सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि
चापरे।
आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते।।
27।।
और
दूसरे योगीजन
संपूर्ण
इंद्रियों की चेष्टाओं
को तथा
प्राणों के
व्यापार को
ज्ञान से
प्रकाशित हुई
परमात्मा में स्थितिरूप
योगाग्नि में
हवन करते हैं।
अज्ञानी
परमात्मा को
भेंट भी करे, तो क्या
भेंट करे? अज्ञानी
न परमात्मा को
जानता, न
स्वयं को
जानता। न उसे
उसका पता है, जिसको भेंट
करनी है; न
उसका पता है, जिसे भेंट
करनी है।
स्वभावतः, उसे
यह भी पता
नहीं है कि
क्या भेंट
करना है।
अज्ञानी
जिन चीजों से
आसक्त होता है, उन्हीं को
परमात्मा को
भेंट भी कर
आता है। जो उसे
प्रीतिकर
लगता है, वही
वह परमात्मा
के चरणों में
भी चढ़ाता
है। भोग लगता
है प्रीतिकर,
भोजन लगता
है प्रीतिकर,
तो
परमात्मा के
द्वार पर चढ़ा
आता है। फूल
लगते हैं
प्रीतिकर, तो
परमात्मा के
चरणों में रख
आता है। सोचता
है, शायद
जो उसे
प्रीतिकर है,
वही
परमात्मा को
भी प्रीतिकर
है।
लेकिन
अज्ञान में जो
प्रीतिकर है, वह ज्ञान
में प्रीतिकर
नहीं रह जाता।
हमें जो प्रीतिकर
है, हमारी
स्थिति में जो
प्रीतिकर है,
उसे
परमात्मा के
द्वार पर चढ़ाने
योग्य समझने की
भूल अज्ञान
में ही होती
है।
कृष्ण
कहते हैं इस
सूत्र में कि ज्ञानीजन, योगीजन,
अपनी
इंद्रियों को
ही उस
परमात्मा की
अग्नि में
आहुति दे देते
हैं।
हम जब
भी परमात्मा
को कुछ भेंट
करते हैं, तो
इंद्रियों के
विषयों में से
कुछ भेंट करते
हैं।
इंद्रियां जो
चाहती हैं, उसे हम
परमात्मा को
भेंट करते
हैं। ज्ञानीजन,
योगीजन इंद्रियों
को ही उसकी
अग्नि में
आहुति दे देते
हैं। भेद को
ठीक से समझ
लेना जरूरी
है।
फूल
लगता है
प्रीतिकर; नासापुटों
को सुगंध लगती
है मधुर; आंखों
को रूप लगता
है आकर्षक। हम
फूल को चढ़ा देते
हैं परमात्मा
के चरणों पर। ज्ञानीजन
सुगंध की
इंद्रिय को ही
चढ़ा देते हैं,
फूल को
नहीं। हमें
भोजन लगता है
प्रीतिकर, स्वाद
लगता है मधुर,
हम
स्वादिष्ट
फलों को, मिष्ठानों को
परमात्मा के
द्वार पर रख
देते हैं। ज्ञानीजन,
योगीजन स्वाद को
ही--स्वादिष्ट
को
नहीं--स्वाद
को ही उसकी
अग्नि में
समर्पित कर
देते हैं।
इंद्रियों को
ही। जो
प्रीतिकर
लगता है, वह
नहीं; जिसे
प्रीतिकर
लगता है, उसे
ही समर्पित कर
देते हैं।
यह
समर्पण
प्राणों का
समर्पण है। यह
समर्पण अपना
ही समर्पण है।
क्योंकि हम
जिसे अब तक
जानते हैं
स्वयं का होना, वह हमारी
इंद्रियों के
जोड़ के
अतिरिक्त और
कुछ भी नहीं
है। हम जिसे
कहते हैं अपनी
अस्मिता, अपना
होना, अपना
बीइंग, वह
हमारी
इंद्रियों के
जोड़ के
अतिरिक्त और
कुछ भी नहीं
है। और जब कोई
अपनी समस्त
इंद्रियों को,
अपने समस्त
जोड़ को
परमात्मा को
चढ़ा देता, तो
पीछे चढ़ाने
वाला और जिसको
चढ़ाया
गया है वह, वे
दोनों एक ही
हो जाते हैं।
क्योंकि पीछे
परमात्मा ही
बचता है। अगर
हम अपनी सारी
इंद्रियां
परमात्मा को
चढ़ा दें, तो
हमारे भीतर
सिवाय
परमात्मा के
फिर और कोई भी
नहीं बचता है।
इंद्रियों
के द्वारा हम
संसार से
जुड़ते हैं। इंद्रियां
हमारे उपकरण
हैं संसार से संयुक्त
होने के। आंख
से हम रूप से
जुड़ते हैं, आंख से हम
प्रकाश से
जुड़ते हैं।
कान से हम स्वर
से, ध्वनि
से जुड़ते हैं।
ऐसे हमारी
पांचों इंद्रियों
के द्वार से
हम संसार से
जुड़ते हैं।
इंद्रियों से
जाएं, तो
संसार में
पहुंच
जाएंगे।
इंद्रियों को
छोड़कर जाएं, तो परमात्मा
में पहुंच
जाएंगे।
इंद्रियां
द्वार हैं संसार
की तरफ। अगर
इंद्रियों से
लौट आएं पीछे,
तो
परमात्मा में
पहुंच
जाएंगे।
जो
सीढ़ी मकान के
नीचे लाती है, वही सीढ़ी
मकान के ऊपर
भी ले जाती
है। जो रास्ता
आपको यहां तक
ले आया, वही
रास्ता आपको
वापस आपके घर
तक भी ले जाएगा।
लेकिन यहां
आते समय और घर
लौटते समय, रास्ता भी
वही होगा, आप
भी वही होंगे।
फर्क क्या
पड़ेगा? फर्क
इतना ही पड़ेगा,
आपका रुख, आपका चेहरा
बदल जाएगा।
इधर आते हुए
चेहरा इस तरफ
होगा, पीठ
घर की तरफ
होगी; घर
जाते समय
चेहरा घर की
तरफ होगा, पीठ
इस तरफ होगी।
संसार
में जाते समय
इंद्रियों की
तरफ उन्मुख
होकर, मुंह
करके संसार
में जाना पड़ता
है। परमात्मा की
तरफ, स्वयं
की तरफ आते
समय, इंद्रियों
की तरफ पीठ कर
लेनी पड़ती है
और लौटना पड़ता
है।
इंद्रियां
ही द्वार हैं
संसार में ले
जाने के, इंद्रियां
ही द्वार बनती
हैं परमात्मा
में आने के।
इंद्रियां एंट्रेंस
हैं संसार में
और एक्जिट
हैं परमात्मा
में।
इसलिए
कृष्ण कहते
हैं, ज्ञानीजन अपनी
इंद्रियों को
ही उसके हवन
में, उसके
यज्ञ की अग्नि
में, उस
परमात्मा में
समर्पित कर
देते हैं।
उनका ही होम
लगा देते हैं।
तब जो पीछे
शेष रह जाता
है वह, और
जिसे होम दिया
है वह, दो
नहीं रह जाते।
फिर यज्ञ करने
वाला, यज्ञ,
यज्ञ जिसकी
प्रार्थना
में किया गया
वह, सब एक
ही हो जाते
हैं।
इंद्रियों
से छूटते ही
व्यक्ति में
और समष्टि में
कोई भेद नहीं।
इंद्रियों से
छूटते ही दृश्य
विदा हो जाता, अदृश्य से
मिलन हो जाता।
इंद्रियों के
छूटते ही रूप
विदा हो जाता,
अरूप से
मिलन हो जाता।
इंद्रियों के
छूटते ही आकार
खो जाता, निराकार
में निमज्जन
हो जाता है।
इंद्रियां ही
हमारे आकार की
जन्मदात्री, रूप की
निर्माता, संसार
की
व्यवस्थापक
हैं।
इंद्रियों के
तिरोहित होते
ही सब खो जाता
है विराट में,
निराकार
में।
इसलिए ज्ञानीजन
इंद्रियों को
ही--इंद्रियों
के उपभोगों
को नहीं, इंद्रियों
को ही--जिनसे
सब उपभोग किए,
उनको ही, परमात्मा को
समर्पित कर
देते हैं।
यह
समर्पण ही
समर्पण है, बाकी सब
धोखा है। ऐसा
त्याग ही
त्याग है, बाकी
सब त्याग
प्रवंचना है।
ऐसा अपने को
ही खो देने की
सामर्थ्य ही
समर्पण है।
बाकी सब अपने
को बचा लेने
का उपाय है।
फूल को
चढ़ाकर हम
कुछ भी तो
नहीं चढ़ाते।
फूल तो
परमात्मा को
चढ़े ही हुए
हैं। आप तोड़कर
सिर्फ उनके
प्राणों को
नष्ट करते
हैं। पौधों पर
चढ़े हुए भी
फूल परमात्मा
की ही
गौरव-गाथा गाते
हैं। आप उनको तोड़कर
सिर्फ मार
डालते हैं, हत्या करते
हैं, और
कुछ नहीं
करते। और यहां
वे विराट
परमात्मा को
समर्पित थे ही,
आप तोड़कर
अपने घर में
हाथ से बनाए
हुए, होममेड परमात्मा
पर जाकर उनको चढ़ाते हैं!
नहीं, इससे कुछ न
होगा। और
परमात्मा के
सामने मिठाइयों
के थाल रखने से
कुछ न होगा।
क्योंकि सभी
कुछ उसके
सामने सदा रखा
ही हुआ है।
सभी कुछ उसकी
मौजूदगी में
सदा है। सारा
विश्व ही उसके
सामने है।
आपकी थाली
बहुत अर्थ न
लाएगी।
चढ़ाना
ही हो, तो चढ़ाने की
चीज स्वयं के
अतिरिक्त और
कुछ भी नहीं
है। हमारे पास
अपने
अतिरिक्त और
कुछ भी तो नहीं
है। इसे गणित
समझें। इसे
गणित समझें कि
मौत के समय
आपसे जो छीना
जाएगा, वही
यज्ञ में चढ़ाया
जाए, तो ही
यज्ञ पूरा
होता है। मौत
के समय जो
आपसे छीना
जाएगा, अगर
आप उसी को
स्वेच्छा से
समर्पित करते
हैं, तो ही
परमात्मा के
चरणों तक आपकी
पुकार और प्रार्थना
पहुंच पाती
है। मृत्यु
में जो
जबर्दस्ती
घटित होगा, साधक, भक्त,
योगी, उसे
सहज अपनी ही
ओर से
परमात्मा के
चरणों में रख
देता है।
इसलिए
फिर उसकी
मृत्यु नहीं
आती, क्योंकि
उसके पास छीने
जाने को भी
कुछ नहीं बचता।
इंद्रियां
उसने दे दीं, जो छिन सकती
थीं। और शरीर
इंद्रियों का
जोड़ है; शरीर
भी दे दिया
उसने, जो
छिन सकता था।
और अहंकार
सारे
इंद्रियों के अनुभव
का संघट है।
इंद्रियों के
साथ वह भी गया।
इंद्रियों
के साथ ही सब
कुछ चला जाता
है, जो मौत
में छीना जाता
है। जो
साधारणजन मौत
में छोड़ते हैं,
छुड़ाया जाता है, वह
असाधारणजन
स्वयं ही परमात्मा
के चरणों में
समर्पित कर
देते हैं। यही
है यज्ञ, यही
है हवन, यही
है होम। इसके
अतिरिक्त सब
धोखे हैं।
धोखे
देने में हम
कुशल हैं।
दूसरों को, अपने को, परमात्मा
को भी हम धोखा
देने से बचते
नहीं।
अनेक-अनेक
प्रकार के हम
धोखे अपने
आस-पास खड़े कर
लेते हैं। और
धर्म के नाम
पर हमने हजार
धोखे खड़े कर
लिए हैं। इस
सूत्र को पढ़ते
रहेंगे हम रोज, और फिर भी
सूत्र को पढ़कर
हम फूल ही चढ़ाते
रहेंगे। इस
सूत्र को पढ़ते
रहेंगे रोज, फिर भी
मिठाइयां चढ़ाते
रहेंगे। इस
सूत्र को पढ़ते
रहेंगे रोज, लेकिन
इंद्रियां हम
से न चढ़ाई
जाएंगी।
स्वाद नहीं, सुवास का
उपकरण नहीं; हम अपने को
बचाकर और सब चढ़ाते रहे
हैं। शायद, अपने को
बचाने के लिए
ही हम कुछ और
चढ़ा रहे हैं।
हमने
परमात्मा को
कोई बच्चा
समझा है, जिसे
हम खिलौने
पकड़ा देते
हैं! इन
खिलौनों से नहीं
हो सकता है
कुछ।
कृष्ण
कहते हैं, जो ऐसा कर
पाता है, वही
परम सत्य को, परम आनंद को,
परम आशीष को
उपलब्ध होता
है।
प्रश्न:
भगवान
श्री, श्लोक
के दूसरे
हिस्से में
कहा गया है, ज्ञान से
प्रकाशित हुई
परमात्मा में स्थितिरूप
योगाग्नि में
हवन! इसमें
योगाग्नि का
अर्थ स्पष्ट
करने की कृपा
करें।
जैसा
मैंने कहा, इंद्रियों के
भोग चढ़ाने
से कुछ भी न
होगा; ऐसे
ही बाहर जो
अग्नि जलती है,
उसमें चढ़ाने
से भी कुछ न
होगा। बाहर की
अग्नि में चढ़ाना
हो, तो
इंद्रियां चढ़ाई भी
कैसे जा सकती
हैं? बाहर
की अग्नि में
तो इंद्रियों
के विषय ही चढ़ाए
जा सकते हैं, इंद्रियां
नहीं चढ़ाई
जा सकतीं।
बाहर की अग्नि
में तो फूल ही चढ़ाए जा
सकते हैं, गंध
की आकांक्षा
कैसे चढ़ाई
जा सकती है!
बाहर की अग्नि
में तो आकृत
वस्तुएं ही चढ़ाई जा
सकती हैं, आकार
देने वाली
दृष्टि कैसे चढ़ाई जा
सकती है! बाहर
की अग्नि तो
दृष्टि को छू
भी न पाएगी।
स्वभावतः, अगर
इंद्रियां चढ़ानी हैं,
तो योगाग्नि
में, योग
से उत्पन्न
हुई अग्नि
में।
योग से
उत्पन्न हुई
अग्नि क्या है? इसे थोड़ा
समझना पड़ेगा।
यह थोड़ी आकल्ट
साइंस की बात
है। योग से
उत्पन्न
अग्नि क्या है?
तो
पहले तो यह
समझें कि
अग्नि क्या
है। अग्नि दो
वस्तुओं के
भीतर छिपी हुई
विद्युत का
संघर्षण है। प्रत्येक
वस्तु के भीतर
विद्युत छिपी
है। शायद यह
कहना भी ठीक
नहीं है। यही
कहना ठीक है
कि प्रत्येक
वस्तु
विद्युत कणों
के जोड़ का ही
नाम है।
विज्ञान भी
यही कहेगा; फिजिसिस्ट,
भौतिकविद
भी यही
कहेंगे।
प्रत्येक
वस्तु इलेक्ट्रांस
का जोड़ है, विद्युत
कणों का जोड़
है। जो
वस्तुएं आपको
दिखाई पड़ रही
हैं चारों तरफ,
वे भी
वस्तुएं नहीं
हैं; विद्युत
ऊर्जा, इलेक्ट्रिक
एनर्जी ही
हैं।
प्रत्येक
वस्तु को हम
तोड़ें, एक
मिट्टी के
टुकड़े को हम
तोड़ें--तोड़ें--और
अगर आखिरी
परमाणुओं पर
पहुंचें, तो
फिर विद्युत
कण ही हाथ
लगते हैं, पदार्थ
खो जाता है।
एनर्जी ही हाथ
लगती है; ऊर्जा,
शक्ति ही
हाथ लगती है; पदार्थ खो
जाता है।
अतिसूक्ष्म! अतिसूक्ष्म
कहना भी ठीक
नहीं, सूक्ष्म
से भी पार।
विद्युत के
कणों, कण
कहना भी ठीक
नहीं।
क्योंकि
विद्युत का कण
नहीं होता। कण
तो पदार्थ के
होते हैं।
विद्युत की तो
लहर होती है, वेव होती है,
तरंग होती
है। शक्ति में
कण नहीं होते,
शक्ति में
तरंगें होती
हैं। अभी
हिंदी में कोई
शब्द ठीक नहीं
है। लेकिन
अंग्रेजी में
एक जर्मन शब्द
उपयोग होता है,
क्वांटा। क्वांटा
का मतलब है, कण भी, तरंग
भी। कण इस
खयाल से कि
पदार्थ का
आखिरी हिस्सा
है; तरंग
इस खयाल से कि
वह आखिरी
हिस्सा
पदार्थ नहीं
है, विद्युत
है।
तो क्वांटा
से बना हुआ है
सारा जगत।
बाहर-भीतर, सब तरफ क्वांटा
से बना हुआ
है। ये जो
विद्युत कण, लहरें, तरंगें
प्रत्येक
पदार्थ को
निर्मित की
हैं, अगर
इनका घर्षण
किया जाए, तो
अग्नि
उत्पन्न होती
है! अग्नि, विद्युत
के बीच हुए
घर्षण का
परिणाम है।
अगर आप
अपने दोनों
हाथ भी घिसें, तो भी दोनों
हाथ गर्म हो
जाते हैं; अग्नि
पैदा होनी
शुरू हो जाती
है। अगर आप
तेजी से दौड़ें,
तो पसीना
आना शुरू हो
जाता है; क्योंकि
हवा और आपके
बीच घर्षण हो
जाता है। घर्षण
से शरीर उत्तप्त
हो जाता है।
जब आपको बुखार
चढ़ आता है, तब
भी आपका शरीर
उत्तप्त हो
जाता है, क्योंकि
शरीर के भीतर,
बाहर से आए
हुए बीमारी के
कीटाणुओं
में और आपके
शरीर के रक्षक
कीटाणुओं
में घर्षण
शुरू हो जाता
है, संघर्ष।
उस घर्षण के
परिणाम में
फीवर, बुखार
पैदा हो जाता
है। बुखार कोई
बीमारी नहीं
है, केवल
बीमारी की
सूचना है कि
शरीर के भीतर
गहरा संघर्ष छिड़ा हुआ
है। इसलिए
शरीर उत्तप्त
हो जाता है।
शरीर
एक विशेष
उत्ताप में
रहे, तो ही हम
जीवित रह सकते
हैं। अगर यहां
अट्ठानबे
डिग्री से
दो-चार डिग्री
नीचे गिर जाए,
तो प्राण
संकट में पड़
जाते हैं।
वहां एक सौ दस
डिग्री के आगे
प्राण
तिरोहित हो
जाते हैं।
दस-पंद्रह
डिग्री का जीवन
है! बस, दस-पंद्रह
डिग्री के बीच
में उत्ताप हो,
तो हम जीवित
रहते हैं।
नीचे हो जाए, तो सब ठंडा
हो जाए; ऊपर
हो जाए, तो
सब इतना गर्म
हो जाए कि
जीवन न बच
सके--न इस ठंडक
में, न उस
गर्मी में।
ऐसा पंद्रह
डिग्री के बीच
हमारा जीवन
है!
पूरे
समय शरीर जो
है, वह थर्मोस्टैट
का काम करता
है। पूरे समय
शरीर भीतरी
व्यवस्था से
शरीर की गर्मी
को समान रखने
की कोशिश करता
है, शरीर
की अग्नि को
समान रखने की
कोशिश करता
है।
इस
अग्नि को हम
बाहर आग लगाकर
किसी आदमी को
बिठा दें, तो वह जल
जाए। बाहर
हमने क्या
किया? बाहर
भी घर्षण से
अग्नि पैदा
होती है। जब
आप दियासलाई
को रगड़ रहे
हैं, तब भी
आपने
दियासलाई और
हाथ की काड़ी
में बहुत
शीघ्रता से
घर्षण को
उपलब्ध होने
वाले पदार्थ
लगा रखे हैं, जो जल्दी से
घर्षण में आग
पकड़ लेते हैं।
फिर आपने आग
लगा दी, चिता
जल गई। अब
आदमी को उसमें
रख दिया, वह
जल जाएगा।
अभी-अभी
ठीक दो महीने
पहले यू.पी.
के एक छोटे-से
गांव में एक
सिक्ख साधु ने
योगाग्नि से
अपने को जलाया
है। किसी तरह
की अग्नि का
उपयोग नहीं
किया; आंख
बंद करके बैठ
गया और आग की
लपटें उससे
निकलनी शुरू
हुईं, सब
जल गया। फिर
डाक्टरों ने
सर्टिफिकेट
भी पीछे दिया
है कि किसी
तरह के
पेट्रोल, किसी
तरह की आग के
किसी उपकरण का
कोई उपयोग नहीं
किया गया है।
अग्नि अनजाने
स्रोत
से--डाक्टर्स
ने जो लिखा
है--अनजाने
स्रोत से भीतर
से ही पैदा
हुई है; बाहर
से कोई अग्नि
का लक्षण नहीं
है। वह राख हो
गया आदमी
जलकर।
योगाग्नि
का अर्थ है, शरीर के
भीतर ही अग्नि
को पैदा किया
जा सकता है।
यह योगाग्नि
दो प्रकार की
हो सकती है।
एक ऐसी, जैसा
मैंने इस
उदाहरण में
आपको कहा, दो
महीने पहले
घटी एक
गुरुद्वारे
की यह घटना। एक
साधु ने अपने
को योगाग्नि
से जला लिया।
सब राख हो
गया। भीतर से
आग बाहर की
तरफ आई। पहले
उसके भीतर के
अंग जले हैं, फिर बाहर के
अंग जले हैं।
भीतर सब राख
हो गया; बाहर
बहुत कुछ बच
भी गया। अग्नि
भीतर से बाहर की
तरफ आई है।
मेडिकल साइंस
की पकड़ के
बाहर है; जिन
चिकित्सकों
ने रिपोर्ट दी
है, वे भी
चकित और अवाक
हैं। उनके पास
कोई एक्सप्लेनेशन,
कोई
व्याख्या
नहीं है। क्या
हुआ?
शरीर
के भीतर भी
घर्षण पैदा
करने की यौगिक
प्रक्रियाएं
हैं। इस घर्षण
से दो काम लिए
जा सकते हैं।
अनेक बार योगी
अपने शरीर को
इस घर्षण से उत्पन्न
अग्नि में ही
समाहित करते
हैं। यह एक
उपयोग है। यह
मृत्यु के समय
उपयोग में
लाया जा सकता
है।
एक
दूसरा उपयोग
है, जिसका
कृष्ण प्रयोग
कर रहे हैं।
योगाग्नि में
अपनी
इंद्रियों को
समाहित, अपनी
इंद्रियों को
समर्पित कर
देते हैं। वह
दूसरा उपयोग
है; वह
जीते-जी किया
जा सकता है।
उसमें और भी
सूक्ष्म
अग्नि पैदा
करने की बात
है। वह अग्नि
भी भीतर पैदा
हो जाती है।
उस अग्नि से
शरीर नहीं
जलता, लेकिन
शरीर के रस जल
जाते हैं। उस
अग्नि से शरीर
नहीं जलता, लेकिन
इंद्रियों के
रस और आकांक्षाएं
जल जाती हैं।
उससे शरीर
नहीं जलता, लेकिन
इंद्रियों के
जो सूक्ष्म
तंतु हैं, वे
जल जाते हैं।
इंद्रियों
के सूक्ष्म
तंतु हैं, इससे
वैज्ञानिक भी
राजी हैं। और
अगर इंद्रियों
के सूक्ष्म
तंतु अलग कर
लिए जाएं, तो
इंद्रियां
व्यर्थ हो
जाती हैं; इसके
लिए भी
वैज्ञानिक
राजी हैं।
जैसे
आप जब सुगंध
ले रहे हैं, तो शायद
आपको तो खयाल
नहीं, खयाल
का कोई कारण
भी नहीं, कि
आपकी नाक के
नासापुटों
में बहुत
सूक्ष्म, सुगंध
को पकड़ने
वाले, सुगंध
की तरंगों को पकड़ने
वाले कण हैं।
जब आप
सर्दी-जुकाम
में होते हैं, आपको सुगंध
नहीं आती।
क्यों? आपके
पास नाक पूरी
की पूरी है; नासापुट
पूरे हैं; सुगंध
कहां खो गई? सुगंध इसलिए
नहीं आती कि
जब आप सर्दी
में होते हैं,
तो आपकी नाक
के भीतर के सब
रेशे सूजन से
भर जाते हैं।
और वे जो
छोटे-छोटे
परमाणु पकड़ते
हैं गंध को, वे दब जाते
हैं और पकड़ने
में असमर्थ हो
जाते हैं।
बलगम के नीचे
वे परमाणु दब
जाते हैं और
सुगंध को पकड़ने
में असमर्थ हो
जाते हैं।
उनका आपरेशन
किया जा सकता
है। वे परमाणु
अगर काट दिए
जाएं, तो
आदमी को फिर
सुगंध नहीं
आएगी। अगर वे
परमाणु बहुत
ज्यादा किसी
एक ही गंध में
रखे जाएं, तो
धीरे-धीरे इम्यून
हो जाते हैं
और उस गंध को पकड़ने में
असमर्थ हो
जाते हैं।
इसलिए
अगर एक आदमी
पाखाना ढोता
रहता है जिंदगीभर, तो उसे पाखाने
में गंध आनी
बंद हो जाती
है। इसलिए बंद
हो जाती है कि
उसके नासापुट
के जो अणु गंध
को पकड़ते
हैं, वे
मृत हो जाते
हैं; बार-बार
एक ही आघात से
वे समाप्त हो
जाते हैं। अगर
आप नई साबुन
खरीदकर लाते
हैं, तो
पहले दिन गंध
आती है; दूसरे
दिन कम, तीसरे
दिन कम, चौथे
दिन विदा हो
जाती है। शायद
आप सोचते होंगे
कि साबुन के
ऊपर ही गंध थी,
तो आप गलती
में हैं।
तीन-चार दिन
में आप इम्यून
हो जाते हैं।
आपको फिर गंध
का पता नहीं
चलता।
ये जो
सूक्ष्म
परमाणु हैं, ये योगाग्नि
से जलाए जा
सकते हैं। ये
भीतर ही जलकर
राख हो जाते
हैं; इनका
फिर पता ही
नहीं चलता। ये
समर्पित किए
जा सकते हैं।
ये अतिसूक्ष्म
हैं। इनके लिए
अतिसूक्ष्म
घर्षण की
जरूरत है।
उसकी
प्रक्रियाएं
हैं; उसके
अपने यौगिक मेथड्स और
विधियां हैं
कि ये सूक्ष्म
परमाणु कैसे
क्षीण हो जाएं,
विदा हो
जाएं। लेकिन
इनको विदा
करने के पहले
की अनिवार्य
शर्त पूरी
होनी जरूरी है,
अन्यथा
योगाग्नि
पैदा नहीं
होती।
वह
पहले सूत्रों
में कृष्ण ने
कहा है, आसक्तिरहित,
इंद्रियों
के रस से
मुक्त, संयमी,
इंद्रियों
और विषयों के
बीच जिसने
सेतु को तोड़ा--ऐसे
व्यक्ति की
चर्चा पहले
सूत्रों में
की गई है।
उसके बाद
योगाग्नि की
बात कही जा
रही है। ऐसा
व्यक्ति
योगाग्नि
पैदा कर सकता
है; और
भीतर से ही, बिना किसी
बाह्य सहायता
के उन सारे
सूक्ष्म अणुओं
को समर्पित कर
देता है उस
अग्नि में, जिनके कारण
इंद्रियां
आंतरिक
सक्रियता लेती
हैं।
अभी इस
पर बहुत
केमिकल खोज भी
चलती है। और
आधुनिक बायो-केमिस्ट्री, जीव-रसायन
इस पर बड़े काम
करती है।
क्यों? क्योंकि
बहुत-सी बातें
पकड़ में आनी
शुरू हुई हैं।
जैसे यह पकड़
में आना शुरू
हुआ कि एक खास
प्रकार का
रासायनिक
द्रव्य अगर
शरीर में न हो,
तो आदमी
क्रोध नहीं कर
सकता। एड्रिनल,
अगर इस तत्व
को, जो कि
बहुत थोड़ी-सी
मात्रा में
शरीर में
किन्हीं-किन्हीं
ग्रंथियों के
भीतर छिपा है,
अगर उसे अलग
कर दिया जाए, तो आदमी
क्रोध नहीं कर
सकता।
पावलव
ने बहुत-से
कुत्तों के एड्रिनल ग्लैंड्स
को काट डाला।
कुत्ते जो
जंगली थे, खूंखार थे, जरा-सी बात
में जी-जान ले
सकते और दे
सकते थे, उनका
एड्रिनल
द्रव्य अलग कर
देने के बाद, वे कुत्ते
और सब तरह से
स्वस्थ हैं, वही के वही
हैं, ऊपर
से कोई अंतर
नहीं; दो, चार, दस
बूंदों का
रासायनिक
द्रव्य उनके
भीतर से अलग
कर लिया गया, फिर आप उनको
कितना ही सताइए,
कोंचिए,
टोंचिए,
परेशान
करिए, वे
भौंक भी नहीं
सकते! क्या हो
गया? दस
बूंद
रासायनिक
द्रव्य उनके
शरीर के भीतर
से बाहर हो
गया, तो इस
कुत्ते के
भीतर क्या हो
गया? इसकी
सारी ताकत दस
बूंद में थी? इसका
चिल्लाना, भौंकना,
दौड़ना, इसकी
गति, सब उस
दस बूंद में
थी! वैज्ञानिक
कहते हैं, उसी
दस बूंद में
थी।
वैज्ञानिक
इसे ऊपर से
अलग कर सकते
हैं, इसलिए
बड़ा खतरा भी
है। खतरा यह
है कि आज नहीं
कल कोई टोटेलेटेरियन
हुकूमत, कोई
तानाशाही
सरकार लोगों
के शरीर के
भीतर से अगर एड्रिनल
ग्रंथियों को
अलग करवा दे, तो आप बगावत
नहीं कर
सकेंगे। भौंक
ही नहीं
सकेंगे, बगावत
तो बहुत दूर
की बात है।
बगावत के लिए
भौंकना
बिलकुल जरूरी
है।
मैंने
सुना है कि एक
अंतर्राष्ट्रीय
कुत्तों की
प्रदर्शनी
लंदन में हो
रही थी। उसमें
एक रूसी
कुत्ता भी
प्रदर्शनी के
लिए आया हुआ
था। स्वभावतः, कुत्तों में
आपस में
बातचीत चलती
थी। इंग्लैंड
के कुत्ते से
उस रूसी
कुत्ते ने
पूछा कि बंधु,
इंग्लैंड
के हाल-चाल
कैसे हैं? उस
कुत्ते ने कहा,
हाल-चाल ऐसे
तो सब ठीक हैं,
लेकिन कई
चीजों की बहुत
तंगी है। भोजन
बहुत ठीक से
नहीं मिलता।
दूध भी जितना
मिलना चाहिए,
नहीं
मिलता।
हड्डी-मांस की
भी थोड़ी तकलीफ
है। वहां रूस
में क्या
हाल-चाल हैं? उस कुत्ते
ने कहा, आनंद
ही आनंद है; बहुत
हड्डी-मांस है,
बहुत दूध है;
खाने को
जितना चाहिए
उतना है। सोने
के लिए विश्राम-गृह
है। सब अच्छा
है। एकदम सब
अच्छा है।
फिर
थोड़ी देर बाद
चारों तरफ
देखकर कि कोई
सुन तो नहीं
रहा, वह पास सरक
आया और उसने
कहा, बंधु,
एक थोड़ी-सी
बात में
सहायता करोगे?
इंग्लैंड
के कुत्ते ने
कहा, कौन-सी
सहायता? उसने
कहा कि मैं
राजनीतिक शरण
इंग्लैंड में
लेना चाहता
हूं। पर उस
इंग्लैंड के
कुत्ते ने पूछा,
तुम्हें तो
वहां सब सुख
हैं। तुम यहां
किसलिए
आना चाहते हो?
मैं तो मन
में सोच रहा
था, दुर्भाग्य
हमारा कि यहां
इंग्लैंड में
पैदा हुए; रूस
में पैदा होते
तो बेहतर था!
उसने कहा, और
सब तो सुख है, लेकिन
भौंकने की
आजादी बिलकुल
नहीं है। तो
सुखों का भी
क्या करेंगे,
उस कुत्ते
ने कहा, जब
भौंक ही नहीं
सकते! सब
बेकार है।
यहां राजनीतिक
शरण अगर दिलवाने
में कुछ
सहायता कर सको,
तो अब मैं
लौटकर नहीं
जाना चाहता।
किसी न
किसी दिन कोई
तानाशाही
सरकार
बायो-केमिस्ट्री
का उपयोग
करेगी ही।
क्योंकि
बायो-केमिस्ट्री
ने जो नए
सूत्र दिए हैं, योग को बहुत
पहले से पता
है। लेकिन योग
से कभी खतरा
नहीं हो सकता था,
क्योंकि
दूसरा आदमी
आपके ऊपर कुछ
नहीं करता था;
आप अपने ऊपर
कुछ करते थे।
बायो-केमिस्ट्री
कहती है, अब
जैसे सेक्स हारमोंस
खोज लिए गए।
एक बूढ़े आदमी
को भी अगर
सेक्स हारमोन
के इंजेक्शन
दे दिए जाएं, तो वह जवान
की तरह सेक्सुअली
पोटेंट
हो जाता है; वह जवान
आदमी की तरह
कामोत्तेजक
शक्तियों से
भर जाता है।
और अगर जवान
के भीतर से भी
सेक्स हारमोंस
अलग कर लिए
जाएं, तो
वह बूढ़े की
तरह शिथिल और कामशक्ति
में एकदम दीन
हो जाता है।
आप
देखते हैं
रास्ते पर
चलते हुए बैल
को और सांड को!
फर्क कुछ भी
नहीं है; थोड़े-से
हारमोंस
का फर्क है।
बैल के हारमोन
काट दिए गए
हैं। उसके
हारमोन
विकसित नहीं
हो पाए, उसके
सेक्स हारमोन
तोड़ दिए गए
हैं। सांड के
सेक्स हारमोन
मौजूद हैं। दस
बैल एक सांड
के मुकाबले भी
कुछ नहीं हैं।
किसी दिन कोई
तानाशाही सरकार
आदमियों की
हालत बैलों
जैसी कर दे
सकती है।
बायो-केमिस्ट्री
जो आज कह रही
है कि शरीर के
भीतर
रासायनिक द्रव्य
हैं, बहुत
सूक्ष्म
मात्रा में, जिनके अंतर
से, बाहर
से भी अंतर
करने से, व्यक्ति
के भीतर अंतर
पैदा होता है।
योग बहुत पहले
से जानता है
इस सत्य को।
और योगाग्नि
उस प्रक्रिया
का नाम है, जिसके
द्वारा इन
भीतरी रासायनिक
व्यवस्था में
अंतर पैदा
किया जाता है।
अब इस
योगाग्नि को
पैदा करने की
बहुत विधियां हैं।
दोत्तीन
संक्षिप्त
बात आपसे कहूं,
जिससे खयाल
में आ जाए कि
यह योगाग्नि
कैसे पैदा हो।
कभी
आपने खयाल
किया कि अगर
आप उपवास करें, तो आपके
भीतर शीतलता
खो जाती है, सब रूखा-रूखा
हो जाता है, ड्राइनेस पैदा हो
जाती है। और
अगर आप पानी
भी न पीएं--और
तभी उपवास
पूरा है। अगर
आप खाना न लें
और पानी पीते
रहें, तो
उपवास बिलकुल
अधूरा है। अगर
आप पानी भी न लें,
भोजन भी न
लें, तो एक
विशेष समय की
सीमा के बाद
शरीर उस हालत
में हो जाता
है, जिस हालत
में सूखी लकड़ियां
होती हैं।
गीली लकड़ी को
ईंधन नहीं
बनाया जा सकता।
आग कम पैदा
होती है, धुआं
ज्यादा पैदा
होता है। सूखी
लकड़ी चाहिए।
उपवास
का प्रयोग
योगाग्नि
पैदा करने के
लिए, शरीर को
सुखाने के लिए
किया गया था।
विशेष उपवास
की प्रक्रिया
के बाद शरीर
उस हालत में आ
जाता है कि
समस्त भीतरी
शरीर की
व्यवस्था
सूखी, ड्राई
हो जाती है।
उसमें जरा-से
ही प्रयोग से अग्नि
पैदा हो जाती
है। जरा-से ही
प्रयोग से। तो
एक तो उपवास
योगाग्नि
पैदा करने की
प्रक्रिया का
अनिवार्य अंग
था।
दूसरा, अग्नि की
धारणा! जब
शरीर बिलकुल
भीतर रूखी हालत
में हो, सूखी
हालत में हो, गीला न हो, तब अग्नि की
धारणा। सुना
होगा, पढ़ा
होगा आपने, सूर्य पर
त्राटक। वह
अग्नि की
धारणा के लिए
अभ्यास है।
इसलिए जो नहीं
जानता
योगाग्नि की
पूरी
प्रक्रिया को,
उसे भूलकर
सूर्य पर
त्राटक नहीं
करना चाहिए, अन्यथा
आंखें खराब
करेगा, और
कुछ भी नहीं।
सूर्य
पर त्राटक
योगाग्नि
पैदा करने का
एक अभ्यास
मात्र है, एक फ्रेगमेंट,
एक खंड-अंश।
जब सूर्य पर
कोई आंख रखकर
निश्चित समय
पर, निश्चित
प्रक्रिया से
सूर्य पर
ध्यान करता है,
तो उसके
भीतर आंखों के
द्वारा इतनी
सूर्य-किरणें
इकट्ठी हो
जाती हैं कि ये
सूर्य-किरणें
उपवास के साथ
मन के भीतर
आंख बंद करके
ज्योति की, अग्नि की
धारणा करने से
सक्रिय हो
जाती हैं और
भीतर सूक्ष्म
अग्नि पैदा हो
जाती है।
लेकिन
यह पूरी एक आकल्ट
प्रोसेस है।
इसमें कुछ
हिस्से मैं
छोड़ रहा हूं, अन्यथा कोई
ऐसे ही
कुतूहलवश
प्रयोग करे, तो खतरे में
पड़ सकता है।
इसलिए आप इतने
से कर न पाएंगे;
इतना मैं
सिर्फ समझाने
के लिए कह रहा
हूं। इसके कुछ
हिस्से छोड़े
दे रहा हूं, जिनके बिना
यह प्रक्रिया
पूरी नहीं हो
सकती। वे
हिस्से तो
निजी और
व्यक्तिगत
तौर से ही साधक
को बताए जा
सकते हैं।
लेकिन मोटे
अंग मैंने आपको
बता दिए।
जब
भीतर अग्नि
पैदा होती है, तो उसके दो
प्रयोग हो
सकते हैं। या
तो इंद्रियों
के सूक्ष्म रस
को समर्पित कर
दिया जाए उस अग्नि
में, तो
व्यक्ति पूरी
तरह जीवित
होगा, लेकिन
पूरा
रूपांतरित हो
जाएगा; दूसरा
ही हो जाएगा।
और इस अग्नि
का अंततः मृत्यु
के समय भी
उपयोग किया जा
सकता है। तब
शरीर को पूरा
ही समर्पित
किया जा सकता
है।
कृष्ण
ने इसीलिए
साधारण अग्नि
की बात नहीं
कही, योगाग्नि
की बात कही है
कि योगाग्नि
में अपनी इंद्रियों
को समर्पित कर
दे जो, वह
मुक्त, वह
समस्त बंधनों
के बाहर हो
जाता है।
द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे।
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः।।
28।।
और
दूसरे कई
पुरुष
ईश्वर-अर्पण
बुद्धि से लोक
सेवा में
द्रव्य लगाने
वाले हैं, वैसे ही कई
पुरुष
स्वधर्म पालन
रूप तपयज्ञ
को करने वाले
हैं, और कई
अष्टांग योगरूप
यज्ञ को करने
वाले हैं; और
दूसरे अहिंसादि
तीक्ष्ण
व्रतों से
युक्त
यत्नशील
पुरुष भगवान
के नाम का जप
तथा भगवत्प्राप्ति
विषयक
शास्त्रों का
अध्ययन रूप ज्ञानयज्ञ
के करने वाले
हैं।
कृष्ण
ने इस सूत्र
में और
बहुत-बहुत
मार्गों से इस
धर्म-यज्ञ को
करने वाले
लोगों का
उल्लेख किया
है। एक-एक को
क्रमशः समझ
लेना उपयोगी
होगा।
पहला, ईश्वर-अर्पण
भाव से सेवा
को यज्ञ समझ
लेने वाले
लोग।
ईश्वर-अर्पण
भाव से सेवा
को धर्म बना लेने
वाले लोग, वे
भी वहीं पहुंच
जाते हैं।
लेकिन शर्त है,
ईश्वर-अर्पण
भाव से।
सेवा
अहंकार-अर्पित
भी हो सकती
है। जब मैं
सेवा करूं
किसी की और
चाहूं कि वह
मेरे प्रति
अनुगृहीत हो, तो
अहंकार-अर्पित
हो गई सेवा।
अगर चाहूं
सेवा करके कि
वह मुझे
धन्यवाद दे, तो
अहंकार-अर्पित
हो गई सेवा।
सेवा
मैं करूं और
चाहूं कि
परमात्मा को
धन्यवाद दे; अनुग्रह
परमात्मा का।
मैं बीच में
जरा भी नहीं।
करूं, और
हट जाऊं। मुझे
पता ही न चले
कि मैंने सेवा
की; इतना
ही पता चले कि
परमात्मा ने
मुझसे काम लिया।
मुझे सेवक
होने का कभी
बोध भी न हो; सिर्फ
परमात्मा का
उपकरण होने का
बोध हो। मैं कुछ
कर रहा हूं, ऐसा कर्ता
का भाव सेवा
में न आए।
प्रभु करवा रहा
है, मैं
उसके इशारों
पर चल रहा
हूं। जैसे हवा
में वृक्ष के
पत्ते डोलते,
या सूखे
पत्ते उड़ते
अंधड़ में, या
नदी पर तिनका
तैरता; नदी
जहां ले जाए, चला जाता।
अंधड़ जहां ले
जाए सूखे
पत्ते को, उड़
जाता।
ऐसा
ईश्वर-अर्पण
भाव से जो
व्यक्ति सेवा
करता है, उसके
लिए सेवा भी
साधना बन गई।
उसके लिए सेवा
भी उपासना है।
उसके लिए सेवा
भी प्रार्थना
है। लेकिन अकेली
सेवा
प्रार्थना
नहीं है; ईश्वर-अर्पण
भाव के कारण
प्रार्थना
है। ईश्वर-अर्पण--जो
भी फल है, वह
ईश्वर को
अर्पित; जो
भी कर्म है, वह मेरा; जो
भी प्रतिफल है,
वह प्रभु
का--ऐसी
दृष्टि हो, तो इस मार्ग
से भी
परमात्मा तक
पहुंचा जा
सकता है।
सरल
दिखती है बात।
योगाग्नि की
बात तो बहुत
कठिन दिखती
है। लेकिन
आपसे मैं कहूं, योगाग्नि की
बात सरल है; यह
ईश्वर-अर्पण
की बात कठिन
है।
जो सरल
दिखाई पड़ता है, वह सरल होता
है, ऐसा
जरूरी नहीं
है। जो कठिन
दिखाई पड़ती है
बात, वह
कठिन होती है,
ऐसा जरूरी
नहीं है।
अक्सर धोखा
होता है।
असल
में जो सरल
दिखाई पड़ती है, उसके सरल
दिखाई पड़ने
में ही खतरा
है। सरल हो नहीं
सकती। सरल
दिखाई पड़ती
है।
लगता
है, ठीक; यह
बिलकुल ठीक।
सेवा करेंगे,
ईश्वर-अर्पित
कर देंगे।
लेकिन
ईश्वर-अर्पण,
अहंकार का
जरा-सा रेशा
भी भीतर हो, तो नहीं हो
सकता। रेशा
मात्र भी
अहंकार का भीतर
हो, तो
ईश्वर-अर्पण
भाव नहीं हो
सकता। जब तक
मैं हूं--जरा-सा
भी, रंच
मात्र भी--तब
तक परमात्मा
के लिए अर्पित
नहीं हो सकता
हूं।
जब
देखेंगे इसको
गौर से, तो
पाएंगे
ईश्वर-अर्पण
अति कठिन है।
करने में मैं
प्रवेश कर जाता
है। किया नहीं,
कि उसके
पहले ही मैं
खड़ा हो जाता
है। रास्ते पर
जा रहे हैं, पता भी नहीं
होता, किसी
का छाता गिर
गया है हाथ
से। आप उठाकर
दे देते हैं; तब पता भी
नहीं होता है
कि कहीं कोई
अहंकार है, कि सेवा कर
रहा हूं, कुछ
पता नहीं
होता। स्पांटेनियस,
सहज किसी का
छाता गिरा, आपने उठाया।
लेकिन वह आदमी
छाता बगल में
दबाए, आपको
बिलकुल न देखे
और अपने
रास्ते पर चला
गया। तब फौरन
पता चलता है
कि अरे! इस
आदमी ने धन्यवाद
भी न कहा।
माना कि पहले
से धन्यवाद की
कोई आकांक्षा
न थी; सोचा
भी न था।
लेकिन रही
होगी जरूरत
गहरे में कहीं,
अन्यथा
पीछे कहां से
आ जाएगी?
जो बीज
में नहीं है, वह वृक्ष
में आ नहीं
सकता। जो पहले
से नहीं है, वह पीछे
प्रकट नहीं हो
सकता। जो गर्भ
में नहीं है, उसका जन्म
नहीं हो सकता।
हां, गर्भ
में दिखाई
नहीं पड़ता।
जन्म होता है,
तो दिखाई
पड़ता है। मां
अगर गर्भवती
नहीं है, तो
जन्म नहीं दे
सकती है। प्रेगनेंट
होना चाहिए!
जो भी प्रकट
होता है, वह
पहले प्रेगनेंट
है; पहले, पीछे गर्भ
में होना
चाहिए।
दिया
था छाता उठाकर, तब जरा भी तो
खयाल नहीं था
कि मैं
धन्यवाद मांगूंगा,
कि चाहूंगा;
जरा भी खयाल
नहीं था। प्रेगनेंट
थे आप। गर्भ
में थी बात।
कुछ पता न था।
दिया छाता
उठाकर। अगर
उसने धन्यवाद
दे दिया, तो
भी पता नहीं
चलेगा।
प्रसन्न होकर
अपने रास्ते
पर चले
जाएंगे।
लेकिन अगर वह
धन्यवाद न दे;
चुपचाप
छाता बगल में
ले और ऐसा चल
पड़े, जैसे
आप थे ही नहीं;
तब आपको अखरेगा।
तब आपको पता
चलेगा कि कहीं
कोई गहरे में,
अचेतन में
कोई आकांक्षा
थी; उसी
आकांक्षा ने
छाता उठवाया,
अन्यथा
सवाल क्या था।
मां जब
बेटे को जन्म
देती है, तो
इसलिए नहीं
देती कि
बुढ़ापे में
उससे सेवा लेगी।
नहीं; कहीं
इसका कोई पता
नहीं होता। जब
रात-रातभर जागती;
बीमारी में,
अस्वास्थ्य
में, पीड़ा
में महीनों
सेवा करती; वर्षों तक
बेटे को बड़ा
करती, तब
उसे कभी खयाल
नहीं होता।
लेकिन एक दिन
बेटा बहू को
लेकर घर आ
जाता है और
अचानक मां
देखती है कि
उस बेटे की
आंख अब मां को
देखती ही नहीं
है! तब उसे
अचानक खयाल
आता है कि
क्या मैंने
इसलिए तुझे नौ
महीने पेट में
रखा था? क्या
इसलिए मैं
रात-रातभर
जागी थी? क्या
इसलिए मैंने
तुझे इतना बड़ा
किया? पाला-पोसा,
तेरे लिए
चक्की पीसी, गिट्टियां फोड़ीं--इसलिए?
बेटा
तो पैदा हो
गया बहुत वर्ष
पहले, लेकिन
अहंकार अब तक प्रेगनेंट
था। अब तक
भीतर छिपा था।
गर्भ में बैठा
था। मौका पाकर
बाहर निकला।
उसने कहा, इसलिए!
मां के भीतर
अहंकार है; यह बहू के
आने तक उसे
प्रतीक्षा
करनी पड़ती है।
बहू के आने पर
पैदा होता है।
चोट पड़ती है।
रहा भीतर, अन्यथा
आ नहीं जाएगा।
सेवक
तो बहुत हैं
दुनिया में; कृष्ण उनकी
बात नहीं कर
रहे हैं। सेवक
जरूरत से
ज्यादा हैं!
हमेशा हाथ
जोड़े खड़े रहते
हैं कि सेवा
का कोई अवसर।
लेकिन जरा
सोच-समझकर
सेवा का अवसर
देना।
क्योंकि जो
आदमी पैर पकड़ता
है, वह
सिर्फ गर्दन पकड़ने की
शुरुआत है। जब
भी कोई कहे, सेवा के लिए
तैयार हूं, तब कहना, इतनी
ही कृपा करो
कि सेवा मत
करो। क्योंकि
पैर तुम पकड़ोगे,
फिर गर्दन
हम कैसे छुड़ाएंगे?
और अगर आपने
पैर पकड़ने
दिया और गर्दन
न पकड़ने
दी, तो वह
आदमी कहेगा, मैंने नौ
महीने तक
तुम्हारे पैर
इसलिए पकड़े?
रात-रातभर
जागा और इसलिए
सेवा की कि
गर्दन न पकड़ने
दोगे?
सब
सेवक खतरनाक
सिद्ध होते
हैं। क्योंकि
सब सेवा
अहंकार-अर्पित
हो जाती है।
बहुत मिसचीवियस
सिद्ध होती
है। बहुत
उपद्रवी
सिद्ध होती
है। जिस मुल्क
में जितने
ज्यादा सेवक
हैं, उस मुल्क
का भगवान के
सिवाय और कोई
बचाने वाला
नहीं है।
लेकिन
कृष्ण इन
सेवकों की बात
नहीं कर रहे
हैं। कृष्ण कह
रहे हैं, ईश्वर-अर्पण
पहले। हां, जिस दिन
किसी को चारों
ओर ईश्वर ही
ईश्वर दिखाई
पड़ने लगे, फिर
वह आपकी सेवा
नहीं कर रहा
है, वह
परमात्मा की
ही सेवा कर
रहा है। फिर
वह धन्यवाद
मांगता नहीं,
धन्यवाद
देता है कि
आपने सेवा
करने दी, अनुगृहीत
हूं। अनुग्रह
है आपका कि
सेवा करने दी;
क्योंकि
मेरी
प्रार्थना, मेरी साधना,
मेरी
आराधना पूरी
हो सकी।
परमात्मा
सब ओर दिखाई
पड़ने लगे, तो सेवा
प्रभु-अर्पित
हो सकती है।
या भीतर अहंकार
बिलकुल न रह
जाए, तो
सेवा
प्रभु-अर्पित
हो सकती है।
प्रभु-अर्पण
की कीमिया
योगाग्नि से
कम कठिन नहीं, ज्यादा ही
कठिन है।
योगाग्नि तो टेक्निकल
है, उसका
तो तकनीक है।
तकनीक अगर
पूरा किया जाए,
तो
योगाग्नि
पैदा होगी ही।
लेकिन
प्रभु-अर्पण टेक्निकल
नहीं है।
प्रभु-अर्पण
बड़े भाव की उदभावना
है; बड़े
भाव का जन्म
है। टेक्नोलाजी
से उसका संबंध
नहीं है, टेक्नीक
से उसका संबंध
नहीं है।
टेक्नीक के लिए
तो कठिन से
कठिन चीज सरल
हो सकती है।
क्योंकि
टेक्नीक
विकसित किया
जा सकता है।
लेकिन भाव-अर्पण
के लिए कोई
टेक्नीक
विकसित नहीं
हो सकता। उसके
लिए तो समझ
चाहिए।
और
ध्यान रहे, नासमझ आदमी
भी
टेक्नीशियन
हो सकता है।
अगर योगाग्नि
की कला पूरी
कोई सीख ले, तो कोई भी जो
कला पूरी सीख
गया है, योगाग्नि
पैदा कर सकता
है। कितनी ही
कठिन हो, फिर
भी बहुत कठिन
नहीं है।
लेकिन
भाव-समाधि, ईश्वर-अर्पण
बड़ी
अंडरस्टैंडिंग,
बड़ी गहरी
समझ की बात
है।
और
गहरी समझ की
अर्थात एक तो
वह समझ है, जो बुद्धि
से आती है; वह
बहुत गहरी
नहीं होती है।
एक और समझ है, जो हृदय से
आती है।
ईश्वर-अर्पण
बुद्धि से कभी
भी नहीं हो
सकता, यह भी
खयाल में रख
लें।
ईश्वर-अर्पण
बुद्धि से कभी
नहीं हो सकता।
क्योंकि
बुद्धि कभी भी
अहंकार के पार
नहीं जाती है।
बुद्धि सदा
कहती है, मैं।
कभी-कभी हृदय
कहता है, तू।
बुद्धि तो सदा
कहती है, मैं।
इसलिए
जब भी आप
प्रेम में
होते हैं, तब बुद्धि
को छुट्टी दे
देनी पड़ती है।
क्योंकि तू
कहने का क्षण
आ गया। अब
हृदय से कहना
पड़ा। इसलिए
बुद्धिमान से
बुद्धिमान
आदमी प्रेम के
क्षणों में
बुद्धिमान
नहीं होता; बालक जैसा
हो जाता है; छोटे बच्चे
जैसा हो जाता
है।
बुद्धि
तो सदा ही
कहेगी, कर्म
किया मैंने, तो फल मिले
मुझे। बुद्धि
का गणित साफ
है। ठीक भी
है। कर्म किया
मैंने, फल
मिले मुझे।
कृष्ण
बड़ी अबौद्धिक
बात कहते हैं, कर्म करो
तुम, फल दे
दो प्रभु को!
तो बुद्धि
कहेगी, कर्म
भी कर ले
प्रभु, फल
भी ले ले
वही। हमें
क्यों फंसाता?
हमारा क्या
लेना-देना है?
हम तो कर्म
करेंगे, तो
फल भी लेंगे
हम। गणित सीधा
और साफ है।
ठीक दुकान और
बाजार का गणित
है!
कर्म
करेंगे हम, तो फल वह
कैसे लेगा? यह तो
अन्याय है, सरासर
अन्याय है। और
अगर कहीं कोई
अदालत हो
विश्व के
नियंता की, तो वहां हम
सबको फरियाद
करनी चाहिए कि
कर्म करें हम,
फल लो तुम!
फल दें
तुम्हें और
कर्म करें हम?
यह तो सरासर
लूट है!
नहीं, बुद्धि के
लिए यह गणित
काम नहीं
करेगा। इसलिए बुद्धि
की समझ कभी भी
इस स्थिति में
नहीं पहुंच
पाती कि कर्म
मेरा, फल
तेरा। सिर्फ
हृदय की समझ
पहुंच पाती
है।
लेकिन
हृदय की समझ
का क्या मतलब
होता है? समझ
तो सब बुद्धि
की है हमारे
पास। हृदय की
हमारे पास कोई
समझ नहीं है।
हृदय की समझ
का मतलब यह है
कि श्वास मुझे
मिलती है, तो
परमात्मा से;
प्राण मुझे
मिलता है, तो
परमात्मा से।
जन्म मुझे
मिलता है, तो
परमात्मा से;
जीने का
क्षण मुझे
मिलता है, तो
परमात्मा से।
अगर मैं न
जीता होता, तो कोई भी तो
उपाय नहीं था
कि मैं किसी
से भी कह सकता
कि मैं जीता
क्यों नहीं
हूं? अगर
मैं अस्तित्व
में न होता, तो शिकायत
करने की भी तो
कोई जगह न थी
कि मैं अस्तित्व
में क्यों
नहीं हूं? और
अगर आज मैं
अस्तित्व में
हूं, तो
मैं यह भी तो
नहीं जानता कि
मैं अस्तित्व
में क्यों हूं?
जब
अस्तित्व के
दोनों ही छोर
अज्ञात हैं, तो तर्क से
उन्हें नहीं
खोला जा सकता,
क्योंकि
तर्क सिर्फ
ज्ञात को खोल
सकता है। अज्ञात
तर्क के लिए
बिलकुल
बेमानी है।
अज्ञात में तो
हृदय ही
टटोलता है।
अज्ञात में तो
टटोला ही जा
सकता है।
न मुझे
पता है कि मैं
कहां से आता, न मुझे पता
है कि मैं
कहां जाता। न
मुझे पता है कि
मैं क्यों हूं,
न मुझे पता
है कि अगली
सांस आएगी कि
नहीं आएगी।
जहां इतना सब
अज्ञात है, जहां सारा
का सारा मेरा
होना ही
अज्ञात
शक्तियों पर निर्भर
है, वहां
मेरा किया हुआ
कर्म, पागलपन
की बात है। जब
मैं ही अज्ञात
शक्तियों का
किया हुआ कर्म
हूं, तो
मेरा कर्म भी
अज्ञात
शक्तियों का
किया हुआ कर्म
है। जब मैं
खुद ही अज्ञात
से जन्मा हूं,
तो मेरे हाथ
से होने वाला
भी अज्ञात से
ही जन्म रहा
है। मैं सिर्फ
बीच का माध्यम
हूं।
लेकिन
तर्क और
बुद्धि की बात
नहीं है; क्योंकि
तर्क और
बुद्धि पूछती
है, क्यों?
और जहां
क्यों का
उत्तर नहीं
मिलता, तर्क
और बुद्धि
वहां से लौट
आती है। और वह
कहती है, वह
हमारा
क्षेत्र नहीं
है। वह है ही
नहीं। जहां
क्यों का
उत्तर नहीं
मिलता, वह
है ही नहीं।
जहां क्यों का
उत्तर मिल
जाता है, वही
है। लेकिन
हृदय वहां
खोजता है, जहां
क्यों का
उत्तर नहीं
है।
और बड़े
मजे की बात है
कि जीवन के
समस्त गहरे प्रश्न
बुद्धि के लिए
खुलने योग्य
नहीं हैं, मिस्टीरियस
हैं। बुद्धि
से कुछ भी
गहरा प्रश्न
खुला नहीं कभी,
सिर्फ उलझा;
और-और भी
उलझा है।
थोड़ा-सा खुलता
लगता है, तो
हजार नई
उलझनें खुल
जाती हैं, और
कुछ भी नहीं
खुलता।
अज्ञात
से आता हूं
मैं, अज्ञात
को जाता हूं, इसलिए मेरे
हाथों से भी
जो हो रहा है, वह भी
अज्ञात ही कर
रहा है। अगर
मैंने किसी के
पैर दबा दिए
हैं; और
अगर मैंने राह
चले किसी गिरे
आदमी को उठा दिया
है; और अगर
मैंने चौरस्ते
पर खड़े होकर
किसी को बता
दिया है कि
बाएं से जाओ
तो नदी पर
पहुंच जाओगे;
तो यह मेरी
अंगुली का
इशारा, यह
मेरे हाथों की
ताकत, मेरी
नहीं है। यह
ताकत और ये इशारे
भी सब अज्ञात
से मुझ में
आते हैं और
मुझ से फिर
अज्ञात में
चले जाते हैं।
ऐसी
हृदय की समझ
गहरी हो जाए, तो व्यक्ति
ईश्वर-अर्पण
कर पाता है।
और तब ईश्वर-अर्पित
सेवा भी वही
कर जाती है, जो योगाग्नि
को समर्पित
इंद्रियों से
होता है।
कृष्ण
और भी गिनाते
हैं, वे कहते
हैं, अहिंसादि मार्गों से!
अहिंसा
से जो चलता है, वह भी वहीं
पहुंच जाता
है। बड़ी
कंट्राडिक्टरी
बात मालूम
पड़ती है; बड़ी
विरोधी बात
मालूम पड़ती
है। क्योंकि
कृष्ण अर्जुन
को कह रहे हैं
कि तू हिंसा
की फिक्र मत
कर, क्योंकि
कोई मरता ही
नहीं, अर्जुन।
मरने का खयाल
ही भ्रम है। न
कोई कभी मरा, न कोई कभी
मरेगा। तू
हिंसा की बात
ही मत कर। तू युद्ध
में उतर जा।
ये
कृष्ण यहां
बीच में एक
छोटा-सा वाक्य
उपयोग करते
हैं कि अहिंसादि
मार्गों से
चले हुए लोग
भी वहीं पहुंच
जाते हैं!
अहिंसा
का मार्ग क्या
है? अहिंसा
का मार्ग क्या
यह है कि मैं
किसी को न मारूं?
अगर यह है, तो कृष्ण की
बात फिर उलटी
है, जो
उन्होंने
पहले कही
उससे। फिर तो
कृष्ण जो बता
रहे हैं, वह
हिंसा का
मार्ग बता रहे
हैं!
नहीं; अहिंसा के
मार्ग का अर्थ
बहुत गहरा है,
जितना कि
अहिंसक कभी भी
नहीं समझ
पाते। अहिंसक--तथाकथित
अहिंसक, जो
समझते हैं कि
वे नानवायलेंट
हैं; अहिंसा,
नानवायलेंस के मानने
वाले
हैं--उनको भी
पता नहीं कि
अहिंसा का
क्या अर्थ है।
किसी महावीर
को कभी पता होता
है कि अहिंसा
का क्या अर्थ
है।
अहिंसा
का यह अर्थ
नहीं है कि
तुम किसी को
मत मारो।
क्योंकि अगर
अहिंसा का यह
मतलब है कि
तुम किसी को
मत मारो, तब
तो अहिंसा का
यह मतलब हुआ
कि आत्मा मर
सकती है! तो
महावीर तो
निरंतर
चिल्लाकर
कहते हैं कि
आत्मा अमर है।
जब महावीर
कहते हैं, आत्मा
अमर है, तो
तुम मार ही
कैसे सकते हो?
जब मार ही
नहीं सकते हो,
तो हिंसा की
बात ही कहां
रही? हां, इतना ही कर
सकते हो कि
शरीर और आत्मा
को अलग कर दो।
तो शरीर सदा
से मरा हुआ है
और आत्मा कभी
मरी हुई नहीं
है। तो मरे
हुए को, गैर-मरे
हुए से अगर
किसी ने अलग
भी कर दिया, तो हर्जा
क्या है? कुछ
भी तो हर्ज
नहीं है।
महावीर
खुद कहते हैं, आत्मा अमर
है, इसलिए
महावीर का यह
मतलब नहीं हो
सकता अहिंसा
से कि तुम
किसी को मारो
मत। महावीर का
भी मतलब यही
है और कृष्ण
का भी मतलब
यही है कि
मारने की
इच्छा मत करो।
मरता तो कोई
कभी नहीं, लेकिन
मारने की
इच्छा की जा
सकती है। और
पाप मारने से
नहीं लगता, मारने की
इच्छा से लगता
है। मरता नहीं
है कोई।
मैंने
एक पत्थर
उठाया और आपका
सिर तोड़ देने
के लिए फेंका।
नहीं लगा
पत्थर और
किनारे से
निकल गया। कुछ
चोट नहीं
पहुंची; कहीं
कुछ नहीं हुआ।
लेकिन मेरी
हिंसा पूरी हो
गई। असल में
मैंने पत्थर
फेंका, तब
हिंसा प्रकट
हुई। पत्थर
फेंकने की
कामना की, आकांक्षा
की, वासना
की, तभी
हिंसा पूरी हो
गई। पत्थर
फेंकने की
वासना की, तब
भी हिंसा मेरे
सामने प्रकट
हुई। पत्थर
फेंकने की
वासना कर सकता
हूं, इसकी
संभावना मेरे
अचेतन में
छिपी है, तभी
हिंसा हो गई।
मैं हिंसा कर
सकता हूं, तो
मैंने हिंसा
कर दी।
हिंसा
का संबंध किसी
को मारने से
नहीं, हिंसा
का संबंध
मारने की
वासना से है।
तो जब कृष्ण
कहते हैं, अहिंसा
के मार्ग से
भी! वे जो किसी
को मारने की वासना
से मुक्त हो
जाते हैं! तो
इसे जरा समझना
पड़ेगा।
वे जो
किसी को मारने
की वासना से
मुक्त हो जाते
हैं, वे भी
पहुंच जाते
हैं वहीं, जहां
कोई योग से, कोई सांख्य
से, कोई
सेवा से, प्रभु-अर्पण
से पहुंचता
है।
अहिंसा
की कामना या
हिंसा की
वासना से
मुक्त हो जाने
का क्या अर्थ
है?
बहुत
मजे की बात है
कि ये सारे
भिन्न-भिन्न
मार्ग बहुत
गहरे में कहीं
एक ही मूल से
जुड़े होते
हैं। जब तक
मनुष्य के मन
में
इंद्रियों का
लोभ है, तब
तक हिंसा से
मुक्ति असंभव
है। जब तक
आदमी इंद्रियों
को तृप्त करने
के लिए
विक्षिप्त है,
तब तक हिंसा
से मुक्ति
असंभव है।
इंद्रियां
पूरे समय
हिंसा कर रही
हैं। जब आपकी
आंख किसी के
शरीर पर वासना
बन जाती है, तब हिंसा हो
जाती है। तब
आपने
बलात्कार कर
लिया। अदालत
में नहीं पकड़े
जा सकते हैं
आप, क्योंकि
अदालत के पास
आंखों से किए
गए बलात्कार
को पकड़ने
का अब तक कोई
उपाय नहीं है।
लेकिन जब आंख
किसी के शरीर
पर पड़ी और आंख
मांग बन गई, काम बन गई, वासना बन गई;
और आंख ने
एक क्षण में
उस शरीर को
चाह लिया, पजेस कर
लिया; एक
क्षण में उस
शरीर को भोगने
की कामना का
धुआं चारों
तरफ फैल
गया--बलात्कार
हो गया। आंख
से हुआ, आंख
शरीर का
हिस्सा है।
आंख से हुआ, आंख के पीछे
आप खड़े हैं।
आंख से हुआ, आपने किया; हिंसा हो
गई। हिंसा
सिर्फ छुरा
भोंकने से नहीं
होती, आंख
भौंकने से भी
हो जाती है।
इंद्रियां
जब तक आतुर
हैं भोगने को, तब तक हिंसा
जारी रहती है।
इंद्रियां जब
भोगने को आतुर
नहीं रहतीं,
तभी हिंसा
से छुटकारा
है।
जिसे
हम हिंसा कहते
हैं, वह कब
पैदा होती है?
यह सूक्ष्म
हिंसा छोड़ें;
जिसे हम
हिंसा कहते
हैं, स्थूल,
वह कब पैदा
होती है? वह
तभी पैदा होती
है, जब
आपकी किसी
कामना में
अवरोध आ जाता
है, अटकाव
आ जाता है।
तभी पैदा होती
है। अगर आप किसी
के शरीर को
भोगना चाहते
हैं और कोई
दूसरा बीच में
आ जाता है; या
जिसका शरीर है,
वही बीच में
आ जाता है कि
नहीं भोगने
देंगे--तब हिंसा
शुरू होती है।
जब भी
आपकी
इंद्रियां भोगने
के लिए कहीं
कब्जा मांगती
हैं और कब्जा
नहीं मिल पाता, तभी हिंसा
शुरू हो जाती
है। स्थूल
हिंसा शुरू हो
जाती है।
सूक्ष्म
हिंसा पहले, भाव हिंसा
पहले, फिर
हिंसा सक्रिय
होती और स्थूल
बन जाती है।
कृष्ण
कहते हैं, अहिंसा के
मार्ग से भी, अर्थात
इंद्रियों से
जिसने अब
मांगना छोड़
दिया, इंद्रियां
जिसके भिक्षापात्र
न रहीं; इंद्रियों
से जिसने
छेदना छोड़
दिया, इंद्रियां
जिसके शस्त्र
न रहीं; इंद्रियों
से जिसने
आक्रमण छोड़
दिया।
महावीर
का एक बहुत
कीमती शब्द
यहां खयाल में
रख लेना
उपयोगी होगा।
महावीर ध्यान
के पहले प्रतिक्रमण
शब्द का उपयोग
करते हैं।
ध्यान में
जाना हो, तो
पहले
प्रतिक्रमण।
कभी
आपने सोचा है
कि
प्रतिक्रमण
का मतलब होता है, आक्रमण से
उलटा! आक्रमण
का मतलब है, दूसरे पर
हमला।
प्रतिक्रमण
का मतलब है, आक्रमण की
सारी
शक्तियों को
अपने में वापस
लौटा ले जाना।
एग्रेशन,
आक्रमण। प्रतिक्रमण,
रिग्रेशन;
कमिंग बैक
टु वनसेल्फ।
आंख गई आप पर
आक्रमण करने
को, तो
हिंसा हो गई।
और मैंने आंख
को वापस लौटा
लिया उसकी
पूरी कामना के
साथ अपने भीतर,
अपने भीतर,
गहरे में
वहां, जहां
से उठती है
कामना, वहीं
उसे ले गया
वापस--तो यह
हुआ
प्रतिक्रमण। और
जब प्रतिक्रमण
हो, तभी
महावीर कहते
हैं कि ध्यान
हो सकता है, अन्यथा
ध्यान नहीं हो
सकता।
क्योंकि
आक्रमण करने
वाली
इंद्रियों के
साथ ध्यान
कैसा? प्रतिक्रमण
करने वाली
इंद्रियों के
साथ ध्यान
फलित हो सकता
है।
कृष्ण
कहते हैं, अहिंसा के
मार्ग से भी, अर्थात
आक्रमण जो
नहीं कर रहा।
अब
ध्यान रखें, अगर ठीक से
समझें, तो
किसी भी तल पर
आक्रमण की
कामना हिंसा
है--किसी भी तल
पर। सूक्ष्म
से सूक्ष्म तल
पर भी आक्रमण
की इच्छा
हिंसा है।
अनाक्रमण, नान-एग्रेशन, प्रतिक्रमण,
शक्तियों
को लौटा लेना
वापस अपने
में--आंख लौट
जाए आंख के
मूल में; कान
लौट जाए कान
के मूल में; स्वाद लौट
जाए स्वाद के
मूल में; फैलाव
बंद हो; सब
सिकुड़ आए अपने
मूल में--जब
ऐसा
प्रतिक्रमण फलित
हो, तब
व्यक्ति
ध्यान को
उपलब्ध हो
पाता है।
अहिंसा
का अर्थ है, प्रतिक्रमण,
लौटना, कमिंग
बैक टु वनसेल्फ।
हिंसा का मतलब
है, जाना
दूसरे के ऊपर,
किसी भी रूप
में दूसरे के
ऊपर जाना।
दूसरे पर जाना!
यह हिंसा
शत्रुतापूर्ण
भी हो सकती है,
मित्रतापूर्ण
भी हो सकती
है। जो नासमझ
हैं, वे
शत्रुता के
ढंग से दूसरे
पर जाते हैं; जो होशियार
हैं, वे
मित्रतापूर्ण
ढंग से दूसरों
के ऊपर जाते हैं।
लेकिन
जब तक कोई
दूसरे पर जाता
है, तब तक
हिंसा है। और
जब कोई दूसरे
पर जाता ही नहीं,
अपने जाने
को ही वापस
लौटा लेता है,
तब अहिंसा
है। इस अहिंसा
के क्षण में
भी वही हो
जाता है, जो
योगाग्नि में
जलकर होता है।
इसलिए
कृष्ण कहते
हैं, अहिंसादि मार्गों से
भी।
ऐसे वे
और मार्ग भी
गिनाते हैं।
ऐसे बहुत
मार्ग हैं।
इसमें
उन्होंने
दो-चार ही
गिनाए। कोई एक
सौ बारह मार्ग
हैं, जिनसे
व्यक्ति वहां
पहुंच सकता है,
जहां
पहुंचकर और
आगे पहुंचने
को कुछ शेष
नहीं रह जाता;
उसे पा सकता
है, जिसे
पाकर फिर पाने
का कोई अर्थ
नहीं रह जाता।
आप्तकाम हो
जाता है।
प्रश्न:
भगवान
श्री, दोत्तीन दिनों से
अनेकानेक
श्रोतागण
आपके आस-पास
दिखाई पड़ने
वाले नव
संन्यास और नव
संन्यासियों
के संबंध में
कुछ बातें
आपके स्वयं के
मुख से ही
सुनना चाहते
हैं। कृपया इस
संबंध में कुछ
कहें।
यह
जो भी मैं कह
रहा हूं, संन्यास
के संबंध में
ही कह रहा
हूं। यह सारी
गीता संन्यास
का ही विवरण
है। और जिस
संन्यास की
मैं बात कर
रहा हूं, वह
वही संन्यास
है, जिसकी
कृष्ण बात कर
रहे हैं।
करते
हुए अकर्ता हो
जाना; करते
हुए भी ऐसे हो
जाना, जैसे
मैं करने वाला
नहीं हूं--बस, संन्यास का
यही लक्षण है।
गृहस्थ
का क्या लक्षण
है? गृहस्थ
का लक्षण है, हर चीज में
कर्ता हो
जाना।
संन्यासी का
लक्षण है, हर
चीज में
अकर्ता हो
जाना।
संन्यास
जीवन का, जीवन
को देखने का
और ही ढंग है।
बस, ढंग का
फर्क है।
संन्यासी और
गृहस्थी में,
घर का फर्क
नहीं है, ढंग
का फर्क है।
संन्यासी और
गृहस्थी में
जगह का फर्क
नहीं है, भाव
का फर्क है।
संन्यासी और
गृहस्थी में,
परिस्थिति
का फर्क नहीं
है, मनःस्थिति
का फर्क है।
संसार में जो
है। हम सभी
संसार में
होंगे। कोई
कहीं हो--जंगल
में बैठे, पहाड़
पर बैठे, गिरि-कंदराओं
में
बैठे--संसार
के बाहर जाने
का उपाय, परिस्थिति
बदलकर नहीं
है। संसार के
बाहर जाने का
उपाय, मनःस्थिति
बदलकर, बाई
दि म्यूटेशन
आफ दि माइंड, मन को ही
रूपांतरित
करके है।
मैं
जिसे संन्यास
कह रहा हूं, वह मन को
रूपांतरित
करने की एक
प्रक्रिया
है। दोत्तीन
उसके अंग हैं,
उनकी आपसे
बात कर दूं।
पहला
तो, जो जहां
है, वह वहां
से हटे नहीं।
क्योंकि हटते
केवल कमजोर हैं;
भागते केवल
वे ही हैं, जो
भयभीत हैं। और
जो संसार को
भी झेलने में
भयभीत है, वह
परमात्मा को
नहीं झेल
सकेगा, यह
मैं आपसे कह
देता हूं। जो
संसार का ही
सामना करने
में डर रहा है,
वह
परमात्मा का
सामना कर
पाएगा? नहीं
कर पाएगा, यह
मैं आपसे कहता
हूं। संसार
जैसी कमजोर
चीज जिसे डरा
देती है, परमात्मा
जैसा विराट जब
सामने आएगा, तो उसकी
आंखें ही झप
जाएंगी; वह
ऐसा भागेगा कि
फिर लौटकर
देखेगा भी
नहीं। यह
क्षुद्र-सा
चारों तरफ जो
है, यह डरा
देता है, तो
उस विराट के
सामने खड़े
होने की क्षमता
नहीं होगी। और
फिर अगर
परमात्मा यही
चाहता है कि
लोग सब छोड़कर
भाग जाएं, तो
उसे सबको
सबमें भेजने
की जरूरत ही
नहीं है।
नहीं; उसकी मर्जी
और मंशा कुछ
और है। मर्जी
और मंशा यही
है कि पहले
लोग क्षुद्र
को, आत्माएं
क्षुद्र को
सहने में
समर्थ हो जाएं,
ताकि विराट
को सह सकें।
संसार सिर्फ
एक प्रशिक्षण
है, एक
ट्रेनिंग है।
इसलिए
जो ट्रेनिंग
को छोड़कर
भागता है, उस भगोड़े
को, एस्केपिस्ट को मैं
संन्यासी
नहीं कहता
हूं। जीवन
जहां है, वहीं।
संन्यासी हो
गए, फिर तो
भागना ही
नहीं। पहले
चाहे भाग भी
जाते, तो
मैं माफ कर
देता।
संन्यासी हो
गए, फिर तो
भगाना ही
नहीं। फिर तो
वहीं जमकर खड़े
हो जाना।
क्योंकि फिर
संन्यास अगर
संसार के सामने
भागता हो, तो
कौन कमजोर है?
कौन सबल है?
फिर तो मैं
कहता हूं, अगर
इतना कमजोर है
कि भागना पड़ता
है, तो फिर
संसार ही ठीक।
फिर सबल को ही
स्वीकार करना
उचित है।
तो पहली
तो बात मेरे
संन्यास की यह
है कि भागना मत।
जहां खड़े हैं, वहीं, जिंदगी
के सघन में
पैर जमा कर!
लेकिन उसे
प्रशिक्षण
बना लेना। उस
सबसे सीखना।
उस सबसे जागना।
उस सबको अवसर
बना लेना।
पत्नी होगी
पास, भागना
मत। क्योंकि
पत्नी से
भागकर कोई
स्त्री से
नहीं भाग सकता।
पत्नी से
भागना तो बहुत
आसान है।
पत्नी से तो
वैसे ही भागने
का मन पैदा हो
जाता है। पति
से भागने का
मन पैदा हो
जाता है।
जिसके पास हम
होते हैं, उससे
ऊब जाते हैं।
नए की तलाश मन
करता है।
पत्नी
से भागना बहुत
आसान है। भाग
जाएं; स्त्री
से न भाग
पाएंगे। और जब
पत्नी जैसी
स्त्री को
निकट पाकर
स्त्री से
मुक्त न हो
सके, तो
फिर कब मुक्त
हो सकेंगे!
अगर पति जैसे
प्रीतिकर
मित्र को निकट
पाकर पुरुष की
कामना से मुक्ति
न मिली, तो
फिर छोड़कर कभी
न मिल सकेगी।
इस देश
ने पति और
पत्नी को
सिर्फ काम के
उपकरण नहीं
समझा; सेक्स,
वासना का साधन
नहीं समझा है।
इस मुल्क की
गहरी समझ और भी,
कुछ और है।
और वह यह है कि
पति-पत्नी
अंततः--प्रारंभ
करें वासना
से--अंत हो
जाएं
निर्वासना पर।
एक-दूसरे को
सहयोगी बनें।
स्त्री
सहयोगी बने
पुरुष को कि
पुरुष स्त्री
से मुक्त हो
सके। पुरुष
सहयोगी बने
पत्नी को कि
पत्नी पुरुष
की कामना से
मुक्त हो सके।
ये अगर सहयोगी
बन जाएं, तो
बहुत शीघ्र
निर्वासना को
उपलब्ध हो
सकते हैं।
लेकिन
ये इसमें
सहयोगी नहीं
बनते। पत्नी
डरती है कि
कहीं पुरुष
निर्वासना को
उपलब्ध न हो जाए।
इसलिए डरी
रहती है। अगर
मंदिर जाता है, तो ज्यादा
चौंकती है; सिनेमा जाता
है, तो
विश्राम करती
है। चोर हो
जाए, समझ
में आता है; प्रार्थना,
भजन-कीर्तन
करने लगे, समझ
में बिलकुल
नहीं आता है।
खतरा है। पति
भी डरता है कि
पत्नी कहीं
निर्वासना
में न चली जाए।
अजीब
हैं हम! हम
एक-दूसरे का
शोषण कर रहे
हैं, इसलिए
इतने भयभीत
हैं। हम एक-दूसरे
के मित्र नहीं
हैं! क्योंकि
मित्र तो वही
है, जो
वासना के बाहर
ले जाए।
क्योंकि
वासना दुख है
और वासना दुष्पूर
है! वासना कभी
भरेगी नहीं।
वासना में हम
ही मिट जाएंगे,
वासना नहीं
मिटेगी। तो
मित्र तो वही
है, पति तो
वही है, पत्नी
तो वही है, मित्र
तो वही है, जो
वासना से
मुक्त करने
में साथी बने।
और शीघ्रता से
यह हो सकता
है।
इसलिए
मैं कहता हूं, पत्नी को मत छोड़ो, पति
को मत छोड़ो;
किसी को मत छोड़ो। इस
प्रशिक्षण का
उपयोग करो।
हां, इसका
उपयोग करो
परमात्मा तक
पहुंचने के
लिए। संसार को
बनाओ सीढ़ी।
संसार को
दुश्मन मत बनाओ;
बनाओ सीढ़ी। चढ़ो उस पर;
उठो उससे।
उससे ही उठकर
परमात्मा को
छुओ। और संसार
सीढ़ी बनने के
लिए है, इसलिए
पहली बात।
दूसरी
बात, संन्यास
अब तक
सांप्रदायिक
रहा है, जो
कि दुखद है, जो कि
संन्यास को
गंदा कर जाता
है। संन्यास
धर्म है, संप्रदाय
नहीं। गृहस्थ
संप्रदायों में
बंटा हो, समझ
में आता है।
उसके कारण
हैं। जिसकी
दृष्टि बहुत
सीमित है, वह
विराट को नहीं
पकड़ पाता। वह
हर चीजों में
सीमा बनाता है,
तभी पकड़
पाता है। हर
चीज को खंड
में बांट लेता
है, तभी
पकड़ पाता है।
आदमी-आदमी की
सीमाएं हैं।
अगर आप
बीस आदमी
पिकनिक को
जाएं, तो आप
पाएंगे कि
पिकनिक पर आप
पहुंचे, चार-पांच
ग्रुप में टूट
जाएंगे। बीस
आदमी इकट्ठे
नहीं रहेंगे। तीनत्तीन,
चार-चार की टुकड़ी हो
जाएगी। सीमा
है। तीनत्तीन
चार-चार में
टूट जाएंगे।
अपनी-अपनी
बातचीत शुरू
कर देंगे।
दो-चार हिस्से
बन जाएंगे।
बीस आदमी
इकट्ठे नहीं
हो पाते। ऐसी
आदमी की सीमा
है।
सारी
मनुष्यता एक
है, यह
साधारण आदमी
की सीमा के
बाहर है
सोचना। सब मंदिर,
सब मस्जिद
उसी परमात्मा
के हैं, यह
सोचना
मुश्किल है।
साधारण की
सीमा के लिए कठिन
होगा। लेकिन
संन्यासी
असाधारण होने
की घोषणा है।
तो
दूसरी बात, संन्यास
धर्म में प्रवेश
है--हिंदू
धर्म में नहीं,
मुसलमान
धर्म में नहीं,
ईसाई धर्म
में नहीं, जैन
धर्म में
नहीं--धर्म
में। इसका
क्या मतलब हुआ?
हिंदू धर्म
के खिलाफ? नहीं।
इस्लाम धर्म
के खिलाफ? नहीं।
जैन धर्म के
खिलाफ? नहीं।
वह जो जैन
धर्म में धर्म
है, उसके
पक्ष में; और
वह जो जैन है, उसके खिलाफ।
और वह जो
हिंदू धर्म
में धर्म है, उसके पक्ष
में; और वह
जो हिंदू है, उसके खिलाफ।
और वह जो
इस्लाम धर्म
में धर्म है, उसके पक्ष
में; और वह
जो इस्लाम है,
उसके
खिलाफ।
सीमाओं के
खिलाफ, और
असीम के पक्ष
में। आकार के
खिलाफ, और
निराकार के
पक्ष में।
संन्यासी
किसी धर्म का
नहीं, सिर्फ
धर्म का है।
वह मस्जिद में
ठहरे, मंदिर
में ठहरे, कुरान
पढ़े, गीता
पढ़े।
महावीर, बुद्ध,
लाओत्से, नानक, जिससे
उसका प्रेम हो,
प्रेम करे।
लेकिन जाने कि
जिससे वह
प्रेम कर रहा
है, यह
दूसरों के
खिलाफ घृणा का
कारण नहीं, बल्कि यह
प्रेम भी उसकी
सीढ़ी बनेगी, उस अनंत में
छलांग लगाने
के लिए, जिसमें
सब एक हो जाता
है। नानक को
बनाए सीढ़ी, बनाए।
बुद्ध-मोहम्मद
को बनाना चाहे,
बुद्ध-मोहम्मद
को बनाए। कूद
जाए वहीं से।
पर कूदना है
अनंत में।
और इस
अनंत का स्मरण
रहे, तो इस
पृथ्वी पर दो
घटनाएं घट
सकती हैं।
संन्यासी
जहां है वहीं
रहे, तो
करोड़ों
संन्यासी
सारी पृथ्वी
पर हो सकते हैं।
संन्यासी
छोड़कर भागे, तो ध्यान
रखना, भविष्य
में, बीस
साल, पच्चीस
साल के बाद, इस सदी के
पूरे
होते-होते, संन्यास
अपराध होगा, क्रिमिनल एक्ट हो
जाएगा।
रूस
में हो गया, चीन में हो
गया, आधी
दुनिया में हो
गया। आज रूस
और चीन में
कोई संन्यासी
होकर नहीं रह
सकता।
क्योंकि वे
कहते हैं, जो
करेगा मेहनत,
वह खाएगा।
जो मेहनत नहीं
करेगा, वह
शोषक है, एक्सप्लायटर है; इसको हटाओ। वह
अपराधी है।
बिखर
गई! चीन में
बड़ी गहरी
परंपरा थी
संन्यास की--बिखर
गई, टूट गई। मोनेस्ट्रीज
उखड़ गईं।
तिब्बत गया।
शायद पृथ्वी
पर सबसे ज्यादा
गहरे संन्यास
के प्रयोग
तिब्बत ने किए
थे, लेकिन
सब मिट्टी हो
गया।
हिंदुस्तान
में भी ज्यादा
देर नहीं
लगेगी। लेनिन
ने कहा था
उन्नीस सौ बीस
में, कि कम्यूनिज्म
का रास्ता मास्को
से पेकिंग,
और पेकिंग
से कलकत्ता
होता हुआ लंदन
जाएगा।
कलकत्ते तक पैर
सुनाई पड़ने
लगे। लेनिन की
भविष्यवाणी
सही होने का
डर है।
संन्यास
अब तो एक ही
तरह बच सकता
है कि संन्यासी
स्वनिर्भर
हो। समाज पर, किसी पर
निर्भर होकर न
जीए। तभी हो
सकता है स्वनिर्भर,
जब वह संसार
में हो, भागे
न। अन्यथा
स्वनिर्भर
कैसे हो सकता
है?
थाईलैंड
में चार करोड़
की आबादी है, बीस लाख
संन्यासी हैं!
मुल्क घबड़ा
गया है। लोग
परेशान हो गए
हैं। बीस लाख
लोगों को चार करोड़ की
आबादी कैसे खिलाए, कैसे
पिलाए, क्या करे!
अदालतें
विचार करती
हैं कानून
बनाने का।
संसद निर्णय
लेती है कि कोई
सख्त नियम
बनाओ कि सिर्फ
सरकार जब
आज्ञा दे किसी
आदमी को, तब
वह संन्यासी
हो सकता है।
जब संन्यासी
की आज्ञा
सरकार से लेना
पड़े, तो
उसमें भी
रिश्वत हो
जाएगी! उसमें
भी जो रिश्वत
लगा सकेगा, वह संन्यासी
हो जाएगा।
संन्यासी
होने के लिए रिश्वत
देनी पड़ेगी, कि सरकारी
लाइसेंस लेना
पड़ेगा, फिर
संन्यास की
सुगंध और
संन्यास की
स्वतंत्रता
कहां रह
जाएगी!
इसलिए
मैं यह देखता
हूं, भविष्य
को ध्यान में
रखकर भी, कि
अब एक संन्यास
का नया अभियान
होना चाहिए, जिसमें कि
संन्यासी घर
में होगा, गृहस्थ
होगा, पति
होगा, पिता
होगा, भाई
होगा। शिक्षक,
दूकानदार, मजदूर, वह
जो है, वही
होगा। सबका
होगा। सब धर्म
उसके अपने
होंगे। सिर्फ
धार्मिक
होगा।
धर्मों
के विरोध ने
दुनिया को
बहुत गंदी कलह
से भर दिया
है। इतना दुखद
हो गया है सब
कि ऐसा लगने
लगा है कि
धर्मों से
शायद फायदा कम
हुआ, नुकसान
ज्यादा हुआ।
जब देखो तब
धर्म के नाम
पर खून बहता
है! और जिस
धर्म के नाम
पर खून बहता
हो, अगर
बच्चे उस धर्म
को इनकार कर
दें; और
जिन पंडितों
की बकवास से
खून बहता हो, अगर बच्चे
उन पंडितों को
ही इनकार कर
दें और कहें
कि बंद करो
तुम्हारी
किताबें, तुम्हारे
कुरान और गीताएं;
अब नहीं चाहिए--तो
कुछ आश्चर्य
तो नहीं है।
स्वाभाविक है।
यह बंद
करना पड़े। यह
बंद तभी हो
सकता है, एक
ही रास्ता है
इसका, और
वह रास्ता यह
है कि संन्यास
का फूल इतना
ऊंचा उठे
सीमाओं से कि
सब धर्म उसके
अपने हो जाएं
और कोई एक
धर्म उसका
अपना न रहे।
तो हम इस पृथ्वी
को जोड़ सकते
हैं।
अब तक
धर्मों ने
तोड़ा, उसे
कहीं से जोड़ना
पड़ेगा। इसलिए
मैं कहता हूं,
हिंदू आए, मुसलमान आए,
जैन आए, ईसाई
आए। उसे चर्च
में
प्रार्थना
करनी हो, चर्च
में करे; मंदिर
में, तो
मंदिर में; स्थानक में,
तो स्थानक
में; मस्जिद
में, तो
मस्जिद में।
उसे जहां जो
करना हो, करे।
लेकिन वह अपने
मन से
संप्रदाय का
विशेषण अलग कर
दे, मुक्त
हो जाए। सिर्फ
संन्यासी हो
जाए; सिर्फ
धर्म का हो
जाए। यह दूसरी
बात।
और
तीसरी बात, मेरे
संन्यास में
सिर्फ एक
अनिवार्यता
है, एक
अनिवार्य
शर्त है और वह
है, ध्यान।
बाकी कोई
व्रत-नियम ऊपर
से मैं थोपने
के लिए राजी
नहीं हूं।
क्योंकि जो भी
व्रत और नियम
ऊपर से थोपे
जाते हैं, वे
पाखंड का
निर्माण कर
देते हैं।
सिर्फ ध्यान
की टेक्नीक
संन्यासी सीखे;
प्रयोग करे;
ध्यान में
गहरा उतरे।
और
मेरी अपनी समझ
और सारी
मनुष्य जाति
के अनुभव का
सार-निचोड़
यह है कि जो
ध्यान में
गहरा उतर जाए, वह योगाग्नि
में ही गहरा
उतर रहा है।
उसकी वृत्तियां
भस्म हो जाती
हैं, उसके
इंद्रियों के
रस खो जाते
हैं। वह
धीरे-धीरे
सहज--सहज, जबर्दस्ती
नहीं, बलात
नहीं--सहज
रूपांतरित
होता चला जाता
है। उसके भीतर
से ही सब बदल
जाता है। उसके
बाहर के सब
संबंध वैसे ही
बने रहते हैं;
वह भीतर से
बदल जाता है।
इसलिए सारी
दुनिया उसके
लिए बदल जाती
है।
ध्यान
के अतिरिक्त
संन्यासी के
लिए और कोई अनिवार्यता
नहीं है।
कपड़े
आप देखते हैं
गैरिक, संन्यासी
पहने हुए हैं।
यह मैंने सुबह
जैसा कहा, गांठ
बांधने जैसा
इनका उपयोग
है। चौबीस
घंटे याद रह
सकेगा; स्मरण,
रिमेंबरिंग
रह सकेगी कि
मैं संन्यासी
हूं। बस, यह
स्मरण इनको रह
सके, इसलिए
इन्हें गैरिक
वस्त्र दे दिए
हैं। गैरिक
वस्त्र भी
जानकर दिए हैं;
वे अग्नि के
रंग के वस्त्र
हैं। भीतर भी
ध्यान की
अग्नि जलानी
है। उसमें सब
जला डालना है।
भीतर भी ध्यान
का यज्ञ जलाना
है, उसमें
सब आहुति दे
देनी है।
उनके
गलों में आप मालाएं
देख रहे हैं।
उन मालाओं में
एक सौ आठ
गुरिए हैं। वे
एक सौ आठ
ध्यान की
विधियों के
प्रतीक हैं।
और उन्हें
स्मरण रखने के
लिए दिया है
कि वे भलीभांति
जानें कि चाहे
अपने हाथ में
एक ही गुरिया
हो, लेकिन और
एक सौ सात
मार्गों से भी
मनुष्य पहुंचा
है, पहुंच
सकता है। और
एक सौ आठ
गुरिए कितने
ही अलग हों, उनके भीतर
पिरोया हुआ
धागा एक ही
है। उस एक का स्मरण
बना रहे, एक
सौ आठ विधियों
में, ताकि
कभी उनके मन
में यह खयाल न
आए और कोई
एकांगीपन न
पकड़ जाए कि मेरा
ही मार्ग, मैं
जो हूं, वही
रास्ता
पहुंचाता है।
नहीं; सभी
रास्ते
पहुंचा देते
हैं। सभी
रास्ते पहुंचा
देते हैं।
उनकी
मालाओं में एक
तस्वीर आप देख
रहे हैं। शायद
आपको भ्रम
होगा कि मेरी
है। मेरी
बिलकुल नहीं
है। क्योंकि
मेरी तस्वीर
उतारने का कोई
उपाय नहीं है।
तस्वीर किसी
की उतारी नहीं
जा सकती; सिर्फ
शरीरों की
उतारी जा सकती
है। मैं उनका
गवाह हूं, इसलिए
उन्होंने
मेरे शरीर की
तस्वीर लटका
ली है। मैं
सिर्फ गवाह
हूं, गुरु
नहीं हूं।
क्योंकि मैं
मानता हूं कि
गुरु तो सिवाय
परमात्मा के
और कोई भी
नहीं है। मैं
सिर्फ विटनेस हूं,
कि मेरे
सामने
उन्होंने कसम
ली है इस
संन्यास की।
मैं उनका गवाह
भर हूं। और
इसलिए वे मेरे
शरीर की
रेखाकृति
लटकाए हुए हैं,
ताकि उनको
स्मरण रहे कि
उनके संन्यास
में वे अकेले
नहीं हैं; एक
गवाह भी है।
और उनके डूबने
के साथ उनका
गवाह भी
डूबेगा। बस, इतने स्मरण
भर के लिए।
ध्यान
में वे गहरे
उतरें। ध्यान
के बहुत रास्ते
हैं। अभी उनको
दो रास्तों पर
मैं प्रयोग करवा
रहा हूं।
दोनों रास्ते सिंक्रोनाइज
कर सकें, इस
तरह के हैं; तालमेल हो
सकें, इस
तरह के हैं।
एक ध्यान की
प्रक्रिया
मैं उनसे करवा
रहा हूं, जो
कि प्रगाढ़तम
प्रक्रिया है;
बहुत विगरस
है और इस सदी
के योग्य है।
उस ध्यान की
प्रक्रिया के
साथ उनको
कीर्तन और भजन
के लिए भी कह
रहा हूं; क्योंकि
वह ध्यान की
प्रक्रिया
करने के बाद कीर्तन
साधारण
कीर्तन नहीं
है, जो आप
कहीं भी देख
लेते हैं। आप
जब देखते हैं
कीर्तन, तो
आप सोचते
होंगे कि ठीक
है; कोई भी
ऐसा कीर्तन कर
रहा है; ऐसा
ही यह कीर्तन
भी है। इस भूल
में आप मत पड़ना।
क्योंकि जिस
ध्यान के
प्रयोग को वे
कर रहे हैं, उस प्रयोग
के बाद यह
कीर्तन कुछ और
ही भीतर रस की
धार छोड़ देता
है।
आप भी
उस प्रयोग को
ध्यान के करके
इसे करेंगे, तब आपको पता
चलेगा कि यह
कीर्तन
साधारण
कीर्तन नहीं
है। यह कीर्तन
एक ध्यान की
प्रक्रिया का
आनुषांगिक अंग
है। और उस
आनुषांगिक
अंग में जब वे
लीन और डूब
जाते हैं, तब
वे करीब-करीब
अपने में नहीं
होते, परमात्मा
में होते हैं।
और वह जो होने
का अगर एक
क्षण भी मिल
जाए, चौबीस
घंटे में, तो
काफी है। उससे
जो अमृत की एक
बूंद मिल जाती
है, वह
चौबीस घंटों
को जीवन के रस
से भर जाती
है।
जिन
मित्रों को भी
जरा भी खयाल
हो, वे
हिम्मत करें।
और ध्यान
रखें...।
अभी कल
ही कोई मेरे
पास आया, उसने
कहा कि सत्तर
प्रतिशत तो
मेरी इच्छा है
कि लूं
संन्यास; तीस
प्रतिशत मन
डांवाडोल
होता है।
इसलिए नहीं!
तो मैंने कहा,
तीस
प्रतिशत मन
कहता है, मत
लो, तो तुम
नहीं लेते; तीस प्रतिशत
की मानते हो।
और सत्तर
प्रतिशत कहता
है, लो, और
सत्तर
प्रतिशत की
नहीं मानते
हो! तो तुम्हारे
पास बुद्धि है?
और कोई
सोचता हो कि
जब हंड्रेड
परसेंट, सौ प्रतिशत
मन होगा तब
लेंगे, तो
मौत पहले आ
जाएगी। हंड्रेड
परसेंट
मरने के बाद
होता है। इससे
पहले कभी मन
होता नहीं।
सिर्फ मरने के
बाद, जब
आपकी लाश चढ़ाई
जाती है चिता
पर, तब हंड्रेड
परसेंट
मन संन्यास का
होता है।
लेकिन तब कोई
उपाय नहीं
रहता।
जिंदगी
में कभी मन सौ
प्रतिशत किसी
बात पर नहीं
होता। लेकिन जब
आप क्रोध करते
हैं, तब आप हंड्रेड
परसेंट
मन के लिए
रुकते हैं? जब आप चोरी
करते हैं, तब
हंड्रेड परसेंट मन
के लिए रुकते
हैं? जब
बेईमानी करते
हैं, तब हंड्रेड
परसेंट
मन के लिए
रुकते हैं? कहते हैं कि
अभी बेईमानी
नहीं करूंगा,
क्योंकि
अभी मन का एक
हिस्सा कह रहा
है, मत करो;
सौ प्रतिशत
हो जाने दो!
लेकिन जब
संन्यास का सवाल
उठता है, तब
सौ प्रतिशत के
लिए रुकते
हैं! बेईमानी
किसके साथ कर
रहे हो? आदमी
अपने को धोखा
देने में बहुत
कुशल है।
एक
आखिरी बात, फिर सुबह
लेंगे। फिर
अभी कीर्तन-भजन
में संन्यासी डूबेंगे, आपको भी
निमंत्रण
देता हूं। खड़े
देखें मत। खड़े
देखकर कुछ पता
नहीं चलेगा; लोग नाचते
हुए दिखाई
पड़ेंगे। डूबें
उनके साथ, तो
पता चलेगा, उनके भीतर
क्या हो रहा
है। उस रस का
एक कण अगर आपको
भी मिल जाए, तो शायद
आपकी जिंदगी
में फर्क हो।
संन्यास
या शुभ का कोई
भी खयाल जब भी
उठ आए, तब
देर मत करना।
क्योंकि अशुभ
में तो हम कभी
देर नहीं
करते। अशुभ को
कोई पोस्टपोन
नहीं करता।
शुभ को हम पोस्टपोन
करते हैं।
अनेक
मित्र खबर ले
आते हैं कि
कहीं मेरा
संप्रदाय तो
नहीं बन
जाएगा! कहीं
ऐसा तो नहीं
हो जाएगा!
कहीं कोई मत, पंथ तो नहीं
बन जाएगा!
मत, पंथ ऐसे ही
बहुत हैं। नए
मत, पंथ की
कोई जरूरत
नहीं है।
बीमारियां
ऐसे ही काफी
हैं; और एक
बीमारी जोड़ने
की कोई जरूरत
नहीं है।
इसलिए
आपसे कहता हूं, यह कोई
संप्रदाय
नहीं है।
संप्रदाय
बनता ही किसी
के खिलाफ है।
संप्रदाय
बनता ही किसी
के खिलाफ है।
ये संन्यासी
किसी के खिलाफ
नहीं हैं। ये
सब धर्मों के
भीतर जो
सारभूत है, उसके पक्ष
में हैं।
परसों तो एक
मुसलमान महिला
ने संन्यास
लिया है। उसके
छः दिन पहले
एक ईसाई युवक
संन्यास लेकर
गया है। ये
जाएंगे अपने चर्चों
में, अपनी मस्जिदों
में, अपने
मंदिरों में।
इसमें जैन हैं,
हिंदू हैं,
मुसलमान
हैं, ईसाई
हैं। उनसे कुछ
उनका छीनना
नहीं है। उनके
पास जो है, उसे
ही शुद्धतम
उनसे कह देना
है।
अभी
गीता पर बोल
रहा हूं, अगले
वर्ष कुरान पर
बोलूंगा, फिर
बाइबिल पर
बोलूंगा; ताकि
जो-जो शुद्ध
वहां है, वह
पूरी की पूरी बात
मैं आपको कह
दूं। जिसे
जहां से लेना
हो, वहां
से ले ले।
जिसे
जिस कुएं से
पीना हो, पानी
पी ले।
क्योंकि पानी
एक ही सागर का
है। कुएं का
मोह भर न करे; इतना भर न
कहे कि मेरे
कुएं में ही
पानी है, और
किसी के कुएं
में पानी नहीं
है। फिर कोई
संप्रदाय
नहीं बनता, कोई मत नहीं
बनता, कोई
पंथ नहीं
बनता।
सोचें।
और स्फुरणा
लगती हो, तो
संन्यास में
कदम रखें; जहां
हैं, वहीं।
कुछ आपसे
छीनता नहीं।
आपके भीतर के
व्यर्थ को ही
तोड़ना है; सार्थक
को वहीं रहने
देना है।
फिर
गीता पर सुबह
बात करेंगे।
अब संन्यासी
उनके नृत्य
में
जाएंगे--कीर्तन
में--तो थोड़ी
यहां जगह बना
लें। जिनको
देखना हो, देखें; सम्मिलित
होना हो, सम्मिलित
हो जाएं, लेकिन
थोड़ी जगह
ज्यादा बना
लें।
आज इतना
ही।
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