प्रश्न:
भगवान
श्री, अट्ठाइसवें श्लोक में
चार यज्ञों की
बात कही गई
है। दो यज्ञों
पर चर्चा हो
चुकी है, सेवारूपी यज्ञ और
स्वाध्याय
यज्ञ। तीसरे
तप यज्ञ का क्या
अर्थ है? उसे
यहां स्वधर्म पालनरूपी
यज्ञ क्यों
कहा गया है? और चौथे योग
यज्ञ का क्या
अर्थ है? उसे
यहां अष्टांग योगरूपी
यज्ञ क्यों
कहा गया है?
स्वधर्मरूपी
यज्ञ।
व्यक्ति यदि
अपनी निजता को, अपनी इंडिविजुअलिटी
को, उसके
भीतर जो बीजरूप
से छिपा है
उसे, फूल
की तरह खिला
सके, तो भी
वह खिला हुआ
व्यक्तित्व
का फूल
परमात्मा के
चरणों में
समर्पित हो
जाता है और
स्वीकृत भी।
व्यक्ति
की भी एक फ्लावरिंग
है; व्यक्ति
का भी फूल की
भांति खिलना
होता है। और
जब भी कोई
व्यक्ति पूरा
खिल जाता है, तभी वह
नैवेद्य बन
जाता है। वह
भी प्रभु के
चरणों में
समर्पित और
स्वीकृत हो
जाता है।
फूल की
तरह व्यक्ति
के साथ भी दुर्घटनाएं
घट सकती हैं।
यदि कोई गुलाब
का फूल कमल का
फूल होना चाहे, तो दुर्घटना
सुनिश्चित
है। दुर्घटना
के दो पहलू
होंगे। एक तो
गुलाब का फूल
कुछ भी चाहे, कमल का फूल
नहीं हो सकता
है। वह उसकी
नियति, उसकी
डेस्टिनी
नहीं है। वह
उसके भीतर
छिपा हुआ बीज
नहीं है। वह
उसकी संभावना
नहीं है।
इसलिए
गुलाब का फूल
विक्षिप्त हो
सकता है कमल के
फूल होने में, कमल का फूल
नहीं हो सकता।
कमल के फूल
होने में पीड़ित,
दुखी, परेशान
हो सकता है; चिंतित, संतापग्रस्त हो सकता है; नींद खो
सकता, चैन
खो सकता; कमल
का फूल हो
नहीं सकता है।
होने की दौड़
में मिटेगा, बर्बाद होगा;
पहुंचेगा
नहीं मंजिल
तक। यात्रा
कितनी ही करे,
लौट-लौटकर
गुलाब का फूल
ही रहेगा।
पहुंचेगा नहीं
कमल होने तक।
न पहुंचने से फ्रस्ट्रेशन,
न पहुंचने
से विषाद मन
को पकड़ता
है। और जिसके
चित्त को
विषाद पकड़
लेता, उसके
चित्त में
नास्तिकता का
जन्म हो जाता
है। इसे ठीक
से खयाल में
ले लें।
विषाद
से भरा हुआ
चित्त आस्तिक
नहीं हो सकता
है। पीड़ा से
भरा हुआ चित्त, दुख से भरा
हुआ चित्त, फ्रस्ट्रेटेड चित्त
आस्तिक नहीं
हो सकता, क्योंकि
आस्तिकता आती
है अनुग्रह के
भाव से, ग्रेटिटयूड से। और विषाद
में अनुग्रह
का भाव कैसे
पैदा होगा? अनुग्रह का
भाव तो आनंद
में पैदा होता
है। जब कोई
आनंद से भरता
है, तो
अनुगृहीत
होता है, तो
ग्रेटिटयूड
पैदा होता है।
सिमन
वेल ने एक
किताब लिखी है, ग्रेस एंड ग्रेविटी--प्रसाद
और
गुरुत्वाकर्षण।
बहुमूल्य है;
इस सदी की
बहुमूल्य
किताबों में
से एक है। सिमन
वेल कहती है
कि जैसे जमीन
चीजों को अपनी
तरफ खींचती है,
ऐसे ही
परमात्मा भी
चीजों को अपनी
तरफ खींचता है।
जमीन
चीजों को अपनी
तरफ खींचती
है। उसकी एक
छिपी हुई
ऊर्जा, शक्ति
का नाम ग्रेविटेशन,
गुरुत्वाकर्षण
है। दिखाई
कहीं नहीं
पड़ता, लेकिन
पत्थर को
फेंको ऊपर, वह नीचे आ
जाता है।
वृक्ष से फल
गिरा, नीचे
आ जाता है।
दिखाई कहीं भी
नहीं पड़ता।
हम
सबको कहानी
पता है कि
न्यूटन एक बगीचे
में बैठा है
और सेव का फल
गिरा है। और
उसके मन में
सवाल उठा कि
फल गिरता है, तो नीचे ही
क्यों आता है,
ऊपर क्यों
नहीं चला जाता?
दाएं-बाएं
क्यों नहीं
चला जाता? ठीक
नीचे ही क्यों
चला आता है? चीजें गिरती
हैं, तो
नीचे क्यों आ
जाती हैं? और
तब उसे पहली
दफा खयाल आया
कि जमीन से
कोई ऊर्जा, कोई शक्ति
चीजों को अपनी
तरफ खींचती है;
कोई
मैग्नेटिक, कोई चुंबकीय
शक्ति चीजों
को अपनी तरफ खींचती
है। फिर ग्रेविटेशन
सिद्ध हुआ।
अभी भी दिखाई
नहीं पड़ता, लेकिन
परिणाम दिखाई
पड़ते हैं।
सिमन
वेल कहती है, ठीक ऐसे ही
परमात्मा भी
चीजों को अपनी
तरफ खींचता
है। उसके
खींचने का जो ग्रेविटेशन
है, उसका
नाम ग्रेस,
उसका नाम
प्रसाद; अनुकंपा,
अनुग्रह, जो भी हम नाम देना
चाहें।
यह बड़े
मजे की बात है
कि जब फूल
खिलता है, तो आकाश की
तरफ उठता है।
और जब मुरझाता
है, सूखता
है, तो
जमीन की तरफ
गिर जाता है।
आदमी जीवित
होता है, तो
आकाश की तरफ
उठा हुआ होता
है। मर जाता
है, तो
जमीन में दफना
दिया जाता है,
मिट्टी में
गिर जाता है।
वृक्ष उठते
हैं, जीवित
होते हैं, तो
आकाश की तरफ
उठते हैं। फिर
जराजीर्ण
होते हैं, गिरते
और मिट्टी में
सो जाते हैं।
ऊपर और नीचे।
कुछ ऊपर की
तरफ खींच रहा
है, कुछ
नीचे की तरफ
खींच रहा है।
विषाद
जब चित्त में
होता है, तो
आदमी का हृदय
पत्थर की तरह
हो जाता है, नीचे की तरफ
गिरने लगता
है। जब भी आप
दुख में रहे
हैं, तब
आपने अनुभव
किया होगा कि
हृदय पर
हजारों मनों
का बोझ हो
जाता है। फिर
जमीन तो नीचे
की तरफ खींचती
है, लेकिन
परमात्मा फिर
ऊपर की तरफ
खींचता हुआ मालूम
नहीं पड़ता।
इसलिए दुख में
आदमी मरना
चाहता है।
मरना चाहता है
मतलब, जमीन
के ग्रेविटेशन
में दफन हो
जाना चाहता
है। दुख में
आत्महत्या कर
लेना चाहता है;
मतलब, डस्ट
अनटु
डस्ट, मिट्टी
मिट्टी
में लौट जाए, इसके लिए
आतुर हो जाता
है।
ठीक
इससे उलटी
घटना भी घटती
है। जब कोई
आनंद से भरता
है, तो
कांशसनेस अनटु
कांशसनेस--मिट्टी
में मिट्टी
नहीं--परमात्मा
में परमात्मा
मिलने को आतुर
हो जाता है।
जब कोई फूल
खिलता है आनंद
का, तो ऊपर
से अनुग्रह की
वर्षा होने
लगती है। वह खिली
हुई फूल की पंखुड़ियों
पर अमृत बरसने
लगता है प्रभु
के प्रसाद का।
आनंद में मन
खिल जाता है
फूल की तरह।
इसलिए
तो जिन्होंने
भी अनुभव किया
है परम आनंद
का, वे
कहेंगे कि
मस्तिष्क में
सहस्रदल कमल
खिल जाता है।
वह प्रतीक है,
सिंबालिक है। वह केवल
काव्य में
प्रकट किया
गया अनुभव है।
मस्तिष्क के
ऊपर खिल जाता
है फूल हजारों
पंखुड़ियों
वाला; उस
खिले हुए फूल
में बरसा होने
लगती है
अनुग्रह की।
और जब
कोई उतने आनंद
से भरता है, तो परमात्मा
को धन्यवाद दे
पाता है। कहना
चाहिए, धन्यवाद
देने के लिए
परमात्मा को
स्वीकार कर पाता
है। अनुग्रह
फिर किसके
प्रति प्रकट
करे? जब
भीतर आनंद की
वर्षा होने
लगे और हृदय
का कोना-कोना
नाच उठे और
अंधकार विदा
हो जाए और पंखुड़ी-पंखुड़ी
खिल जाए, फिर
धन्यवाद
किसके प्रति
प्रकट करे? उस धन्यवाद
को प्रकट करने
के लिए
परमात्मा को खोजना
पड़ता है।
आनंद
से भरा चित्त
आस्तिक हो
जाता है; दुख
से भरा चित्त
नास्तिक हो
जाता है।
नास्तिकता ग्रेविटेशन
है। जमीन की
ताकत नीचे की
तरफ खींचती
है। आस्तिकता ग्रेस, प्रसाद
है, अनुग्रह
है; ऊपर की
तरफ ले जाता
है।
व्यक्ति
जब भी अपने
निज धर्म को
भूलता है, तब ऐसी हालत
हो जाती है, जैसे गुलाब
का फूल कमल
होना चाहे। जब
व्यक्ति निज
धर्म को भूलता
है, तो
उसका मतलब, वह कोई और
होना चाहता है,
जो नहीं है।
ब्राह्मण
शूद्र होना
चाहे, शूद्र
क्षत्रिय
होना चाहे, क्षत्रिय
वैश्य होना
चाहे। जन्म की
बहुत फिक्र
नहीं
है--गुण-धर्म
से, गुण-कर्म
से। भीतर की
जो क्षमता है,
वह जब अपने
से भिन्न कुछ
होना चाहे, तो मुश्किल
में पड़ जाती
है। हो नहीं
सकती। वह असंभव
है। वह
प्रकृति का
नियम नहीं।
हम सब
अपनी बिल्ट-इन
योजना लेकर
पैदा होते
हैं। हम क्या
हो सकते हैं, इसका ब्लू
प्रिंट हमारे
सेल-सेल में
छिपा रहता है।
हम क्या हो
सकते हैं, इसकी
तजवीज हम अपने
जन्म के साथ
लेकर पैदा होते
हैं।
अगर
दुर्घटना घट
जाए, तो यह हो
सकता है कि हम
वह न हो पाएं, जो हम हो
सकते थे।
लेकिन ऐसी
घटना कभी नहीं
घट सकती कि हम
वह हो जाएं, जो कि हम
नहीं हो सकते
थे।
इसे
मैं फिर से
दोहरा दूं, यह हो सकता
है कि हम वह न
हो पाएं, जो
कि हम हो सकते
थे। हम चूक
सकते हैं अपनी
नियति। लेकिन
इससे उलटा
नहीं होता कभी,
नहीं हो
सकता कभी, कि
हम वह हो जाएं,
जो कि हम नहीं
हो सकते थे।
यह हो
सकता है, गुलाब
का फूल गुलाब
का फूल भी न हो
पाए। लेकिन यह
नहीं हो सकता
कि गुलाब का
फूल, और
कमल का फूल हो
जाए। गुलाब का
फूल अगर कमल
होने की कोशिश
में लगे, तो
मैंने कहा, इसके दो
पहलू हैं। एक
पहलू कि वह
कमल कभी न हो पाएगा।
कमल होने की
चेष्टा में
विषाद को
उपलब्ध
होगा--दुख, पीड़ा,
एंग्विश।
सोरेन कीर्कगार्ड
ने इस विषाद
का ठीक-ठीक
चित्रण किया
है। उसने जो
शब्दों के
प्रयोग किए
हैं, वह खयाल
में ले लेने
जैसे हैं, ट्रेंबलिंग। वह कहता है
कि जब आदमी
विषाद में
होता है, तो
सारा हृदय एक
कंपन हो जाता
है, एक ट्रेंबलिंग।
वह कहता है, जब आदमी
विषाद में हो
जाता है, तो
ड्रेड
पकड़ लेता है, जैसे मौत
सामने खड़ी हो
और हमारे भीतर
भी सब मृत्यु
के भय में, अंधकार
में डूब जाए।
यह जो
स्थिति है
विषाद
की--एंग्विश
कहता है सोरेन
कीर्कगार्ड--संताप
की, जहां कुछ
भी फिर
प्रीतिकर नहीं
लगता, कुछ
भी अर्थपूर्ण
नहीं लगता, अभिप्रायपूर्ण नहीं लगता; सब व्यर्थ, मीनिंगलेस,
सांयोगिक
लगता है। हैं,
तो ठीक। न
हों, तो
कोई हर्ज नहीं
मालूम पड़ता।
बल्कि न हों, तो शांति
मालूम पड़ती
है। हों, तो
अशांति मालूम
पड़ती है।
गुलाब
का फूल कमल
होना चाहे, तो ऐसा होगा,
एक पहलू। और
दूसरा पहलू यह
कि गुलाब की
ताकत अगर कमल
होने की कोशिश
में लग जाए, तो गुलाब
फिर गुलाब कभी
नहीं हो
पाएगा। क्योंकि
ताकत सीमित है,
क्षमता
निश्चित है।
ऊर्जा बंधी
हुई मिली है प्रत्येक
को, नपी हुई मिली है
प्रत्येक को।
अगर उसे इतर, यहां-वहां
खर्च किया, तो अपनी
नियति को पूरा
नहीं किया जा
सकता।
इसलिए
कृष्ण कहते
हैं, स्वधर्मरूपी यज्ञ में!
यह स्वधर्मरूपी
यज्ञ बहुत ही
गहरी
मनोवैज्ञानिक
धारणा है। मनुष्य
ने अपने
इतिहास में जो
भी गहरे से
गहरे मनोवैज्ञानिक
सत्य खोजे
हैं, उनमें
स्वधर्म का
सत्य
सर्वाधिक
गहरा है।
यह
पृथ्वी आज
इतने दुख से
भरी दिखाई
पड़ती है, उसका
मौलिक कारण
स्वधर्म से
च्युत हो जाना
है। कोई भी
आदमी वही नहीं
हो रहा है, जो
वह होने को
है। हर आदमी
कुछ और होने
में लगा है! हम
सब कुछ और
होने में लगे
हैं, जो हम
नहीं हो सकते
हैं।
कृष्ण
कहते हैं, यह भी बड़े से
बड़ा यज्ञ है
अर्जुन, अगर
तू इतना भी
पूरा कर ले, या कोई भी
पूरा कर ले, तो भी प्रभु
को उपलब्ध हो
जाता है, परम
अवस्था को
उपलब्ध हो
जाता है।
स्वधर्म; कैसे पहचानें,
क्या है
स्वधर्म? कैसे
जानें, मैं
क्या होने को
पैदा हुआ हूं?
कैसे जानें
कि मैं कुछ और
होने में तो
नहीं लगा हूं?
कैसे पहचानें
कि मैंने किसी
परधर्म को ही
तो नहीं पकड़
लिया है?
पहचान
हो सकती है।
सूक्ष्म
होंगे पहचान
के सूत्र।
लेकिन दोत्तीन
सूत्र आपसे
कहना
चाहूंगा।
पहली
बात, अगर आप
दुखी हैं जीवन
में, तो
पक्का समझ
लेना कि आप
स्वधर्म से
च्युत हुए हैं,
स्वधर्म से
च्युत हो रहे
हैं। क्योंकि
जहां भी
स्वधर्म की
यात्रा होती
है, वहीं
आनंद फलित
होता है।
अशांत
हों यदि, तो
जान लेना कि
परधर्म के
पीछे चल रहे
हैं। रुक जाना,
पुनः सोच
लेना। फिर से
विचार कर लेना,
रिकंसीडर कर लेना कि
जो यात्रा
चुनी, जो
कर रहे हैं, उससे दुख और पीड़ा,
अशांति
बढ़ती है, तो
निश्चित ही वह
मार्ग मेरा
नहीं है।
जैसे
कोई बगीचे
के पास जाता
हो। बगीचा
दिखाई नहीं
पड़ता अभी, लेकिन
जैसे-जैसे पास
पहुंचता है, ठंडी हवाएं
छूने लगती हैं,
स्पर्श
करने लगती
हैं। जानता है
कि ठीक रास्ते
पर हूं। बगीचा
दिखाई नहीं
पड़ता, लेकिन
कहीं पास ही
होगा। दिशा तो
कम से कम ठीक
होनी ही
चाहिए। और अगर
ठंडक हवाओं की
बढ़ती जाए
एक-एक कदम
बढ़ने से, तो
निश्चित हुआ
जा सकता है कि
मैं ठीक दिशा
में बढ़ रहा
हूं; बगीचा
करीब ही आता
होगा। फिर और
करीब आकर ठंडक
के साथ-साथ
सुगंध भी
मिलने लगती है,
तब और भी
निश्चय हो
जाता है कि
मैं और भी पास
आ रहा हूं।
अभी भी बगीचा
दिखाई नहीं
पड़ता; अभी
भी दूर है; लेकिन
दिशा ठीक है।
ऐसे ही
टटोलना पड़ता
है स्वधर्म को
भी, जैसे कोई बगीचे को
अंधेरे में
खोजता हो।
ठंडक, सुगंध...।
अगर
ठंडक कम होती
जाए, सुगंध
क्षीण होती
जाए, तो
जानना चाहिए कि
मैंने कोई
विपरीत मार्ग
पकड़ लिया।
शांति बढ़े, तो स्वधर्म
के निकट चल
रहे हैं आप।
अशांति बढ़े, तो स्वधर्म
से च्युत हो
रहे हैं आप।
शांति मापदंड
है।
फिर
शांति घनी हो, तो सुवास की
तरह आनंद की
झलक भी मिलनी
शुरू हो जाती
है। तब समझना
कि ठीक है
मार्ग। अब दौड़
सकते हैं। अब
निश्चिंत हो
नाव को खे
सकते हैं। अब
बेफिक्र हो
हवाओं के रुख
में नाव को
छोड़ सकते हैं।
अब नदी ठीक, अब मार्ग
ठीक। अब पहुंच
जाएंगे वहां।
लेकिन
हम जीवन में
कभी इसका
विचार ही नहीं
करते। हम उलटा
ही करते हैं।
हम जो कर रहे
होते हैं, अगर उसमें
अशांति मिलती
है, तो उसी
को और जोर से
करते हैं।
सोचते हैं, शायद पूरी
ताकत से नहीं
कर रहे हैं; और ताकत से
करेंगे, तो
शांति मिल
जाएगी। और
अशांति मिलती
है, तो और
सारी ताकत
जुटाकर लग
जाते हैं।
अंततः परिणाम
यह होता है कि
हम स्वधर्म को
पहुंच नहीं पाते।
परधर्म को
पहुंच नहीं
सकते। जीवन एक
वर्तुलाकार
चक्कर होकर खो
जाता है। अवसर
मिलता है और
नष्ट हो जाता
है।
तो एक
तो शांति बढ़े, आनंद बढ़े।
दूसरा, यदि कोई
स्वधर्म के
साथ-साथ चल
रहा हो, तो
उसके जीवन में
स्वीकार का
भाव बढ़ता
जाएगा, अस्वीकार
का भाव कम
होता जाएगा।
उसकी एक्सेप्टिबिलिटी
बढ़ती जाएगी।
वह चीजों को
स्वीकार करने
लगेगा।
क्योंकि
जिसके भीतर भी
जरा-सा आनंद
आया, उसके
बाहर
स्वीकृति आने
लगती है; वह
चीजों को
स्वीकार करने
लगता है
अर्थात संतुष्ट
होने लगता है।
अगर
स्वधर्म के
अनुकूल न चलता
हो, तो
असंतुष्ट
होता चला जाता
है; अस्वीकार
करने लगता है।
हर चीज के
प्रति दुश्मन
की दृष्टि आ
जाती है, दोस्त
की नहीं। हर
चीज के प्रति
इनकार, नो;
यस, हां
का भाव नहीं।
हर चीज के
प्रति इनकार
हो जाता है।
तो अगर
आपकी जिंदगी
में यस की जगह
नो की संख्या
ज्यादा हो; हां कम
चीजों को कहते
हों, न
ज्यादा चीजों
को कहते हों; स्वीकार कम
को करते हों, अस्वीकार
ज्यादा को
करते हों; संतोष
कम से मिलता
हो, असंतोष
ज्यादा से
मिलता हो--तो
ध्यान रखना कि
स्वधर्म के
अनुकूल नहीं
जा रही है
यात्रा।
इस
मात्रा को
बदलना पड़ेगा।
स्वीकार
बढ़ाना पड़ेगा, अस्वीकार कम
करना पड़ेगा।
जैसे-जैसे
स्वीकार बढ़ेगा,
वैसे-वैसे
आस्तिकता बढ़ेगी।
जैसे-जैसे
अस्वीकार
बढ़ेगा, वैसे-वैसे
नास्तिकता बढ़ेगी।
नास्तिकता का
अर्थ है, समस्त
अस्तित्व के
प्रति नकार का
भाव, नो एटीटयूड
टुवर्ड्स
दि टोटैलिटी,
समस्त के
प्रति नकार का
भाव। कुछ भी
नहीं है! आस्तिकता
का अर्थ है, टोटल एक्सेप्टिबिलिटी,
समग्र
स्वीकार। सब
है; और सब
से मैं राजी
हूं। जो जैसा
है, उससे
मैं वैसे ही
राजी हूं। यह राजीपन
बढ़ता जाएगा, जैसे-जैसे
भीतर स्वधर्म
के अनुकूल
यात्रा होगी।
तीसरी
बात, स्वधर्म
के अनुकूल अगर
जाना हो, तो
सिर्फ बाहर की
चीजों में
उलझा रहकर कोई
व्यक्ति कभी
नहीं जा सकता।
दैनंदिन
कामों में पता
ही नहीं चलता
कि स्वधर्म
क्या है, परधर्म
क्या है।
दैनंदिन काम
तो करीब-करीब
एक जैसे हैं।
ब्राह्मण का
भी वही है, क्षत्रिय
का भी वही है, शूद्र का भी
वही है, वैश्य
का भी वही है।
जहां तक
दैनंदिन काम
का संबंध है, रोटी-रोजी
कमाना ही तो
सबके लिए है।
कैसे कोई
कमाता है, यह
दूसरी बात है।
उससे बहुत
अंतर नहीं
पड़ता। दैनंदिन
कामों से पता
नहीं चलेगा कि
मेरा स्वधर्म
क्या है।
जिसे
स्वधर्म की
खोज करनी हो, उसे बाहर की
दुनिया से कम
से कम चौबीस
घंटे में घंटेभर
के लिए बिलकुल
छुट्टी ले
लेनी चाहिए, और भीतर की
दुनिया में
डूब जाना
चाहिए। कर
देने चाहिए द्वार
बंद बाहर के।
कह देना चाहिए
बाहर के जगत को
बाहर, और
अब मैं होता
भीतर। सब
इंद्रियों के
द्वार बंद
करके भीतर घंटेभर
के लिए डूब
जाना चाहिए।
वहीं पता
चलेगा उस रहस्य
का जो स्व है, जो निजता
है। वहीं से
सूत्र
मिलेंगे, ध्वनि
सुनाई पड़ेगी,
वहीं से
इशारे
मिलेंगे। और
धीरे-धीरे
इशारे गहरे
होते चले जाते
हैं। पहले
आवाज बड़ी छोटी
होती है। यह
आखिरी सूत्र
सर्वाधिक
महत्वपूर्ण है,
इसे ठीक से
खयाल में ले
लेंगे।
स्वधर्म
का पता अंतर
की वाणी के
अतिरिक्त और कहीं
से नहीं चलता
है। पहले मैंने
दो लक्षण की
बात कहीं कि
इससे आप पता
लगा लेना कि
जिंदगी ठीक
मार्गों से जा
रही है या नहीं।
और तीसरे से
मैं आपके
स्वधर्म के
केंद्र को ही
छू लेने की
सूचना देता
हूं।
घंटेभर
के लिए चौबीस
घंटे में, बंद कर देना
बाहर की
दुनिया को, भूल जाना; छोड़ देना सब
बाहर का बाहर;
अपने भीतर
डुबकी लगा
जाना। उस
डुबकी में
धीरे-धीरे
भीतर की अंतर्वाणी
सुनाई पड़नी
शुरू होगी।
सबके भीतर
छिपा है वह।
दि स्टिल स्माल
वॉइस, छोटी
है आवाज--धीमी,
नाजुक, सूक्ष्म।
केवल वे ही
सुन सकते हैं,
जो उतनी
सूक्ष्म आवाज
को सुनने के
लिए अपने को
ट्रेन करते हैं,
प्रशिक्षित
करते हैं।
इसलिए
आज आप आंख बंद
करके बैठ
जाएंगे, तो
भीतर की आवाज
नहीं सुनाई
पड़ेगी। आंख
बंद करके भी
बाहर की ही
आवाज सुनाई
पड़ती रहेगी।
कल, परसों--बैठते
रहें, बैठते
रहें, जल्दी
न करें, घबड़ाएं न। तेईस
घंटे बाहर की
दुनिया को दे
दें, एक
घंटा अपने को दे
दें। बस, आंख
बंद करें और
सुनने की
कोशिश करें
भीतर। सुनने
की कोशिश, जैसे
भीतर कोई बोल
रहा है, उसे
सुन रहे हैं।
जैसे
कि इतनी भीड़
है। यहां बहुत
लोग बातचीत कर
रहे हैं और
आपको किसी की
बात सुननी है, तो आप सबकी
बातों को
छोड़कर अपनी
पूरी चेतना और
एकाग्रता को
उस आदमी के ओठों
के पास लगा
देते हैं। वह फुसफुसाकर
भी बोलता हो, विस्पर भी करता हो, तो भी आप
सुनने की
कोशिश करते
हैं--और सुन
पाते हैं।
चेतना सिकुड़कर
सुनती है, तो
सुन पाती है।
एकाग्र हो
जाती है, तो
सुन पाती है।
जल्दी
न करें। एक
घंटा तय कर
लें स्वधर्म
की खोज के लिए।
आपको पता नहीं, लेकिन आपकी
अंतरात्मा को
पता है कि
क्या है आपका
स्वधर्म। आंख
बंद करें। मौन
हो जाएं। चुप
बैठकर सुनें।
मौन, सिर्फ
भीतर ध्यान को
करके, सुनने
की कोशिश करें
कि भीतर कोई
बोलता है! कोई
आवाज!
बहुत-सी
आवाजें सुनाई
पड़ेंगी।
पहचानने में कठिनाई
न होगी कि ये
बाहर की
आवाजें हैं।
मित्रों के
शब्द याद
आएंगे, शत्रुओं
के शब्द; दुकान,
बाजार, मंदिर,
शास्त्र--सब
शब्द याद
आएंगे। पहचान
सकेंगे भलीभांति,
बाहर के
सुने हुए हैं।
छोड़ दें। उन
पर ध्यान न दे।
और भीतर! और
प्रतीक्षा
करते रहें।
अगर
तीन महीने कोई
सिर्फ एक घंटा
चुप बैठकर
प्रतीक्षा कर
सके धैर्य से, तो उसे भीतर
की आवाज का
पता चलना शुरू
हो जाएगा। और
एक बार भीतर
का स्वर पकड़
लिया जाए, तो
आपको फिर
जिंदगी में
किसी से सलाह
लेने की जरूरत
न पड़ेगी।
जब भी
जरूरत हो, आंख बंद
करें और भीतर
से सलाह ले
लें; पूछ
लें भीतर से
कि क्या करना
है। और
स्वधर्म की
यात्रा पर आप
चल पड़ेंगे।
क्योंकि भीतर
से स्वधर्म की
ही आवाज आती है।
भीतर से कभी
परधर्म की
आवाज नहीं
आती। परधर्म
की आवाज सदा
बाहर से आती
है।
जो
व्यक्ति अपने
भीतर की इनर वॉइस, अंतर्वाणी को नहीं सुन
पाता, वह
व्यक्ति कभी
स्वधर्म के तप
को पूरा नहीं
कर पाएगा। यह
जो स्वधर्मरूपी
यज्ञ की बात
कृष्ण ने कही
है, यह वही
व्यक्ति पूरी
कर पाता है, जो अपने
भीतर की अंतर्वाणी
को सुनने में
सक्षम हो जाता
है।
लेकिन
सब हो सकते
हैं, सबके पास
वह अंतर्वाणी
का स्रोत है।
जन्म के साथ
ही वह स्रोत
है, जीवन
के साथ ही वह
स्रोत है। बस,
हमें उसका
कोई स्मरण
नहीं। हमने
कभी उसे टैप
भी नहीं किया;
हमने कभी
उसे खटकाया
भी नहीं; हमने
कभी उसे जगाया
भी नहीं। हमने
कभी कानों को
प्रशिक्षित
भी नहीं किया
कि वे सूक्ष्म
आवाज को पकड़
लें।
जीसस
या बुद्ध या
महावीर भीतर
की आवाज से
जीते हैं। भीतर
की आवाज जो कह
देती है वही...।
इसमें
एक बात और
आपको खयाल
दिला दूं कि
भीतर की आवाज
एक बार सुनाई पड़नी शुरू
हो जाए, तो
आपको अपना
गुरु मिल गया।
वह गुरु भीतर
बैठा हुआ है।
लेकिन हम सब
बाहर गुरु को
खोजते फिरते
हैं। गुरु
भीतर बैठा हुआ
है।
परमात्मा
ने प्रत्येक को
वह विवेक, वह अंतःकरण,
वह कांसिएंस,
वह अंतर की
वाणी दी है, जिससे अगर
हम पूछना शुरू
कर दें, तो
उत्तर मिलने
शुरू हो जाते
हैं। और वे
उत्तर कभी भी
गलत नहीं
होते। फिर वह
रास्ता बनाने
लगता है भीतर
का ही स्वर, और तब हम
स्वधर्म की
यात्रा पर
निकल जाते
हैं।
अंतर्वाणी
को सुनने की
क्षमता ही स्वधर्मरूपी
यज्ञ का मूल
आधार है।
इसलिए
कृष्ण ने
अर्जुन को कहा
कि मैंने इसके
पहले दो यज्ञ
कहे, अब यह
तीसरा यज्ञ कि
स्वधर्मरूपी
यज्ञ को भी
यदि कोई पूरा
कर ले, तो
प्रभु के
मंदिर में
उसकी पहुंच, सुनवाई हो
जाती है; द्वार
खुल जाते हैं;
वह प्रवेश
कर जाता है।
लेकिन
लगेगा कि शायद
यह सरल हो, यह स्वधर्मरूपी
यज्ञ! कि
ब्राह्मण
अपनी पोथी
पढ़ता रहे; चंदन,
तिलक-टीका लगााता
रहे; हवन-यज्ञ
करवाता रहे, तो स्वधर्म
पूरा कर रहा
है। कि शूद्र
सड़क पर झाडू
लगाता रहे, कि गंदगी
ढोता रहे, तो
स्वधर्म पूरा
कर रहा है। कि
क्षत्रिय
युद्ध में
लड़ता रहे, तो
स्वधर्म पूरा
कर रहा है।
नहीं; यह बहुत
बाहरी और ऊपरी
बात है।
स्वधर्म की
गहरी बात तो
तभी पता चलेगी,
जब भीतर की
आवाज...।
इधर
भारत में एक
व्यक्ति थे, जो अभी चल
बसे हैं। आप
उनसे
भलीभांति
परिचित हैं, मेहर बाबा।
उन्होंने पिछले
जीवन के अपने
तीस वर्ष अंतर
की आवाज को सुनने
में ही लगाए।
और अंतर की
आवाज को सुनने
के लिए
उन्होंने
बाहर की सारी
आवाज बंद कर
दी। मौन हो
रहे, बोलना
बंद कर दिया।
क्योंकि
बोलें, तो
बाहर की वाणी
का लेन-देन
जारी रहता है।
तो सब बंद कर
दिया।
जैसा
मैंने सुबह
आपसे कहा कि
अगर स्वाध्यायरूपी
यज्ञ को समझना
हो, तो
कृष्णमूर्ति
के विगत चालीस
वर्ष का समस्त
वक्तव्य स्वाध्यायरूपी
यज्ञ के इस
छोटे-से शब्द
स्वाध्याय
में समा जाता
है।
कृष्णमूर्ति
का चालीस साल
का सब कहा हुआ,
गीता के
स्वाध्याय
नामी यज्ञ की
व्याख्या और भाष्य
है, और कुछ
भी नहीं।
समस्त, चालीस
वर्षों का कहा
हुआ, इस
स्वाध्याय
यज्ञ का भाष्य
है, कमेंट्री है।
वैसे
ही मैं आपसे
कहता हूं, इस तीसरी
बात के लिए, अंतर्वाणी के सुनने के
लिए मेहर बाबा
ने इस सदी में
जितना श्रम
किया, उतना
किसी दूसरे
व्यक्ति ने
नहीं किया है।
और अंतर्वाणी
को सुनने के
लिए, स्वधर्म
की आवाज को
सुनने के लिए
जो गहरे से गहरा
तप किया जा
सकता था, वह
यह था कि वाणी
ही उन्होंने
छोड़ दी, शब्द
ही छोड़ दिए; मौन हो रहे
बाहर से, ताकि
शब्द का
लेन-देन बंद
हो जाए। ताकि
अंततः कभी
जरा-सी भी भूल
न हो, कि
भीतर की आवाज
और बाहर की
आवाज में कहीं
भी कोई संदेह
और संभ्रम, कोई कनफ्यूजन
पैदा न हो।
बाहर की आवाज
ही बंद कर दी, ताकि निपट
भीतर की आवाज
से जीया जा
सके।
फिर
बहुत-सी
घटनाएं उनके
जीवन में हैं, एक-दो मैं
कहूं, जिससे
खयाल आ सके कि
अंतर की
आवाज...।
हैदराबाद
के पास
उन्होंने एक
छोटा-सा आश्रम
बनाया था।
बनकर तैयार
हुआ। बड़ी
प्रतीक्षा से
बनाया था। फिर
उसके द्वार तक
गए--प्रवेश का
दिन था--और ठीक
दरवाजे पर खड़े
होकर वापस लौट
आए और इशारा
कर दिया कि उस
मकान में वे
प्रवेश नहीं
करेंगे। रात
वह मकान गिर
गया।
हिंदुस्तान
से वे यूरोप
जा रहे थे।
हवाई जहाज से
यात्रा। बीच
में हवाई जहाज
सिर्फ फ्यूल
भरने के लिए
किसी
एअरपोर्ट पर
उतरा। फिर
हवाई जहाज उड़ने
को हुआ।
यात्रियों को
खबर की गई।
मेहर बाबा ने
इनकार कर दिया
कि वे उस पर
सवार नहीं
होंगे।
साथी
उनके बड़ी
परेशानी में
पड़ते थे।
शिष्य बड़ी
मुश्किल में
पड़ जाते थे।
अब यह बड़ी
बेहूदगी हो
गई! चलती
यात्रा में, बीच हवाई
जहाज से उतर
जाना, फिर
कह देना कि
नहीं जाएंगे!
वह हवाई जहाज
पंद्रह मिनट
बाद उड़ा और
गिर गया और सब
यात्री समाप्त
हो गए।
ऐसा
बहुत बार हुआ।
मेहर बाबा कब
रुक जाएंगे किस
काम को करने
से ऐन बीच में, नहीं कहा जा
सकता था; अनप्रेडिक्टेबल था। वे खुद
भी नहीं कह
सकते थे, क्योंकि
उनको खुद भी
पता नहीं था।
कब अंतर की आवाज
क्या कहेगी, उन्हें भी
पता नहीं। जो
कहेगी, वही
वे करेंगे, जो भी हो। यह
भी पता नहीं
कि क्या
परिणाम होगा।
हवाई जहाज से
क्यों रोक रहा
है अंतर-मन? लेकिन
अंतर-मन कहता
है, नहीं, तो फिर
नहीं। हां, तो हां।
मेहर
बाबा की
जिंदगी
स्वधर्म की
तलाश की जिंदगी
है। भीतर के
स्वर की खोज
की जिंदगी है।
वह भीतर का
स्वर क्या
कहता है, उससे
ही चलेंगे।
कोई भी
व्यक्ति अगर
तेईस घंटे काम
की दुनिया से
हटाकर एक घंटा
अपने लिए
निकाल
ले--ज्यादा निकाल
सकें, और
अच्छा। कभी
वर्ष में
पंद्रह दिन, तीन सप्ताह
निकाल सकें
इकट्ठे, तो
और भी अच्छा।
धीरे-धीरे
भीतर की आवाज
साफ होने लगे,
तो आपकी
जिंदगी में
भूल-चूक बंद
हो जाएगी। क्योंकि
तब जिंदगी
परमात्मा से
चलने लगती है,
आपसे नहीं
चलती। फिर
गुलाब का फूल
गुलाब ही होता
है, फिर
कमल होने की
कोई आकांक्षा
नहीं होती। और
जिस दिन भीतर
की वाणी से
चला हुआ जीवन
पूरा खिलता है,
उस दिन यज्ञ
पूरा हो गया--स्वधर्मरूपी
यज्ञ।
प्रश्न:
भगवान
श्री, इस
श्लोक का चौथा
और आखिरी यज्ञ
योग यज्ञ कहा गया
है। गीता
प्रेस के
अनुवाद में
इसे अष्टांग
योग यज्ञ कहा
गया है। कृपया
इसे भी स्पष्ट
करें।
योग
यज्ञ। योग की
अपनी साधना
प्रक्रिया
है। अष्टांग
योग, योग के आठ
अंगों की
सूचना देता
है। पतंजलि ने
योग के आठ अंग
कहे हैं, आठ
चरण, आठ
हिस्से, जिनसे
मिलकर योग
बनता है, जिनसे
योग पूरा होता
है। यदि योग
एक शरीर है, तो आठ उसके
अंग हैं।
इसलिए
अष्टांग योग।
लेकिन
अष्टांग योग
के यदि एक-एक
अंग पर मैं बात
करूं, तो
कठिनाई होगी।
वह तो फिर कभी
जब पतंजलि के
शास्त्र पर
पूरा बोलूं, तभी खयाल
में आ सकता
है। तो अभी तो
सिर्फ योग यज्ञ,
इतनी ही बात
कर लेनी उचित
होगी। मूल बात
समझ में आ
जाएगी।
मैंने
कहा कि जैसे
स्वाध्याय के
लिए जे.कृष्णमूर्ति
भाष्य हैं और
जैसे स्वधर्म
के लिए, स्वधर्म
की खोज के लिए,
अंतर्वाणी की खोज के
लिए मेहर बाबा
भाष्य हैं, वैसे ही योग
के लिए जार्ज
गुरजिएफ
भाष्य है--इस
जीवित जगत में,
जो अभी
हमारे आस-पास
खड़ा है।
योग का
अर्थ है, व्यक्ति
जैसा है, वह
बहुत
ढीला-ढाला है,
लूज
एक्झिस्टेंस
है। कहना
चाहिए, आदमी
कम है, होल्डाल
ज्यादा है।
होल्डाल, बिस्तर,
उसमें सब
चीजें लपेटी
हैं! अंग्रेजी
का शब्द अच्छा
है, होल्डआल;
सब चीजें
भरी हुई हैं, एक
बोरिया-बिस्तर
की तरह है। सब
कुछ भरा है; उल्टा-सीधा
सब भरा है।
साधारण
व्यक्ति जैसा
है, वह एक कास्मास
नहीं है; उसके
भीतर कोई
संगीत नहीं है;
उसके भीतर
कोई हार्मनी,
कोई
लयबद्धता
नहीं है। उसके
भीतर, गुरजिएफ
की भाषा में
कहें, तो
क्रिस्टलाइजेशन
नहीं है। उसके
भीतर कोई ठोस
शक्ति नहीं
है। उसके भीतर
बहुत-सी
शक्तियां
हैं--आपस में
विरोधी, एक-दूसरे
से लड़ती, ढीली, अस्तव्यस्त।
ऐसा
समझ लें फर्क, बाजार भरा
है एक; हजार
आदमी हैं
बाजार में।
शोरगुल बहुत
है, लेकिन
व्यक्तित्व
कोई भी नहीं
है। हजार आदमियों
के बाजार में
व्यक्तित्व
कोई नहीं
होता। हजार
आदमी होते हैं,
हजार
आवाजें होती
हैं। हजार हित
होते हैं, हजार
स्वार्थ होते
हैं। एक-दूसरे
से विपरीत होते
हैं, एक-दूसरे
के दुश्मन
होते हैं, एक-दूसरे
से लड़ते होते
हैं। हजार
आदमी हैं बाजार
में, लेकिन
बाजार के पास
कोई क्रिस्टलाइज्ड
इंडिविजुअलिटी
नहीं है; बाजार
के पास कोई
व्यक्तित्व
नहीं है, जिसमें
एकस्वरता हो।
फिर हजार आदमी
मिलिट्री के
जवान हैं। वे
भी हजार हैं, लेकिन उनके
पास एक
व्यक्तित्व
है। हजार आदमी
के साथ
पंक्तिबद्ध
व्यक्तित्व
है। एक से चलते
हुए कदम हैं।
एक आवाज, एक
आज्ञा पर सारे
प्राण
आंदोलित होते
हैं। एकस्वरता
है।
तो
गुरजिएफ
कहेगा कि
बाजार में तो
क्रिस्टलाइजेशन
नहीं है, मिलिट्री
के हजार लोगों
में एक
क्रिस्टलाइजेशन
है। वे इकट्ठे
हैं, एक आर्गेनिक
यूनिटी है। एक
शरीर की भांति
हैं वे। बाजार
भीड़ है, एक
शरीर नहीं।
हमारा
व्यक्तित्व
बाजार की
भांति है।
हजार चीजें
हैं उसमें, हजार हित हैं।
एक हिस्सा
बाएं जाता है,
दूसरा दाएं
जाता है। एक
ऊपर जाता है, तीसरा नीचे
जाता है। एक
कहता है, मत
करो; एक
कहता है, करो।
तीसरा हिस्सा
सोया रहता है;
इस फिक्र
में ही नहीं
पड़ता कि करना
है, कि
नहीं करना है।
ऐसे हजार
हिस्से हैं
हमारे भीतर।
गुरजिएफ
कहा करता था, हम एक ऐसे
मकान हैं, जिसका
मालिक सोया
हुआ है और
जिसमें हजार
नौकर हैं। और
हर नौकर अपने
को मालिक
समझने लगा है,
क्योंकि
मालिक सोया ही
रहता है। तो
कभी-कभी ऐसा
होता है कि
दरवाजे से कोई
निकलता है, दरवाजे पर
जो नौकर मिल
जाता है, कोई
भी पूछता है, यह महल
किसका है? बड़ा
है महल।
निश्चित ही, जिसमें हजार
नौकर हों, तो
महल बड़ा होगा।
दरवाजे
पर जो नौकर
मिल जाता है
पूछने वाले को, वह कहता है, मैं हूं। आई
दि मास्टर, मैं हूं
मालिक।
यात्री कभी
फिर लौटता है,
तो कोई
दूसरा नौकर
बाहर मिल जाता
है। वह उससे पूछता
है, यह
मकान किसका है?
वह कहता है,
आई एम दि
मास्टर, मैं
हूं मालिक।
सारे लोग चकित
हैं कि मालिक
कौन है? क्योंकि
कभी कोई मालिक
मालूम पड़ता है,
कभी कोई
मालिक मालूम
पड़ता है! असली
मालिक सोया
हुआ है।
गुरजिएफ
कहता था, आम
आदमी की हालत
इस मकान की
तरह है। असली
मालिक सोया
हुआ है। और
इंद्रियों में
जो ऊपर होता
है, वृत्तियों
में जो ऊपर
होता है, वासना
में जो ऊपर
होता है, वह
कहता है, आई
एम दि मास्टर।
जब आप
क्रोध में
होते हैं, तो आपको पता
है, क्रोध
कहता है, मैं
हूं मालिक। जब
आप प्रेम में
होते हैं, तो
प्रेम कहता है,
मैं हूं
मालिक। सुबह
किसी के प्रति
प्रेम से भरे
थे, तो कहा
कि जान लगा
दूंगा तेरे
लिए। और सांझ
उसी की जान ले
ली! क्योंकि
सुबह प्रेम
मालिक था, सांझ
घृणा मालिक हो
गई! नौकर
इधर-उधर हो
गए।
सांझ
को तय करता है
आदमी, सुबह
चार बजे उठ आऊंगा।
सुबह चार बजे
वही आदमी करवट
बदलकर कहता है,
आज रहने दो;
फिर देखेंगे।
सुबह आठ बजे
उठकर फिर
पछताता है वही
आदमी, कि
मैंने तो कसम
खाई थी, उठा
क्यों नहीं? अब पक्का उठूंगा।
कल तो कसम है।
फिर कल चार
बजते हैं। वही
आदमी दुलाई के
भीतर करवट
लेता है। कहता
है, रहने
भी दो; ऐसी
क्या जल्दी
है। फिर उठ
जाएंगे; कल
उठ आएंगे।
सुबह आठ बजे
वही आदमी फिर
पछताता है।
बात क्या है?
जिस
आदमी ने सांझ
तय किया कि
सुबह चार बजे
उठेंगे, वह
दूसरा हिस्सा
था मन का।
सुबह चार बजे
दूसरा हिस्सा
सामने था मकान
का। उसने कहा,
आई एम दि
मास्टर; सोए
रहो, कोई
जल्दी नहीं
है। सुबह आठ
बजे तीसरा
नौकर सामने था,
उसने कहा, बड़ा बुरा
काम किया, यह
ठीक नहीं है, तय करना और
बदल जाना। फिर
तय करो। मगर
भीतर जो असली
मालिक है, वह
सोया हुआ है।
नौकर--इंद्रियां, वृत्तियां,
वासनाएं
मालिक हो जाती
हैं। जो जब
मौका पा जाता
है, हमारी
छाती पर बैठ
जाता है। जब
लोभ हमारे ऊपर
बैठता है, तो
ऐसा लगता है, लोभ ही
हमारी आत्मा
है। जब क्रोध
हम पर सवार होता
है, तो ऐसा
लगता है कि
क्रोध ही मैं
हूं। जब प्रेम
हम पर सवार
होता है, तो
लगता है, बस
प्रेम ही सब
कुछ है। जो
हमें पकड़ लेता
है भूत-प्रेत
की भांति, जो
वृत्ति हम पर
हावी हो जाती
है, बस हम
उसके हाथ के
खिलौने हो जाते
हैं। असली
मालिक का कोई
भी पता नहीं
है।
योग का
अर्थ है, असली
मालिक का जग
आना; नौकरों
के बीच मालिक
को
सिंहासन-आरूढ़
करना। योग का
अर्थ है--शब्द
का भी--इंटीग्रेशन।
योग शब्द का
अर्थ है, इंटीग्रेशन;
योग शब्द का
अर्थ है, जोड़।
व्यक्ति जुड़ा
हुआ हो; खंड-खंड
नहीं, अखंड;
एक हो। और
जब कभी
व्यक्ति एक
होता है, तो
सब नौकर
तत्काल सिर
झुकाकर मालिक
के सामने खड़े
हो जाते हैं।
फिर कोई नौकर
नहीं कहता कि
मैं मालिक
हूं।
योगस्थ
चेतना तत्काल
समस्त
इंद्रियों की
मालिक हो जाती
है। फिर
इंद्रियां
नौकर की तरह
पीछे चलती हैं।
छाया की तरह।
मालकियत उनकी
खो जाती है।
तो
कृष्ण इस चौथे
चरण में कहते
हैं कि योग
यज्ञ भी है
अर्जुन! यह
चेतना कैसे जगे! यह
सोया हुआ
मालिक कैसे
उठे! यह आदमी क्रिस्टलाइज्ड
कैसे हो, एक
कैसे हो, इकट्ठा
कैसे हो!
तो योग
की हजारों
प्रक्रियाएं
हैं, जिनके
द्वारा सोए
हुए मालिक को उठाया
जाता है। मैं
एक छोटा-सा
गुरजिएफ का
उदाहरण दूं, ताकि खयाल आ
सके।
गुरजिएफ
तिफलिस
के गांव के
पास ठहरा हुआ
है कुछ
मित्रों को लेकर।
और उसने उनको
कहा है कि मैं
तुमसे एक प्रयोग
करवा रहा हूं, स्टाप
एक्सरसाइज।
मैं जब कहूं, स्टाप, रुको,
तो तुम रुक
जाना जैसे भी
होओ। अगर
तुमने एक पैर
ऊपर उठाया है
चलने के लिए, तो वह पैर
फिर वहीं रह
जाए। फिर
बेईमानी मत करना;
क्योंकि
बेईमानी
तुम्हारे
अपने साथ
होगी। नीचे मत
रखना, वहीं
रुक जाना। गिर
जाओ भला, लेकिन
सचेतन, अपनी
तरफ से पैर
वहीं रखना।
गिर जाओ, दूसरी
बात। लेकिन
तुम पैर नीचे
मत टिकाना।
मुंह खोला है
बोलने को, तो
फिर खुला ही
रह जाए, जब
कहा, स्टाप।
हाथ उठाया काम
के लिए, हाथ
वहीं रह जाए।
आंख खुली थी, तो खुली रह
जाए, फिर
पलक न झपे।
इसका
वह महीनों से
प्रयोग करवा
रहा था। क्या
मतलब है इसका? इसका मतलब
इतना ही है कि
यह प्रक्रिया
तभी हो सकती
है, जब
मालिक जगे,
अन्यथा
नहीं हो सकती।
और इस
प्रक्रिया को
किसी को करना
है, तो
उसके भीतर का
मालिक जगना
शुरू हो
जाएगा।
हां, नौकर धोखा
देंगे। आपने
पैर उठाया और
गुरजिएफ ने
कहा, स्टाप।
तो मन कहेगा, वह देख तो
नहीं रहा है, उसकी पीठ उस
तरफ है। यह
पैर नीचे रख
ले। नाहक
परेशान हो
जाएगा। अगर
उसकी मान ली, मन की, और
पैर नीचे रख
लिया, तो
मालिक सोया
रहेगा। लेकिन
अगर कह दिया
कि नहीं; पैर
अब ऐसा ही
रहेगा; तो
मन हारा। और
जब मन हारता
है, तभी मन
के पीछे जो
छिपी शक्ति है,
वह जीतती
है।
मन की
हार स्वयं की
जीत बन जाती
है। नौकरों का
हारना, मालिक
का जगना हो
जाता है। जब
तक नौकर जीतते
रहते हैं, मालिक
को खबर ही
नहीं लगती कि
हारने की हालत
पैदा हो गई है
महल में। जब
नौकर हार जाते
हैं, तो
मालिक को उठना
पड़ता है।
तो
गुरजिएफ यह
प्रयोग करा
रहा था। पास
ही एक बड़ी नहर
थी। सूखी थी, अभी पानी
छूटा नहीं था।
एक दिन सुबह
वह अपने तंबू
में था।
तीन-चार लोग
नहर पार कर
रहे थे। कोई
लकड़ी काटने जा
रहा था, कोई
जंगल गया था, कोई कुछ कर
रहा था। जोर
से तंबू के
बाहर आवाज गूंजी,
स्टाप! चार
लोग नहर पार
कर रहे थे।
सूखी नहर थी।
वे वहीं रुक
गए। रुके नहीं
कि दो क्षण
बाद नहर में
पानी छोड़ दिया
गया। घबड़ाए!
एक ने
लौटकर देखा कि
गुरजिएफ तो
तंबू के भीतर है, उसे पता भी
नहीं है कि हम
नहर में खड़े
हैं। पानी छूट
गया है। वह
निकलकर बाहर आ
गया। उसने कहा,
स्टाप का
मतलब कोई मरना
तो नहीं है!
तीन खड़े रहे।
पानी और बढ़ा।
कमर तक पानी
हो गया, तब
एक ने लौटकर
देखा। उसने
देखा कि अब तो
जान जाने का
खतरा है। यह
पानी ऊपर बढ़ता
जा रहा है। अब
कोई अर्थ नहीं
है। कपड़े भी
भीगे जा रहे
हैं। कोई सार
नहीं है। वह
बाहर निकल
आया। दो फिर
भी खड़े रहे।
पानी और ऊपर
बढ़ा, गर्दन,
ओंठ--और
तीसरा भी
छलांग लगाकर
बाहर हो गया।
उसने कहा, अब
तो सांस का
खतरा है।
लेकिन चौथा
फिर भी खड़ा रहा।
स्टाप यानी
स्टाप। जब ठहर
गए, तो ठहर
गए।
मन ने
जरूर कहा होगा, पागल है। मर
जाएगा।
जिंदगी गंवा
देगा। बाहर निकल
जा। तीन साथी
बाहर निकल गए,
उनमें भी
बुद्धि है। वे
भी साधना कर
रहे हैं। तू
ही कोई साधना
नहीं कर रहा
है। लेकिन
नहीं; खड़ा
ही रहा।
फिर
पानी नाक को डुबा गया।
फिर आंख को डुबा
गया। फिर पानी
की लहर सिर को डुबा गई।
और गुरजिएफ
भागा तंबू के
बाहर। कूदा
नहर में, उस
युवक को बाहर
निकालकर
लाया। वह
करीब-करीब बेहोश
था। पानी भर
गया था। पानी
निकाला। वह
युवक होश में
आया और
गुरजिएफ के
चरणों पर गिर पड़ा।
उसने कहा, मैंने
तो कभी सोचा
भी न था कि अगर
मैं इतना बल दिखाऊंगा,
तो मेरे
भीतर का सोया
मालिक जग
जाएगा! मैंने
मृत्यु के इस
क्षण में अमृत
को भी जान
लिया है।
योग का
अर्थ है, भीतर
जो सोया है, उस पर चोट
करनी है, उसे
उठाने के लिए
चोट करनी है।
हजार रास्ते
हैं उस पर चोट
करने के।
हठयोग के अपने
रास्ते हैं, राजयोग के
अपने रास्ते
हैं, मंत्रयोग के अपने
रास्ते हैं, तंत्र के
अपने रास्ते
हैं।
हजार-हजार
विधियां हैं,
जिन
विधियों से उस
सोई हुई चेतना
में जो भीतर केंद्र
पर प्रसुप्त
है, उसे
जगाने की
कोशिश की जाती
है।
जैसे
कोई आदमी सोया
हो, उसे
जगाने के बहुत
रास्ते हो
सकते हैं। कोई
उसका नाम लेकर
जोर से पुकार
सकता है; तो
उठ आए। कोई
उसका नाम लेकर
न पुकारे,
सिर्फ
चिल्लाए कि
मकान में आग
लग गई है, और
वह आदमी उठ
आए। कोई मकान
में आग लगने की
बात भी न करे, सिर्फ संगीत
बजाए, और
वह आदमी उठ
आए। कोई संगीत
भी न बजाए, सिर्फ
तेज रोशनी
उसकी बंद
आंखों पर डाले,
और वह आदमी
उठ आए। ऐसे
योग के हजार
रास्ते हैं, जिनसे भीतर
सोई हुई
कांशसनेस को,
चेतना को
चोट की जाती
है। और उस चोट
से वह जग आता
है। एक-दो
उदाहरण के लिए
आपसे कहूं, क्योंकि वह
तो बहुत-बहुत
लंबी बात है।
जैसे
ओम शब्द से हम
परिचित हैं।
वह भीतर सोए हुए
आदमी को जगाने
के लिए मंत्रयोग
की विधि है।
अगर कोई
व्यक्ति जोर
से ओम का नाद करे
भीतर, तो
उसकी नाभि के
पास जोर से
चोट होने लगती
है। नाभि
जीवन-ऊर्जा का
केंद्र है।
नाभि से ही
बच्चा मां से
जुड़ा होता है।
नाभि के
द्वारा ही मां
से जीवन पाता
है। फिर नाभि
कटती है अलग, तो बच्चा
अलग होता है।
नया जीवन शुरू
होता है।
कभी
आपने खयाल
शायद किया हो, न किया हो; साइकिल चला
रहे हों, कार
चला रहे हों, अगर एकदम से एक्सिडेंट
होने की हालत
हो जाए, तो
सबसे पहले चोट
नाभि पर पड़ती
है। साइकिल पर
चले जा रहे
हैं; एकदम
से कोई सामने
आ गया, ब्रेक
मारा। तो आपके
शरीर में जो
चोट पड़ेगी, वह नाभि पर
पड़ेगी। एकदम
से नाभि पर
चोट पड़ जाएगी।
खतरा आ गया!
खतरे की हालत
में
जीवन-ऊर्जा को
जगने का मौका
आ जाता है।
ओम ऐसी
ध्वनि है, जिसके
माध्यम से
भीतर से नाभि
पर चोट की
जाती है। आप
ओम की गूंज
करें भीतर, तो नाभि पर
चोट पड़ने लगती
है। हलकी-हलकी
पड़ती है पहले,
फिर तेज
होती जाती है।
फिर और तेज
होती जाती है।
फिर ओंकार का
शब्द जाकर
नाभि पर हथौड़े
की तरह पड़ने
लगता है, और
वह सोई हुई जो
चेतना है, उसे
जगाता है।
अब यह
बड़े मजे की
बात है। ओम
में अ, उ और म
हैं। म आप जोर
से कहें, तो
नाभि पर फौरन
कंपन होगा।
इस्लाम के पास
शब्द है, अल्लाह।
सूफी फकीर ओम
की तरह अल्लाह
शब्द का प्रयोग
करते हैं।
अल्लाह, तो
ह की चोट वहीं
पड़ती है, जहां
म की पड़ती है। अल्लाहू, तो हू की चोट
ठीक वहीं पड़ती
है नाभि पर, जहां ओम की
पड़ती है। अब
अल्लाह और ओम
बिलकुल अलग-अलग
शब्द हैं।
लेकिन
प्रयोजन एक है,
और परिणाम
एक है। अर्थ
भी एक है।
सूफी फकीर अल्लाह
से शुरू करता
है। अल्लाह, फिर लाह, फिर
लाहू। और
फिर हू ही रह
जाता है। और हू
की चोट नाभि
पर पड़ती है।
और नाभि पर
सोया हुआ
मालिक जगना
शुरू होता है।
हजार
विधियों से
योग सोए हुए
मालिक को
जगाता है। और
उस सोए हुए
मालिक के जगते
ही
व्यक्तित्व
में इंटीग्रेशन, योग पैदा हो
जाता है। खंड
इकट्ठे हो
जाते हैं।
बाजार समाप्त
हो जाता है।
पंक्तिबद्ध
सैनिक खड़े हो
जाते हैं। फिर
व्यक्तित्व
आज्ञा मानता
है। बाजार की
भीड़ में कोई
आज्ञा नहीं
मानता। मानने
का कोई सवाल
भी नहीं है। न
कोई आज्ञा
देने वाला
होता है, न
कोई मानने
वाला होता है।
योगस्थ
व्यक्ति
अंतर-अनुशासन
से भर जाता है, इनर
डिसिप्लिन से
भर जाता है।
एक भीतरी
अनुशासन पैदा
हो जाता है।
फिर वह जो करना
चाहता है, वही
करता है। जो
नहीं करना
चाहता है, नहीं
करता है। और
जैसे ही भीतर
का व्यक्ति
जागा कि अब तक
मैंने जो
बातें कहीं, उनसे जो
परिणाम होता
है, वही
इससे भी हो
जाता है।
स्वाध्याय
से जो होता है, स्वधर्म से
जो होता है, अंतर्वाणी से जो होता
है, अहिंसादिक प्रयोग
करने से जो
चेतना जगती है,
वही योग की
विधियों से, मेथडॉलाजी से भी
परिणाम हो
जाता है।
इस
परिणाम को योग
के मार्ग से
लाने की बहुत
अनंत विधियां
हैं। और एक-एक
व्यक्ति को
देखकर कि उसके
लिए कौन-सी
विधि सार्थक
होगी, प्रयोग
किया जाता है।
अब जिस
व्यक्ति का
नाद कमजोर है
या जिस व्यक्ति
को नाद का कोई
बोध ही नहीं
है...।
सब
व्यक्तियों
का नाद-बोध
अलग है। आप
रास्ते से गुजरें, जिसका
नाद-बोध तीव्र
है, उसे
छोटे-से पक्षी
की चहचहाहट भी
सुनाई पड़ती है।
आपका नाद-बोध
तीव्र नहीं है,
तो आपको कभी
नहीं सुनाई
पड़ती कि पक्षी
भी चहचहा रहे
हैं।
जिसका
नाद-बोध तीव्र
है, उसे मंत्रयोग
से जगाने की
कोशिश की जाती
है। जिसका
दृष्टि-बोध
तीव्र है, उसे
त्राटक, एकाग्रता
के। अनंत-अनंत
प्रयोग हैं, उनसे जगाने
की कोशिश की
जाती है। यह
व्यक्ति पर
निर्भर करेगा
कि उसका बोध
कौन-सा
सर्वाधिक
तीव्र है।
उसके तीव्र
बोध के ही
मार्ग से उसे
गहरे ले जाया
जा सकता है।
जिनका रंग-बोध
तीव्र है, उन्हें
रंग के द्वारा
भी मार्ग मिल
सकता है। लेकिन
यह व्यक्ति पर
निर्भर
करेगा।
कृष्ण
कहते हैं, योग के
द्वारा भी
अर्जुन, योग-यज्ञ
के द्वारा भी
व्यक्ति परमसत्ता
को उपलब्ध हो
जाता है।
अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं
तथापरे।
प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः।।
29।।
और
दूसरे योगीजन
अपान वायु में
प्राण वायु को
हवन करते हैं, वैसे ही
अन्य योगीजन
प्राणवायु
में अपान वायु
को हवन करते
हैं तथा अन्य योगीजन
प्राण और अपान
की गति को
रोककर
प्राणायाम के परायण
होते हैं।
योग का
एक और आयाम इस
सूत्र में
कृष्ण कहते हैं।
मनुष्य
के पास
अस्तित्व से
जुड़े होने के
बहुत द्वार
हैं; एक द्वार
नहीं, अनंत
द्वार हैं। हम
परमात्मा से
बहुत-बहुत भांति
से जुड़े हुए
हैं। जैसे एक
वृक्ष एक ही
जड़ से नहीं
जुड़ा होता
पृथ्वी से, बहुत जड़ों
से जुड़ा होता
है। ऐसे हम भी
अस्तित्व से
बहुत जड़ों से
जुड़े हुए हैं,
एक ही जड़ से
नहीं। और
इसलिए
अस्तित्व तक
पहुंचने के
लिए किसी भी
एक जड़ के
सहारे हम
प्रवेश कर सकते
हैं।
अभी
मैंने कहा कि
जीवन-ऊर्जा
नाभि पर
इकट्ठी है; यह एक द्वार
है।
जीवन-ऊर्जा
प्राण पर भी
संचालित है; श्वास पर
भी। श्वास
चलती है, तो
हम कहते हैं, व्यक्ति
जीवित है।
श्वास गई, तो
हम कहते हैं, व्यक्ति भी
गया। श्वास पर
सब खेल है।
श्वास से ही
शरीर और आत्मा
जुड़ी है।
श्वास सेतु
है। इसलिए
श्वास पर भी
प्रयोग करके योगीजन उस
परम अनुभूति
को उपलब्ध हो
पाते हैं।
श्वास
या प्राण, उसका अपना प्राणयोग
है। इसके भी
बहुत-बहुत रूप
हैं।
संक्षिप्त में,
थोड़ा-सा
सारभूत प्राणयोग
के संबंध में दोत्तीन
बातें खयाल
में ले लेनी
चाहिए।
एक तो, श्वास की
गति मनोदशा से
बंधी है। जैसा
होता मन, वैसी
हो जाती श्वास
की गति। जैसी
होती अंतर-स्थिति,
श्वास के
आंदोलन और
तरंगें, वाइब्रेशंस,
फ्रीक्वेंसीज बदल जाती
हैं। श्वास की
फ्रीक्वेंसी,
श्वास की
तरंगों का
आघात खबर देता
है, मन की
दशा कैसी है।
अभी तो
मेडिकल साइंस
उसकी फिक्र
नहीं कर पाई, क्योंकि अभी
मेडिकल साइंस
शरीर के पार
नहीं हो पाई है!
इसलिए अभी
प्राण पर उसकी
पहचान नहीं हो
पाई। लेकिन
जैसे मेडिकल
साइंस खून की
गति को नापती
है; रक्तचाप
को, ब्लडप्रेशर को, खून
के दबाव को
नापती है। जब
तक पता नहीं
था, तब तक
कोई खून के
दबाव का सवाल
नहीं था।
रक्तचाप नई
खोज है। रक्त
का परिभ्रमण
भी नई खोज है।
तीन सौ
साल पहले किसी
को पता नहीं
था कि शरीर में
खून चलता है।
खयाल था कि
भरा हुआ है।
चलता है, ऐसा
खयाल नहीं था,
भरा हुआ है।
जैसे बाल्टी
में पानी भरा
हुआ है, ऐसा
आदमी में खून
भरा हुआ है।
उसमें
परिभ्रमण हो
रहा है, चल रहा
है, इसका
पता नहीं था।
पता होता भी
कैसे? क्योंकि
हमें भीतर तो
पता चलता नहीं
कि खून चल रहा
है।
खून के
चलने का पता
तीन सौ साल
पहले ही लग
पाया। और जब
खून के चलने
का पता लगा, तो यह भी पता
लगा धीरे-धीरे
कि खून का जो
चाप है, जो
प्रेशर है, वह व्यक्ति
के स्वास्थ्य
के गहरे अंगों
से जुड़ा हुआ
है। इसलिए ब्लडप्रेशर
चिकित्सक के
लिए नापने की
खास चीज हो
गई।
लेकिन
अभी तक भी हम
यह नहीं जान
पाए कि जैसे ब्लडप्रेशर
है, वैसा ब्रेथप्रेशर
भी है, वैसा
ही वायुचाप
भी है। वैसे
वायु का अधिक
दबाव और कम
दबाव, वायु
की गति और
तरंगों का आघात-भेद,
व्यक्ति की
अंतर मनोदशा
को परिवर्तित
करता है। वह
उसकी
जीवन-ऊर्जा से
संबंधित है।
थोड़ी-सी बातें
आपको कहूं, तो खयाल में
आ जाएगा।
जब आप
क्रोध में
होते हैं, तो आप खयाल
करना, आपकी
श्वास की गति
बदल जाती है।
वैसी ही नहीं रह
जाती, जैसी
साधारण होती
है। क्यों? क्रोध में
श्वास की गति
बदलने की क्या
जरूरत है? इसका
मतलब यह भी कि
अगर आप श्वास
की गति पर काबू
पा लें, तो
आप फिर क्रोध
पर काबू पा
सकते हैं। अगर
न बदलने दें
श्वास की गति,
तो क्रोध
आना मुश्किल
हो जाएगा।
इसलिए
जापान में वे
बच्चों को
घरों में
सिखाते हैं।
वह प्राणयोग
का ही एक
सूत्र है। वे
बच्चों को यह
नहीं कहते कि
तुम क्रोध मत
करो। और मैं
मानता हूं कि
जापानी इस
मामले में
सर्वाधिक
होशियार हैं
और सबसे कम
क्रोध करते
हैं। सबसे
ज्यादा मुस्कुराती
कौम हैं। और
राज प्राणयोग
का एक सूत्र
है।
मां-बाप
बच्चों को
परंपरा से घर
में यह सिखाते
हैं कि जब
क्रोध आए, तब तुम
श्वास को
आहिस्ता लो, धीमे-धीमे
लो। गहरी लो
और धीमे लो।
स्लोली एंड
डीप, धीमे
और गहरी।
बच्चों को वे
यह नहीं कहते
कि क्रोध मत
करो, जैसा
कि हम कहते
हैं।
सारी
दुनिया कहती
है, क्रोध मत
करो। क्रोध न
करना, हाथ
की बात नहीं
है इतनी कि
आपने कह दिया
और बच्चा न
करे। और मजा
तो यह है कि जो
बाप बच्चे को
कह रहा है, क्रोध
मत करो, अगर
बच्चा न माने
तो बाप ही
क्रोध करके
बता देता है
कि नहीं
मानता! इतना
कहा कि क्रोध
मत कर! वह भूल
ही जाता है कि
अब हम खुद ही
वही कर रहे
हैं, जो हम
उसको मना किए
थे।
क्रोध
इतना हाथ में
नहीं है, जितना
लोग समझते हैं
कि क्रोध मत
करो। क्रोध इतना
वालंटरी
नहीं है, नान
वालंटरी
है। इतना
स्वेच्छा में
नहीं है, जितना
लोग समझते
हैं। इसलिए
शिक्षा चलती
रहती है; कुछ
अंतर नहीं
पड़ता है!
जापान
ज्यादा ठीक
समझा। योग का
पुराना सूत्र, बुद्ध के
द्वारा जापान
पहुंचा।
बुद्ध ने श्वास
पर बहुत जोर
दिया। बुद्ध
का सारा योग, कृष्ण जो इस
सूत्र में कह
रहे हैं, प्राणयोग है।
इसलिए
बुद्ध के
सूत्र की गहरी
बात अनापानसती
योग कही जाती
है। आती-जाती
श्वास को
देखना ही योग
है, बुद्ध ने
कहा। अगर कोई
आती-जाती
श्वास के राज
को पूरा समझ
ले, तो फिर
उसको दुनिया
में और कुछ
करने को नहीं
रह जाता।
इसलिए बुद्ध
तो कहते हैं, अनापानसती योग सध गया
कि सब सध गया।
बात ठीक कहते
हैं। उधर से
भी सब सध जा
सकता है।
क्रोध
आता है, तब
आप देखें कि
श्वास बदल
जाती है। जब
आप शांत होते
हैं, तब
श्वास बदल
जाती है, रिदमिक
हो जाती है।
आप आरामकुर्सी
पर भी लेटे
हैं, शांत
हैं, मौज
में हैं, चित्त
प्रसन्न है, पक्षियों
जैसा हलका है,
हवाओं जैसा
ताजा है, आलोकित
है। तब देखें,
श्वास ऐसी
हो जाती है, जैसे हो ही
नहीं। पता ही
नहीं चलता।
बहुत हलकी हो
जाती है; न
के बराबर हो
जाती है।
देखें, जब कामवासना
मन को पकड़ती
है, सेक्स
मन को पकड़ता
है, तो
श्वास कैसी हो
जाती है? श्वास
एकदम
अस्तव्यस्त
हो जाती है।
रक्तचाप बढ़
जाता है, जब
कामवासना मन
में आंदोलित
होती है।
रक्तचाप बढ़
जाता है; शरीर
पसीना छोड़ने
लगता है, श्वास
तेज हो जाती
है और
अस्तव्यस्त
हो जाती है, टूट-फूट
जाती है।
प्रत्येक
समय भीतर की
स्थिति के साथ
श्वास जुड़ी
है। अगर कोई
श्वास में
बदलाहट करे, तो भीतर की
स्थिति में
बदलाहट की
सुविधा पैदा करता
है, और
भीतर की
स्थिति पर
नियंत्रण
लाने का पहला
पत्थर रखता
है।
प्राणयोग
का इतना ही
अर्थ है कि
श्वास बहुत
गहरे तक
प्रवेश किए
हुए है, वह
हमारी आत्मा
को भी छूती
है। एक तरफ
शरीर को स्पर्श
करती है, दूसरी
तरफ आत्मा को
स्पर्श करती
है। एक तरफ जगत
को छूती है
बाहर, और
दूसरी तरफ
भीतर ब्रह्म
को भी छूती
है। श्वास
दोनों के बीच
आदान-प्रदान
है--पूरे समय, सोते-जागते,
उठते-बैठते।
इस
आदान-प्रदान
में श्वास का
रूपांतरण प्राणयोग
है, ट्रांसफार्मेशन आफ दि
ब्रीदिंग
प्रोसेस। वह
जो प्रक्रिया
है हमारे
श्वास की, उसको
बदलना। और
उसको बदलने के
द्वारा भी
व्यक्ति परमसत्ता
को उपलब्ध हो
सकता है।
जो लोग
भी ध्यान का
कभी थोड़ा
अनुभव किए हैं, उनको पता
है। मेरे पास
निरंतर लोग
ध्यान के प्रयोग
के बाद आते
हैं। जो गहरा
प्रयोग करते
हैं, वे
कहते हैं कि
कभी-कभी ऐसा
लगता है कि
श्वास बंद हो
गई, चलती
ही नहीं! तो हम
बहुत घबड़ा
जाते हैं कि
इससे कुछ खतरा
तो न हो
जाएगा।
घबड़ाने
की जरा भी जरूरत
नहीं है। घबड़ाएं
तब, जब श्वास
बहुत जोर से
चले, अस्तव्यस्त,
तब घबड़ाएं।
जब बिलकुल लगे
कि ठहर गई, जब
लगे कि श्वास
का कंपन ही
नहीं है, तब
आप उस बैलेंस
को, उस
संतुलन को
उपलब्ध होते
हैं, जिसकी
कृष्ण चर्चा
कर रहे हैं।
तब ऊपर की
श्वास ऊपर और
नीच की नीचे
रह जाती है।
बाहर की बाहर
और भीतर की
भीतर रह जाती
है। और एक
क्षण के लिए
ठहराव आ जाता
है। सब ठहर जाता
है। न तो बाहर
की श्वास भीतर
जाती, न
भीतर की श्वास
बाहर आती। न
ऊपर की श्वास
ऊपर जाती, न
नीचे की श्वास
नीचे जाती। सब
ठहर जाता है।
श्वास
के इस ठहराव
के क्षण में
परम अनुभव की
किरण उत्पन्न
होती है।
श्वास के इस पूरे
ठहर जाने में
अस्तित्व
पूरा संतुलित
हो जाता है, संयम को
उपलब्ध हो
जाता है। फिर
कोई मूवमेंट नहीं,
आंदोलन
नहीं। फिर कोई
परिवर्तन
नहीं। फिर कोई
हेर-फेर नहीं,
बदलाहट
नहीं, कोई
गति नहीं। उस
क्षण में आदमी
परमगति में
उतर जाता है
या शाश्वत में
डूब जाता है
या इटरनल,
सनातन से
संपर्क साध
लेता है।
श्वास
का आंदोलन
हमारा
परिवर्तनशील
जगत से संबंध
है। श्वास का आंदोलनरहित
हो जाना, हमारा
अपरिवर्तनशील
नित्य जगत से
संबंधित हो
जाना है।
इसलिए
श्वास का यह
ठहर जाना बड़ी
अदभुत अनुभूति
है। कोशिश
करके ठहराने
की जरूरत भी
नहीं है। क्योंकि
कोशिश करके
कभी नहीं ठहरा
सकते। अगर आप कोशिश
करके ठहराएंगे, तो भीतर की
श्वास बाहर
जाना चाहेगी,
बाहर की
श्वास भीतर
जाना चाहेगी।
कोशिश
करके कोई
व्यक्ति
श्वास को रोक
नहीं सकता।
हां, श्वास को
आहिस्ता-आहिस्ता
प्रशिक्षित
किया जा सकता
है, रिदमिक किया जा
सकता है, तैयार
किया जा सकता
है लयबद्धता
के लिए। और साथ
में अगर कोई
ध्यान में
गहरा उतरता
चला जाए, प्राणायाम
के साथ-साथ
ध्यान में
गहरा उतरता चला
जाए, तो एक
क्षण ऐसा आ
जाता है कि
प्रशिक्षित
श्वास और
ध्यान की शांत
स्थिति का कभी
मेल, टयूनिंग हो जाती, तो
श्वास ठहर
जाती है।
और भी
एक मजे की बात
कि जब श्वास
ठहरती है, तब तत्काल
विचार ठहर
जाते हैं।
बिना श्वास के
विचार नहीं चल
सकते। इसे जरा
देखें, कभी
ऐसे ही एक
सेकेंड को
श्वास को ठहराकर।
अभी यहीं एक
सेकेंड श्वास ठहराएं।
इधर श्वास
ठहरी, भीतर
विचार ठहरे, एकदम ब्रेक!
श्वास बिलकुल
ब्रेक का काम
करती है विचार
पर।
लेकिन
जब आप ठहराते
हैं, तब
ज्यादा देर
नहीं ठहर
सकती। श्वास
भी निकलना
चाहेगी और
विचार भी हमला
करना
चाहेंगे। क्षणभर
को ही गैप
आएगा। लेकिन
जब श्वास, प्रशिक्षित
श्वास ध्यान
के संयोग से
अपने आप ठहर
जाती है, तो
कभी-कभी घंटों
ठहरी रहती है।
रामकृष्ण
के जीवन में
ऐसे बहुत मौके
हैं। कभी-कभी
तो ऐसा हुआ है
कि वह छः-छः
दिन तक ऐसे
पड़े रहते कि
जैसे मर गए!
प्रियजन घबड़ा
जाते, मित्र
घबड़ा जाते, कि अब क्या
होगा, क्या
नहीं होगा! सब
ठहर जाता। उस
ठहरे हुए क्षण
में, इन
दैट स्टिल
मोमेंट, उस
ठहरे हुए क्षण
में, चेतना
समय के बाहर
चली जाती, कालातीत
हो जाती।
विचार
के बाहर हुए, निर्विचार
में गए, ब्रह्म
के द्वार पर
खड़े हैं।
विचार में आए,
विचार में
पड़े, कि
संसार के बीच
आ गए हैं।
संसार और
मोक्ष के बीच
पतली-सी विचार
की पर्त के
अतिरिक्त और
कोई फासला
नहीं है। पदार्थ
और परमात्मा
के बीच पतले, झीने विचार
के पर्दे के
अतिरिक्त और
कोई पर्दा
नहीं है।
लेकिन यह
विचार का
पर्दा कैसे
जाए?
दो तरह
से जा सकता
है। या तो कोई
सीधा विचार पर
प्रयोग करे
ध्यान का, साक्षी-भाव
का, तो
विचार चला
जाता है। जिस
दिन विचार
शून्य होता है,
उसी दिन
श्वास भी शांत
होकर खड़ी रह
जाती है। या
फिर कोई प्राणयोग
का प्रयोग करे,
श्वास का।
श्वास को गति
दे, व्यवस्था
दे, प्रशिक्षण
दे; और ऐसी
जगह ले आए, जहां
श्वास अपने आप
ठहर जाती
है--बाहर की
बाहर, भीतर
की भीतर, ऊपर
की ऊपर, नीचे
की नीचे। और
बीच में गैप, अंतराल आ
जाता है; खाली,
वैक्यूम हो
जाता है, जहां
श्वास नहीं
होती। वहीं से
छलांग, दि
जंप। उसी
अंतराल में
छलांग लग जाती
है परमसत्ता
की ओर।
प्रश्न:
भगवान
श्री, प्राण
क्या है और
अपान क्या है?
अपान में
प्राण का हवन
क्या है और
प्राण में
अपान का हवन
क्या है? इसे
फिर से स्पष्ट
करें।
जो
हमारे भीतर है, वह भी बाहर
का हिस्सा है।
अभी मेरे भीतर
एक श्वास है।
थोड़ी देर पहले
आपके पास थी, आपकी थी। और
थोड़ी देर पहले
किसी वृक्ष के
पास थी, वृक्ष
की थी। और
थोड़ी देर पहले
कहीं और थी।
अभी मेरे भीतर
है। मैं कह भी
नहीं पाया कि
मेरे भीतर है,
कि गई बाहर।
जो
हमारे भीतर है, उसको अगर हम
बाहर के
प्राण-जगत में
समर्पित कर
दें, जानें
कि वह भी दे दी
बाहर को, तो
भीतर कुछ बच
नहीं रह जाता।
सब शून्य हो
जाता है। एक
समर्पण यह है।
भीतर की श्वास
को, वह जो
बाहर विराट
प्राण का जाल
फैला है
वायुमंडल में,
उसमें
समर्पित कर
दें, उसमें
होम दे दें, उसमें चढ़ा
दें। या इससे
उलटा भी कर
सकते हैं। वह
जो बाहर का
सारा
प्राण-जगत है,
वह भी तो
मेरे भीतर का
ही हिस्सा है
बाहर फैला हुआ।
अगर हम उस
बाहर के
प्राण-जगत को
इस भीतर के
प्राण-जगत को
समर्पित कर
दें, तो भी
एक ही घटना घट
जाती है। बूंद
सागर में गिर
जाए, कि
सागर बूंद में
गिर जाए।
बूंद
का सागर में
गिरना तो
हमारी समझ में
आता है, क्योंकि
हमने सागर में
बूंद को गिरते
देखा है। सागर
का बूंद में
गिरना हमारी
समझ में नहीं आता।
लेकिन अगर
आइंस्टीन के
संबंध में कुछ
भी खयाल हो, तो समझ आ में
सकता है।
जब एक
बूंद सागर में
गिरती है, तो यह
बिलकुल
रिलेटिव बात
है, यह
बिलकुल
सापेक्ष बात
है। आप चाहें
तो कह सकते
हैं कि बूंद
सागर में गिरी;
और आप चाहें
तो कह सकते
हैं कि सागर
बूंद में गिरा।
आप कहेंगे, कैसी बात है
यह!
मैं
पूना आया। तो
मैं कहता हूं, मैं पूना
आया, ट्रेन
बंबई से मुझे
पूना तक लाई।
आइंस्टीन कहते
हैं कि यह
सापेक्ष है, यह कामचलाऊ
बात है। इससे
उलटा भी कह
सकते हैं कि
ट्रेन मेरे
पास पूना को
लाई। ऐसा भी
कह सकते हैं
कि ट्रेन मुझे
पूना तक लाई; ऐसा भी कह
सकते हैं कि
ट्रेन पूना को
मुझ तक लाई।
इन दोनों में
कोई बहुत फर्क
नहीं है।
लेकिन
हम छोटे-छोटे
हैं, तो ऐसा
कहना अजीब-सा
लगेगा कि
ट्रेन पूना को
मुझ तक लाई; यही कहना
ठीक मालूम
पड़ता है कि
मुझे ट्रेन
पूना तक लाई।
लेकिन दोनों
बातें कही जा
सकती हैं। कोई
अंतर नहीं है।
ट्रेन जो काम
कर रही है, वे
दोनों ही
बातें कही जा
सकती हैं।
तो या
तो हम भीतर के
प्राण को बहिप्र्राण
पर समर्पित कर
दें, बूंद को
सागर में गिरा
दें। या हम
सागर को बूंद
में गिरा लें,
या हम बाहर
के समस्त
प्राण को भीतर
गिरा लें। दोनों
ही तरह हवन
पूरा हो जाता
है। दोनों ही
तरह यज्ञ पूरा
हो जाता है।
इसे
कैसे गिराया
जाए, वह मैंने
जानकर छोड़
दिया। जानकर
छोड़ा इसीलिए कि
वह सब योग की
बहुत सूक्ष्म
प्रक्रियाएं
हैं, जिनका
सीधा कोई
प्रयोजन नहीं
है। वह तो
पतंजलि के
योग-शास्त्र
पर बात हो, तभी
विस्तार से
उनकी बात हो
सकती है।
एक
आखिरी श्लोक
और ले लें।
अपरे नियताहाराः
प्राणान्प्राणेषु
जुह्वति।
सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः।।
३०।।
और
दूसरे नियमित
आहार करने
वाले योगीजन
प्राणों को
प्राणों में
ही हवन करते
हैं। इस प्रकार
यज्ञों
द्वारा नाश हो
गया है पाप
जिनका, ऐसे
ये सब ही
पुरुष यज्ञों
को जानने वाले
हैं।
इसमें
भी योग की
दूसरी और
प्रक्रिया का
उल्लेख कृष्ण
ने किया। वे
प्रत्येक
प्रक्रिया का
उल्लेख करते
जा रहे हैं।
अर्जुन को जो
भा जाए, जो
प्रीतिकर लगे,
जो रुचिकर
बने। अर्जुन
के टाइप को जो
अनुकूल पड़
जाए।
इसमें
वे कहते हैं, नियमित, संयमित
आहार करने
वाले पुरुष
प्राण को
प्राण में ही
होम करते हैं।
नियमित, संयमित
आहार!
अब यह
आहार बड़ा शब्द
है और बड़ी
घटना है।
साधारणतः हम
सोचते हैं कि
भोजन आहार है।
साधारणतः ठीक
सोचते हैं।
लेकिन आहार के
और व्यापक
अर्थ हैं।
आहार
का मूल अर्थ
होता है, जो
भी बाहर से
भीतर लिया
जाए। आहार का
अर्थ होता है,
जो भी बाहर
से भीतर लिया
जाए। भोजन एक
आहार है; आहार
ही नहीं, सिर्फ
एक आहार।
क्योंकि भोजन
को हम बाहर से
भीतर लेते
हैं। लेकिन
आंख से भी हम
चीजों को भीतर
लेते हैं; वह
भी आहार है।
कान से भी हम
चीजों को भीतर
लेते हैं; वह
भी आहार है।
स्पर्श से भी
हम चीजों को
भीतर लेते हैं;
वह भी आहार
है।
शरीर
के भीतर जो भी
हम बाहर से
लेते हैं, वह सब आहार
है। जो भी हम रिसीव
करते हैं बाहर
से, जिसके
हम ग्राहक हैं,
जिसे भी हम
बाहर से भीतर
ले जाते हैं, वह सब आहार
है।
संयमित, नियमित आहार
का मतलब हुआ, जो व्यक्ति
अपने
इंद्रियों के
द्वार से उसे
ही भीतर ले
जाता--उसे ही
भीतर ले
जाता--जो
प्राणों को
प्राणों में
समर्पित होने
में सहयोगी है।
हम इस तरह की
चीजें भी भीतर
ले जा सकते
हैं, जो
प्राणों को
प्राणों में
समाहित न होने
दें, बल्कि
प्राणों को
उद्वेलित
करें, उत्तेजित
करें, विक्षिप्त
करें।
दो तरह
के आहार हो
सकते हैं। ऐसा
आहार, जो
प्राणों को
उत्तेजित
करे--शांत
नहीं, मौन
नहीं, निस्पंद
नहीं--आंदोलित
करे, पागल
बनाए, दौड़ाए। और जब
प्राण दौड़ते
हैं, तो
फिर बाहर की
तरफ, विषयों
की तरफ दौड़
जाते हैं। और
जब प्राण नहीं
दौड़ते, ठहरते
हैं, विश्राम
करते हैं, विराम
करते हैं, तो
फिर प्राण
महाप्राण में
लीन हो जाते
हैं। जैसे लहर
जब दौड़ती है, तो सागर में
लीन नहीं होती;
वायुमंडल
की तरफ छलांगें
भरती है; आकाश
की तरफ हवाओं
में टक्कर
लेती है, उछलती
है, चट्टानों
से किनारे की
टकराती है, टूटती है।
लेकिन जब लहर
शांत होती है,
तो लहर सागर
में लीन हो
जाती है।
आहार
दो तरह के हो
सकते हैं।
प्राणों को
उत्तेजित
करें। हम ऐसे
ही आहार लेते
हैं, जो
उत्तेजित
करें। एक आदमी
शराब पी लेता
है, तो फिर
प्राण प्राण
में लीन नहीं
हो पाएंगे।
फिर तो प्राण
पागल होकर पदार्थ
के लिए दौड़ने
लगेंगे--किसी
और के लिए, बाहर,
हवाओं में
कूदने लगेंगे,
तो किनारों
की चट्टानों
से टकराने
लगेंगे।
शराब
उत्तेजक है।
लेकिन शराब
अकेली
उत्तेजक नहीं
है। जब कोई
आंख से गलत
चीज देखता है, तो भी उतनी
ही उत्तेजना आ
जाती है।
अब एक
आदमी बैठा हुआ
है तीन घंटे
तक, नाटक देख
रहा है, फिल्म
देख रहा है।
और इस तरह का
आहार कर रहा
है जो
उत्तेजना ले
आएगा भीतर; जो चित्त को
चंचल करेगा, भगाएगा,
दौड़ाएगा;
रातभर सो
नहीं सकेगा; सपने में भी
मन वहीं
नाटय-गृह में
घूमता रहेगा।
आंख बंद करेगा
और वे ही
दृश्य दिखाई
पड़ने लगेंगे,
वे ही छवियां
पकड़ लेंगी। अब
वह दौड़ा।
अब वह बेचैन
हुआ। अब वह
परेशान हुआ।
अभी
अमेरिका के
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
अब जब तक
अमेरिका में
फिल्म-टेलीविजन
हैं, तब तक कोई
पुरुष किसी
स्त्री से
तृप्त नहीं होगा
और कोई स्त्री
किसी पुरुष से
तृप्त नहीं होगी।
क्यों? क्योंकि
टेलीविजन ने
और सिनेमा के
पर्दे ने
स्त्रियों और
पुरुषों की
ऐसी
प्रतिमाएं
लोगों को दिखा
दीं, जैसी
प्रतिमाएं
यथार्थ में
कहीं भी मिल
नहीं सकतीं; झूठी हैं, बनावटी हैं।
फिर यथार्थ
में जो पुरुष
और स्त्री
मिलेंगे, वे
बहुत
फीके-फीके
मालूम पड़ते
हैं। कहां
तस्वीर फिल्म
के पर्दे पर, कहां
अभिनेत्री
फिल्म के
पर्दे पर और
कहां पत्नी घर
की! घर की
पत्नी एकदम
फीकी-फीकी, एकदम
व्यर्थ-व्यर्थ,
जिसमें नमक
बिलकुल नहीं,
बेरौनक,
साल्टलेस मालूम पड़ने
लगती है।
स्वाद ही नहीं
मालूम पड़ता।
पुरुष में भी
नहीं मालूम
पड़ता।
फिर
दौड़ शुरू होती
है। अब उस
स्त्री की
तलाश शुरू
होती है, जो
पर्दे पर
दिखाई पड़ी। वह
कहीं नहीं है।
वह पर्दे वाली
स्त्री भी
जिसकी पत्नी
है, वह भी
इसी परेशानी
में पड़ा है।
इसलिए वह कहीं
नहीं है।
क्योंकि घर पर
वह स्त्री
साधारण स्त्री
है। पर्दे पर
जो स्त्री
दिखाई पड़ रही
है, वह मैन्यूवर्ड
है, वह
तरकीब से
प्रस्तुत की
गई है, वह प्रेजेंटेड
है ढंग से।
सारी टेक्नीक,
टेक्नोलाजी से, सारी
आधुनिक
व्यवस्था
से--कैमरे, फोटोग्राफी,
रंग, सज्जा,
सजावट, मेकअप--सारी
व्यवस्था से
वह पेश की गई
है। उस पेश
स्त्री को
कहीं भी खोजना
मुश्किल है।
वह कहीं भी नहीं
है। वह धोखा
है।
लेकिन
वह धोखा मन को
आंदोलित कर
गया। आहार हो गया।
उस स्त्री का
आहार हो गया
भीतर। अब उस
स्त्री की
तलाश शुरू हो
गई; अब वह
कहीं मिलती
नहीं। और जो
भी स्त्री
मिलती है, वह
सदा उसकी
तुलना में
फीकी और गलत
साबित होती
है। अब यह
चित्त कहीं भी
ठहरेगा नहीं।
अब इस चित्त
की कठिनाई
हुई। यह सारी
की सारी
कठिनाई बहुत
गहरे में गलत
आहार से पैदा
हो रही है।
रास्ते
पर आप निकलते
हैं, कुछ भी
पढ़ते चले जाते
हैं, बिना
इसकी फिक्र
किए कि आंखें
भोजन ले रही
हैं। कुछ भी
पढ़ रहे हैं!
रास्ते भर के
पोस्टर लोग पढ़ते
चले जाते हैं।
किसने आपको
इसके लिए पैसा
दिया है! काहे
मेहनत कर रहे
हैं? रास्ते
भर के
दीवाल-दरवाजे
रंगे-पुते
हैं; सब
पढ़ते चले जा
रहे हैं। यह
कचरा भीतर चला
जा रहा है। अब
यह कचरा भीतर
से उपद्रव खड़े
करेगा।
अखबार
उठाया, तो
एक कोने से
लेकर ठीक
आखिरी कोने तक,
कि किसने
संपादित किया
और किसने
प्रकाशित
किया, वहां
तक पढ़ते चले
जाते हैं! और
एक दफे में भी
मन नहीं भरता।
फिर दुबारा
देख रहे हैं, बड़ी छानबीन
कर रहे हैं।
बड़ा
शास्त्रीय
अध्ययन कर रहे
हैं अखबार का!
कचरा दिमाग
में भर रहे हैं।
फिर वह कचरा
भीतर बेचैनी
करेगा। घास
खाकर देखें, कंकड़-पत्थर खाकर
देखें, तब
पता चलेगा कि
पेट में कैसी
तकलीफ होती
है। वैसी
खोपड़ी में भी
तकलीफ हो जाती
है। लेकिन वह,
हम सोचते
हैं, आहार
नहीं है; वह
तो हम पढ़ रहे
हैं; ऐसी
ही, खाली
बैठे हैं।
खाली बैठे हैं,
तब कंकड़-पत्थर
नहीं खाते!
नहीं; हमें खयाल
नहीं है कि वह
भी आहार है।
बहुत सूक्ष्म
आहार है। कान
कुछ भी सुन रहे
हैं। बैठे हैं,
तो रेडिओ
खोला हुआ है!
कुछ भी सुन
रहे हैं! वह
चला जा रहा है
दिमाग के
भीतर। दिमाग
पूरे वक्त
तरंगों को आत्मसात
कर रहा है। वे
तरंगें दिमाग
के सेल्स में
बैठती जा रही
हैं। आहार हो
रहा है।
और एक
बार भोजन इतना
नुकसान न
पहुंचाए, क्योंकि
भोजन के लिए परगेटिव्स
उपलब्ध हैं।
अभी तक
मस्तिष्क के
लिए परगेटिव्स
उपलब्ध नहीं
हैं। अभी तक
मस्तिष्क में
जब कब्ज पैदा
हो जाए, और
अधिक
मस्तिष्क में
कब्ज है--कांस्टिपेशन
दिमागी--और
उसके परगेटिव्स
हैं नहीं
कहीं। तो बस, खोपड़ी में
कब्ज पकड़ता
जाता है। सड़
जाता है सब
भीतर। और किसी
को होश नहीं
है।
संयमी
या नियमी आहार
वाले व्यक्ति
से कृष्ण का
मतलब है, ऐसा
व्यक्ति, जो
अपने भीतर
एक-एक चीज
जांच-पड़ताल से
ले जाता है; जिसने अपने
हर इंद्रिय के
द्वार पर
पहरेदार बिठा
रखा है विवेक
का, कि
क्या भीतर
जाए। उसी को
भीतर ले जाऊंगा,
जो उत्तेजक
नहीं है। उसी
को भीतर ले जाऊंगा,
जो शामक है।
उसी को भीतर
ले जाऊंगा,
जो भीतर
चित्त को मौन
में, गहन
सन्नाटे में,
शांति में,
विराम में,
विश्राम
में डुबाता है;
जो भीतर
चित्त को
स्वस्थ करता
है, जो
भीतर चित्त को
संगीतबद्ध
करता है, जो
भीतर चित्त को
प्रफुल्लित
करता है।
ऐसा
व्यक्ति भी, अगर कोई
व्यक्ति
पूर्ण रूप से
संयमी हो आहार
की दृष्टि से,
समस्त आहार
की दृष्टि
से--छुए भी वही,
क्योंकि
छूना भी भीतर
जा रहा है; देखे
भी वही, सुने
भी वही, चखे
भी वही, गंध
भी उसकी ले--सब
इंद्रियों से
उसे ही भीतर
ले जाए, जो
आत्मा के लिए
शांति का
मार्ग है, तो
ऐसा व्यक्ति
भी उस परम
सत्य को
उपलब्ध हो जाता
है। इस योग से
भी, कृष्ण
कहते हैं, अर्जुन!
वहां पहुंचा
जा सकता है।
ऐसा वह
एक-एक कदम, एक-एक विधि
की अर्जुन से
बात कर रहे
हैं। मैं भी
आपसे एक-एक
विधि की बात
कर रहा हूं।
किसी को कोई
विधि जम जाए, किसी को कोई
विधि खयाल में
आ जाए, कहीं
चोट हो जाए, किसी को कुछ
ठीक पड़ जाए, और उसकी
जिंदगी में
रूपांतरण हो
जाए!
तो
किसी भी विधि
से, किसी भी
बहाने से और
किसी भी
निमित्त से
व्यक्ति
परमात्मा तक
पहुंच सकता
है। सिर्फ वे
ही नहीं
पहुंचते, जो
कभी पहुंचने
की कोशिश ही
नहीं करते
किसी भी विधि
से। गलत विधि
से भी कोई चले
उसकी तरफ, तो
भी पहुंच सकता
है; क्योंकि
गलत विधि से
चलने वाला
थोड़ी देर में
गलत को ठीक कर
लेता है। गलत
पर ज्यादा देर
तक नहीं चला
जा सकता।
लेकिन
न चलने वाले
के तो पहुंचने
का कोई उपाय
ही नहीं होता।
वह गलत पर भी नहीं
चलता। वह बैठा
ही रह जाता
है। वह बैठा
देखता रहता
है। जिंदगी
सामने से बहती
चली जाती है, वह बैठा
देखता रहता
है।
कबीर
ने कहा है, मैं बौरी खोजन
गई, रही
किनारे
बैठ--मैं पागल
खोजने गई और
किनारे बैठ
गई! जिन खोजा
तिन पाइयां, गहरे पानी
पैठ--खोजा तो
उन्होंने, जो
गहरे पानी में
डूबे हैं।
किनारे
क्यों बैठ
जाता है कोई? यह कबीर ने
मजाक की है
हमारे बाबत।
कबीर तो गहरे
पानी डूबे।
हमारे बाबत
मजाक की है कि
किनारे पर
बैठे हैं!
किनारे
पर कौन बैठ
जाता है? किनारे
पर वही बैठ
जाता है, जो
सोचता है, कोई
भूल-चूक न हो
जाए। पता नहीं,
करेंगे तो
परिणाम आएगा
कि नहीं आएगा?
पता नहीं, परिणाम होता
भी है या नहीं
होता? पता
नहीं, जो
कहा जा रहा है,
वह कभी हुआ
भी है? कभी
होगा भी? ऐसा
ही सोच-विचार
करता जो बैठा
रहता है
किनारे पर...।
बड़ा
मजा है कि वह
यह कभी नहीं
सोचता कि
किनारे पर
बैठे-बैठे
क्या हो जाएगा!
गहरे पानी
पैठने वाले
कहते हैं कि
मिला उन्हें।
एक अवसर उनको
भी परीक्षा का
देना चाहिए।
और किसी भी
विधि और किसी
भी तट से
कूदकर देखना
चाहिए।
बैठे-बैठे तो
किसी ने भी
नहीं कहा कि
मिल
गया--किनारे
पर बैठे-बैठे।
कुछ भी नहीं
मिला। सिर्फ
जीवन हाथ से
खो जाता है।
कृष्ण
एक-एक बात कर
रहे हैं कि
कोई बात मेल
खा जाए अर्जुन
को और वह
छलांग के लिए
तैयार हो जाए।
आपसे
भी कहता हूं, कोई बात मेल
खा जाए, तो
किनारे मत
बैठे रहें, छलांग लगाएं,
खोज पर निकलें।
जो खोज पर
निकलता है, वह जरूर एक
दिन पहुंच
जाता है। गलत
भी कूदे, तो भी पहुंच
जाता है।
क्योंकि गलत
कूदने वाले की
आकांक्षा तो
कम से कम सही
होती ही है, पहुंचने की।
गलत विधि का
उपयोग करे, तो भी पहुंच
जाता है।
क्योंकि गलत
विधि वाले की
भी प्यास तो
होती है, पाने
की ही।
और जो
प्रभु को पाने
को प्यासा है, वह गलत से भी
पा लेता है।
और जो प्रभु
को पाने का
प्यासा नहीं
है, उसके
सामने ठीक
विधि भी पड़ी
रहे, तो वह
कुछ भी नहीं
पाता है।
अब
संन्यासी
हमारे
भजन-कीर्तन
में लगेंगे। आप
भी--जो मित्र
हिम्मत करें--कूदें।
किनारे मत खड़े
रहें, सम्मिलित
हों। और जो
देखना चाहें,
वे देखें।
देखने से भी
तरंग पकड़ती
है। दस मिनट
इस कीर्तन में
सम्मिलित
होकर फिर विदा
हों। यहां
थोड़ी जगह बना
लेंगे, थोड़े
पीछे हट जाएं।
आज इतना
ही
कृष्ण से ज्यादा महेनत,कवायत,परिश्रम,.. ओशो ने किया हैं कि उसकी शरण मे जो आए हैं उसे मुक्ति मिल सके,परमानन्द के धनी हों सके लेकिन हर बार हार जाना मानों मेरी फितरत हों गई हैं 😢😢है ओशो!! आपका प्रेम,अथाह महेनत,परिश्रम से ही कई हंस उस किनारे का अमूल्य मोती का स्वाद ले सके हैं !! आपको शत-शत कोटि प्रणाम 🌹❤🙏🙏🙏❤🌹
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