प्रश्न:
भगवान
श्री, अट्ठाइसवें श्लोक में स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च
का अनुवाद
दिया है, भगवान
के नाम का जप
तथा भगवतप्राप्ति
विषयक
शास्त्रों का
अध्ययन रूप
ज्ञान-यज्ञ के
करने वाले।
कृपया
स्वाध्याय-यज्ञ
को समझाएं।
स्वाध्याय-यज्ञ
गहरे से गहरे
आत्म-रूपांतरण
की एक
प्रक्रिया
है। और कृष्ण
ने जब कहा था
यह सूत्र, तब शायद
इतनी प्रचलित
प्रक्रिया
नहीं थी स्वाध्याय-यज्ञ,
जितनी आज
है। आज पृथ्वी
पर सर्वाधिक
प्रचलित जो
प्रक्रिया
आत्म-रूपांतरण
की है, वह
स्वाध्याय-यज्ञ
है। इसलिए इसे
ठीक से, थोड़ा
ज्यादा ही ठीक
से समझ लेना
उचित है।
आधुनिक
मनुष्य के मन
के निकटतम जो
प्रक्रिया है, वह
स्वाध्याय-यज्ञ
है। कृष्ण ने
तो उसे चलते में
ही उल्लेख
किया है। उस
समय बहुत
महत्वपूर्ण
वह नहीं थी, बहुत
प्रचलित भी
नहीं थी। कभी
कोई साधक उसका
प्रयोग करता
था। लेकिन
सिगमंड
फ्रायड, गुस्ताव
जुंग, अल्फ्रेड एडलर, सलीवान,
फ्रोम और पश्चिम
के सारे
मनोवैज्ञानिकों
ने स्वाध्याय-यज्ञ
को बड़ी कीमत
दे दी है।
स्वाध्याय, इस शब्द में
स्व और अध्ययन
दो बातें हैं।
स्वयं का
अध्ययन
स्वाध्याय का
अर्थ है।
स्वयं का अध्ययन
सारे मनोविश्लेषण
की आधार भूमि
है, साइकोएनालिसिस की आधार
भूमि है।
स्वयं में
क्या-क्या है,
इसका गूढ़
परिचय--किसी
और के द्वारा
नहीं, स्वयं
के ही द्वारा।
किसी और के
द्वारा इसलिए नहीं
कि स्वयं की
अतल गहराइयों
में किसी दूसरे
का कोई प्रवेश
नहीं है।
हम
दूसरे
व्यक्ति को केवल
उसकी परिधि से
ही जान पाते
हैं। उसकी
गहराइयों में, उसके
अंतस्तल में
कहीं कोई
द्वार प्रवेश
का नहीं है।
हम दूसरे के
व्यवहार को, बिहेवियर को ही जान
पाते हैं; उसके
अंतस को नहीं।
दूसरा क्या
करता है, इसे
तो हम अध्ययन
कर सकते हैं; लेकिन दूसरा
क्या है, इसका
हम बाहर से
अध्ययन नहीं
कर सकते हैं।
और
जितना ही
ज्यादा
मनुष्य सभ्य
हो गया है, उतना ही
धोखा गहरा हो
गया है। अंतस
कुछ होता, आचरण
कुछ होता!
इसलिए आचरण को
देखकर अंतस की
कोई भी खबर
नहीं मिलती
है।
सुसंस्कृत और
सुसभ्य आदमी
हम कहते ही
उसे हैं, जिसके
आचरण का जाल
इतना बड़ा है
कि उसके अंतस
का पता न
लगाया जा सके।
जिसका आचरण
ऐसा है कि
उससे हमें कोई
क्लू, कोई
कुंजी, कोई
चाबी नहीं
मिलती कि हम
उसके अंतस के
ताले को खोल
लें। शायद
शुद्ध आदिम
आदमी, प्रिमिटिव,
उसके आचरण
को देखकर हमें
उसके अंतस का
थोड़ा अंदाज भी
लग जाए; लेकिन
जितना सुसभ्य,
सुशिक्षित
आदमी, उतना
ही उसके
व्यवहार को
देखकर उसके
स्वयं का कोई
पता नहीं
चलता।
व्यवहार
प्रकट नहीं
करता, छिपाता
है। आचरण अंतस
की
अभिव्यक्ति
नहीं, अंतस
का छिपाव बन
गया है। हम जो
बोलते हैं, उससे वह पता
नहीं चलता, जो हम सोचते
हैं। हम जो
बोलते हैं, वह उसे
छिपाने को है,
जो हम सोचते
हैं। चेहरे पर
जो दिखाई पड़ता
है, वह वह
नहीं होता, जो आत्मा
में उठता है।
चेहरा सौ में
निन्यानबे
मौके पर आत्मा
में जो उठता
है, वह
दूसरे तक न
पहुंच जाए, इसकी रुकावट
का काम करता
है।
स्वाध्याय
का इसलिए पहना
अर्थ है कि हम
अपने अंतस से
स्वयं ही
परिचित हो
सकते हैं।
दूसरे हमारे
आचरण को ही
जान सकते हैं।
और आचरण से
जाना गया उनका
अध्ययन
ज्यादा से
ज्यादा
अनुमान, इनफरेंस हो सकता है।
लेकिन
साक्षात, सीधा
ज्ञान, इमीजिएट,
तो हम अपने
भीतर स्वयं का
ही कर सकते
हैं।
हम
स्वयं ही अपनी
गहराइयों में
हैं अकेले, वहां किसी
दूसरे का
प्रवेश नहीं
है। इसलिए स्वाध्याय।
लेकिन हम खुद
भी वहां नहीं
जाते। हम खुद
भी अपने से
बाहर ही जीते
हैं। हम इस
ढंग से जीते
हैं कि हम भी
अपने आचरण से
ही परिचित होते
हैं, अपनी
आत्मा से
परिचित नहीं
होते। हम
स्वयं को भी
जानते हैं, तो दूसरों की
दृष्टि से
जानते हैं।
अगर दूसरे
हमें अच्छा
आदमी कहते हैं,
तो हम सोचते
हैं, हम
अच्छे आदमी
हैं। और दूसरे
अगर बुरा कहने
लगते हैं, तो
बड़ी पीड़ा
पहुंचाते
हैं।
स्वयं
का सीधा, प्रत्यक्ष
अनुभव हमारा
अपना नहीं है।
अन्यथा सारी
दुनिया बुरा
कहे, अगर
मैं अपने भीतर
जानता हूं कि
मैं अच्छा हूं,
तो कोई अंतर
नहीं पड़ता। उस
सारी दुनिया
के बुरे कहने
से जरा-सा
कांटा भी नहीं
चुभता। कोई प्रयोजन
नहीं है।
लेकिन मुझे तो
मेरा पता ही
नहीं है कि
मैं कौन हूं।
मुझे तो वही
पता है, जो
लोगों ने मेरे
बाबत कहा है।
लोग
मेरे संबंध
में जानें बाहर
से, यह तो
उचित है; लेकिन
मैं भी अपने
संबंध में
जानूं बाहर से,
यह एकदम ही,
एकदम ही
खतरनाक है।
अनुचित ही
नहीं, खतरनाक
भी है।
स्वाध्याय
का अर्थ है, स्वयं का
साक्षात्कार,
एनकाउंटर विद वनसेल्फ।
स्वाध्याय का
अर्थ है, अपने
ही आमने-सामने
खड़ा हो जाना।
निश्चित ही, स्वाध्याय
की प्रक्रिया
को चरणों में बांटकर
समझ लें।
पहली
बात, जो
व्यक्ति
स्वाध्याय की
साधना में या स्वाध्यायरूपी
यज्ञ में
उतरना चाहता
है, पहली
बात, दूसरों
ने उसके संबंध
में क्या कहा
है, उसे
तत्काल अलग कर
देना चाहिए।
दूसरे उसके संबंध
में क्या
सोचते हैं, इसे हटा
देना चाहिए।
दूसरों के
वक्तव्य धोखे
के सिद्ध
होंगे।
दूसरों की
जानकारी अपने
संबंध में
सबसे पहला
कचरा है, जो
स्वाध्याय
में अलग करना
पड़ता है। तभी
मैं निपट उसको
जान पाऊंगा, जो मैं हूं।
और जो
मैं हूं, इसे
जानने के लिए
दूसरा चरण
जो...। यह बहुत
कठिन है। दूसरों
के ओपीनियन
को अलग कर
देना बहुत
कठिन नहीं है।
यह इतना ही सरल
है, जैसे
नदी के ऊपर
पत्ते छा जाएं,
उनको हम हटा
दें और नीचे
का जल-स्रोत
प्रकट हो जाए।
दूसरों के
मंतव्य हमारे
संबंध में
बहुत गहरे
नहीं होते, नदी की सतह
पर होते हैं।
घास-पात की
तरह उन्हें
अलग किया जा
सकता है।
उसमें बहुत
अड़चन नहीं है।
अड़चन दूसरे
चरण में है।
हमने
अपने को जानने
के लिए अपने
को पूरा मुक्त
नहीं रखा है।
हमने अपने
बहुत-से
हिस्से भयभीत
होकर, घबड़ाकर इतने गहरे
में दबा दिए
हैं कि हम
उनको अपने सामने
लाने में डरेंगे।
जैसे एक आदमी
ब्रह्मचर्य
की धारणा से
भर गया हो, तो
वह अपनी
कामवासना को
इतना दबा देगा
कि वह उसका
साक्षात्कार
न कर पाएगा।
वह खुद ही
डरेगा कि मेरे
भीतर और
कामवासना!
नहीं-नहीं; है ही नहीं!
जिस आदमी ने
अपने क्रोध को
गहरे में दबा
दिया है, वह
अपने क्रोध को
कभी भी नहीं
जान पाएगा। और
हमने अपने
बहुत-से
हिस्सों को
भीतर दबाया
हुआ है, सप्रेस
किया हुआ है।
इसलिए
स्वाध्याय का
दूसरा चरण है, जो-जो दबाया
हुआ है, उसे
उभारना
पड़ेगा।
अन्यथा स्वयं
का अध्ययन न हो
पाएगा। जो-जो
भीतर अतल में
पड़ गया है, जो-जो
हमने अंधेरे
में सरका दिया
है कि हमें खुद
ही न मिल जाए!
हम खुद ही
अपने बड़े
हिस्से को
अंधेरे में
किए हुए हैं, कि कहीं
हमारी
मुलाकात न हो
जाए! और
इसीलिए हम अकेलेपन
से बहुत डरते
हैं, लोनलीनेस से बहुत
डरते हैं।
क्योंकि
अकेले में
रहेंगे, तो
खुद से मिलने
का मौका है।
इसलिए सदा
किसी के साथ
हैं। कभी
पत्नी, कभी
पति; कभी
बेटा, कभी
मित्र; कभी
क्लब, कभी
मंदिर; लेकिन
कहीं न कहीं
कोई न कोई साथ
है। अकेले नहीं
हैं! क्योंकि
अकेले में, जब कोई भी
साथ नहीं होगा,
तो हम अपने
साथ हो
जाएंगे। वह डर
है।
इसलिए
सभ्य आदमी
अकेले में
बिलकुल नहीं
है। अकेला हुआ, तो रेडियो
खोलेगा, ताकि
अकेलापन मिट
जाए। अखबार
उठा लेगा, अकेलापन
मिट जाए। कुछ
और नहीं सूझेगा,
तो सिगरेट पीएगा, अकेलापन
मिट जाए। कुछ
भी नहीं बचेगा,
तो सो
जाएगा। लेकिन
अकेला जागेगा
नहीं।
यह बड़ा
षडयंत्र है, जो हम अपने
साथ कर रहे
हैं, ए
ग्रेट कांसपिरेसी।
बड़े से बड़ा
षडयंत्र जो हम
अपने साथ कर रहे
हैं, वह यह
है कि हम अपने
साथ अकेले कभी
नहीं होते। कभी
नहीं! कहीं
मौका मिल जाए,
तो बड़ी ऊब
मालूम पड़ती है,
बड़ी घबड़ाहट
और बेचैनी
होती है!
अभी
अमेरिका में
उन्होंने एक
यूनिवर्सिटी
में एक गहरा
प्रयोग किया
है, केलिफोर्निया में। और वह
है सेंस डिप्राइवेशन
का। कुछ
युवकों को ऐसी
कोठरियों में
बंद किया, जहां
कोई भी
संवेदना उन तक
न पहुंच सके।
कोई भी
संवेदना!
घुप्प, गहन
अंधकार।
वैज्ञानिक
साधनों से
समस्त प्रकाश
की संभावनाओं
को रोक दिया
है भीतर जाने
से। गहन
अंधकार। कोई
आवाज भीतर
नहीं पहुंच
सकती, कोई
ध्वनि नहीं
पहुंच सकती।
हाथ पर, शरीर
पर इस तरह के
दस्ताने पहनाए
हैं कि उनके
कारण अपने ही
शरीर को भी
नहीं छुआ जा
सकता। सब तरफ
से इंद्रियों
को कुछ भी
सूचना न मिले,
ऐसी स्थिति
में उस आदमी
पर क्या घटित
होता है? तो
उसके सारे सिर
पर यंत्र लगे
हैं, जो
बाहर खबर भेज
रहे हैं कि
उसके भीतर क्या
हो रहा है।
पांच
मिनट गुजारना
मुश्किल हो
जाता है। पांच
मिनट बाद
यंत्र खबर
देने लगते हैं
कि वह आदमी पागल
हो जाएगा। उसे
निकालो
बाहर! उसके
मस्तिष्क की
सारी
व्यवस्था
अस्तव्यस्त
हुई जा रही
है। दस मिनट
के बाद वह
आदमी करीब-करीब
बेहोशी की
हालत में
पहुंच जाता है।
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
अगर घंटेभर
रोका जाए, तो वह कोमा
में पड़ जाएगा।
इतनी गहरी
मूर्च्छा में
पड़ जाएगा कि
लौट सकेगा कि
नहीं, यह
डर हो जाएगा।
क्या हो गया
है इस आदमी को?
अकेलापन!
भारी अकेलापन
है।
अभी
जिन अंतरिक्ष
यात्रियों ने
चांद तक यात्रा
की है, चांद
तक पहुंचने
में जो सबसे
बड़ी कठिनाई थी,
वह कठिनाई
यांत्रिक
नहीं थी।
यांत्रिक
कठिनाई तो
बहुत दिन पहले
हल हो गई थी।
सारे अनुमान सही
सिद्ध हुए, जो पहले
सोचा गया था।
बड़ी कठिनाई थी,
इतनी देर तक,
पृथ्वी को
छोड़ने के बाद
जो गहन
सन्नाटा है, उसको आदमी
का मस्तिष्क
झेल पाएगा कि
नहीं झेल
पाएगा? उसका
मस्तिष्क फट
तो नहीं जाएगा?
इसलिए
जिन-जिन
यात्रियों को
भेजा गया है, उनको महीनों
तक सन्नाटे
में रखने का
अभ्यास करवाना
पड़ा है--सालों
तक। और पहली
दफा अमेरिका और
रूस के
वैज्ञानिक
ध्यान में
उत्सुक हुए हैं,
अंतरिक्ष
यात्री के
कारण, कि
अगर ध्यान
सीखा जा सके, तो अंतरिक्ष
यात्री
घबड़ाएगा नहीं
अकेलेपन से, भयभीत नहीं
होगा। और वह
जो अनंत
सन्नाटा घेर लेगा
पृथ्वी के
वर्तुल को
छोड़ने के
बाद...।
पृथ्वी
एक पागल ग्रह
है, जहां
शोरगुल ही
शोरगुल है।
पृथ्वी के
वर्तुल को
छोड़ा, दो
सौ मील की
परिधि के बाहर
हुए कि सब
शून्य हो जाता
है। सन्नाटा
ही बोलता है, और कुछ भी
नहीं।
सन्नाटे की भी
वैसी आवाज
नहीं होती, जैसे रात
झींगुर बोलते
हैं, तब
होती है।
क्योंकि
झींगुर भी
नहीं होते; सिर्फ
सन्नाटा ही
होता है, जो
कि प्राणों को
बेध जाता है
और घबड़ाहट
पैदा कर देता
है। अकेला
आदमी अपने
आमने-सामने पड़
जाता है।
हम
अपने को उलझाए
रखते हैं।
स्वाध्याय
में आकुपाइड, सदा व्यस्त
रहने की
वृत्ति सबसे
बड़ी बाधा है। तो
दूसरे चरण में
अव्यस्त, अनआकुपाइड,
अकेला, और
अपने ही दबाए
हुए हिस्सों
को बाहर लाना
पड़ेगा।
फ्रायड
ने, जुंग ने
जो साइकोएनालिसिस
का, मनोविश्लेषण
का प्रयोग
किया, वह
इसी हिस्से को
बाहर लाने के
लिए है। लिटा
देते हैं
व्यक्ति को
कोच पर और
उससे कहते हैं,
जो
तुम्हारे मन
में आए बोलो।
सोचो मत, बोलते
जाओ। जब वह
अनर्गल बोलना
शुरू कर देता
है, कुछ भी
जो भीतर आए, वही बोलने
लगता है, तो
बड़ी हैरानी
होती है कि यह
आदमी क्या बोल
रहा है! असंगत,
अनर्गल, विक्षिप्त
बातें, स्वस्थ,
सामान्य, अच्छे आदमी
के भीतर से
निकलने लगती
हैं। भीतर की
पर्तें उभरने
लगती हैं।
लेकिन फिर भी
दूसरा मौजूद
है। कोच के
पीछे, पर्दे
के पीछे छिपा
हुआ साइकोएनालिस्ट,
मनोवैज्ञानिक
बैठा हुआ सुन रहा
है। उसका भय
तो है ही।
इसलिए पूरा
आदमी नहीं खुल
पाता। इसलिए साइकोएनालिसिस
कभी भी पूर्ण
नहीं हो सकती।
दूसरे की
मौजूदगी, भय
बना ही रहता
है।
योग के
लिए
स्वाध्याय
नितांत एकांत
का अनुभव है।
दूसरे का कोई
भय नहीं; मैं
अपने को पूरा
उघाड़ लूं नग्न,
नैकेड--पूरा, जैसा
हूं। क्रोध है
तो क्रोध; काम
है तो काम;र्
ईष्या है तोर्
ईष्या; भय
है तो भय; हिंसा
है तो हिंसा।
जो भी मेरे
भीतर है, जो
भी है, बिना
किसी चुनाव के,
उस सबको
उभार लूं। च्वाइसलेस,
चुनावरहित अपने को देख
लूं।
पहला
चरण, दूसरों
के मंतव्य अलग
कर दूं। दूसरा
चरण, दमन
को बाहर ले
आऊं--प्रकट
में, प्रकाश
में, रोशनी
में। घाव को छिपाऊं न।
सब मलहम-पट्टियां
उखाड़ दूं
और घाव का
सीधा साक्षात
करूं, जो
भी मैं हूं।
बहुत
भय मन में
पैदा होता है।
क्योंकि जब
कोई इस सबको
उभारता है, तो पाता है, मैं यह हूं!
यह हिंसा, यह
वासना, यहर् ईष्या, यह
द्वेष, यह
घृणा, यह
मत्सर, यह
लोभ--यह मैं
हूं! मन डरता
है, क्योंकि
हम सबने अपनी
इमेज, अपनी-अपनी
प्रतिमाएं
बना रखी हैं।
इसलिए स्वाध्याय
में तीसरा चरण
अपनी बनाई हुई
प्रतिमा के
मोह को
त्यागना है।
हम
सबकी अपनी
प्रतिमाएं
हैं। एक आदमी
कहता है कि
मैं साधुचरित्र
हूं। अब उसकी
एक प्रतिमा है, एक इमेज है।
एक आदमी कहता
है कि मैं कभी
क्रोध नहीं
करता। एक आदमी
कहता है, मैं
निरहंकारी
हूं; मुझमें
कोई अहंकार
नहीं है। एक
आदमी कहता है,
मुझमें कोई
लोभ नहीं है।
ये प्रतिमाएं
हैं। हमने
अपनी-अपनी
सुंदर
प्रतिमा बना
रखी है। उस सुंदर
प्रतिमा को
छोड़ने की
जिसमें
हिम्मत न हो, वह
स्वाध्याय
में नहीं उतर
सकता।
इसलिए
स्वाध्याय को
भी यज्ञ कहा।
वह भी बड़ी आग
है, जिसमें
जलना पड़ेगा।
और सबसे पहले
जो चीज जल जाएगी,
वह है आपकी
सेल्फ इमेज, अपनी
प्रतिमा, जो
हर आदमी बनाए
हुए है।
एक
आदमी कहता है, मैं बिलकुल
सदाचारी हूं;
लेकिन
चित्त बहुत
असद आचरण करने
की आकांक्षाओं
से भरा है।
उसको उसने दबा
दिया है। वह
कभी लौटकर
नहीं देखता
वहां, क्योंकि
डर है कि
प्रतिमा का
क्या होगा! वह
सब कुरूप हो
जाएगी।
मैंने
सुना है एक
स्त्री के
संबंध में कि
वह बहुत कुरूप
थी। इसलिए वह
किसी आईने के
सामने नहीं
जाती थी। और
अगर कभी
भूल-चूक से
कोई लोग उसे चिढ़ाने को
आईना, किसी
का आईना सामने
कर देते, तो
वह आईने को
तत्काल फोड़
देती थी। और
कहती थी कि
आईना बिलकुल
गलत है। इसमें
दिखाई पड़ती
हूं मैं तो
कुरूप हो जाती
हूं; जब कि
मैं सुंदर
हूं। आईना खराब
है। सब दुनिया
के आईने खराब
थे, क्योंकि
वह स्त्री
सुंदर थी!
अपने मन में
उसका एक इमेज
है।
हम
कहेंगे, वह
पागल थी। हम
आईने नहीं
फोड़ते, साधारण
आईने हम नहीं
फोड़ते। लेकिन
बहुत गहरे में,
असली जो
आईना है
स्वाध्याय का,
वह हम कभी
उठाकर नहीं
देखते।
क्योंकि वहां
हमारा असली
रूप प्रकट
होगा, और
जो बहुत अग्ली
है, कुरूप,
बहुत भयानक
है।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं, ऐसा आदमी
खोजना
मुश्किल है, जिसके भीतर
मन ने वे सब
पाप न किए हों,
जो किसी भी
आदमी ने कभी
भी पृथ्वी पर
किए हैं। ऐसा
आदमी खोजना
मुश्किल है, जिसके मन ने
ऐसा कोई अपराध
न किया हो, जो
पृथ्वी पर कभी
भी किया गया
है।
हां, बाहर नहीं
किया होगा।
बाहर नहीं
किया होगा। बाहर
जो करते हैं, वे तो पकड़े
जाते हैं।
भीतर हम करते
रहते हैं।
वहां न कोई अदालत,
न कोई कानून,
न कोई
व्यवस्था, कोई
भी नहीं
पहुंचती।
लेकिन
परमात्मा की
आंख वहां भी
पहुंचती है।
स्वाध्याय
का मूल्य यही
है कि हम अपने
से तो अपने को
छिपा सकते हैं, लेकिन परम
सत्य से हम
अपने को कैसे छिपाएंगे?
परम सत्ता
के सामने हम
अपने को कैसे छिपाएंगे?
ये
प्रतिमाएं
हमें छोड़ देनी
पड़ेंगी, जब
हम प्रभु के
साक्षात में
पहुंचेंगे।
इसलिए
स्वाध्याय से
पहले ही
इन्हें जानकर
तोड़ देना उचित
है।
और बड़े
आश्चर्य की
बात तो यह है
कि जो व्यक्ति
अपनी समस्त
कुरूपता को
जानने में
समर्थ हो जाता
है, वह उससे
मुक्त होने
में समर्थ हो
जाता है। स्वाध्याय
का जो सबसे
गहरा सीक्रेट,
राज है, वह
मैं आपसे कहता
हूं। वह यह है
कि स्वाध्याय
के यज्ञ में
जानना ही
मुक्ति है; नोइंग, जानना ही
मुक्ति है।
स्वाध्याय
की जो
प्रक्रिया है, उसमें
स्वाध्याय के
अतिरिक्त और
कुछ भी नहीं करना
पड़ता। आप
सिर्फ जान लें
अपने रोग को
और रोग के
बाहर हो जाते
हैं। और रोग
को न जानें, तो रोग बढ़ता
जाता है और
गहन होता चला जाता
है।
स्वाध्याय की
प्रक्रिया
सिर्फ साक्षात्कार
से, स्वयं
के
साक्षात्कार
से ट्रांसफार्मेशन
की प्रक्रिया
है।
आत्म-साक्षात
से आत्मक्रांति,
स्वयं को
जानने से
स्वयं की
बदलाहट।
इसलिए
स्वाध्याय को
जो लोग मानते
हैं, वे अक्सर
हंसी उड़ाते
हुए मिलेंगे
इस बात की कि तप
की क्या जरूरत
है? तपश्चर्या
की क्या जरूरत
है? ध्यान
की क्या जरूरत
है? मेडिटेशन
की क्या जरूरत
है?
कृष्णमूर्ति
निरंतर यही
कहते हुए
मिलेंगे। कृष्णमूर्ति
की प्रक्रिया
स्वाध्याय के
यज्ञ की
प्रक्रिया
है। तो वे
कहेंगे, बेकार
है सब। बदलने
के लिए कुछ भी
करना नहीं है;
सिर्फ
जानना
पर्याप्त है,
टु नो इज़
इनफ। और
जानने के
अलावा कुछ भी
करना जरूरी
नहीं है।
हम
कहेंगे, यह
कैसे! अगर हम
अपने पैर के
घाव को जान
लें, तो
क्या घाव मिट
जाएगा?
नहीं; पैर का घाव
नहीं मिटेगा।
जान लेंगे, तो भी नहीं
मिटेगा। हां,
जानने से
जहां मिट सकता
है, वहां
जाने का खयाल
आएगा।
चिकित्सक के
पास जा सकते
हैं। इलाज, दवा कर सकते
हैं। लेकिन
सिर्फ जानने
से पैर का घाव
नहीं मिटेगा।
जानने के बाद
कुछ करना भी पड़ेगा,
तब पैर का
घाव मिटेगा।
सिर में दर्द
है, तो
जानने से नहीं
मिट जाएगा; कुछ करना भी
पड़ेगा।
लेकिन
मन के साथ एक
बड़ी खूबी की
बात है कि मन
के घाव जानने
से ही मिट
जाते हैं।
जानने के
अतिरिक्त कुछ
भी नहीं करना
पड़ता है।
स्वाध्याय का
समस्त यज्ञ इसी
रहस्य के ऊपर
खड़ा है, इसी
मिस्ट्री
पर कि जान लो
और बाहर हो
जाओ।
इसे
प्रयोग करें, तो ही खयाल
में आ सकता
है। ऐसा क्यों
होता है, कहना
कठिन है। ऐसा
होता है, इतना
ही कहना संभव
है। करीब-करीब
स्थिति ऐसी है,
जैसे कि
दीया लेकर हम
घर के भीतर
चले जाएं और अंधेरा
समाप्त हो
जाए। दीया ले
जाने के बाद
फिर अंधेरे को
समाप्त करने
के लिए और कुछ
नहीं करना
पड़ता है। ऐसा
नहीं है कि
दीया ले गए, फिर अंधेरे
को देख लिया
कि यह रहा; फिर
उसको समाप्त
करने के लिए
तलवार उठाई; काटकर बाहर
किया; ऐसा
कुछ नहीं करना
पड़ता। दीया
भीतर ले गए, अंधेरा नहीं
है। ऐसे ही, जानने को जो
व्यक्ति अपने
गहन मन के
तलों में ले
जाता है, जानने
के प्रकाश को,
वह पाता है
कि अज्ञान के
कारण ही सब
रोग थे।
और हम
उलटा कर रहे
हैं। जो-जो
रोग होता है, उसके प्रति
हम अज्ञानी हो
जाते हैं। यह
बहुत मजे की
बात है। अगर
कोई आदमी आपसे
कहे कि आपके पैर
में घाव है, तो आप उस पर
नाराज नहीं
होते। आप कहते
हैं, धन्यवाद,
आपने बताया!
कोई आदमी कहे,
आपको खयाल
नहीं, शायद
आपके पैर में
कांटा गड़ गया
है, खून बह
रहा है। तो आप
कहते हैं, आभारी
हूं, बड़ी
कृपा की कि
बताया। मैं
किसी दूसरी
धुन में लगा
था; मुझे
पता नहीं चला।
लेकिन कोई
आदमी कहे कि
आपके मन में
क्रोध है, तो
आप कभी फिर
आभार प्रकट
नहीं करते हैं
उस आदमी का।
आप कहते हैं, गलत बोलते
हो। क्रोध और
मुझे! कभी
नहीं। भ्रांति
हो गई
तुम्हें। कोई
आदमी कहे कि
आपके मन में कामवासना
है, तो आप
कहते हैं, यह
आदमी मित्र
नहीं, दुश्मन
मालूम पड़ता
है। और इस तरह
के आदमी से फिर
आप बचते हैं
कि यह कहीं
मिल न जाए।
कबीर
ने कहा है, निंदक नियरे
राखिए, आंगन कुटी छबाय। जो
निंदा करता हो,
उससे भागिए
मत; आंगन
और कुटी छवाकर
उसको पास में
ही ठहरा लीजिए
कि वह सुबह से
सांझ तक आपकी
निंदा करता
रहे।
स्वाध्याय!
स्वाध्याय का
सूत्र है वह।
जो
निंदा करे, वह मित्र
है। अगर वह
गलत कहता है, तो कोई हर्ज
नहीं; लेकिन
अगर वह सही कहता
है, तो वह
आपके दबे हुए
हिस्सों को
आपके सामने
लाता है। अगर
गलत कहता है, तो मेहनत
करता है, तो
भी अनुगृहीत
होने की जरूरत
है। आपके लिए
श्रम उठा रहा
है। अगर सही
कहता है, तब
तो उसके चरण
पकड़ लेने की
जरूरत है।
क्योंकि उसको
कोई जरूरत न
थी; आपके
लिए मेहनत
उठाई।
इसलिए
कबीर कहते हैं, निंदक नियरे
राखिए।
लेकिन
निंदक को पास
रखना मुश्किल
है चौबीस घंटे।
स्वाध्याय का
सूत्र कहता है, आप खुद ही
अपने घावों को
उघाड़ने
वाले बन जाइए।
दूसरा कितना
उघाड़ पाएगा? और दूसरा उघाड़ेगा
भी तो ऊपरी
घाव उघाड़ेगा,
भीतरी
घावों का उसे
भी पता नहीं है।
नासूर गहरे
हैं, कैंसर
गहरा है और क्रानिक
है, कई
जन्मों का है।
एक-दो दिन की
बीमारियां
नहीं हैं
भीतर। लेकिन
स्वाध्याय का
सूत्र कहता है,
जानो और
बाहर हो जाओ।
अब
पश्चिम में
मनोविज्ञान
और
मनोविश्लेषण
का जो इतना
प्रभाव है, उसका कुल एक
कारण है।
छोटा-सा
स्वाध्याय का
हिस्सा है और
वह यह कि वह
व्यक्ति को उसकी
बीमारियों का
साक्षात्कार
करा देते हैं।
इसके लिए
व्यक्ति को
पैसे चुकाने
पड़ते हैं। लंबे
और महंगे! और
गरीब आदमी
नहीं चुका
सकता है।
सिर्फ अमीर
आदमी
मनोविश्लेषण
से गुजर सकते हैं।
आज तो
हालत ऐसी है
अमेरिका में
कि फैशनेबल
स्त्रियां
एक-दूसरे से
पूछती हैं, कितनी बार साइकोएनालिसिस
करवाई? कितनी
बार
मनोविश्लेषण
करवाया? क्योंकि
जिसने नहीं
करवाया, वह
आधुनिक नहीं
है, आउट आफ
डेट है। जो
अभी
मनोविश्लेषण
से नहीं गुजरा,
जिसने दोत्तीन
साल किसी
मनोचिकित्सक
को हजारों
डालर नहीं दिए,
वह आदमी
पुराने जमाने
का है।
एक
अर्थ में बात
भी ठीक है।
क्योंकि
मनोचिकित्सक
के पास होता
कुल इतना ही
है कि वह आपको
आपकी स्थिति
से परिचित करा
देता है; ठीक-ठीक
तथ्य का बोध
करा देता है।
और तथ्य के बोध
के साथ ही
आपमें
रूपांतरण
शुरू हो जाता
है। तथ्य के
बोध के साथ ही!
हम तथ्य का
बोध नहीं
करते। उदाहरण
एक-दो लें तो
खयाल में आ
जाए।
और यह
स्वाध्याय का
सूत्र भविष्य
में महत्वपूर्ण
होता चला
जाएगा। और अगर
आने वाली सदी
में लोग गीता
को पढ़ेंगे, तो शायद
स्वाध्याय के
सूत्र के कारण
ही पढ़ेंगे।
यद्यपि गीता
में वह बहुत
स्पष्ट और प्रखर
नहीं है, क्योंकि
उस क्षण उसका
कोई बहुत
उपयोग नहीं था।
असल में लोग
इतने सरल थे
कि दमन बिलकुल
कम था। और जब
दमन कम होता
है, तो
स्वाध्याय का
कोई मतलब नहीं
होता। जब दमन
बहुत ज्यादा
हो जाता है, तब
स्वाध्याय का
मतलब होता है।
लोग इतने सरल
थे कि जो ऊपर
थे, वही
भीतर थे।
इसलिए बहुत
भीतर जाकर
देखने की कोई जरूरत
न थी।
अभी भी, आज से पचास
साल पहले तक, अंग्रेज मजिस्ट्रेट्स
ने बस्तर
रियासत के
अपने
संस्मरणों
में कहा है--पचास
साल पहले के, उन्नीस सौ
दस के संस्मरण
में--कि बस्तर
में अगर कोई
आदमी किसी की
हत्या कर दे, तो वह खुद
अदालत में चला
आता था, उन्नीस
सौ दस तक! और
आकर कह देता
था कि मैंने
हत्या कर दी
है, मेरी
क्या सजा है? मजिस्ट्रेट्स ने लिखा है
कि हम मुश्किल
में पड़ते थे
कि इस आदमी को
सजा दें तो
कैसे दें!
पुलिस भेजनी
नहीं पड़ती थी।
पुलिस भेजकर
बहुत देर
लगाती; वह
खुद ही आ जाता
था! कोई आदमी
चोरी कर लेता,
उन्नीस सौ
दस तक भी
बस्तर में, तो वह आकर
अदालत में खड़ा
हो जाता कि
मैंने चोरी कर
ली है; मेरी
सजा क्या है?
एक
मजिस्ट्रेट
ने लिखा है कि
मैंने एक चोर
को कहा भी कि
तुमको जब हमने
पकड़ा नहीं, हमें पता
नहीं चोरी का;
चोरी की कोई
रिपोर्ट नहीं
की गई है, तो
तुम किसलिए
आए हो? उसने
कहा, जिसकी
चोरी की गई है,
उसका इतना
नुकसान नहीं
हुआ है; कुछ
पैसे ही चोरी
गए हैं। मैंने
चोरी की, मेरा
बहुत नुकसान
हो गया। और जब
तक मुझे दंड न मिले,
तब तक मैं
बाहर कैसे
होऊंगा उस
नुकसान से!
अब ऐसे
व्यक्ति अगर
रहे हों, और
थे, क्योंकि
आज उन्नीस सौ
दस में बस्तर
जैसा था, कृष्ण
के जमाने में
पूरी पृथ्वी
वैसी थी; तो
उस दिन
स्वाध्याय के
सूत्र का
सिर्फ उल्लेख
किया है कृष्ण
ने, चलते
हुए। उसका कोई
बहुत मूल्य
नहीं था। हां,
कोई जटिल, कोई बहुत
चालाक, कोई
बेईमान, कोई
बहुत धोखेबाज
आदमी सदा थे।
उन आदमियों को
स्वाध्याय की
जरूरत पड़ सकती
थी। आज वैसे
लोग ही अधिक
हैं। आज स्वाध्याय
सर्वाधिक
निकटतम
प्रक्रिया है,
जिससे
व्यक्ति आगे
जाएगा।
जिस
तथ्य को हम
भीतर जान लेते
हैं, जैसे
उदाहरण के लिए
मैं कहूं, यदि
कोई व्यक्ति
भीतर ठीक से
जान ले कि मैं
झूठ बोलने
वाला हूं, मैं
असत्यवादी
हूं; इस
तथ्य को पूरा
पहचान ले कि
मैं झूठ बोलता
हूं, तो
झूठ बोलना
कठिन हो
जाएगा।
क्योंकि मैं
झूठ बोलता हूं,
इसका अनुभव
करना बहुत बड़े
सत्य का अनुभव
है। और इतने
बड़े सत्य के
सामने फिर झूठ
नहीं बोला जा
सकता।
जिस
आदमी को झूठ
बोलना है, उसे सबसे
बड़ा झूठ अपने
भीतर बोलता
पड़ता है कि मैं
झूठ कभी नहीं
बोलता हूं। इस
झूठ के आधार पर
वह दूसरों से
झूठ बोल सकता
है कि मैं झूठ
कभी नहीं
बोलता हूं।
पहले वह अपने
को झूठ में
डालता है, तब
वह दूसरों को
झूठ में डालता
है।
अपने
हाथ गंदे किए
बिना दूसरों
को गंदगी में
ढकेलना असंभव
है। अपने साथ
पाप किए बिना
दूसरों के साथ
पाप करना
असंभव है।
अपने को धोखा
दिए बिना
दूसरे को धोखा
देना असंभव
है। जिस आदमी
को यह पता चल
गया कि मैं
धोखेबाज हूं, वह धोखा
नहीं दे सकता।
क्योंकि धोखे
की बुनियादी
आधारशिला टूट
गई।
इसलिए
झूठ बोलने
वाला सदा
कोशिश में लगा
रहता है कि
मैं सच बोलता
हूं। जो सच
बोलता है, वह कभी
कोशिश में
नहीं लगता।
क्वेकर्स
हैं। दुनिया
में कुछ
थोड़े-से लोग, जो अभी भी
धर्म की
ज्योति को
कहीं-कहीं
दुनिया के
कोने में जगाए
रखे हैं, उनमें
क्वेकर्स,
ईसाइयों के
एक छोटे-से
संप्रदाय का
भी बड़ा दान
है। क्वेकर्स
अदालतों में
सजा काटे एक
छोटी-सी बात
के लिए कि
उन्होंने
अदालत में कसम
खाने से इनकार
कर दिया। आखिर
क्वेकर्स
के लिए
अदालतों को
झुक जाना पड़ा
और निर्णय करना
पड़ा कि क्वेकर्स
से हम कसम
नहीं खिलाएंगे।
क्योंकि क्वेकर्स
ने कहा कि तुम
हमसे अदालत
में कसम
खिलवाते हो कि
मैं झूठ नहीं
बोलूंगा; लेकिन
अगर हम झूठ
बोलने वाले
हैं, तो हम
कसम भी झूठ
खाएंगे।
ठीक
बात है। अगर
मैं झूठ बोलने
वाला हूं, तो अदालत
में कसम खाने
में कौन-सी
अड़चन है कि मैं
झूठ नहीं
बोलूंगा।
फिर क्वेकर्स
ने यह कहा कि
जब हम झूठ
बोलते ही नहीं
हैं, तो कसम
कैसे खाएं!
कसम वह खा
सकता है, जो
बोलता हो। तो
हम कसम नहीं
खाएंगे। इसके
लिए सजाएं
काटीं, कसम न खाने
के लिए। और
कोई दंड नहीं,
और कोई
अपराध नहीं; लेकिन कसम
नहीं खाएंगे।
क्योंकि कसम
वही खाता है...।
और यह
बड़े मजे की
बात है, जो
आदमी जितनी ज्यादा
कसम खाता मिले
कि मैं झूठ
नहीं बोलता हूं;
जानना कि वह
झूठ बोलता है।
उसकी कसम उसका
डिफेंस मेजर
है। उसकी कसम
उसकी सुरक्षा
का उपाय है।
वह हजार दफे
कह रहा है कि
मैं झूठ नहीं
बोलता; आपकी
कसम खाता हूं।
लेकिन जो आदमी
झूठ नहीं बोलता,
उसे खयाल ही
नहीं आता कि मैं
झूठ नहीं
बोलता। खयाल
का ही सवाल
नहीं।
भीतर
अगर किसी को
अनुभव हुआ कि
मैं झूठ बोलने
वाला हूं, तो एक दूसरी
घटना घटती है।
और वह घटना यह
है कि जब यह
अनुभव होता है
कि मैं झूठ
बोलने वाला हूं,
तो इस
दुनिया में
ऐसा एक भी
आदमी नहीं है,
जो झूठ
बोलने वाला
होना चाहता
हो। होता है, दूसरी बात।
होना चाहता
हो! इसलिए झूठ
बोलने वाला
सिद्ध करने
में लगा रहता
है कि मैं झूठ
नहीं बोलता।
वह आपको ही
सिद्ध नहीं कर
रहा है, वह
अपने लिए भी
सिद्ध कर रहा
है, अपने
सामने भी
सिद्ध कर रहा
है कि मैं झूठ
नहीं बोलता।
इस
दुनिया में
ऐसा एक भी आदमी
खोजना
मुश्किल है, जो यह जानने
को तैयार हो
भीतर से, कि
मैं चोर हूं।
नहीं, चोर
भी कहता है कि
कारण थे, इसलिए
मैंने चोरी कर
ली। वैसे मैं
चोर नहीं हूं।
मजबूरी थी, इसलिए मैंने
चोरी कर ली।
वैसे मैं चोर
नहीं हूं।
परिस्थिति थी,
इसलिए
मैंने चोरी कर
ली। वैसे मैं
चोर नहीं हूं।
क्रोधी भी
कहता है कि
क्रोध तुमने
दिलवा दिया, अन्यथा वैसे
मैं क्रोधी
नहीं हूं।
तुमने गाली न
दी होती, तो
मैं कभी क्रोध
न करता। वह तो
लोगों ने मुझे
उकसा दिया, भड़का दिया कि मैं
क्रोध में आ
गया। ऐसे मैं
क्रोधी नहीं
हूं। आदमी मैं
अच्छा हूं।
क्रोधी मैं
आदमी नहीं
हूं।
लेकिन
जब भीतर कोई
अनुभव करता है
कि मैं क्रोधी
हूं, तो
क्रोधी होना
मुश्किल हो
जाता है।
क्योंकि क्रोधी
मूलतः कोई भी
नहीं होना
चाहता।
बुरा
होना आंतरिक
आकांक्षा
नहीं है; अच्छा
होना आंतरिक
आकांक्षा है।
इसलिए बुरे
आदमी को भी
मानकर चलना
पड़ता है कि
मैं अच्छा
हूं। और मानकर
चलने का एक ही
उपाय है कि
दूसरे मानें
कि मैं अच्छा
हूं। क्योंकि
दूसरों की
आंखों की ओपीनियन
को इकट्ठा
करके मैं भी
मान लूंगा कि
अच्छा हूं।
स्वाध्याय
कहता है कि
जिसने जाना
जिस तथ्य को, वह उसके
बाहर हो जाता
है।
लेकिन
हम तथ्यों को
जानते नहीं, झुठलाते
हैं। हम अपनीर्
ईष्या कोर्
ईष्या नहीं
कहते, कुछ
और कहते हैं।
हम अपनी घृणा
को घृणा नहीं
कहते, कुछ
और कहते हैं।
हम अपने क्रोध
को क्रोध नहीं
कहते, कुछ
और कहते हैं।
हम अपनी
मालकियत को, पजेशन के भाव को, मालकियत नहीं
कहते, कुछ
और कहते हैं।
एक मां
है--मैं एक
किताब में पढ़
रहा था, उसमें
मां अपने बेटे
से कहती है कि
बाहर जाओ और
देखो कि पप्पू
क्या कर रहा
है। और जो भी
कर रहा हो, कहो
कि न करे।
बाहर जाओ और
देखो, पप्पू
क्या कर रहा
है। उसे पता
नहीं कि पप्पू
क्या कर रहा
है। लेकिन जो
भी कर रहा हो, कहो कि न
करे।
किसलिए? पप्पू गलत
कर रहा हो, तब
समझ में आ
सकता है।
लेकिन मां को
पता भी नहीं
कि पप्पू बाहर
क्या कर रहे
हैं। लेकिन वह
भेज रही है कि
जाकर कहो कि
पप्पू जो भी
कर रहा हो, न
करे।
अक्सर
लगता है कि
मां बच्चे के
ठीक-ठीक हित
के लिए सब कर
रही है। लेकिन
थोड़ा
स्वाध्याय
करे, तो पता
चलेगा, डामिनेशन का मजा भी ले
रही है, मालकियत
का। इसलिए जब
बच्चा पैदा हो
जाता है किसी
पति-पत्नी को,
तो
पति-पत्नी की
कलह थोड़ी हलकी
हो जाती है; क्योंकि डाइवर्शन
हो जाता है।
बच्चे पर
निकलने लगता
है मां का, तो
पति थोड़ा माफ
हो जाता है।
अगर
बच्चा बीच में
न हो...।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
बच्चा स्केप
गोट का काम
करता है। बाप
भी अकड़ दिखा
लेता है उसको, मां भी अकड़
दिखा लेती है
उसको। वह किसी
को अकड़ अभी
दिखा नहीं
सकता। दिखाएगा
वक्त आने पर।
लेकिन उसे
प्रतीक्षा
करनी पड़ेगी
अभी। पत्नी
पति को नहीं
मार सकती, बेटे
को पीट देती
है।
यहां
विश्लेषण और
स्वाध्याय की
जरूरत है कि यह
मैंने, बेटे
ने कसूर किया
था, इसलिए
मैंने मारा है,
कि किसी और
का चांटा इस
पर पड़ा जा रहा
है? आमतौर
से आप
भलीभांति
जानते हैं, सब जानते
हैं, और
बच्चे तो
बिलकुल भलीभांति
जानते हैं।
बच्चे बहुत ही
भलीभांति जानते
हैं कि
मां-बाप में
कोई गड़बड़ हो, तो वहां से
खिसक जाओ।
क्योंकि पति
तो नहीं पिटेगा;
बेटा पिट
जाएगा!
यह अगर
स्वाध्याय से
पता चल जाए कि
यह क्या हो रहा
है, तो होना
मुश्किल है।
अगर मां को यह
पता चल जाए कि
मारना तो पति
को था, मारा
है बेटे को, तो क्या
बेटे को मारना
संभव रह जाएगा?
असंभव है।
तथ्य का
पता--विसर्जन
हो जाता है। यह
साफ दिख जाए
कि यह मैंने
क्या किया है,
तो बेटे से
भी माफी मांगी
जा सकती है।
माफी मांगने
का भी मौका
नहीं आएगा।
हम
अपने आपको
धोखा देने में
बड़े कुशल हैं।
कुछ होता है, कुछ हम उसको
नाम देते हैं।
कुछ और ही
होता है भीतर,
कुछ और ही
नाम देते हैं!
औरंगजेब
ने अपने बाप
को बंद कर
दिया था आखिरी
दिनों में। तो
उसके बाप ने
खबर भेजी कि
इतना इंतजाम
कर दे कम से कम
कि तीस बच्चे
यहां भेज दे, तो मैं एक
छोटी क्लास
चलाता रहूं जेलखाने
में। औरंगजेब
ने अपनी
आत्म-कथा में
लिखाया है कि
मेरे बाप को
आज्ञा देने की
इतनी खतरनाक
आदत थी कि जब
मैंने उसे जेलखाने
में बंद कर
दिया, तो
उसने तीस
बच्चे मांगे।
और जब तीस
बच्चे उसे दे
दिए गए, तो
वह छड़ी लेकर
उनके बीच में पढ़ाने का
काम करने लगा!
एक
स्कूल मास्टर
अपनी क्लास
में किसी
बादशाह से कम
नहीं होता।
बादशाह भी
इतना ताकतवर
नहीं होता, जितना
छोटे-छोटे
प्राइमरी
स्कूल के
बच्चों में
स्कूल मास्टर
होता है।
अभी
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
जो लोग भी
शिक्षक होने
के प्रति
उत्सुक होते
हैं, उनमें सौ
में से
पचहत्तर प्रतिशत
डामिनेशन
की आकांक्षा
से प्रेरित
होते हैं।
पचहत्तर प्रतिशत!
दबाना, आज्ञा
देना, सताना,
कोअर्शन,
टार्चर! इसलिए
शिक्षक अगर
छोटी-छोटी चीज
पर छड़ी चलाते
रहे पुरानी
दुनिया में, हाथ-पैर
तोड़ते रहे
बच्चों के, तो इसीलिए
नहीं सिर्फ कि
पढ़ाने के
लिए बड़े आतुर
थे। पढ़ाने
की आतुरता से
हाथ-पैर तोड़ने
का कोई कारण
नहीं है। मैं
ऐसे आदमियों
को जानता हूं,
जिनकी
शिक्षकों ने
चोट से आंख फोड़
दी! क्या बात
रही होगी?
काश, उन शिक्षकों
को पता चल
जाता कि यह जो
छड़ी हम मार
रहे हैं इस
बच्चे को, यह
छड़ी पढ़ाने
के लिए नहीं
मारी जा रही
है। क्योंकि
बिना छड़ी मारे
पढ़ाया जा
रहा है; कोई
दिक्कत नहीं आ
रही है। यह
छड़ी मारने का
मजा दूसरा है;
इसका रस
गहरा है। यह
दूसरे को
दबाने का और
दूसरे पर
हिंसा करने का
रस है। काश, यह शिक्षक
को दिख जाए, तो हाथ में
से छड़ी छूट
जाएगी। लेकिन
नहीं छूटेगी,
जब तक वह
सोच रहा है कि
मैं इसको
शिक्षित करने
के लिए मार
रहा हूं, इसी
के हित में
इसी को मार
रहा हूं, तब
तक यह नहीं छूटेगी;
तब तक वह
धोखा जारी
रहेगा।
तथ्य
को जानना तथ्य
से मुक्ति है।
जो व्यक्ति अपने
भीतर के समस्त
रोगों को वैसा
ही देख लेता
है, जैसे वे
हैं--इन देअर
टोटल नैकेडनेस,
उनकी पूरी
नग्नता
में--वह फिर
वैसा ही नहीं
रह सकता, जैसा
था। उसमें
रूपांतरण
शुरू हो जाता
है; उसमें
बदलाहट शुरू
हो जाती है।
और वह जो
बदलाहट है, वह
स्वाध्याय का
सहज परिणाम
है।
स्वाध्याय
में कठिनाई है, लेकिन
स्वाध्याय
करने में जो
समर्थ है, बदलाहट
में कठिनाई नहीं
है। बदलाहट
बिलकुल सहज है;
छाया की तरह
पीछे चली आती
है।
इसलिए
कृष्ण कहते
हैं, स्वाध्यायरूपी यज्ञ! इस
यज्ञ से
गुजरकर भी...।
इसके
लिए वे दोत्तीन
और सहारे
बताते हैं।
शास्त्र का
अध्ययन स्वाध्याय
के लिए सहारा
बन सकता है।
लेकिन किस शास्त्र
का अध्ययन सभी
शास्त्र
स्वाध्याय के
लिए सहारा
नहीं बन सकते
हैं। केवल वे
ही शास्त्र
स्वाध्याय के
लिए सहारा बन
सकते हैं, जो आत्म-स्वीकृतियां
हैं, कन्फेशंस हैं। जैसे
सेंट अगस्तीन
की किताब कन्फेशंस
या टाल्सटाय
की जीवन-कथा, या रूसो
की जीवन कहानी,
या गांधी की
आत्मकथा। इस
तरह के वक्तव्य
स्वाध्याय के
लिए सहयोगी हो
सकते हैं।
लेकिन
लोग इनका
स्वाध्याय
नहीं करते।
स्वाध्याय
अगर वे करते
हैं, तो गीता
का करते हैं।
गीता
स्वाध्याय
में सहयोगी
उतनी नहीं हो
सकती, क्योंकि
गीता कन्फेशन
नहीं, स्टेटमेंट है। गीता तो
सत्य का
वक्तव्य है, असत्य की
स्वीकृति
नहीं। गांधी
की आत्मकथा
काम की हो
सकती है स्वाध्याय
करने वाले को,
क्योंकि
उसमें असत्य
की बहुत स्वीकृतियां
हैं। उसमें
भीतर के रोगों
के बहुत
स्वीकार हैं।
गांधी
बता पाते हैं
कि पिता मर
रहे हैं, पैर
दबा रहा हूं; चिकित्सकों
ने कहा है, यह
रात आखिरी
होगी; लेकिन
बारह बजे के
करीब
कामवासना
भारी हो जाती
है। कल भी
भोगा था पत्नी
को, परसों
भी भोगा था, आज भी भोगने
का मन है। बाप
मर रहा है! बाप
की मृत्यु भी
वासना से नहीं
छुड़ा
पाती!
चकमा
करके--कोई
पूछता है कि
बहुत थक गए
होओगे, मैं
हाथ-पैर दबा
दूं? थके
नहीं हैं, क्योंकि
थका आदमी
कामवासना के
लिए आतुर नहीं
होता। मौका पाकर
कि किसी ने
कहा कि मैं
पैर दबा दूं, गांधी वहां
से खिसक गए।
एक ही दीवाल
का फासला था।
उस पार वह
पत्नी के साथ
संभोग में रत
हो गए। और
पत्नी
गर्भिणी है, प्रेगनेंट है। चार ही
दिन बाद उसको
बच्चा हुआ, हालांकि मरा
हुआ हुआ
या होते ही मर
गया। होने
वाला था। यह
मृत्यु भी, यह हिंसा भी
कहीं न कहीं
गांधी को
जीवनभर पीड़ा
देती रही।
जब वे
संभोग में हैं, तभी पिता की
मृत्यु हो गई।
हाहाकार घर
में मच गया, रोना-चिल्लाना।
इसलिए जिंदगीभर
फिर
ब्रह्मचर्य
की आकांक्षा
रही।
काम के
प्रति गांधी का
जो इतना गहरा
विरोध है, उसमें वह
घटना भीतर बैठ
गई मन में; वह
गहरी उतर गई।
बाप की हत्या
जुड़ गई संभोग
के साथ। और
पिता फिर
दुबारा नहीं
मिल सके। मन
पर अपराध का
भाव, गिल्ट बैठ गई।
गांधी उस गिल्ट
से जिंदगीभर
मुक्त नहीं
हुए। गांधी जिंदगीभर
अपराध-भाव से
पीड़ित रहे।
लेकिन आदमी
ईमानदार थे; नीयत उनकी
साफ थी; स्वीकार
सब कर लिया।
यह
स्वीकृति पढ़ेंगे, तो अपने
भीतर भी
स्वीकार करने
में सुविधा
बनेगी। इस तरह
के शास्त्र, जो स्वीकृतियां
हैं, कन्फेशंस हैं, वे
स्वाध्याय
में सहयोगी बन
सकते हैं।
उपनिषद
नहीं बन सकते
स्वाध्याय
में सहयोगी।
लेकिन लोग
उपनिषद का
स्वाध्याय
करते हैं!
उपनिषद बेयर
स्टेटमेंट्स
हैं। उपनिषद
का ऋषि कहता
है, ब्रह्म
है। खतरनाक है
उसका
स्वाध्याय
करना। उपनिषद
का ऋषि कहता
है, अहं
ब्रह्मास्मि,
मैं ब्रह्म
हूं। ये सत्य
को उपलब्ध
लोगों के वक्तव्य
हैं। आप भी
बैठकर इनको पढ़-पढ़कर
मन में सोचने
लगते हैं, अहं
ब्रह्मास्मि,
मैं ब्रह्म
हूं! खतरे में
पड़ेंगे। आप
ब्रह्म वगैरह
बिलकुल नहीं
हैं। कृपा
करके जो हैं, वही अपने को
जानें। चोर हो
सकते हैं, बेईमान
हो सकते हैं, ब्रह्म
बिलकुल नहीं
हो सकते।
लेकिन
उपनिषद पढ़ने
में खतरा है
एक। और वह खतरा
यह है कि
उपनिषद जानने
वालों के
वक्तव्य हैं, और न जानने
वाले उन
वक्तव्यों को
पकड़ लें, तो
वे अपने को
धोखा देने में
समर्थ हो
जाएंगे।
स्वाध्याय तो
नहीं कर
पाएंगे, हत्या
कर लेंगे
अपनी।
नहीं; स्वाध्याय
में ऐसे
शास्त्र
सहयोगी हैं, जो असत्य से
गुजरने वाले
लोगों की
आत्म-स्वीकृतियां
हैं। सत्य को
पहुंचे हुए
शिखर के उदघोषण
नहीं; असत्य
की घाटियों
में सरकने
वाले लोगों की
पीड़ाओं
की स्वीकृतियां।
इसलिए मैं
आपसे कहूंगा
कि कई बार ऐसे
लोगों के
वक्तव्य, जिन्होंने
सत्य को नहीं
जाना है, लेकिन
असत्य की पीड़ा
को भोगा है और
असत्य की पीड़ा
को स्वीकार
करने का साहस
दिखलाया है--जैसे,
न तो टाल्सटाय
को सत्य का
कोई अनुभव है,
न गांधी को।
गांधी
जीवनभर सत्य
की खोज में
रहे, प्रयोग
में रहे, उपलब्धि
में कभी भी
नहीं आ पाए।
पर आदमी ईमानदार
हैं, क्योंकि
बहुत-से लोग
बिना उपलब्धि
के उपलब्धि की
घोषणा कर सकते
हैं। गांधी ने
वह कभी नहीं
की। इसलिए एक्सपेरिमेंट्स
विद ट्रुथ!
आत्मकथा को
नाम दिया, सत्य
के प्रयोग; सत्य का
अनुभव नहीं, सिर्फ
प्रयोग; अंधेरे
में टटोलना।
लेकिन
गांधी की
आत्मकथा
स्वाध्याय
में सहयोगी हो
सकती है।
क्योंकि वह
असत्य की
घाटियों में
चलने वाले एक
आदमी की
साहसपूर्ण स्वीकृतियां
हैं--कैसा है
मन! कैसे धोखा
दे जाता है!
कैसे-कैसे
भटकाता है!
और अगर
गांधी का मन, इतने
सिंसियर और
प्रामाणिक
आदमी का मन
इतने धोखे
देता है, तो
आपको भी अपने
धोखे देखने
में सुविधा
बनेगी। आपको
ऐसा नहीं
लगेगा कि मैं
अपने को धोखा
दे रहा हूं, तो कोई बहुत
बुरा काम कर
रहा हूं।
गांधी तक दे रहे
हैं, तो
मैं भी अपने
को दे रहा हूं,
तो जरा देख
सकता हूं आंख
खोलकर। टाल्सटाय
का अगर जीवन पढ़ेंगे, तो वह
शास्त्र है।
अगर अगस्टीन
के कन्फेशंस
पढ़ेंगे, तो
अर्थपूर्ण
है।
ईसाइयत
ने स्वाध्याय
के लिए पश्चात्ताप, प्रायश्चित्त
और कन्फेशन
की प्रक्रिया
विकसित की।
हिंदुस्तान
में ऐसी कोई
प्रक्रिया
विकसित नहीं
हुई, इसलिए
ईसाइयत के पास
कन्फेशंस
का बहुत बड़ा
भंडार है। और
गांधी भी कर
सके कन्फेस,
तो गीता
पढ़कर कभी न कर
सकते थे; ईसाइयत
के प्रभाव में
कर सके।
आज तक
पृथ्वी पर
अपराध की जो
गहरी स्वीकृतियां
हैं, वे
ईसाइयत के
प्रभाव में
फलित हुई हैं।
ईसाइयत ने
आदमी को एक
साहस दिया इस
बात का कि जो
भी है गलत, उसे
कह पाओ। इतना
साहस न तो
हिंदू जुटा
पाए, न
मुसलमान जुटा
पाए, न जैन
जुटा पाए, न
बौद्ध जुटा
पाए।
क्राइस्ट की
सबसे बड़ी देन इस
पृथ्वी पर
प्रायश्चित्त
है, जो
किया उसके
स्वीकार का
भाव, उसे कन्फेस
करने की
सामर्थ्य।
तो
ईसाई संतों के
जीवन इसमें
बड़े उपयोगी हो
सकते हैं।
सेंट थेरेसा
या जेकब बोहमे या
इकहार्ट, इनकी
जो स्वीकृतियां
हैं, वे
बड़ी
अर्थपूर्ण हो
सकती हैं।
भारत के पास
ऐसा साहित्य न
के बराबर है।
भारत के पास
दंभ का
साहित्य बहुत
है, लेकिन
पाप के
स्वीकार का
साहित्य न के
बराबर है। एक
अर्थ में
गांधी की
किताब एक बहुत
बड़ी शुरुआत
है। लेकिन
शुरुआत ही है,
उसके बाद
दूसरी किताब
भी नहीं आ
सकी। भारत का कोई
साधु अपने
पापों की
स्वीकृति
नहीं करेगा।
जरूरी
नहीं है; कि
न किए हों तो
भी स्वीकृति
करे। ऐसा नहीं
है। क्योंकि
दूसरी भूल भी
सदा हो जाती
है। ऐसी भी
किताबें हैं
ईसाइयत के पास,
और ऐसे
पापों की स्वीकृतियां
हैं, जो उन
लोगों ने कभी
किए ही नहीं!
लेकिन वही संत
बड़ा हो सकता
है, जिसने
बहुत पाप किए,
स्वीकार किया,
और आगे गया।
तो लोगों ने
झूठे पाप तक
अपनी किताबों
में लिख दिए, जो उन्होंने
कभी किए नहीं
थे।
आदमी
का मन कितने
धोखे में जा
सकता है! यानी
पुण्य का दावा
तो कर ही सकता
है, पाप का
दावा भी कर
सकता है, जो
उसने न किया
हो! आदमी की
बेईमानी की
कोई सीमा नहीं
है; आत्मवंचना का कोई अंत
नहीं है।
स्वाध्याय
में शास्त्र
सहयोगी हो
सकता है, लेकिन
शास्त्र वैसा,
जो स्वीकार
देता हो, जो
बताता हो कि
भीतर आदमी के
क्या-क्या घट
सकता है।
इसलिए कभी तो
वास्तविक
शास्त्रों से
भी ज्यादा
उपन्यास
शास्त्र का
काम कर सकते
हैं। जैसे दोस्तोवस्की
के उपन्यास, क्राइम एंड
पनिशमेंट--अपराध
और दंड, या
ब्रदर्स कर्माजोव,
बाइबिल और
गीता से भी
ज्यादा कीमती
हो सकते हैं
उस आदमी के
लिए, जो
स्वाध्याय के
पथ से चल रहा
है। टाल्सटाय
के उपन्यास, वार एंड
पीस--युद्ध और
शांति, डेथ
आफ इवान इलोविच--इलोविच की
मृत्यु; या
सार्त्र, कामू,
काफ्का
इनके
उपन्यास।
भारत
का कोई नाम
नहीं ले रहा, जानकर; क्योंकि
भारत के पास
अब भी ऐसी
उपन्यास की
संपदा नहीं
है। अब भी
नहीं है।
उपन्यास
भी, जो किसी
व्यक्ति के
गहरे प्राणों
से निकले हों,
जैसे दोस्तोवस्की
के सभी
उपन्यास, जिनमें
ब्रदर्स कर्माजोव
तो ऐसा है
जिसकी कि
इज्जत बाइबिल,
गीता और
कुरान की तरह
होनी चाहिए, जिसमें आदमी
के चित्त का
सब अंधेरा
खोलकर रख दिया
गया है; जिसमें
आदमी के भीतर
के सब गह्वर, सब खाइयां
उघाड़ दी हैं; जिसमें आदमी
के भीतर के सब
घाव की
मलहम-पट्टी तोड़
दी है; जिसमें
आदमी को पहली
दफे पूरा नग्न,
जैसा आदमी
है--वे भी
उपयोगी हो
सकते हैं। पर
उपयोगी, गौण,
सेकेंडरी;
प्राइमरी, प्राथमिक तो
स्वयं का
अध्ययन है। जो
स्वयं का अध्ययन
कर पाए, पर्याप्त
है। लेकिन
सहयोग इनसे
मिल सकता है।
ईश्वर-जप
भी कृष्ण ने
एक सूत्र
उसमें गिनाया
है। ईश्वर-जप!
इसे भी थोड़ा
समझ लेना
जरूरी है।
ईश्वर-जप
का क्या अर्थ
है स्वाध्याय
के संदर्भ में? क्योंकि
ईश्वर-जप के
बहुत अर्थ हैं,
अलग संदर्भ
में। अलग रिफरेंस
का सवाल है कि
कहां? स्वाध्याय
के संदर्भ में
ईश्वर-जप का
क्या अर्थ है?
आपसे
मैंने एक पहलू
की बात कही, आदमी अपने
अंधेरे का
साक्षात्कार
करे--अपनी
बुराई का, अपनी
बीमारी का, अपनी
रुग्णता का, भीतर के पाप,
अपराध, उन
सबका--कहें एक
शब्द में, अपने
भीतर छिपे
नर्क का। यह
आधी बात है।
अगर आदमी
सिर्फ अपने
भीतर छिपे
नर्क का ही
अनुभव करे, तो यह भी हो
सकता है कि
सेल्फ
कंडेमनेशन
में पड़ जाए, आत्मनिंदा में पड़ जाए।
यह भी हो सकता
है कि इतना
नर्क देखकर
समझे कि जीवन
व्यर्थ है, बेकार है; सब पाप है, सब नर्क है।
यह खतरा है।
पश्चिम
में यह खतरा
हो गया।
मनोविश्लेषण
ने स्वाध्याय
की प्रक्रिया
लोगों को दे
दी, लेकिन
ईश्वर-जप का
कोई खयाल नहीं
दिया। इसलिए आज
पश्चिम में
जीवन अर्थहीन
है। लोग कहते
हैं, यही
सब--पाप ही पाप
है--घृणा और
हिंसा और र्ा
है, तो
जीने का अर्थ
क्या है? न
कहीं कोई
प्रेम है, न
कहीं कोई
क्षमा है; सब
धोखा है।
प्रेम के पीछे
सेक्स दिखाई
पड़ने लगा
स्वाध्याय
से। सब प्रेम
की बातचीत
फोर-प्ले हो
गई। सब प्रेम
की बातचीत
सेक्स के लिए परसुएशन
है। सब प्रेम
की बातचीत के
पीछे वह शरीर
को भोगने की
आकांक्षा है।
प्रेम सिर्फ फसाड है, तैयारी है, इंतजाम है।
कविताएं
वगैरह सब
इंतजाम हैं।
प्रेम की सब
बातचीत सब
इंतजाम हैं।
आखिर अंत में
वह काम, वह
शरीर का शरीर
के साथ भोग, वही अंत
में।
तो
पश्चिम ने इधर
पचास वर्षों
में
आत्म-विश्लेषण
करके यह जाना
कि प्रेम है
ही नहीं, सिर्फ
काम है। इससे
खतरा हुआ।
इसका मतलब हुआ
कि प्रेम की
कोई संभावना
ही नहीं है।
इसलिए भोगो
काम को, और
जो है, सो
ठीक है! इससे
रूपांतरण
नहीं हुआ, बल्कि
आदमी का पतन
हुआ।
इसलिए
कृष्ण तत्काल जोड़ते हैं, ईश्वर-जप।
ईश्वर-जप का
मतलब है, दूसरा
पहलू भी स्मरण
रखना। प्रेम
के पीछे वासना
है, यह
हमारा तथ्य
है। लेकिन
वासना में से
भी प्रेम का
जन्म हो सकता
है, यह
हमारी
संभावना है।
ईश्वर-जप
का अर्थ है, संभावना को
याद रखना।
आदमी के भीतर ईश्वर
की संभावना
है। संभावना
को स्मरण रखना,
तथ्य को सब
मत समझ लेना।
तथ्य के भीतर
छिपा हुआ भी, अप्रकट भी
कुछ है, विराट
भी कुछ है, अर्थ
भी कुछ है, अभिप्राय
भी कुछ है।
ईश्वर-जप
का अर्थ है, स्मरण रखना
कि कितना ही
हो गहरा पाप, पुण्य का
अभाव नहीं है।
कितना ही हो
गहरा अपराध, क्षमा की
असंभावना
नहीं है।
कितना ही हो
अंधकार, न
दिखाई पड़ती हो
प्रकाश की कोई
भी किरण, तो
भी प्रकाश है।
ईश्वर-जप
का अर्थ है, अंधकार के
गहन निबिड़
भटकाव में भी
प्रकाश का
स्मरण। पाप के
मध्य भी
परमात्मा की
स्मृति।
अपराध के मध्य
भी मुक्त होने
की संभावना के
द्वार का खयाल,
रिमेंबरिंग।
ईश्वर-जप
न हो, तो अकेला
स्वाध्याय
खतरनाक भी हो
सकता है। होगा
ही, ऐसा
नहीं; हो
सकता है।
ईश्वर-जप आशा
है। अकेला
स्वाध्याय
निराशा बन
सकता है।
ईश्वर-जप आशा
है। और आशा अगर
बिलकुल न हो
खयाल में, तो
निराशा
आत्मघाती, स्युसाइडल
हो जाती है।
इसलिए
पश्चिम में
आत्महत्या
बढ़ी है। विगत
पचास वर्षों
में जैसे-जैसे
मनोविश्लेषण
बढ़ा, वैसे-वैसे
आत्महत्या
बढ़ी है। और
जैसे-जैसे आत्मविश्लेषण
आदमी ने किया,
वैसे-वैसे
हत्या की ओर
उन्मुख हुआ।
क्योंकि पाया
कि सिवाय नर्क
के कोई स्वर्ग
नहीं है। नर्क
ही बस सब है, कहीं कोई
स्वर्ग नहीं
है। फिर जीने
की क्या जरूरत
है?
बीज
कुरूप सिद्ध
हो और वृक्ष
का हमें कोई
पता न हो; बीज
बेहूदा मालूम
पड़े और भीतर
छिपे अंकुर के
सौंदर्य की
हमें कोई
स्मृति न हो; बीज फेंक
देने जैसा
मालूम पड़े और
बीज में छिपे
हुए अनंत फूल
जो आकाश में खिल
सकते हैं, सूरज
की रोशनी में
नाच सकते हैं,
सुवास से भर
सकते हैं दिगदिगंत
को, उनका
हमें कोई पता
न हो--तो अकेला
स्वाध्याय खतरनाक
हो सकता है।
इसलिए
कृष्ण ने
तत्काल, जैसे
ही कहा
स्वाध्याय
वैसे ही कहा
ईश्वर-जप। ईश्वर-जप
पुराने दिन की
भाषा है। उसे
समझने के लिए
मैंने...ईश्वर-जप
पुराने दिन की
भाषा है। आज की
भाषा में कहना
हो, तो
कहना होगा, मनुष्य की
संभावनाओं का
स्मरण।
आदमी
ईश्वर हो सकता
है, है नहीं।
है तो आदमी
बिलकुल ही
राक्षस; हो
सकता है
ईश्वर। है तो
आदमी बिलकुल
दानव; हो
सकता है देव।
तो जो है, अगर
वही दिखाई पड़े,
तो खतरनाक
हो सकता है।
जो हो सकता है,
उसकी
स्मृति की
किरण भी
अंधकार में
उतरती रहे--स्मृति
की किरण। जप
का अर्थ है, स्मरण।
जप का
क्या अर्थ
होता है? एक
ही बात को
बार-बार
दोहराना।
अंधेरा है
बहुत, प्रकाश
कहीं दिखाई
नहीं पड़ता; बार-बार भूल
जाता है कि
प्रकाश हो सकता
है। उसे
बार-बार स्मरण
रखना कि
प्रकाश हो सकता
है। नहीं तो
अंधेरे में
डूब जाने का
डर है। और अगर
अंधेरा ही है,
तो पैरों के
रुक जाने का
भय है कि वे
जवाब दे दें
कि बढ़ने से
फायदा क्या? कहीं भी जाओ,
अंधेरा है।
कहीं भी पहुंचो,
अंधेरा है।
कहीं कोई
मंजिल नहीं प्रकाश
की।
ईश्वर-जप
का अर्थ है, रिमेंबरेंस। उसकी
स्मृति, जो
हो सकता है, जो छिपा है
और प्रकट नहीं
है, लेकिन
प्रकट हो सकता
है। लेकिन
पुराने दिन में
ईश्वर-जप कहना
काफी था।
एक
आदमी सुबह
उठता, सुबह
नींद टूटती और
पहला शब्द
होता, राम।
आ रहा है दिन
सामने, जहां
राम से मिलने
की कम संभावना
है, रावण
से ही मिलने
की संभावना
है। ऊग रहा है
दिन, जहां
अयोध्या नहीं
होगी, लंका
ही होगी। हो
रही है सुबह, आदमी का
जगत--जाल का, जंजाल का, प्रपंच का
शुरू होगा।
लेकिन आदमी
सुबह उठकर पहली
बात स्मरण
करेगा, राम।
वह यह कह रहा
है, है सब
बुरा, लेकिन
शुरुआत मैं
स्मरण से करता
हूं शुभ की।
सांझ
लौटा है
थका-मांदा...दिन
में भी, राह
चलते भी हमने
नमस्कार की जो
विधि बनाई थी,
उसे
ईश्वर-जप से
जोड़ दिया था।
दुनिया में
उतनी गहरी
विधि कहीं भी
नहीं है। अगर
पश्चिम में दो
आदमी मिलते
हैं और कहते
हैं, गुड माघनग, सुबह
अच्छी है; यह
साधारण लौकिक
वक्तव्य है।
उससे कहीं कोई
संभावना का
द्वार नहीं
खुलता। इस
मुल्क में, इस जमीन के
टुकड़े पर, दो
आदमी मिलते
हैं, तो
कहते हैं, राम-राम!
जो आदमी सामने
है, राम
नहीं है; रावण
होने की
संभावना
ज्यादा है।
लेकिन स्मरण
राम का है।
स्मरण संभावना
का ही है।
गुड माघनग
बहुत सेकुलर
है; उसमें
कोई बहुत
गहराई नहीं
है। बहुत
साधारण है, सुबह सुंदर
है। लेकिन जब
दो आदमी हाथ जोड़ते हैं
एक-दूसरे को
और कहते हैं, राम! तो वे
दूसरे की
संभावनाओं को
हाथ जोड़ते
हैं। वे दूसरे
में राम को
देखने की
आकांक्षा प्रकट
करते हैं। हाथ
जोड़ते
हैं, सामने
खड़े आदमी के
लिए नहीं, भीतर
छिपे राम के
लिए।
दिन
में जब भी, तो अपरिचित
को भी राम।
अपरिचित को
गुड माघनग
कोई करता
नहीं। अभी भी
गांवों में, ग्रामीण
हिस्से से गुजरें,
तो जो नहीं
जानते, वे
भी राम-राम
करते हुए गुजर
जाएंगे। एक
मौका मिला, एक चेतना
पास आई, उसको
क्यों न
ईश्वर-जप बना
लिया जाए! एक
अवसर मिला, सामने छिपा
हुआ राम आया, क्यों न उसे
याद कर लिया
जाए--खुद भी, और उसे भी
याद दिला दी
जाए!
सांझ
थका-मांदा
आदमी लौटा है दिनभर के
उपद्रव से।
रात सोता है, तब फिर, राम।
माना कि दिनभर
सब उपद्रव था,
धूल थी, अंधेरा
था, गंदगी
थी, कुरूपता
थी; माना
कि यथार्थ यही
है, लेकिन
यथार्थ यह
होना नहीं
चाहिए। सुबह
भी शुरुआत
उससे, दिन
भी स्मरण उसका,
रात भी याद
उसकी। आखिरी
क्षण, सोते
समय, नींद
में उतरते समय
भी--राम।
और
ध्यान रहे, आखिरी क्षण
नींद के द्वार
पर जब आदमी
खड़ा होता है, जागरण बंद
होता और नींद
शुरू होती, तब जो
ईश्वर-जप है, वह बहुत
गहरा है।
क्योंकि उस
समय चेतना गेयर
बदलती है, उस
समय कांशसनेस गेयर
बदलती है, एक
गेयर से
बिलकुल दूसरे गेयर में
जाती है, एक
जगत से बिलकुल
दूसरे जगत में
प्रवेश करती है।
बंद हुई वह
दुनिया जो
दुनिया थी; बंद हुए वे
द्वार जो
दूसरों से
जुड़े थे। अब
अपने से जुड़ने
का द्वार
खुलता है, गहन
निद्रा का, जहां
प्रकृति की
गोद में हम
वहीं पहुंच
जाएंगे, जहां
मूल स्रोत है।
अब राम को
स्मरण करते
हुए कोई सो
गया।
सोते-सोते, सोते-सोते
स्मृति है
ईश्वर की। वह
गहरी भीतर
बैठती चली
जाती है, अंतराल
में उतरती चली
जाती है। नींद
के साथ ही, नींद
की गहराई के
साथ ही एसोसिएट
हो जाती है।
ला आफ
एसोसिएशन का
उपयोग है। संयोग
जोड़ देते हैं
हम।
पावलव
ने बहुत से
प्रयोग किए।
एक प्रयोग पावलव
का सारी
दुनिया में
प्रसिद्ध है
बच्चे भी जानते
हैं। एक
कुत्ते को वह
खाना खिलाता
है, साथ में
घंटी बजाता
है। पंद्रह
दिन तक रोटी
दी जाती। रोटी
सामने आती; कुत्ते की
लार टपकती; पावलव घंटी
बजाता। फिर
सोलहवें दिन
रोटी नहीं आती;
पावलव घंटी बजाता;
कुत्ते के
मुंह से लार
टपकती। अब
घंटी से लार टपकने
का कोई
नैसर्गिक संबंध
नहीं है। घंटी
से कहीं लार
टपकती है किसी
की? और
कुत्ते को तो
धोखे में
डालना
मुश्किल है। घंटी
से क्या
लेना-देना?
लेकिन
पंद्रह दिन तक
जब भी रोटी
सामने आई, घंटी बजी; घंटी और
रोटी साथ-साथ
जुड़ गईं। घंटी
और रोटी दो
चीजें न रहीं,
एक चीज हो
गईं। अब आज
सिर्फ घंटी
बजी, तो
रोटी का स्मरण
आ गया; लार
टपकने लगी!
कुत्ते का
शरीर भी
प्रभावित हो
गया, एसोसिएशन
से।
हम भी
ऐसे ही जीते
हैं। सोते समय
राम का स्मरण नींद
की गहराई से
प्रभु के
स्मरण को जोड़ने
का प्रयोग है।
नींद हमारे
भीतर गहरी से
गहरी चीज है।
अगर उससे
प्रभु का
स्मरण जुड़ जाए, तो प्रभु भी
हमारी गहरी से
गहरी चीज हो
जाता है।
दूसरी
बात, रात
आखिरी समय जो
हमारा अंतिम
विचार होता है
सोने के पहले,
वही हमारा
सुबह नींद के
टूटने के बाद
पहला विचार
होता है। रात
का अंतिम
विचार, सुबह
का पहला विचार
है। क्यों? क्योंकि
नींद में जो
विचार प्रवेश
कर जाता है, उसकी तरंगें
रातभर चेतना
में डोलती
रहती हैं।
रातभर डोलती
रहती हैं।
जैसे फेंक
दिया एक कंकड़
झील में; लहरें
उठीं और चल
पड़ीं। ऐसे ही
नींद के पहले
क्षण में जो
विचार आपके
अंतस्तल में
उतर जाता है, वह रातभर
डोलता रहता
है।
अगर आप
आठ घंटे सोए
और राम का नाम
आठ घंटे भीतर
सूक्ष्म
तरंगें लेता
रहा, लेगा, तभी
सुबह पहली
तरंग बनेगा, नहीं तो
नहीं बनेगा।
और बन जाता
है। सुबह पहला
स्मरण श्वास
के साथ, पहली
श्वास के साथ,
पहले होश के
साथ, पहले
जागरण के साथ
राम वापस
लौटा। रातभर
जो प्रभु-स्मरण
में डूबा रहा,
संभावना बढ़ती
है कि उसका
दिन भी
प्रभु-स्मरण
का दिन बनेगा।
इसलिए
कृष्ण ने कहा, ईश्वर-जप।
वैज्ञानिक
है। लेकिन मेकेनिकल
जिसने कर लिया
ईश्वर-जप, उसका बेकार
हो जाता है।
एक आदमी जल्दी
से स्नान किया
है। घंटी बजा
रहा है।
राम-राम किया।
भागा, दफ्तर
गया। निपटाया
एक काम। काम निपटाने
से राम का कभी
संबंध नहीं जुड़ता।
काम नहीं, प्रेम;
तो फिर गहरा
उतर जाता है।
हम काम
की तरह करते
हैं, इसलिए जिंदगीभर
जप करते रहते
हैं, कुछ
भी हाथ नहीं
आता। आएगा भी
नहीं। हजार
जिंदगी करते
रहो, कुछ न
आएगा हाथ।
नहीं; प्राणों
की गहराई में
भाव से बिठाने
की बात है।
बैठ जाए
प्राणों की
गहराई में, तो
रोआं-रोआं
उससे ही कंपित
हो जाता है।
फिर
स्वाध्याय, स्वयं के
गलत को जानना;
और ईश्वर-जप,
स्वयं के
शुभ को स्मरण
रखना; दोनों
के तालमेल से
जो यज्ञ फलित
होता है, उसका
नाम
स्वाध्याय-यज्ञ
है।
अब तो
शाम ही लेंगे।
अभी सुबह दस
मिनट के लिए
हम ईश्वर-जप
में लगें।
रोएं-रोएं में
उसको डोलने
दें।
स्टेज
पर कोई न आए
देखने के लिए।
आप वहीं खड़े रहें, और थोड़ा
फासला ज्यादा
रखें। जो लोग
पहली कतार में
हैं, वे
हाथ बांध लें,
ताकि पीछे
के लोग आगे न
आएं। और जिनको
भी सम्मिलित
होना हो, वे
बीच में आ
जाएं।
संन्यासियों
के साथ नाचें।
हो सकता है, उनकी तरंग
आपको भी पकड़
जाए।
आज इतना ही
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