6
दिसंबर, 1976;
श्री
रजनीश आश्रम,
पूना।
पहला
प्रश्न :
बड़ी
जहमतें
उठायीं तेरी
बंदगी के पीछे
मेरी हर खुशी
मिटी है तेरी
हर खुशी के
पीछे मैं कहा—कहा
न भटका तेरी
बकी के पीछे!
अब आगे मैं
क्या करूं, यह
बताने की
अनकंपा करें।
करने
में भटकन है।
फिर पूछते हो, आगे
क्या करूं! तो
मतलब हुआ : अभी
भटकने से मन
भरा नहीं।
करना ही भटकाव
है। साक्षी
बनो, कर्ता
न रहो।..... .तो फिर
मेरे पास आ कर
भी कहीं
पहुंचे नहीं।
फिर भटकोगे।
किया कि भटके।
करने में भटकन
है। कर्ता
होने में भटकन
है। लेकिन मन
बिना किये
नहीं मानता।
वह कहता है, अब कुछ
बतायें, क्या
करें?
न
करो तो सब हो
जाये। करने की
जिद्द किये
बैठे हो। कर—कर
के हारे नहीं? कर—कर
के क्या कर
लिया है? इतना
तो किया, जन्मों—जन्मों
किया—परिणाम
क्या है?
लेकिन मन यही
कहे चला जाता
है कि शायद
अभी तक ठीक से
नहीं किया, अब ठीक से कर
लें तो सब हो
जाये। मन वहीं
धोखा देता है।
मैंने
सुना, जूतों
की एक दूकान
पर एक ग्राहक
ने जूते की जोड़ी
पसंद करके
कीमत पूछी। तो
मुल्ला
नसरुद्दीन, जो वहा
सेल्समैन का
काम करता है, उसने दाम
बतलाये—चालीस
रुपया।
ग्राहक ने कहा,
मेरे पास दस
रुपये कम हैं,
बाद में दे
जाऊंगा। तो
नसरुद्दीन ने
कहा, मालिक
से कह दें, वे
मान लें तो
ठीक है।
ग्राहक ने
मालिक के पास
जा कर निवेदन
किया। मालिक 'ना' कहने
जा ही रहा था
कि नसरुद्दीन
ने जूते की जोड़ी
डब्बे में बाध
कर ग्राहक को
देते हुए कहा
मालिक से : 'दे
दीजिये साहब,
ये दस रुपया
दे जायेंगे।
भरोसा रखिये।’
जब ग्राहक
जूता ले कर
चला गया और
मालिक ने पूछा,
क्या तुम
उसे जानते हो
नसरुद्दीन? नसरुद्दीन
ने कहा : 'जानता
तो नहीं, पहले
कभी देखा भी
नहीं। इस गाव
में भी रहता
है, इसका
भी कुछ पक्का
नहीं। लेकिन
इतना जानता
हूं कि वह
वापिस आयेगा,
दस रुपये
लेकर जरूर
वापिस आयेगा,
आप घबड़ाये
मत। क्योंकि
मैंने दोनों
जूते एक ही
पैर के बांध दिये
हैं।’
अब
लाख उपाय करो, एक
ही पैर के दो
जूते बैठेंगे
नहीं।
परमात्मा ने
तुम्हें जब इस
संसार में
भेजा है, तो
एक ही पैर के
दो जूते बांध
दिये हैं, ताकि
तुम संसार में
भटक न जाओ और
लौट आओ। संसार
एक प्रशिक्षण
है। यहां
जागना सीखना
है। कर—कर के
इसीलिए तो कुछ
परिणाम नहीं
होता। कर—कर
के हार ही हाथ
लगती है। कर—कर
के टूटते हो, पराजित होते
हो। करने का
फैलाव संसार है।
और जो जागने
लगा इस फैलाव
में, उसका
धर्म में
प्रवेश हुआ।
और जो जाग गया,
वह
परमात्मा के
घर वापिस लौट
गया।
तुम
कहते हो : 'बड़ी
जहमतें
उठायीं तेरी
बंदगी के
पीछे!'
इसमें
थोड़ी भ्रांति
है। तुमने
बंदगी के पीछे
जहमतें नहीं
उठायीं। तुम
जहमतें उठाना
चाहते थे
इसलिए उठायीं।
जहमतें उठाने
में अहंकार को
तृप्ति है।
तुमने कष्ट
झेले—प्रार्थना
के लिए नहीं।
क्योंकि
प्रार्थना के
लिए तो जरा—सा
भी कष्ट झेलने
की जरूरत नहीं
है।
प्रार्थना
में तो कांटा
है ही नहीं, प्रार्थना
तो फूल है।
प्रार्थना तो
कमल जैसी कोमल
है। जहमतें!
प्रार्थना
में! तो फिर
स्वर्ग कहां होगा?
फिर सुख कहां
होगा? फिर
आनंद कहां
होगा?
नहीं, ये
बदगी के कष्ट
नहीं हैं जो
तुमने झेले।
तुमने बंदगी
के नाम से
झेले हों, यह
हो सकता है; लेकिन ये
कष्ट अहंकार
के ही हैं।
तुमने
परमात्मा को
खोजने में
तकलीफ पायी, ऐसा तो हो ही
नहीं सकता।
परमात्मा को
खोजने में कोई
कैसे तकलीफ
पायेगा! तुम
खोजने में तकलीफ
पाये। कोई धन
खोजने में पा
रहा है, कोई
पद खोजने में
पा रहा है, तुमने
परमात्मा
खोजने में
पायी।
तुम्हारे
खोजने के अलग—अलग
बहाने हैं, मगर खोजने
का जो मजा है, जो अहंकार
की तृप्ति है,
उसके कारण
तुमने जहमत
उठायी।
'मेरी हर
खुशी मिटी है
तेरी हर खुशी
के पीछे।’
उसकी
खुशी का तो
तुम्हें पता
नहीं और
तुम्हारे पास
कभी खुशी थी
जो मिटा दोगे? खुशी
ही होती तो
कौन परेज्ञान
होता
परमात्मा को
खोजने के लिए!
तुमने सुखी आदमी
को परमात्मा
की याद भी
करते देखा? मैं गवाह
हूं मैं कभी
याद नहीं करता।
याद किसलिए
करनी है? दुख.....
दुख में ही
तुम याद करते
हो। खुशी तो
थी ही नहीं।
कविताएं बना
कर अपने आपको
धोखा मत दो।
कविताएं
सुंदर हो सकती
हैं,
इससे सच
नहीं हो जातीं।
सत्य निश्चित
सुंदर है, लेकिन
जो—जो सुंदर
है, सभी
सत्य नहीं है।
सत्य
महासुंदर है।
लेकिन कोई चीज
सुंदर है, इसीलिए
सत्य मत मान
लेना। क्योंकि
तुम तो न—मालूम
क्या—क्या
चीजों को
सुंदर मानते
हो! तुम तो
हड्डी—मांस—मज्जा
की देह को भी
सुंदर मान
लेते हो, जो
कि बिलकुल असत
है। तुम तो
आकाश में उठ
गये
इंद्रधनुष को
भी सुंदर मान
लेते हो, जो
कि है ही नहीं!
तुम तो रात
सपने को भी
सुंदर मान
लेते हो—और हजार
बार जाग कर
पाया है कि
झूठ है!
तुम्हारे सौंदर्य
में कुछ बहुत
सत्य नहीं है,
हो नहीं
सकता! सत्य
तुममें हो, तो ही हो
सकता है।
कविता
तो सुंदर चुनी
है तुमने। वह
भी तुम्हारी
नहीं है, वह भी
उधार है।
'मेरी हर
खुशी मिटी है
तेरी हर खुशी
के पीछे।’
नहीं, परमात्मा
तुमसे किसी
तरह का बलिदान
तो चाहता ही
नहीं। और
जिन्होंने
तुम्हें
सिखाया है कि
परमात्मा
बलिदान चाहता
है, वे
बेईमान हैं।
उन्होंने
परमात्मा के
नाम से तुमसे
किसी और वेदी
पर बलिदान
करवा लिया है।
हजार लोग
उत्सुक हैं
तुम्हारा
बलिदान हो जाये,
तुम शहीद हो
जाओ। कोई कहता
है, राष्ट्र
के नाम पर
शहीद हो जाओ।
कोई कहता है, धर्म के नाम
पर शहीद हो
जाओ, जेहाद
में शहीद हो
जाओ! अगर धर्म
के युद्ध में मरे
तो स्वर्ग
मिलगा, बहिश्त
मिलेगी! लेकिन
धर्म का कोई
युद्ध होता है?
अगर धर्म का
भी युद्ध होता
है, तो फिर
अधर्म का क्या
होगा?
धार्मिक
व्यक्ति का भी
कोई राष्ट्र
होता है? अगर
धार्मिक
व्यक्ति भी
राष्ट्रों
में बंटा है, तो
राजनीतिज्ञ
है। धार्मिक
व्यक्ति की
कोई राष्ट्र —
भक्ति होती है?
जमीन के
टुकड़ों के
प्रति भक्ति? असंभव है!
धार्मिक
व्यक्ति का
इतना नीचा बोध
नहीं होता।
तुम्हारे
बोध तो बड़े अजीब
हैं! तुम तो
झंडा कोई नीचा
कर दे तो जान
देने को तैयार
हो। और उसने
कुछ नहीं किया।
डंडे में एक
कपड़ा लटका रखा
है,
उसको तुम
झंडा कहते हो।
और झंडा ऊंचा
रहे हमारा!
तुम
कभी अपनी
मूढ़ताओं का
विश्लेषण
किये हो? और इन
पर तुम
कुर्बान होने
को तैयार हो, मरने को
तैयार हो! असल
में तुम्हारी
जिंदगी में
कुछ भी नहीं है।
तुम्हारी
जिंदगी
बिलकुल खाली
है। तुम चले—चलाये
कारतूस हो—कहीं
भी लगा दो! चलो
इसी में थोड़ा
हो जाये!
लेकिन
मैं तुमसे यह
कहना चाहता
हूं परमात्मा तुमसे
बलिदान नहीं
मांगता।
परमात्मा
तुमसे उत्सव
मांगता है।
मुझे तुम अगर
समझना चाहते
हो,
तो इस शब्द 'उत्सव' को
ठीक से समझ
लेना।
परमात्मा
नहीं चाहता कि
तुम रोते हुए
उसकी तरफ आओ—गिड़गिड़ाते,
दावे करते
हुए, कि
मैंने कितना
बलिदान किया!
परमात्मा
चाहता है कि
तुम नाचते हुए
आओ, गीत
गाते, सुगंधित,
संगीतपूर्ण,
भरे—पूरे!
तुम्हारा
उत्सव ही उस
तक पहुंचता है।
उत्सव के क्षण
में ही तुम
उसके पास होते
हो।
तो
ये तो तुम
बातें छोड़ दो
कि तुमने अपनी
खुशियां लुटा
दीं! खुशियां
थीं कहां? होतीं
तो तुम लुटा
देते? खुशियां
तो कभी थीं ही
नहीं! दुख ही
दुख था। उसी
दुख के कारण
तो तुम खोजने
निकले। लेकिन
आदमी अपने को
भी धोखा देने
की कोशिश करता
है।
तुमने
देखा, जवान
आदमी कहता है,
बचपन में
बड़ी खुशी थी!
का कहता है, जवानी में
बड़ी खुशी थी।
मरता हुआ आदमी
कहता है, जीवन
में बड़ी खुशी
थी। ऐसा लगता
है कि जहां
तुम होते हो
वहां तो खुशी नहीं
होती, जहां
से तुम निकल
गये वहां खुशी
होती है।
बच्चों से
पूछो! बच्चे
खुश इत्यादि
जरा भी नहीं।
यह को की
बकवास है! ये
बुढ़ापे में
लिखी गयी कविताएं
हैं कि बचपन
में बड़ी खुशी
थी। बच्चों से
तो पूछो।
बच्चे बड़े
दुखी हो रहे
हैं। क्योंकि
बच्चों को
सिवाय अपनी
असहाय अवस्था के
और कुछ समझ
में नहीं आता।
और हरेक डाट
रहा है, डपट
रहा है। इधर
बाप है, इधर
मां है; इधर
बड़ा भाई है, उधर स्कूल
में शिक्षक है,
और सब तरह
के डांटने—डपटने
वाले— और
बच्चे को लगता
है, किसी
तरह बड़ा हो
जाऊं बस, तो
इन सबको मजा
चखा दूं!
एक
छोटा बच्चा
स्कूल में, शिक्षक
उसे कह रहा था.
शिक्षक ने उसे
मारा। वह
बच्चा रो रहा
था। तो शिक्षक
ने कहा. 'रोओ
मत, समझो।
मैं तुम्हें
प्रेम करता
हूं इसीलिए
तुम्हें मारता
हूं—ताकि तुम
सुधसे, तुम्हारे
जीवन में कुछ
हो जाये, कुछ
आ जाये।’ बच्चे
ने कहा: 'प्रेम
तो मैं भी
आपको करता हूं, लेकिन
प्रमाण नहीं
दे सकता!'
प्रमाण
बाद में देना
पड़ता है।
बच्चा कैसे
प्रमाण दे
अभी!
छोटे
बच्चे को पूछो, छोटा
बच्चा खुश
नहीं है। हर
बच्चा जल्दी
से बड़ा हो
जाना चाहता है।
इसीलिए तो कभी
बाप के पास भी
कुर्सी पर खड़ा
हो जाता है और
कहता है, देखो
मैं तुमसे बड़ा
हूं! हर बच्चा
चाहता है बताना
कि मैं तुमसे
बड़ा हूं! रस
लेना चाहता है
इसमें कि मैं
भी बड़ा हूं मैं
छोटा नहीं
हूं! छोटे में
निश्चित ही
दुख है। कहां
का सुख बता
रहे हो तुम
बच्चे को? हर
चीज पर निर्भर
रहना
पड़ता है—मिठाई
मांगनी तो
मांगनी, आइसक्रीम
चाहिए तो
मांगनी। और
मांगे
आइसक्रीम, मिलती
कहां है? हजार
उपदेश मिलते—कि
दात खराब हो
जायेंगे, कि
पेट खराब हो
जायेगा।
और
बच्चों की कभी
समझ में नहीं
आता कि भगवान
भी खूब है, बेस्वाद
साग— भाजी में
सब विटामिन रख
दिये और
आइसक्रीम में
कुछ नहीं; सिर्फ
बीमारियां ही
बीमारियां! जो
स्वादिष्ट
लगता है उसमें
बीमारी है और
जो स्वादिष्ट
नहीं लगता—पालक
की भाजी—उसमें
सब लोहा और
विटामिन और सब
ताकत की चीजें
भरी हैं।
परमात्मा भी
पागल मालूम
पड़ता है। यह
तो सीधी—सी
बात है कि
विटामिन कहां
होने चाहिए
थे!
बच्चा
कोई सुखी नहीं
है। लेकिन जब
तुम जवान हो
जाओगे और
जवानी के दुख
आयेंगे, तब
तुम अपने मन
को समझाने
लगोगे, बचपन
कितना
सुखपूर्ण था!
यह झूठ है। यह
तुम अपने को
समझा रहे हो।
आज तो सुख
नहीं है, तो
दो ही उपाय
हैं अपने को
समझाने के :
पीछे सुख था
और आगे सुख
होगा। आगे का
तो इतना पक्का
नहीं है, क्योंकि
आगे क्या होगा,
क्या पता!
लेकिन पीछे, पीछे का तो
अब मामला खतम
हो चुका, वहां
से तो गुजर
चुके। जिस राह
से आदमी गुजर
जाता है उस
राह के सुखों की
याद करने लगता
है। वे सब
कंकड़—पत्थर, कांटे, कंटकाकीर्ण
यात्रा, सब
भूल जाती है, धूल— धवांस, धूप, वह
सब भूल जाती
है। जब किसी
वृक्ष की छाया
में बैठ जाता
है तो याद करने
लगता है, कैसी
सुंदर यात्रा
थी!
मैं
एक सज्जन के
साथ पहाड़ पर
था। वे जब तक
पहाड़ पर रहे, गिड़गिड़ाते
ही रहे, शिकायत
ही करते रहे
कि क्या रखा
है, इतनी
चढ़ाई और कुछ
सार नहीं
दिखाई पड़ता।
और थक जाते और
हांफते और
कहते, अब
कभी दुबारा न
आऊंगा। मैं
उनकी सुनता
रहा। फिर हम
पहाड़ से नीचे
उतर आये। गाड़ी
में बैठ कर
वापिस घर
लौटते थे कि
ट्रेन में एक
सज्जन ने पूछा
कि क्या आप
लोग पहाड़ से आ
रहे हैं? उन्होंने
कहा, 'अरे
बड़ा आनंद आया!'
मैंने कहा,
'सोच समझ कर
कहो, फिर
तो तैयारी
नहीं कर रहे
आने की?
किससे कह रहे
हो? और
मेरे सामने कह
रहे हो कि बड़ा
आनंद आया!'
वे
थोड़ा झिझके!
क्योंकि ऐसा
तो सभी यात्री
कहते हैं लौट
कर कि बड़ा
आनंद आया। हज—यात्री
से पूछो, कहेगा,
बड़ा आनंद
आया! बातों
में मत पड़
जाना। यह तो
यात्री यह कह
रहा है कि अब
अपनी तो कट ही
गयी, दूसरों
की भी कटवा दो।
अब यात्री यह
कह रहा है कि
कट तो गयी, अब
और स्वीकार
करना कि वहा
दुख पाया और
मूढ़ बने, अब
यह और बदनामी
क्यों करवानी?
बड़ा आनंद
आया! सभी
यात्री लौट कर
यही कहते हैं कि
बड़ा आनंद, गजब
का आनंद! कैसा
सौंदर्य!
स्वर्गीय
सौंदर्य! ऐसी
भ्रांति पलती
है।
का
आदमी जवानी के
सौंदर्य और
सुख की बातें
करने लगता है।
और जवान सिर्फ
बेचैन है।
जवान सिर्फ
परेज्ञान है, ज्वरग्रस्त
है, वासना
से दग्ध है, अंगारे की
तरह वासना
हृदय को काटे
जाती है, चुभती
है धार की तरह।
कहीं कोई सुख—चैन
नहीं है। हजार
चिंताएं हैं—व्यवसाय
की, धंधे
की, दौड़—
धाप है। मरता
हुआ आदमी
सोचने लगता है,
जीवन में
कैसा सुख था!
मैं
तुमसे इसलिए
यह कह रहा हूं
ताकि तुम्हें
खयाल रहे।
जहां सुख नहीं
है वहा सुख
मान मत लेना।
दुख को दुख की
तरह जानना।
दुख को जो दुख
की तरह जान
लेता है, वह
सुख को पाने
में समर्थ हो
जाता है। और
जो अपने को
मना लेता है, झूठी
सांत्वनाओं
में ढांक लेता
है अपने को, ओढ़ लेता है
चादरें असत्य
की—वह भटक
जाता है।
'मैं कहां—कहां
न भटका तेरी
बंदगी के
पीछे!'
अब
बंदगी करनी हो
तो कहीं भटकने
की जरूरत है? कोई
मक्का, मदीना,
काशी, गिरनार,
कि सारनाथ,
कि बोधगया
जाने की जरूरत
है? बदगी
करनी हो तो
यहीं नमन हो
जाये। बंदकी
तो झुकने का
नाम है, जहां
झुक गये बंदगी
हो गयी। तुम
जहा झुके, वहीं
परमात्मा
मौजूद हो जाता
है—तुम्हारे
झुकने में
मौजूद हो जाता
है। उसको
खोजने कहां
जाओगे? कुछ
पता—ठिकाना
मालूम है? जाओगे
कहां? जहां
भी जाओगे, तुम
तुम ही रहोगे।
अगर झुकना था
तो यहीं झुक जाते।
काबा जाते हो
झुकने? अगर
पत्थरों के
सामने ही
झुकने में
लगाव है तो
यहां कोई
पत्थरों की
कमी है? कोई
भी पत्थर रख
कर झुक जाओ।
काशी जाते हो?
काशी में जो
रह रहे हैं, तुम समझते
हो उनको बंदगी
उपलब्ध हो गयी
है?
कबीर
तो मरते दम तक
काशी में थे।
आखिरी घड़ी
बीमार जब पड़
गये,
अपने बेटे
से कहा कि अब
मुझे यहां से
हटा; मुझे
मगहर ले चल।
अब मगहर!
कहावत है काशी
में, काशी
के लोगों ने
ही गढ़ी होगी
कि मगहर में
जो मरता है, वह नर्क
जाता है या
गधा होता है, और काशी में
जो मरता है—काशीकरवट—वह
तो सीधा
स्वर्ग जाता
है। कबीर उठ
कर खड़े हो गये
अपने बिस्तर
से और कहा कि
मुझे मगहर ले
चल। लड़के ने
कहा, बुढ़ापे
में आपका
दिमाग खराब हो
रहा है? मगहर
से तो लोग
मरने काशी आते
हैं। मगहर में
मरें तो गधे
हो जाते हैं।
तो कबीर ने
कहा, वह
गधा हो जाना
मुझे पसंद है,
लेकिन काशी
का ऋण नहीं
लूंगा। यह
अहसान नहीं लूंगा।
अगर अपने कारण
स्वर्ग
पहुंचता हूं
तो ठीक है।
काशी के कारण
स्वर्ग गया, यह भी कोई
बात हुई त्र
किस मुंह से
भगवान के सामने
खड़ा होऊंगा? वे कहेंगे, काशी में
मरे कबीर, इसलिए
स्वर्ग आ गये,
मगहर में
मरते तो गधा
होते। मैं तो
मगहर में ही
मरूंगा। अगर
मगहर में मर कर
स्वर्ग
पहुंचूं तो ज्ञान
से प्रवेश तो
होगा। यह कह
तो सकूंगा, अपने कारण
आया, काशी
के कारण नहीं
आया।
तुम
कहां खोजते
फिर रहे हो? तुम
कारण खोज रहे
हो कि किसी
बहाने, किसी
पीछे के
दरवाजे से
परमात्मा मिल
जाये। मैं
तुमसे यह कहता
हूं
तीर्थयात्रा
पर तुम इसीलिए
जाते हो कि
तुम झुकना
नहीं चाहते, तुम बदगी
करना नहीं
चाहते।
तुम्हें बड़ी
उल्टी बात
लगेगी।
क्योंकि तुम
तो सोचते हो
बंदगी के लिए
तीर्थयात्रा
कर रहे हैं।
बंदगी के लिए
कहीं जाने की
भी जरूरत है? तुम जहा हो
वहीं झुक जाओ।
तुम्हें अब तक
समझाया गया है
कि वहां जाओ
जहां परमात्मा
है, वहा
झुकोगे तो
मोक्ष मिलेगा।
मैं तुमसे
कहता हूं : तुम
जहां झुक जाओ
वहां परमात्मा
के चरण मौजूद
हो जाते हैं।
तुम्हारे
झुकने में ही—वही
कला है—तुम्हारे
झुकने में ही
परमात्मा के
चरण मौजूद हो
जाते हैं। तुम
झुके नहीं कि
परमात्मा
मौजूद हुआ
नहीं। तुम झुके
नहीं कि
परमात्मा
तुम्हारे
भीतर उंडला नहीं।
तुम
भटकते रहे
अपने कारण।
नहीं, इसको
परमात्मा के
कारण मत कहो।
परमात्मा के
कारण कोई कभी
भटका है?
और
अब तुम फिर
पूछते हो कि 'अब
आगे मैं क्या
करूं, यह
बताने की
अनुकंपा करें।’
अनुकंपा!
मैं तुम्हारा —दुश्मन
नहीं हूं कि
अब तुम्हें और
कुछ बताऊं कि
अब तुम यह करो!
मैं तुमसे
कहूंगा. बहुत
हो गया करना, अब
'न—करने' में विराजो।
अब न—करने के
सिंहासन पर
बैठो।
अब
साक्षी बनो।
अब देखो।
कर्ता नहीं—द्रष्टा।
अब तो सिर्फ
बैठो, जो
परमात्मा
दिखाये, देखो;
जो कराये, कर लो—लेकिन
कर्ता मत बनो।
भूख लगाये तो
भोजन खोज लो।
प्यास लगाये
तो सरोवर की
तलाश कर लो।
नींद लगाये तो
सो जाओ। नींद
तोड़ दे तो उठ
आओ। मगर
साक्षी रहो।
सारा कर्तापन
उसी पर छोड़ दो।
अष्टावक्र
का सार—सूत्र
यही है कि तुम
देखने में
तल्लीन हो जाओ, द्रष्टा
हो जाओ। भूख
लगे तो देखो। ऐसा
मत कहो, मुझे
भूख लगी है।
कहो, परमात्मा
को भूख लगी।
उसी को लगती
है! नींद लगे
तो कहो उसको
नींद आने लगी,
वह मेरे
भीतर झपकने
लगा, अब सो
जाना चाहिए, मैं बाधा न
दूं। प्यास
लगे, पानी
पी लो। जब
तृप्ति हो तो
पूछ लो उससे
कि 'तृप्त
हुए न? तुम्हारा
कंठ अब जल तो
नहीं रहा
प्यास से?' मगर
तुम देखने
वाले ही रहो।
बस, इतना
सध जाये तो सब
सध गया। इक
साधे, सब
सधै। तुम हजार—हजार
काम करते रहो,
कुछ भी न
होगा। तुम एक
छोटी—सी बात
साध लो.
साक्षी हो जाओ।
मैंने
सुना, एक
डाक्टर के
क्लीनिक में
कंपाउंडर एक
छोटे—से बच्चे
के पैर में
पट्टी बांध
रहा था। पर
बच्चा उछलता—कूदता
था, शोरगुल
मचाता था, चीखता—चिल्लाता
था। अंततः
डाक्टर ने
गुस्से में आ
कर कहा, हटो,
मैं बांधता
हूं। और उस
लड़के से कहा, सीधे खड़े
रहना बच वरना
इंजेक्यान
लगा दूंगा।
बीच में बच्चे
ने कुछ कहना
भी चाहा तो
डाक्टर ने फिर
कहा कि अगर
जरा बोले तो
इंजेक्यान
लगा दूंगा बच
शांत खड़े रहो।
अब ऐसी हालत
थी तो बच्चा
बिलकुल
योगासान साधे
खड़ा रहा।’ड्रेसिंग'
हो जाने के
बाद डाक्टर ने
पूछा, बोलो
बीच में क्या
कह रहे थे? उसने
कहा, यही
कह रहा था
डाक्टर साहब,
कि चोट
दायें पैर में
है और आपने
पट्टी बायें पैर
में बांध दी।
कर्ता
होने में चोट
ही नहीं है, वहां
तुम पट्टी
बांध रहे हो।
वह असली
भ्रांति वहा
नहीं है।
बीमारी वहां
नहीं है और
पट्टी तुम
वहां बांध रहे
हो। बीमारी है
तुम्हारी
साक्षी— भाव
में।
तुम्हारा बोध
खो गया है।
तुम्हारा होश
खो गया है।
तुम्हारा
ध्यान खंडित
हो गया है।
तुम्हारी
जागृति धूमिल
हो गयी है।
प्रश्न वहां
है, समस्या
वहां है। तुम
कहते हो, क्या
करें? किया
कि भटके। चले
कि भटके। बैठ
जाओ, करो
मत! देखो और
पहुंच गये।
पहुंचने
का सूत्र—कहीं
चल कर नहीं
पहुंचना है।
पहुंचे हुए
तुम हो। यही
तो अष्टावक्र
की उदघोषणा है।
यह महावाक्य
है कि तुम
वहीं हो जहां
तुम्हें होना
चाहिए। तुम
जरा आंख खोलो।
मैं
झेन फकीर
रिंझाई का
जीवन कल रात
पढ़ रहा था।
किसी ने पूछा
आ कर रिंझाई
को कि आप तो ज्ञान
को उपलब्ध हो
गये,
आप मुझे
समझायें कैसे
उपलब्ध हुए और
मैं क्या करूं?
तो रिंझाई
ने कहा, 'करूं!
तुम शात हो कर
मुझे देखो मैं
क्या करता हूं।’
और रिंझाई
ने झट से आंख
बंद कर ली
थोड़ी देर आंख
बंद किये बैठा
रहा, फिर आंख
खोली। और उस
आदमी से कहा, समझे? उस
आदमी ने कहा, 'क्या खाक
समझे—तुमने
जरा आंख बंद
कर ली, आंख
खोल ली—इसमें
कुछ समझना है?'
उन्होंने
कहा, 'तो फिर
तुम न समझ
पाओगे। बस बात
इतनी है—आंख
खोलने और बंद
करने की है।
इससे ज्यादा
करने को कुछ
भी नहीं है।
पहले मैं बंद आंख
किये था, अब
मैंने आंख खोल
ली। इतना ही
फर्क पड़ा है।
जो मैं पहले
था, वही
मैं अब हूं।
पहले सोया—सोया
था, अब
जागा—जागा हूं।
पहले होश का
दीया न जलता
था, अब होश
का दीया जलता
है। घर वही है,
सब कुछ वही
है। सिर्फ एक
दीया भीतर जल
गया है।
कुछ
भी बदलता नहीं
बुद्धपुरुष
में।
तुम्हारे
जैसे ही हैं
बुद्धपुरुष।
जरा—सा भेद है।
बड़ा छोटा—सा
भेद है। तुम आंख
बंद किये बैठे
हो,
उन्होंने आंख
खोली ली। बस
पलक का भेद है।
तो
अब मत पूछो कि
और क्या करें।
करने से संसार
बनता है, न
करने से प्रभु
मिलता है। अब
तो तुम साक्षी
हो जाओ। अब
मेरे पास आ ही
गये हो, तो
अब तो बैठ जाओ—आलसी
शिरोमणि! जैसा
अष्टावक्र
कहते हैं। यह
शब्द मेरा
नहीं है। मेरा
होता तो तुम
जरा हैरान
होते।
अष्टावक्र कहते
हैं, आलसी
शिरोमणि हो
जाओ। करो ही
मत।
और
ध्यान रखना, फर्क
क्या करते हैं
साधारण आलसी
और आलसी शिरोमणि
में? साधारण
आलसी करता तो
नहीं, कर्म
तो नहीं करता,
पड़ा रहता है
बिस्तर पर, लेकिन कर्म
की योजनाएं
बनाता है।
आलसी शिरोमणि
करता है बहुत
कुछ जो
परमात्मा करवाता
है, लेकिन
कर्ता का भाव
नहीं है, न
कोई कर्म की
योजना है। जो
करवा लिया
क्षण में, कर
देता है, फिर
बैठ गया। जब
आज्ञा आ गयी, कर देता है; जब आशा न आयी,
तब विश्राम
करता है।
साधारण आलसी
कर्म छोड़ देता
है। और कर्ता
छोड़ देता है
जो, वही है
आलसी शिरोमणि।
तुम आलस्य के
परम शिखर को
छू लो। बस
मेरी शिक्षा
भी यही है।
दूसरा
प्रश्न :
ऐसा
लगता है कि
मेरा सब कुछ झूठ
है—हरेक बात, हरेक
विचार, हरेक
भाव, प्रेम,
प्रार्थना
और हंसना और
रोना भी। मैं जीता—जागता
झूठ हूं। ऐसे
में अब क्या
हो भगवान? अब
खुद पर भरोसा
नहीं आता। यह
लिखना भी झूठ
है शायद।
पूछा
है 'कृष्णप्रिया'
ने।
यह
तो बड़ी सत्य
की किरण उतरी।
अगर ऐसा समझ
में आ जाये कि
मेरा सब झूठ
है,
तो आधा काम
पूरा हो गया; निर्वाण दूर
न रहा। आधा
काम पूरा हो
गया। ऐसा समझ
में आ जाये कि
मेरा सब झूठ
है तो हम सच के
करीब सरकने
लगे। क्योंकि
सच के करीब
सरकते हैं, तभी यह समझ
में आता है कि
मेरा सब झूठ
है। झूठे आदमी
को थोड़े ही
समझ में आता
कि मेरा सब झूठ
है। झूठा आदमी
तो सब तरह के
प्रमाण
जुटाता है कि 'मैं और झूठा!
सारी दुनिया
होगी झूठ, मैं
सच्चा हूं!' झूठा आदमी
दूसरों को ही
नहीं समझाता
है, अपने
को भी समझाता
है कि मैं
सच्चा हूं।
असल में
झूठा
आदमी दूसरे को
इसीलिए
समझाता है कि
दूसरा समझ ले
तो मुझे भी
समझ में आ
जाये कि मैं
सच्चा हूं।
दूसरों की आंखों
में झांकता
रहता है : ' अगर
सब लोग मुझे
सच्चा मानते
हैं तो मैं
सच्चा होऊंगा
ही। अगर मेरी
हंसी झूठ होती
तो दूसरे लोग
मेरे साथ कैसे
हंसते? अगर
मेरा रोना झूठ
होता तो
दूसरों की आंखें
गीली कैसे
होतीं। नहीं,
मैं सच
होऊंगा ही।
देखो, दूसरों
में परिणाम
दिखाई पड़ रहा
है।’ झूठा
आदमी सारे
उपाय करता है
इस बात के
ताकि उसे खुद
भरोसा आ जाये
कि मैं सच हूं।
कृष्णप्रिया
को अगर समझ
में आने लगा
कि मेरा सब
कुछ झूठ है, तो बड़ी शुभ
घड़ी करीब आ
गयी।
'हरेक बात, हरेक विचार,
हरेक भाव, प्रेम, प्रार्थना,
हंसना—रोना
भी......।’
इस
बात को भी
खयाल में लेना
कि जब झूठ
होता है तो
सभी झूठ होता
है,
और जब सच
होता है तो
सभी सच होता
है, मिश्रण
नहीं होता। वह
भी भ्रांति है
झूठे आदमी की।
झूठा आदमी
कहता है : माना
कि कुछ बातें
मुझमें झूठ
हैं, लेकिन
बाकी तो सच
हैं। ऐसा होता
नहीं। या तो
झूठ या सच।
ऐसा बीच—बीच
में नहीं होता
कि कुछ झूठ और
कुछ सच। यह
धोखा है। सच
और झूठ साथ रह
नहीं सकते। यह
तो ऐसा हुआ कि
आधे कमरे में
अंधेरा और आधे
कमरे में
प्रकाश है। यह
होता नहीं।
अगर रोशनी है
तो पूरे कमरे
में हो जायेगी।
अगर अंधेरा है
तो पूरे कमरे
में रहेगा।
तुम ऐसा थोड़े
ही कह सकते हो
कि बीच में एक
रेखा खींच दी,
लक्ष्मण—रेखा
खींच दी कि ' अब इसके पार
मत होना
अंधेरे! तू
उसी तरफ रहना,
इधर रोशनी
जल रही है।’ रोशनी होती
है तो कमरा
पूरा रोशनी से
भर जाता है।
और अंधेरा
होता है तो
पूरा भर जाता
है।
तुम
जब झूठे होते
हो तो पूरे ही
झूठ होते हो।
जब भी कोई
आदमी मुझसे आ
कर कहता है, कुछ—कुछ
शात हूं? तो
मैं कहता हूं
ऐसी बातें मत
करो। कुछ—कुछ
शात! सुना
नहीं कभी।
अशांत लोग
देखे हैं, शात
लोग भी देखे
हैं, लेकिन
कुछ—कुछ शांत!
यह तुम क्या
बात कर रहे हो?
यह तो ऐसा
हुआ कि पानी
हमने गरम किया
और पचास डिग्री
पर कुछ—कुछ
पानी भाप होने
लगा और कुछ—कुछ
पानी पानी
रहा! ऐसा नहीं
होता। सौ
डिग्री पर जब
भाप बनना शुरू
होता है—सौ
डिग्री पर।
ऐसा नहीं कि
पचास डिग्री
पर थोड़ा बना, फिर साठ
डिग्री पर
थोड़ा बना, फिर
सत्तर डिग्री
पर थोड़ा बना—ऐसा
नहीं होता।
छलांग है, विकास
नहीं है।
सीढ़ियां नहीं
हैं—रूपांतरण
है, क्रांति
है।
जिस
दिन यह समझ
में आ जाये कि
मैं बिलकुल
अंधेरा, बिलकुल
असत्य—शुभ घड़ी
करीब आयी। यह
साधक की
तैयारी है।
इससे घबड़ाना
मत। इससे
घबड़ाहट होती
है स्वभावत:, क्योंकि यह
बात मानने का
मन नहीं होता
कि सब झूठ—मेरा
हंसना भी, रोना
भी; मेरा
कुछ भी सच
नहीं है, मेरा
प्रेम, मेरी
प्रार्थना....।
यह
प्रश्न लिखा
है और यह भी
भरोसा नहीं
आता कि यह भी
सच है। यह भी
झूठ है!
ऐसा
जब होता है तब
स्वभावत: बड़ी
बेचैनी पैदा होती
है। उस बेचैनी
से बचने के
लिए आदमी किसी
झूठ को सच बनाने
में लग जाता
है,
तो सहारा बन
जाता है। नहीं,
तुम बनाना
ही मत।
कृष्णप्रिया
को मेरा संदेश
झूठ है सब, ऐसा
जान कर इस
पीड़ा को झेलना।
इसमें
जल्दबाजी मत
करना, लीपापोती
मत करना। किसी
झूठ को रंग—रोगन
करके सच जैसा
मत बना लेना।
सब झूठ है तो
सब झूठ है। सब
झूठ का अर्थ
हुआ कि पूरा
व्यक्तित्व
व्यर्थ है।
अगर इस
व्यर्थता के
बोध को थोड़ा
सम्हाले रखा
तो व्यर्थ गिर
जायेगा, क्योंकि
व्यर्थ
तुम्हारे
बिना सहारे के
नहीं जी सकता।
झूठ तुम्हारे
बिना सहारे के
नहीं जी सकता।
झूठ के पास
अपने पैर नहीं
हैं—तुम्हारे
पैर चाहिए।
इसीलिए तो झूठ
सच होने का
दावा करता है।
झूठ जब सच
होने का दावा
करता है तभी
चल पाता है, झूठ की तरह
कहीं चलता है!
अगर
तुम किसी से
कहो कि यह जो
मैं कह रहा हूं
झूठ है, आप
मान लो। तो वह
कहेगा, 'तुम
पागल हो गये
हो? तुम
खुद ही कह रहे
हो कि झूठ है
तो मैं कैसे
मान लूं? तो
झूठे आदमी को
सिद्ध करना
पड़ता है कि यह
सच है, यह
झूठ नहीं है।
क्योंकि लोग
सच को मानते
हैं, झूठ
को नहीं मानते।
सच को मानते
हैं, इस
कारण अगर झूठ
भी, सच
जैसा दावा
किया जाये, तो मान लिया
जाता है। मगर
चलता सच है।
तुमने
देखा, खोटे
सिक्के चलते
हैं, लेकिन
चलते हैं असली
सिक्के के नाम
से! खोटा सिक्का
खोटा मालूम पड़
जाये, फिर
नहीं चलता, फिर उसी
क्षण अटक गया।
जहां खोटा
सिद्ध हुआ, वहीं अटका।
जब सच्चा
मालूम पड़ता था,
चलता था।
खोटे सिक्के
के पास अपनी
कोई गति नहीं
है। गति सच्चे
से उधार मिली
है।
अब
थोड़ा सोचो, झूठ
तक चल जाता है
सच्चे से थोड़ी—सी
आभा उधार ले
कर! तो सच की तो
क्या गति
होगी! जब सच
पूरा—पूरा सच
होता है तो
तुम्हारे
जीवन में
गत्यात्मकता
होती है। तुम
जीवंत होते हो।
तुम्हारे
जीवन में
लपटें होती
हैं, रोशनी
होती है।
तुम्हारे
जीवन में
प्राण होते
हैं, परमात्मा
होता है।
झूठ
तो उधार है।
उसमें जो थोड़ी—बहुत
चमक दिखाई
पड़ती है, वह भी
किसी और की है—
किसी सच से ले
ली है। तो जब
तुम्हें समझ
में आ जाये कि
मेरा सब झूठ है,
अर्थात मैं
झूठ हूं
क्योंकि 'मैं'
तुम्हारे
सबका ही जोड़
है।
ये
जितनी बातें
कृष्णप्रिया
ने लिखी हैं, इन
सबका जोड़ ही
अहंकार है। सब
झूठों के जोड़
का नाम है
अहंकार। अगर
ऐसा दिखाई पड़
गया तो अहंकार
बिखर जायेगा।
ताश के पत्ते
जैसे मकान
बनाया हो, महल
बनाया हो ताश
के पत्तों का,
हवा का
झोंका लगे और
गिर जाये।
कागज की नाव
चलायी हो और
जरा—सा झोंका
लगे, उलट
जाये, डूब
जाये। यह झूठ
का घर अहंकार
है। यह गिर
जायेगा। अगर
मेरा रोना झूठ
है, तो
मेरा 'मैं'
का एक
हिस्सा गिर
गया। अगर मेरा
हंसना भी झूठ
है, 'मैं' का दूसरा
हिस्सा गिर
गया। अगर मेरी
प्रार्थना भी
झूठ है, तो
परमात्मा और
मेरे बीच में
जो 'मैं' खड़ा था वह भी
गिर गया। अगर
मेरा प्रेम भी
झूठ है, तो
मेरे और मेरे
प्रेमी के बीच
जो खड़ा था
अहंकार वह भी
गिर गया।
विचार भी झूठ
हैं, भाव
भी झूठ हैं।
हरेक बात, हरेक
ढंग, भाव—
भंगिमा. तो
अहंकार के सब
आधार गिरने
लगे, सब
स्तंभ गिरने
लगे। अचानक
तुम पाओगे
खंडहर रह गया।
और उसी खंडहर
से उठती है
आत्मा। उसी
अहंकार के
खंडहर पर जन्म
होता है
तुम्हारे
वास्तविक
स्वरूप का।
सत्य
पैदा होता है
असत्य की राख
पर। हो जाने
दो। पीड़ा होगी।
बड़ा संताप
होगा।
क्योंकि यह
बात मानने का
मन नहीं होता
कि मेरा सब
झूठ है। कुछ
तो सच होगा!
लेकिन स्मरण
रखना कुछ सच
नहीं होता। सच
होता है तो
पूरा होता है, या
नहीं होता।
हम
झूठ के सहारे
जी रहे हैं, क्योंकि
सच का हमें
पता नहीं। और
बिना किसी
सहारे के जीना
संभव नहीं है।
सच का हमें
कुछ पता नहीं है
क्या है। और
जीने के लिए
कुछ तो सहारा
चाहिए। जीने
के लिए कुछ तो
बहाना चाहिए।
तो हम झूठ के
साथ जी रहे
हैं। हमने झूठ
को सच मान
लिया है। मैं
एक कविता पढ़
रहा था
प्रेम
के सघन कुंजों
में
उदासी
की गहरी छांव
तले
आओ
पल दो पल बैठ
संतप्त मन को
थोड़ा—सा
बांट लें
श्वासों
के गांव में
छाये हुए
यादों के
कोहरे को
आपसी
मिलापों से आओ
हम छांट लें
भूले
अनुबंधों को, बिखरे
संबंधों को
आंसू
के धागों में
फिर से हम गाठ
लें
वीरानी
पलकों में
सपनों का दर्प
कहां
उजड़े—से
जीवन में
मधुमासी पर्व
कहा
पता
नहीं फिर हम
मिलें, या न
मिलें
कम—से—कम
अपने ही सायों
में
आओ
घड़ी दो घड़ी ही
काट लें।
अपने
ही सायों में!
अपनी ही छाया
में बैठ कर विश्राम
करने तक की
हालत आ जाती
है। कुछ पता
नहीं सत्य का।
जीना तो है, तो
चलो असत्य को
ही सत्य मान
कर जी लें!
एक
बड़ी
महत्वपूर्ण
घटना इस सदी
में घटी है।
नीत्शे ने
घोषणा की सौ
वर्ष पहले कि
ईश्वर मर गया
और मनुष्य
स्वतंत्र है।
लेकिन नीत्शे
यह न समझ पाया
कि आदमी को
कोई न कोई
बहाना चाहिए।
अगर ईश्वर न
हो तो आदमी
ईश्वर गढेगा।
आदमी झूठा
ईश्वर बना
लेगा अगर
ईश्वर न हो, लेकिन
बिना ईश्वर के
कैसे रहेगा!
बहुत कठिन हो
जायेगा। खुद
नीत्शे न रह
सका। वह आखिर—
आखिर में पागल
हो गया। बात
तो उसने कह दी
किसी विचार के
गहरे क्षण में
कि ईश्वर मर
चुका और आदमी
स्वतंत्र है।
लेकिन
स्वतंत्र
होने की
क्षमता तो
चाहिए। सत्य
को झेलने की
क्षमता तो
चाहिए।
नीत्शे बुद्ध
न हो सका, पागल
हो गया।
प्रबुद्ध
होना तो दूर, प्रक्षिप्त
हुआ, विक्षुब्ध
हुआ, पागल
हुआ! क्या था
उसके पागलपन
का कारण? बिना
सहारे! अपने
पागलपन में
उसने जो डायरी
लिखी उसमें
लिखा है कि
मुझे ऐसा लगता
है आदमी बिना
झूठ के नहीं
जी सकता। कोई—न—कोई
झूठ चाहिए।
मैंने सब झूठ
छोड़ दिये, इसलिए
लगता है कि
मैं पागल हुआ
जा रहा हूं।
अगर
तुम सब झूठ
छोड़ दो और
तुम्हारी ऐसी
धारणा हो कि
सच तो है ही
नहीं, तो तुम
पागल हो ही
जाओगे। यही
फर्क है बुद्ध
और नीत्शे में।
बुद्ध ने भी
सब झूठ छोड़
दिये, लेकिन
बुद्ध को पता
है. जहां झूठ
होता है वहां
सच भी होगा।
सच के बिना तो
झूठ हो ही
नहीं सकते। झूठ
कोई चीज होती
ही इसीलिए है
कि सच भी होता
है, हो
सकता है।
तुम
जब कहते हो, मेरी
हंसी झूठ, तो
इसका अर्थ हुआ,
तुम्हें भी
कहीं—न—कहीं
थोड़ा—सा
अहसास
है कि सच हंसी
भी हो सकती है।
नहीं तो झूठ
कहने का क्या
प्रयोजन रह
जायेगा? तुम
कहते हो मेरा
प्रेम झूठ—इसका
अर्थ है, किसी
अचेतन तल पर, किसी गहराई
में तुम्हें
भी अहसास तो
होता है, साफ—साफ
पकड़ न बैठती
हो, धुंधला—
धुंधला है सब,
कुहासा
छाया है बहुत,
रोशनी नहीं
है भीतर, अंधेरा
है, अंधेरे
में टटोलते हो,
लेकिन लगता
है कि सच
प्रेम भी हो
सकता है। नहीं
तो इस प्रेम
को झूठ कैसे
कहोगे? अगर
किसी समाज में
सब सिक्के झूठ
हों और असली सिक्का
होता ही न हो, तो झूठे
सिक्कों को
झूठा कैसे
कहोगे? झूठा
कहने के लिए
असली चाहिए।
असली के बिना
झूठा झूठा
नहीं रह जाता।
नीत्शे
ने कह दिया कि
सच तो होता
नहीं, और जो भी
आदमी ने माना
है, सब झूठ
है।..... पागल हो
गया। उसने
सत्य की राह
भी रोक दी, झूठ
को गिरा दिया
और सत्य को
आने न दिया।’सत्य तो
होता नहीं।
सत्य तो हो ही
नहीं सकता; जो होता झूठ
ही है।’ आधी
दूर तक ठीक
गया। कहा कि
संसार माया है,
यहां तक तो
ठीक था, यह
तो सभी ज्ञानी
कहते रहे; लेकिन
संसार इसीलिए माया
है कि इस माया
के कुहासे के
पीछे छिपा ब्रह्म
भी बैठा है।
संसार असत्य
है, सपना
है; क्योंकि
इस सपने के
पीछे एक
जाग्रत
द्रष्टा भी
छिपा है।
नीत्शे ने उसे
स्वीकार न
किया। तो झूठ
तो छोड़ दिया, झूठ की
बैसाखिया गिर
गयीं और अपने
पैरों का तो
उसे भरोसा ही
नहीं कि होते
हैं। बैसाखी
भी गिर गयी और
पैर तो होते
ही नहीं।
नीत्शे गिर
पड़ा, खंडहर
हो गया। झूठ
के साथ खुद ही
खंडहर हो गया।
फिर
सौ साल में
नीत्शे के
पीछे जो हुआ, वह
सोचने जैसा है।
जिन—जिन
समाजों ने
नीत्शे की बात
मान ली, वहां—वहां
उपद्रव हुआ।
जैसे जर्मनी
में नीत्शे की
बात मान ली
गयी कि कोई
ईश्वर नहीं है,
ईश्वर झूठ
है, तो
जर्मनी ने
हिटलर पैदा
किया। आदमी को
कोई तो चाहिए
भरोसे के लिए।
जीसस झूठे हो
गये, ईश्वर
झूठा हो गया, तो अडोल्फ
हिटलर में
भरोसा किया।
अब यह बड़ा
महंगा सौदा था।
इससे जीसस
बेहतर थे, जीसस
में भरोसा
बेहतर था।
लेकिन आदमी
बिना भरोसे के
नहीं रह सकता।
तो जगह खाली
हो गयी, 'वैक्यूम'
हो गया, उसमें
अडोल्फ हिटलर
पैदा हो गया।
और लोग तो
चाहते थे, कोई
किसी के चरण
पकड़ लें। लोग
तो चाहते थे, कोई सहारा
मिल जाये —अडोल्फ
हिटलर उनका
मसीहा हो गया।
वह उन्हें गहन
विध्वंस में
ले गया।
मार्क्स
ने कह दिया कि
कोई धर्म नहीं
है,
धर्म अफीम
का नशा है।
रूस में
मार्क्स की
बात मानी गयी,
जो परिणाम
हुआ वह यह कि
राज्य, 'स्टेट'
ईश्वर हो
गयी। राज्य सब
कुछ हो गया।
अब सब नमन कर
रहे हैं राज्य
के सामने।
स्टैलिन बैठ
गया सिंहासन
पर। ईश्वर तो
हटा, ईश्वर
की जगह
स्टैलिंन आ
गया। इससे तो
ईश्वर बेहतर
था, कम—से—कम
धारणा में कुछ
सौंदर्य तो था;
कुछ
लालित्य तो था।
कम—से —कम
धारणा में कुछ
ऊंचाई तो थी, कुछ खुला
आकाश तो था, कहीं जाने
की संभावना तो
थी, विकास
का उपाय तो था!
स्टैलिन! मगर
आदमी खाली नहीं
रह सकता। आदमी
को कुछ चाहिए।
प्रिया
से मैं कहना
चाहता हूं. इस
घडी में तुझे
लगेगा कि कुछ
सहारा पकड़ लो, कुछ
भी सच मान लो।
जल्दी मत करना।
सच है! तुम झूठ
को गिर जाने
दो और
प्रतीक्षा करो,
सच उतरेगा।
सच नहीं है—ऐसा
नहीं। सच है।
सच ही है, और
सब तरफ मौजूद
है। तुम जरा
झूठ को हट
जाने दो और
तुम्हारे
भीतर जो खाली
रिक्त आकाश
बनेगा, उसी
में चारों तरफ
से दौड़ पड़ेगी
धारायें सच की।
तुम
आपूरित
हो सकोगी। तुम
भरोगी। लेकिन
कुछ देर खाली
रहने की
हिम्मत....। इस
खाली रहने की
हिम्मत का नाम
ही ध्यान है।
इस शून्य रहने
की हिम्मत का
नाम ही ध्यान
है।
ध्यान
का अर्थ है :
असत्य को गिरा
दिया, सत्य की
प्रतीक्षा
करते हैं।
ध्यान का अर्थ
है : विचार छोड़
दिये, निर्विचार
की प्रतीक्षा
करते हैं।
ध्यान का अर्थ
है. अहंकार को
हटा दिया, अब
उस निर्विकार,
निरंजन की
राह देखते हैं।
द्वार खोल
दिया है, अब
जब मेहमान
आयेगा, स्वागत
की तैयारी है।
तीसरा
प्रश्न :
आपने
कहा, मैं तो
संन्यास देते
ही तुम्हें
तत्काल मुक्त
कर देता हूं।
तो फिर 'संचित'
का क्या
भविष्य बनता
है? क्या
वह क्षीण हो
जाता है। और
अगर संन्यास
लेने के तुरंत
बाद ही मुक्ति
नहीं होती तो
क्या उसका
अर्थ है कि
संचित की चादर
अभी मोटी है? फिर आपके
तत्काल मक्त
कर देने का
क्या तात्पर्य
है?
महत्वपूर्ण
प्रश्न है।
गौर से सुनना
और समझना। मैं
फिर दोहराता
हूं कि मुक्ति
तुम्हारा स्वभाव
है;
मैं मुका कर
देता हूं ऐसा
थोड़े ही।
मुक्ति
तुम्हारा स्वभाव
है। तुमने याद
कर ली, मुका
हो गये। स्मरण
भर की बात
है, सुरति।
याददाश्त
लौटानी है।
मैं तुम्हें
याददाश्त
दिला सकता हूं
मुका कैसे कर
सकता हूं? तुम
पर जंजीरें ही
नहीं हैं।
तुमने
जंजीरें मान
रखी हैं।
मान्यता की
जंजीरें हैं।
मैं तुम्हें
झकझोर देता
हूं; कहता
हूं जरा गौर
से देखो, तुम्हारे
हाथ पर जंजीर
नहीं है; खयाल
है जंजीर का।
तुमने आंख खोल
कर कभी गौर से
देखा ही नहीं
कि हाथ पर
जंजीरें नहीं
हैं, पैर
में बेड़ियां
नहीं हैं, तुम
मुक्त हो।
मुक्त होना
तुम्हारा
स्वभाव है, तुम्हारी
संपदा है।
इसलिए
मैं कहता हूं
कि मैं तो
संन्यास देते
ही तुम्हें
तत्काल मुक्त
कर देता हूं।
संन्यास का
मतलब. तुमने
मुझे मौका
दिया कि आप मुझे
झकझोरेंगे तो
मैं नाराज न
होऊंगा। इतना
ही मतलब है।
संन्यास का
इतना ही मतलब
कि मैं राजी हूं,
अगर आप मुझे
जगायेंगे तो
नाराज न
होऊंगा।
संन्यास का
मतलब कि मैं
उपलब्ध हूं
अगर आप कुछ
चोट करना
चाहें मेरे
ऊपर, मेरे
हृदय पर कुछ
आघात करना
चाहें तो मैं
आपको दुश्मन न
लेखूंगा। बस
इतना ही मतलब
संन्यास का।
और
जब मैं कहता हूं,
मैं तुम्हें
संन्यास देते
ही मुक्त कर
देता हूं तो
मेरा अर्थ यह
है कि मुक्ति
कोई वस्तु नहीं
कि अर्जित
करनी हो, कि
जिसका अभ्यास
करना हो—तुम्हारा
स्वभाव है।
मुका तुम
पैदा
हुए हो। मुक्त
ही तुम जी रहे
हो। मुक्त ही
तुम मरोगे।
बीच में तुमने
बंधन का एक
स्वप्न देखा।
ऐसा
समझो कि एक
रात तुम सोये
और तुमने सपना
देखा कि तुम
पकड़ लिये गये, तस्करी
में पकड़ लिये
गये, मीसा
के अंतर्गत
जेल में बंद
कर दिये गये, हथकड़ियां
डाल दी गयीं।
अब तुम बड़े
घबराने लगे
रात नींद में
कि अब क्या
होगा, क्या
नहीं होगा, कैसे बाहर
निकलेंगे? और
सुबह नींद
खुली तो तुम
हंसने लगे।
क्या तुम सुबह
यह कहोगे कि
रात जब तुम
जेलखाने में
पड़े थे, हथकड़ियां
लग गयी थीं, तब तुम सच
में ही
जेलखाने में
पड़ गये थे? नहीं,
सुबह तो तुम
यह कहोगे सच
में तो मैं
अपने बिस्तर
पर आराम कर
रहा था, झूठ
में जेलखाने
हो गया था।
लेकिन बिस्तर
पर तुम आराम
कर रहे थे, तुम्हें
याद नहीं रह
गयी इस बात की।
सपना बहुत
भारी, हावी
हो गया। तुम्हारी
आंखें सपने से
बोझिल हो गयीं।
तुम सपने के
द्वारा
ग्रसित हो गये।
सपने ने
तुम्हें
सम्मोहित कर
लिया। सपना
ऐसा था कि तुम
भूल ही गये कि
यह सपना है।
सपने में जकड़
गये। रात भर
तकलीफ पायी।
लेकिन सुबह उठ
कर तुम यह तो
मानोगे कि
तकलीफ हुई
नहीं थी
वस्तुत:, मानी
हुई थी।
मैं
तुमसे कहता
हूं : मुक्त
तुम पैदा हुए
हो,
मुक्त तुम
अभी हो, इस
क्षण! मैं
अमुक्तों से
नहीं बोल रहा
हूं मुक्तपुरुषों
से बोल रहा
हूं। क्योंकि
अमुक्त कोई है
ही नहीं। जिस
दिन मैंने जाग
कर देखा कि
मैं मुक्त हूं
उसी दिन मेरे
लिए सारा
संसार मुक्त
हो गया। तुम
सपना देख रहे
हो—वह
तुम्हारा
सपना है, मेरा
सपना नहीं है।
तुम अगर सपने
में खोये हों—तुम
खोये हो, मैं
नहीं खोया हूं।
तुम्हारा
सपना तुम्हें
धोखा देता
होगा, मुझे
धोखा नहीं दे
रहा है।
जब
मैं तुम्हें
संन्यास देता
हूं तो मैं
इतना ही कहता
हूं कि जैसा
मैं जागा हूं
वैसे तुम जाग
जाओ। अभी जाग
जाओ,
इसी क्षण
जाग जाओ! तुम
चाहते हो मैं
तुम्हें कुछ
उपाय बताऊं कि
कैसे मुक्त
हों। अगर मैं
तुम्हें उपाय
बताऊं तो उसका
अर्थ हुआ कि
मैं भी मुक्त
नहीं हूं। अगर
मैं तुम्हें
उपाय बताऊं तो
उसका अर्थ हुआ
कि मुझे भी यह
स्वीकार नहीं
है कि तुम
मुक्त हो। मैं
भी मान रहा
हूं कि तुम
बंधन में पड़े
हो, जंजीरें
काटनी हैं, हथौडिया
लानी हैं, बेड़ियां
खोलनी हैं, बड़ी कठिन
मेहनत करनी है,
जेलखाने की
दीवालें
गिरानी हैं, बड़ी साधना
करनी है, बड़ा
अभ्यास करना
है।
अष्टावक्र
का वचन था कल
कि जिसने यह
जान लिया, वह
फिर छोटे
बच्चों की तरह
अभ्यास नहीं
करता है।
अभ्यास नहीं
करता है! और
तुमने तो सारा
योग ही अभ्यास
बना रखा है.
अभ्यास करो, साधन का
अभ्यास करो!
अष्टावक्र
कहते हैं : तुम
सिद्ध हो!
साधन की जरूरत
उसे हो जो
सिद्ध नहीं।
यह तुम्हारा
स्वभाव है।
मैं जब कहता
हूं कि मैं
तुम्हें
संन्यास देते
ही तत्काल
मुक्त कर देता
हूं तो मैं
तुमसे यह कह
रहा हूं कि
मुक्ति की
जरूरत ही नहीं
है,
तुम मुक्त
हो। सिर्फ
तुम्हें याद
दिला देता हूं।
एक
आदमी ने शराब
पी ली। वह
अपने घर आया, लेकिन
शराब के नशे
में समझ न
पाया कि अपना
घर है। उसने
दरवाजा खटखटाया।
उसकी मां ने
दरवाजा खोला।
उसने अपनी मां
से पूछा कि हे
की मां, क्या
तू मुझे बता
सकती है कि
मैं कौन हूं
और मेरा घर
कहां है? क्योंकि
मैं घर भूल
गया हूं? मैंने
नशा कर लिया
है।
वह
मां हंसने लगी।
उसने कहा, 'पागल,
किससे तू
पता पूछ रहा
है? यह
तेरा घर है।’ उस शराब में
बेहोश आदमी ने
आंखें मीड़ कर
फिर से देखा
और उसने कहा
कि नहीं, यह
घर मेरा नहीं
है। मेरा घर
है जरूर, कहीं
आसपास ही है, ज्यादा दूर
भी नहीं है।
मुझे मेरे घर
पहुंचा दो।
मुहल्ले
के लोग इकट्ठे
हो गये। लोग
कहने लगे, 'तू
पागल हुआ है? यह तेरा घर
है! यह तेरी
मां खड़ी है!' वह रोने लगा।
वह कहने लगा
कि मुझे इस
तरह उलझाओ मत।
मेरी मां राह
देखती होगी।
रात हुई जा
रही है, देर
हुई जा रही है।
वह बड़ी तडूफती
होगी। मुझे
मेरे घर
पहुंचा दो।
एक
दूसरा शराबी
शराब पी कर
अपनी बैलगाड़ी
लिये चला आता
था। वह भी खड़ा
हो कर सुन रहा था।
उसने कहा, 'सुन
भाई, आ जा
बैठ जा
बैलगाड़ी में।
मैं तुझे
पहुंचा दूंगा।’
लोग
चिल्लाये कि
पागल हो गया
है, वह भी
पीये बैठा है।
वह तुझे ले जा
रहा है, और
तुझे ले जा
रहा है तेरे
घर से दूर! मैं
तुमसे यह कहना
चाहता हूं.
तुम जहां हो, जैसे हो, ठीक
वैसे ही होना
है। तुम्हारा
जो अंतरतम है,
इस क्षण भी
मोक्ष में है।
तुम्हारे
बाहर जो धूल—धवांस
इकट्ठी हो गयी
है, दर्पण
पर जो धूल
इकट्ठी हो गयी
है, उसके
कारण तुम
पहचान नहीं पा
रहे। दर्पण
धुंधला हो गया
है। लेकिन
तुम्हें कहीं
और कुछ और
होना नहीं है।
मुक्ति
तुम्हारा
स्वभाव है।
इसलिए
कहता हूं कि
मैं संन्यास
देते ही
तुम्हें
तत्काल मुक्त
कर देता हूं—मेरी
तरफ से कर
देता हूं फिर
तुम्हारी
मर्जी। फिर
तुम्हें सपना
देखना हो तो
तुम एक नया
सपना देखोगे।
तुम्हें अगर
सपना ही देखना
है तो तुम
सपने का सिलसिला
जारी रखोगे।
मगर वह
तुम्हारी भूल
है,
उसमें मेरी
जिम्मेवारी
नहीं है। तुम
मुझे दोषी न
ठहरा सकोगे।
मैंने तो अपनी
तरफ से घोषणा
कर दी कि तुम
मुक्त हो।
इस
घोषणा को
अंगीकार करो।
इस घोषणा को
स्वीकार करो।
हालांकि
तुम्हारा मन
कहेगा. मैं और
मुक्त! तुम्हें
सदा निंदा
सिखायी गई है—'तुम
पापी, जन्म—जन्म
के कर्मों से
दबे, भ्रष्ट!'
'मैं और
मुक्त! नहीं, नहीं। मुक्त
तो महावीर
होते, बुद्ध
होते, कृष्ण
होते। यह तो
अवतारी
पुरुषों की
बात है। मैं
और मुक्त!
मेरे तो पत्नी
है, बच्चे
हैं, दफ्तर
है, दूकान
है। मैं और
मुक्त! नहीं, नहीं!' यह
दावा करने की
तुम्हारी
हिम्मत नहीं
होती। तुम
कहते हो. 'मेरी
तो पत्नी है, मेरे बच्चे
हैं, मेरा
घर—द्वार है।’
तुम
सपने का हिसाब
बता रहे हो, मैं
तुम्हारा
स्वभाव खोल
रहा हूं। तुम
अपने सपने का
हिसाब बता रहे
हो कि ये इतने पत्नी—बच्चे,
यह सब कुछ
मामला है, मैं
कैसे मुक्त हो
सकता हूं? मैं
तुमसे कहता हूं
यह सारा जो
तुम्हारा
सपना है, सपना
है। कौन
तुम्हारा है?
किसके तुम
हो? कौन
तुम्हारा हो
सकता है? किसके
तुम हो सकते
हो? तुम बस
अपने हो। इसके
अतिरिक्त सब
मान्यता है, सब धारणा है।
तुमसे
यह भी नहीं कह
रहा कि भाग
जाओ घर छोड़ कर, क्योंकि
कौन पत्नी, कौन बेटा! वह
जो भागता है, वह भी सपने
में है। मैं
तुमसे कह रहा
हूं. जाग जाओ, भागना कहां
है! होशपूर्वक
देख लो। संसार
जैसा चलता है,
चलता रहने
दो। कुछ अड़चन
नहीं है।
तुम्हारे
जागने से
संसार नहीं
जाग जायेगा, लेकिन तुम
जाग कर एक
अनूठे अनुभव
को उपलब्ध हो
जाओगे। तुम हंसोगे
भीतर ही भीतर
कि जागे हुए
लोग कैसे सोये—सोये
चल रहे हैं!
जिनका स्वभाव
मुक्ति है, वे कैसे
बंधन में पड़े
हैं! तुम
आश्चर्यचकित
होओगे। बड़ी
लीला चल रही
है। परमात्मा
बंधन में है!
मुक्त स्वभाव
जंजीरों में
है! जो हो नहीं
सकता, वैसा
होता मालूम पड़
रहा है!
मैं
तो तुम्हें
मुक्त कर देता
हूं, लेकिन
तुम्हारा मन
नहीं मानता।
तुम कहते हो. 'कुछ करना
पड़ेगा, तब
मुक्ति होगी।
ऐसे कहीं
मुक्ति होती
है?' तुम
मुक्ति
अर्जित करना
चाहते हो।
खयाल रखना, अर्जन करने
की सब
आकांक्षा
अहंकार की है।
अहंकार कहता
है. 'अर्जित
करूंगा! जैसे
धन कमाया, ऐसे
ध्यान
कमाऊंगा।
जैसे मकान
बनाया, ऐसे
मंदिर
बनाऊंगा! जैसे
संसार रचाया,
ऐसे मोक्ष
भी रचाऊंगा!'
जो
रचाया जाता है, वह
संसार है। जो
रचा ही हुआ है
और केवल जाग
कर देखा जाता
है, वही
मोक्ष है। तुम
कहते हो, जैसे
मैंने पद—पदविया
पायीं, ऐसे
ही परमात्मा
को भी पाऊंगा।
तुम कहते हो, परमात्मा
परम पद है।
तुमने अपनी
भाषा में उसको
भी पद बना रखा
है; जैसे
वह जरा
राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री
से और जरा ऊपर।’वहां पहुंच
कर रहूंगा।’ लेकिन पद है!
परमात्मा
पद नहीं है—तुम्हारा
स्वभाव है।
तुम वहां हो।
तुम वहां से
रत्ती भर हट
नहीं सकते।
तुम लाख चाहो
तो तुम वहां
से गिर नहीं
सकते। गिरने
की कोई सुविधा
नहीं है। तुम
कहीं भी रहो, परमात्मा
ही रहोगे।
नर्क में रहो,
स्वर्ग में
रहो, तुम
परमात्मा ही
रहोगे।
तुम्हारा
भीतर का
स्वभाव बदलता
नहीं, बदला
जा सकता नहीं।
स्वभाव हम
कहते ही उसी
को हैं जो
बदला न जा सके;
जिसमें कोई
बदलाहट न होती
हो; जो
शाश्वत है; जो सदा है और
सदा एकरस है।
अब
तुम पूछते हो : 'तो
फिर संचित का
क्या भविष्य
बनता है?'
तुम
संचित का
हिसाब लगा रहे
हो। संचित
क्या है? एक
सपना अभी देखा,
एक सपना कल
देखा था, एक
सपना परसों
देखा था—कल और
परसों के
सपनों को तुम
संचित कहते हो?
जब यही जो
तुम देख रहे
हो, सपना
है, तो जो
कल देखा था वह
भी सपना हो
गया, जो
परसों देखा था
वह भी सपना हो
गया। संचित
यानी क्या? अगर तुम्हें
यह सपना सपना
समझ में आ गया,
जो तुम अभी
देख रह हो, तो
सारे जन्मों —जन्मों
के सपने सपने
हो गये। बात
खतम हो गयी।
तुम सुबह उठ
कर यह थोड़े ही
कहोगे कि 'सपने
में एक आदमी
से रुपये उधार
ले लिये, वापिस
तो करना
पड़ेंगे न? आप
तो कहते हो
मुक्त हो गये,
मान लिया, मगर अदालत
पकड़ बैठेगी।
वापिस तो करना
पड़ेंगे न जिससे
रुपये ले लिये
हैं सपने में? 'सपने
में रुपये ले
लिये वापिस
करने पड़ेंगे!
कि सपने में
किसी को रुपये
दे दिये, वापिस
लेने पड़ेंगे!
कि सपने में
किसी को मार दिया,
क्षमा
मागनी पड़ेगी!
कि सपने में
किसी ने अपमान
कर दिया तो
बदला लेना
पड़ेगा! संचित
क्या पर
अब
इसे समझना।
संचित का अर्थ
होता है कि
तुम्हारी यह
धारणा है कि
तुमने कुछ
किया। तुम
कर्ता थे, तो
कर्म बना।
ऐसा
समझो, तुम
साधारणत:
सोचते हो कि
कर्म हमें
पकड़े हुए हैं।
अष्टावक्र
जैसों की
उदघोषणा कुछ
और है। वे
कहते हैं, कर्ता
का भाव
तुम्हें पकड़े
हुए है, कर्म
नहीं। कर्ता
के भाव के
कारण फिर कर्म
पकड़े हुए हैं।
अगर कर्ता का
भाव छूट गया
तो मूल से बात
कट गयी; कर्म
का तो अर्थ ही
न रहा। फिर
परमात्मा ने
जो किया, किया;
जो करवाया,
करवाया। जो
उसकी मर्जी थी,
हुआ।
इधर
तो तुम कहते
हो,
उसकी बिना
मर्जी के
पत्ता नहीं
हिलता—और फिर
भी संचित कर्म
तुम करते हो!
पुण्य—पाप तुम
करते हो, उसकी
मर्जी के बिना
पत्ता नहीं
हिलता! तुम
कौन हो?
तुम बीच में
क्यों आ गये
हो? तुम कह
दो. 'जो हुआ
उसके द्वारा
हुआ। जो नहीं
हुआ उसके
द्वारा हुआ।
अगर मैंने
किसी को मारा
तो उसने ही
किया होगा। और
अगर किसी ने
मुझे मारा तो
उसकी मर्जी
रही होगी। न
अब कोई
नाराजगी है, न कोई लेन—देन
है। दिया—लिया
सब बराबर हो
गया।’ ऐसी
अनुभूति का
नाम मुक्ति है।
मुक्ति
में संचित का
कोई हिसाब
नहीं है।
संचित में तो
पुरानी धारणा
तुम फिर खींच
रहे हो। कर्म
किया, तो उसका
तो कुछ करना
पड़ेगा न! पाप
किये तो पुण्य
करने पड़ेंगे।
पुण्य से पाप
को संतुलित
करना पड़ेगा, तब कहीं
मुक्ति होगी।
तुम
बड़े हिसाबी—किताबी
हो। तुम
दूकानदार हो।
तुम्हें
परमात्मा समझ
में नहीं आता।
परमात्मा
जुआरी है, दूकानदार
नहीं।
परमात्मा
खिलाड़ी है, दूकानदार
नहीं।
तुम्हें यह
बात ही समझ
में नहीं आती
कि यह बात तो
बेबूझ है। तुम
यह मान ही
नहीं सकते कि
पुण्यात्मा
भी वैसा ही है
जैसा पापी।
दोनों ने सपना
देखा। तुम
कहते हो, 'पुण्यात्मा
ने भी सपना
देखा, पापी
ने भी। दोनों
में कुछ फर्क
तो होगा!' कुछ
फर्क नहीं है।
रात तुम साधु
बन गये सपने
में कि चोर बन
गये, क्या
फर्क है! सुबह
उठ कर क्या
कुछ फर्क रह
जायेगा? सुबह
उठ कर दोनों
सपने सपने हो
गये—स्व से
सपने हो गये।
अच्छा भी, बुरा
भी।
शुभ
और अशुभ के जो
पार हो गया, वही
मुक्त है। पाप
और पुण्य के
जो पार हो गया,
वही मुक्त
है। और पार
होने के लिए
तुम क्या
करोगे? क्योंकि
करने से तुम
बंधे हो।
इसलिए पार
होने के लिए
एक ही उपाय है
कि तुम करो मत,
करने को
देखो! जो हो
रहा है होने
दो। निमित्त
तुम हो जरूर।
सपना तुमसे
बहा जरूर।
'तो फिर
संचित का क्या
भविष्य बनता
है?'
न
संचित कभी था।
अतीत भी नहीं
है,
भविष्य तो
क्या खाक
होगा! संचित
का न कोई अतीत है,
न कोई
वर्तमान है, न कोई
भविष्य है। सपने
का कोई अतीत
होता है? कोई
भविष्य होता
है? कोई
वर्तमान होता
है? सपना
होता मालूम
पड़ता है, होता
नहीं—सिर्फ
भास मात्र, आभास भर।
'क्या वह
क्षीण हो जाता
है?'
तुम
अपनी भाषा
दोहराये चले
जा रहे हो।
सुबह जब तुम
जागते हो तो
सपना क्षीण
होता है? समाप्त
होता है। क्षीण
का तो मतलब यह
है कि अभी
थोड़ा— थोड़ा जा
रहा है। तुम
जाग भी गये, सपना दस इंच
चला गया, फिर
बीस इंच गया, फिर गज भर
गया, फिर
दो गज, फिर
मील भर, ऐसा
धीरे — धीरे......
तुम जागे बैठे
अपनी चाय पी
रहे और सपना
जो है वह
रत्ती—रत्ती
जा रहा है, क्षीण
हो रहा है। एक
कोई धक्का दे
दे तुमको सोते
में, तुम्हारी
एकदम से आंख
खुल जाये, तो
भी सपना गया—
पूरा—का—पूरा
गया। सपना बच
कैसे सकता है?
नहीं, तुम्हारा
फुटकर में
बहुत भरोसा है;
यहा थोक की
यह बात हो रही
है। तुम फुटकर
व्यापारी
मालूम पड़ते हो।
तुम कहते हो, क्षीण होगा
धीरे— धीरे, धीरे — धीरे.....।
एक—एक सीढ़ी
चढ़ेंगे।
तुम्हारी
मर्जी! अगर
तुम्हारा
इतना ही लगाव
है कि धीरे—
धीरे सरकोगे,
तुम सरको।
मगर मैं तुमसे
कहता हूं कि
तुम धीरे—
धीरे कितना ही
सरको, तुम
सपने के बाहर
न आ पाओगे।
क्योंकि
सरकना भी सपने
का हिस्सा है।’
धीरे — धीरे'
भी सपने का
हिस्सा है।
समय मात्र
सपने का
हिस्सा है।
तत्क्षण
जागो! इसलिए
कहता हूं : मैं
तो संन्यास
देते ही तुम्हें
तत्काल मुक्त
कर देता हूं।
फिर अगर तुम
कंजूस हो, तुम्हारी
मर्जी।
बड़े
कृपण लोग हैं!
मुक्ति तक में
कृपण हैं! देने
की तो बात दूर, यहां
मैं कह रहा
हूं ले लो
पूरा! वे कहते
हैं कि इकट्ठा
कैसे लें, धीरे—
धीरे लेंगे!
थोड़ा— थोड़ा
दें, इतना
ज्यादा मत दें।
तुम
देने में तो
कंजूस हो ही
गये हो, लेने
में भी कंजूस
हो गये हो।
तुमने हिम्मत
ही खो दी।
तुम्हारा
साहस ही नहीं
बचा।
'और अगर
संन्यास लेने
के तुरंत बाद
ही मुक्ति नहीं
होती तो क्या
उसका अर्थ है
कि संचित की
चादर अभी मोटी
है?'
छोड़ो
भी यह चादर! यह
चादर कहीं है
ही नहीं।
एक
रात मुल्ला
नसरुद्दीन
सोया। बीच रात
में उठ कर बैठ
गया। किसी
ग्राहक से बात
करने लगा।
कपड़े की दूकान
है। और जल्दी
से चादर उसने
फाड़ी। पत्नी
चिल्लायी कि
यह क्या कर
रहे हो? उसने
कहा कि तू चुप
रह, दूकान
पर तो कम—से—कम
आ कर बाधा न
दिया कर।
तब
उसकी नींद
खुली—अपनी
चादर फाड़ बैठा।
न वहा कोई
ग्राहक है, न
कोई खरीदार है।
कैसी चादर? मोटी, पतली—कैसी
चादर? मुक्त
होने में तुम
इतने ज्यादा
भयभीत क्यों हो?
तुम किसी—न—किसी
तरह से बंधन
को बचा क्यों
रखना चाहते हो?
डर का कारण
है। डर का
कारण है
क्योंकि
मुक्ति
तुम्हारी
नहीं है।
मुक्ति 'तुम'
से मुक्ति
है।
मुक्ति
का अर्थ यह
नहीं होता कि
तुम मुक्त हो गये।
तुम बचे तो
मुक्ति कहां? मुक्ति
का अर्थ होता
है : तुम गये, मुक्ति रही।
इसलिए घबड़ाहट
है। इसलिए तुम
कहते हो : 'थोड़ा—
थोड़ा, धीरे—
धीरे करेंगे।
नहीं तो एकदम
से खो गये.....!' खोने से तुम
डरे हो।’मिट
गये.....!'
नदी
भी डरती होगी
सागर में
उतरने के पहले, झिझकती
होगी, लौट
कर पीछे देखती
होगी। इतनी
लंबी यात्रा
हिमालय से
सागर तक की!
इतने—इतने
लंबे संस्मरण,
इतने सपने,
इतने
वृक्षों के
नीचे से
गुजरना, इतने
सूरज, इतने
चांद, इतने
लोग, इतने
घाट, इतने
अनुभव! सागर
में गिरने के
पहले सोचती
होगी. 'मिट
जाऊंगी। रोक
लूं।’ ठिठकती
होगी, झिझकती
होगी। पीछे
मुंह करके
देखती होगी, जिस राह से
गुजर आयी। ऐसी
ही तुम्हारी
गति है। तुम
एकदम छोड़ नहीं
देना चाहते।
तुम बचा लेना
चाहते हो कुछ।
और तुम जब तक
बचाना चाहोगे
तब तक बचा
रहेगा। तुम
तुम्हारे
मालिक हो। इधर
मैं जगाता
रहूंगा, तुम
बचाते रहना।
मगर
मैं अपनी तरफ
से तुम्हें
साफ कर दूं :
कोई चादर नहीं
है—न पतली, न
मोटी। तुम
बिलकुल उघाड़े
बैठे हो। तुम
बिलकुल नग्न
हो, दिगंबर!
कोई चादर
वगैरह नहीं है।
आत्मा पर कैसी
चादर? कबीर
ने कहा है. 'ज्यों
की त्यों धरि
दीन्ही
चदरिया। खूब
जतन कर ओढी रे
चदरिया।’
मैं
तुमसे कहता
हूं कि ज्यों
की त्यों
इसीलिए धर दी, क्योंकि
चादर है ही
नहीं। होती तो
ज्यों की त्यों
कैसे धरते? थोड़ा सोचो।
होती चादर तो
ज्यों की
त्यों धर सकते?
कुछ—न—कुछ
गड़बड़ हो ही
जाती। जिदगी
भर ओढ़ते तो
गंदी भी होती,
कूड़ा—कर्कट
भी लगता। धोते
तो कभी! तो
अस्तव्यस्त
भी होती, रंग
भी उतरता। धूप—
धाप भी पड़ती।
जीर्ण —शीर्ण
भी होती। और
कबीर कहते
हैं. 'ज्यों
की त्यों धरि
दीन्ही
चदरिया! खूब
जतन कर ओढी रे।’
चादर
है ही नहीं।
इसलिए ज्यों
की त्यों धर
दी। और चादर
होती तो तुम
लाख जतन से
ओढो गड़बड़ हो
ही जायेगी। है
ही नहीं।
तो
फिर..... मैं
तुमसे कहता
हूं : चादर
नहीं है। तुम
हो चादर। और
जब तक तुम
बचना चाहते हो
तब तक चादर
बची है। जिस
दिन तुम राजी
हो मिटने को, फिर
कुछ नहीं बचता,
मुक्ति
बचती है।
मुक्ति
तुम्हारी
नहीं है, फिर
दोहरा दूं।
मुकि्त तुमसे
बड़ी है, तुमसे
विराट है।
मुक्ति सागर
जैसी
है,तुम
नदी जैसे संकीर्ण
हो।
पांचवां
प्रश्न :
आप
कहते हैं कि
सिर्फ सुन कर
प्रभु को
उपलब्ध हो
सकते हो। आपको
सुनते समय
मुझे ऐसा लगता
है कि सब जान
लिया और सुन
कर आनंद में
डूब जाता हूं।
लेकिन कुछ काल
के अंतर पर
पहले ही जैसा
हो रहता हूं।
तब ऐसा लगता
है कि जाने
कैसी मुसीबत
में फंस गया!
पहले ही मजे
में था। अब
हालत है कि
छोड़े छूटता
नहीं और पकड़
में भी आने से
रहा। इस तड़पन
से बचाओ
भगवान!
समझो।
पहली
बात,
तुम कहते
हो. 'आप
कहते हैं कि
सिर्फ सुन कर
प्रभु को
उपलब्ध हो
सकते हो।’
निश्चित
ही। क्योंकि
खोया होता तो
कुछ और करना
पड़ता। सिर्फ
सुन कर उपलब्ध
हो सकते
हो।
ऐसा ही मामला
है,
तुमने दो और
दो पांच जोड़
रखे हैं और मैं
आया और मैंने
कहा कि पागल
हुए हो, दो
और दो पांच
नहीं होते, दो और दो चार
होते हैं। तो
तुम क्या
कहोगे कि 'बस
क्या सुन कर
ही दो और दो
चार हो जायें?
अब मेहनत
करनी पड़ेगी, शीर्षासन
लगायेंगे, भजन—कीर्तन
करेंगे
तपश्चर्या
करेंगे, उपवास
करेंगे—तब दो
और दो चार
होंगे।’ दो
और दो चार
होते हैं!
तुम्हारे
उपवास इत्यादि
से नहीं होंगे।
दो और दो चार
ही हैं। तुम
जब दो और दो
पांच लिख रहे
हो, तब भी
दो और दो चार
ही हैं। पांच
तुम्हारी ही
गलती, तुम्हारी
भ्रांति है।
संसार
माया है—अर्थ.
संसार
तुम्हारी
भांति है, है
नहीं। तो
सुनने से ही
हो सकता है।
'सुनने से ही
तुम उपलब्ध हो
सकते हो, ऐसा
आप कहते हैं।
आपको सुनते
समय मुझे लगता
है कि सब जान
लिया।’
बस
वहीं भूल हो
गयी। तुम समझे
कि सब जान
लिया, तो तुम
ज्ञाता बन गये,
ज्ञानी बन
गये, पंडित
बन गये। जान
लिया! तो चूक
हो गयी।
अहंकार ने फिर
अपने को बचा
लिया—जानने
में बचा लिया।
अगर
तुमने मुझे
ठीक से समझा
तो तुम जानोगे
कि जानने को
कुछ भी नहीं
है। जानने को
है क्या? अगर
तुमने ठीक से
मुझे सुना और
समझा, तो
तुम जानने से
मुक्त हो
जाओगे। जानने
को क्या है? जीवन परम
रहस्य है—गढु
रहस्य है।
जानने में
नहीं आता।
जाना नहीं
जाता। जीया
जाता है। कोई
समस्या नहीं
है कि समाधान
हो जाये। जीवन
कोई प्रश्न
नहीं है कि
उत्तर बन जाये।
मैं
तुम्हें कोई
उत्तर नहीं दे
रहा हूं तुम्हें
सिर्फ जगा रहा
हूं। तुम
उत्तर पकड़ रहे
हो,
मैं
तुम्हें जगा
रहा हूं। बस
वहीं चूक हुई
जा रही है। तुम
सुन लेते हो
मुझे, तुम
थोड़ा—सा
संग्रह कर
लिये बातों का।
तुमने कहा कि
बिलकुल ठीक, बात तो जंच
गयी। बस यहीं
चूक गये। यह
कोई बात थोड़े
ही है जो मैं
तुमसे कर रहा
हूं। यह तो
तुम्हें थोड़ा—सा
धक्के दे रहा
हूं कि तुम
थोड़ी आंख खोलो।
तुम ज्ञानी बन
कर मत लौट
जाना।
मैं
चाह रहा हूं
कि तुम समझ लो
कि सब ज्ञान
मिथ्या है।
ज्ञान मात्र
मिथ्या है।
ज्ञान का अर्थ
ही हुआ कि तुम
अलग हो गये।
जिसे तुमने
जाना उससे
जानने वाला
अलग हो गया।
भेद खड़ा हो
गया। अभेद टूट
गया। अद्वैत
मिट गया, द्वैत
हो गया। दुई आ
गयी। परदा पड़
गया। बस
उपद्रव शुरू हो
गया।
मैं
तुम्हें जगा
रहा हूं—उसमें, जो
एक है, अद्वैत
है। तुम उस
महासागर में
जागो! ज्ञानी
मत बनो।
अन्यथा
ज्ञानी बन कर
जाओगे, दरवाजे
से निकलते—निकलते
ज्ञान हाथ से
खिसक जायेगा।
ज्ञान काम नही
आयेगा।
मैं
तुमसे कहता
हूं. अपने
अज्ञान की
आत्यतिकता को
स्वीकार कर लो।
यह तुम्हें
बड़ा कठिन लगता
है। क्योंकि
सब बातें
अहंकार के
विपरीत जाती
हैं। अहंकार
कहता है :
कर्ता बनो। वह
मैं कहता हूं,
कर्ता मत बनो।
अहंकार कहता
है : 'चलो
अच्छा तो
ज्ञानी बन जाओ,
पंडित तो बन
सकते हैं न!
इसमें तो कुछ
हर्जा नहीं।’
और मैं
तुमसे कहता
हूं. पंडित से
ज्यादा मूढ़
कोई होता ही
नहीं।
पांडित्य
मूढ़ता को
बचाने का एक
उपाय है। तुम
तो सहज हो जाओ।
तुम तो कह दो. 'जानने को
क्या है? क्या
जान सकता हूं?'
आदमी ने कुछ
जाना अब तक ? तुम क्या
जानते हो, तुमने
कभी इस पर
सोचा? तुम
कहते हो, यह
स्त्री मेरे
साथ तीस साल से
रहती है, मेरी
पत्नी है। तुम
इसको जानते हो?
क्या जानते
हो? तीस
साल के बाद भी
क्या जानते हो?
छोड़ो, यह
तो तीस साल से
रहती है; तुम
कितने जन्मों
से अपने साथ
हो, स्वयं
को जानते हो? क्या पता है
तुम्हें? आईने
में जो तस्वीर
दिखाई पड़ती है,
वही तुम
अपने को समझे
बैठे हो। कि
बाप ने एक नाम
दिया, वह
तुम हो! कौन हो
तुम?
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
वे जानते हैं।
गलत खयाल है।
वैज्ञानिक से
पूछो, पानी
क्या है? वह
कहता है, हाइड्रोजन
और आक्सीजन से
मिल कर बना है।
हाइड्रोजन और
आक्सीजन क्या
हैं? फिर
अटक गये। एक
तरफ से सरके
थोड़े—बहुत, मगर वह कोई
जानना हुआ? पानी पर
अटके थे। पानी
पूछा, क्या?
कहा, हाइड्रोजन,
आक्सीजन।
हाइड्रोजन
क्या? फिर
अटक गये। फिर
थोड़ा—बहुत
धक्कम— धुक्की
की तो कहा कि
ये
इलेक्ट्रॉन
और च्छॉन और
पॉजीट्रॉन।
और ये क्या? तो वह कहता
है, इनका
कुछ पता नहीं
चलता। तो साफ
क्यों नहीं कहते
कि पता नहीं
चलता! ऐसा गोल—गोल
जा कर, पता
नहीं चलता! जब
इलेक्ट्रॉन न्यूट्रॉन
का पता नहीं
चलता, तो
हाइड्रोजन का
पता नहीं चला,
और
हाइड्रोजन का
पता नहीं चला
तो पानी का
पता नहीं चला।
मामला तो सब
गड़बड़ हो गया।
यह
तो ऐसा ही हुआ
कि मैं स्टेशन
पर आऊं और
तुमसे पूछूं
कि श्री रजनीश
आश्रम कहां है? और
तुम कहो कि
कोरेगाँव
पार्क में। और
मैं तुमसे
पूछूं कि
कोरेगाव
पार्क कहां है?
और तुम कहो
कि ब्लू
डायमंड के पास।
मैं पूछूं
क्यू डायमंड
कहां है? तुम
कहो, इसका
कुछ पता नहीं।
तो मामला क्या
हुआ? जब ब्लू
डायमंड का पता
नहीं है तो
कोरेगाव गड़बड़
हो गया।
कोरेगाव गड़बड़
हो गया तो
आश्रम.! —तो
वहां पहुंचें
कैसे? तुम
कहोगे, अब
यह आप समझो।
बाकी यहां तक
हमने बता दिया,
ब्लू
डायमंड तक।
लेकिन ब्लू
डायमंड क्या
है, इसका
किसी को कोई
पता नहीं। तो
यह कुछ जानना
हुआ?
विज्ञान
भी धोखा है।
जानना तो होता
ही नहीं। आज
तक कोई बात
जानी तो गयी
ही नहीं। यह
सारा विराट
अनजान है, अपरिचित
है, अज्ञात
है, अज्ञेय
है। यहां
जानना भ्रम है।
ज्ञान
के भ्रम से
तुम मुक्त हो
जाओ,
यह मेरी
चेष्टा है। और
तुम कहते हो
कि 'आपको
सुन कर मजा आ
जाता है। जान
लिया, ऐसा
लगता है जान
लिया। आयी
मुट्ठी में
बात।’ बस
यहीं चूक गये
तुम। धुआ पकड़
रहे हो। कुछ
आयेगा नहीं
हाथ में। बाहर
जा कर जब
मुट्ठी
खोलोगे, तुम
कहोगे यह तो
मामला गड़बड़ हो
गया। मुट्ठी
में तो कुछ भी
नहीं है। एकदम
पकड़ लिया था
उस वक्त और सब
छिटक गया। तुम
भ्रांति में
पड़ रहे हो।
मैं
तुम्हें ज्ञान
नहीं दे रहा
हूं। मैं
तुम्हें जाग
दे रहा हूं।
जाग का अर्थ
है कि ज्ञान न
तो कभी हुआ है, न
हो सकता है, न होगा। जाग
का अर्थ है.
जीवन परम
रहस्य है।
वेदों
में एक बड़ी
अनूठी बात है।’यह
सब क्या है? '—ऋषि ने पूछा
है।
'शायद
परमात्मा
जिसने इसे
बनाया वह
जानता हो, या
कौन जाने वह
भी न जानता हो!'
यह
बड़ी अदभुत बात
है। परमात्मा!
वेद का ऋषि
कहता है. 'यह
सब क्या है?'
'शायद! शायद, परमात्मा
जानता हो
जिसने यह सब
बनाया, या
कौन जाने वह
भी न जानता हो!'
बड़े
हिम्मतवर लोग
रहे होंगे।
इसका सार अर्थ
हुआ कि
परमात्मा को
भी पता नहीं
है।
असल
में जिस चीज
का पता हो
जाये, वह
व्यर्थ हो
जाती है। पता
ही हो गया तो
फिर क्या बचा?
पता चल गया
तो परिभाषा हो
गयी। इस
अस्तित्व की
अब तक कोई
परिभाषा नहीं
हो सकी। कोई
कह सका, क्या
है? इसलिए
तो बुद्ध चुप
रह गये। जब
तुम उनसे पूछो
ईश्वर है? वे
चुप रह जाते
हैं। आत्मा है?
वे चुप रह
जाते हैं। यह
ठीक—ठीक उत्तर
दिया बुद्ध
ने! वे कहते
हैं. यह बकवास
बंद करो आत्मा,
ईश्वर की!
कौन जान पाया?
जागो! जानने
की चिंता छोड़ो।
तो
एक तो कर्ता
की दौड़ है, वह
अहंकार की दौड़
है। फिर एक
ज्ञान की दौड़
है, वह भी
अहंकार की दौड़
है। कर्ता
कहता है.
अच्छा करो, बुरा मत करो।
ज्ञानी कहता
है : सत्य को
जानो, असत्य
को मत जानो।
लेकिन दोनों
भेद करते हैं।
धार्मिक
व्यक्ति तो
कहता है. जाना
ही नहीं जा सकता।
अगर
मुझे सुन कर
तुम्हें यह
समझ में आ
जाये कि जाना
ही नहीं जा
सकता, फिर तुम
कैसे खो पाओगे,
बताओ! फिर
तुम यहां से
चले जाओगे, क्या तुमने
यह जो जाना कि
नहीं जाना जा
सकता इसे तुम
कभी भी खो
सकोगे? फिर
यह तुम्हारी
संपदा हो गयी।
फिर तुम
मुट्ठी खोलो
कि बंद करो, तुम हिलाओ—डुलाओ
हाथ, मुट्ठी
खोल कर या बंद
करके, यह
गिरेगा नहीं।
यह तुम्हारी
संपदा हो गयी।
फिर तुम इसे
कैसे छोड़
पाओगे? कोई
उपाय है छोड़ने
का? जानना
तो छूट सकता
है, भूल सकता
है; लेकिन
यह अज्ञान का
गहन भाव कि
नहीं कुछ पता
है.....।
उपनिषद
कहते हैं. जो
जानता है, जान
लेना कि नहीं
जानता। जो
नहीं जानता, जानना कि
वही जानता है।
और
सुकरात ने कहा
है : मुझे एक ही
बात पता है कि
मुझे कुछ भी
पता नहीं।
ये
परम
ज्ञानियों की
उदघोषणाएं
हैं।
जानो
कि जानने में
जानना नहीं है।
जानो कि न
जानने में ही
जानना है। तुम
अगर मेरे पास
से न जानने का
यह अहोभाव लेकर
विदा होओ, तो
फिर तुमसे कोई
भी इसे छीन न
सकेगा। डाकू
लूट न सकेंगे।
जेबकतरे काट न
सकेंगे। कोई
तुम्हारे
जीवन में
संदेह पैदा न
कर सकेगा। जहां
ज्ञान है वहां
संदेह की
संभावना है।
कोई दूसरा
विपरीत ज्ञान
ले आये, तो
झंझट खड़ी कर
देगा। तर्क ले
आये, तो
झंझट खड़ी कर
देगा।
मैं
तुम्हें
ज्ञान नहीं दे
रहा हूं। मैं
तुम्हें कुछ
और बहुमूल्य
दे रहा हूं? जो
तुम्हारी समझ
में नहीं पड़
रहा है। जिस
दिन जिसको समझ
में पड़ जायेगा,
वह उसी क्षण
मुक्त हो गया।
और जो अज्ञान
में मुक्त हो
गया, उसकी
मुक्ति महान
है, गहन है!
उसका निर्वाण
फिर छीना नहीं
जा सकता।
तुमने
क्या जाना? इसे
सोचो। अब तक
कुछ भी जान
पाये? कुछ
भी तो नहीं जान
पाये। कूड़ा—कर्कट
इकट्ठा कर
लेते हो, सूचनाएं
इकट्ठी कर
लेते हो—सोचते
हो जान लिया? किसी ने
पूछा, यह
वृक्ष जानते
हो? तुमने
कहा : ही, अशोक
का वृक्ष है।
यह कोई जानना
हुआ? अशोक
का वृक्ष
तुमने कह दिया।
अशोक के वृक्ष
को पता है कि
उसका नाम अशोक
है ? तुमने
क्या खाक जान
लिया! तुमने
ही नाम दे
दिया, अशोक।
तुमने ही बता
दिया कि अशोक
का वृक्ष है।
तुम्हीं ने
तख्ती लगा दी,
तुम्हीं ने
पढ़ ली। वृक्ष
को भी तुम अभी
तक नहीं समझा
पाये कि तुम अशोक
हो। तुम जानते
क्या हो? —कामचलाऊ
बातें, ऊपरी—ऊपरी,
'लेबिल' चिपका
दिये हैं।
ज्ञान
यहां कहीं भी
नहीं है। न तो
शास्त्रों
में ज्ञान है, न
वैज्ञानिकों
के पास ज्ञान
है। किसी के
पास ज्ञान
नहीं है। ज्ञान
होता ही नहीं।
ऐसा
भाव जब
तुम्हारे
भीतर स्पष्ट
हो जायेगा, तब
तुमसे कौन छीन
सकेगा
तुम्हारे बोध
को! कैसे छीन
सकेगा! तब तुम
एक शाश्वतता
में जीओगे—कालातीत,
क्षेत्रातीत।
तुम्हारी शांति
प्रगाढ़ होगी।
उसी क्षण उसका
उदय होता है, जिसके प्रति
नमन हो सकता
है। वह उदय
रहस्यपूर्ण
है—ज्ञानपूर्ण
नहीं।
और
आखिरी प्रश्न—
आखिरी
में रखा है, क्योंकि
प्रश्न नहीं
है, उत्तर
है। जैसे
मैंने पूछा हो
और कोई ज्ञानी
आ गये हों, उन्होंने
उत्तर दे दिया
: 'मैं—तू —वह
ये वास्तविक
भेद नहीं हैं, शाब्दिक
हैं। रुचि या
स्थिति—विशेष
में इनके द्वारा
परमात्मा को
पुकारा जाता
है।’
अब
यह तो उत्तर
है,
यह कोई
प्रश्न नहीं है।
अगर यह उत्तर
तुम्हें मिल
गया है तो तुम
यहां किसलिए
आये हो? यहां
क्या कर रहे
हो? बात
खतम हो गयी।
और अगर यह
उत्तर
तुम्हें अभी
मिला नहीं है,
तो तुम
किसको यह
उत्तर दे रहे
हो और किस
कारण?
आदमी
को अपना ज्ञान
बताने की बड़ी
आकांक्षा होती
है। जितना कम
हो,
उतनी
ज्यादा
आकांक्षा
होती है।
इसलिए तो कहते
हैं. थोड़ा
ज्ञान बड़ा
खतरनाक। यह भी
तुमने जाना
नहीं है कि
तुम क्या कह
रहे हो? क्यों
कह रहे हो? मैंने
तुमसे पूछा
नहीं।
तुम्हें यह
उत्तर देने की
कोई जरूरत
नहीं है।
लेकिन फिर भी
बिना पूछे
तुमने दिया तो
धन्यवाद! ऐसे
ही तुम मुझे
देते रहे तो
कभी—न—कभी मैं
भी ज्ञानी हो
जाऊंगा! ऐसी
कृपा बनाये रखना!
एक
व्यक्ति आधी
रात को सड़क पर
घूम रहा था।
एक सिपाही ने
उसे रोक कर
पूछा, श्रीमान,
आपके पास
इतनी रात गये
सड़क पर घूमने
का कोई कारण
है ? उस
व्यक्ति ने
सिर ठोंक कर
कहा कि यदि
मेरे पास कोई
कारण ही होता
तो मैं कभी का
घर पहुंच कर अपनी
बीबी के सामने
पेश कर चुका
होता; कारण
नहीं है, इसीलिए
तो घूम रहा
हूं।
अगर
तुम्हें पता
ही चल गया है, जो
तुमने कहा है
अगर तुम्हें
पता चल गया है,
तो तुम
परमात्मा के
सामने
उपस्थित हो
जाते, तब
तो मंदिर का
द्वार खुल
जाता। इन
शाब्दिक
समझदारियो
में मत उलझी।
'मैं, तू
वह—ये
वास्तविक भेद
नहीं हैं।’
कहा
किसने कि ये
वास्तविक भेद
हैं?
तुम सोचते
हो कोई भेद
वास्तविक
होते हैं? भेद
मात्र
अवास्तविक
हैं। तुमको यह
खयाल किसने दे
दिया कि भेद
वास्तविक भी
होते हैं?
और
तुम कहते हो
कि 'मैं, तू
वह—सब शाब्दिक
भेद हैं।’
ये
शब्द ही हैं, स्वभावत:
भेद शाब्दिक
होंगे। तुम समझा
किसको रहे हो? किसने कहा
कि ये शब्द
नहीं हैं? और
अगर शब्द न
होते तो मैं
कैसे बोलता; तुम कैसे
लिखते? सब
शब्द हैं।
'रुचि या
स्थिति—विशेष
में इनके
द्वारा
परमात्मा को
पुकारा जाता
है।’
तुम्हें
परमात्मा का
पता है? और जब
तक स्थिति—विशेष
रहे और रुचि—विशेष
रहे तब तक
परमात्मा से
किसी का कभी
संबंध हुआ है?
अष्टावक्र
कहते हैं. 'दृष्टि—शून्य:।’
जब दृष्टि
शून्य हो जाये,
कोई दृष्टि
न बचे! जब कोई
स्थिति न बचे,
कोई अवस्था
न बचे, तुम
स्थिति और
अवस्थाओं के
पार हो जाओ—तभी
परमात्मा का
प्रागट्य
होता है।
तो
अगर कोई रुचि
है अभी शेष, तो
तुम जिसको
पुकार रहे हो
वह परमात्मा
नहीं है। वह
तुम्हारी
पुकार है, तुम्हारी
रुचि की पुकार
है। परमात्मा
से उसका क्या
लेना—देना? निश्चित ही
अलग—अलग
रुचि
के लोग
परमात्मा को
अलग— अलग नाम
देते रहते हैं।
लेकिन क्या
इससे
परमात्मा को
नाम मिलते हैं? जैसे
मैंने तुमसे
कहा, अशोक
के वृक्ष को
भी पता नहीं
है कि वह अशोक
का वृक्ष है।
और परमात्मा
को भी पता
नहीं है कि
तुम किस—किस
तरह के पागलपन
उसके नाम से
कर रहे हो।
सूफी
पुकारते हैं
परमात्मा को
स्त्री मान कर, प्रेयसी
मान कर। कोई
हैं जो
परमात्मा को
पिता मान कर
पुकारते हैं,
जैसे ईसाई।
कोई कुछ मान
कर पुकारते
हैं, कोई
कुछ मान कर
पुकारते।
इससे
तुम्हारी
रुचि भर का
पता चलता है, या तुम्हारी
बीमारी का पता
चलता है। इससे
परमात्मा तक
पुकार नहीं
पहुंचती; क्योंकि
परमात्मा न
पिता है, न
माता है, न
भाई है, न
बेटा है, न
पत्नी है, न
प्रेयसी है।
परमात्मा
कोई संबंध
थोड़े ही है
तुम्हारे और किसी
के बीच!
परमात्मा तो
ऐसी घड़ी है
जहां तुम न बचे; जहां
पुकारने वाला
न बचा। तुम जब
पुकार रहे हो
तब तक
परमात्मा तक
पुकार न
पहुंचेगी। जब
पुकारने वाला
ही मिट गया, जब पुकार न
बची, जब
कोई न बचा
पुकारने को, जब गहन
सन्नाटा घिर
गया, जब
शून्य उतरा, शन्यादृष्टि:,
सब शून्य
भाव हो गया—तभी।
हेरत
हेरत हे सखी
रह्या कबीर
हेराई! जब
कबीर खो गया
खोजते—खोजते, तब,
तब हुआ मिलन।
कबीर ने कहा
है. जब तक मैं
था तब तक तू
नहीं, अब
तू है मैं
नाहिं।
तो
तुम पुकारो
विशेष—स्थिति
में,
रुचि में, परमात्मा को
नाम दो, ये
सब तुम्हारे
संबंध में खबर
देते हैं, इससे
परमात्मा का
कुछ पता नहीं
चलता।
मगर
यह उत्तर चाहा
किसने था? तुम्हारे
भीतर दिखता है
ज्ञान खडुबडा
रहा है, प्रगट
होना चाहता है।
तुम बड़ी
खतरनाक
स्थिति में हो।
जब तुम मुझे
तक नहीं बख्यो,
तो दूसरों
की क्या हालत
कर रहे होओगे।
तुम्हारे
पंजे में जो
पड़ जायेगा, तुम उसी के
गले में
घोंटने लगोगे
ज्ञान। तुम
जरूर
अत्याचार कर
रहे होओगे
लोगों पर। जिन
पर भी कर सकते
होओगे, तुम
मौका न छोड़ते
होओगे।
ध्यान
रखना, ऐसा ज्ञान
किसी के भी
काम नहीं आता।
जब तक कोई तुम्हारे
पास पूछने न
आया हो, तब
तक मत कहना।
क्योंकि जो
बिना पूछे कहा
जाता है, उसे
कोई स्वीकार
नहीं करता। जब
कोई प्यास से
पूछने आता है,
तब मुश्किल
से लोग
स्वीकार करते
हैं; तब भी
मुश्किल से
स्वीकार करते
हैं। खुद ही
आये थे पूछने,
तो भी बड़े
झिझक से
स्वीकार करते
हैं, तब भी
स्वीकार कर
लें तो
धन्यभाग!
लेकिन जब तुम्हीं
उनकी तलाश में
घूमते हो
ज्ञान ले कर
कि कहीं कोई
मिल जाये तो
उंडेल दें
ज्ञान उसके ऊपर,
तब तो कोई
स्वीकार करने
वाला नहीं है।
लोग सिर्फ
नाराज होंगे।
इसलिए
ज्ञानियों से
लोग बचते हैं
कि चले आ रहे
हैं पंडित जी!
वे भागते हैं,
कि पंडित
चले आ रहे हैं,
यहां से बचो
नहीं तो वे
सिर खायेंगे!
जो
नहीं मांगा है
वह देने की
कोशिश कभी
नहीं करना।
कहा
जाता है कि
दुनिया में जो
चीज सबसे
ज्यादा दी
जाती है और
सबसे कम ली
जाती है, वह
सलाह है। सलाह
इतनी दी जाती
है, इतनी
दी जाती है—और
लेता कोई भी
नहीं! क्योंकि
मुफ्त तुम
देते हो—कौन
लेगा? अकारण,
बिना मांगे
तुम देते हो—कौन
लेगा?
नहीं, इस
तरह के ज्ञान
को उछालते मत
फिरो। कोई
तुम्हारे पास
जिज्ञासा
करने आये कभी,
उसको बता
देना। कोई
तुमसे पूछता
हो तो उसको
बता देना।
लेकिन कोई
पूछे न, किसी
ने जिज्ञासा न
की हो, तो
ऐसी आतुरता मत
रखो। ऐसी
आतुरता
खतरनाक है, हिंसात्मक
है। ऐसे
ज्ञानियों ने
लोगों के मन
में ज्ञान के
प्रति बड़ी
अरुचि पैदा कर
दी है। ऐसे
ज्ञानियों के
कारण जीवन की
परम गुह्य बातें
भी उबाने वाली
हो गयी हैं।
उनसे रस
समाप्त हो गया।
चुप
रहो! अगर किसी
को पता चलेगा
कि तुम्हें
ज्ञान मिल गया, तुम्हें
कुछ जागरण आ
गया, लोग
अपने—आप आने
लगेंगे। कोई
पूछे, तब
कह देना।
यहां
तो कोई भी
तुमसे पूछ
नहीं रहा था, कम—से—कम
मैंने तो नहीं
पूछा था।
लेकिन
अहंकार
रास्ते खोजता
है,
नये—नये
रास्ते खोजता
है। किसी भी
तरह से अहंकार
अपने को
प्रतिस्थापित
करना चाहता है
कि मैं कुछ
हूं विशिष्ट
हूं। और वही
विशिष्टता
तुम्हारा
कारागृह है।
(वह
तो आखिरी
प्रश्न नहीं
था, क्योंकि
उत्तर था।)
आखिरी
प्रश्न :
आपने
कहा कि कृष्ण
भरोसे के नहीं
थे;
उनसे अधिक
गैर— भरोसे का आदमी
खोजना कठिन है।
लेकिन मैं
समझती हूं कि
एक हैं जो
उनसे भी अधिक
गैर— भरोसे के
हैं। क्या आप
उन पर बोलना
पसंद करेंगे, क्योंकि वे
स्वयं भगवान
श्री रजनीश
हैं?
उन
पर बोलने का
खतरा तो मैं
भी नहीं लूंगा।
उनके संबंध
में पूछो तो
इतना ही
कहूंगा:
हरि
ओंम तत्सत्!
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