ओशो
प्रवचन-तीसरा-(कार्यकर्ता की विशेष तैयारी)
मनुष्य
के जीवन में,
और विशेषकर इस देश के जीवन में, कोई सर्वांगीण
क्रांति आ सके, उसके लिए साधनों के संबंध में दिन भर हमने
बात की।
लेकिन
साधन अत्यंत जड़,
अत्यंत परिधि की बात है। उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण और जरूरी वे
मित्र हैं जो उस क्रांति को और आंदोलन को लोगों तक ले जाएंगे। उन मित्रों के संबंध
में थोड़ी बात कर लेनी बहुत जरूरी होगी।
एक
तो, जब भी किसी नये विचार को, किसी नई हवा को लोकमानस तक
पहुंचाना हो, तब जो लोग पहुंचाना चाहते हैं उनकी एक विशेष
मानसिक तैयारी अत्यंत जरूरी और आवश्यक है। यदि उनकी तैयारी नहीं है मानसिक,
तो वे जो पहुंचाना चाहते हैं उसे तो नहीं पहुंचा पाएंगे, बल्कि हो सकता है उनके सारे प्रयत्न, जो वे नहीं
चाहते थे, वैसा परिणाम ले आएं।
मानसिक
तैयारी से मेरा क्या प्रयोजन है? क्या अर्थ है?
एक
तो, जिन लोगों ने भी जगत में मनुष्य के हृदय तक कोई नये विचार-बीज पहुंचाए हैं,
उसके हृदय में कोई नई फसल उगाने की कोशिश की है, उसकी भूमिका में बहुत गहरे प्रेम, बहुत गहरी दया और
करुणा का हाथ रहा है।
दो
बातें हैं। एक तो जो विचार हम करते हैं वह विचार हमें प्रीतिकर लगता है इसलिए हम
उसे लोगों तक पहुंचाएं। साथ ही जिन लोगों तक पहुंचाना है उनके प्रति हमें इतना
प्रेम मालूम होता है कि हम इतनी महत्वपूर्ण बात उन तक बिना पहुंचाए नहीं रुकेंगे।
अकेला विचार के प्रति आदर का भाव खतरनाक भी हो सकता है। जिन लोगों तक हमें
पहुंचाना है उनके प्रति प्रेम; वे ऐसी स्थिति में हैं कि उन तक पहुंचाना है इस
खयाल को, यह भाव ज्यादा जरूरी और केंद्रीय होना चाहिए।
क्योंकि जब उनके प्रति हमें प्रेम नहीं होता और केवल किसी विचार को पहुंचाने की
तीव्रता हमारे मन में होती है, तो हम जाने-अनजाने लोगों के
साथ हिंसा करना शुरू कर देते हैं।
ऐसा
पूरे मनुष्य-जाति के इतिहास में होता रहा है। मुसलमानों ने सारी दुनिया में जाकर
लोगों के मंदिर तोड़ दिए,
मूर्तियां तोड़ दीं। एक खयाल के वशीभूत होकर--कि यह खयाल कि मूर्ति
परमात्मा तक पहुंचने में बाधा है, पहुंचाना है लोगों तक। फिर
इस खयाल को पहुंचाने के लिए वे इतने दीवाने हो गए कि इस बात की फिकर ही छोड़ दी कि
जिन लोगों तक पहुंचाना है, कहीं उनकी हत्या तो नहीं हुई जा
रही? कहीं वे दबाए तो नहीं जा रहे? कहीं
उनके साथ हिंसा तो नहीं हो रही? उन्हें विचार इतना
महत्वपूर्ण हो गया कि जिस तक पहुंचाना है, वह कम महत्व का हो
गया। तो सारी दुनिया में आज तक विचारों को पहुंचाने वाले लोगों ने बहुत हिंसा की
है। और वह हिंसा इस कारण हो सकी कि विचार तो बहुत महत्वपूर्ण हो गया और जिस तक
पहुंचाना है उसकी कोई फिकर न रही।
तो
यह खयाल में रखना जरूरी है कि विचार कितना ही महत्वपूर्ण हो, विचार से
भी ज्यादा महत्वपूर्ण वह है जिस तक हमें पहुंचाना है। वह गौण नहीं है। वही
मूल्यवान है। और हम विचार को सिर्फ इसीलिए उस तक पहुंचाना चाहते हैं।
एक
भूखा आदमी है। उसके पास हम भोजन पहुंचाते हैं। भोजन का कोई मूल्य नहीं है, मूल्य तो
उस आदमी की भूख का है। वह भूखा है इसलिए हम भोजन पहुंचाना चाहते हैं। लेकिन अगर
भोजन महत्वपूर्ण हो जाए और वह आदमी भोजन लेने से इनकार कर दे और हम उसके साथ दरुव्यवहार
करने लगें, और जबर्दस्ती पकड़ कर, हथकड़ियां
डाल कर उसको भोजन कराने लगें, तो फिर हमें भोजन महत्वपूर्ण
हो गया और उसकी भूख कम महत्वपूर्ण हो गई। अब तक दुनिया में ऐसा ही हुआ है। विचार
महत्वपूर्ण हो जाता है; जिस तक पहुंचाना है, जो भूखा है, वह कम महत्वपूर्ण हो जाता है।
यह
ध्यान में रखना जरूरी है कि हमारे लिए विचार इतना महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण
तो वही व्यक्ति है--वह जो दुख और पीड़ा में खड़ा हुआ आज का मनुष्य है, वही
महत्वपूर्ण है। उसके उपयोग में आ सके कोई बात तो हम सेवा के लिए तैयार हैं। लेकिन
उस पर कुछ थोप नहीं देना है। कोई फैनेटिक खयाल पैदा नहीं हो जाना चाहिए कि उसे उस
पर थोप देना है। ऐसा अक्सर हो जाता है, सहज हो जाता है,
अनजाने हो जाता है। हमें पता भी नहीं होता। तो वह ध्यान में रखना
जरूरी है। जब काम को बड़ा करने का खयाल पैदा हो गया, तो वह
काम सच में कैसे बड़ा होगा, कैसे उदात्त होगा, उसकी सारी भूमिका भी ध्यान में रख लेनी जरूरी है। तो पहली तो बात यह ध्यान
में रख लेनी जरूरी है।
दूसरी
बात यह ध्यान में ले लेनी जरूरी है कि हम, जो इस दिशा में काम करने वाले
मित्र होंगे, इन मित्रों को बहुत सा आत्म-परीक्षण, बहुत सा आत्म-निरीक्षण करना होगा। आप अकेले हैं तब तक कोई बात नहीं,
आप जैसे भी हैं ठीक हैं। लेकिन जिस दिन आप कोई बात किसी दूसरे तक
पहुंचाना चाहते हैं उस दिन अत्यंत विचार की, अत्यंत निरीक्षण
की जरूरत पड़ जाती है। उस दिन यह बहुत ध्यान रखने की जरूरत है कि मैं क्या बोलता
हूं, कैसे बोलता हूं, क्या मेरा
व्यवहार है। क्योंकि एक बड़े विचार को लेकर जब मैं जा रहा हूं तो मेरे विचार का
उतना ही आदर होगा जितने मेरे व्यक्तित्व और मेरे व्यवहार की गहराई होगी। क्योंकि
मेरे विचार को तो लोग बाद में देख पाएंगे, मुझे तो पहले देख
लेंगे। मैं तो उन्हें पहले दिखाई पड़ जाऊंगा, मेरा विचार तो
मेरे पीछे आएगा। मुझे देख कर वे मेरे विचार और मेरे जीवन-दर्शन के प्रति उत्सुक
होंगे।
तो
जब भी कोई संदेश पहुंचाने के किसी काम में संलग्न होता है तो संदेश पहुंचाना
अनिवार्य रूप से एक आत्मक्रांति बननी शुरू हो जाती है। तब उसका व्यवहार, उसका
उठना-बैठना, उसका बोलना, उसके संबंध,
सब महत्वपूर्ण हो जाते हैं। और वे उसी अर्थ में महत्वपूर्ण हो जाते
हैं जितनी बड़ी बात वह पहुंचाने के लिए उत्सुक हुआ है। वह वाहक बन रहा है, वह वाहन बन रहा है किसी बड़े विचार का। तो उस बड़े विचार के अनुकूल उसे अपने
व्यक्तित्व को जमाने की भी जरूरत पड़ जाती है।
नहीं
तो अक्सर यह होता है कि विचार के प्रभाव में हम उसे पहुंचाना शुरू कर देते हैं और
हम यह भूल ही जाते हैं कि हम उसे पहुंचाने की पात्रता स्वयं के भीतर खड़ी नहीं कर
रहे हैं। इस पात्रता पर भी ध्यान देना जरूरी है।
साधक
का काम उतना बड़ा नहीं है जितना कार्यकर्ता का बड़ा है। साधक अकेला है, अपने में
जीता है, अपने लिए कुछ कर रहा है। कार्यकर्ता ने और भी बड़ी
जिम्मेवारी ली है। वह साधक भी है और जो उसे प्रीतिकर लगा है उसे पहुंचाने के लिए
वह माध्यम भी बन रहा है। तो यह माध्यम का खयाल! और यह माध्यम कैसा हो? यह कैसे लोगों तक पहुंचा सकेगा? छोटी-छोटी चीज से
फर्क पड़ जाता है। एक-एक शब्द से फर्क पड़ जाता है। इधर तो मैं देखता हूं, एक छोटी सी बात थोड़े से और ढंग से कही जाए, किसी के
हृदय में पहुंच जाती है; थोड़े और ढंग से कही जाए, कोई लड़ने को तैयार हो जाता है।
राजा
भोज के दरबार में एक ज्योतिषी आया। उसने राजा भोज का हाथ देखा और कहा कि तू अत्यंत
अभागा व्यक्ति है। अपने लड़के को अरथी पर तू ही चढ़ाएगा। अपनी पत्नी को भी अरथी पर
तू ही चढ़ाएगा। तेरे सारे लड़के, तेरी सारी लड़कियां--तू ही उनको मरघट तक
पहुंचाएगा। उस भोज ने क्रोध से उस ज्योतिषी को हथकड़ियां डलवा दीं और कहा, इसको जाकर जेलखाने में बंद कर दो। कैसे बोलना चाहिए, यह भी इसे पता नहीं है। यह क्या बोल रहा है पागल!
कालिदास
बैठ कर यह सारी बात सुनते थे। जब वह ज्योतिषी चला गया तो कालिदास ने कहा कि उस
ज्योतिषी को पुरस्कार देकर विदा कर दें।
राजा
ने कहा, उसे पुरस्कार दूं? सुनते हो तुम उसने क्या कहा था!
कालिदास
ने कहा कि क्या मैं भी आपका हाथ देखूं? कालिदास ने हाथ देखा और कहा कि आप
बहुत धन्यभागी हैं। आप सौ वर्ष के पार तक जीएंगे। आप बहुत लंबी उम्र उपलब्ध किए
हैं। आप इतने धन्यभागी हैं कि आपके पुत्र भी आपकी उम्र नहीं पा सकेंगे, पीछे छूट जाएंगे।
राजा
ने कहा, क्या यही वह कहता था?
कालिदास
ने कहा, यही वह कह रहा था, लेकिन उसके कहने का ढंग बिलकुल ही
गड़बड़ था।
भोज
ने उसे एक लाख रुपये देकर ईनाम दिया, और उसे विदा किया सम्मान से। और
उससे जाते वक्त कहा, मेरे मित्र, अगर
यही तुझे कहना था तो ऐसे ही तूने क्यों न कहा? तूने कहने का
ढंग कौन सा चुना था!
जोसुआ
लिएबमेन करके एक यहूदी विचारक और पुरोहित था। उसने संस्मरण लिखा है कि जब मैं युवा
था और पहली दफा गुरु के आश्रम में शिक्षा लेने गया, तो मेरा एक मित्र भी मेरे
साथ था। हम दोनों को सिगरेट पीने की आदत थी। हम दोनों ही परेशान थे कि क्या करें,
क्या न करें? सिर्फ एक घंटा मोनेस्ट्री के
बाहर ईश्वर-चिंतन के लिए बगिया में जाने को मिलता था, उसी
वक्त पी सकते थे सिगरेट, और तो कोई मौका नहीं था। लेकिन फिर
भी यह सोचा कि पीने के पहले गुरु को पूछ लेना उचित है। तो मैं और मेरा मित्र दोनों
पूछने गए। जब मैं पूछ कर वापस लौटा तो मैं बहुत क्रोध में था, क्योंकि गुरु ने मुझे मना कर दिया था। और जब मैं बगीचे में आया तो मेरा
क्रोध और भी बढ़ गया, मेरा मित्र तो आकर बेंच पर बैठा हुआ
सिगरेट पी रहा था। मालूम होता है गुरु ने उसे हां भर दी है। यह तो हद अन्याय हो
गया था। मैंने जाकर उस मित्र को कहा कि मुझे तो मना कर दिया है उन्होंने, क्या तुम्हें हां भर दी है? या कि तुम बिना उनकी हां
किए ही सिगरेट पी रहे हो?
उस
मित्र ने कहा कि तुमने क्या पूछा था?
लिएबमेन
ने कहा, मैंने पूछा था कि क्या हम ईश्वर-चिंतन करते समय सिगरेट पी सकते हैं?
उन्होंने कहा कि नहीं, बिलकुल नहीं। तुमने
क्या पूछा था?
उसने
कहा, मैंने पूछा था कि क्या हम सिगरेट पीते समय ईश्वर-चिंतन कर सकते हैं?
उन्होंने कहा, हां, बिलकुल
कर सकते हो।
ये
दोनों बातें बिलकुल एक थीं: ईश्वर-चिंतन करते समय सिगरेट पीएं या सिगरेट पीते समय
ईश्वर-चिंतन करें। लेकिन दोनों बातें बिलकुल अलग हो गईं। एक बात के उत्तर में उसी
आदमी ने इनकार कर दिया,
दूसरी बात के उत्तर में उसी आदमी ने हां भर दिया। निश्चित ही कौन
स्वीकार करेगा कि ईश्वर-चिंतन करते समय सिगरेट पीएं? कौन
अस्वीकार करेगा कि सिगरेट पीते समय ईश्वर-चिंतन करें या न करें? कोई भी कहेगा कि अच्छा ही है। अगर सिगरेट पीते समय भी ईश्वर-चिंतन करते हो
तो बुरा क्या है, ठीक है।
उस
दूसरे युवक ने कहा कि पहले मेरे मन में भी वही पूछने का खयाल आया था, क्योंकि
सीधी बात वही थी। लेकिन फिर तत्क्षण मुझे खयाल आया कि भूल हो जाएगी। अगर मैं पूछता
हूं कि ईश्वर-चिंतन करते समय सिगरेट पी सकता हूं, तो मैंने
पहले ही जान लिया था कि उत्तर नहीं में मिलने वाला है।
लिएबमेन
ने लिखा है कि फिर मैंने जिंदगी में बहुत बार इसका प्रयोग किया। और तब तो
धीरे-धीरे मुझे समझ में आया कि दूसरे आदमी से हां या न निकलवा लेना उस आदमी के हाथ
में नहीं, तुम्हारे हाथ में है। वह दूसरे आदमी को पता भी नहीं चलता कि तुमने कब उससे
हां निकलवा ली है या कब तुमने न निकलवा ली है। और अगर दूसरा आदमी न करता है,
तो सोच लेना कि हमसे कहीं कोई भूल हो गई है। हो सकता है हमारे भाव
बिलकुल सही हों, हमारा खयाल सही हो, सिर्फ
हमारा मौजूद करने का ढंग गलत हो गया होगा। अन्यथा इस दुनिया में कोई भी आदमी न
करने को तैयार नहीं है। हर आदमी हां करना चाहता है। लेकिन हां कहलवाने वाले लोग,
उनकी तैयारी, उनकी समझ, उनकी
सूझ, उस सब पर निर्भर करता है कि हम कैसे मौजूद करते हैं।
जब
एक क्रांतिकारी दृष्टि को हजारों साल की रूढ़ियों से बंधे हुए समाज के सामने ले
जाना हो, कैसे एक बड़ा काम खड़ा करना हो, एक विश्व-केंद्र खड़ा
करना हो जहां से कि धीरे-धीरे वह खयाल जीवित मनुष्यों को बदलने के लिए सक्रिय हो
सके--तो कैसे?
रुपया
नहीं है उतना महत्वपूर्ण,
क्योंकि रुपया भी आ जाए और अगर दो-चार गलत आदमी भी उस केंद्र के
दरवाजों पर खड़े हैं, तो सब रुपया व्यर्थ हो जाएगा। वह कोई
मतलब का नहीं है। और यह भी सवाल नहीं है कि आप किसी से रुपया ले आएं। रुपया ले आया
जा सकता है। सवाल तो यह है कि उस रुपये के साथ, जिससे आप
रुपया लाए हैं, उस आदमी का हृदय भी आ जाए। नहीं तो ऐसा रुपया
लाने की कोई जरूरत नहीं है। कई बार तो हम सिर्फ पीछा छुड़ाने के लिए रुपया दे देते
हैं कि कोई हटे, टले यहां से। ऐसा रुपया तो लाना ही नहीं है
वहां। क्योंकि यह रुपया बहुत महंगा है, एक आदमी को खोकर हम
रुपया लाए।
वह
जो देता है, वह देकर आनंदित हो और अनुभव करे निरंतर कि मैंने कम दिया, ऐसी पूरी भाव-भूमि हम उसके लिए खड़ी कर सकें। रुपये का ही नहीं--और श्रम,
और बुद्धि, साथ-सहयोग, जो
कुछ भी हम किसी से लेते हैं, उसे लगे कि जो व्यक्ति लेने आया
था, जिस काम के लिए लेने आया था, उसके
लिए यह बहुत कम था और मेरी असमर्थता थी कि मैं पूरा नहीं साथ दे सका। और उसके मन
में खयाल रहे कि वह कल साथ देने के लिए आतुर हो।
तो
इस सबके लिए एक भाव-भूमि,
वे लोग जो कार्य के संदेश-वाहक बनते हैं--किसी भी कार्य के--उनकी
पूरी भाव-भूमि, उनकी पूरी पात्रता, उनका
पूरा प्रशिक्षण, उनका पूरा खयाल, उनके
विचार, उनकी सारी बातें। संबंधित होना एक कला है, किसी व्यक्ति से संबंधित होना बहुत बड़ा आर्ट है।
कठिनाई
हमें मालूम पड़ती है कि एक करोड़ कठिन बात होगी। कठिन इसलिए नहीं मालूम पड़ती, कठिन
इसलिए मालूम पड़ती है कि हमें संबंधित होने की कला का कोई बोध नहीं है। इसलिए बहुत
कठिन मालूम होता है। संबंधित होना बड़ी सूझ और समझ की बात है। हम तो किसी से टूटना
बहुत आसानी से जानते हैं। किसी से जुड़ना बहुत कठिन है। हम घृणा करना बहुत आसानी से
सीख लेते हैं, प्रेम करना नहीं। शत्रु बनाना एकदम सरल है,
सवाल तो मित्र बनाने का है। और एक आदमी उतना ही सफल जीवन और कलात्मक
ढंग से जीया, जिसके मित्र रोज बढ़ते चले गए हों। जो मरते समय
कह सके कि मेरे इतने मित्र हैं पृथ्वी पर जिसका कोई हिसाब नहीं!
लेकिन
आमतौर से उलटा होता है। बचपन में मित्र बहुत होते हैं, बूढ़े
होते-होते कम होते चले जाते हैं। बचपन की बहुत याद आती है कि बहुत मित्र थे,
सब अच्छा था। धीरे-धीरे आदमी बूढ़ा होता है, मित्र
कम होते चले जाते हैं। जीवन के जीने में, संबंधित होने की
कला में कोई कमी रह गई होगी, अन्यथा मित्र बढ़ते चले जाना
चाहिए। जो भी संबंधित हो वह मित्र हो जाना चाहिए।
रूजवेल्ट
पहला इलेक्शन लड़ा। तो उसने दस हजार लोगों को व्यक्तिगत नाम से पत्र लिखे। उन दस
हजार लोगों को व्यक्तिगत नाम से पत्र लिखे। उनमें टैक्सी चलाने वाला ड्राइवर भी था, स्टेशन पर
का कुली भी था, होटल का बैरा भी था। उसमें सब लोग थे। हैरान
हो गए लोग! क्योंकि एक बैरे को, एक कुली को, एक ड्राइवर को पत्र मिला रूजवेल्ट का, व्यक्तिगत नाम
से लिखा हुआ--कि मैं तो डरता था कि खड़ा हो जाऊं या न खड़ा हो जाऊं, लेकिन जब तुम्हारा खयाल आया तो मैंने कहा एक वोट तो पक्का है, तो मैं खड़ा हो रहा हूं। तुम्हारी पत्नी की तबीयत अब कैसी है? जब मैं आया था तुम्हारे गांव, उसकी तबीयत खराब थी।
और तुम्हारा लड़का अब बड़ा हो गया होगा, उसकी नौकरी का क्या
हुआ? मेरी कोई जरूरत हो तो मुझे कहना।
दस
हजार बिलकुल सामान्यजनों को जब ये पत्र मिले, तो वे भूल ही गए कि रूजवेल्ट किस
पार्टी का है और नहीं है। क्योंकि इस आदमी ने याद रखा!
वह
किसी स्टेशन पर आता तो पिछली दफे जिसकी टैक्सी में बैठा था उसका नाम लेकर बुलाता
कि फलां आदमी कहां है?
वह अपना मित्र है, परिचित है पुराना, उसी की टैक्सी। वह टैक्सी में बैठ कर पांच मिनट जाता तो पांच मिनट व्यर्थ
नहीं छोड़ता था, पांच मिनट टैक्सी ड्राइवर से दोस्ती कर लेता
था। उससे पूछ लेता कि उसकी पत्नी कैसी है, उसके बच्चे कैसे
हैं और कौन क्या कर रहा है।
रूजवेल्ट
से उसके मित्रों ने कहा,
तुम क्या फिजूल की बातें करते हो?
उसने
कहा, तुम पागल हो। एक मनुष्य से पांच मिनट का मौका मिला है कि मैं उसका मित्र
हो जाऊं और तुम कहते हो कि फिजूल की बातें करते हो। जीवन में मित्रता की संपत्ति
के अतिरिक्त और क्या अर्थ का है? सार्थक क्या है? पांच मिनट एक व्यक्ति मुझे जीवित मिला है, पांच मिनट
मैं चुपचाप पीछे बैठा रह सकता हूं, लेकिन पांच मिनट में मैं
उसके हृदय के निकट भी पहुंच सकता हूं। तो पांच मिनट व्यर्थ खो देने का कोई कारण
नहीं है, उनका मैं उपयोग कर रहा हूं।
तो
रूजवेल्ट ने लाखों की संख्या में मित्र बना लिए। जिनको कुछ भी नहीं दिया। मित्रता
को देने में कुछ देना तो नहीं पड़ता। सिर्फ एक प्रेमपूर्ण खुला हुआ हृदय, सिर्फ
बढ़ाया हुआ एक हाथ, और सब पूरा हो जाता है। शायद सामान्य जीवन
में हमें बहुत जरूरत भी नहीं पड़ती बहुत मित्र बनाने की।
लेकिन
जो लोग किसी विचार को पहुंचाने के लिए उत्सुक हो गए हों, उन्हें
निरंतर मित्रता का दायरा बड़ा होता जाए, इसका खयाल रखना जरूरी
है। जो भी आदमी एक बार संपर्क में आता है वह मित्र बन ही जाए। तो ये जो जिन पर आशा
बांधते हैं, केंद्र के मित्र हैं, साथी
हैं, यह मित्रों का जो समूह है, ये रोज
मित्र बढ़ते चले जाएं और जो भी व्यक्ति निकट आता है वह मित्र बन जाए।
मैं
तो यहां तक हैरान हुआ हूं,
कि जिन घरों में मैं ठहरता हूं उन घरों के जो निकटतम मित्र हैं वे
भी मुझसे परिचित नहीं हैं। क्योंकि वह घर के लोगों ने उन मित्रों को भी मुझसे
मिलाने की कभी कोई फिकर नहीं की है। जिन घरों में मैं ठहरता हूं, उनके मेहमान, उनके परिचित, उनके
संबंधी आते हैं तो वे मुझे मिलाते हैं कि ये हमारे भाई हैं। तो मैं उनसे पूछता हूं
कि दो वर्ष हो गए, इन भाई को कभी तुमने मुझे मिलाया नहीं?
नहीं, कोई खयाल नहीं आया कुछ। इनको कभी लाए
नहीं? नहीं, इनको कुछ मौका नहीं मिला
कहने का। तो बहुत हैरानी होती है।
एक
व्यक्ति जीवन में तो इतने बड़े मित्रों के जगत से संबंधित हो सकता है, एक दफा
खयाल, एक दफा बोध, इस बात का होश मन
में हो, तो हम दस वर्ष के भीतर--आप एक करोड़ रुपया कहते हैं,
एक करोड़ मित्र खड़े कर सकते हैं! कोई कठिनाई नहीं जरा भी, कोई जरा सी अड़चन नहीं। पर वह हमारे खयाल में हो। और मैं आपको ध्यान दिलाना
चाहूंगा, रुपये की उतनी फिकर न करें जितनी मित्रों की फिकर
करें। क्योंकि रुपये तो मित्रों के साथ चले आएंगे। उसका क्या है! उसका क्या उपयोग
है!
लेकिन
मित्रों की हम फिकर न करें और रुपये की हम फिकर करें, तो सब
गड़बड़ हो जाएगा। या मित्र की भी हम इसलिए फिकर करें कि उससे रुपये लेना है, तो भी सब गड़बड़ हो जाएगा। जब भी हम किसी आदमी के पास रुपये लेने जाते हैं
तब हम उस आदमी का अपमान करते हैं, इसका हमें पता नहीं है।
अभी
मेरे एक मित्र की लड़की की शादी हुई। वे बहुत धनी हैं। और यह उनकी लड़की ही थी, लड़का उनका
कोई है नहीं। उस लड़की को जो भी लड़के देखने आए वह इनकार करती चली गई। उसके पिता
परेशान हो गए। मुझे उन्होंने, लड़की को लेकर आए और कहा,
हम बहुत मुश्किल में पड़ गए हैं। यह तो हरेक को इनकार कर देती है। यह
चाहती क्या है?
उस
लड़की ने मुझसे कहा कि अभी तक मुझे ऐसा लड़का नहीं दिखाई पड़ा जो मेरे लिए आया हो। वे
पिता के पैसे के लिए आते हैं। इससे बड़ा मेरा कोई अपमान नहीं हो सकता कि कोई आदमी
धन के लिए मुझसे विवाह करे। वे धन के लिए आते हैं, यह देख कर ही मेरे लिए बात
खतम हो जाती है। जब मेरे लिए कोई आएगा तो मैं तैयार हूं। लेकिन कोई मेरे लिए तो
आए!
तो
जब भी आप किसी के पास उसके धन के लिए जाते हैं तब आप उसका अपमान करते हैं, इसका आपको
खयाल ही नहीं। और जब इस अपमान में वह आपको धन भी देने से इनकार करता है, तो आप बड़े हैरान होते हैं कि बड़ा कंजूस है, बड़ा कृपण
है, दो पैसे नहीं देता। आपको पता ही नहीं, वह पैसे दे कैसे? आप पैसे के लिए वहां गए हुए हैं।
वह जाना इतना अपमानजनक, इतना इनसल्टिंग है किसी भी मनुष्य के
लिए जिसका कोई हिसाब नहीं।
मनुष्य
के लिए जाएं,
पैसा तो आदमी की छाया की तरह आता है, ताकत तो
छाया की तरह आती है। मित्र आ जाएं, उनकी छायाएं आ जाएंगी,
उनको लाने के लिए नहीं जाना पड़ता। लेकिन अगर आप किसी के घर जाएं और
कहें कि आपकी छाया को मैं सभा में आने के लिए आमंत्रित करता हूं, तो फिर हो गया आमंत्रण पूरा! न वह छाया आने वाली है, न वह आदमी आने वाला है!
धन
तो आदमी की छाया है,
यह जब तक हम नहीं समझेंगे तब तक हम भूल में पड़ते हैं। आदमी आता है,
उसके पीछे उसकी ताकत आती है, उसका प्रेम आता
है, उसकी शक्ति आती है, उसकी छाया आती
है। और छाया तब खुशी से नाचती हुई चली आती है, उसे कोई लाने
ले जाने कहीं जाना नहीं पड़ता।
तो
इधर मैं यह प्रार्थना करूंगा कि कहीं ऐसा न हो कि आपको एक करोड़ रुपया इकट्ठा करने
का सीधा खयाल पकड़ जाए। यह सीधा खयाल नहीं है। यह तो मित्र बढ़ाने का सवाल है। यह तो
अधिकतम मित्रों को निकट लाने का सवाल है। रुपये का सवाल ही नहीं है यह, यह मामला
आर्थिक नहीं है। तो वह जो फंड का आपने नाम रखा है, क्या नाम
रखा है उसका? क्या आप कह रहे हैं कुछ गुजराती में?
भंडोर।
भंडोर
नहीं। वह मित्र-संग्रह का नाम रख लें उसका, मित्र-संग्रह का फंड है वह। तो
भंडोर बिलकुल नहीं है। वह बात ही गलत है। वह तो कोई, कोई
उसमें मतलब नहीं है। तो वह जो, जैसे मायाभाई हैं, वे उस फंड कलेक्शन के संयोजक हुए हैं, तो उनको याद
रखना चाहिए कि मित्र-संग्रह करने के संयोजक हुए हैं, वह
पैसे-वैसे का उतना सवाल नहीं है।
वे
तो रेडी हो गए।
हां, वह तो
राजी होना चाहिए। क्योंकि पैसा देने वाले को भी कठिन होता है, मांगने वाले को भी कठिन मालूम पड़ता है। मित्र बढ़ते जाने चाहिए। पैसा-वैसा
तो गौण बात है, वह आ जाएगा, उसमें कोई
सवाल नहीं है बड़ा। हमारे मित्र बढ़ते जाएं, यह हमारे सारे
मित्रों को खयाल रखना है। और हमारा जो भी मित्र है उसको ध्यान रखना है कि एक भी
आदमी जो निकट आता है वह हमारा हो जाए। वह हमारे व्यवहार से, हमारे
संबंध से, हमारे बोलने से हमारा हो जाए। हमारा एक भी शब्द
उसे दूर ले जाने वाला नहीं, निकट लाने वाला बने।
यह
अगर खयाल में रहा,
तो यह कोई कठिन नहीं है, दो साल में इतने मित्र
इकट्ठे होंगे! हमें पता ही नहीं है कि मित्रों को बढ़ाए जाना है, उनका दायरा बढ़ाए जाना है। जो भी आदमी निकट आता है वह मित्र हो ही जाना
चाहिए। यह मौका नहीं चूक जाना चाहिए। वह आदमी आया है, उसका
पूरा सम्मान। और उसका सम्मान इसमें है कि हम उसे मित्र बनाते हैं।
चार
लाख मित्र एक महीने में करना पड़े।
हां, बिलकुल हो
सकता है। यह जो...हमें खयाल ही नहीं है न, हमें खयाल नहीं है,
दिन भर में कौन आदमी कितने लोगों से मिल रहा है, कितने लोगों के निकट जा रहा है, कितने लोगों से
संबंधित हो रहा है।
लेकिन
हम अपने काम से व्यस्त हैं,
काम से मतलब है, मित्रता से तो कोई मतलब नहीं
है। सीधी और सरल मित्रता का हमें खयाल नहीं है। और जब भी कोई आदमी सीधी और सरल
मित्रता का खयाल लेता है, तो जिनको हम बिलकुल कमजोर कहें,
सामर्थ्यहीन कहें, दीन-हीन कहें, वे इतने बल की तरह आने शुरू हो जाते हैं, इतने सबल
होकर आने शुरू हो जाते हैं।
तो
मेरी दृष्टि में एक तो यह आपसे कहना था कि रुपये की बात बहुत महत्वपूर्ण है, इसलिए
कहीं वह इतनी महत्वपूर्ण न हो जाए कि हमारा सारा चित्त उसके आस-पास ही चिंतन करने
लगे। उसे हमेशा मनुष्य से नीचे और मित्रों से पीछे रखना है। एक मित्र अगर बनता हो
रुपया खोकर, तो मित्र बचा लेना, रुपया
खो देना है। और एक आदमी अगर रुपया देकर मित्रता छोड़ता हो, तो
रुपया नहीं लेना है, मित्रता बचा लेनी है। वह ज्यादा
दूरदृष्टि होगी, ज्यादा अर्थपूर्ण होगी, ज्यादा गहरी होगी, ज्यादा फायदे की होगी। तो इस पर
थोड़ा ध्यान देना है।
और
कुछ भय अगर काम करने वाले मित्रों के मन में हों तो काम में पीछे से रुकावट लगती
है, खुद के भीतर से रुकावट लगती है। बाहर से उतनी रुकावट नहीं लगती काम में
जितनी भीतर मेरे कोई भय हो उससे रुकावट लग जाती है। तो भीतर के भय का हमें बिलकुल
ही स्पष्टीकरण कर लेना चाहिए। तो जब यहां इकट्ठे हुए हैं, तो
भीतर कोई भी भय हो हमारे, उसे भीतर छिपा कर नहीं रख लेना
चाहिए। क्योंकि भीतर छिपा हुआ वह मौजूद रहेगा और वह पीछे से खींचता रहेगा, कदम को बढ़ाने में डर देगा कि कहीं यह खतरा न हो, कहीं
यह खतरा न हो, कहीं यह खतरा न हो।
तो
वे सारे भय हमें स्पष्ट कर लेने चाहिए ताकि एकदम अभय मन हो। जितना अभय मन होता है
उतनी तीव्र गति से काम कर पाता है। अगर भय है भीतर तो हम अपने ही हाथ को अपने हाथ
से खींचते रहते हैं। हम खुद डरे रहते हैं। हम कहते भी हैं कि काम करना है और डरे
भी रहते हैं कि कहीं यह भय न खड़ा हो जाए, कहीं यह भय न खड़ा हो जाए।
तो
मुझे लगता है कि सबसे बड़ी जो रुकावट बनती है इस दिशा में सक्रिय होने में, वे भीतर
के भय होते हैं। कई तरह के भय हो सकते हैं। इन सारे भयों पर विचार कर लेना चाहिए।
इन सारे फियर्स को ठीक से समझ लेना चाहिए। और समझ कर बिलकुल निर्भय हो जाना चाहिए।
अगर ये मन में काम करते चले जाते हैं तो आप पाएंगे कि आप अपने ही हाथ से खुद को
रोकने की जंजीरें भीतर खड़ी किए हुए हैं।
जैसे
उदाहरण के लिए एक-दो-चार भय की हम बात कर लें कि क्या भय हो सकते हैं। बहुत तरह के
भय हो सकते हैं। सबसे बड़ा भय...जैसे यहां इतने मित्र इकट्ठे हुए हैं, जब भी
हमें यह खयाल उठता है कि इतना रुपया इकट्ठा करना है, इतना
काम करना है, इतनी व्यवस्था करनी है, तो
एकदम से सीधा सवाल उठता है कि मुझे तो नहीं देना पड़ेगा यह रुपया? मुझे तो नहीं करना पड़ेगा यह? पहला भय मन के भीतर सहज
खड़ा हो जाता है कि इसमें मैं, इसमें मैं कहां? हां, इसमें भय आ जाएगा।
यह
जो भय खड़ा होता है,
यह भय एकदम ही निर्मूल है। निर्मूल इसलिए है कि कोई संकोच से तो
किसी को इसमें जरा भी सहयोग नहीं देना है। अगर किसी मित्र को लगता है कि इसलिए
मुझे भय है, तो उसे उठ कर कह देना चाहिए। जैसे अभी खेतानजी
ने कहा, वह बिलकुल ठीक कहा। उसे कह देना चाहिए कि मैं इसमें
कुछ भी नहीं दूंगा; लेकिन यह काम बढ़े, यह
मैं चाहता हूं। तो मैं जो सहयोग दे सकता हूं वह मैं दूंगा, लेकिन
उसमें पैसा मैं नहीं दे सकता हूं। यह कह कर उसे निर्भय हो जाना चाहिए। फिर वह
निर्भय होकर काम में लगता है, फिर उसे कोई झंझट नहीं रह जाती,
उसे कोई प्रश्न नहीं रह जाता। उसे कोई संकोच पालने की जरूरत नहीं
है। क्योंकि अगर वह संकोच पालता है तो वह पच्चीस तरह के, इस
भय को छिपाए रखने के लिए पच्चीस और बातें करेगा और विचार करेगा और वह उससे
कठिनाइयां खड़ी होंगी।
वह
तो सीधी-साफ बात है। यहां कोई किसी को कोई संकोच से कुछ देना चाहिए सहयोग, किसी भी
तरह का, उसका तो कोई सवाल ही नहीं है। वह उसकी मित्रता का
आनंद हो, यह दूसरी बात है। उसके सामर्थ्य के बाहर हो,
उसकी सीमा के बाहर हो, वह उलझन में हो,
तो उसे यह विचार ही छोड़ देना चाहिए। उसे स्पष्ट कह देना चाहिए कि
मैं इसमें सहमत हूं और यह काम ठीक है और मैं इसमें साथ दूंगा, लेकिन इतना जो मैं नहीं कर सकता हूं वह मैं यह नहीं कर सकता हूं। वह
निर्भय हो जाएगा। ऐसे अगर पचास निर्भय मित्र हैं तो उनके पास बड़ी शक्ति खड़ी हो
जाएगी। या वह कहे कि मैं इतना दे सकता हूं, इतना मैं दे
दूंगा, तो भी निर्भय हो जाएगा। उसमें कोई चिंता और विचार का
सवाल नहीं है।
ऐसे
ही और ढेर सारे भय मन को अनेक-अनेक कोनों से पकड़ना शुरू करते हैं।
तो
जब कार्यकर्ताओं का वर्ग मिले, अगली बार जब हम मिलें, तो
इन सारी बातों पर बहुत स्पष्ट बातें करनी चाहिए। कुछ मित्रों को किन्हीं मित्रों
से कुछ शिकायतें होती हैं, तो वे मुझे अलग से कहते हैं। वह
मुझे पसंद नहीं है। जो भी शिकायत हो, जब हम सब मित्र मिलते
हैं तो हमें कह देनी चाहिए। आखिर मित्र का मतलब ही यह होता है कि अगर उसकी कोई
शिकायत है तो हम उससे कह दें कि यह हमें शिकायत है, इससे काम
को नुकसान पहुंचेगा या काम को बाधा पड़ेगी। तो वह सारी शिकायतों की हमें बात कर
लेनी चाहिए ताकि वे साफ हो जाएं। हो सकता है हम भूल में हों, हमारी शिकायत गलत हो, तो यह साफ हो जाए। हो सकता है
जिस मित्र की हमने शिकायत की है, वह भूल में हो, तो उसकी बात साफ हो जाए।
लेकिन
अगर मन-मन में कहीं हमारे कुछ बातें पलती रहें, तो वे दीवालें खड़ी करती हैं और
जहां हमें इकट्ठा होकर खड़ा होना चाहिए वहां हम इकट्ठा होकर खड़े नहीं हो सकते हैं।
तो
एक बात यह ध्यान में लेनी है कि अगर कोई काम करना है, बड़ा काम
करना है, और एक बड़े सहयोग की जरूरत पड़ेगी, तो जो-जो चीजें सहयोग में बाधा बन सकती हैं उनको तोड़ने की हमें व्यवस्था
कर लेनी चाहिए। अगली बार जब भी हम मिलते हैं तो हमें बहुत आत्म-आलोचना करने के लिए
भी तैयार होना चाहिए। मित्रों की आलोचना करने के लिए भी तैयार होना चाहिए। उनको
दूर करने के लिए हम क्या कर सकते हैं उसकी सूझ-समझ भी हमें पैदा करनी चाहिए। लेकिन
अलग से बात करनी बंद कर देनी चाहिए। और प्रत्येक को यह ध्यान रखना चाहिए कि उससे
ज्यादा महत्वपूर्ण काम है, अगर उस काम में कोई बाधा पड़ती है
तो उसे बदलने के लिए तैयार होना चाहिए कि मैं बदल लूं। कोई भूल-चूक होती है,
उससे तत्काल तैयार हो जाऊं और बदलने को राजी हो जाऊं।
ये
थोड़ी सी बातें अगर हम खयाल में ले लेते हैं तो कोई कारण नहीं है कि हमारी गति पूरी
क्षमता से आगे क्यों न बढ़ सके। और हम जो इरादा करते हैं वह पूरा क्यों न हो सके।
और न केवल वह सफल हो बल्कि सुफल भी क्यों न हो सके। क्योंकि सफलता तो कई रास्तों
से आ जाती है,
लेकिन सुफलता कठिन बात है। अकेली सफलता तो कई तरह से आ सकती है,
हजार रास्ते खोजे जा सकते हैं--जो रास्ते गलत होंगे, काम को सफल बना हुआ दिखा देंगे। लेकिन ऐसी सफलता की कोई आकांक्षा नहीं,
कोई विचार भी नहीं करना चाहिए।
सुफल
कैसे हो? जो फल आएं वे सचमुच शुभ कैसे हों? केवल फल आ जाएं,
इतना काफी नहीं है। एक केंद्र बन जाए, एक
आश्रम बन जाए, एक विद्यापीठ बन जाए, इतना
काफी नहीं है। लेकिन जो हमारे इरादे हैं उनको पूरा करके बने। मेरी दृष्टि में,
अच्छा काम अधूरा भी हो तो भी ठीक है और बुरा काम पूरा भी हो जाए तो
ठीक नहीं। बुरा काम सफल भी हो जाए तो ठीक नहीं, अच्छा काम
सपना भी रह जाए तो भी ठीक है। फिर कोई और होगा जो उस सपने को आगे बढ़ाएगा। कोई हमने
ठेका तो ले नहीं रखा है कि कोई सपने को हम पूरा ही करेंगे। लेकिन वह सपना सुंदर और
शुभ है तो हम प्रयास करें।
और
कोई समझौते के लिए नहीं तैयार होना चाहिए।
जैसे
परमानंद भाई ने कहा कि वे खुश हुए कि मैं किसी खूंटे से बंध गया हूं।
वे
भूल में हैं। वे बिलकुल भूल में हैं। मैं किसी खूंटे से कहीं बंधता नहीं। कोई
बंधने का कारण नहीं है,
कोई बंधने की जरूरत भी नहीं है। बंधने का थोड़ा भी भय होता, तो मैं बात ही नहीं चलाता। बंधने का चूंकि कोई भय नहीं है इसलिए मैं राजी
हो गया हूं। अगर जरा भी भय होता कि इसमें बंधन खड़ा हो जाएगा मेरे लिए, तब तो मैं राजी ही नहीं होता। चूंकि कोई भय नहीं है, क्योंकि बंधन खड़ा ही नहीं हो सकता; इसलिए बंधन का
कोई सवाल नहीं है, क्योंकि मैं कोई समझौता नहीं करूंगा। कल
आप कहेंगे कि वह फलां आदमी एक लाख रुपया देता है तो जरा उसके धर्म के खिलाफ मत
बोलें, तो मैं कोई आपकी बात मानने को राजी नहीं हो जाऊंगा।
कल आप कहें कि वह इतने लोगों ने यह काम किया है इसलिए यह बात मत कहें, तो उसके लिए मैं राजी नहीं हो जाऊंगा। कहीं मैं किसी समझौते के लिए राजी
नहीं हूं। कोई समझौते का सवाल ही नहीं है। इसलिए मैं तो कहीं बंधता नहीं हूं,
कोई बंधन उससे खड़ा होता नहीं। और मैं किसी समझौते के लिए भी राजी
नहीं हूं। मैं जो कह रहा हूं वह मैं कहूंगा और उसको जोर से कहूंगा। और उसको जोर से
कह सकूं इसलिए यह सारा उपाय है। जो कर रहा हूं उसको जोर से कर सकूं। जितनी चोट आज
करता हूं, कल और जोर से कर सकूं। जितना प्रहार आज करता हूं,
कल और जोर से कर सकूं। और उसके लिए ताकत इकट्ठी हो सके कि वह प्रहार
और जोर से किया जा सके, और सबलता से।
और
संन्यासी की मेरी दृष्टि ही ऐसी है कि जो सब बंधन के बीच में भी खड़ा रह कर बंधन
में नहीं होता,
उसी को मैं संन्यासी कहता हूं। जो बंधन से भाग कर और बंधन में नहीं
होता, वह संन्यासी अभी है नहीं। उसके मन में भय है कि कहीं
बंध न जाए, इसलिए भागा फिर रहा है। वह बंधा हुआ है, इसलिए भागा फिर रहा है। उसका चित्त कहीं डरता है, कहीं
अटका हुआ है। जिसका कहीं अटका हुआ नहीं है उसे कोई भय नहीं रह जाता, कोई कारण नहीं रह जाता।
तो
उसमें कहीं, वह कहीं भी मन में खयाल लेने की कोई जरूरत नहीं है कि मैं कहीं बंध रहा
हूं। और जो मैं कह रहा हूं, वह जो मैं कल कहता रहा हूं उसकी
ही तार्किक निष्पत्ति है। कल अभी और बातें आपसे कहूंगा, परसों
और बातें कहूंगा। आपकी भूमिका जैसे तैयार होती चली जाती है उतना मैं आपसे कहना
शुरू करूंगा। जितने दूर तक आप जाने को राजी हो जाते हैं उससे मैं थोड़े और आगे की
बात कहूंगा, ताकि आप और थोड़े दूर जा सकें। शायद यही बात मैं
आपसे दो साल पहले कहता तो शायद आप बंधने को राजी न होते। नहीं आपसे कहा, इसलिए नहीं कि मैं बंधने को राजी नहीं था। दो साल पहले आप तैयार नहीं होते
इसलिए दो साल पहले नहीं कही बात। अभी भी जो बात कही है, दो
साल बाद और बात आपसे कहूंगा। जितने आप राजी होते चले जाएंगे उतनी बात आपसे कहता
चला जाऊंगा।
मेरी
दृष्टि में पूरा खयाल है। लेकिन आप जिस अर्थ में तैयार होंगे उस अर्थ में ही उसे
कहा जा सकता है। अन्यथा उसे कहने का कोई कारण नहीं, कोई प्रयोजन नहीं है। अभी
और बहुत सी क्रांतियों में आपके मन को ले जाने की मैं तैयारी करूंगा। शायद उन
क्रांतियों में बहुत से मित्र डर जाएं और पीछे छूट जाएं। शायद उन क्रांतियों में
बहुत से लोग खयाल भी न करें कि इतनी बड़ी क्रांति की कोई बात होने को थी तो शायद हम
पहले ही रुक जाते।
लेकिन
जितनी बड़ी चुनौती खड़ी होती है उतना ही भीतर बल भी खड़ा होता चला जाता है। और एक
मित्र छूटता है तो दस खड़े हो जाते हैं, अगर चुनौती सत्य हो, वस्तुतः मनुष्य के जीवन को उससे कोई हित होने को हो।
तो
मैं कोई फूलों का रास्ता आपके लिए नहीं बता रहा हूं। उस पर और कांटे आने को हैं।
और मुझे पूरा पता है। लेकिन अगर आपके हृदय में यह खयाल आ गया हो कि देश की चेतना
को और मनुष्य की चेतना को बदलने की कोई जरूरत आ गई है; आपने अपने
दुख और पीड़ा से यह अनुभव किया हो--चारों तरफ के उपद्रव, चारों
तरफ की उच्छृंखलता, चारों तरफ का जीवन जो छिन्न-भिन्न हो गया
है, सब तरफ से जिसकी सारी जड़ें हिल गई हैं, सब तरफ कुम्हला गया, ऐसा लगता हो कि इसमें कोई नये
प्राण डाले जा सकते हैं--तो साहस से उसके प्रति कदम उठाना जरूरी है।
जितने
आप तैयार होंगे उतने बड़े साहस के लिए मैं आपसे कहना शुरू कर दूंगा। सर्वांगीण जीवन
में क्रांति हो,
वह मेरे खयाल में है। धर्म से मैंने चर्चा शुरू की है, क्योंकि धर्म सबसे केंद्रीय तत्व है। और धर्म में क्रांति करने को जो राजी
हो जाता है, मेरी मान्यता है, वह किसी
भी चीज में क्रांति करने को राजी हो जाएगा। क्योंकि वह प्राणों का केंद्रीय मोह
है। अगर उस पर कोई क्रांति करने को राजी हो गया तो फिर और जिंदगी के किसी मसले पर
वह डरने वाला नहीं है। इसलिए उससे बात शुरू की है। जो लोग उसके लिए राजी हैं वे और
चीजों के लिए भी राजी हो जाएंगे, यह मेरी समझ है।
अंत
में एक बात कहूंगा,
उसी संबंध में सुबह भी हम फिर चर्चा कर सकेंगे।
यह
सारी कारोबारी बात हुई। इस सारी बात में, जैसे मैंने कल सांझ को आपसे कहा कि
सेल्फ-सेंटर्ड, वह जो बिलकुल स्व-केंद्रित हो जाता है,
वह भूल है, खतरनाक है; लेकिन
इसका मतलब, इसका मतलब यह नहीं है कि काम में उलझ जाना है
पूरा और उसे भूल जाना है जो हम स्वयं हैं। काम भी इसलिए है ताकि दूसरों के भीतर जो
स्वयं छिपा है उसकी हम उसे याद दिला सकें। तो हम उसे भूल जाएं तो खतरनाक है।
विनोबा
के काम में सैकड़ों बहुत निष्ठाशील लोग आए। और दस वर्षों के, बारह
वर्षों के, पंद्रह वर्षों के अनुभव से सिर्फ दुख और विषाद से
भर कर धीरे-धीरे वापस होने लगे। उनमें से अनेक लोगों ने मुझसे कहा कि हम जिस खयाल
से आए थे, तो विनोबा ने तो हमें एक काम में लगा दिया,
वह खयाल तो एक तरफ रह गया। हम आए थे अपनी आत्म-उपलब्धि के लिए,
आत्म-शांति के लिए, आत्म-ज्ञान के लिए,
वह एक तरफ रह गया और हमें एक काम में लगा दिया। ये पंद्रह वर्ष
हमारे निकल गए। और हमें ऐसा लगता है कि यह तो ठीक था, एक
दुकान वह थी जो हम करते थे, एक दुकान यह थी जो की, लेकिन इससे हुआ क्या? हमें क्या हुआ?
तो
इस संबंध में कल सुबह आपसे मुझे कहना है। यह ध्यान रखना है कि आप इस काम में कितने
ही उत्सुक हो जाएं,
लेकिन वह गौण है, वह प्रमुख नहीं है। प्रमुख
तो वह है कि आपके जीवन में आलोक, आनंद अवतरित हो। वह हो तो
आप बांट सकेंगे। वह न हो तो आप बांट भी नहीं सकेंगे।
तो
हमें ऐसा कार्यकर्ता नहीं चाहिए जो साधक न हो। उस कार्यकर्ता की हमें कोई जरूरत
नहीं है। क्योंकि आज नहीं कल वह कार्यकर्ता दुखी होगा, परेशान
होगा और सारा जिम्मा वह हम पर थोप देगा कि हमें एक काम में उलझा दिया और हम तो
इसमें खो बैठे।
पूना
के ही एक मित्र,
माणिक प्रभु, वे विनोबा के पास गए। पहले वे
रामकृष्ण मिशन में गए, तो उन्होंने उन्हें एक अस्पताल में
लगा दिया। तो उन्होंने दो-चार वर्ष अस्पताल में सेवा की। फिर उनको लगा, भई ठीक है, यह तो किसी अस्पताल में भी हम कर लेते,
लेकिन इससे हुआ क्या? इससे तो हम कहीं गए नहीं,
मैं तो वही का वही हूं। वे वहां से छोड़ कर विनोबा के पास गए। विनोबा
ने कहा कि तू दस साल की पैदल यात्रा कर पूरे मुल्क की और मेरा साहित्य ले जा और
गांव-गांव में साहित्य पहुंचा दे। वे बेचारे साहित्य का झोला लेकर गांव-गांव घूमने
लगे। दो साल घूम चुके। अभी वे एक तीन दिन पहले जबलपुर आए और मेरे पास आए। तो मैंने
उनसे पूछा कि यह तो दूसरी अस्पताल शुरू हो गई। ठीक था, जब
दो-चार साल में अनुभव किए कि यह तो अस्पताल है, ठीक है,
इससे हुआ क्या? तो गीता-प्रवचन बेच कर क्या हो
जाएगा? या मैं तुमसे यह गीता-प्रवचन
छीन लूं और साधना-पथ पकड़ा दूं और क्रांतिबीज पकड़ा दूं कि जाओ गांव-गांव इसको बेचो
दस साल तक। तो क्या होगा?
तो
मैंने उनको कहा कि जैसे वे अस्पताल के दिन फिजूल गए, ये भी दस साल फिजूल चले
जाएंगे, अगर यह खयाल न हो आपको कि यह गौण है और केंद्रीय बात
कुछ और है और उसे भूल नहीं जाना है। नहीं तो क्या पहुंचाएंगे लोगों तक? पहुंचाने का सवाल कहां है?
तो
साधक प्रथम है और उसका कार्यकर्ता होना एकदम द्वितीय है। और अगर दोनों में से खोना
हो, तो कार्यकर्तापन को खो देना, साधकपन को मत खोना।
तो
इस संबंध में कल सुबह आपसे बात करूंगा, क्योंकि अंतिम जाने के पहले वह बात
कर लेनी जरूरी है। नहीं तो इन तीन-चार बैठकों से कहीं आप एकदम कार्यकर्ता होकर लौट
जाएं, तो वह भारी नुकसान हो गया। वह फिर, वह तो बहुत भारी नुकसान हो गया। तो कल सुबह उसके बाबत हम थोड़ी बैठ कर बात
कर लेंगे।
लेकिन
यह ध्यान में रहना चाहिए कि साधक हैं आप, कार्यकर्ता होना बिलकुल गौण बात
है। अगर वह खोती हो तो खो सकती है, लेकिन साधक होना नहीं खो
सकता, किसी मूल्य पर नहीं खो सकता। साधक होते हुए अगर कोई
काम आपसे बन सकता है, उसे जरूर करें, उसे
जरूर पहुंचा दें। आत्मा रहे तो शरीर रह सकता है, शरीर अकेला
रह जाए तो उसका कोई मूल्य नहीं है।
तो
हिंदुस्तान में यह भूल बहुत दफे हो चुकी है, रोज होती है। और आप जल्दी से
कार्यकर्ता बन सकते हैं, यह मैं जानता हूं। यह कठिनाई नहीं
है। यह एकदम सरल बात है। सवाल तो साधक बनने का कठिन है। कार्यकर्ता बनने का तो
एकदम सरल है, उसमें क्या कठिनाई है! और कोई दूसरा काम न करके
यह काम आप कर लेंगे। इससे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। बहुत लोग मिल जाएंगे आपको जो
कि काम करने को एकदम तैयार हो जाएंगे।
लेकिन
ध्यान रहे, क्रिया अक्रिया के केंद्र पर हो तो ही अर्थपूर्ण है, तो ही आध्यात्मिक है, नहीं तो नहीं। तो वह हम जो
केंद्र भी बना रहे हैं वह अक्रिया सिखाने को बना रहे हैं। तो कहीं ऐसा न हो कि आप
कार्यकर्ता हो जाएं। तब तो मामला खतम हो गया, उस केंद्र को
बना कर हम क्या करेंगे! वह फिजूल हो जाएगा। उसका कोई मूल्य नहीं रह जाएगा। उसकी
बात हम कल सुबह करेंगे।
आज इतना ही।
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