यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति
ब्रह्म सनातनम्।
नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य
कुतोऽन्यः
कुरुसत्तम।।
31।।
हे
कुरुश्रेष्ठ
अर्जुन, यज्ञों
के परिणामरूप
ज्ञानामृत
को भोगने वाले
योगीजन
सनातन
परब्रह्म
परमात्मा को
प्राप्त होते
हैं और यज्ञरहित
पुरुष को यह
मनुष्य लोक भी
सुखदायक नहीं
है, तो फिर
परलोक कैसे
सुखदायक होगा?
जीवन
जिनका यज्ञरूप
है, वासनारहित,
अहंकारशून्य,
ऐसे पुरुष
परात्पर
ब्रह्म को
उपलब्ध होते
हैं, अमृत
को उपलब्ध
होते हैं, आनंद
को उपलब्ध
होते हैं।
लेकिन जिनका
जीवन यज्ञ
नहीं है, ऐसे
पुरुष तो इस
पृथ्वी पर ही
आनंद को
उपलब्ध नहीं
होते, परलोक
की बात तो
करनी व्यर्थ
है। इस सूत्र
में कृष्ण ने दोत्तीन
बातें अर्जुन
से कहीं।
जीवन
के यज्ञ बन
जाने का अर्थ
क्या है? जब
तक जीवन
वासनाओं के
आस-पास घूमता,
तब तक यज्ञ
नहीं होता है।
जब तक जीवन
स्वयं के
अहंकार के ही
आस-पास घूमता,
तब तक जीवन
यज्ञ नहीं
होता। जैसे ही
व्यक्ति वासनाओं
को क्षीण करता
और स्वयं के
आस-पास नहीं, परमात्मा के
आस-पास
परिभ्रमण
करने लगता
है...।
मंदिर
को हम जानते
हैं। मंदिर की
वेदी के चारों
तरफ बनी हुई परिक्रमा
को भी हम
जानते हैं।
लेकिन उसके
अर्थ को हम
नहीं जानते।
हजारों बार
मंदिर में गए
होंगे और वेदी
के आस-पास
परिक्रमा
लगाकर घर लौट आए
होंगे। लेकिन
मंदिर में
परमात्मा की
वेदी के
आस-पास जो
परिक्रमा है, वह प्रतीक
है उस पुरुष
का, जिसका
अपना अहंकार
नहीं रहा, जो
अब परमात्मा
के आस-पास ही
जीवन में
परिभ्रमण
करता है, जो
उसके चारों ओर
ही घूमता है।
अपना कोई
केंद्र ही
नहीं रहा, जिस
पर घूम सके।
परमात्मा का
उपग्रह बन
जाता है। वही
हो जाता
केंद्र में, हम हो जाते
परिधि पर; उसके
आस-पास ही
घूमते हैं, परिभ्रमण
करते हैं।
जैसे ही
कोई व्यक्ति
वासना और
अहंकार से
शून्य होता, उसका जीवन
यज्ञ हो जाता
है। इस यज्ञ
के संबंध में
काफी बातें
मैंने पीछे
कहीं हैं, वह
खयाल में ले
लेनी जरूरी
हैं।
दूसरी
बात, कृष्ण
कहते हैं, ऐसा
पुरुष ज्ञानरूपी
अमृत को
उपलब्ध होता
है। ज्ञानरूपी
अमृत को!
इस जगत
में अज्ञान के
अतिरिक्त और
कोई मृत्यु
नहीं है। अज्ञान
ही मृत्यु है; इग्नोरेंस इज़ डेथ।
क्या अर्थ हुआ
इसका कि
अज्ञान ही
मृत्यु है?
अगर
अज्ञान
मृत्यु है, तो ही ज्ञान
अमृत हो सकता
है। अज्ञान
मृत्यु है, इसका अर्थ
हुआ कि मृत्यु
कहीं है ही
नहीं। हम नहीं
जानते हैं, इसलिए
मृत्यु मालूम
पड़ती है।
मृत्यु असंभव
है। मृत्यु इस
पृथ्वी पर
सर्वाधिक
असंभव घटना है,
जो हो ही
नहीं सकती, जो कभी हुई
नहीं, जो
कभी होगी
नहीं। लेकिन
रोज मृत्यु
मालूम पड़ती
है। यह मृत्यु
हमें मालूम
पड़ती है, क्योंकि
हम जानते नहीं
हैं। हम
अंधेरे में खड़े
हैं, अज्ञान
में खड़े हैं।
जो नहीं मरता,
वह मरता हुआ
दिखाई पड़ता
है। इस अर्थ
में अज्ञान ही
मृत्यु है। और
जिस दिन हम
जान लेते हैं,
उस दिन
मृत्यु
तिरोहित हो
जाती है। कहीं
थी ही नहीं
कभी। अमृत ही,
अमृतत्व ही
शेष रह जाता
है, इम्मारटेलिटी ही शेष रह
जाती है।
कभी
आपने खयाल
किया, आपने
किसी आदमी को
मरते देखा? आप कहेंगे, बहुत लोगों
को देखा। पर
मैं कहता हूं,
नहीं देखा।
आज तक किसी
व्यक्ति ने
किसी को मरते
नहीं देखा।
मरने की
प्रक्रिया आज
तक देखी नहीं
गई। जो हम
देखते हैं, वह केवल
जीवन के विदा
हो जाने की
प्रक्रिया है,
मरने की
नहीं।
बटन
दबाई हमने, बिजली का
बल्ब बुझ गया।
जो नहीं जानता,
वह कहेगा, बिजली मर
गई। जो जानता
है, वह
कहेगा, बिजली
अभिव्यक्त थी,
अब अप्रकट
हो गई। प्रकट
थी, अप्रकट
हो गई। मर
नहीं गई। फिर
बटन दबेगा,
बिजली फिर
वापस लौट
आएगी। फिर बटन
दबाएंगे, बिजली
फिर भीतर
तिरोहित हो जाएगी।
जीवन
समाप्त नहीं
होता, केवल
शरीर से विदा
होता है।
लेकिन विदाई
हमें मृत्यु
मालूम पड़ती
है। क्यों
मालूम पड़ती है?
क्योंकि
हमने कभी अपने
भीतर शरीर से
अलग किसी अस्तित्व
का अनुभव नहीं
किया है।
हमारा अनुभव
यही है कि मैं
शरीर हूं, इसलिए
जब शरीर
समाप्त होगा,
जलाने के
योग्य हो
जाएगा, तब
स्वभावतः
निष्कर्ष
होगा कि मर
गए।
शरीर
से अलग जिसने
अपने भीतर
किसी तत्व को
नहीं जाना, वह अज्ञानी
है। अज्ञानी
का मतलब यह
नहीं कि जिसे
यूनिवर्सिटी
की डिग्री
नहीं है, विश्वविद्यालय
का कोई
सर्टिफिकेट
नहीं है। सच
तो यह है कि
विश्वविद्यालय
ने जितने
सर्टिफिकेट
दिए, अज्ञान
उतना बढ़ा है, कम नहीं
हुआ। कारण है।
कारण यह है कि
विश्वविद्यालय
के
सर्टिफिकेट
को लोग ज्ञान
समझने लगे।
इसलिए असली
ज्ञान की खोज
की कोई जरूरत
नहीं मालूम
पड़ती।
अज्ञानी आदमी
के पास
सर्टिफिकेट
नहीं होता; वह ज्ञान की
खोज करता है।
तथाकथित
ज्ञानी के पास
सर्टिफिकेट
होता है; वह
मान लेता है
कि मैं ज्ञानी
हूं। मेरे पास
यूनिवर्सिटी
की डिग्री है।
और क्या चाहिए?
ज्ञान
तो सिर्फ एक
है, स्वयं का
ज्ञान। बाकी
सब सूचनाएं
हैं, इनफर्मेशनस हैं, नालेज नहीं। बाकी
सब परिचय है, ज्ञान नहीं।
बर्ट्रेंड
रसेल ने ज्ञान
के दो हिस्से
किए हैं, नालेज और एक्वेनटेंस--ज्ञान
और परिचय।
ज्ञान तो
सिर्फ एक ही
चीज का हो
सकता है, जो
मैं हूं; बाकी
सब परिचय है, ज्ञान नहीं
है। अपने से
पृथक जिसे भी
मैं जानता हूं,
वह सिर्फ एक्वेनटेंस,
परिचय है।
जान तो सिर्फ
अपने को सकता
हूं; क्योंकि
अपने से जो
भिन्न है, उसके
भीतर मेरा
प्रवेश नहीं
हो सकता, सिर्फ
बाहर घूम सकता
हूं। परिचय ही
कर सकता हूं, ऊपर-ऊपर से
जान सकता हूं,
भीतर तो
नहीं जा सकता।
भीतर तो सिर्फ
एक ही जगह जा
सकता हूं, जहां
मैं हूं।
यह
बहुत मजे की
बात है, अपना
परिचय नहीं
होता और दूसरे
का ज्ञान नहीं
होता। दूसरे
का परिचय होता
है, अपना
ज्ञान होता
है। अपना
परिचय नहीं
होता; क्योंकि
अपने बाहर
घूमने का उपाय
नहीं है। दूसरे
का ज्ञान नहीं
होता; क्योंकि
दूसरे के भीतर
प्रवेश नहीं
है।
लेकिन
हम बड़े अजीब
लोग हैं! हम
दूसरे का
ज्ञान ले लेते
हैं और अपना
परिचय कर लेते
हैं। हम अपना
परिचय कर लेते
हैं, जो कि हो
नहीं सकता। और
हम दूसरे के
ज्ञान को ज्ञान
समझ लेते हैं,
जो कि हो
नहीं सकता। यह
अज्ञान की
स्थिति है। अज्ञान
में मृत्यु
है।
जब आप
एक व्यक्ति को
बुझते देखते
हैं--बुझते, मरते नहीं।
इसलिए बुद्ध
ने ठीक शब्द
का उपयोग किया
है। वह शब्द
है, निर्वाण।
निर्वाण का
अर्थ है, दीए
का बुझना। बस,
दीया बुझ
जाता है; कोई
मरता नहीं।
दिखाई पड़ती थी
ज्योति, अब
नहीं दिखाई
पड़ती। देखने
के क्षेत्र से
विदा हो जाती
है, अदृश्य
में लीन हो
जाती है। फिर
प्रकट हो सकती
है, फिर
लीन हो सकती
है। यह
प्रकट-अप्रकट
होने का क्रम
अनंत चल सकता
है। जब तक कि
ज्योति पहचान
न ले कि प्रकट में
भी मैं वही
हूं, अप्रकट
में भी मैं
वही हूं; न
मैं प्रकट
होती, न
मैं अप्रकट
होती, सिर्फ
रूप प्रकट
होता और
अप्रकट होता।
वह जो रूप के
भीतर छिपा हुआ
सत्व है, वह
न प्रकट में
प्रकट होता, न अप्रकट
में अप्रकट
होता; न
जीवन में
जीवित होता, न मृत्यु
में मरता। तब
अमृत का अनुभव
है।
हम
दूसरों को
मरते देखकर, बुझते देखकर,
हिसाब लगा
लेते हैं कि
सब मरते हैं, तो मैं भी
मरूंगा।
लेकिन कभी
किसी मरने
वाले से पूछा
कि मर गए? लेकिन
वह उत्तर नहीं
देता। इसलिए
मान लेते हैं
कि हां में
उत्तर देता
होगा। मौन को
सम्मति का
लक्षण समझने
की बात सभी
जगह ठीक नहीं
है। मरे हुए
आदमी से पूछो,
मर गए? अगर
वह उत्तर दे, तो समझना
मरा नहीं; और
अगर मौन रह
जाए, तो हम
समझ लेते हैं
कि मर गया!
लेकिन
मौन सम्मति का
लक्षण नहीं
है। नहीं बोल
पा रहा है, इसलिए मर
गया, ऐसा
समझने का कोई
कारण नहीं है।
दक्षिण
के ब्रह्मयोगी, एक साधु ने आक्सफोर्ड
यूनिवर्सिटी
और कलकत्ता
तथा रंगून
यूनिवर्सिटी
में मरने के
प्रयोग करके
दिखाए थे। वे
दस मिनट के
लिए मर जाते
थे। कलकत्ता
यूनिवर्सिटी
में दस डाक्टर
मौजूद थे, जिन्होंने
सर्टिफिकेट
लिखा कि यह
आदमी मर गया
है; क्योंकि
मृत्यु के जो
भी लक्षण हैं
चिकित्सा-शास्त्र
के पास, पूरे
हो गए। श्वास
नहीं; बोल
नहीं सकता; खून में गति
नहीं रही; ताप
गिर गया; नाड़ी
बंद हो गई; हृदय
की धड़कन नहीं
है। सब
सूक्ष्मतम
यंत्रों ने कह
दिया कि आदमी
मर गया। उन दस
ने लिखा, दस्तखत
किए, क्योंकि
ब्रह्मयोगी
कहकर गए थे कि
दस्तखत करके
सर्टिफिकेट, डेथ
सर्टिफिकेट
दे देना कि
मैं मर गया।
फिर दस
मिनट बाद सब
वापस लौट आया।
श्वास फिर चली; धड़कन फिर
हुई; खून
फिर बहा; उस
आदमी ने आंख
भी खोलीं;
वह बोलने भी
लगा; उठकर
बैठ गया। उसने
कहा, अब
आपके
सर्टिफिकेट
के संबंध में
मैं क्या मानूं?
आप बड़े
जालसाज हैं।
जिंदा आदमी को
मरने का सर्टिफिकेट
देते हैं!
उन्होंने कहा,
जहां तक हम
जानते थे, मौत
घट गई थी।
उसके आगे हम
नहीं जानते।
लेकिन
उनमें से एक
डाक्टर ने
अपने
संस्मरणों में
लिखा है कि उस
दिन से मैं
फिर मृत्यु का
सर्टिफिकेट
नहीं दे सका, किसी को भी।
क्योंकि उस
दिन जो मैंने
देखा, उससे
साफ हो गया कि
मृत्यु के
लक्षण सिर्फ
विदा होने के
लक्षण हैं। और
चूंकि आदमी
लौटना नहीं
जानता है, इसलिए
हमारे
सर्टिफिकेट
सही हैं, वरना
सब गलत हो जाएं।
वह ब्रह्मयोगी
लौटना जानता
है।
तीन
बार, लंदन, कलकत्ता
और रंगून
विश्वविद्यालय
में उन्होंने
मरकर दिखाया
और तीनों जगह,
पृथ्वी पर
पहला आदमी है,
जिसने तीन
दफे मृत्यु का
सर्टिफिकेट
लिया!
क्या, हुआ क्या? जब ब्रह्मयोगी
से चिकित्सक
पूछते कि हुआ
क्या, किया
क्या? तो
वह कहते, मैं
सिर्फ सिकोड़
लेता हूं अपने
जीवन को। जैसे
कि सूरज अपनी
किरणों को
सिकोड़ ले; जैसे
कि फूल अपनी पंखुड़ियों
को बंद कर ले; जैसे पक्षी
अपने पंखों को
सिकोड़कर
और अपने
घोंसले में
बैठ जाए--ऐसे
मैं सिकोड़ लेता
हूं जीवन को
भीतर, भीतर,
वहां जहां
तुम्हारे यंत्र
नहीं पकड़
पाते। होता तो
मैं हूं ही, इसीलिए वापस
लौट आता हूं।
फिर खोल देता
हूं पंखों को,
फिर जीवन के
आकाश में उड़
आता
हूं--घोंसले
के बाहर।
हम
सबके भीतर वह
गुह्य स्थान
है, जहां
आत्मा सिकुड़
जाए, तो
फिर यंत्र पता
नहीं लगा पाते,
इंद्रियां
पता नहीं लगा
पातीं। असल
में यंत्र
इंद्रियों के
एक्सटेंशन से
ज्यादा नहीं
हैं। यंत्र
हमारी ही
इंद्रियों का विस्तार
हैं। आंख है; तो हमने
दूरबीन और
खुर्दबीन
बनाई। वह आंख
का विस्तार है,
आंख को मैग्नीफाई
कर देती है, बढ़ा देती
है। कान है; तो हमने
टेलीफोन
बनाया। वह कान
का विस्तार है।
मेरा हाथ है; यहां से
बैठकर मैं
आपको छू नहीं
सकता। मैं एक डंडा
हाथ में पकड़
लूं और उससे
आपको छुऊं, तो डंडा
मेरे हाथ का
विस्तार हो
गया।
सारे
यंत्र हमारी
इंद्रियों के
विस्तार हैं।
अब तक एक भी
यंत्र नहीं
बना, जो हमारी
इंद्रियों से
अन्य हो, विस्तार
न हो। सब एक्सटेंशंस
हैं।
इंद्रियां
जिसे नहीं पकड़
पातीं, यंत्र
कभी-कभी उसे पकड़ता, सूक्ष्म
होता तो, लेकिन
जो अतींद्रिय
है, उसे
यंत्र भी नहीं
पकड़ पाता।
सूक्ष्म
हो, इंद्रिय
की पकड़ के
बाहर हो, तो
यंत्र पकड़
लेता है।
लेकिन जो
अतींद्रिय है,
सूक्ष्म
नहीं--अतींद्रिय,
इंद्रियों के
पार, पैरासाइकिक--उसको फिर
यंत्र भी नहीं
पकड़ पाता।
जीवन-ऊर्जा
पैरासाइकिक
है, अतींद्रिय
है, इसलिए
कोई यंत्र
उसकी गवाही
नहीं दे सकता।
इस जीवन-ऊर्जा
को जानने का
एक ही उपाय है;
वह
इंद्रियों के
द्वारा नहीं,
इंद्रियों
के पीछे सरककर;
इंद्रियों
के माध्यम से
नहीं, इंद्रियों
के माध्यम को
छोड़कर।
ज्ञानी इंद्रियों
के माध्यम को
छोड़कर स्वयं
को जानता है। और
एक क्षण भी यह
झलक मिल जाए
स्वयं की, तो
वह अमृत
उपलब्ध हो
जाता है, जिसकी
कोई मृत्यु
नहीं; वह
सत्व दिखाई पड़
जाता है, जिसका
कोई प्रारंभ
नहीं, कोई
अंत नहीं।
ज्ञानी अमृत को
उपलब्ध हो
जाते हैं।
इसलिए
कृष्ण ने कहा, ज्ञानरूपी अमृत। कह
सकते हैं, अज्ञानरूपी विष, अज्ञानरूपी मृत्यु; ज्ञानरूपी अमृत, ज्ञानरूपी अमृतत्व।
वह जो अल्केमिस्ट
कहते हैं कि
हम खोज रहे
हैं वह तत्व, जिससे आदमी
अमर हो जाए।
वे कभी न खोज
पाएंगे। आदमी
अमर है ही; किसी
चीज से अमर
करने की जरूरत
नहीं है।
चेतना अमर है
ही।
और ऐसा
मत सोचना आप
कि पदार्थ
मरता है और
चेतना अमर है।
पदार्थ भी अमर
है; चेतना भी
अमर है।
पदार्थ इसलिए
अमर है कि वह जीवित
ही नहीं है।
जो जीवित हो, वह मर सकता
है। पदार्थ
कैसे मरेगा? वह जीवित ही
नहीं है। पदार्थ
इसलिए अमर है
कि वह जीवित
ही नहीं, उसकी
मृत्यु का कोई
उपाय नहीं।
आत्मा इसलिए अमर
है कि वह
जीवित है, जो
जीवित है, वह
मर कैसे सकता
है!
जीवन
की कोई मृत्यु
नहीं हो सकती, मृत्यु का
कोई जीवन नहीं
हो सकता।
पदार्थ का सिर्फ
अस्तित्व है,
जीवन नहीं।
आत्मा का जीवन
भी है और
अस्तित्व भी।
इस बात को
खयाल में रख लें,
एक्झिस्टेंस
एंड लाइफ बोथ--आत्मा
का। पदार्थ का
एक्झिस्टेंस ओनली, सिर्फ
अस्तित्व है।
पदार्थ सिर्फ
है। लेकिन पदार्थ
को अपने होने
का पता नहीं
है। आत्मा है
भी और उसे
अपने होने का
भी पता है। बस
यह होने का
पता उसे जीवन
बना देता है।
लेकिन
हम आत्मा तो
हैं, हमें
अपने होने का
भी पता है, हम
जीवित भी हैं;
लेकिन हम
क्या हैं, इसका
हमें कोई भी
पता नहीं है।
होने का पता
है, लेकिन
क्या हैं, इसका
कोई पता नहीं
है।
होने
का पता हो और
यह पता न हो कि
क्या हैं, तो अज्ञान
की स्थिति है।
होने का पता
हो और यह भी
पता हो कि
क्या हैं, तो
ज्ञान की
स्थिति है।
अज्ञानी में
उतनी ही आत्मा
है, जितनी
ज्ञानी में; रत्तीभर कम
नहीं है।
लेकिन
अज्ञानी अपने
प्रति बेहोश
है। ज्ञानी
अपने प्रति
होश से भरा हुआ
है।
ऐसे
व्यक्ति जो
ज्ञान-अमृत को
उपलब्ध हो
जाते हैं, वे परलोक
में परम
परात्पर
ब्रह्म को
पाते हैं।
परलोक
का क्या अर्थ? क्या मरने
के बाद? आमतौर
से हमें यही
खयाल है कि
परलोक का अर्थ
मरने के बाद
है। लेकिन जब
आत्मा मरती ही
नहीं, तो
मरने के बाद
परलोक का अर्थ
ठीक नहीं है।
परलोक इस लोक
के साथ, यहीं
और अभी मौजूद
है, जस्ट बाई दि कार्नर।
परलोक कहीं
मरने के बाद
और नहीं है।
परलोक यहीं और
अभी मौजूद है।
पर हमें उसका
कोई पता नहीं
है। जिसे अपना
पता नहीं, उसे
परलोक का पता
नहीं हो सकता;
क्योंकि
परलोक में
जाने का द्वार
स्वयं का अस्तित्व
है, स्वयं
का ही होना
है।
जिसे
अपना पता है, वह एक ही साथ
परलोक और लोक
की देहली पर, बीच में खड़ा
हो जाता है।
इस तरफ झांकता
है तो लोक, उस
तरफ झांकता
है तो परलोक।
बाहर सिर करता
है तो लोक, भीतर
सिर करता है
तो परलोक।
परलोक अभी और
यहीं है।
ब्रह्म
कहीं दूर नहीं, आपके बिलकुल
पड़ोस में, आपके
पड़ोसी से भी
ज्यादा पड़ोस
में है। आपके
बगल में जो
बैठा है आदमी,
उसमें और
आपमें भी
फासला है।
लेकिन उससे भी
पास ब्रह्म
है। आपमें और
उसमें फासला
भी नहीं है।
जब जरा
गर्दन झुकाई
देख ली
दिल के
आईने में है
तस्वीरे-यार।
बस, इतना ही
फासला है, गर्दन
झुकाने का। यह
भी कोई फासला
हुआ!
बाहर
लोक है, भीतर
परलोक है।
तो
ध्यान रखें, लोक और
परलोक का
विभाजन समय
में नहीं है, स्थान में
है। इस बात को
ठीक से खयाल
में ले लें।
लोक और परलोक
का विभाजन
टाइम डिवीजन
नहीं है। कि
मैं मरूंगा, मरने की
घटना या विदा
होने की घटना
समय में घटेगी।
आज से समझें
कल मरूंगा, दस साल बाद
मरूंगा, घंटेभर
बाद
मरूंगा--समय
में। समय, घंटा
बीत जाएगा, तब मैं
मरूंगा। फिर
उस मरने के
बाद जो होगा, वह परलोक
होगा।
हमने
अब तक परलोक
को टेंपोरल
समझा है, टाइम
में बांटा है।
परलोक भी स्पेसिअल
है, स्पेस
में बंटा है, टाइम में
नहीं।
अभी-यहीं, लोक
भी मौजूद है, परलोक भी
मौजूद है।
पदार्थ भी
मौजूद है, परमात्मा
भी मौजूद है।
अभी-यहीं!
फासला समय का
नहीं, फासला
सिर्फ स्थान
का है।
और
स्थान का भी
फासला हमारी
दृष्टि का
फासला है, अटेंशन का फासला
है। अगर हम
बाहर की तरफ
ध्यान दे रहे हैं,
तो परलोक खो
जाता है। अगर
हम परलोक की
तरफ ध्यान दें,
तो लोक खो
जाता है।
रात आप
सो जाते हैं, तब लोक खो
जाता है; परलोक
शुरू नहीं
होता, लोक
खो जाता है।
रात जब आप
सोते हैं, तब
आपको याद रहता
है कि बाजार
में आपकी एक
दुकान है? कि
आपका एक बेटा
है? कि
आपकी एक पत्नी
है? कि
आपका बैंक
बैलेंस इतना
है? कि आप
कर्जदार हैं?
कि लेनदार
हैं? जब आप
सोते हैं, तो
लोक खो जाता
है एकदम; परलोक
शुरू नहीं
होता! निद्रा,
लोक और
परलोक के बीच
में है।
निद्रा
मूर्च्छा है।
लोक भी खो
जाता है।
परलोक भी शुरू
नहीं होता।
ध्यान भी लोक
और परलोक के
बीच में है।
लोक खोता है, परलोक शुरू
हो जाता है।
जैसे
एक आदमी अपने
मकान के
दरवाजे की
देहली पर बैठ
जाए आंख बंद
करके, तो न
घर दिखाई पड़े,
न बाहर
दिखाई पड़े।
फिर एक आदमी
बाहर की तरफ
देखे, तो
भीतर का दिखाई
न पड़े। फिर एक
आदमी मुड़कर
खड़ा हो जाए, भीतर का
दिखाई पड़े, तो बाहर का
दिखाई न पड़े।
ऐसी तीन स्थितियां
हुईं।
लोक की, जब हम बाहर
देख रहे हैं, कांशसनेस, चेतना बाहर
की तरफ जाती
हुई। परलोक, चेतना भीतर
की तरफ जाती
हुई। निद्रा,
चेतना किसी
तरफ जाती हुई
नहीं, सो
गई है। परलोक
यहीं है, अभी
है।
कृष्ण
जब कहते हैं
कि परलोक में
ऐसा पुरुष आनंद
को उपलब्ध होता
है, तो क्या
इसका यह मतलब
है कि जिस
व्यक्ति ने ब्रह्म
को जाना, आत्मा
की अमरता को
जाना, वह
मरने के बाद
आनंद को
उपलब्ध होगा?
अभी नहीं
होगा? नहीं,
अभी हो
जाएगा, यहीं
हो जाएगा।
लेकिन
जो व्यक्ति इस
अमृत को नहीं
जानता, वह
उस परलोक में,
उस भीतर के
लोक में, उस
पार के लोक
में, कैसे
आनंद को
उपलब्ध होगा?
वह तो बाहर
के लोक में भी
आनंद को
उपलब्ध नहीं हो
पाता। वह
संसार में भी
दुख पाता है।
वह बाहर भी
दुख पाता है
और भीतर भी
दुख पाता है।
इसे ठीक से
समझ लें।
बाहर
इसलिए दुख
पाता है कि
जिसको यह खयाल
है कि मृत्यु
है, वह बाहर
कभी सुख नहीं
पा सकता।
मृत्यु का
खयाल बाहर के
सब सुखों को
विषाक्त कर
जाता है, पायजनस
कर जाता है।
बाहर अगर सुख
लेना है थोड़ा-बहुत,
तो मृत्यु
को बिलकुल
भूलना पड़ता
है। इसलिए हम मृत्यु
को भुलाने की
कोशिश करते
हैं।
लेकिन
ध्यान रहे, जिसे भी हम भुलाते
हैं, उसकी
और याद आती
है। स्मृति का
नियम है, भुलाएं, याद आएगी।
करें कोशिश, जिसे भी
भुलाने की, उसकी और भी
याद आएगी।
किसी को भूल
जाना चाहते हैं।
किसी को प्रेम
किया और अब
स्मृति दुख
देती है; भूल
जाना चाहते
हैं। तो
भुलाने की
कोशिश करें, और याद
आएगी। क्यों?
क्योंकि
भुलाने की
कोशिश में भी
तो याद करना
पड़ता है। मैं
चाहता हूं, किसी को भूल
जाऊं। तो जब
भी चाहता हूं
भूल जाऊं, तब
भी याद करना
पड़ता है। और
याद गहन होती
चली जाती है।
मृत्यु
को हम सब
भुलाने की
कोशिश किए हुए
हैं, इसलिए
मरघट हम गांव
के बाहर बनाते
हैं। बीच में
बनाना चाहिए,
नियमानुसार;
क्योंकि
मृत्यु जीवन
का केंद्रीय
तथ्य है। तथ्य,
सत्य नहीं। ट्रुथ
नहीं, फैक्ट।
तथ्य है, केंद्र
पर जीवन के।
मौत
प्रतिक्षण
घटित हो सकती
है। जो घटना
प्रतिक्षण
घटित हो सकती
है, उसको
गांव के बाहर
रखना ठीक नहीं
है। अर्थी निकलती
है द्वार से, तो लोग घर का
दरवाजा बंद
करके बच्चों
को भीतर कर
लेते हैं, भीतर
आ जाओ!
मौत
याद न आ जाए!
क्योंकि जिसे
मौत याद आ गई, उसके जीवन
में संन्यास
को ज्यादा देर
नहीं है। जो
मौत को भुला
ले, वही
संसार में हो
सकता है।
जिसको मौत
स्मरण आ जाए, उसका संसार
संन्यास बनने
लगता है।
इसलिए
मौत को छिपाते
हैं, हजार ढंग
से छिपाते
हैं। गांव के
बाहर बनाते हैं
मरघट। मरा
नहीं आदमी कि
ले जाने की
इतनी जल्दी
पड़ती है, जिसका
हिसाब नहीं!
इतनी जल्दी? रहने दें
थोड़ी देर!
लोगों को देख
लेने दें; स्मरण
कर लेने दें
कि यही घटना
उनकी भी घटने
वाली है।
नहीं; बड़ी जल्दी
मचती है। घर
के लोग
रोने-धोने में,
पास-पड़ोस के
लोग विदा करने
में एकदम
तीव्रता करते
हैं। क्या
कारण है? इतनी
जल्दी क्या है?
जिस आदमी को
वर्षों चाहा
और प्रेम किया,
उसको विदा
करने की इतनी
शीघ्रता क्या
है?
शीघ्रता
का आंतरिक
कारण है, मनोवैज्ञानिक।
मरे हुए की
मौजूदगी हमें
अपने मरे होने
की खबर लाती
है। जल्दी ले
जाओ। जमीन में
गड़ाओ कि
आग लगाओ। मिटाओ,
निशान हटाओ।
मृत्यु का
निशान न रह
जाए जीवन के
पर्दे पर कहीं;
उसे अलग कर
दो।
और मजे
की बात यह है
कि जन्म के
बाद अगर कोई
चीज की सरटेंटी
है, कोई चीज
निश्चित है, तो वह
मृत्यु है।
जन्म के बाद
अगर कोई चीज
प्रेडिक्टेबल
है, किसी
चीज की
भविष्यवाणी
की जा सकती है,
तो वह
मृत्यु है।
बाकी किसी चीज
की भी भविष्यवाणी
की नहीं जा
सकती।
भविष्यवाणी
का यह मतलब नहीं
कि तारीख और
दिन बताया जा
सकता है।
भविष्यवाणी
का यह मतलब कि
मृत्यु होगी,
इतना तय है।
बाकी सब चीजें
हों भी, न
भी हों। विवाह
हो भी सकता है,
न भी हो।
स्वास्थ्य
रहे भी, न
भी रहे।
बीमारी आए भी,
न भी आए। धन
मिले भी, न
भी मिले।
लेकिन मृत्यु
के बाबत ऐसा
नहीं कहा जा
सकता कि हो भी,
न भी हो।
जो
इतनी निश्चित
है घटना, उसे
हम बाहर रखते
हैं और कई चीजों
से भुलाते
हैं।
कैसे-कैसे
भुलाने का
उपाय करते
हैं! अर्थी पर
फूल ढांक
देते
हैं--ईसाई ढंग
भुलाने का।
फूलों से ढांक
देते हैं
अर्थी को।
फूलों के नीचे
सड़ा हुआ
शरीर है, सड़ता
हुआ, डिटेरिओरे होता हुआ
शरीर है! फूल
से ढांक
देते हैं, ताकि
फूल दिखाई
पड़ें, मरता
हुआ शरीर
दिखाई न पड़े।
आदमी
मरता, उसकी
लाश ले जाते।
जिस आदमी ने जिंदगीभर
राम का नाम
नहीं लिया, और
जिन्होंने
कभी राम का
नाम नहीं लिया,
वे भी उसकी
अर्थी के साथ
राम नाम सत्य
है, कहते
हुए जाते हैं!
क्या बात है? अटेंशन हटा रहे हैं,
मौत से हट
जाए। अगर कुछ
न कहते हुए चुपचाप
लोग अर्थी के
साथ जाएं, तो
अर्थी को
भूलना
मुश्किल हो
जाए। कुछ कहते
हुए जाते हैं;
अर्थी को
भूलना आसान हो
जाता है। अपने
कहने में लग
जाते हैं। राम
की आड़ में
मौत को छिपाने
की कोशिश करते
हैं। हालांकि
राम उन्हीं को
मिलता है, जो
मौत को पार
करते, आमना-सामना
करते; उनको
नहीं, जो
राम की आड़
में मौत को
छिपाने की
कोशिश करते
हैं!
मृत्यु
भुलाते
हैं हम, जानते
नहीं। जो भुलाता
है, उसे
याद आती चली
जाती है। जो
जानता है, उसके
लिए समाप्त हो
जाती है, होती
ही नहीं। यह
जो हमारा
भुलावा चल रहा
है जिंदगी में,
इससे हम कभी
भूल नहीं पाते।
हर जगह उसकी
खबर मिल जाती
है।
फूल
सुबह खिलता और
सांझ मुर्झा
जाता, और कह
जाता कि मौत।
प्रेम घड़ीभर
खिलता और सूख
जाता, और
खबर दे जाता, मौत है।
जवानी आती और
चली जाती, और
खबर दे जाती, मौत है। हरे
पत्ते लगते और
पतझड़ में
झड़ जाते, और
खबर दे जाते, मौत है।
सुबह सूरज
उगता और सांझ
डूबने लगता, और खबर दे
जाता, मौत
है।
जिसकी
जिंदगी में
अभी अमृत का
पता नहीं चला, उसका सब
विषाक्त हो
जाता है, सब
पायजंड हो
जाता है। कोई
सुख हो नहीं
सकता। जब तक
मृत्यु की
कालिमा पीछे
खड़ी है, सब
सुख अंधेरे हो
जाते हैं।
सच तो
यह है कि सुख
के क्षण में
मृत्यु की
कालिमा और गहन
होकर दिखाई पड़ती
है। दुख के
क्षण में उतनी
गहन नहीं होती; सुख के क्षण
में बहुत गहन
हो जाती है।
कीर्कगार्ड
ने लिखा है कि
प्रेम के क्षण
में मृत्यु
जितनी प्रगाढ़
मालूम होती है, उतनी कभी
नहीं मालूम
होती।
अगर
कृष्णमूर्ति
को सुनें, अगर वे डेथ
पर बोलना शुरू
करें, तो
लव पर जरूर
बोलेंगे। अगर
लव पर बोलना
शुरू करें, तो डेथ पर
जरूरत
बोलेंगे--उसी
भाषण में, बाहर
नहीं जा सकते
वे। अगर वह
प्रेम पर
बोलना शुरू
करेंगे, तो
अनिवार्य
मानना कि
मृत्यु पर बोलकर
रहेंगे। अगर
मृत्यु पर
बोलेंगे, तो
प्रेम पर बोलकर
रहेंगे। बात
क्या है?
कृष्णमूर्ति
जैसे आदमी को
साफ पता है कि
जहां भी प्रेम
है; जहां
प्रेम की, सुख
की झलक आई, वहां
तत्काल पता
लगता है कि
जिसे हम प्रेम
कर रहे हैं, वह भी मरेगा;
जो प्रेम कर
रहा है, वह
भी मर जाएगा; बीच में जो
प्रेम बह रहा
है, वह भी
मर जाएगा।
प्रेम
के सघन क्षण
में मृत्यु
बहुत प्रगाढ़
होकर दिखाई
पड़ती है।
प्रेम सुख
लाता है, पीछे
से मृत्यु का
स्मरण ले आता
है। जहां-जहां
सुख है, वहां-वहां
मौत पीछे खड़ी
हो जाती है।
इसलिए तो सुख
क्षणभंगुर
है। हम ले भी
नहीं पाते, और मौत उसे हड़प जाती
है।
जिसको
भीतर के अमृत
का पता नहीं, वह परलोक
में तो आनंद
पा ही नहीं
सकता, इस
लोक में भी
सिर्फ दुख
पाता है।
दूसरी
बात भी कह
देने जैसी है
कि जो परलोक
में आनंद पाता
है, वह इस लोक
में भी आनंद
पाता है। ये
जुड़े हुए हैं।
जिसे भीतर
आनंद मिला, उसे बाहर भी
आनंद ही आनंद
हो जाता है। ध्यान
रखें, उसकी
सारी दृष्टि
बदल जाती है।
जिसे
भीतर आनंद
नहीं मिला, उसे वसंत
में भी मृत्यु
नजर आती है, पतझड़ दिखाई पड़ता
है। उसे बच्चे
में भी बुढ़ापे
की दृष्टि, बच्चे के
पीछे भी बूढ़े
का
जीर्ण-जर्जर
शरीर दिखाई
पड़ता है। उसे
जवानी की
तरंगों में भी
मौत का गिर
जाना और मिट
जाना दिखाई
पड़ता है। उसे
सुख के क्षण में
भी पीछे खड़े
दुख की
प्रतीति होती
है। जिसे अभी
पता है कि
मृत्यु है, अज्ञान में
सब सुख दुख हो
जाते हैं।
ज्ञान
में सब दुख भी
सुख हो जाते
हैं। फिर उस तरह
के व्यक्ति को
पतझड़ में
भी आने वाले
वसंत की पदचाप
सुनाई पड़ती
है। वृक्ष से
सूखे गिरते
पत्ते में भी
नए पत्ते के
अंकुरित होने
की ध्वनि का
बोध होता है।
सांझ डूबते
हुए सूरज में
भी सुबह के
उगने वाले
सूरज की
तैयारी का पता
चलता है। विदा
होते बूढ़े में
भी पैदा होने
वाले बच्चों
के जन्म की खबर
मिलती है।
मृत्यु का
द्वार भी उसे
जन्म का द्वार
बन जाता है।
अंधेरा भी उसे
प्रकाश की
पूर्व भूमिका
मालूम पड़ती
है। सुबह अंधेरा
जब गहन हो
जाता है, तब
भी वह जानता
है, आने
वाली भोर निकट
है। अंधेरा
उसे भोर का
स्मरण; मृत्यु
उसे जन्म का
स्मरण; दुख
भी उसे सुख को
लाता हुआ
मालूम पड़ता
है। दृष्टि
बदल जाती है; सब उलटा हो
जाता है।
अज्ञान
में सुख भी
दुख बन जाता
है। ज्ञान में
दुख भी सुख बन
जाता है।
अज्ञान में
जन्म भी मृत्यु
की ही खबर है।
ज्ञान में
मृत्यु भी
जन्म की ही
सूचना है।
अज्ञान में
वरदान भी
अभिशाप ही
होंगे; वरदान
नहीं हो सकते।
ज्ञान में
वरदान तो वरदान
होते ही हैं, अभिशाप भी
वरदान हो जाते
हैं।
लेकिन
अदभुत है मन!
एक युवक ने कल
संन्यास लिया।
मां को, पिता
को, वरदान
मालूम पड़ना
चाहिए। लेकिन
मां मेरे पास
आई। छाती
पीटकर रोती है;
कहती है, मैं जहर
खाकर मर
जाऊंगी; ये
कपड़े उतरवा
दो! वह मां
कहती है, मेरे
तीन बच्चे
पहले मर चुके।
मेरा मन उससे
पूछने का होता
है, लेकिन
पूछता
नहीं--कि तीन
बच्चे मर गए, तब तूने जहर
नहीं खाया! और
इसने अभी कुछ
भी नहीं किया,
गेरुआ
वस्त्र ऊपर
डाले हैं, तू
जहर खाकर मर
जाएगी? यह
तेरा लड़का चोर
हो जाता, तब
तू जहर खाकर
मरती? यह
लड़का बेईमान
हो जाता, तब
तू जहर खाकर
मरती? यह
लड़का पोलिटीशियन
हो जाता, तब
तू जहर खाकर
मरती?
नहीं, तब अभिशाप
भी वरदान
मालूम होते
हैं। अभी वरदान
उतरा है इस
लड़के के ऊपर, मां को
नाचना चाहिए;
पिता को
आनंद मनाना
चाहिए। फिर यह
कहीं जा नहीं
रहा है छोड़कर;
घर ही
रहेगा। लेकिन
नहीं; अज्ञान
में वरदान भी
अभिशाप मालूम
पड़ते हैं।
ज्ञान में
अभिशाप भी
वरदान हो जाते
हैं। वह छाती
पीटती है, रोती
है। नहीं; कुछ
आकस्मिक नहीं
है। बड़ा
स्वाभाविक
है। अज्ञान
बड़ा
स्वाभाविक है,
आकस्मिक
नहीं है।
बुद्ध
जैसे व्यक्ति
ने भी संन्यास
लिया और जब बारह
वर्ष के बाद
ज्ञान के
सूर्य को जगाकर
घर वापस लौटे, तब भी बाप को
दिखाई नहीं
पड़ा कि बेटे
का जीवन रूपांतरित
हुआ है। बाप
बारह साल बाद
आए बुद्ध को...उन्हें
दिखाई न पड़ा
कि लाखों
लोगों की जिंदगी
में बुद्ध से
रोशनी पहुंची
है। दस हजार
भिक्षु बुद्ध
के साथ पीछे
खड़े हैं। उनके
पीत वस्त्रों
में उनके भीतर
का प्रकाश
झलकता है। लेकिन
बाप ने गांव
के दरवाजे पर
यही कहा कि
मैं तुझे अभी
भी माफ कर
सकता हूं; बाप
हूं। वापस लौट
आ। यह भूल
छोड़। बहुत हो
चुका। यह
नासमझी बंद
कर। मुझ बूढ़े
को इस बुढ़ापे
में, मृत्यु
के निकट होने
में दुख मत दे!
बाप को नहीं
दिखाई पड़ सका
कि किससे वे
कह रहे हैं।
बुद्ध
हंसने लगे।
बुद्ध ने कहा, गौर से तो
देखें! बारह
वर्ष पहले जो
घर से गया था, वही वापस
नहीं लौटा है।
वह तो कभी का
जा चुका। यह
कोई और है।
जरा गौर से तो
देखें!
लेकिन
बाप ने कहा, तू मुझे सिखाएगा?
मैं तुझे
जानता नहीं? मेरा खून
बहता है तेरी
नसों में। मैं
तुझे जितना जानता
हूं, उतना
कौन तुझे जान
सकता है?
बुद्ध
ने कहा, आप
अपने को ही
जान लें तो
काफी है। मुझे
जानने के भ्रम
में मत पड़ें।
क्योंकि
दूसरे को
जानने के भ्रम
में वही पड़ता
है, जो
स्वयं को नहीं
जानता है।
बाप की
तो आग भड़क
गई। क्रोध
भारी हो गया।
और कहा, यह
मैंने सोचा भी
न था कि तू
अपने ही बाप
से इस तरह की
बातें बोलेगा!
बुद्ध
जैसा बेटा भी
घर में हो, तो बाप के
लिए अभिशाप
मालूम पड़ता
है! अज्ञान सब
वरदानों को
अभिशाप कर
लेता है, सब
फूलों को
कांटा बना
लेता है।
ज्ञान कांटों को
भी फूल बना
लेता है।
दृष्टि बदली
कि सब बदल
जाता है।
जिसे
परलोक में
आनंद है, अंतःलोक में आनंद है,
उसे बाहर के
जगत में दुख
की कोई रेखा
भी शेष नहीं
रह जाती। और
जिसे बाहर के
लोक में दुख
है, उसे
भीतर के लोक
का कोई पता ही
नहीं होता है,
आनंद की तो
बात ही
मुश्किल है।
इसलिए कृष्ण
कहते हैं
अर्जुन से कि ज्ञानरूपी
अमृत को पाकर
आनंद की वर्षा
हो जाती है। अज्ञानरूपी
विष में जीते
हुए सिवाए
दुखों के गहन
सागर, अतल
सागर के
अतिरिक्त कुछ
भी हाथ नहीं
लगता है।
प्रश्न:
भगवान
श्री, आपने
अभी कहा कि
ज्ञानी अपने
प्रति जागा
हुआ है और
अज्ञानी अपने
प्रति सोया
हुआ है, बेहोश
है। कृपया
बताएं कि
अज्ञानी की
बेहोशी के
क्या-क्या
कारण हैं?
अज्ञानी
की बेहोशी और
निद्रा का
कारण क्या है? ज्ञानी के
होश और जागरण
का भी कारण
क्या है?
तीन
बातें हैं। एक, अज्ञान
अकारण है।
पहली बात, कठिन
पड़ेगी समझनी,
अज्ञान
अकारण है।
अकारण क्यों?
क्योंकि
अज्ञान
स्वाभाविक है,
नेचुरल है।
स्वाभाविक
क्यों? जागने
के पहले
निद्रा
स्वाभाविक
है। होश के पहले
बेहोशी
स्वाभाविक
है। जन्म के
पहले गर्भ स्वाभाविक
है। युवा होने
के पहले बचपन
स्वाभाविक
है। बूढ़े होने
के पहले जवानी
स्वाभाविक है।
अज्ञान, ज्ञान
का विरोध ही
नहीं है, ज्ञान
की पूर्व
अवस्था भी है।
जब हम
अज्ञान को
ज्ञान के
विरोधी की तरह
लेते हैं, तब कठिनाई
शुरू होती है।
अज्ञान ज्ञान
का विरोध नहीं
है। ज्ञान का
विरोध, मिथ्या
ज्ञान है। यह
जरा कठिन
पड़ेगा। फाल्स नालेज, मिथ्या
ज्ञान, ज्ञान
का विरोध है।
अज्ञान ज्ञान
का अभाव मात्र
है।
एक
आदमी सोया है।
सोना जागने के
विपरीत नहीं है; सिर्फ जागने
की पूर्व
अवस्था है। जो
भी सोया है, वह जाग सकता
है। सोने में
से जागना
निकलता है।
सोना बीज है; जागना अंकुर
है। बीज
दुश्मन नहीं
है अंकुर का; बीज अंकुर
की भूमि है, वहीं से तो
पैदा होगा।
लेकिन
हम आमतौर से
अज्ञान को
ज्ञान के
विपरीत मान
लेते हैं।
इसलिए कठिनाई
में पड़ते हैं।
हम मान लेते
हैं, अज्ञान
विरोध है। अगर
अज्ञान बुरा
है, उसे
मिटाना है, तो फिर है ही
क्यों? उसका
कारण क्या है?
नहीं; अज्ञान
विपरीत नहीं
है ज्ञान के; अज्ञान
ज्ञान का पहला
चरण है।
अज्ञान ज्ञान
का बीज है। और
परमात्मा भी
सीधा ज्ञान
नहीं ला सकता,
अज्ञान से
ही ला सकता
है। वह भी
सीधा वृक्ष नहीं
ला सकता, बीज
से ही ला सकता
है। असल में
बीज वृक्ष का
बिल्ट-इन-प्रोग्रैम
है। बीज जो है,
वह होने
वाले वृक्ष का
ब्लूप्रिंट
है।
अब
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
बीज को अगर हम
पूरा जान सकें, तो हम चित्र
बनाकर बता
सकते हैं कि
वृक्ष की शाखा
कितनी बाएं घूमेगी, कितनी
शाखाएं होंगी,
कितने
पत्ते होंगे,
कितने फल
लगेंगे, कितने
फूल, कितने
बीज। अगर हम
बीज का पूरा
रहस्य जान
सकें, तो
हम वृक्ष की
पूरी तस्वीर
बनाकर रख
देंगे कि ऐसा
होगा। और वैसा
ही होगा।
लेकिन
बीज को तोड़ना
पड़ता है वृक्ष
होने के पहले।
अगर बीज बीज
ही रहने की
जिद करे, तब
खतरा है। बीज
के होने में
खतरा नहीं है।
बीज तो सहयोगी
है वृक्ष के
लिए। अगर ठीक
से समझें तो
बीज छिपा हुआ
वृक्ष है।
अज्ञान छिपा
हुआ ज्ञान है;
दुश्मन
नहीं, मित्र।
लेकिन बीज अगर
जिद करे कि
मैं बीज ही रहूंगा,
तब दुश्मन
हुआ। बीज कह
दे कि मैं
अपनी खोल को तोडूंगा
नहीं, मैं
मिट्टी में
मिलूंगा नहीं,
मैं मिटूंगा
नहीं, मैं
तो रहूंगा, तब फिर
बिल्ट-इन-प्रोग्रैम
की दुश्मनी
शुरू हो गई।
अज्ञान
अपने में
विरोध नहीं
है। अज्ञान तो
तब विरोध बनता
है, जब
अज्ञान कहता
है कि मैं
रहूंगा। और कब
कहता है
अज्ञान? जब
मिथ्या ज्ञान
से भरता है तब
कहता है कि
मैं रहूंगा।
अज्ञान तब
कहता है कि
मैं मिटूंगा
नहीं, क्योंकि
मैं तो खुद ही
ज्ञान हूं।
गीता
पढ़ ली किसी
ने। कृष्ण ने
जो कहा, कंठस्थ
कर लिया। पता
नहीं कुछ।
मालूम नहीं कुछ।
जाना नहीं
कुछ। कहने लगे,
आत्मा अमर
है। अब खतरा
है। बीज कह
रहा है कि मैं
वृक्ष हूं।
मैं हूं ही।
अब होने की
कोई जरूरत न
रही। अब बीज
जिद करेगा कि
मैं हूं ही।
उधार
ज्ञान मिथ्या
ज्ञान है।
अपना ज्ञान सम्यक
ज्ञान है, राइट नालेज
है। स्वयं
जाना, तो
वृक्ष हो
जाएंगे।
दूसरे के जाने
को पकड़ा और
कहा कि मेरा
ही जानना है, तो फिर बीज
ही रह जाएंगे।
तो यह
मत पूछिए, अज्ञान का
कारण क्या है?
अज्ञान का
कारण तो यही
है कि ज्ञान
होने के लिए
अज्ञान से ही
गुजरना
अनिवार्य है। जागने
के पहले नींद
से गुजरना
अनिवार्य है।
सुबह के पहले
रात से गुजरना
अनिवार्य है।
सुबह
होगी ही नहीं, अगर रात न
हो। कैसे होगी
सुबह? रात
न हो, तो
सुबह न होगी।
इसलिए जो गहरा
देखते हैं, वे मानते
हैं, रात
सुबह के आने
की तैयारी है,
जस्ट प्रिपरेशन;
सुबह हो सके,
इसकी पूर्व
भूमिका है।
सुबह के लिए
ही रात है गर्भ,
सुबह है
जन्म। रात प्रेगनेंट
है सुबह से; उसके गर्भ
में छिपी है
सुबह। रात मां
है, सुबह
बेटा है।
अज्ञान मां है,
ज्ञान बेटा
है। उससे ही
होगा।
नहीं
कोई विरोध है।
कारण की कोई
बात नहीं। ऐसा
नियम है, अगर
विज्ञान की भाषा
में कहें तो।
अगर
वैज्ञानिक से
पूछें कि
हाइड्रोजन और
आक्सीजन
मिलकर पानी
क्यों बनता है, क्या कारण
है? तो वह
कहेगा, बनता
है; कारण
नहीं है। इट इज़ सो, ऐसा
है, ऐसी
प्रकृति है।
विज्ञान
कहेगा, ऐसा
है। ऐसा जीवन
का नियमन है, दिस इज़
दि ला, अल्टिमेट ला, आखिरी
नियम है। अंडे
से मुर्गी
पैदा होती है,
ऐसा है।
एक
वैज्ञानिक से
कोई पूछ रहा
था कि अंडे और
मुर्गी में
फर्क क्या है? तो उसने कहा
कि अंडा
मुर्गी के
पैदा होने की
राह है, मार्ग
है, दि वे; मुर्गी के
पैदा होने का
ढंग।
ज्ञान
अज्ञान से
जगता है, अज्ञान
से पैदा होता
है। रुकावट
पड़ती है
मिथ्या ज्ञान
से। इसलिए मैं
बताना
चाहूंगा कि
मिथ्या ज्ञान
का कारण क्या
है? उसका
कारण है, आलस्य,
लिथार्जी।
दूसरे
का ज्ञान
मुफ्त में मिल
जाए, तो अपने
ज्ञान को
खोजने की
मेहनत कौन करे,
क्यों करे!
प्रमाद।
मुफ्त मिल जाए,
तो खरीदने
कौन जाए! सड़क
पर पड़ा हुआ
मिल जाए!
लेकिन
ज्ञान के साथ
यह खराबी है
कि सड़क पर पड़ा हुआ
कभी नहीं
मिलता। और
मिलता हो, तो झूठा
सिक्का होगा।
ज्ञान मिलता
ही स्वयं की
चेष्टा से है,
श्रम से है,
तपश्चर्या
से है। अन्यथा
नहीं मिलता
है।
आलस्य
मिथ्या ज्ञान
को पकड़ा देता
है। कहता है, क्या जरूरत!
जब कृष्ण को
पता है, तो
हम और नाहक
क्यों खोजें?
कृष्ण का ही
वाक्य रट लें,
न हन्यमाने--रट
लें कृष्ण को
ही, न हन्यते
हन्यमाने
शरीरे--नहीं
मरता शरीर के
मरने से कोई।
कंठस्थ कर
लें। नाहक
ध्यान, तप,
योग, इस
उपद्रव में हम
क्यों पड़ें? जब तुम्हें
पता ही है, तुमने
हमें बता दिया;
हमने याद कर
लिया। लेकिन
यह होगी मेमोरी,
ज्ञान
नहीं। यह होगी
स्मृति, याददाश्त,
ज्ञान
नहीं।
आलस्य
कारण है
मिथ्या ज्ञान
का। और अहंकार
कारण है
मिथ्या ज्ञान
का। और आलस्य
और अहंकार एक
ही सिक्के के
दो पहलू हैं।
जहां-जहां
अहंकार, वहां-वहां
आलस्य।
जहां-जहां
आलस्य, वहां-वहां
अहंकार। सघन
हो गया आलस्य
ही तो अहंकार
है। फैल गया
अहंकार ही तो
आलस्य है।
अहंकार
क्यों? क्योंकि
मैं अज्ञानी
हूं, ऐसा
मानना अहंकार
के लिए कठिन
पड़ता है। और
जो यह नहीं
मान पाता कि
मैं अज्ञानी
हूं, वह तो
ज्ञान के अंडे
को ही, बीज
को ही इनकार
कर रहा है।
मुर्गी तो कभी
फिर पैदा नहीं
होगी।
इसलिए
ज्ञान की पहली
शर्त है, अज्ञान
की स्वीकृति।
और अज्ञान को
बचाना हो, तो
पहली शर्त है,
अज्ञान का
अस्वीकार।
अज्ञान है ही
नहीं; मैं
जानता ही हूं;
फिर बात ही
समाप्त हो गई।
इसलिए
उपनिषद कहते
हैं, अज्ञानी
तो भटकते ही
हैं, ज्ञानी
और भी बुरी
तरह भटक जाते
हैं। अज्ञानी तो
अंधकार में
पड़ते ही हैं, ज्ञानी महाअंधकार
में पड़ जाते
हैं। बड़ा
अदभुत वचन है।
किन
ज्ञानियों की
बात हो रही है? उन
ज्ञानियों की
बात हो रही है,
जो मिथ्या
ज्ञानी हैं।
मिथ्या ज्ञान
का कारण है, आलस्य। मुफ्त
मिले, हम
क्यों श्रम
करें!
पचा-पचाया
मिले, तो
हम क्यों चबाएं!
हम ऐसे ही लील
जाएं। यह नहीं
हो सकता।
कारण
है अहंकार। मन
मानने को राजी
नहीं होता कि
मैं अज्ञानी
हूं। कहता है, मैं जानता
ही हूं। जो हम
नहीं जानते, उसको भी हम
कहते हैं कि
हम जानते हैं।
हम स्वीकार
करने को तैयार
ही नहीं होते
कि हम अज्ञानी
हैं। हम अपने
अज्ञान को भी
सिद्ध करने
में लगे रहते
हैं कि यही
ज्ञान है।
सारी
दुनिया में
जितने विवाद
हैं, वे
अज्ञान को
सिद्ध करने के
विवाद हैं। इस
दुनिया में
जितने झगड़े
हैं, वे
सत्य के झगड़े
नहीं हैं; वे
अज्ञानियों
के अपने
अज्ञान को
सिद्ध करने के
झगड़े हैं। और
अज्ञानी अपने
अज्ञान को
सिद्ध करने के
लिए ज्ञानियों
के कंधों तक
पर बंदूक रख
लेते हैं! उनके
पीछे खड़े हो
जाते हैं और
उपद्रव मचाते
हैं।
अज्ञान
अज्ञान
है, ऐसा
जिसने जाना, उसके ज्ञान
की पहली किरण
फूट गई।
अज्ञान अज्ञान
है, ऐसा
जिसने
पहचाना--यह
बहुत बड़ा
ज्ञान है, यह
छोटा ज्ञान
नहीं है।
अज्ञान को
जानना कि अज्ञानी
हूं मैं, बहुत
बड़ी घटना है, शायद सबसे
बड़ी घटना है।
फिर जो भी
घटेगा, इससे
छोटा है।
जिस
व्यक्ति को
पता चल गया कि
मैं सोया हूं, उसका जागरण
शुरू हो गया।
क्योंकि नींद
में कभी पता
नहीं चलता कि
मैं सोया हूं।
अगर आपको पता
चल गया कि
नींद में हूं,
तो पता चल
गया है कि
जागा हूं।
क्योंकि पता
किसको चलेगा?
आपने जाना
कि अज्ञानी
हूं, तो वह
जानने वाला
भीतर खड़ा हो
गया, जो
अज्ञान को
जानता है। और
जो अज्ञान को
जानता है, वह
ज्ञान है। टु
बी अवेयर आफ वन्स
इग्नोरेंस, अपने अज्ञान
के प्रति होश
से भर जाना
पहला कदम है।
पहला भी, शायद
अंतिम भी।
क्योंकि फिर
सब इसी से
निकलता है।
अंकुर फूट
गया। क्रांति
घटित हो गई।
बीज टूट गया, अंकुर फूट
गया; अब
वृक्ष बड़ा हो
जाएगा। वह
अंकुर का ही
विस्तार है, कोई नई घटना
नहीं है।
असली
क्रांति तो उस
वक्त है, जब
बीज टूटता है
और अंकुर
मिट्टी की
पर्तों को, अंधेरे को
निकालकर, तोड़कर, बाहर
फूटता है
रोशनी में; सूरज को झांकता
है और देखता
है। असली
क्रांति घट
गई। अब तो फिर
ठीक है। अब
यही वृक्ष बड़ा
हो जाएगा।
इसमें फूल
लगेंगे, फल
लगेंगे; सब
होगा। लेकिन
अब रेवोल्यूशन
नहीं है कोई। रेवोल्यूशन
तो हो गई, क्रांति
तो हो गई; जब
बीज टूटा, उसी
वक्त हो गई।
पहली
क्रांति और
आखिरी
क्रांति
अज्ञान का बोध
है।
आलस्य
और अहंकार के
कारण यह बोध
नहीं हो पाता।
आप पूछ
सकते हैं कि
आलस्य और
अहंकार क्यों
हैं? मैं
कहूंगा, हैं।
और जो भी
क्यों का
उत्तर दे, वह
नासमझ है।
नासमझ इसलिए
कि जो भी
उत्तर होगा, उसके लिए भी
पूछा जा सकता
है, क्यों?
उसका जो
उत्तर दे, वह
और भी ज्यादा
नासमझ है।
क्योंकि फिर
भी पूछा जा
सकता है कि वह
क्यों? इनफिनिट रिग्रेस!
फिलासफी इसी मूढ़ता में
पड़ी है। सारी
दुनिया की
फिलासफी, सारी
दुनिया का
दर्शनशास्त्र
इसी उपद्रव में
उलझा हुआ है।
हर चीज पर हम
पूछते चले
जाते हैं, क्यों?
क्यों? क्यों?
और इसका कोई
अंत नहीं हो
सकता।
धर्म
इस मूढ़ता
में नहीं
पड़ता। वह कहता
है, ऐसा है।
अब इसका हम
क्या उपयोग कर
सकते हैं, उसे
करने में
लगें। और आगे
क्यों में न
जाएं। क्योंकि
क्यों का कोई
अंत नहीं है, हमारा अंत
है। हम क्यों
पूछते-पूछते
समाप्त हो
जाएंगे।
इसलिए
बुद्ध के पास
जब भी कोई आता, तो वे कहते
कि तुम
क्रांति के
लिए आए, अपने
को बदलने के
लिए आए, या
कि सिर्फ जवाब
चाहिए? अगर
सिर्फ जवाब
चाहिए, तो
किताबों में
काफी हैं, पंडितों
के पास बहुत
हैं; फिर
मुझे परेशान
मत करो। अगर
जीवन में
क्रांति
चाहिए, तो
फिर वही पूछो,
जिससे
क्रांति घटित
हो सकती है।
वह मत पूछो, जिसका कोई
प्रयोजन नहीं,
असंगत है, इररेलेवेंट है।
इसलिए
बुद्ध तो जिस
गांव में जाते, उस गांव में डुंडी पिटवा
देते, ग्यारह
प्रश्न कोई न
पूछे। ये
प्रश्न कोई
पूछे ही न।
क्योंकि इन
प्रश्नों को
पूछने वाला पूछता
ही चला जाता
है।
नहीं, असली सवाल
यह नहीं है कि
आलस्य और
अहंकार क्यों
हैं। असली
सवाल यह है कि
कैसे मिटेंगे?
व्हाई दे आर,
यह असली सवाल
नहीं है।
क्यों हैं? हैं।
लेकिन
जिंदगी में हम
कभी ऐसे सवाल
नहीं पूछते।
एक आदमी को
मकान बनाना है, तो वह यह
नहीं पूछता कि
नींव में
पत्थर क्यों हैं?
निकालकर
बाहर कर दें।
एक आदमी को आग
को बुझाना है,
तो वह यह
नहीं पूछता कि
आग पानी डालने
से क्यों
बुझती है? पानी
डालता है और
बुझा देता है।
एक आदमी को टी.बी.
हो गया है, तो
वह डाक्टर से
यह नहीं पूछता
कि इस
इंजेक्शन के
देने से टी.बी.
क्यों मिटता
है? वह
इंजेक्शन
लेता है और
मिटा देता है।
लेकिन
जहां हम
परमात्मा की
तरफ आते हैं, वहां हम
क्यों पूछते
हैं। कुछ कारण
होना चाहिए।
असल में क्यों
हमारी पोस्टपोन
करने की तरकीब
है। क्यों हम
पूछ सकते हैं
अंतहीन। और
अंतहीन हम
स्थगन कर सकते
हैं। क्योंकि
जब तक पूरा
पता न चल जाए, तब तक हम
बदलें भी
कैसे! जब तक
पूरा पता न चल
जाए, तब तक
हम बदलें भी
कैसे!
धर्म
दर्शन नहीं
है। धर्म बहुत
प्रेक्टिकल
है। धर्म बहुत
ही
व्यावहारिक
है। धर्म
इसीलिए साइंटिफिक
है, वैज्ञानिक
है। धर्म एक
प्रयोगशाला
है। मैं जो भी
कह रहा हूं, वह स्पेकुलेटिव
नहीं है; वह
सिद्धांतवादी
नहीं है।
उसमें नजर
इतनी ही है कि
आपको वे मूल
सूत्र खयाल
में आ जाएं, जिनसे
जिंदगी बदली
जा सकती है।
आलस्य
और अहंकार, मिथ्या
ज्ञान का
सहारा है।
मिथ्या ज्ञान
अज्ञान को
बचाने का आधार
है। अहंकार और
आलस्य छोड़ें,
मिथ्या
ज्ञान गिर
जाएगा।
मिथ्या ज्ञान
गिरा, अज्ञान
का बोध होगा।
अज्ञान का बोध
हुआ, ज्ञान
की यात्रा
शुरू हो जाती
है। और वे
पुरुष, जो
ज्ञान के अमृत
को उपलब्ध हो
जाते हैं, वे
परलोक में
आनंद को
उपलब्ध होते
ही हैं, इस
लोक में भी
आनंद से भर
जाते हैं।
एक
आखिरी श्लोक
और।
एवं
बहुविधा यज्ञा वितता
ब्रह्मणो
मुखे।
कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं
ज्ञात्वा
विमोक्ष्यसे।।
32।।
ऐसे
बहुत प्रकार
के यज्ञ वेद
की वाणी में
विस्तार किए
गए हैं। उन
सबको शरीर, मन और
इंद्रियों की
क्रिया
द्वारा ही
उत्पन्न होने
वाले जान। इस
प्रकार तत्व
से जानकर निष्काम
कर्मयोग
द्वारा
संसार-बंधन से
मुक्त हो जाएगा।
इन
सारे यज्ञों
के द्वारा, इन सारे
यज्ञों को
करते हुए, निष्काम
कर्म के भाव
से दृष्टारूप
हुआ व्यक्ति
मुक्त हो जाता
है।
यह
सूत्र कनक्लूसिव
है। वह जो भी
कहा है इसके
पहले, उसकी
निष्पत्ति
है।
निष्पत्ति
में, जीवन
के समस्त
कर्मों को
कामना के कारण
नहीं, निष्कामना
के आधार पर
करते हुए, यह
आधार है
निष्पत्ति
का। दो बातें
आपसे कहूं, तो खयाल में
आ जाए।
एक, हम एक ही तरह
के कर्म को
जानते हैं अब
तक। वह कर्म
है, सकाम।
बिना कामना के
हमने कोई कर्म
कभी जाना नहीं।
इसीलिए तो
हमने आनंद कभी
जाना नहीं।
सिवाय दुख के
हमारा कोई
परिचय नहीं
है।
सकाम
कर्म की एक
खूबी है, जब
तक नहीं पूरा
होता, तब
तक सुख की आशा
रहती है। जब
पूरा होता है,
दुख के फल
हाथ में आते
हैं। निष्काम
कर्म की एक
खूबी है, जब
तक करते हैं, तब तक कामना
और आशा से
शून्य होना
पड़ता है; और
जब कर्म पूरा
हो जाता है, तो आनंद से
भर जाते हैं, आपूरित हो
जाते हैं।
सकाम
कर्म को हम
भलीभांति
जानते हैं। हम
सब ने सकाम
कर्म किए हैं।
हमने प्रेम
किया, तो
सकाम। हमने
मित्रता की, तो सकाम।
हमने दुकान
चलाई, तो
सकाम। हमने
प्रार्थना भी
की, तो
सकाम। हम
प्रभु के
मंदिर में भी
खड़े हुए, तो
कामना को
लेकर। हमने
यज्ञ भी किया,
तो कामना को
लेकर। हमने
भजन भी किया, तो भी कामना
को लेकर।
हमारा अनुभव
कामना का
अनुभव है।
निष्पत्ति भी
हमारी दुख की
निष्पत्ति
है। इतना हम
भी जानते हैं।
कृष्ण
जो कहते हैं, वह इससे
उलटी बात कहते
हैं।
हमारा
अनुभव यह है
कि हमने
जहां-जहां
कामना के फूल
को तोड़ना चाहा, वहीं-वहीं
दुख का कांटा
हाथ में लगा।
जहां-जहां
कामना के फूल
के लिए हाथ बढ़ाया,
फूल दिखाई
पड़ा जब तक, हाथ
में न आया; जब
हाथ में आया, तो सिर्फ
लहू, खून; कांटा चुभा;
फूल
तिरोहित हो
गया।
लेकिन
मनुष्य अदभुत
है। उसका सबसे
अदभुत होना इस
बात में है कि
वह अनुभव से
सीखता नहीं।
शायद ऐसा कहना
भी ठीक नहीं।
कहना चाहिए, अनुभव से
सदा गलत सीखता
है। सीखता
नहीं है, ऐसा
कहना ठीक
नहीं। सीखता
है; गलत
सीखता है।
अगर
हाथ बढ़ाया और
फूल हाथ में न
आया और कांटा
हाथ में आया, तो वह यही
सीखता है कि
मैंने गलत फूल
की तरफ हाथ
बढ़ा दिया; अब
मैं ठीक फूल
की तरफ हाथ बढ़ाऊं।
यह नहीं सीखता
कि फूल की तरफ
हाथ बढ़ाना ही
गलत है। यह
नहीं सीखता।
और
साधारण
आदमियों का तो
हम छोड़ दें।
राम अपनी
कुटिया के
बाहर बैठे
हैं। स्वर्णमृग
दिखाई पड़ जाता
है। स्वर्णमृग!
सोने का हिरण!
होता नहीं। पर
जो नहीं होता, वह दिखाई पड़
सकता है।
जिंदगी में
बहुत कुछ दिखाई
पड़ता है, जो
है ही नहीं।
और जो है, वह
दिखाई नहीं
पड़ता है।
स्वर्णमृग
दिखाई पड़ता है
राम को। उठा
लेते हैं
धनुष-बाण।
सीता कहती है, जाओ, ले
आओ। निकल पड़ते
हैं स्वर्णमृग
को मारने। यह
कथा बड़ी मीठी
है! राम स्वर्णमृग
को मारने निकल
पड़ते हैं!
सोने का मृग
कहीं होता है?
लेकिन
आपको भी दिखाई
पड़ जाए, तो
रुकना मुश्किल
हो जाए। असली
मृग हो, तो
रुक भी जाएं; सोने का मृग
दिखाई पड़ जाए,
तो रुकना
मुश्किल हो
जाएगा।
हम सभी
तो सोने के
मृग के पीछे
भटकते हैं। एक
अर्थ में हम
सबके भीतर का
राम सोने के
मृग के लिए ही
तो भटकता है।
और हम सबके
भीतर की सीता
उकसाती है, जाओ, सोने
के मृग को ले
आओ।
हम
सबके भीतर की
कामना, हम
सबके भीतर की
वासना, हम
सबके भीतर की डिजायरिंग
कहती है भीतर
की शक्ति को, ऊर्जा को, राम को--कि
जाओ। इच्छा है
सीता; शक्ति
है राम। कहती
है, जाओ, स्वर्णमृग को ले आओ।
दौड़ते फिरते
हैं। स्वर्णमृग
हाथ में न आए, तो लगता है
कि अपनी कोशिश
में कुछ कमी
रह गई। और दौड़ो।
स्वर्णमृग
को तीर मारो; गिर जाए, न
लगे, तो
लगता है और
विषधर तीर
बनाओ। लेकिन
यह खयाल में
नहीं आता कि
स्वर्ण का मृग
होता ही नहीं
है।
कामना
के फूल
आकाश-कुसुम
हैं; होते
नहीं हैं; आकाश
के फूल हैं।
जैसे धरती पर
तारे नहीं
होते, वैसे
आकाश में फूल
नहीं होते
हैं। कामना के
कुसुम या तो
धरती के तारे
हैं या आकाश
के फूल।
सकाम
हमारी दौड़ है।
बार-बार थककर, गिर-गिरकर
भी, बार-बार
कांटे से उलझकर
भी फूल की
आकांक्षा
नहीं जाती है।
दुख हाथ लगता
है। लेकिन कभी
हम दूसरा
प्रयोग करने
का नहीं
सोचते।
कृष्ण
कहते हैं, निष्काम भाव
से...।
बड़ा
मजा है।
निष्काम भाव
से कांटा भी
पकड़ा जाए, तो पकड़ने
पर पता चलता
है कि फूल हो
गया! ऐसा ही पैराडाक्स
है। ऐसा
जिंदगी का
नियम है। ऐसा
होता है।
आपने
एक अनुभव तो
करके देख
लिया। फूल को
पकड़ा और कांटा
हाथ में आया, यह आप देख
चुके। और अगर
ऐसा हो सकता
है कि फूल पकड़ें
और कांटा हाथ
में आए, तो
उलटा क्यों
नहीं हो सकता
है कि कांटा पकड़ें और
फूल हाथ में आ
जाए? क्यों
नहीं हो सकता?
अगर यह हो
सकता है, तो
इससे उलटा
होने में
कौन-सी कठिनाई
है!
हां, जो जानते
हैं, वे तो
कहते हैं, होता
है।
तो एक
प्रयोग करके
देखें। चौबीस
घंटे में एकाध
काम निष्काम
करके देखें।
पूरा तो करना
मुश्किल है, एकाध काम।
चौबीस घंटे
में एक काम
सिर्फ, निष्काम
करके देखें।
छोटा-सा ही
काम; ऐसा
कि जिसका कोई
बहुत अर्थ
नहीं होता।
रास्ते पर
किसी को
बिलकुल
निष्काम
नमस्कार करके
देखें। इसमें
तो कुछ खर्च
नहीं होता!
लेकिन लोग
निष्काम नमस्कार
तक नहीं कर
सकते हैं!
नमस्कार
तक में कामना
होती है।
मिनिस्टर है, तो नमस्कार
हो जाती है!
पता नहीं, कब
काम पड़ जाए।
मिनिस्टर
नहीं रहा अब, एक्स हो गया,
तो कोई उसकी
तरफ देखता ही
नहीं। वही
नमस्कार करता
है। वह इसलिए नमस्कार
करता है कि अब
फिर कभी न कभी
काम पड़ सकता
है।
कामना
के बिना
नमस्कार तक
नहीं रही! कम
से कम नमस्कार
तो बिना कामना
के करके
देखें। और
हैरान हो
जाएंगे। अगर
साधारण से जन
को भी, राहगीर
को भी, अपरिचित
को भी, भिखारी
को भी हाथ जोड़कर
नमस्कार कर ली,
बिना कामना
के, तो
भीतर तत्काल
पाएंगे कि
आनंद की एक
झलक आ गई।
सिर्फ
नमस्कार
भी--कोई बड़ा
कृत्य नहीं, कोई बड़ी डीड
नहीं, कुछ
नहीं--सिर्फ
हाथ जोड़े
निष्काम, और
भीतर पाएंगे
कि एक लहर
शांति की दौड़
गई। एक अनुग्रह,
एक ईश्वर की
कृपा भीतर दौड़
गई।
और अगर
अनुभव आने लगे, तो फिर बड़े काम
में भी
निष्काम होने
की भावना जगने
लगेगी। जब
इतने छोटे काम
में इतनी आनंद
की पुलक पैदा
होती है, तो
जितना बड़ा काम
होगा, उतनी
बड़ी आनंद की
पुलक पैदा
होगी। फिर तो
धीरे-धीरे
पूरा जीवन
निष्काम होता
चला जाता है।
इन सब
यज्ञों को
करते हुए जो
व्यक्ति
निष्काम भाव में
जीता है...।
जीवन
ही यज्ञ है।
अगर कोई
निष्काम भाव
में जी सके, तो वह मुक्त
हो जाता है।
मुक्त--समस्त
बंधनों से, दुखों से, पीड़ाओं से, संतापों से, चिंताओं
से।
अभी हम
यहां कीर्तन
के लिए अंत
में इकट्ठे
होंगे, निष्काम
कम से कम
कीर्तन ही कर
लें। निष्काम,
कोई कामना
नहीं।
निष्काम दस
मिनट डूब जाएं
उस परमात्मा
के लिए
प्रार्थना
में। कुछ पाना
नहीं है उसके
बाहर; मिलेगा
बहुत। जो पाने
आया है, पाएगा
कुछ भी नहीं।
जिसकी कामना
है कि कुछ मिल
जाए दस मिनट
के भजन से, उसे
कुछ न मिलेगा।
जिसकी कोई
कामना नहीं है,
वह दस मिनट
में ऐसा पाएगा,
फुलफिल्ड हुआ! भीतर भर
गया कोई
संगीत! डूब
गया कोई आनंद!
खिल गए कोई
फूल!
दस
मिनट
संन्यासियों
के साथ
सम्मिलित
हों। अपनी जगह
पर भी रहें, तो ताली
बजाएं, उनके
स्वर में स्वर
मिलाएं।
अपनी जगह पर
भी, मौज आ
जाए, तो नाचें।
यहां न आएं; जरूरी नहीं
है। और बैठे
रहें जिनको
बैठना है, वे
बैठकर ताली
बजाएं, बैठकर
स्वर दोहराएं।
सम्मिलित हों!
क्योंकि कुछ
आनंद हैं, जो
सम्मिलित
होने से ही
मिलते हैं।
आज इतना
ही।
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