं? मेरी हिम्मत अब टूटी जा रही है।'
बड़े शुभ लक्षण हैं। किए जाओ।
हिम्मत को टूट ही जाना है। तुम्हारी हिम्मत ही बाधा है--भक्त के लिए। समर्पण के मार्ग पर तुम्हारी हिम्मत और तुम्हारा बल ही बाधा है। निर्बल के बल राम! वहां तो जब तुम बिलकुल निर्बल हो जाओगे, सब टूट जायेगा, उसी क्षण, उसी पल अनिर्वचनीय से मिलन हो जाता है।
मुहब्बत में तेरी गिरफ्त हो कर
हर एक रंजो-गम से रिहा हो गए हम।
उसके प्रेम को तुम्हारे चारों तरफ बंधने दो, उसके प्रेम को कसने दो। उसके प्रेम की फांसी में तुम्हारा अहंकार मर जायेगा।
मुहब्बत में तेरी गिरफ्त हो कर
हर एक रंजो-गम से रिहा हो गए हम।
अब तुम छोड़ो अपना रंज भी, अपना गम भी; जो तुम्हारे पास है उसके चरणों में चढ़ा दो! कुछ और तो है नहीं, कहां से लाओगे फूल? जो है...आंसू सही। उसके चरणों में रख दो! और उससे कहा दो कि--
मुहब्बत में तेरी गिरफ्त हो कर
हर एक रंजो-गम से रिहा हो गये हम।
अब तू जान!
कितने दीवाने मुहब्बत में मिटे हैं "सीमाब'
जमा की जाए जो खाक उनकी तो वीराना बने।
कितने प्रेमी उसके प्रेम में मिट गए हैं! जमा की जाये जो खाक उनकी तो वीराना बने। एक मरुस्थल बन जाये, अगर उनकी राख इकट्ठी करें। उसी राख के मरुस्थल में अपनी राख को भी मिला दो।
गर बाजी इश्क की बाजी है
जो चाहो लगा दो, डर कैसा?
गर जीत गए तो क्या कहना
हारे भी तो बाजी मात नहीं।
गर जीत गए तो क्या कहना!
तो महावीर हो जाता है आदमी, अगर जीत गया।
हारे भी तो बाजी मात नहीं! हार गए तो मीरा पैदा हो जाती है। अड़चन नहीं है, बाधा नहीं है।
गर बाजी इश्क की बाजी है
जो चाहो लगा दो डर कैसा?
गर जीत गए तो क्या कहना
हारे भी तो बाजी मात नहीं।
यह कुछ रास्ता ऐसा है प्रभु का कि जो पहुंचते हैं, वे तो पहुंच ही जाते हैं; जो भटकते हैं वे भी पहुंच जाते हैं। संसार के मार्ग पर उलटी ही कथा है: जो पहुंचते हैं, वे भी नहीं पहुंचते; जो भटकते हैं, उनका तो कहना ही क्या! परमात्मा के मार्ग पर जो पहुंचते हैं, वे तो पहुंच ही जाते हैं; जो भटकते हैं, वे भी पहुंच जाते हैं। इतना ही क्या कम है कि हम उसे खोजने में भटके? इतना कम है कि हमने उसे खोजना चाहा? इतना कम है कि अंधेरी रात में हमने उस दीये की आशाएं और सपने संजोए?
कैफियत उनके करम की कोई हमसे पूछे
जिससे खुश होते हैं दीवाना बना देते हैं।
परमात्मा का प्रेम जब तुम पर बरसेगा तो दीवानगी और बढ़ेगी, आंसू और बहेंगे, हृदय टूटेगा, बिखरेगा। राख हो जाओगे तुम उस बड़े मरुस्थल में--जहां मीरा भी खो गई है, चैतन्य भी खो गए हैं, जहां राबिया खो गई है, जहां कबीर, नानक, रैदास खो गए हैं। उस विराट मरुस्थल में तुम भी खो जाओगे। लेकिन खोने के पहले एक शर्त पूरी कर देनी जरूरी है कि तुम जो कर सकते हो वह कर लो; अन्यथा तुम्हें ऐसा लगा रहेगा कुछ न कुछ कर लेते। अटके रहोगे। अहंकार थोड़ी-सी जगह बनाए रखेगा।
प्रेम की आकांक्षा जिसने की है और भक्ति का मार्ग जिसने चुना है, उसने बड़े असंभव की आकांक्षा की है।
इसलिए महावीर गणित की तरह साफ हैं। वहां साफ-सुथरा विज्ञान है। इसलिए जैन-धर्म में विज्ञान की भाषा है। मीरा और चैतन्य, नारद और कबीर--उनकी भाषा अटपटी है, सधुक्कड़ी, उलटबांसी जैसी। वहां गंगा गंगोत्री की तरफ बहती है। बड़ी रहस्य से भरी, क्योंकि उन्होंने बड़े असंभव की आकांक्षा की है। महावीर की बात चाहे कितनी ही कठोर मालूम पड़ती हो, लेकिन गणित के समझ में आनेवाली है। और प्रेमियों की बात चाहे कितनी ही सरल मालूम पड़ती हो, बड़ी असाध्य मालूम होती है।
उस दर्द को मांगा, मेरी हिम्मत कोई देखे
जो दर्द भी नाकाबिले-दरमां नज़र आया।
--प्रेम का दर्द ऐसा है कि असाध्य है; इसका कोई इलाज नहीं है।
उस दर्द को मांगा, मेरी हिम्मत कोई देखे
जो दर्द भी नाकाबिले-दरमां नज़र आया।
--जिसका कोई इलाज नहीं, असाध्य है, जिसकी कोई औषधि नहीं।
प्रेम एक ऐसी पीड़ा है, जिसका कोई इलाज नहीं। लेकिन जिसने उस पीड़ा को स्वीकार कर लिया है, वह धीरे-धीरे पायेगा: पीड़ा मीठी होती जाती है; पीड़ा और मीठी होती जाती है। और एक दिन पता चलता है कि जिसे हमने पहले क्षण में दर्द जाना था, वह दर्द न था; वह उस प्रभु के आने की खबर थी, उसके पगों की ध्वनि थी, आहट थी। हम परिचित न थे, इसलिए दर्द जैसा मालूम हुआ था; या प्रभु इतनी तीव्रता से करीब आया था कि हम झेल न सके थे, हमारी पात्रता न थी; जैसे कि आंख में सूरज एकदम से पड़ गया हो और आंखें चौंधिया जायें और दर्द मालूम पड़े।
जब परमात्मा की तरफ कोई चल रहा है तो उसने एक ऐसी दीवानगी मांगी है, जो असंभव जैसी लगती है।
यहां संसार में धन नहीं मिलता; यहां संसार में प्रेमपात्र नहीं मिलता; यहां संसार में कुछ भी नहीं मिलता--ऐसे संसार में हमने परमात्मा को मांगा है। जहां कुछ भी नहीं मिलता; जहां जो दिखाई पड़नेवाली चीजें हैं, वे भी हाथ में पकड़ में नहीं आतीं--वहां हमने अदृश्य को पकड़ना मांगा है! दृश्य पकड़ में नहीं आता, सीमित पर हाथ नहीं बंधते--वहां हमने असीम की अभीप्सा की है!
उस दर्द को मांगा, मेरी हिम्मत कोई देखे
जो दर्द भी नाकाबिले-दरमां नज़र आया।
राह बड़ी पीड़ा से भरी है, पर पीड़ा बड़ी मधुर है। उसके मार्ग पर लगे कांटे भी अंततः फूल बन जाते हैं।
 आज इतना ही।


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