प्रश्नसार:
1—कृष्ण
कहते हैं कि
मारो और
महावीर कहते
हैं कि हिंसा
का
विचार-मात्र
हिंसा है।
कृपया बतायें
कि दोनों में
श्रेष्ठ कौन
है?
2—बहुत
समय से मैं आपके
पास हूं और में
बहुत अज्ञानी और
निर्बुद्धि हूं—यह
आप भली भांति जानते
है। आपकी कहीं
अनेक बाते
मेरे सर के ऊपर
से गुजर जाती है।
परमात्मा की प्यास
का मुझे कुछ पता
नहीं? फिर
मैं क्यों यहां
हूं और यह ध्यान—साधना
वगैरह क्या कर
रही हूं?
3—जीवन
व अस्तित्व के
परम सत्यों की
क्या निरपेक्ष
अभिव्यक्त्िा
संभव नहीं है?
4—किसी
प्यासे को जब
मैं आपके पाल लाती
हूं तो वह मुझसे
दूर हो जाता है।
मुझे एक तड़प सी
होती है।
5—लेकिन
‘तेरी जो मर्जी’ कहकर गा पड़ती
हूं: ‘राम श्री
राम जय जय राम।’
पहला
प्रश्न:
कृष्ण
कहते हैं कि
मारो और
महावीर कहते
हैं कि हिंसा
का
विचार-मात्र
हिंसा है।
कृपया बतायें
कि दोनों में
श्रेष्ठ कौन
है?
श्रेष्ठ
और अश्रेष्ठ
के प्रश्न
अत्यंत
अज्ञान से भरे
हुए हैं। उस
ऊंचाई पर
तुलना काम
नहीं आती। और
तुलना करने
वाला मन न तो
महावीर को समझ
सकेगा और न
कृष्ण को समझ
सकेगा। क्योंकि
तुलना करने
वाला मन
दुकानदार का
मन है, समझदार
का नहीं।
ऐसा ही
समझो कि जैसे
एक गिलास में
आधा जल भरा हुआ
रखा हो और कोई
कहे कि आधा
गिलास खाली है
और कोई कहे कि
आधा गिलास भरा
है, और तुम
मुझसे पूछो कि
दोनों में श्रेष्ठ
कौन है, तो
तुम बात समझे
ही नहीं। जो
आधा खाली है
वह आधा भरा भी
है। जो आधा
भरा है वह आधा
खाली भी है। दोनों
ने कहने के
अलग-अलग ढंग
चुने हैं। एक
ने विधेय पर
जोर दिया, एक
ने निषेध पर
जोर दिया। एक
ने भरे हिस्से
को देखा, एक
ने खाली
हिस्से को
देखा। लेकिन
दोनों ने ही
सत्य की तरफ
इशारा किया।
कृष्ण
कहते हैं, कर्तृत्व
तेरा नहीं है,
परमात्मा
का है। इसलिए
मैं करनेवाला
हूं, यह
भाव ही छोड़
दे। यह भाव ही
हिंसा है। मैं
निमित्त-मात्र
हूं; वह जो करवायेगा,
मैं करूंगा;
मैं बीच में
न खड़ा होऊंगा।
मैं कोई बाधा
न डालूंगा।
मैं बांस
की पोंगरी की
तरह हो जाऊंगा; वह जो
गायेगा, जो
गुनगुनायेगा,
उसकी मर्जी!
अगर
ठीक से समझो
तो कृष्ण ने
यह नहीं कहा
है कि तू मार; कृष्ण ने तो
इतना ही कहा
है, वह
तुझे निमित्त
बनाये मारने
में तो मार।
कृष्ण की गीता
को इस दृष्टि
से कभी देखा
नहीं गया।
सोचो कि अर्जुन
की जगह कोई
दूसरा
व्यक्ति होता
तो अंततः यह
निष्कर्ष भी
ले सकता था कि
मैं संन्यास
लेता हूं
क्योंकि उसकी
मर्जी
संन्यास की
है। अपने को
सब भांति छोड़
देता और फिर
कृष्ण से कहता
कि क्षमा करें,
अपने को सब
भांति छोड़ रहा
हूं, तो एक
ही भाव उठता
है कि संन्यास
ले लूं। तो जब
उसकी मर्जी
संन्यास की है
तो मैं कैसे लडूं? जब
एक ही भाव सब
श्वासों में
मेरे गूंज रहा
है कि छोड़ दूं
सब, चला
जाऊं
वन-प्रांत में,
तो जाता
हूं। तो कृष्ण
इनकार न करते
कि तूने गलत
किया। कृष्ण
कहते, जो
वह करवाये
वही कर।
अर्जुन
युद्ध किया, क्योंकि
अर्जुन का
सारा
व्यक्तित्व
क्षत्रिय का
था। अर्जुन जो
संन्यास की
बात कर रहा था,
वह ऊपर-ऊपर
थी, बौद्धिक
थी; वह
वास्तविक न
थी। अगर
वास्तविक
होती तो कृष्ण
की गीता से वह
संन्यास का ही
सार लेता।
कृष्ण
की गीता में
ठीक-ठीक
निर्देश नहीं
है कि क्या
करो; कृष्ण की
गीता में तो
इतना ही
निर्देश है कि
तुम मत करो, उसे करने
दो। फिर अगर
उसने यही चुना
है कि तुमसे
हजारों लोगों
को कटवा
दे, तो
उसकी मर्जी!
तुम यह मत
सोचना कि तुम
कर रहे हो।
तुम अपने को
सब भांति
समर्पित करो।
कृष्ण
की भाषा
समर्पण की
भाषा है। तुम
इस भांति शून्यवत
खड़े हो जाओ कि
जहां उसकी हवाएं
ले जायें वहीं
चले जाओ। तुम तैरो
मत--बहो।
जब
अर्जुन ने
अपने को छोड़ा
तो तत्क्षण
उसका संन्यास
का भाव विदा
हो गया। वह
युद्ध के लिए
तत्पर हो गया।
उसने गांडीव
फिर उठा लिया।
क्योंकि वह
बांसुरी बनी
ही उसके लिए
थी। वही गीत
अर्जुन गा
सकता था।
अर्जुन
योद्धा था, क्षत्रिय
था। वह
परमात्मा का
सैनिक ही हो
सकता था, परमात्मा
का संन्यासी
नहीं हो सकता
था। वह उसकी
नियति थी।
इसलिए
तुम...यह
प्रश्न किसी
जैन ने पूछा
है, इसलिए वह
कहता है, "कृष्ण
कहते हैं कि
मारो।' कृष्ण
कहते नहीं कि
मारो। कृष्ण न
कहते कि मत मारो।
कृष्ण इतना ही
कहते हैं, जो
करवाये...!
तुम निर्णय न
लो, उसी को
निर्णय दो।
बागडोर उसके
हाथ में दे
दो। तुम शून्यवत
खड़े हो जाओ।
और जो अंतर्तम
से उठे, जो
उसकी आवाज आये
उसी दिशा में
चल पड़ो।
कृष्ण का
मार्ग समर्पण
का है। अर्जुन
युद्ध में गया,
क्योंकि सब
भांति अपने को
शून्य करके
उसने यही पाया
कि यही आवाज
आती है कि
"कर्तव्य को
पूरा कर! अब
फिर मैं क्या
कर सकता हूं?'
महावीर
कहते हैं, हिंसा का
भाव-मात्र
हिंसा है।
कृष्ण भी यही
कहते हैं अगर
तुम समझने की
कोशिश करो।
कृष्ण तो यह
भी कहते हैं
कि हिंसा का
भाव तो हिंसा
है ही, अहिंसा
तक का भाव कि
मैं अहिंसा
करता हूं, हिंसा
है। मैं करता
हूं, इसमें
हिंसा है। जोर
कृत्य पर नहीं
है, कर्ता
पर है। मैं
हूं, यही
हिंसा है।
"मैं' को
हटा लो, अहिंसा
हो जाएगी।
अर्जुन
युद्ध में लड़कर
भी अहिंसक रहा, हिंसक नहीं
है। क्योंकि
जिसने अपना
कर्तव्य ही
हटा लिया, जिसने
अपना
कर्ता-भाव ही
हटा लिया, उसको
अब तुम कर्म
के लिए दोषी न
ठहरा सकोगे। दोनों
एक ही बात कह
रहे हैं।
कृष्ण का जोर
है कि कर्ता-भाव
गिरा दो, और
महावीर का जोर
है कि कर्म को
रूपांतरित कर दो।
अब
थोड़ा समझना।
अगर तुम हिंसक
कर्मों को
छोड़ते चले जाओ
तो तुम्हारा
"मैं' गिरने
लगेगा, क्योंकि
"मैं' बिना
हिंसा के खड़ा
नहीं रह सकता।
"मैं' के
लिए हिंसा
चाहिए--बड़ी
सूक्ष्म हो, स्थूल हो, लेकिन हिंसा
चाहिए।
पड़ोसी
ने मकान बनाया, तुम बड़ा
मकान बना
लो--हिंसा हो
गई। क्योंकि
तुमने बड़ा
मकान सिर्फ
बनाया इसलिए
कि अब पड़ोसी को
नीचा दिखाना
है। यह इसने
इतनी हिम्मत
कैसे की कि मेरे
रहते इतना बड़ा
मकान पड़ोस में
खड़ा कर दिया।
अब चाहे सारा
जीवन दांव पर
लग जाये, बड़ा
मकान बनाकर
दिखाना है। तो
तुमने बड़ा
मकान बनाया, "मैं' को
बड़ा
किया--हिंसा
हो गई।
तुम
किसी आदमी के
पास से अकड़कर
निकल
गये--हिंसा हो
गई। हिंसा
तुम्हारी
जहां भी "मैं' की धारा
गहरी होती है,
वहीं हो
जाती है।
तो
महावीर ने कहा, कर्मों को छोड़ो, जिनसे
हिंसा होती
है। जिनसे
दूसरे को चोट
लगती है, वह
छोड़ो।
जिनसे दूसरों
को दुख होता
है, वह छोड़ो।
और तब तुम
चकित होकर देखोगे
कि जिससे
दूसरे को चोट
लगती है, उसी
से तुम्हारा
अहंकार मजबूत
होता है, और
कोई उपाय नहीं
है। भोजन ही
अहंकार का यही
है कि दूसरे
को चोट लगे।
सांस्कृतिक, सभ्य ढंग से
लगे कि असभ्य
ढंग से लगे; तुम किसी को
गाली दो कि
किसी का
व्यंग्य करो;
तुम किसी को
जिंदगी के
युद्ध में पछाड़
दो, गिरा
दो; या तुम
त्याग के
युद्ध में
किसी को हरा
दो कि तुम किसी
को अपने से
छोटा त्यागी
करके सिद्ध कर
दो--कोई फर्क
नहीं पड़ता।
तुम कोई भी
माध्यम चुनो,
जिस माध्यम
से भी दूसरे
को दुख हो
सकता है, वह
माध्यम हिंसा
है। और हिंसा
से "मैं' मजबूत
होता है।
तो
महावीर कहते
हैं, हिंसा के
सारे कृत्य
छोड़ दो। हिंसा
का भाव तक छोड़
दो, कृत्य
की तो बात
अलग। क्योंकि
भाव भी काफी
है; वह भी
भोजन बन
जायेगा, वह
भी अहंकार को
मजबूत करेगा।
जब तुमने
हिंसा के सब
भाव, कृत्य
छोड़ दिये, तुम
अचानक पाओगे
तुम्हारा
"मैं' धूल-धूसरित
हो गया, गिर
पड़ा, समाप्त
हो गया।
यह
महावीर की
प्रक्रिया है:
कर्म के
विसर्जन से
कर्ता का
विसर्जन!
निश्चित ही यह
प्रक्रिया क्रमिक
होगी। एक-एक
कर्म को ध्यान
रखकर, साधना
साधनी होगी, एक-एक कर्म
का हिसाब रखकर
चलना होगा, क्योंकि बड़े
सूक्ष्म हैं
कर्म...जरा-सी
आंख का इशारा
और हिंसा हो
जाती है। तो
बड़ी लंबी
प्रक्रिया है,
संकल्प का
मार्ग है।
इंच-इंच लड़ना
होगा, पहाड़
चढ़ना
होगा।
कृष्ण
कहते हैं, ऐसा एक-एक
कर्म को छोड़ोगे
फुटकर-फुटकर,
लंबा समय लग
जायेगा। और
फिर कृष्ण और
अर्जुन के बीच
समय था भी
नहीं। कृष्ण
की जो गीता है,
वह एक विशेष
परिस्थिति
में कही गई है।
महावीर अपने
शिष्यों से
बोल रहे थे
चालीस साल तक।
कृष्ण की गीता
तो क्षणों में
हो गई। ये कोई
साधारण क्षण न
थे, बड़े
असाधारण क्षण
थे। बड़ी संकट
की स्थिति थी।
यहां अगर
एक-एक कर्म को
छोड़ने के लिए
कृष्ण कहें, समय ही न था।
युद्ध द्वार
पर खड़ा था।
युद्ध सामने
खड़ा था। शंख
बज गये थे।
युद्ध की
घोषणा हो गई
थी। योद्धा
एक-दूसरे के
सामने अड़े थे।
अर्जुन ने भी
कहा था, मेरे
रथ को ले चलो
बीच युद्ध
में। और कृष्ण
युद्ध के बीच
में रथ को ले
आये थे। ठीक
उस क्षण में
जब युद्ध
सामने था, क्षणभर
की देर न थी, शंख फूंके
जा रहे थे, युद्ध
शुरू होने के
करीब था, जल्दी
ही मार-धाड़
होगी--तभी
अर्जुन को
दिखाई पड़ा, रोमांचित हो
आया, एक
पुलक हुई। उसे
लगा, यह तो
व्यर्थ है।
इतना युद्ध, इतनी
हिंसा--क्या
सार है? उसके
हाथ ढीले पड़
गये, गात
शिथिल हुए, गांडीव हाथ
से छूट गया।
वह थका-मांदा,
डरा हुआ रथ
में बैठ गया।
उसने कृष्ण से
कहा, मैं
तो सोचता हूं
कि सब छोड़कर
चला जाऊं।
यह बड़े
संकट का क्षण
था। यहां कोई
ऐसी प्रक्रिया
जिसमें
जन्मों-जन्मों
लगते, साधना
करनी पड़ती हो,
काम की नहीं
हो सकती थी।
तो कृष्ण ने
जो कहा, वह
ऐसा था कि
तत्क्षण हो
सके, एक
छलांग में हो
सके।
संकल्प
तो धीरे-धीरे
होता है।
संकल्प
यात्रा
है--सीढ़ी दर
सीढ़ी, इंच-इंच,
रत्ती-रत्ती।
वह फुटकर काम
है। समर्पण
छलांग है--थोक,
इकट्ठा। एक
क्षण में भी
हो सकता है।
महावीर
जिन शिष्यों
को बोल रहे थे, वे युद्ध के
स्थल पर न थे।
इस विशेष
परिस्थिति को
खयाल में
रखना। तो
कृष्ण यह तो
कह नहीं सकते
कि तू अपने
कर्म बदल!
कृष्ण यही कह
सकते हैं कि
अब ऐसी घड़ी
में तू अपने
कर्ता को ही
रख दे। और
कर्ता को रखने
से भी वही हो जाता
है। क्योंकि
अंततः कर्मों
को बदलने से
कर्ता ही
गिरेगा; तो
जब कर्ता को
ही गिराना है
तो सीधा ही
गिरा दो।
कर्ता को ही छोड़
दो।
समर्पण
भक्त का मार्ग
है। वह कहता
है, परमात्मा
के चरणों में
रख दो; कह
दो कि मैं कुछ
हूं नहीं, अब
जो हो तेरी
मर्जी! बुरा करवायेगा,
बुरा
करेंगे; अच्छा
करवायेगा,
अच्छा
करेंगे। अब
करना हमारा
नहीं है।
लेकिन
दोनों ही हालत
में एक ही
घटना घटती है।
अंतिम परिणाम
एक है। इसलिए
जो ऐसा पूछता
है कि दोनों
में कौन
श्रेष्ठ है, वह गलत
पूछता है। वह
दोनों में से
किसी को भी नहीं
समझा। तुम अगर
महावीर को समझ
लो, कृष्ण
समझ में आने
ही चाहिए। अगर
तुम कृष्ण को
समझ लो और
महावीर समझ
में न आयें, तो कृष्ण
समझ में नहीं
आये। मेरे देखे
जिसने एक
अनुभवी को समझ
लिया, उसने
सब अनुभवियों
को समझ लिया।
फिर उसे भाषा,
ढंग, अभिव्यक्ति,
अभिव्यंजना
के प्रकार, उलझाव में न
डाल सकेंगे।
फिर कोई चीज
उसकी आंखों को
धुंधला न कर
सकेगी। लेकिन
मैं देखता हूं
कि जो महावीर
के पक्ष में
हैं, वे
कृष्ण के
विपक्ष में
हैं। जो कृष्ण
के पक्ष में
हैं, वे
महावीर के
विपक्ष में
हैं। जो
महावीर के पक्ष
में है, वह
मुहम्मद के
पक्ष में तो
हो ही कैसे
सकता है? जो
मुहम्मद के
पक्ष में है, वह कैसे
महावीर की बात
को बरदाश्त कर
सकता है?
साफ है, इनमें से
कोई भी समझा
नहीं।
इन्होंने
शब्द पकड़ लिये
हैं। ये लड़
रहे हैं
एक-दूसरे से; क्योंकि एक
कहता है गिलास
आधा खाली है, और दूसरा
कहता है गिलास
आधा भरा है।
ये सिर काटने-कटवाने
को तैयार हैं।
स्वभावतः
भाषा में दोनों
अलग-अलग मालूम
पड़ते हैं। एक
कहता है, आधा
खाली है, तो
जोर मालूम
होता है खाली
पर; एक
कहता है आधा
भरा है, तो
जोर मालूम
होता है भरे
पर। अब खाली
और भरा! विरोधाभासी
हो गये। लेकिन
जरा आधे का
खयाल रखना। उस
आधे में ही
सारा सार है।
मेरे
देखे दोनों की
बातों में कोई
गहरा अंतर नहीं
है--हो नहीं
सकता।
तुम्हें न
दिखाई पड़े तो अपनी
आंखों पर थोड़े
पानी के छींटे
मारना। थोड़ा
जागने की
कोशिश करना।
जल्दी
निर्णय मत
लेना।
जब भी
तुम्हें दो
सत्पुरुषों
में कोई विरोध
दिखाई पड़े, तो पहली बात
तो तुम यही
सोचना कि मेरे
देखने में
कहीं भूल हुई
जा रही है।
इसे तुम गांठ
में बांधकर रख
लो। जब भी
तुम्हें दो
सत्पुरुषों
में कोई विरोध
दिखाई पड़े, तो पहली बात
तो तुम यही
सोचना कि
मुझसे कहीं भूल
हुई जा रही है;
कहीं मेरे
देखने, समझने
में, कहीं
मेरी चिंतना
में, परिभाषा
में, व्याख्या
में, चूक
हुई जा रही
है। क्योंकि
दो सत्पुरुष
विपरीत बातें
तो कह नहीं
सकते--विपरीत
कहें तो भी विपरीत
कह नहीं सकते।
उनकी
विपरीतता में
भी कहीं कोई
तालमेल होगा।
उनकी
विपरीतता के
बीच भी कोई
सेतु
होगा--होना ही
चाहिए। इससे
अन्यथा की कोई
सुविधा नहीं
है।
लेकिन
तुम्हारा मन
तो जैसे और
संसार में
चीजों के बाबत
विचार करता है, तुलना करता
है--कौन अच्छा,
कौन बुरा, कौन सुंदर, कौन असुंदर,
कौन ज्ञानी,
कौन
अज्ञानी--इन्हीं
मूल्य-मापदंडों
को लेकर तुम
उस परम लोक
में भी खड़े हो
जाते हो। तो
वहां भी कौन
बड़ा, कौन
छोटा, कौन
आगे, कौन
पीछे, किसने
ज्यादा जाना,
किसने कम
जाना, किसका
जानना ठीक, किसका
गैर-ठीक--इस
चिंतना में पड़
जाते हो। और इस
सब चिंतना के
भीतर एक बात
तुम कभी सोचते
ही नहीं कि
मैंने अभी कुछ
भी देखा नहीं
है। तो जिन दो
देखनेवालों ने
कुछ कहा है, मैं न
देखनेवाला, अंधा, कैसे
तय करूं कि
कौन ठीक कहता
होगा? अगर
तय ही करना हो
तो देखकर ही
तय करना--आंख
खोलकर रोशनी
से भरकर। तब
तुम हंसोगे।
ऐसा ही समझो
कि इस बगीचे
में एक कवि आ
जाये और लौटकर
तुम उससे पूछो,
क्या देखा,
और वह एक
गीत गुनगुनाये।
अब सभी तो गीत
न गुनगुना
सकेंगे।
दूसरा भी कोई
इस बगीचे
में आये; उसको
भी यही फूल
मिलेंगे, यही
वृक्ष होंगे,
यही हवाएं
होंगी, यही
पक्षियों के
गीत
होंगे--लेकिन
वह गीत गुनगुनाना
नहीं जानता।
वह भी जाकर
कहेगा बाहर, क्या देखा।
लेकिन
स्वभावतः कवि
के वक्तव्य में
और उसके
वक्तव्य में
भेद हो
जायेगा। कोई
तीसरा आदमी, लकड़हारा आ जाये, तो
वह यहां इस बगीचे
में सिर्फ लकड़ियां
देखेगा--कौन-कौन-सी
लकड़ियां
काटी जा सकती
हैं। कौन
आयेगा, कैसी
भाषा लेकर
आयेगा--इस पर
निर्भर
करेगा। फिर जब
वह जाकर अपना
वक्तव्य देगा
तो तुम यह मत
सोच लेना कि
ये अलग-अलग
वक्तव्य, अलग-अलग
बगीचों
के संबंध में
हैं। ये
वक्तव्य
बिलकुल
अलग-अलग होंगे,
फिर भी ये
एक ही बगीचे
के संबंध में
हैं।
सत्य
एक है; जाननेवालों ने उसे बहुत
ढंग से कहा
है। क्योंकि
जाननेवाला
अपने ही ढंग
से कहेगा। अब
महावीर और
मीरा के
वक्तव्य में
मेल नहीं हो
सकता। मीरा है
मदमस्त। मीरा
है स्त्री, महावीर हैं
पुरुष। मीरा
कहेगी नाचकर,
गुनगुनाकर। उसके पग के
घूंघर बजेंगे।
उस ढंग से
कहेगी।
महावीर न
नाचेंगे, न
पग में घूंघर
होंगे, न
गीत होगा।
महावीर के
वक्तव्य
बिलकुल वैज्ञानिक
होंगे, सूत्रबद्ध
होंगे। जितना
संक्षिप्त हो
सकता है, उतना
संक्षिप्त
होगा। और इन
दोनों के
वक्तव्य की
व्यवस्था
अलग-अलग होगी,
इससे तुम
चिंता में पड़
जाओगे।
लेकिन
तुमसे मैं एक
बात कह देता
हूं: तुम तब तक निर्णय
मत लेना जब तक
तुम न जान लो।
फिर
तुम पूछोगे, "हम करें
क्या? जानें
कहां से?'
मैं
कहता हूं, किसी को भी
चुन लो।
श्रेष्ठ-अश्रेष्ठ
का सवाल नहीं
है। जो
तुम्हें मौजू
पड़ जाये, जो
तुम्हें रास
पड़ जाये, जिससे
तुम्हारा मेल
बैठ जाये--वही
तुम्हारे लिए
श्रेष्ठ है।
नहीं तो तुम
मुश्किल में
पड़ जाओगे। अगर
तुम यह सोचने
लगे कि तय ही
नहीं करना है
कि कौन
श्रेष्ठ है, तो फिर हम
चलें किसके
साथ! जब तुम तय
करना चाहते हो
कौन श्रेष्ठ
है, तो कौन
श्रेष्ठ है, यह तय करने
के लिए मत
करना। तुम तो
इतना ही तय करना,
मेरे लिए
कौन! "मेरे' का खयाल
रखना। वह
वक्तव्य
तुम्हारी
सापेक्षता
में है। नहीं
अगर तुम तय न
कर पाये तो
तुम मुश्किल
में पड़ोगे--
काबे
से दैर, दैर
से काबा
मार
डालेगी राह की
गर्दिश।
फिर
मंदिर से
मस्जिद, मस्जिद
से मंदिर--राह
की धूल ही मार
डालेगी। कुछ
तो तय करना ही
पड़ेगा--मंदिर
या मस्जिद।
कहीं तो बैठकर
प्रार्थना
करनी है! कहीं
तो पूजा करनी है!
तो अगर
तुम ऐसे डावांडोल
होने लगे तो
मुश्किल हो
जायेगा। अगर
तुमने यह सवाल
इसलिए पूछा है
कि मेरे लिए
कौन ठीक पड़ेगा, तब तो ठीक
पूछा है। अगर
महावीर और
कृष्ण के बीच
निर्णय करने
को पूछा है, तो बिलकुल
गलत पूछा है।
हां, तुम्हारे
लिए कोई एक
ठीक पड़ेगा।
जिनको
जीवन में
संकल्प में रस
है और जिनको
समर्पण करना
असंभव है, उनके लिए
महावीर ठीक
हैं। जिनके
लिए समर्पण सुगम
है और संकल्प
कठिन है, उनके
लिए कृष्ण ठीक
हैं।
कृष्ण
कहते हैं, मामेकं शरणं व्रजः। सब
छोड़! सर्व धर्मान्
परित्यज्य;
छोड़-छाड़
सब धर्म! मेरी
शरण आ जा! यही
धर्म है, यही
परम धर्म है।
महावीर
कहते हैं, शरण भूलकर
किसी की मत
जाना। शरण गये
कि उलझे। शरण
गये कि दास
बने। शरण से
कहीं मोक्ष
उपलब्ध होगा?
यह शरण तो
गुलामी है।
अशरण-भावना--महावीर
का सूत्र है।
अशरण-भावना। कोई
शरण नहीं! कहीं
कोई शरण नहीं
है--अपने ही
पैर पर खड़े
होना है।
दोनों
ठीक हैं। मगर
दोनों एक साथ
तुम्हारे लिए
ठीक नहीं हो
सकते। दोनों
एक साथ मेरे
लिए ठीक हैं।
तुम्हें दो
में से कोई एक
चुनना पड़ेगा।
अन्यथा--
काबे
से दैर, दैर
से काबा
मार
डालेगी राह की
गर्दिश।
धुआं, धूल, राह
की आपाधापी
में ही तुम
नष्ट हो
जाओगे: समय ही
न बचेगा मंदिर
में प्रवेश
करने का कि
मस्जिद में
प्रवेश करने
का।
प्रार्थना
करनी है तो
कहीं तो चुनना
ही होगा।
लेकिन चुनाव
का ध्यान
रखना--"मेरे' कारण चुन
रहा हूं; उनमें
कौन श्रेष्ठ
है, इस
कारण नहीं।
सापेक्षता
अपनी तरफ
रखना। यह मैं
दोनों को साथ
नहीं चुन
सकता। इतना
बड़ा मेरे पास
हृदय नहीं।
इतनी विराट
मेरी दृष्टि
नहीं कि दोनों
को साथ-साथ
सम्हालूं! इतना
मेरे घर में
स्थान नहीं कि
दोनों को साथ-साथ
मेहमान बना
लूं! यह
मजबूरी मानकर
चुनना कि घर
छोटा है और एक
को ही बुला
सकता हूं।
जिस
दिन तुम
जागोगे, उस
दिन तो तुम
पाओगे: दोनों
एक ही सत्य के
दो भिन्न
चेहरे हैं।
लेकिन तब तक
तुम्हें
निर्णय करना
जरूरी है। और
यह निर्णय
बहुत जागरूक
रहकर करना। यह
निर्णय जन्म
पर मत छोड़
देना कि तुम जैन
घर में पैदा
हुए तो महावीर
तुम्हें
श्रेष्ठ होने
ही चाहिए।
काश! चीजें
इतनी आसान
होतीं! कि तुम
हिंदू घर में
पैदा हुए, इसलिए
कृष्ण
तुम्हें
श्रेष्ठ होने
ही चाहिए।
काश! जन्म ने
इतना तय कर
दिया होता तो
मार्ग बड़ा
सुगम हो जाता।
लेकिन ऐसा कुछ
भी तय नहीं होता।
ऐसा कुछ भी तय
होने का उपाय
नहीं है।
जीसस
यहूदी घर में
पैदा हुए
लेकिन
यहूदियों का
मार्ग न जमा।
मुहम्मद मूर्ति-पूजक
घर में पैदा
हुए थे, लेकिन
मूर्ति-पूजा
का मार्ग न
जमा। महावीर
पैदा हुए थे
तो राज-घर में,
क्षत्रिय
थे, युद्ध
का ही शिक्षण
मिला था; लेकिन
युद्ध की भाषा,
राजमहल, क्षत्रिय,
राजनीति, न जमी। छोड़
सब, संन्यासी
हो गये।
क्या
तुम्हें
जमेगा? जन्म
से मत पूछना
कि कहां हम
पैदा हुए।
वहां पूछा तो
भटकाव का डर
है। क्या
तुम्हें
जमेगा? थोड़ा
सम्हलकर अपनी
वृत्तियों का
परीक्षण-निरीक्षण
करना, विश्लेषण
करना। अपने रस
की धार को
पहचानना। ज्यादा
देर न लगेगी, थोड़े प्रयोग
करने से साफ
हो जायेगा कि
कौन-सी बात
जमती है।
कौन-सा भोजन
तुम्हें रास
आता है, यह
तुम्हें
जल्दी ही पता
चल जायेगा। जो
भोजन रास
आयेगा, उसे
पाकर
प्रफुल्लता
मालूम होगी।
जो भोजन रास न
आयेगा, उसे
ले लेने के
बाद बोझ मालूम
होगा; जैसे
पेट पर पत्थर
डाल दिये; मतली
होगी। शरीर
उसे बाहर फेंक
देना चाहेगा।
व्यवस्था उसे
स्वीकार न करेगी।
ठीक
ऐसा ही आत्मिक
भोजन है। जब
तुम्हें कोई
मार्ग रास आ
जाता है, तत्क्षण
सब तरफ फूल खिलने
लगते हैं। तुम
प्रसन्न हो
जाते हो। तुम
प्रफुल्लित
हो जाते हो।
वह लक्षण है।
अगर तुम सूख जाओ,
उदास हो जाओ,
दीन हो जाओ,
तो बस बात
खराब हो गई।
मैंने
सुना है, एक
पादरी, एक
ईसाई
धर्मगुरु, एक
रास्ते से
गुजर रहा था।
अचानक बादल
उठे, जोर
की आंधी आई, बिजलियां चमकीं, वर्षा
मूसलाधार
होने लगी। तो
वह भागकर पास
के एक झाड़ के
नीचे खड़ा हो
गया। घनी छाया
थी। झाड़ के
नीचे एक बूढ़ा
भी बैठा हुआ
था। वह बूढ़ा
प्रार्थना कर
रहा था। उस
धर्मगुरु ने
खुद भी जिंदगीभर
हजारों लोगों
को प्रार्थना
करवाई थी, खुद
भी हजारों बार
प्रार्थना की
थी; लेकिन
प्रार्थना
में कभी रस न
पाया था। करता
था एक औपचारिक
क्रिया-कांड।
ईसाई घर में
पैदा हुआ था, फिर ईसाई
पादरी की तरह
शिक्षित हो
गया, तो
दूसरों को भी
करवाता था; लेकिन मन
में कभी तरंग
न उठी थी। इस
बूढ़े को डोलते
देखा। इस बूढ़े
के टूटे-फूटे
शब्द! लेकिन उसकी
आंखों की
मस्ती! उसके
चेहरे पर एक
आभामंडल! उसे
पहली दफे लगा:
अरे! तो
प्रार्थना
मैंने अब तक
जानी नहीं!
ऐसी शांत! ऐसी
उपस्थिति! ऐसी
पवित्र
उपस्थिति
उसने कभी
अनुभव न की
थी।
उस
बूढ़े के चेहरे
पर झुर्रियां
पड़ गई थीं।
बड़ा बूढ़ा था, काफी उम्र
हो गई थी, नब्बे
के करीब उम्र
होगी। लकड़हारा
था, लकड़ियों का ढेर बगल
में रखा था।
लौटता होगा
शहर, वर्षा
आ गई तो रुक
गया। समय
प्रार्थना का
हो गया, तो
प्रार्थना कर
रहा था। जब
प्रार्थना
पूरी हो गई, तो पादरी ने
बड़े अहोभाव से
पूछा कि
तुम्हारा ईश्वर
से बड़ा प्रेम
है! उस बूढ़े ने
कहा, "हां,
उसका भी
मेरे प्रति
बड़ा प्रेम है!
सच कहूं तो वह
मुझे काफी
चाहता है।'
उस
पादरी का जीवन
मैं पढ़ रहा
था। उसने लिखा
है, प्रार्थना
के संबंध में
इससे अदभुत
वचन मैंने
अपने जीवन में
कभी नहीं सुने
थे। उस बूढ़े
ने कहा कि अगर
सच कहूं, तो
वह मुझे काफी
चाहता है।
प्रार्थना
रास आ जाये, तुम्हारे
रुझान में बैठ
जाये, तो
ऐसा ही नहीं
कि तुम
परमात्मा को
चाहते हो, तत्क्षण
तुम पाओगे: वह
भी तुम्हें
चाहता है।
चाहत कोई एक
तरफ थोड़े ही
होती है! तुम
उस तरफ से भी
पाओगे: संवाद
आने लगे, संदेश
आने लगे। तुम
उस तरफ से भी
पाओगे: हजार-हजार
रूपों में
उसका प्रेम
तुम पर बरसने
लगा।
हां, अगर
प्रार्थना
जमे न, तो
तुम्हीं करते
रहोगे; दूसरी
तरफ से कुछ भी
न आयेगा। बोझ
लगेगा। करना
है, इसलिए
कर लोगे।
कर्तव्य है, इसलिए पूरा
निपटा दोगे।
सदा घर में
होती रही इसलिए
करना है, तो
कर देते हैं।
लेकिन पुलक न
होगी। अहोभाव
न होगा। आनंद
न होगा।
और जिस
प्रार्थना
में अहोभाव न
हो, उस
प्रार्थना से
कैसे
तुम्हारी भूख
मिटेगी।
तो
ध्यान रखना, अपनी भीतर की
दशा को
पहचानना
ज्यादा जरूरी
है। महावीर ठीक
हैं, श्रेष्ठ
हैं, कि
कृष्ण--यह बात
तो फिजूल।
तुम्हें
महावीर जमते
हैं? सिर्फ
इसलिए नहीं कि
तुम जैन घर
में पैदा हुए हो।
अगर सिर्फ
इसलिए जमते
हैं तो तुम भटकोगे।
अगर सच में
जमते हैं, ऐसे
जमते हैं कि
अगर तुम
मुसलमान घर
में भी पैदा
होते तो भी
तुम जैन मंदिर
में ही
प्रार्थना
करने गये होते;
ऐसे जमते
हैं कि तुम
चाहे हिंदू घर
में पैदा होते,
चाहे बचपन
से गीता सुनी
होती, लेकिन
जिस दिन
महावीर का
शब्द
तुम्हारे कान
में पड़ता, सब
गीता-वीता
भूल जाते और
तुम महावीर के
पीछे दौड़
पड़ते--ऐसे
जमते हैं तो
फिर महावीर
तुम्हारे लिए
मार्ग हैं।
नहीं ऐसे जमते
हैं, इतने
जोर की पुकार
नहीं
तुम्हारे
भीतर पैदा होती
उनके नाम को
सुनकर, उनके
नाम को सुनकर
तुम्हारे
हृदय में कोई घंटियां
नहीं बजतीं,
सुन लेते हो
कि ठीक है, अपना
धर्म है--तो
फिर कुछ सार
नहीं। फिर तुम
कहीं और खोजो।
फिर किसी और
मंदिर के द्वार
पर दस्तक दो।
धर्म
हमेशा ही अपना
चुना हुआ होता
है, तो ही
होता है।
दुनिया
अधार्मिक हो
गई, क्योंकि
धर्म को हम
जन्म से तय
करते हैं।
धर्म कोई
वसीयत थोड़े ही
है। और धर्म
का कोई खून, हड्डी, मांस-मज्जा
से थोड़े ही
संबंध है!
धर्म कोई
वांशिक "हेरिडिटरी'
थोड़े ही है
कि तुम जैन घर
में पैदा हुए
तो तुम्हारा
खून जैन का
है। तो डाक्टर
से जाकर जांच
करवाकर देख लो
कि जैन और
हिंदू और
मुसलमान के खून
में...डाक्टर
कुछ पता न बता
सकेगा--कौन
हिंदू का है, कौन जैन का
है, कौन
मुसलमान का
है। हड्डी कोई
हिंदू, जैन,
मुसलमान
नहीं होती।
हिंदू, जैन,
मुसलमान, तो तुम्हें
निर्णय करना
होगा।
लेकिन
लोग कमजोर हैं, सुस्त हैं, काहिल हैं, कायर हैं।
कौन झंझट में
पड़े! इसलिए
कोई भी बहाने
से तय कर लेते
हैं कि चलो
ठीक है, जन्म
से ही हो गया
तय तो झंझट
मिटी। खुद तो
खोजने से बचे!
खुद तो विवेक
करने से बचे!
कौन विश्लेषण
करता, कौन
खोजता, कहां
जाते, किसको
पूछते, मुफ्त
तय हो गया--चलो
ठीक है।
यह तो
ऐसे ही है, जैसे रुपये
को तुम फेंककर
चित्त-पट्ट कर
लो और सोचो कि
इससे धर्म तय
हो जायेगा।
चित्त पड़े तो
महावीर, पट्ट
पड़ जाये तो
कृष्ण। जैसा
वो बेहूदा और अप्रासांगिक
है, ऐसे ही
जन्म भी
बेहूदा और अप्रासांगिक
है। कहां तुम
पैदा हुए हो, इससे
तुम्हारी
जीवन-चिंतना
और धारा का
कोई संबंध
नहीं है।
तुम्हें अपना
धर्म खोजना
पड़े।
खोज से
ही मिलता है
धर्म। धर्म
आविष्कार है।
और जब कोई खुद
खोजता है अपने
धर्म को, तो
उस खोज के
कारण ही धर्म
में एक रौनक
होती है। जो
व्यक्ति पहली
दफा महावीर को
खोजते हुए आये
थे, उन्होंने
जिस प्रकाश और
महिमा का आनंद
उठाया, वो
जैन घर में
पैदा हुए
पच्चीस सौ साल
बाद बच्चे
थोड़े ही उठा
रहे हैं!
जो
महावीर को
खोजते आये थे, जो दूर-दूर से
प्यासे होकर
आये थे, जिन्होंने
तीर्थयात्रा
की थी; जिन्होंने
महावीर को
चुना था सारे
संकटों के बावजूद;
जिन्हें
महावीर की
पुकार हृदय को
छू गई थी, आंदोलित
कर गई थी; जिन्होंने
क्राइस्ट को
चुना या
मुहम्मद को चुना
स्वेच्छा से,
अंतरंग
से...तो उतना
खयाल रखना। और
इतने ईमानदार
रहना।
क्योंकि अगर
यहां बेईमानी
हो गई, इस
बुनियादी बात
में बेईमानी
हो गई, तो
तुम सदा के
लिए भटक
जाओगे।
दूसरा
प्रश्न भी
इससे संबंधित
है। "गुणा' ने पूछा है:
बहुत
समय से मैं
आपके पास हूं
और मैं बहुत
अज्ञानी और
निर्बुद्धि
हूं, यह आप
भलीभांति
जानते हैं।
आपकी कही अनेक
बातें मेरे
सिर पर से
गुजर जाती
हैं। आप
परमात्मा से बिछुड़न की
जिस पीड़ा की
बात करते हैं,
वह पीड़ा
मुझे कभी हुई
नहीं।
परमात्मा की
प्यास का मुझे
कुछ पता नहीं।
फिर मैं क्यों
यहां हूं और
यह
ध्यान-साधना
वगैरह क्या कर
रही हूं?
"गुणा' की भी तकलीफ वही
है जो मैंने
अभी तुमसे
कही। वह जैन
घर में पैदा
हुई है; इसलिए
परमात्मा
शब्द सार्थक
नहीं है; प्यास
शब्द भी
सार्थक नहीं
है। जैन घर की
भाषा में
परमात्मा और
प्रार्थना के
लिए कोई स्थान
नहीं है।
संस्कार जैन
के हैं, प्राण
जैन के नहीं
हैं। ऊपर से
सारी धारा
बौद्धिकता से
तो जैन की है, और भीतर के
प्राण तो एक
अत्यंत भावुक
स्त्री के
हैं।
कृष्ण
से रंग बैठ
सकता था।
कृष्ण के साथ
नाच हो सकता
था। महावीर के
साथ नाच बैठता
नहीं। नाचो तो
उपद्रव मालूम
होगा महावीर
के साथ। वहां
नाच की कोई
संगति नहीं
है। वहां गीत, वाद्य की
कोई संगति
नहीं है। यही
कठिनाई है।
इसलिए
जब मैं कहता
हूं, परमात्मा
की प्यास, तो
जैन सुन लेता
है; लेकिन
उसके भीतर कुछ
होता नहीं।
उसके सारे संस्कारों
की
पर्तें--कैसा
परमात्मा!
कैसी प्यास!
मुझसे थोड़ा
लगाव है तो
सुन लेता है, बर्दाश्त कर
लेता है।
लेकिन ऐसे
उसकी पर्तों के
भीतर बात नहीं
उतरती।
ठीक
वैसा ही जब
मैं कहता
हूं--अशरण-भावना, संकल्प, स्वयं
अपने पैरों पर
खड़े हो
जाना--जब मैं
महावीर की बात
करता हूं तो
हिंदू सुन
लेता है, मुझसे
लगाव है।
लेकिन वह
सोचता है, कहीं
न कहीं यह तो
बड़ी अहंकार की
ही बात हो रही है।
अपने पैर पर
खड़े
होना--इसमें
कुछ समर्पण तो
है नहीं। सब
परमात्मा पर
छोड़ना है, और
इसमें कोई
समर्पण की बात
नहीं है। मेल
नहीं बैठता।
वही
कठिनाई "गुणा' की है। गुणा
के पास एक
भावुक हृदय है,
जो नाच सकता
है, गा
सकता है, गुनगुना
सकता है। उसको
जरूरत थी किसी
और भाषा की।
जैन भाषा उसके
काम की नहीं
है। जैन भाषा
में फंसी है।
उस भाषा के
बाहर आने की
हिम्मत भी
नहीं है।
कारागृह
पत्थर की
ईंटों के ही
नहीं होते, शब्दों की
ईंटों के भी
होते हैं--और
ज्यादा मजबूत
होते हैं।
बचपन से जो
सुना है, बचपन
से जो समझा है,
जिसके
संस्कार पड़े
हैं, वह
तुम्हारे चारों
तरफ दीवाल बन
जाती है। फिर
बाद में उस दीवाल
के बाहर
निकलने में
बड़ी घबड़ाहट
होने लगती है।
ऐसा लगता है, यह तो अधर्म
हो जायेगा।
इससे बाहर गये
तो अधर्म हो
जायेगा। इसके
भीतर रहने में
ही धर्म है। और
भीतर रहने में
प्राण
अकुलाते हैं।
महावीर
का ढंग बड़ा
भिन्न है।
मुझे
तलाश रही है
नहीं, तलाश नहीं--
तलाश
में तो तलब
जुस्तजू-सी
होती है
दबा-दबी
ही सही
आरजू-सी
होती है
न
आरजू न तलब है
न
जुस्तजू न
तलाश
जरा-सी
एक जराहत
जरा-सी
एक खराश।
मुझे
तलाश रही है
नहीं, तलाश नहीं।
खोज की
भाषा ही ठीक
नहीं है; क्योंकि
खोज का अर्थ
ही होता है, बाहर खोजना।
खोज का अर्थ
ही होता है कि
कहीं परमात्मा
छिपा है और
खोजना है।
मुझे
तलाश रही है
नहीं, तलाश नहीं--
तलाश
में तो तलब...
और फिर
तलाश में तो
इच्छा पैदा हो
जाती है, वासना
आ जाती है।
परमात्मा को
खोजने की भी
तो वासना है, आकांक्षा है,
अभीप्सा
है।
तलाश
में तो तलब
जुस्तजू-सी
होती है।
और फिर
इच्छा जल्दी
ही आकुल इच्छा
बन जाती है, तीव्र हो
जाती है, फिर
जलाने लगती
है।
महावीर
के मार्ग पर
तो समस्त
इच्छाओं के
त्याग से
रास्ता खुलता
है। समस्त
इच्छाओं के
त्याग में
मोक्ष की
इच्छा भी
सम्मिलित है।
इसे
थोड़ा समझना। वह
जो मोक्षवादी
है, वह कहता
है, मोक्ष
की भी इच्छा
छोड़ देनी है, तब मोक्ष
मिलेगा।
परमात्मा की
भी इच्छा छोड़
देनी है, तभी।
इच्छा मात्र
बाधा है।
भक्तों
से पूछो!
भक्त
कहते हैं, अगर मोक्ष
छोड़ना पड़े, हम तैयार
हैं; लेकिन
तुम्हारी
अभीप्सा बनी
रहे! प्रभु को
पाने की अकुलाहट
बनी रहे!
बैकुंठ पर लात
मारने को
तैयार हैं।
लेकिन कहीं
ऐसा न हो कि
तुम्हारे
विरह में जो
मजा आ रहा है, वह खो जाये!
भक्त, परमात्मा के
विरह को बचा
लेना चाहता
है। उसके मिलन
की तो बात दूर,
उसका विरह
भी बड़ा प्यारा
है। ज्ञानी, परमात्मा की
आकांक्षा भी
छोड़ देना
चाहता है।
विरह की तो
बात दूर, उसके
मिलन की भी
आकांक्षा
नहीं करता।
क्योंकि
आकांक्षा
मात्र उसे
मोक्ष में
बाधा मालूम होती
है।
ये
अलग-अलग
भाषाएं हैं।
तलाश
में तो तलब
जुस्तजू-सी
होती है
दबा-दबी
ही सही
आरजू-सी
होती है।
कितना
ही दबाओ, कितना
ही सम्हालो, संस्कारित
करो, लेकिन
आकांक्षा तो
रहती है, आरजू
तो रहती है।
इसलिए
तो महावीर के
मार्ग पर
प्रार्थना
शब्द गलत है।
ध्यान!
प्रार्थना की
कोई जगह नहीं
है।
प्रार्थना
में तो
आरजू-सी रहती
है।
दबा-दबी
ही सही
आरजू-सी
होती है
न
आरजू न तलब है
--न
पाने की इच्छा
है, न पाने
की कोई याचना
है।
न
जुस्तजू न
तलाश
--न खोज है, न
खोज में कोई
पागलपन है।
फिर है क्या?
भक्त
बोलता है, परमात्मा की
प्यास के कारण
खोजने निकले
हैं। ज्ञानी
बोलता है, भीतर
एक घाव है, पीड़ा
है--उसको
मिटाना है।
जरा-सी
एक जराहत
--एक घाव है
भीतर।
जरा-सी
एक खराश
--और उस घाव
में पीड़ा है।
इस बात
को समझने की
कोशिश करो।
भक्त
की पीड़ा भी
प्यास है। वह
कहता है, प्रभु
पीड़ा दो।
प्यासा करो, जलाओ!
ज्ञानी
के लिए
परमात्मा
नहीं है, न
कोई प्यास है,
न कोई और
बात है। सिर्फ
अज्ञान की एक
पीड़ा है; यह
पीड़ा प्यास
नहीं है, यह
दुख है। यह
कांटे की तरह चुभ रही
है। इसे
निकालकर
फेंकना है।
ये
दोनों भाषाएं
अलग हैं। और
जब तक तुम्हें
ठीक सम्यक
भाषा न मिल
जाये, जिससे
तुम्हारे
हृदय का
तालमेल बैठे,
तब तक ऐसी
अड़चन होगी।
मेरी बातें
सिर पर से निकलती
हुई मालूम
होंगी।
कोई-कोई बात
जो तुम्हारे
संस्कार से
मेल खा जायेगी,
वो समझ में
आयेगी। लेकिन
समझ में आने
से क्या होगा?
अगर
तुम्हारे
हृदय से मेल न खायेगी तो
समझ में आ
जायेगी, किसी
काम में न
आयेगी। और जो
बात तुम्हारे
हृदय से मेल
खाती थी, वह
तुम्हारे सिर
पर से निकल
जायेगी; क्योंकि
संस्कार उसे
भीतर
प्रविष्ट न
होने देगा। जो
बात तुम समझ
लोगे, वह
तुम्हारे काम
की न होगी। और
जो तुम्हारे
काम की थी, वह
तुम्हारा मन
तुम्हें
समझने न देगा।
"गुणा'
की तकलीफ, भावुक
स्त्रैण हृदय
की तकलीफ है।
जैन
मार्ग पुरुष
का मार्ग है।
और जब मैं
कहता हूं, पुरुष का, तो मेरा
मतलब यह नहीं
कि स्त्रियां
उस मार्ग से
नहीं जा
सकतीं।
स्त्रियां भी
जा सकती हैं, लेकिन
पुरुष-धर्मा;
जिनकी
वृत्ति पुरुष
की वृत्ति हो।
कृष्ण
का मार्ग
स्त्रैण
मार्ग है।
इसका यह मतलब
नहीं कि पुरुष
नहीं जा सकते; जा सकते
हैं--लेकिन वे
ही पुरुष, जिनकी
भावदशा
स्त्रैण हो।
गोप भी जा
सकते हैं; लेकिन
गोप ऊपर-ऊपर
से होंगे, भीतर
से गोपी का ही
भाव होगा।
इसलिए
कृष्ण का भक्त
तो अपने को
मानने लगता है, वह स्त्री
है; उसकी, कृष्ण की
गोपी है। वह
अपने
पुरुष-भाव को
छोड़ देता है।
जैन
साध्वी अपने
सारे स्त्रैण
भाव को
धीरे-धीरे काटकर
गिरा देती है, पुरुषवत हो
जाती है। सारा
राग, सारा
रस, सब
समाप्त कर
देना है।
मरुस्थल की
तरह हो जाना
है।
गलत और
सही की बात
नहीं
है--तुम्हें
जो रास पड़ जाये।
ऐसी तकलीफ बनी
ही रहेगी, जब तक तुम
संस्कारों और
अपने हृदय के
बीच जो विरोध
है उसको ठीक
से पहचानकर
साफ-साफ
रास्ता न बना
लोगे।
"गुणा'
को अपने
संस्कार
छोड़ने
पड़ेंगे। उसे
अपने हृदय की
भाषा को
पहचानना
पड़ेगा। नहीं
तो वह तकलीफ
में ही रहेगी।
जो
न बन पायी
तुम्हारे गीत
की कोमल कड़ी
तो
मधुर मधुमास
का वरदान क्या
है?
तो
अमर अस्तित्व
का अभिमान
क्या है?
तुम
नहीं आए? न आओ,
याद दे दो
फैसला
छोड़ा, फकत
फरियाद दे दो
मति
नहीं कहती, चरण का
स्वाद दे दो
बस
प्रहारों का
अनंत प्रसाद
दे दो
देख
ले जग, सिसककर आराधना
सूली चढ़ी
जो
न बन पायी
तुम्हारे गीत
की कोमल कड़ी
तो
मधुर मधुमास
का वरदान क्या
है?
तो
अमर अस्तित्व
का अभिमान
क्या है?
अगर "गुणा' जागती नहीं,
समझती नहीं,
तो व्यर्थ
ही समाप्त
होगी। किसी
दिन जीवन के अंतिम
पहर में उसे
ऐसा ही कहना
पड़ेगा--
जो
न बन पायी
तुम्हारे गीत
की कोमल कड़ी
तो
मधुर मधुमास
का वरदान क्या
है?
--जीवन
आया और गया!
व्यर्थ ही
गया!
गाओ, नाचो! ध्यान
नहीं, प्रार्थना
तुम्हारे लिए
मार्ग होगा।
मतवालापन! होश
नहीं, बेहोशी
तुम्हारी दवा
है।
तुम
नहीं आये? न आओ, याद
दे दो
फैसला
छोड़ा, फकत
फरियाद दे दो
मति
नहीं कहती...
--बुद्धि
और ज्ञान की
आकांक्षा
नहीं है।
मति
नहीं कहती, चरण का
स्वाद दे दो!
बस
प्रहारों का
अनंत प्रसाद
दे दो!
--तो
तृप्ति होगी।
अपने
को जिसने ठीक
से पहचाना वह
जल्दी ही अपनी
तृप्ति का
मार्ग खोज
लेता है।
मार्गों की
फिक्र छोड़ो, अपनी फिक्र
करो। मार्गों
के लिए तुम
नहीं बने हो, तुम्हारे
लिए मार्ग
हैं।
शास्त्रों
में मत उलझो।
शास्त्रों के
लिए तुम नहीं
हो कि
तुम्हारी कुर्बानी
उनके लिए हो
जाये, जैसा
कि हो रहा है।
शास्त्रों पर कुर्बान
हैं करोड़ों
लोग। शास्त्र
तुम्हारे लिए
हैं। अगर
शीत-सर्दी
लगती हो, जला
लो, ताप
लो। शास्त्र
तुम्हारे लिए
हैं; नींद
आती हो, तकिया
बना लो।
शास्त्र
तुम्हारे लिए
हैं; ओढ़ लो,
सर्दी लगती
हो तो।
शास्त्र साधन
हैं, मनुष्य
साध्य है। इसे
ध्यान में रखो,
तो जो अड़चन
मालूम हो रही
है, वह मिट
जायेगी।
"बहुत समय से
आपके पास हूं...'
लेकिन वह
संस्कार कहां
पास होने देते
हैं? बिलकुल
पास है..."गुणा'
काफी दिन से
मेरे पास है।
लेकिन
संस्कार बीच में
एक बड़ी सख्त
दीवाल है।
टटोलता हूं
मैं। मेरे हाथ
तुम तक नहीं
पहुंच पाते।
तुम्हारी दीवाल
है। लगता है
पास-पास खड़े
हैं, क्योंकि
यह दीवाल
पारदर्शी है,
शब्दों की
है। पत्थर की
होती तो मैं
तुम्हें दिखाई
भी न पड़ता।
यही तो खूबी
है शब्दों की
दीवाल की:
पारदर्शी है,
कांच की है।
आर-पार दिखाई
पड़ता है, इसलिए
लगता है
बिलकुल पास
खड़े हैं।
कभी
तुमने खयाल
किया? कांच
की खिड़की के
उस तरफ इस तरफ
खड़े हो जाओ; जरा-सा कांच
का फासला है, मगर उतना
फासला काफी
है। हम पास
हैं, एक-दूसरे
से बहुत दूर
हैं। अनंत
फासला है।
यह
कांच की दीवाल
तोड़ो। और अकसर
ऐसा हो जाता है
जो बहुत दिन
से पास हैं, वह इस
भ्रांति में
पड़ जाते हैं
कि पास हैं।
कांच दिखाई ही
नहीं पड़ता, धीरे-धीरे
आर-पार दिखाई
पड़ता है, बात
भूल जाती है।
पर कांच अभी
है।
"और
मैं बहुत
अज्ञानी और
निर्बुद्धि
हूं, यह आप
भलीभांति
जानते हैं।'
बिलकुल
भलीभांति
जानता हूं।
इसीलिए तो कह
रहा हूं: अज्ञानी
और
निर्बुद्धि
के लिए भक्ति
मार्ग है, प्रेम मार्ग
है।
मति
नहीं, चरण
का स्वाद दे
दो
फैसला
नहीं, फरियाद
दे दो।
उतना
काफी है।
"आपकी
कही अनेक
बातें मेरे
सिर पर से
गुजर जाती
हैं।'
जो-जो
तुम्हारे काम
की हैं, वह
सिर पर से
गुजर रही हैं।
मैं देखता हूं
उन्हें गुजरते,
क्योंकि
तुम्हारा सिर
उन्हें टिकने
नहीं देता। जो
बातें
तुम्हारे काम
की हैं और
हृदय तक पहुंचनी
चाहिए थीं, वह सिर
उन्हें भीतर
प्रवेश नहीं
होने देता। वह
द्वार से ही
लौटा देता है,
द्वारपाल
ही उन्हें अलग
कर देता है।
और जिन्हें
तुम्हारा सिर
प्रवेश होने
देता है वह
तुम्हारे काम
की नहीं।
क्योंकि तुम्हारे
सिर के पास
अपने संस्कार
हैं।
अगर
जैन मुझे
सुनने आता है
तो वह उतनी
बातों को भीतर
जाने देता है, जितनी उसके
जैन धर्म से
मेल खाती हैं;
बाकी को
बाहर रोक देता
है कि ठहरो, कहां जा रहे
हो? जैन
नहीं हो।
हिंदू सुनने
आता है, उतनी
को भीतर जाने
देता है जितनी
हिंदू धर्म से
मेल खाती हैं;
बाकी को कह
देता है, भीतर
मत आना।
तो तुम
सुनते वही हो, जो तुम्हारा
सिर तुम्हें
आज्ञा देता
है। तुम मुझे
थोड़े ही सुनते
हो। जो मुझे
सुनता है, उसमें
रूपांतरण
निश्चित है।
यह
पहरेदार को
विदा करो, इसे छुट्टी
दे दो। तो जो
अभी सिर के
ऊपर से जा रही
हैं, वह
सिर की गहराई
में भी उतरेंगी।
और सिर में ही
न उतरें तो
हृदय में कैसे
उतरेंगी?
सिर तो
द्वार है। जब
सिर में कोई
बात उतर जाती है
तो धीरे-धीरे
हृदय में
डूबती है, तलहटी
में बैठती है
और वहां से
क्रांति घटित होती
है।
"आप
परमात्मा से बिछड़न की
जिस पीड़ा की
बात कहते हैं,
वह पीड़ा
मुझे कभी हुई
नहीं।'
परमात्मा
का खयाल ही
नहीं है! पीड़ा
तो तब हो न जब
हमें खयाल हो
कि परमात्मा
है! परमात्मा
की धारणा का
ही खंडन है।
जब धारणा का
ही खंडन है तो प्यास
तो कैसे उठेगी? उठेगी भी, तो तुम कोई
और चीज ही
समझोगे--किसी
और चीज की प्यास
है। परमात्मा
की तो हो ही
नहीं सकती।
कभी सोचोगे धन
की प्यास है; कभी सोचोगे
प्रेम की
प्यास है; कभी
सोचोगे पद की
प्यास
है--लेकिन
"परमात्मा' शब्द है ही
नहीं
तुम्हारे पास,
तो प्यास को
परमात्मा की
तरफ उन्मुख
होने का उपाय
नहीं है। और
आत्मा की तरफ
जाने के लिए जैसा
पुरुषार्थ
चाहिए, जैसा
पौरुषिक
उद्दाम
संकल्प चाहिए,
वह
तुम्हारे पास
नहीं है। कुछ
हर्जा नहीं
है। कुछ
दुर्गुण नहीं
है।
दुनिया
में आधे लोग
संकल्प से ही
पहुंचेंगे, आधे लोग
समर्पण से ही
पहुंचेंगे।
लेकिन हमारी
तकलीफ है: हम
सभी को एक ही
घेरे में बंद
कर देते हैं।
स्त्रियों
को थोड़े भक्ति
के रास्ते पर
खोजबीन करनी
चाहिए।
पुरुषों को
थोड़े संकल्प
के रास्ते पर
खोजबीन करनी
चाहिए। तो पति
हिंदू हो, तो जरूरी
नहीं है कि
पत्नी भी
हिंदू हो। जिस
दिन भली
दुनिया होगी,
उस दिन
पत्नी अपना
धर्म चुनेगी,
पति अपना
धर्म चुनेगा।
और
बेटे-बेटियों
के लिए खुला
अवसर छोड़ा
जायेगा कि जब
वह बड़े हो
जायें तो अपना
धर्म चुनें। अच्छी
दुनिया होगी
तो एक-एक घर
में करीब-करीब
आठ-आठ दस-दस
धर्म होंगे, एक-एक
परिवार में।
होने ही चाहिए;
क्योंकि
जिसको जो रास
पड़ जायेगा।
कपड़े मैं तुम जिद्द
नहीं करते; किसी को
सफेद पहनना है,
सफेद पहनता
है; किसी
को हरा पहनना
है, हरा
पहनता है।
भोजन में तुम जिद्द
नहीं करते; किसी को
चावल ठीक रास
आते हैं, चावल
खाता है; किसी
को गेहूं
रास आते हैं, गेहूं खाता है।
धर्म के संबंध
में क्यों जिद्द
करते हो कि
सभी पर एक ही
धर्म थोपा
जाये?
पत्नी
को अगर भक्त
होना हो, भक्त
हो जाये; कृष्ण
के मंदिर में
पूजा चढ़ाये।
पति को अगर
जैन रहना है, जैन रहे; महावीर
के प्रकाश को
लेकर चले।
बेटे को अगर
ठीक लगे कि
बुद्ध हो जाना
है, तो
किसी को रोकने
का कोई कारण
नहीं होना
चाहिए।
क्योंकि असली
सवाल धार्मिक
होने का है।
अगर बुद्ध
होने से, बुद्ध
के मार्ग पर
चलने से कोई
धार्मिक होता
है तो शुभ है।
इस
दुनिया में
निन्यानबे
प्रतिशत लोग
अधार्मिक हैं, क्योंकि
उनको ठीक धर्म
चुनने का मौका
नहीं मिला है।
नास्तिकों के
कारण दुनिया
अधार्मिक नहीं
है, तथाकथित
धार्मिकों के
कारण
अधार्मिक है।
जो मुझे
रुचिकर है वह
खाने न दिया
जाये, तो
जो मुझे खाने
दिया जाता है
उसे मैं
जबर्दस्ती
ढोता हूं, क्योंकि
उसमें मेरी
कोई रुचि नहीं
है।
धर्म
स्वतंत्रता
है; स्वेच्छा
का चुनाव है।
"परमात्मा की
प्यास का मुझे
कुछ पता नहीं
है, फिर
मैं क्यों
यहां हूं? और
यह
ध्यान-साधना
वगैरह क्या कर
रही हूं?'
अड़चन
अपने हृदय को ढांक लेने
की है, दबा
लेने की है।
सिर को हटाओ,
हृदय को
प्रगट करो। तब
यह प्रश्न साफ
हो जायेगा।
स्थिति
बिलकुल साफ हो
जायेगी।
द्वार खुल जायेगा।
गणित
नहीं है जीवन।
और जीवन किसी
लक्ष्य की तरफ
प्रेरित नहीं
है। कोई ऐसा नहीं
है कि जीवन
किसी लक्ष्य
की तरफ चला जा
रहा है। यहां
प्रतिपल
प्रफुल्लता
से होना लक्ष्य
है। यहां
प्रतिपल
आनंद-भाव से
जीना लक्ष्य है।
यहां पल-पल
आनंद-निमग्न
होना लक्ष्य
है।
पूछो
फूलों से, "क्यों खिले
हो?' क्या
कहेंगे
बेचारे! पूछो
आकाश के तारों
से, "क्यों
ज्योतिर्मय
हो?' क्या
कहेंगे! लेकिन
सब तरफ एक अहोगीत
चल रहा है! एक
अहोभाव नाच
रहा है! पल-पल, प्रतिपल!
धर्म
इस ढंग से
जीने का मार्ग
है कि तुम
प्रतिक्षण से
आनंद को निचोड़
लो।
प्रतिक्षण
में छिपा है
स्वर्ग। तुम
उसे चूस लो, निचोड़ लो, पी
लो।
प्रतिक्षण
में छिपी है
रसधार।
अब
यहां लोग आते
हैं। वे कहते
हैं, हम ध्यान
क्यों कर रहे
हैं? वे यह
पूछ रहे हैं
कि इससे क्या
मिलेगा? ध्यान
से कभी कुछ
मिला है!
ध्यान ही
मिलना है। ध्यान
में आनंद है।
ध्यान में
प्रफुल्लता
है, नृत्य
है। ध्यान के
क्षण में सब
कुछ है, अंतर्निहित
है। ध्यान के
क्षण के बाहर
कुछ भी नहीं
है। लेकिन यह
भक्त की भाषा
है।
ज्ञानी
की भाषा तो
लक्ष्य की
भाषा होती है।
यह प्रेमी की
भाषा है।
प्रेमी कहता
है, प्रेम
में सब कुछ है,
प्रेम के
बाहर क्या है!
प्रेम किसी और
चीज के लिए
साधन थोड़े ही
है, साध्य
है। ज्ञानी
पूछता है
साधन! यह साधन
है, साध्य
क्या है?
तो वह
जो जैन बुद्धि
मन में बैठी
है, वह पूछती
है, "क्या
मिलेगा? उपवास
करेंगे तो यह
मिलेगा। इतने
उपवास करेंगे
तो यह मिलेगा।
इतना त्याग
करेंगे, इतना
तप करेंगे, तो इतना
पुण्य का
अर्जन होगा। इससे
स्वर्ग
मिलेगा। यह
ध्यान करके
यहां क्या कर
रहे हो? इससे
क्या मिलेगा?'
मैंने कभी
तुम्हें कहा
भी नहीं कि
इससे कुछ मिलेगा।
मैं तो तुमसे
कहता हूं, इसी
में मिलता है,
इसी में मिल
रहा है। तुम
इसके बाहर नजर
ही मत ले जाओ।
इसमें ही डूबो,
डुबकी
लगाओ। इसमें
ही ऐसे पूर्ण
भाव से डूब
जाओ कि न कुछ
खोज रह जाये, न कोई खोजनेवाला
रह जाये। ऐसी
तन्मयता, ऐसी
तल्लीनता
प्रगट हो, तो
यही क्षण
परमात्म-क्षण
हो गया।
प्रतिक्षण
परमात्मा
तुम्हारे
चारों तरफ बरस
रहा है।
परमात्मा एक
उपस्थिति है
आनंद की। तुम
जरा भीतर अपने
साज को ठीक से
बिठा लो। धुन
बजने लगेगी।
तुम्हारे
भीतर से वैसे ही
झरने फूटने
लगेंगे, जैसे
पहाड़ों से
फूटते हैं। और
तुम्हारे
भीतर वैसे ही
फूल खिलने
लगेंगे, जैसे
वृक्षों पर
खिलते हैं।
धर्म
मनुष्य के
भीतर फूल
उगाने की कला
है। और फूल
अंतिम है, चरम है; इसके
पार कुछ भी
नहीं। प्रत्येक
क्षण चरम है।
जगत कहीं जा
नहीं रहा
है--जगत है।
तुम भी इस "है'
में डूब
जाओ। लेकिन
तुम्हारे पास
अगर गणित की भाषा
है, जो
पूछती है कि
हम यह तो
करेंगे, लेकिन
किसलिए, तो चूक हो
जायेगी।
मैं जो
भाषा बोल रहा
हूं, वह खेल की
भाषा है, दुकान
की नहीं। छोटे
बच्चे खेल रहे
हैं। तुम
पहुंच जाते हो,
डांटने-डपटने
लगते हो:
"क्यों फिजूल
समय खराब कर
रहे हो, इससे
क्या मिलेगा?'
छोटे बच्चे
हैरान होते
हैं कि...मिलने
की बात ही
उनकी समझ में
नहीं आती।
मिलने का सवाल
कहां है? कोई
बैंक में
बैलेंस बढ़
जायेगा? खाते-बही
में ज्यादा
पैसे इकट्ठे
हो जायेंगे? यह उनकी समझ
में ही नहीं
आता। खेल रहे
थे, मिल
रहा था। नाच
रहे थे, मिल
रहा था। इसके
पार थोड़े ही
कुछ मिलना है!
इसलिए
भक्त कहता है, जीवन एक
लीला है।
ज्ञानी
कहता है, जीवन
हिसाब-किताब
है। कर्म का
जाल है। इसमें
साधन जुटाने
हैं, साध्य
पाना है।
मुझे
तो भक्त की
भाषा
प्रीतिकर है।
ज्ञानी की
भाषा उतनी
महिमापूर्ण
नहीं है। गणित
हो भी नहीं
सकता उतना
महिमापूर्ण
जैसा काव्य
होता है। और
जब काव्य बन
सकता हो जीवन, तो गणित
क्यों बनाना?
हां, जब
काव्य न बन
सकता हो, मजबूरी
है, तब
गणित बना
लेना। जब तर्क
के बिना नृत्य
हो सकता हो तो
तर्क को बीच
में क्यों
लाना? हां,
अगर नाच आता
ही न हो, तर्क
ही तर्क आता
हो, तो फिर
ठीक है, तर्क
को ही जी
लेना।
तीसरा
प्रश्न:
जाग्रत
पुरुषों ने
देश-काल-परिस्थिति
और लोगों की युगानुकूल
मनोदशा का
खयाल रखकर एक
ही सत्य को
बड़े भिन्न-भिन्न
रूप से अभिव्यक्त
किया है। यहां
तक कि वे
परस्पर
बिलकुल विवादास्पद
तथा
विरोधाभासी
तक बन गये
हैं। जीवन व
अस्तित्व के
परम सत्यों की
क्या
निरपेक्ष अभिव्यक्ति
संभव नहीं है? क्या सदा ही
युग व लोक-दशा
की सीमा सत्य
पर आरोपित
होती रहेगी?
अभिव्यक्ति
तो सदा सीमित
होगी।
अभिव्यक्ति
तो सदा
सापेक्ष
होगी। बोलनेवाला, सुननेवाला,
दोनों ही
अभिव्यक्ति
की सीमा बनायेंगे।
मैं
वही बोलूंगा
जो बोला जा
सकता है। तुम
वही समझोगे जो
समझा जा सकता
है। सत्य तो
विराट है।
अगर
मैं सागर के
दर्शन करने
जाऊं और तुम
मुझसे कहो कि
लौटते में
थोड़ा सागर
लेते आना, तो पूरा
सागर तो न ला
पाऊंगा। हो
सकता है, थोड़ा-सा
जल सागर का ले
आऊं। लेकिन उस
जल में बहुत
कुछ बातें
नहीं होंगी।
सागर का तूफान
न होगा, सागर
की लहरें न
होंगी। वही तो
असली सागर था।
वह तुमुल नाद
और घोर गर्जन! शिलाखंडों
पर टकराती हुई
लहरें! वह
उठती दूर-दूर
मीलों तक फैले
हुए विस्तार
से भरी लहरें!
वह उफान! वह सब
तो न होगा।
भरकर ले आऊंगा
एक बर्तन में
थोड़ा-सा सागर
का जल। फिर भी
थोड़ा तो होगा
कुछ! स्वाद
लोगे तो खारा
होगा। सागर जैसा
उस बर्तन में
क्या होगा? थोड़ा खारापन
का स्वाद आ
जायेगा, बस।
सत्य
तो सागर से भी
विराट है। जब
हम उसे शब्दों
की चुल्लुओं
में भरकर लाते
हैं किसी को
देने, असली
तो खो जाता
है। थोड़ा-सा
स्वाद भी
पहुंच जाये, थोड़ा नमक भी
तुम्हारी जीभ
पर पड़ जाये, तो बहुत!
इसलिए बोलनेवाला
सीमा देगा, फिर
सुननेवाला
सीमा देगा।
फिर युगऱ्युग
की भाषा होगी।
युगऱ्युग
के भाषा की
शैली होगी, प्रचलन होगा,
मापदंड
होंगे। वह सब
सीमाएं
देंगे। सत्य
को जब भी जाना
जाता है तब तो
वह निरपेक्ष
है, लेकिन
जब कहा जाता
है तब सापेक्ष
हो जाता है। इसलिए
सभी
अभिव्यक्तियां
सीमित होंगी।
इसलिए
महावीर कहते
हैं, सभी
अभिव्यक्तियां--स्यात!
कोई
अभिव्यक्ति पूर्ण
नहीं। और कोई
अभिव्यक्ति
पूर्ण निश्चय
से नहीं कही
जा सकती, क्योंकि
पूर्ण निश्चय
से कहने का तो
अर्थ यह होगा
कि इसके पार
अब कहने को
कुछ भी न बचा।
प्रत्येक
अभिव्यक्ति
एक सीमा तक सच
होगी और एक
सीमा के आगे
गलत हो
जायेगी।
इसलिए परम
ज्ञानी बड़े झिझककर
बोलते हैं।
जानते हुए
बोलते हैं कि
जो कह रहे हैं,
वह बहुत
सीमित है; जो
कहना था, वह
बहुत असीम था।
जो जाना, वह
बड़ा था; जो
जता रहे हैं, वह बड़ा छोटा
है।
फिर
स्वभावतः
अलग-अलग
ज्ञानी
अलग-अलग ढंग
से जतलायेंगे।
और उनकी बातें
विरोधाभासी
भी मालूम
पड़ेंगी, क्योंकि
सत्य सभी
विरोधों को
अपने में
समाये हुए है।
वहां रात भी
है और दिन भी
है। वहां जन्म
भी है, मृत्यु
भी है। तो कोई
आदमी शायद
सत्य की खबर लाये
और जन्म के
द्वारा
समझाने की
कोशिश करे। कोई
सत्य की खबर
लाये और
मृत्यु के
द्वारा समझाने
की कोशिश करे।
कोई सत्य की
खबर लाये, राग
के द्वारा समझाये;
जैसा कि
नारद ने किया:
परमात्मा का
राग, परमात्मा
का प्रेम, परमात्मा
की भक्ति! कोई
परमात्मा की
खबर लाये, विराग
के द्वारा
समझाने की
कोशिश करे; जैसा महावीर
ने किया।
दोनों उसमें
हैं। बड़ा विराट
आकाश है।
उसमें सब
समाया है।
तो जब
भी कोई
व्यक्ति
अभिव्यक्त करेगा
तो कुछ तो चुनेगा, कहां से
अभिव्यक्त
करे! तो
अपनी-अपनी
रुझान, अपनी-अपनी
पसंद, अपना-अपना
ढंग।
इसलिए
सत्य की
अभिव्यक्तियां
विरोधाभासी भी
होंगी। लेकिन
विरोधाभासी
उन्हीं को
दिखाई पड़ती
हैं, जिन्होंने
समझा नहीं।
विवादास्पद
उन्हीं को
मालूम पड़ती
हैं, जिनकी
अभी आंखें
केवल शब्दों
से भरी हैं, और अर्थों
का आविर्भाव
नहीं हुआ।
भक्त
तो भगवान के
समाने जाकर
अवाक हो जाता
है। वाणी ठहर
जाती है। कुछ
सूझता नहीं।
जब लौट आता है
भगवान के उस
जगत से, तब
सब सूझने
लगता है; लेकिन
तब तक भगवान
जा चुका। वह
परम महत्ता
जिसने घेर
लिया था, अब
नहीं है। तो
स्मृति से पकड़ने
की कोशिश करता
है। कई बार
भक्त सोचकर
जाता है, अब
की बार पूछ
लेंगे।
उन्हीं से पूछ
लेंगे, "कैसे
तुम्हारी खबर
दें?'
बात भी
आपके आगे न जुबां
से निकली
लीजिए
आए थे हम सोच
के क्या क्या
दिल में।
और
वहां जाकर ठिठककर
खड़ा रह जाता
है। साधारण
प्रेम में तक
भाषा लंगड़ाकर
गिर जाती है, तो
प्रार्थना की
तो बात ही
क्या! वहां
कोरा अवाक, आश्चर्यचकित,
सन्नाटा हो
जाता है। हां,
जब वह महिमा
बीत जाती है, जब वह महाक्षण
गुजर जाता है,
धूल रह जाती
है रथ की उड़ती
हुई पीछे--तब
होश आता है।
तब बुद्धि
लौटती है। तब
थोड़ा
सम्हालने की
कोशिश करता
है। लेकिन तब
धूल पकड़ में
आती है, रथ
तो जा चुका।
फिर उसी धूल
की खबर देता
है। तो फिर
जानता भी है
कि यह भी क्या
खबर दे रहा
हूं; यह तो
धूल है जो रथ
के पहियों से उड़ी थी। यह
कोई रथ तो
नहीं है। और
रथ में
विराजमान जो
आया था, उसकी
तो बात ही
क्या करनी! उस
क्षण तो मैं
बिलकुल मिट
गया था।
बुद्धि न थी, मैं न था। तो
एक चित्र भी
तो न पकड़ पाया,
एक छवि भी
तो न खींच
पाया कि लोगों
को दिखा देता!
फिर भी...उसके
चरण की धूल भी
सही! उसके
चरणों ने छुआ
है, या
उसके रथ के
पहियों ने छुआ
है, तो इस
धूल में भी कुछ
स्वाद आ गया
होगा। बस! उस
धूल की बात
है।
ज्ञानी
है, वह जब
ध्यान की परम
दशा में
पहुंचता है, सब विचार
शांत हो जाते
हैं। जब अनुभव
होता है, तब
विचार नहीं
होते। जब
विचार लौटते
हैं, तब
अनुभव जा चुका
होता है। तो
विचार हमेशा
पीछे-पीछे आते
हैं। और कुछ
टूटा-फूटा, कुछ जूठा, कुछ रेखाएं
पड़ी रह गईं
समय पर, उनको
इकट्ठा कर
लेते हैं।
उन्हीं को हम
अभिव्यक्ति
बनाते हैं।
जो
जाना गया है, वह कभी कहा
नहीं गया। जो
कहा गया है, वह वस्तुतः
वैसा कभी जाना
नहीं गया था।
इसलिए शब्दों
को मत पकड़ना।
इसीलिए
मैं निरंतर
कहता हूं कि
शास्त्र सहयोगी
नहीं हो पाते।
क्योंकि जब
तुम किसी सदगुरु
के पास होते
हो, तब उसके
शब्दों में भी
उसके निशब्द
की ध्वनि आती
है। तब उसकी
अभिव्यक्ति
में भी
तुम्हारे भीतर
उसके फूल खिलने
लगते हैं, जो
अनभिव्यक्त
रह गया है। तब
उसके बोलने
में भी तुम
उसके अबोल को
सुन पाते हो।
उसकी मौजूदगी,
उसकी
उपस्थिति; तुम्हें
छूती है, तुम्हें
स्पर्श करती
है, तुम्हें
नहला जाती है।
वह जो शब्दों
से कहता है, वह तो ठीक ही
है, वह तो
शास्त्र भी कह
देंगे; लेकिन
जो उसकी
मौजूदगी के
स्पर्श में
तुम्हें
अनुभव होता है,
वह शास्त्र
न कह पायेंगे।
इसलिए सदगुरु
के सान्निध्य
में तो क्षणभर
को तुम्हें
ऐसा लगता है
कि उसकी
अभिव्यक्ति ने
छू लिया। बात जतला दी, बता दी, इशारा
हो गया। खिड़की
खुली थी, देख
लिया। ऐसा
तुम्हें लगता
है कि जो मैं
खुद भी कहना
चाहता था और न
कह पाता था, वह तुमने कह
दिया।
देखना
तकरीर की लज्ज्त
कि जो उसने
कहा
मैंने
यह जाना कि
गोया यह भी
मेरे दिल में
है।
बहुत
बार तुम्हें
लगेगा सदगुरु
के पास कि ठीक, बिलकुल ठीक,
यही तो मैं
कहना चाहता था,
लेकिन शब्द
न जुटा पाता
था, असमर्थ
था। जो मैं
कहना चाहता था,
तुमने कह
दिया। कई बार सदगुरु के
सान्निध्य
में तुम्हारा
हृदय ठीक उस
जगह आ जायेगा,
जहां कुछ
अनुभव होता
है। लेकिन वह
अनुभव होता है
उपस्थिति से।
वह है सत्संग।
शास्त्र में तो
राख रह जाती
है। राख की भी
राख। छाया की
भी छाया।
तो अगर
कोई जीवित
व्यक्ति मिल
सके, ऐसा
सौभाग्य हो, तो हजार काम
छोड़कर उसके
चरणों में
बैठने का अवसर
मत छोड़ना।
क्योंकि जो
शास्त्र नहीं
कह पाते हैं, यद्यपि कहने
की चेष्टा की
गई है, वह
उसकी मौजूदगी
कहेगी। इसलिए
जो लोग महावीर
के पास थे, उन्होंने
जो जाना; जिन्होंने
कृष्ण के पास
होने का
सौभाग्य पाया,
उन्होंने
जो जाना--वह
तुम गीता पढ़कर
थोड़े ही जान
सकोगे; वह
तुम जिन-सूत्र
पढ़कर थोड़े ही
जान सकोगे!
उसका कोई उपाय
नहीं। सांप तो
जा चुका, केंचुली
पड़ी रह गई--वही
शास्त्र है।
केंचुली जब
सांप पर चढ़ी
थी, तब भी
केंचुली ही थी,
लेकिन तब
जीवंत थी। तब
सांप चलता था
तो केंचुली भी
चलती थी। तब
सांप
फुफकारता था
तो केंचुली भी
फुफकारती थी।
फिर सांप तो
जा चुका, केंचुली
पड़ी रह गई। अब
हवा के झोंके
में हिलती-डुलती
है, लेकिन
अब चलती नहीं;
अब उसके पास
अपने कोई
प्राण नहीं
हैं, जीवंत
आत्मा नहीं
है।
सभी
धर्म जब पैदा
होते हैं तो
किसी सदगुरु
की मौजूदगी
में पैदा होते
हैं। सदगुरु
के विदा हो
जाने पर सांप
की केंचुलियां
पड़ी रह जाती
हैं अनंत
सदियों तक, और लोग उनकी
पूजा करते
रहते हैं। हां,
सदगुरु न मिले तो
मजबूरी है। तो
फिर तुम
शास्त्र को ही
पूज लेना।
लेकिन ऐसा कभी
नहीं होता कि
पृथ्वी पर सदगुरु
न हों! सदा
होते हैं।
यद्यपि
दुर्भाग्य यह
है कि जब वह
होते हैं, बहुत
कम लोग
पहचानते हैं।
जब वह जा चुके
होते हैं, तब
मुर्दा
केंचुली को
बहुत लोग
पूजते हैं। लोगों
का मरे से कुछ
लगाव है, जिंदा
से कुछ घबड़ाहट
है! जीवन से
कुछ डर है, मृत्यु
की बड़ी पूजा
है!
आखिरी
प्रश्न:
जब
कोई प्यासा या
प्यारा मिल
जाता है, तब मेरी दशा
पूर पर आई नदी
जैसी हो जाती
है। मैं आपको
लेकर उस पर बरस
पड़ती हूं।
जाने किस नगरी
की आवाज निकल
पड़ती है। मैं
दोनों सिरों
पर जलती हुई
मशाल जैसी हो
जाती हूं।
लेकिन आपके
पास ला देने
पर वह आदमी
मुझसे दूर हो
जाता है; जैसे
बच्चा बड़ा
होने पर मां
से दूर निकल
जाता है। और
तब अपने घर
वापिस होते
समय मुझे एक तड़प-सी
होती है।
लेकिन "तेरी
जो मर्जी' कहके गा
पड़ती हूं: राम
श्री राम, जय
जय राम।
"प्रतिभा' ने पूछा है।
ऐसा
होगा, स्वाभाविक
है।
जिन्होंने
मुझे थोड़ा पीया
है, उनके
मन में यह भाव
जगना
स्वाभाविक है
कि कोई और भी
मुझे पीए।
जिसे कोई सरोवर
मिल गया है, राह पर किसी
प्यासे को
देखकर उसका
हाथ पकड़ेगा,
सरोवर तक ले
आना चाहेगा।
कभी-कभी तो
जबर्दस्ती भी
करता हुआ
मालूम पड़ेगा।
क्योंकि वह
जानता है, अभी
तुम भला नाराज
हो जाओ, सरोवर
पर पहुंचकर
तुम भी कहोगे,
अच्छा किया
जबर्दस्ती
की।
प्रेम
बांटना चाहता
है। जो भी
मिलता है
प्रेम को, बांटना
चाहता है।
कहीं अगर
परमात्मा की
खुशबू मिली है
तो तुम बांटना
चाहोगे।
दोनों छोर से
मशाल की तरह
जलकर बांटना
चाहोगे।
इसलिए जहां भी
कहीं कोई
प्यासा मिल
जायेगा, तुम्हारे
जीवन में एक
पूर आ जायेगा।
तुम सब कुछ
उसमें उंडेल
देना चाहोगे।
और स्वभावतः
तुम जब उसे
मेरे पास ले
आओगे, तो
एक थोड़ी-सी
कमी भी मालूम
होगी। वह
थोड़ी-सी जो
अस्मिता बची
है, उसके
कारण मालूम
होती है।
क्योंकि जब
तुम उसे समझाकर
मेरे पास ले
आये, तब एक
अर्थ में वह
तुम्हारे
पीछे चल रहा
था, तुम्हारी
मानकर चला था।
जब तुम उसे
मेरे पास ला
रहे थे तब वह
तुमसे
आंदोलित और
प्रभावित था।
फिर जब तुम
उसे मेरे पास
ले आओगे, स्वभावतः
इसलिए तुम उसे
लाये भी हो
मेरे पास कि
वह मुझसे जुड़
जाये, अब
वह तुम्हारे
पीछे न चलेगा।
उसका मुझसे
सीधा संबंध हो
जायेगा। यही
तुमने चाहा भी
था, यही
तुम्हारी
प्रार्थना भी
थी। लेकिन फिर
भी अस्मिता को
थोड़ा-सा धक्का
लगेगा कि अरे!
इसको सरोवर
मिल गया तो
हमें भूल ही
गया! इस
अस्मिता को भी
जाने देना और
गीत बिलकुल
ठीक है: "राम
श्री राम, जय
जय राम'।
इसको
गुनगुनाना!
अस्मिता को
इतना भी मत
बचाना।
अच्छा
अहंकार भी
होता है।
ध्यान रखना!
बुरा अहंकार
तो होता ही है, अच्छा
अहंकार भी
होता है।
पवित्र
अस्मिता भी होती
है--"पायस इगो'। जब तुम कोई
अच्छा काम
करते हो तो एक
बड़ा सदभाव
उठता है कि
कुछ किया, कुछ
अच्छा किया!
उसे भी छोड़ना
है। अंततः उसे
भी छोड़ना है।
तो अभी जब
किसी को ले
आयी होगी "प्रतिभा'
और उसे लगा
होगा कि वह तो
सरोवर से जुड़
गया, अब
उसकी कोई
फिक्र नहीं
करता, तो
अभी जो "राम
श्री राम, जय
जय राम' कहा
है, वह
थोड़ी मजबूरी
में कहा है, कि ठीक है, अब जो तेरी
मर्जी! नहीं, इसको
आनंद-भाव से
कहना। बड़ा
फर्क पड़
जायेगा। अभी
तो कहा है कि
जो तेरी
मर्जी! लेकिन
जब हम कहते
हैं "जो तेरी
मर्जी', तभी
हम बता रहे
हैं कि यह
हमारी मर्जी न
थी। जो तेरी
मर्जी का मतलब
ही यही होता
है कि ठीक है! हमारी
मर्जी तो न थी
यह, लेकिन
अब तुम्हारी
है तो ठीक है।
राम श्री राम,
जय जय राम!
मगर इसमें
मजबूरी है।
नहीं, अब दुबारा
जब किसी को
लाओ, तो
पहले से ही इस
भाव से ही
लाना है, जानकर
ही लाना है, कि वह सरोवर
में डूब जाये
और तुम्हें
भूल जाये।
क्योंकि
तुम्हें याद
रखे तो सरोवर
में डूबने में
बाधा पड़ेगी।
और जब वह
सरोवर में डूब
जाये, तुम्हें
भूल जाये, तो
धन्यवाद
देना। ऐसा मत
कहना कि जो
तेरी मर्जी! कहना,
"धन्यवाद!
मेरी
प्रार्थना
पूरी हुई।
इसीलिए तो लाई
थी।' और तब
फिर
गुनगुनाना:
"राम श्री राम,
जय जय राम!' और तब उसका
भाव बिलकुल
अलग होगा।
शब्द तो सभी वही
होते हैं भाव
बड़े बदल जाते
हैं। तब यह
अहोभाव होगा।
तब यह
परमात्मा को
धन्यवाद है कि
ठीक! तूने बड़ी
कृपा की कि
मुझे इतनी भी
अस्मिता न दी
कि मैं रुकावट
बनूं।
मेरे
पास तुम जब
मित्रों को
लाओगे तो सभी
को ऐसा होगा।
मगर पहले से
ही यह
होशपूर्वक
लाना है कि ला
ही इसलिए रहे
हो कि वे
तुम्हें
भूलें।
और यह
शिक्षण जरूरी
है, क्योंकि
यही मुझे भी
करना पड़ता है।
एक दिन मुझे
भी कहना पड़ता
है: राम श्री
राम, जय जय
राम! क्योंकि
मैं जिसकी तरफ
ले जा रहा हूं,
एक दिन वह
गये...तो यह
प्रशिक्षण
जरूरी है। यह
जो "प्रतिभा' ने कहा है, मेरा भी
अनुभव है। मगर
यही सारी
चेष्टा है। यह
सफल हो, यही
सौभाग्य है।
इस
कारण संकोच मत
करना कि अब
क्या लाना
किसी को, जिसको
ले जाओ वही
दगा दे जाता
है। इस कारण
रोकना मत, इस
कारण अपने पर
नियंत्रण मत
रखना। नहीं, जब पूर आये
तो आने देना।
जब्त
की काशिशें
बजा लेकिन
क्या
छुपे शौके-बेपनाह
का राज
हर
किसी को सुनाई
देती है
मेरी
आवाज में तेरी
आवाज।
जिन्होंने
मुझे चाहा है, प्रेम किया
है, जो सच
में मेरे पास
आये हैं, सारे
आवरण छोड़कर, वे अगर "जब्त'
भी करना
चाहेंगे, रोकना
भी चाहेंगे--
जब्त
की कोशिशें
बजा लेकिन
--वे
अगर चाहेंगे
भी कि किसी को
कैसे बतायें,
क्या
बतायें, संकोच
भी करेंगे तो
भी कुछ फर्क न
पड़ेगा।
क्या
छुपे शौके-बेपनाह
का राज!
--अथाह
प्रेम प्रगट
होने ही लगता
है।
हर
किसी को सुनाई
देती है
मेरी
आवाज में तेरी
आवाज।
जिन्होंने
मुझे चाहा है, उनकी आवाज
में मेरी आवाज
सुनाई पड़ने ही
लगेगी।
और हर
स्थिति
में...क्योंकि
यह तो एक
स्थिति है जो
"प्रतिभा' ने पूछी है
कि किसी को ले
आती है, फिर
वह डूब जाता
है। मगर बहुत
बार तो ऐसा
होगा, तुम
किसी को लाना
चाहोगे और न
ला पाओगे। तुम
लाख कोशिश
करोगे, तुम
जितनी कोशिश
करोगे उतना ही
वह प्रतिरोध करेगा
और न आयेगा।
तब भी बेचैन
मत होना। तब
भी यह मत
सोचना कि यह
कुछ गलत हो
रहा है। तब भी
ठीक ही हो रहा
है। अभी उसकी
यही जरूरत
होगी। उस पर
नाराज मत होना
और यह मत सोचना
कि जिद्दी है,
कि अहंकारी
है, कि
अज्ञानी है, कि पापी है।
क्योंकि ऐसे
जल्दी ही मन
में भाव उठते
हैं।
तुम्हारी कोई
न माने तो
नाराज होने की
इच्छा हो जाती
है। नर्क
भेजने के भाव
उठने में देर
नहीं लगती, कि तुम तो इतनी
कोशिश कर रहे
हो, इसके
ही शुभ के लिए,
और इस मूढ़
को देखो, मतांध!
सुनता ही नहीं,
बहरा है!
नहीं, तब
समझना कि
परमात्मा अभी
यही चाहता है
कि वह न आये।
उसके राज सभी
जाहिर नहीं
होते। होने भी
नहीं चाहिए।
कभी किसी को
प्रतिरोध की
ही जरूरत होती
है। कभी कोई
तुमसे लड़ता है,
वही उसका
ढंग है मेरे
प्रेम में
पड़ने का, उसे
लड़ने देना। वह
लड़-लड़कर
ही पड़ेगा।
अपने-अपने ढंग
होते हैं, अपनी-अपनी
शैली होती है।
चमक
उसकी बिजली
में, तारे में
है
यह
चांदी में, सोने में, पारे में है
उसी
की बयाबां, उसी के बबूल
उसी
के हैं कांटे, उसी के हैं फूल।
तो अगर
कोई कांटा
जैसा भी मालूम
पड़े तो भी समझना, उसी का है; नाराज मत हो
जाना। फूल पर
बहुत प्रसन्न
मत हो जाना, कांटे पर
बहुत नाराज मत
हो जाना। एक
बात स्मरण
रखना कि तुमने
निवेदन कर
दिया था, बात
समाप्त हो गई।
तुमने छिपाया
नहीं, तुम्हें
कुछ पता था, कह दिया। जो
तुम कहो, उसमें
आग्रह भी मत
रखना कि उसे
मानना ही
चाहिए।
क्योंकि
आग्रह सत्य को
नष्ट कर देता
है; प्रेम
को दूषित कर
देता है, धूमिल
कर देता है।
तुम तो बिना
किसी आग्रह के
अनाग्रह
भाव से कह
देना कि कुछ
हमें भी सुनाई
पड़ी है आवाज, शायद
तुम्हारे काम
आ जाये, कहीं
हम गये हैं, हमारी कुछ
प्यास बुझी
है--हो सकता है,
यह जल
तुम्हारी भी
प्यास को
तृप्त करने
में काम आ
जाये। मगर
कहना, "हो
सकता है, जरूरी
नहीं।
तुम्हारी
प्यास अलग हो,
तुम्हें
किसी और जल की
जरूरत हो। और
शायद अभी तुम्हें
प्यास ही न हो
और जल की
जरूरत ही न
हो।' तो निवेदन
कर देना और
भूल जाना।
अगर
तुमने अनाग्रहपूर्वक
निवेदन किया
है, तो बहुत
लोगों को तुम
खबर पहुंचाने
में सफल हो
जाओगे। यह खबर
कुछ ऐसी है कि
अत्यंत
विनम्रता में,
अत्यंत
प्रेम में, अत्यंत
सरलता में ही पहुंचाई
जा सकती है।
मेरे
पास किसी को
ले आना कोई
मिशनरी काम
नहीं है कि
टूट पड़े उस पर
और उसको तर्क
देने लगे, और समझाने
लगे, और
सिद्ध करने
लगे, और
उसको गलत
सिद्ध करने
लगे। नहीं, यह कुछ काम
इतना क्षुद्र
नहीं है। धर्म
मिशन तो बन ही
नहीं सकता।
मिशन तो सब
राजनीति के
होते हैं। तुम
तो सिर्फ मेरी
सुगंध थोड़ी-सी
फैला सको, फैला
देना। वही
सुगंध अगर
खींच सकेगी तो
खींच लायेगी।
और अगर उस
आदमी के जीवन
में जरूरत आ गई
होगी तो खिंच
आयेगा; या
वह सुगंध उसकी
स्मृति में
पड़ी रह जायेगी,
कभी जरूरत
आयेगी तो उसे
याद आ जायेगी।
तुम्हारा काम
पूरा हो गया।
तुम
कंजूस मत रहना, बस इतना
काफी है। मिशनरी
भूलकर मत बनना
और कंजूस मत
होना। इन
दोनों के बीच
संतुलन! किसी
को जबर्दस्ती
समझाने-बुझाने
की कोई भी
जरूरत नहीं
है। कोई
जबर्दस्ती समझाये-बुझाये,
समझा है, बूझा है?
यह बड़ा
नाजुक काम है।
ये धागे बड़े
रेशम के धागे
हैं। ये
जंजीरें नहीं
हैं लोहे की
कि बांध दीं
और घसीट लाये।
ये रेशम के
धागे हैं, बड़े कच्चे
धागे! और
कच्चे धागे से
कोई खिंचा आये
तो ही ठीक है।
लोहे की जंजीरों
से कोई खिंचा
भी आ गया तो
उसका आना न
आना बराबर है।
बिना धागे के
ही ला सको तो
ही कुशलता है।
आज
इतना ही।
thank you guruji
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