सूत्र:
णवि होदि अप्पमत्तो,
ण पमत्तो
जाणओ दु जो
भावो।
एवं
भणंति सुद्धं,
णाओ जो सो
उ सो चेव।।
48।।
णाहं देहो ण मणो,
ण चेव वाणी
ण कारणं तेसि।
कत्ता ण
ण कारयिदा,
अणुमंता णेव कत्तीणं।।
49।।
को
णाम भणिज्ज
बुहो णाउं
णाउं सव्वे
सव्वे पराइए भावे।
मज्झमिणं ति
य वयणं,
जाणंतो अप्पयं सुद्धं।। 50।।
अहमिक्को खलु
सुद्धो,
णिम्ममओ
णाणदं सणसमग्गो।
तम्हि ठिओ तच्चित्तो,
सव्वे एए खयं
णेमि।। 51।।
जन्म
और मृत्यु के
बीच में
ज्यादा समय
नहीं है--अत्यल्प
काल है। उसे
सोये-सोये मत
बिता देना।
क्योंकि जो
उसे सोये-सोये
बिता देता है, वह जान ही
नहीं पाता कि
कौन था, क्यों
आया था; जीवन
के सारे
रहस्यों से
अपरिचित रह
जाता है। और
प्राणों में
सिवाय आंसुओं
के, अतृप्त
आकांक्षाओं
के, असंतोष
के, विषाद
के, कुछ भी
लेकर न जा
सकोगे।
जागा
हुआ ही भरता
है; सोया हुआ
खाली रह जाता
है। और जीवन
इतना छोटा है
कि अगर उद्दाम
वेग से, अगर
महत संकल्प से,
अगर सारे
जीवन को दांव
पर लगा देने
की आकांक्षा
के बिना, जागना
चाहा तो जाग न
पाओगे।
बहुत
तो ऐसे भी हैं
जो सोये-सोये
ही जागने का सपना
देख लेते हैं
और समझा लेते
हैं कि जाग
गये। सौ में
से निन्यानबे
साधु-संन्यासी
जागने का सपना
देख रहे हैं, जागे नहीं।
क्योंकि
जागने की जो
प्रक्रिया है
और उस प्रक्रिया
के लिए जितने
जोर से जीवन
को दांव पर लगा
देने की जरूरत
है, वैसा
साहस उनमें
दिखाई नहीं
पड़ता। अकसर तो
ऐसा होता है
कि साधु और
संन्यासी
भयभीत लोग
होते हैं।
साहस के कारण
संन्यासी
नहीं होते हैं;
संसार के भय
के कारण
संन्यासी हो
जाते हैं। और
संन्यास का भय
से क्या संबंध
हो सकता है?
इसके
पहले कि हम
सूत्रों में
प्रवेश करें, इस बात को
खयाल में ले
लेना:
दुस्साहस
चाहिए। ऐसा
साहस--जो सब
दांव पर लगा
देने को तैयार
हो! जोखिम
उठाने की
हिम्मत
चाहिए। जुआरी
का दिल चाहिए।
होशियारी से न
चल सकोगे इस
रास्ते पर।
होशियार भटक
जाते हैं।
ज्यादा
समझदारी
अंततः नासमझी
सिद्ध होती है;
क्योंकि
समझदार
रत्ती-रत्ती
का हिसाब रखता
है।
रत्ती-रत्ती
तो बचा लेता
है; लेकिन
जीवन का सारा
खजाना खो जाता
है। बूंद-बूंद
बचा लेता है, सागर गंवा
देता है। कंकड़-पत्थर
जुटाने में ही
समय व्यतीत हो
जाता है और
सांझ आने में
देर नहीं
लगती। सुबह हो
गई तो सांझ होने
लगी। सूरज ऊगा
नहीं कि डूबना
शुरू हो जाता है;
पूरब से उठा
नहीं कि
पश्चिम की तरफ
यात्रा शुरू
हो गई।
इसके
पहले कि सूरज
डूब जाये, इसके पहले
कि अंधेरा
तुम्हें पकड़
ले और खुद को
खोजना
मुश्किल हो
जाये--और ऐसा
बहुत बार हो
चुका
है--इसलिए
तुम्हें चेता
देना जरूरी है।
अनेक-अनेक बार
तुमने सूरज
देखा है, सुबह
देखी है।
और
तुम्हारे
जीवन की कथा
पूरी भी नहीं
हो पाती। कब
किसकी होती है?
जमाना
बड़े शौक से
सुन रहा था
हमीं सो
गये दासतां
कहते-कहते
कभी
पूरी भी नहीं
होती दासतां।
सभी बीच में
ही मर जाते
हैं। क्योंकि आकांक्षाएं
अनंत हैं और
समय सीमित है।
जीवन की
प्याली में
इतनी आकांक्षाएं
भरी नहीं जा
सकतीं।
तो अगर
खाली हाथ जाना
हो तो
सांसारिक का
जीवन है। अगर
भरे हाथ जाना
हो तो धार्मिक
का जीवन है।
लेकिन धर्म का
प्रारंभ साहस
से होता है।
दुनिया
में दो तरह के
धार्मिक
व्यक्ति हैं।
एक--जो भय के
कारण धार्मिक
हैं। चोरी
नहीं कर सकते, भय के कारण; इसलिए अचोर
हैं। बेईमानी
नहीं कर सकते,
पकड़े जाने के भय
के कारण; इसलिए
ईमानदार हैं।
यह ईमानदारी
कोई बहुत गहरी
नहीं हो सकती।
इस ईमानदारी
में बेईमानी
छिपी है। यह
ईमानदारी
ऊपर-ऊपर है; भीतर
बेईमानी वास
बनाए है। झूठ
नहीं बोलते, क्योंकि पकड़े
न जायें।
अधर्म नहीं
करते, क्योंकि
पाप का भय है, नर्क का भय
है। नर्क की
लपटें दिखाई
पड़ती हैं। और
हाथ-पैर उनके
शिथिल हो जाते
हैं।
दुनिया
में अधिक लोग
धार्मिक
हैं--भय के
कारण; दंड
के कारण।
लेकिन जो भय
के कारण
धार्मिक हैं,
वे तो
धार्मिक हो ही
नहीं सकते।
उससे तो अधार्मिक
बेहतर; कम
से कम भयभीत
तो नहीं है।
महावीर
ने अभय को
धर्म की मूल
भित्ति कहा
है। और है भी
अभय धर्म कि
मूल भित्ति।
क्योंकि संसार
को तो गंवाना
है और कुछ ऐसी
खोज करनी है
जिसका हमें
अभी पता भी
नहीं। यह साहस
के बिना कैसे
होगा? जो
सामने दिखाई
पड़ता है उसे
तो छोड़ना है
और जो कभी
दिखाई नहीं
पड़ता, सदा
अदृश्य है, अदृश्यों की
गहरी पर्तों
में छिपा है, रहस्यों की
पर्तों में
छिपा है--उसे
खोजना है।
समझदार
कहता है, हाथ
की आधी भी
भली। दूर की
पूरी रोटी से
हाथ की आधी
रोटी भली! तो
समझदार तो
कहता है, जो
है उसे भोग
लो। चाहे
उसमें कुछ भी
न हो; लेकिन
इसे दांव पर
मत लगाओ, क्योंकि
कौन जानता है,
जिसके लिए
तुम दांव पर
लगा रहे हो वह
है भी या नहीं!
जिस सत्य की, जिस आत्मा
की, जिस
परमात्मा की
खोज पर निकलते
हो--किसने
देखा? इसलिए
चार्वाक कहते
हैं, "ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत।'
पी लो घी ऋण
लेकर
भी--सामने तो
है! किस
स्वर्ग के लिए
छोड़ते हो? ऋण
न भी चुके तो
फिक्र मत करो।
लेकिन जो
सामने है, उसे
भोग लो।
धर्म
का पहला कदम
तब उठता है, जब तुम
देखते हो जो
सामने है वह
भोगने योग्य ही
नहीं। भोगा तो,
न भोगा
तो--सब बराबर
है। इसे भोग
भी लिया तो
क्या भोगा? इसे पाकर भी
क्या मिलेगा?
हां, इसे
पाने में, इसे
भोगने में जो
समय गया वह
जीवन की संपदा
गई।
महावीर
ने तो आत्मा
को नाम "समय' दिया है।
बड़ी महत्वपूर्ण
बात है।
महावीर आत्मा
को कहते हैं:
"समय'। समय
को गंवाते हो
तो आत्मा को
गंवाते हो। समय
को सम्हाल
लिया तो आत्मा
को सम्हाल
लिया। जैसे
वस्तुएं
स्थान घेरती
हैं, वैसे
आत्मा समय
घेरती है।
जैसे वस्तुएं
बाहर घटती
हैं--क्षेत्र
में, वैसे
आत्मा भीतर
घटती है--समय में।
आइंस्टीन
शायद महावीर
से राजी होता; क्योंकि
उसने भी पाया
कि जीवन को
बनानेवाले दो
ही तत्व हैं:
टाइम और स्पेस,
समय और
क्षेत्र।
क्षेत्र
से वस्तुएं
बनती हैं, यह साफ है।
मनुष्य की
चेतना कहां है?
क्षेत्र
में तो कहीं
नहीं बता
सकते। उंगली
से इशारा हो
सके, नहीं बता
सकते। जहां भी
हाथ रखोगे
वहीं गलती हो
जायेगी। आदमी
की आत्मा कहीं
समय में है।
शरीर क्षेत्र
में है, आत्मा
समय में है।
वस्तुएं
क्षेत्र में
हैं, घटनाएं
समय में हैं।
अगर तुम्हारा
किसी से प्रेम
हो जाये और
कोई पूछे कहां
है प्रेम, तो
तुम क्या
कहोगे? तुम
कहोगे, प्रेम
घटना है, वस्तु
नहीं। जब तुम
कहते हो, प्रेम
घटना है, तो
तुम यह कह रहे
हो कि समय में
है, स्थान
में नहीं।
इसलिए हम यह न
बता सकेंगे, कहां है। हम
इतना ही कह
सकते हैं, कब
घटा। "कहां' से कोई
संबंध भी नहीं
है--कब, किस
घड़ी में, किस
मुहूर्त में!
समय को
गंवा सकते हैं
हम क्षुद्र को
इकट्ठा करने
में। क्षुद्र
सामने है और
जो विराट है
वह छिपा है।
इस क्षुद्र को
इकट्ठा
कर-करके भी तो
कुछ पाया नहीं
जाता। इसलिए
महावीर कहते
हैं, इसे दांव
पर लगा दो। यह
कचरा ही है; इसको दांव
पर लगाने में
कुछ खो नहीं
रहे हो। और जो
समय बच जायेगा,
जो शुद्ध
समय बच जायेगा,
जिसको
तुमने संसार
में नहीं
गंवाया, वही
शुद्ध समय
ध्यान बनता
है।
संसार
में न गंवाया
गया समय ध्यान
है। संसार की व्यस्तताओं
में कलुषित न
किया गया समय
ध्यान है।
इसलिए
महावीर के लिए
ध्यान के लिए
जो शब्द है वह
है: "सामायिक'।
वह "समय' से
बना है।
महावीर
बड़े
वैज्ञानिक
हैं, उनकी
शब्दावली
में।
जो समय
संसार में
नहीं लगा है, वही
"सामायिक'।
महावीर
के पास
परमात्मा तो
है नहीं कि कह
दें कि
परमात्मा में
जो समय लगा है, वह ध्यान।
नहीं, जो
संसार में
नहीं लगा, जो
संसार से
अछूता बच गया
है, जिसे
संसार दूषित
नहीं कर पाया,
जिस समय को
संसार की कोई
छाया नहीं पड़ी,
कुंआरा
है--वही
सामायिक।
जिसने
समय को न
बचाया और
जिसने समय की
शुद्धता न
जानी, जो
सामायिक में न
जीया--वह आया
भी वसंत में
और पतझड़
में रहा। जीवन
का प्रसाद
बरसता था, लेकिन
उसका पात्र
उलटा पड़ा रहा।
जीवन की
अमृत-सरिता
बहती थी, वह
किनारे पर ही
पीठ किए खड़ा
रहा--कहीं और
देखता रहा और
प्यासा रहा, और कंठ जलता
रहा।
जिसमें
तुम आज अपने
को लगाये हो, आज नहीं कल
तुम पाओगे
व्यर्थ है। जो
जितनी जल्दी
पा ले, उतना
बोध, उतनी
बुद्धि, उतनी
समझ उसमें है।
कुछ हैं जो
मरते दम तक नहीं
पाते--मरकर भी
नहीं पाते!
कुछ हैं जो बुढ़ापा
आते-आते थोड़े
चेतते हैं।
इधर शरीर डगमगाने
लगता है तो
उधर आत्मा
थोड़ी सम्हलती
है। इधर रोग पकड़ने
लगते हैं, बीमारियां
घर करने लगती
हैं, चोट
पड़ती है। कुछ
खयाल आता है:
कैसे जिंदगी
गंवा दी!
लेकिन जो और
समझदार हैं, वे भरी
जवानी में जाग
जाते हैं। जब
कि सब तरफ
लुभावना जगत
था और सब तरफ
आकर्षण थे, उनको भी वह
गहरी आंख से
देख लेते हैं
और उनके पीछे
भी पाते हैं:
कुछ नहीं, सिवाय
मन के भ्रमों
के; अपनी
ही कल्पनाओं,
अपने ही
सपनों का जाल
है; अपने
ही प्रक्षेपण
हैं। भरी
जवानी में भी
जाग जाते हैं!
जो और भी प्रगाढ़
हैं, वह
बचपन में ही
जाग जाते हैं।
कहते
हैं, लाओत्सु
पैदा ही हुआ
जागा हुआ। हुआ
होगा; क्योंकि
उससे उलटा तो
हम देखते ही
हैं, लोग
मर ही जाते
हैं
सोये-सोये।
अगर जिंदगीभर
लोग सोये-सोये
मर सकते हैं, यह घटना घट
सकती है, एक
अति पर, तो
दूसरी अति पर
यह भी घट सकता
है कि कोई
पैदा होते से
ही जाग जाये; किसी को
सुबह के सूरज
में ही सांझ
दिख जाये; इधर
दीया जला कि
बुझने का खयाल
आ जाये। जितनी
तीव्र मेधा
होती है, उतनी
धार्मिक होती
है।
आज
वे मेरे गान
कहां हैं?
टूट
गई मरकत की
प्याली
लुप्त
हुई मदिरा की लाली
मेरा
व्याकुल मन बहलानेवाले
अब
सामान कहां
हैं?
अब
वे मेरे गान
कहां हैं?
जगती
के नीरस मरुथल
पर
हंसता
था मैं जिनके
बल पर
चिर
वसंत-सेवित
सपनों के
मेरे
वे उद्यान
कहां हैं?
अब
वे मेरे गान
कहां हैं?
ऐसा
कहीं तब न पता
चले जब करने
को कोई शक्ति
हाथ में न रह
जाये! पता तो
सभी को चलता
है। एक न एक
दिन वे सब गीत
जो गुनगुना-गुनगुनाकर
मन को समझाया
था, वे सब
व्यर्थ सिद्ध
होते हैं।
पानी पर खींची
गई लकीरें, कि रेत पर
किये गये
हस्ताक्षर, कि तुम बना
भी नहीं पाते
कि पुंछ जाते
हैं और मिट
जाते हैं! कि
कागज की नावें
कि तुमने छोड़ी
नहीं कि डूब
जाती हैं! कि
ताश के पत्तों
के घर कि हवा
का जरा-सा
झोंका, और
फिर उनकी कोई
खोज-खबर नहीं
मिलती!
आज
वे मेरे गान
कहां हैं?
टूट
गई मरकत की
प्याली
लुप्त
हुई मदिरा की
लाली
मेरा
व्याकुल मन बहलानेवाले
अब
सामान कहां
हैं?
अब
वे मेरे गान
कहां हैं?
लेकिन यह
उस दिन याद न
आये, जब आंखों
में देखने की
शक्ति भी न
बचे, प्राणों
में जागने की
ऊर्जा भी न
बचे! यह उस दिन
याद न आये
जबकि पैर खड़े
होने में
असमर्थ हो जायें।
यह अभी याद आ
जाये तो कुछ
हो सकता है।
महावीर
कहते हैं, जगत का
अनुभव तीन
खंडों में
तोड़ा जा सकता
है। जो वस्तुएं
दिखाई पड़ती
हैं, वे
हैं ज्ञेय, "द नोन'।
जिन्हें हम
जानते हैं, वे हमसे
सबसे ज्यादा
दूर हैं। जो
आदमी धन के पीछे
पड़ा है वह
ज्ञेय के पीछे
पड़ा है, स्थूल
के पीछे पड़ा
है। आब्जेक्टिव,
संसार उसके
लिए सब कुछ
है। धन इकट्ठा
करेगा, पद
इकट्ठा करेगा,
मकान
बनायेगा--लेकिन
वस्तुओं पर
उसका आग्रह
होगा। उससे
थोड़ा जो भीतर
की तरफ आता है,
वह ज्ञेय को
नहीं पकड़ता,
ज्ञान को पकड़ता है।
वहां वृक्ष
है। तुम
वृक्षों को
देख रहे हो।
वृक्ष ज्ञान
की आखिरी
परिधि
हैं--ज्ञेय।
फिर थोड़ा इधर
को चलो तो
वृक्षों और
तुम्हारे बीच
एक बड़ी
महत्वपूर्ण
घटना घट रही
है--ज्ञान।
वृक्ष दिखाई
पड़ रहे हैं, हरे हैं, सुंदर
हैं, प्रीतिकर
हैं। उनकी
सुगंध
तुम्हारी
नासापुटों को
भर रही है। ताजीत्ताजी
भूमि से सुवास
आ रही है। फूल
खिले हैं।
पक्षियों के
गीत हैं।
तुम्हारे और
उनके बीच एक
सेतु फैला है,
एक तंतु-जाल
फैला है। उस
तंतु-जाल को
हम कहते हैं
ज्ञान। आंख न
होंगी तो तुम
हरियाली न देख
सकोगे। तो
हरियाली सिर्फ
वृक्षों में
नहीं है--आंख
के बिना हो ही
नहीं सकती। तो
हरियाली तो
वृक्ष और आंख
के बीच घटती
है।
वैज्ञानिक भी
अब इस बात से
राजी हैं। जब
कोई
देखनेवाला
नहीं होता तो
तुम यह मत
सोचना कि
तुम्हारे बगीचे
के वृक्ष हरे
रहते हैं। जब
कोई
देखनेवाला
नहीं रहता तो
हरे हो ही
नहीं सकते।
क्योंकि
हरापन वृक्ष
का गुण-धर्म
नहीं
है--हरापन
वृक्ष और आंख
के बीच का
नाता है। बिना
आंख के वृक्ष
हरे नहीं
होते--हो नहीं
सकते। कोई
उपाय नहीं है।
जब आंख ही नहीं
है तो हरापन
प्रगट ही नहीं
होगा। वृक्ष
होंगे--रंगहीन।
गुलाब का फूल
गुलाबी न
होगा। गुलाब
का फूल और तुम
जब मिलते हो, तब गुलाबी
होता है।
"गुलाबी' तुम्हारे
और गुलाब के
फूल के बीच का
संबंध है।
तो
दूसरा जगत है:
ज्ञान। कुछ
लोग हैं जो
वस्तुओं के
पीछे पड़े हैं, फूलों के
पीछे पड़े हैं।
उनसे कुछ जो
ज्यादा समझदार
हैं, वे
फिर ज्ञान की
खोज में लगते
हैं।
वैज्ञानिक हैं,
दार्शनिक
हैं, कवि
हैं, मनीषी
हैं, विचारक
हैं, चिंतक
हैं--वे ज्ञान
की पकड़ में
लगे हैं। वे
ज्ञान को
बढ़ाते हैं।
महावीर
कहते हैं, यह भी थोड़ा
बाहर है। इसके
भीतर छिपा है
तुम्हारा ज्ञायक
स्वरूप, ज्ञाता।
ये तीन त्रिभंगियां
हैं--ज्ञाता, ज्ञेय, ज्ञान।
जो परम रहस्य
के खोजी हैं, वे ज्ञान की
भी फिक्र नहीं
करते, वे
तो उसकी फिक्र
करते हैं: "यह
जाननेवाला
कौन है!' जो
सबसे दूर हैं
ज्ञान की
यात्रा पर, वे फिक्र
करते हैं: "यह
जानी
जानेवाली चीज
क्या है!' जो
परम रहस्य के
खोजी हैं, वह
फिक्र करते
हैं: यह
जाननेवाला
कौन है! यह मैं
कौन हूं, जो
जान रहा है, जिसके लिए
वृक्ष हरे हैं,
जिसके लिए
गुलाबी फूल
गुलाबी हैं; जिसके लिए चांदत्तारे
सुंदर हैं! यह
मैं कौन हूं!
इन
दोनों के बीच
में दार्शनिक
है, वैज्ञानिक
है, चिंतक
है। महावीर की
सारी खोज उस
ज्ञाता-स्वरूप
की खोज है; "यह
जाननेवाला
कौन है!' क्योंकि
महावीर कहते
हैं, अगर
जाननेवाले को
ही न जाना तो
और जानकर
करोगे क्या? अपने को ही न
पहचाना तो और
पहचान किस काम
में आयेगी? अपने से ही
बिना परिचित
हुए चल पड़े, तो कितनों
से परिचय
बनाया, उसका
क्या सार होगा?
दूसरों से
परिचित होने
में ही मत
गंवा देना जीवन
को। परिचय की
प्रक्रिया को
समझने में ही
मत गंवा देना
जीवन को। यह
कौन है
तुम्हारे
भीतर, जिसके
माध्यम से
ज्ञान घटता है,
जिसके
माध्यम से
ज्ञेय से
संबंध बनता है?
यह
ज्ञाता-भाव!
यह चैतन्य! यह
होश! यह बोध!
इसकी खोज ही
धर्म है।
पहला
सूत्र:
णवि होदि अप्पमत्तो, ण पमत्तो
जाणओ दु
जो भावो।
एवं
भणंति सुद्धं, णाओ
जो सो उ सो चेव।।
"आत्मा
ज्ञायक
है। आत्मा
जाननेवाला
है। आत्मा
ज्ञाता है, द्रष्टा है।
जो ज्ञायक
है, वह न
अप्रमत्त होता
है, न
प्रमत्त। जो
अप्रमत्त और
प्रमत्त नहीं
होता, वही
शुद्ध है।
आत्मा ज्ञायक-रूप
में ही ज्ञात
है और वह
शुद्ध अर्थ
में ज्ञायक
ही है। उसमें ज्ञेयकृत
अशुद्धता
नहीं है।'
यह बड़ा
बारीक
सूक्ष्म
सूत्र है!
समझने की चेष्टा
करना।
क्योंकि
महावीर के
अंतस्तल के
बहुत करीब है।
यही उनकी
भित्ति है, जिस पर सारी
जैन-साधना का
मंदिर खड़ा है।
आत्मा ज्ञायक
है--यह तो पहली
बात, यह पहली उदघोषणा, यह पहला
वक्तव्य कि
आत्मा ज्ञेय
नहीं है, वस्तु
नहीं है: जान
सको, ऐसी
नहीं है।
क्योंकि जिसे
भी हम जान
लेते हैं, उसका
ही रहस्य खो
जाता है। इसलिए
आत्मा कभी
विज्ञान का
विषय बन सकेगी,
इसकी
संभावना नहीं
है। विज्ञान
लाख उपाय करे,
वह जो भी
जानेगा वह
आत्मा नहीं
होगी।
क्योंकि आत्मा
तो आत्यंतिक
रूप से जाननेवाली
है; जानी
नहीं जा सकती।
उसे हम अपने
सामने रख नहीं
सकते। जिसके
सामने हम सब
रखते हैं, वही
आत्मा है। तो
आत्मा को
स्वयं तो हम
कभी अपने
सामने न रख
सकेंगे।
अगर
महावीर की बात
ठीक समझो तो
महावीर यह कह
रहे हैं:
"आत्मज्ञान' शब्द ठीक
नहीं है।
वस्तुओं का
ज्ञान हो सकता
है, पर का
ज्ञान हो सकता
है, आत्मज्ञान
कैसे होगा? आत्मज्ञान
का तो मतलब
हुआ कि तुमने
आत्मा को भी
दो हिस्सों
में तोड़
लिया--जाननेवाला
और जाना
जानेवाला। तो
महावीर कहते
हैं जो
जाननेवाला है,
वही आत्मा
है; जो
जाना जा रहा
है वह तो
आत्मा नहीं
है।
हम
अपने शरीर को
जानते हैं।
पैर में चोट
लग गई, दर्द
हुआ, तो
महावीर कहते
हैं, चूंकि
तुम जानते हो
कि पैर में
दर्द हुआ, इसलिए
एक बात तो
निश्चित हो गई
कि तुम यह
दर्द नहीं, तुम यह पैर
नहीं।
क्योंकि
जाननेवाला
हमेशा पार है;
अतिक्रमण
कर जाता है; ट्रांसेंडेंटल है। भूख लगी
तो महावीर
कहते हैं, एक
बात पक्की हो
गई: तुम्हें
पता चला भूख
लगी; एक
बात पक्की हो
गई कि तुम भूख
नहीं हो। तुम
तो वह हो जिसे
पता चला, जिसे
प्रतीति हुई,
जिसे अहसास
हुआ कि भूख
लगी, कि
शरीर भूखा है
कि रोटी की
जरूरत है, कि
प्यास लगी, पानी की
जरूरत है; कि
गर्मी हो रही
है कि पसीने
की धारें
बही जा रही
हैं, कोई
शीतल स्थान
खोजूं, कोई
छाया खोजूं।
जो भी
तुम जानते हो, जानने के
कारण ही वह "पर'
हो गया।
ज्ञान
प्रत्येक
वस्तु को "पर'
बना देता
है।
ज्ञान-मात्र
"पर' का है।
तो आत्मज्ञान
तो हो नहीं
सकता। इस अर्थ
में नहीं हो
सकता, जिस
अर्थ में हम
और चीजों का
ज्ञान करते
हैं।
आत्मा ज्ञायक है, ज्ञेय नहीं।
सदा
जाननेवाला
है। इसलिए
जिन्हें आत्मा
को खोजना है, उन्हें अपने
भीतर निरंतर
उस जगह
पहुंचना चाहिए,
जहां सिर्फ
जाननेवाला ही
शेष रह जाये
और जानने को
कुछ न बचे।
उसे महावीर
"समाधि' कहते
हैं--जहां
शुद्ध जानना
रह जाये और
जानने के लिए
कोई जगह न हो; दीया जलता
हो, लेकिन
प्रकाश उसका
किसी पर पड़ता
न हो। दीया
जलता है अभी, दीवाल पर
प्रकाश पड़ता
है: तो दीया तो
ज्ञाता हुआ, दीवाल ज्ञेय
हो गई और
दोनों के बीच
जो संबंध जुड़
रहा है वह
ज्ञान हो गया।
ऐसी कल्पना
करो कि दीया
शून्य में
जलता हो, कि
दीये की
ज्योति किसी
पर न पड़ती
हो--ऐसी चित्त
की दशा का नाम,
महावीर
कहते हैं, समाधि
है। जहां
शुद्ध-बुद्ध,
मात्र ज्ञायक-स्वरूप
शेष रह गया; कोई जाननेवाली
चीज व्याघात
उत्पन्न नहीं
करती; कोई जाननेवाली
चीज अशुद्धि
उत्पन्न नहीं
करती--अबाध--अनवरुद्ध
चैतन्य का
प्रवाह है; शुद्ध
चैतन्य-मात्र
है!
"आत्मा
ज्ञायक
है।' और ज्ञायक! "जो ज्ञायक
है वह न
अप्रमत्त
होता है न
प्रमत्त।'
यह भी
बड़ी विचार की
बात है।
क्योंकि
महावीर कहते
हैं, तुम अभी
सोये हो। जागो!
लेकिन फिर वह
कहते हैं कि
जागना भी उस
आत्मा का
स्वभाव नहीं
है। क्योंकि
जब सोना उस
आत्मा का
स्वभाव नहीं
है तो जागना
कैसे उस आत्मा
का स्वभाव
होगा? जागना-सोना
दोनों ही
आत्मा के बाहर
हैं। तो एक
दिन ऐसा अनुभव
आना शुरू होता
है कि तुम
जागने और सोने
के भी पार हो।
तुम तो वह हो
जो जानता है कि
जागे अब, अब
सोये। सुबह जागकर
तुम्हें पता
चलता है कि
अरे, जाग
गये! तो तुम
जागने से एक
नहीं हो सकते।
तुम्हें
जागने का भी
पता चलता है:
जाग गये!
रातभर सोये
रहे तो सुबह तुम
कहते हो बड़ी
गहरी नींद आई!
उसका भी
तुम्हें पता
है। नींद का
भी पता है।
कभी नींद ठीक
नहीं आती तो
सुबह कहते हो,
बड़े
व्याघात पड़े,
उच्छृंखल
थी रात, बड़े
दुखस्वप्न
चले, ऊबड़-खाबड़ रहा
सब। शांति न
मिली, चैन
न मिला, थकाऱ्हारा उठा हूं, रात
नींद ठीक से न
आई! तो रात तुम
नींद को भी
जानते हो, सुबह
उठकर तुम
जागने को भी
जानते हो। तो
निश्चित ही न
तुम जागरण हो,
न तुम
निद्रा हो।
तुम तो जागने
और निद्रा के
पार ज्ञायक-स्वरूप,
ज्ञाता-स्वरूप
आत्मा हो।
"जो ज्ञायक है,
वह न
अप्रमत्त होता
है, न
प्रमत्त।'
लेकिन
व्यवहारिक
दृष्टि से
सोये हुए को
हम कहते हैं, जागो अगर आत्मा
को जानना हो।
जब वह जाग
जायेगा तो उससे
कहेंगे, अब
जागने से भी जागो!
संसारी को
कहते हैं, संन्यास
ले लो! फिर
संन्यासी को
कहते हैं कि अब
संन्यास भी छोड़ो! यह तो
ऐसा ही है
जैसे एक कांटा
पैर में लगा, दूसरे कांटे
से खींचकर उसे
बाहर निकाल
लिया; फिर
दोनों ही
कांटे फेंक
देते हैं।
बीमारी थी, औषधि ले ली; फिर बीमारी
चली गई तो
औषधि की बोतल
को कचरे-घर में
फेंक देते
हैं। तो जागरण
की जो इतनी
चेष्टा है, वह भी औषधि
से ज्यादा
नहीं है।
बीमारी है, नींद में
पड़े हैं, सोये
हैं--यह हमारी
अवस्था है।
इसे जगाने के
लिए औषधि है
ध्यान, जागरण,
विवेक।
लेकिन जब जाग
गये तब तो यह
भी पता चलता है
कि हम तो
जागने के भी
पार हैं। यह
सोना और जागना,
यह भी शरीर
और मन में ही
हो रहा है।
इसलिए
तो कृष्ण गीता
में कहते हैं:
या निशा सर्वभूतानां, तस्यां जागर्ति
संयमी!
जब
सारे लोग सोये
हैं, तब भी
संयमी जागता
है। इसका क्या
अर्थ हुआ? क्या
संयमी सोता
नहीं? संयमी
सोता है, लेकिन
जानता है कि
यह जो सोया है,
यह मैं नहीं
हूं।
महावीर
तो और भी गजब
की बात कह रहे
हैं। वह कह रहे
हैं, संयमी जब
जागता है तब
भी जागरण के
साथ अपना
तादात्म्य
नहीं
करता--सोने के
साथ तो वह
करता ही नहीं;
जैसा कृष्ण
कहते हैं कि
सब सोये रहते
हैं, उनका
तादात्म्य हो
जाता है। वह
कहते हैं, हम
सोये हैं।
संयमी कहता है,
हम तो जागते
रहे। महावीर
कहते हैं कि
इससे भी ऊपर
उठना है।
जागने में भी
तादात्म्य न
हो जाये, सोने
में तो तोड़ना
ही है
तादात्म्य।
मूर्च्छा तो तोड़नी ही
है, अमूर्च्छा पकड़ नहीं
लेनी है। राग
तो तोड़ना ही
है, विराग
पकड़ नहीं लेना
है।
इसलिए
महावीर ने एक
नये शब्द का
उपयोग किया: वीतराग।
महावीर ने
अपने परम
संन्यासियों
को विरागी न
कहा, क्योंकि
"विरागी' में
ऐसा लगता है:
राग के
विपरीत। सोये
थे, जाग
गये। संसार
में थे, संन्यासी
हो गये। राग
था, विराग
साध लिया।
महावीर कहते
हैं, वीतराग।
"वीतराग' शब्द
बड़ा अदभुत है!
वीतराग का
अर्थ होता है:
न राग रहा, न विराग
रहा। वीत: पार
हो गये, दोनों
के पार हो गये!
वह पूरी
दुनिया ही गई!
वह पूरा
सिक्का ही छोड़
दिया। वह
द्वंद्व का
जगत अब साथ न
रहा। सोना और
जागना भी
द्वंद्व है।
राग और विराग
भी द्वंद्व
है! संसार और
संन्यास भी
द्वंद्व है। निर्द्वंद्व
हुए! सबके पार
हुए!
"जो
अप्रमत्त और
प्रमत्त नहीं
होता, वही
शुद्ध है।'
यह
शुद्धि की बड़ी
अनूठी
परिभाषा हुई।
जो जागता नहीं, सोता नहीं; जो
मूर्च्छित
नहीं होता, अमूर्च्छित नहीं होता; जो न संसार
में खोता है, न संन्यास
में खोता
है--जिसका
कहीं
तादात्म्य नहीं
होता, वही
शुद्ध है।
जिसको
गुरजिएफ कहता
है: आईडेंटिफिकेशन,
तादात्म्य।
जो किसी चीज
से अपने
स्वभाव को
नहीं जोड़ता।
जो दूर-दूर, पार-पार बना
रहता है! जो
सदा जानता
रहता है: मैं भिन्न
हूं, मैं
भिन्न हूं।
किसी भी चीज
के साथ जो ऐसा
भाव नहीं करता
कि यह मैं हूं!
क्योंकि जहां
ही यह भाव आया
कि यह मैं हूं,
वहीं
अशुद्धि शुरू
हो गई।
क्योंकि जिससे
हम जुड़ते हैं,
वह हमें
प्रभावित
करने लगता है।
तुमने
कभी खयाल किया? लोग जिन
चीजों से अपना
तादात्म्य
बनाते हैं, धीरे-धीरे
वैसा ही
रंग-ढंग उनके
जीवन में छा जाता
है। अगर कोई
कवि सौंदर्य
की
अनुभूतियों के
साथ अपना
तादात्म्य
बनाता है, तो
तुम धीरे-धीरे
पाओगे: वह
सुंदर होने
लगा। उसके
जीवन में
तुम्हें एक नये
गुण का
प्रादुर्भाव
दिखायी
पड़ेगा। वह सुंदर
होने लगेगा।
जो आदमी अपने
को योद्धा
समझता है, लड़ाका
समझता है, उसके
चारों तरफ
धीरे-धीरे तुम
पाओगे योद्धा
के लक्षण
प्रगट होने
लगे।
जिससे
हम तादात्म्य
करते हैं, वही हम हो
जाते हैं।
क्योंकि
धीरे-धीरे
जिसे हमने
अपने साथ जोड़ा
वह हमें
प्रभावित
करता है, रूपांतरित
करता है।
सम्मोहनविद
जानते हैं कि
अगर किसी
पुरुष को सम्मोहित
करके कहा जाये
कि तू पुरुष
नहीं स्त्री
है, तो गहरे
सम्मोहन में
उसका
तादात्म्य हो
जाता है कि वह
स्त्री है। फिर
उससे कहा जाये,
उठकर चलो, तो वह पुरुष
जैसा नहीं
चलता, स्त्री
जैसा चलने
लगता है--जो कि
बड़ी कठिन बात है!
क्योंकि
पुरुष के पास
अलग तरह की
हड्डियां
हैं। और खासकर
स्त्री की चाल
पुरुष से
भिन्न है, क्योंकि
स्त्री के
शरीर में गर्भ
का स्थान है।
उसी गर्भ के
स्थान के कारण
उसकी चाल में
एक गोलाई है, जो पुरुष की
चाल में नहीं
हो सकती।
लेकिन अगर सम्मोहित
किया जाये
किसी व्यक्ति
को और कहा जाये
कि तुम स्त्री
हो तो वह
चलेगा स्त्री
की तरह। उससे
कहा जाये बोलो
तो वह बोलेगा
स्त्री की
तरह। आवाज भी
बदल जायेगी।
यह सम्मोहन की
प्रक्रिया
इतनी गहरी हो
सकती है। कि
अगर सम्मोहित
व्यक्ति को
कहा जाये कि
यह हाथ पर हम
तुम्हारे अंगार
रख रहे हैं और
तुम सिर्फ एक
साधारण कंकड़
रख रहे हो, तो
उसका हाथ जल
जायेगा, फफोला
आ जायेगा।
साधारण कंकड़
गर्म भी नहीं
है, अंगार
की तो बात ही
नहीं है, ठंडा
पत्थर हाथ पर रखते
हो और कहते हो
यह अंगार है, वह छिटककर
फेंककर खड़ा हो
जायेगा, चिल्लायेगा
कि मार डाला, जला दिया।
और उसके हाथ
पर न केवल
जलने का स्थान
बनेगा, फफोला
भी उठेगा।
अब
क्या हुआ? अंगार तो
रखा नहीं था, लेकिन अंगार
रखा है, यह
भाव से
तादात्म्य हो
गया। इसीलिए
तो लोग अंगारों
पर भी चल लेते
हैं--वह भी भावत्तादात्म्य
है। मुसलमान
फकीर या हिंदू
योगी अंगारों
पर चल लेते
हैं। वह
तादात्म्य की
बात है। इस
बात का पक्का
तादात्म्य
होना चाहिए कि
हम चल लेंगे, भगवान बचायेगा,
कि कोई वली बचायेगा।
बस इसका पक्का
भरोसा होना
चाहिए, फिर
तुम न जलोगे।
क्योंकि
तुम्हारा
भरोसा
तुम्हारी
सुरक्षा
करेगा। वह
तादात्म्य बन
गया।
रामकृष्ण
ने सभी धर्मों
की साधना की।
ऐसा प्रयोग
उनके पहले कभी
किसी ने किया
न था। उस साधना
के दौर में
उन्होंने छह
महीने तक
बंगाल में प्रचलित
कृष्ण-मार्गियों
के एक
संप्रदाय की
साधना की--राधा
संप्रदाय। उस
संप्रदाय का
साधक मानकर चलता
है कि मैं
कृष्ण की गोपी
हूं, राधा
हूं। वह
स्त्रियों के
कपड़े पहनता है,
कृष्ण की
मूर्ति को
लेकर रात सोता
है। छह महीने
तक रामकृष्ण
ऐसा साधना
करते थे। बड़ी
हैरानी की
घटना घटी--और
वह घटना यह थी,
उनके स्तन
बड़े हो गये, स्त्रैण हो
गये।
रामकृष्ण
जैसा व्यक्ति
जब तादात्म्य
करेगा तो वह
कोई छोटा-मोटा
तादात्म्य
नहीं है।
उन्होंने
पूरे प्राण
इसमें उंडेल
दिये। उनकी
आवाज स्त्रैण
हो गई। वह
चलने स्त्रियों
की तरह लगे, लेकिन यहीं
तक मामला
रुकता तो ठीक
था; उन्हें
मासिक धर्म
शुरू हो गया, जो कि एक
आश्चर्यजनक
घटना है। इतना
तादात्म्य!
फिर साधना के
बाहर भी आ गये
तो भी छह-आठ
महीने लगे
उनका
स्त्री-रूप
विदा होने
में।
सम्मोहन
का शास्त्र
बड़ी बातें
खोलने के किनारे
पहुंच रहा है
और किसी न
किसी दिन
सम्मोहन-शास्त्र
जब अपने पूरे
अध्ययन प्रगट
कर चुकेगा तो
धर्म की
बहुत-सी बातें
बड़ी सुगमता से
समझ में आ
सकेंगी।
तुम जो
भी हो, यह
तुम्हारा ही
भाव है। अगर
तुम अपने को
दुखी मान रहे
हो तो तुम
दुखी होते चले
जाओगे। अगर तुम
अपने को सुखी
मान सकते हो, तुम सुखी
होते चले
जाओगे।
मुसलमान
फकीर बायजीद
से किसी ने
पूछा कि तुम
इतने प्रसन्न, सदा
प्रसन्न--मामला
क्या है? उसने
कहा कि मैंने
एक नियम बना
लिया है कि
सुबह जब मैं
उठता हूं तो
मेरे सामने दो
विकल्प होते
हैं कि आज दिन
प्रसन्न होना
कि नहीं
प्रसन्न होना;
आज दिन सुख
में बिताना कि
दुख में
बिताना। और मैं
अकसर हमेशा ही
सुख का ही विकल्प
चुनता हूं।
क्यों चुनूं
दुख का विकल्प?
सार क्या है?
इसलिए मैं
प्रसन्न हूं।
तुम
जरा करके
देखना। सुबह
उठकर पहला
निर्णय यही
करना कि आज
दिन प्रसन्न
ही रहना है।
और तुम अचानक
पाओगे
प्रसन्नता की
बहुत-सी
घटनाएं घटने
लगीं। वह वैसे
भी घटतीं, लेकिन तुमने
अगर दुखी होने
का निर्णय
किया था...जैसा
निन्यानबे लोग
किये बैठे
हैं।
निन्यानबे
प्रतिशत लोग
सोचते हैं कि
सुखी तो तब
होंगे जब सुख
की कोई घटना घटेगी।
और दुखी तो
रहेंगे ही, क्योंकि जब
तक सुख की
घटना नहीं
घटती तो क्या कर
सकते हैं! कोई
लाटरी कभी-कभी
खुलेगी, तब
सुखी हो लेंगे।
और मैं मानता
हूं कि वह तब
भी सुखी न हो पायेंगे,
क्योंकि
दुख की आदत
इतनी मजबूत हो
जाती है, दुख
इतना सघनीभूत
हो जाता है कि
अगर सुख की
कोई घटना भी
घटे तो तुम
जानते ही नहीं
कि अब सुखी
कैसे हों! जो
कभी नाचा ही
नहीं है, नाचने
का क्षण भी आ
जाये तो कैसे
नाचेगा? हाथ-पैर
साथ न देंगे।
महावीर
कहते हैं, शुद्धि का
अर्थ है: जहां
कोई
तादात्म्य
नहीं; न
सुख का, न
दुख का; न
देह का, न
मन का। जहां
शुद्ध
जाननेवाला
बचा है और कोई चीज
छाया नहीं
डालती, उस
छाया-शून्य
जगत में आत्मा
शुद्ध होती
है।
"आत्मा ज्ञायक-रूप
में ही ज्ञात
है...'
आत्मा
का ज्ञेय की
तरह जानने का
कोई उपाय नहीं
है।
जाननेवाले की
तरह ही आत्मा
जानी जाती है, जानी गई
वस्तु की तरह
नहीं।
"...और
वह शुद्ध अर्थ
में ज्ञायक
ही है। उसमें ज्ञेयकृत
अशुद्धता
नहीं है।'
इसे
थोड़ा हम
समझें। तुमने
कभी खयाल किया? जब भी कोई
आदमी तुम्हें
गौर से देखता
है तो तुम्हें
थोड़ी-सी
बेचैनी और
अड़चन होती है।
तो समाज में
एक स्वीकृत
नियम है: तीन
क्षण से
ज्यादा कोई
आदमी किसी को
गौर से नहीं
देखता। देखे
तो उसको हम
लुच्चा कहते
हैं। लुच्चे
का अर्थ है:
गौर से
देखनेवाला।
लुच्चा बनता
है लोचन से।
आंखें अड़ा दीं
किसी पर तो
लुच्चा। तीन सैकिंड तक
ठीक है। उतना
स्वीकृत है।
राह चलते आदमी
भी एक, एक क्षणभर को
दूसरे को देख
लेते हैं। तो
ठीक है। लेकिन
लौट-लौटकर
देखने लगे, खड़ा ही हो
जाये और देखने
लगे, आंखें
गड़ा ले...।
तो तुमने कभी
खयाल किया, कोई आदमी
अगर तुम्हें
आंखें गड़ाकर
देखे तो
तुम्हें
बेचैनी होती
है! यहां तक कि
अगर कोई आदमी
तुम्हारे
पीछे खड़ा हो
और पीछे से भी
आंखें गड़ाकर
तुम्हें देखे
तो भी तुम्हें
बेचैनी होगी;
हालांकि
तुम उसे देख
नहीं रहे, लेकिन
तुम्हें पता
चल जायेगा कि
वह आंखें गड़ाये
है।
तुम
इसका प्रयोग
करके देखना!
ट्रेन में, बस में किसी
के पीछे खड़े
हो, उसकी चेंथी पर
आंखें गड़ाकर
देखना जरा
थोड़ी देर--एक
दो तीन मिनट।
वह फौरन लौटकर
देखेगा और
क्रोध से
देखेगा।
मनोवैज्ञानिक
ने इस पर
बहुत-से
प्रयोग किये
हैं।
क्या
मामला है? आदमी किसी
के गौर से
देखने को, बेचैन
क्यों हो जाता
है, बर्दाश्त
क्यों नहीं
करता? क्योंकि
जब भी कोई
तुम्हें गौर
से देखता है, बहुत गौर से
देखता है, तो
वह तुम्हें
वस्तु में
रूपांतरित कर
देता है। वह
तुम्हारे ज्ञायक-स्वभाव
को नष्ट करता
है। वह
तुम्हें
ज्ञेय बना
देता है, आब्जेक्ट। जैसे
कुर्सी को कोई
देख रहा है, मकान को कोई
देख रहा है, वृक्ष को
कोई देख रहा
है--ऐसे ही जब
तुम्हें कोई
देखता है, तब
तुम्हारा ज्ञायक-स्वरूप
नष्ट होता है।
तुम्हें ऐसा
लगता है कि
मुझे वस्तु
समझा जा रहा
है; जैसे
मैं कोई देखने
की वस्तु हूं।
हां, कोई तुम्हें
बहुत प्रेम से
देखे तो
बेचैनी नहीं
होती। जिससे
तुम्हारा
लगाव हो, तो
बेचैनी नहीं
होती।
क्योंकि तुम
जानते हो, वह
तुम्हारे
शरीर को नहीं
देख रहा। तुम
जानते हो, वह
तुम्हें
वस्तु नहीं
बना रहा। तुम
जानते हो, उसकी
आंखें
तुम्हारे ज्ञायक-स्वभाव
को खोज रही
हैं; तुम्हारी
अंतरात्मा को
खोज रही हैं।
उसकी आंखें
तुम्हारे
भीतर जाकर
तुम्हारी खोज
में हैं। तुम,
जिसको कि
विषय-वस्तु
बनाया नहीं जा
सकता, वह
उसके साथ
संग-साथ जोड़ने
की आकांक्षा
रखता है।
इसलिए प्रेम
के क्षण में
ही आंख बेहूदी
नहीं मालूम
पड़ती। अन्यथा
आंख, अगर
गौर से कोई
देखता चला
जाये तो हिंसक
हो जाती है; अभद्र मालूम
होने लगती है;
शिष्टाचार
के बाहर हो
जाती है।
जब भी
किसी व्यक्ति
को देखो तो
उसे वस्तु
बनाने की
चेष्टा मत
करना। अन्यथा
तुम हिंसा से
देख रहे हो।
किसी व्यक्ति
को साधन की
तरह मत देखना, क्योंकि
प्रत्येक
व्यक्ति
साध्य है, परम
साध्य है।
किसी व्यक्ति
को ऐसा मत देखना
कि इसका क्या
उपयोग है, कि
यह आदमी पद पर
है, काम
पड़ेगा, जय
राम जी कर लो; कि यह आदमी
पद पर है, थोड़ी
खुशामद करो; कि इस आदमी
के पास धन है, कभी जरूरत
पड़ सकती है; कि यह आदमी
शक्तिशाली है,
दोस्ती
बनाना काम की
बात होगी।
किसी
व्यक्ति को जब
तुम साधन की
तरह देखते हो, तब भी तुम
हिंसा कर रहे
हो। क्योंकि
वह ज्ञायक-स्वरूप
जो भीतर छिपा
है, साध्य
है--आत्यंतिक
साध्य है। उसे
साधन नहीं बनाया
जा सकता।
"आत्मा
ज्ञायक-रूप
में ही ज्ञात
है और वह
शुद्ध अर्थ
में ज्ञायक
ही है। उसमें ज्ञेयकृत
अशुद्धता
नहीं है।'
यह
बहुत मूलभूत
बात है। इसको
शाब्दिक जाल
में खो मत
देना। इसको
ज्ञान के
दांव-पेचों
में मत खो
देना।
क्योंकि इस पर
बड़े दांव-पेंच
चलते रहे हैं।
पंडितों ने
बड़े अर्थ किये
हैं, बड़ी
व्याख्याएं
की
हैं--पक्ष-विपक्ष
में। क्योंकि
पंडितों का
अपना हिसाब
है। वे कहते
हैं, ज्ञायक,
बिना ज्ञेय
के ज्ञायक
अकेला हो कैसे
सकता है? तर्कगत
संदेह उठाते
हैं, जब
ज्ञेय नहीं है
तो ज्ञायक
कैसा? जब
ज्ञान नहीं है
तो ज्ञायक
कैसे?
तो
दार्शनिकों
का एक समूह
रहा है जो
कहता है, जब
ज्ञेय और
ज्ञान खो
जायेंगे, तो
ज्ञायक
भी खो जायेगा,
अंधकार छा
जायेगा। शायद
तर्क से उनकी बात
ठीक भी लगती
हो। लेकिन जो
अनुभव है, वह
तर्क के थोड़े
बाहर है। और
महावीर को
तर्क में कोई
रस नहीं है।
वह सिर्फ
वक्तव्य दे
रहे हैं, जो
उन्होंने
जाना है। मैं
भी तुमसे कहता
हूं, ज्ञायक बच रहता है।
ज्ञान भी खो
जाता है।
ज्ञेय भी खो जाता
है।
और
इसलिए अगर
खोजना हो तो तर्कजाल
में मत पड़ना।
थोड़ी साधना की
दिशा में कदम
उठाना।
अल्फाज
के पेचों
में उलझता
नहीं दाना
गव्वास
को मतलब है सदफ
से कि गुहर
से
शब्दों
की उलझनों में
समझदार नहीं
उलझता।
अल्फाज
के पेचों
में उलझता
नहीं दाना।
--वह
जो बुद्धिमान
है, वह
शब्दों के
दांव-पेंच में
नहीं उलझता।
गव्वास
को मतलब है सदफ
से कि गुहर
से।
--वह जो गहरा
गोता
लगानेवाला है,
उसे मतलब
मोतियों से है
या सीपियों
से? वह
मोती तलाशता
है। जैसे मोती
सीपी में छिपे
होते हैं, लेकिन
सभी सीपियों
में नहीं छिपे
होते; कुछ सीपियां
खाली होती हैं,
कोई मोती
नहीं होता--कुछ
शब्द खाली
होते हैं, उनमें
कोई मोती नहीं
होता।
पंडितों के
शब्द सीपियों
की तरह हैं; उनमें कोई
मोती नहीं
होता।
क्योंकि मोती
तो अनुभव से
ढालना होता
है। मोती तो
प्राणों से ढालना
होता है। ये
महावीर के वचन
सीपियां
नहीं हैं।
मोती हैं, और
तुम इन
मोतियों का
अर्थ तभी समझ
पाओगे, जब
तुम भी इन्हें
ढालने में
लगोगे।
मेरे
देखे, जब तक
तुम किसी अर्थ
में महावीर
जैसे न होने लगो
तब तक तुम
महावीर को न
समझ पाओगे।
समझने का एक
ही उपाय है:
जिसे तुम
समझने चले हो,
उस जैसे
होने लगो।
"मैं
आत्मा न शरीर
हूं, न मन
हूं, न
वाणी हूं, और
न उसका कारण
हूं। मैं न
कर्ता हूं, न करानेवाला
हूं और न
कर्ता का
अनुमोदक ही
हूं।'
णाहं देहो ण मणो, ण चेव
वाणी ण कारणं
तेसिं।
कत्ता
ण ण कारयिदा, अणुमंता णेव कत्तीणं।।
--न
शरीर, न मन,
न वाणी, न
उनका कारण, न उनका
कर्ता, न
करानेवाला और
न कर्ता का
अनुमोदक ही
हूं।
कल हम
गीता की बात
करते थे।
कृष्ण कहते
हैं, तुम केवल
उपकरण हो जाओ।
महावीर कहते
हैं, उपकरण
भी नहीं। अगर
तुम उपकरण भी
हुए तो तुम कुछ
तो हुए! सहारा
तो दिया! साधन
तो बने! तो
महावीर कहते
हैं, न तो
तुम कर्ता, न करानेवाला
हो, न
कर्ता का अनुमोदक।
उपकरण की तो
बात दूसरी, तुम अनुमोदन
भी मत करना।
तुम यह भी मत
कहना कि हां, यह ठीक है।
अगर कोई आदमी
किसी की हत्या
कर रहा है तो
तुम यह भी मत
कहना कि हां, यह ठीक है।
अनुमोदन भी मत
करना। कहने की
बात नहीं है, मन में भी मत
सोचना कि हां,
यह ठीक है।
मन में सोचने
की बात भी
नहीं है।
तुम्हारे
भीतर जरा-सा भी
भाव उठे, जरा-सी
भी लहर उठे कि
नहीं, यह
गलत तो नहीं
है, यह
जरूरी था--तो
भी पाप हो
गया।
कृष्ण
कहते हैं, "अधर्म के
विनाश के लिए,
पाप के
विनाश के लिए
अर्जुन! तू
उपकरण बन।' लेकिन
महावीर कहते
हैं, उपकरण
हिंसा का बनना
किसी भी कारण
से घातक है।
खतरनाक है। और
आदमी के मन का
भरोसा क्या? क्योंकि
अकसर तो यह
होता है, तुम
जो करना चाहते
हो, उसको
तुम परमात्मा
के नाम से
करने लगते हो।
आदमी
बड़ा बेईमान
है! इसलिए
दुनिया में
इतने युद्ध
होते हैं!
दोनों पक्ष
कहते हैं कि
परमात्मा का
काम कर रहे
हैं। दोनों
पक्ष कहते हैं, हम धर्मऱ्युद्ध
कर रहे हैं।
अब यह तो हम
चूंकि
महाभारत हुआ
और पांडव जीते,
इसलिए जो
इतिहास हमारे
पास है वह
एकतरफा है।
सोचो
थोड़ा, कौरव
जीते होते तो
क्या यह
इतिहास यही
होता? कौरव
जीते होते तो
उन्होंने
सिद्ध किया
होता कि पांडव
हारे क्यों, क्योंकि वे
अधार्मिक थे।
और कौरव अगर
जीते होते तो
कृष्ण की गीता
न होती, शायद
भीष्म पितामह
की कोई गीता
होती तो होती।
अगर
रावण जीता
होता तो
रामायण नहीं
होती--हो नहीं
सकती थी। कौन
लिखता? हारे
हुए के लिए
कौन लिखता!
जीते के सब
संगी-साथी हैं,
हारे के कौन
साथ है? तब
रामायण के
विपरीत, बिलकुल
विपरीत रावण
की कोई कथा
होती, जिसमें
रावण तो
धार्मिक होता
और राम
अधार्मिक
होते।
तुम
थोड़ा सोचो।
विभीषण ने
धोखा दिया है, गद्दारी की
है; लेकिन
राम-भक्त कहता
है, "भक्त
विभीषण! राम
का प्यारा
विभीषण!' लेकिन
अगर रावण
जीतता और कथा
लिखी गई होती,
तो विभीषण गद्दारों
का गद्दार
सिद्ध होता, धोखेबाज, बेईमान, मीरजाफर का आदिगुरु
सिद्ध होता।
कौन
लिखता है
कहानी, इस
पर निर्भर
करता है। और
जो भी कहानी
लिखेगा, वह
यह मानकर
चलेगा कि
मैंने जो किया
वह परमात्मा
चाहता था।
महावीर
आदमी की
बेईमानी को जानते
हैं। आदमी बड़ा
धोखेबाज है!
वह जो खुद करना
चाहता है
परमात्मा के
नाम पर थोप
देता है। अगर
हिटलर जीतता
तो कथा बिलकुल
और होती।
चर्चिल जीता, कथा और हुई।
कथा कौन लिखता
है, इस पर
निर्भर करती
है।
महावीर
कहते हैं, इन जालों
में मत पड़ना।
तुम्हें क्या
पता परमात्मा की
क्या मर्जी है?
तुम कैसे
निर्णय करोगे
कि यही
परमात्मा की
मर्जी है? अर्जुन
जीते, अर्जुन
का पक्ष
जीते--यह
परमात्मा की
मर्जी है, तुम
कैसे निर्णय
करोगे?
हर
आदमी जीतना
चाहता है। और
हर आदमी अपने
जीतने के लिए
सब कुछ करना
चाहता है। और
मान लेगा कि यही
परमात्मा की
मर्जी है, मुझे जिताना
चाहता है।
पिछले
महायुद्ध में
एक जर्मन और
एक अंग्रेज जनरल
की बात हुई।
जर्मन हारने
शुरू हो गये
थे और उस जनरल
ने अंग्रेज
जनरल को पूछा
कि तुम जीतना
शुरू हो गये
हो, कैसे
जीते चले जा
रहे हो, राज
क्या है? उस
जनरल ने कहा,
"राज साफ
है। हम रोज
युद्ध करने के
पहले
परमात्मा की
प्रार्थना करते
हैं।
परमात्मा
हमारे साथ है।'
उस
जर्मन ने कहा, यह तो कोई
बात जंचती
नहीं, क्योंकि
प्रार्थना तो
हम भी करते
हैं युद्ध के
पहले, और
हम भी मानते
हैं कि
परमात्मा
हमारे साथ है।
वह
अंग्रेज
हंसने लगा।
उसने कहा कि
तुम्हें एक
बात समझनी
चाहिए: किसी
ने कभी सुना
कि परमात्मा
जर्मन भाषा
जानता है? किस भाषा
में करते हो
प्रार्थना?
अंग्रेज
सोचता है, परमात्मा
अंग्रेजी
जानता है।
संस्कृत के पंडित
कहते हैं, संस्कृत
देववाणी
है।...वह प्रभु
की भाषा है! और बाकी
सब भाषाएं, वे देववाणियां
नहीं हैं!
अपनी
भाषा को
देववाणी मान
लेना बड़ा सुगम
है। और अपनी
आकांक्षा को
परमात्मा की
आकांक्षा मान
लेना बहुत
सुगम है। और
अपने अहंकार
को परमात्मा
की आड़ में
छिपा लेना
बहुत सुगम है।
महावीर
आदमी को कोई
धोखे का उपाय
नहीं देना चाहते।
वे कहते हैं, तुम धोखेबाज
हो, यह तो
जाहिर है, क्योंकि
जन्मों-जन्मों
से भटक रहे हो,
अनेक तरह से
अपने को धोखा
दे लेते हो।
"मैं
न शरीर हूं, न मन हूं, न
वाणी हूं और न
उनका कारण
हूं। मैं न
कर्ता हूं, न करानेवाला
हूं, न
कर्ता का
अनुमोदक हूं।'
जब तक
इतनी प्रगाढ़ता
से तुम अपने
आत्यंतिक
स्वरूप को सभी
तादात्म्यों
से बाहर न कर
लोगे, तब तक
तुम उस
शुद्ध-बुद्ध
अवस्था को न
पहुंच सकोगे,
जिसको
महावीर "जिनत्व'
कहते हैं।
हमारी
तो त्याग में
भी भोग की
वासना बनी
रहती है। और
हम तो वासना
भी छोड़ते हैं
तो भी किसी वासना
को पूरा करने
के लिए ही
छोड़ते हैं। हम
तो दान भी करते
हैं तो लोभ के
कारण करते
हैं। गंगा के
किनारे बैठे
हुए
पंडित-पुरोहित
लोगों को
समझाते हैं:
"यहां एक दो, एक करोड़
पाओगे वहां।'
कोई हिसाब
भी होता है! एक
से एक करोड़
का कोई संबंध
बनता है? लेकिन
जब लोभ को ही
जगाना है तो
अतिशयोक्ति
करने में हर्ज
क्या है! एक
पैसा यहां दान
दो, एक करोड़
पाओगे! कुछ तो
थोड़ा ब्याज का
खयाल रखो! यह
तो जरा
अतिशयोक्ति
हो गई। लेकिन
मतलब एक करोड़
पाने से थोड़े
ही है, तुमसे
एक निकलवा
लेने से है।
और जानते हैं
कि तुम लोभी
हो, तुम तो
दान भी लोभ के
कारण करोगे।
दान भी तुम करते
हो तो पहले
पूछ लेते हो, इससे मिलेगा
क्या?
बोधिधर्म
चीन पहुंचा, तो चीन के
सम्राट ने
पूछा कि मैंने
हजारों बुद्ध-मंदिर
बनवाये, इससे क्या
लाभ होगा? और
मैं लाखों
बौद्ध
भिक्षुओं को
भिक्षा देता हूं,
राज्य उनका
पालन करना
है--इससे मुझे
कितना पुण्य
हुआ है? दूसरों
से भी उसने
पूछा था, लेकिन
दूसरे तो
दुकानदार थे;
उन्होंने
कहां, महापुण्य हो रहा है, स्वर्ग में
तुम्हारे लिए
विशेष इंतजाम
होगा।
उन्होंने
हजार तरह की
बातें समझाई
होंगी। सातवें
स्वर्ग में
जाओगे। पुण्य
की राशि लगी जा
रही है। इंद्र
बनोगे!
लेकिन यह
बोधिधर्म
थोड़ा उजड्ड, सीधा-साफ
आदमी था।
उसने
कहा, "लाभ!
दिमाग
दुरुस्त है? यह तुमने
पूछा इसके
कारण पाप लगा।
तुम नर्क में
पड़ोगे।' सम्राट
वू थोड़ा
घबड़ाया। उसने
कहा कि नर्क
में! तो
बोधिधर्म ने
कहा, कि
लाभ की
आकांक्षा से
किया गया दान,
दान नहीं
है। लाभ की
जरा-सी भी
रेखा बच गई तो
दान विकृत हो
गया।
फिर भी
सम्राट वू ने
कहा कि मैंने
जो किया है, क्या वह
पवित्र नहीं
है, धार्मिक
नहीं है।
बोधिधर्म ने
कहा, धर्म
का पवित्रता
से क्या
लेना-देना? धर्म तो
पवित्रता से
भी मुक्त है।
वह अपवित्र और
पवित्र, वह
सब संसार की
बातें हैं।
नाराज
हुआ सम्राट, प्रसन्न न
हुआ। क्योंकि ऐसे
आदमी से कौन
प्रसन्न होता
है! हम तो लोभ
को ऐसा पकड़े
हैं कि अगर
हमसे दान भी
करवाना हो तो
हमारे लोभ को
फुसलाना पड़ता
है। हम तो ऐसे
भयभीत हैं कि हमें
अगर निर्भय
बनाना हो, तो
भी हमारे भय
को ही
सुशिक्षित
करना होता है।
हमारा जीवन
बड़ी उलटी दशा
में है।
जिंदगी तो
जिंदगी, हम
मर भी जाते
हैं, तो भी
हमारी आशाओं
का ढांचा नहीं
बदलता।
मेरी
खाक पर साज़े-इकतार
लेकर
उम्मीद
अब भी एक
गीत-सा गा रही
है
मर
जाते हैं, कब्रें बन
जाती हैं, तो
भी कब्र पर
तुम बैठा हुआ
पाओगे: वही
पुरानी आशा
इकतारा बजा
रही है--वही
कामना, वही
वासना, वही
लोभ, वही
मोह!
"आत्मा के
शुद्ध स्वरूप
को जाननेवाला
तथा परकीय
(आत्म-व्यतिरिक्त)
भावों को
जाननेवाला
ऐसा कौन
ज्ञानी होगा
जो यह कहेगा, यह मेरा है?'
महावीर
कहते हैं, अज्ञान का
आधार है यह
कहना कि "यह
मेरा है।' ममत्व,
"मैं' को
जोड़ लेना किसी
भी चीज से, आत्मा
का तादात्म्य
बना लेना किसी
चीज से--यही
समस्त अधर्म का
आधार है। तो
वह कहते हैं, शुद्ध
स्वरूप को
जाननेवाला
ऐसा कौन
ज्ञानी होगा,
जो यह कहेगा
"यह मेरा है?'
"मेरा' अज्ञान
है--घनीभूत
अज्ञान! कहो, मेरा मकान।
कहो, मेरी
दुकान। या कहो,
मेरा
मंदिर। या कहो,
मेरा धर्म।
कहो, मेरा
बेटा! या कहो, मेरा गुरु!
लेकिन जहां भी
"मेरा' है
और जोर "मेरे'
पर है, वहां-वहां
अज्ञान है।
"मेरे' का
दावा ही
अज्ञान का है।
कुछ भी
तुम्हारा
नहीं
है--सिवाय
तुम्हारे।
महावीर
इस संबंध में
बड़े आत्यंतिक
हैं और साफ हैं।
सिवाय
तुम्हारे और
कोई भी
तुम्हारा नहीं
है। तुम्हारा
होना ही बस
तुम्हारा है।
उसी को लेकर
तुम आये, उसी
को लेकर तुम
जाओगे। बाकी
तो खेल है।
कोई पत्नी है,
कोई पति है;
कोई मित्र
है, कोई
शत्रु है; कोई
अपना है, कोई
पराया
है--लेकिन
बाकी सब खेल
है। जहां तुम ठहरे
हो, यहां
"मेरा' कुछ
भी नहीं है।
धर्मशाला
है; रात रुक
गये, ठीक।
सुबह चलना है,
चल पड़ना
है। तो महावीर
कहते हैं, "मेरा'
जिसने छोड़
दिया उसका
अज्ञान गिर
जायेगा।
"मेरा'
का अर्थ हुआ
कि आत्मा को
हम किसी चीज
से जोड़ते
हैं। जब तुम
कहते हो, "मेरा
मकान', तो
कौन-सी घटना
घटती है। मकान
को तो कुछ
परिवर्तन
नहीं होता, यह तो जाहिर
है। तुम मर
जाओगे, मकान
रोयेगा
नहीं। मकान
गिर जायेगा तो
तुम रोओगे। एक
बात पक्की है,
जब तुम कहते
हो, "मेरा
मकान', तो
कोई परिवर्तन
तुममें होता
है, मकान
में नहीं
होता। मकान तो
वैसा का वैसा
बना रहता है।
एक
सूफी फकीर
अपने
विद्यार्थियों
को लेकर जा रहा
था और राह पर
उसने देखा कि
एक आदमी गाय
को रस्सी से
बांधे खींचे
लिये जा रहा
है। तो उसने अपने
विद्यार्थियों
को कहा, घेर
लो इस आदमी को,
एक शिक्षा
देनी है। वह
आदमी भी थोड़ा
चौंका, लेकिन
अवाक खड़ा रह
गया कि क्या
मामला है, क्या
शिक्षा है। वह
सूफी फकीर ने
अपने शिष्यों
से कहा, "मैं
तुमसे पूछता
हूं कि इनमें
गुलाम कौन
किसका है? यह
आदमी इस गाय
का गुलाम है
कि गाय इस
आदमी की गुलाम?'
स्वभावतः
शिष्यों ने
कहा कि गाय इस
आदमी की गुलाम
है, क्योंकि
इस आदमी के
हाथ में गाय
की रस्सी है और
यह जहां चाहे
वहां ले जा
सकता है। सूफी
फकीर ने कहा, तुमने बहुत
ऊपर से देखा।
अब ऐसा समझो
कि हम यह रस्सी
बीच से काट
दें तो गाय इस
आदमी के पीछे
जायेगी कि यह
आदमी इस गाय
के पीछे
जायेगा? उन्होंने
कहा, अगर
रस्सी काट दी
तो गाय तो इस
आदमी के पीछे
जानेवाली
नहीं; यह
तो रस्सी में
भी मुश्किल से
जाती मालूम पड़
रही है। यह
आदमी ही गाय
के पीछे
जायेगा।
तो उस
फकीर ने कहा, रस्सी के
धोखे में मत पड़ो! इस गाय
को इस आदमी से
कुछ लेना-देना
नहीं है। इस
गाय ने कोई
तादात्म्य इस
आदमी से नहीं
बनाया है; इस
आदमी ने
तादात्म्य
बनाया है गाय
से। तो गुलाम
यह आदमी है, गाय नहीं।
जब तुम
कहते हो, "यह
मेरा मकान', तो तुम यह मत
सोचना कि मकान
भी कहता है कि
"तुम मेरे
मालिक।' मकान
ऐसी भूल-चूक
नहीं करेगा।
मकान इतने
अज्ञानी नहीं
हैं। मकान को
मतलब ही नहीं
है। अगर मकान
को थोड़ा होश
होता तो वह
हंसता। वह
मुस्कुराता
तुम्हारी
नासमझी पर। वह
शायद तुम्हें
क्षमा कर देता
कि ठीक है, अज्ञानी
हो, चलेगा।
लेकिन मकान को
तुमसे कोई
लेना-देना नहीं
है। तुम नहीं
थे, तब भी
यह मकान बना
रह सकता था।
तुम नहीं
रहोगे, तब
भी बना रहेगा।
इब्राहीम
सम्राट था बल्ख
का। एक फकीर
उसके द्वार पर
आया और झंझट
करने लगा कि
मुझे इस महल
में ठहरना है।
लेकिन वह "महल' नहीं कह रहा
था। वह कहता
था, यह
"सराय' में
मुझे ठहरना
है। बड़े
जोर-जोर से लड़
रहा था वह
पहरेदार से।
पहरेदार
ने कहा, हजार
दफे कह दिया
यह धर्मशाला
नहीं, सराय
नहीं। सराय
गांव में
दूसरी है। यह
राजा का महल
है। यह राजा
का खुद का
निवास है। तुम
होश में हो? तुम क्या
बातें कर रहे
हो? यह कोई
ठहरने की जगह
नहीं।
तो
उसने कहा, फिर मैं
राजा को देखना
चाहता हूं।
इब्राहीम भी
भीतर से सुन
रहा था--बड़े
जोर से। और उस
फकीर की आवाज
में कुछ जादू
था, कुछ
चोट थी। वह
जिस ढंग से कह
रहा था, ऐसा
नहीं लगता था
कि सिर्फ
जिद्दी, कोई
पागल है। उसके
कहने में कुछ
रहस्य मालूम होता
था। उसने कहा,
उसे बुलाओ
भीतर। वह फकीर
भीतर आया और
उसने कहा, "कौन
राजा है? तुम!'
वह सिंहासन
पर बैठा था, उसने कहा कि
साफ है कि मैं
राजा हूं। और
यह मेरा निवास
है और तुम
व्यर्थ
पहरेदार से
झंझट कर रहे
हो।
उसने कहा, बड़ी हैरानी
की बात है! मैं
पहले भी आया
था, तब एक
दूसरा आदमी इस
सिंहासन पर
बैठा था और वह भी
यही कहता था।
उस
राजा ने कहा, वे मेरे
पिता थे, वे
अब
स्वर्गवासी
हो गये।
उसने
कहा, उनके
पहले भी मैं
आया था, तब
एक तीसरा ही
आदमी बैठा था।
और हर बार
पहरेदार भी
बदल जाते हैं।
आदमी भी बदल
जाते हैं। यह
मकान वही है।
और हर बार जब
मैं आता हूं, तब यही झंझट!
उसने
कहा, वे हमारे
पिता के पिता
थे, वे भी
स्वर्गवासी
हो गये।
तो
उसने
इब्राहीम से
पूछा, "जब
मैं चौथी बार आऊंगा, तुम
मुझे यहां मिलोगे,
इस सिंहासन
पर, कि फिर
कोई और मिलेगा?
जब इतने लोग
यहां बदलते
जाते हैं, इसलिए
तो मैं कहता
हूं यह सराय
है, धर्मशाला
है। तुम भी
टिके हो थोड़ी
देर; मेरे
टिक जाने में
क्या बिगड़ रहा
है? सुबह
हुई, तुम
भी चल पड़ोगे, हम भी चल
पड़ेंगे।
कहते
हैं इब्राहीम
को बोध हुआ।
वह सिंहासन से
नीचे उतर आया
और उसने कहा
कि तूने मुझे
जगा दिया। अब
तू रुक, मैं
चला। अब यहां
रुककर भी क्या
करना है! जहां से
सुबह जाना
पड़ेगा, इतनी
देर भी क्यों गंवानी!
इब्राहीम
ने छोड़ दिया
राजमहल।
इब्राहीम सूफियों
का एक बड़ा
फकीर हो गया।
मेरा
मकान! मेरा
बेटा! मेरा धन!
मेरा धर्म!
जहां-जहां तुम
"मेरे' को
फैलाते हो, वहां-वहां
तुम्हारा
"मैं', झूठा
"मैं' खड़ा
होता है। जो
"मैं' "मेरे'
के फैलाव से
बनता है, उसीको
महावीर
अहंकार कहते
हैं। और जो
"मैं' सब
"मेरे' के
टूट जाने पर
बचता है, उसको
महावीर आत्मा
कहते हैं। तो
अभी तो तुमने जो
अपना "मैं' जाना
है, वह "मैं'
नहीं है। वह
तो तुम्हारी
और गाय के बीच
में बंधी हुई
रस्सी है। वह
तुम्हारी
अंतरात्मा
नहीं है। वह
तो तुम्हारे
मकान पर लगी
हुई तुम्हारे
अहंकार की छाप
है।
इसलिए
महावीर कहते
हैं:
को
णाम भणिज्ज
बुहो, णाउं सव्वे पराइए
भावे।
मज्झमिणं
ति य वयणं, जाणंतो अप्पयं सुद्धं।।
"ऐसा कौन है
जाननेवाला, जो कहेगा यह
मेरा है?'
तो
जिसने यह जान
लिया कि मेरा
कुछ नहीं है, वही
जाननेवाला
है। और जिसने
यह जान लिया
कि मेरा कुछ
भी नहीं है, उसी को पता
चलेगा मैं कौन
हूं।
मेरे
पास लोग आते
हैं, वे कहते
हैं कि कैसे
पता चले कि
मैं कौन हूं।
सीधी प्रक्रिया
है: "मेरे' को
शिथिल करते
जाओ।
जहां-जहां
"मेरे' को
पाओ, वहां-वहां
रस्सी को
काटते जाओ।
कुछ छोड़कर भाग
जाने की भी
जरूरत नहीं है
कि तुम घर
छोड़कर भागो।
क्योंकि
छोड़कर भागने
में तो ऐसा
लगता है कि काट
न पाये, डरकर
भाग गये। डर
लगा कि रहे तो
कहीं "मेरा' हो ही न जाये
यह मकान! कहीं
लगने न लगे कि
मेरा है! तो
जंगल भाग गये,
जंगल में
क्या होगा? जिस झाड़ के
नीचे बैठोगे,
वही
तुम्हारा हो
जायेगा।
तुमने
देखा, भिखारी
भी जिस जगह पर
बैठता है सड़क
के, वह
उसकी हो जाती
है! अगर दूसरा
भिखारी वहां आ
जाये, झगड़ा हो जाता है, अब कुछ नहीं
है। चलती सड़क
है, किसी
की नहीं है, सार्वजनिक
है। मगर
भिखारियों के
भी अड्डे होते
हैं। जो
भिखारी जिस
जगह बैठता है,
वह उसकी
दुकान है।
एक
आदमी एक
भिखारी के
सामने से गुजर
रहा था। वह
भिखारी
चिल्लाया, "बाबा! कुछ
पैसे मिल
जायें, सिनेमा
देख आऊंगा।'
और सामने
तख्ती लगा रखी
थी कि मैं
अंधा हूं। उस
आदमी ने पूछा,
तुम अंधे हो?
तो उसने कहा
कि नहीं, असल
में यह दुकान
दूसरे भिखारी
की है। वह आज छुट्टी
पर है। मैं
अंधा नहीं हूं,
मैं लंगड़ा
हूं। यह दुकान
दूसरे की है, मैं तो
सिर्फ आज बैठा
हूं, क्योंकि
वह छुट्टी पर
है। और मौके
की दुकान है।
तो जब वह
छुट्टी पर
होता है तो
मुझे बिठा जाता
है।
तुम
अगर जाओ
जंगलों में, हिमालय की
गुफाओं में, जहां संसार
छोड़कर बैठे
हैं संन्यासी,
उनकी भी गुफाएं
हैं: दूसरा न
बैठे। अगर
दूसरा बैठ
जाये, झगड़ा मच जाता है।
तो क्या फर्क
पड़ेगा? मकान
छूटेगा, गुफा अपनी
हो जायेगी।
गुफा छूटेगी,
सड़क के
किनारे बैठ
जाओगे तो वह
टुकड़ा अपना हो
जायेगा। तुम
कहां अपने को
लगाते हो, यह
थोड़े ही सवाल
है। कहीं भी
तो चिपकाओगे
उस "मैं' को!
बस जहां चिपका
दोगे, वही
झंझट हो
जायेगी।
लोग
धर्म से भी
चिपका देते
हैं। मेरा
मंदिर! हिंदू
कहते हैं, हमारा! मुसलमान
की मस्जिद, वे कहते हैं,
हमारी!
हिंदू को रस
आता है
मुसलमान की
मस्जिद गिर
जाये तो।
एक
हिंदू पंडित
में और एक
मुसलमान
मौलवी में बड़ी
दोस्ती थी।
मौलवी नयी
मस्जिद बनाने
के लिये योजना
कर रहा था और
दान मांग रहा
था। उसने मित्रों
को भी पत्र
लिखे। उसने उस
पंडित को भी
पत्र लिखा कि
मस्जिद बनाने
के लिए चेष्टा
कर रहे हैं, कुछ दान!
पंडित ने पत्र
लिखा कि यह तो
असंभव है; मैं
हिंदू हूं और
मस्जिद बनाने
के लिए दान
दूं, यह तो
संभव नहीं है।
हां, पुरानी
को गिराने के
निमित्त सौ
रुपये भेज रहा
हूं। पुरानी गिराओगे न,
नयी बनाने के
पहले! मेरा
दान पुरानी को
गिराने के
लिये है। इसका
उपयोग भर
गिराने में कर
लेना। बनाने के
लिए तो मैं
कैसे दे सकता
हूं!
मस्जिद
गिर जाये, हिंदू
प्रसन्न है।
मंदिर जल जाये,
मुसलमान
प्रसन्न है!
किसी को
परमात्मा से
कुछ लेना-देना
नहीं है, अपना-अपना
है। अगर
तुम्हारे
परमात्मा पिट
रहे हों तो
कोई बचाने भी
न आयेगा। लोग
खुश ही होंगे
कि अच्छा है, तुम्हारे ही
पिट रहे
हैं।
जबलपुर
में
गणेश-उत्सव पर
गणेशों
का जुलूस
निकलता है, शोभाऱ्यात्रा निकलती है।
और हर मुहल्ले
के गणेशों
की जगह बंटी
हुई है। तो
पहले
ब्राह्मणों
के टोले का गणेश
होता है, फिर
दूसरे टोले।
फिर ऐसे पीछे
आखिर में
हरिजन टोले।
एक बार
ब्राह्मणों
का टोला आने
में थोड़ी देर
हो गई और
तेलियों के
गणेश पहले आ
गये। तो जब
ब्राह्मणों
के गणेश
पहुंचे, ब्राह्मणों
ने कहा, "हटाओ
तेलियों के
गणेश को!
तेलियों का
गणेश और आगे!'
हां, गणेश भी
तेलियों के, ब्राह्मणों
के अलग-अलग
हैं! तेलियों
का गणेश, हटाओ
पीछे! यह तो
बेइज्जती की
बात हो गई। और
तेलियों के
गणेश को पीछे
हटना पड़ा।
हिंदू-मुसलमान
के देवी-देवता
तो छोड़ो, हिंदू के भी
देवी-देवता!
तेली और
ब्राह्मण के अलग
हो जाते हैं।
सब जगह
आदमी अपने
अहंकार की
पताका लिये
खड़ा रहता है।
इस पताका को
जो गिरा देता
है वही आत्मा
को जानने में
समर्थ होता
है।
छोड़ो इस
मेरेत्तेरे
को। सपनों में
ज्यादा रस मत
लो।
तर्क-ए-उमीद से ही
मिलेगा
सुकून-ए-दिल
दो
दिन की जिंदगी
पर भरोसा किया
तो क्या!
इतना
ही देखते रहो
कि यहां जो है, दो दिन के
लिये है, क्षणभर
के लिये है।
इसकी
क्षणभंगुरता
को गौर से
देखते रहो, तो तुम इसे
"मेरा' न
कहोगे।
तर्क-ए-उमीद से ही
मिलेगा
सुकून-ए-दिल!
और दिल
की जो गहन
शांति है, वह जो
आत्म-शांति है,
वासना के
त्याग से ही
मिलेगी; ममता
के त्याग से
ही मिलेगी।
दो
दिन की जिंदगी
पर भरोसा किया
तो क्या!
"मैं
एक हूं, शुद्ध
हूं, ममता-रहित
हूं तथा
ज्ञान-दर्शन
से परिपूर्ण हूं।
अपने इस शुद्ध
स्वभाव में
स्थित और
तन्मय होकर
मैं इन सब
परकीय भावों
का क्षय करता
हूं।'
अहमिक्को
खलु सुद्धो, णिम्ममओ णाणदं सणसमग्गो।
तम्हि ठिओ तच्चित्तो, सव्वे एए खयं
णेमि।।
"मैं
एक हूं...।'
एक-एक
शब्द समझना इस
सूत्र का।
महावीर कहते
हैं, मैं एक
हूं। तुम न कह
सकोगे कि तुम
एक हो। तुम तो
अगर गौर करोगे,
तो पाओगे
तुम एक भीड़
हो। तुम अनेक
हो। तुम तो एक
बाजार हो। एक
उपद्रव हो, जिसके भीतर
कई स्वर हैं।
महावीर
ने कहा, साधारणतः
मनुष्य "बहुचित्तवान'
है। इस शब्द
का प्रयोग
अकेले महावीर
ने किया है
पच्चीस सौ साल
पहले। अब
आधुनिक
मनोविज्ञान इस
शब्द का उपयोग
करता है। वह
कहता है: मल्टीसाइकिक,
बहुचित्तवान। एक-एक आदमी
के पास एक-एक
मन नहीं है; एक-एक आदमी
के पास न
मालूम कितने
मन हैं!
तुम
अकसर कहते हो
कि यह मेरे मन
को नहीं भाता।
लेकिन तुमने
कभी खयाल किया
कि सुबह जो
तुम्हारे मन
को नहीं भाता।
वही शाम को
भाने लगता है!
आज जो अच्छा
लगता है, कल
बुरा लगने
लगता है। क्षणभर
पहले जो
प्रीतिकर था,
अब शत्रु
मालूम होने
लगता है। तो
तुम सोचते नहीं
कि तुम्हारे
भीतर बहुत मन
हैं; एक मन
नहीं है। अगर
एक मन हो तो
तुम्हारा
प्रेम एकरस
होगा। अगर एक
मन हो तो
तुम्हारा भाव
थिर होगा। अगर
एक मन हो तो
बदलाहट न
होगी। तुम्हारे
भीतर
शाश्वतता
होगी, चिरंतनता
होगी।
लेकिन
तुम तो एक भीड़
हो। गुरजिएफ
कहता था, तुम
एक ऐसे घर हो
जिसका मालिक
तो सोया है और
नौकर पाली
बांध लिये हैं।
क्योंकि सभी
नौकर मालिक
होना चाहते
हैं। सभी एक
साथ तो हो
नहीं सकते। और
मालिक सोया है,
तो नौकरों
ने पाली बांध
ली है।
आधा-आधा घड़ी
को एक-एक नौकर
मालिक हो जाता
है। जब, जो
नौकर मालिक
होता है, उस
वक्त उसकी
चलाता है। फिर
वह किसी की
नहीं सुनता।
ठीक
कहता है
गुरजिएफ। ऐसी
ही आदमी की
दशा है।
जब तुम
क्रोध में हो, तब क्रोध की
चलती है। यह
तुम्हारा एक
नौकर है। और
क्रोध में तुम
ऐसी बातें कर
जाते हो कि घड़ीभर
बाद जब क्रोध
का राज्य जा
चुका होगा, तब तुम
पछताओगे।
क्योंकि तब
दूसरा मालिक आ
गया। वह मालिक
कहेगा, "यह
क्या गलती कर
ली? बड़ी
भूल हो गई।' क्षमा
मांगोगे। और
इस दूसरे
मालिक के
प्रभाव में
तुम किसी को
कह आओगे कि अब
कभी क्रोध न
करूंगा।
फिर
गलती कर रहे
हो। क्योंकि
वह जो क्रोध
करनेवाला है, जब मालकियत
में फिर आयेगा,
तब यह
पश्चात्ताप
काम न आयेगा; यह आश्वासन
काम न आयेगा।
यह किसी और के
द्वारा दिया
गया आश्वासन
क्रोध क्यों
पूरा करेगा?
कामवासना
उठती है तो
तुम उसके
प्रभाव में हो
जाते हो। फिर
सुबह उठकर
मंदिर चले
जाते हो, ब्रह्मचर्य
की कसम खाने
लगते हो। भूल
गये सांझ। फिर
आयेगी सांझ।
फिर कामवासना
सिंहासन पर
बैठेगी। फिर
तुम अड़चन में
पड़ोगे।
समझने
की कोशिश करो।
इन मनों में
से कोई भी मन तुम्हारा
नहीं है। तुम
तो अभी सोये
हो। इन मनों
में से किसी
को चुनना नहीं
है, क्योंकि
इनमें से चुना
हुआ तो ठीक
वैसा ही रहेगा
जैसा
लोकतांत्रिक
सरकार होती
है--बहुमत की।
लेकिन बहुमत
का कोई भरोसा
है? आज जो
इस पार्टी में
है, कल
दूसरी पार्टी
में हो जाता
है। आज जो
मित्र है, कल
शत्रु हो जाता
है। वहां तो
रूप-रंग रोज
बदलते रहते
हैं। खेल चलता
रहता है। जो
सरकार बनी दिखाई
पड़ती है, वह
किसी भी क्षण
गिर जाती है।
जिनकी कभी आशा
न थी, वे
सरकार में
पहुंच जाते
हैं, मालिक
बन जाते हैं।
यह चलता रहता
है। यह तो सागर
में उठती
लहरों जैसा
खेल है।
तो अगर
तुमने कोई कसम
खाकर किसी तरह
बहुमत बना
लिया, तो
तुम मुश्किल
में रहोगे। वह
अल्पमत सदा
उपद्रव खड़ा
करता रहेगा।
वह आंदोलन
चलायेगा। वह झंझट
पैदा करेगा।
वह बहुमत को खिसकायेगा।
संयमी और
ज्ञानी के
जीवन में यही
फर्क है। संयमी
अपने भीतर एक
लोकतांत्रिक
सरकार निर्मित
करने की कोशिश
करता है।
की
तर्के-मय तो मायले-पिंदार
हो गया
मैं
तौबा करके और
गुनहगार हो
गया।
और
तुमने कभी
किसी चीज को न
करने की कसम
खाई?
कसम
खाते ही उसमें
और रस आने
लगता है। खाकर
कसम देखो!
चाहे इसके पहले
कोई रस भी न
रहा हो। कसम
खाकर देखो...
की
तर्के-मय तो मायले-पिंदार
हो गया!
--जैसे ही कोई
चीज त्यागी कि
तुम्हारी
कल्पना घोड़ों
पर सवार हो
जाती है। और
वह सोचती है,
"अरे भोग लो!
पता नहीं
कितना मजा है, नहीं तो
दुनिया क्यों
इसके खिलाफ है?
कुछ न कुछ
राज तो होगा
ही। नहीं तो
इतने लोग समझानेवाले
हैं, कोई
छोड़ता नहीं।'
कल्पना
घोड़े पर सवार
हो जायेगी।
मैं
तौबा करके और
गुनहगार हो
गया।
पश्चात्ताप
करो। तुम कहो, अब कभी न
करेंगे। और
तत्क्षण
तुम्हारे
भीतर गुनाह
उठने लगेंगे।
करने की
आकांक्षा
प्रबल होगी, जब भी तुम
कहोगे अब न
करेंगे।
उपवास
करके देखो! उस
दिन जैसा भोजन
में रस लोगे, वैसा कभी न
लिया था। उस
दिन भोजन ही
भोजन करोगे।
रात-दिन सपने
ही सपने
आयेंगे। जिस
चीज को छोड़ोगे
उसी की तरफ
कल्पना रसलीन
होने लगती है।
संयमी
बड़े
अंतर्युद्ध
में पड़ जाता
है, गृहयुद्ध
में पड़ जाता
है। ज्ञानी और
संयमी में
फर्क है।
महावीर का जोर
ज्ञानी पर है।
महावीर
कहते हैं, "मैं एक हूं, शुद्ध हूं, ममता-रहित
हूं तथा
ज्ञान-दर्शन
से परिपूर्ण हूं।
अपने इस शुद्ध
स्वभाव में
स्थित और
तन्मय होकर
मैं इन सब
परकीय भावों
का क्षय करता
हूं।'
महावीर
यह नहीं कहते
कि मैं परकीय
भावों का क्षय
करके अपने
स्वभाव में
थिर होता हूं।
महावीर कहते
हैं, अपने
स्वभाव में
थिर होता हूं,
इसलिए
परकीय भावों
का क्षय होता।
"मैं
अपने स्वभाव
में स्थित और
तन्मय होकर...।'
असली
सवाल उस एक
में तन्मय हो
जाने का है; संसार के
त्याग का कम, सत्य के
अनुभव, सत्य
के रस का
ज्यादा है, सत्य के
स्वाद का
ज्यादा है।
"मैं
एक हूं...।'
कौन है
तुम्हारे
भीतर एक? वासनाएं
तो अनेक हैं? विचार अनेक
हैं। देह भी
एक नहीं है, क्योंकि देह
भी रोज बदलती
है। बचपन में
एक थी, जवानी
में और है, बुढ़ापे
में और होगी।
और ये तो मोटे
विभाजन हैं, अगर गौर से
देखो तो रोज
बदलती है।
सुबह कुछ है सांझ
कुछ है। देह
हजार बार
बदलती है। मन
तो करोड़
बार बदलता है।
यह कोई भी एक
नहीं है। इन
सबके भीतर अगर
तुम एक को खोज
लो, वह एक
ही साक्षी-भाव
है--ज्ञायक-भाव
जिसको महावीर
कहते हैं
ज्ञाता--वह एक
है। बचपन में
भी वही था, जवानी
में भी वही, बुढ़ापे में
भी वही। सुख
में, दुख
में, क्रोध
में, प्रेम
में, करुणा
में--सब में
वही। वह एक
है।
उस एक
को जिसने पकड़
लिया उसने
जीवन का आधार
खोज लिया। उस
एक पर जो अपने
भवन को खड़ा
करेगा, उसके
शिखर मोक्ष तक
उठ जायेंगे।
"मैं
एक, शुद्ध,
ममता-रहित,
ज्ञान-दर्शन
से
परिपूर्ण...।'
उस
अंतरात्मा का
एक ही लक्षण
है:
ज्ञान-दर्शन; जानने की, देखने की
क्षमता। बस
इतना उसका
स्वभाव है। आत्मा
का इतना ही
स्वभाव है:
देखने-जानने
की क्षमता।
अगर जानो और
देखो, इस
क्षमता का
उपयोग करो, तो संसार बन
जाता है। अगर
न जानो, न
देखो, इस
क्षमता को
शुद्ध छोड़ दो,
उपयोग मत
करो, तो
मुक्ति फलित
हो जाती है।
"अपने
इस शुद्ध
स्वभाव में
स्थित और
तन्मय होकर, मैं इन सब
परकीय भावों
का क्षय करता
हूं।'
प्यास
भटकी ही सदा, नीर की आशा न
मिली
नदी
को लहर मिली, तट की
दिलासा न मिली
नयन
मिले तो अधर
पंख थरथरा
के रह गए
प्यार
को जन्म मिला, प्यार को
भाषा न मिली।
--जैसी जिंदगी
है, वहां
सिर्फ प्यास
है, तृप्ति
नहीं है।
प्यास
भटकी ही सदा, नीर की आशा न
मिली!
जिसे
तुम संसार
कहते हो, वह
प्यास और
प्यास और
प्यास, मरुस्थल!
हां, दूर
मरूद्यान
दिखाई पड़ते
हैं, पास
पहुंचने पर
मरूद्यान
सिद्ध नहीं
होते।
प्यास
भटकी ही सदा, नीर की आशा न
मिली।
दिखाई
भी पड़े
जल-स्रोत, तो भी सत्य
सिद्ध न हुए।
मन के ही
स्वप्न थे!
नदी
को लहर मिली, तट की
दिलासा न
मिली।
तरंगें
तो बहुत उठीं, लहरें तो
बहुत आईं; लेकिन
तट! वह जगह न
मिली, जहां
सब लहरें शांत
हो जाती हैं।
उफ!
तूफान तो बहुत
रहे, आंधियां
तो बहुत रहीं;
लेकिन ऐसी
कोई शरण न
मिली, जहां
सुख-चैन हो
जाता है।
नदी
को लहर मिली, तट की
दिलासा न मिली
नयन
मिले तो अधर
पंख थरथरा
के रह गये
और
सदा
अधूरा-अधूरा
रहा; कुछ मिला
तो कुछ कम हो
गया।
नयन
मिले तो अधर
पंख थरथरा
के रह गये
प्यार
को जन्म मिला, प्यार को
भाषा न मिली।
इस
संसार में
प्यास तो है, प्यार तो है;
लेकिन न
भाषा मिलती, न माध्यम
मिलता, न
द्वार मिलता।
भटकती है रूह
रेगिस्तानों
में--प्यास के,
अतृप्ति के,
असंतोष के।
जो बाहर
जायेगा तो ऐसा
ही होगा। भीतर
आते ही किनारा
मिलता है।
बाहर प्यास ही
प्यास है, भीतर तृप्ति
ही तृप्ति।
मुझे ऐसा कहने
दो कि बाहर
प्यास ही
प्यास है और
तृप्ति
बिलकुल नहीं;
और भीतर
तृप्ति ही
तृप्ति है, प्यास
बिलकुल नहीं।
तो असली सवाल
भीतर आने का है।
आनंद
तुम्हारा
स्वभाव है।
"मैं
एक हूं, शुद्ध
हूं, ममता-रहित
हूं, ज्ञान-दर्शन
से परिपूर्ण
हूं। अपने इस
शुद्ध स्वभाव
में स्थित और
तन्मय होकर
मैं इन सब परकीय
भावों का क्षय
करता हूं।'
वे
सारी प्यासें, तड़फड़ाहटें,
दौड़, आपाधापी,
वह बाहर का
सारा जाल, सूखे
कंठ, रोती
आंखें--उन सबका
त्याग होता
चला जाता है, क्षय होता
चला जाता है।
उपनिषद
ठीक महावीर की
इस
अंतर्दृष्टि
को प्रगट करते
हैं।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं
पुराणो।
मैं
सदा रहनेवाला, सनातन, सदा
सदैव स्थिर
रहनेवाला
आत्मा हूं।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं
पुराणो।
और जब
तक कोई शाश्वत
से न जुड़ जाये, क्षणभंगुर
से कैसे सुख
पाया जा सकता
है? पानी
के बबूलों को
संपदा बनाने
में लगे हो।
हाथ में नहीं
आते, तब तक
तो इंद्रधनुष
उन पर बनते
हैं; हाथ
में आते ही
फूट जाते हैं।
उपनिषद
कहते हैं: सतां
हि सत्य।
सत्पुरुषों
का स्वभाव ही सत्यमय
होता है।
सत्य
कोई बाहर की बात
नहीं--तुम्हारे
स्वभाव की बात
है।
सतां ही
सत्य। तस्मात्सत्ये
रमन्ते।
और वे
सदा उस भीतर
के सत्य में
रमते हैं।
वही
महावीर कह रहे
हैं तन्मय
होकर, स्वभाव
में स्थित, परकीय भावों
का क्षय करता
हूं।
इसे
थोड़ा प्रयोग
में लाना शुरू
करो। उठते-बैठते
एक धागा भीतर
सम्हालते रहो, जीवन के
सारे मनके इसी
धागे में पिरो
लो। उठो तो
याद रखो कि
मैं
जाननेवाला
हूं, उठनेवाला नहीं। उठ तो
शरीर रहा है।
उठ तो मन रहा
है। मैं सिर्फ
जाननेवाला
हूं। चलो
रास्ते पर, तो जानते
रहो: चल तो
शरीर रहा है, चल तो मन रहा
है; मैं तो
सिर्फ जान रहा
हूं। जान रहा
हूं कि शरीर
चल रहा, मन
चल रहा। भोजन
करो तो स्मरण
रखो कि भोजन
तो शरीर में
पड़ रहा है, कि
शरीर तृप्त हो
रहा है, कि
मन तृप्त हो
रहा है; लेकिन
मैं तो
जाननेवाला
हूं।
इस
जाननेवाले के
सूत्र को तुम
जीवन के सारे
मनकों में पिरो
दो। धीरे-धीरे
यह तुम्हें
स्वाभाविक
होता जायेगा।
तुम कुछ भी
करोगे, भीतर
एक अहर्निश
नाद बजता
रहेगा: "मैं
ज्ञाता हूं।'
उस ज्ञाता
में ही तुम एक
हो जाओगे। उस
ज्ञाता को
जानते ही तुम
संसार के पार
हो जाओगे।
महावीर
कहते हैं, जैसे कमल के
पत्ते जल में
रहते भी जल को
छूते नहीं, ऐसे ही फिर
जो साक्षी-भाव
को उपलब्ध हुआ,
जल में रहते
हुए भी जल को
छूता नहीं।
तुम फिर कहीं
भी हो, तुम
संसार के बाहर
हो। संसार के
भीतर भी तुम बाहर
हो। फिर तुम
भीड़ में खड़े
भी अकेले हो।
अभी तो तुम
अकेले भी खड़े
भीड़ में ही
होते हो।
और ये
जो वचन हैं
महावीर के, ये किसी
दार्शनिक के
वक्तव्य नहीं
हैं। ये किसी तत्वचिंतक
की धारणाएं
नहीं हैं। ये
तो एक महासाधक
के अनुभव हैं।
इन्हें तुम
अनुभव बनाओ, तो ही इनका
राज खुलेगा।
इन्हें तुम
प्रयोग बनाओ
और इनके लिए
तुम
प्रयोगशाला
बनो, तो ही
ये सूत्र सत्य
हो सकेंगे।
सतां हि सत्य। तस्मात्सत्ये
रमन्ते।
रमो इन
सत्यों में।
इन सत्यों को
तुम्हारा
स्वभाव बनने
दो। तब
तुम्हारे
जीवन में
"उसकी' वर्षा
हो जायेगी:
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं
पुराणो।
उस
शाश्वत की जो
सदा से है और
सदा रहेगा। और
उस शाश्वत की
वर्षा होते ही
क्षणभंगुर से
छुटकारा हो
जाता है।
क्षणभंगुर को
छोड़ना नहीं
पड़ता। पानी के
बबूलों को कोई
छोड़ता है? बोध आया--छूट
गये! अज्ञान
में पकड़ता
है, ज्ञान
में छूट जाता
है। अज्ञान
में हम संसार
को पकड़ते
हैं, ज्ञान
में हम स्वयं
को पकड़ लेते
हैं। और जिसने
स्वयं को पा
लिया, उसने
सब पा लिया।
और जिसने
स्वयं को खोया,
वह कुछ भी
पा ले, तो भी
उसका पा लिया
हुआ कुछ सिद्ध
न होगा। एक न
एक दिन वह रोयेगा।
उसकी आंखें
आंसुओं से भरी
होंगी।
आज
वे मेरे गान
कहां हैं?
टूट
गई मरकत की
प्याली
लुप्त
हुई मदिरा की
लाली
मेरा
व्याकुल मन बहलानेवाले
अब
सामान कहां
हैं?
अब
वे मेरे गान
कहां हैं?
जगती
के नीरव मरुथल
पर
हंसता
था मैं जिनके
बल पर
चिर
वसंत-सेवित
सपनों के
मेरे
वे उद्यान
कहां हैं?
अब
वे मेरे गान
कहां हैं?
इसके
पहले कि आंखें
आंसुओं से भर
जायें और हृदय
केवल राख का
एक ढेर रह
जाये, जागो! इसके पहले
कि जीवन हाथ
से बह जाये, छिटक जाये, उठो! अवसर को
मत खोओ!
जीवन
अल्प है। उसे
व्यर्थ में मत
गंवा दो।
मंदिर
तुम्हारे
भीतर है। अगर
समय का तुम
ठीक उपयोग
करना सीख जाओ, सामायिक सीख
जाओ--मंदिर
में प्रवेश हो
जाये।
समय को
संसार में
लगाना और समय
को संसार से
मुक्त कर
लेना--बस दो
आयाम हैं।
समय को
संसार से
मुक्त करो।
समय को संसार
की व्यस्तता
से मुक्त करो!
सामायिक फलित
होगी! अपने में
प्रवेश होगा! आत्मधन
मिलेगा! आत्मगीत
बजेगा! आत्मा
का नर्तन!
तन्मय होकर
तुम डूबोगे!
आज
इतना ही।
THANK YOU GURUJI
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